[PDF]Anticorruptology Hindi

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नवीन विचार तथा सिद्धान्त का अध्ययन


शजिरणणाएफएाणेए2ए (५॥९७छ आठ एण ४ए09)


विश्व मानव समुदाय का विकास मानव मस्तिष्क में जन्म लेने वाले
विचार की उपज है । सृष्टिकाल से ही मानव ने विचार की दृष्टिकोण
से महत्तवपूर्ण स्थान पाया है । जब भी कोई छोटी या बड़ी समस्या
सामने आती है तो मानव अपने विचारों के माध्यम से उस समस्या का
समाधान और निदान खोजने की कोशिश करता है और उसमें सफल
भी होता है । इसी तरह विश्व मानव विकास के कम में आने वाले
समस्या का समाधान करते हुए विश्व मानव ने एक विकसित रूप पाया
है।

विचार या दर्शन समय की माँग के अनुसार उत्पन्न होते हैं । ऐसे
विचार ही सामने आए समस्याओं का समाधान भी करते चले जाते हैं ।
जब विचार विषय में रूपान्तरित होता है तो वह विषय ज्ञान के माध्यम
से व्याख्यायित होकर स्थापित होना चाहता है । ज्ञान के माध्यम से
विचार स्थापित हो सकता है । ज्ञान के निरन्तर अध्ययन द्वारा विचार


विश्लेषित और प्रमाणित होकर विज्ञान का रूप धारण करता है।


विज्ञान दवारा खोज और उसका परिणाम ही विज्ञान का मूल आधार है।
जहाँ कारण का जन्म होता है वहीं परिणाम की उत्पत्ति होती है । विज्ञान
प्रमाण खोजता है और प्रमाण के आधार पर ही विज्ञान स्थापित होता है ।
विज्ञान का स्रोत यदि ज्ञान है, तो ज्ञान की उपज विज्ञान है।


जे


भ्रष्टाचार के विरुद्ध में विज्ञान के रूप में स्थापित इस भश्रष्टविरोधी शास्त्र
को भौतिक और रसायनशास्त्र जैसा कठोर विज्ञान न मानकर अन्य
सामाजिक विज्ञान जैसे, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र
जैसा नरम विज्ञान मान सकते हैं । प्रयोग, परीक्षण, सांख्यकी और


गणितीय उपागमों का इस भश्रष्टविरोधी शास्त्र में विश्लेषण और व्याख्या
की गई है । इस कारण से भी यह शास्त्र विज्ञान की श्रेणी में आता है ।


मानव जीवन के विकास के कम में समय और समाज के द्वारा महसूस
किए गए विषय का गहरा अध्ययन कर, उसके द्वारा उत्पादित
मार्गदर्शन ही इस विषय का सिद्धान्त माना जा सकता है । किसी भी
सिद्धान्त के उत्पादन और उसकी आवश्यकता का बोध, समाज के
चिन्तनशील व्यक्तियों द्वारा महसूस होने पर समस्या के समाधान के
लिए उस विषय का गहरा अध्ययन किया जाता है । ऐसे आवश्यक


किस ।2»»


विषय को ज्ञान के माध्यम के दवारा कमबद्ध तथा विस्तृत अध्ययन कर
के प्रमाणिक रूप में उस विषय को स्थापित करना ही विषयगत विज्ञान
की स्थापना कहा जाता है। विज्ञान का तात्पर्य विषय ज्ञान का एकीकृत
भण्डार है, जो सूक्ष्म रूप से अध्ययन, विधिवत परीक्षण तथा विस्तृत





व्याख्या के दवारा निर्माण होता है । यह भ्रष्टविरोधी शास्त्र इसी मौलिक


सिद्धान्त के आधार पर तैयार किया गया है।


भ्रष्टाचार पूर्णरूप से सामाजिक समस्या है । समाज को ही इस समस्या
की जिम्मेदारी लेनी होगी । क्योंकि समाज मानव जाति का संगठन है ।
यही कारण है कि मानव को सामाजिक प्राणी कहा गया है। किसी भी
समाज का उत्थान और पतन उस समाज में रहने वाले मानव के कार्य
और व्यवहार पर निर्भर करता है । समाज में अगर कोई विकृति फैलती
है तो उसकी जिम्मेदारी समाज को ही लेनी होगी । समाज के एक अंग
में अगर भ्रष्टाचार ने जड़ जमाया है तो इससे सचेत करने की
जिम्मेदारी दूसरे की होती है । यह प्रकृति का नियम है। भ्रष्टाचार जैसा
कार्य मानव विकास का अवरोधक है, साथ ही समाज विकास में बाधक
भी । इसके निराकरण और समाधान के लिए नवीन विचार तथा सिद्धान्त
की आवश्यकता थी | इस आवश्यकता की पूर्ति भ्रष्टविरोधी शास्त्र पूरा


कर रहा है।


विश्व के प्राज्ञिक क्षेत्र में नवीन विचार तथा सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत
यह भ्रष्टविरोधी शास्त्र नितान्‍्त आवश्यक अध्ययन का विषय माना गया


है । इस के अध्ययन के बिना मानव विकास और मानवहित के लिए
लाई गई कोई भी योजना सफलता तक नहीं पहँँच सकती है । साथ ही,
राज्य के व्यवस्थापन को चुनौती देने वाली अनेक अनुचित कार्य और
भ्रष्टाचारी कार्य को रोकने के लिए भी यह नवीन विचार तथा सिद्धान्त
अभूतपूर्व सफल कार्य कर सकता है यह विश्वास किया जाना चाहिए ।
साथ ही, राजनीतिक दलों के अनुचित कार्यों का भी यह शास्त्र अन्त कर
सकता है।

संक्षेप में यह कह सकते हैं कि भ्रष्टविरोधी शास्त्र का काम किसी के
किए गए अनुचित तथा भ्रष्ट कार्य का विरोध करना ही नहीं है, बल्कि
इसका मूल उद्देश्य समाज में सदाचारयुकत व्यवहार कायम करने के
लायक वातावरण तैयार करने की राह बनाना भी है । व्यक्ति के दैनिक
जीवन में होने वाले असमान और अनुचित कार्य, समुदाय में फैलने वाले
दुर्गणयुक्त व्यवहार, व्यवसायियों के दवारा होने वाली नफाखोरी,
राज्यप्रशासन द्वारा होने वाला भ्रष्टाचार, तथा राजनीति के क्षेत्र में
व्याप्त अवसरवादिता जैसे दुर्गणों को खोजकर उसका विश्लेषण कर
सत्य और असत्य अलग करने की क्षमता भश्रष्टविरोधी शास्त्र में है ।
इसके लिए इसके मर्म, मूल्य और आवश्यकता को समभकर सम्बन्धित
अध्ययन केन्द्र तथा विश्वविद्यालय में अध्ययन अध्यापन के लिए
वातावरण तैयार करना होगा । यह नवीन विचार तथा सिद्धान्त समय
की मांग के अनुसार अध्ययन अध्यापन के लिए तैयार किया गया है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र की प्रस्तावना
(?/९गा।6९ 0 /ध7८९८००४एएा००29)


विश्व मानव समुदाय की प्रवृत्ति तथा व्यवहार को स्वच्छ, पवित्र
और मानवमुखी बनाना,


समाज में चलने वाली अवाडब्छित क्रियाकलाप बन्द करना एवं
मानव-मानव के बीच में सदाचारयुकत प्रतिस्पर्द़्ा कायम रखना,
न्याय के मान्य सिद्धान्त के आधार में कानुनी राज्य की स्थापना
करते हुए सही शासन पद्धति सञ्चालन करना,

सभी नागरिक का मौलिक हक स्थापित कर स्वच्छ और आदर्श
प्रजातन्त्र सज्चालन करना,


2.


प्राचीन काल से चले आ रहे आध्यात्मिक चिन्तन को जीवन्त
रखना,

प्राकृतिक स्रोत साधन एवं प्राचीन सम्पदाओं की रक्षा करना,

मानव में अन्‍्तर्निहित प्राकृतक गुण का विकास कर प्रकृति का
आशीर्वाद ग्रहण करते हुए काम जारी रखना,

समाज और राज्य से पाए अधिकार की जिम्मेदारी बोध कर
कर्तव्यनिष्ठ बनकर सभी स्तर और तबके में जवाबदेही की स्थिति
बनाए रखना,

राज्यव्यवस्था और राजनीतिक दल के बीच सन्तुलित एवं नियन्त्रित
अवस्था कायम करना,

नीति, नैतिकता, सदाचार तथा मानव मर्यादा के मूल्य को समाज
में यथावत्‌ कायम रखते हुए भ्रष्टाचारमुक्त समाज सृजन करना
समयअनुसार मानव समाज में हुए और होने वाले परिवर्तित
अवस्था को सदाचारयुक्त बनाना और बनाए रखना भी वाब्छनीय
होने की वजह से भ्रष्टविरोधी शास्त्र की आवश्यकता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र का उद्देश्य
("7]९्तांए९5 एण /धटणणाएण०९2५)


इस श्रष्टविरोधीशास्त्र का मूल लक्ष्य भ्रष्टाचार के शून्य सहनशीलता की
अवस्था को कायम रखना तथा भ्रष्टाचारमुक्त समाज की स्थापना करना
है । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तथा समाज और देश में
न्यायपूर्ण, प्रजातान्त्रक और आदर्श समाज स्थापना करने के लिए अब
तक निम्नलिखित उद्देश्यों को इस शास्त्र ने अंगीकार किया है :


सर्वसाधारण नागरिकों को सुख, शान्ति और समृद्धि के निमित्त
समाज में आर्थिक अनुशासन, नैतिकता और सदाचार कायम
रखना,


के


सभी नागरिकों में सकारात्मक सोच के साथ विवेकपूर्ण निर्णय
लेने की अवस्था तैयार करना,


भ्रष्टाचारविरुद्ध के विषय का अध्ययन तथा अध्यापन का विषय
होने के कारण इसका प्राज्षिक क्षेत्र में प्रचार प्रसार करना और
कराना ।

भ्रष्टाचारविरोधी क्रियाकलापों को लेकर विश्व के सभी मुल्क में


पु


सनन्‍जाल निर्माण करना और मानव के सर्वपक्षीय विकास में उसके


महत्तव के विषय में भरपूर जानकारी देना और दिलाना,


सदाचार, सत॒विचार और सतव्यवहार जैसे उच्च मानवीय गुणों


का विकास कर उसे मानव समाज में और भी प्रभावकारी रूप
में निरन्तरता देने की व्यवस्था करना और कराना,


प्राचीन काल से चलते आ रहे आध्यात्मिक चिन्तन के विषय को
समाज में स्थापित करने के लायक वातावरण तैयार करना,


०० ००


प्रत्येक देश में भ्रष्टाचार के ऊपर अंकश लगाने के लिए
अनुसन्धानात्मक व्याख्या और वकालत के माध्यम द्वारा जनचेतना
फैलाने का कार्य करना और कराना,


कानूनी राज्य तथा असल शासन पद्धति की स्थापना के लिए
विश्वव्यापी प्रचार प्रसार करना और कराना,


सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में दूसरे देश के सहयोग
और सम्बन्धन में गैरसरकारी संस्था द्वारा हो रहे असामयिक
और गैरकानुनी क्रियाकलाप का अन्त करना और कराना,
विकसित देशों में राजनीतिक दल निर्वाचन के प्रयोजन के लिए
व्यापारिक समुदाय के साथ चन्दा उठाने वाले प्रचलन का अन्त
करना और कराना,

विकासोन्मुख देशों में अधिक से अधिक राजनीतिक दल खोलने
की प्रवृत्ति का अन्त कर निश्चित राजनीतिक दल अर्थात्‌ कम से
कम राजनीतिक दल मात्र क्रियाशील होने की अवस्था की सृजना
करना,


राजनीतिक दल की सत्तामुखी प्रवुत्ति और मनमर्जी क्रियाकलाप
का अन्त कर सिद्धान्तवादी राजनीतिक दल क्रियाशील होने की
अवस्था की सूजना,





देश में क्रियाशील राजनीतिक दल के सिद्धान्त, घोषणापत्र और
जनता तथा राष्ट्र के प्रति की प्रतिबद्धता के अनुसार दल के नेता
तथा कार्यकर्ता के क्रियाकलाप का पारदर्शी वातावरण तैयार
करना,


के


नागरिक की चेतना स्तर के आधार में निर्वाचन प्रणाली निश्चित
करना और कराना,


आर्थिक तथा सांस्कृतिक उपनिवेशवाद का अन्त करने का प्रयास
करना,


देश के राजनीतिक तथा प्रशासनिक तह में काम करने वाले
सार्वजनिक पद धारण किए व्यक्ति या समूह दवारा अनुचित काम
करने या कराने पर व्यक्ति वा समुदाय पर कारवाही करना और
कराना,


००


एक देश दूसरे देश को देने वाले किसी भी तरह के अनुदान,
सहयोग वा ऋण सम्बन्धित देश के सरकारी तह से मात्र देने
दिलाने का कार्य करना और कराना,


6


व्यक्ति, समुदाय, राजनीतिकर्मी और सार्वजनिक पद धारण करने
वाले सभी तरह के व्यक्ति वा समुदाय को भ्रष्टाचार के दायरे में
लाकर कानुनी कारवाही करने के लिए कानून का तर्जुमा करना
और कराना,

विकासोन्मुख देश में किसी भी प्रकार के प्राकृतिक स्रोत साधन
तथा सम्पदा दूसरे देश को छोटे या लम्बे समय की अवधि तक
प्रयोग करने देने के लिए किसी भी तरह की संधि, समभदारी
और सम्भौता नहीं करने की व्यवस्था मिलाना,


अवैध व्यवसाय पर रोक लगाने और काला धन नियन्त्रण करने
की व्यवस्था करना,


सञ्चार माध्यम द्वारा मनमर्जी पर रोक लगाना,


राष्ट्र को नुकसान होने या राष्ट्रघात होने वाले किसी भी तरह की
सन्धि, सम्8;ाता और समभदारी पत्र करने वाले व्यवस्था का
अन्त करना और कराना,


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के सँग निकटतम सम्बन्ध वाले सभी तरह के
शास्त्रों को विषयगत रूप में स्वीकार करते हुए उसमें इस शास्त्र
की नीति तथा सिद्धान्त को भी समावेश करना और कराना तथा


लक


भ्रष्टविरोधी शास्त्र को विश्व में हो रहे प्राज्ञिक संस्था, अध्ययन
केन्द्र वा विश्वविद्यालयों में पहुँचा कर अध्ययन तथा अनुसन्धान
के माध्यमद्वारा भ्रष्टाचारविरुद्ध को विज्ञान के रुप में प्रमाणित
करने का काम कराना ।


परिभाषा


छेशथाएणंगणा ए 4रा7९णए7ए०ण० ९५


भ्रष्टविरोधी शास्त्र का तात्पर्य भ्रष्टाचार विरुद्ध के अध्ययन से है । यह
भ्रष्टाचार विरुद्ध का विज्ञान है । विज्ञान ज्ञान का उच्चतम बोध है ।
अर्थात्‌ विषय के निरन्तर अध्ययन से ज्ञान की प्राप्ति होती है और उस
ज्ञान को सुक्ष्म रूप से अध्ययन, अनुसंधान और विश्लेषण करके
प्रमाणिक रूप में प्रस्तुत करना ही विज्ञान है | इस भ्रष्टाचार विरोधी
विज्ञान को प्रमाणिक रूप में जब तक दूसरा नाम नहीं दिया जाता है
तब तक इसे भ्रष्टाचार विरुद्ध का विज्ञान कहना ही भ्रष्टविरोधी शास्त्र है

। भ्रष्टविरोधी शास्त्र को परिभाषित करने के लिए ज्ञान तथा विज्ञान की

पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में, विषय को महत्व देते हुए व्याख्या तथा

विश्लेषण करते हए भश्रष्टविरोधी शास्त्र के पहचान को स्थापित करना

होगा । इस तरह स्थापित हुए श्रष्टविरोधी शास्त्र को भ्रष्टाचार विरुद्ध का
विज्ञान कहकर परिभाषित किया जाता है । भ्रष्टाचार विरुद्ध अभियान के
विभिन्‍न समय में प्रयोग में आनेवाले विषय, नीति तथा सिद्धान्त आदि ही
भ्रष्टविरोधी शास्त्र की परिभाषा खण्ड में परिभाषित होगी ।

- भ्रष्टाचार अनुकरणीय प्रकृति का होता है। एक के द्वारा किए गए
भ्रष्टाचारजन्य कार्य देखकर दूसरा उसे सीखता है । ऐसे
अनुकरणीय स्वभाव को निस्तेज किया जा सकता है।

- भ्रष्टाचार सामाजिक रोग है, आजकल तो यह महारोग का रूप
ले चुका है । रोग होने के कारण इसका निदान किया जा सकता
है । रोग के निदान के लिए औषधि की आवश्यकता होती है ।
भ्रष्टाचार का औषधि निर्माण विश्वविद्यालय में हो सकता है ।
भ्रष्टविरोधी विज्ञान ही भ्रष्टाचार निवारण करने का मूल तत्व है ।


का भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या है । सामाजिक समस्या के अध्ययन
विधि के द्वारा ही इस विषय का अध्ययन भी हो सकता है ।
इसलिए अन्य सामाजिक विज्ञान जेसा है इसलिए अन्य सामाजिक


विज्ञान की तरह ही भ्रष्टविरोधी शास्त्र भी सामाजिक विज्ञान के
रूप में स्थापित हो सकता है।

आयुर्वेद विज्ञान में किटाणु ही रोगों को फैलता है, उसी तरह
भ्रष्टाचार भी खास किटाणुयुक्त मनोदशा के कारण होता है ।
जिस तरह आयुर्वेद संक्रमित रोग का इलाज करने में सक्षम है,
ठीक उसी तरह इसका भी धीरे-धीरे निदान सम्भव है।

भौतिक विज्ञान जिस तरह पानी के परिवर्तित रूप की व्याख्या
करता है, उसी तरह भ्रष्टाचार भी तरल, वाष्प और ठोस अवस्था
में परिवर्तित होता है । इस तरह भ्रष्टाचार और पानी का प्रकृति
एक ही है । पानी जैसा ही भ्रष्टाचार भी ऊपर से नीचे गिरता है
। किन्तु एक निश्चित बिन्दु बनाकर अपना स्तर कायम रखता है
। - भ्रष्टाचार भौतिक रूप में स्पष्ट दिखाई नहीं देता व्यहार में
देखने और अनुभव करने के कारण इसे नियन्त्रित अवस्था में
कायम रखा जा सकता है।

भ्रष्टाचार राजनीतिक अस्थिरता को जन्म देता है । ऐसी अवस्था
देश के विकास का अवरोध करता है | विकास का अवरोध अभाव
को पैदा करता है । अभाव द्ून्द्र को जन्म देता है और द्वन्द्र
राजनीतिक अस्थिरता कायम करता है । इस चक्रीय प्रणाली का
नियन्त्रण भ्रष्टविरोधी शास्त्र कर सकता है।

विकासोन्मुख देशों के गैर सरकारी संस्थाओं को क्रियाशील नहीं
किया जाता है । क्‍योंकि बहुसंख्यक गरीब तथा अशिक्षित नागरिक
वाले देशों में चालाक किस्म के लोगों के द्वारा समानान्तर
सरकार संचालन करने की सम्भावना प्रबल रहती है । जिसकी
वजह से देश संचालन करने वाली राज्यव्यवस्था कमजोर होने
लगती है।

भ्रष्टाचार करनेवाले और कराने वाले दोनों अपराधी होते हैं । ये


दोनों ही दण्ड के भागीदार होते हैं । भ्रष्ट आचरण करने वाले
ते ५


समाज से बहिष्कृत और घृणित होते हैं ।
किसी भी व्यक्ति की नीयत के विषय में सही निर्णय करने में


3.


अदालत को कठिनाई हो सकती है, किन्तु नीयत के विषय में
भ्रष्टविरोधी शास्त्र की सहायता से भ्रष्ट व्यक्ति के असली रूप की





व्याख्या करके न्यायिक निरूपण करने में अदालत सक्षम हो
सकता है।

प्रशासनिक संयन्त्र के संचालन के लिए नीति, नियम और कानून
बनाने से सिर्फ नहीं होता बलिक समय-समय पर उसका
अनुगमन निरीक्षण और मूल्यांकन भी करना पड़ता है। दोषी को
दण्ड और कर्मनिष्ठ को उचित पुरस्कार की व्यवस्था करनी
पड़ती है ।

राजनीतिक दल द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चन्दा या
अनुदान के रूप में अर्थ संकलन करना भ्रष्टाचार है । इस कार्य
को रोकना पड़ेगा।

भ्रष्टाचार एक ऐसा चुम्बक है, जो कहीं भी किसी को अपनी ओर
खींच सकता है चुँकि यह अर्थ से सम्बन्धित है, इसलिए इसका
आकर्षण अधिक शक्तिशाली है।

वर्तमान प्रजातान्त्रिक युग का शत्रु भ्रष्टाचार है । प्रजातन्त्र के
लिए यह खतरनाक साबित हुआ है।

प्रजातन्त्र के इस शत्रु को परास्त करने की विधि का निर्माण भी
भ्रष्टविरोधी विज्ञान कर सकता है।

भ्रष्टाचारी देशद्रोही हैं, अपराधी हैं और मानव समाज के विकास


लिए बाधक हैं । इन्हें दण्डित कर मानव समाज से बहिष्कत
करना चाहिए


सरकार खले रूप में भ्रष्टाचार विरोधी कार्य के लिए प्रमखता से
कार्यक्रम संचालन नहीं करती है, जिससे वह स्वयं कमजोर होती


हा


ह।


भ्रष्टाचार से जमा रकम से राजनीतिक दल चलाया जाता है
जिसकी वजह से नीति ओर सिद्धान्त से राजनीतिक दल च्यूत
होते हैं । ऐसे राजनीतिक दल के आदर्श और विश्वसनीयता पर
शंका की जा सकती है।

भ्रष्टाचार की शुरुआत व्यापारिक वर्ग से होती है। व्यापारिक वर्ग
अर्थात्‌ मुनाफा कमाने वाला वर्ग । कड़ा एवं संतुलित कानूनी
नियम ही इस वर्ग को नियन्त्रण कर सकता है।


0


जब तक राज्य संचालन करने वाले प्रशासनिक संयन्त्र में छिपे
हुए सभी विकृति को पहचान कर सुधार नहीं किया जाएगा, तब
तक प्रशासनिक संयन्त्र आवश्यकता अनुसार समक्ष और सबल
नहीं बन सकता है।

राज्य के जिम्मेदार निकाय अगर अपने स्थान का सही सदुपयोग
करे और कानून ने जो अधिकार दिया है, उसका उचित प्रयोग
करे तो प्रशासनिक संयन्त्र के भीतर व्याप्त प्रदुषण को धीरे-धीरे
दबाया जा सकता है।

भ्रष्टाचार राजनीतिक संकट को जन्म देता है, आर्थिक अवरोध
खड़ा करता है और समाज में विश्वास का संकट पैदा करता है।
इस परिप्रेक्ष में विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए मार्गनिर्देशन
करना होगा ।


प्रजातन्त्र में सरकार के आने-जाने का क्रम लगा रहता है । देश
में प्रशासनिक संयन्त्र के नाम पर स्थायी रूप में रहने वाली
सरकार भी होती है । स्थायी रूप के ऐसे प्रशासनिक सरकार के
कुशल कार्यदक्षता के आधार में सिर्फ स्वच्छ प्रशासन संचालन
होता है । इसलिए स्थायी सरकार सम्बन्धी नीति मजबूत और


सर्वप्रिय होनी चाहिए ।
सही शासन के लिए कुशल प्रशासन की जरुरत होती है और


कुशल प्रशासन के लिए सही प्रशासक की आवश्यकता होती है।
ये दोनों एक आपस में भिन्‍न होते हुए भी एक दूसरे के पूरक है।
एक के अभाव में दूसरा पूर्णता नहीं पा सकता ।

कोई भी राज्यव्यवस्था संचालन करने के लिए प्रशासनिक क्षेत्र में
काम करने वाले नागरिक को राज्य विशेष सुविधा प्रदान करके
जिम्मेदारी के अनुसार विशेषाधिकार प्रदान करता है | ऐसे समूह
को नागरिक सेवक या राष्ट्रसेवक समूह भी कहते हैं । राज्य द्वारा
विशेष सुविधा प्राप्त उन कर्मचारियों द्वारा राज्य को यथेष्ट काम
लेना होता है इसलिए उस समूह में अनुशासित, ईमानदार,
नैतिकवान, जिम्मेदार और उत्तरदायीपूर्ण, क्षमतावान व्यक्ति को
होना चाहिए ।


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4


देश का प्रशासनिक संयन्त्र विश्वासयुक्त, मजबूत और सबल नहीं
हो तो प्रशासन स्वचालित नहीं हो सकता । जिस देश में
सर्वसाधारण जनता प्रशासनिक संयन्त्र से सहज रूप में सेवा
प्राप्त नहीं कर सकती, उस देश की शासन व्यवस्था असक्षम
साबित होती है।


भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं हो सकता किन्तु भ्रष्टाचार को पूर्ण
नियन्त्रण किया जा सकता है । भ्रष्टाचार नियन्त्रण करने वाली
प्रविधि का विकास किया जा सकता है । भ्रष्टाचार पर पूर्ण
नियंत्रण ही भ्रष्टाचार उन्मूलन है ।


भ्रष्टाचार के विरुद्ध अगर विज्ञ जनशक्ति तैयार होती है तो किसी
भी विकसित या विकासोन्मुख देश में भ्रष्टाचार नियन्त्रण किया
जा सकता है।

कोई भी कानून ऐसा न बने, जिसके दोहरे अर्थ निकलते हों ।
अपराधी को अपराध के अनुसार दण्ड पाने की व्यवस्था होनी
चाहिए ।

कोई भी व्यक्ति जन्म से न तो बेईमान होता है और न ही
अपराधी । किन्तु, समाज और समाज का वातावरण व्यक्ति की
सोच और क्रियाकलाप को नकारात्मक राह की तरफ ले जाती है ।
ऐसे नकारात्मक प्रवृत्ति से सकरात्मक सोच की उत्पत्ति हो सकती
है । राज्य और समाज में सकारात्मक सोच उत्पन्न होने वाली
व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहिए ।

भ्रष्ट माफिया का जन्म राजनीतिक क्षेत्र से पैदा होता है ।


राजनीति में भ्रष्ट माफिया का बोलवाला होने के कारण
राजनीतिक क्षेत्र के अलावा सभी क्षेत्र भ्रष्ट हो जाते हैं।

कमजोर कानूनी व्यवस्था के कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता
है । इसलिए भ्रष्टाचार को नियन्त्रण करने वाला कानून बनाना


चाहिए ।

व्यक्ति को हैसियत से अधिक धन संकलन नहीं करना चाहिए
ज्यादा धन संकलन करनेवालों पर तत्काल कानूनी कारवाई की
जानी चाहिए।


2


थे


भ्रष्टाचार प्रवृत्ति है । ऐसी प्रवृत्ति शक्ति सम्पन्न व्यक्तियों में
विकसित होती है । ऐसी खराब प्रवृत्ति लम्बे समय तक नहीं टिक
सकती है ।

प्रत्येक अपराध योजनावद्ध रूप में संचालन होती है ।

ऐसी संचालित योजना पदचिन्ह छोड़कर आगे बढ़ती है । यही
पदचिन्ह अपराध प्रमाण के रूप में मिलता है।


विकासोन्मुख देश की जनता गरीब, असहाय और शक्तिहीन होती
हैं । जनता को जागरुक होने के लिए शिक्षित होना पड़ता है।
शिक्षित व्यक्ति ही सकारात्मक सोच कायम रख सकता है।
बहुसंख्यक नागरिक अगर शिक्षित नहीं होता है तो देश में
प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं हो सकती है । सचेत नागरिक ही
सत्ता पक्ष की गलती को बता सकता है।

कानून के आधार में भ्रष्टाचार नियन्त्रण करने वाले सशक्त कानून
का निर्माण करना चाहिए।

विकासोन्मुख देश में सक्रिय होने वाले गैरसरकारी संस्था
भ्रष्टाचारजन्य कार्य में संलग्न होते है । ऐसी संस्थाओं पर कही
निगरानी रखनी चाहिए।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण करने के लिए तीन तरह की योजना साथ-
साथ शुरु करनी चाहिए । तत्कालीन, अल्पकालीन और
दीर्घकालीन योजना अलग-अलग तरीके से शुरु किया जाय तो
प्रभावकारी रूप में भ्रष्टाचार नियन्त्रण कार्य सफल हो सकता है।
घूस लेने और घूस देने वाले दोनों ही भ्रष्टाचारी होते हैं। दोनों के
लिए कार्यवाही करनेवाली कानून व्यवस्था होनी चाहिए ।

घूस लेना-देना, प्राप्त अख्तियार का दुरूपयोग करना और कानून
बनाकर राज्य की सम्पत्ति हड़पने की कोशिश करना, ये सभी
भ्रष्टाचार की कोटि में ही पड़ता है । इन पर सख्त कारवाही
करने की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए ।

छोटी या बड़ी भ्रष्टाचार सम्बन्धी शिकायत प्रत्येक नागरिक को
करने का कानूनी अधिकार प्राप्त होना चाहिए ।


3


व्यक्ति, समुदाय और सार्वजनिक पद धारण करने वाले पदाधिकारी
को भ्रष्टाचारजन्य कार्य में अनुसन्धान और कारवाही के दायरे में
लाकर ऐसे श्रष्टाचारी पर कानूनी कारवाही की व्यवथा होनी
चाहिए ।


भ्रष्टाचारी को राज्य अपराध के रूप में स्वीकार कर व्यक्ति,
समुदाय और राज्य तीनों क्षेत्र से अनुसन्धान और प्रमाण जुटाकर
कारवाही करने की व्यवस्था होनी चाहिए

अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था जिस देश में होती है, वहाँ भ्रष्टाचार
संस्थागत रूप में विकसित होता है। भ्रष्टाचार संस्थागत होने पर
देश और जनता कमजोर होती चली जाती है । इस अवस्था को
तत्काल नियन्त्रण करना चाहिए

नेतिकता, विश्वास और ईमानदारी जिस भी समाज में होती है ।
वह समाज हमेशा अग्रसर होता है । समाज के नागरिकों की


नेतिकता, विश्वास ओर ईमानदारी खोने पर समाज की अवस्था
बिगड़ती चली जाती है।


प्रजातान्त्रिक देश में विधि के अनसार संचालन होने की वजह से
विधि के द्वारा ही राज्य का प्रशासनिक संयन्त्र भी चलने-चलाने
का वातावरण राजनीतिक क्षेत्र में होना चाहिए । प्रशासनिक
कर्मचारियों को संगठन बनाकर राजनीतिक दलमुखी बनाने पर


नियन्त्रण होना चाहिए ।


पेशा के प्रति उत्तरदायित्व वहन करना चाहिए । पद की जिम्मेदारी
और जबावदेही वहन करने वाला वातावरण ही प्रशासनिक क्षेत्र
को स॒दृढ़ बना सकता है।

प्रशासनिक संयन्त्र संचालन करने के लिए दण्डहीनता की अवस्था
नहीं होनी चाहिए । काम करने वालों को पुरस्कार और काम न
करने वालों को दण्ड देने की व्यवस्था से प्रशासनिक क्षेत्र
सेवामुखी और अनुशासित होता है।

पीत पत्रकारिता राजनीति में अस्थिरता लाती है, जो भ्रष्टाचार को
बढ़ाती है । प्रजातान्त्रिक विकास में पीत पत्रकारिता अभिशाप है
इसलिए इस पर नियन्त्रण आवश्यक है।


4





किसी भी देश का संचार माध्यम दूसरे देश के घूसपैठ में
संचालित नहीं होना चाहिए । संचार माध्यम का संचालन स्वच्छ
और स्वदेशी होना चाहिए । विदेशी घुसपैठ से पीत पत्रकारिता का
जन्म होता है।

राष्ट्र के लिए नीतिगत भ्रष्टाचार आर्थिक भ्रष्टाचार से भी अधिक
घातक होता है । इसलिए नीतिगत भ्रष्टाचार के लिए निश्चित
रूप में राजनीतिक दल दोषी होते हैं । व्यवस्थापिका राजनीतिक
दल की जिम्मेदारी में संचालन होने के कारण राज्यहित से भी
अधिक व्यक्तिगत और दलगत हित के लिए नीति निर्माण करने
की प्रवृत्ति प्रबल हो सकती है । ऐसे राजनीतिक दल के लिए
निषेध करने का वातावरण तैयार होना चाहिए।





नागरिक में सकारात्मक सोच का विकास करना चाहिए ।
सकारात्मक सोच से विवेक का निर्माण होता है । विवेक के
निर्माण से ही आदर्श समाज की स्थापना होती है ।

कर्मचारीतन्त्र के भ्रष्टाचार को राजनीतिक तनन्‍त्र से नियन्त्रण
करना चाहिए और राजनीतिक तन्‍्त्र को जनता के द्वारा नियन्त्रण
करने का वातावरण तैयार करना चाहिए।


देश की राज्यव्यवस्था में संलग्न व्यक्ति स्वच्छ, ईमानदार और
नेतिकवान होना अनिवार्य है । अगर ये व्यक्ति बेइमान,
अवसरवादी और अनैतिक होंगे तो सर्वसाधारण का जीवन ऊपर
नहीं उठ सकेगा । जनता का जीवन अगर ऊपर नहीं उठता है
तो विद्रोह की सम्भावना होती है । इसलिए सत्ताधारियों को
जिम्मेदार होना चाहिए ।

राजनीतिक परिवर्तन कभी-कभी अस्थिरता को जन्म देती है ।
अस्थिरता अविश्वास के साथ में स्वार्थ को जोड़ती है । अविश्वास
और स्वार्थ को तोड़ने के लिए नैतिक मूल्ययुक्त समाज की
स्थापना करनी चाहिए ।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण के बिना राजनीतिक वातावरण स्थिर नहीं हो
सकता । अस्थिर राजनीतिक वातावरण से देश का विकास सम्भव
नहीं है और देश के आर्थिक विकास के बिना जनमानस का
विकास सम्भव नहीं है ।


5


राजनीतिक दल निर्वाचन खर्च के नाम पर आर्थिक अन॒दान देने
और अर्थ संकलन करने की व्यवस्था भ्रष्टाचार बढ़ाने में सहयोग
करती है । राजनीतिक दलों को व्यक्ति, संस्था अथवा विदेशी
निकाय से चुनाव खर्च नहीं लेना चाहिए


भ्रष्टाचारी कमीशन को भ्रष्टाचार मानने के लिए तैयार नहीं है ।
किन्तु कमीशन का लेन-देने पूरी तरह भ्रष्टाचार है । इस प्रथा को
रोकना चाहिए


नागरिक समाज और देश जितना अधिक नए यग में प्रवेश करते
जाएंगे, भ्रष्टाचार का रूप भी बदलकर ओर भी जटिल रूप में
प्रस्तुत होने लगेंगे । ऐसे परिवर्तित अपराध को नियन्त्रण करने के
लिए समय की मांग के अनुसार व्यवस्था करनी चाहिए
सम्पन्न देश अर्थात्‌ दातु के सहयोग या ऋण रकम निकालने का
जिम्मा पानेवाले व्यक्ति अगर लालची हैं तो विकासोन्मुख देश में
भ्रष्टाचार का जन्म होगा । दातृ देश के सहयोगी समूह को भी
भ्रष्टाचार सम्बन्धी कारवाही के दायरे में लाना चाहिए
जिस देश में तस्करी अधिक होती है, उस देश की राज्य सत्ता
और राज्यकोष दोनों कमजोर होते चले जाते है । नागरिकों में
दूरियाँ बढ़ती जाती है और राज्य में आतंक का जन्म होता है।
उपरोक्त परिभाषा से सिर्फ भ्रष्टविरोधी शास्त्र प्रा नहीं हो सकता ।
इस पुस्तक में प्रयोग में आए हुए उपरोक्त बिन्दुओं को परिभाषा
के क्षेत्र में समावेश करके देखना पड़ेगा । इसके अतिरिक्त समय
की मांग अनुसार इसके बाद व्याख्या तथा विश्लेषण होते हुए
अध्ययन और शोध से निकलने वाले बिन्दुओं को भी परिभाषा में
समावेश करते जाना होगा ।


6


भ्रष्टविरोधी शास्त्र का नीतिगत सिद्धान्त तथा सूत्र


मांत्गें श्राठंफा९5 गात 4्राा-९०07एफणाफता।परो 35


सदाचार मानव का जन्मजात गुण है। - नीति विज्ञान
मानव विवेकशील प्राणी है । वह हमेशा सही रूप में समाज में
रहना चाहता है। - समाजशास्त्र
व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास उसके मनोभाव से निर्देशित होता है।
- मनोविज्ञान
आर्थिक कारोबार और व्यवहार में विचलन नहीं आना चाहिए।
- अर्थशास्त्र
मानव समाज का विकास व्यक्ति के सदव्यवहार से होता है ।
-मानवशास्त्र
नीतिगत अभ्यास से सही और सकारात्मक सोच पैदा होती है।
- नीतिशास्त्र
व्यक्ति के सही सोच से राजनीतिक परिवर्तन होता है।
- राजनीतिशास्त्र
घुस लेना और देना दोनों पाप है । यह मानव जीवन में बर्जित है ।
- धर्मशास्त्र
घूस खाने और खिलाने वाले दोनों अपराधी हैं । अपराधी कानून से
बच नहीं सकता । - विधिशास्त्र


उपरोक्त सिद्धान्त शाश्वत और प्रमाणिक हैं ।


भ्रष्टाचार विरोधी शास्त्र के सिद्धान्त और सूत्र को गहराई से


समभने के लिए मानव समाज की संरचना को देखना पड़ेगा । सभी
समाज और देश एक प्रकार के विधि, व्यवस्था और संस्कृति से संचालित
नहीं होती, फिर भी सामाजिक संरचना का एकाई तत्व व्यक्ति ही है।
इस अध्ययन का सूत्र और सिद्धान्त को परखते और व्याख्या करते हुए
आगे बढ़ने पर अन्य सिद्धान्त और सूत्र जन्म ले सकते है। ऐसे सिद्धान्तों


7


तथा सत्रों को बाद में ठीक ढंग से पहचान कर समावेश किया जाएगा ।
वर्तमान में निम्नलिखित बातों को सत्र और सिद्धान्त में समावेश किया
गया है।


मनष्य जन्म के साथ ही मानवीय प्रकति का आचार और व्यवहार
साथ में लाता है । जन्म के साथ मनुष्य अपराधी नहीं होता ।
समाज का वातावरण मनुष्य को भ्रष्ट बनाता है। यह परिवर्तित
प्रवृति अपने पूर्व स्वभाव में लौट सकता है।

भ्रष्टाचार और सदाचार दोनों मनुष्य के भीतर रहने वाले तत्व है।
ये नियन्त्रित किए जा सकते हैं ।

व्यक्ति ही भ्रष्टाचार का प्रारम्भ और अंतिम इकाई है । व्यक्ति ही
मूल बिन्दु होने के कारण मूल रूप में लक्षित इकाई भी व्यक्ति ही
है । इससे व्यक्ति और व्यक्तित्व के विकास में निगरानी रख सकते
हैं।

कोई भी व्यक्ति देवी शक्ति प्राप्त कर सकता है । उसकी चेतना का
स्तर उसकी आन्तरिक और बाह्य शक्ति निर्धारण कर देता है।
व्यक्ति से समाज और समुदाय, संस्था, संघ, शासक, शासित और
राजनीतिक संगठन आदि निर्माण होता है । व्यक्ति द्वारा निर्मित
समाज का अन्य निकाय सुदृढ, सवच्छ और जिम्मेदार बन सकता
है, इसलिए व्यक्ति से ही आचार शुद्धता तथा व्यवहार शुद्धता की
शुरुआत होनी चाहिए ।

व्यक्ति के स्थापित मूल्य को समाज अंगीकार करता है । ऐसे मूल्य
को कायम करने के लिए वातावरण तैयार करना चाहिए

भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या है । दसरे अर्थ में यह सामाजिक रोग
भी है । समाज का अंग व्यक्ति है । इसलिए व्यक्ति से ही रोग
निदान के लिए उपचार शुरु करना होगा ।

भ्रष्टाचार की उत्पत्ति व्यक्ति के मनोभाव से शुरु होता है ।
मनोभाव और विचार दिखाई नहीं देता, पर महसस कर सकते है।
कार्यान्वयन में आने पर देख भी सकते हैं । विकत मनोरोग
आचार और संस्कृति को सुधार के माध्यम से नियन्त्रित करना
चाहिए ।


8


उचित या अनुचित अलग करने की क्षमता मनुष्य में है, इसलिए

वह विवेकशील है । इसी विवेक के आधार पर उसको परिवेश

निर्माण हुआ है।

संक्रमण रोग की तरह प्रकृति वाले मनोदशा को चिकित्सा उपचार

पद्धति के आधार पर निर्मूल किया जा सकता है।

यह अनुकरणीय प्रकृति का होने के कारण इसे खुला छोड़ने से यह
कसान करता हज के टबन्ध विधि कप

नु करता है । इसलिए नदी के त विधि से नियन्त्रण

रखने से सिर्फ भूमि उर्बरा नहीं होती बल्कि विद्युत भी उत्पादन हो

सकता है । इसलिए इसकी शक्ति को पहचान कर इसे नियन्त्रण मे

लेना चाहिए ।

व्यक्ति का स्वभाव ही समाज विकास की गति निश्चित करने के

कारण व्यक्ति में विज्ञता का विकास करना चाहिए । यह विकास

शिक्षण संस्था से ही सम्भव है।

आधारभूत आवश्यकता की पूर्ति होने की अवस्था में सिर्फ मनुष्य

के खराब पक्ष को नियन्त्रण किया जा सकता है।

मूलतः व्यक्ति और व्यक्ति में दिखने वाले आचार, विचार और

व्यवहार के स्वभाविक रूप को ठीक ढंग से संचालन करने और

कराने की आवश्यक विधि तथा संस्कृति का निर्माण करना और

कराना चाहिए ।


9


भ्रष्टविरोधी शास्त्र का नामकरण


पिगाएं एण /ंटए077एए)0००2५


भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या है । इसलिए सामाजिक समस्या की गहराई
से अध्ययन करने की अवस्था आई ।

निष्कर्षत: भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या से अलग प्रकृति की समस्या
मानी जा सकती है | इसे समाजशास्त्र के अंग के रूप में स्वीकार करने
पर इसका दायरा सिमट जाता है इसलिए इसे अलग विषय के रूप में
स्वीकार करके इसका विस्तृत अध्ययन किया गया । अध्ययन के क्रम में
यह साबित हुआ कि यह सिर्फ सामाजिक समस्या नहीं है, बल्कि
सामाजिक रोग भी है । यह रोग मानवीय रोग की तरह संक्रमित रोग
माना गया । रोग है, वह पता चलने पर इसके निदान की भी सम्भावना
पक्की हो गई ।

निष्कर्षत: यह माना गया कि भ्रष्टाचार रोग है तो इसका निदान भी
सम्भव है । इसकी औषधि और विधि के पहचान होने के पश्चात्‌
चिकित्सा विज्ञान की तरह चलने का निर्णय लिया गया । वह तरीका
जिससे यह रोग ना लगे, रोग अगर लग ही गया है तो उसके उपचार
के लिए साधारण औषधि उपचार शुरु करना, अगर साधारण उपचार से
भी निदान सम्भव नहीं हुआ तो एन्टीबायोटिक का प्रयोग करना, इससे
भी अगर रोग ठीक नहीं हुआ हो तो शरीर बचाने के लिए आवश्यकता
अनुसार शरीर का कोई भी हिस्सा काटछाँट कर फेंक देना जैसी
चिकित्सकीय नीति के अनुसार श्रष्टविरोधी शास्त्र विज्ञान के रूप में
विकसित हुआ ।


भ्रष्टविरोधी विज्ञान तैयार होने के बाद जब नामकरण की बात सामने
आई तो कई सम्भावित नाम सामने आए-

१) भ्रष्टाचार नियन्त्रण का विज्ञान

२) चरित्र विज्ञान

३) भ्रष्टाचार नियन्त्रण का व्यवस्थापन

४) भ्रष्टविरोधी शास्त्र


20


१) भ्रष्टाचार नियन्त्रण का विज्ञान (८णएणएफञाणा ए/९ए्शास्‍रए८
50[शा००0

भ्रष्टाचार विरुद्ध के विज्ञान का नाम भ्रष्टाचार नियन्त्रण का विज्ञान
रखना अच्छा ही होता । भ्रष्टाचार नियन्त्रण कहने के साथ ही किसी
पद्धति का विकास दिखाई देता है । इस नाम के साथ पद्धति का विकास
दिखाई देता है । इस नाम के साथ पद्धति के बाहर न जा सकने की
अवस्था भी आ सकती है । इसलिए इसे ऐसा नाम देने की आवश्यकता
महसूस हुई जो इसके क्षेत्र का विस्तृत विकास कर सके । इसकी वजह
से भ्रष्टाचार नियन्त्रण का विज्ञान सटीक नहीं है ।

२) चरित्र विज्ञान (ए_ग्रागलश' $तंशाटट)


भ्रष्टाचार का विज्ञान व्यक्ति के चरित्र के साथ सम्बद्ध विषय भी है ।
मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक
विकास ही व्यक्ति का चरित्र निश्चित करता है। चरित्रवान व्यक्ति न तो
भ्रष्ट हो सकता है, न ही भ्रष्टाचार का संस्थागत विकास कर सकता है।
चरित्र विज्ञान व्यक्ति, समुदाय ओर समाज में कैसे जीवन सुखमय और
समृद्ध बना सकता है, इस बात को मूल रूप में सिखाता है । चरित्र
विज्ञान अथवा आचार विज्ञान के अन्तर्गत बना समाज हमेशा अच्छा
और उन्‍नतिशील कार्य करता है | इसलिए भश्रष्टविरोधी विज्ञान में मानव
चरित्र और आचार महत्वपूर्ण स्थान रखता है । हम चरित्र विज्ञान को ही
भ्रष्टविरोधी विज्ञान के रूप में विस्तार कर सकते हैं ।

३) भ्रष्टाचार नियन्त्रण का व्यवस्थापन ((०४७एएांणा ए/९एशाहरए९
शिगाव३2शाशा)

भ्रष्टाचार विज्ञान के लिए भ्रष्टाचार नियन्त्रण का व्यवस्थापन भी सटीक
दिखता है । व्यवस्थापन सम्बन्धी विधि के अनुसार नियन्त्रण का उपाय
खोजना भी सहज है । वास्तव में नियन्त्रण विधि का विकास कर
भ्रष्टाचार को शून्य सहनशीलता की अवस्था में ले जाना प्रविधि
व्यवस्थापन के सिद्धान्त में निहित दिखता है । भ्रष्टाचार नियन्त्रण का
व्यवस्थापन सिद्धान्त के अनुसार भी भ्रष्टविरोधी विज्ञान को परिचित करा
सकता है।

४) भ्रष्टविरोधी शास्त्र (१धा८०7०एणए००९९५)


भ्रष्टविरोधी विज्ञान के लिए सबसे अधिक उपयुक्त नाम '्रष्टविरोधी
शास्त्र' ही है। भ्रष्ट विरोधी अर्थात्‌ भ्रष्टाचार के साथ सम्बद्ध सभी तरह


के
के


24


के क्रियाकलापों को अध्ययन में समेटने की क्षमता होना भ्रष्ट और
विरोधी, ये दो शब्द मिलकर भ्रष्टविरोधी एक शब्द बनता है । जो एक
विशेष अर्थ देता है । शास्त्र में विषय सम्बन्धी समष्टिगत अध्ययन करने
के लायक विषय का समावेश होना आवश्यक है | इसलिए 'भ्रष्टविरोधी
शास्त्र' भ्रष्टाचार के साथ सम्बन्धित और उसके रोकथाम की विधि,
व्यवस्थापन नीति, नियन्त्रणा पद्धति और अध्ययन प्रविधि का विस्तृत
अध्ययन का शास्त्र है ।

ऊपर उल्लेखित (१) भ्रष्टाचार नियन्त्रण का विज्ञान, (२) चरित्र विज्ञान, (
३) भ्रष्टाचार नियन्त्रण का व्यवस्थापन, ये तीनों शीर्षक उपयुक्त ही है
किन्तु इन तीनों से अधिक उपयुक्त शीर्षक (४) में उल्लेखित श्रष्टविरोधी
शास्त्र ही अधिक उपयुक्त और विषयवस्तु के साथ अधिक नजदीक है ।
क्योंकि इसके भीतर अध्ययन के लिए सभी क्षेत्र समेटने की क्षमता है ।
भ्रष्टाचार विरुद्ध का विज्ञान कहने से भ्रष्टाचार का सकारात्मक और
नकारात्मक दोनों पक्ष का अध्ययन सम्भव है । साथ ही, भ्रष्टाचार के
विरुद्ध अध्ययन करने के क्रम में किस तत्व के विश्लेषण से नियन्त्रण का
उपाय खोजा जा सकता है और किस प्रविधि के विकास से
भ्रष्टाचारमुक्त समाज निर्माण किया जा सकता है, इसका अध्ययन
आवश्यक है । श्रष्टविरोधी शास्त्र के अन्तर्गत श्रष्टचार विरुद्ध के सभी
पक्षों का अध्ययन होता है । इसलिए अ्रष्टविरोधी शास्त्र' नाम सबसे
अधिक उपयुक्त है।


भ्रष्टाचार विषय और मानवरोग विषय की प्रकृति एक दूसरे से मिलती
हुई है इसलिए भ्रष्टाचार विरुद्ध विज्ञान ओर चिकित्सा विज्ञान (मेडिकल
साइन्स) एक साथ मिल गई है । चिकित्सा विज्ञान के सिद्धान्त, व्याख्या,
विधि, पद्धति और निर्णय जैसा ही स्वरूप भ्रष्टविरोधी शास्त्र का भी है।
इसलिए वर्तमान अवस्था में इसका अध्ययन जैसा भी है, भविष्य में
इसमें रोग के आधार पर उपचार पद्धति का निर्माण होता जाएगा । इस
तरह समय और विषय के अनुसार व्याख्या विश्लेषण करते हुए उपचार
पद्धति का निर्माण भ्रष्टविरोधी शास्त्र कर सकता है।


वर्तमान में भ्रष्टविरोधी शास्त्र नाम ही उपयुक्त है, बाद में इसमें
समयानुसार परिवर्तन किया जा सकता है।


22


अध्ययन की आवश्यकता


पि९टट5चञाए एण ९ ह४ाा0तए एण गारएणणाएण070९णए


सृष्टि काल से ही समाज में अनेक तरह की समस्या उत्पन्न होती रहती
है । समय-समय पर उत्पन्न होना और ऐसे समस्याओं का समाधान भी
इसी समाज में अन्तर्निहित रहता है । मानवीय समाज में अनेकानेक
समस्या समयानुसार आते रहते हैं और समाज को समस्याग्रस्त बनाते हैं
और इसका निराकरण भी खोजा जाता है। मानव समाज में उत्पन्न
कोई भी नई समस्या के विरुद्ध में प्रतिरोध करना और समाधान खोजना
चलता रहता है।


इसी क्रम में विश्व के सभी देशों में भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या के
रूप में विकसित हो रही है । यह समस्या विकसित होते हुए
विकासोन्मुख देशों में जीवन समाप्त करने वाली महामारी के रूप में
स्थापित हो गई है | देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अवस्था
के अनुसार भ्रष्टाचार अपनी अलग प्रकृति के अनुसार प्रवेश कर रहा है।
और सभी देशों में इसका प्रभाव कायम है।

मानव विकास के क्रम में मानव जीवन को समाप्त करने के लिए अनेक
तरह की महामारी प्लेग, हैजा, बिफर और सिफलिस रोग ने हजारों
हजार मानव जीवन को समाप्त किया है । जिस समय रोग फैलता है,
उस समय उपचार की विधि नहीं होने पर भी रोग का अतिक्रमण होने
पर रोग समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि रोग पर पूर्ण नियन्त्रण करने
की विधि चिकित्सा विज्ञान ने निर्माण कर माननव जीवन की रक्षा की है ।
इसी तरह विश्व के सभी देशों में फैले इस मनोरोग को और अधिक
नहीं फैलने देने के लिए और नियन्त्रित अवस्था में रखने के लिए
भ्रष्टविरोधी शास्त्र का प्रादर्भाव हुआ है और इस विषय का अध्ययन
आवश्यक है।

भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या अर्थात्‌ सामाजिक रोग है । रोग कहने से
इसका निदान भी सम्भव है | रोग का उपचार करने के लिए औषधि की
आवश्यकता होनी है । औषधि उत्पादन करने की भी निश्चित विधि है।
औषधि के विधि विज्ञान से औषधि उत्पादन कर उपचार द्वारा रोग


23


नियन्त्रण होता है । इसी तरह भ्रष्टाचार जैसे मनोरोग का उपचार करने
के लिए भी अध्ययन-अध्यापन की विधि निर्माण आवश्यक है । इसे निम्न
रूप से तैयार किया जा सकता है-

१) शोधकार्य का आरम्भ


के


२) स्नातकोत्तर स्तर के कक्षा का आरम्भ
३) विद्यावारिधि तथा अनुसन्धान

४) भ्रष्टविरोधी विज्ञ तैयार

५) पाठयसामग्री लेखन

६) स्कूल से ही पठन-पाठन शुरु


१) शोधकार्य का आरम्भ ($ध्वावााए ए 7९६९३)


अध्ययन का स्थल विश्वविद्यालय होने के कारण उच्च्च शिक्षा में स्नातक
या स्नातकोत्तर की कक्षा के छात्रों द्वारा भ्रष्टाचार विरुद्ध के विषय में
शोध कार्य आरम्भ कराना चाहिए । जिस विषय से सम्बद्ध है, उसी
विषय में भ्रष्टाचार नियन्त्रण विधि को मूल विषय बनाकर शोधकार्य
किया जा सकता है । इस तरह शोध कार्य कराना ही अध्ययन का
आरम्भ है।


२) स्नातकोत्तर स्तर के कक्षा का आरम्भ (छागाएु तीर ?०४-
("9079९ ७009)


स्कूलों में भ्रष्टविरोधी विषय का पठन-पाठन नहीं होने के कारण इसी
विषय को सर्वप्रथम स्नातकोत्तर श्रेणी में पठन-पाठन शुरु करने की
आवश्यकता है । इस विषय से सम्बद्ध राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र,
समाजशास्त्र, ग्रामीण विकास शास्त्र, जन प्रशासन शास्त्र, पत्रकारिता,
व्यवस्थापन और कानून आदि विषय मिलाकर अध्ययन शुरु किया जा
सकता है । मूल विषय भ्रष्टविरोधी होने के कारण स्नातकोत्तर उत्तीर्ण
विद्यार्थी सामान्य विज्ञ के रूप में तैयार होंगे ।


३) विद्यावारिधि तथा अनुसंधान (0॥.00. भधात परए८छां2४ध0०ा)


स्नातकोत्तर उत्तीर्ण विद्यार्थी विद्यावारिधि का शोधकार्य और अनुसन्धान
शुरु करेंगे तो इस कार्य से दूसरों का भी इस ओर आकर्षण बढ़ेगा ।


24


४) भ्रष्टविरोधी विज्ञ तैयार (एएकु्मागांणा ए #च्ञांटणफएफु'ंणा
रुफ़शा$)


इंस तरह स्नातकोत्तर का अध्ययन कर श्रष्टविरोधी विषय में विद्यावारिधि
करने के बाद पूर्ण विज्ञ जनशक्ति तैयार होंगे ।


५) पाठय सामग्री लेखन (800 तठ 25 भात (:८०ए75९ ० 507)


विज्ञ जनशक्ति द्वारा स्कूल से उच्च शिक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए
आवश्यक पाठ्यसामग्री तैयार होगा ।


६) स्कूल से पठन पाठन शुरु (#एतए #णा 5टा०० ॥९एश)


इसतरह पाठ्य सामग्री तैयार होने के बाद स्कूल से उच्च शिक्षा तक
भ्रष्टविरोधी पठन-पाठन शुरु होगा ।


अध्ययन-अध्यापन के क्रम को निम्न रूप में देखें-


|| ्‌ रे
शोधकार्य का “-->| स्नातकोत्तर कक्षा ----> | विद्यावारिधि
आरम्भ आरम्भ तथा
अनुसंधान
स्क्‌ल से पाठ्यसामग्री छ भ्रष्टविरोधी
पठन-पाठन लेखन विज्ञ तयारी
शुरु
द्‌ ४ है


क्रमशः (१) शोधकार्य का आरम्भ (२) स्नातकोत्तर कक्षा का आरम्भ (३)
विद्यावारिधि और अनुसंधान (४) भ्रष्टविरोधी विज्ञ तैयार (५) पाठय
सामग्री लेखन (६) स्कूल से पठन-पाठन शुरु कर भ्रष्टाचार के विरुद्ध
अध्ययन शुरु करने की आवश्यकता है।

भ्रष्टविरोधी अध्ययन अध्यापन आज की आवश्यकता है । विश्व के सभी
देश भ्रष्टाचार जैसे संक्रमित रोग से ग्रस्त है । इसलिए इस संक्रमण
प्रकृति के मनोरोग को नियन्त्रण विज्ञ जनशक्ति उत्पादन से सम्भव है।
इसके लिए भ्रष्ट विरोधी विषय का अध्ययन अध्यापन आवश्यक है।


25


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के गुण तथा अवगुण


शिश्लॉड गात एसाटाॉ5 ए राटणणाए०ण०07९फए


सभी शास्त्र के गुण अवगुण होते है इसी तरह भ्रष्टविरोधी शास्त्र के गुण
पक्ष और अवगुण पक्ष हैं। ये गुण पक्ष और अवगुण पक्ष निम्न है-


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के गुण (शछला5 ० /धा०९००7०एफा०ण००१९)


- मानव के विचार में सकारात्मक सोच पैदा करना ।

- मानव के भीतर रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास करना ।

- मानव मानव के बीच सच्चा व्यहार और सहयोग बढ़ाना ।

- आचारयुक्त जीवनयापन करने के लिए मार्ग दर्शन करना ।

- समाज में सदाचार का पाठ सिखाना ।

- व्यापार और उद्योग क्षेत्र में विधिपूर्वक कार्य करने में लगाना ।

- राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में स्वच्छ और प्रभावकारी कार्य
करना, सिखाना । एक क्षेत्र का दूसरे क्षेत्र के साथ व्यवहार में
स्वच्छता प्रदान करना ।

- व्यक्ति और संस्था को पूर्ण व्यवसायिक बनाना ।

- समाज में भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास करना ।

- न्याय देने और दिलाने के क्षेत्र में न्यायिक मन को स्थापित करना ।

- नीत और विधि को ठीक ढंग से प्रयोग करना और कराने का कार्य
करना ।

- सिद्धान्तवादी राजनीतिक समूह बनाने में मदद करना ।


- नीति तथा सिद्धान्तवादी नेता तथा कार्यकर्ता उत्पादन करने का
काम ।


- राज्य प्रशासन के जिम्मेदार व्यक्तियों को पूर्ण जिम्मेदार बनाना ।
- राष्ट्र सेवकों को वास्तव में राष्ट्रसेवक के रूप में स्थापित करना ।
- कुशल एवं स्वच्छ प्रशासन सेवा संचालन करना ।


26


पूर्ण रूप में आर्थिक अनुशासन कायम रखने में मदद करना ।
समाज तथा राज्य व्यवस्था की आर्थिक अवस्था सुदृढ़ बनाना ।
राज्य की आमदनी को बढ़ाना और सुरक्षा देना । देश और जनता
को समृद्ध बनाने में मदद करना ।

राष्ट्रिता समाप्त करने वाले लोगों को आगे न बढ़ने देकर
राष्ट्रक्क्त जनशक्ति तैयार करना ।

देश की आवश्यकताअनुसार शिक्षा प्रणाली लागू करने में मदद
करना ।

वौद्धिक जमात को समाज और राष्ट्र के प्रति सदैव सजग बनाना ।
स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाले अवांछित अभ्यास को निरुत्साहित करना ।
सब के लिए स्वास्थ्य इस आवश्यक तत्व का बोध कराना ।

औषधि के उत्पादन और आयात में पूर्ण नियन्त्रण कायम करना ।
देश के प्राकृतिक य्रोत और साधन का संरक्षण करना ।

गैरसरकारी संस्थाओं पर पूर्ण नियन्त्रण करने में मदद करना ।
सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में होने वाले अपराध को निस्तेज
करना ।


राजनीतिक क्षेत्र में होने वाले छोटे बड़े अपराध को हटाना ।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अवगुण
(0शथाला&5 ण 4धाू८०ण-फुणण्ट/)


समाज में नकारात्मक प्रवृति वाले व्यक्तियों में इस के प्रति घृणा
पैदा होगी ।

थ आर्जन हू | ० ध ५ 5० ड़. की वजह 2. ०
अथ- में अवरोध पैदा होने की वजह से ऐसे व्यक्ति नाखुश
होंगे ।
भ्रष्ट आचरण के व्यक्ति चिन्तित होंगे।
अवैध कारोबार करने वाले व्यक्ति या समूह के लिए आघात होगा ।
घूस लेने वा देने वाले समूह मूश्किल में होंगे ।
अनुचित कार्य करनेवाले व्यक्ति या समूह नाखुश होंगे ।
जिम्मेदारियों का दुरूपयोग करने वाले व्यक्ति या संस्था निराश होंगे ।


27


के ब्घर


- राजनीतिक दल के कार्य संचालन में कठिनाई होगी ।

- राजनीतिक दल के नेता के प्रति कार्यकर्ता का मोह भंग होगा ।

- विकासोन्मुख देश के मतदाता को नुकसान हो सकता है।

- राज्यकोष से मनमर्जी खर्च करने वाले पदाधिकारियों पर पाबंदी
लगने से नाराज होना ।

- गैर सरकारी संस्था संचालन करने वाले विद्रोह में उतरेंगे ।

- देश की सम्पदा खरीद करने और कराने वाले एजेन्ट निरुत्साहित
होंगे ।

- रकम खर्च करके जातीय विभेद खड़ा करने वाले, धर्म संस्कृति
परिवर्तन करने वाली निकाय मुश्किल में पड़ेगी ।

- निजी क्षेत्र में संचालित शिक्षा तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी संस्था शोषण
न कर पाने की स्थिति में मुश्किल में पड़ेंगे ।

- पैसो की आड़ में समाज और राज्य व्यवस्था परिवर्तन करने वाले
राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय गिरोह निरुत्साहित होंगे ।

- आर्थिक तथा सांस्कृतिक उपनिवेश न बना पाने वाले बड़े राष्ट्र
छोटे राष्ट्र के साथ कूटनीतिक व्यवहार बिगाड़ेंगे ।

- लागू पदार्थ के उत्पादन और कारोबार करने वाले गिरोह इसके
विरोध में लगेंगे ।

- काला धन को बवैधता देने वाले गिरोह का कारोबार बन्द होगा।

ऊपर भ्रष्टविरोधी शास्त्र के गुण और अवगुण के पक्ष को यथाशाक्य

रखने की कोशिश की गई है । नवीन विचारों द्वारा निर्मित शास्त्र होने

की वजह से यहाँ सीमित गुण तथा अवगुण को सिर्फ रखने का काम

किया गया है । इस शास्त्र के विश्वव्यापी अध्ययन शुरु होने के बाद

प्रत्येक देश के अनुसार इसमें गुण और अवगुण मिल सकते हैं । किन्तु

वर्तमान समय में भ्रष्टविरोधी शास्त्र के गुण ही अधिक देखने को मिलते

हैं । मानव-जीवन, मानव-समाज और मानव-संगठन इस शास्त्र से

भरपूर फायदा लेने की स्थिति दिखाई देती है । इसका अध्ययन शुरु होने

के बाद और भी अच्छे पक्ष सामने आएंगे, इसमे हम विश्वस्त हैं ।


28


यथार्थवादी और आदर्शवादी अवधारणा
रट्गांजार गात 0टसगांबार (णात्शा रण
धि९णरए0002फए


भ्रष्टविरोधी शास्त्र विज्ञान भी है और कला भी । विज्ञान के दो पक्ष होते
हैं- एक यथार्थवादी (?0»0ए) और दूसरा आदर्शवादी [णाणाधांए) ।
भ्रष्टविरोधी शास्त्र यथार्थवादी एवं आदर्शवादी विज्ञान है ।


१) यथार्थवादी विज्ञान (२९वांबरांट इठंशाटट)
भ्रष्टविरोधी विज्ञान को यथार्थवादी विज्ञान मानना पड़ेगा । विज्ञान किसी


भी तथ्य को प्रमाणित करता है । यह उस तथ्य के कारण और परिणाम
के बारे में वर्णन करता है, किन्तु वह परिणाम ऐसा ही होगा, यह नहीं
बताता । इसलिए यशथार्थवादी विज्ञान ज्ञानदायी विज्ञान है। यह ज्ञानवर्द्धन
के लिए राह दिखाने का काम करता है । इस तरह यह अश्रष्टविरोधी
विषय के सम्बन्ध में इसके तथ्यों का यथार्थ विश्लेषण करने के कारण
यह यथार्थवादी विज्ञान है ।

२) आदर्शवादी विज्ञान (0९गांडरांट 5तंशा०९)


भ्रष्टविरोधी शास्त्र नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र
और अन्य सामाजिक शास्त्रों के साथ निकट सम्बन्ध रखता है । यह
मनुष्य और उसके व्यवहार को सही और गलत, अच्छा और बुरा,
कल्याण और अकल्याण, भ्रष्ट और अभश्रष्ट तथा लाभ और हानि आदि के
बारे में जानकारी कराता है | यह शास्त्र मनुष्य के आचरण, विधि
व्यवहार और उद्देश्य के साथ कर्तव्य के प्रति सतर्क कराता है। साथ ही
मनुष्य को मानव जीवन की सार्थकता के लिए अपनाने वाले आचार
और जिम्मेदारी का अत्याधिक बोध कराता है | इसलिए यह भश्रष्टविरोधी
शास्त्र आदर्शवादी विज्ञान भी है।


जे


भ्रष्टविरोधी शास्त्र व्यक्ति, समाज और देश में विद्यमान श्रष्टाचार,
अनाचार, दुराचार और अत्याचार के साथ आर्थिक असमानता आदि के
बारे में अध्ययन करता है और इनके कारण और तथ्य का पता लगाता
है । इसलिए यह यथार्थवादी है | दूसरी तरफ यह शास्त्र उपर्युक्त


29


समस्याओं के समाधान और व्यक्ति, समाज और देश के कल्याण की

वृद्धि करने का उपाय खोजता है । इसलिए यह आदर्शवादी भी है। इस

तरह भ्रष्टविरोधी शास्त्र को यथार्थवादी और आदर्शावादी विज्ञान कहा
्े

गया है।


भ्रष्टाचार और भ्रष्टविरोधी शास्त्र का स्वभाव तथा कार्यक्षेत्र के
बारे में संक्षिप्त जानकारी (षक्चाए7९ रात 5007९ ण ए0एणए्
गात 'र०ा-(०0०77790 5 छ्वर्श 0एशंस्छ)
भ्रष्टाचार को नियन्त्रित अवस्था में रखने के लिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र का
प्रादुर्भाव हुआ है । भ्रष्टाचार का स्वरूप समय-समय पर बदलता रहता
है । इसके निराकरण के लिए अनेक उपाय होने के बाद भी इस पर
नियन्त्रण नहीं हो सका है । इस अवस्था में समय की मांग के अनुसार
भ्रष्टविरोधी शास्त्र इसका अध्ययन करता है । भ्रष्टाचार के स्वभाव और
कार्यक्षेत्र पर प्रभाव जताने वाले क्षेत्र को तुलनात्मक रूप में निम्न तरीके
से देख सकते हैं-

स्वभाव (षिवाप्रा'९0
भ्रष्टाचार
- मानव प्रकृति की उपज है।
- न्यायिक मन को विचलित करता है।
- संक्रामक प्रकृति का रोग है।
- अर्थ अर्जित करने का उद्योग है।
- शीघ्र धन संकलन करने का व्यवसाय है।
- व्यक्ति को अनुचित कार्य करने के लिए उत्साहित करता है।
- अनुकरणीय स्वभाव होने के कारण भ्रष्ट संस्कृति का विकास
करता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र

- मानव प्रवृति को सकारात्मक राह दिखाता है।

- सामाजिक मर्यादा का बोध कराता है।

- ऐसे संक्रामक प्रवृत्ति की रोकथाम कर सकता है।

- इसे उद्योग नहीं समभकने का ज्ञान होता है।

-. इसे व्यवसाय के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता ।


30


- अनुचित काम को निरुत्साहित करता है।

- भ्रष्ट संस्कृति को नष्ट कर भ्रष्टविरोधी संस्कृति की स्थापना करता
हि

है।


न्याय तथा कानून (3प्रशांटट गाव ॥,7७ 8९06०)


भ्रष्टाचार

- उचित और अनुचित को समभने वाले विवेक को नष्ट करता है।
- न्यायिक मन को विचलित करता है।

- न्यायक्षेत्र में कानून की अपव्याख्या करता है।

- नीति और विधि की आड़ में अन्याय करता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र

- उचित निर्णय करने वाले मानवीय विवेक को स्थापित करता है।
- न्यायिक मन को हिम्मत देता है।

- कानून की सही व्याख्या के लायक वातावरण तैयार करता है।

- नीति और विधि का ठीक से प्रयोग करना सिखाता है।


राज्य और राजनीति (596 भाव एणांपंटव 5९९००)


भ्रष्टाचार
- राज्य सत्ता कब्जा करने का मोह जगाता है।
- . सिद्धान्तहीन राजनीतिक समूह को जन्म देता है।
अनैति ्े के था रु जिम्मेदार राजनीतिक __ था कार्य कर्ता (ः कप
- अनेतिक तथा गेर जिम्मेदार राजनीतिक नेता तथा कार्यकर्ता को
जन्म देता है ।
- निवचित प्रणाली की नीतिगत पद्धति को खत्म करता है।
- सही राजनीतिक पद्धति के विकास में अवरोध खड़ा करता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र

- राज्य सत्ता में सेवाभाव की अवस्था का सूजन करता है।

- . सिद्धान्तवादी राजनीतिक समुह खड़ा करने में मदद करता है।

- नीतिवान तथा जिम्मेदार राजनीतिक नेता कार्यकर्ता तैयार करने
में मदद करता है।


34


निर्वाचन प्रणाली में नीतिगत पद्धति का विकास करता है।
सही राजनीतिक पद्धति के विकास में सहयोगी साबित होता है ।


राज्य प्रशासन (807गंग्रंडागांए्ट 5९८07)


भ्रष्टाचार


राज्य प्रशासन के कर्मचारी को गैर जिम्मेदार बनाता है।
जिम्मेदार पदाधिकारी को भ्रष्ट बनाकर पदच्युत कर सकता है।
राष्ट्र सेवक को राष्ट्रद्रोही बना सकता है।

सेवाभाव के कार्य को शोषण में परिवर्तित कर देता है।
प्रशासन सेवा पूर्ण रूप में ध्वस्त हो सकता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र


राज्य प्रशासन के कर्मचारी को जिम्मेदार बनाता है।

पदाधिकारी द्वारा ईमानदारीपूर्वक काम करने का वातावरण तैयार
होता है।

राष्ट्सेवक को राष्ट्रसेवक के रूप में स्थापित करने में मदद
करता है।

सेवाग्राही तथा समय में अच्छी सेवा प्राप्त करने का वातावरण
बनाता है ।

कुशल और ईमानदार प्रशासन सेवा संचालन हो सकता है।


आर्थिक क्षेत्र (700णगं८ 5९८००)


भ्रष्टाचार


आर्थिक अनुशासन में नहीं रहने की अवस्था बनाता है।

लेखा के नीतिगत पद्धति को विचलित कराता है।

राजश्व संकलन में कमी लाता है।

राज्य की आमदनी खत्म करता है।

समाज और राज्य दोनों की आर्थिक अवस्था नाजुक बना देता है।
देश और जनता को आर्थिक रूप से कमजोर कर देता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र


पूर्णरछप से अनुशासन कायम रखने में मदद करता है।


32


- लेखा के नीतिगत पद्धति को स्थापित करता है।

- राज्य संकलन में पूर्ण रूप में मदद करता है।

- आमदनी को सुरक्षा प्रदान करता है।

- समाज और राज्य दोनों की ओर्थंक अवस्था सबल बना देता है।
- देश और जनता के लिए न्यायपूर्ण समूह बनाने के कार्य में मदद
करता है।


सामाजिक क्षेत्र (50०४ 5९९००)
भ्रष्टाचार
- सामाजिक रीति स्थिति और संस्कृति नष्ट कर सकता है।
- सामाजिक विभेद खड़ा कर सकता है।
- जातीय पहचान और संस्कृति परिवर्तन कर सकता है।
- समाज में अशान्ति फैला कर द्न्द्र फैला सकता है।
- राष्ट्र में गृहयुद्ध संचालन कर सकता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र

- सामाजिक रीति स्थिति और संस्कृति को बचा सकता है।
- सामाजिक विभेद का अन्त कर सकता है।

- जातीय पहचान और संस्कृति का बचाव करता है।

- शक्ति कायम कर सदभाव फैला सकता है।

- गृह्युद्ध की अवस्था नहीं आ सकती ।


शिक्षा क्षेत्र (7त07ट7ंणा 5९०००
भ्रष्टाचार
- वौद्धिक जमात को विचार शून्य बना देता है।
- आवश्यक शिक्षाप्रणाली को मोड देता है और निजी क्षुद्र व्यवसायी
विद्यालय का विकास होता है।
- निजी तथा सामुदायिक विद्यालय में विभेद खड़ा करता है।
- . शिक्षानीति का व्यापारीकरण कर देता है।
- एक राष्ट्र के दक्ष जनशक्ति को दूसरे राष्ट्र में विलय कर देता है।


33


भ्रष्टविरोधी शास्त्र


बौद्धिक जमात को समाज और राष्ट्र के प्रति सदैव जिम्मेदार और
सजग बनाता है।

सही शिक्षा प्रणाली लागू करने में मदद करता है।

सभी विद्यालय में शिक्षा के सम्बन्ध में एकरूपता कायम करता है।
अनिवार्य शिक्षा प्रणाली लागू कर सकता है।

शिक्षित जनशक्ति को राष्ट्र के भीतर क्रियाशील बनाता है।


स्वास्थ्य क्षेत्र (प्॒र्वात 5९९००)


भ्रष्टाचार


३०


मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में सेवा नहीं बल्कि क्षुद्र स्वार्थपरक
व्यापार कर सकता है।

मानव अंग का व्यापार कर सकता है।

अंग प्रत्यारोपण और प्रजनन्‌ के नाम पर जीवन समाप्त कर
सकता है।

मिलावटी और नकली औषधि उत्पादन करता है।

स्वास्थ्य शिक्षा के नाम पर चरम शोषण होता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र


स्वास्थ्य क्षेत्र को सेवा क्षेत्र बना कर कार्य संचालन कर सकता है।
मानव अंग का संरक्षण कर सकता है।

अंग प्रत्यारोपण और प्रजनन कार्य को विधिवत व्यवस्थित कर
सकता है ।

औषधि जे जेसे ० ( थे नहीं ० जप०० ० पे सकता

औषधि जैसे महत्वपूर्ण वस्तु में मिलावट नहीं होने दे सकता ।


के


स्वास्थ्य शिक्षा के क्षेत्र में शोषण नहीं होता ।


राष्ट्र और राष्ट्रीयता (्वांणा गाते षिग्वांणाबांगा 5९९०)


भ्रष्टाचार


देश के प्राकृतिक स्रोत-साधन को दूसरे देश में बिक्री कर सकता है।
गैर सरकारी संस्था के द्वारा देश और समाज द्रोही कार्य कराता है ।


34


- देश के परम्परागत राजनीति ओर संस्कृति को विकत बना सकता
3


है ।
- राष्ट्र और राष्ट्रीयता ही समाप्त कर सकता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र

- देश के प्राकृतिक स्रोत साधन के संरक्षण का वातावरण तैयार
करता है।

- गैर सरकारी संस्था को पूर्ण राष्ट्रहित के पक्ष में संचालन करता है।

- देश के परम्परागत रीति स्थिति का संरक्षण करता है।

- राष्ट्र और राष्ट्रीयता की सुरक्षा करता है।


आपराधिक कार्य (टम्रगगंगवग १०ंशंतंर55९९००)

भ्रष्टाचार
- समाज के विभिन्‍न पक्ष में अपराध बढ़ता है।
- आर्थिक क्षेत्र में विभिन्‍न अपराध सृजना करता है।
- सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक अपराध बढ़ता है।

देश में विप्लव होनेवाला अपराध फैलता है।
भ्रष्टविरोधी शास्त्र
- समाज में अपराध कार्य घटाता है।
- आर्थिक क्षेत्र में अपराध न्यूनीकरण करता है।
- राजनीतिक अपराध न्यूनीकरण करता है।
- राष्ट्र बचाने का कार्य गम्भीरता के साथ करता है।
भ्रष्टाचार से होने वाला खतरा और उसके बचाव में भ्रष्टविरोधी शास्त्र
जो भूमिका के बारे में संक्षेप में उल्लेख किया है, भ्रष्टाचार की वजह से
ऊपर जितनी भी बाते उललेखित है, उससे अधिक जनता का अहित हो
सकता है । उसके संरक्षण के लिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र विशेष भूमिका
खेल सकता है, इसका संक्षिप्त उल्लेख ऊपर किया गया है।


35


भ्रष्टविरोधी शास्त्र का अन्य शास्त्रों
के साथ सम्बन्ध


रिशेगाणाहफए एशएशरतला 4्रा।९ण7ए002५ए गाए
(जाश' छ950०790॥९5५


भ्रष्टविरोधी शास्त्र को विकृत समाज को सुधारने वाला शास्त्र विज्ञान भी
कह सकते हैं । इस शास्त्र का मानविकी शास्त्र के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध
है । इस शास्त्र में मानव और मानव समाज के विभिन्‍न स्वभाव,
व्यवहार, परिवर्तित मनोभाव और क्रियाकलाप के बारे में अध्ययन किया
जाता है । सामाजिक जीवन में व्यक्ति द्वारा होने वाले नैतिक या
अनैतिक क्रियाकलाप को अन्य विभिन्‍न शास्त्र द्वारा निरीक्षण, अध्ययन
और मूल्यांकन किया जाता है । इसी अध्ययन के क्रम में इस
भ्रष्टविरोधी शास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्र के बीच सम्बन्ध को इस
तरह वर्णन कर सकते हैं-

१. भ्रष्टाचार विरोधी शास्त्र और अर्थशास्त्र (॥वराटणफएएा00० 29 भात
#८णाणां८5)


के


अर्थशास्त्र का तात्पर्य विभिन्‍न प्रकार के मनुष्यों के आर्थिक क्रियाकलाप
के बारे में अध्ययन का शास्त्र है। मनुष्य कैसे आमदनी प्राप्त करता है
और कैसे खर्च करता है, इन बातों का सूक्ष्म रूप से अध्ययन कर मानव
समाज में आर्थिक व्यवस्था के अनेक अच्छे और बुरे पक्ष का गहराई से
अध्ययन, अनुसंधान और विश्लेषण करने के तौर तरीके से अर्थतन्त्र के
व्यवस्थित राह का निर्माण कर के यह अर्थ व्यववस्था का विस्तृत
अध्ययन कराता है । इसी तरह भ्रष्ट विरोधी शास्त्र मानव के धन
आर्जित करने और अर्जित धन के प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति, स्वभाव और
प्रकृति का वैज्ञानिक अध्ययन करने का शास्त्र है । अर्थशास्त्र में
व्यवस्थित आर्थिक कारोबार के माध्यम से धन अर्जित करना और उसे
व्यवस्थित रूप से सदुपयोग करने का ज्ञान दिलाना है । भ्रष्टविरोधी
शास्त्र अनैतिक और गैरकानूनी तरीका से अर्जित किए हुए धन के विपक्ष
में रहकर उस धन के नियन्त्रण सम्बन्धि विधि तैयार करता है ।
अर्थशास्त्र किसी भी विधि से धन अर्जित करना और उस धन के


36


व्यवस्थापन करने की छूट नहीं देता है । भ्रष्टाचार नियन्त्रण के बिना
जनता, समाज और देश का आर्थिक उन्‍नति नहीं हो सकता है, इस
सिद्धान्त के साथ भ्रष्ट विरोधी शास्त्र समाज में व्याप्त भ्रष्ट व्यवहार का
खुलकर विरोध करता है। अर्थशास्त्र धन को व्यवस्थित करने का शास्त्र
है । भ्रष्टविरोधी शास्त्र खराब नीयत द्वारा संकलित धन के विरुद्ध में
अध्ययन करने का शास्त्र है । इन दोनों शास्त्रों के बीच में आर्थिक
कारण से भी अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है।


२. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और राजनीतिशास्त्र (॥रांटणणाफ्ाणे०्2ए गात
एणागट्ग 5ठंथा८९)


राजनीति शास्त्र देश, देश की सरकार, राज्य, राज्य व्यवस्था और
राजनीतिक गतिविधि के बारे में अध्ययन करने का शास्त्र है । राजनीति
शास्त्र के अन्तर्गत देश में शान्ति, सुव्यवस्था, कानूनी राज्य, लोकतलन्‍्त्र
का स्थायित्व और राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप, नागरिकों के हक-
अधिकार आदि का अध्ययन आता है । इसी तरह भ्रष्टविरोधी शास्त्र में
देश, समाज और राजनीतिक तवृत्त में कैसे भ्रष्टाचार मुक्त स्थिति कायम
कर सकता है, इस विषय पर विस्तृत अध्ययन होता है । भ्रष्टाचार
नियन्त्रण से समाज में राजनीतिक शान्ति कायम होती है । जिस देश में
भ्रष्टाचार व्याप्त होता है वह देश राजनीतिक रूप से अस्थिर होता है ।
विश्व के बहुत देशों में भ्रष्टाचार के कारण से राजनीतिक अस्थिरता
कायम है । अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था के कारण देश और जनता की
उन्नति नहीं हो सकती । भ्रष्टाचार युक्त देश में आर्थिक विकास शून्य हो
कर कई, राजनीतिक समस्या होती है । ऐसी समस्याओं को समाधान
करने के लिए जनता, समाज और सरकार को भ्रष्टविरोधी शास्त्र मदद
करता है । इस तरह यह अनुशासित और मर्यादत समाज की रचना
करने में मदद करता है और भ्रष्टाचार नियन्त्रण समाज स्थापना कर
विकास की शुरुआत करता है | जनता का जीवन स्तर ऊपर उठने से
स्थिरता कायम होती है | इसतरह भ्रष्टविरोधी शास्त्र और राजनीतिशास्त्र
एक दूसरे पर अन्तनिर्भर होने के कारण इनमें घनिष्ठ सम्बन्ध है ।


३. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और समाजशास्त्र (१राट07ए०ग०९ए भाव
5000029)


समाजशास्त्र का तात्पर्य समाज के सम्पूर्ण क्रियाकलाप के बारे में
अध्ययन का शास्त्र है । इस शास्त्र में समाज की उत्पत्ति, समाज की


37


संरचना, समाज की परम्परा, रीतिरिवाज, संस्कृति और समाज विकास
का अध्ययन होता है । इसके अतिरिक्त समाज में व्यवस्थित कुरीति और
बुरे चाल चलन को हटाने का उपाय खोज कर राजनीतिक, आर्थिक,
ऐतिहासिक नैतिक, न्यायिक आदि विभिन्‍न पक्षों के विषय में अध्ययन
करता है । ये सभी अध्ययन श्रष्टविरोधी शास्त्र में होता है । क्‍योंकि
समाजशास्त्र और श्रष्टविरोधी शास्त्र का अत्यन्त निकट सम्बन्ध है ।
जिस समस्या का समाधान समाजशास्त्र नहीं कर सकता, भश्रष्टविरोधी
शास्त्र समाधान का उपाय उपलब्ध कराता है | इसलिए समाजशास्त्र
और श्रष्टविरोधी शास्त्र एक दूसरे के पूरक हैं।

४. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और नीतिशास्त्र (#ाांटणाप्राए/002ए भात
॥#प05)


नीतिशास्त्र का तात्पर्य उस शास्त्र है, जो जीवन में किस नीति का
पालन करना चाहिए, उसका अध्ययन कराता है । यह शास्त्र कोई भी
अच्छी-बुरी, सही-गलत, उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक पक्ष के
सम्बन्ध के बारे में व्याख्या करता है और नीति व्यवस्थित करता है ।
नीतिशास्त्र मनुष्य के नैतिक नियम के आधार में मनुष्य और समाज के
कल्याण के सम्बन्ध का अध्ययन कराता है । नैतिक नियम और असल
आचार के आधार में समाज का विकास करना चाहिए इसलिए मात्र
व्यक्ति और समाज की गरिमा की उच्चता कायम रखने में मदद करना
ही नीतिशास्त्र का सारतत्व है । भ्रष्टविरोधी शास्त्र का मूल उद्देश्य ही
नीतिशास्त्र के आधार में व्यक्ति और समाज में नैतिक नियम का पालना
करके आचारयुक्त व्यक्ति, स्वच्छ समाज, न्यायपूर्ण व्यवस्था और
नीतियुक्त व्यवहार कायम करने की वजह से नीतिशास्त्र और भ्रष्टविरोधी


शास्त्र में आत्मीय सम्बन्ध है ।


५. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और मनोविज्ञान ('धरांटणएए्ाणेण्टए गात
75ए0ठ00029५)

मानव की मानसिकता तथा स्वभाविक व्यवहार के क्रिया-प्रतिक्रिया के
विषय में अध्ययन करने वाले शास्त्र को मनोविज्ञान शास्त्र कहते है ।
इसका अध्ययन मनुष्य के मनोद्वेग और भावनाओं पर आधारित होता है
। मनुष्य का सभी अच्छा या बुरा काम उसकी मानसिक स्थिति पर
निर्भर करता है। मन चलायमान होता है, इसलिए मनुष्य की उन्नति
अवनति और व्यक्तिगत विकास ये सब मन की स्थिति के अनुसार होता


38


है । मनुष्य का स्वभाव, संस्कार और प्रकृति का नियन्त्रण मनोद्वेग ही
नियन्त्रित करता है इसलिए विज्ञान के रूप में इसका अध्ययन होता है ।
मनुष्य जन्म से भ्रष्ट मन तथा नीति लेकर जन्म नहीं लेता है ।
प्राकृतिक रूप में मनुष्य स्वच्छ, पवित्र और नैतिकवान व्यक्ति के रूप में
जन्म लेता है । किंतु वातावरण, परिस्थिति और सामाजिक व्यवहार से
मनुष्य का मन परिवर्तन होता है । ऐसे मनुष्य के परिवर्तित मन और
भावना से उत्पन्न होने वाले क्रिया और प्रतिक्रिया से उत्पन्न होनेवाली
समस्या का समाधान मनोविज्ञान में खोजा जाता है, ठीक इसीतरह
भ्रष्टविरोधी शास्त्र में भी मनुष्य के ऐसे ही परिवर्तित मनोद्वेश और
मनोभाव को नियमन्त्रित स्थित में रखने वाले विधि विधान की रचना होती
है । भ्रष्टाचार मन और भावना के साथ सम्बन्धित होने के कारण
भ्रष्टविरोधी शास्त्र और मनोविज्ञान एक ही शरीर के साथ सम्बद्ध दो
महत्वपूर्ण अंग की तरह है, जिसे अलग नहीं किया जा सकता है।
इसलिए इन दोनों शास्त्रों का निकटतम सम्बन्ध है।

६. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और इतिहास (#शाधंटगाफ्पाफागण०2ए भात
म्रांडा०7००)

इतिहास का मतलब अतीत की घटना और स्थिति का अध्ययन करने
वाला शास्त्र है । यह शास्त्र लिखित-अलिखित के आधार में नहीं बल्कि
भौतिक संरचना, रीति स्थित और संस्कृति के द्वारा भी अध्ययन कर
सकता हैं । किसी भी देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक
और सांस्कृतिक घटना क्रम से उस देश की उन्‍नति और अवनति की
घटना इतिहास बताता है और ऐसी सत्य घटना समाज में महत्वपूर्ण
स्थान रखता है | नैतिकवान तथा असल व्यक्ति द्वारा प्रतिनिधित्व किया
हुआ समय और अनैतिक तथा भ्रष्ट व्यक्ति द्वारा नेतृत्व किया हुआ समय
इतिहास में सुरक्षित रहता है । वर्तमान नेतृत्वदायी समूह का इतिहास
मार्गनिर्देशन करता है । भ्रष्टाचार कल था, उसे कैसे नियन्त्रित किया
गया और आज कैसे करना होगा, इसका मार्गनिर्देशन इतिहास से ही
प्राप्त होता है, कल के युग का अधययन भी इतिहास ही कराता है ।
इसलिए इतिहास के बिना भ्रष्ट विरोधी शास्त्र अधूरा है।


७. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और पत्रकारिता (/'धरांटणणएएागण्ट्ए भाव
है | 0। || ॥॥॥॥|


पत्रकारिता का तात्पर्य व्यक्ति, समाज, देश और विश्व में घटित विभिन्‍न
तरह के सूचना को इमानदारीपूर्वक व्यक्ति-व्यक्ति में प्रवाह करने वाला


39


व्यवसाय है । इस व्यवसाय में सत्य-तथ्य विषय और घटना को जैसे का
तैसा जनता में प्रवाहित कराना पड़ता है । पत्रकारिता में बेइमानी होने
से उसे पीत पत्रकारिता की संज्ञा दी जाती है । ऐसी पीत पत्रकारिता के
साथ यह श्रष्टविरोधी शास्त्र का परस्पर बेमेल सम्बन्ध दिखाई देता है ।
पत्रकारिता मर्यादित पेशा है । यह राज्य व्यवस्था में अत्यन्त शक्तिशाली
रूप में स्थापित होता है । इसलिए इसे राज्यव्यवस्था के चौथे अंक के
रूप में स्वीकार किया जाता है। राज्यशक्ति के संतुलन में पत्रकारिता
अहम्‌ भूमिका निभाती है । पत्रकारिता तथा आम संचार माध्यम के
नीयत में परिवर्तन होने के साथ ही व्यक्ति, समाज और देश को बुरे
नतीजे का सामना करना पड़ता है। भ्रष्टविरोधी शास्त्र का इससे अन्तर
सम्बन्ध कायम है।


८. श्रष्टविरोधीशास्त्र और मानवशास्त्र ('श्रांटगाण्पए००2५४ भात
7९। |॥। | 6।|। | ३8


० पे


मानवशास्त्र का तात्पर्य मानव विकास के सभी पक्षों के तथ्यों का
अध्ययन है । इस शास्त्र में मनुष्य, उसकी संस्कृति, समाज की संरचना
का समग्र अध्ययन होता है । उसकी संस्कृति, समाज की संरचना का
समग्र अध्ययन होता है । इसके अन्तर्गत मनुष्य के वर्ण, जाति, धर्म,
संस्कृति और मान्यता आदि का अध्ययन होने से मनुष्य के स्वभाव,
प्रकृति, आचार, विचार और व्यवहार का भी अध्ययन होता है । ये सब
समय अनुसार परिवर्तन होता रहता है इसलिए मनुष्य की सोच, भावना
और व्यवहार भी प्रदुषित होता है । इसका भ्रष्ट विरोधी शास्त्र से
सम्बन्ध है । विश्व भूगोल के अनेक भाग में उत्पत्ति होने वाले मानव
समुदाय के वर्ण, जाति और उनकी भाषा अलग-अलग है । इनकी
सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता भी अलग-अलग है
। इनकी सोच, स्वभाव और व्यवहार में अन्तर होना स्वाभाविक ही है।
मानव स्वभाव, सोच, भावना और व्यवहार का अध्ययन इसी श्रष्टविरोधी
शास्त्र के अन्तर्गत होने से इन दोनों शास्त्रों के बीच विशेष सम्बन्ध
स्थापित हुआ है।

९. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और जनप्रशासन (/ांटणणएफाण०98ए४ गाते
शाएऑओर 407रारांबा'गां 0णा)


जनप्रशासन का अर्थ राज्य संचालन के प्रमुख अंग कार्यपालिका के द्वारा
होने वाले काम-कर्तव्य, और अधिकार का अध्ययन है । इस अध्ययन में


40


सेवाग्राही और सेवा प्रदायक के बीच में होने वाले व्यवस्थापन विधि की
विस्तृत व्याख्या करते हुए उनके बीच आने वाले समस्या का विधिवत
समाधान कैसे होगा, इसकी जानकारी कराता है । जनप्रशासन में राष्ट्र
और जनता के हित में अनेक तरह की कार्ययोजना तैयार करना होता है
। ऐसी योजना को तैयार करते समय सत्तापक्ष, विपक्ष और जनता को
होने वाले लाभ या हानि वाली नीति निर्माण और कार्यान्वयन हो सकता
है । इससे सेवा प्रदायक और सेवाग्राही दोनों अधिकार और कर्तव्य का
विचलन हो सकता है । इसी असमान्य स्थिति को भ्रष्ट विरोधी शास्त्र
सामानय और विधिसम्मत अवस्था प्रदान कर सकता है । इसलिए
जनप्रशासन विषय और श्रष्टविरोधी शास्त्र में अन्तरनिहित सम्बन्ध है।


१०, श्रष्टविरोधी शास्त्र और ग्रामीण विकास (#धा००7एए(०ण०९४९
गाव एशागे 070९ए९शफआशा)


देश की सबसे छोटी इकाई गाँव होती है और गांव का विकास ही
राष्ट्रीय विकास का मेरुदण्ड है, इसी सिद्धान्त के आधार पर ग्रामीण
विकास को अध्ययन का विषय बनाया गया है | किसी भी देश में नगर
और गाँव के रूप में बस्ती का विभाजन किया जाता है । गाँव में
रहनेवाले और नगर में रहनेवाले मनुष्य का स्तर अलग-अलग होता है
और उनमें विभेद न हो इस उद्देश्य के साथ आवश्यकता, पहुँच, अवसर
और विकास को समानुपातिक हिसाब से स्तरवृद्धि हो सके, ग्रामीण
विकास के सिद्धान्त का निर्माण हुआ है। इस शास्त्र से श्रष्टविरोधी
शास्त्र का अलग रख कर देखा जाना चाहिए । क्योंकि ग्रामीण विकास में
सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के अतिरिक्त आर्थिक विकास मुख्य
भूमिका निर्वाह करता है। ग्रामीण विकास का मूल विकास ही आर्थिक
विकास है, उसमे आर्थिक भ्रष्टाचार विकसित होने की सम्भावना अधिक
होने के कारण भी इस भ्रष्टविरोधी शास्त्र का सिद्धान्त और कार्ययोजना
से सिर्फ ऐसे आर्थिक भ्रष्टाचार नियन्त्रण होने के कारण इस भश्रष्टविरोधी
शास्त्र और ग्रामीण विकास में निकटतम सम्बन्ध है।


११. श्रष्टविरोधी शास्त्र और व्यवस्थापन ('राधांटणणएफ्ञाग098ए गाव
शिगाव३2शाशा)


व्यवस्थापन शास्त्र व्यवस्थापन के सिद्धान्त के आधार में व्यवस्थापन
विधि प्रतिपादन करने के तौरतरीका का अध्ययन करता है । इसके
अन्तर्गत मुख्यतः व्यवस्थापकीय व्यवस्थापन, बाजार व्यवस्थापन तथा


44


वित्तीय व्यवस्थापन का अध्ययन आता है । इन सब व्यवस्थापन का
समग्र अध्ययन ही व्यवस्थापकीय अध्ययन है । इस अध्ययन के अन्तर्गत
व्यवस्थापन के साथ सम्बन्धित मानव-संशाधन, उद्योग, मशीन, उत्पादन
और वितरण के अतिरिक्त प्रशासन और लेखा आदि भी समावेश है ।
व्यवस्थापन के कमी-कमजोरी के कारण उद्योग व्यवसाय तथा व्यापार
धाराशायी हो जाता है । बाजार में कत्रिम अभाव तथा नकली समान के
वितरण से जनता को धोखा और नुकसान हो सकता है । इसी तरह
वित्तीय कारोबार अपचलन होने पर वित्तीय क्षेत्र तहस-नहस हो सकता
है । इन सभी स्थिति को भश्रष्टविरोधी शास्त्र के सिद्धान्त का सही
कार्यान्वयन से व्यवस्थापन सबल, सक्षम और प्रभावकारी रूप में
संचालन हो सकता है | इसलिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र और व्यवस्थापन के
बीच विशेष सम्बन्ध है ।


१३२. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और कानून (१व८९०77ए/०0०४ए भात । ,9५)


कानून का तात्पर्य राज्य व्यवस्था संचालन करनेवाले लिखित विधि से है,
जिसे देश के सभी निकाय, व्यक्ति, संस्था और सरकार को मानना पड़ता
है । कानून में कोई व्याख्या न होने की अवस्था में अदालत द्वारा उस
कानून की व्याख्या कर देने के बाद राज्यव्यवस्था द्वारा व्यवहार में लागू
किया जाता है | कानून अध्ययन का विषय है । कानून को स्थायित्व
प्रदान करने के लिए इसका अध्ययन किया जाता है । कानून स्वयं
निर्मित अभिलेख नहीं है । इसे जनता के लिए और जनता के द्वारा
लिखकर कानून का दस्तावेज तैयार किया जाता है और वही दस्तावेज
राज्य के संचालन में लागू होता है । किन्तु कभी-कभी कानून निर्माण
का अधिकार पाने वाले जनप्रतिनिधि या राजनीतिक दल स्वार्थवश
जनता के हित विपरित कानून निर्माण कर लागू करते है, जिस कार्य के
द्वारा जनता और देश दोनों के साथ अन्याय होता है । उस समय में यह
भ्रष्टविरोधी शास्त्र न्यायपूर्ण नियन्त्रण करता है । इसलिए इसका कानून
से विशेष सम्बन्ध है ।


१३. श्रष्टविरोधी शास्त्र और संस्कृति ('श्राधंटगापपफाण०98ए भाव
ण्प्राण0


संस्कृति का तात्पर्य मनष्य के रहन-सहन, विधि-व्यवहार, जातीय मल्य
मान्यता, परम्परा से चली आ रही रीति स्थिति और जीवनयापन के
पद्धति का समग्र अध्ययन है । मानव समदाय के जाति, वर्ग और धर्म के


42


कारण विश्व मानव समुदय के संस्कृति में एकरूपता नहीं है, फिर भी
ऐसे जाति, वर्ग और धर्म में विभाजित मानव समुदाय को संस्कृति
जीवन संचालन की पद्धति के साथ सम्बन्धित होता है । मानवीय
संचालन की यही पद्धति संस्कृति है । इसे मानवीय भावना, चाहत और
मान्यता निर्देशित करती है, जो भ्रष्टविरोधी शास्त्र के मूल सिद्धान्त के
साथ प्रत्यक्ष सम्बन्धित है । व्यक्ति और समुदाय को संस्कृति ही भ्रष्ट
बना सकती है और संस्कृति सत्य की राह पर ले जा सकती है। मानव
तथा समुदाय के विकास या पतन में अंगीकार किए हुए संस्कृति के
साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है | सु-संस्कृत सत्य है और कुसंस्कृति अथवा
विक॒ृति असत्य और भ्रष्ट है। इसलिए भ्रष्ट विरोधी शास्त्र और संस्कृति
के अध्ययन के बीच अत्यन्त मजबूत सम्बन्ध है।

१४. भ्रष्टविरोधी शास्त्र और दर्शन शास्त्र (१धां००7एए००९४ए भात
शा।65ण्ाए)


दर्शनशास्त्र मानव जीवन के मौलिक सिद्धान्त व्यवहार और धारणा की
विस्तृत व्याख्या करते हुए व्यक्ति के सामाजिक जीवन के सर्वोच्च मूल्य
को प्रभावपर्ण बनाने की कोशिश करता है । साथ ही, समयानसार व्यक्ति
और समाज में आदर्श और नेतिक व्यवहार की स्थापना करने का कार्य
भी करता है । ज्ञान और विज्ञान, अध्यात्म और भौतिक तथा पक्ष ओर
पक्षान्तर की व्याख्या विवेचना कर मानव-जीवन के साथ-साथ मानव
समाज को सही राह पर चलाने की प्रेरणा देता है । इतना ही नहीं
व्यक्ति और समाज के मांग अनुसार नया विषय प्रादरर्भाव करके उसके
विकास के लिए राह कायम करने की विधि तथा नीति दर्शनशास्त्र में
अन्तरनिहित होता है । भ्रष्ट विरोधी शास्त्र भी व्यक्ति और समाज को
भ्रष्ट पथ पर चलने से रोकता है । यह समय के मांगअनुसार नीति
विधि निर्माण कर भ्रष्टाचार की राह में रोक लगा सकता हे । साथ ही
व्यक्ति के जीवन को नेतिकतायुक्त मूल्य और मान्यता प्रदान कर मानव
जीवन और मानव-समाज सकारात्मक और स्वभाविक विकास की
अपेक्षा रखता है । इस तरह दर्शनशास्त्र और भ्रष्टविरोधी शास्त्र के बीच
अन्तरभौम का सम्बन्ध है।


43


१५. श्रष्टविरोधी शास्त्र और धर्मशास्त्र (गरांटणणाए/ण० ९५ भात
है ह।। ।। ३

धर्मशास्त्र अर्थात्‌ जीवन चलाने वाली जीवन पद्धति का शास्त्र है । बहुत
लोग इसे साम्प्रदायिक शास्त्र कहते हैं, किन्तु यह सही नहीं है यह एक
भ्रम मात्र है । प्राज्ञिक समुदाय भी धर्मशास्त्र कहने के साथ ही इसे
साम्प्रदायिक शास्त्र समझ लेते है । इसे गम्भीरता के साथ व्याख्या
विश्लेषण और परिभाषित करना होगा । धर्मशास्त्र का अध्ययन वैदिक
सनातन पद्धति की व्याख्या होने के कारण ही साम्प्रदायिक पक्ष में
विभाजित होकर इसकी व्याख्या की गई है ।


धर्मशास्त्र पूर्वीय दर्शन का उत्कृष्ट दर्शनशास्त्र है, जिसे पश्चिमी प्राज्निक
समुदाय सहज रूप में अंगीकार नहीं कर सका है । बावजूद इसके
बहुसंख्यक मनुष्य का प्रतिनिधित्व करनेवाले पूर्वीय धर्म संस्कृति को
मानव समुदाय को स्वीकार करना ही पड़ेगा । उदारता संयम और
सहनशीलता ही पूर्वीय धर्मशास्त्र की सुगन्ध है । मानव विकास के
इतिहास में इस शास्त्र ने उच्चतम स्थान बनाया है ।। पूर्वीय दर्शन को
विश्व के अनेकों धार्मिक सम्प्रदाय ने अनुसरण किया है और पूर्वीय धर्म
ने भी अन्य धर्म सम्प्रदाय को महत्व दिया है। पूर्वीय धर्म दर्शन मानव
कल्याण के लिए है इसलिए इसे अन्य साम्प्रदायिक दर्शन के साथ
मिलाया नहीं जा सकता । पूर्वीय धर्म शास्त्र अर्थात्‌ मानवीय सत्योन्मुख
जीवन पद्धति का मूल स्रोत, जिसे जीवन से अलग करने के साथ ही
मानव-जीवन अधूरा हो जाता है । जिस वक्त धर्मशास्त्र का अध्ययन
विश्व में शुरु हुआ, उस समय वौद्धिक सनातन धर्म मानव समुदाय का
धर्म था । धर्म का अर्थ जीवन में धारण करने वाली जीवन पद्धति है ।
आग का गुण गरम होना है और पानी का ठण्डा होना है । इसी तरह
मनुष्य का गुण मानवीय होना चाहिए। मानव-जीवनयापन का पद्धति ही
मानव धर्म है। धर्म के आड़ में मानव-जीवन सुख के साथ व्यतीत होता
है । सदाचार, नैतिकता, अनुशासन, ईमानदारी, परम्परागत रीति स्थिति
धर्मशास्त्र का मूल सिद्धान्त है, उसी तरह भ्रष्टविरोधी शास्त्र का मूल
सिद्धान्त भी एक होने के कारण धर्मशास्त्र और भ्रष्टविरोधी शास्त्र का
सम्बन्ध एक है ।


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भ्रष्टविरोधी शास्त्र स्वाभाविक विज्ञान


चजिव९णगराएा0029 35 3 पिवापागे 5ठंश९९


कोई भी व्यक्ति, समुदाय और सम्पूर्ण समाज का मनोभाव और व्यवहार
जैसे अदृश्य विषय को निश्चित बिन्दु में केन्द्रित कर विज्ञान के क्षेत्र
भीतर सीमांकन करना कठिन है, फिर भी समय की मांग के अनुसार
इसकी व्याखया, विश्लेषण और सीमा निर्धारण करना आवश्यक होने की
वजह से विज्ञान के विभिन्‍न आयाम के साथ जोड़ कर अध्ययन करना
होता है । समय परिवर्तन के अनुसार तथा परम्परागत रीति स्थिति और
मान्यता के साथ परिवर्तित अवस्था में भ्रष्टाचार विरुद्ध का क्रियाकलाप
भी समयानुसार परिवर्तित होकर प्रभावकारी रूप में लागू होता है ।
भ्रष्टाचार विरुद्ध के विज्ञान को गहराई से अध्ययन करने पर मूल्य
मान्यता को इसके भीतर समावेश कर निरीक्षण करना पड़ता है । नई
मान्यता को लागू करने की अवस्था में पुरानी मान्यता का परित्याग न
कर उसका समन्वय करना आवश्यक है।

किसी भी विज्ञान को निश्चित परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता
है। प्रारम्भ में यह परिभाषा अस्थाई भी हो सकती है। क्‍योंकि कोई भी
विचार सदा के लिए मान्य नहीं हो सकता । समय और उसकी मांग के
अनुसार परिमार्जित होते हुए वह दर्शन पूर्णता पाकर आगे बढ़ता है ।
विगत में जो घटता है, वह आज के लिए नवीन और अध्ययन का विषय
बन सकता है। किन्तु वर्तमान में जो विषय है, कल वह सिर्फ अनुमान
का विषय बन सकता है । समय जितना आगे बढ़ता है, उसके
निराकरण के लिए विभिन्‍न उपाय भी जन्म लेता है | आज भ्रष्टाचार
पूर्ण रूप से व्याप्त हो चुका है । यह श्रष्टविरोधी शास्त्र समाज के अनेक
तबके के लिए व्यहार, व्यवस्था और नीति को स्वच्छ और अनुशासित
रूप में संचालन करने में मदद करता है।


समाज में चलने वाले अनेक विधि तथा व्यवहार विज्ञान का रूप धारण
करते है । उन विभिन्‍न विषयों के साथ इस शास्त्र का स्वभाविक सम्बन्ध
कायम है । जैसे-

१) मानवीय व्यवहार का विज्ञान

२) मानवीय सदाचार का विज्ञान


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३) सामाजिक व्यवहार का विज्ञान
४) भौतिक विकास का विज्ञान

५) आर्थिक समृद्धि का विज्ञान

६) प्रशासनिक अनुशासन का विज्ञान
७) राजनीतिक स्वच्छता का विज्ञान


१) मानवीय व्यवहार का विज्ञान (5ठंशा०९ ० ॥्रपाधा 0९१०शं०)

विश्व में जितने भी जीवन जन्म लेते हैं, उनके जीवन के साथ ही
उनका स्वभाव और व्यवहार भी आता है। मनुष्य के साथ रहने वाले
क॒त्ते-बिल्ली से लेकर मनुष्य से दूर जंगल में रहनेवाले सियार और बाघ
का व्यवहार भी अलग-अलग होता है। मनुष्य के साथ रहने वाले जीवन
को मनुष्य प्यार करता है, वहीं जंगली जानवर का वह तिरस्कार करता
है और उससे दूर रहता है | जीवजन्तु का व्यवहार मनुष्य के जैसा रहता
है, मनुष्य उसके साथ वैसा ही व्यवहार करता है । जंगल में रहनेवाले
शेर या सियार को मनुष्य प्यार करेगा यह कभी प्राकृतिक नहीं हो
सकता । इसीलिए मनुष्य का व्यवहार भी उसकी प्रकृति के अनुसार ही
होता है। मनुष्य, मनुष्य के समूह में ही बच सकता है | इसलिए उसका
व्यवहार भी मानवोचित ही होना चाहिए | मानवीय मूल्य और मान्यता
से अगर मनुष्य अलग हो जाता है तो वह मनुष्य समाज से भी अलग
हो जाता है । कोई भी मनुष्य का व्यवहार उसे दूसरे मनुष्य के साथ
नजदीक या दूर करता है । मनुष्य के व्यवहार से ही समाज में उसकी
पहचान कायम होती है । मानव समाज का नीचे से ऊपर तह तक
मनुष्य का स्तर कायम करने में उसका व्यवहार ही साथ देता है ।
मनुष्य का व्यवहार दो भिन्‍न दृष्टिकोण से देख सकते हैं-


(क) सही व्यवहार (ख) गलत व्यवहार


सही व्यवहार के गुण से मनुष्य के रूप में समाज में स्थापित होता है
तो खराब व्यवहार से अमानवीय रूप में । भ्रष्टाचार मनुष्य के खराब
व्यवहार की उपज है | इसलिए मानव-व्यवहार का अध्ययन मानव-
व्यवहार के विज्ञान के अधीन रहकर देखना ही मानव व्यवहार का


विज्ञान है ।


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२) मानवीय सदाचार का विज्ञान (5ठ॑ंशा6€ ० धशाशा शां।।एे

सभी जीव की अपनी प्रकृति के अनुसार आचार संहिता निश्चित होती है
और उसी आचार संहिता की सीमा के भीतर उनका जीवन निश्चित
होता है । किन्तु मनुष्य का आचार अन्य जीवन की तुलना में अलग
संस्थापित होता है । मानव के गुण के भीतर स्थापित होने वाले सदाचार
और उसके ठीक उल्टा अर्थ लगने वाला भ्रष्टाचार भी मानवीय प्रकृति
में समाहित होते हैं । मनुष्य मनुष्य होकर ही बच सकता है । इसके
लिए सदाचार का पूर्ण अनुयायी बनकर रहने से उसका जीवन पूर्ण
सफल होता है । सदाचार का पालन और अभ्यास से मनुष्य में होने


हज


वाले दुर्गुण, व्यभिचार और भ्रष्टाचार जैसे मानवीय शत्रु को नाश होता है।


सदाचार का दूसरा पहल भ्रष्टाचार है । मानवीय आचार के पक्षों को
देखें- (क) सदाचार (ख) भ्रष्टाचार, ये दोनों मानव स्थिति में स्थित तत्व
है । एक के विकास में दूसरे का नाश होता है । अर्थात्‌ एक के सबल


० की ५


होने पर दूसार निर्बल होता चला जाता है । यही विज्ञान का भी नियम
है । इसलिए सदाचार के तत्व अगर सशक्त रूप में स्थापित होते हैं तो
भ्रष्टाचार की शक्ति स्वयं क्षीण होती चली जाती है । इसी तरह से


सदाचार भ्रष्टविरोधी विज्ञान के अंग के रूप में स्थापित हुआ है ।
३) सामाजिक व्यवहार का विज्ञान (5ठंशार९ ० 50तंगे 9९ा०शं०)


सम्बन्धित समाज की रीति स्थिति और संस्कृति के आधार पर सामाजिक
व्यवहार की स्थापना होती है । समाज की ऐतिहासिक बनावट, जातीय
मूल्य और मान्यता, परम्परागत रीतिस्थिति तथा संस्कृति से सामाजिक
व्यवहार अभ्यास में आता है । इसी के अनुरूप सामाजिक व्यवहार
चलता है । सामाजिक व्यवहार तत्कालीन और अल्पकालीन समभौता
करके अपने ढंग से निश्चित राह चलता है और लम्बे समय तक चलता
है । चूंकि यह लम्बे समय तक चलता रहता है इसलिए यह व्यवहार
विज्ञान के रूप में स्थापित हुआ है | ऐसे सामाजिक व्यवहार को बचाने
का काम भ्रष्ट विरोधी शास्त्र करता है । इसलिए यह सामाजिक व्यवहार
स्थिर रूप में संचालित होता है ।


47


४) भौतिक विकास का विज्ञान (इतंशाट९ रण ए़ाएशंट्वा


0९एश०फ्ञलशा)


भौतिक विकास सामाजिक विकास के लिए आवश्यक तत्व है । किसी


भी हाल या अवस्था में मनुष्य भौतिक रूप में पूर्णता चाहता है ।
आवश्यक भौतिक साधन जब प्राप्त होता है तो मनुष्य खुश होता है ।
यह मानवीय कमजोरी है । मनुष्य की चाहत भौतिक और अभौतिक
दोनों प्रकार से अपने कल्याण को देखता है और स्वीकार करना चाहता
है । इसी चाहत के कारण से भौतिक विकास का पूर्वाधार तैयार होता है
और उसी के अनुसार मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति करता है।
अर्थात्‌ भौतिक विकास क्रमिक रूप में आगे बढ़ता रहता है। मनुष्य के
असीमित चाहत की पूर्ति आश्चर्यमय ढंग से भौतिक विकास से होती है
और यह प्रमाणित भी हो चुका है | इसलिए यह विज्ञान के रूप में
प्रतिष्ठापित हुआ है । ऐसे भौतिक विकास में कोई बाधा या अवरोध न
हो, इसमें भ्रष्टविरोधी शास्त्र सहायता करता है।


५) आर्थिक समृद्धि का विज्ञान (5तंशाटर ण॑ ९०णाणगाएंट ए/०%्९त१)


आधुनिक यग में आर्थिक रूप में सबल और समद्ध व्यक्ति या समाज
मात्र सफल माना जाता है । आर्थिक सबलता और समृद्धि के लिए व्यक्ति
या समाज द्रत गति में लगा रहता है। ऐसे आर्थिक विकास के क्रम में
लगे हुए लोग आर्थिक बाजार में प्रतिस्पर्धात्मक रूप में प्रस्तत होते हैं ।
प्रतिस्पर्धा कहने के साथ ही वहाँ स्वच्छता, नीतिगत और विधिगत मार्ग
अपनाना ही नहीं होता । इस दौरान दूषित मार्ग भी अपनाया जा सकता
है | दूषित अभ्यास आर्थिक क्षेत्र में विकृति पैदा करते हैं । आर्थिक समृद्धि
का कोई मापदण्ड नहीं होता है । और अगर कुछ है तो वह है संतुष्टि,
समय और अवस्था द्वारा निर्धारण की गई निश्चितता । व्यक्ति, समाज
या राज्य आर्थिक समद्धि के लिए आकांक्षा रखते है और प्राप्ति के लिए
योजना बनाकर आगे बढ़ते हैं । कमजोर विधि तथा नीति की गलत
व्याख्या करके आर्थिक रूप में समृद्धि हासिल करते है । ऐसे कमजोर
नीति ओर विधि को खत्म करने के लिए और कमजोर करने के लिए
और आर्थिक सबलता कायम करने के लिए भश्रष्टविरोधी शास्त्र सहायक
सिद्ध होता है ।


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६) प्रशासनिक अनुशासन का विज्ञान (इतलंशार€ ० ३तरांतप॑ंगाग्ांए९
तांडठए॥ा९)


कोई भी संगठित संस्था, व्यापारिक कम्पनी, गैर सरकारी निकाय और
राज्य व्यवस्था को संचालन करने के लिए प्रशासनिक संगठन का
आवश्यकता पड़ती है | ऐसे प्रशासनिक संगठन को संचालन करने के
लिए ऐन, नियम, विनियम तथा नीति होते हैं, जो उसे निर्देशित करते हैं ।
प्रशासन में काम करने वाले व्यक्ति, प्रशासन को संचालन करने के लिए
विधि, विधान और प्रशासन यन्त्र को प्रभावित करने वाले निकाय सभी
अनुशासित रूप में संचालित होते है । तभी प्रशासनिक अनुशासन
कायम होता है । प्रशासन में अनुशासन अगर न हो तो स्वच्छ प्रशासन,
संचालन नहीं हो सकता । जहाँ स्वच्छ प्रशासन नहीं होगा, विक॒ृति
आएगी । प्रशासनिक अनुशासन कायम करने में भ्रष्टविरोधी शास्त्र समर्थ
होता है।

७) राजनीतिक स्वच्छता का विज्ञान (इतंशाठ९ रण फ॒गांप॑ट्गे
एगाछएगाशाए)

राजनीतिक स्वच्छुता और पवित्रता जहाँ नहीं होती, उस राजनीति को
अराजनीतिक व्यवस्था कहते है । अ-राजनीतिक व्यवस्था से राजनीतिक
सत्ता अस्थिर होता है और राज्य व्यवस्था सुचारु रूप से संचालित नहीं
हो सकता । अराजनीतिक व्यवस्था में गुण्डाग्दी और आतंक बढ़ता
जाता है । इस तरह अराजनीतिक व्यवस्था के कारण विकासोन्मुख देशों
में राजनीतिक सत्ता की बागडोर तानाशाही और आतंकवादी के हाथ में
समय-समय पर चला जाता है । तानाशाही और आतंककारी के हाथ में
राज्यवस्था जाने से अराजनीतिक और अप्रजातान्त्रिक अभ्यास बढ़ता
जाता है । जिसकी वजह से जनता, देश और राज्यव्यवस्था शोषित होती
है । उस वक्त राजनीतिक स्वच्छता के अभाव में कोई भी देश
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था संचालित नहीं कर सकता । ऐसे राजनीतिक
स्वच्छता कायम न होने की अबस्था में श्रष्टविरोधी शास्त्र राजनीतिक
स्वच्छता कायम करता है । यह शास्त्र समाज के विभिन्‍न कोण, तह और
तबका तथा वर्गीय दृष्टिकोण से स्वयं को परिभाषित करते हुए
भ्रष्टविरोधी सिद्धान्त के अन्तर्गत समूहगत रूप में विभाजित होता है
और विज्ञान के रूप में स्वयं को प्रमाणित कर श्रष्ट विरोधी शास्त्र
स्वभाविक विज्ञान के रूप में स्थापित होता है।


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भ्रष्टविरोधी शास्त्र का क्षेत्र


8९फु० ण /राटणण्राए0०002ए


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अध्ययन का तात्पर्य भ्रष्ट विरोधी कार्य विधि का
अध्ययन है । इस कार्यविधि की परिधि के भीतर इस शास्त्र में अध्ययन
करने वाले सम्पूर्ण अंग समावेश होते हैं । यह शास्त्र सबसे पहले
भ्रष्टाचार के विविध क्षेत्र के बारे में व्याख्या, विश्लेषण करने का प्रयत्न
करता है । इसके सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक पक्ष की व्याख्या हुए
भ्रष्टविरोधी सिद्धान्त का निर्माण करता है। यह शास्त्र भ्रष्ट विरोधी क्षेत्र,
उसका विभिन्‍न व्यवहार और क्रियाकलाप का विस्तृत अध्ययन करता है।
भ्रष्ट विरोधी सिद्धान्त को व्यवहारिक रूप में कार्यान्वयन करने के
निमित्त विभिन्‍न नियम-उपनियमों को बना कर उसके अभ्यास के लिए
राह बनाता है । नियम तथा अभ्यास इसका व्यावहारिक पक्ष है । इस
तरह भ्रष्ट विरोधी शास्त्र का क्षेत्र इसका स्वभाव, विषयवस्तु और सीमा
निर्धारण करता है-

१) भ्रष्टविरोधी शास्त्र का स्वभाव

२) भ्रष्टविरोधी शास्त्र का विषयवस्तु


३) भ्रष्टविरोधी शास्त्र की सीमा
१) भ्रष्टविरोधी शास्त्र का स्वभाव (व्वाप्रा'९ ए /धराए८०7४एए०० ९४९)


भ्रष्टविरोधी शास्त्र का तात्पर्य मानवीय क्रियाकलाप, मानवीय आचरण
और मानवीय स्वभाव सम्बन्धी विस्तृत तथा विश्लेषणात्मक ज्ञान है।
इस ज्ञान के स्वभाव को सिद्धान्त और व्यवहार दो भागों में विभाजन
कर सकते हैं- (क) सिद्धान्त और (ख) व्यवहार ।


(क) सिद्धान्त (परा००७) - यह ज्ञान की सूची है, जिसका चरणवद्ध
अध्ययन हो सकता है और जिसे विज्ञान भी कह सकते हैं । विज्ञान
अर्थात्‌ किसी भी विषय या ज्ञान का प्रामाणिक अध्ययन विधि है ।
वैज्ञानिक सूत्र को सिद्धान्त कहते हैं और सिद्धान्त के आधार में प्रमाणित
होने वाले विधि को विज्ञान कहते हैं ।


50


(ख) व्यवहार (79८८९) - व्यवहार अर्थात्‌ काम करने का तरीका है,
जिसे कला भी कह सकते हैं । कला ही मानव जीवन और मानव समाज
को सुन्दरता प्रदान करता है, जिसमें मनुष्य रमा रहता है और जीवन के
अच्छे-बुरे प्रत्येक क्षण को स्वीकार करता है तथा जीवनयापन करता है।
इसलिए कला का महत्व मानव जीवन के साथ सम्बन्ध होता है और
मानव जीवन का व्यवहार कला के साथ होता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र विज्ञान है (#आाटणएएफ्ञाग० 99 ०5 ३ 5ठंशाटश)


भ्रष्टविरोधी शास्त्र विज्ञान है । विज्ञान यानि ज्ञान को क्रमवद्ध करने की
सूची । विज्ञान की प्रक्रिया और नियम निश्चित तरीका से चलता है और
सभी जगहों पर एक ही तरह से क्रियाशील होता है । भौतिक विज्ञान के
नियम इसके उदाहरण हैं । यह कारण और परिणाम के बीच सम्बन्ध
स्थापित करता है । भ्रष्टविरोधी शास्त्र मनुष्य के स्वभाव, प्रकृति,
आचरण, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवहार और क्रियाकलाप के कारण
और परिणाम के बीच सम्बन्ध स्थापित करते हुए अध्ययन करने की
वजह से यह सामाजिक विज्ञान है ।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र कला है (/राट07एफ002ए 35 भा भा)


भ्रष्टविरोधी शास्त्र कला भी है । कला काम करने का तरीका, नीति
निर्माण और व्यवहारिक पक्ष का ज्ञान प्रदान करता है। यह विभिन्‍न
तरह की नीति और आचरण के विरुद्ध उत्पन्न हुए समस्याओं के
समाधान का तरीका भी सिखाता है । यह शास्त्र मनुष्य को भौतिक तथा
अभौतिक अवस्था सुधारने के क्रम में व्यवहारिक रूप से मदद करता है
। इसलिए यह शास्त्र कला भी है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र विज्ञान है या कला, इसको अलग करके व्याख्या नहीं

किया जा सकता है। यह विज्ञान के रूप में नीति तथा सैद्धान्तिक ज्ञान

प्रदान करने के साथ ही व्यवहारिक तरीका में भी अभ्यस्त बनाता है।

भ्रष्टविरोधी शास्त्र कला और विज्ञान दोनों है । इसलिए कला और




विज्ञान का सम्मिश्रण इस शास्त्र का स्वभाव है


57


२) भ्रष्टविरोधी शास्त्र का विषयवस्तु (5फ7)९ट० ग्रागाशः एण
शिटण7ए0०0029)


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के विषयवस्तु को वर्तमान परिभाषा के आधार में
निर्धारण करना चाहिए । किन्तु इसे विषयवस्तु के आधार में देखने से दो
अवधारणा पर ध्यान देना चाहिए- (क) परम्परागत अवधारणा और (ख)
आधुनिक अवधारणा ।


(क) परम्परागत अवधारणा (॥7300078। »०7709०॥)- परम्परागत
अवधारणा से इस शास्त्र के विषयवस्तु को देखने पर मनुष्य में विकसित
होने वाले भ्रष्टाचार नियन्त्रण करने वाले प्रयास और उसके द्वारा सिर्जित
समाज की अवस्था को देखना है । इसे निम्न रूप से विभाजित कर
सकते हैं-

१) पाप और धर्म के सीमा निर्धारण से नियन्त्रित

२) सामाजिक मान्यता से नियन्त्रित

३) परिवार और समुदाय से नियन्त्रित

४) मानवीय सदगुण से नियन्त्रित

५) सत्ता पक्ष से नियन्त्रित


१) पाप और धर्म के सीमा निर्धारण से नियन्त्रित (0शागटगांगा


ऐुशछर्शा एरट्री।02णा5255 20 था)


भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति पापी होते हैं और पापी व्यक्ति ईश्वर का
प्रिय कभी नहीं हो सकता । ये उसी पाप के कारण स्वर्ग प्राप्ति के
अधिकारी नहीं होते । सभी धार्मिक ग्रन्थों में अगर यह लिखा होता कि
भ्रष्टाचार करने वाले व्यक्ति स्वर्ग नहीं जा सकते तो कोई यह कार्य नहीं
करता ।


२) सामाजिक मान्यता से नियन्त्रित ((+0700] 05009) ए9।ए९5)
- परिवार और समुदाय, समाज की छोटी इकाई है । इस छोटे घेरे में


भ्रष्ट और अनैतिक व्यक्ति जल्द ही पहचाने जाते हैं । और ये अपने


परिवार और समुदाय से अवहेलित होते हैं । इसलिए भी मनुष्य सतर्क
रहता है, भ्रष्ट कार्य से खुद को अलग रखने की कोशिश करता है।


52


३) सामाजिक मान्यता से नियन्त्रित (८णा0 #४ए शिणांए थात
९णा्पराज)


3» व


समाज में सभी प्रकार के मनुष्य रहते हैं, उनका एक-दूसरे से सम्बन्ध
रहता है और यह आपस में मूल्य-मान्यता तथा संस्कृति के आधार में
एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। अगर कोई एक अनैतिक कार्य करता है तो
उसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है और ऐसे में उनका सामाजिक
बहिष्कार होता है, इससे भी सामाजिक अपराध रोका जा सकता है।
किसी भी सामाजिक अपराध को सभ्य समाज छूट नहीं देता है ।
इसलिए सामाजिक मूल्य-मान्यता और संस्कृति ऐसे भ्रष्ट स्थिति को
नियन्त्रण करता है।


४) मानवीय सदगुण से नियन्त्रित (00700 ४ए ध्राधशा शां।॥ए९)


मानवीय सदगुण का तात्पर्य मनुष्य का आचार, विचार और संस्कार है।
इसके भीतर ईमानदारी, सत्यता, विवेक और विश्वास जैसे मानवीय गुण
मनुष्य को भ्रष्ट आचार करने से रोकता है । वास्तव में मनुष्य अपने
सदगुण द्वारा नियन्त्रित होता है | तत्पश्चात्‌ मनुष्य है, यह प्रमाणित
होता है।

५) सत्ता पक्ष से नियन्त्रित (00॥7०४ए ह९ 7श)


मानव-समाज में राज्य और राज्य व्यवस्था स्थापना से ही राज्य संचालन
करने वाले सत्ता पक्ष से भ्रष्टाचार जैसे अमानवीय क्रियाकलाप का
नियन्त्रण होता है। राज्य का सर्वोच्च व्यक्ति या निकाय हमेशा भ्रष्टाचार
के विरोध में रहता है, यह इतिहास बताता है । इसलिए भ्रष्टाचार


विरोधी क्रियाकलाप परम्परागत रूप में संचालित व्यवस्था है । यह
बढ़ाया जा सकता है।


ख) आधुनिक अवधारणा (०१९७॥ 4ए०ए7०००॥) आधुनिक युग के
विकास के साथ-साथ मनुष्य धीरे-धीरे व्यक्तिवादी होता गया है। मनुष्य
समाज से अधिक समुदाय, समुदाय से अधिक परिवार और परिवार से
अधिक स्वयं होते हुए मानववादी सिद्धान्त से सिमट रहे है । मानव
समाज में कैसे मूल्य तथा मान्यता की स्थापना करनी है, किस अवस्था
का विकास हो रहा है, समाज के जिम्मेदार निकाय के रूप में रहे
समुदाय तथा परिवार उसे कैसे देख रहा है, समुदाय तथा परिवार की
जिम्मेदारी क्या है, इस सबसे पीछे हटता जा रहा है । ऐसी व्यक्तिवादी


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अवस्था के विकास से मनुष्य, उसका समुदाय और सामाजिक परिवेश
तीव्र रूप में भ्रष्ट बनता है और अन्त में समाज के सभी पक्ष में विभेद
पैदा करता है । जो मानव और मानवीय विकास का शत्रु है। इसे


नियन्त्रित अवस्था में रखना आवश्यक होने के कारण निम्नलिखित
अध्ययन को स्वीकार करना होगा-


क) सही शासन (ख) कानूनी राज्य


क) सही शासन (5००० 20०एश7970९९) - किसी भी देश में सही शासन
होने के लिए कानून द्वारा निर्धारित कार्य सम्बन्धित निकाय से समय में
कानून के अनुसार सम्पन्न करने और कराने की अवस्था होनी चाहिए ।
किसी भी राज्य व्यवस्था का नीति बनाने और निर्णय कार्यान्वयन से
संयन्त्र में भ्रष्टाचार रहने तक सही शासन की परिकल्पना नहीं हो
सकती । इसलिए सही शासन पद्धति के विकास के लिए नीति, नियम
और कानून का पूर्ण रूप में पालन होने की व्यवस्था होनी चाहिए ।
इसका विस्तृत अध्ययन सही शासन सम्बन्धी परिच्छेद में उल्लेख है।
ख) कानूनी राज्य (.९४० 5४००९)- आधुनिक अवधारणा में कानूनी
राज्यव्यवस्था की आवश्यकता महसूस होने से ही वर्तमान राजनीतिक
अवस्था में कानूनी राज्य की अवधारणा आई है । (इसका विस्तृत
अध्ययन भी सही शासन परिच्छेद में उल्लेखित है ।)


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भ्रष्टविरोधी शास्त्र की सीमाएँ


रजागांणा ए वा९077एए ००९५


भ्रष्ट विरोधी शास्त्र मानव आचरण की व्याख्या करने वाला विज्ञान है ।
इसकी सीमा निर्धारण करना मुश्किल है फिर भी अध्ययन को व्यवस्थित
करने के लिए इस शास्त्र की सीमाएँ निर्धारण करनी आवश्यक है ।
भ्रष्टाचार का क्षेत्र व्यापक है । इसमे छोटे-मोटे घूस लेने से लेकर देश
के राष्ट्रीय कोष को समाप्त करने वाले आर्थिक घोटाला तक समावेश है
। मनुष्य की नीति, नैतिकता, व्यवहार, अधिकार, कर्तव्य और जिम्मेदारी
जैसे संवेदनशील विषय से लेकर अख्तियार के दुरूपयोग तक को ले
सकते हैं । भ्रष्टाचार असीमित रूप में फैल रहा है, इसलिए इसे सीमा
निर्धारण करके देखना होगा । वर्तमान में इस शास्त्र की निम्न सीमाएँ
तय की गई है-


मानव-व्यवहार, आचरण और मनःस्थिति
सेवादायी तथा सेवाग्राही के बीच में घुसपैठ
३) योजना संचालन और संचालित होने की अवस्था में होने वाली


४) राजनीतकि दल तथा राज्य व्यवस्था का सम्बन्ध
५) संविधान तथा प्रचलित कानून संशोधन

६) दूसरे देशों का घुसपैठ

७) आन्तरिक राज्यव्यवस्था में होनेवाली अव्यवस्था ।


१) मानव-व्यवहार, आचरण और मनःस्थिति (पणाशा फशागशंण,,
तागाग्ठश' गात ग्रशा गा?)


मानव-व्यवहार, आचरण और मनःस्थिति दिखाई देने वाली चीज नहीं है ।
ये महसूस करने वाले तत्व है । इसलिए मानवीय भावना के कारण इस
विषय पर लिखना और प्रमाण तैयार करना कठिन है | इसे समभा जा
सकता हट जिसने 3 थति की गज न
सकता है । जिसने समभा है, या इस स्थिति से गुजरा है, वही व्यक्ति
या संस्था प्रमाण तैयार कर सकता है, यह स्वयं प्रमाणित नहीं हो
सकता । इस अवस्था में वह व्यवहार, आचरण और मनःस्थिति समभने
वाले, या जानकारी पाने वाला दूसरा पक्ष ही प्रमाण के रूप में प्रस्तुत


55


हो सकता है । इस विषय को स्पष्ट तथा सतही रूप में व्याख्या,
विश्लेषण या प्रमाण जुटाना कठिन है। फिर भी मानव-व्यवहार, आचार
और मनःस्थिति को भ्रष्टविरोधी शास्त्र व्याख्या कर सकता है।


२) सेवादायी तथा सेवाग्राही के बीच होने वाली घुसपैठ(छारश>


एशछल्शा उशशंत्९ छाण्शंवशः गात ठांशा)


कोई भी सरकार सर्वसाधारण जनता को सेवा उपलब्ध कराने वाली
नीतिगत व्यवस्था तैयार करती है । ऐसी सेवा प्रदान करने के सरकार
मासिक वेतन पर कर्मचारी नियुक्त करती है । पदाधिकारी या कर्मचारी
को नागरिक को निःशुल्क एवं सेवा भाव से ओतप्रोत होकर सेवा प्रदान
करना चाहिए । किन्तु गरीब देश के ऐसे पदाधिकारी तथा कर्मचारी द्वारा
ही विषयगत आधार में घूस लेनदेन का क्रियाकलाप होता रहता है।
देश, काल और परिस्थिति के अनुसार सेवाग्राही घुसपैठ कर जल्दी और
सुलभ तरीका से सेवा लेने का प्रयत्न करते हैं । इस कार्य में सेवादायी
तथा सेवाग्राही दोनों बराबर रूप में दोषी होते हैं ।


३) योजना संचालन और संचालित होने की अवस्था में घोटाला(6€;2०


॥ए'भाउइ्तांणा ताजाए फशथगांणा एण ए7०]९०)

किसी भी देश में संचालन होने वाले छोटे, मकले और बड़े आयोजना
संचालन होने से पहले ही कमीशन की राजनीति शरु हो जाती है ।
छोटी आयोजना में सरकार के पदाधिकारी की देखरेख में कमीशन की
रकम बाँटने का या तय करने का काम शुरु होता है । कोई भी योजना
सम्पन्न करना है या समाप्त करना है इस पर भी पदाधिकारी कमीशन
की रकम घटाने-बढ़ाने का काम करते है । ये पदाधिकारी ऐसे कार्य
करते समय राजनीतिक शक्ति की आड़ में या इशारा में ऐसे अनैतिक
कार्य को बढ़ावा देते हैं । इस तरह आन्तरिक ही नहीं बाह्य क्षेत्र अर्थात्‌
आयोजना के प्रवर्द्धकष या समर्थक राष्ट्र या सहयोगी के रूप में दिखने
वाले अन्तर्राष्ट्रीय दातृसंस्था के पदाधिकारी की सहायता में भी आयोजना
का खर्च लागत बढ़ाने का काम होता है । इतना ही नहीं, ऐसे आयोजना
से गरीब देश ठगा जाता है और धनी देश तथा सहयोगी के रूप में
दिखने वाली संस्था तथा निकाय के पदाधिकारी ज्यादा से ज्यादा लाभ
लेने का कार्य करते हैं । इसलिए गरीब देश में संचालन होने वाले
आयोजनाओं में घोटाला रोकने वाली कार्यविधि का निर्माण आवश्यक है ।


56


४) राजनीतिक दल तथा राज्य व्यवस्था का सम्बन्ध (रशगांणाआफए
एऐशज्रल्शा एणा[<गे एगए गाते 52८९ गागधगिं।)

राज्य व्यवस्था संचालित करने के लिए निश्चित विधि विधान होता है ।
इसी विधि विधान के अनुसार स्वच्छ और हस्तक्षेपमुक्त सही शासन
प्रणाली द्वारा शासन व्यवस्था चलती है । किन्तु गरीब देश के राज्य
व्यवस्था को विधि विधान नहीं बल्कि राजनीतिक शक्ति चलाती है । ऐसे
राज्य-व्यवस्था में राजनीतिक शक्ति हावी होने से राज्य व्यवस्था कमजोर
होती चली जाती है । राज्य व्यवस्था कमजोर होने से सरकार के नेतृत्व
में अस्थिरता आती है । छोटी अवधि के लिए सत्ता में आने वाली
राजनीतिक शक्ति प्रभावकारी रूप में काम नहीं कर सकती है | गरीब
देश में राजनीतिक दल के नेता ज्यादा अवसरवादी बनकर राज्य
व्यवस्था का ही शोषण करते हैं । क्योंकि निश्चित समय तक शासन
करने की अवस्था नहीं रहती है । राजनीतिक दल और राज्य व्यवस्था के
बीच ऐसे अस्वभाविक सम्बन्ध का अन्त न होने तक राज्य व्यवस्था
स्वच्छ, सशक्त और विधिसम्मत रूप में नहीं चल सकती है।


५) संविधान और प्रचलित कानून में संशोधन (#शाशाताशा[
एणातश्राप्रांणा गाते €ांधाए ॥99७)

संविधान ही देश का मूल कानून होता है। उसी के आधार पर आवश्यक
कानून का निर्माण होता है। लिखित कानून अस्पष्ट और दोहरे अर्थ का
नहीं होना चाहिए । कानून की भाषा स्पष्ट और सटीक होनी चाहिए ।
किन्तु गरीब देश के कानून की बनावट स्पष्ट और एकअर्थी नहीं होती ।
कानून निर्माण में धनी देश का हस्तक्षेप कारण कानून का
आवश्यकतानुसार व्याख्या करने का चलन होता है । ऐसे अपारदर्शी
कानून का प्रचलन रहने से देशों में राजनीतिक दल के नेताओं का स्वार्थ
अनुकूल कानून में संशोधन करने का काम होता रहता है । छोटी अवधि
के लिए सत्ता में जो राजनीतिक दल जाते हैं वह अपने अनुसार कानून
में संशोधन या परिवर्तन कर राज्यकोष के रकम का दुरूपयोग करते हैं



और सत्ताच्यूत होने पर भी शक्ति कायम रखते हैं और जनता का शोषण
करते हैं । इस प्रवुत्ति के रोकथाम की आवश्यकता है।


57


९) दूसरे देशों का स्वार्थवश घुसपैठ (५राटत फशारशगांणा #7णा


गाणाीाश' ८णाए।९)


विकासोन्मुख देश में दूसरे देशों का स्वार्थवश घुसपैठ होता रहता है ।
ऐसे घुसपैठ देश की परम्परागत रीति स्थिति, परम्परागत मूल्य-मान्यता
और संस्कृति को बिगाडने का काम करते हैं । ऐसे घुसपैठ राजनीतिक
क्षेत्र के नेताओं को आर्थिक प्रलोभन देकर अपने पक्ष में वकालत करने
के लिए तैयार करते हैं और देश की सम्पदा और प्राकृतिक स्रोत को
दूसरे देश के व्यापारिक निकाय को सौपने का काम करते हैं । गरीब एवं
कमजोर देश को आर्थिक रूप से सबल एवं शक्ति सम्पन्न देश अपने
प्रभाव में लेकर अपने अनुसार तैयार करते हैं। इसलिए इसके अध्ययन
की आवश्यकता महसूस की गई है ।


७) आन्तरिक राज्य व्यवस्था में होने वाली अव्यवस्था


(एशांग्रागावर्2डशाशा गा गरांधयावे 57८ गरगि।)


वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में आन्तरिक राज्य व्यवस्था में अत्यन्त
अनियमित तथा गैरकानूनी कार्य होता है। राज्य व्यवस्था में अनुशासन
और नीति विधिनुसार संचालन होने में, खासकर विकासोन्मुख देशों में
यह स्थिति है । लोकतन्त्र का नारा देकर अलोकतान्त्रिक अभ्यास करने
का काम राज्य व्यवस्था में प्रचुर मात्रा में संचालन हो रहा होता है ।
राज्य संचालन भीतर के इस व्यवस्था को व्यवस्थित नीति, मूल्य और
मान्यता के अधीन में चलाने की व्यवस्था संचालन करनी चाहिए ।
आन्तरिक राज्य व्यवस्था में होने वाली अव्यवस्था का अन्त करना
चाहिए । किन्तु वर्तमान दूषित राजनीतिक व्यवस्था के कारण राज्य
व्यवस्था के भीतर अनुशासनहीनता, गैरजिम्मेदारी और मनचाह कार्य
करने की शैली के कारण आन्तरिक राज्य व्यवस्था में अव्यवस्था बढ़ी
हुई है । इसे विशेष रूप से नियन्त्रण कर संतुलन के नीति अनुरूप
संचालन होने वाले संयन्त्र तैयार करने चाहिए ।


भ्रष्ट विरोधी शास्त्र के अध्ययन की सीमा असीमित है, फिर भी गरीब
देशों में उपयुक्त महत्वपूर्ण बिन्दुओं को श्रष्टविरोधी शास्त्र के अध्ययन
की सीमा निर्धारण की जा सकती है।


58


भ्रष्टविरोधी शास्त्र की अवधारणा


(णाटका ण /्राटएणणएए०ण० ९५


भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना ही शास्त्र का मूल लक्ष्य है। इस
लक्ष्य की प्राप्ति के लिए स्पष्ट अवधारणा होना आवश्यक है । भ्रष्टाचार
मक्त समाज की स्थापना के लिए विभिन्‍न जिम्मेदार निकायों का इस
अवधारणा के अनरूप तदारुकता के साथ काम करने पर ही लक्ष्य तक
पहँचा जा सकता है । उसमें भी इस कार्य की सफलता के लिए मुख्य
दो तत्वों को जिम्मेदार होना चाहिए । ये तत्व है नागरिक समाज
और (२) उस समाज में स्थापित राजनीतिक दल ।


किसी भी देश में भ्रष्टाचार नियन्त्रित समाज स्थापित करने के लिए वहाँ
के नागरिकों का जिम्मेदार होना आवश्यक है । क्‍योंकि इसका प्रतिफल
उन्ही नागरिकों को मिलेगा । उन्हीं नागरिक समुदायों से किसी
राजनीतिक सिद्धांत से प्रेरित होकर समह विभाजन होकर, राजनीतिक
दल की स्थापना होती है । उस राजनीतिक दल में वहीं के नागरिक
संलग्न होकर समूह गठन करते है । इसके बावजूद राज्यसत्ता में जाकर
शक्तिवर्दन करने के मोह से नागरिक और राजनीतिक दलों के बीच
विश्वास युक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं भी हो सकता है । इस तरह सत्ता
मद में फँसे राजनीतिक दल अपने पक्ष के कार्यकर्ताओं का पोषण करने
के लिए भी नागरिक समूह अपेक्षित हो सकता है । इसलिए नागरिक
समाज और राजनीतिक दलों को अलग-अलग रखकर जिम्मेदारी देनी
चाहिए । इसे दो शीर्षकों में विभाजित कर सकते हैं- (क) स्वच्छ एवं
अनुशासित समाज की सृजना (ख) राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों की
स्थापना ।

(क) स्वच्छ एवं अनुशासित समाज की सूजना (छाट्गांगा ण॑ 9


एगाऊछएछ्गाशा गाव तंइताजञारत 5०ठंश५ )-


किसी भी देश में अवस्थित समाज ही देश के सर्वपक्षीय विकास के लिए
जिम्मेदार होता है । समाज का तात्पर्य समाज से सम्बन्धित नागरिक
समह ही है । जिस समाज में नागरिक सम॒दाय आवद्ध होकर रहते हैं
उसी समाज का कर्तव्य है कि समाज के उत्थान के लिए क्रियाशील रहें ।


59


इस तरह क्रियाशील रहते हुए समाज के कर्तव्य को नागरिक समूह को
नहीं भूलना चाहिए । नागरिक समाज द्वारा पालन रकने वाले कर्तव्य
निम्नलिखित हैं-


(१) नैतिक चेतना (२) सत्कार्य (३) राष्ट्रवादी भावना (४) स्वच्छ आचरण
(५) जिम्मेदारी वहन ।


१) नैतिक चेतना (४०7४] 7७४थ/शा९5५5)


किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व मापन उसकी चेतना के स्तर पर होता है ।
चेतना सभी में होती है, किन्तु किस स्तर और किस परिवेश की चेतना
है, यह विशेष महत्व रखता है । उसमें भी नैतिक चेतना तो व्यक्ति का
व्यक्तित्व मात्र नहीं, बल्कि उसके जीवन स्तर को उच्च बिन्दु पर ले
जाकर केन्‍्द्रीत करता है । इसलिए नैतिक चेतना का विशेष महत्व है।
नैतिक चेतनायुकत व्यक्ति का जिस समाज में बाहल्य होता है, वह
समाज मानव-हित, मानव-कल्याण तथा सर्वोतरोमुखी मानव-विकास के
सम्वाहक के रूप में चमकता है । मानव चेतना पर नैतिक और
अनैतिक दोनों तत्व शासन करते हैं । किन्तु जो अनैतिकता का त्याग
कर नैतिक मूल्य-मान्यता को स्वीकार करता है, वही सच्चा मानवीय
गुणयुक्त व्यक्ति होता है । इसलिए ऐसे नैतिकतायुक्त चेतना प्राप्त
नागरिक ही राष्ट्र, राष्ट्रीयाव और समाज उत्थान के लिए प्रमुख भूमिका
निर्वाह करने में समर्थ होते हैं ।

२) सत्कार्य (60०१ 7९९०)

समाज का कोई भी सदस्य जन्म से मृत्युपर्यन्त तक किसी ना किसी
कार्य में क्रियाशील रहता है | उम्र की अवस्था के अनुसार उसका कार्य
निर्धारण होता है । मनुष्य बाल्यकाल के बाद के जीवन में जीवन रक्षा
के कार्य से लेकर राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय समस्या को अपनी समस्या
समभ कर क्रियाशील होता है । सत्कार्य भी यही है । सत्कार्य में
क्रियाशील व्यक्ति अपने परिवार, अपने समाज, अपने राष्ट्र की सेवा
करता है। सत्कार्य में क्रियाशील नागरिक समाज और राष्ट्र की निधि है,
गरिमा है और राष्ट्र का गौरव है।


३) राष्ट्रवादी भावना (एआांणाभांजां2 ए९शांपट्ठ)


मनुष्य का जब जन्म होता है, उसका दायित्व भी साथ-साथ आता है।
मनुष्य जन्म के बाद प्रारम्भकाल में परिवार की जिम्मेदारी में पलता है।


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बाल्यकाल के बाद युवा अवस्था में प्रवेश करने के बाद समाज के अन्य
सदस्यों के साथ सहकार्य करते हुए पूर्ण युवावस्था में पहुँचता है । तब
उसे ज्ञान होता है, परिवार से बाहर का समाज और विश्व राजनीति के
भूगोल में अपने राष्ट्र की अवस्था । उस समय वह यह निर्णय करता है
कि उसे किसे अधिक महत्व देना है । इसी दायित्व बोध के बाद राष्ट्र,
राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय विकास में अपनी उन्‍नति समभने के बाद उसमें
राष्ट्रवादी भावना जन्म लेती है | किसी भी देश के सर्वतोमुखी विकास
के लिए वहाँ का नागरिक राष्ट्रवादी भावना को आत्मसात्‌ करता है।
जिस देश का नागरिक राष्ट्रवादी है, वह हर क्षेत्र में विकास करता है।


राष्ट्रवादी भावना ही देश की उन्‍नति का मूल आधार है।
४) स्वच्छ आचारण (7गाकऋछ्रभशा। ए_.ाग्चाब्रलश)


स्वच्छ आचरण ही नैतिक आचरण है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण
तथा विकास में अहम्‌ भूमिका निर्वाह करती है । मुनष्य का आचरण
अच्छा या बुरा हो सकता है । अनैतिक आचरण करने वाला व्यक्ति
अपना, अपने परिवार और समाज को प्रदुषित बनाता है। इसका प्रभाव
राष्ट्र पर भी पड़ता है । इसलिए समाज तथा राष्ट्रीय विकास के लिए
नागरिक में स्वच्छ आचरण का भरपूर विकास होना चाहिए तभी समाज
तथा राष्ट्र का विकास हो सकता है।


ख. राष्ट्रवादी राजनीतिक दलों की स्थापना (7&9क्रांग्रागाशा रण (९


गरभाणागीडा एणागाटगे एगा९5 ) |


वर्तमान राज्य व्यवस्था पहले की तुलना में अलग रूप में संचालन होने
लगा है। विश्व के सभी देशों की राज्य व्यवस्था में राजनीतिक दलों का
बाहुल्‍य कायम हो गया है । राजनीतिक दल से तात्पर्य उस समूह से है,
जो राजनीतिक सिद्धान्त का अनुशरण करते हुए राज्य व्यवस्था का
संचालन करता है | ऐसे ही राजनीतिक समूह राज्य संचालन करने के
तौर तरीका, नीति-निश्चित कर, संगठित होकर नागरिक समुदाय के
बीच सत्ता में जाने और उसके बाद करने वाले सेवा और विकास के
कार्य की घोषणा करता है। ये घोषणाएँ आंशिक या शतप्रतिशत पूरे भी
हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं । इसकी आड़ में सत्ता में टिकने
या न टिकने की अवस्था होती है । इसी क्रम से सत्ता में विभिन्‍न
राजनीतिक दल आते और जाते हैं । जनता या नागरिक की आवश्यकता
पूर्ति करने या न करने और राज्य के विकास होने न होने की स्थिति में


64


छोटी अवधि में ही सत्ता से बाहर हो सकते हैं । छोटी अवधि में सत्ता
परिवर्तन होने से देश की राजनीतिक अवस्था अस्थिर होती है ।
राजनीतिक अस्थिरता द्वन्द्र को निमन्त्रित करता है। इसलिए राष्ट्र और
जनता को प्यार करने और सेवा करने वाले राष्ट्रवादी राजनीतिक दल
की स्थापना होने से ही जनता और देश का विकास सम्भव है । इसके
लिए निम्नलिखित तत्वों की आवश्यकता है-

(१) सिद्धान्त, (२) राष्ट्रीय विकास, (३) राष्ट्रीय चिन्तन, (४) आर्थिक
पारदर्शिता और (५) जवाबदेही ।


(१ सिद्धान्त (ए्राठंछारे


राजनीतिक दल का गठन सिद्धान्त के आधार पर होता है। कोई भी
राजनीतिक दल अचन्तराष्ट्रीय नहीं हो सकता । अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण
करने की सोच रखने वाले राजनीतिक दल अपने देश में असफल होते
हैं । इसलिए किसी भी देश में उस देश का भूगोल, इतिहास, परम्परा,
संस्कृति और समाज की बनावट के आधार में देश हित वाले राजनीतिक
दल सिद्धान्त अख्तियार करते है, ऐसे राजनीतिक दल लम्बे समय तक
क्रियाशील हो सकते है । विश्व के कई विकसित देशों में कम से कम
राजनीतिक दल क्रियाशील होकर लम्बे समय से राजनीति में संलग्न
होकर राज्यव्यवस्था में आते-जाते रहते हैं । किन्तु गरीब तथा
विकासोन्मुख देशों में ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक दल क्रियाशील
सिद्धान्त के कारण अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था को स्वीकार करते है ।
राजनीतिक दलों को देश और जनता के हित के लिए दृढ़ तथा स्थिर
राजनीतिक सिद्धान्त अपनाना चाहिए।

(२) राष्ट्रीय विकास (्वांणावं 0९ए९०फञाशशा)


राजनीतिक दल का मूल एजेण्डा ही राष्ट्रीय विकास होना चाहिए ।
विकासोन्मुख देश के राजनीतिक दल देश से अधिक अपनी और
3००5 की.


कार्यकर्ताओं के विकास में संलग्न होते हैं । इसी कारण से भी ये
राजनीतिक दल जनता द्वारा तिरस्कृत होते जाते हैं । इसलिए जो


दि


राजनीतिक दल देश तथा जनता के वृहत्तर विकास में जुटे होते हैं, ऐसे
दल देश और जनता के प्रिय होते हैं और लम्बे समय तक टिकते हैं।


62


(३) राष्ट्रीय चिन्तन (शांणा॥ं पणांगाताड़)





राजनीतिक दल के नेता तथा कार्यकर्ता में राष्ट्रीय चिन्तन का होना
आवश्यक है । राष्ट्रीय चिन्तन नहीं होने पर वो राजनीतिक दल
राष्ट्रवादी भी नहीं हो सकते और न ही वो देश के हित में सोच सकते
3. राजनीतिक पी थी राष्टव ४० है क हे
हैं । इसलिए राजनीतिक दलों में राष्ट्रवादी चिन्तन होना आवश्यक है,
जिसकी वजह से देश और जनता देश के विकास में सहायता कर सकते हैं ।


४) आर्थिक पारदर्शिता (7टणा०णाएंट पएशाहएएछ)गशाटए)





राजनीतिक दलों में आर्थिक पारदर्शिता होनी आवश्यक है । आर्थिक
पारदर्शिता नहीं होने से राजनीतिक धनाढ़्य ही नहीं बनते, तानाशाह भी
बन जाते हैं । विकासोन्मुख देश का मूल रोग ही राजनीतिक दलों में
आया आर्थिक विचलन है । इस से विस्तारित रूप में अर्थ संकलन करने
की प्रवृत्ति बढ़ती दिखाई देती है । ये संकलित रकम निर्वाचन के समय
में खर्च करना और बाँकी रकम नेता अपने प्रयोजन के लिए खर्च करने
का प्रचलन बढ़ा हुआ है । ऐसी प्रवृत्ति से राजनीतिक दलों के साथ
सम्बद्ध व्यक्ति धनी होते जाते है और जनता अभावग्रस्त जीवनयापन के
लिए बाध्य होते हैं | विकासोन्मुख देश के नेताओं की एक ही सोच होती
है और वह है, निर्वाचच्त के लिए अधिक धन राशि की आवश्यकता,
जिसकी वजह से वो किसी भी तरह धन इक्ठठा करना चाहते हैं । यह
अवस्था प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के लिए घातक है । धन संकलन में अगर
पारदर्शिता होती है तो व्यवस्थापन सही होती है । इसलिए राजनीतिक
दलों को आर्थिक रूप से पारदर्शी होना चाहिए ।


(५) जवाबदेही (२९८७०णाश८ंश॥)


वर्तमान युग का नवीन सिद्धान्त जवाबदेही से कोई भी व्यक्ति, संस्था या
समूह जिस कार्य का अधिकार पाता है, उसको पूरा करने के क्रम में
उसके परिणाम को लेकर उसे जवाबदेही होना पड़ता है । कार्य निर्वाह
करने के क्रम में जो भी अच्छा या बुरे परिणाम होते हैं, उसकी
जिम्मेदारी लेना ही जवाबदेही है । इसी सिद्धान्त के आधार में
राजनीतिक दल को राज्य व्यवस्था में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में किए गए
कार्य की जिम्मेदारी वहन करनी पड़ती है और जनता को जवाब देना
पड़ता है । किन्तु विकासोन्मुख देश में राजनीतिक दलों ने अपनी


जवाबदेही नहीं समभा है । देशों में क्रियाशील राजनीतिक दल जिस
तरह जनता के प्रति जवाफदेही होते हैं, उसी तरह विकाशोन्मुख देश के


63


राजनीतिक दल भी जनता और राज्य व्यवस्था के प्रति जवाबदेह होना
चाहिए । नागरिक समाज और राजनीतिक दल का दायित्व उपर्युक्त
अलग-अलग रूप में उल्लेख होने के बाद इन्हे समायोजित रूप में रखने
से नागरिक समाज और राजनीतिक दलों का दायित्व एक जैसा दिखता
है । वास्तव में इन दोनों का दायित्व एक होने के बाद ही भ्रष्टविरोधी
शास्त्र की अवधारणा स्पष्ट होती है। इसे क्रमशः देखें-


नागरिक समाज राजनीतिक दल

१) नैतिक चेतना सिद्धान्त

२) सत्कार्य राष्ट्रीय विकास

३) राष्ट्रवादी भावना राष्ट्रीय चिन्तन
४) स्वच्छ आचार आर्थिक पारदर्शिता
५) जिम्मेवारी वहन जवाबदेही


चित्र के माध्यम से देखें :-


॥ असल चेतना राष्ट्रीय सिद्धान्त
देश का विकास


राष्ट्रवादी भावना राष्ट्रीय चिन्तन


स्वच्छ आचरण 3 आर्थिक पारदर्शिता
समाज


जिम्मेवारी वहन


नागरिक समाज और राजनीतिक दल एक ही पिण्ड में होने के बाद भी
अलग खण्ड में विभाजित हैं । ऐसे अलग आकार में रहे नागरिक समाज
और राजनीतिक दल के दायित्व एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं । ऊपर
के चित्र से प्रमाणित होता है कि स्वच्छ एवं अनुशासित समाज की
सृजना तथा राष्ट्रवादी राजनीतिक दल की स्थापना ही भ्रष्ट विरोधी
शास्त्र की अवधारणा है।


64


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अंग


(णाएणाशा$& ए 4ध7९०7४एणए( ००९५


भ्रष्ट विरोधी शास्त्र के अंग का तात्पर्य, इस शास्त्र को जीवन्त रखने में
भूमिका निर्वाह करने वाले निकाय से है । जिस तरह मानव शरीर को
स्वस्थ रूप में संचालन करने के लिए शरीर के विभिन्‍न अंग को
क्रियाशील होना पड़ता है, भ्रष्ट विरोधी शास्त्र के अंग भी इसी तरह
स्वचालित होते हैं । इस तरह महत्वपूर्ण अंग स्वचालित होने पर भ्रष्ट
विरोधी शास्त्र प्रभावकारी रूप में सफलता हासिल कर सकता है ।
समय, परिस्थिति और विशेष अवस्था में इस भ्रष्ट विरोधी के अंग के
रूप में दूसरे निकाय या तत्व सबल रूप में प्रवेश न होने तक वर्तमान
अवस्था में इस शास्त्र को शक्ति प्रदान करने वाले तत्व हैं- प्रविधि,
विधि, नीति तथा पद्धति । ये चार प्रमुख अंगों को इस तरह जोड़ कर
देख सकते हैं-


प्रविधि
हा नल अध्यापन


राजनीतिक
पद्धति


ऊपर चित्र में प्रविधि मस्तिष्क के रूप में है इसलिए प्रविधि शरीर के
मुख्य अंग के रूप में दिखाई देता है।
वे दो प्रविधि और पद्धति को बल प्रदान करने वाले विधि तथा नीति
सहायक अंग के रूप में है । इस तरह प्रविधि, विधि, नीति और पद्धति
को विषय में विभाजित करें-
१) विधि -अध्ययन तथा अध्यापन
२) विधि -रोकथाम
३) नीति -कारवाही तथा पुरस्कार

65


४) पद्धति -राजनीति

अर्थात्‌

१) अध्ययन तथा अध्यापन प्रविधि

२) रोकथाम विधि

३) कारवाही तथा पुरस्कार की नीति

४) राजनीतिक पद्धति

इन चार अंगों का सविस्तार व्याख्या इस तरह से है

१) अध्ययन तथा अध्यापन प्रविधि (,€॥ंगड़ भात (९४०ां॥ए ।९०ा००६९)

भ्रष्ट विरोधी शास्त्र कहने से अध्ययन और अध्यापन की राह खुलती है।
इस से पहले ये श्रष्टविरोधी के विषय अध्ययन तथा अध्यापन में स्पष्ट
रूप में नहीं आने की अवस्था में इसे अध्ययन का विषय बनाना सहज
नहीं था। किन्तु भ्रष्टविरोधी शास्त्र के प्रादभाव के बाद यह भ्रष्ट विरोधी
विषय विश्व के प्राज्ञिक समाज में अध्ययन-अध्यापन में समर्थ है । अब
इसे अध्ययन का विषय बनाकर क्रमिक रूप में विकास करने की
आवश्यकता है । विद्यालय स्तर से महाविद्यालय स्तर तक पूर्ण रूप में
पठन-पाठन का विकास न होने तक उच्च शिक्षा से ही भ्रष्ट विरोधी
विषय का अध्ययन शुरु करने की आवश्यकता है । इस तरह स्थायी
प्रविधि के माध्यम से अध्ययन शुरु करने पर इसका विकास हो सकता है।

क) प्रारम्भिक अवस्था (एशथांग्रां॥भए 59६९)- भ्रष्टविरोधी विषय का
प्रारम्भिक अवस्था में अध्ययन शुरु करने पर विश्वविद्यालय में मानविकी,
व्यवस्थापन तथा कानून संकाय के स्नातकीत्तर स्तर में अध्ययन करने
वाले विद्यार्थियों को श्रष्टविरोधी विषय में अपने विषय को जोड़कर
शोधकार्य करने के लिए प्रवुत्त करना और ऐसे शोधकार्य करने वाले
विभिन्‍न संकाय के विद्यार्थियों को स्नातकोत्तर उत्तीर्ण होने क बाद
भ्रष्टविरोधी विषय में विद्यावारिधि करने के लिए उत्साहित करना होगा ।
इसतरह श्रष्टविरोधी विषय में जोड़ सकने वाले राजनीतिशास्त्र,
अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, ग्रामीण विकास, जनप्रशासन, व्यवस्थापन,
मनोविज्ञान, नीतिशास्त्र, पत्रकारिता एवं कानून जैसे विषयों में पहले
शोधकार्य और बाद में विद्यावारिधि कराने पर भश्रष्टविरोधी विज्ञ तैयार
होंगे । भ्रष्टविरोधी विज्ञ तैयार होने के बाद स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय
तक इन विज्ञों के द्वारा पठन-पाठन और पाठ्यपुस्तकों का निर्माण
कराया जा सकता है | इस तरह जिस विषय में जो अध्ययन करते हैं,
उसी विषय के साथ भ्रष्ट विरोधी विषय का अध्ययन व्याख्या और


66


विश्लेषण के माध्यम से विषय को पूर्णता देने का कार्य भी उसने कराया
जा सकता है।


ख) स्थायी व्यवस्था (5:99।८ &2९९)- भ्रष्टविरोधी विषय पूर्णता पाने के
बाद समाज में इसके स्थायित्व की व्यवस्था करनी होगी । इसके
अन्तर्गत प्राथमिक विद्यालय से ही यह बीज सूत्र बीजारोपण करना होगा
कि भ्रष्टाचार मानव विकास का शत्रु है । अध्ययन के स्तर के अनुरूप
भ्रष्टाचार और भ्रष्टविरोधी के बीच अन्तर का भरपूर ज्ञान देने वाले
पादयक्रम को तैयार कर उसे पठन-पाठन में शामिल कराना होगा ।
इसी तरह उच्च शिक्षा में भी भ्रष्ट विरोधी विषय को शोध, व्याख्या और
विश्लेषण करते हुए इस नवीन सिद्धान्त का परिचय कराते हुए श्रष्ट
विरोधी विषय को समाज में विस्तार करने से ही यह विषय स्थायित्व पा
सकता है।

२) रोकथाम विधि (7९एशाएंए९ प्राशा0०05)


०० व


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के सार्थक संचालन के लिए भ्रष्टाचार की फैलने
वाली प्रवृत्ति को रोकथाम की विधि से नियन्त्रण करना होगा । अन्यथा
इसे रोकना कठिन हो जाएगा । भ्रष्टाचार संक्रामक रोग की तरह है ।
अगर किसी एक में यह आता है तो धीरे-धीरे संक्रामक रोग की तरह
फैलता चला जाता है। और अन्त में पूरे समाज को भ्रष्ट बना देता है।
एक दो व्यक्ति में भ्रष्टाचार अगर है तो उसके उपचार करने पर यह
ज्यादा नहीं फैलेगा । रोकथाम विधि से ही इसे रोका जा सकता है। इस
विधि को तीन प्रकार से संचालित कर सकते हैं- क) नागरिक चेतना (
ख) भ्रष्टविरोधी विषय का प्रचार-प्रसार (ग) सामाजिक घृणा ।


(क) नागरिक चेतना ((शंट ॥४०/शा८5५)- भ्रष्टाचार गलत है, इस
चेतना का प्रचार आवश्यक है और भ्रष्ट विरोधी कार्य में नागरिक को
स्वयं आगे आना होगा तभी इस पर अंकुश लग सकता है । नागरिक
चेतना के प्रसार से समाज में भ्रष्टाचार नहीं फैले इसके लिए वो स्वयं
क्रियाकलाप शुरु करेंगे । भ्रष्टाचार के खिलाफ चेतनशील नागरिक दस्ता
तैयार करेंगे । या तो चेतनशील नागरिक भी भ्रष्टाचार में लिप्त होते है?
किन्तु उनकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिए | इस समुदाय में चेतना
फैलाकर इसे रोका जा सकता है।

ख) श्रष्टवारोधी विषय का प्रचार-प्रसार (एफांताए रण
गाएंटण7एए/ण०९५)- भ्रष्टाचार रोकने के लिए भ्रष्टविरोधी विषयों का


67


प्रचार-प्रसार आवश्यक है, यह जनचेतना फैलाने में सहायक होती है ।
पत्रिका, रेडियो, टेलिविजन, इन्टरनेट और टेलिफोन के माध्यम द्वारा यह
सन्देश फैलाना चाहिए कि भ्रष्टाचार मनोरोग है, जो मनुष्य द्वारा पैदा
होता है और प्रगति में बाधक हैं | संचार के सभी माध्यम से ऐसे सन्देश
निरन्तर प्रसारित होने से रोकथाम विधि प्रभावी रूप से लागू हो सकती है ।
ग) सामाजिक घृणा (800॑ंगे 05805 0 06९ ८0४७. एश'5०)- मनुष्य
के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान उसका समाज है। समाज का हर व्यक्ति
सम्मानपूर्वक रहने का अवसर खोजता है और सम्मान प्राप्त करने वाले
कार्य को करता है । जिस समाज में मानव-जन्म लेता है, वही उसका
परिवार है । बाहरी समाज उसका मूल्यांकन नहीं कर सकता और उस
मूल्यांकन का कोई अर्थ भी नहीं होता । इसलिए कोई भी व्यक्ति समाज
में खुद को भ्रष्ट व्यक्ति के रूप में स्थापित नहीं करना चाहता । इसी
सूत्र के आधार में भ्रष्टाचारी के सामाजिक सम्बन्ध, सम्पर्क और व्यवहार
को अगर घृणित दृष्टि से देखा जाय तो भ्रष्टाचार का कार्य निरुत्साहित
हो सकता है। भ्रष्टाचारी को सामाजिक घृणा और सामाजिक बहिष्कार
की विधि से सुधारा जा सकता है।

३) कारवाही तथा पुरस्कार की नीति (शगरांग्रागाशां ग्रात 7९१ एणांठ)
कानून के आधार में कारवाही की नीति विस्तार करनी चाहिए । आज
विश्व के सभी देशों में प्रायः लोकतान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था है। जहाँ
लोकतन्त्र होता है, वहाँ कानून के अनुसार ही शासन चलता है ।
भ्रष्टाचारी के ऊपर कार्यवाही भी कानूनी प्रक्रिया के तहत ही किया
जाता है। कानून के अनुसार अनुसन्धान करना, घटना की तहकीकात
करना और कार्यवाही करना यह व्यवस्था प्राय सभी देशों में होती है ।
इसके साथ ही भ्रष्टाचार विरुद्ध जो व्यक्ति काम करता है, अथवा समूह
काम करता है, उसे पुरस्कृत करने की व्यवस्था भी होनी चाहिए ।
किसी-किसी देशों में भ्रष्टाचार विरुद्ध काम करने वाली निकाय को
संविधान के अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। भ्रष्टाचारी व्यक्ति
या समुदाय को निम्न तरीके से कार्यवाही की जा सकती है।


क) घूस लेने की अवस्था में, ख) निरीक्षण अनुसंधान द्वारा कार्यवाही
ग) शिकायत तथा कार्यवाही


क) घूस लेने की अवस्था में (छांप्राग्रांगा तणायाए ४एणंजए)- घूस लेने
4 में है ।


और देने के कार्य से भ्रष्टाचार के विकास में बढ़ावा मिलता


68


सेवाप्रदायक निकाय सरकारी या गैर सरकारी क्षेत्र में छोटा-बड़ा घूस
लेने-देने का कार्य होता रहता है । उसमें भी कतिपय क्षेत्र में यह कार्य
विकासोन्मुख देशों में प्रचलित है । ऐसे घूस लेन-देन को निरुत्साहित
करने के लिए घूस लेने वाली अवस्था में ही पकड़ना चाहिए । वैसे यह
कार्य कठिन जरूर है । कभी-कभी नाटकीय ढंग से पकड़ने की कोशिश
होती है । पर ऐसे में ईमानदार व्यक्ति भी कभी-कभी फंस जाता है।
इसलिए ऐसी कार्यवाही में सावधानी की आवश्यकता है।

ख) निरीक्षण और अनुसंधान द्वारा कार्यवाही (एप्रांग्राशाशा गॉंश'ः
पाछु९्तलांणा गा0 ाएटएआाएुणभांणा)- भ्रष्टाचार एक सामाजिक अपराध है।
किसी भी देश में अपराध के विरुद्ध सरकार सिर्फ कार्यवाही कर सकती
है । इसलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सरकार विभिन्‍न
निकायों को स्थापना कानून के द्वारा करती है । वही निकाय विभिन्‍न
क्षेत्र में हुए भ्रष्टाचारजन्य कार्य का निरीक्षण, अनुगमन और अनुसंधान
करता है । वह निकाय भ्रष्टाचार कार्य का परिणाम देखकर उसे सतर्क
करने, नसीहत देने और कार्यवाही करने का निर्णय करती है । इस तरह
कानूनी कार्यवाही करते हुए न्यायिक परीक्षण के लिए अदालत या विशेष
अदालत की सहायता ली जाती है।


ग) शिकायत दर्ज तथा कार्यवाही ए0णाफ़गा। भाव फ॒ुणांज्राशशा)-
भ्रष्टाचारी को कार्यवाही के दायरे में लाने के लिए शिकायत दर्ज कराने
का प्रचलन है । सरकारी निकाय में भ्रष्टाचारी के विरुद्ध शिकायत दर्ज
कराने पर सम्बन्धित निकाय कानूनी दायरे में रहकर उस पर कार्यवाही
करती है। भ्रष्टाचार करने और अधिकार का दुरूपयोग करने ये दोनों ही
अपराध हैं । इस पर कार्यवाही का अधिकार कानून द्वारा सुरक्षित होता है।
शिकायत दर्ज कराने और फिर सम्बन्धित निकाय द्वारा कार्यवाही की
प्रक्रिय काफी लम्बी होती है, इसलिए यह प्रभावकारी नहीं होती ।
कानूनी परीक्षण का नतीजा इतनी देर से आता है कि घटना स्मृति से
निकल जाती है । प्रक्रिया लम्बी होने की वजह से भ्रष्टाचारी बीच की
अवधि में खुद को बचाने की पूरी कोशिश करता है और उपाय खोज
लेता है । इसलिए इस कार्यवाही को तत्काल और शीघ्र करने की
व्यवस्था करनी चाहिए ।

४) राजनीतिक पद्धति (?०४धं८४ 5ए5शा)- कोई भी देश एक निश्चित





राजनीतिक पद्धति के आधार में संचालित होता है । परम्परागत रूप में


69


व्यवस्थित राजनीतिक व्यवस्था हो या आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था,
दोनों में प्रजातान्त्रिक राजनीतिक व्यवस्था संचालन होती है । राज्य का
शासकीय स्वरूप जैसा भी हो, किन्तु वर्तमान युग प्रजातन्त्र का युग है।
राजा संचालन करे या सैनिक या फिर कोई एक दल के द्वारा संचालित
होने वाला देश हो, वहाँ भी प्रजातान्तिक व्यवस्था ही होती है । इसलिए
वर्तमान के राज्य व्यवस्था में प्रजातन्त्र को छोड़ा नहीं जा सकता ।
जनता राज्य सत्ता में कैसे प्रवेश पा सकती है और कितनी प्रतिशत
जनता की राज्यव्यवस्था में पहुँच है, यह मूल बात है । वर्तमान
राजनीतिक पद्धति को निम्न रूप से देख सकते हैं-

क) निर्दलीय राजनीतिक पद्धति

ख) एकदलीय राजनीतिक पद्धति


ग) बहुदलीय राजनीतिक पद्धति


क) निर्दलीय राजनीतिक पद्धति (?॥ए-९5५ एणांधंट३ 5ए४शा)- इसका
तात्पर्य राजनीतिक दल के बिना राजनीतिक व्यवस्था संचालित होना ।
इस निर्दलीय व्यवस्था में दल का अस्तित्व नहीं होता है। देश के सभी
नागरिक एक मत और एक सिद्धान्त के साथ देश और अपने विकास में
संलग्न होते हैं । इस तरह की राजनीतिक पद्धति लम्बे अवधि तक
संचालित होने से देश का सर्वपक्षीय उन्‍नति जल्दी होता है ।
बहुराजनीतिक सिद्धान्त वाले देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अतिक्रमण
करते हैं और इसके कारण राजनीतिक व्यवस्था लम्बे समय तक वहीं
टिकती है। निर्दलीय व्यवस्था का परिणाम अच्छा है।

ख) एकदलीय राजनीतिक पद्धति (त्रार-कृगाए फुणांपंटव 5एछशा)-
विश्व के अनेक देशों में प्रजातन्त्र की नई व्याख्या के साथ एकदलीय
राजनीतिक व्यवस्था संचालित है | यह बीसवीं शताब्दी का नया प्रयोग
है । ऐसी राजनीतिक पद्धति से एक समूह को फायदा होता है, जो सत्ता
सम्हालते हैं । वामपन्थी राजनीतिक विचार वाले समूह देश की जनता
को अपने समूह में समाहित करने के लिए एकदलीय प्रणाली लागू करते
हैं, किन्तु ऐँसी राजनीतिक प्रणाली से लम्बे समय तक देश की राज्य
व्यवस्था संचालित नहीं हो सकती । एकदलीय राजनीतिक प्रणाली में
राजनीतिक सिद्धान्त के बदले राष्ट्रीय विकास के सिद्धान्त को सर्वोपरि
रख एकदलीय राजनीतिक पद्धति संचालित होने से देश और जनता का
विकास सम्भव हो सकता है।


70


ग) बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था (शाा-छएुगाए फणांप॑त्ग
5एडाशा/ए।एगांशा) - विश्व के प्रायः सभी देशों में बहुदलीय
राजनीतिक व्यवस्था संचालित है । किन्तु विकासोन्मुख और विकसित
देशों में यह प्रणाली अलग ही नतीजा लिए हुए है | विकसित देश
बहुदलीय व्यवस्था को स्वीकार किए हुए है और विकास भी कर रहे हैं ।
किन्तु विकासोन्मुख देश इस व्यवस्था से पीड़ित है । इस अंतर को निम्न
रूप से देख सकते हैं-

१) विकसित देशों की बहुदलीय व्यवस्था

२) विकासोन्मुख देशों की बहुदलीय व्यवस्था

१) विकसित देशों की बहुदलीय व्यवस्था (?]099 ग॥ 6 0९एश००७९०
८०ण्राए९५)- विकसित देशों में यह व्यवस्था सफल है । क्‍योंकि वहाँ
मुख्य राजनीतिक दल दो या तीन होते हैं और अन्य देशों के होने के
बाद भी वो नगन्य रूप में होते हैं और सत्ता में मुख्य दो दल ही जाते हैं
। इसलिए वहाँ की राजनीतिक अवस्था स्थिर होती है । एक राजनीतिक
दल चार से आठ वर्ष तक काम करने के बाद दूसरे राजनीतिक दल को
अवसर मिलने के कारण अपने कार्यकाल में कैसे अच्छा कार्य करें, यह
प्रतिस्पर्धा होती है । जिससे स्थिर राजनीतिक व्यवस्था संचालित होती है ।
यह व्यवस्था कई देशों में है और अच्छे भाव को प्रमाणित भी किया है।
२) विकासोन्मुख देशों की बहुदलीय व्यवस्था (एशााशांज्रा। ग। 6
१९ए९०ए॥8 ०००॥7१९५)- विकासोन्मुख देशों की बहुदलीय व्यवस्था ने
देश में कई समस्याओं का जन्म दिया है । शासकीय स्वरूप, राजनीतिक
दल और उस देश की जनता का चेतनास्तर नहीं मिटा सकने के कारण
राजनीतिक वातावरण अस्थिर हो जाता है । ऐसी स्थिति में द्वन्द्र होना
और सैनिक शासन लागू होने जैसी क्रियाकलाप को बढ़ावा मिलता है ।
विकासोन्मुख देशों में प्राकृतिक सम्पदा और संस्कृति उस देश का वैभव
है, किन्तु इसी पर विकसित एवं बड़े देशों की कृदृष्टि होती है । ऐसे
हस्तक्षेप से छोटे देशों की सम्पदा का दुरुपयोग होता है और कई बार
तो सांस्कृतिक परिवर्तन करा कर बड़े देश छोटे देशों को लूटते हैं ।
जिसकी वजह से देश विकास नहीं कर पाता और जनता भूखी मरती है ।
बड़े तथा धनी देश अपनी राजनीतिक क्रीड़ास्थल बनाने के लिए
विकासोन्मुख देशों में विभिन्‍न राजनीतिक दल तैयार करवाते हैं और
उस पर नियन्त्रण रखते हैं । मतभेद पैदा कर फायदा लेते हैं ।
विकासोन्मुख देशों में सौ से अधिक संख्या में राजनीतिक दल होते हैं ।


ते
यु


हि


हमने ऊपर भश्रष्टविरोधी शास्त्र के अंगों का विस्तारपुर्वक चर्चा किया ।
इसे चित्र के माध्यम से निम्न रूप से विश्लेषित कर सकते हैं।


लक कह अध्यापनु
रे
विधि


उपर्युक्त चित्र मानवरूपी अंग जैसा है । मस्तिष्क में अध्ययन अध्यापन
के क्रियाकलाप को शरीररूपी राजनीतिक पद्धति ग्रहण करती है और
दैनिक कार्य संचालन करती है । शरीर के मूल अंग के रूप में स्थित
राजनीतिक पद्धति संतुलित रूप में संचालित होने से ही शरीर पूर्ण रूप
से काम कर सकता है । इसलिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अंग के रूप में
अध्ययन-अध्यापन प्रविधि, रोकथाम विधि, कार्यवाही तथा पुरस्कार की
नीति और राजनीतिक पद्धति ये चारो अंग सक्षम होने पर ही भ्रष्ट
विरोधी शास्त्र पूर्णता पा सकती है, यह तथ्य स्पष्ट होता है।


72


भ्रष्टाचार का स्तर निर्धारण


छशथ्गात्राणा ए (07एफकणा।,रएट


विश्व के किसी भी देश में भ्रष्टाचार किस तरह और किस रूप में
अपनी जड़ जमाए हुए है, यह समभने के बाद ही भ्रष्टाचार नियन्त्रण
का उपाय खोजा जा सकता है । प्रत्येक देश के भ्रष्टाचार की प्रकृति
अलग-अलग हो सकती है । क्‍योंकि हर देश की अलग-अलग
राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक स्थिति होने की वजह से
भ्रष्टाचार की प्रकृति भी अलग-अलग होती है । फिर भी हर एक देश में
अपनी स्थिति और अवस्था के अनुसार भ्रष्टाचार का स्तर निर्धारण होता है।
इसलिए विकसित देश और विकासोन्मुख देशों में इसकी प्रकृति अलग-
अलग होती है । विकसित देशों से अधिक विकासोन्मुख देश भ्रष्टाचार के
कारण अधिक समस्याग्रस्त होता है।

भ्रष्टाचार का स्तर निर्धारण करना कठिन है क्‍योंकि भ्रष्टाचार का
उद्गमस्थल व्यक्ति का मन है । मनुष्य का मन अत्यन्त संवेदनशील
होता है और मनोभाव के उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति निश्चित होती है ।
इन मनोवेगों के तरंग को देख नहीं सकते पर महसूस जरूर कर सकते
हैं । महसूस करने की प्रविधि का विकास भ्रष्ट विरोधी विज्ञान कर
सकता है । इस विज्ञान के सिद्धान्त को मजबूत एवं सबल बनाने के
लिए भ्रष्टाचार का स्तर निर्धारण करना आवश्यक है । विकसित देश
और विकासोन्मुख देश के भ्रष्टाचार का स्तर निर्धारण अलग तरह से
होने पर भी इस अध्ययन में विकासोन्मुख देशों के भ्रष्टाचार का स्तर
निर्धारण करने का प्रयत्न किया गया है।

१) साधारण घूस का लेन-देन

२) प्रशासनिक क्षेत्र द्वारा होने वाला भ्रष्टाचार

३) सरकारी ठेका और समभौता में होने वाला भ्रष्टाचार

४) न्यायिक क्षेत्र में होने वाला भ्रष्टाचार

५) संस्थागत रूप में होने वाला भ्रष्टाचार

६) स्वदेशी तथा विदेशी गैर सरकारी संस्था द्वारा होने वाला भ्रष्टाचार

७) सामाजिक क्षेत्र में होने वाला भ्रष्टाचार


73


८) आर्थिक क्षेत्र में होनेवाला भ्रष्टाचार
९) राजनीतिक क्षेत्र में होनेवाला भ्रष्टाचार


१) साधारण घूस का लेन-देन (ठशाशव पफ्ग्राइश्रटांणा ए 797०९)


साधारण घूस का लेन-देन विश्वभर चलने वाला व्यवहार है, यह
भ्रष्टाचार की कोटि में ही पड़ता है । क्‍योंकि घूस का अर्थ चाहे या
अनचाहे लेन-देन के व्यवहार से है । यह प्रचलन विश्वव्यापी रूप में
व्याप्त है । कोई नगद का लेन-देन करता है तो कोई वस्तु का। किसी
भी काम करने के बदले जो लेन-देने होता है, वह भ्रष्टाचार जन्य कार्य
का प्रारम्भिक रूप ही माना जा सकता है। इसे तीन मागों में वर्गीकृत
कर सकते हैं-

क) नियतवश किया गया लेन-देन, (ख) प्रचलन में किया गया लेन-देन,
(ग) आवश्यकताअनुसार किया गया लेन-देन ।


क) नियतवश किया गया लेन-देन (7्वाउ०ांणा ०" छात।९ त०णा९
ए्राशाांणाभा9): सरकारी या गैरसरकारी सेवामूलक कार्य में संलग्न
व्यक्ति सेवा देने के बदले में सेवाग्राही से रकम या वस्तु लेते है, इस
कार्य को घूस कहा जाता है | यह ऐसी स्थिति होती है, जहाँ चाहे
अनचाहे काम कराने के लिए लोग घूस लेते है और अपना काम कराते
है । इस तरह का घूस लेने और देने वाले दोनों ही कानून की दृष्टि में
अपराधी होते हैं । छोटे परिणाम में घूस लेना-देना भी भ्रष्टाचार की
प्रारम्भिक अवस्था है | यह व्यवस्था विश्व के सभी देशों में व्याप्त है ।
ख) प्रचलन में किया गया लेन-देन (एपडांगां?शटत फशाइग्रतांणा 07
0४९) सेवाग्राही व्यक्ति या निकाय द्वारा दिए गए सेवा की बदौलत
लगने वाला कर या शुल्क से कुछ प्रतिशत अधिक रकम देने की व्यवथा
को प्रचलन के रूप में स्वीकार कर लिया गया है | इस तरह का कार्य
घाट गददी या सीमास्तरीय प्रहरी चेक पोष्ट या देश के सीमा में रहे
कर शुल्क कार्यालय में होता रहता है । अतिरिक्त शुल्क लेने वाले कार्य
में रकम और वस्तु दोनों होते हैं । यह प्रचलन समाज स्वीकार्य है । फिर
भी यह भ्रष्टाचार ही है।

ग) आवश्यकतानुसार किया गया लेन-देन (7ग्लाइत्ब॒लांगा ० छात०९
6णा९ 79५ 7९८८5आ7१): सेवाकार्य में संलग्न व्यक्ति को अगर आवश्यकता
अनुसार वेतन-भत्ता नहीं मिलता है तो वह अपनी आवश्यकतापूर्ति के
लिए सेवाग्राही से कुछ निश्चित रकम ईमानदारीपूर्वक वसूल कर सकता


74


है । विकासोन्मुख देश के सरकारी कर्मचारी, शिक्षक और डाक्टर समेत
अतिरिक्त सेवा प्रदान कर सेवा देने के बदले अतिरिक्त रकम या वस्तु
प्राप्त करते हैं । यह भी भ्रष्टाचार बढ़ाने का ग्रोत है ।


२) प्रशासनिक क्षेत्र द्वारा होनेवाला भ्रष्टाचार (20४7एांणा ग। ९
2१0ता्रांईए/गांएर 5९९०)


हम


प्रशासनिक क्षेत्र को नागरिक क्षेत्र भी कहते हैं । वर्तमान समय में
प्रशासन का काम करने वाले समुह को नागरिक का नौकर भी कहते हैं
किन्तु होता इसका उल्टा है, प्रशासनिक समूह मालिक के रूप में ही
दिखाई देते हैं । सरकारी काम-काज की जिम्मेदारी वाला व्यक्ति, निकाय
या समुदाय को नागरिक की सेवा करनी ही पड़ती है | विकासोन्मुख
देशों में सरकारी सेवा देने वाले व्यक्ति संचय भी करते हैं | उनके निर्णय
से नागरिक को लाभ या हानि होता है इसलिए नागरिक लाभ पाने के
लिए घूस लेने के लिए तैयार रहते है और सेवाप्रदायक घूस लेकर निर्णय
करने की प्रवृत्ति विकसित होती है ।

भ्रष्टाचार फैलाने वाला क्षेत्र प्रशासनिक क्षेत्र ही है, जिसे निम्न रूप में
व्याख्या कर सकते हैं- (क) सेवाग्राही और सेवादायक का सम्बन्ध, (ख)
निर्णय का कार्यान्वयन, (ग) निकासा, बेरुजु और वसूली, (घ) अर्धन्यायिक
अधिकार का प्रयोग ।

क) सेवाग्राही और सेवादायी का सम्बन्ध (पश९ +शगांगाआंए 7९छल्शा
तांसा। गाव 5९'शंत्ट ए7०शं०त९श)- शासक और शासित के सम्बन्ध को
वर्तमान में सेवाग्राही और सेवादायी कहने के बावजूद विकासोन्मुख देश
में प्रशासनिक अधिकार प्राप्त निकाय शासक के रूप में क्रियाशील होते
है । ऐन, नियम, कानून और परम्परागत रीति, स्थिति की आड़ में
प्रशासनिक निकाय, नागरिक के ऊपर शासन करते संचालन करते हैं ।
शक्ति प्राप्त और शक्तिहीन के बीच का समभौता भ्रष्टाचार है।


ख) निर्णय का कार्यान्वयन (:ऋशलाएंणा रण त९लंञंणा)- सरकार द्वारा
जनहित में लाए गए निर्णय का कार्यान्वयन प्रशासनिक क्षेत्र से ही होता
है । निर्णय करने और कार्यान्वयन करने का अधिकार जिस प्रशासन को
होता है, वह निरंकुश हो जाता है । उसी निरंकशता की वजह से
भ्रष्टाचार बढ़ता है।

ग) निकासा, बेरुजु और वसूली (छ7क्‍8९. तंक्रापाइशाशा,
शाएऐटरगोीलाशा गाते >शां्रप्राइउशाशा)- आर्थिक क्षेत्र का जिम्मा भी


75


प्रशासन को ही होता है । विकास रकम का निकासा और ठेका खर्च का
हिसाब भी प्रशासन ही रखता है । ऐसे आर्थिक कारोबार पाने का
अधिकार प्राप्त व्यक्ति प्रशासन में संलग्न व्यक्ति या निकाय का आर्थिक
प्रलोभन में फंस जाना स्वभाविक ही है । इसी तरह कर वसूल से लेकर
विभिन्‍न सरकारी वसूली समेत प्रशासन के अधिकार क्षेत्र के भीतर ही
होने से वसूली करने, या सहलियत देने के स्वार्थ से काम करने के
कारण वहाँ भ्रष्टाचार का कार्य अधिक होता है।

घ) अर्धन्यायिक अधिकार (ए5९ रण वुएबत्ं- [एग्ंतंगा गाणाा०वं9)- प्राय:
सभी देशों में प्रशासन को अर्धन्यायिक अधिकार भी प्राप्त होता है । देश
के कानून के अनुसार छोटा से बड़ा न्यायिक निर्णय करने का अधिकार
प्राप्त प्रशासन द्वारा समय, परिस्थिति और घटना के आधार में निर्णय
करने की परम्परा भी न्याय ही है यह नहीं कहा जा सकता । इस तरह


न्याय नहीं होने की स्थिति में भ्रष्टाचार की सम्भावना बढ़ती है।
३) सरकारी ठेका और समभौता में भ्रष्टाचार (0००४एए0०णा जग 0९


४०शशथािधाशा ९(णराएगठ गावाशावश)

विकास की जिम्मेदारी प्रशासन की होती है । देश के प्राकृतिक सम्पदा
की जिम्मेदारी भी प्रशासन की ही होती है | विकसित देश हो या
विकासोन्मुख ये दोनों तरह के देशों में सरकारी ठेका समभौता में बहुत
अधिक भ्रष्टाचार होता है । विकसित देश में दस से पन्द्रह प्रतिशत तक
कमीशन का लेन-देन होता है, विकासोन्मुख देशों में पचास से पचहत्तर
प्रतिशत तक कमीशन लेने का काम होता है । अर्थात्‌ वास्तविक कार्य
पच्चीश प्रतिशत से भी कम होता है। कभी-कभी योजना पूरा न होने
पर भी योजना सम्पन्न हो जाता है।


दिस ४>०-ब


इसीतरह प्राकृतिक सम्पदा के प्रयोग के सम्भौता में भी असीमित
भ्रष्टाचार होता है | विकासोन्मुख देश में इसकी स्थिति निम्न है-

क) ठेका बन्दोबस्त और लाइन्सेस वितरण

ख) विदेशी ठेकदार और समभौता, ग) साभेदारी निर्माण

क) ठेका बन्दोबस्त और लाइसेन्स वितरण (टाल ग्राक्मा88शाशा'


गात तांडएंएएांणा ण ॥#०शा5९- देश के अनेक तरह के विकास में
विकास कार्य की सम्पन्नता के लिए ठेका बन्दोवस्त किया जाता है ।


३४०


जिसमें योजना की शुरुआत से लेकर अन्त तक विभिन्‍न तह में


76


भ्रष्टाचार होने की वजह से निकासा हुए रकम का पचास प्रतिशत भी
निर्माण कार्य में नहीं लगाया जाता है | बाँकी रकम उस कार्य योजना
में संलग्न व्यक्ति या समुदाय में खर्च होता है | ऐसे प्रशासन द्वारा
वितरण होने वाले आयात-निर्यात या अन्य कार्य के लिए लाइन्सेस
वितरण करने में भी बड़ी धन-राशि का प्रयोग किया जाता है ।


ख) विदेशी ठेकेदार और समभौता (#0ासंज्ा 0णाए79ट2०' गात
८०णा7०४८)- बहुत विकासोन्मुख देशों में बड़ी-बड़ी आयोजना को
सम्पन्न करने के लिए विदेशी ठेकेदार के बन्दोवस्त का चलन है। बड़ी
रकम खर्च होने वाले आयोजन में उतनी ही बड़ी रकम भ्रष्टाचार का
हिस्सा बनती है । ऐसी योजना प्रायः बाह्य ऋण या सहयोग में सम्पन्न
होता है, इस स्थिति में दात्‌ संगठन की दिलचस्पी या संलग्नता योजना
के श्रुआत से लेकर अन्त तक होती है । कई आयोजना में प्रतिफल
विदेशी को मिलता है, जिसका घाटा देश को और जनता को उठाना
पड़ता है ।


ग) साभेदारी निर्माण (एणा४परठांगा ॥ पा८ ए9०गश»आंए)- जब दो
से अधिक संस्था, व्यक्ति या निकाय मिलकर निर्माण करते हैं तो उसे
साभेदारी निर्माण कहते हैं, ऐसे निर्माण द्वारा प्राप्त आमदनी भी
साभेदारी होती है । इस स्थिति में गरीब देश अपनी ही प्राकृतिक
सम्पदा का भरपूर उपयोग नहीं कर पाते हैं । फायदा सामन्ती प्रवृत्ति के
व्यक्ति, निकाय और देश की सत्ता में रहनेवाले व्यक्ति या राजनीतिक
दलों को मिलता है । ऐसे साभेदारी विकास के कार्य में सम्बन्धित देश
को घाटा होता है, वही साभेदारी निवेश करने वाले व्यक्ति, समुददाय
या देश को अत्यधिक फायदा होता है । गरीब देश के सत्तासीन व्यक्ति
या राजनीतिक दल इसमें शामिल होने के कारण देश को बड़ा नुकसान
भुगतना पड़ता है।


४) न्यायिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार (0077ए0ं०णा ग॥ 0९ ]एतंलंग')


विकासोन्मख देश में न्यायिक क्षेत्र में भी बहत भ्रष्टाचार होता है । इस
क्षेत्र में भ्रष्टाचार होने का कारण न्यायव्यवस्था देश, काल और जनहित
की न्यायपद्धति का नहीं होना भी है । न्यायिक व्यवस्था में निम्न चार
तत्व काम करते हैं, इन तत्वों का विकास यूरोपेली शैली के अन्तर्गत
हुआ है । इसलिए भी विकासोन्मुख देश के न्याय क्षेत्र में इसका
प्रभावकारी रूप संचालित नहीं हो पाया है।


77


(क) कानूनी व्यवस्था, (ख) न्याय प्रदान करने की पद्धति, (ग) न्यायाधीश,
(घ) वकील ।


क) कानूनी व्यवस्था (८४ 5एहशा)- अधिकतर विकासोन्मुख देशों में
युरोप के विभिन्‍न देशों ने राज किया है, जिसकी वजह से उनके बनाए
कानुन ही आज तक लागू हैं । कई देशों ने इसके सुधार करने की
कोशिश की है, परन्तु इसका मूल स्वरूप आज तक विद्यमान है । देश,
काल और परिस्थिति के अनुसार कई देशों में आजतक कानून ही नहीं
बन पाए हैं, क्‍योंकि वर्तमान कानूनी व्यवस्था की जननी युरोप के देश
ग्रेट ब्रिटेन, फ्रान्स, स्पेन और जर्मनी जैसे देशों द्वारा लागू कानूनी
व्यवस्था ही विश्व के सभी दशों में चल रहे हैं ।

ख) न्याय प्रदान करने की पद्धति (॥एरतांतंग ए/0०९5५ (5एडशा॥))-
यूरोपीय साम्राज्यवाद द्वारा सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में लागू किया गया
न्याय प्रदान करने की पद्धति आज तक लागू है। जहाँ यह पद्धति नहीं
थी, २०वीं शताब्दी में उन देशों ने भी इसे स्वीकार कर लिया ।
सम्भवतः इसे वैज्ञानिक पद्धति समभा गया किन्तु विकासोन्मुख देशों के
लिए यह अभिशाप सिद्ध हुआ ।


ग) न्यायाधीश (ए'र९८ ॥7४एश१- "न्यायाधीश' शब्द से ऐसे व्यक्ति का
चित्र सामने आता है, जो सौम्य, ईमानदार, विवेकी और ईश्वरीय
शक्तिपुञ्ज व्यक्ति का स्वामी है । किन्तु आज इक्सवीं शताब्दी के
न्यायाधीशों में यह सब नहीं मिलता है । विकासोन्मुख देशों में
न्यायाधीश की नियुक्ति, पदोन्‍नति और सेवा, सुविधा भी निजामती सेवा
की तरह होने से न्यायाधीश में गुणात्मक रूप में व्यक्तित्व का विकास
नहीं भी हो सकता है । जिम्मेदारी बड़ी और सुविधा कम होने की वजह
से भी वकील की सांठगांठ से न्यायाधीश की न्याय करने की प्रक्रिया
प्रभावित होती है ।


घ) वकील (॥९ ]एत४९)- न्याय क्षेत्र में पीलर के रूप में स्थापित
वकील ही न्याय सम्पादन का संवाहक होते हैं । अगर यह क्षेत्र शुद्ध और
ईमानदार हो तो न्यायिक निर्णय पर भी इसका अच्छा असर पड़ेगा ।
किन्तु अधिकांशत: वकील न्‍्यायलय और पीडित जनता दोनों का प्रयोग
करने का अवसर प्राप्त करते हैं। ऐसे अवसर को धन आर्जित करने का
स्रोत बनाते हैं । विकासोन्मुख देशों में न्याय मांगने के लिए वकील को


78


उनका मन चाही रकम देनी पड़ती है। यह प्रचलन न्यायिक पद्धति का
अत्यन्त काला पक्ष है।


५) संस्थागत रूप में होने वाला भ्रष्टाचार (्र-रंरारंणागं 007एए0णा)
संस्थागत भ्रष्टाचार का अर्थ है, समूहगत रूप व्यवस्थित कानून की
अपव्याख्या करके भ्रष्टाचार करने की छूट देना । इस संस्थागत भ्रष्टाचार
में स्पष्ट भ्रष्टाचार दिखाई नहीं देता फिर भी भीतरी रूप में भ्रष्टाचार
का विकराल रूप कायम होता है । संस्थागत रूप होने वाली यह
भ्रष्टाचार देश की आर्थिक व्यवस्था को सिर्फ तहस-नहस नहीं करता
बल्कि देश के अस्तित्व को खतरे में डाल देता है । संस्थागत रूप में
होनेवाला भ्रष्टाचार, सामान्य भ्रष्टाचार न होकर देश और जनता को
समाप्त करने वाला अपराध है । इसे निम्न रूप में वर्गीकृत किया जा
सकता है-

(क) समूहगत रूप में (ख) राजनीतिक दल के रूप में (ग) व्यवस्थित
कानून की अपव्याख्या कर (घ) नयाँ कानून बना कर

क) समूहगत रूप में (87 0९ ४7०००७)- एक दूसरे के साथ घूस लेने
का विकसित रूप ही समूहगत भ्रष्टाचार है । जब समूहगत भ्रष्टाचार
कीशुरुआत होती है, तभी यह संस्थागत भ्रष्टाचार का रूप ले लेता है।
इसे सफेद अपराध के रूप में स्वीकार कर सकते हैं । विकसित देश से
लेकर विकासोन्म॒ख देशों में समहगत रूप में भ्रष्टाचार शुरु है। कतिपय
देश इसे नियम कानन के अन्तर्गत लाए हुए है तो कहीं अभ्यास में
लाकर इसे स्वीकार कर रहे हैं । गरीब देश इस भ्रष्टाचार से पीड़ित है ।


ख) राजनीतिक दल के रूप में (छए पाल एगांप॑ट्ग एथ-0९५)-
राजनीतिक दल को आमदनी का स्रोत नहीं होता । चन्दा, दान और
सहयोग से संचालित होता है | निश्चित सिद्धान्त के आधार में संचालित
होने वाले राजनीतिक दल सभी नेता तथा कार्यकर्ता निःशुलक सेवा में
सम्मिलित होते हैं । किन्तु विकासोन्मुख देश में संचालित प्रायः
राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए मात्र क्रियाशील होते है । किसी भी
तरह सत्ता प्राप्ति हो, इसके लिए वो समाज के हर निकाय से धन जमा
करते है और शोषण करते है । इस दलगत रूप में होनेवाले भ्रष्टाचार
को जनता समभ नहीं पाती ।


ग) व्यवस्थित कानून की अपव्याख्या करके (8ए प्रांश्रा॥।शए7एशांगर४ ९
€्ंत्राड् ।॥७)- सत्ता में पहुँचने वाला व्यक्ति, समूह और राजनीतिक


79


दल के नेता तथा कार्यकर्ता व्यवस्थित कानन की अपव्याख्या करके लाभ
लेते हैं । उदाहरण के लिए राष्ट्र की सम्पत्ति और प्राकृतिक सम्पदा सीधे
हस्तान्तरण करना अगर नहीं मिले तो समभोता के आधार में लीज में
दे सकते हैं । ऐसे लीज में देने की प्रक्रिया सम्पत्ति हस्तान्तरण करने


जैसा ही है। सत्ता में आसीन प्रायः दल या व्यक्ति ऐसा करते हैं, जो
एक जघन्य अपराध है।


घ) नया कानून बनाकर (छए णिणाए।गांतएु तार ग९ ]9५)- प्रायः सभी
देशों में राष्ट्रगोष का रकम बिना कानून निकाला नहीं जा सकता है ।
सत्तासीन व्यक्ति, समूह या राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता राज्यकोष के
रकम को स्वयं ओर दल को आधिक रूप में सम्पन्न बनाना चाहता है।
इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए खुद को लाभ हो, ऐसा नियम कानून
बनाकर राज्यकोष का रकम निकालने और उससे सुविधा लेने का काम
करते हैं । ऐसे ही नियम बनाकर देश का खनिज एवं प्राकृतिक सम्पाद
दूसरे को हस्तान्तरण करते हैं । यह देश के प्रति गददारी है और साथ
ही बड़ा भ्रष्टाचार भी ।


६) गैर सरकारी संस्था द्वारा होने वाला भ्रष्टाचार (८077ए(ंणा जग ॥९
७०५ भ0 7७०७५)


सरकार के द्वारा काम न कराकर नागरिक समह से कराने के उद्देश्य के
साथ पश्चिमी देशों में गेर सरकारी संस्था बनाया गया। ये संस्था अपने
देश में क्रियाशील हो साथ ही विकासोन्मख देशों में सहयोग के
नाम पर अपने देश के बाहर भी क्रियाशील होने लगे । विकासोन्मख
देश में विदेशी संस्थाओं ने आपनी स्वार्थपर्ति के लिए और अपना प्रभाव
जमाने के लिए रकम की बरसात कर दी । गरीब देश को क॒छ पढ़े-लिखे
लोग ऐसी संस्थाओं के सम्पर्क में आए और उनके औजार के रूप में
प्रयोग होने लगे और गरीब समाज में भ्रष्टाचार का खेल शुरु हो गया ।
विकासोन्मुख देशों में प्रायः कानूनी मान्यता प्राप्त और सरकारी संस्था
नहीं है । समाजिक संस्था या अन्य सेवामूलक संस्था को ही अन्तर्राष्ट्रीय
स्तर के गैर सरकारी संस्था अपने प्रतिनिधि के रूप में प्रयोग करने के
बाद गरीब देश में ऐसे सामाजिक संस्था गैर सरकारी संस्था के रूप में
परिचित होने लगे।

७) सामाजिक क्षेत्र में होनेवाला भ्रष्टाचार (007एए0ंणा गा धार 500
5९८०)- विकासोन्मुख देश में विविध संस्कृति और वर्ग के सम्मिश्रित


80


रूप से सामाजिक संरचना बनती है । धनी और अति धनी एक वर्ग
होता है और दूसरा गरीब और अति गरीब वर्ग होता है । यहाँ समन्वय
की कड़ी कहलाने वाली परम्परा से चली आ रही संस्कृति है | किन्‍्त
अब पुरातन पद्धति विस्थापित होने लगी है, जिससे सामाजिक समस्या
बढ़ती जा रही हैं । सामाजिक स्तर में आने वाले समस्याओं को निम्न


2 कक.


रूप से देखें जो समाज में भ्रष्टाचार को जन्म देने में सहायक बनते हैं ।


(क) धर्म-संस्कृति, (ख) सामुदायिक संगठन, (ग) शिक्षा, (घ) स्वास्थ्य, (ड)
धनी और गरीब का विभेद ।


क) धर्म-संस्कृति (रशांह्वाणा - एणाएा९) - धर्म-संस्कृति का तात्पर्य
जीवन संचालन करने की पद्धति से है । जीवन सुखमय बनाने के लिए
धारण करने वाली पद्धति ही धर्म है और उसे निरन्तर देकर जीवन
संचालन करने की पद्धति ही संस्कृति है | युगों से चली आ रही धर्म-
संस्कृति की पद्धति को नये धार्मिक सम्प्रदाय ने अनेक अर्थ लगाकर
अतिक्रमण किया, जिसके कारण धर्म-संस्कृति में विचलन आ गई ।
इससे सामाजिक समस्या पैदा हुई । धनी समुदाय द्वारा मान्यता प्राप्त
संस्कृति को गरीब समुदाय को भी मानना पड़ा और पैसा के आड़ में
संस्कृति बदलने लगी।


ख) सामुदायिक संगठन (एण्रागपराव 0:2गांगगांगा)- समुदाय के
भीतर विभिन्‍न वर्गीय, क्षेत्रीय और जातीय हित के लिए संगठन शुरु होने
लगा । क्षेत्रीय संगठन के नाम में गुण्डा संगठन भी शुरु होने लगा ।
समाज के विभिनन क्षेत्र में अलग-अलग संगठन स्थापित होने लगे । इस
तरह सामाजिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार बढ़ने के क्रम में ऐसे विभिन्‍न संघ-
संस्था को खत्म करने की जरूरत महसूस हुई ।

ग) शिक्षा (7ताट्वांणा)- शिक्षा सर्वोपरि आवश्यक तत्व है, जो मानव
विकास में सहायता करता है । किन्तु विकासोन्मुख देशों में शिक्षा के
नाम पर व्यापार शुरु हो गया है। शिक्षा के नाम पर निजी शैक्षिक क्षेत्रों
के द्वारा आर्थिक शोषण होने लगा । शिक्षा क्षेत्र व्यावसायिक होने के
कारण सर्वसाधारण जनता इससे पीड़ित होने लगे । निजी क्षेत्र के
विदालय बड़ी-बड़ी आर्थिक घोटाले करने लगे और भ्रष्टाचार कार्य को
बढ़ावा मिल गया ।


घ) स्वास्थ्य (प्र८आ07)-जीवन की रक्षा स्वास्थ्योपचार प्रणाली करती है ।
स्वास्थ्योपचार निःशुल्क होना चाहिए । किन्तु विकासोन्मुख देश में


84


स्वास्थ्योपचार में बहुत धनराशि खर्च करनी पड़ती है । निजी क्षेत्र का
उपचार केन्द्र महंगा शुल्क लेकर उपचार करता है।


ड) धनी और गरीब का विभेद (छा5ठक्रागांणा 7शणरशा जता गाव
7००) - विकासोन्मुख देश की सरकार धनी और गरीब के विभेद को
नहीं हटा सकती । गरीब किसी भी तरह धन कमाना चाहता है और
अनेक अपराध में संलग्न होता है और समाज की पीड़ा का कारण
बनता है | समाज में संवेदनशील पक्ष को नुकसान पहुँचाकर धन अर्जित
करते है किन्तु उसके विरोध में दूसरा गरीब व्यक्ति विद्रोह करने लगते
हैं । इस तरह धनी और गरीब का विभेद समाजिक समस्या को बढ़ाता
है।


८) आर्थिक क्षेत्र में होने वाला भ्रष्टाचार (एण-एञांणा ग्रा। ९
#८णाणाएर 8९०)

किसी भी समाज और राष्ट्र के विकास का मापन ही आर्थिक क्षेत्र में
होने वाला उन्‍नति और अवनति का निश्चय करता है । अर्थ का
कारोबार, हानि तथा नुकसान और विकास का तथ्यांक भी इसी क्षेत्र के
साथ सम्बद्ध है इसलिए देश के विकास में इसका सर्वाधिक महत्व है।
यह क्षेत्र भ्रष्टाचार के मापन के लिए भी उपर्यक्त क्षेत्र है। इस क्षेत्र में
कौन, किस रूप में और किस निकाय से भ्रष्टाचार होता है, इसे निम्न
रूप में देख सकते हैं-

(क) परम्परागत लेन-देन, (ख) वित्तीय संस्था, (ग) बाजार, (घ) उद्योग,
(ड) अन्तर्राष्ट्रीय कारोबार

क) परम्परागत लेन-देन (7ग्या।णावों प्र-+गाउइलांणा)- बैंक की
स्थापना नहीं होने से पहले से ही परम्परागत रूप में लेन-देन अर्थात्‌
वस्तु अथवा वित्तीय कारेबार चलता ही था । किसान धान की खेती के
समय बीज ऋण लेते थे और पैदावर होने के बाद ब्याज सहित उपज
को देते थे । व्यवसायिक क्षेत्र में भी व्यवसाय बढ़ाने के लिए ऋण लेने
और देने की परम्पा थी । इसी तरह पर्व त्योहार में भी
आवश्यकतानुसार ऋण लेने और ब्याज सहित लौटाने की परम्परा के
कारण इस क्षेत्र में अधिक ब्याज लेने और ऋणी को दुख देने का कार्य
शुरु हुआ और इसकी वजह से भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी हुई ।

ख) वित्तीय संस्था (ग्राभातंग 07४8थांटगांणा)- वित्तीय संस्थाओं के


ज्त


संचालन के बाद परम्परागत लेन-देन में कमी आई । किन्तु वित्तीय


82


संस्था भी समाज को राहत नहीं पहुँचा पाई । वित्तीय कारोबार करने
वाली वित्तीय संस्था 'बैंक' के नाम से स्थापित हुई और बहुत तेजी से
विश्व में अपना स्थान बना लिया । किन्तु इसमें भी निजी क्षेत्र, पब्लिक
क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र के निवेश में खुला हुआ बैंक देश और जनता को
राहत दिला सकता है इस निर्णय में वित्तीय क्षेत्र आज भी असमंजस की
स्थिति में है । विकसित देशों में बैंकिड क्षेत्र का विकास हुआ है और
उतनी ही भ्रष्ट नीति भी । इसी तरह विकासोन्मुख देशों में बैंकिड
कारोबार बढ़ा हुआ है । किन्तु सिर्फ बैंक आगे है, जनता बैंक से
अपेक्षित लाभ नहीं उठा पा रहे हैं । विकासोन्मुख देशों में चल रहे बैंक
ब्याज के ऊपर चत्रवृद्धि ब्याज लेकर ऋणी को पीड़ित बनाए हुए है।

इसी तरह बीमा कम्पनी द्वारा समाज में शोषण करने पर भी
विकासोन्मुख देश के सत्ताधारी द्वारा कार्यवाही करने की अवस्था नहीं
रहती है | क्योंकि एक देश के बीमा कम्पनी का सम्बन्ध दूसरे देश के
कम्पनी के साथ होता है । इस तरह वित्तीय क्षेत्र में होने वाले खुले
भ्रष्टाचार से देश का आर्थिक क्षेत्र आक्रान्त होता है। यद्यपि किसी-किसी
देश में कुछ ख्याति प्राप्त वित्त कम्पनी हैं और उनका नतीजा भी अच्छा
ही है किन्तु अधिकतम वित्त कम्पनी उद्देश्य के अनुरूप नहीं चलते हैं।


ग) बाजार (श०९४) - आज की आवश्यकता बाजारमुखी अर्थतन्त्र'
इस नारा के साथ बाजार का महत्व बढ़ा है | विकासोन्मुख देश का
बाजार अनियन्त्रित रूप में संचालन होता है । विकसित देश का बाजार
प्रतिस्पर्धात्मक नीति के अनुसार विस्तारित होता है । इस नीति को
गरीब देश में भी लागू होने से बाजार अनियन्त्रित रूप में संचालित होने
लगे है । काला बाजारी, मुनाफाखोरी और माफियातन्त्र बाजार के
संचालन में कब्जा जमाए रहते हैं । इसलिए प्रायः विकासोन्मुख देश का
बाजार सरकार के नियन्त्रण से बाहर रहता है, जो आर्थिक सिद्धान्त की
प्रतिकूल अवस्था है ।

घ) उद्योग (रता57%) - आजकल गुणस्तरीय वस्तु का उत्पादन करने
वाले उद्योग कम हो गए हैं और गुणस्तरहीन वस्तु उत्पादन करने वाले
उद्योगों की संख्या बढ़ गई है । यही विकासोन्मुख देश के लिए अभिशाप
है । गुणस्तर कायम करने के लिए कानून है बावजूद इसके मिलावटी
उत्पादन बजार में आता है | ऐन-नियम होने के बाद भी निजी क्षेत्र में
संचालित उद्योग को नियन्त्रण करने की व्यवस्था नहीं होने के कारण


83


उद्योग अनियन्त्रित अवस्था में संचालन होने लगे हैं । जीवन को बचाने
वाली दावा से लेकर जनता के दैनिक उपभोग्य की सामग्री में मिलावट
होन की वहज से जनता की जान जोखिम में है । गरीब राष्ट्र में रहने


वाले नागरिक के लिए यह अत्यन्त पीड़ा की अवस्था है ।


ड्) अन्तर्राष्ट्रीय कारोबार (पराशावगांणावी पफ्गशाइ9ला०ा)- वर्तमान
समय विश्व के सभी दशों के साथ सुमधुर सम्बन्ध स्थापित कर
आवश्यकताअनुसार कारोबार संचालन करने का समय है । अन्तर्राष्ट्रीय
कारोबार होने से किसी एक देश के कानून से कारेबार नियन्त्रण नहीं हो
सकता । इसलिए ऐसे कारोबार जोखिमपूर्ण भी हो सकते है । ऐसे
अन्तर्राष्ट्रीय कारोबार में प्रायः गरीब देश मात खाते है और नुकसान
सहते है । इसकी वहज से आर्थिक नुकसान ही नहीं होता बल्कि देश को
क्षति पहुँचती है।

९) राजनीतिक क्षेत्र में होने वाला भ्रष्टाचार (ट०77ए0ंणा ग॥ (९


एणाएट्गे 5९०6०)


राज्य में सत्ता संचालन करने के लिए एक निश्चित सिद्धान्त के साथ
राजनीतिक दल का जन्म होता है । राज्य संचालन करने के लिए जो
राजनीतिक दल होते हैं, उन्हें स्वच्छ, पवित्र एवं विश्वासयुक्त होना
पड़ता है । यही सिद्धान्त है । किन्तु विकासोन्मुख देश में नकारा,
नाकाबिल और सत्ता स्वार्थ की महत्वाकांक्षा से पूर्ण भण्ड ही दल के
रूप में दिखाई देते हैं । कुछ देश हैं, जहाँ ५० वर्ष के अन्तराल में किसी
एक राजनेता का जन्म हुआ होगा, किन्तु अधिकांश देश ऐसे ही है, जहाँ
गैर जिम्मेवार और अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति ही नेतृत्व कर रहे हैं ।
प्रारम्भिक काल में प्रत्येक दल एक विचार तथा सिद्धान्त के सथा
स्थापित होता किन्तु सत्ता में पहुँचने के बाद सत्ता के करीब पहुँचने के
बाद यह स्थिति बदल जाती है । शुरु में कार्यकर्ता द्वारा उठाए गए लेवी
से दल संचालन होता है, जो सत्ता में पहँचने के बाद यह अनुदान बन्द
हो जाता है क्‍योंकि अपने दल के सत्ता में पहुँचने के बाद उनमें यह
उम्मीद जगती है कि उन्हें प्रतिदान मिलेगा । किन्तु लाखों कार्यकर्ताओं
में से कछ ही फायदे में रहते हैं, जिसके कारण बाकी को चिढ़ होती है।
इस अवस्था में राजनीतिक दल पर आर्थिक भार बढ़ता है | राजनीतिक
दलों के आर्थिक संकलन के अनेक विधि होते है । उदाहरण के लिए
जबरदस्ती चंदा वसूल करना, विदेशियों से मिलकर रकम अनुदान लेना,


84


राष्ट्रीय सम्पत्ति का दरूपयोग करना, गलत लीज पर देना | इस सबसे
राजनीतिक दल अमीर होते हैं और जनता गरीब होती है ।


राजनीतिक दलों को अधिक खर्च की आवश्यकता पड़ती है । पूर्णकालीन
कार्यकर्ता अर्थात्‌ वेतन देकर कार्यकर्ता रखना पड़ता है । अपने विचारों
को जनता के समक्ष पहुँचाने के लिए संचार माध्यम का प्रयोग करना
पड़ता है । प्रचार-प्रसार की सामग्री के साथ ही जनता को बहलाने के
तरीकों को लेकर जनता के समक्ष जाना पड़ता है | इसके अतिरिक्त
निर्वाचन में अधिक धनराशि खर्च करके वोट समेटने की नीति इनकी
होती है । ये सब विकासोन्म॒ख देशों में संचालित राजनीतिक दलों द्वारा
किया जाने वाला अनिवार्य कार्य है । ये सब क्रियाकलाप अपराध से
अधिक भ्रष्टाचार में शामिल है।


भ्रष्टाचार के स्तर का निर्धारण का ग्राफ निम्न रूप से समझ सकते हैं।


पी. "0 ०३3० कि 5 9० 9०० 5६


१ से ९ तह के स्तर में विकास होनेवाला भ्रष्टाचार

१ से क्रमशः बढ़ते हुए ९ में पहँच कर गिरते हुए भी ५ अंक का केन्द्रीय
भूमिका निर्वाह करने को प्रमाणित करता है । ५ अंक का अर्थ है,
संस्थागत रूप में होनेवाला भ्रष्टाचार । वास्तव में ये सभी तह के
भ्रष्टाचार को हटाने, दबाने और नियन्त्रण कर सकते है, किन्तु संस्थागत
रूप में फैले हुए भ्रष्टाचार को हटाना, दबाना या नियन्त्रण करना
मुश्किल है क्‍योंकि ये वैधता पाए हुए होते हैं । भ्रष्टविरोधी शास्त्र का
लक्षित केन्द्र ही संस्थागत रूप में फैले भ्रष्टाचार को निर्मूल करना है।


85


भ्रष्टाचार के पृष्ठपोषक तत्त्व


छत 7०९९ एण (0ण7ए_.)्ञणा





भ्रष्टाचार स्वयं विकसित नहीं होता । इसे विकसित करने में राज्यव्यस्था
के विभिन्‍न तह में होने वाले क्रियाकलाप हैं । भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले तत्व
जाने अनजाने दबाव देकर या समर्थन देकर स्वार्थपुर्ति या अवसर प्रापत
करने वाले कार्य करते हैं, जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है | इसी तत्व को
यहाँ पृष्ठपोषक के रूप में व्याख्या किया गया है। विश्व के किसी भी
देश में राज्य संचालन तथा राज्य विकास के लिए क्रियाशील रहने वाले
विशेष तत्व मौजूद रहते है । ये तत्व ही राज्य के उन्‍नति और अवनति
के जिम्मेदार होते हैं । ये जिम्मेदार तत्व अपनी जिम्मेदारी जब वहन
नहीं करते और सिर्फ अपने स्वार्थ को देखते हैं, तो उस देश के समाज
और राज्य को भ्रष्टाचार घेर लेता है । ये तत्व खुद भ्रष्टाचार नहीं
फैलाते किन्तु भ्रष्टाचार के लिए पृष्ठ जरूर तैयार करते हैं और इसे
फैलाने में मदद करते हैं । इसे निम्न रूप में देख सकते हैं-

(१) अस्थिर सरकार, (२) नीति-विधि निर्माण क्षेत्र, (३) विकास कार्य क्षेत्र,
(४) व्यापारिक क्षेत्र, (५) एनजीओ समूह, (६) संचार क्षेत्र, (७)
राजनीतिक दलीय क्षेत्र ।


१) अस्थिर सरकार (एराशक्का९ 50एशराशा)


विकासोन्मुख देश की सरकार प्रायः अस्थिर होती है । जिस देश में
सरकार अस्थिर होती है, उस देश में भ्रष्टाचार का परिणाम बढ़ जाता है
और जहाँ भ्रष्टाचार है वहाँ सरकार स्थिर नहीं हो सकती । भ्रष्टाचार
और अस्थिर सरकार एक दूसरे के परिपूरक के रूप में स्थापित होते हैं ।
इसलिए अस्थिर सरकार भ्रष्टाचार के पृष्ठपोषक के रूप में स्थापित
होती है ।

२) नीति-विधि निर्माण क्षेत्र (ए0स्‍०ए ग्रागगाहु 5९००)

राज्य संचालन के लिए नीति तथा विधि विधिसम्मत निर्माण होना
चाहिए । जो विधि-नीति विधि सम्मत नहीं होते, वो बहुत समय तक
नहीं टिक सकती और अगर टिक भी गई तो देश, राज्यव्यवस्था और
जनता को नुकसान ही पहुँचाती है । इस कारण राज्य के तीसरे अंग के


में
के


86


रूप में स्थापित विधायिका द्वारा विधि निर्माण करने से देश,
राज्यव्यवस्था और जनता के हित में विधि निर्माण करना चाहिए । इसी
तरह नीति निर्माणकर्ता कार्यपालिका को भी देश और जनता के हित में
क्रियाशील होने वाले नीति का निर्माण करना चाहिए । विधि तथा नीति
निर्माण करने का अधिकार पानेवाले सभी निकाय देश और जनता का
सर्वतोमुखी हित करने वाले नीति विधि का निर्माण कर उसे लागू करने
की अवस्था तैयार करनी चाहिए । नहीं तो यही निकाय भ्रष्टाचार को
बढ़ानेवाले पृष्ठपोषक बन जाते हैं । विकासोन्मुख देशों में नीति विधि
निर्माण करने वाले निकायों को ही भ्रष्टाचार जन्य कार्य संस्थागत रूप
में विकास करने के लिए व्यक्ति या समुदाय सम्बद्ध होते हैं । ऐसे निकाय
को भ्रष्टाचार को आवरण देने के लिए विधिमुखी बनाने के लिए
प्रयत्नशील होते हैं । क्योंकि इस निकाय का प्रत्यक्ष सम्बन्ध राजनीतिक
दलों के साथ होता है । निर्वाचित विधायिका सभा हो या सरकार में
सम्मिलित नेता ये सब राजनीतिक संयन्त्र के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्धित


का


हात ह ।
३) विकास कार्य क्षेत्र (0९एशक्आला। 5९००)


जे


विकास कार्य क्षेत्र का तात्पर्य है, देश के भीतर विकास निर्माण में
क्रियाशील क्षेत्र । विकास कार्य का मतलब गांव के स्तर में निर्माण
होनेवाले कृषिजन्य आवश्यक भौतिक पूर्वाधार से राष्ट्रीय स्तर तक देश
की सम्पदा जैसे खनिज और जलविद्युत के विकास को ले सकते हैं ।
छोटे-छोटे विकास कार्य में स्थानीय राजनीतिक दल के साथ सम्बद्ध
व्यक्ति हस्तक्षेप करते हैं वही दूरी ओर बड़े राष्ट्रीय योजना में
भ्रष्टाचारजन्य कार्य पूर्णरूप में क्रियाशील होते हैं । विकासोन्मुख देश
जैसा विकसित देश में भी कमीशन का खेल चलता है, जिसके कारण
निर्माण कार्य में भ्रष्टाचार होने के बाद भी कार्य सम्पादन में कमीशन
का अनिवार्य लेन-देन होने वाले कार्य से विकास निर्माण में भ्रष्टाचार
खुले रूप में होता है | विकास कार्य क्षेत्र में भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले
पृष्ठपोषक के रूप में स्थापित हैं।

४) व्यापारिक क्षेत्र (0णराशाशलंग 5९००)

व्यापारिक क्षेत्र ही भ्रष्टाचार का मूल स्रोत है । व्यापारिक क्षेत्र को
आन्तरिक और वैदेशिक व्यापार दो भागों में बांट कर देख सकते हैं ।
इसके अतिरिक्त कोई भी मुनाफा कमाने वाले व्यवसाय को व्यापारिक


87


क्षेत्र में रखकर देना होगा । वाणिज्य क्षेत्र, जैसे- सामान के मांग तथा
आपूर्ति के आधार में बाजार व्यवस्थापन करना तथा खरीद-मूल्य के
आधार में बिक्री-मूल्य कायम करना, सामान का खरीद बिक्री करने के
क्षेत्र से लेकर सेवामूलक कार्य करने वाले डाक्टर, इंजीनियर, वकील,
शिक्षक तथा कोई भी विषय का सेवा करने या परामर्श देने वाले क्षेत्र
को व्यापारिक क्षेत्र मानना पड़ेगा । व्यापारिक क्षेत्र में मुनाफा अर्जित
करनेवाला क्षेत्र है । यह मुनाफा अर्जित करनेवाले सिद्धान्त ही भ्रष्टाचार
बढ़ाने का मूल केन्द्र है । क्‍योंकि ज्यादा मुनाफा के कारण नीति तथा
नैतिक जिम्मेदारी के कारण पीछे पड़ जाता है । जब नीति तथा
नैतिकता पीछे पड़ती है, जब अनैतिक व्यवहार शुरु हो जाता है, जिसके
कारण से भश्रष्टाचारजन्य कार्य शुरु होता है । सामान के लेनदेन में हो या
सेवा का लेनदन हो, व्यवसायगत रूप में कार्य होने से वहाँ ज्यादा रकम
अर्जित करने की प्रधानता रहती है और इस वजह से वहां जिम्मेदारी की
कमी और श्रष्टाचारजन्य कार्य प्रोत्साहित होते हैं ।

५) गैरसरकारी समुदाय (एनजीओ) (एणा-6०एशग्राशा। 08थांखं०णा5)
सरकार को जो काम करना चाहिए, जब वह नहीं करती तो समाज में
रहनेवाले व्यक्ति, समूह में विभाजित होकर देश तथा समाज की
आवश्यकताअनुसार करने वाले कार्य करते हैं, जिसे गैर सरकारी
समुदाय मानना चाहिए | इस गैर सरकारी समुदाय का विकास और
विस्तार विकसित देशों में प्रारम्भ होने पर वर्तमान विकासोन्मुख देश में
इस तरह की संस्था फैलने तथा विकसित होने का अवसर पा रही है ।
विकसित देशों की ऐसी संस्था विकासोन्मुख देशों में हस्तक्षेप करती है,
जिसके कारण विकासोन्मुख देश गैरसरकारीसमुदाय से काम कराकर
पीड़ित होती है । विकासोन्मुख देश में संचालित गैरसरकारी संस्था
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अन्तर्राष्ट्रीय गैरसरकारी संस्था के साथ आबबद्ध
होने के कारण भी भ्रष्टाचार का कार्य तीव्रता से आगे बढ़ रहा है ।
विकासोन्मुख देशों में संचालन होने के कारण गैरसरकारी संस्था के
क्रियाकलाप के कारण भी भ्रष्टाचार का विकास हुआ है, यह माना जा
सकता है । अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के साथ सम्बन्धन प्राप्त कर संचालित
संस्था अपनी-अपनी संस्कृति, इतिहास, सामाजिक व्यवहार और स्वार्थ
को सर्वोपरि रखकर आगे बढ़ता है । ये सभी अपने विषय और वस्तु को


88


गरीब देश में लाग करने के लिए योजनावद्ध रूप में आगे बढ़ते है ।
गरीब देश के बड़े लोगों को खरीद कर अपनी योजना को सफल करने
में लगे रहते हैं । गरीब देश के हित का काम कम होता है और धनी
देशों के स्वार्थसिद्ध होने वाली योजना अधिक होती है । इसलिए गेर


ञ्


सरकारी संस्था गरीब देश के हित में अच्छा काम नहीं कर सकते हैं
और इसके मल में अशिक्षा और गरीबी है । अचन्तर्राष्टीय सम्बन्ध के
आधार में गरीब देश के संचालित बस्त से गेरसरकारी संस्था पर निर्भर


बनाने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है ।

३) सनन्‍्चार क्षेत्र (एणागाप्रांटवांणा 5९९८०)

संचार के विकास से ही युग के विकास का स्तर निर्धारण होता है।
आज संचार के विकास के कारण विश्व समुदाय एक हो सका है ।
वास्तव में संचार ने बहत अधिक विकास किया है और भविष्य में भी
इसके विकास का क्रम जारी रहने वाला है | किन्तु यह नहीं भूलना
चाहिए कि संचार के गलत प्रयोग का परिणाम ओर असर गलत पड़ता
है । संचार को संचालन करने और प्रयोग करने वाले समूह तथा
समुदाय की नैतिक जिम्मेदारी में संचार-माध्यम के गुण और दोष की
मात्रा निर्भर होती है । विकासोन्मुख देश में संचालित सभी तरह के
संचार के माध्यम, जैसे- पत्रिका, रेडियो, टेलीविजन, इन्टरनेट, संजाल
और टेलीफोन आदि निःस्वार्थ रूप में संचालित नहीं होते । उनका मूल
उद्देश्य ही मुनाफा कमाना होता है । ऐसे मुनाफा कमाने वाले नीति
तथा सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते हैं । विदेशी या स्वदेशी हस्तक्षेप
में ऐसे संचार माध्यम चलते है । किसी भी स्थिति, घटना, व्यक्ति या
समूह को परेशान करना, दबाना, उकसाना, बेवजह का प्रचार करना ये
सभी काम संचार माध्यम से होते हैं । ऐसे कार्य स्वार्थवश किसी व्यक्ति,
समूह, समुदाय या राजनीतिक दल या अन्तर्राष्ट्रीय नियोग से भी
प्रायोजित होते हैं । संचार के आचार संहिता का पालन नहीं करने वाले
विकासोन्मुख देश में निरन्तरता पाए हुए हैं । इसलिए विकासोन्मुख देशों
में संचालित सभी संचार माध्यम भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले पृष्ठपोषक के
रूप में संचालित होते हैं।


89


७) राजनीतिक दलीय क्षेत्र (00॥0८४ ?०-0८७)

विश्व के सभी देशों में प्रायः राजनीतिक दल की दलीय क्षेत्र विकसित
होता है । विकसित देशों में दो या चार राजनीतिक दल, राजनीतिक
दलीय क्षेत्र में क्रियाशील होते हैं ओर विकासोन्मख देश में दर्जन से
अधिक सौ की संख्या में राजनीतिक दल खड़ा होकर राजनीतिक क्षेत्र
क्रियाशील होते हैं । इस तरह अधिकतम राजनीतिक दल क्रियाशील होने
वाले देश में राजनीतिक अवस्था पूर्णरूप में अस्थिर होते हैं । राजनीतिक
दलों की संख्या जितनी अधिक होती है, अस्थिरता का अनुपात भी उसी
अनुसार बढ़ता जाता है । राजनीतिक स्थिति अस्थिर होने से सत्ता में
पहुँचने वाले राजनीतिक दल सत्ता संचालन का अवसर पाते ही
राज्यकोष को कमजोर बना कर दलीय कोष में धन जमा करते हैं । इस
तरह सत्तासीन द्वारा लूट होने पर सत्ता से बाहर रहनेवाले राजनीतिक
दल विरोध में उतरते हैं । राज्यसत्ता से भ्रष्ट राजनीतिक दल को
सत्ताच्युत करा कर दूसरा दल सत्ता में पहँँचता है । इस तरह सत्ता में
जाने का अधिकार राजनीतिक दल को सिर्फ होता है । इसलिए सत्ता में
जाने के लिए कई दल मिलकर आतुर रहते हैं ओर छोटे-छोटे विरोध पर
ऐसी सरकार भंग हो जाती है । इस तरह विकासोन्मुख देशों में
राजनीतिक दल का प्रयोग के रूप में सत्ता में आने-जाने से देश के
नीति-विधि निर्माण करने वाली निकाय राजनीतिक दलमुखी हो जाते हैं।
देश में नीचे स्‍तर से लेकर ऊपर स्तर तक छोटे और बड़े विकास कार्य
में अवरोध उत्पन्न होता है । आन्तरिक और बाह्य व्यापार में मन्‍्दी शुरु
हो जाता है और व्यापार क्षेत्र तहस-नहस हो जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय गैर
सरकारी संस्था प्रभावित होती, साथ ही संचार क्षेत्र देश की नीति तथा
आधार से मक्त होकर दूसरे के मुखपत्र के रूप में प्रस्तुत होते हैं । जो
चालाक राजनेता विभाजित होकर कई दलों का निर्माण कर देश चलाना
चाहते हैं, पर चला नहीं सकता । ऐसे दल क्रियाशील होने के बाद देश
का राजनीतिक क्षेत्र प्रदुषित होने लगते हैं । प्रदूषित राजनीतिक दलीय
क्षेत्र देश में भ्रष्टाचार बढ़ाने का काम करते हैं ।


90


भ्रष्टाचार के पृष्ठपोषक तत्वों को कोष्ठक में विभाजित करके कुछ इस
तरह देख सकते हैं-


भ्रष्टाचार


अस्थिर सरकार नीतिगत निर्णय करने वाला


राजनीतिक दलीय क्षेत्र


० ०


भ्रष्टाचार के पृष्ठपोषक के रूप में ऊपर कोष्ठक में जो सात क्षेत्र को
केन्द्रविन्दु के रूप में दिखाया गया है, वह राजनीतिक दलीय क्षेत्र है।
मूल विन्दु में केन्द्रित राजनीतिक दलीय क्षेत्र ही भ्रष्टाचार के मूल आधार
में स्थित है ।


हमारे पास ऊपर कोष्ठ में विभाजित १, २, ३, ४, ५, ६ और ७ अंग है।
चित्र में केन्द्रित ७ अंग ही प्रथम १ और २ को प्रभावित करते हुए
दिखार्य देते है। १+२८ ३ अर्थात्‌ ३८ ३+४+५+६८ १८ | ७-३८ ४ तक
में यह २८ होता है। २८ को ७ से भाग करने पर ४ अंक नतीजा आता
है । २८/७- ४ । यह ४ अंक व्यापार क्षेत्र को केन्द्र बनाता है। वैसे भी
व्यापार का अर्थ लाभदायी है । राजनीति दलीय क्षेत्र लाभ हानी के
सिद्धान्त में चलने पर १ और २ की अवस्था सूजना होती है, हम यह
समभ सकते हैं।


94


भ्रष्टविरोधी शास्त्र अध्ययन का उपागम


एण77०ग०ा 00 प९ छाएतए ए धा९0०77ए०ण० ९५


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अध्ययन के उपागम की विधि को विभिन्‍न कोण से
देखना पड़ेगा । प्राज्ञिक इतिहास के पृष्ठभूमि में श्रष्टविरोधी शास्त्र
अध्ययन का नवीन विषय है । इस विषय की उपयोगिता और महत्त्व के
बारे में विशेष अध्ययन की सामग्री इकट्ठा करना आवश्यक है | विषय
का उपागम निश्चित विषयगत अध्ययन का दरवाजा खोलता है । इसमें
भी भ्रष्टविरोधी शास्त्र सत्यता के विज्ञान के रूप में वर्तमान मानव
समाज में प्रस्तुत होना चाहता है इसलिए इसके अध्ययन को विभिन्‍न
कोण से गहराई के साथ विश्लेषण करना आवश्यक है । इस विषय को
हमने अभी जिस रूप में देखा है और विश्लेषण किया है, बाद में होने
वाला अध्ययन इसके विषय में विशेष अध्ययन कर समयानुकूल व्याख्या
करेगा । वर्तमान में इसके अध्ययन के उपागम को दो काल में विभक्त
करके देखना चाहिए-


क) परम्परावादी उपागम (ख) वर्तमान उपागम

(क) परम्परावादी उपागम (77गगा।णाबे १७ए०7/०१०॥)

परम्परावादी उपागम कहने से श्रष्टविरोधी क्षेत्र में क्रियाशील मूल्य
मान्यता, आधार और मानव-विकास के साथ को समभना होगा ।
इतिहास लेखन के पहले से ही भ्रष्टविरोधी नीति-नियम का पालना हुआ,
विकास हुआ और मानव समाज में स्थापित हुआ । इसी तरह लिखित
और अलिखित अवस्था में भी मानव आधार के साथ सम्बन्धित गुण और
अवगुण की व्याख्या और निर्णय वाली व्यवस्था भी भश्रष्टविरोधी क्षेत्र
मानव-विकास अभिन्‍न अंग है । ऐसे परम्परागत उपागम को निम्नरूप
से विभाजन कर के देख सकते हैं-

(१) ऐतिहासिक (२) दार्शनिक (३) धार्मिक तथा सांस्कृतिक (४)
व्यवहारिक तथा मनोवैज्ञानिक (५) कानूनी


(१) ऐतिहासिक (म्रांडाण्णटगी)


इतिहास लिखित रूप में प्रस्तुत होता है, साथ ही अलिखित रूप में भी
समाज प्रतिबिम्ब होता है । इतिहास पूर्वकार्य के विषय या घटना को


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प्रमाण के रूप में स्वीकार करता है। भ्रष्टविरोधी विषय को प्राचीन तथा
अर्वाचीन समय से ही मानव समाज-विकास को अंगीकार किया था और
वर्तमान तक अंगीकार किया है । सदाचार मानवीय गुण है, इसलिए
भ्रष्टाचार मानवीय अवगुण है । इतिहास मानव विकास के क्रम में
मानव-जीवन के साथ आए गुण या अवगुण का मूल्यांकन करता है और
इसे भविष्य के लिए मार्गदर्शक के रूप में निर्देशित भी करता है । विश्व
के पूर्वीय और पश्चिमी क्षेत्र में विकसित सभ्यता और व्यवहार को
इतिहास पहचानता है । भ्रष्टाचार सदैव पराजित होता है और सदाचार
सब दिन विजयी होता है । इसलिए श्रष्टविरोधी विषय को मानव सृष्टि
के साथ-साथ मनुष्य अंगीकार करता है । इतिहास के कालखण्ड में
भ्रष्टाचार का खुलकर विरोध हुआ है और सदाचार का समर्थन । इसलिए
इतिहास भ्रष्टविरोधी शास्त्र के विकास में मदद करता है।


(२) दार्शनिक (0॥050फं८ग)


ज्ञान और उसके अन्तरर्निहित सिद्धान्त के व्याख्या को दर्शन कहते हैं ।
कोई भी दर्शन, विचार के मूल सिद्धान्त व प्रकृति को व्यवस्थित कर
व्याख्या करता है और सत्य का रहस्य उद्घाटन करता है । दर्शन यानि
सभी ज्ञान का मूल । इसलिए दर्शन को सत्य का विज्ञान कहता है।
भ्रष्टाचार मानव और मानव समाज का कमजोर पक्ष है । इस कमजोर
पक्ष को बढ़ने नहीं देना चाहिए इस दृष्टिकोण को लेकर इसके विपक्ष में
अनेक तरह के विचार समय-समय पर आते रहे और ऐसे विचार मानव
गुण को सबल तथा सक्षम पक्ष को स्थापित करते गए । मानव समाज
के हित तथा विकास के लिए ऐसे दार्शनिक दृष्टिकोण विशिष्ट स्थान
रखता है । यह श्रष्टविरोधी शास्त्र के विकास के लिए भी समय-समय
पर दार्शनिक दृष्टिकोण द्वारा निर्देशित विचार तथा सिद्धान्त सही मार्ग
निर्देशन करता है।


(३) धार्मिक तथा सांस्कृतिक (रशांड्स्‍ांणा&5 भात 0प्राप्रा्व)
जीवन को समुचित तरीका से यापन करने की जीवन पद्धति ही धर्म है।


धर्म आत्मा और परमात्मा दोनों को आत्मसात्‌ करता है । विश्व में
मानव जीवन के साथ-साथ धर्म का भी जन्म हुआ है, मानव जीवन के
अभिन्‍न अंग के रूप में संचालित हुआ है। धर्म की परिभाषा में धार्मिक
सम्प्रदाय का उल्लेख होने के बाद भी धार्मिक सम्प्रदाय धर्म नहीं है ।


धर्म शाश्वत सत्य है, जो मानव जीवन से अलग नहीं हो सकते । इसी


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मानव धर्म को निरन्तरता देने की पद्धति ही संस्कृति है । धर्म और
संस्कृति अलग होने के बाद भी ये दोनों एक ही तत्व से संचालित है।
विश्व मानव समुदाय में विभिन्‍न धर्म तथा संस्कृति का प्रतिपादन हुआ
है । किंतु धर्म तथा संस्कृति का लक्ष्य मानव समुदाय के जीवन पद्धति
को सभ्य और सुसंस्कृति बनाना है | इसीलिए धर्म तथा संस्कृति व्यक्ति,
समुदाय तथा समाज को भ्रष्ट नहीं बना सकता । व्यक्ति, समुदाय तथा
समाज में भ्रष्टाचार बढ़ने से पहले उसके नियन्त्रण का उपाय तुरन्त
खोजकर समाज को स्वच्छ तथा विश्वासयुक्त समाज बनाने की कोशिश
करनी चाहिए । धर्म और संस्कृति हमेशा भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा
रहता है और यही उसका गुण है।


(४) व्यावहारिक तथा मनोविज्ञान (एछशाग्शंणफ्गे गात ए5ज्ता00व2ट८7)


मानवीय व्यवहार और मानवीय मनोविज्ञान को विधिशास्त्रीय दुष्टिकोण
से अलग तरह से देखने पर भी भ्रष्टविरोधी क्षेत्र के लिए इसे समावेश
करके देखना चाहिए । व्यवहार मनुष्य की प्रकृति है, इसी तरह संस्कार
और संस्कृति भी । मनुष्य का व्यवहार सकारात्मक और नकारात्मक
दोनों ही प्रकृति से संचालन होते हैं । जिस भी प्रवृत्ति से व्यवहार
संचालन होने के बाद भी भ्रष्टाचार को अंगीकार नहीं कर सकता
क्योंकि व्यवहारिक प्रवृत्ति का भ्रष्ट मनोवेग के साथ सम्बन्ध स्थापित
नहीं होता । साथ ही, मनोविज्ञान की शाश्वत प्रवृत्ति भी भ्रष्टाचार का
साथ नहीं देती । ये व्यवहार तथा प्रवृत्ति कृत्रिम होते हैं । इसलिए
मानवीय व्यवहार और मनोविज्ञान की दृष्टि हमेशा श्रष्टविरोधी
क्रियाकलाप पर होती है ।

(५) कानूनी (९४०)

नीति, सत्यता, व्यवहार अलिखित होता है और उसी नीति को
कार्यान्वयन करने के लिए कानून लिखित दस्तावेज के रूप में स्थापित
होता है । विश्व के प्रायः राष्ट्र में राज्य व्यवस्था संचालन करने की नीति
तथा व्यवहार को लिखित दस्तावेज तैयार कर लागू किया जाता है । ये
लिखित दस्तावेज ही कानून है । हजारों वर्ष पहले से नीति, सत्यता और
व्यवहार को सुसज्जित तरीका से लागू करने के लिए लिखित दस्तावेज
तैयार कर उसे कार्यान्वयन किया जाता रहा है । मानवीय सदगुण के
पक्ष में स्थापित कानून भ्रष्टाचार को नियन्त्रित स्थिति में रखने की


कु


अवस्था कायम करता है । सामाजिक न्याय के मान्य सिद्धान्त को


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दस्तावेज के रूप में कानून रक्षा करता है, जो सत्य के पक्ष में होता है
और असत्य के विपक्ष में । इसलिए भ्रष्टविरोधी सिद्धान्त का कानून रक्षा
करता आया है।

(ख) वर्तमान उपागम (?7९८5शा। १ए७ए/०४०॥)

स्वच्छ समाज के विकास के लिए जब भ्रष्टाचार जटिल समस्या के रूप
में स्थापित हो गई तब समाज के जिम्मेदार निकाय को इसके विरोध
और व्यवस्थित करने की आवश्यकता महसूस हुई । परम्परागत स्थिति
को कायम करते हुए वर्तमान युग की मांग के अनुसार श्रष्टविरोधी
उपागम की अधिक व्यवस्था कर श्रष्टाचारमुक्त समाज की रचना करने
में तत्परता दिखाई । इस परिप्रेक्ष में विभिन्‍न नीति तथा सिद्धान्त प्रयोग
के रूप में आए । ये प्रयोग विभिन्‍न देशों में किए गए फिर भी मुख्य
निम्न उपागम से स्थिति को निर्देशित करने का निर्णय किया । ये निम्न
हैं-
(१) संवैधानिक व्यवस्था (२) सही शासन विधि (३) समनन्‍्वयात्मक विधि (
४) अध्ययन तथा अध्यापन (५) प्रयोगात्मक पद्धति

(१) संवैधानिक व्यवस्था (एणा॥एा।णातवों ए/०शंडंणा)

वर्तमान समय में विश्व के सभी देशों में राज्य व्यवस्था संचालन करने
के लिए राजनीतिक पद्धति को लोकतान्त्रिक आधार में स्थापित किया है।
लोकतन्त्र का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, शक्ति पृथकीकरण का सिद्धान्त ।
शक्ति पृथकीकरण के सिद्धान्त के अनुसार कार्यपालिका , न्यायपालिका
और व्यवस्थापिका पूर्णरूप में स्वतन्त्र होना चाहिए । अर्थात्‌ एक को
दूसरे में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होना चाहिए । ऐसी व्यवस्था
में भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रियाशील रहनेवाली निकाय भी स्वतन्त्र और
स्वायत्त होना चाहिए । इसी सिद्धान्त के आधार पर निकाय को संविधान
के रूप में स्वीकार कर संविधान को ही उसके काम, कर्तव्य और
अधिकार सुनिश्चित करना चाहिए । तब कही भ्रष्टाचार के विरुद्ध
क्रियाशील होने वाली निकाय सबल, सक्षम और प्रभावकारी हो सकती
है । विश्व में कुछ देश है, जो इस सिद्धान्त को स्वीकार कर भ्रष्टाचार
विरोधी निकाय को देश के संविधान में व्यवस्थित किया है और कुछ ऐसे
देश है, जो इसे कार्यपालिका के दायित्व के रूप में कायम रखा है ।
राज्यव्यवस्था में कार्यपालिका ही मुख्य सत्ता संचालक होते हैं, ऐसे में
कार्यपालिका क्षेत्र ही भ्रष्टाचार का केन्द्र बनता है । इसलिए भ्रष्टाचार


जज


को कार्यापालिका क्षेत्र की जिम्मेदारी तथा दायित्व के भीतर न रख
संविधान के अंग के रूप में स्थापित करना चाहिए ।
(२) सही शासन विधि (60०१ 6०एश7भा८९)


किसी भी देश में संचालित शासन व्यवस्था सही होनी चाहिए । किन्तु
शासक अपनी शासन व्यवस्था को सबसे अच्छा बोलते है, जबकि शासन
से जो बाहर हैं, वो इस व्यवस्था को खराब बोलते हैं । इसी आधार पर
शासन करने वाले शासक पदच्युत होते हैं और नए शासक का जन्म
होता है । इस तरह अस्थिर राजनीति में भ्रष्टाचार के बढ़ने की
सम्भावना अत्यधिक रहती है । सत्ता और सत्ता से बाहर रहनेवाले अगर
देश में चल रहे शासन को सही बोलते हैं, तभी वह सही शासन होता
है । वर्तमान में सही शासन विधि राज्य व्यवस्था द्वारा अपनाने वाले
कानून का शासन, पारदर्शिता, सार्वजनिक दायित्व, सूचना का हक,
भ्रष्टाचार नियन्त्रण करने निकाय और कानून तथा स्थानीय स्वायत्त
शासन और विकेन्द्रीकरण जैसे सिद्धान्त पालन की अवस्था ही सही
शासन की व्यवस्था है | ऐसे सही शासन विधि से भ्रष्टाचार विरोधी
शास्त्र के सिद्धान्त को लागू करने में पूर्ण सहयोग प्राप्त होता है। इसी
तरह श्रष्टविरोधी शास्त्र के सिद्धान्त, विधि तथा पद्धति से चलने वाले
देश में सही शासन संचालन होता है । वर्तमान में भ्रष्टविरोधी शास्त्र
और सही शासन विधि एक दूसरे के पूरक के रूप में दिखाई देते हैं ।

(३) समन्वयात्मक विधि ((०००क॥ं॥१णा प्राश॥०१००४९)


समन्वयात्मक विधि का अर्थ है, एक को दूसरे का महत्त्व और अस्तित्व
स्वीकार करते हुए विषय में समन्वय स्थापित करते हुए नई शक्ति का
प्राईभाव करना । जैसे संस्कृति जीव पद्धति के साथ सम्बद्ध होता है, इसी
तरह समनन्‍्वयात्मक विधि से भी वर्तमान समाज में संचालन की
जिम्मेदारी लेने वाले सभी निकाय को जोड़ कर चल सकता है ।
भ्रष्टविरोधी कार्य के लिए ऊपर लिखित संविधान, सही शासन,
प्रयोगात्मक पद्धति और अध्ययन तथा अध्यापन के अतिरिक्त अन्य बहुत
सारे विषय हैं । इन सभी विषयों को समन्वयात्मक तरीका से
भ्रष्टविरोधी कार्य में संलग्न कराने पर ही समन्वयात्मक विधि सार्थक
माना जा सकता है| यह समन्वयात्मक विधि भ्रष्टविरोधी शास्त्र को
ऊर्जा प्रदान करता है | यह विधि प्रभावकारी रूप में काम कर सके,





इसके लिए श्रष्टविरोधी सभी तत्वों को सक्रिय रूप में क्रियाशील होते


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हुए हुए समनन्‍्वयात्मक विधि में समाहित होना होगा । इस तरह से ही
समन्वयात्मक विधि सशक्त रूप में क्रियाशील हो सकता है।


(४) अध्ययन तथा अध्यापन (९३०ांवरड्ट भात ॥ ,९४०पं।)

अध्ययन और अध्यापन ये दो शब्द विपरीत शब्द है, किन्तु ये एक धर्म
के हैं इसलिए इनके नतीजे भी एक ही होते हैं । अध्ययन का अर्थ ज्ञान
हासिल करना है और अध्यापन का अर्थ अर्जित ज्ञान का विकास करना
है अर्थात्‌ ज्ञान का भण्डार करना है। लिखित दस्तावेज तैयार नहीं होने
की अवस्था में भी श्रुतिपरम्परा के अनुसार ज्ञान का विकास ही माना
जाता है। किन्तु वर्तमान युग में ज्ञान तथा विज्ञान लिखित दस्तावेज के
रूप में आने के बाद प्राज्ञिक विकास हुआ है।

किसी भी नवीन विषय में ज्ञान का निरन्तर अध्ययन से ही लक्ष्य हासिल
हो सकता है। भ्रष्टविरोधी विषय सामाजिक समस्या होने के कारण इस
विषय को अध्ययन तथा अध्यापन में समावेश करना और अधिक से
अधिक व्यक्ति को इस अध्ययन में शामिल कराना चाहिए । नीचे स्तर से
ही इस विषय के प्रति आकषण बढ़ाना होगा किन्तु पाठ्यक्रम के अभाव
की वजह से निचले स्तर की कक्षा में अध्ययन नहीं कराया जा सकता ।
इसलिए विश्व के सभी विश्वविद्यालयों में इस विषय में स्नातकोत्तर तह
में कक्षा संचालन करना चाहिए । ऐसे कक्षा संचालन से पहले अर्धविज्ञ
और विज्ञ तैयार करने के लिए मानविकी विभाग में सभी संकाय के
स्नातककोत्तर के छात्रों को इस विषय में शोधकार्य करा कर जनशक्ति
उत्पादन किया जा सकता है | इसी तरह इन अर्धविज्ञों को विद्यावारिधि
कराने से विज्ञ तथा दक्ष जनशक्ति का उत्पादन किया जा सकता है।
ऐसे विज्ञ जनशक्ति से प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक भ्रष्टविरोधी
विषय में पाठयसामग्री तैयार करवा कर छात्रों को प्राथमिक स्तर से
भ्रष्टाचार विषय की जानकारी दिला सकते हैं । इस तरह अध्ययन तथा
अध्यापन का कार्य क्षेत्र विस्तार कर भ्रष्टविरोधी शास्त्र को सहयोग किया
जा सकता है और इसका अध्ययन अध्यापन से इसे विश्वव्यापी रूप में
विकसित किया जा सकता है।

(५) प्रयोगात्मक पद्धति (2/बलांट्बा |/शा०१००९९)

प्रयोगात्मक पद्धति का तात्पर्य सिर्फ प्राकृतिक विज्ञान को अपनाने वाली
पद्धति से नहीं है । यह प्रयोगात्मक पद्धति सामाजिक विज्ञान के साथ
सम्बन्धित अन्य शास्त्रों में भी प्रयोग कर सकते हैं । प्रयोगशाला में
परीक्षण करके वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालने की पद्धति ही प्रयोगात्मक


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उपागम है । किसी भी समाजशास्त्र का प्रयोगशला उस देश का समाज
होता है। किन्तु भ्रष्टविरोधी शास्त्र का प्रयोगशाला सिर्फ समाज ही नहीं
बल्कि उस देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के
अतिरिक्त देश के शासन व्यवस्था के साथ सम्बद्ध राजनीतिक दल के
साथ ही शासन व्यवस्था के साथ जुड़े सभी निकाय है, जहाँ भ्रष्टविरोधी
शास्त्र का विधिनुसार निरीक्षण, परीक्षण और अनुमगन कर भ्रष्टाचार का
मापन कर सकते हैं और निर्णय विधि से भ्रष्टाचार का मापन कर सकते
है और निष्कर्ष में पहँच कर उसके परिणाम को प्रमाणित कर सकते हैं।
प्रयोगात्मक पद्धति में अपनाने वाले निरीक्षण, परीक्षण, अनुगमन और
निर्णयविधि को भ्रष्टाचार की प्रकृति और आकार के अनुसार निश्चित
करना होता है । इस तरह प्रयोगात्मक विधि निश्चित होकर लागू होने
की अवस्था में भ्रष्टाचार को पहचान कर भ्रष्टाचार बढ़ने की प्रकृति को
रोका या नियन्त्रित किया जा सकता है।


चित्रांकित स्थिति और प्रभाव


धार्मिक तथा
सांस्कृतिक


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ऊपर दिए हुए चित्र को इस तरह विभाजित करके देख सकते हैं । एक
दूसरे के साथ रेखा और दिशा कायम कर के पूर्ण रूप में आकर्षित एवं
प्रभावित दिखाई देते हैं ।


वर्तमान परम्परागत

१) संविधान १) ऐतिहासिक

२) सही शासन विधि २) दार्शनिक

३) समनन्‍्वयात्मक विधि ३) धार्मिक तथा सांस्कृतिक

४) अध्ययन तथा अध्यापन ४) व्यवहारिक तथा मनोवैज्ञानिक
५) प्रयोगात्मक पद्धति ५) कानून


इसतरह १८५, २८४, ३८३, ४-२ और ५-१ समानान्तर रूप में स्थित
होने पर भी एक दूसरे में पूर्ण रूप में प्रभावित और समाहित हैं । यही
वैज्ञानिक तथ्य है, प्रमाणिक सत्य है । इसलिए कल और आज के
उपागम में ज्यादा तात्विक अन्तर नहीं है । केवल समय ने विषयगत
नाम दिया है किन्तु कार्य सिद्धान्त में अन्तर नहीं है । इससे स्पष्ट होता
है कि परम्परागत उपागम के मार्मनिर्देशन में ही वर्तमान उपागम
निश्चित हुआ है । वर्तमान काल के उपागम के आधार में पूर्वस्थित


निश्चित हो कर चलता है और पम्परागत आधार में वर्तमान का
उपागम निश्चित हुआ है ।


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समाज की बनावट और वर्ग परिवर्तन


छात्र एणा 50०ठंटए गाव (गाए९ एण 500॑ंगों (355


विश्व के सभी देशों में भिन्‍न-भिन्‍न तरह के तह से समाज संगठित
होता है । एक देश का समाज दूसरे से भिन्‍न होने के बाद भी मानव
समाज की वास्तविक बनावट लगभग एक जैसी होती हैं | विकसित देश
के समाज की बनावट और विकासोन्मुख देश के समाज की बनावट भी
एक जैसी होती है । किसी भी समाज की बनावट उस स्थान की
संस्कृति से भी प्रभावित होती है । समाज की बनावट को प्रभावित करने
वाले दूसरे तत्व भू-गोल और प्राकृतिक वातावरण भी है । समाज की
बनावट की प्रकृति अलग होने पर भी मानव स्वभाव, प्रवुत्ति और
व्यवहार समान होने के कारण समाज को वर्गीकरण करके देखने पर
एक जैसा दिखता है । जिस तरह हाथ की ऊंगली एक जैसी नहीं होती
किन्तु किसी चीज को पकड़ने या किसी काम को करने में ये एक साथ
मिलकर काम करते हैं, उसी तरह मानव समाज के वर्ग निर्माण में भी
एक आपस में मिलकर चलने वाली व्यवस्था से लम्बे समय तक चल
सकती है । यह व्यवस्था आगे तक कायम रहने का अनुमान हम कर
सकते हैं । विकसित देश हों या विकासोन्मुख देश सभी देशों की
सामाजिक बनावट एक तरह की होती है । ऐसे समाज को सामान्यतया
निम्न तरीके से वर्गीकृत करके देख सकते हैं-

(१) उच्च वर्ग (२) मध्यम वर्ग (३) निम्न वर्ग

मानव समाज की सृष्टि के साथ-साथ वर्गीकृत सामाजिक बनावट को
एक ही वर्ग में रूपान्तरण नहीं कर सकते ।

(१) उच्च वर्ग (मांश्ा 0955)


समाज में प्राप्त सभी तरह की सुविधा प्राप्त करने वाले शक्तिशाली
समूह को उच्च वर्ग माना जाता है । उच्च वर्ग ही समाज में संस्कृति


00


और धर्म का संरक्षण, आर्थिक विकास, सामाजिक विकास और समाज
संचालन के अन्य आवश्यक पूर्वाधार का विकास करने के लिए होता है।
यह समाज के सर्वपक्षीय विकास में अग्रणी भूमिका भी निर्वाह करता है
]

(२) मध्यम वर्ग (शातता९ 2955)

समाज की उन्‍नति और अवनति के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह
मध्यम वर्ग करता है | यह वर्ग उच्च और निम्न के बीच में होता है
और इसलिए यह उच्च और निम्न वर्ग को जोड़ने के लिए कड़ी का
काम करता है | इसलिए भी यह वर्ग समाज विकास के लिए जिम्मेदार
होता है । यह वर्ग शिक्षित होता है, जानकार होता है और चेतनशील भी
होता है । इसी वर्ग के व्यक्ति अच्छे और बुरे कार्य में लगे होते हैं ।
छोटी अवधि में सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन करना या यथास्थिति
में संचालन करने और कराने का कार्य भी इस वर्ग के हाथ में होता है ।
इस वर्ग के सदस्यों में विद्वान, चिन्तक, समाज सुधारक, विकास प्रेमी
और राष्ट्रवादी होते हैं | देश की राजनीति में भी क्रियाशील हैं और
अपने वर्ग, देश की समस्याओं का समाधान करते हुए सत्ता के नजदीक
भी पहुँचते हैं | प्रायः इस वर्ग के रहने की जगह सुविधायुक्त नगर में
केन्द्रित होता है ।

(३) निम्न वर्ग (0४९ ट955)

निम्न वर्ग का तात्पर्य समाज के निचले स्तर में रहनेवाले समुदाय से है ।


इनका जीवन श्रम के आधार पर चलता है । यह वर्ग गरीब होता है,
अर्थात्‌ आर्थिक रूप से कमजोर होता है, फिर भी जिन्दा रहता है ।
कभी-कभी जिन्दा रहने के लिए आवश्यक वस्तु से भी ये बंचित होते हैं ।
फिर भी जीवनयापन करते हैं । समाज के कमजोर समुदाय में रहनेवाला
यह वर्ग अशिक्षित, बेरोजगार, असक्षम ओर निरीह होता है । मजदूरी


दि


और कृषिकार्य करनेवाला यह वर्ग जीवनयापन के आधारभूत


आवश्यकता के अभाव में जीता है । इसलिए यह वर्ग गरीब कहलाता है
फिर भी समाज के अभिन्‍न अंग के रूप में स्थापित होता है ।


04


प्राचीनकाल से ही समाज ण्आ में विभाजित है-


समाज
्च्च्च्च्च्ल्ल्च्च्च््नच्च्च्च्चच्च्च्च्च


का पा


ऊपर चित्र में दिखाए गए समाज की बनावट प्राचीन काल से चली आ
रही है । यह स्वाभाविक समाज की बनावट है । इस वर्गीय व्यवस्था में
परिवर्तन नहीं हो सकता अगर किया भी जाय तो लम्बे समय तक नहीं
टिक सकता है | जैसे शरीर स्वचालित होने के लिए सिर, शरीर और
हाथपैर की आवश्यकता पड़ती है, इसी तरह समाजरूपी शरीर संचालन
होने के लिए तीन अंग आवश्यक पड़ता है । किन्तु, भ्रष्टाचारयुक्त
समाज में ये तीन वर्ग से बढ़ते हुए चार, पाँच और छ: वर्ग तक भी
वर्गीकरण हो सकता है । विकसित या विकासोन्मुख दोनों तरह के देशों
में भ्रष्टाचार होने की अवस्था में ही भ्रष्टाचार के अनुपात में ही वर्ग
बढ़ने का कार्य निश्चित होता है।


भ्रष्टाचार बढ़ने के बाद समाज के बनावट की असाधारण अवस्था का
ग्राफ-


-्पआः ' । समस्या का
विकासक्रम $ ! । बढ़ता
# ; परिमाण


साधारण


अवस्था |


४ #
अप्राकृतिक
बनावट


02


ऊपर के ग्राफ से जिस अनुपात में समाज में भ्रष्टाचार बढ़ता है, उसी
अनुसार से सिर्फ वर्ग नहीं बढ़ता बल्कि समस्याएँ भी उसी अनुपात में
बढ़ता है । यह प्रमाणित होता है । समस्या का प्रतिशत जितना बढ़ता
है, उस समाज के विकास की गति भी उसी अनुपात में रुक जाती है।
समाज में भ्रष्टाचार बढ़ने के बाद क्रमिक रूप में भ्रष्ट समुदाय संगठित
होते हुए समाज में अनावश्यक वर्ग का विकास होता है, यह हमने
ऊपर अध्ययन किया । विकसित देशों तथा विकासोन्मुख देशों में किस
प्रकार से सामाजिक बनावट परिवर्तन होता है, इस पर भी विष्वार
करना चाहिए । जिस देश में भ्रष्टाचार बढ़ता है, उस देश में मध्यम वर्ग
विभाजित होता है । सामान्यतः मध्यम वर्ग दो वर्ग में विभाजित होते
जाते हैं-

(१) उच्च मध्यम वर्ग (२) निम्न मध्यम वर्ग

(१) उच्च मध्यम वर्ग (7फ्छशः प्रांतता९ 0955)


उच्च मध्यम वर्ग का तात्पर्य मध्यम वर्ग तो है ही किन्तु उच्च वर्ग के
मुकाबले में वह भी अपना रहन-सहन का स्तर बढ़ाता है और सुविधा
का उपयोग भी करने लगता है | सरकारी उच्च पदाधिकारी, राजनीतिक
नेता, व्यापारी, उद्योगी और भ्रष्टाचारजन्य कार्य को बढ़ाया देकर समाज
में भ्रष्टाचार का प्रदूषण फैलाने वाले व्यक्ति या समुदाय ही उच्च मध्यम
वर्ग में स्तरोन्‍नति करते हैं । अर्थात्‌ भ्रष्ट पदाधिकारी तथा नेता, कर
चुराने वाले व्यापारी तथा उद्योगी, विदेशी के साथ सम्बन्ध रख कर
सेवामुखी कार्य संचालन करने वाले अधिकारकर्मी और संचार के साथ
सम्बन्धित व्यक्ति ही उच्च मध्यम वर्ग में परिवर्तित होते हैं । इस वर्ग
का राज्यसत्ता के साथ निकटतम सम्बन्ध होता है और राज्यसत्ता
परिवर्तन करने में इनका प्रमुख हाथ रहता है । विश्व के परिप्रेक्ष में
समाज की बनावट का अध्ययन करने से यह पता चलता है कि उच्च
मध्यम वर्ग को स्थापित हुए ज्यादा समय नहीं हुआ है । विकसित एवं
विकासोन्मुख दोनों देशों में ये उच्च मध्यम वर्ग ने वर्तमान समाज में
मजबूती ढंग से प्रभाव जमा लिया है । यह वर्ग अस्वाभाविक रूप में
उत्पन्न होने के कारण इसकी स्थिरता कायम नहीं हुई है और इसका
प्राकृतिक स्वभाव भी कायम नहीं हो सका है । क्‍योंकि यह उच्च वर्ग
और मध्यम वर्ग के बीच में स्थापित होना चाहता है इसलिए इसका
प्राकृतिक स्वभाव कायम नहीं हो पाया है। वर्तमान में उच्च मध्यम वर्ग


03


चलायमान है, इसकी स्थिरता कायम नहीं होने तक इसका अस्तित्व
समाज में कैसे कायम होगा, कहा नहीं जा सकता है | जो भी हो, इस
वर्ग ने विकसित देश में अच्छा दिखने के बाद भी विकासोन्मुख देश में
कुछ समस्या उत्पन्न किया है । स्पष्ट रूप में यही कहना है कि अच्छी
बात कम हुई है और समस्याएँ अधिक उत्पन्न हुई है । इस नवनिर्मित
उच्च वर्ग को नियन्त्रित रूप में संचालित करने के लिए और इसके
आकार-प्रकार को निश्चित करने के लिए श्रष्टविरोधी शास्त्र प्रभावकारी
भूमिका निर्वाह कर सकता है।

(२) निम्न मध्यम वर्ग (,0७0+ प्रांतता€ (0४5७)


यह भी मध्यम वर्ग ही है, जो प्राचीन समय से ही समाज की बनावट के
मध्यम बिन्दु में स्थित था । इस जिम्मेदार मध्यम वर्ग को निम्न मध्यम
वर्ग इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसी वर्ग से विभाजित होकर उच्च मध्यम
वर्ग समाज में स्थापित हुआ है | इसलिए इसे निम्न मध्यम वर्ग कहा
गया है। यह वर्ग स्वभाविक रूप में स्थापित वर्ग है इसलिए इस वर्ग में
मानवीय सम्पूर्ण सदगुण विद्यमान होता है । इसलिए यह वर्ग समाज
विकास के लिए जिम्मेदार साबित हुआ है । इस वर्ग में सक्षम,
ईमानदार, समाज और राष्ट्रहित के लिए क्रियाशील लोग होते हैं इसलिए
इसकी जिम्मेदार कम नहीं हो सकती ।

मध्यम वर्ग के दो वर्ग में विभाजित होने के मूल में भ्रष्टाचार है। सभी
क्षेत्र में भ्रष्टाचार शुरु होने के कारण श्रष्टाचारजन्य कार्य में संलग्न
व्यक्ति या समूह का आर्थिक पक्ष मजबूत हुआ । आर्थिक सबलता के
कारण इन व्यक्ति या समूह का मानसिक पक्ष भी मजबूत होता गया,
जिसके फलस्वरूप महत्वाकांक्षी समुदाय का जन्म हुआ । इस वर्ग का
अनुकरण करने वाले मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के सदस्य भी
इसी वर्ग में शामिल हो गए, जिसके कारण समाज में सत्य से अधिक
अवसर खोजने में व्यक्ति या समुदाय आकर्षित होने लगे ।

वर्तमान सामाजिक बनावट श्रष्टविरोधी शास्त्र की दृष्टिकोण में-


समाज की बनावट और वर्ग का अन्तर सम्बन्ध


04


कक) वर्ग भ्रष्टाचारविरोधी
ट शास्त्र
निम्न मध्यम वर्ग



निम्न वर्ग


समाज की बनावट में भ्रष्ट वर्ग के अन्तरसम्बन्ध को ऊपर दिखाया
गया है । मध्यम वर्ग विभाजित होकर उच्च मध्यम वर्ग कायम हुआ है।
यह उच्च मध्यम वर्ग उच्च वर्ग की तरफ आकर्षित होता है । इसी तरह
निम्न मध्यम वर्ग निम्न वर्ग अर्थात्‌ गरीब वर्ग में आकर्षित होता है ।
भ्रष्ट वर्ग और भश्रष्टविरोधी शास्त्र विपरीत दिशा में रहते हैं । दोनों
मध्यम वर्ग को लक्षित करके अपना-अपना प्रभाव खोजना चाहते हैं । ये
विपरीत दिशा में रहने वाले भ्रष्ट वर्ग और श्रष्टविरोधी शास्त्र में से कौन
सा तत्व ज्यादा प्रभावकारी कार्य कर सकता है, समाज की अवस्था उसी
अनुसार परिवर्तन होना निश्चित है | ऐसे अन्तर सम्बन्ध विकासोन्मुख
देश के समाज को कैसे प्रभावित करते हैं, उस पर एक नजर -
विकासोन्मुख देश में समाज की बनावट


05


निम्नमध्यम वर्ग


हक

उपरोक्त चित्र में भ्रष्ट वर्ग मध्यम वर्ग का अतिक्रमण कर मध्यम वर्ग में
विभाजित करने में समर्थ है, इसके प्रतिक्रिया स्वरूप निम्न वर्ग (गरीब)
से अभावग्रस्त होते हुए अति निम्न वर्ग अर्थात्‌ अति गरीब वर्ग की
उत्पत्ति हुई है । यह वर्ग ऐसा वर्ग है, जो जीवन की मूल आवश्यकता
रोटी, कपड़ा और मकान के अभाव में जीता है । जब यह आवश्यकता
उनकी पूरी नहीं होती तो ये विद्रोह करते हैं और इससे समाज
समस्याग्रस्त होने लगता है।

वर्तमान युग में भी विकासोन्मुख देशों की सामाजिक बनावट में यह वर्ग
मानव के लए अभिशाप है। यह अवस्था भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है।


इसलिए विकासोन्मुख देशों में भ्रष्टविरोधी शास्त्र का प्रभाव अतिशीघ्र
डालने के लिए अति गरीब वर्ग को उत्पन्न होने से रोकना होगा ।


इसतरह भ्रष्टाचार वर्ग उत्पन्न करने के साथ ही गुन्डा समूह अर्थात्‌
माफिया को भी उत्पन्न करता है । विकासोन्मुख देशों में नगरक्षेत्र, देश
का सीमाक्षेत्र और मुख्य नाका में गुन्डा समूह का बोलवाला होता है।
गुन्डा समूह के सक्रिय होने पर क्षेत्र में देश का कानून निस्तेज होता


(ः


चला जाता है । माफिया प्रवृत्ति का बीजारोपण यूरोपीय देशों में हुई है ।


>>


06


इसतरह युरोप के विभिन्‍न देशों से यह प्रवृत्ति विश्व के सभी
विकासोन्मुख देशों में पहुँच कर अपना प्रभाव जमा चुकी है । यह वर्ग
अराजकतत्व, अराजनीतिक नेता को जन्म देता है और वो नेता इनके
संरक्षक होते हैं । वर्तमान में विकासोन्मुख देशों में पुरानी सामाजिक
संरचना ध्वस्त होकर नई संरचना तैयार हुई है और इसकी वजह से
विकासोन्मुख देशों को विभिन्‍न सामाजिक समस्या का मुकाबला करना
पड़ता है । इस तरह समाज में वर्ग विभाजन होकर भिन्‍न अस्तित्व का
वर्ग तैयार होता है जो समाज के विकास के लिए बाधक होते हैं ।
इसलिए वर्ग परिवर्तन होने और नया वर्ग स्थापित होने वाले कार्य को
रोकना चाहिए | इस समस्या का समाधान भ्रष्टविरोधी शास्त्र कर सकता
है, यह विश्वास है । यह अस्वाभाविक तरीका से निर्माण हुए वर्ग को
स्वाभाविक रूप से राह से हटा सकता है।

देश के भूगोल, भूराजनीतिक अवस्स्था, प्राकृतिक सम्पदा तथा
राजनीतिक नेतृत्व की आड़ में समाज वर्गीकृत होकर भी संगठित हुआ
है । उच्च वर्ग २ प्रतिशत से ५ प्रतिशत और निम्न वर्ग ३५ प्रतिशत से
ऊपर भी हो सकता है । किन्तु अनुमान कीजिए और उच्च वर्ग १५
प्रतिशत और निम्न वर्ग १५ प्रतिशत वाले सामाजिक बनावट को चित्र


3


में देखें-


स्वाभाविक बनोट अस्वाभाविक गठन


उच्चमध्यम वर्ग
उच्च वर्ग १५ %


हर नि मक


.. अतिनिम्न वर्ग


07


ऊपर का चित्र बताता है कि समाज के स्वभाविक बनावट के भीतर
सन्तुलित समाज संगठित होकर रहता है। १५४+७०%+१५%८ १००५,
ऐसे सनन्‍्तुलित समाज के भीरत उच्च वर्ग की और निम्न वर्ग की संख्या
घटाते हुए आदर्श समाज की स्थापना करना ही आज के प्रजातान्त्रिक
युग की मांग है । इस तरह मध्यम वर्ग के बाहल्य वाले समाज का
निर्माण करना चाहिए। समाज की बनावट और गठबन्धन में विभेद होने
से समस्या उत्पन्न होती है । चित्र में समाज की स्वभाविक बनावट
बाहर जाकर अतिरिक्त वर्ग निर्माण करता है । चिकित्सा विज्ञान में ऐसे
अस्वाभाविक निर्माण वाले पदार्थ को ट्यूमर कहते हैं, जिसे काटकर
फेंकने से शरीर स्वस्थ होता है । यहाँ भी विकसोन्मुख देशों में समाज
की स्वभाविक बनावट के घेरे के बाहर अतिरिक्त वर्ग का निर्माण होता
है। ऐसे वर्ग को भ्रष्ट विरोधी शास्त्र की नीति तथा सिद्धान्त की आड़ में
समाप्त कर समाज के स्वभाविक बनावट की रक्षा कर सकते हैं ।
क्योंकि अति निम्न वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग समाज में द्वन्द्द, अन्याय,
अत्याचार, दुराचार और भ्रष्टाचार जैसे मानवीय शत्रु का संरक्षण करते
हैं । इसलिए विकासोन्मुख देशों में अस्वाभाविक रूप में निर्माण होने
वाले अतिरिक्त वर्ग का उपचार करने वाले विधि भश्रष्टविरोधी शास्त्र में
विद्यमान हैं ।


08


भ्रष्टाचारविरुद्ध शास्त्र का विकासक्रम


70९०एशेक््‌णशा 850९07९$ ए /ध्रांट07फ्ञांणा


भ्रष्टाचार के विकास क्रम को समभने के लिए इसकी उत्पत्ति से लेकर
गन्तव्य बिन्द तक के क्रमिक विकास को समभना होगा । इसकी
आवश्यकता से लेकर इसमें किस-किस अवस्था में परिवर्तन होता गया
है और इसके स्वभाविक परिवर्तन को मनन करते हुए क्रमशः इसके
विकसित रूप का विश्लेषण और व्याख्या करते हुए क्रमिक विकास को
स्वीकार करना होगा । किसी भी विषय या योजना का विकास अनायास
नहीं हो सकता । विषय या योजना का विकास क्रमिक रूप में होता है ।
इसी तरह भ्रष्टाचार विरुद्ध का विकास भी क्रमिक रूप में हुआ है ।
इसके विकासक्रम को निम्न रूप से देख सकते हैं-
१) भ्रष्टविरोधी विषय में प्राज्ञिक बहस
२) उच्च स्तर के विद्यार्थी द्वारा शोध कार्य
३) विषयगत पहचान तथा विश्लेषण

) स्नातकोत्तर स्तर पर पठन-पाठन की तैयारी

) भ्रष्टविरोधी शास्त्र की पहचान

) सभी स्तर के पाठ्यपस्तक की तैयारी
७) विज्ञ जनशक्ति का निर्माण
८) राज्य व्यवस्था के क्षेत्र में नीति तथा विधि निर्माण
९) भ्रष्टाचार नियन्त्रित समाज की सृजना
१) भ्रष्टविरोधी विषय में प्राज्ञेक बहस (53९८०१शारंट तरल गांट _ गाते


तवांडता5$डांंणा ता भां०07फएएस्‍णा)

जिस समाज में भ्रष्टाचार व्याप्त होता है, वहां भ्रष्टाचारजन्य कार्य से
देश, समाज ओर राष्ट्र की उन्‍नति नहीं हो सकती । सभी क्षेत्र की
उन्नति रुकने से बाधा व्यवधान होने से अविश्वास की स्थिति बनती है।
अविश्वास की परिस्थिति में अवसरवाद का जन्म होता है और यह एक
ऐसी गेर जिम्मेदार जमात को पेदा करती है, जो समाज में सामाजिक,
आर्थिक और राजनीतिक संकट पैदा करता है । इस अवस्था में बौद्धिक


क्षेत्र आन्दोलित होता है और अपनी जिम्मेदारी महसस करता है ।
बोद्धिक वर्ग की चिन्ता उन्हें देश और समाज के लिए कछ करने हेत


)
)


09


प्रोत्साहित करता है और तभी इस अवस्था से राष्ट्र को निकालने के
प्रयास शुरु होते हैं । यही प्रयास प्राज्ञिक चिन्तन है, बहस और निर्णय है।
इस तरह भ्रष्टाचार विरुद्ध के विषय में क्रियाशील होने से प्राज्ञिक बहस
शुरु होती है और यही प्रारम्भिक अवस्था है । गन्तव्य निर्णय करने का
यही प्रारम्भिक विन्दु भी है।

२) उच्च स्तर के विद्यार्थी द्वारा शोधकार्य कराना (२९६९३/ला ०7८४४
ग़ाशाश' ॥९एशे बाए0शा5)


भ्रष्टाचार विरुद्ध जब प्राज्ञिक बहस होती है तो इस पर अनुसन्धान की
आवश्यकता महसूस होती है । इसी अनुसार प्राज्ञिक शोध कार्य करने से
इस विषय को गम्भीरता से पहचान कर सूक्ष्म रूप से अध्ययन की
अवस्था सृजित होती है । माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक विद्यालय के
विद्यार्थी से इस गहन विषय में शोध कार्य सम्भव नहीं है । उच्च स्तर
के अध्ययन में ही यह सम्भव है । इसलिए स्नातकोत्तर के छात्रों से इसमें
शोधकार्य कराना चाहिए । इस विषय को सामाजिक तथा मानविकी
संकाय सम्बन्धित विषय द्वारा शोध कार्य कराया जा सकता है, जैसे-
राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, व्यवस्थापन, जनप्रशासन,
स्थानीय विकासशास्त्र, पत्रकारिता तथा कानून आदि विषय में
स्नातकोत्तर में अध्ययनरत विद्यार्थियों द्वारा भ्रष्टाचार विरुद्ध के विषय को
मूल विषय बनाकर शोधकार्य करना और कराना चाहिए।

३) विषयगत पहचान तथा विश्लेषण ([ठशाएन्‍ट्गांगा धात ग्ा्ेए॒ंड रण
5फं)]९ठत ग्राधाश)

शोधकार्य के द्वारा विषषयगत पहचान और विश्लेषण करके श्रष्टविरोधी
शास्त्र को अन्य विषयों के साथ सम्बद्ध करने का कार्य होता है । जिस-
जिस में पूर्णता नहीं मिली है, उस विषय का विषयगत पहचान कर तथा
विश्लेषण कर पूर्णता देने का काम भी यह करता है | विषय की ठीक-
ठीक पहचान और विषय का विश्लेषण इसके विकास के लिए आवश्यक
तत्व का बोध करता है।

४) स्नातकोत्तर में पठन-पाठन की तैयारी (?7९एगाबांणा (० छात्रा (९
ड्त ग्रातरर ताजगोाणा ए ए०5 ४790८ ।९५९)

विषयगत पहचान और अन्य पठन-पाठन की तैयारी होनी चाहिए ।
पाठ्यक्रम की कमी के कारण विद्यालय स्तर में इसकी पढ़ाई सम्भव
नहीं है परन्तु विश्वविद्यालय स्तर पर यह सम्भव है। क्‍योंकि विषयगत


०» से


पहचान ही अन्य विषयों के साथ सम्बन्धन स्थापना है । भ्रष्टाचार


0


समाज में एक विकृति है । इसलिए यह सामाजिक समस्या है । समाज
के विकास और उत्थान के साथ सम्बन्ध रखने वो सभी पठन-पाठन के
विषय के साथ इसका निकटम सम्बन्ध कायम होता है । इसी सूत्र के
आधार में सम्बन्धित विषय को इस विषय के साथ जोड़ कर विषय
तैयार कर उच्च कक्षा में संचालित किया जा सकता है । अन्य विषय
निचले स्तर से शुरु होते हैं, जबकि यह विषय ऊपरी तह से शुरु होता
है | क्योंकि यह विषय नया है और प्राज्ञिक इतिहास में उपस्थित दर्ज
करा रहा है।

५) भ्रष्टविरोधी शास्त्र की पहचान (व्रा/०तालांगा ्ण ग्रापट्णफएफ़ञांणा
5ठ5शाट0

भ्रष्टाचार सामाजिक रोग है । इसलिए इसका निदान भी सम्भव है । रोग
के निदान के लिए औषधि की आवश्यकता पड़ती है । इस सन्दर्भ में
भ्रष्टाचार नियन्त्रण करने की नीति, विधि, पद्धति और सिद्धान्त ही औषधि
हैं । जिसके आधार पर अनुसंधान, विश्लेषण और व्याख्या के द्वारा जो
तत्वों का समूह तैयार होता है, वही भ्रष्टविरोधी शास्त्र है । भ्रष्टविरोधी
शास्त्र अर्थात्‌ भ्रष्टाचार विरुद्ध का विज्ञान । भ्रष्टचार विरुद्ध के विज्ञान
की पहचान अभ्रष्टविरोधी शास्त्र कराता है । यह नया दर्शन विश्व के
मानव समाज में फैले इस भ्रष्टाचार के जड़ को काट सकता है और
इसे निर्मल कर सकता है । भ्रष्टाचाररूपी रोग से श्रष्टविरोधी शास्त्र
छुटकारा दिला सकने में सक्षम है।

६) सभी स्तर के पाद्यपुस्तक की तैयारी (ए#छुभाबांणा ० फ०णछ
007 2 ]९ए९७)

प्राथमिक विद्यालय से माध्यमिक और उच्च स्तर के महाविद्यालय तक
के लिए श्रष्टविरोधी विषय के पठन-पाठन के लिए पाठ्यपुस्तक तैयार
नहीं होने से विद्यार्थी के बीच इसकी पहचान स्थापित नहीं हो सकती ।
आवश्यकतानुसार विज्ञों के द्वारा पाठ्यपुस्तक तैयार करने की
आवश्यकता है और समय-समय पर उसमें परिमार्जन की भी
आवश्यकता है । भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अध्ययन से समाज में व्याप्त इस
रोग से मुक्ति मिल सकती है और एक भ्रष्टाचारमुक्त समाज की स्थापना
हो सकती है । इसलिए निचले स्तर से ही पाठ्यक्रम तैयार करने की
आवश्यकता है।

७) विज्ञ जनशक्ति का निर्माण (?7/0तालांणा ए ९फ्श॥७)- भ्रष्टाचार


3० प


के
सभी रूप, उसके स्वभाव और प्रभाव के बारे में अच्छी तरह से


44]


विश्लोषण और व्याख्या तथा निराकरण करने वाले क्षमतावान जनशक्ति
ही विज्ञ जनशक्ति है । विज्ञ जनशक्ति के निर्माण से ही भश्रष्टविरोधी
शास्त्र का विकास सम्भव है, इसलिए इसकी शुरुआत प्राज्निक क्षेत्र से ही
करनी चाहिए । प्रारम्भिक अवस्था में विश्वविद्यालय स्तर में पठन-पाठन
से अर्धविज्ञ जनशक्ति तैयार होगी किन्तु जब यह शास्त्र पूर्णता ग्रहण
करेगा तो विज्ञ जनशक्ति तैयार होगी । इस तरह भ्रष्टविरोधी शास्त्र के
आधार में विषयगत चुनाव कर अध्ययन विधि और सिद्धान्त निर्माण के
आधार में विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर और विद्यावारिधि तक के
अध्ययन को शुरु कर श्रष्टविरोधी विज्ञ जनशक्ति का निर्माण करना होगा ।
८) राज्य व्यवस्था के क्षेत्र में नीति तथा विधि निर्माण (गाए
एणांठतंट5 गात एगा5$ जा 572९ रतिं)

राज्य व्यवस्था को भ्रष्टाचार नियन्त्रण के लिए नीति नियम तथा विधि
निर्माण करना चाहिए तथा समाज में भ्रष्टाचार नियन्त्रित व्यवस्था की
सृजना करनी चाहिए । राज्य व्यवस्था द्वारा नीति तथा विधि निर्माण कर,
जिस क्षेत्र में भ्रष्टाचार व्याप्त है, या जहाँ अपराध होने की सम्भावना है,
उसके लिए ऐन तथा कानून निर्माण करना चाहिए जिसमें भ्रष्टाचार को
स्पष्ट रूप से सम्बोधन करना चाहिए । अपराधी को कानून के दायरे में
लाना चाहिए । राज्य व्यवस्था द्वारा नीति तथा विधि निर्माण
भ्रष्टविरोधीशास्त्र द्वारा निर्देशित होना चाहिए । यह युग कानून का युग है।
कानून ही समाज को दिशा बोध करा सकता है । इसलिए भ्रष्टाचार के
विरुद्ध में सशक्त नीति-नियम तथा विधि का निर्माण आवश्यक है ।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध में अगर राज्यव्यवस्था कानून नहीं बना सकती तो
वह व्यवस्था असफल सिद्ध होगी इसलिए राज्य व्यवस्था के क्षेत्र में
भ्रष्टाचार विरुद्ध की नीति तथा विधि निर्माण करना होगा ।

९) भ्रष्टाचार नियन्त्रित समाज की सृजना (ाह्ञगागांणा रण
०ण०.एफ्ांणा-7९९ 5००ंटशज१)

भ्रष्टाचार नियन्त्रित समाज की सूजना का तात्पर्य उस समाज से है,
जहाँ भ्रष्टाचार जन्य किसी भी कार्य की सम्भावना न हो । यह भ्रष्टाचार
नियन्त्रित जन्य किसी भी कार्य की सम्भावना न हो । यह भ्रष्टाचार
नियन्त्रित अवस्था भ्रष्टविरोधी शास्त्र का मूल लक्ष्य है । श्रष्टविरोधी
शास्त्र का अगर प्रभावशाली तरीके से संचालन हो तो समाज से
भ्रष्टाचार का बहिर्गमन हो जाएगा । भ्रष्टाचार नियन्त्रित समाज को
भ्रष्टाचार मुक्ति समाज भी कहते हैं । इसके लिए श्रष्टविरोधी शास्त्र को
पूर्णरूप में क्रियाशील होना होगा ।


2


ऐसे समाज की सजना से भ्रष्टाचार में शून्य सहनशीलता की अवस्था
होगी अर्थात भ्रष्टाचार नियन्त्रित समाज ही भ्रष्टाचार के विषय में शन्य
सहनशीलता की अवस्था है । भ्रष्टाचार व्याप्त समाज के धरातल से उठे
विकासक्रम नो अवस्था को प्राप्त कर अन्त में शून्य सशनशीलता की
अवस्था में पहँँचता है यह निम्न चित्र के द्वारा अध्ययन कर सकते हैं ।
अंक गणितीय हिसाब में भी प्रयोग हुआ है- १ से ९ और बाद में ० की
अवस्था में पहुँच कर ही भ्रष्टाचार का शून्य सहनशीलता में स्थिति
परिवर्तन होता है-


भ्रष्टविरोधी शास्त्र के विकासक्रम को चित्र के द्वारा समझ सकते है-


भ्रष्टाचारमा शून्य सहनशीलता


डा स्तर के पाठ्यप्स्तक की तैयारी


कप लय कक जत


हि गत न
स्नातकोत्तर में पठनपाठन की तैयारी

कम कप
विषयगत पहचान तथा विश्लेषण

कि न तय का तर
उच्चतहके विद्यार्थी द्वारा शोधकार्य

हि मा


भ्रष्टविरोधी विषयपर प्राज्ञिक बहस


06]06 ; (र्डा भी


3


इसे रेखागणितीय हिसाब से भी देख सकते हैं। नीचे रेखाचित्र प्रस्तुत है-


290 रेट”


ऊपर रेखात्मक चित्र में होरिजेन्टल रेखा १ से ५ बिन्दु में बराबर रूप में
विभाजित हैं । इसी तरह भर्टिकल रेखा भी ५ के बिन्दु से उठकर ९ तक
बराबर निभाजित हुआ है । १ के विन्दु से उठकर भर्टिकल रेखा और ९
के बिन्दु से उठकर होरिजेन्टल रेखा का मिलनबिन्दु ही ० है, जो ५ के
बिन्दु के साथ स्पष्ट सम्बन्ध है | साथ ही ५ को केन्द्र बनाकर १ ने ९
के साथ, २ का ८ के साथ, ३ का ७ के साथ और ४ का ६ के साथ
स्पष्ट सम्बन्ध बनाया है । इस तरह एक बिन्दु का दूसरा बिन्दु के साथ
कोण तथा आयतन में भी बराबर रूप में सम्बन्ध स्थापित किया है।
अर्थात्‌ १ के बिन्दु से शुरु प्राज्िक बहस ९ के बिन्द भ्रष्टाचार नियन्त्रित
समाज कर निर्माण कर सकता है | यदि वह ४ के बिन्दु को श्रष्टविरोधी
शास्त्र के आधार में खड़ा हो सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि
भ्रष्टविरोधी शास्त्र के विकास का मूल केन्द्रबिन्द्‌ ही श्रष्टविरोधी शास्त्र
की पहचान है । इसका अन्तिम गन्तव्य भ्रष्टाचार में शून्य सहनशीलत
की अवस्था कायम करना है।


इस सूत्र को अंकगणितीय दृष्टि से देखें-
भ्रष्ट विरोधी शास्त्र का विकास हमने १ से ९ अंक में विभाजित कर
विस्तृत किया है । इसलिए इसे अंकगणितीय दृष्टि से भी देखना उपयुक्त


होगा । हमारे साथ १, २, ३, ४, ५, ६, ७ ८ और ९ अंक है | इसे अंक
को गणितीय सूत्र के आधार में विभाजित कर देखें ।


4


नव-उपनिवेशवाद


__९०-९(००णांगागा


विश्व के भूभाग में राज्य व्यवस्था के साथ ही उपनिवेशवाद स्थापित
हुआ है । एक राज्य के द्वारा दूसरे राज्य के साथ राजनीतिक, आर्थिक,
सामाजिक और सामरिक संतुलन को मिलाने के लिए जो समभौते किए
जाते हैं, उससे उपनिवेशवाद का जन्म होता है । एक शक्तिशाली देश
दूसरे कमजोर देश को प्रभाव में लेकर कमजोर देश के प्राकृतिक ग्रोत
साधन तथा श्रम साधन के ऊपर आधिपत्य जमा कर शोषण करना शुरु
करता है । कमजोर शक्ति वाले देश को शक्तिवान देश को प्रत्यक्ष कर
देने की प्रथा जारी है । प्राचीन काल से चली आ रही यह व्यवस्था
रूपान्तरित होते हुए कमजोर एवं नए देश को चलाने की व्यवस्था हो
गई । वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका से छोटे-बड़े राज्यों में प्रत्यक्ष
शासन संचालन करने के लिए संयुक्त अधिराज्य विलायत ने अपने राज्य
को सूर्य अस्त ना होने वाली स्थिति में स्थापित किया । युरोप के फ्रान्स,
जर्मनी, स्पेन और पोर्चुगल जैसे देशों ने दक्षिण अमेरिका, अफ्रिका और
एशिया के गरीब देशों में आधिपत्य जमा कर उपनिवेशवाद को लम्बे
समय तक कायम रखा ।

इस्वी के सतरहवीं शताब्दी से आए राजनीतिक जागरण के कारण ऐसे
उपनिवेश राज्य आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से धीरे-धीरे
स्वतन्त्र होते गए, किन्तु पूर्णरूप से सभी राज्य स्वतन्त्र और
सार्वभौमसत्ता सम्पन्न राज्य नहीं बन सके हैं । इस तरह राजनीतिक
हस्तक्षेप से छोटे-छोटे राज्य मुक्त होने के बाद भी किसी ना किसी तरह
से धनी एवं विकसित राष्ट्रों के अधीन से छुटकारा नहीं पा सके हैं।
वर्तमान अवस्था में राजनीतिक हस्तक्षेप में उदार होने के बाद भी
अधिनायकवादी प्रवृत्ति के कारण विभिन्‍न तरीका से नवउपनिवेशवाद को
स्थापित करने के लिए ये शक्तिशाली राष्ट्र उद्यत रहते हैं ।


नवउपनिवेशवाद की स्थापना के लिए शक्तिशाली राष्ट्र विभिन्‍न तौर
तरीका अपना कर अपना प्रभुत्व स्थापित करने से पीछे नहीं हट रहे हैं ।
१) आर्थिक प्रलोभन


5


२) सामाजिक आकर्षण

३) सांस्कृतिक परिवर्तन

४) राजनीतिक दवाब

५) कूटनीतिक चाल
१) आर्थिक प्रलोभन (#टणा०णाएंट पशाए(थांणा)
विकासोन्मुख देशों में आर्थिक प्रलोभन की नीति स्थापित करने के कार्य
के अन्तर्गत ऋण देना, सीधे आर्थिक सहयोग अनुदान स्वरूप देना और
दिए हुए ऋण को माफी करने जैसा कार्य करके गरीब देशों को आर्थिक
तथा मानासिक रूप में कमजोर बनाने का काम करते हैं । इस तरह
आर्थिक सहयोग के नाम पर विश्व बैंक और अन्य अन्तर्राष्ट्रीय बैंक द्वारा
भी ऋण तथा अनदान की कार्य योजना में फंसाने का कार्य होता है ।
इसके अतिरिक्त किसी राजनीतिक दल के साथ सम्बद्ध निकाय या
सहयोग नियोग के क्षेत्र से भी गरीब राष्ट को आर्थिक प्रलोभन देकर
कमजोर बनाने का काम होता है । इस नीति के अन्तर्गत निम्न तरीका
से अवलम्बन करते हैं-

क) राष्ट्र द्वारा ही किसी निश्चित योजना के लिए प्रत्यक्ष अन॒दान देने

का कार्य ।


ख) निश्चित उद्देश्य प्राप्ति के लिए अन्य सरकारी निकाय से सहयोग
उपलब्ध कराने का कार्य ।


ग) वित्तीय संस्था से निश्चित कार्य सम्पन्न करने के लिए सहयोग
उपलब्ध कराना ।


घ) कमजोर एवं अस्थिर राजनीति वाले राष्ट्र में वहाँ के बुद्धिजीवी को
अधिक से अधिक आर्थिक सहयोग उपलब्ध करा कर उनकी बोली
को अपना बनाना ।


ड) राजनीतिक नेताओं को व्यक्तिगत आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराना ।
इस तरह आर्थिक सहयोग उपलब्ध करा कर गरीब देश को शक्तिहीन
बनाने की योजना विकसित राष्ट्र की होती है।

२) सामाजिक आकर्षण (50तंग १४४लांणा )


विकसित देश गरीब एवं विकाससोन्मुख देशों के सामाजिक मूल्य
मान्यता को परिवतर्तित कर अनेक तरह की कार्य योजना संचालन


6


करते हैं । इन गरीब देशों के नागरिकों का रहन-सहन, सामाजिक विधि
व्यवहार तथा सामाजिक विचार को अपने अनुकूल बनाने के लिए
दिखावटी रूप में विभिन्‍न तरह के समाज के हित में होने वाली कार्य
योजना संचालित करते हैं । छुआछूत तथा जातीय और लैंगिक विभेद
को लक्षित कर उपनिवेशवादी देश उग्र नारा के साथ गरीब देश के
सामने प्रस्तुत होते हैं ।

किसी भी समाज की बनावट और विकास उस समाज की परम्परागत
रीति स्थिति तथा स्थापित विधि विधान से संचालित होता है । ऐसे
समाज संचालित क्रिया को उसी समाज के सीमित एवं विकसित रीति
स्थिति निर्देशित करती है । इसलिए किसी भी समाज की सामाजिक
बनावट को परिवर्तन करने की कोशिश में विकृत समाज की स्थापना हो
सकती है । स्थापित पद्धति को छोड़ने और नववागन्तुक स्थिति को पूर्ण
रूप से स्वीकार नहीं करने की अवस्था में समाज अन्तरिम अवस्था में
रहता है, जिससे समाज में चले आ रहे प्राकृतिक अवस्था को हानि
पहुँचती है । ऐसे अन्तरिम अवस्था वाले समाज में रहने वाले मानव की
मनःस्थिति विकृत हो जाती है । उपनिवेशवादी देश इसी तरह
विकासोन्मुख देश की अवस्था को बिगाड़ने के लिए प्रयासरत रहते हैं ।


३) सांस्कृतिक परिवर्तन (एप्प टागाएइ९)


विकासोन्मुख या गरीब देश में चली आ रही संस्कृति को अगर समाप्त
किया जाता है, तो गरीब देश का समाज आधारहीन हो जाता है। इस
स्थिति का फायदा शक्ति सम्पन्न देश लेते हैं । ऐसे संस्कृति परिवर्तन
करने के क्रम में जातीय धर्म, रीति स्थिति और परम्परागत रूप में चले
आ रहे सामाजिक व्यवहार को खत्म करने की कार्ययोजना बनाकर धनी
राष्ट्र कार्यक्रम विस्तार करते हैं । इसके लिए निम्न रूप से क्रियाशील
होते हैं ।

क) अपने देश का धर्म गरीब देश में लागू करने के लिए प्रचार का

परिचालन कर विशेष प्रभाव डालने की कोशिश ।
ख) अपने राष्ट्र की भाषा को गरीब राष्ट्र की भाषा बनाने की कोशिश ।


ग) कपड़ा तथा पोशाक के प्रयोग में भी अपने अनुकूल बनाने का
प्रयास ।
घ) गरीब राष्ट्र के पर्व-त्योहार, सामाजिक सदभाव को भी परिवर्तन
करने की कोशिश ।
47


४) राजनीतिक दबाव (?०ांपंट्ग 07९5९)

विकसित देश अच्छे-बुरे, सफल या असफल किसी भी राजनीतिक पद्धति
का प्रयोग कर विकासोन्मख देश पर अपना प्रभाव बनाए रखने की
कोशिश करता है । शक्ति सम्पन्न राष्ट्र गरीब राष्ट्र के राजनीतिक
महत्वाकांक्षी व्यक्ति या समुदाय में घुसपैठ कर अपने अनुकूल
राजनीतिक व्यवस्था बनाने की कोशिश करते हैं । प्रजातन्त्र, लोकतनन्‍्त्र,
गणतन्त्र या जनतन्त्र जैसे नारा के आधार में जेसा भी राजनीतिक पद्धति
लागू करना चाहते हैं । गरीब देशों में मानवहित विरोधी राजनीतिक
पद्धति भी लागू किया गया है, किन्तु ये राजनीतिक पद्धति लम्बे समय
तक टिक नहीं पाई है।

दलीय व्यवस्था की जननी यूरोप है । सभी तरह के राजनीतिक वाद का
जन्म यूरोप में हुआ है किन्तु गरीब देश में प्रयोग के रूप में लागू करने
पर असफल होने के बाद समस्या के रूप में वापस युरोप चले गए हैं ।
ऐसी प्रक्रिया से यरोप के देशों में भी कमजोर और अस्थिर राजनीतिक
व्यवस्था के विस्तार में सहयोग कर रहा है, जो उनके लिए भी
हानिकारक हो सकता है । विकसित देशों में लागू राजनीतिक पद्धति उस
देश का उत्थान कर पाया या नहीं यह अलग अध्ययन का विषय है।
क्योंकि आर्थिक विकास को ही समग्र विकास नहीं माना जा सकता है।
सामीजक विकास के लिए आर्थिक विकास नहीं माना जा सकता है।
सामाजिक विकास के लिए आर्थिक विकास मात्र एक पक्ष है । इसके
अतिरिक्त सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक विकास के साथ-साथ
चेतना का विकास भी महत्व रखता है । यह चेतना का विकास
भ्रष्टविरोधी शास्त्र के सिद्धान्त का सिर्फ प्रतिवादन कर सकता है ।
राजनीतिक दवाब के विभिन्‍न स्वरूप निम्न है-


क) राजनीतिक सिद्धान्त अक्षरशः लागू करना ।

ख) अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था कायम करने के लिए घुसपैठ करना ।
ग) स्वार्थ के लिए पड़ोसी देश के साथ असैद्वान्तिक सम्बन्ध ।

घ) आर्थिक विकास के लिए अनुदार ।

ड) सामाजिक तथा सांस्कृतिक हस्तक्षेप ।


क) राजनीतिक सिद्धान्त अक्षरशः लागू करना (एरए/शाशांभांणा ०0
20॥70गे एं)ठ90९ ए्ण१79ए छएण०)


)
)





धनी देश गरीब देश में राजनीतिक दवाब देकर किसी राजनीतिक
सिद्धान्त की आड़ में संचालन होने वाली राजनीतिक पद्धति अक्षरशः


8


अपने अनुसार दबाव देकर राजनीतिक व्यवस्था लागू कराते हैं ।
बहुसंख्यक निरक्षर देश में भी सचेत नागरिक द्वारा मात्र उपभोग किया
जा सकने वाला राजनीतिक पद्धति लागू कर गरीब देश में कब्जा जमाए
हुए है।

ख) अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था कायम करने के लिए घुसपैठ करना


(र!।गांणा क्‍0 ठ९86 प्राह90]6 90॥0व) 5ए5शा)


गरीब देशों में अस्थिर राजनीतिक व्यवस्था कायम करने के लिए विभिन्‍न
तरह की कार्ययोजना बनाकर घुसपैठ करते हैं | राजनीतिक दल के नेता
को अपने प्रभाव में लेकर हो या दल संचालन के लिए आर्थिक और
राजनीतिक सहयोग उपलब्ध करा कर गरीब देशों में अस्थिरता कायम
करने की कोशिश धनी देशों की होती है । राजनीतिक नेताओं में अगर
उनकी पहुँच नहीं होती है तो गरीब देशों के स्थानीय बुद्धिजीवी को
आर्थिक सहयोग कर अपने प्रभाव में लेते हैं । इतना ही नहीं, गरीब देश
के संचार माध्यम को आर्थिक अनुदान देकर नियोजित तरीके से
समाचार सम्प्रेषण कर गरीब देश के राष्ट्रवादी मनुष्य का मनोबल
घटाने तक का काम करते हैं।

ग) स्वार्थ के लिए पड़ोसी के साथ असैद्धान्तिक सम्बन्ध (एक


7शगांणातञए जांती ॥6 ॥शंट्ठी0078 ए००0ए्रए९5)


पड़ोस या क्षेत्रीय देशों में अपना प्रभाव कायम रखने के लिए सैद्धान्तिक
रूप में मत भिन्‍नता होने पर भी स्वार्थ की परिपूर्ति के लिए धनी देश से
असामान्य तथा असैद्वान्तिक सम्बन्ध कायम करते हैं । धनी देश गरीब
देश को अपने अधीन में चलाने के लिए राजनीतिक सिद्धान्त को लागू
कर के गरीब देश पर अपनी हुकुमत चलाने के लिए क्रियाशील होते हैं ।


घ) आर्थिक विकास के लिए अनुदान (जगा 07" €९८णा०णाएंट


0९ए९०एणएञशा)


गरीब देश में आर्थिक विकास के लिए अनेक तहर के अनुदान देने की
योजना धनी देश की होती है । धनी दशे विकास के लिए अनुदान या
ऋण देने के समय सशर्त देते हैं, जिसके कारण गरीब देश अनुगृहीत
होते हैं । ऐसी स्थिति में धनी देश गरीब देश के सभी प्रकार की
प्राकृतिक सम्पदा का प्रयोग करने वाली नीति निर्माण करते हैं और देश
का शोषण करते हैं और गरीब देश और भी निर्धन हो जाते हैं।


]9


ड) सामाजिक तथा सांस्कृतिक हस्तक्षेप (5069 भाव पा


॥रशरषशःशा०९)

गरीब देश की पंक्ति में जो देश हैं, उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक स्थिति
धनी देश के हस्तक्षेप में कमजोर होते चले जाते हैं । विश्व के पूर्वीय
दर्शन द्वारा सूर्जित मानव-सभ्यता, संस्कृति और धर्म सम्पन्न कहलाने
वाले पश्चिम देश धीरे-धीरे समाप्त करने की योजना रचते हैं । इसी
तरह धनी देश के क्रियाकलाप से गरीब देश कमजोर और शिथिल बनते
जाते हैं।

५) कूटनीतिक चाल (फफ्ञरणागांटगरण्राएए ० पंत)

राज्य के अस्तित्व के साथ ही कूटनीतिक व्यवस्था भी शुरु हुई है ।
कूटनीति का तात्पर्य है कि भीतर की सोच या अभिप्राय जो भी हो,
बाहरी व्यवहार मर्यादित एवं शिष्ट होना । राज्यव्यवस्था सफल बनाने के
लिए सार्थक कूटनीतिक व्यवहार अवलम्बन करना चाहिए । प्राचीन काल
से चलती आ रही कूटनीतिक चाल वर्तमान में भी उसी अनुरूप चल
रहा है । कूटनीतिक चाल के दो पक्ष हैं-

(क) परोक्ष कूटनीतिक प्रतिनिधि (ख) परोक्ष कूटनीतिक दस्ता

क) परोक्ष कूटनीतिक प्रतिनिधि (शांक्रार करछाणागांट 7शुए7९5शा9ए९५)
प्रत्यक्ष कूटनीतिक प्रतिनिधियों में राजदूत के अलावा श्रम, सैनिक और
प्राविधिक सहचरी आदि पड़ते हैं । ये खुले रूप में सम्बन्धित देश का
प्रतिनिधित्व करते हैं । किसी भी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक,
सामरिक एवं प्राविधिक आदि समस्या होने पर ये पदाधिकारी हालत
सुधारने की कोशिश करते हैं । एक देश का दूसरे देश के साथ
कूटनीतिक सम्बन्ध इन पदाधिकारियों पर निर्भर रहता है । इनके
क्रियाकलाप अगर शक के घेरे में होता है तो इन्हें देश निकाला भी
किया जा सकता है । अर्थात्‌ प्रत्यक्ष रूप में कूटनीतिक नियोग के
पदाधिकारी तथा कर्मचारी स्वच्छ एवं ईमानदार हो, यह आवश्यक नहीं


जे


ह।


ख) अपरोक्ष कूटनीतिक दस्ता (गरशंद्र0९ 079]ण्रावां८ ८१०९)
धनी देश अपरोक्ष कूटनीतिक दस्ता खड़ा करते हैं । ये अघोषित
कूटनीतिज्ञ दूसरे देशों में छिप कर रहते हैं | ये विभिन्‍न तह में विभाजित


20


होते हैं | धनी देश के केन्द्रीय अनुसंधान के प्रतिनिधि से लेकर सैनिक,
प्रहही और गुप्तचर विभाग के आदमी इस कार्य में संलग्न होते हैं । ऐसे
अपरोक्ष कूटनीति के कार्य में संलग्न व्यक्ति व्यापारी, धर्मगुरु, समाजसेवी
या साधारण व्यक्ति के रूप में क्रियाशील रहते हैं । इस संगठन की
जानकारी गरीब देशों को नहीं होती । सभी प्रकार की योजना बनाते हुए
धनी देश अपरोक्ष रूप में क्रियाशील निकाय के प्रतिवेदन को महत्व देते


०.


हैं । इससे प्रत्यक्ष कूटनीतिक नियोग से अधिक अप्रत्यक्ष कूटनीतिक
नियोग बलवान होते हैं ।

उल्लेखित तथ्य और विवरण के आधार में उपनिवेशवाद राष्ट्र गरीब देश
में नवउपनिवेश नीति स्थापित करते है | साम, दाम दण्ड और भेद इन
चारों नीति का अवलम्बन करते हुए उपनिवेशवादी क्रियाशील होते हैं ।
उपनिवेश का अर्थ ही दवाब और शोषण है । आर्थिक, राजनीतिक और
सांस्कृतिक शोषण से गरीब देश की जनता पीड़ित होती है । ऐसे पीड़ित
देश के चालाक व्यक्ति इसका फायदा लेते हैं । भ्रष्टविरोधी शास्त्र की
नीति, विधि और पद्धति को प्रभावशाली रूप में अगर लागू कराया जाय
तो युगों से चले आ रहे ऐसे उपनिवेशवाद का और वर्तमान के
नवउपनिवेशवाद का भी अन्त किया जा सकता है।


24


गरीबी और भ्रष्टाचार


70एशाए गा0 (ण7एफएणा


गरीबी वो अवस्था है, जो मानवीय जीवनयापन की अवस्था निर्धारित
करती है । व्यक्ति के न्‍्युनतम आवश्यकता की परिपूर्ति का आधार,
उसके उपभोग और उसकी आमदनी के स्तर उसकी आर्थिक अवस्था
का मापन होता है । गरीबी संगठित समाज के भीतर रहकर भी जीवन
के लिए आवश्यक न्यूनतम आधारभूत आवश्यकता पूरा नहीं कर सकने
वाला समुदाय है। ऐसे समुदाय की बहुआयामिक समस्या ही गरीबी है।
गरीबी की प्रकृति, स्वरूप, चक्रीय अवस्था और दूरी बदलते परिवेश के
अनुसार अलग-अलग होता है । इसमें भी देश, काल और परिस्थिति
उसकी अवस्था, प्रकृति और स्वभाव में अलग-अलग स्तर कायम करते
हैं । गरीबी, गरीबी को जन्म देती है और आपराधिक प्रवृत्ति को भी
स्वीकार करती जाती है । गरीबी के प्रकार से पहले गरीबी रेखा को देना
उचित होगा । गरीबी रेखा ही गरीबी के विषय में अध्ययन तथा
विश्लेषण कर सकती है।


गरीबी की रेखा तथा अवस्था


सापेक्ष गरीबी
आधारभूत आवश्यकता
गरीबी की रेखा


कम से भी कम आम्दानीको स्तर
निरपेक्ष गरीबी
न्यूनतम क्रयशक्ति


किसी व्यक्ति तथा समुदाय की आमदनी या उपभोग का स्तर न्यूनतम
आधारभूत आवश्यकता से कम हो तो उस व्यक्ति को गरीब कहते हैं ।
इसी न्‍्युनतम आय को गरीबी रेखा कहते हैं । गरीबी की रेखा को अलग
करने के लिए आधार, समय और प्रकृति तथा देश की परिस्थिति अलग-
अलग होती है ।


22


गरीबी के प्रकार (797९६ ण ए०एश/।५९)


सिर्फ गरीबी कहने से व्यक्ति या समुदाय का स्तर कायम नहीं हो
सकता । इसके भी प्रकार होते हैं । इनके स्तर और प्रकार को निम्न रूप
से समझ सकते हैं- (१) सापेक्ष गरीबी (२) निरपेक्ष गरीबी (३) अति
गरीबी ।


१) सापेक्ष गरीबी (॥७५४०७(९ ए०एश+ए)


किसी व्यक्ति, वर्ग या समुदाय की तुलना में दूसरा कोई व्यक्ति वर्ग या
समुदाय कितना गरीब है, इसके तुलनात्मक अध्ययन से सापेक्ष गरीबी
निश्चित होती है । व्यक्ति या समुदाय के बीच में व्याप्त असमानता और
राष्ट्र के बीच में होने वाली जीवनस्तर की असमानता से ऐसी गरीबी
का जन्म होता है । सापेक्ष गरीबी ऐसी अवस्था है, जहाँ व्यक्ति या
समुदाय की न्यूनतम आधारभूत आवश्यकता की परिपूर्ति होने पर भी
उनन्‍नतिशील जीवन के अवसर से व्यक्ति या समुदाय वंचित रहते हैं ।


२) निरपेक्ष गरीबी (रशांए९ ए०एश"५)

मनुष्य के जीवन-यापन के लिए आवश्यक दैनिक वस्तु तथा सेवा-
सुविधा का अभाव ही निरपेक्ष गरीबी है । जीवनयापन के लिए आवश्यक
खाद्यान्न, कपड़ा और आवास के साथ ही स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य
आधारभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए आवश्यक आमदनी न होने
वाले व्यक्ति या समुदाय गरीबी रेखा के नीचे आते हैं।


३) अति गरीबी (ए]79 ए०्ए्श'ए)


अति गरीबी का अर्थ निरपेक्ष गरीब से भी कम आर्थिक अवस्था वाले
और मानव उन्नति के अवसर से वंचित व्यक्ति या समुदाय से है । अति
गरीब व्यक्ति या समुदाय समाज विकास के लिए अभिशाप के खरूप में


३ 2,


होते हैं ।
भ्रष्टविरोधी शास्त्र और गरीबी (७ण्ाएफुएस्‍णा गात ए०शश५)

सापेक्ष, निरपेक्ष और अति गरीबी इन तीनों अवस्था के गरीब भ्रष्ट कार्य
के विकास में सहयोगी भूमिका निर्वाह करते हैं | जहाँ अभाव होता है,
वहाँ आवश्यक वस्तु की परिपूर्ति के लिए अनेक प्रकार का प्रयत्न करते
हैं । सहज रूप में ऐसे आवश्यक वस्तु की परिपूर्ति नहीं होने की अवस्था
में परिपूर्ति की प्राप्ति के लिए व्यक्ति या समुदाय प्रयत्नशील रहते हैं ।
ऐसे में वहां जायज-नाजायज, वैधानिक-अवैधानिक, नैतिक-अनैतिक या


23


बेईमानी-ईमानदारी को नहीं देखा जाता है । अपनी आवश्यकतापूर्ति के
लिए ये कोई भी निर्णय ले सकते हैं । भूखे पेट से सिद्धान्त की बातें नहीं
की जा सकती हैं । इसलिए किसी भी स्तर की गरीबी अपनी दुरावस्था
को भूल कर जनता या राज्य सत्ता के हित में आएगा, यह नहीं कहा जा
सकता । इसलिए इन गरीब समुदायों द्वारा अपने हित के लिए उठाए
गए कदम दूसरे समुदाय को अच्छे नहीं लगते हैं । अवसरवादी तत्व
गरीबों के कमजोर पक्ष की आड़ में छोटा-बड़ा भ्रष्ट कार्य करते और
कराते हैं । उदाहरण के लिए स्थानीय विकास और जनता के साथ
प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखने वाले विकास योजना को ले सकते हैं । निर्वाचन में
तो इस समुदाय के मत का मूल्य ही तय होता है । अज्ञानता, गरीबी
बढ़ाती है और इसकी वजह से उनके लिए मूल्य-मान्यता, नीतिगत
सिद्धान्त आदि का महत्व नहीं रह जाता । गरीबी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप
में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है । इसलिए गरीबी निवारण ही भ्रष्टाचार
नियन्त्रण का मूल आधार है। व्यक्ति या समुदाय से भ्रष्ट आचारण और
भ्रष्ट कार्य को नियन्त्रण में रखने के लिए अति गरीबी और निरपेक्ष
गरीबी को सापेक्ष गरीबी में परिणत करना चाहिए । आधारभूत
आवश्यकताओं की पुर्ति या मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने
वाली न्यूनतम क्रयशक्ति और ऐसे क्रयशक्ति स्थापित करने के लिए
न्यूनतम आमदनी के ग्रोत वाले व्यक्ति या समुदाय को सापेक्ष गरीबी के
स्तर में ले सकते हैं । इसलिए अति गरीब और निरपेक्ष गरीबी को
सापेक्ष गरीबी में रूपान्‍्तरण कर सकने वाली आयोजना राज्य और राज्य
व्यवस्था को लागू करना चाहिए । आर्थिक स्तर के सुधार के साथ ही
शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए भी सुधार का आयोजन संचालन करना
चाहिए ।

इस तरह गरीबी के वर्ग विभाजन को समाप्त कर केवल श्रमिक और
किसान वर्ग के निर्माण करने के लिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र के नीति तथा
सिद्धान्त को गरीबी निवारण कार्य में लगाना चाहिए । गरीब वर्ग का
अर्थ श्रमिक और कृषक वर्ग मात्र है, शोषित एवं पीड़ित वर्ग नहीं यह
प्रमाणित करना होगा ।


24


विकसित एवं विकासोन्मुख देश की विशेषताएँ


(ाभाग्ठलथांत्रांड ण 7९ए९श०फ९रत गात 0९एट2फाआए
(०णप्राए९5


विश्व के सभी देशों को कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है जैसे,
अविकसित, विकासशील, विकसित और अतिविकसित । किन्तु वर्तमान में
सभी देशों में आधुनिक उपकरणों का प्रयोग होने की वजह से इन्हें दो
वर्गों में विभाजित करके देख सकते हैं- (१) विकसित (२) विकासोन्मुख
देश ।

इन दो वर्गों में विभाजित देश की विशेषताओं पर विचार करें । क्‍योंकि
भ्रष्टविरोधी शास्त्र के आधार में इनकी विशेषताओं को देखना होगा ।
इनकी विशेषताओं के आधार पर ही भश्रष्टविरोधी शास्त्र को नीति निर्माण
करना होगा । इसलिए इसकी विशेषताओं को देखें-

विकसित देश की विशेषताएँ (टाग्रागठालांत्रांड रण 70९ए९०९त
(णा।7८९५)

१) कृषि के साथ औद्योगिक विकास

२) आधुनिक प्रविधि और सुव्यवस्थापन

३) जनसंख्या वृद्धि नियन्त्रण तथा रोजगार की व्यवस्था

४) नियन्त्रित बाजार तथा आर्थिक सबलता

५) कानूनी राज्य की अवस्था ।


१) कृषि के साथ औद्योगिक विकास (९ 40 ५।।।॥।। ६: | हि:।। की।। (| ॥ ५ ||
ए९एश०क्णाशा)

विकसित देशों में कृषि के साथ औद्योगिक विकास भी हुआ है | कृषि
क्षेत्र में आधुनिक यन्त्र और प्रविधि के प्रयोग से व्यवस्थित तरीके से
कृषि उत्पादन किया जाता है | इसी तरह, औधोगिक विकास में भी
समय की मांग के अनुसार अत्याधुनिक प्रविधि का प्रयोग कर औद्योगिक
विकास हुआ है । जिस देश में सबल आर्थिक, कुशल प्राविधिक तथा
आवश्यक ग्रोत साधन सम्पन्न होता है, युरोप और अमेरिका, अस्ट्रेलिया
आदि विकसित देशों में पड़ते हैं ।


25


२) आधुनिक प्रविधि और सुव्यवस्थापन (ध०१९ना प९्तांवुए९४ भात
ए-0एशः' शगावट्ढवशाशा)

जिस देश में आधुनिक प्रविधि को प्रयोग और सुव्यवस्था स्थापित होता
है, ऐसे देशों को विकसित देश कहते हैं । विकसित देश विकास के
पूर्वाधार के रूप में स्वीकार किए गए राह और बिजली की पूर्ति करने के
बाद समयानुसार प्रविधि का विकास कर उसे संचालन करने के लिए
व्यवस्थापकीय सुधार करते हुए दशे को आत्मनिर्भर बनाते हैं ।

३) जनसंख्या वृद्धि में नियन्त्रण तथा रोजगार की व्यवस्था (टणराएण
०शफ़फ्पौंगांगा गरातवशाए०ज़ाशां ग्राधाबशाशा)

विकसित देशों ने जनसंख्या की वृद्धि दर में नियन्त्रण कर जिस अनुपात
में जनसंख्या की वृद्धि हुई उसी अनुपात में रोजगार की व्यवस्था भी की
है । अर्थात्‌ देश के भीतर सभी नागरिक अपनी कला और श्रम के
आधार में काम पाते हैं। देश के भीतर मानवीय श्रम और साधन मात्र
भी विकास करता है । विकसित देश में श्रम का उचित मूल्य भी
निर्धारित होते हैं ।

४) नियन्त्रित बाजार तथा आर्थिक सबलता (एटग्राएगाट्त श्वहश धात
एऋटणाणां९ ७7/०/शा7)


नियन्त्रित बाजार तथा आर्थिक सबलता ही विकसित देश का सफल पक्ष
है । बाजार में आवश्यक वस्तु की सुलभ आपूर्ति और मूल्य नियन्त्रित
अवस्था ही सही बाजार व्यवस्थापन को लक्षण है । देश के सभी व्यक्ति
और समुदाय बाजार से संतृष्टि प्राप्त करते हैं ।

५) कानूनी राज्य की स्थापना (ए9न्‍शरांत्राशा ण॑ एगाहरपरांगावबा
597९)

विकसित देशों में कानून पूर्णरूप में क्रियाशील होते हैं । जिस देश में
सबल कानूनी व्यवस्था लागू होती है, उस देश में कानूनी राज्य व्यवस्था
का संचालन होता है । ऐसी व्यवस्था में नागरिक और नागरिक समुदाय
के अभिभावक के रूप में कानून स्थापित होता है। कानून सर्वोपरि होता
है और कानून की दृष्टि में सभी समान होते हैं, जिसे सही शासन
व्यवस्था भी कहते हैं।

विकासोन्मुख देशों की विशेषताएँ (ट॥ग्र/बटलशनंत्रां5 ण 0९एशकांपड
(८०ए्राए४९5)- जिस देश की आर्थिक अवस्था कमजोर होती है और
जिसका औद्योगिक क्षेत्र विकसित नहीं होता, उसे विकासोन्मुख या


26


अविकसित देश कहते हैं | ऐसे देश लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, युरोप ओर
एशिया महादेश में भरे हुए हैं । ऐसे देशों में प्राकृतिक स्रोत साधन
प्रशस्त होने पर भी स्रोत साधन का सही परिचालन नहीं होता और
अगर होता भी है तो ये ग्रोत साधन विकसित देशों के अतिक्रमण से
पीड़ित होते हैं | विकासोन्मुख, अल्प विकसित या अविकसित देशों में
प्रति व्यक्ति आमदनी एकदम कम होती है । नागरिक रोजागर के अवसर
से वंचित होते हैं । साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, पौष्टिक आहार और आवास
जैसे आधारभूत आवश्यकता भी पूर्ति नहीं होती । विकासोन्मुख,
अल्पविकसित या अविकसित देशों की निम्न विशेषताएँ होती है-

१) कृषि पर आधारित व्यवस्था

२) परम्परागत कार्यशैली

३) गरीबी तथा पूँजी का अभाव

४) उच्च जनसंख्या वृद्धिदर

५) बेरोजगारी

६) आम गरीबी

७) आय में विभेद

८) अनियन्त्रित बाजार का विकास

९) गैर सरकारी संस्था का हस्तक्षेप

१०) गैर जिम्मेदार समूह का निर्माण

११) संस्थागत भ्रष्टाचार

१२) राजनीतिक दल तथा नेताओं का अन्तर्राष्ट्रीय क्रियाकलाप


१) कृषि पर आधारित व्यवसाय (8४0-095९० ए-ण९६४& ०)

प्रायः विकासोन्मुख देशों का मुख्य पेशा कृषि ही होता है | कृषि व्यवसाय
ही समुदाय के मूल आमदनी का स्रोत होता है कृषक गाँवों में बसते हैं ।
ये कृषक व्यवसाय अपने देश के अन्य नागरिक से कमजोर होते हैं,
क्योंकि वो बाजार के व्यवसायी से शोषित होते हैं । इसलिए कृषि
व्यवसाय में संलग्न समाज की मनःस्थिति कमजोर होती है ।

२) परम्परागत कार्य शैली (78०0० प९्का०ण०९४१९)

विकासोन्मुख देशों की कार्य शैली में परिवर्तन नहीं हो सकती । आधुनिक
शैली का विकास करने के लिए व्यक्ति में क्रयशक्ति भी उसी अनुरूप
बढ़ता है । विकसित भौतिक संयन्त्र को बिना अपनाए आधुनिक शैली को


)
)


27


अंगीकार नहीं कर सकते । न्‍्यून आय वाले व्यक्ति यह प्राप्त नहीं कर
सकते । इसलिए ये परम्परागत शैली को नहीं छोड़ सकते हैं ।
३) गरीबी तथा पुँजी का अभाव (?ए०एश॥ए गाव 36८ रण ८०एां/)


गरीबी वह है, जहाँ जीवन यापन के लिए आवश्यक स्रोत साधन का
अभाव होता है और पुँजी का अभाव का तात्पर्य व्यवस्थित जीवन को
व्यवस्थापन न कर सकने की अवस्था है । अर्थ शास्त्रीय सिद्धान्त के
अनुसार पुँजी का अर्थ उत्पादन के साधन से है । पूँणी बचत पर निर्भर
है और बचत आमदनी पर । विकासोन्मुख देश के व्यक्ति जितना अर्जित
करते हैं वो सभी जीवन यापन में खर्च हो जाता है और बचत की
स्थिति नहीं रहती । इसलिए पूँजी का संकलन नहीं कर सकने वाले
व्यक्ति गरीब होते हैं । पूँणी से वंचित व्यक्ति ही गरीब होते हैं और
गरीब व्यक्ति के पास पुँजी का अभाव होता है।


४) उच्च जनसंख्या वृद्धिदर (पम्ांशा एकणगांणा (०णएए॥ २7८९)


विकासोन्मुख देशों में अनियन्त्रित रूप में जनसंख्या वृद्धि होती है । शिक्षा
और जनचेतना की कमी के कारण ऐसे देशों में संतान अधिक पैदा
करते हैं जिससे उच्च जनसंख्या वृद्धि दर की स्थिति पैदा होती है । देश
का आयश्रोत कम होता है, जिससे जनसंख्या वृद्धि होने के कारण गरीबी
बढ़ना स्वभाविक ही है | जहाँ गरीबी होती है, वहां ईमान और नैतिकता
का द्वास होता है। व्यक्ति के मस्तिष्क में विकृति के विकास का कारण
ही गरीबी है।

५) बेरोजगारी (एण्ञाशाफए०शाशा)


बेरोजगारी का अर्थ सक्षम व्यक्ति का काम नहीं पाने की अवस्था है ।
विकासोन्मुख देश की मूल समस्या ही बेरोजगारी है । देश के भीतर
काम करने वाली शक्ति काम न मिलने की अवस्था में विदेश चले जाती
हैं। यह स्थिति किसी भी देश के लिए अच्छी नहीं है । किसी भी देश में
जब बेरोजगारी अधिक बढ़ती है तो वहाँ के लोग बेईमान और
अवसरवादी हो जाते हैं ।


बेरोजगारी के कारण व्यक्ति का मानवीय मूल्य और मान्यता खत्म हो
जाती है । इसलिए बेरोजगारी से गरीबी और गरीबी, अभाव सृजना
करती है और मनुष्य में भ्रष्टाचार का जन्म होता है।


28


६) आम गरीबी (४३४५६ ?०एश+7९)


विकासोन्मुख देश की प्रमुख समस्या गरीबी है । गरीबी दूर करने के
लिए कोई ठोस योजना नहीं होने के कारण देश के भीतर गरीबी
बरकरार रहती है । इसकी वजह से व्यक्ति के आचरण में विचलन आता
है, जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता है ।


७) आय में विभेद (05ट०ंग्रां॥900 7 व 0९ पाटणा९)


विकासोन्मुख देश में व्यक्ति की आय में विभेद होता है । रोजगार का
अवसर प्राप्त नहीं होने के कारण, पारिश्रमिक कम होने के कारण आम
व्यक्ति गरीबी से पीड़ित होता है । एक व्यक्ति जितना काम करता है,
दूसरा भी उतना ही करता है पर कभी-कभी पहले व्यक्ति से दूसरे
व्यक्ति की आय दुगुनी तिगुनी अधिक होती है, जिसके कारण आय में
विभेद उत्पन्न होता है । इस अवस्था में व्यक्ति-व्यक्ति में निराशा
उत्पनन होती है और समाज में अविश्वास का वातावरण बन जाता है।


८) अनियन्त्रित बाजार का विकास (0९एशकणाला( ण एात्णाएगारत
0 70 (५8


विकासोन्मुख देशों में बाजार अनियन्त्रित रूप में विकसित हो रहे है ।
बाजार चालाक और धूर्त लोगों के नियन्त्रण में है । यही कारण है कि
आपूर्ति तथा मांग एवं मूल्य नियंत्रण का सिद्धान्त काम नहीं कर रहा है ।
कृत्रिम अभाव के कारण वस्तु का स्थिर मूल्य भी अस्थिर होता है और
मुल्य अनियन्त्रित हो जाता है । इस तरह अनियन्त्रित मूल्य होने के बाद
उपभोक्ताओं पर आर्थिक भार बढ़ जाता है और व्यवसायी आर्थिक रूप
से सबल हो जाते हैं । ऐसे अनियन्त्रित बाजार के विकास से लोगों में
गरीबी बढ़ती जाती है।

९) गैर सरकारी संस्थाओं का हस्तक्षेप (प्रीएशाट९ ए 0/शंज्ञा 70ण-
8०एशगााधधाशावें 0९गां7770॥5)


विकासोन्मुख देशों में विकसित देशों के गैर सरकारी संस्थाओं का
हस्तक्षेप होता है । इसके कारण उस देश धर्म, संस्कृति और
परम्परागत रीतिरिवाज को बदल कर जीवन पद्धति ही बदलने की
कोशिश करते हैं, जिसकी वजह से विकृति फैलती है । विश्व के
किसी भी हिस्से में उत्पन्न समुदाय या समाज अपनी रीति,


29


परम्परागत मान्यता, संस्कार और संस्कृति की आड़ में विकसित
सामाजिक मूल्य और मान्यता के आधार में मानवोचित
जीवनयापन करते हैं । ऐसा सामाजिक विकास शताब्दी से चला
आ रहा है। किसी भी समुदाय या समाज द्वारा अंगीकार की गई
रीति और संस्कृति में दूसरे देशों को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए
किन्तु विकसित देश के गैर सरकारी संस्थान विकासोन्मुख देश में
प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने के कारण समाज की अपनी मूल्य मान्यता
और सांस्कृतिक अवस्था में परिवर्तन होने लगता है ।
विकासोन्मुख देश में रहनेवाले चालाक और धूर्त प्रलोभन देकर
समाज-सुधार के नाम पर करने वाली खेती समाज को कमजोर
और परमुखी बनाते हैं ।

१०) गैरजिम्मेवारी समूह का निर्माण (7९5७एणातआं0९ ८ण्र्ए्रांए)


;2»प


समाज के उत्थान करने वाले जिम्मेदार समुदाय संगठित रूप में
क्रियाशील होते हैं । जो जिस संगठन या निकाय जो जिम्मेदारी लेते हैं,
उसके प्रति वह समूह या निकाय पूर्णतया जिम्मेदार होते हैं । साथ ही
खुद के काम की जवाबदेही लेनी होगी । किन्तु विकासोन्मुख देश में ऐसे
जिम्मेदार समूह या निकाय स्थापित होना कठिन होता है । इसलिए
विकासोन्मुख देश के सभी क्षेत्रों से गैरजिम्मेदार समूह या निकाय
संगठित रूप में संचालित होते हैं । सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
क्षेत्र में नहीं बल्कि राज्य व्यवस्था संचालन करने में प्रशासन के सभी
क्षेत्र में गैरजिम्मेदार समूह का बाहुलल्‍य कायम होता है। यही देश और
जनता के विकास का अवरोधक है।

११) संस्थागत भ्रष्टाचार (वराब्राप्रांणाधांगटत 27077770०णा)

विकासोन्मुख देशों में भ्रष्टाचार संस्थागत रूप में विकास करता है । एक
से अधिक व्यक्ति मिलकर जब भ्रष्टाचार करते हैं तो उसे संस्थागत
भ्रष्टाचार कहते हैं । इसी तरह कानून बनाकर किसी निर्णयद्वारा होने
वाला भ्रष्टाचार भी संस्थागत भ्रष्टाचार के अन्तर्गत आता है। आन्तरिक
या बाह्य दवाब के कारण देश में हुए प्राकृतिक स्रोत-साधन का
परिचालन और हस्तान्तरण होता है । इसी तरह राष्ट्रीय स्वार्थ के
विपरीत करने या कराने वाले कार्य को भी संस्थागत भ्रष्टाचार कहते हैं
। विकसित देश के व्यापारिक संस्था और निकाय भी विकासोन्मुख देशों


30


में ऐसे व्यापारिक संजाल निर्माण करते हैं, जो गरीब राष्ट्र का शोषण
करते हैं । ये शोषित देश के धर्त और चालाक व्यक्ति देश, जनता और
राष्ट्रीयाा को संस्थागत भ्रष्टाचार की सफेद नीति का निर्माण का
शोषण करते हैं ।

१२) राजनीतिक दल और नेताओं का अराष्ट्रीय कार्यकलाप
(#जागगांणारे ग्लांशं।रड5 ण एणांगटग ।0280९0:5 भा0 ए ०९५)
विकासोन्मुख देशों में राजनीतिक दल तथा राजनीतिक नेता का
अराष्ट्रीय क्रियाकलाप अनियन्त्रित रूप में फैलता है । लोकतन्त्र के नाम
पर राजनीतिक दल और दल के नेता द्वारा किए गए हरेक निर्णय देश
और जनता के हित में होते हैं, यह भ्रम फैलाया जाता है और उसी
राजनीतिक भ्रम के माध्यम से राजनीतिक दल तथा राजनीतिक नेता
अपने स्वार्थ को पूरा कर देश और जनता का शोषण करते हैं ।
राजनीतिक दल तथा राजनीतिक नेता जितने भी अराष्ट्रीय कार्य करें
फिर भी उस देश के सर्वसाधारण नागरिक को उनके विरुद्ध बोलने या
विरोध करने की अवस्था नहीं रहती है । राजनीतिक नेता द्वारा किया
गया निर्णय दल के जिम्मा में जाता है और दल उसी राह को जनता के
लिए तय करता है जो जनता का निर्णय हो जाता है। यह स्थिति नहीं
होनी चाहिए थी । विकासोन्मुख देशों में राजनीतिक नेता ही निर्णायक
स्रोत साबित होते हैं । इस तरह तानाशाही प्रवृत्ति का विकास होता है
और जनता और देश दोनों के विरुद्ध में राजनीतिक दल तथा राजनीतिक
नेता स्थापित होते हैं । इनके द्वारा ही भ्रष्टाचार का महान खोलने का
काम होता है और चारो ओर से भश्रष्टाचारजन्य कार्य फैलने का मौका
मिलता है ।


विकसित तथा विकासोन्मुख देश की विशेषता ऊपर संक्षेप में उल्लेखित
की गई है । गरीब अर्थात्‌ विकासोन्मुख देश विकसित देश के करीब
पहुँचने में कठिनाई है, उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है । किन्तु
विश्व के सभी देश समान अवसर और संतुलित विकास के अधिकारी हैं ।
इस समस्याओं का समाधान श्रष्टविरोधी शास्त्र कर सकता है।


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सकारात्मक सोच और समाज की बनावट


ए0ग्राए९ /॥ए00९5 भात 5007 5इ7#)रत/ए९
किसी भी समाज के लोग उनकी सोच और क्रियाकलाप उस समाज का
स्तर निर्धारण करते हैं । समाज का पहचान ही समाज के साथ प्रत्यक्ष
सम्बन्ध रखने वाले व्यक्ति और व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व कराता है।
समाज की उन्नति या अवनति का ग्रोत भी व्यक्ति की सोच ही है ।
मानव समाज की संस्कृति तथा सभ्यता का विकास भी व्यक्ति की सोच
के आधार पर निश्चित होता है।


वर्तमान अवस्था में किसी भी उन्‍नत या अवनत समाज एक देश के
राजनीतिक घेरा के भीतर जकड़े हुए होते हैं । राजनीति भी उसी समाज
के भीतर के नागरिक की सकारात्मक सोच से निर्माण होता है । राज्य
के भीतर रहने वाले नागरिक की सोच ही देश की राजनीतिक व्यवस्था
निर्धारित करने वाले तत्व साबित होते हैं । इसलिए प्रत्येक नागरिक की
सोच सकारात्मक होने पर समाज भी सकारात्मक होकर देश की
उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं । नकारात्मक सोच समाज में व्यभिचार,
अहिंसा और आतंक को निमन्त्रण देते हैं। इसलिए समाज की उन्नति के
लिए सकारात्मक सोच की आवश्यकता पड़ती है और सकारात्मक सोच
सदभाव, सदाचार और मैत्रीभाव की स्थापना करती है।


व्यक्ति यन्त्र नहीं है, जिसे यन्त्र द्वारा नियन्त्रित किया जा सके । व्यक्ति
प्राकृतिक है, उसकी सभी गतिविधि व्यवहार और सोच भी प्राकृतिक ही
है । समय, स्थान और वातावरण से व्यक्ति की सोच में अन्तर आ
सकता है । इसलिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र के सूत्रों के माध्यम द्वारा व्यक्ति
की सोच में परिवर्तन ला सकती है । व्यक्ति को उसका व्यक्तित्व
स्थापित कराता है । व्यक्ति की पहचान और व्यक्ति का स्तर कायम
करने में भी उसके व्यक्तित्व की भूमिका होती है। अर्थात्‌ व्यक्ति का
व्यक्तित्व उसकी सोच के स्तर से कायम होती है । इसलिए समाज,
व्यक्ति और व्यक्तित्व में व्यक्ति के सोच का विशेष महत्व होता है।


व्यक्ति की सोच को निम्न रूप में देख सकते हैं-


32


(१) सकारात्मक सोच
(२) मिश्रित सोच
(३) नकारात्मक सोच


(१) सकारात्मक सोच (70०अंए२९ 00प2॥/१॥॥ए१९)


सकारात्मक सोच को सही सोच भी कह सकते हैं । सदभाव, सदाचार
और मैत्रीभाव आदि इनका गुण है । सही सोच और सकारात्मक चिन्तन
को असल चिन्तन भी कहते है । सकारात्मक तथा सही चिन्तन मानवीय
गुण भी है। मनुष्य की पहचान और मनुष्य के रूप में व्यक्तित्व को
परिष्कृत कर समाज में स्थापित करने के लिए सकारात्मक चिन्तन
आवश्यक है । जो व्यक्ति सकारात्मक चिन्तन लेकर समाज में
क्रियाशील होते हैं, वही व्यक्ति समाज का नेतृत्व लेने में सफल होते हैं
। सही सोच वाले व्यक्ति तत्काल समाज का नायकत्व ग्रहण न करने पर
भी बाद के समय में उसकी सोच और सकारात्मक क्रियाकलाप के
मूल्यांकन के आधार में उसका व्यक्तित्व स्थापित हो सकता है । इसीलिए
सकारात्मक सोच या सही चिन्तन से व्यक्ति का व्यक्तित्व सिर्फ स्थापित
नहीं होता बल्कि समाज की बनावट और स्तर में भी परिवर्तन होता है ।


२) मिश्रित सोच (४४६९१ (0ए९2॥/१(॥00९)


व्यक्ति की सोच को तीन भागों में बांटने पर सकारात्मक और
नकारात्मक सोच के मिश्रित रूप को मिश्रित सोच कहते हैं । मिश्रित
सोच अधिकतर व्यक्तियों में होती है । शिक्षित और अशिक्षित दोनों वर्गों
में सहज रूप से स्वीकार करने वाली सोच मिश्रित सोच ही है । क्‍योंकि
सकारात्मक सोच या सिर्फ नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति, समाज
में कम ही होते हैं । मिश्रित सोच वालों की ही समाज में अधिक संख्या
होती है ।

३) नकारात्मक सोच (५९४३४४९ ॥0ए7९॥07/५१॥0ै76९

सकारात्मक सोच के विरुद्ध की सोच नकारात्मक सोच है । नकारात्मक
सोच वाले व्यक्ति स्वार्थ स्वभाव के होते हैं । इस सोच वाले अपने हित
और दूसरे का अहित कैसे हो इसी सोच में लगे रहते हैं | ऐसी सोच
वाले व्यक्ति समाज के सभी पक्ष में अहित सोचते हैं और देश को
नुकसान पहुँचाने वाले काम मे संलग्न होते हैं । ऐसे व्यक्ति शंकालु और


2. च अ: क


निर्दयी स्वभाव के होते हैं ओर ये हमेशा खुश नहीं रह सकते ।


33





चिन्ताग्रस्त मस्तिष्क होने के कारण समाज में द्वन्द् और आतंक फैलने
की अवस्था देखना चाहते हैं । ऐसी सोच वाले व्यक्ति समाज के दुश्मन
होते हैं और राष्ट्र की उन्‍नति के बाधक होते हैं । उपरोक्त उल्लेखित
सकारात्मक, नकारात्मक और मिश्रित सोच रखने वाले व्यक्ति परिवार
की इकाई से लेकर समाज और समुदाय में पाए जाते हैं । इस ईकाइ के
भीतर सभी एक सोच रखने वाले नहीं होते हैं । किसी भी समुह या
समाज में सकारात्मक और नकारात्मक सोच रखने वाले कम होते हैं ।
जबकि मिश्रित सोच वाले व्यक्ति अधिक होते हैं । इस सोच वाले समूह
को अगर सकारात्मक सोच वाले समेटे तो समाज उन्‍नति और विकास
की राह पर बढ़ेगा, जबकि नकारात्मक सोच की तरफ बढ़ने से अवनति
और अस्थिरता समाज में पैदा होती है । अर्थात्‌ मिश्रित सोच का पक्ष ही
निर्णायक साबित होते हैं ।


व्यक्ति की सोच और समाज के निर्माण को चित्र में देखें-


व्यक्ति


(त असट


उपर्युक्त चित्र में व्यक्ति से सकारात्मक, मिश्रित और नकारात्मक सोच
उत्पन्न होकर व्यक्ति का व्यक्तित्व समाज में प्रवेश करता है । समाज
की बनावट सकारात्मक और नकारात्मक सोच रखने वाले को क्रमशः


34


करीब दस-दस प्रतिशत हैं जबकि मिश्रित सोच वाले अस्सी प्रतिशत हैं ।
ये अस्सी प्रतिशत साधारण नागरिकों को दस प्रतिशत में उच्च या नीच
अवस्था में रहने वाले व्यक्तित्व को अपने प्रभाव में रखकर समाज की
बनावट निश्चित करते हैं । उन्‍नति और विकास की राह में बढ़ता हुआ
देश उच्च क्षेत्र के प्रभाव में रहकर साधारण क्षेत्र को प्रभावित कर
सकारात्मक दिशा की ओर समाज को बढ़ाता है । इसी तरह उन्‍नतिहीन,
अस्थिर और द्वन्द्र के चपेटे में फंसे नीच क्षेत्र वाले समाज के प्रभाव में
पड़कर साधारण क्षेत्र के घेरे में लाकर समाज का ९० प्रतिशत क्षेत्र
समेटा होता है । अर्थात्‌ सकारात्मक पक्ष के उच्च क्षेत्र या नकारात्मक
पक्ष के नीच क्षेत्र ही ऐसा महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जो अधिकतम क्षेत्र समेटे
हुए साधारण क्षेत्र को अपने जैसा बनाकर समाज में पहचान कायम
करने का सामर्थ रखता है।


शिक्षित या अशिक्षित दोनों तरह के वर्ग में विभाजित व्यक्ति की सोच
की प्रकृति में खास अन्तर नहीं होता है । शिक्षित समाज में सकारात्मक
सोच अधिक होती है, जबकि अशिक्षित समाज में कम । इसी तरह
विकसित तथा विकासोन्मुख दोनों तरह के देशों में व्यक्ति, समुदाय और


समाज की प्रकृति भी ऐसी ही होती है ।


सोच की दृष्टि से समाज की उन्‍नति और अवनति को निम्न चित्र में
देखें-


समाजकी बनावट


प्रतिगमन तथा अउन्नत


35


ऊपर के चित्र में समाज की बनावट उच्च अर्थात्‌ सकारात्मक सोच
रखने वाले १० प्रतिशत और नीच अर्थात्‌ नकारात्मक सोच वाले १०
प्रतिशत दिखाया गया है और ८० प्रतिशत साधारण अर्थात्‌ मिश्रित सोच
वाले हैं | साधारण वर्ग में बहुसंख्यक होने के बाद भी यह वर्ग उच्च या
नीच वर्ग द्वारा प्रभीवत होकर उसी न्युन वर्ग में शामिल हो जाते हैं ।
इसी तरह न्यून वर्ग के साथ घुल मिल कर समाज की उन्नति या
अवनति का मार्ग निर्देशित होते हैं । अर्थात्‌ सकारात्मक सोच के न्युन
वर्ग मिश्रित वर्ग को अपने वर्ग के भीतर समेट कर समाज अग्रगामी
होते हुए समयानुकूल विकास करता है । इसी तरह नकारात्मक वर्ग
मिश्रित वर्ग को समेट कर समाज में प्रतिगमन ही नहीं बल्कि द्वन्द्र,
आतंक और अस्थिरता कायम करते हैं । इस तरह अस्थिरता की
पृष्ठभूमि में भ्रष्टाचार विकसित होता है ।





विकसित देश की सामाजिक अग्रगामी होती है और विकासोन्मुख देश
की सामाजिक बनावट प्रायः प्रतिगामी होती है ।


सकारात्मक सोच से विवेकशील निर्णय (रांगाब 9८तंतञ्रंणा ४९
70आ॥0॥ए0९ पश्र।।एाए३)

सकारात्मक सोच की उपज विवेकशील निर्णय है । जो व्यक्ति
विवेकशील निर्णय दे सकता है, वही व्यक्ति समाज में महान्‌ व्यक्ति के
रूप में पहचान बनाता है | निर्णय नागरिक तह से हो या किसी राज्य
के अधिकार प्राप्त पदाधिकारी की तरफ से हो, ऐसा निर्णय महत्व रखता
है । समाज में एक कोने में रहने वाले सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति
वर्ग द्वारा किया गया विवेकपूर्ण निर्णय और क्रियाकलाप से सम्पूर्ण
समाज को दिशा निर्देश कर सकता है और पूरे समाज को सकारात्मक
निर्णय की राह में चलाने में समर्थ बना सकते हैं । इसलिए सकारात्मक
सोच से विवेकशील निर्णय सामने आता है । यह हम समभ सकते हैं।
विवेकशील निर्णय समाज का मेरुदण्ड है।


36


नकारात्मक सोच से समाज विरोधी व्यवहार(॥ग5००ंग छशाकशं०्पा'
7'णा ट४०४7४९ पएशांगरताए)


सकारात्मक सोच से समाजविरोधी व्यवहार उत्पन्न होता है । समाज
विरोधी व्यवहार को सामाजिक विकृति भी कहते हैं । नकारात्मक सोच
वाले व्यक्ति में नैतिकता का अभाव होता है और स्वार्थी मनोवृत्ति का
विकास भी होता रहता है । ऐसी सोच वाले व्यक्ति भूठ बोलने वाले
और दूसरों का सम्मान नहीं करने वाले तथा दूसरों को क्षति पहुँचाने
वाली प्रकृति के होते हैं। इसलिए इनसे समाज और राष्ट्र की उन्‍नति
की अपेक्षा नहीं की जा सकती है । यह द्वन्द्न्‍, आतंक और अपराध को
बढ़ाने का काम करते हैं ।


ऊपर उल्लेखित विवेकशील निर्णय सकारात्मक सोच की उपज है और
समाज विरोधी व्यवहार नकारात्मक सोच की उपज है। इन्हें पृथक रूप
में रखकर विश्लेषण करना चाहिए । अर्थात्‌ ये दोनों पक्ष और विपक्ष को
पृथक रूप में व्याख्या कर दोनों पक्ष को सही प्रकार से संचालन करना
चाहिए । सकारात्मक सोच किस तरह समाज के हित में काम करेगा
और नकारात्मक सोच किस तरह अहित करेगा, यह श्रष्टविरोधी शास्त्र
तय कर सकता है । इसलिए इसका अध्ययन आवश्यक है ।


37


भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास


70९०एशेक्‌णशा। ए (प्रॉफार उ९गााड (07फतस्‍णा


समाज की संस्कृति मनुष्य के जीवन की पद्धति निर्धारित करती है ।
समाज में जिस तरह की संस्कृति का विकास होता है, उस समाज के
मनुष्य की जीवन पद्धति भी उसी प्रकार की होती है । उदाहरण के लिए
मांस, मछली नहीं खाने वाले लोग हर जीव-जन्तु को अपनी तरह ही
प्रेम करते हैं | जिस संस्कृति में व्यक्ति जन्म लेता है, पलता-बढ़ता है,
वह उसी में जीना चाहता है । इसी तरह भ्रष्टाचार विरोधी संस्कृति की
स्थापना कर उसका अगर विकास किया जाय तो श्रष्टविरोधी
क्रियाकलाप में समाज के हर व्यक्ति का सहयोग प्राप्त होगा । इसीलिए
विश्वव्यापी रूप में फैले भ्रष्टाचार को न्‍्यूनीकरण करने के लिए, उसके
नियन्त्रण के लिए भ्रष्टाचार विरुद्ध की संस्कृति का विकास करना होगा ।
नीति तथा संस्कृति (05 भात थाएाएट)

नीति और संस्कृति को अलग करके या न करके भी देख सकते हैं ।
मानव तथा मानव समाज के विकास के मूल आधार के रूप में रही
नीति तथा संस्कृति को भश्रष्टविरोधी शास्त्र में समावेश कर गहनतम
अध्ययन करना होगा । नीति को नीतिशास्त्र व्याख्या विश्लेषण करता है
तथा संस्कृति का मानव संस्कृति का विज्ञान विस्तृत अध्ययन कराता है।
नीति और संस्कृति हमेशा सही पक्ष का होता है । नीति और संस्कृति
खराब होने के साथ ही समाज विपरीत दिशा में मुड़ जाता है । इसीलिए
नीति तथा संस्कृति सकारात्मक पक्ष में होता है और इसका परिणाम भी
सकारात्मक होता है । नीति मानव जीवन में विविध व्यवहार कायम
करने की दिशा निर्देश करता है और संस्कृति मानवीय जीवन पद्धति को
व्यवस्थित करता है।

नीति और संस्कृति को अलग-अलग देखें-

नीति- नीति अर्थात्‌ विभिन्‍न समय में समाज में अग्रणी द्वारा मानवहित
के लिए निर्माण की गई नीति तथा उनके द्वारा स्वीकार किए गए विधि
व्यवहार को समभना । साथ ही इसे जीवन आनन्द और सफल ख्प में


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संचालन करने की विधि मानना । इसे जीवनोपयोगी रूप में संचालित
करने के लिए निर्धारित आचरण, आचार संहिता और नीति नियम के
लिए मानना होगा । प्राचीनकाल से मानव सभ्यता के विकास के लिए
किसी जाति, वर्ण और सम्प्रदाय के प्रवर्तकों द्वारा स्थापित नीति नियम
तथा सिद्धान्त को भी नीति शास्त्र परिभाषित करता है । नीति विज्ञान
मानव-चरित्र, मानव-आचरण और मानव-व्यवहार के लिए आवश्यक
नीतिगत सिद्धान्त की व्याख्या करता है । नीति के बारे में संक्षेप में कहा
जाय तो, नीति की पालना करने से उच्चतम मानवीय गुण प्रदर्शित
होता है ।

संस्कृति : संस्कृति अर्थात्‌ किसी जाति वर्ग तथा समाज के संचालन और
क्रियाकलाप व्यवस्थित करने के लिए बने व्यवहार को परिकृष्त एवं
सभ्य रूप में समभना होगा । व्यक्ति तथा समुदाय के सामाजिक जीवन,
कला, कौशल, आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार को भी संस्कृति
का अभिन्‍न अंग के रूप में मानना होगा । जिस समाज में संस्कृति
जीवन यापन की पद्धति को संस्कारित एवं परिष्कृत करके उच्चतम
जीवनयापन का मार्ग प्रशस्त करता है, वह समाज उच्च कोटि का
विकसित समाज होता है | इस तरह संस्कृति मानव-जीवन की पद्धति
को व्यवस्थित रूप में संचालन कर मानव-व्यवहार को स्थायित्व प्रदान
करता है । नीति और संस्कृति अलग प्रकृति का होने पर भी उनका
परिणाम एक ही तरह का होने के कारण उन्हें निम्न चित्र चित्रण करता
है। ये अलग होकर भी एक है और एक होकर भी अलग हैं-


हज लि जय


संस्कारित एवं सम्य तथा सुसंस्कृत
परिष्कृत पद्धति जीवन पद्धति


गम,


उपरोक्त चित्र प्रमाणित करता है कि मानवहित के लिए निर्मित नीति
तथा पालन की गई संस्कृति एक ही जगह में अर्थात्‌ एक घेरा के भीतर
रह सकता है किन्तु एक दूसरे में घूलमिल नहीं सकता । किन्तु भ्रष्टाचार
विरुद्ध की संस्कृति विकास करने के क्रम में नवीन नीति का निर्माण कर
संस्कृति के व्यवहार में मिला सकता है । इसलिए परम्परागत नीति
सिद्धान्त की आड़ में नवीन नीति निर्माण कर नवीन संस्कृति निर्माण कर


39


एक आपस में घेराबन्दी कायम कर सकती है । इस तरह दोनों तत्व
केन्द्रित होकर संस्कारित एवं परिष्कृत पद्धति का निर्माण कर सकते हैं
और सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन पद्धति का विकास भी कर सकते हैं।


भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास (0९एशक्आला[ ० 4्रा।टणफफुंणा
।0॥।(॥॥॥ 0 -|

सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन पद्धति के विकास के लिए आवश्यक नीति
तथा संस्कृति निर्माण का ब्योरा ऊपर के अध्याय में उल्लेख हुआ है ।
अब श्रष्टविरोधी संस्कृति के विकास के लिए कैसी नीति निर्माण होनी
चाहिए, इस पर विचार करना चाहिए । हमारे साथ मानव-कल्याण और
मानवीय जीवन-पद्धति की शाश्वत नीति तथा सिद्धान्त रहते हैं । इसी
नीति तथा सिद्धान्त को सतर्कता के साथ लागू अगर किया जा सके तो
भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास हो सकता है । इस सत्यता से हम
परिचित हो सकते हैं । इसलिए भ्रष्टविरोधी संस्कृति के विकास के लए
नवीन सिद्धान्त का प्रादर्भाव करने की आवश्यकता भी नहीं है। मानवीय
जीवनयापन के लिए चली आ रही संस्कृति को जीवन पद्धति में ढालने
तथा समाज में चली आ रही नीति-नियम को अपना सकने वाले व्यक्ति,
वर्ग और समुदाय को हम भश्रष्टविरोधी संस्कृति के लिए मार्गनिर्देश कर
सकते हैं । विश्व के विकसित एवं विकासोन्मुख सभी देशों में अभावग्रस्त
जीवन बिताने के लिए बाध्य व्यक्ति और समुदाय है । उन्हें नवीन
संस्कृति प्रभावित नहीं कर सकते । किन्तु देश के व्यक्ति सुसंस्कृत, सभ्य
और जीवनयापन की विधि में अनुशासित होते हैं, ये व्यक्ति तथा
समुदाय इस नवीन भ्रष्टविरोधी संस्कृति से प्रभीवत हो सकते हैं ।


भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास करते हुए इसकी लक्षित इकाई को
पहचानना चाहिए । इसका लक्षित इकाई है, उसके बाद समुदाय और
समाज है । संस्कृति को व्यक्ति धारण करते हैं इसलिए जीवन पद्धति
कहते हैं और समुदाय जब इसे ग्रहण करता है, तो वह संस्कृति
कहलाती है । इसलिए व्यक्ति संस्कृति को सम्भालने की कोशिश करता
है । व्यक्ति और समाज में विद्यमान संस्कृति का अनुसरण करता है और
पालन करने की कोशिश करता है।


भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास तथा संरक्षण समुदाय या समाज से
सम्भव है । इसके सार्थक तत्व को समभने के लिए निम्नलिखित तीन
प्रश्नों का खंगालना होगा-


40


१) सामूहिक स्वार्थ को प्राथमिकता के साथ कैसे आगे बढ़ाया जाय ?

२) सामूहिक रूप में शक्तिवान कैसे बना जा सकता है ?

३) समुद्ध समाज का निर्माण कैसे हो ?

इन समस्याओं के समाधान के लिए किसी नवीन सिद्धान्त का निर्माण
करने की आवश्यकता नहीं है । मानव-समाज में जितने भी नीति तथा
सिद्धान्त हैं, उनके पालन करने का वातावरण सृजना करनी चाहिए ।
मानव-जीवन सदियों से अंगीकार किया हुआ शाश्वत सत्य सदाचार
और सत्य विचार है । सदाचार और सत्य विचार ही मानवीय मूल्य
मान्यताओं को स्थापित करने वाले तत्व है, जिनकी आड़ में व्यक्तिगत
स्वार्थ त्याग करने की प्रवृति का विकास समाज में सहजता के साथ
होता है और इसके साथ ही भश्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास भी होता है।
भ्रष्टविरोधी संस्कृति के विकास के लिए निम्नलिखित तथ्य को लेकर
किसी भी माध्यम द्वारा सर्वसाधारण नागरिक में जानकारीमूलक
कार्यक्रम संचालन करना चाहिए । इस प्रकार के कार्यक्रम के प्रचार-
प्रसार से व्यक्ति को सदैव सतर्क रखा जा सकता है | उदाहरण के लिए-


१) भ्रष्टाचार के द्वारा कमाए गए धन का किसी भी दिन राष्ट्रीयकरण
हो सकता है । इस तरह सिर्फ धन का हरण नहीं होता बल्कि
जीवन भर कारावास भी भोगना पड़ता है।


२) पाए गए अधिकार का दुरूपयोग करने पर सिर्फ योग्यता पर प्रश्न
नहीं उठता बल्कि सजा भी मिलती है । जानबूक कर अख्तियार
दुरूपयोग करने पर दण्ड और जुर्माना दोनों का भागीदार बनना
पड़ता है।





३) भ्रष्ट व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार करता है और इसका असर
उसके परिवार और सदस्य पर पड़ता है।


४) जल्दी और तुरन्त गति में धन प्राप्त करने की चाहत में व्यक्ति या
समुदाय भ्रष्टाचार का सहारा लेता है।

५) किसी भी प्रयोजित ऐन से सम्पत्ति का शुद्धिकरण करने से
भ्रष्टाचारी सदाचारी में परिवर्तित नहीं हो सकता । यह ज्ञान सबको
होना चाहिए ।


44


६) साथ ही आधुनिक युग में राजनीतिकर्मी और संचारकर्मी शक्तिवान
होते हैं । मूलतः राजनीतिक नेता तथा संचारगृह इन दोनों में
आर्थिक अनुशासन कायम कर आचार संहिता का निर्माण कर
उसके भीतर बाँधना पड़ता है।


उपरोक्त बातों का अक्षरश: पालन करने से भश्रष्टविरोधी संस्कृति के
विकास के लिए नया क्षितिज बन सकता है । इस तरह भ्रष्टाचार के
विरुद्ध में समाज में भ्रष्टविरोधी संस्कृति का आरम्भ हो सकता है।


हमें यह समभना चाहिए कि भ्रष्टाचार व्यक्ति के एकल निर्णय से अन्य
व्यक्तियों में पहँँचता है । इस तरह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति द्वारा ही
भ्रष्टाचार के समूह का निर्माण होता है । इसलिए कहते हैं कि समूह
भ्रष्टाचार नहीं करता । किन्तु वर्तमान युग में व्यक्ति से अधिक भ्रष्टाचार
में समूह ही फसता है | समूह तथा समाज को ठीक राह में चलाना
आसान है । वह राह है कड़े कानून का निर्माण और कानून का पालन
होने या न होने की तदारुकता के साथ अनुगमन ।


१) कानून निर्माण का अर्थ ही नीति का निर्माण है।

२) पालन करने का अर्थ ही संस्कृति का विकास है।

उपरोक्त चित्र नं. १ की अवस्था को फिर से चित्र नं. २ में भी देख
३ जे

सकते हैं-


सतर्कता एवं भ्रष्टविरोधी
सचेतनाका विकास संस्कृतिका विकास


कानून के निर्माण और उसके अनुगमन के हिस्से में एक तरफ समाज
में सतर्कता एवं सचेतना का विकास होकर कानून का पालन होता है,
वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास होता है | इसलिए
भ्रष्टविरोधी संस्कृति के विकास के लिए आवश्यक नीति निर्माण करना
चाहिए और साथ ही उसे लागू करने वाली संस्कृति का विकास करना
चाहिए ।


42


नीतिगत संस्कृति का विकास (0९एश०काआशा॥। ० पांटव टपएश)
भूगोल, जाति और समय द्वारा स्वीकार करने वाली संस्कृति ही विकसित


एवं विकासोन्मुख देश के समुदाय और समाज में प्राचीन काल से
विभिन्‍न तौर तरीका द्वारा स्थापित होता है । एक समूह या समुदाय की
संस्कृति दूसरे के साथ भी मिले होते हैं, किन्तु मानव कल्याण और
उन्नति की दृष्टि से कई नीति तथा सिद्धान्त मिले हुए होते हैं । जिस
समुदाय की संस्कृति-नीतिगत रूप में विकसित होकर स्थापित होता है,
वह समुदाय और समाज उन्नत भी होता है । कतिपय समाज में विकुत
संस्कृति प्रायः पाती है । ऐसी संस्कृति को स्वीकार करने वाला समुदाय
तथा समाज दुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए बाधय होता है ।
इसलिए नीतिगत संस्कृति के विकास से व्यक्ति, समुदाय और समाज की
उन्नति होती है ।

नीति अगर सही संस्कृति स्थापित करती है, तो संस्कृति सभ्यता को
स्थापित करती है | सभ्य और सुसंस्कृत व्यक्ति तथा समाज नीतिगत
सिद्धान्त की स्थापना करता है । नीतिगत सिद्धान्त सदाचारी समाज की
स्थापना करने में मदद करता है | इस चक्रीय सिद्धान्त की आड़ में
भ्रष्टाचार विरुद्ध की नीतिगत संस्कृति का विकास अगर होता है तो
व्यक्ति, समुदाय तथा समाज में भ्रष्टविरोधी संस्कृति का विकास होता है
। इसलिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र भ्रष्टाचार विरोधी संस्कृति का विकास करने
में समर्थ हो सकता है।


43


मनोदशा का सही और खराब पक्ष
७0०06 १6 छ06 3579९९5 एप ९ 89९ ए 'शाा0


मानव मन का विश्लेषण तथा व्याख्या मनोविज्ञान शास्त्र करता है ।
मनोविज्ञान शास्त्र की परिधि के भीतर रह कर भश्रष्टविरोधी शास्त्र भी
मानव मनोदशा का सही और खराब पक्ष का विश्लेषण करता है ।
अध्ययन की आवश्यकताअनुसार मनोदशा का विश्लेषण करने के लिए
सीमित परिधि में रहकर मानव मनोदशा का विश्लेषण करता है । मानव
प्रकृति एवं मनो सोच का विचार करने पर मानव-मनोदशा को पाँच
वर्ग में बांटा जा सकता है। मानव मनोदशा विभक्त करने के पाँच वर्ग
हैं- आधार, विचार कर्म, भाव और प्रवृत्ति । ये पाँच तत्व मानवीय
मनोदशा के मूल तत्त्व है और ये सकारात्मक प्रकृति के हैं। ये तत्व है-
(क) आचार (ख) विचार (ग) कर्म (घ) भाव (ड) प्रवृत्ति ।
क) आचार ((0०7070०) ४: आचार से मानवीय जीवनयापन की पद्धति
निश्चित होती है । आचार अर्थात्‌ उसके द्वारा मनुष्य के सही
जीवनयापन करने वाले नियम तथा सिद्धान्त के अनुसार पालन करने
वाले आचरण तथा व्यवहार समभ सकते हैं । आचरण के भीतर रहने
और आचरण पालन करने वाला व्यक्ति ही समाज में विशेष स्थान
रखता है | साथ ही समाज में वह मर्यादा प्राप्त करता है। आचार को
मानव आचरण तथा व्यवहार के परिष्कृत रूप और नैतिक रूप में देखने
के कारण मानव जीवन में इसका विशेष महत्व होता है ।
ख) विचार ([॥00£2)/) : मानव सोच का विकसित रूप विचार है ।
मानव मन में कोई समस्या, विषय या स्थिति के बारे में गहराई
सोचने वाले काम को विचार कहते हैं । विचार से संकल्प लेने वाले



विचार ही व्यक्ति को और उसके व्यक्तित्व का परिवर्तन करती है
विचार ही व्यक्ति है और व्यक्ति ही विचार है ।


ग) कर्म (७०४०): कर्म का अर्थ कर्तव्य अर्थात्‌ काम है । मनुष्य


भौतिक शरीर पाता है, काम के लिए और वह शरीर के माध्यम से काम
करता है। मनुष्य दो प्रकार से काम करता है- एक मानसिक और दूसरा


से
यु
|


44


शारीरिक । इन दोनों कामों का एक जैसा महत्व होता है । काम से ही
व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है ।


घ) भाव (007700): मानव के मस्तिष्क में उठने वाले चिन्तन या
कल्पना का तरंग ही भाव है । भाव विचार पैदा करती है । और विचार


भाव उत्पन्न करते हैं । मनुष्य के गुण श्रद्धा, आस्था और सदभावना भी
भाव की परिधि में आते हैं।


ड) प्रवृति (०॥१९॥८९): प्रवृति मनुष्य का स्वभाविक गुण है । मनुष्य के
मन का लगन और व्यवहार से उपजने वाला स्वभाव ही प्रवृति है ।
मनुष्य की प्रवृति मनुष्य के आचरण और विचार को बढ़ावा देती है।
मनुष्य का आचार और विचार मनुष्य की प्रवृत्ति को निश्चित करते हैं।
उपरोक्त पाँच तत्वों से व्यक्ति के विकास होने वाले व्यक्तित्व परिवर्तन
का कार्य जारी रहता है ।


व्यक्तित्व


[ व्यक्ति


व्यक्ति का आचार और विचार कर्म निर्धारण करते हैं । साथ ही भाव
और प्रवृत्ति भी कर्म निश्चित होते हैं । कर्म सही होने पर व्यक्ति का
व्यक्तित्व भी उसी हिसाब से स्थापित होता है, इस तथ्य को उपरोक्त
चित्र में दिखाया गया है ।


मनोदशा का सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष : ऊपर उल्लेखित (क)
आचार (ख) विचार (ग) कर्म (घ) भाव और (3) प्रवृत्ति ये पाँच तत्व खुद


45


में सकारात्मक हैं । ये सकारात्मक हैं एवं साधन हैं, किन्तु साध्य नहीं ।
इन मानवीय गुणों को सही तथा खराब श्रेणी में रखकर देख सकते हैं-


मनोदशा सही पक्ष खराब पक्ष

क) आचार सदाचार कुआचार

ख) विचार सद्विचार कविचार
ग) कर्म सत्‌कर्म कुकर्म
घ) भाव सद्भाव कुभाव
ड) प्रवृत्ति सदप्रवृत्ति कृप्रवृत्ति


मानवीय सही गुण तथा खराब गुण को मानवीय तत्व आचार, विचार,
कर्म, भाव और प्रवृत्ति को हमने देखा । सही तथा खराब पक्ष में
विभाजन कर पाँच तत्वों को दस खण्ड में विभाजित कर सकते हैं ।
गणितीय हिसाब से हमारे पास दस अंक हैं । ये दस अंक ही
गणितीयशास्त्र का मूल अंग हैं।


अर्थात्‌ १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ० अंक का प्रयोग कर सही और
खराब पक्ष की मनोदशा का विभाजन कर के देखें-


१. सदाचार २. कुआचार

३. सदविचार ४. कविचार

५. सतकर्म ६. ककर्म

७. सतभाव ८. कभाव

९. सतप्रवृत्ति ० कप्रवृत्ति

२४ गुण पक्ष २० अवगुण पक्ष


मानवीय गुण पक्ष का योग २५ है और अवगुण पक्ष का योग २० है।
२५ से २० घटाने पर ५ अंक शेष बचता है । ५ के अंक मे सतकर्म है।
उसी तरह २०+२५८४५, ४५/५-९ । ९ सतप्रवृत्ति को बताता है। अंक
५ सतकर्म को करने का वातावरण बनाता है यह तथ्य प्रमाणित होता है ।


मानव-मनोदशा की कमी कमजोरी के बारे में हम ऊपर संक्षिप्त रूप में
देख चुके हैं । इसे सकारात्मक राह में ले जाने वाले तथ्य भी हमने
प्रमाणित किया है । मानवीय मनोदशा स्वभाविक है । इसे सही पक्ष में
ढाल कर व्यक्ति, समुदाय और समाज विवेकशील निर्णय लेने की
अवस्था की सूजना भ्रष्टविरोधी शास्त्र कर सकता है।


46


उचित तथा अनुचित कार्य की पहचान


तशा।ाट्गांणा ण एएक्श गाव रए7"क्ृश' गताशंग९ड


समाज में उचित तथा अनुचित कार्य होते रहते हैं । जो जैसे कार्य की
जिम्मेदारी लेता है, वो अगर अपना कार्य ढंग से करे तो सर्वपक्षीय
विकास सम्भव है । जिम्मेदारी पाने वाला व्यक्ति, समुदाय या संस्था
अनुचित कार्य करता है तो वह समाज कमजोर हो जाता है और विकास
कार्य रुक जाता है । इसलिए उचित तथा अनुचित कार्य की पहचान
करने वाला वातावरण पैदा करने की आवश्यकता है।


कोई भी कार्य उचित तरीके से करना चाहिए । उचित कार्य करने में
वह सफलता प्राप्त करता है । सफल तथा विकसित समाज निर्माण
करने के लिए, उचित कार्य करने के लिए वातावरण तैयार करना पड़ता
है । किसी भी कार्य हेतु जिम्मेदारी पाने वाला व्यक्ति, समुदाय अथवा
संस्था को उचित कार्य ही करना चाहिए । ऐसे उचित या अनुचित दोनों
प्रकार के कार्य विभिन्‍न जिम्मेदारी पाने वाले व्यक्ति, समुदाय तथा संस्था
से ही होता है । समाज में ऐसे जिम्मेदार क्षेत्र बहुत होने पर भी
महत्वपूर्ण निकाय या क्षेत्र पर विचार करें-

१) प्रशासनिक तथा न्यायिक अधिकार प्राप्त व्यक्ति


२) राज्य व्यवस्था में सुरक्षा की जिम्मेदारी प्राप्त व्यक्ति

३) स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवा में क्रियाशील व्यक्ति

४) खेल तथा मनोरअ्जन क्षेत्र में सक्रिय व्यक्ति

५) जनप्रतिनिधि तथा जनअधिकार प्राप्त व्यक्ति

६) सामाजिक सेवाकार्य में संलग्न व्यक्ति ।

१) प्रशासनिक तथा न्यायिक अधिकार प्राप्त व्यक्ति (50#₹शंट९ वलांस्शफ
गा छपा)ऑओर बग्रा457गाणा गाते [एगंतंगण)

प्रशासनिक तथा न्यायिक अधिकार प्राप्त व्यक्ति या संस्था को कानून के
अनुसार काम करना और कराना चाहिए । कानून की अपव्याख्या कर या
कानून की अवहेलना कर कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए । साथ ही
कानून प्रयोग करने वाले अधिकारी को अपने विवेक का भी प्रयोग करना


47


चाहिए । व्यक्ति या संस्था के द्वारा पाए गए अधिकार के अनुसार कानून
की अपव्याख्या करके किया गया काम तथा अधिकार का दुरूपयोग
करना अनुचित है।

२) राज्य व्यवस्था में सुरक्षा की जिम्मेदारी प्राप्त व्यक्ति (२९५७०णाअं0९
एश'5णा5 गा 6९ 5९णाणाए ए 76 520९)

राज्य व्यवस्था में सुरक्षा की जिम्मेदारी प्राप्त व्यक्ति या संस्था को अपनी
जिम्मेदारी पूर्णरूप से निर्वाह करनी चाहिए । देश की रक्षा की जिम्मेदारी
पाने वाले सैनिक हो या आन्तरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी प्राप्त प्रहरी हो


कं


या किसी अन्य सुरक्षा निकाय से सम्बद्ध व्यक्ति वा संस्था, सब को
अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूर्णएरूप से पालन कर राज्य व्यवस्था द्वारा
निर्दिष्ट किए गए कार्य को ईमानदारीपूर्वक करना पड़ता है । राज्य
व्यवस्था के द्वारा दी गई जिम्मेदारी को पूरा नहीं करने वाले व्यक्ति या


संस्था को राज्य विरुद्ध का अपराधी माना जाता है।


३) स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवा में क्रियाशील व्यक्ति (एश5०णा #९९९ ज॥


ग९रगाटर्गाीी गात रकादगांणागे 5९९००)


स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवा में क्रियाशील व्यक्ति या संस्था को सेवाभाव से
काम करनी चाहिए । स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र मुनाफामूलक क्षेत्र नहीं है,
बल्कि सेवा क्षेत्र हैं । इसलिए इस क्षेत्र में सेवाभाव से ही कार्य करना
चाहिए । विश्व के प्रायः सभी देशों में इन क्षेत्रों का व्यवसायीकरण हो
चुका है। जो सही नहीं है । सेवा कार्य हमेशा निःशुल्क होना चाहिए ।
४) खेल तथा मनोरज्जन क्षेत्र में सक्रिय व्यक्ति (१०ए९ ग 8भा९५ धात
7#९टाश्गांगा)

खेल तथा मनोरअ्जन क्षेत्र में सक्रिय व्यक्ति अथवा संस्था को देश और
जनता के प्रति पूर्ण ईमानदार होना चाहिए | खेल जगत राष्ट्रीय अस्मिता
के साथ जुड़ा होता है । इसलिए खिलाड़ी को दूसरे देशों के हाथ नहीं
बिकना चाहिए । बहुत से खिलाड़ी व्यक्ति या संस्थागत रूप में विपक्षी
के साथ मिलकर खेल हारते हैं, जो अनुचित कार्य है । इसी तरह
मनोरंजन के नाम पर जुआ घर तथा वेश्यालय जैसे सामाजिक
क्रियाकलाप और क्लब आदि नहीं खोलने या चलने देना चाहिए।


48


५) जनप्रतिनधि तथा जनाधिकार प्राप्त व्यक्ति(7९०फा९5 7श7९5शागांणा


भात €रश'ठं5९५)


जनप्रतिनधि तथा जनाधिकार प्राप्त व्यक्ति या संस्था हमेशा जनता तथा
देश के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है । जनप्रतिनिधि अर्थात्‌ स्थानीय
निकाय से लेकर राष्ट्रीय निकाय के उच्च स्तर तक का व्यक्ति समभना
चाहिए । साथ ही व्यवस्थापिका सभी के प्रतिनिधि जो जनता के द्वारा
प्रत्यक्ष या परोक्ष निर्वाचन प्रणाली द्वारा चुने जाते हैं, ये प्रतिनिधि भी
इसी वर्ग में आते हैं । इनके द्वारा जो गैर जिम्मेदारीपूर्ण कार्य होते हैं
उसे अख्तियार का दुरूपयोग कहते हैं । इतना ही नहीं, बहुत
विकासोन्मुख देशों में सत्ता प्राप्ति के लिए व्यवस्थापिका या संसद्‌ के
सदस्यों का मूल्य निर्धारण कर जनप्रतिनिधि खरीद-विक्री करते हैं । यह
कार्य पूर्ण अनुचित कार्य है । ऐसे कार्यों को रोकने का वातावरण तैयार
करना चाहिए ।


जे 4५


६) उद्योग, व्यापार तथा व्यवसाय क्षेत्र के व्यक्तितातान7ंगां&,


फैपग्ा९5शाधशा गात ए/'0९5४०॥व95)

इस क्षेत्र में संलग्न व्यक्ति तथा संस्था को अपने व्यवसाय के प्रति

ईमानदार होकर व्यवसाय करना चाहिए । व्यवसाय में विचलन नहीं

आना चाहिए । किन्तु विकासोन्मुख देशों के उद्योगी, व्यापारी तथा

व्यवसायी अधिक मुनाफामूलक कार्य में संलग्न होते हैं और व्यवसाय के
हे


प्रति ईमानदार नहीं होते । गैरव्यवसायिक कार्य भी अनुचित कार्य है,
इसलिए ऐसे कार्यों को रोकने का वातावरण सृजना करना चाहिए।


७) सामाजिक सेवा कार्य में संलग्न व्यक्ति(एश'5०॥5 8550ठ॑ख९१ जात
50०ंगे 5९"शं८९)


सामाजिक सेवा कार्य में संलग्न व्यक्ति या संस्था सेवाकार्य में निःस्वार्थ
रूप से सेवारत होना पड़ता है । दूसरे देशों के प्रलोभन में आकर समाज
सेवा के नाम पर व्यवसाय करने वाले व्यक्ति या संस्था सेवा कार्य का
व्यवसायीकरण करते हैं । ऐसे व्यवसायिक कार्य से समाज का भला नहीं


होता है । इसके साथ ही विकासोन्मुख देशों में गैरसरकारी संथा के नाम


49


में संचालित ऐसे बहुत से सामाजिक संस्था सेवा से अधिक लाभ देखने
वाले तथा धन अर्जित करने वाले संस्था के रूप में क्रियाशील होते हैं,
जो अनुचित कार्य हैं । ऐसे नाफामूलक सामाजिक संस्था पर पूर्ण
नियन्त्रण रखना होगा ।





उचित या अनुचित कार्य होने वाले क्षेत्र के बारे में ऊपर संक्षिप्त में
उल्लेख किया गया है । किन्तु इससे भी अधिक और भी क्षेत्र है, जहाँ


उचित या अनुचित कार्य होते हैं । इन सभी क्षेत्रों को अध्ययन के दायरे
में लाना होगा।


उचित या अनुचित कार्य स्पष्ट दिखाई नहीं देता है । किन्तु ऐसे कार्यों
का नतीजा ही कार्यों को उचित या अनुचित निर्धारित करता है। ऐसे
सभी क्षेत्रों के कार्य को सुक्ष्म रूप से अध्ययन करने के लिए राज्य
संयन्त्र तैयार करना होगा । इस तरह संयन्त्र तैयार करने के लिए
अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग संयन्त्र तैयार करना होगा । ऐसे
संयन्त्रों को विभिन्‍न क्षेत्र में हो रहे कार्यों का निरीक्षण, अनुगमन तथा
मूल्यांकन करना चाहिए तभी अनुचित कार्य करने की प्रवृत्ति निरुत्साहित
हो सकती है।


50


नैतिक तथा आध्यात्मिक चेतना


ि०्न्गे गा0 5छागाएवगोे (०णाइटं0प्रणरार55


के


नागरिक जीवन में नैतिक चेतना का विशेष महत्व होता है | चेतना
सिर्फ मानव में ही नहीं बल्कि हर एक प्राणी में होती है । किन्तु मनुष्य
में दूसरे प्राणियों से अलग प्रकृति की चेतना होती है । नैतिक तथा
आध्यात्मिक चेतना के कारण मनुष्य अन्य प्राणियों से भिन्‍न होता है ।
अर्थात्‌ चेतना के प्राकृतिक गुण के कारण ही मनुष्य पहचाना जाता है।
मनुष्य में नैतिक तथा आध्यात्मिक चेतना मात्र होना या नैतिक चेतना
होने में फर्क है । यही मानवीय चेतना की उपज के कारण समाज और
राज्य को उन्‍नति या अवनति सहना पड़ता है।


नैतिक चेतनायुक्त नागरिक आज की आवश्यकता है । जिस समाज में
नैतिक चेतनायुक्त नागरिक का वास होता है, वहाँ समाज का चौतरफा
विकास होता है । जिस देश के नागरिक नैतिक चेतनायुक्त सोच, आचार
और कर्म करते हैं, वहाँ के नागरिक समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त
करते हैं । ऐसे नागरिक अपने राष्ट्र को उन्नत बनाते हैं।

नैतिक चेतना (0०वें ९णा5इट0फ75255)- नैतिक चेतना अर्थात्‌ सही
आचार युक्त ज्ञान तत्व । ऐसे ज्ञान तत्व की पहचान नागरिक का कर्म
दिखाता है । इसका विकासक्रम देखें- (१) सोच (२) आचार (३) कर्म


१. सोच ([॥0प९४॥/)

चेतना की पहली उपज ही सोच है । सोच अच्छे और बुरे दोनो पक्ष को
स्वीकार करती है । नैतिक चेतनायुक्त व्यक्ति की सोच अच्छी होने से
उसके अच्छे कर्म का प्रारम्भ होता है । जिस प्रकार की सोच शुरु होती
है, उसका अन्त भी उसी तरह होता है । इसलिए सोच ही परिणाम
प्राप्ति की प्रारम्भिक अवस्था है।

२) आचार ((-000000)


आचार व्यक्ति का आचरण है । जो व्यक्ति जिस समाज में जन्म लेता है,
उस समाज की संस्कृति से व्यक्ति का आचरण और व्यवहार निर्माण


54


होता है । आचरण मनुष्य की असली पहचान को कायम करती है।
आचरण ही सही सोच और सही कार्य का प्रारम्भ कर सकता है।


३) कर्म (8०[०0)


कर्म सोच का अन्तिम परिणाम है। सोच निश्चित राह तैयार करती है।
योजना कर्म सम्पन्नता में जोड़ देती है । कर्म ही सोच की अन्तिम बिन्दु
है।

नैतिक चेतनायुक्त नागरिक की सोच से समाज और राष्ट्र में सही कार्य
शुरु हो सकता है | नागरिक की नैतिक चेतना अर्थात्‌ ज्ञान तत्व से
उत्पन्न होने वाली सोच, आचार और कर्म को चित्र में देखें-


उपरोक्त चित्र में नैतिक चेतना की आड़ में (१) सोच (२) आचार और (
३) कर्म, ये तीनों तत्व समानुपातिक रूप में निर्माण होता हुआ दिखता
है । नैतिक चेतना की आड़ में ये तीनों तत्व जिस नागरिक में समाविष्ट
होते हैं, वही समाज का असल नागरिक होता है।


नागरिक में नैतिक चेतना आने का तात्पर्य है, उसमें अपने समाज और
राज्य के प्रति का दायित्व समभ सकने की क्षमता का सृजन होना ।
नागरिक की चेतना ही उसे सही आचारयुक्त ज्ञान दिलाती है। ऐसे ज्ञान
तत्व से युक्त व्यक्ति समाज और राज्य का सही नागरिक बन सकता है
। सही नागरिक ही समाज और राष्ट्र का विकास कर सकता है ।


52


इसलिए राज्य का दायित्व होता है कि राज्य के भीतर चेतना युक्त
नागरिक तैयार करे । राज्य जब यह दायित्व बोध करेगा, तभी नागरिक
को जीने के लिए आर्थिक अवस्था सृजना कर सकता है । आधारभूत
शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था भी राज्य को करनी चाहिए इसी तरह
नागरिक की आधारभूत आववश्यकता की पूर्ति होने के बाद नागरिक
सचेत होने लगते हैं । सचेतना ही नैतिक चेतना का प्रारम्भ विन्दु है ।
नैतिक चेतना अभिवृद्धि करनी होगी सिर्फ इस नारा से नागरिक के
जीवन में नैतिक चेतना नहीं आ सकती । नैतिक चेतना युक्त नागरिक
तैयार करने के लिए राज्य के भीतर विशेष योजना होनी चाहिए । इसके
लिए राज्य को विशेष कार्यक्रम लाना होगा । राज्य को ऐसा वातावरण
तैयार करने होंगे जिसमें नागरिक सुरक्षित है, वह यह महसूस कर सके ।


राज्य की ओर से आधारभूत शिक्षा देने और दिलाने वाला कार्य के साथ
आर्थिक अवस्था सुधार करने वाले कार्य के बाद ही नागरिक में नैतिक
चेतना की वृद्धि होती है । इसके स्थायित्व के लिए राज्य को हमेशा
प्रयत्तशील रहना होगा । नैतिक चेतना के विकास को निम्न चित्र में
देखें-


नेतिक चेतना


्ा शिक्षा


बी 4 सचेतना


आर्थिक अवस्था


उपरोक्त नैतिक चेतनायुक्त नागरिक जीवन को पंखे के रूप में चित्रित
किया गया है । आधारभूत शिक्षा नागरिक को अनिवार्य रूप से मिलनी
चाहिए । जीने के लिए आर्थिक अवस्था भी सही होनी चाहिए । इसके


53


रत


बाद ही नागरिक समुदाय में चेतना वृद्धि हो सकती है । सामाजिक
चेतना से ही नैतिक चेतना जागरुक हो सकती है । इस तरह नैतिक
चेतनायुक्त नागरिक अपने समाज में नैतिक चेतना का जागरण कराता
है । वह चक्र हमेशा चलने वाला प्रकृति का होना पड़ता है । इसी गति
में समाज का विकास भी अपनी गति कायम करता है।


आध्यात्मिक चेतना का विकास (प्र तलएशक्रणशा ए छञॉंगराएगोे


९णा500फ752८55)


आध्यात्मिक चेतना के विकासक्रम का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है।
आध्यात्मिक चेतना को प्राचीन काल से ही अभ्यास में लाने के कारण
ही विश्व मानव-समाज में बहुत से समुदाय सभ्य, सुसंस्कृत और
विकसित हुए हैं । आध्यात्मिक चेतना प्रादुर्भाव होने वाले स्थान हाल में
लोपोन्मुख अवस्था में है । आध्यात्मिक और भौतिक विकास की
होड़बाजी में भौतिक विकास ने समाज में अधिक स्थान ले लिया है फिर
भी आध्यात्मिक ज्ञान का विकास कम होता जा रहा है । अगर
आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान का बराबर रूप में विस्तार किया जाय
तो समाज विकास की गति काफी तीव्र हो सकती है । इसकी
आवश्यकता और महत्व को समभकर भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान


का विकास सन्‍्तुलित रूप में हो सकता है । इसलिए इसके अध्ययन को
यहाँ समावेश किया गया है।


चेतना ज्ञान की पहली बिन्दु है । इसलिए चेतना के आधार में
आध्यात्मिक और भौतिक पक्ष को देखना चाहिए । आध्यात्मिक और
भौति क को 2० दिखाने के तरीका जप त्रिको० न
भौतिक पक्ष को दिखाने के लिए तीन बराबर सरल तरीका से ॥
का निर्माण करें ।


7 के


(री शीः5 रत


54


उपरोक्त आध्यात्मिक त्रिकोण में चेतना की सरल रेखा में ज्ञान तथा बुद्धि
की सरल रेखा से निर्मित त्रिकोण के मूल केन्द्र में विवेक स्थापित हुआ है
। क्योंकि विवेक आध्यात्मिक चेतना की उपज है । इसी तरह दूसरे
भौतिक त्रिकोण की सरल रेखा में सोच और कर्म को सरल रेखा से
निर्मित त्रिकोण के मूल केन्द्र में भौतिक विकास स्थापित हुआ है। एक
त्रिकोण विवेक पैदा करता है तो दूसरा विकास । ये दोनों मानवहित और
समाज के विकास के लिए आवश्यक है।


इन दोनों त्रिकोण को अगर एक दूसरे में मिलाया जाय तो षड़कोण
बनता है, जो ज्ञान का मूल भण्डार है।


विवेक
सोच कर्म
सचेतना
हि!
भण्डार
ज्ञान बुद्धि
विकास


उपरोक्त चित्र में षड़कोण विश्वविख्यात सचेतना और ज्ञान का मूल
भण्डार है, जो आध्यात्मिक और भौतिक चेतना से निर्मित दोनों अलग-
अलग त्रिकोण से निर्माण हुआ है । इसलिए आध्यात्मिक पक्ष के भौतिक
विकास को संग-संग लेकर जाने से अधिक उपलब्धि हासिल कर सकता
है। यह बात ऊपर चित्रित षड़कोण प्रमाणित करता है।

नैतिक तथा आध्यात्मिक चेतना :

नागरिक जीवन में नैतिक तथा आध्यात्मिक चेतना की आवश्यकता
होती है । उस आवश्यकता की पूर्ति नागरिक समाज सिर्फ नहीं कर


55


सकता । इसलिए राज्य को समाज की बनावट के अनुसार योजना
बनाकर संचालन करना चाहिए । नैतिक चेतना का प्रारम्भिक बिन्दु
सचेतना है, उसी तरह आध्यात्मिक चेतना का मूल तत्व भी सामाजिक
चेतना ही है । आध्यात्मिक चेतना का विकास होना समाज की संस्कृति
निश्चित करती है । राज्य द्वारा परम्परागत संस्कृति का संरक्षण और
सम्वर्द्धन करते हुए आध्यात्मिक चेतना का विकास करने का वातावरण
तैयार करना होगा, इस बात का उल्लेख भ्रष्टविरोधी शास्त्र के अध्ययन
में किया जा चुका है । इसलिए नैतिक चेतना तथा आध्यात्मिक चेतना
को राज्यव्यवस्था को अपना दायित्व समभकर विकसित करना होगा ।
और नागरिक के जीवन स्तर को समानुसार विकसित कराने की
व्यवस्था करनी होगी । राज्य की सेवायुक्त सेवा से नागरिक जीवन में
नैतिक तथा आध्यात्मिक चेतना वृद्धि हो सकती है । जो मानव और
मानव समाज के विकास के लिए आवश्यक है।


56


सही शासन


(72000 (0०एशयथागा९९


विश्व का छोटा-बड़ा सभी राज्य द्वारा संचालित राज्य व्यवस्था सही
शासन होने के बाद भी शासन पद्धति की प्रत्याभूति होने के लिए
प्रजातान्त्रिक देश में उस देश के नागरिकों का मौलिक हक पूर्ण सुरक्षित
होना चाहिए । अर्थात्‌ सही शासन को ही नागरिक अधिकार के रूप में
लिया जाता है । सही शासन में राज्य व्यवस्था द्वारा लेने वाली निर्णय-
प्रक्रिया के हरेक तह में उस देश के नागरिकों की सक्रिय सहभागिता
होनी चाहिए । साथ ही कानून द्वारा निर्धारित कार्य सम्बन्धित निकाय से
समय में विधि सम्मत ढंग से सम्पन्न होना चाहिए । राज्य के निर्णय
करने वाले तह से हुआ निर्णय और उसके कार्यान्वयन करने वाले
जिम्मेदार व्यक्ति या निकाय से होने वाले कार्य ऐन-कानून में हुए
प्रावधान के अनुसार होना चाहिए । ऐसे राज्य के विभिन्‍न स्तर से
प्रत्याभूत निर्णायक कार्य उस देश के हरेक नागरिक को समभकना,
अनुभव करना और अनुभूत करने की अवस्था ही सही शासन पद्धति
समभना होगा । राज्य की नीति तथा विधि निर्माण करना और ऐसे
नीति तथा विधि को कार्यान्वयन करने के लिए राज्य संयन्त्र में भ्रष्टाचार
रहने तक सही शासन की परिकल्पना नहीं कर सकते । इसलिए
भ्रष्टाचार सही शासन का बाधक होने के कारण ही सही शासन में
भ्रष्टाचार नियन्त्रित होना चाहिए । अर्थात्‌ भ्रष्टाचार की शून्य
सहनशीलता की अवस्था ही सही शासन ला सकती है । ऐसी अवस्था में
नागरिक को राज्य का कोई भी निर्णय खरीदना नहीं चाहिए, न्याय की
खरीद बिक्री नहीं होती और नागरिक सहज रूप में आर्थिक, राजनीतिक,
सामाजिक और कानूनी न्याय प्राप्त कर सकता है । सही शासन का
तात्पर्य राज्य और राज्यव्यवस्था में क्रियाशील विभिन्‍न कानूनी संस्था
द्वारा अधिकार प्रयोग कर के आम नगारिक का हित है| ऐसे अधिकार
को प्रयोग करने वाले राज्य स्तर के पदाधिकारी को हमेशा वैधानिकता,
उत्तरदायित्व, पारदर्शिता, जनसहभागिता और सेवा अभिमुखीकरण के
सिद्धान्त का सम्मान और परिपालन करके आगे बढ़ना होगा ।


57


राज्य की राजनीतिक व्यवस्था और शासकीय स्वरूप भिन्‍न-भिन्‍न हो
सकते हैं । शासकीय स्वरूप के कारण राज्य में सही शासन संचालन
नहीं होता । किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में भी सही शासन स्थापना
करने के सही शासन के सिद्धान्त का पालन होना चाहिए | इसी शासन
के लिए नेतिकता, ईमानदारी और विश्वासयुक्त समाज की अवाश्यकता
पड़ती है । इसके अतिरिक्त इसके ६ अनिवार्य तत्व हैं- (१) भ्रष्टाचार
नियन्त्रित अवस्था काननी शासन (३) स्थानीय स्वायत्त शासन (४)
पारदर्शिता (५) सूचना का अधिकार (६) सार्वजनिक उत्तरदायित्व ।


१) भ्रष्टाचार नियन्त्रित अवस्था (0०7एफए0ंणा ०णा7णा९्त आऑप्रधांणा)


किसी भी समाज और राष्ट्र में कानून, नैतिकता और प्रजातन्त्र जैसे
सदगुण के विरोध में कार्य संचालन होने तक भ्रष्टाचार बढ़ने का क्रम
जारी है । इस तरह भ्रष्टाचार विकसित होने से शासन संयन्त्र में
भ्रष्टाचार द्वारा छापा मारने पर सही शासन की तो परिकल्पना भी नहीं
कर सकते । सही शासन के विरुद्ध में रहनेवाला भ्रष्टाचार देश में
आर्थिक असमानता की ही सजना नहीं करता बल्कि समाज के नेतिक
मलल्‍्य का अवमल्यन कर अराजकता की भी सजना करता है ।
अराजकता सिर्फ राजनीति अस्थिर नहीं करती बल्कि राज्य के अस्तित्व
को समाप्त करने की अवस्था ले आती है।


सही शासन के लिए कानून द्वारा निर्धारित कार्य को इन निकायों द्वारा
सही और जल्दी गुणस्तरयुक्त तरीके से कार्य सम्पन्न करना चाहिए ।
निर्णयकर्ता और निर्णय के कार्यन्वयनकर्ता के बीच में किसी स्वार्थ के
तहत काम नहीं रोकना चाहिए और सेवाग्राही को सुलभ तरीका से सेवा
प्राप्त करने की अवस्था का विकास होना चाहिए | सही शासन पद्धति में
छोटा या बड़ा घूस का लेन-देन नहीं होना चाहिए और अनिवार्य सेवा के
शर्त के हिसाब से सेवा प्रदायक द्वारा सेवा प्रदान करनी चाहिए ।


भ्रष्टाचार नियन्त्रण के लिए कोई एक व्यक्ति, समुदाय और निकाय का
सक्रिय होना काफी नहीं है । देश की स्थायी तथा राजनीतिक सरकार
को भ्रष्टाचार के विरुद्ध में विशेष योजना लाकर भ्रष्टाचार नियन्त्रण कर
अपनी इच्छाशक्ति के साथ जनता के प्रति प्रतिबद्ध ओर ईमानदारी दिखा
सकती है। कानून को अत्याधिक विवेकाधिकार प्रयोग कर हस्तक्षेप करने
का वातावरण नहीं तैयार करना चाहिए । शासकीय तह में आर्थिक


58


क्रियाकलाप और अधिक विवेकाधिकार प्रयोग करने वाला क्षेत्र क्रियाशील
व्यक्ति या समुदाय का निगरानी कर छानबीन के दायरा में लाना चाहिए।


भ्रष्टाचार नियन्त्रण के उपायों को उपचारात्मक उपाय द्वारा ही नहीं
बल्कि निषेधात्मक उपाय से भी देखना चाहिए । जिस भी उपाय से
समाज भ्रष्टाचार को नियन्त्रित अवस्था में होने से सही शासन पद्धति
का विकास हो सकता है । सही शासन के विकास के लिए भ्रष्टाचार


नियन्त्रित समाज का निर्माण करना होगा।
२) कानूनी शासन (शा।€ ० .9७)


कानूनी शासन का अर्थ शासन व्यवस्था के सर्म्पूण क्रियाकलाप कानून
द्वारा स्थापित तथा नियन्त्रित होना चाहिए । कानूनी शासन नागरिक और
सरकार के बीच अन्तरसम्बन्ध और उससे सम्बन्धित पद्धति और प्रक्रिया
के बारे में नागरिको की भावना के अनुसार व्यक्त होता है । ऐसे
संवेदनशील अन्तर समबन्ध को दृष्टिगत कर कानूनी शासन की विधि
और नीति के निरन्तर अभ्यास से ही कानूनी शासन स्थापित किया जा
सकता है । सरल अर्थ में यही कहा जा सकता है कि कानून पर
आधारित, कानून द्वारा निर्देशित तथा कानून द्वारा अभिनिश्चित शासन-
व्यवस्था ही कानूनी शासन है। साथ ही दूसरे अर्थ में प्रत्येक नागरिक
को कानून शिरोधार्य करना चाहिए और कानून द्वारा ही शासित होने की
भावना का विकास करना चाहिए । सरकार की अख्तियारी में रहने वाले
नियमितता, सत्यता और कानूनी जिम्मेदारी से ही सरकार भी पीछे नहीं
हट सकती । इसलिए नागरिक और सरकारी सभी निकायों को कानून के
शासन में अनुबंधित होकर चलना चाहिए ।


प्रजातान्त्रिक पद्धति में कानूनी शासन के लिए सकरार भिन्न-भिन्न अंगों
का निर्माण करती है । इन निकायों के काम निर्धारित होते हैं-
कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका । शक्ति पृथकीकरण के
सिद्धान्त के आधार में एक निकाय, दूसरे निकाय के कार्य में दखल नहीं
कर सकती । हस्तक्षेप और प्रभाव नहीं पड़ने वाले कानून को सर्वमान्य
सिद्धान्त की व्याख्या कर के प्रतिस्थापित किया गया । इसकी आड़ में
विश्व में प्रजातान्त्रिक व्यवस्था सुचारु रूप में संचालित हुए हैं । जिस
देश में न्यायपालिका के ऊपर कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का (
राजनीतिक) हस्तक्षेप होता है और व्यवस्थापिका के ऊपर कार्यपालिका
का (राजनीतिक हस्तक्षेप होता है उस देश में शक्ति पृथकीकरण के


59


सिद्धान्त के अनुसार कार्यपालिका, न्‍्यायपकालिका और व्यवस्थापिका
स्वतन्त्र नहीं हो सकते । सरकार के ये तीनों अंग एक दूसरे के प्रभाव में
अगर काम करेंगे तो उस देश में प्रजातन्त्र कभी स्थायित्व नहीं पा
सकता अर्थात्‌ सरकार अस्थिर होती है, न्यायपालिका कमजोर होती है
और कानून लाचार । ऐसी अवस्था में कानूनी शासन का सिद्धान्त काम
नहीं करता । कानून का शासन संचालन के लिए नागरिक को भी उतना
ही सक्षम होना पड़ता है, जितना कानून नागरिक को निर्देशित करना
चाहता है । राज्य के द्वारा निर्माण करते समय नागरिकों की चेतना स्तर
को जाँच कर कानून निर्माण करना चाहिए । जनता अभ्यस्त नहीं हो
पाने वाले कानून को राज्य लागू नहीं कर सकता है। जनता की भावना
जनआवश्यकता और जन स्वसंचालित होने वाले कानून का निर्माण
होना चाहिए । इसीलिए कानून का अर्थ जनता की आवश्यकता है ।
व्यवस्थित कानून नेता को न्याय प्रदान कर सकता है | ऐसी कानून
व्यवस्था होने पर ही कानूनी शासन चल सकता है। किसी भी देश में


कानून बनाने में वह कानून कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं जनता की
शिक्षा, आर्थिक अवस्था और राजनीतिक चेतना के आधार में शासन
व्यवस्था संचालन करने के लायक कानून का निर्माण करना होता है।
इस सिद्धान्त के आधार में बना संविधान, ऐन, नियम और विनियम की
चेतना का स्तर, जातीय संस्कृति, सामाजिक व्यवहार और मूल्य मान्यता


के आधार पर निर्मित कानून का शासन संचालन करना होगा ।


कानून के शासन के लिए पाँच तत्वों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, ये तत्व
आपस में समनन्‍्वयात्मक सम्बन्ध कायम करते हुए एक को दूसरे के
अधिकार, स्वतन्त्रता और सर्वोच्चता स्वीकार कर उसी अनुसार से
व्यवहार करना चाहिए । ये पाँच तत्व हैं- सार्वभौम जनता, संविधान,
कार्यपालिका, न्यायपालिका । पूर्णरूप में सम्बन्धित होने पर भी इनके
अस्तित्व अलग रूप में कायम होते हैं।


60


इसे निम्न चित्र में देख सकते हैं-


68 संविधान
सार्वभौम जनता


2४


न्यायपालिका


व्यवस्थापिका


कार्यपालिका


इसे क्रमवद्ध रूप में देखने से पता चलता है कि यह एक बिन्दु से
दूसरे बिन्दु तक क्रमशः जुड़ा हुआ है । सार्वभौम जनता, व्यवस्थापिका,
कार्यपालिका, संविधान और न्यायपालिका इस तरह एक आपस में
पूर्णरूप में सम्बन्धित होने के बाद भी अपना अलग बिन्दु कायम कर
उनका स्वतन्त्र अस्तित्व भी कायम होता है । जनता की बिन्दु से शुरु
होकर रेखा जनता में आकर समाप्त होने से एक तारा तैयार होता है,
जिसे कानून का, शासन का तारा कह सकते हैं।


३) स्थानीय स्वतन्त्र शासन (,0८9 $९2[-8०एश7भा<९)


किसी भी राज्य के शासन व्यवस्था में जनता की सक्रिय सहभागिता न
होने तक प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था सफलता नहीं पा सकती ।
स्थानीय जनता की सहभागिता, सहयोग और सहमति में स्थानीय ग्रोत
साधन की परिचालन करते हुए स्थानीय समस्या का समाधान के लिए
स्थानीय निकाय का अधिकार सम्पन्न कराना ही स्थानीय स्वायत्त
शासन है । राज्यव्यवस्था स्थानीय स्तर में करने वाले सम्पूर्ण कार्य
केन्द्रीय स्‍तर से सम्भव नहीं होने के कारण स्थानीय स्तर की समस्या
ज्यों की त्यों है । जिसमें विकास की आवश्यकता है और जिसे योजना
के संचालन से स्थानीय जनता को संस्थागत रूप में संगठित करा कर
स्थानीय तह का चारो ओर से विकास करने के लिए स्थानीय स्वयत्त
शासन की आवश्यकता है ।

राज्य व्यवस्था के केन्द्रीय तह में जो भी शासकीय सत्ता का स्वरूप


००. ॥


होने पर भी निचले तह के गांव तथा नगर के विकास करने और वहां


464


रहने वाले जनता का जीवन स्तर उठाने के लिए स्थानीय स्वायत्त
शासन की पद्धति स्थापित होनी चाहिए । ऐसे स्थानीय स्वायत्त निकाय
को शक्ति विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त के अनुसार आवश्यक सभी शक्ति
स्थानीय रूप में संचालन होने की व्यवस्था करनी होगी । तभी जाकर
स्थानीय स्वायत्त शासन संचालन हो सकता है । किसी भी राज्य में
स्थानीय निकाय सक्षम और मजबूत नहीं होने तक स्थानीय तह के
विकास नहीं हो सकते । और स्थानीय तह के विकास नहीं होने पर
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था मजबूत नहीं हो सकती । प्रजातन्त्र की दुनिया ही
स्थानीय निकाय है । वास्तव में केन्द्र के बाधा और अवरोध के बिना
स्थानीय स्वायत्त शासन संचालन होने से प्रजातान्तिक व्यवस्था सफल
मानी जाती है ।

४) शासन में पारदर्शिता (॥7था5एभशाट९)

प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को लम्बी अवधि तक संचालन करने के लिए
पारदर्शिता के सिद्धान्त को राज्य को स्वीकार करना होगा । जिस राज्य
व्यवस्था में शासन-संचालन की प्रणाली में पारदर्शिता कायम नहीं
होती, वहाँ विकृति और विसंगति फैलने के कारण श्रष्टाचार को
फैलाने का अवसर मिलता है । भ्रष्टाचार के कारण शासन-व्यवस्था में
संलग्न व्यक्ति, समुदाय या निकाय निरंकश और स्वेच्छाचारी होकर
तानाशाह बन जाते हैं, जो प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के शत्रु हैं ।
पारदर्शिता का अर्थ राज्य व्यवस्था के सभी नीति-नियम, परम्परागत
संस्कृति, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और स्वाधीनता, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए
कायम करने के सम्बन्ध में नीति कायम होना चाहिए । जैसे मनुष्य का
शरीर प्रदर्शन करने के समय में ढकने वाले जगह को ढक कर प्रदर्शन
करता है, उसी तरह राज्य की मूल नीति तथा सिद्धान्त के साथ
स्वाधीनता और राष्ट्रीय सुरक्षा में कोई आँच न आए, ऐसी शासन
व्यवस्था में पारदर्शिता के सिद्धान्त को राज्य को अवलम्बन करना
चाहिए ।


राज्य संचालन का जिम्मा लेकर सरकार नागरिक के हित और कल्याण
के लिए क्या-क्या योजना बनाई है और कैसे संचालन किया है, यह
जानकारी लेने का अधिकार सभी नागरिक का होता है । पारदर्शिता के


सिद्धान्त के अनुसार राजनीतिक आदि राज्यव्यवस्था का कोई भी
सार्वजनिक पद कारण करने वाले पदाधिकारी द्वारा किए गए कोई भी


62


निर्णय तथा कार्य के सम्बन्ध में सार्वजनिक विचार विमर्श और
छानबीन कर सकते हैं । इस तरह पारदर्शी मान्यता की रक्षा होने
वाली पद्धति का विकास होने से सार्वजनिक हित के लिए कार्यरत
व्यक्ति, समूह और निकाय के बीच जानकारी तथा दायित्व आदान-
प्रदान होने वाले वातावरण की सृजना होती है । प्रजातान्त्रिक शासन
प्रणाली में पारदर्शिता कायम रखना जनता का नैसर्गिक अधिकार है ।
जनप्रतिनिधि के रूप में स्थापित सरकार उचित ढंग से काम किया है
कि नहीं, राज्य और जनता के हित में नीति और कार्यक्रम संचालन
किया है या नहीं और सार्वजनिक पदाधिकारी द्वारा जिम्मेदारीपूर्ण कार्य
हुआ है कि नहीं ये सभी बातें पारदर्शी व्यवहार से जाना जा सकता है
। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि पारदर्शिता खुले समाज की ऐसी
तस्वीर है, जहाँ कोई भी सार्वजनिक क्षेत्र में क्रियाशील व्यक्ति, समुदाय
और निकाय के व्यवहार, आचरण और क्रियाकलाप को सार्वसाधारण
सभी निरीक्षण और परीक्षण कर सकते हैं ।

पारदर्शी राजनीतिक व्यवस्था में नागरिक को सार्वजनिक निर्माण के
बारे में पर्याप्त जानकारी देता है । सरकार की हर एक क्रियाकलाप का
जानकारी नागरिक को होनी चाहिए । नागरिक के हित के लिए
संचालित कोई भी विषय सरकार को गोप्य नहीं रखना चाहिए । राज्य
व्यवस्था में अधिकार प्रयोग करने वाला व्यक्ति तथा समुदाय अपने
काम कार्यवाही समुचित ढंग से निर्देशित करने के लिए, नियमन करने
के लिए और नियन्त्रण करने के लिए कार्य करता है । ऐसे कार्य में
संलग्न होने वाले को वैधानिकता, उत्तरदायित्व और पारदर्शिता के
सिद्धान्त का परिपालन करके क्रियाकलाप आगे बढ़ाना पड़ता है।


सार्वजनिक सम्बन्धित निकाय की निर्णय प्रक्रिया पारदर्शी तथा
छानबीन के लिए खुला होना चाहिए । किसी भी महत्वपूर्ण विषय में
निर्णय लेने के लिए सहभागिता खुला कर राष्ट्रीय एवं स्थानीय तह में
नागरिक समाज की अधिक से अधिक संलग्नता होने का वातावरण
तैयार करना होता है । साथ ही पारदर्शिता को सुदृढ़ करने के लिए
सूचना प्रवाह पद्धति का विकास कर आम जनता में खुद सहभागी हूँ
कि भावना का विकास करना होगा । तब कहीं जाकर पारदर्शी सिद्धान्त
का अवलम्बन हुआ है, यह माना जा सकता है । अगर ऐसा होता है
तो भ्रष्टाचार होने की सम्भावना कम होती है।


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५) सूचना का हक (रांड्ठा। (0 गरा/णि9007)


सूचना का हक अर्थात्‌ जानकारी लेने का कार्य है । वर्तमान
प्रजातान्त्रिक यग, सचना का यग है । व्यक्ति, समदाय और राष्ट का
विकास करने के लिए सूचना का अत्यन्त महत्व होता है | सूचना से
अधिक मजबत कछ नहीं होता है । देश की सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक नीति निर्माण के साथ ही व्यक्ति और सम॒दाय का हक और
स्वतन्त्रता की प्रत्याभूति के लिए भी सूचना चाहिए । सूचना से व्यक्ति
और समुदाय का मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत बनाकर उनकी
कार्यक्षमता को बढ़ाकर सशक्तिकरण करने में मदद कर प्रजातान्त्रिक
अभ्यास को समाज में स्थापित कर सकते हैं।

सूचना के हक को महत्व को समभकर वर्तमान समय में सभी
प्रजातान्त्रक देश ने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है जो
अत्यन्त आवश्यक भी है । प्रजातान्त्रिक पद्धति की प्रतिपादित अवस्था
में सरकार वैधानिक होती है । सरकार की वैधानिकता जनता की
सहमति और समर्थन में स्थापित होती है । जनसहभागिता जुटाने के
लिए, जनता द्वारा जनता विचार व्यक्त करना, जनता की सहमति
कायम करना सचना में जनता की पहँँच की स्थिति निर्धारण करती है
। इसलिए प्रजातन्त्र, जनता ओर सरकारी क्रियाकलाप को एक आपस
में सम्बन्ध कायम रखने के माध्यम के रूप में सूचना का हक स्थापित
हआ है।


चना का दा भागां म॑ बाट कर दख सकते ह-


ढ््<


१) सक्रिय प्रकाशन (२) निष्क्रिय प्रकाशन


सूचना पाने वाला व्यक्ति या निकाय द्वारा बिना मांगे सूचना प्राप्त
करने की शैली को सक्रिय प्रकाशन कहते हैं और माँगकर सूचना पाने
के तरीका को निष्क्रिय प्रकाशन कहते हैं । सूचना का सक्रिय प्रकाशन
और सूचना के हक को पूर्णरूप में स्थापित अवस्था समभना होगा, जो
प्रजातन्त्रिक, उत्तरदायी और प्रभावकारी होता है । राज्यव्यवस्था में
क्रियाशील व्यक्ति, निकाय और सरकार से सूचना की अपेक्षा रखते हैं ।
किन्तु ऐसी अपेक्षित सूचना मांग करने के सम्बन्ध में विचार करने से
सूचना का हक केवल सार्वजनिक महत्व के सूचना के साथ सम्बन्धित
होना होगा । किसी भी सार्वजनिक महत्व की सूचना नहीं छुपानी


64


चाहिए । ऐसी सूचना सक्रिय प्रकाशन के रूप में प्रकाशित होने वाला
वातावरण सूचना के हक में स्थापित होता है।

६) सार्वजनिक उत्तरदायित्व (?एफ्॥८ १८८००ए्आा०थां।ंए)

वर्तमान युग में विश्व के सभी राज्य प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के माध्यम
द्वारा राज्य व्यवस्था संचालन किया है । जिस-जिस देश में प्रजातान्त्रिक
व्यवस्था है, वो सभी देश में जल्दी ही सार्वजनिक उत्तरदायित्व के
सिद्धान्त के अनुसार राज्यव्यवस्था स्थापित हुआ है । सार्वजनिक
उत्तरदायित्व से सही शासन कायम होता है । सरकार नागरिक के प्रति
संवेदनशील हो, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संस्कार परिमार्जित
होते जाते हैं । सार्वजनिक उत्तरदायित्व जितना भी प्रभावकारी रूप में
लागू होता है, उतना ही उस देश में प्रजातन्त्र संस्थागत है और
नागरिक के प्रति उत्तरदायी सरकार वाले देश में सार्वजनिक
उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में सरकार को संवेदनशील होना पड़ता है ।
साथ ही नागरिक को भी उतना ही जिज्ञास होकर सरकार के प्रत्येक
क्रियाकलाप में सहभागिता करनी चाहिए ।


सार्वजनिक उत्तरदायित्व यानि सार्वजनिक क्षेत्र में पाया हुआ अधिकार,
काम-कर्तव्य और दायित्व आदि भी पालन करने या न करने की
अवस्था । ऐसे अनिवार्य जवाब देने की व्यवस्था में सार्वजनिक
उत्तरदायित्व की अच्छी व्यवस्था लागू होना समझ सकते हैं । इस
व्यवस्था से सार्वजनिक पद धारण करने वाले या अधिकार प्राप्त व्यक्ति,
समूह या संगठन पूर्णरूप से देश, राज्य और जनता के प्रति उत्तरदायी
समभना चाहिए । सार्वजनिक जिम्मेदारी वाले या किसी शक्ति केन्द्र में
पद पाने वाले व्यक्ति अगर सार्वजनिक उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं
करती है तो उसके अधिकार और पद का दुरूपयोग होता है और
भ्रष्टाचार की सम्भावना बढ़ जाती है । बावजूद इसके प्रजातान्त्रिक
देशों में सार्वजनिक दायित्व का महत्व बढ़ा है।


सार्वजनिक दायित्व के विषय में विचार करने पर (क) सार्वजनिक
दायित्व की बेैधानिकता और (ख) राज्य के विभिन्‍न निकाय में
सार्वजनिक उत्तरदायित्व के बारे में विचार करना होगा ।


65


क) सार्वजनिक दायित्व की वैधानिकता (,€छञप8८ए ० एफांट

7१०८८०एा गा)

सार्वजनिक दायित्व को वैधानिकता पाने के लिए और उस व्यवस्था को

लागू करने के लिए निम्न तीन तत्वों को क्रियाशील होना चाहिए
काननी व्यवस्था (२) नेतिकता (३) सजगता

१) कानूनी व्यवस्था (८९४ 5ए४ांशा)


सार्वजनिक दायित्व को कायम रखने के लिए राज्य द्वारा कानन निर्माण
कर दायित्व निर्धारित किया जाता है | देश के मल कानन संविधान
और उसके अन्तर्गत बना हआ ऐन, नियम और विनियम में सार्वजनिक
दायित्व के बारे में उल्लेख होना चाहिए । इस तरह ऐन-नियम से
निर्दिष्ट कार्य को सार्वजनिक पद धारण करने वाले व्यक्ति, समुदाय या
सरकार को पालन करना होता है । जो इसकी अवहेलाना करते हैं वो
राज्य द्वारा सजा के हकदार होते हैं । यह कानूनी व्यवस्था ही
सार्वजनिक दायित्व पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


२) नैतिकता (&पां८७)


सार्वजनिक जिम्मेदारी प्राप्त व्यक्ति, समूह या संस्था को कानून द्वारा
उत्तरदायित्व अगर नहीं भी निर्दिष्ट किया गया हो तो भी वह पीछे
नहीं हट सकता । किसी भी जिम्मेदारी का दायित्व वहन करने के साथ
ही नैतिक जिम्मेदारी भी स्वतः आ जाती है । ये नैतिक जिम्मेदारी
कानून द्वारा निर्दिष्ट जिम्मेदारी से अधिक प्रभावकारी होती है । क्योंकि
कानून के दफा में उल्लेखित वाक्यों की व्याख्या हो सकती है, किन्तु
नैतिक धरातल पर खड़ा नैतिक दायित्व व्याख्यातीत होता है । नैतिक
जिम्मेदार या जनउत्तरदायी व्यक्ति द्वारा निर्वाह करने वाला कानून
निर्दिष्ट के अलावा सभी जिम्मेदारी का विषय वैधानिक दायित्व के
भीतर पड़ता है । इसीलिए नैतिकता से उत्पन्न दायित्व लिखा हुआ
नहीं होता है, किन्तु दायित्व निर्वाह होता हुआ स्पष्ट दिखता है।


३) सजगता ((०र्शपरा८५५)


सार्वजनिक उत्तरदायित्व भिन्‍न-भिन्‍न स्तर में कायम होता है । राज्य या
समाज की बनावट, परम्परा और जनचेतना आदि से सार्वजनिक
उत्तरदायित्व के स्तर को कायम करता है । ऐसे किसी भी स्तर का


66


सार्वजनिक उत्तरदायित्व होने पर भी इसकी उत्पत्ति का दूसरा य्रोत
सजगता भी है । जनस्तर में सजगता कायम है तो तथ्य को स्वीकार
कर दायित्व बहन करने वाला व्यक्ति, समूह या संस्था सजग होकर
सार्वजनिक उत्तरदायित्व निर्वाह करता है । सजगता हमेशा सकारात्मक
नतीजा देती है। उत्तरदायित्व जैसे महत्वपूर्ण एवं जिम्मेदार कार्य को
सही दिशा बोध कराती है । सर्वसाधारण जनता सजग होने का कारण
इसलिए महत्वपूर्ण है कि धरातल से उठकर व्यक्ति, समूह और संस्था
सार्वजनिक पद में पहुँचते हैं । इसीलिए व्यक्ति समुदाय और समाज में
सजगता कायम कर सके तो सार्वजनिक उत्तरदायित्व कायम रह
सकता है।

ख) राज्य के विभिन्‍न निकाय में सार्वजनिक उत्तरदायित्व (एफ़ां८


3९९०प्रागिाताएइ का क्रीशिशा 7४वा5 ण ४7९०)


राज्य के विभिन्‍न निकाय के सार्वजनिक उत्तरदायित्व को राजनीतिक
और प्रशासनिक क्षेत्र के उत्तरदायित्व तथा सार्वजनिक दायित्व और
जनता की जिम्मेदारी के विषय में अलग कर इस प्रकार व्याख्या कर
सकते हैं-

राजनीतिक क्षेत्र का उत्तरदायित्व (र२९ऋणागआंग्रा।ए ण॑ फणांप॑ट्य
एगभाां८5)- किसी भी देश के राज्य को संचालित करने के लिए
राजनीतिक दल या राजनीतिक विचार के साथ सम्बन्धित निकाय के
द्वारा कार्यपालिका के प्रमुख का स्थान पाता है । राजकीय सत्ता
संचालन करने वाला राजा, राष्ट्रपति, सैनिक शासन, प्रधानमन्त्री या
सामूहिक नेतृत्व कार्यपालिका की जिम्मेदारी प्राप्त व्यक्ति या समूह देश
के भीतर स्थापित स्थायी सरकार के रूप में जाना जाने वाला
प्रशासनिक संयन्त्र को नेतृत्व प्रदान करता है। किसी भी रूप में सत्ता
में पहँचने पर भी सत्ता संचालन होने तक राज्य व्यवस्था का अधिकार
राजनीतिक क्षेत्र या निकाय को प्राप्त होता है । इस तरह सरकार का
नेतृत्व ग्रहण किया हुआ राजनीतिक दल या राजनीतिक निकाय
सार्वजनिक उत्तरदायित्व से पीछे नहीं हट सकता है । सत्ता प्राप्त
व्यक्ति या समुदाय सर्वसाधारण जनता से लेकर सभी क्षेत्र के प्रति पूर्ण
उत्तरदायित्व कायम रखना पड़ता है।


प्रशासनिक क्षेत्र का उत्तरदायित्व (रव्कृुणाषंतश।ए रण
4 तांएंडाव7०॥)- किसी भी देश की राज्य व्यवस्था की जिम्मेदारी


के
के


67


उस देश की स्थायी सरकार के रूप में क्रियाशील राष्ट्रसेवकों को दी
जाती है । राज्य की नीति तथा सिद्धान्त के प्रतिपादन से राज्य द्वारा
निर्देशित सिद्धान्त को पूर्णरूप से पालन कराने के कार्य की जिम्मेदारी
भी इन्हीं स्वयंसेवकों की होती है । राजनीतिक व्यक्ति या समुदाय का
राज्य में आने जाने का क्रम चलता रहता है, किन्तु देश के प्रशासन
की जिम्मेदारी पाने वाले ये राष्ट्सेवक स्थिर रूप में रहते हैं ।
सार्वजनिक सरोकार के प्रत्येक छोटे या बड़े विषय को नीतिगत कराने
का निर्णय, ऐसे नियम को पालना करने का काम और जनता तथा
राष्ट्र के बीच में रहने वाले दोनों की सेवा करने का कार्य भी यही क्षेत्र
करता है, इसलिए प्रशासनिक क्षेत्र का उत्तरदायित्व पूर्णरूप में कायम
होना पड़ता है। यह क्षेत्र अपने कार्य के प्रति उत्तरदायी नहीं होने पर
भ्रष्टाचार को पनपने का मौका मिलता है, जो धीरे-धीरे जड़ पकड़
लेता है ।

सार्वजनिक दायित्व और जनता की जिम्मेदारी (एपांट 7९ऋ्णाओंग्र।ए
गाव पार वाए एण ए९ण)०९०- वर्तमान राज्य व्यवस्था में जनता की
प्रमुख भूमिका रहती है । सर्वसाधारण जनता राज्य द्वारा शासित रूप में
रहने पर भी समय-समय में जनता ही सार्वभौम सत्ता सम्पन्न राज्य
की सम्प्रभुता का प्रतीक और राज्य शक्ति के ग्रोत के रूप में प्रस्तुत
होकर निर्णायक के रूप में स्थापित होते हैं । जनता द्वारा निर्वाचित
जनप्रतिनिधि द्वारा देश की विधायिका संचालित हो कर राज्य व्यवस्था
के सभी सार्वजनिक पदों की सृजना का अधिकार रखती है । इसके
अतिरिक्त राज्य को दिशा निर्देश करना, आवश्यक कानून का निर्माण
करना और राज्य व्यवस्था को संचालित करने के लिए सभी प्रकार के
आवश्यक तत्व का निर्माण का अधिकार प्राप्त जनप्रतिनिधि जनता के
द्वारा निर्मित होने के कारण भी जनता राज्य शक्ति का ग्रोत है, यह
प्रमाणित हो चुका है । जनता सचेत होकर असल नागरिक में पाए
जाने वाले गुण को विकसित करने की जिम्मेदारी भी जनता की ही है
। किन्तु जनता के नाम पर अशिक्षित, बेरोजगार और गैरजिम्मेदार
व्यक्ति की जमात से किसी भी हालत में सार्वजनिक उत्तरदायित्व
कायम नहीं हो सकता है । इसलिए अगर जनता सचेत है, सक्रिय है
और जिम्मेदार व्यक्ति या समुदाय के साथ जबाब मांगने की उनमें
क्षमता है तो सार्वजनिक उत्तरदायित्व की अवस्था में भी प्रभावकारी


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रूप में स्थापित हो सकते हैं । इसलिए सार्वजनिक उत्तरदायित्व कायम
करने के लिए जनता को भी जिम्मेदार होना पड़ता है।


देश में सार्वजनिक पद में रहने वाले सार्वजनिक जिम्मेदारी प्राप्त
व्यक्ति, समूह या निकाय में सार्वजनिक उत्तरदायित्व बहन करने और
स्वच्छ अवस्था सृजन कर सके तो भ्रष्टाचार नियन्त्रित अवस्था में रह
सकता है । सार्वजनिक उत्तरदायित्व को मूल विषय बना कर व्यक्ति
का नियन्त्रण और संतुलन के आधार में चित्र के माध्यम द्वारा इस तरह
देख सकते हैं-


सर्वसाधारण जनता, राज्य व्यवस्था और सार्वजनिक उत्तर दायित्व


सजगता


राज्यव्यवस्था


कार्यपालिका


गा का


सयक गन
7 [000]


चित्र में अंकित सर्वसाधारण जनता निचले धरातल में हैं, फिर भी
समय और परिस्थिति के कारण राजकीय सत्ता को ग्ोत के रूप में
प्रयोग होने से उनकी सर्वोच्चता दिखती है । विधायिका निर्माण करने


कानुन


69


में मूल भूमिका भी जनता की होती है । इसलिए सत्तासीन व्यक्ति और
निकाय सर्वसाधारण के प्रति पूर्ण उत्तरदायी होना पड़ता है । नैतिकता,
कानून और सजगता जैसे महत्वपूर्ण तत्वों को सर्वसाधारण जनता,
विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के सभी अंगों को अंगीकार
कर सार्वजनिक उत्तरदायित्व पूर्णरूप से पालन करने की अवस्था लागू
होती है । इससे भ्रष्टाचारजन्य कार्य निरुत्साहित होकर भ्रष्टाचार
नियन्त्रण की अवस्था सृजन होती है । सही शासन के लिए उपर्यक्त ६
महत्वपूर्ण तत्वों का अध्ययन किया गया । ये महत्वपूर्ण ६ तत्व सही
शासन में जाकर समाहित होते हैं, यह बात चित्र के माध्यम से भी
अध्ययन किया जा सकता है।


सही शासन का चित्र द्वारा अध्ययन


रेखा क्रमशः (१) भ्रष्टाचार नियन्त्रण, (२) कानून का शासन, (३) स्थानीय स्वायत्त
शासन, (४) पारदर्शिता, (५) सूचना का हक, (६) सार्वजनिक उत्तरदायित्व)


०.


सही शासन की नीति तथा सिद्धान्त एक रूप में सही शासन पद्धति के


० «रस घर


विकास के घेरे के भीतर छिपकर राज्य व्यवस्था में प्रवेश करते हैं ।


70





इस तरह एक बिन्दु के रूप में प्रवेश कर ये ६ तत्व राज्य में असल
दे


शासन की प्रत्याभूति दे सकते हैं । यह विश्वास किया जा सकता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र की दृष्टि से देखने पर जिस देश की शासन व्यवस्था
उचित कानन के माध्यम द्वारा संचालित होती है, काननी शासन की
मान्यता के अनुसार कानन की सर्वोच्चता को ग्रहण कर न्याय
सम्पादन करता है । सभी स्तर के सरकारी निकाय की काम कार्यवाही
में पारदर्शिता होती है, सरकारी स्तर के सभी क्रियाकलाप जनता के
प्रति उत्तरदायी होते हैं ओर भ्रष्टाचार मक्त समाज की स्थापना होती
है । यही सही शासन व्यवस्था है । सही शासन के मल आधार के रूप


में भ्रष्टविरोधी शास्त्र स्थापित हुआ है ।


7


काला धन पर नियन्त्रण


(णा70 ए 7976%6 गरणा९ए


विश्व में धन कमाने की होड़बाजी में धन को भी दो वर्गों में
विभाजित करके देखा जा रहा है । जो धन सामान्य उद्योग धन्धा,
व्यापार तथा कला की बिक्री से अर्जित होती है, उस धन को वैध धन
कहा जाता है । इसी तरह, असाधारण तथा अवैध रूप से कमाया गया
धन अवैध अर्थात्‌ काला धन के नाम से जाना गया । धन का ऐसा
वर्गीकरण पहले नहीं था । किन्‍्त वर्तमान आधुनिक यग में धन को
वर्गीकत करके देखा जा रहा है । वर्तमान विश्व के सभी भाग में काले
धन को बहलता हो गई है, इसपर गहन अध्ययन आवश्यक है ।

काला धन अर्थात्‌ अवैध धन वह धन है, जो स्पष्ट रूप में नहीं दिखता
है किनत विभिन्‍न प्रकार के बाजार में, कारोबार में सम्मिलित होते है ।
अधिक या कम जिस भी परिणाम में कारोबार होने पर सर्वसाधारण
उस कारोबार के बारे में अनभिनज्ञ होते हैं । जो भी जिस स्तर से काले
धन का कारोबार करते हैं, वह व्यक्ति, समदाय या तह को सिर्फ काले
धन कारोबार की जानकारी होने के कारण इस कारोबार की प्रकति का
पता नहीं चलता । ऐसे भूमिगत रूप में होने वाला कारोबार अवेध
वस्तु तथा सामग्री में विनिमय होते हुए फिर से धन में परिवर्तित हो
जाता है । इस तरह काला धन विनियम होते हए परिवर्तन होकर
इसके प्रत्येक परिवर्तन में धन का परिणाम बढ़ने के कारण भी इस
कारोबार में तीव्रता आई है।

प्रायः सभी देशों में काले धन के कारोबार की प्रकृति एक ही तरह की
दिखती है । देश के कानून द्वारा प्रतिबन्धित वस्तु, सेवा और सामग्री
की खरीद-बिक्री में ऐसे धन का प्रयोग होता है । बहत से
विकासोन्मुख देशों में ऐसे अवैध धन राजनीतिक परिवर्तन के लिए खर्च
किया जाता है । कतिपय देशों में आतंककारी गतिविधि को तीकब्रता देने
के लिए काला धन का प्रयोग किया जाता है । इसलिए विकासोन्मुख


६2० ३


देश के राज्यसत्ता परिवर्तन में भी काले धन की विशेष भूमिका होती है


72


। इस सच को सत्तारुढ व्यक्ति तथा समुदाय स्वीकार करता है, फिर भी

जनता के सामने ऐसे कटुसत्य को खुलासा नहीं कर सकता है।

काले धन की दो विशेषता होती है- १) काला धन छिप कर रहता है।
छिप कर रहने पर भी कार्य सम्पन्न कर के छोड़ता है ।

ऐसी विशेषता के लिए काला धन से सभी देश सत्तासीन व्यक्ति ओर

सम॒दाय लाभ ले रहे हैं । विश्व के सभी राष्ट सत्तासीन व्यक्ति

सफेदफोश के पहनावे में सजकर अपने आप को जितना चमकाए हए

होते हैं वे उतने स्पष्ट और चमकीले नहीं होते । यह सत्य जनता से

अधिक सम्बन्धित व्यक्ति और समुदाय को अधिक जानकारी होती है ।

यह भी काले धन की विशेषता है।

उपरोक्त कथन के अनसार काला धन छिपा हआ होता है फिर भी

अपना क्रियाकलाप सम्पन्न करता है | काला धन के अन्तरनिहित तत्व

तीन वर्ग में विभाजित करके देख सकते हैं।


(१) आतंककारी गतिविधि (२) अवैध वस्तु का कारोबार (३)असामाजिक
क्रियाकलाप


(१) आतंककारी गतिविधि (एश+०ं 3ठांशं॥९७)


काला धन व्यक्ति या समुदाय में आतंककारी गतिविधि संचालन करने
की इच्छा जाग्रत करती है, ऐसे आतंककारी गतिविधि के प्रमुख दो
उद्देश्य होते हैं । ये हैं- (क) धार्मिक एवं जातीय पहचान का संरक्षण (
ख) राज्यसत्ता कब्जा करने की लालसा


क) धार्मिक एवं जातीय पहचान की संरक्षण के लिए दूसरे धर्म और
जाति के प्रति आक्रमण करने की क्रियाकलाप से आतंक का जन्म
होता है । इससे दोनों पक्ष आतंक में फंस जाते हैं । किन्तु इसकी
उपलब्धि शून्य होती है । क्‍योंकि काला धन के प्रयोग से स्थापित
आतंककारी गतिविधि का समय काला धन का प्रयोग निर्धारित करता
है । इसलिए काला धन से उपजी हुई घटना स्थायी नहीं होती है ।
काला धन केवल आतंक फैलाता है, दुख देता है और समाज का
नुकसान करता है । किन्तु ऐसी गतिविधि को कभी-कभी क्षणिक
सफलता भी मिलती है फिर भी यह उपलब्धिहीन ही होती है ।


73


ख) राज्य सत्ता कब्जा करने की लालसा के कारण देश के भीतर और
बाहर आतंककारी गतिवधि बढ़ती है । राज्यसत्ता कब्जा करने की
महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति या समुदाय काला धन से दो प्रकार से
क्रियाकलाप अपना कर सत्ता कब्जा करने की योजना बनाते हैं- (१)
प्रजातान्त्रिक राह (२) अप्रजातान्त्रिक राह ।

प्रजातान्त्रिक राह से राज्य सत्ता कब्जा करने के लिए ये जनता के
सम्पर्क में जाते हैं । जनता को अनेक प्रलोभन देकर निर्वाचन प्रयोजन
के लिए काला धन खर्च कर के जनप्रतिनिधि बन सकते हैं । यह
प्रक्रिया प्रजातान्त्रिक होने के बाद भी स्वीकार्य व्यवस्था नहीं है । किन्तु
यह तरीका सभी विकासोन्मुख देशों में प्रयोग में लाया जाता है और
जिसे प्रजातन्त्र की संज्ञा दी जाती है । जबकि यह पूरी तरह से
अप्रजातान्त्रिक है ।


(२) अप्रजातान्त्रिक राह अर्थात्‌ राज्य सत्ता विरुद्ध जाति, धर्म, और
समुदाय का गुट तैयार कर राज्य विरुद्ध जनता भड़काने और
राज्यव्यवस्था को काम नहीं करने देने का वातावरण तैयार करना है।
खास कर विकासोन्मुख देशों में ऐसी अप्रजातान्त्रिक क्रियाकलाप
बढ़ाकर राज्यव्यवस्था कमजोर बनाने का काम कालाधन के माध्यम से
होता है । काला धन के प्रयोग का उद्देश्य देश के भीतर द्वन्द्र फैलाना
एवं आतंक मचाना और इसकी आड़ में सत्ता कब्जा कर पुनः काला
धन संकलन करना है । इस चतक्रीय प्रणाली के कारण काला धन का
संकलन रोकने की सम्भावना कम है फिर भी इसके पहचान के पीछे
इसका आवश्यक व्यवस्थापन किया जा सकता है, यह विश्वास करना
होगा ।

(२) अवैध वस्तु का कारोबार (+गा59टांणा ० ग।ंता 8००१७):

काला धन से अवैध वस्तु का कारोबार होता है क्योंकि कालाधन स्वयं
अवैध है । इस कारण से इससे अवैध वस्तु का कारोबार होता है ।
इससे निम्न अवैध वस्तु का कारोबार होता है।


(क) लागू पदार्थ (ख) प्रतिबन्धित वस्तु (ग) हिंसात्मक हथियार
(क) लागू पदार्थ का उत्पादन करना और उसका किसी अन्य देश में





व्यापार कानूनन वर्जित है । फिर भी विश्व के बहुत देशों में ऐसे लागू
पदार्थ का उत्पादन होता है । जिसे फिर अन्य देशों में भेजा जाता है।


74


ऐसे प्रतिबन्धित पदार्थ का उत्पादन और फिर इसका अन्य देशों में
व्यापार काला धन के द्वारा ही किया जाता है । विश्व के बहत से देशों
में छिपे हुए धन के माध्यम से ऐसे प्रतिबन्धि पदार्थों को छिपाकर ही
भेजा जाता है। इनका प्रयोग खुले रूप में होता है और इसके व्यापार


में निवेश काला धन स्पष्ट रूप में दिखाई देता है ।

) प्रतिबन्धित वस्तु को इधर-उधर करने में भी काला धन का ही
प्रयोग क्रिया जाता है । कोई भी वस्तु में प्रतिबन्धित नीति तथा
आवश्यकतानुसार क्सी वस्तु में प्रतिबन्ध लगाता है । ऐसे प्रतिबन्धित
वस्तु का दूसरे देशों में ज्यादा मांग होती है, इसलिए वहाँ तक ऐसे
पदार्थों का पहुँचाने का काम भी काले धन के माध्यम से होता है ।


हिंसात्मक हथियार का तात्पर्य उस भौतिक तथा रसायनिक
हथियार से लेना चाहिए, जिससे जीव-जीवात्मा को समाप्त किया जाता
है । ऐसे हिंसात्मक हथियार को बनाने में विकसित देश अधिक संलग्न
होते है । गरीब एवं छोटे देशों में फेलने वाले आतंक तथा राष्ट्रों की
सीमा का अतिक्रमण करने में प्रयोग होने वाले अनेक हथियारों में
काला धन का निवेश होता है । हिंसात्मक हथियार से काला धन
अर्जित होता है और काला धन से हथियार उत्पादन होता है । राष्ट्रीय
सुरक्षा की संज्ञा देकर ऐसे हथियारों के उत्पादन के लिए ज्यादा से
ज्यादा कमीशन का लेन-देन कर काला धन संकलित होता है ।


३) असामाजिक क्रियाकलाप (/धां5०2॑9॥ बलांशोॉ()


समाज का अहित होने वाले किसी भी कार्य को असामाजिक
क्रियाकलाप कहते हैं । काला धन के संरक्षण में देश के भीतर अनेक
प्रकार के असामाजिक कार्य क्रियाकलाप होते है | उदाहरण के रूप में
निम्न कार्य को ले सकते हैं-


(१) जुआ (कैसिनो और सट्टा बजार आदि वेश्यावत्ति अस्वस्थ्य
मनोरंजन केन्द्र


१) जुआ- जुआ का अर्थ बाजी देकर खेलना और ऐसे ही कार्य से है।
जैसे- धन बाजी में लगाकर ताश जुआ खेलना कैसिनो स्थापना करना
और कैसीनो में खेलने जाना या सट्टा बाजार में दांव लगाना आदि है।


+ दि


इंन सभी में जआ घर से काला धन संकलन करने वाले निवेश करते


>>
० ०० व


हैं । बहुत से देशों में कमीशन की आड़ में साधारण कर वसूलने के


75


नाम से जुआघर संचालन की स्वीकृति प्रदान कर जुआघर संचालित
करते हैं और इसी से काला धन का कारोबार होता है।

२) वेश्यावृत्ति : वेश्यावृत्ति का तात्पर्य देहव्यापार से है इसके अलावा
अमानवीय सभी प्रकार के कियाकलाप को भी इसमें शामिल किया जा
सकता है | काला धन संलकन के लिए वेश्यावृत्ति का विकास होता है।
इसी तरह, काला धन से वेश्यावृत्ति विकसित होता है । वेश्यावृत्ति की
शुरुआत, प्रवर्द्न और उपलब्धि का मूल य्रोत ही काला धन है। विश्व
के प्रायः सभी देश में वेश्यावृत्ति को स्वीकार किया गया है । जब तक
काला धन नियन्त्रित नहीं होता, तब तक मानव समाज से वेश्यावृत्ति
की समाप्ति नहीं हो सकती ।


३) अस्वस्थ मनोरंजन केन्द्र अर्थात्‌ मनोरंजन के नाम पर खुलने वाले
अस्वस्थ मनोरंजन केन्द्र से है । जैसे रिक्रेशन सेन्टर, सोशल क्लब और
युवा मनोविज्ञान को आकर्षित करने वाले केन्द्र । लेकिन ऐसे होटल,
क्लब और मनोरंजन केन्द्र में मानवीय संवेदनशीलता को नगद में
परिवर्तन कर उपचार करने का प्रयत्न होता है। अन्ततः व्यक्ति और
समुदाय को नुकसान होता है । ऐसे केन्द्रों को फायदा होता है । ऐसे


केन्द्रो में काला धन का प्रयोग होता है ।


उक्त विश्लेषण को चित्र के द्वारा देखें-


9“... काला घन


आतडककारी गतिविधि


धर्म और जाति


उपरोक्त चित्र में काला धन द्वारा होने वाला असामाजिक तत्व स्पष्ट
रूप में दिखाने का प्रयत्न किया गया है। सभी तत्व एक आपस में
असम्बन्धित होने पर भी एक ही मूल से विकसित हुआ है । इस तरह


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नियन्त्रण विधि के निर्माण में सहजता कायम होती है । उपरोक्त चित्र
में काले धन की समाप्ति से ही सभी असामाजिक तत्व की समाप्ति हो
सकती है।

नियन्त्रण विधि- नियन्त्रण विधि का मतलब होता है, उस विधि से जो
काला धन द्वारा उत्पन्न होने वाले सभी क्रियाकलाप के अन्त के लिए
बनाया जाता है । दसरे शब्दों में काला धन से उत्पन्न सभी प्रकार के
असामाजिक तत्वों के पूर्ण रूप से अंकश लगाने की व्यवस्था का
सजना करना है । इसके लिए ये तीन आवश्यक तत्व अनिवार्य हैं ।


क) कड़े से कड़े नियम की व्यवस्था
ख) नागरिक चेतना
राजनीतिक नेताओं में इच्छा शक्ति


) आवश्यकता से अधिक धन संकलन करने वाले व्यक्ति या समुदाय
को कानन के दायरे में लाने के लिए कड़े से कड़े नियम को बनाने की
जरूरत है । समाज में कानून के पालन करने का वातावरण तैयार
करना चाहिए । सम्पत्ति शुद्धिकरण व्यवस्थापना विधि के अन्तर्गत सिफ,
सम्पत्ति का शुद्धिकरण ही नहीं बल्कि अपराध की श्रेणी में लाकर
आजीवन काराबास की सजा देनी चाहिए और सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण
करना चाहिए । काले धन के नियन्त्रण के लिए यह प्रमख आधार है ।


) देश के प्रत्येक नागरिक को अपने अधिकार ओर कर्तव्य के प्रति
पूर्ण जागरुकता की अवस्था ही सामाजिक चेतना है । इस अवस्था के
लिए नागरिक को पूर्ण शिक्षित होने की आवश्यकता है । इसके साथ
ही प्रत्येक नागरिक का जीवनयापन के लिए आवश्यकता की परिपर्ति
सहज रूप में होनी चाहिए । शिक्षित और आवश्यकता परिपूर्ति करने
वाले नागरिक को सक्षम नागरिक समभना चाहिए । विकसित देशों में
ऐसे नागरिक करीब अस्सी प्रतिशत होते हैं । जबकि विकासोन्मख देशों
में ठीक इसका बिल्कल उल्टा २० प्रतिशत होता है । इसलिए
विकासोन्मख देशों में नागरिक चेतना की अभिवद्धि करना कठिन हो


77


जाता है । अधिकतम नागरिक शिक्षित होने पर ही नागरिक की चेतना
का स्‍तर कायम हो सकता है । इसलिए राज्य का मूल दायित्व ही
चेतनशील नागरिक तैयार करना है।


ग) जब तक राजनीतिक नेताओं में काला धन सामाप्त करने की
इच्छाशक्ति का विकास नहीं होगा, तब तक इस समस्या का समाधान
नहीं हो सकता । विकासोन्मुख देशों में नेता ही काले धन का प्रयोग
कर सत्ता कब्जा करने की प्रवृत्ति रखते हैं, इसलिए इसे रोकना सम्भव
नहीं हो पाता है, फिर भी इसके नियन्त्रण विधि का निर्माण करना
आवश्यक है और इस कार्य के लिए नेताओं में इच्छा शक्ति का होना
आवश्यक है।

नियन्त्रण विधि को निम्न चित्र में देख सकते हैं-


का ऐनका तर्जुमा
क, र 4 ५. श
/काला घन ४
नागरिक चेतना / * ग़जनीतिक इच्छा्शक्ति
ख़ ग्‌


उपरोक्त चित्रकोण क, ख और ग काला धन की शक्ति का आयतन
बढ़ाने का काम करता है, वही कड़ा नियम नागरिक चेतना और
राजनीतिक नेता की इच्छाशक्ति दवाब की सृजना कर उसे कम करने
का काम करता है | क, ख, और ग पूर्णरूप से क्रियाशील होने पर
त्रिकोण में दवाब शुरु होता है और एक दूसरे में जुड़ता चला जाता है ।
इस तरह चित्रकोण बिन्दु में परिवर्तन होता है अर्थात्‌ काला धन शून्य
में परिवर्तित होता जाता है।

इसलिए काला धन को नियन्त्रण करने के लिए कड़े से कड़े कानून की
व्यवस्था करनी पड़ती है, नागरिक सचेतना कार्यक्रम पूर्ण रूप से लागू
करना और राजनीतिक नेता तथा कार्यकर्ता में प्रबल इच्छा शक्ति का
प्रादर्भाव करना आदि है।


78


काला धन अर्थात्‌ अवैध धन नियन्त्रित होने की पूरी सम्भावना होने पर
भी विकसित देशों में भी इस पर नियन्त्रण नहीं किया जा सका है।
क्योंकि विकसित देशों में भी काला धन संचालित होने वाला समूह और
निकाय ही राजनीतिक क्षेत्र में प्रभावशाली रूप में स्थापित होते हैं । इन
देशों में काला धन को नियन्त्रण करने का कानून है किन्तु नियन्त्रण
विधि असमर्थ हैं । इसी तरह विकासोन्मुख देशों में काला धन नियन्त्रण
करने का कानून ही नहीं होता है । कुछ देशों में होने पर भी निष्क्रिय
ही रहता है । इसलिए कानून ही सिर्फ अवैध धन को नियन्त्रण करेगा,
यह आवश्यक नहीं है ।

उपरोक्त त्रिकोण में उल्लेख तीनों अंग पूर्ण रूप में क्रियाशील होने पर
सरल तरीका से अवैध धन के संचालन में नियन्त्रित होता है । यदि
तीनों अंग में एक अंग भी कमजोर होने पर भी काला धन नियन्त्रण
कर लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है | फिर भी जो अंग कमजोर है, वह
अंग सबल बनाकर नियन्त्रण विधि आगे बढ़ाया जा सकता है । इसके
लिए सर्वप्रथम राजनीतिक नेता तथा कार्यकर्ता में अवैध धन नियन्त्रण
करने की प्रबल इच्छा शक्ति का प्रादुर्भाव कराना आवश्यक है।


79


नागरिक की शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय के लिए


राज्य का दायित्व
7२९5०णाषांतआ।वइकखजज ० (6 9वगा९का ४ ४ताटगांणा, पत्गाी
भा0 उप्द्ना ९९


इस विश्व में अन्य जीवों की ही तरह मनुष्य जन्म लेता है । किन्तु
मनुष्य अन्य जीवों से अलग जीवनयापन करता हैं । मनुष्य का सम्बन्ध
परिवार, समुदाय, समाज होते हुए राष्ट्र से सम्बद्ध होता चला जाता हैं ।
यद्यपि विश्व मानव समाज की एकरूपता के विषय में बहुत सी
टिप्पणी, बहस और व्याख्या होती रहती है । किन्तु समुदाय, समाज,
जाति और संस्कृति के कारण विभिन्‍न राजनीतिक वाद, पद्धति और
व्यवस्था के अधीन में राज्य बनाने के लिए विश्व मानव समुदाय को
विभाजित किया गया है । भाषा, संस्कृति, धर्म, जाति और जातीय
स्वभाव के आधार में मनुष्य विभाजित होकर खुश होने की प्रवृत्ति होने
के कारण ही विश्व में अलग-अलग समुदाय और राज्य स्थापित हुए हैं ।
आधुनिक राज्य व्यवस्था के जैसे शासक और शासित के बीच में बहुत
लम्बी दूरी कायम पुरातन राज्य व्यवस्था में नहीं किया गया है । राज्य
के दायित्व के बारे में उल्लेख करने के लिए इसकी आवश्यकता तथा
मूल पक्ष पर विचार करें-

(क) जीवन और प्रकृति (ख) राज्य और नागरिक (ग) राज्य का दायित्व
(घ) नागरिक अधिकार ।


क) जीवन और प्रकृति (९ गात 'ाएट)


मनुष्य की आवश्यकता असीमित है | सभी आवश्यकताओं की पूर्ति
मनुष्य को स्वयं करना पड़ता है । मनुष्य को मनुष्य के रूप में
विकसित करने का काम प्रकृति का होता है । जिस जिम्मेदारी से
प्रकृति पीछे नहीं रहती है । प्रकृति के वरदान से ही मनुष्य का
शरीरिक विकास होता है | तभी वह बालक से युवा और युवा से
परिपक्व होकर समुदाय समाज और राष्ट्र का हित करने में समर्थ
होता है । मनुष्य के पैदा होने के बाद से लेकर मनुष्य के रूप में


80


स्थापित होने तक प्रकृति उसे सब कुछ निःशुल्क देती है । इसलिए
मनुष्य को प्रकृति के प्रति हमेशा आभारी बने रहना चाहिए । अर्थात्‌
जिस तरह प्रकृति मुनष्य को संरक्षण देती है, उसी तरह मनुष्य को भी
प्रकृति का संरक्षण करते रहना चाहिए | इसी समन्वयात्मक स्थिति के
कारण ही जीवन प्रकृति और प्रकृति ही जीवन है, यह धारणा प्रमाणित
होती है ।

ख) राज्य और नागरिक (5६३९ भात तंपंडशा)


इस विश्व में जीवित मनुष्य किसी न किसी राज्य के नागरिक रूप में
विभाजित होकर रहते हैं । नागरिक के बिना राज्य और राज्य के बिना
नागरिक की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं । इसलिए राज्य और
नागरिक एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रमाणित होते हैं । राज्य का
मूल उद्देश्य होता है कि अपने राज्य में रहनेवाले मानव को राज्य में
जिम्मेदार नागरिक की हैसियत प्रदान करे । इस तरह एक नागरिक को
सच्चा नागरिक बनाने के लिए राज्य को मुख्य तीन अनिवार्य सेवाओं
को निःशुल्क प्रदान करना चाहिए | जिस तरह मनुष्य के विकास के
आवश्यक तत्व जल, वायु और प्रकाश प्रकृति से निःशुल्क प्राप्त हुए है,
उसी तरह नागरिक के व्यक्तित्व विकास के लिए निम्न आवश्यक तत्व
राज्यद्वारा निःशुल्क प्रदान होना चाहिए । ये तत्व हैं- शिक्षा, स्वास्थ्य
और न्याय ।


(१) शिक्षा (2त07८४४०॥) - मानव जाति के विकास तथा समुन्नति के
लिए महत्वपूर्ण तत्व ही शिक्षा है । शिक्षा अर्थात्‌ मानव जीवन की
ज्योति । यह मानव जीवन के हर एक पक्ष को उजाला प्रदान करता है।
शिक्षा के बिना मनुष्य एक नागरिक के रूप में स्थापित नहीं हो सकता
। शिक्षा मानवीय विकास के लिए शक्ति है, जो सिर्फ अन्याय के विरुद्ध
लड़ना नहीं सिखाता बल्कि समाज और राष्ट्र के विकास की
आधारशिला भी है । शिक्षाविहीन मनुष्य एक जीवन के रूप में सिर्फ
जिन्दा रहता है । जबकि शिक्षित मनुष्य शक्तिवान होकर समाज में
स्थापित होता है । इसलिए शिक्षित व्यक्ति राष्ट्र का एक सच्चा
नागरिक है और राष्ट्र की सम्पत्ति भी है ।


२) स्वास्थ्य (पथ्गात) - स्वास्थ्य मानव जीवन की आधारभूत
आवश्यकता है । इसी तरह स्वस्थ जनशक्ति राष्ट्र के सर्वांगिन विकास


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के लिए अपरिहार्य तत्व है । अर्थात्‌ मानवीय स्वस्थ व्यक्ति, समाज और
राष्ट्र के उत्थान का मूल आधार है।


स्वास्थ्य मनुष्य की कार्यक्षमता में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्रभाव
डालता है । सही स्वास्थ्य मनुष्य की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है ।
जब मनुष्य की कार्यक्षमता में वृद्धि होती है, तो व्यक्ति, समुदाय
समाज और राष्ट्र के समग्र पक्ष का विकास होता है । इसलिए स्वच्छ
ओर स्वस्थ रहना किसी भी राष्ट्र के नागरिक का अधिकार है ।


३) न्याय (॥7०४८९)- मानव समाज में सभी सदस्यों का बल, बुद्धि और
क्षमता समान नहीं होती । साथ ही उम्र भी एक नहीं होती । लिंग और
उम्र की अवस्था, परिवार की हैसियत, जातीय और संस्कृति और
स्वभाव के कारण भी मनुष्य-मनुष्य के बीच में अज्ञात विभेद का
अस्तित्व कायम रहता है । मानव-स्वभाव और प्रकति के कारण समाज
में रहनेवाले मनष्य में एकरूपता नहीं आ सकती । मनष्य में समय-
समय पर विकसित होने वाला बल, आदत और अहम मनुष्य को गलत
दिशा में ले जाता है । इसी गलत प्रवृत्ति के कारण मनुष्य ही मनुष्य के
ऊपर अन्याय करने लगता है । न्याय सत्य है और अन्याय गलत है?
फिर भी मानव समाज में एक दूसरे के ऊपर अन्याय करते हैं । इसी
अन्याय के विरुद्ध में ये कमजोर मनुष्य और समुदाय को न्याय मिलना
चाहिए । न्याय देने का काम भी उसी समाज के मनुष्य, समुदाय या
राज्य को देना पड़ता है। न्याय पाना मनुष्य का नैसिर्गिक अधिकार है।


किन्तु वर्तमान में न्याय देने की प्रणाली वैज्ञानिक नहीं होने से विश्व
में विकासोन्मुख देश का नागरिक सुलभ रूप में न्याय प्राप्त नहीं कर
पाता है । न्‍याय पाने के लिए भी शुल्क देना पड़ता है । कई
विकासोन्मुख देशों में शुल्क देने पर भी न्याय की जगह अन्याय मिलता
है । कारण है, न्याय को पैसों में तौलना । ऐसे देशों में न्याय मिलना
मुश्किल होता है । न्याय प्राप्त करना जीवन है और अन्याय सहना
मृत्यु ।


ग) राज्य का दायित्व (२९८छणातंशं।ए ० धार 57४८०)- किसी भी राज्य
में राज्य व्यवस्था संचालन करने के लिए व्यक्ति, समुदाय और संगठित
संस्था से कर वसूल किया जाता है । इस कर से निर्मित राज्यकोष से
राज्य अपने क्षेत्र के भीतर रहने वाले व्यक्ति, समुदाय और समाज के
हित के लिए योजनाओं को कार्यान्वित करता है और राज्य को विकास


82


की राह में आगे ले जाता है । इस राज्य व्यवस्था में राज्य के मूल
दायित्व से हटकर काम नहीं किया जा सकता है । राज्य का मूल
दायित्व का तात्पर्य अपने नागरिक और राज्य के विकास का स्तर आगे
बढ़ाना है । इस से भी महत्वपूर्ण दायित्व वह है कि जनता को
नागरिक का अस्तित्व प्रदान कर उसके हित के लिए विकास कार्य की
योजना का कार्यान्वयन करना । राज्य के विभिन्‍न दायित्वों में प्रमख
दायित्व यह है कि उस राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों को यह
महसूस हो कि वह उस राज्य का नागरिक है । इसके अन्तर्गत प्रत्येक
व्यक्ति को नागरिक की हैसियत प्रदान करना और योग्य नागरिक
बनाने के लिए अनिवार्य शिक्षा, सुलभ-स्वास्थ्य और न्याय प्राप्त करने
के लिए नीति निर्माण कर उसे लागू करना । जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य
और न्याय निःशुल्क प्रदान करना चाहिए | इस स्थिति में जनता उस
देश का सचेत एवं जिम्मेदार नागरिक बन सकती है । जिससे उस देश
का सर्वांगिन विकास सम्भव हो सकता है । जनता को नागरिक की
हैसियत प्रदान करने पर वह राज्य एक आदर्श राज्य के रूप में
स्थापित हो सकता है।
घ) नागरिकों के अधिकार (रांड्रा॥5 ण॑ ता/ंशशा5)- किसी भी राज्य के भू-
भाग में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस राज्य का नागरिक कहलाता है ।
नागरिक का अर्थ है कि वह उस राज्य का कानून माने, कर शुल्क दे
और उसे वोट डालने का अधिकार प्राप्त हो । विश्व के अधिकांश
विकासोन्मख देशों में नागरिक को राजनीतिक क्रियाकलाप में संलग्न
कराने, निर्वाचन में बोट डालने के हथियार के रूप में प्रयोग करते हें ।
इससे यह लगता है कि उसे नागरिक का अधिकार प्राप्त है, परन्तु
वास्तव में इससे चालाक व्यक्ति और अवसरवादी व्यक्ति का स्वार्थ
सिद्ध होता है और वो राजनीतिक शक्ति में पहँचकर नागरिकों के ऊपर
दमन करते हैं।


६०


नागरिक के राजनीतिक अधिकार से नागरिक का सर्वपक्षीय विकास
नहीं हो सकता । इसलिए किसी भी राज्य के भू-भाग के भीतर जन्म
लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को राज्य से अनिवार्य रूप में शिक्षा, स्वास्थ्य
और न्याय निःशुल्क मिलना चाहिए, यह नागरिक का मौलिक अधिकार


जे


ह।


83


१. निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा (7९९ भात ०णाएप्रा507ए ९्ताटगांगा)
- राज्य द्वारा बाल्यकाल से ही निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी
चाहिए । प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चमाध्यमिक तक की शिक्षा
अनिवार्य होने पर प्रत्येक नागरिक ज्ञान और गुण अर्जित कर सकता है।
इसलिए उच्च माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा देना राज्य का दायित्व है
और शिक्षा प्राप्त करना नागरिक का अधिकार है।


२. सुलभ तथा निःशुल्क स्वास्थ्य (77९९ गाव €बननए #८८९5५९१ ॥९्गा।
5९'शंट९)- व्यक्ति का शरीर प्राकृतिक है । समय और प्रकृति के
परिवर्तन के साथ ही व्यक्ति के स्वास्थ्य में भी परिवर्तन होता है ।
राज्य अगर नागरिक को स्वस्थ रखता है तो देश का सर्वागिन विकास
सम्भव है । इसलिए जन्म से मृत्यु तक राज्य को सुस्वास्थ्य के लिए
विशेष योजना संचालन करना चाहिए । ऐसी योजनाओं से नागरिक
सुलभ एवं निःशुल्क स्वास्थ्य उपचार करा सकता है।


हे. निःशुल्क तथा शीघ्र न्याय (7९९ गात छणाए। उप्८९0- शुल्क
देकर प्राप्त न्याय व्यक्ति को न्याय प्राप्त करने की अनुभूति नहीं कर
सकता है । ऐसे में देर से अगर न्याय मिल भी जाय तो वह अन्याय
जैसा ही है । इसलिए न्याय शीघ्र एवं निःशुल्क होने की व्यवस्था का
प्रतिपादन राज्य को करना चाहिए । किसी भी व्यक्ति को जिसके साथ
अन्याय हुआ है, उसे न्याय पाने का नैसर्गिक अधिकार है । नागरिक के
ऐसे नैसर्गिक तथा मौलिक अधिकार का संरक्षण करना राज्य का
दायित्व है ।

ड. राज्य और नागरिक के बीच का अन्तर सम्बन्ध
(एाशएशगांणाबआआए 9श७छ८टशा 596 भा0 (ांपंटशा)- राज्य और
नागरिक के बीच में विशेष अन्तर सम्बन्ध होता है । ऐसे सम्बन्ध को
अगर परित्याग करने की बात होती है तो दोनों पक्ष का नुकसान होता
है । इसलिए इस अन्तर सम्बन्ध को राज्य और नागरिक दोनों को
पालन करना चाहिए, तभी दोनों की उन्‍नति और प्रगति सम्भव है ।
इस विशेष अन्तर सम्बन्ध को हम निम्न तरीके से समर सकते हैं-


राज्य का दायित्व ओर नागरिक की जिम्मेदारी से सम्बन्धित चार्ट


84


चेतना और विवेकयुक्त


८ चेतनाऔर विवेक... और विवेक


राज्य के प्रति नागरिकको भूमिका


उपर्युक्त चार्ट में नागरिक के प्रति राज्य के दायित्व और राज्य के प्रति
नागरिक की जिम्मेदारी दिखाई गई है । राज्य को प्रत्येक व्यक्ति को
अनिवार्य शिक्षा देने की व्यवस्था करनी पड़ती है । शिक्षा व्यक्ति के
ज्ञान और बुद्धि का विकास करती है । ज्ञान और बुद्धि के विकास से
नागरिक की चेतना अभिवृद्धि होते हुए विवेकशील नागरिक तैयार होते
हैं । ऐसे चेतना और विवेकयुक्त नागरिक राज्य के प्रति जिम्मेदार होते
हैं । इस तरह राज्य को सही नागरिक तैयार करने के लिए सतत्‌
क्रियाशील रहना चाहिए । ऐसा होने पर ही राज्य का सर्वांगिन विकास
सम्भव हो सकता है | इस तरह राज्य और नागरिक के बीच का अन्तर
सम्बन्ध कायम रखा जा सकता है।


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भ्रष्टाचार केवल कानून द्वारा नियन्त्रित
नहीं हो सकता


॥गछ गेणा९ टगगाा0त ९णाए0 ८0ण7फुएंणा


बहुतों का यह कहना है कि भ्रष्टाचार को कानून द्वारा नियन्त्रित किया
जा सकता है। इसलिए भ्रष्टाचार विरुद्ध का कानून निर्माण किया जाना
चाहिए । यह कथन काफी हद तक सही होने पर भी सच तो यह है
कि भ्रष्टाचार पर कानून द्वारा पूर्णरूपेण नियन्त्रण नहीं किया जा सकता
है । भश्रष्टाचारजन्य कार्य होने की स्थिति में काननी कार्यवाही के लिए
शिकायत दर्ज कराना, अनुसन्धान करना और कानून बमोजिम
सम्बन्धित अदालत में मुद्दा चलाने का कार्य कानून कर सकता है ।
इतना ही नहीं श्रष्टाचारजन्य कार्य होने पर निश्चित अदालत से
न्यायिक निर्णय के द्वारा दण्ड, जर्माना, केद या मृत्यदण्ड देने की भी
व्यवस्था कर सकता है। इस कार्य से भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए, यह
संदेश व्यक्ति, समूह या समाज में प्रसारित होता है । किन्तु ऐसे
कार्यवाही से भ्रष्टाचार नियन्त्रित नहीं हो सकता । इस कार्य से समाज
में संदेश जारी किया जा सकता है कि भ्रष्टाचार करनेवाले व्यक्ति
समुदाय या संस्था को दण्डित किया जाएगा । ऐसे कानूनी कार्यवाही से
समाज में डर तो पैदा होता है किन्‍्त श्रष्टाचारजन्य कार्य का निषेध
नहीं हो सकता । कानन के मान्य सिद्धान्त के आधार में समय-समय
पर प्रादर्भाव होनेवाले ऐन, कानून तथा कानूनी सिद्धान्त की विशेष
व्याख्या हो सकती है । क्योंकि विषय और समय उसे कानन के
अपरिहार्य सिद्धान्त के घेरा के भीतर रखकर निरीक्षण भी कर सकता है।
कानन स्वयं में परिणाम नहीं है, कारण से जन्म लिया हआ
परिणामम॒खी राह मात्र है । कानन के माध्यम से परिणाम प्रमाणित
होकर आ सकता है।

कानून अवांछित कार्य को रोक सकता है । ऐसे अवांछित कार्य भी
कानून में ही लिखे होने चाहिए | यदि कानून में नहीं लिखा हुआ है, तो
मनुष्य यह काम कर सकता है। मनुष्य और मनुष्य का समुदाय इतना


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स्वतन्त्र होता है कि उसे कानून बाँध नहीं सकता । इस स्थिति में वह
हमेशा कानून से बाहर रहता है ।


मनुष्य एक प्राकृतिक प्राणी है | स्वभाव से ही वह स्वतन्त्र होता
स्वेच्छाचारी होता है, विवेकी होता है ओर विकासमृखी होता
इसलिए मनुष्य कानून से बाहर रहना चाहता है । मानवीय स्वभाव को
लक्षित कर वातावरण सृजन करना चाहिए इस बात का ज्ञान देने में
भ्रष्टविरोधी शास्त्र समर्थ है ।


००

ह।

ह।


व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र बनता है । व्यक्ति सम्मिलित
कोई भी निकाय पर कानून नियन्त्रित कर सकता है । किन्तु व्यक्ति
और व्यक्रि की चेतना को कानून नियन्त्रित नहीं कर सकता । इसे
निम्न चित्र में देखें-

"राक कर
राज्य व्यवस्था


कानुन_ | - » [न्यायिक निकाय


भ्रष्टाचारजन्य कार्य


उपर्यक्त चित्र व्यक्ति को सर्वोपरि दिखाता है । व्यक्ति की संलग्नता में
नागरिक समाज खड़ा होता है । नागरिक समाज राज्यव्यवस्था में
समाहित होता है । राज्यव्यवस्था द्वारा तैयार कानून और उस कानून
को कार्यान्वित करने वाली न्यायिक निकाय सभी एक-दूसरे से सम्बद्ध
होते हैं किन्तु भ्रष्टाचारजन्य कार्यक्षेत्र सीधा व्यक्ति के साथ सम्बद्ध
होता है । क्‍योंकि व्यक्ति ही भ्रष्टाचार का मूल स्रोत है। व्यक्ति और
नागरिक समाज ही भ्रष्टाचारजन्य कार्य के उत्पादक है, जिसकी वजह
से राज्यव्यवस्था और उसके अन्तर्गत के कानून ओर न्यायिक निकाय
भ्रष्टाचार नियन्त्रण नहीं कर सकते ।


इसी तरह कानून का मान्य सिद्धान्त व्यक्ति और व्यक्ति द्वारा निर्मित
निकाय को अलग-अलग रूप में परिभाषित करते हैं । राज्य के भीतर
राज्य संचालित करने वाले व्यक्ति और व्यक्ति का अस्तित्व कायम कर


87


विभिन्‍न कार्य करने के लिए निकाय की आवश्यकता को कानून ने भी
स्वीकार किया है । इस तरह कहा जा सकता है कि प्राकृतिक व्यक्ति
का अर्थ जीवित मानव है और कानूनी व्यक्ति का अर्थ व्यक्ति द्वारा
स्थापित छोटी या बड़ी निकाय है । ऐसे निकाय में राज्य को व्यवस्थित
करने वाली सरकार भी आती है।

कानून ने परिकल्पना की है-

प्राकृतिक व्यक्ति- अवांछित कार्य के अलावा सभी कार्य करने की छूट


कानूनी व्यक्ति- वांछित कार्य के अलावा और किसी भी कार्य को करने
की छूट नहीं ।

कानून द्वारा प्रतिबंधित कार्य के अलावा प्राकृतिक व्यक्ति हर कार्य कर
सकता है । कानून द्वारा निर्धारित कार्य करने के अधिकार के अलावा
और कोई अधिकार कानूनी व्यक्ति को नहीं है । इसलिए नागरिक
समाज से निर्मित छोटी या बड़ी निकाय या राज्य संचालित करने
वाली सरकार और उसके अंग पूर्णरूप में कानून के अधीन में होते हैं।
किन्तु उसी राज्य के भीतर रहने वाले व्यक्ति को कानून द्वारा निषेधित
कार्य के अलावा सभी कार्य करने का अधिकार प्राप्त होता है । इसलिए
भ्रष्टाचार का स्त्रोत ही व्यक्ति होने के कारण व्यक्ति को कानून दूसरी
निकाय की तरह पूर्ण नियन्त्रित नहीं कर सकता । इसलिए भ्रष्टाचार
को भी कानून नियन्त्रित नहीं कर सकता । व्यक्ति और व्यक्ति के
इच्छित कार्य आगे-आगे होते है और कानून व्यक्ति के क्रियाकलाप के
पीछे-पीछे होता है ।

प्राकृतिक व्यक्ति में बुद्धि, विवेक और चेतना जैसे विशिष्ट मानवीय
गुण भी होते हैं, जिसे कानून नहीं समभ सकता है । इसी बुद्धि, विवेक
और चेतना सम्पन्न व्यक्ति भ्रष्टाचार विरुद्ध की संस्कृति का विकास
कर उसे दिखाना, सिखाना और अलग करा सकता है। क्‍योंकि व्यक्ति
में भ्रष्टाचार के विरुद्ध की संस्कृति को ग्रहण करने की क्षमता भी होती
है । विश्व के मानव समुदाय द्वारा सरलतापूर्वक ग्रहण करना और
अभ्यास करने वाले भ्रष्टाचार विरुद्ध के संस्कृति का विकास करने के
कार्य में यह भ्रष्टविरोधी शास्त्र सफल सिद्ध होगा ।


88


दबाव समूह


7९57९ (ज०ए़


दबाव समूह का अर्थ ऐसे समृह से है, जो अगर सरकार, व्यक्ति या
समुदाय की ओर से होने वाले अहित के कार्यों का विरोध कर और
उसको रोकने के लिए दबाव का वातावरण तैयार करे । दूसरे अर्थ में
दवाब समृह वह समह है, जहाँ ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता है, जो
समान स्वार्थ या लाभ के लिए आपस में सम्बद्ध होते हैं । आपस में
संगठित होकर उद्देश्य प्राप्ति के लिए क्रियाशील होते हैं । देश और
उस देश में संचालित राजनीतिक पद्धति के अनुसार छोटा या बड़ा
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में दवाब समूह संगठित होते हैं । कोई समूह
जनता का हित करते हैं तो कोई सरकार पर नजर रखते हैं । किन्तु
हम यहाँ उस दवाब समूह की चर्चा करने जा रहे है, जो जनता और
राष्ट्र के हित में कार्य करता है ।


प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को अधिक लोककल्याणकारी व्यवस्था के रूप में
स्थापित करने के कार्य में दबाव समूह विशेष भूमिका निर्वाह करती है ।
विश्व के देशों में जहाँ-जहाँ प्रजातान्त्रिक व्यवस्था ने सफलता हासिल
की है, वहाँ-वहाँ रचनात्मक रूप में स्थापित दवाब समूह ने उत्कृष्ट
कार्य किया है । इसलिए सफल प्रजातान्त्रिक पद्धति के विकास के लिए
दवाब समूह की आवश्यकता है । सफल राजनीतिक पद्धति संचालित
होने वाले देशों में समाज की चेतना के आधार में दवाब समूह का
निर्माण हुआ है । जितना अधिक समाज विकसित होता जाता है, दवाब
समूह की संख्या और कार्य क्षेत्र भी वृद्धि होती जाती है । प्रजातन्त्र का
सही पक्ष ही निःस्वार्थ और रचनात्मक दवाब समूह का निर्माण होना है ।
किसी भी समाज में व्यवसायिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषिक, जातीय तथा प्रजातान्त्रक आदि समूह
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में क्रियाशील होते हैं । इन समूहों के भिन्‍न-
भिन्‍न स्वार्थ, आकांक्षा और लक्ष्य होते हैं । राजनीतिक वातावरण और
आवश्यकताअनुसार ये समूह सरकार के किसी अंग पर दवाब देते हैं ।
इन्हें भी दवाब समूह ही कहा जाता है। किन्तु यहाँ चर्चा होने वाला
दवाब समूह लोककल्याणकारी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना के


89


लिए क्रियाशील दवाब समूह है, जो भ्रष्टाचार का न्यूनीकरण करने में
मदद करती है | सही तथा रचनात्मक नीति लेकर और उसी अनुसार
व्यवहार करने के लिए दवाब समूह ही असली प्रजातन्त्र का विकास
कर सकता है । वर्तमान समाज में क्रियाशील दवाब समूह को निम्न
प्रकार से वर्गीकरण कर सकते हैं-

(१) रचनात्मक (२) ध्वंसात्मक ।

१) रचनात्मक समूह के निर्माण के लिए समाज का चेतनशील नागरिक
स्वतःस्फूर्त रूप में संलग्न होकर समूह में संगठित होते हैं । ऐसे समूह
संगठित होकर अपनी नीति और व्यवहार दोनो की कार्ययोजना स्पष्ट
रूप में बनाकर लागू करते हैं, तभी यह जनता और राष्ट्र के लिए
हितकारी सिद्ध होते हैं । यह संगठन किसी के अधीन में नहीं होते हैं
बल्कि हमेशा अपनी नीति और व्यवहार के अधीन में होते हैं ।

(२) ध्वंसात्मक दवाब समूह विकासोन्मुख देशों में सक्रिय होते हैं । ऐसे
समूह किसी के द्वारा प्रयोजित या निर्देशित होते हैं । जहाँ अर्थलाभ
होता है, वहाँ ऐसे समूह संगठित होते है अर्थात्‌ ऐसे दवाब समूह का
राजनीतिक दल अपने उद्देशय प्राप्ति के लिए प्रयोग करते हैं । यह
समूह आन्तरिक और बाह्य दोनों ओर से संचालित होने की वजह से
जनता और राष्ट्‌ दोनों का अहित करते हैं ।

उपरोक्त उललेखित दवाब समूह में रचनात्मक दवाब समूह हमारे लिए
ग्राह्य होते हैं । ऐसे रचनात्मक दवाब समूह को भी हम निम्न रूप में
वर्गीकृत कर सकते हैं-

(१) उपभोक्ता समूह (२) हित समूह (३) राजनीतिक समूह ।

१) उपभोक्ता समूह को दो क्षेत्र स्वीकार करते हैं- (क) आवश्यक वस्तु
की आपूर्ति, (ख) विकास तथा पूर्वाधार की तैयारी ।

) हित समूह द्वारा स्वीकार करने का विषय है- (क) बाल कल्याण, (
ख) वृद्धवृद्धा की सेवा (ग) महिला के हकहित का संरक्षण, (घ) असहाय
के हकहित की स्थापना, (ड) जातीय और सांस्कृतिक संरक्षण (च)
प्रजाति का संरक्षण आदि ।

राजनीतिक समूह राजनीतिक सिद्धान्त की चेतना अभिवृद्धि
राजनीतिक सिद्धान्त का अनुशरण करने के वातावरण की तैयारी ।
उपरोक्त उल्‍लेखित दवाब समूह को निम्न चित्र तालिका द्वारा देख


कते 5७०
सकते ह ।


90


दबाव समूह


दबाब समूह
उपभोक्ता समूह हित |__ राजनीतिक समूह |


नीति सिद्दान्तका चेतना


आवश्यक बवस्तुका आपूर्ति
विकास तथा पूर्वाघार
त्तेयारी [ सिद्धान्तका अनुसरण ]


बाल वृद्धा |--[महिला |--[असहाय-र्न जाति |--प्रिजातनंत्रिक


उपरोक्त उल्लेखित चित्र में तीन समूह का क्षेत्र निर्धारण किया गया है ।
समूहगत रूप में ही क्षेत्र और जिम्मेदारी को समझा जा सकता है।
इस तरह दवाब समूह का निर्माण कर प्रजातन्त्र का विकास कर
राजनीतिक पद्धति स्थापित कर सकते हैं ।

उपर्युक्त समूह द्वारा दवाब सृजना करने पर नीतिगत दवाब तथा
व्यवहारिक दवाब दो तरीकों से सम्बन्धित निकाय पर दवाब सृजन कर
उस निकाय को अपनी स्थिति में रख सकते हैं, इस तथ्य को निम्न


लत


चित्र तालिका से समझ सकते हैं -


94


दबाव समूह के कार्य संचालन का तरीका और विधि, सम्बन्धित देश के
कानून के अनुसार संचालित होना चाहिए । सरकार की निर्माण विधि
तथा तरीका के आधार में दवाब समूह को अपना कार्यक्षेत्र तैयार
करना चाहिए। एक दवाब समूह भी समय और उस देश की स्थिति के
अनुसार अलग-अलग कार्यविधि का निर्माण कर सकता है । इसके लिए
दवाब समूह को अप्रत्यक्ष तीक्ष्ण और सक्षम होना चाहिए। सही तथा
रचनात्मक प्रकृति को दवाब समूह ही भ्रष्टविरोधी शास्त्र द्वारा तैयार
दवाब समूह है । ऐसे दवाब समूह के निर्माण से लोककल्याण्कारी
प्रजातान्त्रिक राज्य की स्थापना हो सकती है । किन्तु दवाब समूह में
राजनीतिक रंग का असर होने पर यह समूह कमजोर होता है | साथ
ही बाध्य देशों से घुसपैठ होकर दवाब समूह संचालित होने पर दवाब
समूह का प्रभाव देश और जनता के लिए नकारात्मक साबित होते हैं।
इसलिए दवाब समूह का निर्माण, कार्यनीति और क्रियाशीलता को
राज्य के विशेष कानून द्वारा निरीक्षण, अनुगमन और निर्देशित होना
चाहिए । तभी दवाब समूह सकारात्मक कार्य कर सकता है । अर्थात्‌
दवाब समूह संचालित करने में देश के कानून के अनुसार निर्माण
करने के लिए जितना आवश्यक है, उतना ही चेतनशील जनता में भी
इसके प्रति जिम्मेदारी का बोध होना आवश्यक है | ऐसे देश और
जनता का हित करने वाले दवाब समूह का निर्माण कर उसको
स्थायित्व प्रदान करने का वातावरण तैयार करना चाहिए। तभी समाज
में भ्रष्टाचार शून्य सहनशीलता की अवस्था कायम हो सकती है।


92


राज्य तथा राजनीतिक दल
&गा९ गा0 पा९€ एणास्‍टवोे ए॒ग५


राज्य तथा राजनीतिक दल अलग-अलग प्रकृति के निकाय है | इन
दोनों के काम, कर्तव्य, अधिकार और दायित्व अलग-अलग होते हैं ।
किन्तु कार्यक्षेत्र एक ही होते हैं । जिस राज्य में राजनीतिक दल होते हैं,
वही राज्य उसका कार्य क्षेत्र होता है । इसी तरह जो राजनीतिक दल
राज्य पर अपना प्रभाव डालता है, उस राज्य की राज्य व्यवस्था भी
वही कायम करता है । यद्यपि राज्यशक्ति एक शक्तिशाली संस्था है फिर
भी राजनीतिक दल को व्यवस्थापन की जिम्मेदारी मिलती है । अर्थात्‌
राज्य के भीतर राज्य संचालन करने में राजनीतिक दल विशेष भूमिका
का निर्वाह करती है | इस दृष्टिकोण से विचार करने पर राज्य और
राजनीतिक दल अलग निकाय होने पर भी उनका कार्यक्षेत्र एक ही है,
यह स्पष्ट होता है ।

राज्य स्वयं में शक्तिशाली संस्था होने के कारण राज्य को विशेष वैधता
प्राप्त होती है, जो राजनीतिक दल को प्राप्त नहीं होती है । बैधता की
दृष्टि से राज्य से राजनीतिक दल अत्यन्त कमजोर होती है, फिर भी
राजनीतिक दल ही राज्यव्यवस्था में कब्जा जमाने में समर्थ होती है ।
दूसरी तरफ राज्यशक्ति को मजबूत या कमजोर बनाने का काम
राजनीतिक दल ही करता है इसलिए इन दोनों का संक्षेप में अध्ययन
आवश्यक है । इस सन्दर्भ में राज्य और राजनीतिक दल के स्वभाव
और आवश्यक तत्व पर नजर डालें-


राज्य (5096)-

१) राज्य एक स्वाभाविक समुदाय है

२) राज्य को राजनीतिक समुदाय कहते हैं

३) राज्य की स्थापना मानव-विकास तथा मानवहित के लिए होती है ।
४) यह बड़ा या छोटा हो सकता है।

५) यह वैद्य शक्ति का प्रयोग करता है ।


93


६) राज्य में जनसंख्या, भूमि, सरकार और सम्प्रभुता जैसे चार तत्वों
का समावेश होता है।


राजनीतिक दल (?०॥0८४ एशाए)


१) राजनीतिक दल स्वभाविक समुदाय है ।

२) राजनीतिक दल को राजनीतिक समुदाय कहते हैं ।

३) राजनीतिक दल मानव-विकास तथा मानव हित के लिए स्थापित
होता है ।

४) राजनीतिक दल छोटा या बड़ा हो सकता है।

५) राजनीतिक दल वैधशक्ति को प्राप्त करता है।


६) राजनीतिक दल में निश्चित सिद्धान्त, नेता, कार्यकर्ता और उस दल
के अनुयायी दल अनुयायी जैसे चार तत्वों का समावेश होता है ।


|


उपरोक्त उललेखित राज्य और राजनीतिक दल के स्वभाव ओर
आवश्यक तत्व बहुत अधिक मिलते-जुलते हैं । केवल अन्त के क्रम
संख्या ६ में अन्तर है । इस दृष्टिकोण से भी राज्य और राजनीतिक दल
को बराबर महत्व देकर देखना चाहिए । इसे खण्ड-खण्ड में विभाजित
करके देखें -


गज्य ] |... राजनीतिक दल]


_क स्वाभाविक समुदाय
|
राजनीतिक समुदाय


निश्चित सिद्धान्त,
नेता, कार्यकर्ता
अनुयायी


सरकार तथा



मानव विकास तथा
हितके लिए स्थापित


सम्प्रभूता



बडा या छोटा
वि,
बेघ शक्ति प्राप्त


कर


उपरोक्त वर्गीकरण में राज्य और राजनीतिक दल का स्वभाव और
आवश्यक तत्व को स्पष्ट दिखाया गया है । मूलतः राजनीतिक दल के


94


विषय में अध्ययन होने के कारण राजनीतिक दल के चार तत्व कितने
महत्वपूर्ण हैं, इस बात को समभने की कोशिश करें-

राजनीतिक दल (?०४४०४) एभए) - इस अध्ययन के क्रम में
राजनीतिक दल के चार आवश्यक तत्व के विषय में समभने की
आवश्यकता है । ये हैं- (१) राजनीतिक दल का निश्चित सिद्धान्त, (२)
राजनीतिक दल संचालित करने वाले नेता, (३) राजनीतिक दल का


विकास करने वाले कार्यकर्ता, (४) राजनीतिक दल के अनुयायी ।


उपरोक्त चार तत्वों में एक भी तत्व की कमी होने पर राजनीतिक दल
सार्थक रूप में संचालित नहीं हो सकते । ये चारों तत्वों के साथ देने
पर राजनीतिक दल पूर्ण हो सकता है।

१) राजनीतिक दल का निश्चित सिद्धान्त (5छ९्ता८ एणातठंफ़ा९ रण पा९
एभा५)

एक निश्चित सिद्धान्त लेकर राजनीतिक दल गठन होता है और होना
चाहिए । विश्व के राजनीतिक क्षेत्र में विभिन्‍न सिद्धान्त को अपनाकर
राजनीतिक दल का निर्माण होता है | ऐसे दलों में परम्परावादी तथा
आधुनिक प्रजातन्त्रवादी है । आधुनिक प्रजातन्त्रवादी में संसद्वादी,
समाजवादी, साम्यवादी और उग्रसाम्यवादी आते हैं । ये सब
राजनीतिक दर्शन के आधार में निश्चित प्रतिपादन कर समाज में


प्रस्तुत होते हैं । इन राजनीतिक दलों के सिद्धान्त में विचलन नहीं
आना चाहिए।


२) राजनीतिक दल संचालित करनेवाले नेता (,९८8त९४5 (०0 पा प९
एगभा५)

राजनीतिक दल को संचालित करने वाले नेता ही उस दल के सिद्धान्त
का प्रतिपादन करने वाले मूल प्रतिनिधि होते हैं । नेता को सिर्फ
सिद्धान्तवादी ही नहीं अनुशासित, त्यागी, निःस्वार्थी, नैतिकवान एवं
सदाचारी होना पड़ता है । यदि नेता स्वार्थी, अनैतिक एवं भ्रष्टाचारी
रा ० ०० सिर्फ राजनीकि को से नहीं 8 3

होते हैं तो सिर्फ राजनीकि दल को ही नहीं जिस राज्य में ऐसे गेर
जिम्मेदार नेता है, उर राज्य का भी नुकसान होने की सम्भावना होती
ह 4 के ७ च 2 ह
है । इसलिए नेता के सदगुण से ही राजनीतिक दल जनप्रिय होता है


7


और स्थायित्व प्राप्त कर सकता है।


95


३) राजनीतिक दल का विकास करने वाले कार्यकर्ता (09का'९5 (० 7
९ एगाए५)


किसी भी राजनीतिक दल में कार्यकर्ता का विशेष महत्व होता है ।
राजनीतिक दल में कार्यकर्ता का विशेष महत्व होता है । राजनीतिक
दल में कार्यकर्ता ही राजनीतिक दल के मुख्य अंग के रूप में होते हैं ।
कार्यकर्ता ही राजनीतिक दल का मूल आधार है । इसके आधार पर
राजनीतिक दल का निर्माण होता है । अर्थात्‌ मानव शरीर को
संचालित करने वाले शारीरिक अंगों की आवश्यकता की तरह
राजनीतिक दल संचालित करनेवाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता होती
है । कार्यकर्ता में विचलन आने से, स्वार्थी होने से, अवसरवादी होने से,
राजनीतिक दल को नुकसान होता है । इसलिए राजनीतिक दल के
कार्यकर्ता को निष्ठावान, अनुशासित, नैतिक एवं आचारयुक्त होना
चाहिए ।


४) राजनीतिक दलों के अनुयायी (#णाए्त्क्‍श5 00 डआएए०४ पर एग५)


अनुयायी का तात्पर्य उस व्यक्ति या समूह से है, जो किसी भी
राजनीतिक सिद्धान्त के प्रतिपादन, विस्तार तथा विकास कार्यक्रम में
समर्पित होते हैं । राजनीतिक दल का सिद्धान्त और घोषणापत्र जन-
जन में पहँँचाना और दल के प्रति आकर्षण कायम करने के काम में
कार्यकर्ता द्वारा किए गए कार्य पर विश्वास करने के लिए अनुयायी
तैयार रहते है ।

यदि राजनीतिक दल के अनुयायी नहीं होंगे तो निर्वाचन में राजनीतिक
दल विजय हासिल नहीं कर सकते हैं । इसलिए राजनीतिक सिद्धान्त,
राजनीतिक नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता के साथ ही राजनीतिक
सिद्धान्त के अनुयायी का होना भी आवश्यक है । इन अनुयायियों के
जमात ही राजनीतिक दल को सत्ता में स्थापित करने का काम करते


३.


ह।


राजनीतिक दल के चार आवश्यक तत्वों को ऊपर उल्लेख किया गया
है । राजनीतिक दल इन सैद्धान्तिक पक्षों में विकासोन्मुख देश के
राजनीतिक दल में उपरोक्त तत्वों में विचलन आने के कारण इन देशों
की राज्यव्यस्था में अस्थिरता उत्पन्न होती है । राजनीतिक अस्थिरता
से देश ओर जनता की उन्नति नहीं हो सकती है । इसलिए राजनीतिक


96


दल को उपरोक्त उल्लेखित सिद्धान्त के आधार में संचालित करने और
कराने की व्यवस्था करानी चाहिए । विकासोन्मुख देश का उन्नति नहीं
कर पाने का मूल कारण ही राजनीतिक अस्थिरता है । राज्य में
राजनीतिक अस्थिरता लाने वाले राजनीतिक दल ही है । राजनीतिक
दल में उपरोक्त उललेखित किसी तत्व में अगर विचलन आती है तो
वह देश के राजनीतिक वातावरण में परिवर्तन लाता है । विकासोन्मख
देशों में संचालित हो रहे राजनीतिक दलों में आने वाले संभावित
विचलन पक्ष को देखें-

१) राजनीतिक दलों का विचलन पक्ष (ररणालांटों गकछ्ुण्त
०9०४४ं८४ 9ग+५)- विकासोन्मुख देशों में राजनीतिक दलों के सिद्धान्त
दो तरह के होते हैं, एक दिखाने के और दूसरा कार्यान्वयन के ।
सिद्धान्त से अधिक राज्य सत्ता के लिए राजनीति करने की प्रवृत्ति
कारण प्रायः राजनीतिक दल अपने घोषित सिद्धान्त में अडिग होते हें ।
निर्वाचन में भाग लेने के समय सिद्धान्त के आधार पर घोषणापत्र
तेयार कर जनता के समक्ष जाते हैं किन्‍्त्‌ सत्ता में आने पर उसी
घोषणापत्र में घोषित नीति की दस प्रतिशत भी पालन नहीं करते हैं ।
बहाना बनाना और जनता को बहलाने की कला के साथ राजनीतिक
दल सिद्धान्त को सरलतापूर्वक पीछे कर देते हैं ।


२) राजनीतिक दल के नेताओं का दायित्व (२९छऋ ्ुणाडंगांधए
ए०णांधंटग ।९8१९५५)- राजनीतिक दल के नेताओं के आचरण से दल
सद॒ढ़ होता है । किन्त्‌ विकासोन्मख देशों में स्थापित प्रायः राजनीतिक
दल के नेता सत्ता मोह में पड़ कर राजनीति में संलग्न होते हैं । नेता
ही पथश्रष्ट होने पर राजनीतिक दल का पथश्रष्ट होना भी स्वभाविक
ही है । सत्तामुखी राजनीतिक करने वाले नेता राष्ट्र के नेता नहीं हो
सकते । राष्ट्र का नेता नहीं होने पर वो जनता की उन्नति नहीं कर
सकते । इसलिए भ्रष्ट नेता और बाह्य देशों से संचालित एवं
सिद्धान्तहीन नेता का नेतृत्व वाले राजनीतिक दल राष्ट्र और जनता का
हित नहीं कर सकते ।


३) राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं का दायित्व (र९क्रणाडंशगा।ए
एणांधंट्ग० ८४४९5)- राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं का दायित्व
| 7०


राजनीतिक दल के लिए महत्वपूर्ण होते हैं । किन्तु विकासोन्मुख देशों
में कहीं काम नहीं मिलने पर, अपना व्यवसाय संचालित नहीं कर पाने


97


पर बहत चालाक व्यक्ति राजनीतिक संगठन में आवद्ध हो जाते हैं ।
सिद्धान्त से अधिक नेता के सम्बन्ध को ज्यादा प्राथमिकता देने वाले
व्यक्ति राजनीतिक दल में स्वयंसेवी होकर या पारिश्रमिक लेकर
कार्यक्रम संचालन करते हैं । पारिश्रमिक लेने वाले राजनीतिक से
हफता या महीना का पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं। ये साधारण जनता
का ध्यान अपनी राजनीतिक दल की ओर आकर्षित कराने का काम
करते हैं । निर्वाचन के समय में इनकी मुख्य जिम्मेदारी होती है ।
बहला कर, प्रभाव में लाकर, डर दिखाकर या पैसा खर्च करके हो, जैसे
भी राजनीतिक दल के उम्मीदवार को जिताने का प्रयास करते हैं ।
उस समय में नीति, नैतिकता तथा सिद्धान्त का ये कार्यकर्ता अनुसरण
नहीं करते हैं । भी अपना दल के उम्मीदवार को जिताना इनका
लक्ष्य होता है, जो राजनीतिक कार्यकर्ता के दायित्व और व्यवहार से
बाहर है ।

४) राजनीतिक दल के अनुयायी की जिम्मेदारी (२८5७णाडंएं।ए रण
एणां[ंटग णिा०छश*5)- राजनीतिक सिद्धान्त के अनुयायी का अर्थ
सर्वसाधारण नागरिक से है । इन्हें राजनीतिक दल के सिद्धान्त, नेता का
व्यक्तित्व और कार्यकर्ता का व्यवहार आकर्षण करता है । किन्तु
विकासोन्मख देशों में ऐसे अनयायी समह भी निर्वाचन के समय में
विचलित होकर परिवर्तित रूप में व्यवहार करते हैं । राजनीतिक दल
के नेता और कार्यकर्ता के सम्बन्ध के आधार में या पैसा के प्रलोभन
में ये अनुयायी निर्वाचन में भाग लेते हैं, जो प्रजातन्त्र के नाम पर
किया जाने वाला गलत क्रियाकलाप है।


विकासोन्मख देश में संचालित राजनीतिक दल के बारे में हमने जाना ।
अब ऐसी स्थिति को नियन्त्रण किया जाय, इस पर विचार करना
आवश्यक है । राजनीतिक दल के चार आवश्यक तत्वों के आधार में
राजनीतिक दलों को नियन्त्रण में रखकर राजनीतिक दल को संचालित
करने की विधि का विस्तार आवश्यक है ।


राजनीतिक दल की उत्पत्ति राजनीतिक दल समावेशिता प्रजातान्त्रिक
व्यवस्था में सिर्फ होता है। एकदलीय या बुहदलीय दोनों प्रकार के
राजनीतिक व्यवस्था को दलीय व्यवस्था ही कहते हैं । एकदलीय
व्यवस्था विश्व के कम ही देश में संचालन में हैं । प्रायः बहत से देश


2


में वर्तमान में बहदलीय राजनीतिक व्यवस्था है । विकसित देशों में


98


कम राजनीतिक दल क्रियाशील होते हैं जबकि विकासोन्मुख देशों में
अत्यधिक राजनीतिक दल क्रियाशील होते हैं । जिस देश में ज्यादा
राजनीतिक दल क्रियाशील हैं, वो देश आर्थिक और राजनीतिक रूप से
कमजोर होते हैं । अर्थात्‌ आर्थिक उन्‍नति में कमी होना तथा
राजनीतिक अस्थिरता ज्यादा कायम रहती है । ऐसा होने का कारण
राजनीतिक दल के सिद्धान्त में विचलन आना ही है । राजनीतिक दल
को नियन्त्रण में रखने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं को राज्य को
स्वीकार कर निर्माण करना चाहिए और लागू करना चाहिए-

१) राजनीतिक दल में सेवा भाव स्पष्ट होना चाहिए,

२) राजनीकि दलों द्वारा चन्दा नहीं वसूल करना,

३) दल के नेता तथा कार्यकर्ता की सम्पत्ति विवरण पारदर्शी होना,

४) बाह्य देशों का घुसपैठ न होना,

५) सहयोग में एक द्वार प्रणाली लागू करना,

६) निर्वाचन के खर्च में परदर्शिता,

७) निर्वाचन में श्रेसहोल्ड लगाना,

८) निर्वाचन प्रणाली कायम करना,

९) राज्य का प्रशासन हस्तक्षेप म॒क्त होना,

१०) नेता तथा कार्यकर्ताओं के ऊपर कानूनी कार्यवाही की व्यवस्था
होना ।

१) राजनीतिक दल में स्पष्ट सेवा भाव होना चाहिए (एगरंंटव
9गा९5 570700 9९ 5श'शं८९-०7श॥९१) - राजनीतिक दल के नेता तथा
कार्यकर्ता में देश और जनता की सेवा करने की भावना के साथ
राजनीति में आना चाहिए और ऐसी ही व्यवस्था करनी चाहिए ।
राजनीतिक दल देश और जनता की सेवा के लिए स्थापित होनी चाहिए ।


२) राजनीतिक दलों द्वारा चन्दा न लेने की व्यवस्था होनी चाहिए (]५०
€ाणांणा 797 छ०ांपंटवी 9गाए) - विश्व के विकसित देशों में
राजनीतिक दल व्यापारी, उद्योगी और अन्य व्यवसायी के साथ चन्दा
वसूल किया करते हैं । इसे पूर्णरूपेण बन्द करना चाहिए | इसी तरह
विकासोन्मुख देशों में भी चंदा डर और भय दिखा कर वसूल किया
जाता है । राजनीतिक दल संचालित करने या चुनाव खर्च के नाम पर
चन्दा वसूलने का काम पूर्णरूप से बन्द करना चाहिए।


99


३) दल के नेता तथा कार्यकर्ता की सम्पत्ति विवरण पारदर्शी होनी चाहिए
(णा)गालंग हधाउतांणा गाव छझाफ्शाए एा 4९90श5 20 ९४0९5
पाप 9९ ॥थ5ए0भशा)- दल के नेता तथा कार्यकर्ता की सम्पत्ति
विवरण प्रत्येक वर्ष राज्य में सार्वजनिक होने की व्यवस्था होनी चाहिए ।
क्योंकि राजनीति में संलग्न व्यक्ति, व्यवसायी नहीं है ।


४) बाह्य घुसपैठ बन्द होना चाहिए (४० ॥एशा८९ धा0 7शर्पश'शा९९
#णा 0०गाश' ००प्रए९5)- देश से बाहर किसी राज्य या निकाय
राजनीतिक परिवर्तन के लिए या धर्म संस्कृति के परिवर्तन के लिए
घुसपैठ करते हैं । खास कर गरीब देश में बाह्य घुसपैठ होता रहता है ।
ऐसे कार्य को बन्द होना चाहिए ।


५) सहयोग में एक द्वार प्रणाली लागू होना चाहिए (0॥6-0007 ए0०ं८ए
॥ गभाटं॥ 5ए070०॥)- बाह्य देश या वहां क्रियाशील गैर सरकारी
संस्था से देश के किसी भी निकाय में, क्षेत्र में सहयोग स्वरूप सामान
या रकम सहयोग लेन-देन का काम होता है। किन्तु किसी दूसरे देश या
किसी निकाय से कोई सहयोग आता है तो वहाँ एकढ्वार प्रणाली की
व्यवस्था होनी चाहिए ।


६) निर्वाचन खर्च में पारदर्शिता (परग्राउएगशारए गा शेत्तांगा
९5०9श॥५९)- राजनीतिक दल द्वारा निर्वाचन में होने वाले खर्च में
पारदर्शिता होनी चाहिए ।


७) निर्वाचन में श्रेसहोल्ड लागू होना चाहिए (ए०एशंत्ंणा ० 6९900
॥ ९९००॥)- विकासोन्मुख देशों में निर्वाचन श्रेसहोल्ड लागू नहीं होने
के कारण राजनीतिक दलों की उत्पत्ति में तीब्र वृद्धि हो रही है। इसके
नियन्त्रण के लिए निर्वाचन में भाग लेते समय पाँच प्रतिशत मत प्राप्त
नहीं करने वाले दलों को दूसरी बार निर्वाचन में भाग नहीं लेने देना
चाहिए । इस से दल की वृद्धि में कमी आएगी, जिससे राजनीतिक
व्यवस्था में शुद्धता आएगी ।


८) निर्वाचन प्रणाली कायम होना चाहिए (ए०णंग्रंणा रण शेत्तांगा
5ए४शा)- निर्वाचन प्रणाली कायम करते वक्त देश के नागरिक की
शिक्षा और आर्थिक अवस्था को देखना चाहिए । प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली
या अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली, जो भी प्रणाली कायम करना है, देश और
जनता की जिसमें भलाई हो, वही कायम करना चाहिए । बालिग
मताधिकार का प्रयोग करने या कराने के लिए शत प्रतिशत जनता को


200


राजनीतिक रूप से सचेत होना चाहिए । अन्यथा बालिग मताधिकार की
व्यवस्था से स्वच्छ निर्वाचन प्रणाली पर असर पड़ता है। सर्वसाधारण
जनता की शिक्षा का स्तर देख कर निर्वाचन प्रणाली लागू होनी चाहिए ।


९) राज्य का प्रशासन हस्तक्षेप मुक्त होना चाहिए (४० ए०४ं८थ!
प्राशर्पघश्‌शा०९ ॥॥ 0पाशवार8३८५)- राज्य का प्रशासन हस्तक्षेपमुक्त होना
चाहिए । जिस देश को सेना, प्रहही और निजामती सेवा राजनीतिक रूप
से अतिक्रमित होता है, ऐसे देशों में प्रजातन्त्र स्थायित्व नहीं पा सकता ।
इसलिए राज्य का प्रशासन राजनीतिक दल के हस्तक्षेप से मुक्त होना
चाहिए ।


१०) नेता तथा कार्यकर्ता के ऊपर भी कानूनी कार्यवाही की व्यवस्था
होनी चाहिए (९४8० एाएजंडआंणा 00 छपांगा [९8१९5 30 ८३०९5)-
बहुत सारे देशों में राजनीतिक नेता तथा कार्यकर्ता पर कानूनी कार्यवाही
की व्यवस्था नहीं है । राजनीतिक नेता तथा कार्यकर्ता के अनुचित कार्य
करने पर कानूनी कार्यवाही की व्यवस्था होनी चाहिए ।


उपर्युक्त तथ्यों को समभकर प्रत्येक राज्य व्यवस्था को राजनीतिक दल
को नियन्त्रण में रखने की विधि का निर्माण करना चाहिए । राजनीतिक
दल द्वारा राज्यव्यवस्था संचालित करना और राज्यव्यवस्था द्वारा
राजनीतिक दल को अच्छी तरह से संचालन करने की परम्परा का विधि
निर्माण होना चाहिए और विधि द्वारा दोनों पक्ष संचालित होने की
व्यवस्था होनी चाहिए ।


राजनीतिक दल की अचार संहिता (7006 ० शागंठ रण एगांगंटदव
एगा"५)


आचार संहिता का अर्थ है, किसी निकाय द्वारा देश, काल, परिस्थिति
अनुरूप सही आचार में रखने के लिए नीति के, विधि के आधार में
बनाया गया नियम । जिस क्षेत्र और वर्ग के लिए आचार संहिता बनाना
हो, उस क्षेत्र और वर्ग को पूर्ण नियन्त्रण में रखने के लिए आचारसंहिता
बनाया जाता है । राजनीतिक दल को भी आचार संहिता के भीतर
रखना आवश्यक है । विकसित देश हो या विकासोन्मुख देश हो, उस
देश में संचालित राजनीतिक दल को देश की अवस्थाअनुरूप आचार
संहिता बनाना पड़ता है। बहुत सारे देशों में ऐसी आचार संहिता होने
पर भी विकासोन्मुख देशों में कमजोर अचार संहिता होने के कारण
राजनीतिक दल मनमर्जी से चलने का प्रचलन है । कानून की अवहेलना


204


करना, नेता और कार्यकर्ता के हित में सभी प्रकार की नीति निर्माण
करना, दलीय पक्ष में निर्णय लेने जेसा गैरकाननी काम भी राजनीतिक
निर्णण कह कर मनमुताविक निर्णय का काम राजनीतिक दल करते हैं
और सही शासन पद्धति का मजाक डड़ाते हैं । ऐसे कार्य को पूर्णरूप में
नियन्त्रण करने के लिए राजनीतिक दल के लिए कड़ा आचार संहिता
निर्माण करना और उसे कड़ाई से लागू करना आवश्यक है।


राष्ट्रवाद (७४॥०॥7शांआ)- राजनीतिक दलों को पूर्णरूप से राष्ट्रवादी
होना चाहिए । जिस देश का राजनीतिक दल है, उसे देश की राज्य
व्यवस्था और जनता प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह होना चाहिए ।
राजनीतिक दल को राज्यव्यवस्था और जनता के प्रति पूर्णरूप में
समर्पित होना चाहिए । इसलिए राजनीतिक दल को अचन्तर्राष्ट्रीयवादी
नहीं होना चाहिए । अगर ऐसा होता है तो देश और जनता दोनों उस
दल से धोखा खाते हैं । राजनीतिक सिद्धान्त किसी भी देश से आयातित
हो सकता है, लेकिन उस देश के साथ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए ।
जिस देश में राजनीतिक दल स्थापित हुआ है, उसी देश और जनता के
प्रति उत्तरदायी होना चाहिए । राजनीतिक दल का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है ।


मिलीजुली सरकार खतरनाक होती है ((०गां।ंणा ४०एशशधधरा। 773५ 0९
॥भरमाए)- राजनीतिक दल जब बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता है तो
एक से अधिक राजनीतिक दल मिलकर सरकार गठन करते हैं और
राज्य व्यवस्था संचालित करते हैं । इस प्रकार की सरकार विकासोन्मुख
देशों में संचालित होते हैं । इस अवस्था में सरकार अस्थिर होती है और
राजनीतिक दल देश और जनता की विकास पर ध्यान देने से अधिक
अपनी सत्ता टिकाने के प्रयास पर ध्यान देते हैं और राजनीतिक तिकड़म
का खेल खेलते हैं । जिसके कारण जनता और देश आर्थिक रूप से
कमजोर होते चले जाते हैं । राजनीतिक दलों की संख्या कम से कम
होने पर बहुमत की सरकार गठन हो सकती है । इसलिए मिलीजुली
सरकार देश और जनता के लिए खतरनाक साबित होते हैं ।


विद्रोह से जन्मी सरकार अल्पकालीन होती है (परश्राश९ 5 ॥0 प्राप९ एण 9
एगाएए 9०5९१ ०णा गात्राएुशा2१ )- विद्रोह से उत्पन्न राजनीतिक दल
अथवा छोटे या या बड़े विद्रोह से संगठित राजनीतिक दलों का भविष्य
लम्बा नहीं होता है । ऐसे राजनीतिक दल देश और जनता के हित में


458


काम नहीं कर सकते । विद्रोह तभी जन्म लेता हे, जब जनता अभाव से


202


ग्रसित होती है और सकारात्मक प्रवृत्ति से समाज में अपनी जड़ जमाए
होती है । विद्रोह से उत्पन्न राजनीतिक दल देश और जनता का हित
नहीं कर सकते ।

राजनीतिक दलों का तानाशाही पक्ष (ठगणंग १5७९८ ण॑ फएगांगंट्गे
एभ7५) - राजनीतिक दल आन्तरिक रूप में तानाशाही प्रवृत्ति के होते हैं
। यह तानाशाही बाहर नहीं दिखाया जा सकता किन्तु विकासोन्मुख देशों
में राजनीतिक दलों की तानाशाही जितनी पार्टी के अन्दर होती, उतनी
ही बाहर भी चलाने की कोशिश करते हैं । जिसके कारण से राजनीतिक
दल अलोकप्रिय साबित हो सकते हैं । विकासोन्मुख देशों में तो
तानाशाही प्रवृत्ति अपने नंगे रूप में प्रदर्शित होती है । यह राजनीतिक
दल के दलीय सिद्धान्त के विरुद्ध है । इसे नियन्त्रण करने के लिए राज्य
व्यवस्था के साथ यथेष्ट कानूनी प्रावधान होना चाहिए । राज्य व्यवस्था
में राजनीतिक दल को ठीक ढंग से संचालित करने की विधि का निर्माण
होना चाहिए ।


पद और पदाधिकारी का चयन (8ह₹९लांणा ए ९९टाएए९5 ए०55) “ पद
तथा पदाधिकारी का चयन करते समय राजनीतिक दल बटवारा और
नेता के नजदीक के सम्बन्ध के आधार में पद तथा पदाधिकारी का
चयन करना उचित नहीं है । किन्तु विकासोन्मुख देशों में योग्यता, कार्य
क्षमता या विज्ञता को स्थान नहीं मिलता । नेता के नजदीक जो होते हैं,
जो चापलूसी होते हैं, चालाक होते हैं वो राजनीतिक नेता के प्रिय होते
हैं। यह अवस्था देश के लिए हानिकारक होती है।

राज्य और राजनीतिक दलों में विभेद (लशिशाटरए एशप्रर्शा 59८९ भा0
एणां/ंटगा एग१9) - राज्य और राजनीतिक दलों में विभेद है ।
राजनीतिक दल ही राज्यव्यवस्था में प्रवेश करती है और राजनीतिक दल
ही राज्यव्यवस्था संचालित करती है, फिर भी राज्य में अन्तरनिहित
सिद्धान्त होते हैं, जो राजनीतिक दल के नहीं होते । इसलिए इनकी
प्रकृति एक जैसी होने पर भी ये अलग हैं । किन्तु सफल राजनीतिक
सिद्धान्त को अगर स्वीकार करना है तो इन दोनों के अन्तरनिहित
सिद्धान्त को एक ही होना पड़ेगा । विश्व के कम ही देशों में राज्य और
राजनीतिक दलों का अन्तरनिहित सिद्धान्त एक जैसा होता है । जिस देश
में राज्य और राजनीतिक दल में विभेद है, वह देश और जनता उन्नति


203


नहीं कर सकते । ऐसे देशों में सुधार की आवश्यकता है । मूल रूप में
निम्निलिखित अत्यावश्यक तत्व को नजरअन्दाज नहीं कर सकते हैं-

(१) राजनीतिक स्थिरता (२) राष्ट्र की उन्‍नति (३) राष्ट्र में शान्ति कायम
(४) राष्ट्र और जनता की सुरक्षा (५) देश और जनता की अर्थिक वृद्धि ।


उपरोक्त पाँच तत्व राज्य और राजनीतिक दल के लिए अत्यावश्यक होते
हैं । किन्तु विकासोन्मुख देशों में राजनीतिक दल की कमजोरी के कारण
ये आवश्यक तत्व उल्टा रूप धारण कर लेते हैं । सिद्धान्तवादी
राजनीतिक दल और सिद्धान्तहीन राजनीतिक दल के राजनीतिक अवस्था
में प्रवेश से जो नतीजा आता है, उसे निम्न रूप में वर्गीकरण कर के


देख सकते हैं-


स्थिरता] शिन्लि |] ग्क _] डिल्तति |] आर्थिक लद्धि]


लाल जल
डत्नद्वारा स॑च्यात्नित


जज्य स्थयर्मा राज्ज्य ठ्यव्वस्था


सिद्धान्तक्नीन राजनीलिक
खत्नद्वारा स्च्यात्तित


अवन्‍नतात


[असिः आस्लस्ला ] [अशाच्लि] [अस्तुरक्ष्ता |


राज्यव्यवस्था का सिद्धान्त एक होने पर भी संचालित करने वाले
राजनीतिक दल के सिद्धान्त में विचलन उत्पन्न होता है, जिसकी वजह
से विपरीत व्यवस्था संचालित हो सकती है । इसलिए सिद्धान्तवादी
राजनीतिक दल कैसे तैयार किया जा सकता है, यही भ्रष्टविरोधी शास्त्र
के चिन्तन का विषय है | मूलतः राजनीतिक दल ही राष्ट्र की निहित
निर्देशित सिद्धान्त की आड़ में संचालित करने “कराने की व्यवस्था होनी
चाहिए । इसके लिए राजनीतिक दल को विधि द्वारा नियन्त्रित करते हुए
विधि सम्मत चलने वाली राजनीतिक संस्कृति का विकास करना चाहिए ।
राज्य के मूल सिद्धान्त की आड़ में राजनीतिक दल को चलना चाहिए,
यह स्पष्ट होता है।


देश में जितनी भी राजनीतिक दल की संख्या बढ़ेगी, देश और जनता
उसी अनुपात में गरीब और शोषित होंगे । इसीलिए राजनीतिक दल


204


जिस देश में अधिक हैं, वह देश गरीब होगा और वहाँ विकास नहीं हो
सकता । साथ ही राजनीतिक अवस्था अस्थिर रहती है।

किसी भी देश में किसी भी शासकीय स्वरूप से भी राज्य संचालन हो
सकती है, किन्तु राजनीतिक दल में विचलन आने पर कोई भी
राजनीतिक पद्धति स्थायी रूप में लागू नहीं हो सकता । इसलिए इसे
नियन्त्रित करने के लिए राजनीतिक दलों के लिए विशेष नीति लागू
होनी चाहिए ।


कोई भी राजनीतिक दल दो वर्गों में विभाजित होते हैं- पहला नेतृत्व
वर्ग और दूसरा कार्यकर्ता वर्ग । ये दोनों वर्ग ही राज्य सत्ता के दावेदार
होते हैं। कार्यकर्ता वर्ग नेतृत्व में जाने पर नेता होते हैं और नेता बनने
पर राज्यसत्ता में जाने के लिए उनमें होड़ होती है । इसी सत्तालिप्सा के
कारण राजनीतिक दल के भीतर गुटबाजी शुरु होती है और ऐसा होने
पर फूट बढ़ जाती है । यही राजनीतिक दल का खराब पक्ष है। सेवा के
लिए राजनीति होनी चाहिए, लेकिन सत्ता के लिए राजनीति होने के
कारण छोटे तथा विकासोन्मुख देशों के लिए राजनीतकि दल अभिशाप
सिद्ध होते हैं ।

सुधार के पक्ष ($5५०९९5 ० |॥700श५शा।शा7- राजनीतिक नेता दो वर्ग
में विभाजित होकर एक वर्ग दल के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के
लिए नीति निर्माण करते हैं और उसके कार्यान्वयन के लिए निर्देशन
करने का कार्य करते हैं | दूसरा वर्ग पहले वर्ग के निर्देशन और सहयोग
में सत्ता प्राप्ति के लिए जनता में जाते हैं, चुनाव में भाग लेते है और
सत्ता में जाने का काम करते हैं। अर्थात्‌ राजनीतिक दल के भीतर सत्ता
में जाने और न जाने वाले वर्ग में विभाजित होने की प्रक्रिया अगर खत्म
हो जाय तो दल विभाजित होने का काम बन्द हो जाएगा और सत्ता में
जो जाते हैं, उनका कार्यमूल्यांकन कर राजनीतिक दल प्रभावकारी रूप
में संचालित हो सकते हैं । इस सिद्धान्त को निम्न रूप में देख सकते हैं-


205


090४ 5प्वरीर्पि


० है (९


0 ॥॥ ०० ॥॥
|; 4फि [| |तीऊ


दल के नीति निर्माता तथा सिद्धान्त प्रतिपादक समूह में रहनेवाले नेता
वर्ग में सत्ता में न जाने की अवस्था से राजनीतिक दल के भीतर
सेवामुखी भावना जाग्रत होगी । क्‍योंकि दल में संलग्न शीर्ष नेता ही
सत्ता में जाने की व्यवस्था का अन्त होने की अवस्था में राजनीतिक
नेताओं के स्वार्थ और मनचाहा निर्णय लेने की आदत को रोक सकता है।
यदि सत्ता में पहुँचने वाले नेता तथा जिम्मेदार व्यक्ति राज्यव्यवस्था और
दल के अहित होने का कार्य करते हैं तो जो सत्ता से बाहर हैं, वो उन्हें
पद से हटाने का काम करते हैं । इससे राजनीतिक दल की छवि में
सुधार होकर सेवामुखी कार्य का प्रारम्भ होगा ।


206


भ्रष्टविरोधी शास्त्र की शिक्षा नीति


पार ४कट्गांणा एणा6ए ए रांटणएएए/0०002फए


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है | यह विश्वव्यापी सर्वमान्य कथन है ।
इस सर्वमान्य परिभाषा पर विचार की आवश्यकता है । मनुष्य अन्य
प्राणी की तरह ही है, किन्तु अन्य पशु की तरह नहीं है । पशु और
मनुष्य भिन्‍न प्रकृति के हैं और होना भी चाहिए । किन्तु कई
विकासोन्मुख या अविकसित देशों में मनुष्य पशु की तरह जीवनयापन
करते हैं । शिक्षा अर्थात्‌ ज्ञान ही मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग करता
है । इसलिए मनुष्य और पशु के बीच का अन्तर ही शिक्षा के द्वारा स्पष्ट
होता है । इसलिए मानव समाज में शिक्षा का अत्याधिक महत्व है।


शिक्षा नीति के इतिहास को देखने पर यह पता चलता है कि इसका
विकास मानव सृष्टि के साथ-साथ ही होता आया है। अक्षर और लेखन
कला जब नहीं थी, तब भी मानव समाज में शिक्षानीति का अस्तित्व था।
इसलिए भी मानव विकास के इतिहास में संस्कृति, सभ्यता और
आध्यात्मिक ज्ञान की पकड़ मजबूत है, यह हम समभ सकते हैं । किन्तु
ऐसे सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव सभ्यता विश्व के सभी स्थान और सभी
युग में एक ही बार नहीं आया है। अलग-अलग समाज में, अलग-अलग


युग में ऐसे मानवोचित अवस्था आने के कारण वर्तमान में मानव
सभ्यता प्रभावित हुआ है, यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।


यद्यपि लेखन कला की शुरुआत होने से पहले भी ज्ञान को श्रति पद्धति
तथा व्यवहारिक अभ्यास के माध्यम द्वारा ज्ञान एक मनुष्य से दूसरे
मनुष्य में पहुँचने का काम होता था । बाद में लेखन कला का प्रादुर्भाव
होने के बाद मनुष्य के ज्ञान तथा अनुभव का अभिलेख रखने का कार्य
हुआ । आज के विकसित शिक्षा का इतिहास का प्रारम्भ बोली और
व्यवहार से हुआ है । इसलिए आधुनिक शिक्षा प्रणाली में भी बोली और
व्यवहार का उतना ही महत्व है।


सही शिक्षा का विस्तार जिस समाज में होता है, वही विकसित समाज

होता है । शिक्षानीति को अच्छी तरह लागू करने से समाज का विकास

निश्चित है । समाज विकास के लिए उस समाज के प्रत्येक सदस्य का
207


सक्षम होना आवश्यक है। व्यक्ति की सक्षमता का मूल आधार ही शिक्षा
है । जो व्यक्ति जैसी शिक्षा पाता है, उसकी क्षमता की प्रकृति भी उसी
अनुसार होता है । इसलिए समाज में सही शिक्षा विस्तारित होने की
आवश्यकता है।

विश्व के सभी विकासोन्मुख एवं विकसित देशों ने शिक्षा नीति के मूल
दायित्व के रूप में स्वीकार कर शिक्षानीति का तर्जुमा करते हैं, किन्तु
बहत से देशों में शिक्षानीत सफल नहीं होती । शिक्षानीति में होनेवाली
कमी के कारण ही समाज में भ्रष्टाचार उत्पन्न होता है और आतंकवाद
फेलने की अवस्था आती है । इस तरह मानवोचित शिक्षा प्रदान नहीं
करने के कारण समाज समस्याग्रस्त होता है । शिक्षानीति सबल होने पर
ही समाज व्यवस्थित ढंग से संचालित हो सकता है । इस विषय को
यहाँ संक्षेप में विश्लेषित करते हैं ।

वर्तमान में सभी प्रकार के समाज में भ्रष्टाचार सामाजिक समस्या के
रूप में स्थापित है | छोटे या बड़े, व्यक्तिगत या संस्थागत, प्रत्यक्ष या
परोक्ष रूप में फैले हुए भ्रष्टाचारजन्य कार्य को नियन्त्रण करने के लिए
उसके अनरूप शिक्षानीति बनानी होगी । विश्व के सभी देशों में
भ्रष्टाचार नियन्त्रण के लिए सही शिक्षा नीति बननी चाहिए । इस तरह
की शिक्षा नीति तेयार करने पर तीन क्षेत्रों को प्रभावित करने वाली
शिक्षा नीति तैयार करनी होगी । ये तीन क्षेत्र हैं-


व्यक्ति या नागरिक निर्माण, २) समूह या समाज निर्माण, ३)
राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल निर्माण ।


१) व्यक्ति या नागरिक निर्माण(भ०ताए 2००१ तंतं?शा5)


मनुष्य प्राणी के रूप में जन्म लेता है। बाद में उसकी प्राप्त जानकारी
या ज्ञान से उसे समाज में अपना स्तर निर्धारण करना होता है । इस
तरह मानवोचित ज्ञान या व्यवहार प्राप्त करने के बाद समाज में वह
मनुष्य के रूप स्थापित होता है | वही स्थापित मनुष्य समाज की
उन्‍नति या अवनति का कारण बनता है | इसलिए व्यक्ति के ज्ञान के
मापन के आधार में व्यक्ति की योग्यता निर्धारित होती है । भौतिक तथा
आध्यात्मिक दोनों प्रकार का ज्ञान मनुष्य को प्राप्त करना चाहिए ।
भौतिक ज्ञान से उसके स्थुल शरीर को कैसे बचाया जा सकता है और
समाज का विकास कैसे करना है, यह प्राप्त होता है, वहीं आध्यात्मिक
ज्ञान से उसका व्यक्तित्व उसे निर्माण करना और समाज को सत्य के


208


मार्ग में कैसे चलें यह ज्ञान होता है । ये दोनों भौतिक तथा आध्यात्मिक
राह को आगे लाने के लिए मूल तत्व ज्ञान है। व्यक्ति के लिए शिक्षा
नीति निर्माण करने के लिए निम्नलिखित चार विषय को स्थापित करने
की नीति का निर्माण करना होगा-

(क) सदाचारी, (ख) सकारात्मक सोच, (ग) ईमानदार, (घ) अनुशासित ।
क) सदाचारी (छशा९ए०शा्टे

सदाचारी व्यक्ति या नागरिक समाज के विकास में योगदान कर सकते
हैं । सदाचार का दूसरा रूप नैतिकता भी है । नैतिक एवं सदाचारी
व्यक्ति या नागरिक निर्माण करने के अनुसार शिक्षानीति बनानी पड़ेगी ।
शिक्षानीति तैयार करने के समय पुस्तक का ज्ञान और व्यवसायिक ज्ञान
दोनों प्रकार की व्यवस्था प्रारम्भिक स्तर से ही होने की व्यवस्था होनी
चाहिए । आचार-विचार और नैतिकता का ज्ञान प्रारम्भ में ही होने से
बाल्यकाल से ही सदाचार व्यक्ति बन सकते हैं ।

ख) सकारात्मक सोच (?०अं॥र€ पांगाताए़)

सकारात्मक सोच से व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास होता है । सोच तथा
विचार में अगर विचलन आता है तो सिर्फ उस व्यक्ति का ही नहीं पूरे
समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है । इसलिए व्यक्ति तथा
समाज के विकास के लिए सकारात्मक सोच अनिवार्य तत्व है। व्यक्ति
की सकारात्मक सोच से व्यक्ति में विवेक का निर्माण होता है ।
विवेकशीलता प्रमुख मानवीय गुण है । इसलिए सकारात्मक सोच निर्माण
के लिए उसके अनुरूप शिक्षा नीति निर्माण करने की आवश्यकता है।
ग) ईमानदार (प्णा९5$ए9)

ईमान मनुष्य के गुणों में से एक तत्व है । अगर मनुष्य में ईमान खो
जाय तो वह मनुष्य के रूप में कभी भी समाज में स्थापित नहीं हो
सकता । ईमानदारी मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का राजपथ है । जिसके
पास ईमान है, वही सभी के लिए स्वीकार्य है । मनुष्य के जीवन में
ईमानदारी कायम होने वाली शिक्षा नीति की व्यवस्था होनी चाहिए ।

घ) अनुशासित (75ठंए॥॥९)

अनुशासन की शिक्षा अगर प्रारम्भिक अवस्था में दी जाय तो मनुष्य का
व्यक्तित्व विकास हो सकता है । मनुष्य के गुण तत्वों में अनुशासन


209


निहित रहता है । इसलिए जीवन पद्धति में या व्यवहार में साधारण
तरीका अपनाकर भी मनुष्य अनुशासित हो सकता है।


उपरोक्त चार विषयों को स्थापित करने पर व्यक्ति और नागरिक में
विशेष चरित्र का निर्माण होता है, जिससे महत्वपूर्ण नतीजा निकल
सकता है, ये नतीजे व्यक्ति और व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक
तत्व है, जो निम्न हैं- (१) समृद्धि, (२) सफलता, (३) उपलब्धि हासिल, (
४) सुख तथा शान्ति ।


२) समूह या समाज निर्माण (छपाताए एफ टणावधाए 07
50ठंश५)


व्यक्ति या नागरिक निर्माण के लिए जिस तरह शिक्षा नीति की
आवश्यकता होती है, उसी तरह समुदाय तथा समाज निर्माण के लिए
भी शिक्षा नीति का निर्माण आवश्यक है । व्यक्ति की सोच तथा चरित्र
में विचलन आ सकती है, इस अवस्था में समुदाय तथा समाज का सही
वातावरण सुधार कर सकता है । इसलिए समुदाय या समाज में सही
वातावरण निर्माण करने के लिए निम्नलिखित विषय स्थापित होनेवाली
शिक्षा नीति का विकास विस्तार करना होगा-


(क) नैतिक मूल्य की स्थापना (ख) सहकारी का विकास (ग) जिम्मेदारी
बोध (घ) विधिपूर्ण अवस्था

क) नैतिक मूल्य की स्थापना (?79लांट९ ्ण॑ रा: शभए्९) : समुदाय या
समाज में नैतिक मूल्य के उतार-चढ़ाव से सामाजिक समस्या उत्पन्न
होती है । इसलिए भी समाज में सभी तरह के मूल्यों के महत्व से
अधिक नैतिक मूल्य का महत्व है । इसके स्थायित्व और सम्बर्द्धन होने
की अवस्था सृजना करनी होगी ।

ख) सहकारी का विकास (0९एशक्पशा[ ० 8 ००-क्‌थ'गांए९ 5०ठंट_) :
एक से अधिक लोगों के मिलकर करने वाले काम को सहकारी सिद्धान्त
के अनुसार कार्य कहते है । समुदाय तथा समाज विकास में सहकारी का
सिद्धान्त अत्यन्त सफल तथा उपयोगी साबित हुआ है । इससे मनुष्य में
मिलकर काम करने की या मिलकर सफलता हासिल करने की भावना
पैदा होती है, जो समुदाय तथा समाज विकास में लाभकारी होता हैं।


ग) जिम्मेदारी बोध (7९शश॥आभा४ ण॑ 7९कणाओंग्र।ए) - किसी भी अच्छे या
बुरे काम की जिम्मेदारी लेना या देना ही जिम्मेदारी बोध की अवस्था है।


20


समूह में या समाज के प्रत्येक इकाई सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक आदि विषय में होने वाले कार्य में जिम्मेदारी बोध की
अवस्था होनी चाहिए ।

घ) विधिपूर्ण अवस्था ((शश९ ० ॥.99५) : विधिपूर्ण अवस्था का अर्थ है,
परम्परा से चली आ रही रीतिरिवाज तथा संस्कृति, सामाजिक मूल्य तथा
मान्यता एवं राज्यव्यवस्था से प्रचलन में आए कानून का पालन होने की
अवस्था की सूजना होने वाली शिक्षा नीति लागू करने की आवश्यकता
है । तभी ठोस परिणाम मिल सकता है। ये है- (१) सार्वजनिक विकास,
(२) आर्थिक सफलता, (३) सर्वपक्षीय उपलब्धि और (४) सहज अवसर
तथा स्वतन्त्रता ।


३) राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल का निर्माण (एगांगंद्वा
स्णावरप्याए् 7 7एगांर्गांणा ० एणा[०ूवगे ए9ग९५)

किसी भी देश में रहने वाली जनता का जीवनस्तर अच्छा बनाने तथा
देश की उन्‍नति करने की जिम्मेदारी उस देश के भीतर क्रियाशील
राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल का होता है । इसलिए राजनीतिक
समूह या राजनीतिक दल जनता और देश का अगर हित करती है, तभी
वह उस देश में स्थायी रूप में क्रियाशील होती है । स्थायी रूप में
क्रियाशील होने वाले राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल ही देश में
राजनीतिक स्थिरता कायम कर सकती है | जहाँ राजनीतिक वातावरण
स्थिर होता है, वहीं की जनता और देश की उनन्‍नति हो सकती है।
राजनीतिक स्थिर वातावरण कायम करने के लिए निम्नलिखित विषय का
पूर्ण रूप से परिपालन होने की अवस्था होनी चाहिए-


(क) निश्चित सिद्धान्त, (ख) सेवामुखी भावना, (ग) जवाबदेही, (घ) सही
शासन पद्धति ।


क) निश्चित सिद्धान्त (04ी7८ एं॥ठंए०५) : राजनीतिक समूह या
राजनीतिक दल में निश्चित सिद्धान्त अवलम्बन करके देश और जनता
का हित करने वाली योजना का निर्माण होना चाहिए | इसतरह स्पष्ट
रूप में राजनीतिक सिद्धान्त को अंगीकार कर प्रस्तुत होने वाली
राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल से ही देश और जनता का भला
हो सकता है।

ख) सेवामुखी भावना (5७'शंट८ ग्रशागां9) : विश्व के राजनीतिक
परिप्रेक्ष में जो भी राजनीतिक समूह या दल है उनके उद्देश्य दो प्रकार


244


के होते हैं- (१) सत्ता-कब्जा, (२) सेवा भाव । सत्ता कब्जा करने के
उद्देश्य से क्रियाशील राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल क्षणिक रूप
में सफल होने पर भी वास्तव में असफल होते हैं, वहीं सेवाभाव से
प्रेरित क्रियाशील समूह या दल सफल होते हैं । इसलिए सेवामुखी
राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल जनता और देश की सिर्फ सेवा
नहीं करते, बल्कि देश में राजनीतिक स्थिरता कायम कर देश का
सर्वतोमुखी विकास कर सकते है।

ग) जवाबदेही (४८८०णा०णं।ए) : किसी भी देश में क्रियाशील
राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल उस देश की जनता और
राज्यव्यवस्था के प्रति पूर्ण जवाबदेह होना चाहिए । राजनीतिक समूह या
राजनीतिक दल में संलग्न प्रतिनिधि, नेता तथा कार्यकर्ता व्यक्तिगत रूप
में भी जनता और देश के अन्य संयन्त्र के प्रति पूर्ण वफादार तथा
जबावदेह होने वाली पद्धति की स्थापना की अवस्था वाली नीति का
निर्माण होना चाहिए, तभी जबावदेही से स्थायित्व कायम हो सकता है।


घ) सही शासन पद्धति (5000 ४2०४९श॥.भशा८९) : मूलतः कानूनी
राज्य की अवधारण को अंगीकार करने वाले शासन व्यवस्था को सही
शासन पद्धति के भीतर निम्नलिखित छ: तत्व अनिवार्य हैं- (१) कानूनी
राज्य की अवधारणा अनुसार की राज्यव्यवस्था, (२) भ्रष्टाचार नियन्त्रित
राज्य की स्थापना, (३) सार्वजनिक उत्तरादायित्व कायम, (४) जनता की
सूचना के अधिकार की सुनिश्चितता, (५) पारदर्शिता, (६) स्थानीय
स्वायत्त शासन प्रणाली ।


राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल के निर्माण के लिए उपरोक्त
उल्लेखित आधार का निर्माण होना आवश्यक है | ये आवश्यक आधार
ही कारण बन कर निम्नलिखित परिणाम दे सकते हैं । ये हैं- (१) समृद्ध
समाज का निर्माण, (२) सफल राजनीति, (३) राजनीतिक स्थायित्व, (४)
शान्ति तथा सुव्यवस्था ।





ये आवश्यक तत्व पूर्ण रूप में स्थापित करने
का निर्माण आवश्यक है। उपरोक्त अध्ययन
शुभचिन्ह को प्रयोग में लाकर देखें-


लिए विशेष शिक्षानीति


के
के आधार में विश्वविख्यात


(१) व्यक्ति या नागरिक निर्माण के कारण तथा उसके परिणाम:


242


| ही | 54


:(/ और टी6


;[7


कु हा 5गकि ;॥


जल. ]


कारण- सदाचारी, सकारात्मक सोच, ईमानदार, अनुशासित
परिणाम- समृद्धि, सफलता, उपलब्धि हासिल, सुख और शान्ति ।
२) समुदाय समाज निर्माण के कारण तथा उसके परिणाम-


गा [॥0 ॥ रा;


/ी ९ ;/


ह कट: ध ्


3700५ : #५7


जन. ] 00 [3400


कारण- नैतिक मूल्य, सहकार्य, जिम्मेदारी-बोध, विधिपूर्ण अवस्था ।
परिणाम- सार्वजनिक विकास, आर्थिक सफलता, सर्वपक्षीय उपलब्धि,
सहज अवसर तथा स्वतन्त्रता ।


243


००


३) राजनीतिक समूह या राजनीतिक दल के निर्माण के कारण तथा
उसके परिणाम-


० ॥ 270 था च्णू ॥0 (2-80 |


जज 5 :भएरीणु


कारण- निश्चित सिद्धान्त, सेवामुखी भावना, जबावदेही, सही शासन
पद्धति ।


परिणाम- समृद्ध समाज निर्माण, सफल राजनीति, राजनीतिक स्थायित्व,
शान्ति तथा सुव्यवस्था ।

उपरोक्त शुभ चिन्ह को आधार बनाकर नागरिक, समाज और राजनीति
इन तीनों पक्ष के आवश्यक कारण को आधार बनार हमने परिणाम को
देखा । इन्हीं विषय प्राप्ति के लिए शिक्षानीति निर्माण होने पर उससे
निकलने वाले परिणाम अत्यन्त लाभदायी हैं, यह हमें समभना होगा ।
उपरोक्त शुभचिन्ह के केन्द्र दाहिनी ओर से निरन्तर धुरी में घूमता है ।
यह विषय को निरन्तरता देना है । यह विषय को जीवन्तता देती है।
इसलिए यह शाश्वत और सत्य है । इसी अनुसार भ्रष्टविरोधी शास्त्र में
भी आवश्यक शिक्षानीति का समयानुसार परिवर्तन होते हुए निरन्तरता
प्राप्त करती है, तभी सार्थक परिणाम की अपेक्षा की जा सकती है।


244


उपसंहार तथा सुभाव


(णालाबांणा 0 २९८एणा।शातंवाणा$


विश्व के सभी देशों में भ्रष्टाचारजन्य कार्य होता है और होता आया है।
हम यह कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार से मुक्त कोई देश नहीं है, चाहे व
देश छोटा हो या बड़ा हो । बड़े तथा विकसित देशों में होने वाले
भ्रष्टाचार की प्रकृति और छोटे तथा विकासोन्मुख देश में होने वाले
भ्रष्टाचार की प्रकृति अलग-अलग होती है । विकसित देशों में होने वाले


तक


भ्रष्टाचार अदृश्य प्रकृति के होते हैं तथा छोटे तथा विकासोन्मुख देशों में
का च


होने वाले भ्रष्टाचार दृश्य भी होते हैं और अदृश्य भी होते हैं । तात्पर्य
यह है कि भ्रष्टाचार ने पूरे विश्व को अपने अन्दर कर लिया है ।
भ्रष्टाचार से मुक्त होना मानव समाज के लिए अनिवार्य हो गया है।


०० पे


मानव समाज के विकास के साथ-साथ भ्रष्टाचार का भी तेजी से
विकास हुआ है ओर इसने अपना जड़ समाज में अच्छी तरह से जमा
लिया है । इसकी जड़ इतनी गहराई तक जम गई है कि उसका पता
लगाना मुश्किल है । इसका उन्मूलन समाज सुधारक, समाज के
प्रतिनिधि और विचारकों के लिए भी कठिन कार्य है। भ्रष्टाचारजन्य कार्य
की प्रकृति ही ऐसी है कि वह मानव विकास के साथ-साथ विकसित
होती जा रही है । विकसित देश, अविकसित देश, विकासोन्मुख देश,
सभी इसकी चपेट में हैं । भ्रष्टाचारजन्य कार्य से पीड़ित देश इससे मुक्त
होना चाहता है, इसी विषय को ध्यान में रखकर यह श्रष्टविरोधी शास्त्र
निर्मित हुआ है।


- विश्वव्यापी व्याप्त भ्रष्टाचार से समाज में अनेक प्रकार की समस्या
उत्पन्न होती है, फिर भी इसके निवारण के लिए कोई भी गम्भीरता से
तत्पर दिखाई नहीं देता है । समाज के प्रतिनिधि, राजनीतिक नेता तथा
राज्यव्यवस्था स्वयं इसे अच्छी तरह समभ नहीं पाए हैं । बावजद इसके
भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रत्येक देश में कानन भी है ओर इसे लागू भी किया
गया है । कई राज्यव्यवस्था ने तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध काम करने के
लिए स्वतन्त्र आयोग भी बनाया हुआ है । किन्तु भ्रष्टाचार विरुद्ध के
कानून के लाग होने पर भी इस पर नियन्त्रण नहीं हो पाया है। वास्तव


245


में सिर्फ कानन से इस पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता है। कानन
तो अगर किसी व्यक्ति, संस्था, समदाय ने भ्रष्टाचार किया है तो उसके
विरुद्ध प्रमाण अथवा साक्ष्य खोज कर उसे कानून के दायरे में लाकर
उस पर सिर्फ कारवाही कर सकता है । इस कार्यवाही से सिर्फ यह
सन्देश मिलता है कि गलत कार्य नहीं किया जाना चाहिए | भ्रष्टाचार न
हो, इस अवस्था का निर्माण कानून नहीं कर सकता है । इसलिए
भ्रष्टाचार नहीं हो, इस अवस्था का निर्माण आवश्यक है।


- बड़े राष्ट्र के द्वारा छोटे राष्ट्र में राजनीतिक रूप में उपनिवेश कायम
करने की व्यवस्था प्राचीन काल से चली आ रही है। वर्तमान अबस्था में
राजनीतिक रूप में प्रत्यक्ष रूप में उपनिवेश स्थापित नहीं हो सकता
फिर भी आर्थिक और सांस्कृतिक रूप में एक देश दूसरे देश को
उपनिवेश बनाने के लिए तत्पर रहता है | इस व्यवस्था से छोटे देश
प्रायः बड़े देश का शिकार बनते हैं । कहने के लिए तो सार्वभोम सत्ता
सम्पन्न राज्य कहलाते हैं, किन्तु व्यवहार में पूर्ण औपनिवेशिकता कायम
रहती है । ऐसी व्यवस्था में छोटे तथा गरीब देश तथा उस देश में रहने
वाले नागरिक का कोई अलग अस्तित्व कायम नहीं हो सकता है। ऐसे
देशों के सभी क्षेत्र भ्रष्टाचार जैसे सामाजिक रोग से ग्रसित होते हैं । ऐसे
देश और जनता को मुक्ति दिलाने के लिए वर्तमान में नव उपनिवेशवादी
व्यवस्था का अन्त करना आवश्यक है।


- प्रायः विकसित देशों में गैर सरकारी संस्था की क्रियाशीलता के कारण
उनसे ही जनता की सेवा का कार्य दिया जाता है । विकासोन्मुख देशों
में इस बात को अपनाने की वजह से वह देश और जनता भ्रष्टाचार के
दलदल में फंस जाते हैं । विकासोन्मुख देशों में गैरसरकारी संस्था
संचालित करने वाला व्यक्ति, समुदाय और संस्था फायदे में है । क्योंकि
कम काम और अधिक अर्थोपार्जन की नीति लेकर विकासोन्मुख देशों में
गैर सरकारी संस्था व्यवसायिक रूप में संचालित हुए है । इनकी
क्रियाशीलता ही उन्हें शक के घेरे में लाता है । ऐसे गैर सरकारी संस्था
के ऊपर शक ही नहीं बल्कि उनके ऊपर देश की अस्मिता को बेचने
का आरोप भी लगता आया है । फिर भी ऐसी संस्था गरीब देशों में
अधिक संचालित ह॒ए हैं । गरीब देशों के विद्वान का अर्थ उन चालाक
व्यक्ति से है, जो फायदा लेती है और देश का नुकसान अधिक करती है।
कुछ अच्छी गैर सरकारी संस्था भी है, पर इससे अधिक नुकसान करने
वाली संस्था अधिक है । ऐसी संस्थाओं को निरुत्साहित करना आवश्यक है


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- आज का युग प्रजातन्त्र का युग है। विश्व के प्रायः देशों में प्रजातन्त्र
की स्थापना हुई है । एकाध साम्यवादी व्यवस्था संचालित देश स्वयं को
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था वाले देश मानते हैं । क्योंकि एक मात्र राजनीतिक
दल द्वारा राज्य व्यवस्था कब्जा करने पर भी राजनीतिक दल होने के
कारण उन्हें जनता के प्रतिनधि के रूप में जाना जाता है । इसलिए भी
एक दलीय साम्यवादी व्यवस्था को भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था ही कह कर
स्वीकार किया जाता है। एक दलीय या बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था
में राजनीतिक दल का ही राजसत्ता में बाहुल्य कायम हुआ है । इसलिए
राजनीतिक दल को स्वच्छ, सिद्धान्तवादी और जनता का उत्तरदायी होना
पड़ता है । गरीब एवं अविकसित देशों में चालाक और धूर्त व्यक्ति
साम्यवादी सिद्धान्त को मुखपत्र बनाकर राज्यसत्ता कब्जा करते हैं । इसी
के अनुसार कई देशों में ऐसे साम्यवादी और उप-साम्यवादी राज्यसत्ता
कब्जा करते हैं । इस तरह राज्य सत्ता कब्जा करने पर भी सुस्त
बहुदलीय ढाँचा में परिवर्तन होते चले जाते हैं । राज्य सत्ता प्रभावकारी
रूप में संचालित करने के लिए किस प्रकार का राजनीतिक दल की
आवश्यकता है, इस बात पर यकीन नहीं करने पर भी प्रजातान्त्रिक
व्यवस्था में एक से अधिक राजनीतिक दल की आवश्यकता होती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि दर्जनों की संख्या में राजनीतिक दल की
स्थापना की जाय और बहुदल कायम हो । विकसित देशों में प्रमुख रूप
से दो या तीन दल ही क्रियाशील होते हैं । इसलिए विकासोन्मुख देशों में
भी दो से चार दलों की व्यवस्था होनी चाहिए । विकासोन्मुख तथा गरीब
देशों में गोबरछत्ते की तरह जन्म लेने वाले दल तथा उनके आपस में
दन्द्द उत्पन्न होने की अवस्था को रोकने की व्यवस्था होनी चाहिए । इस
तरह राजनीतिक दलों को सीमित दायरे के भीतर रखने पर ऐसे
राजनीतिक दलों को ईमानदार, सिद्धान्तवादी तथा जबावदेह बनाया जा
सकता है।

- राज्य राज्य व्यवस्था और राजनीतिक दल के विषय का अध्ययन
राजनीतिशास्त्र के अन्तर्गत होता है । राजनीतिशास्त्र का जिस समय
जन्म हुआ, उस समय में राजनीतिक दलों की कल्पना भी नहीं की गई
थी । बहुत दिनों के बाद राजनीतिक दलों ने राजनीति का अतिक्रमण
किया । राजनीतिक क्षेत्र राजनीतिक दलों के द्वारा अतिक्रमित होने के
बाद राजनीतिक दल राजनीतिशास्त्र के अध्ययन का विषय बना ।
राजनीतिक दल चुंकि बाद में अध्ययन का विषय बना इसलिए इसके


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गुण-अवगुण का गहराई से अध्ययन नहीं हो पाया है, जिसकी वजह से
विश्व के राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से संचालित होते हैं,
जिसके कारण कई समस्याएं भी उत्पन्न होती हैं । राजनीतिक दल की
प्रमुख समस्या निर्वाचन प्रणाली है । निर्वाचन के समय व्यक्ति या दल के
घोषणापत्र के प्रचार के समय मानसिक, भौतिक और आर्थिक निवेश की
आवश्यकता पड़ती है, जिसके लिए बाध्यतावश भी अर्थ संकलन की
अवस्था बनती है इसके कारण असहज कार्य होना इतना ही नहीं राष्ट्रीय
सम्पत्ति का दुरूपयोग होता है । जिसकी वजह से इस क्षेत्र में भ्रष्टाचार
का फैलाव होता है । राजनीतिशास्त्र के अध्ययन में अब श्रष्टविरोधी
शास्त्र का विषय भी अध्ययन में लाकर इसकी नियन्त्रण विधि का
निर्माण आवश्यक है।


- अर्थशास्त्र का भी पुराना इतिहास है । अर्थशास्त्र आर्थिक अवस्था की
नीति को लम्बे समय से व्याख्यायित और विश्लेषित करता आया है और
आर्थिक कारोबार को व्यवस्थित करने का कार्य करता है । अर्थ कारोबार
से लेकर वस्तु के उत्पादन और बाजार का अध्ययन करनेवाला
अर्थशास्त्र अवैध अर्थ आर्जत और उसके कारोबार के विषय में मौन है ।
वर्तमान में सभी क्षेत्र को अर्थ ही नियन्त्रित करता है । अर्थशास्त्र में
सामहित सभी क्षेत्र में भ्रष्टाचार ने पूर्ण प्रभाव डाला है । उत्पादन,
आपूर्ति, बाजार, व्यापारिक कारोबार, आयात निर्यात, विनियम से लेकर
वित्तीय कारोबार करनेवाले सभी प्रकार की संस्थाओं में छोटे या बड़े
अपराध छुपे हुए रहते हैं । इन्ही आर्थिक अपराधों का अध्ययन और
विश्लेषण करने में भ्रष्टविरोधी शास्त्र मदद करता है, इसलिए अर्थशास्त्र
के अध्ययन में भी इस शास्त्र को विषय के रूप में समावेश करना
चाहिए ।


- सामाजिक समस्या के रूप में परिचित भ्रष्टाचार को जब तक
निश्चित अवस्था में नहीं रखा जाएगा । तब तक समाज का समग्र
विकास नहीं हो सकता है । पहले के समय में समाज में अगर कोई
भ्रष्ट व्यक्त होता था तो समाज उसे घृणा की दृष्टि से देखता था यही
कारण था कि उस वक्त समाज में भ्रष्टाचार अत्यन्त न्यून रूप में मौजूद
था । किन्तु वर्तमान समय में कोई कितना भी भश्रष्टाचारी क्‍यों न, कानून
को अगर धोखा दे देता है तो वह समाज में प्रतिष्ठित जीवन ही यापन
करता है । इसलिए भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के सहारे अधिक से अधिक धन
अर्जित करता है और समाज में प्रतिष्ठित होता है, इसका बाह॒ल्य होने


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के कराण भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है। समाजशास्त्र में सामाजिक
समस्या के विषय में अध्ययन अध्यापन होता है, किन्तु भ्रष्टाचार का एक
अलग विषय के रूप में अध्ययन करने की व्यवस्था अब तक नहीं हुई है।
वर्तमान समाज भ्रष्टाचार से आक्रान्त है। प्रत्येक समस्या का जड़ ही
भ्रष्टाचारजन्य कार्य है, इस सत्य को सभी समभकते हैं । समाज में
व्याप्त अनेक प्रकार के भ्रष्टाचार को नियन्त्रित अवस्था में रखना चाहिए
यह ज्ञान भी सब में हे । इतना होने पर भी भ्रष्टाचार विरुद्ध का विषय
समाजशास्त्र में शामिल नहीं हो पाया है । भ्रष्टाचार सामाजिक रोग है ।
सामाजिक रोग के रूप में स्थापित है और इसका निराकरण भी अत्यन्त
आवश्यक है। इस तथ्य को समझ कर जल्द से जल्द भ्रष्टविरोधी शास्त्र
को समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक शास्त्र में समावेश करा कर
अध्ययन-अध्यापन कराना आवश्यक है

- विकासोन्मुख राष्ट्रों में स्थानीय अर्थात्‌ ग्रामीण विकास को महत्व देने
के कारण ग्रामीण विकास को भी बहुत विश्वविद्यालयों में विषय के रूप
में शामिल कर उसका अध्ययन-अध्यापन शुरु हो चुका है । यह एक
नया विषय है, इसलिए प्रायः सभी विकासोन्मुख राष्ट्रों ने इस विषय को
प्राथमिकता दिया है और इसका अध्ययन शरु किया है । वास्तव में
ग्रामीण विकास नहीं होने का मख्य जड़ ही स्थानीय राजनीतिक
खीचातानी है । इस तथ्य को ग्रामीण विकास के अध्ययन में समभा
नहीं जा सका है | जहाँ राजनीतिक हस्तक्षेप होता है, वहाँ धूर्तों का
बोलवाला होता है और वहाँ के निवासी निरक्षर और अज्ञानी होते हैं ।
और वहाँ भ्रष्टाचार का पूर्ण प्रभाव होता है । जहाँ भ्रष्टाचार होगा, वहां
का ग्रामीण विकास अवरुद्ध होगा । इसलिए ग्रामीण विकास के अध्ययन
में भ्रष्टविरोधी शास्त्र महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।

- राज्यव्यवस्था संचालन करने वाले सरकार के महत्वपूर्ण तीन अंगों में
एक कार्यपालिका है । सरकारी निकाय एक जैसे होने पर भी इसमें दो
प्रकृति के निकाय समावेश हैं- एक, राजनीतिक निकाय और दूसरा
निजामती कर्मचारी समूह । यह निजामती समूह स्थायी सरकार के रूप
में स्थापित होते हैं । इस निकाय को सबल, सक्षम और दवाबमूलक
बनाने के लिए जनप्रशासन विषय के अध्ययन-अध्यापन का भी चलन है
। विश्व के प्रायः सभी विश्वविद्यालय में जनप्रशासन की पढ़ाई होती है ।
सभी देश के राज्य व्यवस्था में वास्तव में सरकार का तात्पर्य स्थायी
प्रकृति के सरकार का कह सकते हैं । क्योंकि इस निकाय के साथ राज्य


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की नीति, निर्देशक सिद्धान्त और प्रादेशिक रणनीति निहित होते हैं ।
जिसे राष्ट्रीय अहम नीति के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
राजनीतिक रूप में समावेश होने वाले अस्थायी सरकार आते और जाते
हैं किन्तु राष्ट्रीय नीति में परिचालित नहीं हो पाते हैं । यही राष्ट्रीय
अहम नीति को हस्तक्षेप मुक्त रखने के लिए निजामती सेवा में संलग्न
रहने वाले व्यक्ति या समुदाय कैसे जिम्मेदारी निर्वाह करेंगे, इस विषय
में जानकारी जनप्रशासन के अध्ययन में समाहित होते हैं । स्थायी
सरकार के रूप में कार्यरत निजामती सेवा के कर्मचारी ही भ्रष्टाचार के
कार्य में संलग्न होते हैं । सबसे अधिक भ्रष्ट कार्य स्थायी सरकार में
संलग्न व्यक्ति या समुदाय करते हैं, इसलिए इस क्षेत्र पर पूर्ण निगरानी
रखने में भी भ्रष्टविरोधी शास्त्र सहायक सिद्ध हो सकता है।





- राज्यव्यवस्था में पूर्णकालीन काम करने वाले सैनिक, प्रहरी, प्रशासन
क्षेत्र, न्याय क्षेत्र और अन्य क्षेत्र में काम करनेवाले राष्ट्रसेवक लम्बी
अवधि के बाद कार्य से मुक्त होने के बाद बाकी जीवनयापन के लिए
उन्हें निवृतिभरण देने की व्यवस्था होती है । इस तरह पूर्णकालीन काम
करने वाले राष्ट्रसेवक का बाकी जीवन अच्छी तरह कट सके इसके लिए
निवृत्तिभरण देना अच्छी बात है । किन्तु विकासोन्मुख देशों में ऐसी
लम्बी अवधि काम करने वाले सिर्फ राष्ट्रसेवक नहीं होते हैं, राजनीतिक
क्षेत्र में काम करने वाले जनप्रतिनिधि और राज्य के उच्च पद में पहुँचने
वाले व्यक्ति को भी अनेक प्रकार की सुविधा देने का प्रचलन है । इतना
ही नहीं भूतपूर्व पदाधिकारी सुरक्षा के नाम पर राज्यकोष की बड़ी राशि
खर्च कर, सुरक्षाकर्मी की सुविधा लेकर ऐयाशी जीवनयापन करते हैं ।
राज्यकोष पर भार डाल कर सैनिक, प्रहही और निजामती सेवा के उच्च
पदाधिकारी राज्यकोष से वेतन लेकर और राष्ट्रसेवक से घर का काम
कराते हैं । पदाधिकारी को सुविधा देना होगा इस नाम पर ऊपरी तह के
पदाधिकारी निचले तह के राष्ट्रसेवक से नौकर की तरह व्यवहार करते
हैं, जो आज के युग में उचित नहीं है । इसलिए ऐसे नौकरशाही का
अन्त करना आवश्यक है।

- सही व्यवस्थापन आज की आवश्यकता है । किसी बड़े कल-कारखाना
और बड़े उद्योग में ही नहीं, बाजार और वित्तीय क्षेत्र में भी सही
व्यवस्थापन की आवश्यकता होती है । व्यापारिक संस्था, सेवामूलक
स्वास्थ्य तथा शिक्षण संस्थाओं में भी सही व्यवस्थापन की आवश्यकता
है । व्यवस्थापन विषय की ऐसी आवश्यकता है कि जहाँ सही


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व्यवस्थापन है, वही सफलता और विकास है । जहाँ व्यवस्थापन खराब
है, वहाँ असफलता निश्चित है । अब तो मानवीय श्रम साधन भी सही
व्यवस्थापन की आवश्यकता महसूस, कर रहा है । इसलिए विश्व के कई
विश्वविद्यालयों में मानवीय श्रम साधन विषय का अध्ययन-अध्यापन शुरु
हो चुका है। व्यवस्थापन विषय और भी व्यापक क्षेत्र को समाहित कर
सकता है । व्यवस्थापन पक्ष, कुशल अनुशासित, नीतिवद्ध और व्यवस्थित
होने से ही व्यवस्थापन को सही व्यवस्थापन कह सकते है । निरीक्षण,
अनुगमन और मूल्यांकन व्यवस्थापन का मूल सूत्र है। इस सूत्र की
अवहेलना ही अनुशासनहीनता, नीति विरुद्ध कार्य, गैर जिम्मेदारीपन,
अनुचित कार्य और अवैधानिक कार्य को भ्रष्टाचारजन्य क्रियाकलाप
मानना होगा । इसलिए व्यवस्थापन से श्रष्टविरोधी शास्त्र का अत्यन्त
निकट सम्बन्ध है । व्यवस्थापन के अनेक विषय में भ्रष्टविरोधी शास्त्र की
नीति तथा सिद्धान्त की भी शिक्षा आवश्यक है।


- राज्य की शक्ति पृथकीकरण सिद्धान्त के आधार में राज्य व्यवस्था
न्यायपालिका को स्वतन्त्र शक्ति सम्पन्न रूप में रखने की व्यवस्था है
विधि के शासन में न्यायपालिका ही देश और जनता के अभिभावक के
रूप में स्थापित है । ऐसी शासन व्यवस्था को स्थापित करने की
जिम्मेदारी विधिशास्त्र की होती है । इस सत्य तथा अपरिहार्य पद्धति को
कानून निर्माण की जिम्मेदारी लेने वाली व्यवस्थापिका उसे आत्मसात
नहीं कर सकती है । क्‍योंकि व्यवस्थापिका के सदस्य किसी न किसी
राजनीतिक रंग में रंगे होते हैं । ऐसे राजनीतिक व्यक्ति कानून को
परिवर्तन कर अपने अनुसार बनाना चाहते हैं । व्यवस्थापिका के सदस्य
स्वार्थी एवं संकीर्ण होते है, इसलिए इन्हें रोकने के लिए विधिशास्त्र भी
प्रभावशाली होना चाहिए । देश का मूल कानून संविधान है । संविधान के
किसी भी धारा से अलग कानून अमान्य होगा, यह कानूनी सिद्धान्त है।
किन्तु कई देशों में राजनीतिक व्यक्ति के स्वार्थ को पूरा करने के लिए
नियम और कानून बनाए जाते हैं । इसतरह गैर कानूनी कानून तैयार
करनेवाले व्यक्ति के विरुद्ध कैसी कानूनी व्यवस्था होनी चाहिए, इस
विषय पर विधिशास्त्र मौन है । सभी प्रकार के कानूनी सिद्धान्त को
अध्ययन में समाविष्ट करने वाला विधिशास्त्र श्रष्टाचारी, अनुचित कार्य
करनेवाले, अनुचित व्यवहार और अख्तियार का दुरूपयोग करने वाले के
विरुद्ध सिद्धान्त का निर्माण नहीं कर पाया है। इसलिए भ्रष्टविरोधी शास्त्र


में



224


की नीति तथा सिद्धान्त को भी विधिसम्मत विधिशास्त्र में समावेश करने
की आवश्यकता है ।

- वर्तमान युग संचार का युग है । विश्व के सभी देशों में प्रजातन्त्र की
स्थापना के पश्चात पत्रकारिता शुरु हुई । छापाखाना के माध्यम के द्वारा
शुरु हुई पत्रकारिता रेडियो और टेलीविजन से होते हुए आनलाइन तक
आ पहुँची है। आगे भी यह विश्वप्रविधि के विकास के साथ आगे बढ़ेगा,
यह निश्चित है । प्रजातान्त्रक राजनीतिक व्यवस्था वाले देश में
पत्रकारिता की पकड़ होती है । इसलिए कुछ दशक से पत्रकारिता को
भी अध्ययन का विषय बनाया गया है। प्रजातान्त्रिक देशों में पत्रकारिता
को राज्य के चौथे अंग के रूप में माना गया है, जिसने इसके महत्व को
और भी बढ़ा दिया है । यह विषय साधारण पत्रिका से होते हुए
आमसंचार माध्यम में पहुँच चुका है । इसे व्यवस्थित अध्ययन का विषय
बनाने की जिम्मेदारी शिक्षाक्षेत्र में विश्वविद्यालयों की है । पत्रकारिता के
विरुद्ध बोलना, शब्द 'पीत पत्रकारिता' है । किन्तु आज के युग में संचार
अपराध इतना बढ़ गया है कि पीत पत्रकारिता का रूप न्युन हो गया है।
राजनीतिक उथल-पुथल करने वाले, गैर कानूनी धन्धा चलाने वाले,
काले धन की रक्षा करने वाले आम संचार के निकाय क्रियाशील है।
विकसित देश हो या विकासशील देश, प्रायः सभी देशों में आम संचार
ने अपना वर्चस्व जमा रखा है। यह क्षेत्र इतना भ्रष्ट हो गया है कि इस
पर नियन्त्रण की आवश्यकता सभी को महसूस हो रही है | इसलिए
सत्य, निष्ठा, विश्वास और ईमानदारी के साथ आम संचार माध्यम को
अगर चलाना है तो भश्रष्टविरोधी शास्त्र के सिद्धान्तों को आम संचार को
अंगीकार करना होगा । अगर आम संचार सत्य की राह में चलता है तो
वहाँ की राज्य व्यवस्था जल्दी ही सफलता हासिल कर सकती है।


- नए देशों के अलावा अफ्रीका, युरोप और एशिया महादेश के देश
अपने देश की अवस्थानुसार प्राचीन काल से ही मानव सभ्यता के
विकास में लगे हुए हैं । मनुष्य समयानुसार अपने जीवन-पद्धति में
विकास करता आया है | जिस मानव समाज में मनुष्य रहता है, वही के
मस्तिष्क के चिन्तन से जन्म लिए मानवोपयोगी विचार से ही उस


222


मानव समाज के विकास का स्तर कायम होता है । ऐसे उच्च स्तरीय
मानव विकास में युरोप तथा एशिया महादेश के देशों की अग्रणी
भूमिका है, ऐसा हम समभते है । ऐसे प्राचीन काल से चली आ रही
परम्परा में आध्यात्मिक क्षेत्र का बाहुल्य कायम होता है । जिस समाज
में आध्यात्मिक चिन्तन के आधार में समाज स्थापित होता है, उस
समाज में रहने वाले व्यक्ति सुख, शान्ति और समुद्ध जीवनयापन करते हैं ।
कुछ वर्षों से कई देशों में आध्यात्मिक ज्ञान का सार्वजनिक रूप में
प्रचार-प्रसार नहीं हुआ है । ऐसे आध्यात्मिक राह को छोड़ने वाले समाज
में सुख-शान्ति नहीं होती । मनुष्य पुनः हजारों वर्ष पीछे चला जाता है।
भौतिकवादी चिन्तन से समाज अतिक्रमित हुआ है । भौतिक आवश्यकता
की खोज में मनुष्य भाग रहा है । यही कारण है कि आज का मानव-
समाज द्न्द्र में फंसा हुआ है । भौतिकवादी चिन्तन से जहाँ समाज का
विकास हुआ है, वही मनुष्य का जीवन तनावग्रस्त भी हुआ है। अनैतिक
और भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसलिए अध्यात्मवादी शिक्षा समावेश विषयों को
प्राथमिकता देकर विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन शुरु कराने की
आवश्यकता है।


- भौतिकवादी चिन्तन का परिणाम है, युद्ध सामग्री का उत्पादन और
उसकी बिक्री बढ़ना । विश्व के विकसित देशों में युद्ध सामग्री उत्पादन
होता है और इसे अधिक से अधिक मूल्य लेकर छोटे-छोटे देशों को
बेचकर ये द्वन्द्र फैलाने की कोशिश में लगे रहते हैं । छोटे देश के
सत्तासीन व्यक्ति की मोटी रकम कमीशन देकर युद्ध सामग्री खरीद-विक्री
होती है, जिसकी वजह से छोटे देशों की जनता शोषित होती है ।
युद्धसामग्री की आवश्यकता नहीं होने पर भी कमीशन पाने की उम्मीद
से विकासोन्मुख देश ऐसी सामग्री खरीदने का निर्णय करते हैं, जिसकी
वजह से देश का विकास कार्य रुकता है। युद्ध सामग्री के उत्पादन और
खरीद-बिक्री से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है, इसलिए इसका अन्त
आवश्यक है।


223


- मनुष्य जब जंगली था, तभी भी उसमें नैतिकता का बोध था, इसलिए
वह उस समय भी पश से भिन्‍न था । मन॒ष्य को जन्म के बाद जीने के
लिए भोजन चाहिए, रहने के लिए छत चाहिए और शरीर ढ़कने के लिए
वस्त्र चाहिए । नेतिक चेतना की उपज बस्त्र है । इसतरह ही नेतिक
चेतना के आधार में मनुष्य ने सर्वपक्षीय विकास किया है। नैतिकतायुक्त
चेतना के कारण ही मन॒ष्य सरल जीवनयापन करने में सफल हआ है।
ऐसे सरल, सुखमय ओर उनन्‍नतिशील जीवन ठीक ढंग से संचालित होने
पर ही संस्कति का विकास हुआ । कला ओर संस्कृति के विकास से ही
मानव ने जीवन जीने की सही राह तैयार की । इसी तथ्य के बोध होने
पर वर्तमान यग में नेतिक विज्ञान का प्रादर्भाव हआ है । आचार, विचार
विश्वास, ईमानदारी और मानवोचित शिक्षा के साथ ही मानव व्यवहार
तथा नेतिकता का अध्ययन नेतिक विज्ञान के द्वारा होता है । किन्तु
शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर की कक्षा में नैतिक शिक्षा का अभाव दिखता है।
कुछ देशों में प्रारम्भिक स्तर पर नैतिकता की शिक्षा शामिल है किन्तु
नैतिकता के विषय में ज्ञान देने वाले शैक्षिक सामग्री का अभाव है ।
नेतिक शिक्षा मनुष्य के आन्तरिक मनोभाव के साथ सम्बन्धित है, वही
भ्रष्टविरोधी शिक्षा मनुष्य के व्यवहार के साथ सम्बन्धित है । इसलिए भी
इन दोनों शिक्षा को एक-दूसरे में समावेश कर अध्ययन अध्यापन अगर
कराया जाए तो उच्च कोटि का मानव-समाज विकसित हो सकता है।


- एक देश की प्राकृतिक सम्पदा पर दूसरे देश के द्वारा हस्तक्षेप कर
अधिकार जमाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है । किसी भी देश के
प्राकृतिक स्रोत साधन में उसी देश का पूर्ण अधिकार होता है । किन्तु
बड़े देशों की खराब नीति के कारण छोटे तथा गरीब देश के प्राकृतिक
स्रोत साधन को अन्यायपूर्वक प्रयोग करने की प्रवृत्ति का विकास हुआ है।
जलय्ोत, पेट्रोलियम पदार्थ, मूल्यवान धातु और पत्थर आदि सभी प्रकार
के खनिज पदार्थ गरीब देश द्वारा ठीक प्रकार से प्रयोग नहीं कर पाने
के कारण देश गरीब होता है । इसी अज्ञानता के काररण विकसित देश
छोटे देशों के अधिकारियों को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में खरीद कर
प्राकृतिक स्रोत तथा सम्पदा में अधिकार जमाते हैं । यह निश्चित ही


224


अन्यायपूर्ण कार्य है, शोषणयुक्त कार्य है और भ्रष्टाचारजन्य कार्य है ।
सभी देश प्राकृतिक स्रोत साधन से परिपर्ण होते हैं । केवल उसके प्रयोग
का सही वातावरण तैयार करना होता है । किसी भी देश के राज्यसत्ता
में पहँचने वाले व्यक्ति या समृह अगर देश के प्रति ईमानदार हो जाय
तो जनता के हित में काम करने की सोच रखे तो वह देश अन्य देशों
की तरह ही उन्‍नति कर सकता है | यह धनी और गरीब के विभेद का
कारण अज्ञानता है और गरीब देश के राजनीतिक तह में रहनेवाले
मनष्य द्वारा किया गया भश्रष्टाचारजन्य कार्य है । इसे भ्रष्टविरोधी शास्त्र
के अन्तर्गत व्याख्या तथा विश्लेषण करते हुए अध्ययन में अगर लाया
जाय तो विश्व के धनी और गरीब देश के बीच का विभेद समाप्त हो
सकता है।

- वर्तमान समय विश्वव्यापीकरण का समय है । एक देश ही सभी
आवश्यक वस्तु की परिपर्ति नहीं कर सकता है। उत्पादन में हो, निर्माण
में हो, बाजार-व्यवस्थापन में हो या मानवीय श्रम-साधन में हो, इन
सबके लिए एक देश को दूसरे देश की आवश्यकता होती है । प्राकृतिक
स्रोत-साधन का लेन-देन होता है, संधि समभौता होता है । साथ ही,
निर्माण कार्य के लिए ग्लोबल टेण्डर होता है । इन सभी कार्यों में
भ्रष्टाचार होता है । इसलिए ऐसे संधि समभौता या ग्लोबल टेण्डर को
समभोता ईमानदारीपूर्वक न्यायपूर्ण तरीके से होने की अवस्था होनी
चाहिए । राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय ठेका, समझदारी, सहमति या
समभौता भ्रष्टाचार का केन्‍न्द्रविन्दु है और ये भ्रष्टाचार का अखाड़ा है,
किन्तु समझौता बन्द नहीं किया जा सकता है । इसलिए ऐसे संधि
समभौता और ठेकापट्टी के कार्य को भश्रष्टविरोधी शास्त्र के सिद्धान्त के
आधार में करने या कराने की व्यवस्था की जानी चाहिए।


- सही शासन प्रणाली आधुनिक प्रजातन्त्र का केन्द्रविन्दु है। सही शासन
का तात्पर्य ही कानूनी शासन है । सही शासन व्यवस्था के भीतर
कानूनी राज्य का सही कार्यान्वयन ही नहीं बल्कि इसमे स्थानीय शासन,
सूचना के हक की सुरक्षा, पारदर्शिता और सार्वजनिक जबावदेही भी


225


2.


आती है । प्रजातन्त्र के सुदृढ़ीकरण के लिए सही शासन-पद्धति का
विकास की आवश्यकता होने पर भी इस तरफ सभी प्रजान्त्रिक देश का
ध्यान नहीं गया है । कछ देशों ने इस ओर कार्य शुरु किया है तो कछ
अब तक इसकी गम्भीरता को नहीं समभ रहे हैं । किसी भी देश
प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करना है तो सही शासन
प्रद्धातु को लागू करना होगा । सही शासन-प्रद्धत स्वीकार करने वाले
प्रजातान्त्रिक देश ही सफल प्रजातन्त्र पा सकता है । सही शासन-पद्धति
की स्थापना आज की आवश्यकता है।


भ्रष्टविरोधी शास्त्र ने विश्व में प्राज्ञिक क्षेत्र में नया परिचय कायम किया
है इसलिए इसे शिक्षा क्षेत्र में स्थान अवश्य मिलना चाहिए । भ्रष्टविरोधी
शास्त्र स्वयं एक विज्ञान है, जिसमें सरल और कठिन दोनों सूत्र शामिल
है, इसलिए इसके प्रयोग की राह सहज है । भौतिक तथा
रसायनिकशास्त्र जैसे विज्ञान के सूत्र इसमें अच्छी तरह से प्रयोग हुए है ।
साथ ही गणितीय सूत्र के आधार में भी यह विषय व्याख्या कर सकने
की क्षमता रखता है । मानविकीशास्त्र के साथ तो इसकी और भी
निकटता है । इसलिए श्रष्टविरोधी शास्त्र की नीति तथा सिद्धान्त को
समावेश कर प्राथमिक स्तर से माध्यममिक स्तर तक पाठ्यसामग्री
तैयार करने की आवश्यकता है । सभी उच्चस्तर में अध्ययन करने के
लिए पाठ्यसामग्री तैयार कर इसे सभी स्तर तक पहुँचने की
आवश्यकता है । पाठ्यसामग्री का उत्पादन करना, उसके आधार पर
पस्तक तैयार करना और इन प॒स्तकों का अध्ययन और अध्यापन कराने
का कार्य विश्वविद्यालय के अतिरिक्त सम्बन्धित राज्य सरकार के शिक्षा
क्षेत्र को देखने वाले निकाय भी कर सकते हैं तथा परीक्षण कर इसका
प्राज्ञिक दृष्टिकोण से विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता होने के कारण
भ्रष्टविरोधी शास्त्र का प्रचार-प्रसार और विकास का दायित्व विश्व के
सभी विश्वविद्यालयों का है ।


226


अध्ययन तथा संशोधन


शाएतए गा0 राशाकाशा


भ्रष्टविरोधी शास्त्र विश्वप्रज्ञिक यात्रा के लिए प्रारम्भिक बिन्दु है । यह
शास्त्र विचार, नीति, विधि तथा विधान द्वारा प्रस्तुत नवीन दर्शन है,
साथ ही अनेक आवश्यक सूत्र तथा तथ्य से प्रमाणित विज्ञान है ।
वर्तमान समय में यह भ्रष्टविरोधी शास्त्र पूर्ण है, फिर भी अध्ययन और
संशोधन की दृष्टि से यह पूर्ण नहीं हो सकता । कोई भी विचार तथा
दर्शन का जन्म समय की आवश्यकता को बोध करके होता है । इस
समय में इस शास्त्र का औचित्य और आवश्यकता की पृष्ट करते हए
भ्रष्टाचार विरुद्ध के विज्ञान को आवश्यक नीति तथा सिद्धान्त का निर्माण
कर सामाजिक विज्ञान के दायरे के भीतर लाकर महत्त्वपूर्ण स्थान देना
चाहिए । प्राज्ञिक क्षेत्र में भ्रष्टविरोधी शास्त्र विज्ञान के रूप में स्थापित हो
चुका है।

प्रस्तावना, उद्देश्य और परिभाषा को वैज्ञानिक रूप से परिभाषित करते
हुए भ्रष्टाचार विरुद्ध का विज्ञान अन्य सामाजिक विज्ञान के अतिरिक्त
अन्य शास्त्रों के साथ सम्बन्ध कायम रखने में समर्थ है । गण तथा
अवगुण की टिप्पणी, नीति तथा सिद्धान्त की व्याख्या, अध्ययन तथा शोध
के महत्व के विषय में व्याख्या करते हुए अन्य शास्त्र की पंक्ति में यह
शामिल है । भ्रष्टाचार मनोरोग है, इसका उपचार सम्भव है, इसलिए
उपचार के विधि विधान की व्याख्या करके प्रस्तत हुआ है । यह शास्त्र
मानव-समस्या का समाधान करते हुए मानव समाज का विकास कर
सकता है, यह भी प्रमाणित हो चुका है । संक्षेप में यह कह सकते हैं कि
भ्रष्टविरोधी शास्त्र भ्रष्टाचार विरुद्ध के विज्ञान के रूप में पूर्ण है । इसी
पूर्णत के कारण यह भ्रष्टाचार विरुद्ध का अध्ययन-अध्यापन का कार्य
प्रारम्भ कर सकता है । किन्तु यह पूर्ण होकर भी अपूर्ण है । क्योंकि


227


समय की मांग के अनुसार इसके अध्ययन तथा शोध से इसमें संशोधन
होता जाएगा यह निश्चित है।

आज की प्रारम्भिक आवश्यकता की यह पूर्ति कर सकता है, किन्तु
समय की गति से उत्पन्न परिणाम को इसे स्वीकार करना ही होगा ।
यह इक्कीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक है । समय द्रुत परिवर्तन को
अगर यह सम्बोधन नहीं कर सका तो इसकी सफलता में बाधा आ
सकती है । समय की गति समाज की स्थिति को परिवर्तन कर जिस
तरह आगे बढ़ रही है, उसी गति में इस भ्रष्टविरोधी शास्त्र को भी
समयानुकूल परिवर्तित करते हुए आगे बढ़ना होगा । इसके लिए
अध्ययन, विश्लेषण और शोध कार्य को निरन्तरता देते हुए संशोधन को
स्वीकार करते जाना होगा ।

यह श्रष्टविरोधी शास्त्र स्वभाव से ही अध्ययनशील, परिवर्तनीय है और
संशोधन को आत्मसात करने में क्षमतावान है । इसलिए इस भ्रष्टविरोधी
शास्त्र का अध्ययन, शोध, विश्लेषण तथा संशोधन को खुला रखना होगा ।
इसके लिए विद्वान, अध्येता, समाजशास्त्री, अध्ययन संस्थान तथा प्राज्ञिक
क्षेत्र से विशेष योगदान की आवश्यकता है । साथ ही विश्व के सभी
शिक्षा क्षेत्र में क्रियाशील विश्वविद्यालयों में श्रष्टविरोधी शास्त्र के
अध्ययन, अनुसंधान, विश्लेषण और शोध कार्य समय की मांग के
अनुसार संशोधन करने का वातावरण तैयार करना आवश्यक है। देश,
मानव समाज और समयानुसार संशोधन को स्वीकार कर श्रष्टविरोधी
शास्त्र मानव समाज के विकास में सहयोगी की भूमिका निर्वाह करने
की विश्वास लिए हुए है।


“३७ शिवस्‌ भूयात्‌ /”


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