[PDF]Kavita Kaumudi Hindi Part 2 1927 Prayag Hindi Mandir

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कविता-कौमुदी |


दूसरा भाग--हिन्दी


सम्पादक


रामनरेश लिपाठी .


कि कचेस्तस्य काव्येन कि काण्डेन धनुष्मतः |
परस्य हृदये लग्नं न घूणेयति यच्छिरः॥


अकारक


हिन्दी-मन्दिरि, प्रयाग


-In Public Domain, Chambal Archives, Etawah “Ro


= J
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हिन्दो-प्रचार के प्रमुख उद्योगी


सेठ जमनालाल बजाज
को


समर्पित


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Sarayu


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a}
खड़ी बोली की कविता का संक्षिस इतिहास
कवि-नामावला


विषय


३--ह स्श्रिन्द्र S
२--बद्रीनारायण चौधरी `

३--विनायकराव

'३--प्रतापनारायण सिञ्च ...
७---विजयानन्द लिपाठी ... ET
६--अस्बिकादत्त व्यास ... ass
७--छाला सीताराम

८--नाथूराम शङ्कर दमा
९--जगन्नाथप्रसाद “भानु?


१०---औघधर पाक ... wea
११--सुधाकर द्विवेदी 3
१२--शिवेसम्पति E कि
१३---महावोरपरसाद द्विवेदी `

१४--अयेध्यासिंह उपाध्यायः

१५---सधाकृष्णदास

१६--बाल्मुकुन्द गुप्त. ...

१७--किशोरीछाल गोस्वामी


१८--छाछा भगवानदीन ... ine
१९--जगनन्‍नाथदास (रत्नाकर) `` abs


sone ८०


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( ६.)


२४-- जगन्नाथप्रसाद्‌ चतुवेदी
२५--कामताग्रसाद गुरु
' २६--मिश्रबन्धु -
२७--गिरिधर शर्मा
२८--रामदास गोड
२९--माधव IS
३०--गयाप्रसाद BS शः
३९--रूपनारायण पाण्डेय ... es
३२---रामचन्द्र TS,
३३--सत्यनारायण wat
३४--मन्नन द्विवेदी ae
३५--मैथिलीशरण गुप्त , ...
३६--छोचनग्रसाद पाण्डेय. .
३७---छक्ष्मीधर बाजपेयी ...
३८--शिवाधार पाण्डेय ...
३९--माखनलाल चतुवेदी .... ae
३२-जयशाङ्गरम्रसाद « ... wee
» ४१ सिंह see deena
४२--बदरीनाथ भट्ट 3
s २३--सियारामशरण गुप्त ...


ibal Archives, Etawah —


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खड़ीबोली की कविता का
संक्षिप्त इतिहास


खड़ीबोली का स्वरूप.


खड़ीबोली उस भाषा का एक नाम हे जिसे आजकछ हिन्दी कहते
हैं। प्रायः यह नाम हिन्दी-कविता की भाषा के लिये अधिक भयुक्त होता है ।

कुछ छोगों का यह गलत खयाल है कि खड़ीबोली 'जजभाषा से
. निकली हे । उदू के सुप्रसिद्ध लेखक मौलाना मुहम्मद्हुसेन आजाद ने भी
: ऐसी भूल की हे । उन्होंने अपने ema’ में उर्दू A ब्रजभाषा की
बेटी लिखा हे.। यद्यपि उदू हिन्दी सें कोई . भिन्न भाषा wet | बल्कि उसी
का एक मुसलमानी नाम हे | खड़ीबोली, जिसका अंसली नाम हिन्दी
हे, बहुत प्राचीन भाषा है । ्रजभाषा और खड़ीबोछी ` दोनों का किसी
समय प्राकृत से साथ ही साथ निकास हुआ था। भाषा के विद्वानों का
अनुमान हे कि विक्रम की सातवीं-आठवीं शंताब्दी में हिन्दी अपनी जननी
प्राकृत की गोद से अलग हुईं थी । अतएव AST के उद्गम का भी
यही समय समझिये | हिन्दी दिल्ली और मेरठ के आसपास बोली जाती
रही हे और ब्जभाषा का विकास बज में हुआ हे o

हिन्दी का खड़ीबोली नाम कब और क्‍यों पड़ा ? इसका ठीक ठीक पता
नहीं चलता । सं० १८६१ में veggies ने अपने, प्रेमसागर की
भूमिका में उंस बोली का. नाम, जिसमें प्रेमसागर लिखा गया हे, खड़ी: :
'बोली लिखा हे । यह नाम उनका GET हुआ नहीं. जानं पड़ता | बल्कि
आगरे और उसके आसपास उस समय,हिन्दी का यह प्रचलित नाम रहा”
, होगा। उन्होंने..उसी का उल्लेख - किया हे । खड़ीबोली नाम क्यों पढ़ा ?
ae भी स्पष्ट नहीं हे । खंडी, पडी, BA, बैठी यह नाम किसी भाषा का नहो _


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(<)

THA जा सकता | खड़ी के अंदर कोई न कोई गूढ़ अर्थ अवझ्य्र सन्निविष्ट
है । कोई कोई खड़ी को खरी करके उसका अर्थ स्पष्ट और साफ साफ करते
हैं । अथात्‌ जो खरी खरी सुना दे वह खरी वोली | खरी को लोगों ने पीछे
से खड़ी कर ल्या । खड़ी होने पर वह चल निकली । जो हो, हिन्दी
Weg कहने से कविता में जभापा ओर खड़ीबोळो दोनों का वोध होता
. हे। इसलिये हिन्दी-कविता की भाषा का एक अलग नाम रखने की आवश्य-
कता समझी गई | नहीं तो हिन्दी का खड़ीबोली या उदू नाम अलग रखने
की कोडे जरूरत नहीं थी ।. .

अमीर खुसरो के समय में उस समय की प्रचलित भाषा का नाम
हिन्दी ही था, न उदू.था न खड़ीबोली । एक उदाहरण छीजिये--

` फारसी बोळे आईना | तुर्की बोले पाइना।

हिन्दी बोलते आरसी आये । मुँह देखे जो इसे बताये ॥

इससे जान पढ़ता; है कि तेरहवीं शताब्दी मे. ही हमारी भाषा का
हिन्दी नाम पड़ चुका था | अतएव उसी नाम को महत्व देना चाहिये ।
हिन्दी शब्द में हमारे देश का नाम व्याप्त हे । इससे हमें अपनी भाषा
के इस प्राचीन ओर सारगभिंत नाम को हो प्रचार में लाना चाहिये ।
हिन्दी में हिन्दुस्तान को भाषा . होने का गौरव हे और ब्रजभाषा में बज
की । पर खड़ीत्रोली के खडे होने के लिये कहीं ठिकाना नहीं है । अतएव
इस नाम को अब धीरे धीरे छोड ही देना चाहिये । :


खड़ीबोली at कविता at परम्परा


खड़ीबोली के'सब से पहले कवि अमीर खुसरो हैं जो तेरहवीं सदी
में हुये थे उनकी बहुत सी कविताएँ खड़ीबोली में हैं । कुछ उदाहरण
आगे दिये जाते है. :
- Go)
खीर पकाई जतन से rar दिया जला | i
` 'आया कुत्ता खा गया , त्‌ बेटी ate बजा ॥ ह


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हट“ S


|
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( ५९ )
(२)


वीसों का सिर काट लिया । ना मारा नाखन किया।
खुसरो के बाद सादी, वली, मीर आदि ` मुसळमान कवियों ने इस
भाषा सें रचनाये' कीं । इनके भी उदाहरण यहाँ दिये . जाते हैं--
हम तुमन को दिल दिया.
तुम दिछ छिया ओ दुख दिया ।
हम यह किया तुम वह किया
ऐसी wet वह पीत हे ॥ सादी
ऐ वळी ! रहने को दुनिया में मकामे आशिक ।
कूचए यार हैं या गोशए तनहाई हे॥ चली
शाम से कुछ बुझा सा रहता हे ।
Re हुआ है चिराग मुफलिस का ॥ मीर
हिन्दू कवियों में सब से पहले कबीर का नाम आता है, जिन्होंने खडी-
बोली में भी अपने पद, साखी और tag कहे हैं । जैसे- |
TEA कर GEA कर फ्हम कर मान यह फहम विन फिकिर नहि" मिटै तेरी ।
सकल उजियार दीदार दिल बीच हे जौक औ शौक सब मौज तेरी.॥
कबीर का समय do १४५५ से प्रारं भ होता हे । कत्रीर के बाद गुरु
नानक ने भी खड़ीबोली में कुछ पद कहे । गुरु नानक का समय do
१५२६ से १५५९५ तक हे | एक पद सुनिये--
सोच विचार करे मत मन में
जिसने दू ढ़ उसने पाया ।
नानक भक्तन के पद. परसे
निसदिन रामचरन चित लाया ॥
do १६१० में रहीम हुये । रहीम ने खड़ी बोली में मदनाष्टक लिखा
था। उसका एक पद्य यह हे--
कलित ललित माला , वा जवाहिर जड़ा था।
चपल चखन : वाला , चाँदनी में खड़ा था॥. 75


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(0),


करि तट बिच मेला , पीत सेला नवेला।
अलि बन अळवेला , यार. मेरा अकेला ॥
. भूषण का जन्म do १६७० में हुआ | भूपण ने भी कहीं कहीं खडी-
बोल्टी का प्रयोग किया है । एक उदाहरण छीजिये:--
बचैगा न समुहाने agate खाँ. अजाने
तुझ ते wag तेरा we सलहेरि पास
कैद किया साथ का न कोई. वीर गरजा ॥
भूषण के समय में तो खड़ीबोली का अचार दक्षिण में बहुत काफी
रहा होगा । क्योंकि यही उस समय की राष्ट्रभाषा थी । देश के चारों
ओर के लोग दिल्ली आया करते थे। उनको तो दिल्ली की उस समय की
भाषा बोलनी ही पड़ती होगी.। कम से कम शिवाजी महाराज तो हिन्दी के
अच्छे जानकार रहे ही होंगे । तभी तो वे भूषण की . कविता aaa और
उस पर अपना इषं प्रकट करते थे। . ..
अठारहवीं सदी में सूदन हुये सृदन ने अपने सुजान-चरित में कई
स्थानों पर खड़ीबोली में कविता लिखी हे. । एक कवित्त उदाहरणार्थ यहाँ
दिया जाता हे-- ,
` FES सराय से - रवाने बुआ. वूवू. करो p
ब pi मुझे अफुसोस बड़ा बडी.बीबी जानी का ।
आलम में AQA चकत्ता का घराना . यारो,
जिसका हवाल हे तनेया जैसा तानी का ॥
खने खाने बीच से अमाने : छोग . जाने. लगे
आफत ही जानो हुआ ओज दहकानी का ।
रब की रजा हे हमें सहना «बजा: हे
"` ` ` ` वक्त हिन्दू का गजा हे आया छोर तुरकानी का॥
Ho १७८० के छगभग सीतल का समय हे सीतल ने भी अपने
TRAN चमन में खड़ीबोली सें रचना की हे । जेसे-- .
हम खूब तरह, a जान गये जसा: आनद का कंद. किया |


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( ११ )


रूप सील युन तेज पुञ्ञ at ही तन में बंद किया ॥
तुझ हुस्न प्रभा.की वाकी ले फिर विधि ने यहः फरफंद किया ।.
चस्पकदळ सोनजुही नरगिस चामीकर चपला चंद ' किया॥
ग्चाळकवि:का समय Go १८४८ से .१९२८ तक है । सवाल Aw
खडीवोली में रचना की है। उनका एक कवित्त यहाँ: दिया जाता है--
दिया हे खदा ने wa खशी करो ग्वाल कवि
खाओ पिओ देओ लेओ यही रह जाना है,।
राजा _ राव उमराव: केत्ते बादशाह: समे ; >
कहाँ से कहाँ का. गये:लग्या ना ठिकाना हे ॥
.ऐेसी जिन्द॒यानी के , भरोसे पे गुमान पेसे
' देश . देश घमि घसि aa बहलाना हे ।
आये. . परवाना. पर ; चले. न .. बहाना, :
l यहाँ नेकी कर जाना फिर आना है न जाना है ॥
ग्वाल के वाद और, सी कुछ कवियों ने खड़ीबोली में रचनायें की हैं ।
पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के. समय - से तो खडीबोळी की पतली . घारा ने
नदी का रूप. .धारण.कर छिया है.। हरिश्चन्द्र: ने खड़ीबोळी की कविता
का युरा ही. बदूल दिया.। उनके. बादु के:. कवियों ने खड़ीबोली का ऐसा
अपनाया कि ब्रजभाषा के हिसायतियों को-भय होने लगा कि कहीं बजभाषा
का प्रभाव संद.न पड़ जाय | आजकछ सचमच ATMA . का प्रचार. एक
प्रकार से बंद सा हो गया है। 3
ऊपर के.उदाहरणों ..के , देने का हमारा -अभिम्नाय यह. है कि खड़ी
बोली की प्राचीनता के सम्बन्ध सें. छोगों.का अम दूर हो जाय ।


अजसाषा:: और खडीबोली.


«एक समय था. जब बजभाषा.- ही 'हिन्दी-कविता. की भाषा थी | बज
से:सैकदों-हजारों मील दूर रहने वाळे. कवि भी )-ब्रजभाषा में कविता रचते
थे ।.अबर-भी Ani. कवि. 88 होंगे, . जिन्होंने. न. कमी ब्रज की सेर की


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( १२)


होगी और न कभी घर में ही ब्रजभाषा का अध्ययन किया होगा, पर वे
ब्रजभाषा में कविता रचते ह । ऐसी योग्यता उनमें कहाँ से आ जाती हे?
यह है घजभाषा Sage प्रचार ; का परिणाम । ब्रजभाषा की श्र और
भक्ति विषयक कविताओं a हिन्दुओं के .घर-घर में. पेसा प्रचार है
कि उनके द्वारा छोगों को ्जभाषा का कुछ न कुछ ज्ञान आप से आप होता
रहता है।
कुछ लोग. खड़ीबोंढी के ब्रजभापा के प्रचार में वाधक वतलाते
हैं। हमारी समझ में ब्रजभाषा का “समय अव गया | उसमें कवि लोग
अच्छी से अच्छी और बुरी से बुरी दोनों प्रकार की कविताएँ रच चुके ।
अब उसमें gee नहीं कि वह और कुछ” me हजम
कर सके । ' थोडे ही दिनों में संस्कृत की तरह उसका भी हाल होने
वाछा हे । भाषा में परिवर्तेन होता ही रहता है, इसके लिये दुःखी
- होनां और अन्य उन्नतिश्ीछ भाषाओं को कोसना विचार-हीनता है । समय
आप से आप भाषा को अपने अनुकूल बना लेता हे । जब देश में वैभव
था, छोग सुखी थे, तब शङ्गार रस और भक्ति की कविता के लिये सुमधर
ब्रजभाषा की जरूरत थी । अव देश पराधीन है, भूख से व्याकुळ है, अव
TAT रस अच्छा नहीं लगता । अतएव कोमळ भाषा की भी जरूरत नहीं
है । अब तो जाग्रत करने वाली,: हृदय में उत्साह भरनेवाली वीर भाषा की
जरूरत हे । और वह. खड़ीबोली ही हे । व्रजभाषा देश को जगाना नहीं
जानती, बल्कि सुख की नींद सुलना जानती हे । खड़ीबोली तो स्वयं
खड़ी है, वह सोये को उठाकर खडा कर देगी । अतएव ब्रजभाषा के छिये
दुःख करके भी कोई खड़ीबोली के प्रचार को रोक नहीं सकता |


हिन्दी-कविता में कान्ति-युग


` हिन्दी में उन्नीसवीं शताब्दी तक कविता का विषय मख्यतः भक्ति
और शङ्गार था । भक्त कवि दो प्रकार के हुये । एक ने विशुद्ध अक्ति का
` अचार किया । जेसे कबीर आदि संत तथा तुलसी आदि रामोपासकों ने ।


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( ३३ )


दूसरे ने शङ्गार-मिश्चित भक्ति का प्रचार किया । जैसे सूरदास आदि ब्रज


के कवियों ने । शशङ्गारी कवियों की संख्या भक्त कवियों की अपेक्षा कहीं


अधिक रही । इनके मुख्य विषय थे--नखशिख, नायिका-मेद और RT-


वर्णन | जो कवि इन तीनों विषयों में कुछ कर लेता था, वह आचार्य गिना
जाता था.। नखशिख' में शरीर के प्रत्येक अंग. की उपमा खोजी जाती थी.।
जो कचि उपमानों की अधिक संख्या गिना सकता था,' वह कवि-श्रेष्ठ समझा
जाता था। नायिकाभेद ने तो ब्रजभापा के कवियों की बुद्धि में सब से
अधिक .स्थान पर अधिकार कर लिया था ।. उस समय के कवियों में केवळ
खियों की ही चर्चा रहती थी । कोई कन्या युवती हो रही थी, उसकी भी
चिंता कवि को थी | कोई पनघर पर पानी भरने जा रही थी, उसके साथ
भी कवि को जाना gear ae) कोई अपने पति से बातें कर रही थी, कवि
वहाँ. भी छुके-छिपे मौजूद रहते थे । पता नहीं, fea परमं उद्देस्य की
सिद्धि के लिये खियों के अनेक भेद किये जाते थे। श्यज्ञारी कवि लोग कामकला


-की वृद्धि के लिये तरह तरह की seat किया'करते थे। कुटनियों की अन्यतम


आवश्यकता अपने ओताओं को हृदयङ्गम कराते रहते ओर ऋतुओं के नुसखे
भी लिखा करते थे । नुसखों में अ्रत्येक्र ऋतु में नवबाला तो रहती ही थी ।
बिना इसके कोई Geer काम का ही नहीं समझा जाता था। अत्र भी जो
परोने ढरें के कवि हैं, वे इसी घन में हें। जमाना चाहे मीलो आगे बढ़
जाय, पर वे एक इंच आगे खसकने 'को तेयार 'नहीं। उन्हें भक्ति
विषयक कविता लिखनी होगी तो za, ner, गणिका, गीघ, अजामिल
सेवरी और मीरा से आगे न बढ़ेंगे। वे इस बात को ध्यान में नहीं


:छाते कि कविता और इतिहास दो भिन्न पदार्थे हैं।


O “पहले शीघ्र समाचार पाने और जल्द आने जाने के साधन नहीं थे ।
तब परदेश जाकर लौट आना पुनजेन्म समझा जाता था | उस समय विरह
का वर्णन सार्थक हो सकता थां | पर आजकल रेल और तार के जमाने में


ater विरह ही हे, न वैसे विरही-विरहिणी 'ही।. और न वैसे वणेन की


पुनरुक्ति ही आवश्यक हे। पर अब कवियों को समझावे कौन ? आजकल


-


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( १४ )
जो कविता के मासिकंप्र निकलते हैं उनमें सैकड़ों कवि ऐसी ही चिंता
में पड़े दिखाई पड़ते. हँ. कि अमुक खी का पति परदेश गया है। खी उसके
विरह में सूखकर काँरा हो गईं हे | कोयळ पपीहो की आवाज से उसके कलेजे
कतरे जा रहे हैं। वह चीख रही हे । चिल्ला रहीं हे । जान. जाने की देर है,
इत्यादि. यह झूठी झूठी बातें सुनकर छोग क्या. करें? किधर दोड़े' ? कहाँ
जायें ! दूसरों का कल्पित विरह लेकर कवि महाशय : स्वरथं तड़पते हैं और खा
पीकर सुख से बैठे हुये काव्य-रसिकों को नाहक तड़पाते हैं । पता नहीं, यह
व्यथें का काम वे क्यों करते हैं ! अच्छा होता कि कवि महाशय खर्य उस खी
पर दया करते और उसके.पति को दूँढ़कर घर पर लिवा लाते । जिससे यह
परेशानी मिट जाती और वेचारे कोयल पर्पीहे भी अच्छे छगने लगते |
सबसे विचित्र. वात. तो यह हे कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और राधा के
'सम्बन्ध' में कविगण कल्पना पर कल्पना भिडाते चले जा रहे हैं। उसका अंत
ही नहीं होने पाता । जो बातें. श्रीकृष्ण और राधा ने कभी सोची .भी न
होंगी, वे भी इन कवियों की कल्पना सें आकर . उनके म्ये मंदी जारही हैं ।
'श्रीकूष्ण महाभारत: युद्ध में उपस्थित थे। महाभारत गंथ में उनका
बहुत संक्षिप्त वर्णन हे । उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन : श्रीमदभागवत
में है । जिसमें उनकी लौकिक: और अलौकिक दोनों प्रकार की शक्तियों का
उल्लेख है । उनकी लीलाओं के RI श्रीमद्भागवत ही सबसे अधिक
Reman sia हे । श्रीमदुभारावत. का निरन्तर पाठ करने वाळे कई मित्रों
से हमें यह जानकर. वदा ही:आइचर्य हुआ कि श्रीमद्चागवत सें राधा का
नाम नहीं। आइचर्ये क्यों न होता, जब कि इधर हम देखते हैं कि हिन्दी- `
कविता का आधे से अधिक अंश :राधा-माधव के विळास-वणेन से ही पूर्ण
हे. यदि श्रीमद्वागवतकार, की. जानकारी: में राधा नाम की कोई खी
श्रीकृष्ण की प्रेमिकाओं में नहीं थी, तो राधा की उपज किस दिमाग से हुई?
और उन्हें इतनी महत्ता क्यों दी गई कि उनका .नास रुक्मिणी के स्थान
. पर श्रीकृष्ण के साथ जोड़ दिया गया ? राधा. का नाम. तो सीता और

` पार्वती से भी अधिक प्रसिद्ध, होरहा हे । . oe oe


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( ७५)
हमें राधा गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव के मस्तिष्क की उपज जान
पढ़ती है. । गीतगोविन्द में राधा-माधव का विलास वर्णित है। उसी के
आधार पर राधाकृष्ण की श्ज्ञरी- लीछाओं की सृष्टि जान पडती हे । हिन्दी
सें सबसे पहले मैथिल-कोकिल विद्यापति ठाकुर ने राधा-माधव के संयोग
और वियोग के वर्णनों के हजारों पद: छिख डाले । उनके बाद के कवियों
के मुख से तो राघ-कृष्ण का AANA सहल-घारा होकर प्रवाहित हुआ
है । ब्रजभाषा के साहित्य में. राधाकृष्ण के रहस्यों के सिवा और क्या हे?


कितने ही कवियों ने तो मानों : राधा-माधव Saw वर्णन के लिये ही
जन्म लिया था |


भक्त कवियों की बात अळग हे । वे भगवान्‌ के दरबारी ही उहरे।
उनके लिये भगवान्‌ ने कहां है कि :--


हम भक्तन के. भक्त हमारे | . :

अतएव भक्त कवियों को भगवान्‌ के सम्बन्ध में सीधी-टेदी सब प्रकार
की बातें कहने का हक्‌ हे । पर जो भक्त नहीं, केवळ कवि हैं, और कवि भी
शृङ्गारो ; उनके विषय में हम यह अवश्य कह सकते. हैं ` कि उन्होंने राधा-
कुष्ण के संयोग श्वज्ञार-चर्णन की आइ लेकर अपने या अपने आश्रयदाताओं
के कुत्सित मनोविकारों को अधिक जाप्रत करने का ही प्रयत्न किया है ।
हम कवियों के इस प्रयत्न .को धार्मिक और सामाजिक दोनों इष्टियों से
अहितकर समझते हैं । जो लोग राधाकृष्ण को देवता मानकर पूजते हैं,
पता नहीं, राधा का अभिसारिका बनना, श्रीकृष्ण का उनके साथ विहार


करना ओर. दोनों:'के eats से अइछीऊः कृत्यों का वर्णन चे केसे पसंद


करते हैं ! कोई भक्त अपने उपास्यदेव के विषय में पेसी लज्ञाजनक बातें
नहीं सुन सकता | सामाजिक हानि इनसे यह हे किं राधाकृष्ण के संयोग-
अङ्गार की कविताएँ सुनकर साधारण लोगों में भगवद्भक्ति न उत्पन्न होकर
sent भाव ही विशेष रूप से जाग्रत होते हैं। इससे चरित्र-बल क्षीण
होता हे ।


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Gnr)


राधाकृष्ण का शङ्गार-वर्णन इतना अधिक हो चुका है कि अब हमारे
वतमान कवियों . को उतने से ही संतोष करना चाहिये. । इस सम्बंध. में
: पुराने कवियों ने जो कुछ लिखा हे, उसकी समतां का तो क्या, उसका
पासङ्ग भी अब-नहीं लिखा जाता । उसके लिये जो दिन थे, वे गये जिनको
लिखना था, वे लिख गये । अव उस विषय का गौरव उन कवियों.के लिये
ही छोड़ देना चाहिये।

पर अब भी प्राचीन शैली के ,कवि ऐसी कविताएँ लिखा करते हैं,


जिनमें किसी में तो राधाकृष्ण के अभिसार का वर्णन होता हे; किसी में


कृष्ण अपनी गेंद.की चोरी लगाकर राधा की चोली ected हैं; किसी में
कृष्ण राधा के कान में कुछ कहने, के बहाने उनका कपोल चूम लेते हैं
किसी में सुरति. का वर्णन हे, किसी में विपरीत रति का; किसी में दूती
और कुटनियों का प्रपंच रहता हे, ओर किसी में कुछ, किसी में कुछ । पता
नहीं कविगण राधाकृष्ण के नाम से ही ये सब बातें क्‍यों लिखते हैं ? और
इससे जनता को क्या लाभ ? बातें अच्छी हैं तो अपने और अपनी खी के
नाम से क्यों नहीं feet ? इस . समय यदि राधाकृष्ण मलुष्य-रूप में
पृथ्वी पर,” खासकर भारत की. छाती पर, युक्त-अदेश में, . होते तो क्या
हमारे कविगण उनके भोग-विखास का ऐसां ही वर्णन कर : सकते थे ? तब
क्या सानहानि के एकःही मुकहमें से उनकी बुद्धि का प्रवाह सहज में ही
न बदल जाता ?

» अब समय वदळ गया । ऊपर हम लिख आये हैं कि समय अपने
अनुकूल साहित्य स्वयं तेयार करा. लेता हे । खडीबोष्ठी के कवियों ने नख-
| शिख और नायिकाभेद को तो :तिलाब्जुलि दे ही दी; साथ ही शङ्कार के
अन्य विषय भी छोड़ दिये Lenses तो मुख्य विषय हे भारत और गौण
विषय हे हृदय के भावों की साकार-लीला | इसी से.इसे हिन्दी - का क्रांति.
युग कहना चाहिये । अभी हिन्दी-कविता .की भाषा और भाव दोनों त्रज-
भाषा के प्रभाव से विमुक्त नहीं हो पाये: हैं । पर संघडे जारी .है । हिन्दी
' कविता क्रांतियुग में गमन कर रही हे ।


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( १७ )
खड़ीबोली की वतमान कविता के छन्द, भाषा,
विषय ओर भाव का दिग्दर्शन


खड़ीबोली के कवियों ने त्रजभाषा को तो छोड़ ही दिया, ara और
विपय भी नये कर लिये, पर साथ ही छन्दों को भी बदल डाला । ब्रज-
आपा के कवियों ने दोहा, चौपाई, सवेयां, और घनाक्षरी gat में ही
अधिक कविता की हे । इनमें भी सवेया और घनाक्षरी की संख्या बहुत ,
अधिक हे । पर खड़ीवोछी के कवियों ने करीब करीब इन सबका वहिष्कार
सा कर दिया हे। वर्तमान कवियों. में सव से अधिक खडीबोळी के घना-
क्षरी शङ्करजी ने लिखे हैं। उनके बाद ठाकुर गोपालशरणसिंह का नम्बर
हे । बाबू मेथिलीशरणजी ने भी कुछ :घनाक्षरी लिखे थे । बाकी कवियों
ने भिन्न भिन्न छन्दों में रचनाये' की हैं। हरिओधजी ने संस्कृत wat में
““प्रिय-प्रचास”? नाम क्रा एक. महाकाब्य.. खड़ीबोळी में लिखा | उनके बाद
पंडित रामचरित उपाध्याय ने “रामचरित-चिन्तामणि” नामक महाकाव्य
लिखा, जिसमें संस्कृत छन्दों का अधिकांश उपयोग किया गया है । इन
महाकाव्यों की देखा-देखी कुछ दिनों तक संस्कृत-छन्दों का खूब ही प्रचार
रहा । संस्कृत छन्दों में कितने ही काब्य-अन्थ लिखे गये, कुछ छपे. और


कुछ अभी बिना छपे ही पड़े हैं । aq मेथिळीशरण गुप्त ने हरियीतिका


छन्द में भारत-भारती और जयद्रथ-वध नामक दो काव्य fea | उनकी
देखा-देखी कुछ दिनों तक ,हरिगीतिका का ही 'चछन रहा । शाङ्करजी ने
रोळा छन्द को महत्व प्रदान किया | अब वीर छन्द का आधिपत्य हे । चीर
छन्द॒ का दूसरा नाम है आल्हा छन्द । आल्हा छत्द प्रायः बेतुका होता हे ।


' पर आजकल वीर छन्द में तुक मिलने ल्गा हे।


ऊपर जिन छन्दों का जिक्र आया हे, वे सब शास्रीय छन्द है । छन्द-

शास्र में उनके बनाने के नियमादि लिखे हैं । इन दिनों कुछ ऐसे छन्द चछ.

निकले हैं, जिनका छन्द-शाख्न में कहीं पता भी नहीं | कुछ छन्द तो शास्त्रीय



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(+e)


छन्दों में से किसी का हाथ, किसी का पैर ओर किसी का धड़ लेकर eae
नये गढ़ छिये गये है. । इस समय कुछ नये कवि ऐसे भी हैं, जिन्होंने
HEME के बन्धनों को चारोंओर से तोड़कर फेंक दिया हे । इन्होंने
` ऐसे छन्दो में अपना नीरव गान उदूघोपित किया है, जिनका कोई Raa
स्वरूप नहीं | कोई पंक्ति दो ही चार अक्षरों की, कोई वीसों अक्षरों की ।
अभी तो ऐसे छन्दों को “Bare x छन्द कहना ही ठीक होगा ।
` grat के साथ तुक की भी प्रधानता जाती रही। “कंगारू?! छन्द
तो प्रायः वेतुके ही होते हैं। संस्कृत-छन्दों में जो हिन्दी-कविता हुई हे,
वह भी अन्त्यानुम्रास-रहित ही हे। धीरे-धीरे तुकहीन कविता का प्रचार
ह्वा द
के sills पर विचार कीजिये । हिन्दी के पुराने कवि ब्रजभाषा में
ही कविता करते थे। पर आजकल अ्रजभाषा का प्रवाह एक अकार से बंद
सा हो गया हे । न तो उसकी शिक्षा का. कोइ प्रवन्ध है, न समय ही
उसके अनुकूल है। नवशिक्षितों को त्रजभाषा की कविता समझने में बड़ी
कठिनाई का सामना करना पडता हे । इसलिये उधर से लोगों की रुचि
कम होती जा रही हे। अब बोळचाळ और कविता की भाषा एक करने
की ओर छोगों की प्रवृत्ति बढ़ रही हे ।'
` « ब्रजभाषा का साहित्य सूर, बिहारी और देव आदि अस्र॒तवर्षी कवियों
कीं रचनाओं से प्रतिष्ठित है । खड़ीबोछी में अभी उस श्रेणी के कवि नहीं
हुये। खड़ीबोडी की कविता का अभी प्रारंभिक युग है । उसमें अभी कई
प्रकार की afeat हैं । धीरे-धीरे संशोधन होते होते मँजसँजाकर वह साफ
सुथरी हो जायगी । अभी तो न्जभाषा के कितने ही शब्द. और महावरे
' खड़ीबोली में व्यवहृत होते FC
बोळचाळ और कविता की भाषा के एक होने का अभिप्राय यह हे कि


ॐ Se आस्ट्रेलिया में एक जानवर होता है, जिसके आगे के दोनों


पैर बहुत छोटे और पीछे के दोनों पेर आगो वालों से कड गुने बढ़े
होते हैं।


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( १९ )


किसी पद्य का अन्वय करने पर वह भ्याकरण-सम्मत झुद्ध गद्य बन जाय ।
यही एक कसौटी है, जिस पर कसकर भाषा के. सम्बन्ध में geil की परीक्षा
करनी चाहिये | वतमान काल के हिन्दी-कवियों में. कुछ ही कवि ऐसे हैं
जिनकी कविता भाषा की दृष्टि से शुद्ध कही जा सकती है । खड़ीबोळी के
एक gles कवि का एक पद्य सुनिये--

प्राम आम म्रत्येक नगर में।
घूमे घोर ताप घर घर में॥
इसमें “धूमे”? शब्द विचारणीय हे । पद्य का अन्वय यह हे कि “आम
ग्राम प्रत्येक नगर सें घर घर घोर ताप घुमे ।?? “aA? से कचि का अभि-
प्राय “saat है?” से हे । यह प्रयोग हिन्दी-व्याकरण-सम्मत - नहीं |
एक दूसरा प्रयोग. देखिये--
उन्नति देख अन्य देशों की अब न तुम्हे होता उत्साह |
इसका अन्वय हुआ--“'अन्य देशों की उन्नति देख तुम्हे” अब उत्साह

न होता ।?? समझने को चाहे मनमानी अथे समझ छिया जाय, पर कवि की
भाषा कवि का मनोभाव प्रकट करने में असमर्थ हे । ' न? के स्थान पर
“नहीं? या “होता” के स्थान पर “होता हे? होने से वाक्य. gE होगा ।
क्रिया की अपूर्णता भाषा का एक बड़ा दोष हे ।

एक और प्रयोग देखिये
सिय का उपताप धटाय, दूर कर शङ्का। .
. कपि हुआ प्रसिद्ध बजाय, विजय का डंका ॥ :

O “इसमें 'घयाकर', “बजाकर? के लिये ‘aera’ और “बजाय” का
अयोग किया गया हे । इसी प्रकार गाय, जाय, खाय, पाय, ' दिखाय,
बनाय आदि शब्दों का प्रयोग भी कवि लोग करते हैं। पर यह" हिन्दी-.
व्याकरण से अशुद्ध है | खड़ीबोली में इसे स्थान नहीं मिळ सकता |
_ एक और प्रयोग देखिये

हिमालय सर है उठाये उपर, बगल में झरना झलक रहा हे ।
इस छन्द में “Rarer” का “य अधिक 2 | ‘aera? और “बगल


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(२७, ) 7
, में” में 'ये” और “में? देखने में . तो पूरे हैं पर. ध्वनि के अधूरे Fi जैसा
लिखा जाय, वैसा ही पढ़ा जाय, हिन्दी की यह विशेषतां इसमें संकुचित
गई हे । उदू और. ्रजभाषा में तो इस प्रकार के wha शब्दों का
_ खब प्रयोग चलता हे, पर खड़ी बोली में ऐसे-ऐसे लले-लॅंगडे शम्दों के
लिये गुाइश नहीं । उदू का एक पद्य सुनिये.
- ` बड़े शोक से सुन रहा था जमाना ।
` - HET सो गये दास्ता कहते कहते ॥

इसमें पहले “ कहते ” के “ते ” का ढांचा तो पूरा हे, पर जान

अधूरी हे ।

अनावश्यक शब्दों का प्रयोग भी भाषा का एक बड़ा दोष है । जैसे--

कर पुण्यद्शन भक्तयुत भगवान का निज गेह में ।
कृतकृत्यता मानी गिरिश ने मझ हो सुस्नेह में॥ _
- फिर नत्रता से आगमन का हेतु जब पूछा अहा !
हरि ने कथा कह पार्थ-प्रण की पाझुपत के हित कहा ॥
इसमें स्नेह के पहले 'सु' व्यर्थ ही लगाया हे । और तीसरे चरण में
‘ser? तो नितान्त अनावश्यक हे । यहाँ तो साधारण लोकाचार का
चणेन है, हषं या विस्मय का प्रसङ्ग ही नहीं, तब यहाँ अहो ! की क्या
है ? चौथे चरणं में “हित” शज्द . “लिये” के अर्थ में आया
` हे, जो अजमाषा का हे, खड़ीबोली का नहीं ।
' एक ओर उदाहरण लीजिये ु
गति में गौरव . गवे दृष्टि में a दष्टतायुतत धारी ॥
देखूँ हूँ में इन्हे! मनुज-कुछ-नायकता का अधिकारी ॥

12 v 23) प्रयोग पर ध्यान दीजिये 1 (oy S39 “ag g “जले
है”, ये स्थान-विशेष के प्रयोग हैं । हिन्दी जैसी सार्वदेदिक भाषा की '
कविता में ऐसे प्रयोग समर्थनीय नहीं ।

ऊपर के उदाहरण जिन सुकवियों के ग्रन्थों से चुने गये हैं उनसे
हमारा सविनय निवेदन हे कि उनका दोष दिखाने के लिए या उनकी


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} - ( २१ )
प्रतिष्ठा पर आक्रमण करने की नीयत से हमने ये उदाहरण नहीं छाँटे हैं ।
बल्कि प्रयोग दिखछाकर इस वात को स्पष्ट करने के लिए ही हमने ऐसा
किया हे कि अभी तक हिन्दी पर से ग्रजभाषा का प्रभाव नहीं गया है ।
छंदों के विषय में खड़ीबोली के कवि चाहे ada हो छे, पर भाषा
के विषय में वे स्वतंत्र नहीं हो सकते । क्योंकि, भाषा सर्वसाधारण की
सम्पत्ति हे। भाषा के सम्बन्ध में यदि कविगण - हिन्दी-ब्याकरण की उपेक्षा
करेंगे तो उनकी कविता हिन्दी-भाषा में न कही जाकर "एक कल्पित भाषा
में समझी जायगी । शब्दों के तोड़ने. मरोड़ने की जो स्वतंत्रता पुराने
कवियों के! थी, वह खड़ी बोली .के कवियों के नहीं हे । तुछसीदास ने
एक स्थान पर “बादल” के “'बादले?? कर fear जेसे--
we महीधर सिखर Ra विबिधि बिधि गोला चले ।
घहरात जिमि पविपात गर्जत जनु प्रलय के बादळे ॥ |
जव Wg का कोई हिमायती न रहा, तब पराधीन जाति के पुरुषों
की तरह उनका मनमाना उपयोग होने लगा | i
: ` तोष कवि की एक असन्तोषकारिणी स्वच्छन्दता का मुलाहजा कीजिये--
` ` सुथरी सुशीली सुयशीली सुरसीछी अति
i एंक . चकीली काम-धनुष हलाका सी ।
कहे कवि तोष होती सारी ते 'निनारी जब
कारी बद्री ते कड चन्द॒ की कलाका सी ।


E छोने लोने छोयन पे खंजन चमक वारां


दन्तन चमक Be. चंचला चलाका At |
सावरे सुजान कान्ह तुम्ह से छिपाऊ कहा, ..
वर सेज पै सावाऊँ आनि साने की सळाका-सी॥
, एक शलाका के लिये तोष ने इतना उपद्रव मचाया | हलाक को
हलका, कला के कछाका और चाळाक के चाका बना डाला | बजभाषा


. का नायक भले ही ऐसी सोने की शलाका के लिये कुटनी के धोखे में


आ जाय, पर खडीबोळी के नायक को तो \ हळाका, कलाका और चलाका


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( २२ )


ऐसी बदसुरत सिसाला के साथ सोने की शलाका को अपनी सेज का
कोना भी न छुने देना चाहिये, साथ सोना तो दूर रहा।

भाषा के सम्बन्ध में एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है। वह
यह है कि आजकल खड़ीबोळी के नाम से जो कवितायें ह रही हैं, उनमें
से अधिकांश बोळचाछ की भाषा में नहीं, वल्कि एक कृतिम भाषा में हैं,
जिन्हें समझने के लिए संस्कृत का ज्ञान परम आवश्यक है। अतएव खाल
श्रेणी के लोग ही उसे पढ़कर समझ सकते हैं | कविता भाव के लिए लिखनी
चाहिये, न कि भाषा के लिए । कविता की भाषा ऐसी होनी चाहिये कि उससे
कवि का भाव समझने में सहायत्ता मिळे, न कि उलटे वह स्वयं बाधक हो
जाय । प्रसाद्‌-गुण-हीन | कविता को कविता कहना ही न चाहिये ।

इस प्रकार खड़ीवोछी की कविता का क्षे संकुचित होता जा रहा
हे । यदि ऐसी ही दशा रही तो, क्या भाषा क्या आव, दोनों प्रकार से
यह थोड़े से शिक्षित. लोगों की सम्पत्ति रह जायगी । सर्दसाधारण इनसे
तभी लाभ उठा सकेंगे जब वे कवितागत भाव और उसकी भाषा समझने
के लिए एक विशेष समतल पर आ जायँगे | अथवा बोलचाल की हिन्दी
में बङ्गछा की तरह सैकडे पीछे पचहत्तर शब्द संस्कृत के cage होने
win । पर एके ओर तो इम हिन्दी को gan मानकर उसमें
साधारण बोलचाल में प्रचलित अर्वा फारसी के शब्दों के भी भरने का
प्रयत्न कर रहें हैं, दूसरी ओर उसकी कचिता में बङ्गा की तरह संस्कृत
शब्दों का आधिपत्य बढ़ा रहे हैं। दो विरोधी बातों से एक उद्देश्य की
पूति केसे होगी ? इससे तो गद्य और पद्य की भाषा में जमीन आसमान
का अन्तर आ जायगा | फिर हम बोलचार और कविता की भाषा के
एक होने का दावा केसे कर सकेंगे ?

अव कविता के विषय की ओर आइये ।
._ हिन्दी के प्राने कवि प्रायः कुछ निश्चित विषयों पर ही कविता लिखा
करते थे। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, विरह, प्रेम, शङ्गार, नखशिख और नायिका.
भेद ही उनके मुख्य विषय थे । समय के प्रभाव से अब लोगो की. रुचि


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( २३ )


वद गई है | उपयु क्त विषयों पर जो कुछ कहना था, उसे, जान पड़ता हे,
पुराने कवि कहकर समाप्त कर गये हैं । अब उसे केवळ खड़ीबोली में बदल
देने के सिवा उसमें कुछ नवीन कल्पना कर दिखाने की गु'जाइश नहीं रह
राई | इसलिये खड़ीबोछी के कवियों ने उन विषयों को एक प्रकार से छोड़
ही दिया । कुछ दिनों तक तो कविता का मुख्य विषय हो गया था भारत।
भारत के लिग्रे रोना, भारत को उत्साहित करना, भारत की जय बोलना, _
और भारत के प्राचीन गौरव की याद दिछाना ही कविगण अपना कतंव्य
समझते थे । अब भी सामयिक पलों में काळम के काळम प्रायः भारत-
सम्बंधी कविताओं से ही भरे रहते हे । उनमें से सैकड़े पीछे शायद दो ही
एक कविताएँ ऐसी. होती होंगी, जिन्हें लोग याद रखते होंगे | शेष सब पत्र
में सुन्दर वाडर के भीतर, अच्छे टाइप में प्रकाशित होकर, रचयिता को
आनन्दित करने का ही काम देती हैँ | भारत का विषय समय के अनुदरूछ
है । देश पराधीन हे; दरिद्र है, अत्याचार-पीड़ित है, अपने प्राचीन गौरव
को भूरा हुआ हे, आलस्य और मोह की निद्रा में मस्त है, उसे जगाने के
लिये कवियों को अग्रसर होना ही चाहिये। पर इस सम्बंध में जो कुछ
कहना था, उसे बाबू मेथिळीशरणजी ने भारत-भारती में कहकर समास
कर दिया है। उनसे अधिक कोइ क्या कहेगा ! उन्हीं भावों को भिन्न
भिन्न dat में दुहराने तिहराने की आवश्यकता हो तो कोई हजे नहीं; पर
ऐसा देखा जाता हे कि कविता के प्रेमीजन अब भारत का दुखड़ा किसी
नवीन कवि के नूतन स्वर में भी सुनने को तेयार नहीं। अतएव थोड़े
समय से विषय बदलने की फिर आवश्यकता आ पड़ी ।

“Ba प्रवास?! में पंडित अयोध्यासिंहजी ने श्रीकृष्ण की लीलाओं
के नये रंग में रंगा हे । उनका रंग चाखा और ढंग अनोखा हे, इसमें
संदेह नहीं। श्रीकृष्ण के अलौकिक चरितों को उन्होंने लौकिक बनाकर
मनुष्यों के लिये अनुकरण-योग्य कर दिया है । राधा का चित्र उन्होंने ऐसा
खींचा हे कि बार बार उनकी प्रतिभाशक्ति की प्रशंसा करनी पड़ती हे ।
` हिन्दी में ऐसा करुणरस-प्रधान काव्य इधर कई सो वषा में नहीं लिखा


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( २४ )


गया । पर श्रीकृष्ण के चरित्ष का इतना बड़ा खजाना जनता के पास पहले .


ही से मौजूद हे कि वह “प्रिय प्रवास”? का मुल्य आँकने के लिये बहुत कम
समय देगी | इसी प्रकार रामचरितमानस के आगे पंडित रामचरित उपा-
च्याय के रामचरित-चिन्तामणि की-प्रभा क्षीण हो रही हे । अतएव हमारी
राय में हिन्दी कवियों को बीसवीं शताब्दी की मानसिक अवस्था के अनुकूल
Reze नवीन विषय-विद्यस में लिप्त होना चाहिये ।

नये विषय बहुत से हैं । प्रतिभाशाली कवि राजस्थान की छोटी-छोटी
कहानियों पर एक एक बड़ा ग्रंथ लिख सकते हैं । राणा प्रताप और शिवाजी


पर एक बड़ा सुन्दर महाकाव्य लिखा जा सकता हे । गुरु गोविन्द्सिह


पर भी एक काव्य लिखा जा सकता हे । बोद्ध अंथों में आत्मत्याग की
कितनी ही रोचक कहानियाँ हैं, उनपर काव्य लिखा जा सकता है। अशोक
के पुत्र कुणाल की कथा तो काव्य के छिये एक बहुत ही सुन्दर विषय हे ।
यद्यपि. aq भैथिलीशरण गुप्त, पंडित छोचनप्रसाद पाण्डेय और पंडित
कामताप्रसाद गुरु ने इस ओर ध्यान दिया है । पर इन विषयों पर कोई
महाकाव्य अभी तक जनता के सामने नहीं आया ।
नवीन कवियों ने हिन्दी-कविता में अंग्रेजी और बगला का अनुकरण
. करके एक नवीन तान छेड़ी हे । इस तान का नाम छायावाद Get गया
है। इसमें मनोभावों को साकार ओर कभी कभी: जड़ पदार्थों को चेतन
मानकर उनसे काम छिया जाता है। जैसे--
विचर रहे थे स्वम अवनि सें--
प्राचीन कवि स्व देखनेवाले का ही वर्णन करते थे । पर नवीन कवि
स्वम को एक साकार पदार्थ मानकर उसकी रहन-सहन का भी जि करते हैं ।
इसी प्रकार----
मूक-आह्वान-भ्रे लालसी कपोलों के
व्याकुल विकास पर
झरते हैं शिशिर से चुम्बन गगन के।


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(Gauss)


सूक-आह्वान हिन्दी में Rese नया विषय हे । इसी प्रकार विकास
का विशेषण व्याकुळ भी पुरानी परिपादी को व्याकुळ करने वाला हे ।
क्योकि विकास और व्याकुळता दोनों अद्य पदार्थ हैं। गगन का चुम्बन
भी कम कोतहलोत्पादक नहीं हे ।

ब्रजभाषा के कवियों ने प्रेम को भोग-दिळास का रूप देकर जो अजीणं
कर दिया था, उसका परिणाम यह हुआ था कि खड़ीबोली के कवियों को
श्ज्ञार से अरुचि हो गई थी । पर जान पढ़ता है कि प्रकृति के नियमों
से परास्त होकर अव नवीन कविगण प्रेम के एक नवीन रूप में लेकर
कविता:क्षेत्र में अवतीणे होना चाहते हैं । इस प्रसंग पर, एक बार हिन्दी की
एक सुम्रसिद्ध मासिक पलिका के सम्पादक ने वर्तमान कवियों पर एक लेख
लिखा था, उसका कुछ अंश यहाँ देना आवश्यक जान पडता हे ।

“कुछ समय से हिन्दी के नवयुग के कवियों ने प्रेमोन्माद का वणन
करना प्रारंभ किया हे । जान पड़ता हे, अब “प्रियतम” की खोज की जा
रही है । अधिकांश नवयुवकों की कविताओं में हमें उसी Faster की
छवि दिखलाई पढ़ती हे जो रंगभूमि के परदे के भीतर हे | इनके अलङ्कार
मिथ्या हैं, इनकी भाषा मिथ्या हे, इनके भाव सिथ्या हैं,' इनके रूप
मिथ्या हैं, तो भी इनमें उन्माद हे । रंगभूमि की नायिका की तरह इनकी.
नायिकायें भी रहस्यमयी हैं । न कोई उनका यथार्थ रूप देख सकता हे, '
न उसका अनुभव कर सकता हे । परन्तु इतना कोई भी कह सकता हे कि
उस रूप ने कवियों की हत्तन्त्री के तार हिला दिये हैं। उससे नीरव गान
उत्थित हुआ हे और प्रबळ उच्छ्चास फूट पड़ा हे । सभी कवि. अनंत '
की ओर दोड रहे हैं। कहा नहीं जा सकता कि इन कविताओं का भी
कहीं अन्त हे या नहीं ।?

यह एक प्रसिद्ध सम्पादक और साहित्य के अच्छे AAT का कथन हे।
इस कथन से यह साबित हो रहा हे कि इस समय के प्रमख साहित्यिकगण
हिन्दी-कविता में नवीन भावों का जागरण देखकर चकित हो रहे हैं। पर
जाम्रति को कोई रोक नहीं सकता | जबतक आँसू , हृदय, मूक वेदना,


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( २६ )


आह्वान, स्वम, नीरव गान, अतीत, अनंत आदि अद्‌भुत विषयों पर कल्पनाओं
का अजीणे नहीं हो लेता, तवतक विषय नहीं बदले जा सकते ।

अब mg, विषय के वाद भावों पर कुछ विचार करें।

कविता क्यों की जानी चाहिये? इस प्रश्‍न पर हमें पहले विचार
करना हे ।

सन्‌ १९२० में, ss गुजराती साहित्य-परिषद्‌ के सभापति के आसन से
era कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने हिन्दी में एक भाषण किया था।
उसका एक अंश, उन्हीं की हिन्दी में, हम यहाँ saa करते हैं :--

“कवि की साधना है कया चीज ? वह और कुछ नहीं बस आनन्द के
तीथ में, रस-छोक में विद्वदेवता' के मन्दिर के अङ्गन में सर्वे-मानव का
मिलन गान से विइवदेवता की अच्चां करना । सव राहों की चौमुहानी
पर कवी की बाँसुरी टेर से यह सुनाने के लिये हे कि जिस प्रेम की राह में
मुझको dew बुळा रहे हैं, वहाँ जाने का सम्बछ हे दुःख को स्वीकार करना,
आपने को भरपूर दान करना, ओर उस राह का परम लाभ है वह जो हे
मेरी परमा गति मेरी परमा सम्पत्‌ मेरा परम छोक ओर मेरा परम आनन्द ।
भगवान्‌ के वह चरण पझ में सारा भारत का चित्त एक हो जावे यही एक
भाव सारा दुनिया के ऐक्य की राह दिखलावेगा |”

कवि रवीन्द्र इस समय एश्वीमंडळ पर सर्व-श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं।


कवि और कविता के सम्बन्ध में वे जो लक्ष्य निर्धारित करेंगे, उसे मानने .


से कोई विचारशील व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता | अव आइये, इसी समय
एक ओर सर्वश्रेष्ठ पुरूष की राय कविता के सम्बन्ध में. क्या हे, यह भी
सुन लीजिये :--

२३ नवम्बर, १९२४ के “हिन्दी-नवजीवन” में श्रीयुत दिलीपकुमार
राय और महात्मा गाँधी का'एक वार्तालाप प्रकाशित हुआ है। महात्मा
जी ने कला के विषय में श्रीयुत राय से यह: कहा था--

“कलाकार जब कला को कल्याणकारी बनावेंगे ओर जनसाधारण
के लिये उसे सुलभ कर देंगे, तभी उस कला के जीवन में स्थान रहेगा ।


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( <)


लपला लोगों की न रहकर थोडे लोगों की रह जाती हे, तब में


मानता हूँ कि उसका महत्व कम हो जाता eV”?

हरएक ऐसे बुद्धि के व्यापार का मल्य, जिसमें कुछ विशेषता हो,
अर्थात्‌ जिससे गरीब लोगों को वञ्चित रहना पड़ता हो, उस वस्तु से
अवश्य कम है जो सर्वसाधारण के fet होगी। वही काव्य और वही
साहित्य चिरञ्षीवी रहेगा. जिसे लोग सुगमता से पा सकेंगे | जिसे वे
आसानी से पचा सकेंगे ।'”

एक ही समय के दो समान्य व्यक्तियों की सम्मतियों में हमें कवि
का एक ही कर्तव्य स्पष्ट दिखाई पड़ता है, और. वह है लोक-कल्याण |
रवीन्द्र ने कवि को सव राहों की चौमुहानी पर खड़े होकर चारों ओर के
सानव-समाज को प्रेम-गान सुनाने का आदेश किया हे । महात्मा गाँधी कळा
को--कविता को--कल्याणकारी बनाना और सवंसाधारण के लिये सुलभ करना
आवश्यक बताते हैं। इन कसौटियों पर .अपनी खड़ीयोळी की कविता
को फसकर देखिये ।

कवितागत जो, आव मनुष्यों में अनीति और दुराचांर फेंलाते हैं,
पहले तो उन्हें रोकना होगा । हमने माना कि खड़ीबोली के कवियों ने
श्ज्ञारस की अइलील कविताओं का वहिष्कार लोक-कए्याण की कामना
से ही किया है, पर उसके बदले में वे समाज को देते क्या हैं! केवळ ऐसे .
कल्पित चित्र, जिनमें कोई रूप नहीं, । और यदि हे भी, तो ऐसा जिसे
देखने के लिये सवसाधारण के पास वेसे अनुभव की आँखें नहीं । ऐसे
चित्र केवळ थोडे से ऐसे लोगों को लाभदायक या सनोर्षक हो सकते हैं,
जिनके अनुभव की आँखे' हैं । महात्मा गौंधीजी की इष्टि में ऐसी कला का
महत्व कम हे जिससे सवेसाधारण वंचित रह जायैं।


यह विषय हिन्दी के उन नवीन कवियों के लिये अधिक विचारणीय
है, जो कठिन शब्दों से रदी हुई भाषा में रचना करते हैँ और उसमें भी
अस्पष्ट भावों की Be |


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( ३७ .)


कवि लोग परिस्थिति और स्वभाव के अनुसार भिन्न भिन्न अभिप्रायो
से काम्य-रचना में प्रवृत्त होते हैं। तुलसी ने “awa: gam” रामचरित-
मानस लिखा | सूर और मीरा ने, भक्ति और प्रेम का रहस्य खोला | विहारी,
देव, भूषण, मतिराम और पदसाकर ने अपने अपने आश्रयदाताओं की रुचि
के अनुकूल काव्य-रचा । Fe रोग से पीड़ित होने पर पदमाकर ने अपना
स्वभाव बदला और ' गंगाल्हरी' की रचना की । रसखान, घनानन्द और
बोधा ने अपने अपने स्वभाव का ही अनुसरण किया । कुछ कवियों ने कीर्ति
के लिग्रे काब्य रचा |

इनमें सबसे अधिक सुन्दर अभिप्राय तुळसी का था। वे भक्त थे ।
भक्त का निज सुख क्या है ? भक्त में अपनापन तो रहता ही नहीं । उसका
` तो सवेस्ब केवळ स्वामी है। स्वामी का सुख़ दुःख ही उसका सुख दुःख
है । तुळसी के सर्वस्व राम थे । ऐसी दशा में उनके “era: ger” का
` अर्थं हुआ “राम के सुख .के लिए” । राम का सुख किस में हे ? भक्तों
के सुख में, सचराचर के सुख में । अतएव तुजसी के “ar: सुखाय'?
का अर्थे हुआ, सचराचर का सुख | अगवान की कृपा से भक्त का सदुद्दे ऱ्य
सफळ हुआ | उसकी सेवा, उसकी भक्ति स्वीकृत हुई । तुळसी अजर अमर


हुये । ऐसे उत्तम उद्देश्य से जो कविता लिखता हे, वही सत्कीति का '


अधिकारी होता हे | :

| आजकल कवियों के आश्रयदाता तो रहे नहीं । कवि लोग स्वतंत्र हैं ।
चे अपनी रुचि के अनुसार कविता Ba सकते हैं और लिखते भी हैं।
राजतंत्र से निकलकर इस समय वे प्रजातंत में अनुगमन कर रहे हैं। सर्व-
(साधारण प्रजा की रुचि ही उनकी रुचि हे । इसी कारण से भारत की
स्वतंत्रता, भारत के अतीत गोरव का पुनर्जन्म, आजकछ के कवियों का
मुख्य विषय हो रहा हे । समाज में शङ्गारस का अजीण देखकर ये कवि.
गण FETT का नाम भी नहीं लेते । समय का ऐसा अभाव पड़ा हे कि उदू के
कवि जो इश्क, वस्ळ, fea और वेवफाई की सीमा से बाहर आना हराम
समझते थे, वे भी अपने aeae, घोंसले और सत्याद को साथ लेकर


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:


pT NTE Sh हत्या 2


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(२७)
हिन्दुस्तान की तरक्की के लिये शोर मचाने वाळे जत्थे में शरीक हो गये हैं
और दिल, कलेजे तथा खुन्जर की करामात दिखाने छगे हैं ।
इसी प्रकार हिन्दी के छोक-असिद्ध कवियों ने विषय तो समय के
अनुकूल अपना छिया हे; पर भाषा उन्होंने ऐसी बना ली है, जो aa
साधारण समझ नहीं सकते | वतमान हिन्दी-कविता में प्रसाद-गुण नहीं


के वरावर है । उनके भाव भाषा के छोटे घेरे में केद हो गये हैं । सर्व-
साधारण से उनसे मुलाकात नहीं हो सकती । तुळसी, सूर, कबीर को


'छोग जितनी आसानी से समझ लेते हैं, उतनी आसानी से वे आजकल.


के कवियों को नहीं समझ पाते । तुलसी, सूर, कबीर की कविता का शुण-
दोष-विवेचन पठित लोग जैसा करते. हैं, अपठित लोग भी उसका ममं वैसा
ही समझते हैं । अंतर केवल इतना ही हे कि पठित लोग विस्तृत समाछोः
चला करके अपना मनोभाव प्रकट कर सकते हैं और अपठित लोग केवल
इतना ही बोळ सकते हैं--


“जो कुछ रहा सा अधरा कहिंगा Beas कहेसि अनूठी ।
बचा gata जोलहा कहिगा और कहे सो जूठी ॥??
( अँधरा = सूरदास | कठवउ = तुलसी | जोळहा = कबीर )
वे बेचारे यह नहीं जानते कि जोलहा तो अँधरा और कठवा से आगे
हुआ था। उसके हिस्से में बचा-खुचा क्यों पड़ा ! बात यह है कि उनकी
समाछोचना में इतिहास नहीं घुसने पाया हे | उन्होंने हृदय की तुला पर
तौल कर कविताकारों का पद नियत किया हे ।
` आजकल के कवियों की' एक श्रेणी ऐसी भी है जो सॉस तो लेती हे
बीसवीं सदी में और गीत गाती है पंद्रहवी सदी के। सड़कें बन गई, `
रेल ge गईं, विमान उड़ने गे, पर अभी तक वे पुरानी Wrest ही पकड़े
चळे जा रहे हैं । वही राधा का नखशिख, वही केलिलीछा, वही seer,
वही तकाजा; वही पपीहों की पुकार, वही कोकिळ की कूक; वही “'चूनरी
चुद्दे सी परे,” वही ““भोहन कमान तान नेनन सिपाही चार दुनछी


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( ३० )


बैंदूक दोऊ सुजन कछाई हे ।? जोवन की फौज ले के मारित्रे को घाई है ।?”
कितनों को ' मनोज ने छोड़ दिया हे, पर अभी तक उन्होंने मनोज को
नहीं छोड़ा हे । मनोज विना इन कवियों का रङ्ग नहीं जम सकता | इनकी
कृतियाँ देखने से यह मानने को विवश होना पड़ता है कि ये कविराण
“किसी की गळती से इस जमाने में आ पढ़े हैं। इन्हें तो चार पाँच सो
वर्ष पहले अवतार लेना था |

जो कविराण चूनरी और घाँघरे के रहुस्य-वणेन में ही पटु हैं; जो गीध,
गज, आाह और गणिका तक ही गोवद्धनधारी का गुण गाना जानते हैं;
उनसे तो अब लोकहित के लिये कुछ पाने की आशा नहीं की जा सकती ।
पर जिनके हृदय में मानव-सेवा का भाव हे, देश के प्रति अनुराग हे,
जीवन को कल्याणमय बनाने की कुछ कामना है, उनको तो महाकवि रवीन्द्र
और महात्मागाँधी की सम्मति पर ध्यान देना ही चाहिये ।


खड़ीबोली के वतमान कवि


भाषा की इष्टि से वत्तेमान हिन्दी-कवियों को हम तीन श्रेणियों में
विभक्त कर सकते हैं। पहली श्रेणी में वे कविगण हैं, जो ब्रजभापा में या
ब्रजमाषा या पूर्वी हिन्दी-मिश्रित खड़ीबोली में रचनायें करते हैं। दूसरी
अणी में वे कविगण हैं जो विशुद्ध खड़ीबोली में लिखते हें और तीसरी
श्रेणी में वे कविगण हैँ जो परम स्वतन्त्र हैं। जो न तो छन्दशाख के
ज रा करते हैं और न भाषा के बन्धनों की ही विशेष परवा
करते हैं । ER ;

सब से पहले हम पंडित महावीरमसादजी द्विवेदी को स्मरण करते
- हैं, जिन्होंने खडीबोळी के पोघे को सींचकर अपने जीते-जी पुष्पित और
फलित देख छ्या है। o

पहली श्रेणी के कवियों में रत्नाकरजी की कविता बजभाषा के पुराने
कवियों के टकर की होती है । वेसी ही seh हुईं भाषा, वेते ही रसोळे
भाव, काब्य-रसिकों को पदमाकर और द्विजदेव की याद दिखाते हैं। ब्रज-


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( ३१ )


भाषा के दूसरे उदीयमान कवि वियोगी हरि जी हैं, जो ब्रजभाषा की कविता
में नये और ओजस्वी भाव भरकर उसे समयोपयोगी बनाने में तत्पर हैं ।
इनकी कविता में प्रेम और भक्ति का सुन्दर वणन रहता है ।

शङ्करजी ने सामाजिक जयत में अपनी निर्भय और तेजस्विनी कविता
से उथल पथर मचा दी हे । छन्द॒शाख के नियमों का जैसा पालन शङ्करजी
करते हैं, वेसा करने वाळा sequel के इतिहास में दूसरा नहीं पैदा हुआ |

पंडित श्रीधर पाठक खड़ीवोळी के आचायों में गिने जाते हैं।
पाठकजी ने भारत और उसके नवयुवको के सम्बन्ध में बहुत लिखा है |
इसी श्रेणी में पंडित रामचन्द्र शुक के! हम वड़े हर्ष से स्मरण करते हैं।
Gash करुण ओर, शांत रस की कविता लिखने में अपना जोड़ नहीं
रखते ।

दूसरी श्रेणी में पंडित अयोध्यासिंइजी उपाध्याय काव्य के नवो रसों
में उत्कृ रचना करते हैं । प्रियम्रवास में इनकी लेखनी से करुणरस का
समुद्र उमड़ पढ़ा हे । भाषा. पर इनका पूणे अधिकार हे | ये कठिन से
कठिन. ऑर सरळ से सरळ हिन्दी लिखने में सिद्धहस्त हैं। पंडित
रामचरित उपाध्याय की कविता में भावों के साथ ही शब्दों का लालित्य .
भी बहुत हे । कालिदास ने रघुवंश के नवम सगं में जैसे दुतविछम्बरित
के चतुर्थ चरण में यमक-पूर्ण पद्य लिखे हैं, हिन्दी में उस प्रकार के पद्य
सब से पहले और सब से अधिक संख्या में रचने वाले पंडित रामचरित
जी ही हैं ।. बाबू मेथिळीशरग जी युस का नाम स्मरण आते ही हम गवे से |
सिर ऊँचा कर लेते हैं। युजी ने अपनी कविता से नवयुवकों सें नवजीवन
ge दिया हे । युक्तम्रांत में ही नहीं, भारत के भिन्न भिन्न आंतों के
साहित्यिकों में भी get हिन्दी के प्रमख कवि करके प्रसिद्ध हैं।
इनकी भाषा ब्याकरण-सम्मत झुछ हिन्दी होती हे ।

पंडित कामताप्रसाद ge, पंडित गयाप्रसाद IS 'सनेही,” पंडित
रूपनारायण पांडेय, पंडित छोचनग्रसाद पांडेय, पंडित माखनलाळ चतुर्वेदी,
बाबू HRMS और ठाकुर गोपालशरण सिंह आदि वर्तमान कविंगण


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( ३२ १)


अपने अपने दङ्ग ओर रुचि के निराळे हैं। सव ओजस्वी और प्रभाव-
` झालिनी भाषा में कविता लिखने के लिये प्रसिद्ध हैं । एक भाव हम खड़ी-
बोली के वर्तमान कवियों में समान रूप से पाते हैं । वह हे अपने देश के
प्रति सच्चा अनुराग; अपनी जातीयता के प्रति उच्चकोटि का अभिमान ।
हमारे वतमान कविगणों के अंतस्तळ में देश और हिन्दू-जाति की दुरवस्था
देखकर एक बेदना समान रूप से व्याप्त दिखाई पड़ती हे । इसलिये जब
कोई हृदय खोलता है तो उसमें उस वेदना का ही चिल दिखाई पड़ता हे ।
. यह उचित ही हे । कवि अपने समय का प्रतिनिधि होता हे । भारत का
भविष्य, जिसकी रचना हमारे खड़ीयोछी के कविगण कर रहे हैं, उन्हें
श्रद्धा और सम्मानं से स्मरण करेगा |
` तीसरी श्रेणी के कवि हिन्दी-जगत्‌ में ऐसे आ रहे हैं, जैसे वेष्णवों की
बस्ती में कोई अङ्गरेज आकर बस जाय । यद्यपि वैष्णवों की दृष्टि में वह
परम इच्छुङ्कल और आचार-विचार-हीन अतीत होगा, पर वास्तव में वह
= ras होता । उसके भी आचार-विचार और रहन-सहन नियमवद्ध
ae

हम इन नवागन्दुकों का स्वागत करते हैं | इनमें से निराला और
.पन्त. की कविताएँ कविता-कौमुदी में दी गई हैं। यद्यपि इस प्रकार की
कविताएँ हिन्दी में पहले-पहल aa जयशइरपसाद ने प्रारंभ की थीं |
पर ते केवळ मागप्रद्शंक ही बने रहे । इस समय निराला ओर पंत
ही इस पथ के प्रधान पथिक हैं। कुछ अन्य नवयुवक कवि भी इस मार्ग
का अनुसरण कर रहे हैं | आशा हे, हिन्दी के कविता-कानन में यह विदेशी

Fat से सजी हुईं क्यारी भी अपनी शोभा से उसका गौरव बढ़ायेगी |
रामनरेश त्रिपाठी


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4


` कविता-कौसुदी.


दूसरा भाग .


हरिश्चन्द्र


अमीचन्द के वंश में थे। सेठ अमीचन्द के दोनों पत्र
राय रतनचन्द बहादुर और शाह फतहचन्द काशी में
आ बसे थे। शाह फतहचन्द के पौल बाबू हरखचन्द
ने बहुत घन कमाकर उसका सदुव्यय किया और बड़ी
प्रसिद्धि लाभ की। वात्रू हरखचन्द के पुल वानू गोपालचन्द्र हुये, जिन्होंने
हिन्दी में चालीस अन्थ रचे | कविता-कोमुदी के प्रथम भाग में उनकी जीवनी 2
प्रकाशित हुईं हे । उन्हीं बाबू गोपालचन्द्र के सुपुल बाब eas हुये ।
वाबू हरिश्चन्द्र का जन्म भाद्रपद BS सप्तमी, Ho १९०७ ( ता० ९
सितम्त्रर, १८५० ) में हुआ । इनकी बुद्धि बड़ी तीब्र थी। जब ये ५, ६ चे
के थे, उस समय इनके पिता बाबू गोपारचन्द्रजी “बलगम कथारूत” की
रचना कर रहे थे। इन्होंने उनके पास जाकर खेलते खेलते कहा--हम भी
कविता बनावेंगे। पिता ने हसकर , कहा--तुम्हें उचित तो यही हे । उस
समय वाणासुर का प्रसंग लिखा जा रहा था । इन्हांने तुरन्त यह दोहा बना
कर पिता को दिखाया. .- ma?
छे व्योंडा ae भये, श्री अनिरुद्ध सुजान ।
बानासुर की सैन को , हनन लगे भगवान ॥


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२ « # कविताःकोसुदी, दूसरा भाग ` #


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पिता ने प्रेम-गद्गद होकर प्यारे पुत्र को गले से लगा लिया और
कहा--त्‌ हमारे नाम को बढ़ावेगा |

एक दिन बावू गोपारचन्द्र की सभा में कुछ कवि वेठे थे। कविं
खोग उनके “कच्छप .कथास्रत”,के मङ्गलाचरण के एक पद की व्याख्या कर
रहे थे । पद यह था--“'करन चहत जस चारु, कछु कछुवा भगवान को 1?
बाळक हरिश्चन्द्र भी वहाँ आ बैठे थे । किसी ने “कछु वा (उस) भगवान
को,” किसी ने “कछु कछुवा ( कच्छप ) भगवान को” ऐसा अर्थ किया ।


हरिश्चन्द्र चट बोल उठे--नहीं नहीं, बाबूजी, आपने कुछ कुछ जिस | |


भगवान को छू लिया हे, ( कछुक छुवा भगवान को) उसका यश आप
वर्णन करना चाहते हें। बालक की इस नई उक्ति पर सभा के सब
लोग सुग्ध हो गये और पिता ने आँखों में आँसू भरकर, अपने प्यारे पुल
का मुँह चूमकर, अपने भाग्यं की सराहना की ।

. एक दिन पिता को. तपण करते देख ये पूछ वेडे बाबू जी, पानी में
पानी डालने से क्या लाभ .? यह सुनकर पिता ने माथा ठोंका और
-कहा--जान पड़ता है तू कुल बोरैगा। समय पाकर पिता का आशीर्वाद
और अभिशाप दोनों ही फलीभूत हुए ।


नौ वर्ष की अवस्था में ही हरिश्रन्द्रजी पितृहीन हो गये । इससे इनकी


स्वतन्ल प्रकृति को और. भी स्वच्छन्दा मिल गई । उसी समय इनकी
पढाइ का सिलसिला BS हुआ । ये कालिज में भरती . किये गये । परीक्षा
में ये संदा उत्तीण होते रहे । उस समय काशी के रईसों में राजा
शिवप्रसाद ही अंपेजी के अच्छे ज्ञाता थे) ये भी कुछ दिनों तक उनके
' पास अंग्रेजी पढ्ने जाया करते Al तीन चार वर्ष तक तो पढने का कम
wat करके चला; परन्तु सन्‌ १८६४ में जब ये अपनी माता के
साथ श्रीजगदीराजी की यात्रा को गये, उस समय से इनका पढना लिखना
RS छूट गया ।


यात्रा से wet पर इनकी रुचि कविता और देशहित की ओर


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क हरिश्चन्द्र « ३


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विशेष फिरी । इनको निश्चय हो गया कि. पाश्चात्य शिक्षा के बिना कुछ
नहीं हो सकता | इसलिये इन्होंने wei परित विषयों का अभ्यास आरुभ
किया और अपने:घर पर एक स्झूछ भी खोळ दिया, जिसमें महल्ले के
लड़के आकर पढ्ने लगे । यही स्कूल उन्नति करते, करते आज “'हरिश्वन्द
हाई स्कूल? के ' नाम से शिक्षा का विस्तार कर रहा हे । सन्‌ १८६८ में
इन्होने “'कवि-वचन-सुधा?? नामक मासिक-पत्न निकाला, जिसमें नये
पुराने सव हिन्दी-कवियों के अप्रकाशित प्रस्थ प्रकाशित होने लगे । कुछ
समय के उपरान्त “'कवि-चचन-सुघा” को इन्होंने पाक्षिक और -सासाहिक


` कर दिया । उस समय उसमें केवल पद्य ही नहीं, afte राजनीति तथा


समाज-सुधार-विषयक गद्य-लेख भी निकलते थे |

सन्‌ १८७० में ये आनरेरी ARGE बनाये गये । किन्तु कुछ दिनों
के बाद इन्होंने स्वयं उस पद को छोड़ दिया । सन्‌ १८७३ में इन्होंने
“Raa मेगजीन?? भी निकालना प्रारभ किया । किन्तु वह केवळ
आउ ही अंक निकलकर बन्द हो गया । १८७३ में ये wa परिमार्जित
भाषा सें गद्य-पद्य-लेख लिखने लग गये थे । इसी वर्ष इन्होंने “पेनी
रीडिंग?” नामक समाज स्थापित किया था। जिसमें भद्र लोग स्वयं
विविध विषयों के अच्छे अच्छे लेख लिखकर ळाते और पढ़ते थे। इसी
समय “कपूरमंजरी,?” “सत्य हरिश्चन्द्र, 99 और “वदन्दावली?” की रचनां
हुईं । १८७३ में इन्होंने “तदीय समाज?” नाम की समा स्थापित की ।


, जिसमें प्रेम और धमं सम्बन्धी विषयों पर विचार हुआ करता - था ।


दिल्ली दरबार के समय इस समाज ने गोरक्षा के लिये एक लाख प्रजा


' के हस्ताक्षर करवाये थे।


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बड़े उदार पुरुष थे। कितने ही लोगों को
पुरस्कार दे देकर इन्होंने कवि और सुटेखक बना दिया । ये सोन्दये के
बड़े मेमी थे । गाने बजाने, चिरकारी, पुस्तक-संग्रह, अद्भुत ` पदाथो' का |
संग्रह, सुगन्ध-संम्रह, उत्तम कपड़े, खिलौने, पुरातत्व, की वस्तु, उमप,


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2 # कविता-कौलुदी, दूसरा भाग *


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अलबम, फोटोग्राफ ,आदि सभी प्रकारः की वस्तुओं से इनको बड़ा शोक
था । इनके पास कोई गुणी आ जाता तो वह विमुखं कभी नहीं फिरता
था । बीस वाईस वर्ष में इन्होंने अपने सीन चार लाख रुपये खर्चे कर
डाले । कवि परमानन्द को “बिहारी सतसई”” का संस्कृत अनुवाद करने
पर ५००) पारितोपिक दिया! था' । महामहोपाध्याय पण्डित सुधाकर
दविवेदीज़ी को निम्नलिखित पक दोहे पर १००) और अंग्रेजी रीति पर


अपनी जन्मपल्ली TART ५००) दिये थे :---
राजघाट पर sags, जहे कुछ़ीन की ढेरि।


आज TW कल देख के , आजहि' लोटे फेरि ॥
उदारता से ही अंत में ये ऋरणप्रस्त हो गये ।
` हिन्दी को राजभाषा बनाने फा पहले पहल उद्योग हरिश्चन्द्र ने ही
किया.था । अपनी कोछुक-प्रियता के कारण “Sat प्राण लेवी” और
मसिंया . लिखकर ये गवनेमेंट, की कोप-दष्टि में: भी पड़े थे। किन्तु


इन्होंने किसी. की कुछ परवा नहीं की । अपने 'अटळ प्रेम ओर आनन्द '


में ये. मस्त रहे ।
... हिन्दी क॑ अचार में वारू साहत्र. ने बड़ा उद्योग किया । हिन्दी इनकी
चिरऋणी रहेगी । हिन्दी के समस्त समधचार-पत्तां ने १८८० में इन्हे
भारतेन्दु की पदवी से विभूषित किया था । इस उपाधि का आदर राजा
ओर प्रजा दोनों ने किया ।
सब से पहली सवैया इन्होंने यह-बनाईं थी :--- ,
यह सावन सोक नसावन हे मनभावन यामें ase भरो ।
जमुना पे चलो सु सत्रे मिलिके अरु गाइ बजाइ के सोक हरो ॥
इमि. भाषत हॅ हरिंचन्द प्रिया अहो लाड़िली देर न यासें करो ।
२ वलि झूछो gett gat उझको यहि पाखे पतित्रत ताखें घरो ॥
meg आळु कवि थे । वाते करते जाते थे, कविता रचते जाते
थे । अन्धेर-नगरी एक ही दिन में लिखी गई । विजञयिनीविजय-वैजयन्ती


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भी एक ही दिन की रचना हे । स्वरचित weit में इन्हे ये अन्य बहुत
पसन्द थे--भेस Geant, सत्य हरिशचन्द्र, चन्द्रावली, तदीय ada
कास्मीर कुसुम, भारत दुदेशा । . '

इनके लिखे सम्पूर्ण cei के नाम निम्नलिखित हैं :--

नाटक

प्रवास ( अपूर्ण, अप्रकाशित ), सत्य हरिश्चन्द्र, wanna, विद्या-
सुन्दर, धनञ्जय-विजय, चन्द्रावली, कर्पूरमंजरी,) नीलदेवी, भारत-हुदेशा
सारत-जननी, पापण्ड विडम्बन, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति,. war
नगरी, विपस्य विषमोषधम्‌, प्रेम योगिनी ( अपूर्णं ), gwar


(अपूर्णे ), सतीं ग्रताप ( अपूर्णं ), नव मल्लिका ( अपूर्ण, अप्रकाशित )
रत्नाचली ( अपृणं ), रच्छकटिक ( अपूर्ण, अप्रकाशित, अप्राप्य ) |


आख्यायिका, उपन्यास

रासलीला, हमीरहठ ( अपूर्ण, अप्रकाशित ), राजसिंह ( अपण );
कुछ आप बीती कुछ जग बीती ( अपूर्ण ), सुलोचना, मदालसोपाख्यान,
शीरूवती, सावित्री चरित्र । `
- काव्य

गीत गोविन्दानन्द ( गाने के पद्य ), प्रेम माधुरी ( श्ज्ञार रस के
कवित्त aan ), प्रेम फुलवारी ( गाने के पद्य ), प्रेस मालिका ( गाने ),
प्रेम प्रछाप . ( गाने ), प्रेस तरङ्ग ( गाने ), सधुमुकुछ ( गाने ), होली,
मानलीला, दानळीला, देवी छछीला,.कातिक ख्रान, विनय पचासा,
प्रेमाशुवषेण, प्रेम सरोवर ( दोहे), फूलों का युरछा ( छावनी ), जैन
कुतूहल, सतसई श्ङ्गार ( विहारी सतसई पर कुण्डलियाँ ), नये जमाने


की मुकरी, विनोदिनी ( बङ्गा ), वर्षा विनोद ( याने ), प्रात समीरन, _


कृष्ण चरित्र, उरहना, तन्मय लीला, रानी छ़लीला, चित्र काव्य, होली
लीला । न


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Š « कविता-कौमुद्दी, दूसरा भाग +


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स्तोत्र
९ श्रीसीताबएलम स्तोत्र ( संस्कृत ), भीष्मस्तवराज, सर्वोत्तम स्तोल,
प्रातस्मरण मङ्गछ-पाठ, स्वरूप चिन्तन, प्रबोधिनी, श्रीनाथाष्डंक ।
9 ; अनुवाद
नारदसूव, भक्ति-सूत-वैजयन्ती, तदीय we, अष्टपदी का
भाषार्थ, श्र॒ति-रहस्य, कुरान शरीफ का अनुवाद ( अपूर्ण ), श्री वल्लभाचार्य
कृत चतुइछोकी, प्रेम-सूव ( अपूण )
; परिहास
पाँचवें पैगम्बर, स्वग में विचार सभा का अधिवेशन, सबै जाति
गोपाळ की, बसन्त पूजा, वेस्य/-्तोत्न, (Ta), अंगरेज-स्तोल ( गद्य ),
सदिरासतवराज, teeta, वकरी-विछाप ( पद्य ), खी-दंड-संग्रह,
परिहासिनी, फूल बुझोवल, मुशाइरा, ख्री-सेवा-पद्धति, रुद्री का भावार्थ,
उदू. का स्यापा, मेलाझमेल!, बन्द्र-सभा |
धर्मे, इतिहास आदि
भक्त-सवेस्व, वेष्णव-सर्वेस्व, व्ञभीय wie, युगल सवेस्व, पुराणोप-
ऋमणिका, SWS भक्तमाळ, भारतवर्ष और वेष्णवत्ा |
४ _ माहात्म्य
« Taka, कार्तिक-कर्मविधि, वेशाख-स्नान-विधि, माघ-स्नान विधि,
पुरुपोत्तम-स(स-विधि, मर्गशीष-महिमा, उत्सवाचली, श्रावण-कृत्य |
i ऐतिहासिक
. काझ्मीर-कुसुम, बादशाह-दपंण, महाराष्ट्र देश का इतिहास,
उद्यपुरोदय, व दी का राजवंश, अग्नवालों की उत्पत्ति, खलियों की उत्पत्ति,
7 पुरावृत्त-संप्रह, पञ्च पवित्रात्मा, रामायण का समय, श्रीरामानुज स्वामी
का जीवनचरित्र, जयदेवजी का जीवनचरित, सूरदासजी का. जीवन
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के हरिशचन्द्र के s


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चरित, कालिदास का जीवन-चरित्त, विक्रम और een, काष्टजिह्म स्वामी,


पण्डित राजाराम शाखी, waa, Magara, नेपोलियन, जज
द्वारकानाथ मित्र, लाडे म्यो, लाडे छारोंस, जार, काळचक, सीतावट-निर्णय
दिी-दवोर-दर्पण |

राजभक्ति


भारत-वीरत्व, भारत-मिक्षा, से ह दिखावनी, मानसोपायन, मनोमकुल
माला, छुइसा-विवाह, राजकुमार-विवाह-वर्णन, विजयिनी-विजय-वैजयन्ती
सुमनोन्जलि, Raes, विजय-अछरी, जातीय संगीत, राजकुमार-
सुस्वागत T |

रूफुट ग्रन्थ, लेख, व्याख्यान, यात्रा अदि |

नारक, हिन्दी-भाषा, संगीतसार, कूष्णपाक, हिन्दी-ब्याकरण-शिक्षा,
कमीशन में साक्षी, तहकीकाते पुरी की तहकीकात, मरास्ति-संग्रह, प्रतिमा-
पूजन-विचार, रस-रत्नाकर, .खुशी, हिन्दी, . भारतवषो न्नति केसे हो. सकती
हे, FET, जनकपुर-यात्रा, सरयूपार की याता, वैद्यनाथ-याता,
Wis. सम्बन्धी बाते, wet, वषेमालिका, मध्यान्ह-सारिणी, HF-
प्रशस्ति, वृत्त-संग्रह, राजा जन्मेजय का दानपत्र, मङ्गलीश्वर ,का दानपत्र,
मणिकणिंका, काशी, पम्पासर का दानपत्र, कनोज, नागसज्ञछा का दानपत्र, `
Rage रमाकुण्ड-प्रशस्ति, गोविन्ददेवजी के मन्दिर की प्रशस्ति, प्राचीन-
काळ का सम्त्रत-नि्णय, शिवपुर का द्रौपदी-कुण्ड, अ णहत्या, हाँ हम
मूतिंपूजक हैं, दु्जेन-चपेटिका, इंशुखुष्ट और . इंशकृष्ण, शब्द
शक्ति, भक्ति ज्ञानादिक से क्यों बड़ी हे ? पबलिक ओपिनियन, ayaa
की कविता, विनय-पत्र, ROR, . इन्द्रजाल, चतुरङ्ग, लाजवन्ती
qed, कुरवधूज़नों को चितावनी, स्री, वर्षा, सती alta ? रामसीता
सम्बाद ? बसन्त और - कोकिला ? सरस्वती और सुसति का aang?
wadt और मालती सम्बाद ? ग्रेम-पथिक ? ( चिन्ह वाले लेख सन्दिग्ध.) :


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८ % कविता-कौसुदी, दूसरा भाग *


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हैं, वे हरिश्वन्द ही के लिखे हैं वा दूसरों के? ), मित्रता, अपव्यय, _


किसका शल्‌, कौन है ?; भूकम्प, नौकरों को शिक्षा, बुरी रीतें, सूयादय,
आशा, लाख लाख वात की एक वात, बुद्धिमानों के अनुभूत सिद्धान्त,
भगवत्‌ स्तुति, agaa जगत्‌ वर्णन, इधर के वर्तमान होने के विषय में,
` इन्गछेंड और भारतवर्ष, वज़ाधात से स्यु, त्योहार, होली, वसन्त, लेवी.
प्राण लेवी, मसिया।
/ सम्पादित, संग्रहीत
` सुन्दरी तिलक, राधासुधा शतक, . सुजानशातक, कवि-हृदय-सुधाकर,
चमनिस्ताने हमेशा बहार चार भाग, TSAR पुर वहार, जरासन्ध-वध महा-
काव्य, भागवत-शझ्ञ-निराशवाद, मलारावली, शङ्गार-ससशती, भापा-
व्याकरण ( पद्य ), इत्यादि ऐसे सम्पादित और संग्रहीत पुस्तकों की संख्या
७५ है।
भारतेन्दुजी बड़े रसिक और प्रेमी जीव थे। जिस समय ये प्रेमावेश
में होते थे, इन्हें अपने शरीर की सुध न रहती थी । भगवान्‌ श्रीकृष्ण के
ये अनन्य भक्त थे । ये प्रायः कहा करते थे :--
श्रीराधा माधव ' युगल ग्रेमरस का अपने को मस्त बना 1:
पी प्रेम पियाला अर भर कर कुछ इस में का भी देख मजा ॥
` इतब्रार न हो तो देख न छे क्या हरिश्चन्द्र का हाल हुआ ।
पी प्रेम पिया भर भर कर ` कुछ इस मे का भी देख मजा ॥
` सांसारिक भोग-विलास में फॅले रहने पर भी ये अपने को भूले न थे ॥
एक स्थान पर ये कहते हैं :-- ;
3 जगत जाल में नित बेंध्यो , पर्‍्यो नारि के
मिथ्या अभिमानी पतित , gat कवि हरिचंद ॥
“प्रेम-जोगिनी”” में सूबधार के मह से कहलाते हें -- RER
` “att aa ही नेन नीर भरि भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी!
रहि जायरी ।” |


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इसमें सन्देह नहीं कि आांरतेन्दुजी ar यह कथन अक्षरशः
सत्य हुआ |

अपने विषय में ये अभिमानपूर्वेक कहा करते थे :--

चन्द्‌ डरै सूरज ररे , दरै जगत के नेम।
वे इढ़ श्रीहरिचन्द को , टरै न अविचल प्रेम ॥
मेवाइ-नरेश महाराणा सञ्जनसिंह का इन पर वड़ा स्नेह था। उनसे
मिलने के लिये ये सन्‌ १८८२ में उदयपुर गये । वहाँ से लौटने पर बीमार
हो गये । बीमारी की हालत में भी इनका लिखना पढ़ना न Bet । शरीर
क्षीण होने छूगा। क्षय का रोग हो गया । मरने से महीना डेढ़ महीना पहले.
इनका हृदय शांतिरस की ओर. विशेष रूप से आकपिंत हुआ था।
५८८५ की दूसरी जनवरी को इन्हें यकायक भयानक ज्वर आया । तीसरे
दिन खांसी का प्रकोप हुआ । ६ जनवरी को सवेरे तवीयत बहुत ठीक
रही । अन्तःपुर से दासी स्वास्थ्य का समाचार पूछने ME । इन्होंने हँस
कर कहा :—

“हमारे जीवन-नाटक का प्रोग्राम नित्य नया नया छप रहा हे । पहले:
दिन ज्वर की, दूसरे दिन दद की, तीसरे दिन खांसी की सीन हो चुकी,
देखें लास्ट नाइट कब होती हे ।??

उसी दिन दोपहर को स्वास्थ्य फिर खराब हो चला । धीरे धीरे रात
के नो बजे का समय आ पहुँचा । ये यक्रायक पुकार उठे--'' श्रीकृष्ण !
राधाकृष्ण ! हे राम ! आते हैं, मख दिखलाओ ।?? कंठ कुछ रुकने लगा ।
एक दोहा सा कहा, जो साफ साफ़ सुना नहीं गया | बस, पौने दस बजे,
भारतेन्दु अस्त हो गया । इनकी रूत्यु से भारतवषे अर के विद्वान्‌ बहुत
दुःखी हुये थे । सारे देश में शोक समाये” हुईं 1 अङ्गरेजी, उदू, बंगला
गुजराती, मराठी आदि प्रायः सब भाषाओं के पतों ने महीनों शोकचिन्ह
धारण किया ।

भारतेन्दु अपने ससय के एक aah विद्वान ओर सुक्रचि थे ॥


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१० * कविता-कोसुदी, दूसरा भाग *


इनकी सबसे अंतिम रचना यह पद हे :---

SEI कूच का बज रहा मुसाफिर जागो रे भाइ ।

देखो लाद चले पंथी सव तुम क्यों रहे भुलाई ॥

जब चलना ही निहचै हे तो लै किन माळ लदाई ।

हरीचंद हरिपद बिनु नहि तो रहि Set संह वाइ ॥

नीचे हम भारतेन्ड्रु के काव्य-प्रन्यों से इनकी कुछ ललित रचनाओं का
नमूना STAT करते हैं :--
(3


नव उजल जलधार हार हीरक सी सोहति ।
बिच बिच छहरति वूँद मध्य मुक्ता मनि पोहति ॥

- छोल लहर we पवन एक पे इक इमि आवत ।
जिमि नर-गन मन बिविध मनोरथ करत .मिटावत ॥
सुभग स्वगं सोपान सरिस सब के मन भावत ।
द्रसन मज्जन पान लिविध भय दूर मिटावत ॥ |
श्रीहरि-पद-नख-चन्द्रकान्त-मन-द्रवित सुधारस | i . या
FE कमण्डळ मण्डन भवखण्डन सुर-सरबसः॥ |
दिव-सिर-माळति-माळ 'मगीरथ नृपति-पृण्य-फल ।
ऐरावत-गज-गिरि-पति-हिम-नग-कण्ठहार कळ ॥
*सगर-सुवन सठ सहस परस जलमात्र उधारन |
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन ॥
'कासी कहें प्रिय जानि लळकि भेंव्यो जग घाई ।
सपने हूँ नहि” तजी रही अंकम छपटाई ॥ . .
कहुँ बंधे नव धाट उच्च गिरिवर सम सोहत |
कहु छतरी कहुँ मंदी बढी मन मोहत जोहत ॥

WAS धाम चहुँ ओर फरहरत ध्वजा पताका ।

हरत घंटा घुनि धमकत घोंसा करि साका ॥


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% हरिश्चन्द्र * : ११


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मधुरी नौबत वजत कहूँ. नारी नर गावत |

aq पढत कहुँ द्विज कहुँ जोगी ध्यान लगावत ॥

कहुँ सुन्दरी नहात नीर कर जुगल उछारत |

जुग अम्बुज मिलि मुक्त गुच्छ मचु सुच्छ निकारत ॥
धोवत सुन्दरि बदन करन अतिही छवि पावत । .
वारिधि नाते ससि-कलङ्क सनु कमल मिटावत ॥
सुन्दरि ससि मुख नीर मध्य . इमि grat सोहत । `
कमळ बेलि weed नवल कुसुमन मन मोहत ॥

दीठि जहीं जहँ जात रहत तितहीं ठहराई ।

रङ्गा-छवि हरिचन्द कछू बरनी नहि जाई ॥

; २ )

ग्रगटहु रवि-कुल-रवि निसि बीती प्रजा-कमरू-गन फूछे ।
मन्द परे रिपुरान तारा सम जन-भय-तम उनमूले ॥

बसे चोर लम्पट खळ लखि जग तुव प्रताप प्रगटायो ।
मागध बन्दी सूत चिरेयन सिलि कळ रोर मचायो ॥
तुव ज़स सीतळ पौन परसि चटकीं गुलाब की कलियों |
अति सुख पाइ असीस देत कोइ करि अंगुरिन चट अियाँ ॥
भये धरम में थित सब द्विजजन प्रजा काज निज लागे ।
` रिपु-जुवती-मुख-कुमुद मन्द, जन-चक्रवाक अनुरागे ॥
अरघ सरिस उपहार लिये नुप ठाढे तिनकहँ तोखौ।
न्याय कृपा सों ऊंच नीच सम समुझि परसि कर पोखौ ॥


३. ) :
सोइ मुख जेहि चन्द डी । सोडे' अंग जेहि प्रिय कारे जान्यो ॥
सोई सुज जो fam डारे । सोइ सुज जिन नर विक्रम पारे ॥
सोई पद जिहि सेवक बन्दत । सोई ofa जेहि देखि अनन्दत ॥

. .सोइ .रसना जहेँ ae बानी | जेहि सुनि के हिय नारि जुड़ानी ॥


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१२ ॐ कविता-कोमुदी, दूसरा भाग #


ON NIN NING ee ०७ रत =
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सोई हृदय जहेँ , भाव अनेका । सोई सिर we निज वच टेका ॥ |
सोई छवि-मय अंगः: सुहाये । आजु जीव विनु धरनि सुहाये ॥ ।
कहाँ गई वह. सुन्दर सोभा । जीवत जेहि लखि सब मन लोभा ॥ |
प्रानहुँ ते वदि moa चाहत । ताकहे आजु संत्रे..मिलि दाहत ॥ |

बोझ, हू जिन न सहारे | तिन पे बोझ काठ वहु डारे॥ .
सिर पीड़ा जिनकी नहि हेरी। करत कपाल-क्रिया तिन केरी ॥ |
छिनहूँ जे. न: भये. कहुँ: न्यारे। तेऊ aa तन छोड़ि सिधारे ॥ |
जो इगकोर महीप ` निहारत-। आजु काक. तेहि भोज बिचारत॥ |
सुज वळ जे नहि gat समाग्रे । ते लखियत मुख कफन छिपाये ॥. ।
नरपति प्रजा भेद . बिनु, देखे गने ae aa एकहि. लेखे ॥
सुभग कुरूप अस्त बिख साने। आजु a इक भाव बिकाने॥ |
पुरु दधीच कोऊ . अब नाहीं । रहे नॉवहीं. अन्धन मोही ॥. |

5 ( $

went चहुँ दिसि ररत इरत सुनि के नर नारी।

फटफटाडू दोउ पंख उलूकहु रत पुकारी ॥

- , _ अन्धकार बस गिरत काक अरु चील' करत रव |
* रिद-गरुइ-हइगिछ भजत लखि निकट भयद रव ॥
रोअत सियार, गरजत नदी, स्वान सकि डरपावई |
संग दादुर झींगुर रुदन धुनि मिलि स्वर ane मचावई ॥

SS)
सहत विविध दुख मरि मिटत , भोगत. लाखन सोग ।
A
निज सत्य न छौंडहीं ; जे जग साचे लोग ॥
बरु सूरज ` पस्छिम उगे , विन्ध्य तरै जळ माहि |
सत्य वीरजन पे s ao टारत ae
० 8


जय जय जगदीश रास, इयाम धाम पुणे काम, आनन्द घन ब्रह्म


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के ` हरिश्चन्द्र oe ` १३


PSII SD ODS CII


विष्णु, सतचिंत : सुखकारी । कंस रावनादि फाल, सतत प्रनत भक्तपाल,
सोभित गल सुक्तमाल, दीनताप-हारी ॥ प्रेम भरण पापहरण, ' असरन जन
सरन चरन, सुखहि करन दुखहि दरन, वृन्दावनचारी | रमावास जग
निवास, रमा रमन, समन लास, विनवत हरिचंद दास, जय जय गिरिधारी ॥ .

जिनके हितकारक पंडित हैं तिनको कहा waa को डर हे । `

समझें जग में सब नीतिन्ह जो fare दुगे बिदेस सनो घर हे ॥

जिन मित्रता राखी है लायक सों तिनकों तिनकाहू महासर. हे ।

जिनकी परतिज्ञा हरै न कवों तिनकी जय. ही सब ही शर हे ॥

(rE

जयत सें घर की फूट atin के फूटहि सों विनसाई सुवरन
degi ॥ R सों सब कौरव नासे भारत युद्ध भयो । जाको घाटो या .
भारत में अबलों नहि पुजयो ॥ फूटहि सों जयचन्द डुछायो जवनन भारत
घाम | जाको फल अत्र लौं भागत सब्र आरज होइ गुलाम ॥ फूटहि सों
नवनन्द बिनासे गयो मगध को राज । चन्द्रगुस को नासन चाह्यो आप
नसे सह सान | जो जग में घन मान ओर AS अपनो | राखन होय। तो
अपुने घर में भूले हू फूट करो सति कोय॥
i ( )

करि म्रख मित्र मिताई, फिरि पछितेद्दों रे भाई | अन्त दगा खेंहो
सिर' घुनिहो रहिहो सबै गॅवाई ॥ सूरख जो कछु'हितहु करे तो ताम अंत
बुराई | उलढो seal काज करत सब . देहे अन्त नसाईं॥ काख करो हित
मूरख सों पे ताहि न कडु समझाईं । अन्त gue: सिर पे ऐहे. रहि जेहो
We बाई ॥ फिरि पछितेहों रे भाई ॥


( Dr
जग सूरज चंद टरें तो टरें पे न सजन Ag wal. विचरे ।
चन संपति सवंस गेहु नसौ नहीं प्रेम की मेंड सों ऐँड रले ॥


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१४ # कविता-कोमुदी, दूसरा भाग #


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सतवारदिन को "तिनका सम आन रहे तो रहे वा ढळे तो ढळे ।
निज मीत की अति प्रतीति रहौ इक और सवे .जग जाउ भले ॥


5 ( 22 )
विचक्षणा।--गोरे तन कुमकुम सुरँग , प्रथम न्हवाइ बाल ।
राजा ।--सो तो जनु कंचन तप्यो., होत पीत सों लाळ ॥
Rao ।--इन्दनीलमणि Yat, ताहि दुई पहिराय ।
राजा ।--कमल कली जुग घेरि के , अलि aq 32 आय॥
Rao ।-सजी इरित सारी सरिस , gus जंघ कहुँ घेरि ।
राजा ।--सो मनु कदली पात निज , खंभन लपस्यो «| AR
Rao ।--पहिराह मनि किंकिनी , छीन सुकटि तट छाय ।
राजा ।--सो सिंगार मंडप बँधी , बन्दनमाल सुहाय tt


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क्चि० ।--गोरे कर कारी. चुरी , चुनि पहिराई हाथ । ˆ


राजा ।--सो सॉपिन रूपटी wae , चंदन o साखा साथ॥
Rao ।--निज कर सों बॉधन छगी , चोली a वह बाल ।
, राजा ।--सो मु खींचत तीर भट ,-तरकस ते तेहि. काळ ॥


विच० ।-लाल कंचुकी मैं उगे , जोबन , We लखात ।'
राजा ।--सो मानिक delat, मन, चोरी हित गात॥ -


विच० ।-बड़े बड़े gam सों , गछ आति सोभा देत।


. राजा ।--तारागन आये मनों , निज पति ससि के हेत'॥
ˆ Rao ।--करनफूळ जुग करन में , अति ही करत प्रकास ।
' राजा ।-मनु ससि ले हे कुमुदिनी. , बेद्यो उतरि अकास॥ `


विच० ।--बाल्य के जुग कान में , वाळा : सोसा देत |
। लकत अस्त ससि दुहु तरफ, पियत मकर करि हेत॥


राजा
* विच० 1--जिअ रक्षन खंजन इगनि , अञ्जन . दियो aq)


राजा ।--मनहुँ सान Ft मदन, जुगुल |वान निज लाय ॥
र : ५


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ओ हरिश्चन्द्र - ऋ


।-—चोटी शुथि पाटी सरस , करि के वाँधे केस ।


१५


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राजा --सनहुँ सिंगार एकत्र है, fet बार के बेस ॥
Rao ।--बहुरि see ओढ़नी , अतर सुबास बसाय |
राजा 1--फूललता , ल्पटी किरिन , रवि ससि की मनु आय ॥
विच ।--पुहि विधि सो भूषित करी , भूषण बसन बनाय |
राजा 1--काम वाग झालरि . हई , सनु बसंत ऋतु पाय ॥

( कपूंरमंजरी से )
( १२)


परम प्रेम-निधि रसिकवर , अति उदार गुन-खान |
. जग-जन-रक्षन आझु कवि , को हरिचन्द्र समान ॥

जिन श्रीगिरघरदास कवि , रचे ग्रन्थ चालीस |
ता सुत श्रीहरिचन्द को , को न नवांचे सीस॥


जग जिन तृन-सम करि तज्यो , अपने प्रेम . प्रभाव | `
करि गुलाब सों आचमन , लीजत ' वाको नाव ॥
(१३) i
ल्गोहीं चितवनि औरहि होति ।


दुरत न लाख दुराओ कोऊ ग्रेम झलक की जोति ॥
fee में नहि थिरत तनिक हूँ अति went बानि ।
छिपत.न केसहु श्रीति निगोड़ी अन्त जात सब जानि ॥
( १४ )

हों तो याही सोच में विचारत रही री काहे'
aa हाथ ते न छिन बिसरत 21

त्योंहीं हरिचन्द जू वियोग औ संयोग दोऊ
- एक से तिहारे कछु छखि न परत Fu

जानी आज हम met तेरी बात
तू तौ परम पुनीत fava विचरत है।


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# कचिता-कोमुदी, दूसरा भाग ३


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तेरे चेन मूरति पियारे फी वसति ताहि
आरसी में रेन दिन देखिवो करत हे ॥
(३५)
ga दुखियान को न सुख सपने हूँ मियो
योहीं सदा व्याकुल विकल अकुलयँगी ।
प्यारे हरिचन्द जू की बीती जानि औध जो पे `
Be प्रान तऊ ये तो साध न समायँगी ॥
देख्यो एक वारहू न नेन भरि तोहि याते.
जौन जौन लोक AS तहो पछितायँगी ।
Aa आनप्यारे भये दरस तिहारे हाय
देखि लीजो आँखें ये खुली ही रहि जायेगी ॥
( १६ )
सरनि-तनूजा तट तमाळ तरुवर बहु TI
झुके कूळ सों जल-परसन हित wag सुहाये ॥
किधों मुकुर में लखत उझकि सत्र: निज निज सोभा ।
कै प्रवत जल जानि.परम पावन फल. - लोभा ॥


ˆ “मनु आतप, बारन तीर फो सिसिटि सबै छाये रहत ।


'के हरि-सेवा हित ने रहे निरखि नेन मन/सुख छहत ॥१॥


कहूँ तीर पर अमळ कमळ सोमित बहु भतिन ।
कहुँ सेवाळन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पॉतिन ॥ .
ag इग घारि अनेक जसन निरखत निज सोभा ।
के उमगे प्रिय प्रिया प्रेम के 'अनगिन गोमा ॥


कै कारके कर ag पीय को टेरत निज ढिग सोहई ॥
कै पूजन को उपचार छै "चलति मिलन मन मोहई ॥२॥


के पिय पद उपमान जानि एहि निज उर धारत। .
कै सुख करि बहु.सुङ्गन मिस अस्तुति उच्चारत ॥


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के हरिश्चन्द्र =


कै ब्रज तियगन वदन कमळ की झलकत झाइ' ।
कै गरज हरिपद-परस-हेत कमला बहु आईं ॥
के सात्विक अरू अनुराग दोउ अजमण्डर बगरे फिरत |
के जानि रूच्छमी-भोन ae करि सतघा निज जल धरत ॥३॥
तिन पे जेहि छिन चन्द जोति राका निसि आवति ।
जल में मिलि कै नभ अवनी लों तान तनावति ॥
होत सुङुरमय सवै तवै उजळ इक ओभा |
तन मन नेन जुड़ात देखि सुन्दर सो सोभा ॥
सो को कवि जो छवि कहि सके ताछन जमुना नीर की ।
मिलि अवनि और अम्बर रहत छबि. इक सी नभ तीर की neti
परत चन्द्र-प्रतिबिम्ब कहूँ जलमधि चमकायो |
लोळ लहर लहि नचत कबहु सोई मन भायो ॥
मनु हरि दरसन हेत चन्द जल बसत सुहाये।।
कै तरङ्ग कर var लिये सोभित छवि छायो ॥
कै रास रमन में हरि ase आभा जळ दिखरात 21
कै जल-उर हरि मूरति बसति वा प्रतिबिम्ब लखातु है ॥७॥ :
कबहुँ होत सत चन्द कबहुँ प्रगटत दुरि भाजत |
पवन गवन बस बिम्ब रूप जल में बहु साजत ॥
सनु ससि भरि अनुराग जमन जल लोटत डोले । :
कै तरङ्ग की डोर हिडोरन करत कलोले ॥
कै बाल गुडी नभ में उड़ी सोहत इत उत धावती ।.
कै अवगाहत डोलत कोऊ नजरमनी जळ आवती Nall
मजु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिरि जात जमन जळ ।
कै तारागन ठगन छकत प्रगटत ससि अविकल N
के कालिन्दी नीर तरङ्ग जितो उपजावत ।
तितनो ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ॥



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१७ :


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१८ ॐ कचिता-कोसुदी, दूसरा भाग *


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के बहुत रजत चकईं चलत कै फुहार जल उच्छरत |
कै निसिपति मछ अनेक विधि उठि बैठत कसरत करत toll
कूजत कहुँ कलहंस कहूँ मञ्जत पारावत |
कहुँ कारंडच उड़त कहूँ जलकुक्कुट धावत ॥
चक्रवाक कहुँ बसत कहूँ बक ध्यान लगावत ।
सुक पिक जल कहुँ पियत कहूँ अमरावलि गावत ॥


, कहुँ तट पर नांचत मोर बहु रोर' बिविध पच्छी करत ।
* जलपान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सत्र जिय घरत ॥८॥
कहूँ वालुका बिमल सकल कोमळ बहु TE |
उज्जल झलकत रजत सिंदी मनु सरस सुहाई ॥
` पिय के आगम हेत पॉवडे मनहुँ बिछाये ।
`” रत्नरासि करि चूर कूल में मनु बगराये ॥
मनु सुक्त माँग सोभित भरी इयाम नीर. चिकुरन परसि ।
` सतगुन छायो के तीर में ब्रजनिवास खि हिय हरसि ॥९॥
'( (१७ ) ©
त्‌ केहि चितवति चकित सखगी सी ।


, केहि ढं ढत तेरो कहा खोयो क्यों अकुलाति छूखाति ठगीसी ॥
तन सुधि करु उघरत री ऑचर कोन ख्याल तू रहति खगी सी ।
उतर न देत जकी सी बेडी मद पीया कै रैन जगी सी ॥


चोकि'चोंकि चितवति ang दिस सपने पिय देखति उमगी सी ।:


` भूल बैखरी सगछोनी ज्यों निज दळ तजि कहुँ दूर भगी सी ॥
करति न लाज हार घर चर BSS मरजादा जाति डगी सी ।
इरीचन्द ऐसिहि उरझी तौ क्यों नहि डोलत संग लगी सी ॥
( ve )
जहाँ बिसेसर सोमनाथ माधव के मन्दर ।
` तहँ महजिद बन गई होत अब अछा अकबर ॥


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* हरिद्चन्दर * >. श्री


कश OP OPP PLLA ALLA APDIP APOIO DPD OI OE PAPEL COCO Ce


जहँँ झूसी उज्जैन अवध कनोज रहे वर ।
aE अब रोअत सिवा चहुँ दिशि लखियत Geax ॥
we धन विद्या बरसत रही सदा अने वाही ठहर । :
बरसत सव ही विधि बेबसी अब तो चेतो बीर वर ॥
( १९ )
कहुँ गये विक्रम भोज राम बलि कग युधिष्टिर ।
WATT चाणक्य कहाँ नासे करि कै थिर ॥
कहुँ छत्री सब मरे विनसि सब गये किते गिर ।
कहाँ राज को तौन साज जेहि जानत हे चिर ॥
कहुँ ET Ga धन बल गयो, RÈ धूर दिखात जग ।
उडि अजों न मेरे वत्सगन, रच्छहि' अपुनो आर्य मग ॥
( २० )
रोवहु सब मिलि के आवहु भारत भाई ।
हा हा ! भारत gaat न देखी जाई ॥ धुव ॥'
सब के पहिले जेहि sax धन वल दीनो.।
सब के पहिले जेहि सम्य विधाता कीनो ॥.
सब के पहिले जो रूप रङ्ग रस भीनो।
सब के पहिले विद्याफ निज गहि लीनो ॥ ।
अब सब के पीछे सोई परत छखाई ।'
हा हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥ १ ॥.
we भये शाक्य हरिचन्दरु नहुष ययाती) O o
| we राम युधिष्ठिर वासुदेव सयांती॥
we भीम करन. अजुन की छटा दिखाती ।
we रही ae see अविद्या राती ॥
अब we देखहु तहँ दुःखहि दुःख दिखाई।
हा हा! भारत दुदंशा न देखी m २ li


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२० क कविता-कौमुदी, दूसरा भाग +


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nn — जज


at बैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी ।
करि कलह बुलाई जवन सेन git भारी ॥ |
तिन नासी बुधि बल विद्या धन बहु बारी । |
छाई अब आळस कुमति कलह अँधियारी ॥ ।
भये अन्ध पंगु सब दीन होन बिल्खाईं। |
हा हा! भारत gim न देखी जाई ॥३॥ i
अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी । |
पै धन बिदेस चलि जात इहै अति ख्वारी ॥ |
ताहू पे महँगी काळ रोग ब्रिस्तारी। |
.. दिन दिन दूने दुख इंस देत aan |
.सबके ऊपर fea की आफूत आइ।' |
हा हा! भारत gma देखी जाई॥ ४॥ |


( २१ )
रचि बहु बिधि के वाक्य पुरानन माहि छुसाये।
`. शैव शाक्त वैष्ण अनेक मत sme चलाये ॥
जाति अनेकन करी नीच अरु उँच बनायो।
खान पान सम्बन्ध सबन सों बरजि छुड़ायो॥ -
जन्मपत्त बिधि मिले ब्याह नाहि होन देत अब।
बालकपन में cafe प्रीति बळ नास कियो सब ॥
करि कुलीन के बहुत व्याह बल वीरज माज्यो।
बिधवा ब्याह निषेध कियो बिभिचार प्रचाऱ्यो ॥
रोकि. Rema ' रामन PARE बनायो।
औरन को संसग gee प्रचार घटायो ॥ :
बहु देवी देवता भूत R पुजाई। |
gm- सों सब . बिसुख किये हिन्दू घबराई ॥


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= हरिश्वन्द्र # २१


Ae OOOO OOO ANANSI


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जागो जागो रे भाइ ।
सोअत निसि बैस गँवाइई | जागो जागो रे भाई ॥
निसि की कौन कहे दिन बीत्यो काल-राति चलि आई ॥
देखि परत नहि" हित अनहित कछु परे aR बस आइ |
निज उद्धार पंथ नहि" सूझत सीस घुनत पछिताई ॥ _
aag चेति पकरि राखौ किन जो कछु वची बड़ाई |. _
फिर पछिताये कछु नहि' हव हे रहि जैहो सुं ह बाई ॥


( २३ )
सोओ सुखनिंदिया, प्यारे wea ।

नेनन के तारे दुलारे मेरे वारे, `

सोओ सुखनिं दिया, प्यारे लछन ।
महे आधीरात बन सनसनात,

पथ पंछी कोउ आवत न जात,
जग प्रकृति भई मनु थिर खात,

wag नहि' पावत तरुन हलन ॥ सोओ० ॥


झल्मलत दीप सिर धुनत आय
ag प्रिय पतंग हित करत हाय,

सतरात अंग आलस जनाय i
सनसन लगी सीरी पवन चलन ॥ सोओ० ॥


सोये जग के सब नोंद घोर,

जागत कामी चिंतित चकोर
बिरहिन बिरही me चोर,

इन he छन रेनह हाय कल न ॥ सोओ०॥


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LAAN ISI


( २४ )
प्यारी बिन कटत न कारी रैन ।
पळ छिन न परत जिय हाय चैन ॥ E
तन पीर बड़ी सब छुट्यो धीर । द ।
कहि आवत नहि' कछु मुखहु वेन॥ |
जिय तडफडत सब जरत गात । - |
टप टप टपकत दुख भरे नेन ॥
परदेस परे तजि देस हाय ।
दुख मेटनहारो कोउ है न ॥


|

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सजि विरह सैन यह जगत जेन । : |
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|

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RR # कविता-कोसुदी, दूसरा भाग & :


मारत मरोरि मोहि पापी मेन ॥
; ( २५ )
सब भोति देव प्रतिकूल होइ एहि नासा ।
अब तजहु बीरबर भारत की सव आसा ॥ धुव ॥
अब सुख सूरज को उदय नहीं इत हे हे ।
सो दिन फिर इत अब सपनेह नहि ऐहे ॥
स्वाधीनपनो बल धीरज सबहि नसैहै |
मंगलमय भारत Ba मसान हे Ve ॥
दुख ही दुख करिहे चारहुँ ओर प्रकासा ।
अब तजहु बीरवर भारत की सब आसा ॥३॥
इतं कलह विरोध सबन के हिय घर करिह ।
मूरखता को TT ARE ओर पसरिहै।
. वीरता एकता ममता दूर सिधरिहे ।
तजि उद्यम सबही दासवृत्ति अनुसरिहे ॥


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ॐ हरिश्यन्द्र x २३
है जैहें चारहु वरन शूद्र बनि दासा ।
अब तजहु बीरबर भारत फी सब आसा ॥२॥ र
हे हैं इतके सब भूत पिशाच उपासी ।
; कोऊ वनि SF आपुहि eri प्रकासी ॥
नसि SF सगरे सत्य धमं अविनासी ।
५ निज हरि at BF विमुख भरत झुववासी ॥
नजि सुपथ सबहि जन करिहैं कुपथ विलासा |
___ अब तजहु वीरवर भारत की सब आसा ॥३॥
अपनी चस्तुन कहूँ ated सबहिं पराइ |
निज चाल छोडि गहिहें औरन की धाइ ॥
तुरकन हित ake हिन्दू संग लाई |
यवनन के चरनहि' wee ata चढ़ाई ॥
तजि निज कुल ake नीचन संग निवासा ।
'अब तजडु वीरवर भारत की सब आसा ॥शा
रहे हमहुँ कबहुँ स्वाधीन आयं बळधारी ।
यह देहे जियसों सबही बात ब्िसारी ॥
हरि विमुख धरम बिनु धन बलीन दुखारी।
आलसी मन्द तन छीन छुघित संसारी ॥
सुख सों alee सिर यवनपादुका लासा |
अब तजहु वीरवर भारत को सब आसा ॥५॥
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( २६ )
meg बीरं उठि तुरत संबे जय ध्वजहि उड़ाओ।
लेहु म्यान सों खङ्ग खाँचि रनरंग जमाओ ॥
परिकर कसि कटि उठो धनुष पे धरि सर ATT
केसरिया बानो सजि सजि रलकंकन बाघों ॥


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22 अ कविता-कोलुदो, दूसरा भाग *


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जो आरजगन एक होइ निज रूप सम्हारे' ।
तजि गुह कलहहि' अपनी कुल मरजाद विचारे ॥
तौ ये कितने नीच कहा इनको बल भारी ।
सिंह जगे कहुँ स्वान RE समर, मँझारी ॥
पदतल इन कहुँ दुल्हु कीट तृन सरिस जवन चय |
. तनिकहुँ संक न करहु धम्मं जित जय तित निश्चय ॥
IRAAN को वधन पन्य जा अधम धम्मं में। `
गोभक्षन द्विज श्रुति हिंसन नित जासु कार्म में ॥
'तिनको तुरितहि' हतौ HAS रन कै घर माहीं ।
इन दुष्टन सों पाप किएहूँ पुन्य सदाहीं ॥
चिउँटिहु पदतळ दबे डसत ह्वे तुच्छ जंतु इक ।
ये प्रतक्ष अरि इनहि' उपेछे जौन ताहि घिक ॥
चिक तिन कहँ जे आय्यं होइ जवनन को चाहे |
धिक तिन कहे जे इनसों कडु सम्बन्ध ae ॥.
. उठहु बीर तलवार खींचि मारहु घन संगर।
लोह लेखनी Sag आर्य बळ जवन हृदय पर ॥
मारू वाजे बजे कहो घोसा घहराहीं ।
उड़हि' पताका सत्र, हृदय SS लखि थहराहीं ॥
चारन बोळहि' आये सुजस बन्दी शुन गावें ।
FR तोप घनघोर wa बन्दूक चलावें ॥
चमकहि' असि भाले दमकहि' ठनकहि तन बखतर ।
हींसहिः हय झनकहि' रथ गज चिक्करहि समर थर ॥
, छन. महेँ नासहि' आये नीच जवनन कहेँ करि छय ।
कहहु सबै भारत जय भारत जय भारत जय ॥


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ऋ हरिश्चन्द्र ॐ २५
( २७ )
चूरन अमल बेद का भारी । जिसको खाते कृष्ण मुरारी॥
मेरा पाचक - हे पचलोना | जिसको खाता इग्राम सलोना ॥
चूरन बना मसालेदार | जिसमें खंदे की बहार ॥
मेरा चूरन जो कोइ खाय । मुझको छोड़ कहीं नहि" जाय ॥
हिन्दू चूरन इसका नाम । विजायत पूरन इसका काम ॥
चूरन जब से हिन्द में आया | इसका धन वळ सभी घटाया ॥
चूरन ऐसा हट्टा कद्या। कीना दाँत सभी फा खहा ॥
चूरन चला डाळ की मंडी । इसको खायेंगी aa रण्डी ॥
चूरन अमले सब जो खावें। दूनी waa तुरत पचाचें॥
चूरन नाटकवाले खाते । इसकी नकल पचाकर लाते ॥
चूरन सभी महाजन खाते | जिससे जमा हजम कर जाते॥
चूरन खाते wer लोग । जिनको अकिल अजीरन रोग ॥
` चूरन खावें एडिटर जात | जिनके पेट पचे नहि. बात ॥
चूरन साहेब लोग जो खाता । सारा हिन्द हजम कर जाता ॥
चूरन पूलिसवाले खाते । सब "कानून हजम कर. जाते ॥
ले चूरन का ढेर । बेचा टके सेर ।
( २८ )
जग में पतित्रत सम नहि आन।'
नारि हेतु कोड धमं न दूजो जग में यासु समान ।
6 अनुसूया सीता aft इनके चरित प्रमान ।
'पतिदेकता तीय जग धन धन गावत वेद पुरान ॥ .
धन्य देस कुल we निवसत हैं नारी सती सुजान ।
धन्य समय जब जन्म लेत ये धन्य व्याह असथान॥ r
सव समर्थ पतिबरता नारी इन सम ओर न आन ।
याही ते mig में इनको करत संवे गुन गान ॥


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२६ # कविता-कोमुदी, दूसरा भाग *


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( २९ )
मेरी भव वाधा हरो , राधा नागरि सोइ। । |
'जा तन की ae परे , स्याम हरित दुति dieu |
स्याम हरित gf होइ, परे जातन की झाई. -
qa qed लाल , लखत dat कन्हाई ॥
श्रीहरिचन्द वियोग , पीतपट मिलि दुति हेरी ।
नित हरि जा रङ्ग रङ्गे, हरौ वाधा सोइ मेरी ॥१॥
सोहत ओढे पीतपट , स्याम att गात ।
मनो नीलमणि सेल पर , आतप पज्यो प्रभात ॥
आतप पऱ्यो प्रभात , किधौं get घन लपटी ।
जरद्‌ चमेली तरु तमाल , में सोभित सपटी ॥
प्रिया रूप अनुरूप , जानि हरिचन्द विमोह ।
स्याम सलोने गात, पीतपर ओढे सोहत ॥२॥
इन दुखिया अँखियान कों , सुख सिरजोई नाहि ।
देखे बनें न देखते , बिनु. देखे अकुलाहि' ॥
fg देखे अकुल्ाहि , बावरी हे ह्वै at ।
उघरी उघरी at, लाज तजि सत्र सुख ata ॥ .
देखे Heed , नयन भरि we न सखिया ।
कठिन प्रेम गति रहत , सदा. दुखिया ये अँखियाँ nan


( SAE THT a ) न


=


( ३० )
` भई सखि ये अखियॉ बिगरेळ । '


बिरारि परी मानत, नाहि देखे बिना साँबरो छेळ ॥
Fe पतवार घरत पग डगमग नहि सूझत कुल गेल ।
तजि के लाज साज गुरुजन को हरि की भइ रखेल u


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# ` हरिश्चन्द्र ॐ २७


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निज चबाव सुनि औरहु हरखत करत न कछु मन मेळ 1
हरीचन्द सब संक छाडि के करहि' रूप की सेल ॥
( ३१ )
राधे ga सोहाग की छाया जग में भयो Aaa ।
तेरी ही अनुराग छटा हरि सृष्टि करन अनुराग ॥
सत चित तुच कृति सों बिलगाने लीला प्रिय जन. भाग ।
पुनि हरिचन्द अनन्द होत लहि तुव पद्‌ पदुम पराग ॥
( ३२ )
` AR याको नाँच नियाव ।
जो तोहि भजे ताहि ae भजनो कीनो भलो बनाव ॥
fag कछु किये जानि अपनो जन दूनो दुख तेहि देनो ।
भली नई यह रीति चलाइ उल्टो अवगुन छेनो ॥
हरीचन्द यह भली Rast हेंके अंतरजामी ।
चोरन छाँडि ate के ster set धन के स्वामी ॥
( २३ )
भरोसो-रीझन ही लखि भारी ।- .

हमहूँ को विश्वास होत है-मोहन पतित उधारी ॥
जो एसो सुभाव नहि' हो तो क्यों अहीर कुछ भायो ।
- तजि के कौस्तुभ सो मनि गळ क्यों Gen हार धरायो ॥
कीट मुकुट सिर छोड़ि पखौआः मोरन को क्यों घाऱ्यो ।
फेंट कसी टेंटिन पे मेवन की क्यों स्वाद बिसाऱ्यो ॥
ऐसी seat रीझ देखि के उपजत है जिय आस ।
जग निन्दत हरिचन्दहु को अपनावहि गे करि दास ॥

ड (ee विज
: सम्हारहु अपने को गिरधारी ।
मोर मुकुट सिर पाग पेंच कसि राखहु अलक सँवारी॥


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RE # कविता-कोमुदी. दूसरा भाग #


a rn जीत लीड जी ली e


RA ळकत बनमाल उठावहु सरली धरहु उतारी |
चक्रादिकन सान दे राखो फङ्कन फँसन निवारी ॥
नूपुर Ug चढ़य किडनी diag करहु तयारी ।

frat पट परिकर कटि कसि के वाधौ हो बनवारी ॥
हम नाहीं उनमें जिनको तुम सहजहि दीनों तारी |


बानो जुगओ नीके अच की हरीचन्द की वारी ॥
( ३५ )


रहे क्यों एक म्यान असि दोय ।
जिन चेनन में हरि रस छायो तेहि क्य। भावे कोय ॥
जा तन मन में रमि रहे मोहन तहा ज्ञान क्यों आवे |
चाहो जितनी बात प्रबोधो हाँ को जो पतियावे ॥
अस्त खाइ अब देखि इनारुन को मरख जो भूरे ।
हरीचन्द बज तो कद्लीबन काटौ तो फिरि फळे ॥


( ३६ )
चमक से बकं की उस बकंबस फी याद आइ हें ।
घुटा है दम, घटी हे जॉ, घटा जबसे ये छाई हे ॥
कोन सुने कासों कहो , सुरति बिसारी नाह ।
चदा बदी जिय लेत हैं , ए बदरा बद्राह ॥
बहुत इन जालिमों ने आह अब आफत उठाई हे ॥
अहो पथिक कहियो इती , गिरधारी सो टेर ।
दग झरलाई राधिका , अब बूड़त ब्रज फेर ॥
बचाओ Tey इस सेलाब से प्यारे दुहाई हे ।
बिहरत बीतत स्याम संग , जो पावस की रात ।
सो अब बीतत दुख करत , रोअत TSH खात ॥
कहाँ तो चह करम था अब कहा इतनी रुखाई हे ॥


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कँ हरिश्चन्द्र x


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विरह जरी लखि जींगनिन , कहे न उहि कइ बार ।

अरी आव . भजि भीतरै , बरसत आज अगार ॥
नहीं जुगनू हैं यह बस आरा पानी ने. छगाई है॥

लाल तिहारे बिरह की , लागी अगिन अपार |

सरसे बरसे नीरहू , मिटै न झर झंझार ॥
बुझाने से हे बढ़ती आग यह केसी लगाई है ॥

बन बागनि पिक बट्परा , तकि विरहिन मन मेन ।

कुहौ gel कहि कहि उठे , करि करि राते नैन॥
aaa आवाज ने इन जालिमों के जान खाई हे ॥

पावस घन अँधियार में , रह्यो भेद नहि आन |

रात द्योस जान्यो परे , लखि चकई चकवान ॥
नहीं बरसात हे यहं इक कयामत सिर प आई है ॥

` बेइ चिरजीवी अमर , निधरक फिरो कहाइ ।

छिन fag? जिनको न कहि , पावस आयु सिराइ ॥
यहाँ तो जाँ बल्ब है जय से सावन की चढ़ाई है ॥ |

वामा भामा कामिनी , कहि बोलो प्रानेस।

` च्यारी कहत लजात नहि', पावस चलत बिदेस ॥

भला शरमाओ कुछ तो जी में यह केसी ढिठाई हे॥

रट्त रटत रसना लडी , तृषा सूखि रे, अङ्ग ।

तुलसी चातक प्रेम की , नित नूतन सुचि रङ्ग ॥
दिलों में खाक उती हे मगर मुँह पर सफाई हें ॥

जौ घन बरसे समय सिर , जो भरि जनम उदास ।

तुलसी जाचक चातकहि , तऊ तिहारी. आस ॥


सिवा खंजर यहाँ कव प्यास पानी से बुझाइ है ॥
चातक तुळसी के मते , स्वाति पियै न पानि।
प्रेम तृषा बाढत भली , घटे घटेगी कानि॥ :


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२९


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३० % कविता-कोसुदी, दूसरा भाग #


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|
शहीदों ने तेरे बस जान प्याले ही गँवाई है ॥ |
tat पावस WE, दूर बसे ्जराइ । |
घाइ घाइ हरिचन्द क्यो , VE न कंठ लगाइ |
रसा*मंजूर मुझ को तेरे कदमों तक रसाई हे ॥ |
( ३७ ) |
प्रीति तुव प्रीतम को प्रराटेये । |
कैसे के नाम प्रगट aa AA कैसे कै विया सुनेये ॥ |
को जाने समुझे जग जिन सों खुलि के भरम sas । |
प्रगट हाय करि नेननि जळ भरि कैसे जगहि दि लेपे ॥ |
कबहुँ न जाने प्रेम रीति कोउ मुख सों A | |
हरीचन्द पे भेद न कहिये भरे ही मौन मरि जैये ॥
(९२८) |
काहे तू चौका लगाये जयचैंदवा-। |
अपने स्वारथ भूलि छुभाये काहे 'चोटीकटवा बुलाए, जयचैंदवा ।
अपने हाथ से अपने. कुछ के काहे तें जड्वा कटाये, जयचैंदवा ।
फूट के फळ सब भारत बोये वेरी के राह खुलाये, जयचँदवा |
औरो नासि तें आपो बिलाने निज मुह कजरी पुताये, जयचँदवा ।
'(. ३५९ )
| दिल मेरा ळे गया दगा कर के ।
.. बेवफा हो गया वफ़ा कर के ॥
fest की शब घया ही दी हमने ।
दास्तां Gea की बढ़ा , कर के ॥
झुअलारू कह तो क्या मिला_तुझ को |
दिलजलों को जला जळा कर के ॥


. *“रसा” हरिशचन्द्र का उपनाम था |


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५ हरिश्चन्द्र # ३१


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चक्त रेहळत जो आए बालीं पर ।

खूब रोए गले लगा कर -के ॥
सर्वेकामत AT की चाल से तुम |

क्यों फूयामत चले वपा कर के ॥ ५
खद्‌ FAT आज जो चो चुत आय़ा ।

में भी दौड़ा खदाखदा कर के ॥
क्यों न दाचा करे मसीहा का ।

aa ठोकर से वह जिला कर के ॥
क्या हुआ यार छिप गया किस तफं। |

इक झलक सी मुझे दिखा कर के ॥
दोस्तो कौन मेरी तुरबत पर ।

रो रहा हे रसा रसा कर के ॥


( ४०. )
पहिले ही जाय मिले गुन में श्रवन फेर रूप सुधा मधि कीनो नेनहुँ
पयान हे । हंसनि नटनि चितवनि मुसुकानि सुघराई रसिकाईं ,मिलि मति
पय पान हे ॥ मोहि मोहि मोहन मई री मन मेरो भयो 'हरीचन्द' भेद
ना परत कछु जान है । कान्द भये प्रानमय प्रान भयो कान्हमय हिय में
न जान्यो परे कान्ह है कि आन हे ॥


( ७१).
बोल्यो करे नुपूर श्रंवन के निकट सदा पद awww मन मेरे
बिहज्यो करे । बाजी करे बंशी धनि पूरि रोम रोम मुख मन मुसुकानि
मन्द मनहिं हच्यो करे ॥ 'हरीचन्द? चलनि मुरनि बंतरानि चित छाई रहे
BA जुग गन भऱ्यो करे॥ प्रान हूँ ते प्यारो रहे प्यारो तू सदाई तेरो पीरो
पटं सदा जिय बीच फहऱ्यो करे ॥
च्छ


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"३२ # कविता-कौमुदी, दूसरा भाग «


( ४२ )
जिय पे जु होइ अधिकार तो बिचार कीजे लोकलाज भलो घुरो भले
निरधारिये । नैन औन कर पग सबै परबस अये उतै चलि जात इन्हें कैसे
छै सम्हारिये । 'हरीचन्द' भई सब भाँति at पराई हम इन्हें ज्ञान कहि
कहो केसे कै निवारिये । मन में रहे जो ताहि दीजिये बिसारि मन आपे
बसे जामें ताहि केसे के बिसारिये ॥
( R )
प्यारो पेये केवल प्रेम में ।
नहीं ज्ञान में नहीं ध्यान में नहीं करम कुल नेम में ॥
नहि' मन्दिर में नहि' पूजा में नहि घंटा की घोर में।
हरीचंद वह बोध्यो डोळे एक प्रेम की डोर में ॥
( ४४ )
मूळी सी अमी सी चौकी जकी सी अकी सी गोपी दुखी सी रहति
ag नाहि. सुधि देह की | मोही सी छभाई कछु मोदक से खाये सदा
बिसरी सी रहे नेक खबर न गेह की ॥ रिस भरी रहे ai फूली न
समाति अङ्ग हँसि हसि कहे बात अधिक उमेह की। पूछे ते खिसानी
होय उत्तर न आवे तोहि जानी हम जानी हे निसानी या सनेह की ॥
( ७५ )
थाकी गति अङ्गन की मति परि गईं मन्द सूख झौझरी सी ह्व के
देह लागी पियरान। वावरी सी बुद्धि भई हँसी काहू छीन लइ सुख के
-समाज जित तित छागे दूर जान ॥ “हरीचन्द! ` रावरे विरह जग दुख मयो
भयो कछु ओर होनहार लारे दिखरान। Aa कुम्हिलान लागे बे नहुँ
अथान लागो आओ AAA अब ग्रान लागे मरझान ॥
( ४६. )
सीखत कोउ न कला उद्र भारि जीवत केवळ |
पसु समान सब अन्न खात पीवत TTS ॥


oS
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ॐ बद्रोनारायण चौधरी ॐ ३३


PDL AMAL OPP LDL APA PPP PIL ILI PIPL DAPA PDA ANSE


धन विदेश चलि जात तऊ जिय होत न चंचळ ।

जड़ समान ह्वै रहत अकळ हत रचि न सकत कल ॥
जीवत बिदेस की वस्तु ले ता बिन कछु aR करि सकत।
जागो जागो अव साँवरे सब कोड रुख तुमरो तकत ॥


बद्रीनारायण चौधरी


RERESET Rea बद्रीनारायण चौधरी भारद्वाज गोल के सरयूपारीण


पण q pag ब्राह्मण खोरिया उपाध्याय थे । इनके दादा पण्डित
pao * ५89 शीतल्यसाद चौधरी मिरजापुर के एक प्रतिष्ठित रईस,


ह साल, moot जोर स थे। को मर
बाहुबल से रचर सम्पत्ति, मान और प्रतिष्ठा प्राप्त की ।
` इनके एक मात पुत्र पण्डित Teas उपाध्याय हुए, जो अपने पैतृक
और सांसारिक कायो” को करते हुए ब्राह्मण गुणों के अद्वितीय आदर थे।
विद्याधन की श्रेष्ठता और परमावश्यकता में भ्रुव विश्वास होने के कारण,
स्ववंशधन्य उपाध्याय जी ने कई संस्कृत की पाठशालाएँ खोली, जिनमें
प्रधान श्री अयोध्याजी का ब्राह्मण वैदिक विद्यालय ( सरजूबाग ) ने उस
री में पहले पहल विद्या-प्रचारं का कार्ये आरम्भ किया। इसमें से अनेक
पण्डित होकर उनके यक्ष की पताका-से वतंमान हैं। पश्चिम वयस में
उन्होंने त्रिवेणी के तटस्थ ater पेड, ( जिसे व्यासतीथे भी कहते हैं, )
झूसी में ५५ वर्षे से अधिक एक स्थान पर निवास कर पञ्चयज्ञों को अविरत
सम्पादन. करते, मानों आजकल की देवी सम्पत्ति-सभ्पादून. से विमुख
द्विजाति-समाज को शिक्षा देते हुए, अपने जीणे शरीर का त्याग किया ।
उनके ज्येष्ठपुत्त हमारे चरितनायक पण्डित. बद्रीनारायण चौघरी का
जन्म संवत्‌! १९१२ भाद्रपद्‌ कृष्ण षष्ठी को हुआ प्रायः पाँच वर्ष की
अवस्था के पूं इनकी सुशीला और सुशिक्षिता माता ने इन्हे हिन्दी के
> 5 ३ ` `


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३४ # कविता-कोसुदी, दूसरा भाग *


=


. अक्षरों का अभ्यास कराना आरम्भ कर दिया था । फारसी की भी शिक्षा
ge समयानुसार दी जाने छगी.1 कुछ कालानन्तर ये गोडे में अङ्गरेजी
की शिक्षा के सिलसिले में भेजे गए । जहाँ अवधेश महाराज सर

“प्रतापनारायण सिंह, लाळ लिलोकीनाथ सिंह और राजा उद्रयनारायण
सिंह का साथ हो जाने से इन्हे. अश्वारोहण, गजसञ्चालन, लक्ष्यवेध और
खाया से अधिक अनुराग हो गया ओर यही मानों इनके वाण्यावस्था
में क्रीड़ा की सामग्री थी । यहाँ तक कि ये निज सहचरो के संग प्रायः
घोडदौड करते और शिकार खेलते थे ।

संवत्‌ १९२७ में ये गोंडा से फैजाबाद चले आये और वहाँ के जिला
स्कूल सें पढ़ने गे । उसी वर्ष इनका विवाह बड़ी धूमधाम से जिला जौन-
पुर के समंसा माम में हुआ था। सं० १९२५ में इनके पितामह का
स्वर्गवास. होने से इन्हे मिरजापुर के जिला स्कूल में आना पड़ा | यहाँ गृह
के काऱ्या Ash सहायक होने से घर पर मास्टर द्वारा पढना आरम्भ करना


पड़ा । इस. सुअवसर को पाकर इनके पिता ने, जो हिन्दी, फारसी के |


अतिरिक्त संस्कृत में अच्छे पण्डित और उसके विशेष अनुरागी थे, इन्हें
संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ करा दिया । उन्ह प्रायः अन्य नगरों
और विदेशों में भ्रमण करना पड़ता था .। इससे उन्होंने अपने
पारिषदवगा. में से पं० रामानन्द पाठक को, जो विद्वान्‌ और काव्य-रसज्ञ
थे, हमारे 'चरितनायक को पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया । जिनकी
सुशिक्षा ने इन्हे' कविता में अनुराग उत्पन्न कर, साहित्यरसोन्मुख किया
ओर यही मानों इनके. कविता-गुरु भी हुए । इन्हीं के कवित्वशक्ति-अभिज्ञान
ते हमारे चरितनायक के हृदय में उसी : समय से कविता करने की अपनी
झक्ति में: विश्वास हो गया । किन्तु सम्पत्तिवान्‌ होने के कारण इसी शिक्षा
के साथ आनन्दविनोद की. ओर भी प्रकृति उन्मुख हुईं और सामरिया


अस्तुत हो चलीं । साहित्य के साथ संगीत से भी अनुराग हो गया । ताल |
सुर की परख बेहद बढ़ चली और चित्त दूसरी ही ओर लग चला । इसी के ।


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# बद्रीनारायण चौधरी. # ३५


A RR RRNA PPAR RPA ००० 5 APPL PPPS AO 5.


साथ घर के भाँति-भाँति के काय्य से भिन्न-भिन्न नगंरो के परिभ्रमण a
अनेक भाषाओं का ज्ञान भी प्राप्त हुआ, जिसका उदाहरण “ane
सौभाग्य? में सिल्ता है । संवत्‌ १९२८ में ये प्रथम बार Bea गएं और
वहाँ से लोटने पर बरसों बीमार पड़े Vi इसी समय gaat साहित्य-
सम्बन्धी ब्रजभाषा के बहुत से प्राचीन न्थों को पढ़ने और सुनने का अब
सर मिला । इसी समय इनसे do इन्द्रनारायण शंगळ से मित्रता हुई, जो
बहुत 'कुशाप्रबुद्धि, काप्यंपटु और नवीन विचार तथा देशहित करनेवाले
मनुष्य थे । इन्हीं के द्वारा सभा, समाज, समाचारपत्नों और उदू शायरी में
उत्साह बढ़ा । यहाँ तक कि इन्होंने अपना उपनाम- उस भाषा के लिए
‘or? रखा और हिन्दी के लिए “मेघन” । शंगलूजी के द्वारा ही
भारतन्दु वान्‌ हरिश्चन्द्रजी से जान-पहचान हुईं और ‘wat सप्तपदी मेली?
ऋसशः बड़ी घनिष्ट होती गई | जिसका अन्त तक पूर्ण निर्वाह भी हुआ।
संवत्‌ १९३० में इन्होंने “aed सभा” और १९३१ में “रासिक-समाज!?
मिरजापुर में स्थापित किया। तथा योंही करमशः और कई सभाएँ स्थापित
कीं। इस समय चोधरीजी ने ag कविताएँ छिखीं। do १६९३३ में
“कवि-वचन सुधा”? प्रकाशित होती थी इससे उसमें भी इनके कई एक
लेख छपे । उत्साह मित्रों की रसिकता और गुणप्राइकता से बढ़ चला और
१९३८ में आनन्द-कांदम्बिनी” मासिक पलिका की प्रथम माला प्रकाशित
हुईं । मासिक पंत्रिका से न सन्तुष्ट हो इन्होंने १९४६ में 'नागरी-नीरंद?
साप्ताहिक पत्र का सम्पादन आरम्भ किपा ।इनमें इनके अनेक गद्य और
पद्य लेख और ग्रन्थ छपे । जो अद्यावधि aaa रूप से प्रकाशितःन हो
सके । इनकी अनेक कविताएँ ओर सद्धन्थ, वरन्‌ यों कहना चाहिए
कि इनकी कविता का उत्तमांश उत्त पक्षपतिकाओ' में भी नहीं
मिल सकता gaa इन पत्तों का संग्रह विशेष कष्टसाध्य समझ -
चौधरी जी ने छोड़ दिया । इनकी केवळ वही कविताएँ प्रकाशित
हों सकी, जो समय के अनुरोध से अत्यावश्यक . जान पड़ीं और


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a % कचिता-कौसुदी, दूसरा भाग के


शीघ्र निकल गईं; जैसे '“भारत-सोभाग्य नाटक”, “हार्दिक हर्पादश
“भारत बधाइ, आए्यामिनन्दन, इत्यादि | अथवा जो बहुत आग्रह की
स (ग के कारण लिखी गईं; यथा 'चर्षा-विन्दुर, 'कजली-कादस्बिनी? और
“प्रयाग रामागमन? । चौधरीजी के ग्रन्थों के प्रकाशित न होने का एकमेव
कारण यह है कि इनकी कविता का उद्देइय निज मन का ग्रसादमाल था।
इसीसे ये उनके प्रचार वा प्रकाशित करने के विशेष इच्छुक न हुए, और
न उसके द्वारा. धन, मान या ख्याति के अभिलाषी हुए, जैसे कि
कवि हुआ करते हैं। मन की मौज जिस समय जिस विषय पर आई,
. उसे लिखा, और जहाँ से मन उचटा, छोड़ दिया । तव भी जो कुछ अव
तक प्रकाशित हुआ हे, इनकी विशद कवित्वशक्ति, रसज्ञता और बहुज्ञता
का पूर्ण परिचय देता हे । चौधरीजी को व्रजभाषा से बडा प्रेम था।
उसे ही ये कवियों की भाषा मानते थे। इसीसे इनकी कविताएँ खड़ी
बोली में “आनन्द अरुणोदय” के अतिरिक्त और नहीं हैं और यह इन्होंने
केवल यह देखने को लिखा था कि कविता खड़ी बोली में केसी होती है ।
हिन्दी-साहित्य-सग्मेळन ने, जिसका तीसरा अधिवेशन कलकत्ते में, १९१२
में, हुआ था, इनको सभापति का आसन देकर अपनी गुणग्राहकता प्रकट की
थी | उस अवसर पर जो वक्‍्तृता इन्होंने दी थी, वह बड़ी.गवेषणापू् |
चौधरीजी ने एक दिन संध्या समय स्वयं पधार कर प्रयाग में मुझे
दर्शन दिया था । उस समय ग्रृहस्थी सम्बन्धी कुछ मानसिक चिन्ता से
पीड़ित दिखाई पड़ते थे-। खेद है कि सं० १९८० में प्रेमघनजी संसार
से चले गये । . :
यहाँ चौधरीजी की कविता के कुछ नमूने उनके प्रकाशित aii से
लेकर प्रकाशित किये जाते F— . ;
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` आगो भागो अब काल पडा हे भारी ।
भारत पै घेरी घटा बिपत की कारी ॥


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* बद्रीनारायण चौधरी +


` सव गये बनज व्यापार इते सों भागी ।


उद्यम पौरुष नसि दियो बनाय अभागी ॥
अब वचो खुची खेती हूँ खिसकन लागी ।.
ang दिसि लागी है महँगी की आगी ॥
सुनिये चिलायें सब पंरजा भइ भिखारी ।
भागो भागो अव काल पड़ा हे भारी ॥३॥


हम बनज करें पर उल्टी हानि उठावें। '


हम उद्यम करके लागत भी नहिं पारें ॥ _
हम खेती करके ae विसार fad)
औ करजा कै सरकारी जसा. gee ॥
फिर ata कहाँ से यह नहि जाय बिचारी ।
भागो भागो अबः. काळ पड़ा है भारी URN
हम करें नोकरी बहुत, तलब : कम पाते ।
थे किसी तरह से अब तक पेट जिलाते ॥
इस महँगी से नित एकादशी मनाते ।
लके बाळे सब घर में हें RI
है देखो हाहाकार मचो दिसि चारी ।


भागो भागो अब काळ पड़ा है भारी॥३॥


अब नहीं यहाँ खाने भर को भी जुरता |
नहि सिरपर रोपी नहीं बदन पर कुरता ॥
है कभी न इसमें आधा चावल चुरता ।
ale’ साग मिले नहि' कन्दमूळ का सुरता ॥
नहि' जात भूख की भइ पीर संभारी।


. आगो भागो अब काळ पड़ा है भारी wen


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३७


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Re * कविता-कौमुदी, दूसरा भाग. +


(४८२३४)
( दादाभाई नौरोजी के पालॉमेंट के मेम्बर होने के
अवसर पर, १८९२ ई० में, विरचित । ) `


~


कारन सों.गोरन की घिन को नाहिन कारन ।
कारन तुम हीं या कळक के करन निवारन ॥
कारन ही के कारन गोर॑न लहत बड़ाई |
कारन ही के कारन गोरन की प्रझुताई ॥

कार नहीं है कारन को गोरन गोरन मैं ।
कारन पै जिय देन' चहत गोरन हित मन में ॥
कारन का है गोरन में भगती साचे चित |
कारन की गोरन हीं सों आंशा हित की नित ॥
कारनःकी गोरन की राजसभां में आवन ।

को कारन केवल कहि कै निज दुख प्रगंटावन ॥ ..
कारन करन नहीं शासन गोरन पै मन में।
कारन के तौ का कारन घिन जो कारन में ॥
गोरन की जो कहत नकारन कारन रोको ।

नहि बेठे ए गोरन मध्य कहूँ अवलोको ॥ .
महा मन्ति को बचन HE तुमहीं बिन कारन | |
गोरन राजसभा में कारन के बेठारन ॥ |
के कारन तुम अहौ, अहो प्रिय सौंचे लिबरल । |
कारन के अबतौ तुमहीं कारन कारन बळ ॥ |
` कारो निपट नकारो नाम लगत भारतियन । E
यदपि न कारे तऊ भागि कारी विचारि मन ॥ |
अचरज होत GAS सन गोरे बाजत कारे | |
तासों कारे कारे शब्दहु पर हैं वारे॥


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ऋ बद्रीनारायण चौधरी + ३९


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अरु बहुधा कारन के हैं आधारहि' कारे ।

विष्णु कृष्ण कारे कारे सेसहु जगधारे ॥

कारे काम, राम, जलधर जल बरसन वारे |
कारे लागत ताही सन कारन को प्यारे ॥

तासों कारे ह्वै तुम लागत औरहु प्यारे |

यातँँ नीको हे तुम कारे जाहु पुकारे ॥

ae असीस: देत तुम कहूँ मिल हम सब कारे ।

सफल ae मन के सब ही संकल्प तुमारे ॥ `

चे कारे घन से कारे जसुदा के वारे ।

कारे मुनिजन के सन में नित विहरनहारे ॥

सङ्गछ करें सदा भारत को सहित तुमारे |

सकल अमङ्गल AR रहें आनँद Rent ॥

DERS)
हार्दिक हषोंदश .

( हीरक जुबली के अवसर पर लिखा गया, १८९९ go ) .
तिन सत्र मैं हे मुख्य राज, भारत को उत्तम ।

जाहि विधाता रच्यो जगत के सीस भाग सम ॥
जहाँ अन्न, धन, जन, सुख, सम्पति रही निरन्तर ।
सबै धात, पसु, रतन, फूल, फल, AB, TS वर ॥
झील, नदी, नद, सिन्धु, सैल, सब रतु. मनभावन ।
रूप, सील, गुन, विद्या, कळा कुसल असंख्य जन ॥
जिनकी आशा करत सकल जग हाथ पसारत |
आसत औरन के न॑ रहे कबहू नर आरत ॥ .
बीर, धर्मरत, भक्त, त्यागि, ज्ञानी, विज्ञानी ।
रही प्रजा सब पे निज राजा हाथ बिकानी ॥


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* कविता-कौमुदी, दूसरा भाग +


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निज राजा अनुसासन मन, वच, करम धरत सिर |
जगपति सी नरपति सें राखत भक्ति सदा थिर ॥
सदा सतु सों हीन, अभय, सुरपति छवि छाजत |
पालि प्रजा भारत के राजा रहे विराजत ॥

वै कछु कही न जाय, दिनन के फेर फिरे अब ।
दुरमागनि सों इत फैले फल फूट वैर जव ॥ |
भयो भूमि भारत में महा भयंकर भारत । ;
भये बीर बर सकल gue एकहि सँग गारत it |
मरे विबुध नरनाह सकळ चातुर गुन मण्डित | |
Rant जन समुदाय बिना पथ-दृशेक पण्डित ॥

सत्य धमं के नसत गयो बल, विक्रम, साहस |

विद्या, बुद्धि, विवेक, विचाराचार wit जस ॥

नये नये मत चले, नये झगरे नित R |

नये नये दुख परे सीस भारत पे गाढे ॥

छिन्न-मिन्न ह्वे साम्राज्य लघु राजन के कर । |
गयो परस्पर कलह रह्यो बस भारत में भर॥ - |
रही सकल जग ब्यापी भारत राज बडाई |
कौन बिदेसी राज न जो या हित BENE ॥
रह्यो न तव तिन में इहि ओर लखन को साहस |
आय राज राजेसुर दिगविजयिन के भय बस ॥ .
पै लखि बीरबिहीन भूमि भारत की आरत |

सवै सुलभ समझयो या कहे आतुर असि घारत ॥
तेरो प्रबळ प्रताप सकळ सम्राट दवायो |

खींस बाय के फरासीस जातें सिर नायो ॥
* जरमन जर मन माहि बनो जाको है अनुचर ।
रूम रूम सम, रूस रूस बनि फूस बराबर th


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* बद्रीनारायण चौधरी x ४१


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पाय परसि तुव पारस पारस के सम पावत । .
पकरि कान अफगान राज पर तुस बेठावत ॥
दीन बनो सो चीन, पीन जापान रहत नत ।
अन्य छुद्र देशाधिप गन की कौन कहावत ॥

जग जल पर तुव राज थलहु पर इतो अधिकतर ।
सदा ग्रकासत जामें अस्त होत नहि” दिनकर ॥


(X)
आननन्‍द-बधाई'


[यह हिन्दी के कचहरियों में प्रवेश पाने के उपलब्य में,
सच्‌ १९०३ में लिखी गई ]


दै भागनि सों जब भारत के सुख दिन आये। |
` अङ्गरेजी अधिकार अमित अन्याय नसाये ॥
wel न्याय सब ही छीने निज स्वत्वहि' पाईं ।
दुरमागनि वचि रही यही अन्याय सताड ॥
wat देशभाषा अधिकार सबै निज देशन |
राजकाज आलय विद्यालय बीच ततच्छन ॥
पै इत विरचि नाम उदू को “हिन्दुस्तानी 1”
अरबी बरनहुँ लिखित सके नहि' बुध पहिचानी ॥
“हिन्दुस्तानी” आपा कौन ? कहाँ तें आई ?
को भाषत, किहि ठोर कोऊ किन देहु बताई ?
कोड साहिव खपुष्प सम नाम धऱ्यो मनमानो ।
होत बड़न सों भूलहु वडी सहज यह जानो ॥
` हरि हिन्दी की बोली अरु अच्छर अधिकारहि' । `
छ पठारे बीच कचहरी बिना बिचारहि ॥


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* कविता-कोसुदी, दूसरा भाग +


Arr ns SITS


जाको फल अतिसय अनिष्ट लखि सब अकुलाने ।
राज कम्मंचारी अरु प्रजा-वृन्द बिलखाने ॥
संसोधन हित बारहि' वार कियो ag उद्यम ।
होय असम्भव किमि,सम्भव कैसे खल उत्तम ॥
हिन्दी भाषा we चह्यो लिखि अरबी बरनन ।
सो कैसे ह्वै सके बिचारहु नेक बिचच्छन ॥ |

मुगलानी, ईरानी, अरबी, इङ्गलिस्तानी । |
तिय नहि' हिन्दुस्तानी बानी सकत बखानी ॥ |
ज्यों लोहार we सकत न सोने के आभूपन । |
अरु कुम्हार नहि बने सकत चाँदी के वरनन ॥
कलम कुल्हाडी सों न बनाय सकत कोउ Aa ।

सुजा सों मलमल पर बखिया होत न aa ॥

कैसे हिन्दी के कोउ सुद्ध शब्द लिखि लेहे ।
अरबी अच्छर वीच रिखेहुँ पुनि किमि पढ़ि पैहे ॥
निज भाषा को सबद लिखो पढि जात न जामें ।

पर भाषा को कहो पढ़े केसे कोड तामें ॥

लिख्यो हकीम औषधी में “आळू बोखारा?

seg बनो मोळबी पढ़ि ‘ses बेचारा? ॥

साहिब 'किस्ती चही? प्रई मनसी 'कसबी? .।
“नमक पठायो भई 'तमस्सुक' की जब तलबी ॥
पढत “सुनार? सितार “किताब? “कब्राब' बनावत | ...
दुआ” dag “दगा? देन को दोष .लगावत ॥

सेम साहिबा 'बड़े बड़े मोती” चाह्यो. जब ।

बड़ी बड़ी मूली पठवायो तसिल्दार. तब ॥

उदाहरन कोउ Fe लगि याके सके गनाइ |

एकहु सबद्‌ न एक भाँति जब जात पढाइ ॥


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žo बद्रीनारायण aay


'दस औ बीस भाँति सो तौ पदि जात R ।
पढ़े* हजार प्रकारहु सों जाते बहुतेरे ॥

WT जबर अरु पेस स्वरन को काम चलावत |
बिन्दी की भूलनि सौ सौ विधि भेद बनावत ॥


चारि प्रकार जकार, सकार, अकार तीन विधि ।


_ होत हकार, तकार, यकार उभय विधि छल-निधि ॥


कौन सबद केहि वरन लिखे सों सुद्ध कहावत ।


याको नियम न कोऊ.लिखित लेखहि' लखि आवत ॥ _


यह विचित्तताई जग.और ठौर कहुँ नाहीं ।


पॅचमेली, भाषा लिखि जात वरन उन माहीं. ॥:


जिनसे अधम बरन को अनुमानहुँ आति दुस्तर ।


अवसि जालियन सुखद एक उदू को THAT ॥


RR तें सो सौ सासति सहत सदा बिलखानी । ..


सोली भाली प्रजा इहाँ की अतिहि -अयानी ॥
भारत सिंहासन स्वामिनि जो रही सदा की.। :


जग में अब लो लहि न सक्यो कोऊ off जाकी ॥:. .


जासु वरनमाला गुन खानि सकल जग जानत |
बिन गुन ग्राहक सुलभ fet मन अनुमानत.॥


राजसभा सों अलग कई सौ वरस व्रितावत ।
दीन प्रबीन कुटीन बीच सोभा सरसावत ॥ ..


बरसावत रस रही ज्ञान, हरि-भक्ति; घरम नितः।..


Rra अरु. साहित्य-सुधा-सम्बाद आदि इत ॥


कियो न बदन-मलीन पीन बरु होत निरन्तर । :


रही धीरता धारि इंस-इस्छा; पर निरभर ॥


भारतेन्दु बाबच हरिशचन्द्र Vag में एक शब्द को १००० प्रकार से


पढ़ा जाना सिद्ध किया था। = „'


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