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शिव ११ खण्ड
सरल हिन्दी
~
बंबई
अक्षरों में
भाषा
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शिंत पुराणा
संपूर्ण ग्यारह खण्ड, सात संहिताएं.
सरल हिन्दी भाषा में
बंबई अ मुद्रित
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मनोज पब्लिकेशन्स
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फोन : 2326274, 2326826, मोबाइल : 988753569
ISBN : 978-8-30-069-
छठा संस्करण : 206
शिव पुराण : संपादक--डॉ. महेंद्र मित्तल
निवेदन
हिंदू संस्कृति में कल्याणकारी सदाशिव का स्थान सभी देवताओं में सर्वोपरि है। भारत ही
नहीं, अपितु समस्त विश्व में शिव की आराधना किसी न किसी रूप में की जाती है। सर्वाधिक
प्राचीन देवों में भगवान आशुतोष शिव को इस सृष्टि का नियन्ता, पालनकर्ता और संहारक
माना गया है। उन्हीं की इच्छा से इस सृष्टि का आविर्भाव होता है और उन्हीं की इच्छा से
इसका विनाश होता है।
प्रस्तुत “शिव पुराण' में भगवान शिव के माहात्म्य, लीला और उनके कल्याणकारी स्वरूप
का विस्तृत वर्णन किया गया है। योगेश्वर भगवान शिव महामंडित महादेव हैं। वे अनादि सिद्ध
परमेश्वर और सभी देवों में प्रधान हैं। वेदों में भगवान शिव को अजन्मा, अव्यक्त, सबका
कारण, विश्वत्रष्टा और संहारक माना गया है। शिव का अर्थ है कल्याणस्वरूप अर्थात सभी
का भला करने वाला। वे देव-दानव, गंधर्व, किन्नर, मनुष्य, ऋषि-मुनि, सिद्ध, योगी, तपस्वी,
संन्यासी, भक्त और नास्तिकों का भी कल्याण करने वाले हैं। विश्व॒ कल्याण के लिए वे स्वयं
गरल का पान करने वाले नीलकंठ हैं और संसार में प्रलय मचाने वाले नटराज। वे स्वयंभू
भगवान हैं और सभी देव-दानवों के आराध्य हैं।
इस महापुराण में शिवतत्व का विशद विवेचन किया गया है। सरल गद्य-भाषा में शिव के
विविध अवतारों, नामों, लीलाओं, उनकी पूजा विधि, पंचाक्षर मंत्र की महत्ता, अनेकानेक
ज्ञानप्रद आख्यान, शिक्षाप्रद तथा उददेश्यपरक कथाओं का अत्यंत सुंदर आकलन किया
गया है इस पुराण में। प्रयास किया गया है कि भाषा को सरल से सरल रखा जाए, ताकि
श्रद्धालु पाठक शिव के कल्याणकारी स्वरूप और शिवतत्व के मर्म को सहज रूप से
हृदयंगम कर सकें। हमें विश्वास है कि श्रद्धालु और जिज्ञासुजन इस महान पुराण का
अनुशीलन करके अपने जीवन को उपकृत कर पाएंगे क्योंकि शिव ही एक ऐसे परम ब्रह्म हैं,
जो अच्छे-बुरे सभी के लिए सहज सुलभ हैं। यह उनकी विलक्षणता और अद्वितीयता ही है
कि जहां अन्य साधनाओं में तमोगुण की उपेक्षा की जाती है, वहीं शिव तमोगुण का परिष्कार
कर उसे 'सत्व' के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। विष को स्वस्थ रखने की औषधि बनाने की
युक्ति-साधना शिव के अलावा ओर कौन बताएगा। तभी तो महादेव हैं ये। इसीलिए उन्हें
भोलेनाथ कहा जाता है। शिव संकल्पमस्तु!
आपके सुझावों का स्वागत है।
विनीत
“सावन गुप्ता
अनुक्रम
< श्री रुद्राष्टक
शिव पुराण माहात्म्य
पहला अध्याय
“4 सूत जी द्वारा शिव पुराण की महिमा का वर्णन
दूसरा अध्याय
“4 देवराज को शिवलोक की प्राप्ति
% चंचुला का संसार से वैराग्य
% देवराज ब्राह्मण की कथा
तीसरा अध्याय
% बिंदुग ब्राह्मण की कथा
चौथा अध्याय
¢ चंचुला की शिव कथा सुनने में रचि और शिवलोक गमन
पांचवां अध्याय
¢ बिंदुग का पिशाच योनि से उद्धार
छठा अध्याय
« शिव पुराण के श्रवण की विधि
सातवां अध्याय
% श्रोताओं द्वारा पालन किए जाने वाले नियम
विद्येश्वर-संहिता
पहला अध्याय
«¢ पापनाशक साधनों के विषय में प्रश्न
दूसरा अध्याय
« शिव पुराण का परिचय और महिमा
तीसरा अध्याय
£ श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता
चौथा अध्याय
६ सनत्कुमार-व्यास संवाद
पांचवां अध्याय
* शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व
छठा अध्याय
% ब्रह्मा-विष्णुं युद्ध
सातवां अध्याय
# शिव निर्णय
आठवां अध्याय
% ब्रह्मा का अभिमान भंग
नवां अध्याय
4 लिंग पूजन का महत्व
दसवां अध्याय
<» प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता
ग्यारहवां अध्याय
4 शिवलिंग की स्थापना और पूजन-विधि का वर्णन
बारहवां अध्याय
% मोक्षदायक पुण्य क्षेत्रों का वर्णन
तेरहवां अध्याय
# सदाचार, संध्यावंदन, प्रणव, गायत्री जाप एवं अग्निहोत्र की विधि तथा महिमा
चौदहवां अध्याय
“ अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का वर्णन
पंद्रहवां अध्याय
£ देश, काल, पात्र और दान का विचार
सोलहवां अध्याय
% देव प्रतिमा का पूजन तथा शिवलिंग के वैज्ञानिक स्वरूप का विवेचन
सत्रहवां अध्याय
“ प्रणव का माहात्म्य व शिवलोक के वैभव का वर्णन
अठारहवां अध्याय
# बंधन और मोक्ष का विवेचन
“4 शिव के भस्मधारण का रहस्य
उन्नीसवां अध्याय
& पूजा का भेद
बीसवां अध्याय
% पार्थिव लिंग पूजन की विधि
इक्कीसवां अध्याय
<» शिवलिंग की संख्या
बाईसवां अध्याय
< शिव नैवेद्य और बिल्व माहात्म्य
तेईसवां अध्याय
*& शिव नाम की महिमा
चौबीसवां अध्याय
4 भस्मधारण की महिमा
पच्चीसवां अध्याय
< रुद्राक्ष माहात्म्य
श्रीरुद्र संहिता-प्रथम खंड
पहला अध्याय
“4 क्रषिगणों की वार्ता
दूसरा अध्याय
4 नारद जी की काम वासना
तीसरा अध्याय
<» नारद जी का भगवान विष्णु से उनका रूप मांगना
चौथा अध्याय
¢ नारद जी का भगवान विष्णु को शाप देना
पांचवां अध्याय
“ नारद जी का शिवतीर्थों में भ्रमण व ब्रह्माजी से प्रश्न
छठा अध्याय
% ब्रह्माजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन
सातवां अध्याय
¢ विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णु के मध्य अग्नि-स्तंभ का प्रकट होना
आठवां अध्याय
% ब्रह्मा-विष्णु को भगवान शिव के दर्शन
नवां अध्याय
« देवी उमा एवं भगवान शिव का प्राकट्य एवं उपदेश देना
दसवां अध्याय
% श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं त्रिदेव को आयुर्बल देना
ग्यारहवां अध्याय
« शिव पूजन की विधि तथा फल प्राप्ति
बारहवां अध्याय
# देवताओं को उपदेश देना
तेरहवां अध्याय
% शिव-पूजन की श्रेष्ठ विधि
चौदहवां अध्याय
‰ पुष्पों द्वारा शिव पूजा का माहात्म्य
पंद्रहवां अध्याय
« सृष्टि का वर्णन
सोलहवां अध्याय
& सृष्टि की उत्पत्ति
सत्रहवां अध्याय
« पापी गुणनिधि की कथा
अठारहवां अध्याय
4 गुणनिधि को मोक्ष की प्राप्ति
उन्नीसवां अध्याय
4 गुणनिधि को कुबेर पद की प्राप्ति
बीसवां अध्याय
* भगवान शिव का कैलाश पर्वत पर गमन
श्रीरुद्र संहिता-द्वितीय खंड
पहला अध्याय
“ सती चरित्र
दूसरा अध्याय
4 शिव-पार्वती चरित्र
तीसरा अध्याय
“4 कामदेव को ब्रह्माजी द्वारा शाप देना
चौथा अध्याय
# काम-रति विवाह
पांचवां अध्याय
« संध्या का चरित्र
छठा अध्याय
« संध्या की तपस्या
सातवां अध्याय
4 संध्या की आत्माहुति
आठवां अध्याय
* काम की हार
नवां अध्याय
% ब्रह्मा का शिव विवाह हेतु प्रयत्न
दसवां अध्याय
% ब्रह्मा-विष्णु संवाद
ग्यारहवां अध्याय
“4 ब्रह्माजी की काली देवी से प्रार्थना
बारहवां अध्याय
% दक्ष की तपस्या
तेरहवां अध्याय
«% दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ
चौदहवां अध्याय
दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह
पंद्रहवां अध्याय
सती की तपस्या
सोलहवां अध्याय
% रुद्रदेव का सती से विवाह
सत्रहवां अध्याय
# सती को शिव से वर की प्राप्ति
अठारहवां अध्याय
# शिव और सती का विवाह
उन्नीसवां अध्याय
% ब्रह्मा और विष्णु द्वारा शिव की स्तुति करना
बीसवां अध्याय
# शिव-सती का विदा होकर कैलाश जाना
इक्कीसवां अध्याय
* शिव-सती विहार
बाईसवां अध्याय
* शिव-सती का हिमालय गमन
तेईसवां अध्याय
< शिव द्वारा ज्ञान और मोक्ष का वर्णन
चौबीसवां अध्याय
4 शिव की आज्ञा से सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा
पच्चीसवां अध्याय
“4 श्रीराम का सती के संदेह को दूर करना
छब्बीसवां अध्याय
<» दक्ष का भगवान शिव को शाप देना
सत्तार्हसवां अध्याय
< दक्ष द्वारा महान यज्ञ का आयोजन
अट्टाईसवां अध्याय
* सती का दक्ष के यज्ञ में आना
उन्तीसवां अध्याय
% यज्ञशाला में सती का अपमान
तीसवां अध्याय
# सती द्वारा योगाग्नि से शरीर को भस्म करना
इकतीसवां अध्याय
# आकाशवाणी
बत्तीसवां अध्याय
५4 शिवजी का क्रोध
तेंतीसवां अध्याय
# वीरभद्र और महाकाली का यज्ञशाला की ओर प्रस्थान
चौंतीसवां अध्याय
% यज्ञ-मण्डप में भय और विष्णु से जीवन रक्षा की प्रार्थना
पैंतीसवां अध्याय
“ वीरभद्र का आगमन
छत्तीसवां अध्याय
4 श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध
सैंतीसवां अध्याय
& दक्ष का सिर काटकर यज्ञ कुंड में डालना
अड़तीसवां अध्याय
4 दधीचि-क्षुव विवाद
उन्तालीसवां अध्याय
4 दधीचि का शाप और क्षुव पर अनुग्रह
चालीसवां अध्याय
% ब्रह्माजी का कैलाश पर शिवजी से मिलना
इकतालीसवां अध्याय
% शिव द्वारा दक्ष को जीवित करना
बयालीसवां अध्याय
% दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना
श्रीरुद्र संहिता-तृतीय खंड
पहला अध्याय
“4 हिमालय विवाह
दूसरा अध्याय
< पूर्व कथा
तीसरा अध्याय
# देवताओं का हिमालय के पास जाना
चौथा अध्याय
“ देवी जगदंबा के दिव्य स्वरूप का दर्शन
पांचवां अध्याय
# मैना-हिमालय का तप व वरदान प्राप्ति
छठा अध्याय
# पार्वती जन्म
सातवां अध्याय
# पार्वती का नामकरण
आठवां अध्याय
# मैना और हिमालय की बातचीत
नवां अध्याय
« पार्वती का स्वप्र
दसवां अध्याय
# भौम-जन्म
ग्यारहवां अध्याय
“4 भगवान शिव की गंगावतरण तीर्थ में तपस्या
बारहवां अध्याय
«% पार्वती को सेवा में रखने के लिए हिमालय का शिव को मनाना
तेरहवां अध्याय
« पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद
चौदहवां अध्याय
«& वज्रांग का जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना
पंद्रहवां अध्याय
« तारकासुर का जन्म व उसका तप
सोलहवां अध्याय
# तारक का स्वर्ग त्याग
सत्रहवां अध्याय
“ कामदेव का शिव को मोहने के लिए प्रस्थान
अठारहवां अध्याय
६ कामदेव का भस्म होना
उन्नीसवां अध्याय
«# शिव क्रोधाग्नि की शांति
बीसवां अध्याय
£ शिवजी के बिछोह से पार्वती का शोक
इक्कीसवां अध्याय
« पार्वती की तपस्या
बाईसवां अध्याय
<» देवताओं का शिवजी के पास जाना
तेईसवां अध्याय
६ शिव से विवाह करने का अनुरोध
चौबीसवां अध्याय
& सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा
पच्चीसवां अध्याय
& शिवजी द्वारा पार्वती जी की तपस्या की परीक्षा करना
छब्बीसवां अध्याय
«< पार्वती को शिवजी से दूर रहने का आदेश
सत्ताईसवां अध्याय
«& पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना
अट्टाईसवां अध्याय
& शिव-पार्वती संवाद
उनतीसवां अध्याय
६ शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना
तीसवां अध्याय
«६ बाह्मण वेष में पार्वती के घर जाना
इकत्तीसवां अध्याय
& सप्तऋषियों का आगमन और हिमालय को समझाना
बत्तीसवां अध्याय
वशिष्ठ मुनि का उपदेश
तेंतीसवां अध्याय
६ अनरण्य राजा की कथा
चौंतीसवां अध्याय
६ पदमा-पिप्पलाद की कथा
पैतीसवां अध्याय
& हिमालय का शिवजी के साथ पार्वती के विवाह का निश्चय करना
छन्तीसवां अध्याय
& सप्तऋषियों का शिव के पास आगमन
सैंतीसवां अध्याय
& हिमालय का लग्न पत्रिका भेजना
अड़तीसवां अध्याय
& विश्वकर्मा द्वारा दिव्य मंडप की रचना
उन्तालीसवां अध्याय
& शिवजी का देवताओं को निमंत्रण
चालीसवां अध्याय
६ भगवान शिव की बारात का हिमालयपुरी की ओर प्रस्थान
डकतालीसवां अध्याय
# मंडप वर्णन व देवताओं का भय
बयालीसवां अध्याय
* बारात की अगवानी और अभिनंदन
तेंतालीसवां अध्याय
4 शिवजी की अनुपम लीला
चवालीसवां अध्याय
६ मैना का विलाप एवं हठ
पैंतालीसवां अध्याय
६ शिव का सुंदर व दिव्य स्वरूप दर्शन
छियालीसवां अध्याय
«% शिव का परिछन व पार्वती का सुंदर रूप देख प्रसन्न होना
सैंतालीसवां अध्याय
# वर-वधू द्वारा एक-दूसरे का पूजन
अड़तालीसवां अध्याय
# शिव-पार्वती का विवाह आरंभ
उनचासवां अध्याय
% ब्रह्माजी का मोहित होना
पचासवां अध्याय
“4 विवाह संपन्न और शिवजी से विनोद
इक्यानवां अध्याय
«# रति की प्रार्थना पर कामदेव को जीवनदान
बावनवां अध्याय
4 भगवान शिव का आवासगृह में शयन
तिरेपनवां अध्याय
# बारात का ठहरना और हिमालय का बारात को विदा करना
चौवनवां अध्याय
“& पार्वती को पतिव्रत धर्म का उपदेश
पचपनवां अध्याय
६ बारात का विदा होना तथा शिव-पार्वती का कैलाश पर निवास
श्रीरुद्र संहिता-चतुर्थ खंड
पहला अध्याय
# शिव-पार्वती विहार
दूसरा अध्याय
«# स्वामी कार्तिकेय का जन्म
तीसरा अध्याय
«# स्वामी कार्तिकेय और विश्वामित्र
चौथा अध्याय
«# कार्तिकेय की खोज
पांचवां अध्याय
< कुमार का अभिषेक
छठवां अध्याय
& कार्तिकेय का अदभुत चरित्र
सातवां अध्याय
4 भगवान शिव द्वारा कार्तिकेय को सौंपना
आठवां अध्याय
६ युद्ध का आरंभ
नवां अध्याय
4 तारकासुर की वीरता
दसवां अध्याय
4 तारकासुर-वध
ग्यारहवां अध्याय
4 बाणासुर और दैत्य प्रलंब का वध
बारहवां अध्याय
# कार्तिकेय का कैलाश-गमन
तेरहवां अध्याय
* पार्वती द्वारा गणेश की उत्पत्ति
चौदहवां अध्याय
4 शिवगणों का गणेश से विवाद
पंद्रहवां अध्याय
% शिवगणों से गणेश का युद्ध
सोलहवां अध्याय
# गणेशजी का शिरोच्छेदन
सत्रहवां अध्याय
“4 पार्वती का क्रोध एवं गणेश को जीवनदान
अद्वारहवां अध्याय
# गणेश गौरव
उन्नीसवां अध्याय
4 गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन
बीसवां अध्याय
4 पृथ्वी परिक्रमा का आदेश, गणेश विवाह व कार्तिकेय का रुष्ट होना
श्रीरुद्र संहिता-पंचम खंड
पहला अध्याय
4 तारकपुत्रों की तपस्या एवं वरदान प्राप्ति
दूसरा अध्याय
4 देवताओं की प्रार्थना
तीसरा अध्याय
4 भगवान शिव का देवताओं को विष्णु के पास भेजना
चौथा अध्याय
4 नास्तिक शास्त्र का प्रादुर्भाव
पांचवां अध्याय
4 नास्तिक मत से त्रिपुर का मोहित होना
छठवां अध्याय
% त्रिपुर सहित उनके स्वामियों के वध की प्रार्थना
सातवां अध्याय
<» देवताओं द्वारा शिव-स्तवन
आठवां अध्याय
<» दिव्य रथ का निर्माण
नवां अध्याय
<* भगवान शिव की यात्रा
दसवां अध्याय
4 त्रिपुरासुर-वध
ग्यारहवां अध्याय
“4 भगवान शिव द्वारा देवताओं को वरदान
बारहवां अध्याय
4 वर पाकर मय दानव का वितल लोक जाना
तेरहवां अध्याय
“4 इंद्र को जीवनदान व बृहस्पति को “जीव” नाम देना
चौदहवां अध्याय
<* जलंधर की उत्पत्ति
पंद्रहवां अध्याय
4 देव-जलंधर युद्ध
सोलहवां अध्याय
4 श्रीविष्णु का लक्ष्मी को जलंधर का वध न करने का वचन देना
सत्रहवां अध्याय
‰ श्रीविष्णु-जलंधर युद्ध
अठारहवां अध्याय
“4 नारद जी का कपट जाल
उन्नीसवां अध्याय
“६ दूत-संवाद
बीसवां अध्याय
4 शिवगणों का असुरों से युद्ध
इक्कीसवां अध्याय
$ दंद-युद्ध
बाईसवां अध्याय
4 शिव-जलंधर युद्ध
तेईसवां अध्याय
% वृंदा का पतिव्रत भंग
चौबीसवां अध्याय
£ जलंधर का वध
पच्चीसवां अध्याय
% देवताओं द्वारा शिव-स्तुति
छब्बीसवां अध्याय
& धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव
सत्ताईसवां अध्याय
# शंखचूर्ण की उत्पत्ति
अट्टाईसवां अध्याय
4 शंखचूड़ का विवाह
उन्तीसवां अध्याय
4 शंखचूड़ के राज्य की प्रशंसा
तीसवां अध्याय
*& देवताओं का शिवजी के पास जाना
इकत्तीसवां अध्याय
<» शिवजी द्वारा देवताओं को आश्वासन
बत्तीसवां अध्याय
4 पुष्पदंत-शंखचूड़ वार्ता
तेंतीसवां अध्याय
4 भगवान शिव की युद्ध यात्रा
चौंतीसवां अध्याय
“4 शंखचूड़ की युद्ध यात्रा
पैंतीसवां अध्याय
4 शंखचूड़ के दूत और शिवजी की वार्ता
छत्तीसवां अध्याय
< देव-दानव युद्ध
सैंतीसवां अध्याय
< शंखचूड़ युद्ध
अड़तीसवां अध्याय
% भद्रकाली-शंखचूड़ युद्ध
उन्तालीसवां अध्याय
% शंखचूड़ की सेना का संहार
चालीसवां अध्याय
¢ शिवजी द्वारा शंखचूड़ वध
इकतालीसवां अध्याय
“4 तुलसी द्वारा विष्णुजी को शाप
बयालीसवां अध्याय
# हिरण्याक्ष-वध
तैंतालीसवां अध्याय
# हिरण्यर्काशिपु की तपस्या और नृसिंह द्वारा उसका वध
चवालीसवां अध्याय
“ अंधक की अंधता
पैंतालीसवां अध्याय
‰ युद्ध आरंभ
छियालीसवां अध्याय
% युद्ध की समाप्ति
सैंतालीसवां अध्याय
4 शिव द्वारा शुक्राचार्य को निगलना
अड़तालीसवां अध्याय
% शुक्राचार्य की मुक्ति
उनचासवां अध्याय
# अंधक को गणत्व की प्राप्ति
पचासवां अध्याय
% शुक्राचार्य को मृत संजीवनी की प्राप्ति
इक्यावनवां अध्याय
% बाणासुर आख्यान
बावनवां अध्याय
¢ बाणासुर को शाप व उषा चरित्र
तिरेपनवां अध्याय
4 अनिरुद्ध को बाण द्वारा नागपाश में बांधना तथा दुर्गा की कृपा से उसका मुक्त होना
चौवनवां अध्याय
« श्रीकृष्ण द्वारा राक्षस सेना का संहार
पचपनवां अध्याय
« बाणासुर की भुजाओं का विध्वंस
छप्पनवां अध्याय
% बाणासुर को गण पद की प्राप्ति
सत्तानवां अध्याय
% गजासुर की तपस्या एवं वध
अट्टावनवां अध्याय
« दुंदुभिनिर्हाद का वध
उनसठवां अध्याय
<* विदल और उत्पल नामक दैत्यों का वध
श्रीशतरुद्र संहिता
पहला अध्याय
£ शिव के पांच अवतार
दूसरा अध्याय
# शिवजी की अष्टमूर्तियों का वर्णन
तीसरा अध्याय
# अर्द्धनारीश्वर शिव
चौथा अध्याय
# ऋषभदेव अवतार का वर्णन
पांचवां अध्याय
# शिवजी द्वारा योगेश्वरावतारों का वर्णन
छठवां अध्याय
“4 नंदीकेश्वर अवतार
सातवां अध्याय
% नंदी को वर प्राप्ति और विवाह वर्णन
आठवां अध्याय
“4 भैरव अवतार
नवां अध्याय
4 भैरव जी का अभिवादन
दसवां अध्याय
“4 नृसिंह लीला वर्णन
ग्यारहवां अध्याय
* शरभ-अवतार
बारहवां अध्याय
4 शिव द्वारा नृसिंह के शरीर को कैलाश ले जाना
तेरहवां अध्याय
<» विश्वानर को वरदान
चौदहवां अध्याय
¢ गृहपति अवतार
पंद्रहवां अध्याय
¢ गृहपति को शिवजी से वर प्राप्ति
सोलहवां अध्याय
% यज्ञेश्वर अवतार
सत्रहवां अध्याय
% शिव दशावतार
अठारहवां अध्याय
# एकादश रुद्रों की उत्पत्ति
उन्नीसवां अध्याय
% दुर्वासा चरित्र
बीसवां अध्याय
% हनुमान अवतार
इक्कीसवां अध्याय
महेश अवतार वर्णन
बाईसवां अध्याय
¢ वृषभावतार वर्णन
तेईसवां अध्याय
% वृषभावतार लीला वर्णन
चौबीसवां अध्याय
# पिप्पलाद चरित्र
पच्चीसवां अध्याय
“ पिप्पलाद-महादेव लीला
छब्बीसवां अध्याय
# वैश्यनाथ अवतार वर्णन
सत्ताईसवां अध्याय
# द्विजेश्चर-अवतार
अट्टाईसवां अध्याय
* यतिनाथ हंसरूप अवतार
उन्तीसवां अध्याय
4 श्रीकृष्ण दर्शन अवतार
तीसवां अध्याय
4 भगवान शिव का अवधूतेश्वरावतार
इकत्तीसवां अध्याय
4 भिक्षुवर्य शिव अवतार वर्णन
बत्तीसवां अध्याय
4 सुरेश्वर अवतार
तेंतीसवां अध्याय
% ब्रह्मचारी अवतार
चौंतीसवां अध्याय
% सुनट नर्तक अवतार
पैंतीसवां अध्याय
# शिवजी का द्विजअवतार
छत्तीसवां अध्याय
# अश्वत्थामा का शिव अवतार
सैंतीसवां अध्याय
“4 पाण्डवों को शिव-पूजन के लिए व्यास जी का उपदेश
अडतीसवां अध्याय
% अर्जुन द्वारा शिवजी की तपस्या करना
उन्तालीसवां अध्याय
¢ शिवजी का किरात अवतार
चालीसवां अध्याय
% किरात-अर्जुन विवाद
डकतालीसवां अध्याय
# किरातेश्वर महादेव की कथा
बयालीसवां अध्याय
“ द्वादश ज्योतिर्लिंग
श्रीकोटिरुद्र संहिता
प्रथम अध्याय
# द्वादश ज्योतिर्लिंग एवं उपलिंगों की महिमा
दूसरा अध्याय
% पूर्व दिशा स्थित शिवलिंग
तीसरा अध्याय
% अनुसूइया एवं अत्रि मुनि का तप
चौथा अध्याय
“4 अत्रिश्वर की महिमा वर्णन
पांचवां अध्याय
4 नंदकेश की महिमा वर्णन
छठवां अध्याय
% ब्राह्मणी की सद्गति व मुक्ति
सातवां अध्याय
“4 नंदिकेश्वर लिंग की स्थापना
आठवां अध्याय
* महाबली शिव माहात्म्य
नवां अध्याय
«4 चाण्डालिनी की मुक्ति
दसवां अध्याय
# लोकहितकारी शिव-माहात्म्य दर्शन
ग्यारहवां अध्याय
«% पशुपतिनाथ शिवलिंग माहात्म्य
बारहवां अध्याय
# लिंगरूप का कारण
तेरहवां अध्याय
« बटुकनाथ की उत्पत्ति
चौदहवां अध्याय
£ सोमनाथेश्वर की उत्पत्ति
पंद्रहवां अध्याय
% मल्लिकार्जुन की उत्पत्ति
सोलहवां अध्याय
# महाकालेश्वर का आविर्भाव
सत्रहवां अध्याय
# महाकाल माहात्म्य
अठारहवां अध्याय
# ओंकारेश्वर माहात्म्य
उन्नीसवां अध्याय
# केदारेश्वर माहात्म्य
बीसवां अध्याय
# भीम उपद्रव का वर्णन
इक्कीसवां अध्याय
£ भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य
बाईसवां अध्याय
« काशीपुरी का माहात्म्य
तेईसवां अध्याय
# श्री विश्वेश्वर महिमा
चौबीसवां अध्याय
# गौतम-प्रभाव
पच्चीसवां अध्याय
% महर्षि गौतम को गौहत्या का दोष
छब्बीसवां अध्याय
% गौतमी गंगा का प्राकट्य
सत्ताईसवां अध्याय
% श्रीगंगाजी के दर्शन एवं गौतम ऋषि का शाप
अट्टाईसवां अध्याय
< वैद्यनाथेश्वर शिव माहात्म्य
उन्तीसवां अध्याय
<» दारुका राक्षसी एवं राक्षसों का उपद्रव
तीसवां अध्याय
*& नागेश्वर लिंग की उत्पत्ति व माहात्म्य
इकतीसवां अध्याय
< रामेश्वर महिमा वर्णन
बत्तीसवां अध्याय
4 सुदेहा सुधर्मा की कथा
तेंतीसवां अध्याय
«4 घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति व माहात्म्य
चौंतीसवां अध्याय
4 श्रीविष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति
पैंतीसवां अध्याय
4 शिव सहस्रनाम-स्तोत्र
छत्तीसवां अध्याय
# शिव सहस्रनाम का फल
सैंतीसवां अध्याय
# शिव-भक्तों की कथा
अड़तीसवां अध्याय
% शिवरात्रि का व्रत-विधान
उनतालीसवां अध्याय
% शिवरात्रि-व्रत उद्यापन की विधि
चालीसवां अध्याय
# निषाद चरित्र
इक्तालीसवां अध्याय
% मुक्ति वर्णन
बयालीसवां अध्याय
% ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं शिव के स्वरूपों का वर्णन
तैंतालीसवां अध्याय
4 ज्ञान निरूपण
श्रीउमा संहिता
प्रथम अध्याय
“4 श्रीकृष्ण-उपमन्यु संवाद
दूसरा अध्याय
“ शिव-भक्तों का आख्यान
तीसरा अध्याय
“4 शिव माहात्म्य वर्णन
चौथा अध्याय
५“ शिव माया वर्णन
पांचवां अध्याय
** नरक में गिराने वाले पापों का वर्णन
छठवां अध्याय
“4 पाप-पुण्य वर्णन
सातवां अध्याय
<» नरक-वर्णन
आठवां अध्याय
<* नरक की अट्टाईस कोटियां
नवां अध्याय
£ साधारण नरकगति
दसवां अध्याय
% नरक गति भोग वर्णन
ग्यारहवां अध्याय
“4 अन्नदान महिमा
बारहवां अध्याय
<* जलदान एवं तप की महिमा
तेरहवां अध्याय
% पुराण माहात्म्य
चौदहवां अध्याय
< विभिन्न दानों का वर्णन
पंद्रहवां अध्याय
५4 पाताल लोक का वर्णन
सोलहवां अध्याय
4 शिव स्मरण द्वारा नरकों से मुक्ति
सत्रहवां अध्याय
% जंबू द्वीप वर्ष का वर्णन
अठारहवां अध्याय
% सातों द्वीपों का वर्णन
उन्नीसवां अध्याय
६ राशि, ग्रह-मण्डल व लोकों का वर्णन
बीसवां अध्याय
¢ तपस्या से मुक्ति प्राप्ति
इक्कीसवां अध्याय
% युद्ध धर्म का वर्णन
बाईसवां अध्याय
# गर्भ में स्थित जीव, उसका जन्म तथा वैराग्य
तेईसवां अध्याय
६ शरीर की अपवित्रता तथा बालकपन के दुख
चौबीसवां अध्याय
« स्त्री स्वभाव
पच्चीसवां अध्याय
# काल का ज्ञान वर्णन
छब्बीसवां अध्याय
4 काल-चक्र निवारण का उपाय
सत्ताईसवां अध्याय
4 अमरत्व प्राप्ति की साधनाएं
अट्टाईसवां अध्याय
% छाया पुरुष का वर्णन
उनतीसवां अध्याय
% आदि-सृष्टि का वर्णन
तीसवां अध्याय
% सृष्टि रचना क्रम
इकतीसवां अध्याय
“4 मैथुनी सृष्टि वर्णन
बत्तीसवां अध्याय
£ कश्यप वंश का वर्णन
तेंतीसवां अध्याय
< हवन सृष्टि वर्णन
चौंतीसवां अध्याय
“4 मन्वंतरों की उत्पत्ति
पैंतीसवां अध्याय
“4 वैवस्वत मन्वंतर वर्णन
छत्तीसवां अध्याय
% मनु पुत्रों का कुल वर्णन
सैंतीसवां अध्याय
< मनु वंश वर्णन
अड़तीसवां अध्याय
<» सगर तक राजाओं का वर्णन
उन्तालीसवां अध्याय
*“ वैवस्वत वंशीय राजाओं का वर्णन
चालीसवां अध्याय
# श्राद्ध कल्प व पितरों का प्रभाव
इकतालीसवां अध्याय
« सात व्याध पुत्र
बयालीसवां अध्याय
# पितरों का प्रभाव
तैंतालीसवा अध्याय
«¢ आचार्य पूजन का नियम
चवालीसवां अध्याय
# व्यास जी का जन्म
पैंतालीसवां अध्याय
% मधुकैटभ-वध एवं महाकाली वर्णन
छियालीसवां अध्याय
«¢ महालक्ष्मी अवतार
सैंतालीसवां अध्याय
4 धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज का वध
अड़तालीसवां अध्याय
“4 सरस्वती का प्राकट्य
उनचासवां अध्याय
<» उमा की उत्पत्ति
पचासवां अध्याय
“4 शताक्षी अवतार वर्णन
इक्यानवां अध्याय
< क्रिया योग वर्णन
श्रीकैलाश संहिता
प्रथम अध्याय
# व्यासजी एवं शौनक जी की वार्ता
दूसरा अध्याय
% पार्वती जी का शिवजी से प्रणव प्रश्न करना
तीसरा अध्याय
“4 प्रणव पद्धति
चौथा अध्याय
“4 संन्यास का आचार-व्यवहार
पांचवां अध्याय
“4 संन्यास मंडल की विधि
छठा अध्याय
4 न्यास वर्णन
सातवां अध्याय
4 शिव ध्यान एवं पूजन
आठवां अध्याय
& वर्ण-पूजा
नवां अध्याय
£ शिव के अनेक नाम और ओंकार
दसवां अध्याय
¢ सूतोपदेश वर्णन
ग्यारहवां अध्याय
«# वामदेव द्वारा ब्रह्म निरूपण
बारहवां अध्याय
% साक्षात शिव स्वरूप ही प्रणव है
तेरहवां अध्याय
“4 प्रणव सब मंत्रों का बीज रूप है
चौदहवां अध्याय
# शिवरूप वर्णन
पंद्रहवां अध्याय
4 उपासना मूर्ति
सोलहवां अध्याय
* शिव तत्व विवेचन
सत्रहवां अध्याय
4 शिव ही प्रकृति के कारण रूप हैं
अद्वारहवां अध्याय
<» शिष्य धर्म
उन्नीसवां अध्याय
4 योगपट्ट वर्णन
बीसवां अध्याय
% क्षौर एवं स्नान विधि
इक्कीसवां अध्याय
# योगियों को उत्तरायण प्राप्ति
बाईसवां अध्याय
# एकादशी पद्धति
तेईसवां अध्याय
< शिष्य वर्ग का वर्णन
श्री वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)
प्रथम अध्याय
% पुराणों और विद्यावतार का वर्णन
दूसरा अध्याय
% ब्रह्माजी से मुनियों का प्रश्न पूछना
तीसरा अध्याय
# नैमिषारण्य कथा
चौथा अध्याय
«¢ वायु आगमन
पांचवां अध्याय
# शिवतत्व वर्णन
छठवां अध्याय
« शिव तत्व ज्ञान वर्णन
सातवां अध्याय
£ काल-महिमा
आठवां अध्याय
4 त्रिदेवों की आयु
नवां अध्याय
# प्रलयकर्ता का वर्णन
दसवां अध्याय
% सृष्टि रचना वर्णन
ग्यारहवां अध्याय
< सृष्टि आरंभ का वर्णन
बारहवां अध्याय
& सृष्टि वर्णन
तेरहवां अध्याय
% ब्रह्मा-विष्णु की सृष्टि का वर्णन
चौदहवां अध्याय
% रुद्र की उत्पत्ति
पंद्रहवां अध्याय
4 शिव-शिवा की स्तुति
सोलहवां अध्याय
«4 मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति
सत्रहवां अध्याय
% मनु की सृष्टि का वर्णन
अद्वारहवां अध्याय
& दक्ष का शाप
उन्नीसवां अध्याय
“4 वीरगण का यज्ञ में जाना
बीसवां अध्याय
% दक्ष-यज्ञ का वर्णन
इक्कीसवां अध्याय
% श्रीहरि विष्णु एवं वीरभद्र का युद्ध
बाईसवां अध्याय
% देवताओं पर शिव-कृपा
तेईसवां अध्याय
“4 मंदराचल पर निवास
चौबीसवां अध्याय
# कालिका उत्पत्ति
पच्चीसवां अध्याय
# सिंह पर दया
छब्बीसवां अध्याय
£ गौरी मिलाप
सत्ताईसवां अध्याय
¢ सोम अमृत अग्नि का ज्ञान
अट्टाईसवां अध्याय
# छः मार्गो का वर्णन
उनतीसवां अध्याय
% महेश्वर के सगुण और निर्गुण भेद
तीसवां अध्याय
# ज्ञानोपदेश
इकतीसवां अध्याय
% अनुष्ठान का विधान
बत्तीसवां अध्याय
# पाशुपत व्रत का रहस्य
तेंतीसवां अध्याय
“4 उपमन्यु की भक्ति
चौंतीसवां अध्याय
« उपमन्यु की कथा
श्री वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)
प्रथम अध्याय
# श्रीकृष्ण को पुत्र प्राप्ति
दूसरा अध्याय
% शिवगुणों का वर्णन
तीसरा अध्याय
% अष्टमूर्ति वर्णन
चौथा अध्याय
% गौरी शंकर की विभूति
पांचवां अध्याय
« पशुपति ज्ञान योग
छठा अध्याय
<* शिव तत्व वर्णन
सातवां अध्याय
4 शिव-शक्ति वर्णन
आठवां अध्याय
<» व्यासावतार
नवां अध्याय
*“ शिव शिष्यों का वर्णन
दसवां अध्याय
# शिवोपासना निरूपण
ग्यारहवां अध्याय
% ब्राह्मण कर्म निरूपण
बारहवां अध्याय
« पंचाक्षर मंत्र की महिमा
तेरहवां अध्याय
£ कलिनाशक मंत्र
चौदहवां अध्याय
% व्रत ग्रहण करने का विधान
पंद्रहवां अध्याय
% दीक्षा विधि
सोलहवां अध्याय
“4 शिव भक्त वर्णन
सत्रहवां अध्याय
# शिव-तत्व साधक
अद्वारहवां अध्याय
4 षडध्वशोधन विधि
उन्नीसवां अध्याय
“ साधन भेद निरूपण
बीसवां अध्याय
< अभिषेक
इक्कीसवां अध्याय
% कर्म निरूपण
बाईसवां अध्याय
¢ पूजन का न्यास निरूपण
तेईसवां अध्याय
¢ मानसिक पूजन
चौबीसवां अध्याय
& पूजन निरूपण
पच्चीसवां अध्याय
4 नित्य कृत्य विधि
छब्बीसवां अध्याय
€ सांगोपांग पूजन
सत्ताईसवां अध्याय
«६ अग्नि कृत्य विधान
अट्टाईसवां अध्याय
% नैमित्तिक पूजन विधि
उन्तीसवां अध्याय
& काम्य कर्म निरूपण
तीसवां अध्याय
4 आवरण पूजन विधान
इकतीसवां अध्याय
* शिव-स्तोत्र निरूपण
बत्तीसवां अध्याय
< सिद्धि कर्मा का निरूपण
तेंतीसवां अध्याय
“4 लिंग स्थापना से फलागम
चौंतीसवां अध्याय
“4 लिंग स्थापना से शिव प्राप्ति
पैंतीसवां अध्याय
% ब्रह्मा-विष्णु मोह
छन्तीसवां अध्याय
*“ शिवलिंग प्रतिष्ठा विधि
सैंतीसवां अध्याय
# योग-निरूपण
अड़तीसवां अध्याय
« योग गति में विघ्न
उन्तालीसवां अध्याय
# योग वर्णन
चालीसवां अध्याय
4 मुनियों का नैमिषारण्य गमन
इकतालीसवां अध्याय
< मुनियों को मोक्ष
4 शिव चालीसा
4 शिव स्तुति
“4 श्री शिवाष्टक
# शिव सहस्रनाम
% त्रिगुण शिवजी की आरती
श्री रुद्राष्टक
नमामीशमीशान निर्वाणरूपम् । विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपम् ।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम् । चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ।।
निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयम् । गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।।
करालं महाकाल कालं कृपालं । गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरम् । मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा । लसद्भालबालेंदु कण्ठे भुजङ्गा ।।
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालम् । प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।।
मृगाधीशचर्म्माम्बरं मुण्डमालम् । प्रियं शंकर सर्वनाथं भजामि ।।
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशम् । अखण्डं अजंभानुकोटिप्रकाशम् ।।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिम् । भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ।।
कलातीत कल्याण कल्पांतकारी । सदा सज्जनानंददाता पुरारी ।।
चिदानंद संदोह मोहापहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।
न यावद् उमानाथ पादारविंदम् । भजंतीह लोके परे वा नराणाम् ।।
न तावत्सुखं शांति संतापनाशम् । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ।।
न जानामि योगं जपं नेव पूजाम् । नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यम् ।।
जरा जन्मदुःखौघ तातप्यमानम् । प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ।।
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठंति नरा भक्त्या तेषां शंभु प्रसीदति ।।
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श्री महाकालेश्वर
।। ॐ नम: शिवाय ।।
शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर
शित परा
शिव पुराण माहात्म्य
पहला अध्याय
सूत जी द्वारा शिव पुराण की महिमा का वर्णन
श्री शौनक जी ने पूछा--महाज्ञानी सूत जी, आप संपूर्ण सिद्धांतों के ज्ञाता हैं। कृपया
मुझसे पुराणों के सार का वर्णन करें। ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त विवेक की वृद्धि
कैसे होती है? तथा साधुपुरुष कैसे अपने काम, क्रोध आदि विकारों का निवारण करते हैं?
इस कलियुग में सभी जीव आसुरी स्वभाव के हो गए हैं। अतः कृपा करके मुझे ऐसा साधन
बताइए, जो कल्याणकारी एवं मंगलकारी हो तथा पवित्रता लिए हो। प्रभु, वह ऐसा साधन
हो, जिससे मनुष्य की शुद्धि हो जाए और उस निर्मल हृदय वाले पुरुष को सदैव के लिए
'शिव' की प्राप्ति हो जाए।
श्री सूत जी ने उत्तर दिया-शौनक जी आप धन्य हैं, क्योंकि आपके मन में पुराण-कथा
को सुनने के लिए अपार प्रेम व लालसा है। इसलिए मैं तुम्हें परम उत्तम शास्त्र की कथा
सुनाता हूं। वत्स! संपूर्ण सिद्धांत से संपन्न भक्ति को बढ़ाने वाला तथा शिवजी को संतुष्ट करने
वाला अमृत के समान दिव्य शास्त्र है-"शिव पुराण'। इसका पूर्व काल में शिवजी ने ही
प्रवचन किया था। गुरुदेव व्यास ने सनत्कुमार मुनि का उपदेश पाकर आदरपूर्वक इस पुराण
की रचना की है। यह पुराण कलियुग में मनुष्यों के हित का परम साधन है।
“शिव पुराण' परम उत्तम शास्त्र है। इस पृथ्वीलोक में सभी मनुष्यों को भगवान शिव के
विशाल स्वरूप को समझना चाहिए। इसे पढ़ना एवं सुनना सर्वसाधन है। यह मनोवांछित
फलों को देने वाला है। इससे मनुष्य निष्पाप हो जाता है तथा इस लोक में सभी सुखों का
उपभोग करके अंत में शिवलोक को प्राप्त करता है।
“शिव पुराण' में चौबीस हजार श्लोक हैं, जिसमें सात संहिताएं हैं। शिव पुराण परब्रह्म
परमात्मा के समान गति प्रदान करने वाला है। मनुष्य को पूरी भक्ति एवं संयमपूर्वक इसे
सुनना चाहिए। जो मनुष्य प्रेमपूर्वक नित्य इसको बांचता है या इसका पाठ करता है, वह
निःसंदेह पुण्यात्मा है।
भगवान शिव उस विद्वान पुरुष पर प्रसन्न होकर उसे अपना धाम प्रदान करते हैं। प्रतिदिन
आदरपूर्वक शिव पुराण का पूजन करने वाले मनुष्य संसार में संपूर्ण भोगों को भोगकर
भगवान शिव के पद को प्राप्त करते हैं। वे सदा सुखी रहते हैं।
शिव पुराण में भगवान शिव का सर्वस्व है। इस लोक और परलोक में सुख की प्राप्ति के
लिए आदरपूर्वक इसका सेवन करना चाहिए। यह निर्मल शिव पुराण धर्म, अर्थ, काम और
मोक्षरूप चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। अतः सदा प्रेमपूर्वक इसे सुनना एवं पढ़ना चाहिए।
दूसरा अध्याय
देवराज को शिवलोक की प्राप्ति
चंचुला का संसार से वैराग्य
श्री शौनक जी ने कहा--आप धन्य हैं। सूत जी! आप परमार्थ तत्व के ज्ञाता हैं। आपने
हम पर कृपा करके हमें यह अद्भुत और दिव्य कथा सुनाई है। भूतल पर इस कथा के समान
कल्याण का और कोई साधन नहीं है। आपकी कृपा से यह बात हमने समझ ली है।
सूत जी! इस कथा के द्वारा कौन से पापी शुद्ध होते हैं? उन्हें कृपापूर्वक बताकर इस
जगत को कृतार्थ कीजिए।
सूत जी बोले--मुने, जो मनुष्य पाप, दुराचार तथा काम-क्रोध, मद, लोभ में निरंतर डूबे
रहते हैं, वे भी शिव पुराण पढ़ने अथवा सुनने से शुद्ध हो जाते हैं तथा उनके पापों का
पूर्णतया नाश हो जाता है। इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं।
देवराज ब्राह्मण की कथा
बहुत पहले की बात है—किरातों के नगर में देवराज नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह
ज्ञान में दुर्बल, गरीब, रस बेचने वाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था। वह स्नान-संध्या नहीं
करता था तथा उसमें वैश्य-वृत्ति बढ़ती ही जा रही थी। वह भक्तों को ठगता था। उसने अनेक
मनुष्यों को मारकर उन सबका धन हड़प लिया था। उस पापी ने थोड़ा-सा भी धन धर्म के
काम में नहीं लगाया था। वह वेश्यागामी तथा आचार-भ्रष्ट था।
एक दिन वह घूमता हुआ दैवयोग से प्रतिष्ठानपुर (झूसी-प्रयाग) जा पहुंचा। वहां उसने
एक शिवालय देखा, जहां बहुत से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे। देवराज वहीं ठहर गया। वहां
रात में उसे ज्वर आ गया और उसे बड़ी पीड़ा होने लगी। वहीं पर एक ब्राह्मण देवता शिव
पुराण की कथा सुना रहे थे। ज्वर में पड़ा देवराज भी ब्राह्मण के मुख से शिवकथा को निरंतर
सुनता रहता था। एक मास बाद देवराज ज्वर से पीड़ित अवस्था में चल बसा। यमराज के दूत
उसे बांधकर यमपुरी ले गए। तभी वहां शिवलोक से भगवान शिव के पार्षदगण आ गए। वे
कर्पूर के समान उज्ज्वल थे। उनके हाथ में त्रिशूल, संपूर्ण शरीर पर भस्म और गले में रुद्राक्ष
की माला उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थी। उन्होंने यमराज के दूतों को मार-पीटकर
देवराज को यमदूतों के चंगुल से छुड़ा लिया और वे उसे अपने अद्भुत विमान में बिठाकर
जब कैलाश पर्वत पर ले जाने लगे तो यमपुरी में कोलाहल मच गया, जिसे सुनकर यमराज
अपने भवन से बाहर आए। साक्षात रुद्रों के समान प्रतीत होने वाले इन दूतों का धर्मराज ने
विधिपूर्वक पूजन कर ज्ञान दृष्टि से सारा मामला जान लिया। उन्होंने भय के कारण भगवान
शिव के दूतों से कोई बात नहीं पूछी। तत्पश्चात शिवदूत देवराज को लेकर कैलाश चले गए
और वहां पहुंचकर उन्होंने ब्राह्मण को करुणावतार भगवान शिव के हाथों में सौंप दिया।
शौनक जी ने कहा-महाभाग सूत जी! आप सर्वज्ञ हैं। आपके कृपाप्रसाद से मैं कृतार्थ
हुआ। इस इतिहास को सुनकर मेरा मन आनंदित हो गया है। अतः भगवान शिव में प्रेम
बढ़ाने वाली दूसरी कथा भी कहिए।
तीसरा अध्याय
बिंदुग ब्राह्मण की कथा
श्री सूत जी बोले--शौनक! सुनो, मैं तुम्हारे सामने एक अन्य गोपनीय कथा का वर्णन
करूंगा, क्योंकि तुम शिव भक्तों में अग्रगण्य व वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो। समुद्र के निकटवर्ती
प्रदेश में वाष्कल नामक गांव है, जहां वैदिक धर्म से विमुख महापापी मनुष्य रहते हैं। वे सभी
दुष्ट हैं एवं उनका मन दूषित विषय भोगों में ही लगा रहता है। वे देवताओं एवं भाग्य पर
विश्वास नहीं करते। वे सभी कुटिल वृत्ति वाले हैं। किसानी करते हैं और विभिन्न प्रकार के
अस्त्र-शस्त्र रखते हैं। वे व्याभिचारी हैं। वे इस बात से पूर्णतः अनजान हैं कि ज्ञान, वैराग्य तथा
सदधर्म ही मनुष्य के लिए परम पुरुषार्थ हैं। वे सभी पशुबुद्धि हैं। अन्य समुदाय के लोग भी
उन्हीं की तरह बुरे विचार रखने वाले, धर्म से विमुख हैं। वे नित्य कुकर्म में लगे रहते हैं एवं
सदा विषयभोगों में डूबे रहते हैं। वहां की स्त्रियां भी बुरे स्वभाव की, स्वेच्छाचारिणी, पाप में
डूबी, कुटिल सोच वाली और व्यभिचारिणी हैं। वे सभी सदव्यवहार तथा सदाचार से सर्वथा
शून्य हैं। वहां सिर्फ दुष्टों का निवास है।
वाष्कल नामक गांव में बिंदुग नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह अधर्मी, दुरात्मा एवं
महापापी था। उसकी स्त्री बहुत सुंदर थी। उसका नाम चंचुला था। वह सदा उत्तम धर्म का
पालन करती थी परंतु बिंदुग वेश्यागामी था। इस तरह कुकर्म करते हुए बहुत समय व्यतीत
हो गया। उसकी स्त्री काम से पीडित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी
काफी समय तक धर्म भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु आगे चलकर वह भी अपने दुराचारी पति के
आचरण से प्रभावित होकर, दुराचारिणी और अपने धर्म से विमुख हो गई।
इस तरह दुराचार में डूबे हुए उन पति-पत्नी का बहुत सा समय व्यर्थ बीत गया।
वेश्यागामी, दूषित बुद्धि वाला वह दुष्ट ब्राह्मण बिंदुग समयानुसार मृत्यु को प्राप्त हो, नरक में
चला गया। बहुत दिनों तक नरक के दुखों को भोगकर वह मूढ़ बुद्धि पापी विंध्यपर्वत पर
भयंकर पिशाच हुआ। इधर, उस दुराचारी बिंदुग के मर जाने पर वह चंचुला नामक स्त्री बहुत
समय तक पुत्रों के साथ अपने घर में रहती रही। पति की मृत्यु के बाद वह भी अपने धर्म से
गिरकर पर पुरुषों का संग करने लगी थी। सतियां विपत्ति में भी अपने धर्म का पालन करना
नहीं छोड़तीं। यही तो तप है। तप कठिन तो होता है, लेकिन इसका फल मीठा होता है।
विषयी इस सत्य को नहीं जानता इसीलिए वह विषयों के विषफल का स्वाद लेते हुए भोग
करता है।
एक दिन दैवयोग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह अपने भाई-बंधुओं के साथ गोकर्ण
क्षेत्र में गई। उसने तीर्थ के जल में स्नान किया एवं बंधुजनों के साथ यत्र-तत्र घूमने लगी।
घूमते-घूमते वह एक देव मंदिर में गई। वहां उसने एक ब्राह्मण के मुख से भगवान शिव की
परम पवित्र एवं मंगलकारी कथा सुनी। कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि “जो स्त्रियां
व्यभिचार करती हैं, वे मरने के बाद जब यमलोक जाती हैं, तब यमराज के दूत उन्हें तरह-
तरह से यंत्रणा देते हैं। वे उसके कामांगों को तप्त लौह दण्डों से दागते हैं। तप्त लौह के पुरुष
से उसका संसर्ग कराते हैं। ये सारे दण्ड इतनी वेदना देने वाले होते हैं कि जीव पुकार-पुकार
कर कहता है कि अब वह ऐसा नहीं करेगा। लेकिन यमदूत उसे छोड़ते नहीं। कर्मों का फल
तो सभी को भोगना पड़ता है। देव, ऋषि, मनुष्य सभी इससे बंधे हुए हैं।' ब्राह्मण के मुख से
यह वैराग्य बढ़ाने वाली कथा सुनकर चंचुला भय से व्याकुल हो गई। कथा समाप्त होने पर
सभी लोग वहां से चले गए, तब कथा बांचने वाले ब्राह्मण देवता से चंचुला ने कहा-हे
ब्राह्मण! धर्म को न जानने के कारण मेरे द्वारा बहुत बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामी! मेरे ऊपर
कृपा कर मेरा उद्धार कीजिए। आपके प्रवचन को सुनकर मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया
है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनी को धिक्कार है। मैं निंदा के योग्य हूं। मैं बुरे विषयों में फंसकर
अपने धर्म से विमुख हो गई थी। कौन मुझ जैसी कुमार्ग में मन लगाने वाली पापिनी का साथ
देगा? जब यमदूत मेरे गले में फंदा डालकर मुझे बांधकर ले जाएंगे और नरक में मेरे शरीर के
टुकड़े करेंगे, तब मैं कैसे उन महायातनाओं को सहन कर पाऊंगी? मीं सब प्रकार से नष्ट हो
गई हूं, क्योंकि अभी तक मैं हर तरह से पाप में डूबी रही हूं। हे ब्राह्मण! आप मेरे गुरु हैं, आप
ही मेरे माता-पिता हैं। मैं आपकी शरण में आई हूं। मुझ अबला का अब आप ही उद्धार
कीजिए।
सूत जी कहते है-शौनक, इस प्रकार विलाप करती हुई चंचुला ब्राह्मण देवता के चरणों में
गिर पड़ी। तब ब्राह्मण ने उसे कृपापूर्वक उठाया।
चौथा अध्याय
चंचुला की शिव कथा सुनने में रुचि और शिवलोक गमन
ब्राह्मण बोले--नारी तुम सौभाग्यशाली हो, जो भगवान शंकर की कृपा से तुमने
वैराग्यपूर्ण शिव पुराण की कथा सुनकर समय से अपनी गलती का एहसास कर लिया है।
तुम डरो मत और भगवान शिव की शरण में जाओ। उनकी परम कृपा से तुम्हारे सभी पाप
नष्ट हो जाएंगे। मैं तुम्हें भगवान शिव की कथा सहित वह मार्ग बताऊंगा जिसके द्वारा तुम्हें
सुख देने वाली उत्तम गति प्राप्त होगी। शिव कथा सुनने से तुम्हारी बुद्धि शुद्ध हो गई है और
तुम्हें पश्चाताप हुआ है तथा मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ है। पश्चाताप ही पाप करने वाले पापियों
के लिए सबसे बड़ा प्रार्याश्चेत है। पश्चाताप ही पापों का शोधक है। इससे ही पापों की शुद्धि
होती है। सत्पुरुषों के अनुसार, पापों की शुद्धि के लिए प्रार्याश्चेत, पश्चाताप से ही संपन्न होता
है। जो मनुष्य अपने कुकर्म के लिए पश्चाताप नहीं करता वह उत्तम गति प्राप्त नहीं करता
परंतु जिसे अपने कुकृत्य पर हार्दिक पश्चाताप होता है, वह अवश्य उत्तम गति का भागीदार
होता है। इसमें कोई शक नहीं है।
शिव पुराण की कथा सुनने से चित्त की शुद्धि एवं मन निर्मल हो जाता है। शुद्ध चित्त में ही
भगवान शिव व पार्वती का वास होता है। वह शुद्धात्मा पुरुष सदाशिव के पद को प्राप्त होता
है। इस कथा का श्रवण सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी है। अतः इसकी आराधना व सेवा
करनी चाहिए। यह कथा भवबंधनरूपी रोग का नाश करने वाली है। भगवान शिव की कथा
सुनकर हृदय में उसका मनन करना चाहिए। इससे चित्त की शुद्धि होती है। चित्तशुद्धि होने से
ज्ञान और वैराग्य के साथ महेश्वर की भक्ति निश्चय ही प्रकट होती है तथा उनके अनुग्रह से
दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है। जो मनुष्य माया के प्रति आसक्त है, वह इस संसार बंधन से मुक्त
नहीं हो पाता।
है ब्राह्मण पत्नी। तुम अन्य विषयों से अपने मन को हटाकर भगवान शंकर की इस परम
पावन कथा को सुनो-इससे तुम्हारे चित्त की शुद्धि होगी और तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी।
जो मनुष्य निर्मल हृदय से भगवान शिव के चरणों का चितन करता है, उसकी एक ही जन्म
में मुक्ति हो जाती है।
सूत जी कहते हैं-शौनक। यह कहकर वे ब्राह्मण चुप हो गए। उनका हृदय करुणा से भर
गया। वे ध्यान में मग्न हो गए। ब्राह्मण का उक्त उपदेश सुनकर चंचुला के नेत्रों में आनंद के
आंसू छलक आए। वह हर्ष भरे हृदय से ब्राह्मण देवता के चरणों में गिर गई और हाथ
जोड़कर बोली-मैं कृतार्थ हो गई। हे ब्राह्मण! शिवभक्तों में श्रेष्ठ स्वामिन आप धन्य हैं। आप
परमार्थदर्शी हैं और सदा परोपकार में लगे रहते हैं। साधो! मैं नरक के समुद्र में गिर रही हूं।
कृपा कर मेरा उद्धार कीजिए। जिस पौराणिक व अमृत के समान सुंदर शिव पुराण कथा की
बात आपने की है उसे सुनकर ही मेरे मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ है। उस अमृतमयी शिव
पुराण कथा को सुनने के लिए मेरे मन में बड़ी श्रद्धा हो रही है। कृपया आप मुझे उसे
सुनाइए।
सूत जी कहते हैं--शिव पुराण की कथा सुनने की इच्छा मन में लिए हुए चंचुला उन
ब्राह्मण देवता की सेवा में वहीं रहने लगी। उस गोकर्ण नामक महाक्षेत्र में उन ब्राह्मण देवता
के मुख से चंचुला शिव पुराण की भक्ति, ज्ञान और वैराग्य बढ़ाने वाली और मुक्ति देने वाली
परम उत्तम कथा सुनकर कृतार्थ हुई। उसका चित्त शुद्ध हो गया। वह अपने हृदय में शिव के
सगुण रूप का चिंतन करने लगी। वह सदैव शिव के सच्चिदानंदमय स्वरूप का स्मरण करती
थी। तत्पश्चात, अपना समय पूर्ण होने पर चंचुला ने बिना किसी कष्ट के अपना शरीर त्याग
दिया। उसे लेने के लिए एक दिव्य विमान वहां पहुंचा। यह विमान शोभा-साधनों से सजा था
एवं शिव गणों से सुशोभित था।
चंचुला विमान से शिवपुरी पहुंची। उसके सारे पाप धुल गए। वह दिव्यांगना हो गई। वह
गौरांगीदेवी मस्तक पर अर्धचंद्र का मुकुट व अन्य दिव्य आभूषण पहने शिवपुरी पहुंची। वहां
उसने सनातन देवता त्रिनेत्रधारी महादेव शिव को देखा। सभी देवता उनकी सेवा में भक्तिभाव
से उपस्थित थे। उनकी अंग कांति करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाशित हो रही थी। पांच मुख
और हर मुख में तीन-तीन नेत्र थे, मस्तक पर अद्धचंद्राकार मुकुट शोभायमान हो रहा था।
कंठ में नील चिन्ह था। उनके साथ में देवी गौरी विराजमान थीं, जो विद्युत पुंज के समान
प्रकाशित हो रही थीं। महादेव जी की कांति कपूर के समान गौर थी। उनके शरीर पर श्वेत
वस्त्र थे तथा शरीर श्वेत भस्म से युक्त था।
इस प्रकार भगवान शिव के परम उज्ज्वल रूप के दर्शन कर चंचुला बहुत प्रसन्न हुई।
उसने भगवान को बारंबार प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रेम, आनंद और संतोष से युक्त
हो विनीतभाव से खड़ी हो गई। उसके नेत्रों से आनंदाश्रुओं की धारा बहने लगी। भगवान
शंकर व भगवती गौरी उमा ने करुणा के साथ सौम्य दृष्टि से देखकर चंचुला को अपने पास
बुलाया। गौरी उमा ने उसे प्रेमपूर्वक अपनी सखी बना लिया। चंचुला सुखपूर्वक भगवान शिव
के धाम में, उमा देवी की सखी के रूप में निवास करने लगी।
पांचवां अध्याय
बिंदुग का पिशाच योनि से उद्धार
सूत जी बोले--शौनक! एक दिन चंचुला आनंद में मग्न उमा देवी के पास गई और दोनों
हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगी।
चंचुला बोली--हे गिरिराजनंदिनी! स्कंदमाता, उमा, आप सभी मनुष्यों एवं देवताओं द्वारा
पूज्य तथा समस्त सुखों को देने वाली हैं। आप शंभुप्रिया हैं। आप ही सगुणा और निर्गुणा हैं।
हे सच्चिदानंदस्वरूपिणी! आप ही प्रकृति की पोषक हैं। हे माता! आप ही संसार की सृष्टि,
पालन और संहार करने वाली हैं। आप ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश को उत्तम प्रतिष्ठा देने वाली
परम शक्ति हैं।
सूत जी कहते हैं--शौनक! सदगति प्राप्त चंचुला इस प्रकार देवी की स्तुति कर शांत हो
गई। उसकी आंखों में प्रेम के आंसू उमड़ आए। तब शंकरप्रिया भक्तवत्सला उमा देवी ने बड़े
प्रेम से चंचुला को चुप कराते हुए कहा--सखी चंचुला! मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूं। बोलो,
क्या वर मांगती हो?
चंचुला बोली--हे गिरिराज कुमारी। मेरे पति बिंदुग इस समय कहां हैं? उनकी कैसी गति
हुई है? मुझे बताइए और कुछ ऐसा उपाय कीजिए, ताकि हम फिर से मिल सकें। हे महादेवी!
मेरे पति एक शूद्र जाति वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप में ही डूबे रहते थे।
गिरिजा बोलीं--बेटी! तुम्हारा पति बिंदुग बड़ा पापी था। उसका अंत बड़ा भयानक हुआ।
वेश्या का उपभोग करने के कारण वह मूर्ख नरक में अनेक वर्षों तक अनेक प्रकार के दुख
भोगकर अब शेष पाप को भोगने के लिए विंध्यपर्वत पर पिशाच की योनि में रह रहा है। वह
दुष्ट वहीं वायु पीकर रहता है और सब प्रकार के कष्ट सहता है।
सूत जी कहते हैं-शीनक! गौरी देवी की यह बात सुनकर चंचुला अत्यंत दुखी हो गई।
फिर मन को किसी तरह स्थिर करती हुई दुखी हृदय से मां गौरी से उसने एक बार फिर पूछा।
हे महादेवी! मुझ पर कृपा कीजिए और मेरे पापी पति का अब उद्धार कर दीजिए। कृपा
करके मुझे वह उपाय बताइए जिससे मेरे पति को उत्तम गति प्राप्त हो सके।
गौरी देवी ने कहा-यदि तुम्हारा पति बिंदुग शिव पुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो
वह इस दुर्गति को पार करके उत्तम गति का भागी हो सकता है।
अमृत के समान मधुर गौरी देवी का यह वचन सुनकर चंचुला ने दोनों हाथ जोड़कर
मस्तक झुकाकर उन्हें बारंबार प्रणाम किया तथा प्रार्थना की कि मेरे पति को शिव पुराण
सुनाने की व्यवस्था कीजिए।
ब्राह्मण पत्नी चंचुला के बार-बार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरी देवी ने भगवान शिव
की महिमा का गान करने वाले गंधर्वराज तुम्बुरो को बुलाकर कहा-तुम्बुरो! तुम्हारी भगवान
शिव में प्रीति है। तुम मेरे मन की सभी बातें जानकर मेरे कार्यों को सिद्ध करते हो। तुम मेरी
इस सखी के साथ विंध्य पर जाओ। वहां एक महाघोर और भयंकर पिशाच रहता है। पूर्व
जन्म में वह पिशाच बिंदुग नामक ब्राह्मण मेरी इस सखी चंचुला का पति था। वह वेश्यागामी
हो गया। उसने स्नान-संध्या आदि नित्यकर्म छोड़ दिए। क्रोध के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो
गई। दुर्जनों से उसकी मित्रता तथा सज्जनों से द्वेष बढ़ गया था। वह अस्त्र-शस्त्र से हिंसा
करता, लोगों को सताता और उनके घरों में आग लगा देता था। चाण्डालों से दोस्ती करता व
रोज वेश्या के पास जाता था। पत्नी को त्यागकर दुष्ट लोगों से दोस्ती कर उन्हीं के संपर्क में
रहता था। वह मृत्यु तक दुराचार में फंसा रहा। मृत्यु के बाद उसे पापियों के भोग स्थान
यमपुर ले जाया गया। वहां घोर नरकों को सहकर इस समय वह विंध्य पर्वत पर पिशाच
बनकर रह रहा है और पापों का फल भोग रहा है। तुम उसके सामने परम पुण्यमयी पापों का
नाश करने वाली शिव पुराण की दिव्य कथा का प्रवचन करो। इस कथा को सुनने से उसका
हृदय सभी पापों से मुक्त होकर शुद्ध हो जाएगा और वह प्रेत योनि से मुक्त हो जाएगा। दुर्गति
से मुक्त होने पर उस बिंदुग नामक पिशाच को विमान पर बिठाकर तुम भगवान शिव के पास
ले आना।
सूत जी कहते है-शौनक! मां उमा का आदेश पाकर गंधर्वराज तुम्बुरो प्रसन्नतापूर्वक
अपने भाग्य की सराहना करते हुए चंचुला को साथ लेकर विमान से पिशाच के निवास स्थान
विंध्यपर्वत गया। वहां पहुंचकर उसने उस विकराल आकृति वाले पिशाच को देखा। उसका
शरीर विशाल था। उसकी ठोढ़ी बड़ी थी। वह कभी हंसता, कभी रोता और कभी उछलता
था। महाबली तुम्बुरो ने बिंदुग नामक पिशाच को पाशों से बांध लिया। उसके पश्चात तुम्बुरो ने
शिव पुराण की कथा बांचने के लिए स्थान तलाश कर मंडप की रचना की।
शीघ्र ही इस बात का पता लोगों को चल गया कि एक पिशाच के उद्धार हेतु देवी पार्वती
की आज्ञा से तुम्बुरो शिव पुराण की अमृत कथा सुनाने विंध्यपर्वत पर आया है।
उस कथा को सुनने के लोभ से बहुत से देवर्षि वहां पहुंच गए। सभी को आदरपूर्वक स्थान
दिया गया। पिशाच बिंदुग को पाशों में बांधकर आसन पर बिठाया गया और तब तुम्बुरो ने
परम उत्तम शिव पुराण की अमृत कथा का गान शुरू किया। उसने पहली विद्येश्वर संहिता से
लेकर सातवीं वायुसंहिता तक शिव पुराण की कथा का स्पष्ट वर्णन किया।
सातों संहिताओं सहित शिव पुराण को सुनकर सभी श्रोता कृतार्थ हो गए। परम पुण्यमय
शिव पुराण को सुनकर पिशाच सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने पिशाच शरीर का त्याग
कर दिया। शीघ्र ही उसका रूप दिव्य हो गया। उसका शरीर गौर वर्ण का हो गया। शरीर पर
श्रेत वस्त्र एवं पुरुषों के आभूषण आ गए।
इस प्रकार दिव्य देहधारी होकर बिंदुग अपनी पत्नी चंचुला के साथ स्वयं भी भगवान शिव
का गुणगान करने लगा। उसे इस दिव्य रूप में देखकर सभी को बहुत आश्चर्य हुआ। उसका
मन परम आनंद से परिपूर्ण हो गया।
सभी भगवान महेश्वर के अदभुत चरित्र को सुनकर कृतार्थ हो, उनका यशोगान करते हुए
अपने-अपने धाम को चले गए। बिंदुग अपनी पत्नी चंचुला के साथ विमान में बैठकर
शिवपुरी की ओर चल दिया।
महेश्वर के गुणों का गान करता हुआ बिंदुग अपनी पत्नी चंचुला व तुम्बुरो के साथ शीघ्र ही
शिवधाम पहुंच गया। भगवान शिव व देवी पार्वती ने उसे अपना पार्षद बना लिया। दोनों
पति-पत्नी सुखपूर्वक भगवान महेश्वर एवं देवी गौरी के श्रीचरणों में अविचल निवास पाकर
धन्य हो गए।
छठा अध्याय
शिव पुराण के श्रवण की विधि
शौनक जी कहते हैं--महाप्राज्ञ सूत जी! आप धन्य एवं शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। हम पर कृपा
कर हमें कल्याणमय शिव पुराण के श्रवण की विधि बताइए, जिससे सभी श्रोताओं को
संपूर्ण उत्तम फल की प्राप्ति हो।
सूत जी ने कहा-मुने शौनक! तुम्हें संपूर्ण फल की प्राप्ति के लिए मैं शिव पुराण की
विधि सविस्तार बताता हूं। सर्वप्रथम, किसी ज्योतिषी को बुलाकर दान से संतुष्ट कर उससे
कथा का शुभ मुहूर्त निकलवाना चाहिए और उसकी सूचना का संदेश सभी लोगों तक
पहुंचाना चाहिए कि हमारे यहां शिव पुराण की कथा होने वाली है। अपने कल्याण की इच्छा
रखने वालों को इसे सुनने अवश्य पधारना चाहिए। देश-देश में जो भी भगवान शिव के भक्त
हों तथा शिव कथा के कीर्तन और श्रवण के उत्सुक हों, उन सभी को आदरपूर्वक बुलाना
चाहिए और उनका आदर-सत्कार करना चाहिए। शिव पुराण सुनने के लिए मंदिर, तीर्थ,
वनप्रांत अथवा घर में ही उत्तम स्थान का निर्माण करना चाहिए। केले के खंभों से सुशोभित
कथामण्डप तैयार कराएं। उसे सब ओर फल-पुष्प, सुंदर चंदोवे से अलंकृत करना चाहिए।
चारों कोनों पर ध्वज लगाकर उसे विभिन्न सामग्री से सुशोभित करें। भगवान शंकर के लिए
भक्तिपूर्वक दिव्य आसन का निर्माण करना चाहिए तथा कथा वाचक के लिए भी दिव्य
आसन का निर्माण करना चाहिए। नियमपूर्वक कथा सुनने वालों के लिए भी सुयोग्य आसन
की व्यवस्था करें तथा अन्य लोगों के बैठने की भी व्यवस्था करें। कथा बांचने वाले विद्वान के
प्रति कभी बुरी भावना न रखें।
संसार में जन्म तथा गुणों के कारण बहुत से गुरु होते हैं परंतु उन सबमें पुराणों का ज्ञाता
ही परम गुरु माना जाता है। पुराणवेत्ता पवित्र, शांत, साधु, ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करने वाला
और दयालु होना चाहिए। ऐसे गुणी मनुष्य को इस पुण्यमयी कथा को बांचना चाहिए।
सूर्योदय से साढ़े तीन पहर तक इसे बांचने का उपयुक्त समय है। मध्याहूनकाल में दो घड़ी
तक कथा बंद रखनी चाहिए ताकि लोग मल-मूत्र का त्याग कर सकें।
जिस दिन से कथा शुरू हो रही है उससे एक दिन पहले व्रत ग्रहण करें। कथा के दिनों में
प्रातःकाल का नित्यकर्म संक्षेप में कर लेना चाहिए। वक्ता के पास उसकी सहायता हेतु एक
विद्वान व्यक्ति को बैठाना चाहिए जो कि सब प्रकार के संशयों को दूर कर लोगों को समझाने
में कुशल हो। कथा में आने वाले विघ्नों को दूर करने के लिए सर्वप्रथम गणेश जी का पूजन
करना चाहिए। भगवान शिव व शिव पुराण की भक्तिभाव से पूजा करें। तत्पश्चात श्रोता तन-
मन से शुद्ध होकर आदरपूर्वक शिव पुराण की कथा सुनें। जो वक्ता और श्रोता अनेक प्रकार
के कर्मो से भटक रहे हों, काम आदि छः विकारों से युक्त हों, वे पुण्य के भागी नहीं हो
सकते। जो मनुष्य अपनी सभी चिताओं को भूलकर कथा में मन लगाते हैं, उन शुद्ध बुद्धि
मनुष्यों को उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
सातवां अध्याय
श्रोताओं द्वारा पालन किए जाने वाले नियम
सूत जी बोले--शौनक! शिव पुराण सुनने का व्रत लेने वाले पुरुषों के लिए जो नियम हैं,
उन्हें भक्तिपूर्वक सुनो।
शिव पुराण की पुण्यमयी कथा नियमपूर्वक सुनने से बिना किसी विघ्न-बाधा के उत्तम
फल की प्राप्ति होती है। दीक्षा रहित मनुष्य को कथा सुनने का अधिकार नहीं है। अतः पहले
वक्ता से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। नियमपूर्वक कथा सुनने वाले मनुष्य को ब्रह्मचर्य का
अच्छी तरह से पालन करना चाहिए। उसे भूमि पर सोना चाहिए, पत्तल में खाना चाहिए तथा
कथा समाप्त होने पर ही अन्न ग्रहण करना चाहिए। समर्थ मनुष्य को शुद्धभाव से शिव पुराण
की कथा की समाप्ति तक उपवास रखना चाहिए और एक ही बार भोजन करना चाहिए।
गरिष्ठ अन्न, दाल, जला अन्न, सेम, मसूर तथा बासी अन्न नहीं खाना चाहिए। जिसने कथा का
व्रत ले रखा हो, उसे प्याज, लहसुन, हींग, गाजर, मादक वस्तु तथा आमिष कही जाने वाली
वस्तुओं को त्याग देना चाहिए। ऐसा मनुष्य प्रतिदिन सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय
तथा हार्दिक उदारता आदि सदगुणों को अपनाए तथा साधु-संतों की निंदा का त्याग कर
नियमपूर्वक कथा सुने। सकाम मनुष्य इस कथा के प्रभाव से अपनी अभीष्ट कामना प्राप्त
करता है और निष्काम मोक्ष प्राप्त करता है। सभी स्त्री-पुरुषों को विधिविधान से शिव पुराण
की उत्तम कथा को सुनना चाहिए।
महर्षे! शिव पुराण की समाप्ति पर श्रोताओं को भक्तिपूर्वक भगवान शिव की पूजा की
तरह पुराण-पुस्तक की पूजा भी करनी चाहिए तथा इसके पश्चात विधिपूर्वक वक्ता का भी
पूजन करना चाहिए। पुस्तक को रखने के लिए नया और सुंदर बस्ता बनाएं। पुस्तक व वक्ता
की पूजा के उपरांत वक्ता की सहायता हेतु बुलाए गए पंडित का भी सत्कार करना चाहिए।
कथा में पधारे अन्य ब्राह्मणों को भी अन्न-धन का दान दे। गीत, वाद्य और नृत्य से उत्सव
को महान बनाएं। विरक्त मनुष्य को कथा समाप्ति पर गीता का पाठ करना चाहिए तथा
गृहस्थ को श्रवण कर्म की शांति हेतु होम करना चाहिए। होम रुद्रसंहिता के श्लोकों द्वारा
अथवा गायत्री मंत्र के द्वारा करें। यदि हवन करने में असमर्थ हों तो भक्तिपूर्वक शिव
सहस्रनाम का पाठ करें।
कथाश्रवण संबंधी व्रत की पूर्णता के लिए शहद से बनी खीर का भोजन ग्यारह ब्राह्मणों
को कराकर उन्हें दक्षिणा दें। समृद्ध मनुष्य तीन तोले सोने का एक सुंदर सिंहासन बनाए और
उसके ऊपर लिखी अथवा लिखाई हुई शिव पुराण की लिखी पोथी विधिपूर्वक स्थापित करें
तथा पूजा करके दक्षिणा चढ़ाएं। फिर आचार्य का वस्त्र, आभूषण एवं गंध से पूजन करके
दक्षिणा सहित वह पुस्तक उन्हें भेंट कर दें। शौनक, इस पुराण के दान के प्रभाव से भगवान
शिव का अनुग्रह पाकर मनुष्य भवबंधन से मुक्त हो जाता है। शिव पुराण को विधिपूर्वक
संपन्न करने पर यह संपूर्ण फल देता है तथा भोग और मोक्ष प्रदान करता है।
मुने! शिव पुराण का सारा माहात्म्य, जो संपूर्ण फल देने वाला है, मैंने तुम्हें सुना दिया है।
अब आप और क्या सुनना चाहते हो? श्रीमान शिव पुराण सभी पुराणों के माथे का तिलक
है। जो मनुष्य सदा भगवान शिव का ध्यान करते हैं, जिनकी वाणी शिव के गुणों की स्तुति
करती है और जिनके दोनों कान उनकी कथा सुनते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है, वे
संसार सागर से पार हो जाते हैं। ऐसे लोग इहलोक और परलोक में सदा सुखी रहते हैं।
भगवान शिव के सच्चिदानंदमय स्वरूप का स्पर्श पाकर ही समस्त प्रकार के कष्टों का
निवारण हो जाता है। उनकी महिमा जगत के बाहर और भीतर दोनों जगह विद्यमान है। उन
अनंत आनंदरूप परम शिव की मैं शरण लेता हूं।
।। ॐ नमः शिवाय ।।
शिव पुराण
विद्येश्वर संहिता
पहला अध्याय
पापनाशक साधनों के विषय में प्रश्न
जो आदि से लेकर अंत में हैं, नित्य मंगलमय हैं, जो आत्मा के स्वरूप
को प्रकाशित करने वाले हैं, जिनके पांच मुख हैं और जो खेल-खेल में जगत
की रचना, पालन और संहार तथा अनुग्रह एवं तिरोभावरूप पांच प्रबल कर्म
करते हैं, उन सर्वश्रेष्ठ अजर-अमर उमापति भगवान शंकर का मैं मन ही मन
चिंतन करता हूं।
व्यास जी कहते हैं-धर्म का महान क्षेत्र, जहां गंगा-यमुना का संगम है, उस पुण्यमय
प्रयाग, जो ब्रह्मलोक का मार्ग है, वहां एक बार महातेजस्वी, महाभाग, महात्मा मुनियों ने
विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस ज्ञान यज्ञ का समाचार सुनकर पौराणिक-शिरोमणि
व्यास जी के शिष्य सूत जी वहां मुनियों के दर्शन के लिए आए। सूत जी का सभी मुनियों ने
विधिवत स्वागत व सत्कार किया तथा उनकी स्तुति करते हुए हाथ जोड़कर उनसे कहा-हे
सर्वज्ञ विद्वान रोमहर्षण जी। आप बड़े भाग्यशाली हैं। आपने स्वयं व्यास जी के मुख से
पुराण विद्या प्राप्त की है। आप आश्नर्यस्वरूप कथाओं का भंडार हैं। आप भूत, भविष्य और
वर्तमान के ज्ञाता हैं। हमारा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए। आपका यहां आना निरर्थक
नहीं हो सकता। आप कल्याणकारी हैं।
उत्तम बुद्धि वाले सूत जी! यदि आपका अनुग्रह हो तो गोपनीय होने पर भी आप
शुभाशुभ तत्व का वर्णन करें, जिससे हमारी तृप्ति नहीं होती और उसे सुनने की हमारी इच्छा
ऐसे ही रहती है। कृपा कर उस विषय का वर्णन करें। घोर कलियुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म
से दूर होकर दुराचार में फंस जाएंगे। दूसरों की बुराई करेंगे, पराई स्त्रियों के प्रति आसक्त
होंगे। हिंसा करेंगे, मूर्ख, नास्तिक और पशुबुद्धि हो जाएंगे।
सूत जी! कलियुग में वेद प्रतिपादित वर्ण-आश्रम व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। प्रत्येक वर्ण
और आश्रम में रहने वाले अपने-अपने धमो के आचरण का परित्याग कर विपरीत आचरण
करने में सुख प्राप्त करेंगे! इस सामाजिक वर्ण संकरता से लोगों का पतन होगा। परिवार टूट
जाएंगे, समाज बिखर जाएगा। प्राकृतिक आपदाओं से जगह-जगह लोगों की मृत्यु होगी।
धन का क्षय होगा। स्वार्थ और लोभ की प्रवृत्ति बढ़ जाएगी। ब्राह्मण लोभी हो जाएंगे और वेद
बेचकर धन प्राप्त करेंगे। मद से मोहित होकर दूसरों को ठगेंगे, पूजा-पाठ नहीं करेंगे और
ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे। क्षत्रिय अपने धर्म को त्यागकर कुसंगी, पापी और व्यभिचारी हो
जाएंगे। शौर्य से रहित हो वे शूद्रों जेसा व्यवहार करेंगे और काम के अधीन हो जाएंगे। वैश्य
धर्म से विमुख हो संस्कारश्रष्ट होकर कुमार्गी, धनोपार्जन-परायण होकर नाप-तील में ध्यान
लगाएंगे। शूद्र अपना धर्म-कर्म छोड़कर अच्छी वेशभूषा से सुशोभित हो व्यर्थ घूमेंगे। वे
कुटिल और ईरष्यालु होकर अपने धर्म के प्रतिकूल हो जाएंगे, कुकर्मी और वाद-विवाद करने
वाले होंगे। वे स्वयं को कुलीन मानकर सभी धर्मों और वर्णों में विवाह करेंगे।
स्त्रियां सदाचार से विमुख हो जाएंगी। वे अपने पति का अपमान करेंगी और सास-ससुर
से लड़ेंगी। मलिन भोजन करेंगी। उनका शील स्वभाव बहुत बुरा होगा।
सूत जी! इस तरह जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है और जिन्होंने अपने धर्म का त्याग कर दिया
है, ऐसे लोग लोक-परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त करेंगे? इस चिंता से हम सभी व्याकुल
हैं। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। इस धर्म का पालन करने वाला दूसरों को सुखी
करता हुआ, स्वयं भी प्रसन्नता अनुभव करता है। यह भावना यदि निष्काम हो, तो कर्ता का
हृदय शुद्ध करते हुए उसे परमगति प्रदान करती है। हे महामुने! आप समस्त सिद्धांतों के
ज्ञाता हैं। कृपा कर कोई ऐसा उपाय बताइए, जिससे इन सबके पापों का तत्काल नाश हो
जाए।
व्यास जी कहते है-उन श्रेष्ठ मुनियों की यह बात सुनकर सूत जी मन ही मन परम श्रेष्ठ
भगवान शंकर का स्मरण करके उनसे इस प्रकार बोले
दूसरा अध्याय
शिव पुराण का परिचय और महिमा
सूत जी कहते हैं--साधु महात्माओ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। यह प्रश्न तीनों
लोकों का हित करने वाला है। आप लोगों के स्नेहपूर्ण आग्रह पर, गुरुदेव व्यास का स्मरण
कर मैं समस्त पापराशियों से उद्धार करने वाले शिव पुराण की अमृत कथा का वर्णन कर रहा
हूं। ये वेदांत का सारसर्वस्व है। यही परलोक में परमार्थ को देने वाला है तथा दुष्टों का विनाश
करने वाला है। इसमें भगवान शिव के उत्तम यश का वर्णन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
आदि पुरुषार्थों को देने वाला पुराण अपने प्रभाव की दृष्टि से वृद्धि तथा विस्तार को प्राप्त हो
रहा है। शिव पुराण के अध्ययन से कलियुग के सभी पापों में लिप्त जीव उत्तम गति को प्राप्त
होंगे। इसके उदय से ही कलियुग का उत्पात शांत हो जाएगा। शिव पुराण को वेद तुल्य माना
जाएगा। इसका प्रवचन सर्वप्रथम भगवान शिव ने ही किया था। इस पुराण के बारह खण्ड या
भेद हैं। ये बारह संहिताएं हैं--() विद्येश्वर संहिता, (2) रुद्र संहिता, (3) विनायक संहिता
(4) उमा संहिता, (5) सहस्रकोटिरुद्र संहिता, (6) एकादशरुद्र संहिता, (7) कैलास संहिता
(8) शतरुद्र संहिता, (9) कोटिरुद्र संहिता, (0) मातृ संहिता, () वायवीय संहिता तथा
(42) धर्म संहिता।
विद्येश्वर संहिता में दस हजार श्लोक हैं। रुद्र संहिता, विनायक संहिता, उमा संहिता और
मातृ संहिता प्रत्येक में आठ-आठ हजार श्लोक हैं। एकादश रुद्र संहिता में तेरह हजार
कैलाश संहिता में छः हजार, शतरुद्र संहिता में तीन हजार, कोटिरुद्र संहिता में नौ हजार
सहस्रकोटिरुद्र संहिता में ग्यारह हजार, वायवीय संहिता में चार हजार तथा धर्म संहिता में
बारह हजार श्लोक हैं।
मूल शिव पुराण में कुल एक लाख श्लोक हैं परंतु व्यास जी ने इसे चौबीस हजार श्लोकों
में संक्षिप्त कर दिया है। पुराणों की क्रम संख्या में शिव पुराण का चौथा स्थान है, जिसमें सात
संहिताएं हैं।
पूर्वकाल में भगवान शिव ने सौ करोड़ श्लोकों का पुराणग्रंथ ग्रंथित किया था। सृष्टि के
आरंभ में निर्मित यह पुराण साहित्य अधिक विस्तृत था। द्वापर युग में द्वैपायन आदि महर्षियों
ने पुराण को अठारह भागों में विभाजित कर चार लाख श्लोकों में इसको संक्षिप्त कर दिया।
इसके उपरांत व्यास जी ने चौबीस हजार श्लोकों में इसका प्रतिपादन किया।
यह वेदतुल्य पुराण वि्येश्वररुद्र संहिता, शतरुद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता,
कैलाश संहिता और वायवीय संहिता नामक सात संहिताओं में विभाजित है। यह सात
संहिताओं वाला शिव पुराण वेद के समान प्रामाणिक तथा उत्तम गति प्रदान करने वाला है।
इस निर्मल शिव पुराण की रचना भगवान शिव द्वारा की गई है तथा इसको संक्षेप में
संकलित करने का श्रेय व्यास जी को जाता है। शिव पुराण सभी जीवों का कल्याण करने
वाला, सभी पापों का नाश करने वाला है। यही सत्पुरुषों को कल्याण प्रदान करने वाला है।
यह तुलना रहित है तथा इसमें वेद प्रतिपादित अद्वैत ज्ञान तथा निष्कपट धर्म का प्रतिपादन
है। शिव पुराण श्रेष्ठ मंत्र-समूहों का संकलन है तथा यही सभी के लिए शिवधाम की प्राप्ति
का साधन है। समस्त पुराणों में सर्वश्रेष्ठ शिव पुराण इर्ष्या रहित अंतःकरण वाले विद्वानों के
लिए जानने की वस्तु है। इसमें परमात्मा का गान किया गया है। इस अमृतमयी शिव पुराण
को आदर से पढ़ने और सुनने वाला मनुष्य भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त
कर लेता है।
तीसरा अध्याय
श्रवण, कीर्तन और मनन साधनों की श्रेष्ठता
व्यास जी कहते हैं-सूत जी के वचनों को सुनकर सभी महर्षि बोले-भगवन् आप
वेदतुल्य, अदभुत एवं पुण्यमयी शिव पुराण की कथा सुनाइए।
सूत जी ने कहा-हे महर्षिगण! आप कल्याणमय भगवान शिव का स्मरण करके, वेद के
सार से प्रकट शिव पुराण की अमृत कथा सुनिए। शिव पुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का
गान किया गया है। जब सृष्टि आरंभ हुई, तो छः कुलों के महर्षि आपस में वाद-विवाद करने
लगे कि अमुक वस्तु उत्कृष्ट है, अमुक नहीं। जब इस विवाद ने बड़ा रूप धारण कर लिया तो
सभी अपनी शंका के समाधान के लिए सृष्टि की रचना करने वाले अविनाशी ब्रह्माजी के पास
जाकर हाथ जोड़कर कहने लगे-है प्रभु! आप संपूर्ण जगत को धारण कर उनका पोषण
करने वाले हैं। प्रभु! हम जानना चाहते हैं कि संपूर्ण तत्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष कौन
हैं?
ब्रह्माजी ने कहा-ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इंद्र आदि से युक्त संपूर्ण जगत समस्त भूतों एवं
इंद्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है। वे देव-महादेव ही सर्वज्ञ और संपूर्ण हैं। भक्ति से ही
इनका साक्षात्कार होता है। दूसरे किसी उपाय से इनका दर्शन नहीं होता। भगवान शिव में
अटूट भक्ति मनुष्य को संसार-बंधन से मुक्ति दिलाती है। भक्ति से उन्हें देवता का कृपाप्रसाद
प्राप्त होता है। जैसे अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है। भगवान शंकर का
कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिए आप सब ब्रह्मर्षि धरती पर सहस्रों वर्षों तक चलने वाले
विशाल यज्ञ करो। यज्ञपति भगवान शिव की कृपा से ही विद्या के सारतत्व साध्य-साधन का
ज्ञान प्राप्त होता है।
शिवपद की प्राप्ति साध्य और उनकी सेवा ही साधन है तथा जो मनुष्य बिना किसी फल
की कामना किए उनकी भक्ति में डूबे रहते हैं, वही साधक हैं। कर्म के अनुष्ठान से प्राप्त फल
को भगवान शिव के श्रीचरणों में समर्पित करना ही परमेश्वर की प्राप्ति का उपाय है तथा यही
मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन है। साक्षात महेश्वर ने ही भक्ति के साधनों का प्रतिपादन
किया है। कान से भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन
तथा मन में उनका मनन शिवपद की प्राप्ति के महान साधन हैं तथा इन साधनों से ही संपूर्ण
मनोरथों की सिद्ध होती है। जिस वस्तु को हम प्रत्यक्ष अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं,
उसकी तरफ आकर्षण स्वाभाविक है परंतु जिस वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं जा
सकता उसे केवल सुनकर और समझकर ही उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है।
अतः श्रवण पहला साधन है। श्रवण द्वारा ही गुरु मुख से तत्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धि वाला
विद्वान अन्य साधन कीर्तन और मनन की शक्ति व सिद्धि प्राप्त करने का यत्न करता है।
मनन के बाद इस साधन की साधना करते रहने से धीरे-धीरे भगवान शिव का संयोग प्राप्त
होता है और लौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।
भगवान शिव की पूजा, उनके नामों का जाप तथा उनके रूप, गुण, विलास के हृदय में
निरंतर चिंतन को ही मनन कहा जाता है। महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध इस साधन को ही
प्रमुख साधन कहा जाता है।
चौथा अध्याय
सनत्कुमार-व्यास संवाद
सूत जी कहते हैं--हे मुनियो! इस साधन का माहात्म्य बताते समय मैं एक प्राचीन वृत्तांत
का वर्णन करूंगा, जिसे आप ध्यानपूर्वक सुनें।
बहुत पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेव जी सरस्वती नदी के तट पर
तपस्या कर रहे थे। एक दिन सूर्य के समान तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान
सनत्कुमार वहां जा पहुंचे। मेरे गुरु ध्यान में मग्न थे। जागने पर अपने सामने सनत्कुमार जी
को देखकर वे बड़ी तेजी से उठे और उनके चरणों का स्पर्श कर उन्हें अर्घ्य देकर योग्य आसन
पर विराजमान किया। प्रसन्न होकर सनत्कुमार जी गंभीर वाणी में बोले-मुनि तुम सत्य का
चिंतन करो। सत्य तत्व का चिंतन ही श्रेय प्राप्ति का मार्ग है। इसी से कल्याण का मार्ग प्रशस्त
होता है। यही कल्याणकारी है। यह जब जीवन में आ जाता है, तो सब सुंदर हो जाता है।
सत्य का अर्थ है-सदैव रहने वाला। इस काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह सदा एक
समान रहता है।
सनत्कुमार जी ने महर्षि व्यास को आगे समझाते हुए कहा, महर्षे! सत्य पदार्थ भगवान
शिव ही हैं। भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही उन्हें प्राप्त करने के सर्वश्रेष्ठ
साधन हैं। पूर्वकाल में मैं दूसरे अनेकानेक साधनों के भ्रम में पड़ा घूमता हुआ तपस्या करने
मंदराचल पर जा पहुंचा। कुछ समय बाद महेश्वर शिव की आज्ञा से सबके साक्षी तथा
शिवगणों के स्वामी नंदिकेश्वर वहां आए और स्नेहपूर्वक मुक्ति का साधन बताते हुए बोले
भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन ही मुक्ति का स्रोत है। यह बात मुझे स्वयं
देवाधिदेव भगवान शिव ने बताई है। अतः तुम इन्हीं साधनों का अनुष्ठान करो।
व्यास जी से ऐसा कहकर अनुगामियों सहित सनत्कुमार ब्रह्मधाम को चले गए। इस प्रकार
इस उत्तम वृत्तांत का संक्षेप में मैंने वर्णन किया है।
ऋषि बोले-सूत जी! आपने श्रवण, कीर्तन और मनन को मुक्ति का उपाय बताया है,
किंतु जो मनुष्य इन तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य कैसे मुक्त हो सकता है? किस
कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है?
पाचवा अध्याय
शिवलिंग का रहस्य एवं महत्व
सूत जी कहते हैं--हे शौनक जी! श्रवण, कीर्तन और मनन जैसे साधनों को करना प्रत्येक
के लिए सुगम नहीं है। इसके लिए योग्य गुरु और आचार्य चाहिए। गुरुमुख से सुनी गई वाणी
मन की शंकाओं को दग्ध करती है। गुरुमुख से सुने शिव तत्व द्वारा शिव के रूप-स्वरूप के
दर्शन और गुणानुवाद में रसानुभूति होती है। तभी भक्त कीर्तन कर पाता है। यदि ऐसा कर
पाना संभव न हो, तो मोक्षार्थी को चाहिए कि वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की
स्थापना करके रोज उनकी पूजा करे। इसे अपनाकर वह इस संसार सागर से पार हो सकता
है। संसार सागर से पार होने के लिए इस तरह की पूजा आसानी से भक्तिपूर्वक की जा
सकती है। अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार धनराशि से शिवलिंग या शिवमूर्ति की
स्थापना कर भक्तिभाव से उसकी पूजा करनी चाहिए। मंडप, गोपुर, तीर्थ, मठ एवं क्षेत्र की
स्थापना कर उत्सव का आयोजन करना चाहिए तथा पुष्प, धूप, वस्त्र, गंध, दीप तथा पुआ
और तरह-तरह के भोजन नैवेद्य के रूप में अर्पित करने चाहिए। श्री शिवजी ब्रह्मरूप और
निष्कल अर्थात कला रहित भी हैं और कला सहित भी। मनुष्य इन दोनों स्वरूपों की पूजा
करते हैं। शंकर जी को ही ब्रह्म पदवी भी प्राप्त है। कलापूर्ण भगवान शिव की मूर्ति पूजा भी
मनुष्यों द्वारा की जाती है और वेदों ने भी इस तरह की पूजा की आज्ञा प्रदान की है।
सनत्कुमार जी ने पूछा-हैे नंदिकेश्वर! पूर्वकाल में उत्पन्न हुए लिंग बेर अर्थात मूर्ति की
उत्पत्ति के संबंध में आप हमें विस्तार से बताइए।
नंदिकेश्वर ने बताया-मुनिश्वर! प्राचीन काल में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य युद्ध
हुआ तो उनके बीच स्तंभ रूप में शिवजी प्रकट हो गए। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वीलोक का
संरक्षण किया। उसी दिन से महादेव जी का लिंग के साथ-साथ मूर्ति पूजन भी जगत में
प्रचलित हो गया। अन्य देवताओं की साकार अर्थात मूर्ति-पूजा होने लगी, जो कि अभीष्ट
फल प्रदान करने वाली थी। परंतु शिवजी के लिंग और मूर्ति, दोनों रूप ही पूजनीय हैं।
छठा अध्याय
ब्रह्मा-विष्णु युद्ध
नंदिकेश्वर बोले--पूर्व काल में श्रीविष्णु अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी जी के साथ शेष-शय्या पर
शयन कर रहे थे। तब एक बार ब्रह्माजी वहां पहुंचे और विष्णुजी को पुत्र कहकर पुकारने लगे
-पुत्र उठो! मैं तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। यह सुनकर विष्णुजी को क्रोध आ गया।
फिर भी शांत रहते हुए वे बोले--पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। कहो अपने पिता के पास कैसे
आना हुआ? यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे--मैं तुम्हारा रक्षक हूं। सारे जगत का पितामह
हूं। सारा जगत मुझमें निवास करता है। तू मेरी नाभि कमल से प्रकट होकर मुझसे ऐसी बातें
कर रहा है। इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। तब वे दोनों अपने को प्रभु कहते-कहते
एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए। हंस और गरुड़ पर बैठे दोनों परस्पर युद्ध करने
लगे। ब्रह्माजी के वक्षस्थल में विष्णुजी ने अनेकों अस्त्रों का प्रहार करके उन्हें व्याकुल कर
दिया। इससे कुपित हो ब्रह्माजी ने भी पलटकर भयानक प्रहार किए। उनके पारस्परिक
आघातों से देवताओं में हलचल मच गई। वे घबराए और त्रिशूलधारी भगवान शिव के पास
गए और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। भगवान शिव अपनी सभा में उमा देवी सहित सिंहासन पर
विराजमान थे और मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
सातवां अध्याय
शिव निर्णय
महादेव जी बोले--पुत्रो! मैं जानता हूं कि तुम ब्रह्मा और विष्णु के परस्पर युद्ध से बहुत
दुखी हो। तुम डरो मत, मैं अपने गणों के साथ तुम्हारे साथ चलता हूं। तब भगवान शिव
अपने नंदी पर आरूढ़ हो, देवताओं सहित युद्धस्थल की ओर चल दिए। वहां छिपकर वे
ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को देखने लगे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि वे दोनों एक-दूसरे को मारने
की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपात अस्त्रो का प्रयोग करने जा रहे हैं तो वे युद्ध को शांत करने
के लिए महाअग्नि के तुल्य एक स्तंभ रूप में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य खड़े हो गए।
महाअग्ने के प्रकट होते ही दोनों के अस्त्र स्वयं ही शांत हो गए। अस्त्रों को शांत होते देखकर
ब्रह्मा और विष्णु दोनों कहने लगे कि इस आग्नि स्वरूप स्तंभ के बारे में हमें जानकारी करनी
चाहिए। दोनों ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। भगवान विष्णु ने शूकर रूप धारण
किया और उसको देखने के लिए नीचे धरती में चल दिए। ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके
ऊपर की ओर चल दिए। पाताल में बहुत नीचे जाने पर भी विष्णुजी को स्तंभ का अंत नहीं
मिला। अतः वे वापस चले आए। ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे उस
फूल को लेकर विष्णुजी के पास गए। विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। ब्रह्माजी के छल को
देखकर भगवान शिव प्रकट हुए। विष्णुजी की महानता से शिव प्रसन्न होकर बोले-हे
विष्णुजी! आप सत्य बोलते हैं। अतः मैं आपको अपनी समानता का अधिकार देता हूं।
आठवां अध्याय
ब्रह्मा का अभिमान भंग
नंदिकेश्वर बोले--महादेव जी ब्रह्माजी के छल पर अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने
त्रिनेत्र (तीसरी आंख) से भैरव को प्रकट किया और उन्हें आज्ञा दी कि वह तलवार से
ब्रह्माजी को दंड दें। आज्ञा पाते ही भैरव ने ब्रह्माजी के बाल पकड़ लिए और उनका पांचवां
सिर काट दिया। ब्रह्माजी डर के मारे कांपने लगे। उन्होंने भैरव के चरण पकड़ लिए तथा
क्षमा मांगने लगे। इसे देखकर श्रीविष्णु ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि आपकी कृपा से ही
ब्रह्माजी को पांचवां सिर मिला था। अतः आप इन्हें क्षमा कर दें। तब शिवजी की आज्ञा पाकर
ब्रह्मा को भैरव ने छोड़ दिया। शिवजी ने कहा तुमने प्रतिष्ठा और ईश्वरत्व को दिखाने के लिए
छल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सत्कार, स्थान व उत्सव से विहीन रहोगे।
ब्रह्माजी को अपनी गलती का पछतावा हो चुका था। उन्होंने भगवान शिव के चरण पकड़कर
क्षमा मांगी और निवेदन किया कि वे उनका पांचवां सिर पुनः प्रदान करें। महादेव जी ने कहा
जगत की स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए पापी को दंड अवश्य देना चाहिए, ताकि
लोक-मर्यादा बनी रहे। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम गणों के आचार्य कहलाओगे और
तुम्हारे बिना यज्ञ पूर्ण न होंगे।
फिर उन्होंने केतकी के पुष्प से कहा—अरे दुष्ट केतकी पुष्प! अब तुम मेरी पूजा के
अयोग्य रहोगे। तब केतकी पुष्प बहुत दुखी हुआ और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने
लगा। तब महादेव जी ने कहा-मेरा वचन तो झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तू मेरे भक्तों के
योग्य होगा। इस प्रकार तेरा जन्म सफल हो जाएगा।
नवा अध्याय
लिंग पूजन का महत्व
नंदिकेश्वर कहते हैं--ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव को प्रणाम कर चुपचाप उनके दाएं-
बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूजनीय महादेव जी को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर पवित्र
वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को “पुष्प वस्तु' तथा
अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को "प्राकृत वस्तु' कहते हैं। हार, नूपुर, कियूर, किरीट,
मणिमय कुंडल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका, पुष्प, तांबूल,
कपूर, चंदन एवं अगरु का अनुलेप, धूप, दीप, श्वेत छत्र, व्यंजन, ध्वजा, चंवर तथा अनेक
दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल परमात्मा
के योग्य थे, उनसे ब्रह्मा और विष्णु ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया। इससे प्रसन्न
होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा
पुत्रो! आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। इसी कारण यह दिन परम
पवित्र और महान होगा। यह तिथि “शिवरात्रि” के नाम से प्रसिद्ध होगी और मुझे परम प्रिय
होगी। इस दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप की या मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप
की दिन-रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा,
वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष भर निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है,
वह फल शिवरात्रि को मेरा पूजन करके मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा
का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार शिवरात्रि की तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का
समय है। इस तिथि को मेरी स्थापना का मंगलमय उत्सव होना चाहिए। मैं मार्गशीर्ष मास में
आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस
दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी
निकालता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है। इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से
पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाए तो इतना अधिक फल
प्राप्त होता है कि वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
लिंग रूप में प्रकट होकर मैं बहुत बड़ा हो गया था। अतः लिंग के कारण यह भूतल 'लिंग
स्थान' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें, इसके लिए
यह अनादि और अनंत ज्योति स्तंभ अथवा ज्योतिर्मय लिंग अत्यंत छोटा हो जाएगा। यह
लिंग सब प्रकार के भोग सुलभ कराने वाला तथा भोग और मोक्ष का एकमात्र साधन है।
इसका दर्शन, स्पर्श और ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु के कष्ट से छुड़ाने वाला है।
शिवलिंग के यहां प्रकट होने के कारण यह स्थान 'अरुणाचल' नाम से प्रसिद्ध होगा तथा यहां
बड़े-बड़े तीर्थ प्रकट होंगे। इस स्थान पर रहने या मरने से जीवों को मोक्ष प्राप्त होगा |
मेरे दो रूप हैं-साकार और निराकार। पहले मैं स्तंभ रूप में प्रकट हुआ। फिर अपने
साक्षात रूप में। “ब्रह्मभाव” मेरा निराकार रूप हे तथा “महेश्वरभाव' मेरा साक्षात रूप है। ये
दोनों ही मेरे सिद्ध रूप हैं। मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूं। जीवों पर अनुग्रह करना मेरा कार्य है।
मैं जगत की वृद्धि करने वाला होने के कारण 'ब्रह्म' कहलाता हूं। सर्वत्र स्थित होने के कारण
मैं ही सबकी आत्मा हूं। सर्ग से लेकर अनुग्रह तक जो जगत संबंधी पांच कृत्य हैं, वे सदा ही
मेरे हैं।
मेरी ब्रह्मरूपता का बोध कराने के लिए पहले लिंग प्रकट हुआ। फिर अज्ञात ईश्वरत्व का
साक्षात्कार कराने के लिए मैं जगदीश्वर रूप में प्रकट हो गया। मेरा सकल रूप मेरे ईशत्व का
और निष्कल रूप मेरे ब्रह्मस्वरूप का बोध कराता है। मेरा लिंग मेरा स्वरूप है और मेरे
सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।
मेरे लिंग की स्थापना करने वाले मेरे उपासक को मेरी समानता की प्राप्ति हो जाती है
तथा मेरे साथ एकत्व का अनुभव करता हुआ संसार सागर से मुक्त हो जाता है। वह जीते जी
परमानंद की अनुभूति करता हुआ, शरीर का त्याग कर शिवलोक को प्राप्त होता है अर्थात
मेरा ही स्वरूप हो जाता है। मूर्ति की स्थापना लिंग की अपेक्षा गौण है। यह उन भक्तों के
लिए है, जो शिवतत्व के अनुशीलन में सक्षम नहीं हैं।
दसवां अध्याय
प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा--प्रभो! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों
को बताइए।
भगवान शिव बोले-मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें
बता रहा हूं। “सृष्टि”, 'पालन', 'संहार', 'तिरोभाव' और 'अनुग्रह' मेरे जगत संबंधी पांच कार्य
हैं, जो नित्य सिद्ध हैं। संसार की रचना का आरंभ सृष्टि कहलाता है। मुझसे पालित होकर
सृष्टि का सुस्थिर रहना उसका पालन है। उसका विनाश ही 'संहार' है। प्राणों के उत्क्रमण को
'तिरोभाव' कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' अर्थात 'मोक्ष' है। ये
मेरे पांच कृत्य हैं। सृष्टि आदि चार कृत्य संसार का विस्तार करने वाले हैं। पांचवां कृत्य मोक्ष
का है। मेरे भक्तजन इन पांचों कार्यों को पांच भूतों में देखते हैं। सृष्टि धरती पर, स्थिति जल
में, संहार अग्ने में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि
होती है। जल से वृद्धि होती है। आग सबको जला देती है। वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर
ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। इन पांचों कृत्यों का भार वहन करने के
लिए ही मेरे पांच मुख हैं।
चार दिशाओं में चार मुख और इनके बीच में पांचवां मुख है। पुत्रो, तुम दोनों ने मुझे
तपस्या से प्रसन्न कर सृष्टि और पालन दो कार्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरी 'विभूतिस्वरूप
रुद्र' और 'महेश्वर' ने संहार और तिरोभाव कार्य मुझसे प्राप्त किए हैं परंतु मोक्ष मैं स्वयं
प्रदान करता हूं। मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार रूप
में प्रसिद्ध है। यह मंगलकारी मंत्र है। सर्वप्रथम मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ जो मेरे
स्वरूप का बोध कराता है। इसका स्मरण निरंतर करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का,
पूर्ववर्ती मुख से बिंदु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्रकटीकरण हुआ है। इस प्रकार इन
पांच अवयवों से ओंकार का विस्तार हुआ है। इन पांचों अवयवों के एकाकार होने पर प्रणव
'ॐ' नामक अक्षर उत्पन्न हुआ। जगत में उत्पन्न सभी स्त्री-पुरुष इस प्रणव-मंत्र में व्याप्त हैं।
यह मंत्र शिव-शक्ति दोनों का बोधक है। इसी से पंचाक्षर मंत्र ॐ नमः शिवाय' की उत्पत्ति
हुई है। यह मेरे साकार रूप का बोधक है।
इस पंचाक्षर-मंत्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं। इसी से शिरोमंत्र
सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। इस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए और उन वेदों
से करोड़ों मंत्र निकले हैं। उन मंत्रों से विभिन्न कार्यों की सिद्धि होती है। इस पंचाक्षर प्रणव
मंत्र से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। इस मंत्र से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं।
नंदिकेश्वर कहते है-जगदंबा उमा गौरी पार्वती के साथ बैठे महादेव ने उत्तरवर्ती मुख बैठे
ब्रह्मा और विष्णु को परदा करने वाले वस्त्र से आच्छादित कर उनके मस्तक पर अपना हाथ
रखकर धीरे-धीरे उच्चारण कर उन्हें उत्तम मंत्र का उपदेश दिया। तीन बार मंत्र का उच्चारण
करके भगवान शिव ने उन्हें शिष्यों के रूप में दीक्षा दी। गुरुदक्षिणा के रूप में दोनों ने अपने
आपको समर्पित करते हुए दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो, जगदगुरु भगवान शिव
की इस प्रकार स्तुति करने लगे।
ब्रह्मा-विष्णु बोले-प्रभो! आपके साकार और निराकार दो रूप हें आप तेज से
प्रकाशित हैं, आप सबके स्वामी हैं, आप सर्वात्मा को नमस्कार है। आप प्रणव मंत्र के बताने
वाले हैं तथा आप ही प्रणव लिंग वाले हैं। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि
आपके ही कार्य हैं। आपके पांच मुख हैं, आप ही परमेश्वर हैं, आप सबकी आत्मा हैं, ब्रह्म हैं।
आपके गुण और शक्तियां अनंत हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं।
इन पंक्तियों से स्तुति करते हुए गुरु महेश्वर को प्रसन्न कर ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों
में प्रणाम किया।
महेश्वर बोले-आर्द्रा नक्षत्र में चतुर्दशी को यदि इस प्रणव मंत्र का जप किया जाए तो यह
अक्षय फल देने वाला है। सूर्य की संक्रांति में महा आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया प्रणव जप
करोड़ों गुना जप का फल देता है। 'मृगशिरा' नक्षत्र का अंतिम भाग तथा “पुनर्वसु' का शुरू
का भाग पूजा, होम और तर्पण के लिए सदा आर्द्रा के समान ही है। मेरे लिंग का दर्शन प्रातः
काल अर्थात मध्यान्ह से पूर्वकाल में करना चाहिए। मेरे दर्शन-पूजन के लिए चतुर्दशी तिथि
उत्तम है। पूजा करने वालों के लिए मेरी मूर्ति और लिंग दोनों समान हैं। फिर भी मूर्ति की
अपेक्षा लिंग का स्थान ऊंचा है। इसलिए मनुष्यों को शिवलिंग का ही पूजन करना चाहिए।
लिंग का 'ॐ' मंत्र से और मूर्ति का पंचाक्षर मंत्र से पूजन करना चाहिए। शिवलिंग की स्वयं
स्थापना करके या दूसरों से स्थापना करवाकर उत्तम ट्रव्यों से पूजा करने से मेरा पद सुलभ
होता है। इस प्रकार दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।
ग्यारहवा अध्याय
शिवलिंग की स्थापना और पूजन-विधि का वर्णन
ऋषियों ने पूछा--सूत जी! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिए तथा उसकी पूजा
कैसे, किस काल में तथा किस द्रव्य द्वारा करनी चाहिए?
सूत जी ने कहा--महर्षियो! मैं तुम लोगों के लिए इस विषय का वर्णन करता हूं, इसे
ध्यान से सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में, नदी के तट पर,
ऐसी जगह पर शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए जहां रोज पूजन कर सके। पार्थिव द्रव्य
से, जलमय द्रव्य से अथवा तेजस द्रव्य से पूजन करने से उपासक को पूजन का पूरा फल
प्राप्त होता है। शुभ लक्षणों में पूजा करने पर यह तुरंत फल देने वाला है। चल प्रतिष्ठा के लिए
छोटा शिवलिंग श्रेष्ठ माना जाता है। अचल प्रतिष्ठा हेतु बड़ा शिवलिंग अच्छा रहता है।
शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिए। शिवलिंग की पीठ गोल, चौकोर, त्रिकोण
अथवा खाट के पाए की भांति ऊपर नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिए। ऐसा लिंग-
पीठ महान फल देने वाला होता है। पहले मिट्टी अथवा लोहे से शिवलिंग का निर्माण करना
चाहिए। जिस द्रव्य से लिंग का निर्माण हो उसी से उसका पीठ बनाना चाहिए। यही अचल
प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग की विशेषता है। चल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग में लिंग व प्रतिष्ठा एक ही
तत्व से बनानी चाहिए। लिंग की लंबाई स्थापना करने वाले मनुष्य के बारह अंगुल के बराबर
होनी चाहिए। इससे कम होने पर फल भी कम प्राप्त होता है। परंतु बारह अंगुल से लंबाई
अधिक भी हो सकती है। चल लिंग में लंबाई स्थापना करने वाले के एक अंगुल के बराबर
होनी चाहिए उससे कम नहीं। यजमान को चाहिए कि पहले वह शिल्प शास्त्र के अनुसार
देवालय बनवाए तथा उसमें सभी देवगणों की मूर्ति स्थापित करे। देवालय का गर्भगृह सुंदर,
सुदृढ़ और स्वच्छ होना चाहिए। उसमें पूर्व और पश्चिम में दो मुख्य द्वार हों। जहां शिवलिंग
की स्थापना करनी हो उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा,
गोमेद और हीरा इन नौ रत्नों को वैदिक मंत्रों के साथ छोड़े। पांच वैदिक मंत्रों द्वारा पांच
स्थानों से पूजन करके अग्ने में आहुति दें और परिवार सहित मेरी पूजा करके आचार्य को
धन से तथा भाई-बंधुओं को मनचाही वस्तु से संतुष्ट करें। याचकों को सुवर्ण, गृह एवं भू-
संपत्ति तथा गाय आदि प्रदान करें।
स्थावर जंगम सभी जीवों को यत्नपूर्वक संतुष्ट कर एक गडे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के
रत्न भरकर वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेव जी का ध्यान करें।
तत्पश्चात नाद घोष से युक्त महामंत्र ओंकार (ॐ) का उच्चारण करके गड्ढे में पीठयुक्त
शिवलिंग की स्थापना करें। वहां परम सुंदर मूर्ति की भी स्थापना करनी चाहिए तथा भूमि-
संस्कार की विधि जिस प्रकार शिवलिंग के लिए की गई है, उसी प्रकार मूर्ति की प्रतिष्ठा भी
करनी चाहिए। मूर्ति की स्थापना अर्थात प्रतिष्ठा पंचाक्षर मंत्र से करनी चाहिए। मूर्ति को बाहर
से भी लिया जा सकता है, परंतु वह साधु पुरुषों द्वारा पूजित हो। इस प्रकार शिवलिंग व मूर्ति
द्वारा की गई महादेव जी की पूजा शिवपद प्रदान करने वाली है। स्थावर और जंगम से लिंग
भी दो तरह का हो गया है। वृक्ष लता आदि को 'स्थावर लिंग" कहते हैं और कृमि कीट आदि
को 'जंगम लिंग”। स्थावर लिंग को सींचना चाहिए तथा जंगम लिंग को आहार एवं जल देकर
तृप्त करना चाहिए। यों चराचर जीवों को भगवान शंकर का प्रतीक मानकर उनका पूजन
करना चाहिए।
इस तरह महालिंग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका रोज पूजन करें तथा
देवालय के पास ध्वजारोहण करें। शिवलिंग साक्षात शिव का पद प्रदान करने वाला है।
आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप,
दीप, नैवेद्य, तांबूल, समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन ये सोलह उपचार हैं। इनके
द्वारा पूजन करें। इस तरह किया गया भगवान शिव का पूजन शिवपद की प्राप्ति कराने वाला
है। सभी शिवलिंगों की स्थापना के उपरांत, चाहे वे मनुष्य द्वारा स्थापित, ऋषियों या
देवताओं द्वारा अथवा अपने आप प्रकट हुए हों, सभी का उपर्युक्त विधि से पूजन करना
चाहिए, तभी फल प्राप्त होता है। उसकी परिक्रमा और नमस्कार करने से शिवपद की प्राप्ति
होती है। शिवलिंग का नियमपूर्वक दर्शन भी कल्याणकारी होता है। मिट्टी, आटा, गाय के
गोबर, फूल, कनेर पुष्प, फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से शिवलिंग बनाकर प्रतिदिन
पूजन करें तथा प्रतिदिन दस हजार प्रणव-मंत्रों का जाप करें अथवा दोनों संध्याओं के समय
एक सहस्र प्रणव मंत्रों का जाप करें। इससे भी शिव पद की प्राप्ति होती है।
जपकाल में प्रणव मंत्र का उच्चारण मन की शुद्धि करता है। नाद और बिंदु से युक्त
ओंकार को कुछ विद्वान “समान प्रणव' कहते हैं। प्रतिदिन दस हजार पंचाक्षर मंत्र का जाप
अथवा दोनों संध्याओं को एक सहस्र मंत्र का जाप शिव पद की प्राप्ति कराने वाला है। सभी
ब्राह्मणों के लिए प्रणव से युक्त पंचाक्षर मंत्र अति फलदायक है। कलश से किया स्नान, मंत्र
की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्य से पवित्र अंतःकरण, ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु, सभी को
उत्तम माना गया है। पंचाक्षर मंत्र का पांच करोड़ जाप करने से मनुष्य भगवान शिव के
समान हो जाता है। एक, दो, तीन, अथवा चार करोड़ जाप करके मनुष्य क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त कर लेता है। यदि एक हजार दिनों तक प्रतिदिन एक सहस्र
जाप पंचाक्षर मंत्रों का किया जाए और प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन कराया जाए तो इससे
अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है।
ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातःकाल एक हजार आठ बार गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए
क्योंकि गायत्री मंत्र शिव पद की प्राप्ति कराता है। वेदमंत्रों और वैदिक सूक्तियों का भी नियम
से जाप करें। अन्य मंत्रों में जितने अक्षर हैं उनके उतने लाख जाप करें। इस प्रकार यथाशक्ति
जाप करने वाला मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। अपनी पसंद से कोई एक मंत्र अपनाकर
प्रतिदिन उसका जाप करें अथवा ॐ का नित्य एक सहस्र जाप करें। ऐसा करने से संपूर्ण
मनोरथों की सिद्धि होती है।
जो मनुष्य भगवान शिव के लिए फुलवाड़ी या बगीचे लगाता है तथा शिव मंदिर में
झाड़ने-बुहारने का सेवा कार्य करता है ऐसे शिवभक्त को पुण्यकर्म की प्राप्ति होती है, अंत
समय में भगवान शिव उसे मोक्ष प्रदान करते हैं। काशी में निवास करने से भी योग और मोक्ष
की प्राप्ति होती है। इसलिए आमरण भगवान शिव के क्षेत्र में निवास करना चाहिए। उस क्षेत्र
में स्थित बावड़ी, तालाब, कुंआ और पोखर को शिवलिंग समझकर वहां स्नान, दान और
जाप करके मनुष्य भगवान शिव को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य शिव के क्षेत्र में अपने
किसी मृत संबंधी का दाह, दशाह, मासिक श्राद्ध अथवा वार्षिक श्राद्ध करता है अथवा अपने
पितरों को पिण्ड देता है, वह तत्काल सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में शिवपद
प्राप्त करता है। लोक में अपने वर्ण के अनुसार आचरण करने व सदाचार का पालन करने से
शिव पद की प्राप्ति होती है। निष्काम भाव से किया गया कार्य अभीष्ट फल देने वाला एवं
शिवपद प्रदान करने वाला होता है।
दिन के प्रातः, मध्याह्ल और सायं तीन विभाग होते हैं। इनमें सभी को एक-एक प्रकार के
कर्म का प्रतिपादन करना चाहिए। प्रातःकाल रोजाना दैनिक शास्त्र कर्म, मध्याह्ल सकाम कर्म
तथा सायंकाल शांति कर्म के लिए पूजन करना चाहिए। इसी प्रकार रात्रि में चार प्रहर होते हैं,
उनमें से बीच के दो प्रहर निशीथकाल कहलाते है-इसी काल में पूजा करनी चाहिए, क्योंकि
यह पूजा अभीष्ट फल देने वाली है। कलियुग में कर्म द्वारा ही फल की सिद्धि होगी। इस
प्रकार विधिपूर्वक और समयानुसार भगवान शिव का पूजन करने वाले मनुष्य को अपने
कर्मों का पूरा फल मिलता है।
ऋषियों ने कहा--सूत जी! ऐसे पुण्य क्षेत्र कौन-कौन से हैं? जिनका आश्रय लेकर सभी
स्त्री-पुरुष शिवपद को प्राप्त कर लें? कृपया कर हमें बताइए।
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बारहवां अध्याय
मोक्षदायक पुण्य क्षेत्रों का वर्णन
सूत जी बोले--हे विद्वान और बुद्धिमान महर्षियो! मैं मोक्ष देने वाले शिवक्षेत्रों का वर्णन
कर रहा हूं। पर्वत, वन और काननों सहित इस पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन है।
भगवान शिव की इच्छा से पृथ्वी ने सभी को धारण किया है। भगवान शिव ने भूतल पर
विभिन्न स्थानों पर वहां के प्राणियों को मोक्ष देने के लिए शिव क्षेत्र का निर्माण किया है। कुछ
क्षेत्रों को देवताओं और ऋषियों ने अपना निवास स्थान बनाया है। इसलिए उसमें तीर्थत्व
प्रकट हो गया है। बहुत से तीर्थ ऐसे हैं, जो स्वयं प्रकट हुए हैं। तीर्थ क्षेत्र में जाने पर मनुष्य
को सदा स्नान, दान और जाप करना चाहिए अन्यथा मनुष्य रोग, गरीबी तथा मूकता आदि
दोषों का भागी हो जाता है। जो मनुष्य अपने देश में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह इस पुण्य के
फल से दुबारा मनुष्य योनि प्राप्त करता है। परंतु पापी मनुष्य दुर्गति को ही प्राप्त करता है। हे
ब्राह्मणो! पुण्यक्षेत्र में किया गया पाप कर्म, अधिक दृढ़ हो जाता है। अतः पुण्य क्षेत्र में
निवास करते समय पाप कर्म करने से बचना चाहिए।
सिंधु और सतलुज नदी के तट पर बहुत से पुण्य क्षेत्र हैं। सरस्वती नदी परम पवित्र और
साठ मुखवाली है अर्थात उसकी साठ धाराएं हैं। इन धाराओं के तट पर निवास करने से परम
पद की प्राप्ति होती है। हिमालय से निकली हुई पुण्य सलिला गंगा सौ मुख वाली नदी है।
इसके तट पर काशी, प्रयाग आदि पुण्य क्षेत्र हैं। मकर राशि में सूर्य होने पर गंगा की तटभूमि
अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है। सोनभद्र नदी की दस धाराएं हैं। बृहस्पति के
मकर राशि में आने पर यह अत्यंत पवित्र तथा अभीष्ट फल देने वाली है। इस समय यहां
स्नान और उपवास करने से विनायक पद की प्राप्ति होती है। पुण्य सलिला महानदी नर्मदा
के चौबीस मुख हैं। इसमें स्नान करके तट पर निवास करने से मनुष्य को वैष्णव पद की
प्राप्ति होती है। तमसा के बारह तथा रेवा के दस मुख हैं। परम पुण्यमयी गोदावरी के इक्कीस
मुख हैं। यह ब्रह्महत्या तथा गोवध पाप का नाश करने वाली एवं रुद्रलोक देने वाली है।
कृष्णवेणी नदी समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसके अठारह मुख हैं तथा यह
विष्णुलोक प्रदान करने वाली है। तुंगभद्रा दस मुखी है एवं ब्रह्मलोक देने वाली है। सुवर्ण
मुखरी के नौ मुख हैं। ब्रह्मलोक से लौटे जीव इसी नदी के तट पर जन्म लेते हैं। सरस्वती
नदी, पंपा सरोवर, कन्याकुमारी अंतरीप तथा शुभकारक श्वेत नदी सभी पुण्य क्षेत्र हैं। इनके
तट पर निवास करने से इंद्रलोक की प्राप्ति होती है। महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है।
इसके सत्ताईस मुख हैं। यह संपूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है। इसके तट ब्रह्मा, विष्णु
का पद देने वाले हैं। कावेरी के जो तट शैव क्षेत्र के अंतर्गत हैं, वे अभीष्ट फल तथा शिवलोक
प्रदान करने वाले हैं।
नैमिषारण्य तथा बदरिकाश्रम में सूर्य और बृहस्पति के मेष राशि में आने पर स्नान और
पूजन करने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। सिंह और कर्क राशि में सूर्य की संक्रांति होने पर
सिंधु नदी में किया स्नान तथा केदार तीर्थ के जल का पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना जाता
है। बृहस्पति के सिंह राशि में स्थित होने पर भाद्रमास में गोदावरी के जल में स्नान करने से
शिवलोक की प्राप्ति होती है, ऐसा स्वयं भगवान शिव ने कहा था। सूर्य और बृहस्पति के
कन्या राशि में स्थित होने पर यमुना और सोनभद्र में स्नान से धर्मराज और गणेश लोक में
महान भोग की प्राप्ति होती है, ऐसी महर्षियों की मान्यता है। सूर्य और बृहस्पति के तुला
राशि में होने पर कावेरी नदी में स्नान करने से भगवान विष्णु के वचन की महिमा से अभीष्ट
फल की प्राप्ति होती है। मार्गशीर्ष माह में, सूर्य और बृहस्पति के वृश्चिक राशि में आने पर,
नर्मदा में स्नान करने से विष्णु पद की प्राप्ति होती है। सूर्य और बृहस्पति के धनु राशि में होने
पर सुवर्ण मुखरी नदी में किया स्नान शिवलोक प्रदान करने वाला है। मकर राशि में सूर्य और
बृहस्पति के माघ मास में होने पर गंगाजी में किया गया स्नान शिवलोक प्रदान कराने वाला
है। शिवलोक के पश्चात ब्रह्मा और विष्णु के स्थानों में सुख भोगकर अंत में मनुष्य को ज्ञान
की प्राप्ति होती है। माघ मास में सूर्य के कुंभ राशि में होने पर फाल्गुन मास में गंगा तट पर
किया श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदक दान पिता और नाना, दोनों कुलों के पितरों की
अनेकों पीढ़ियों का उद्धार करने वाला है। गंगा व कावेरी नदी का आश्रय लेकर तीर्थवास
करने से पाप का नाश हो जाता है।
ताम्रपर्णी और वेगवती नदियां ब्रह्मलोक की प्राप्ति रूप फल देने वाली हैं। इनके तट पर
स्वर्गदायक क्षेत्र हैं। इन नदियों के मध्य में बहुत से पुण्य क्षेत्र हैं। यहां निवास करने वाला
मनुष्य अभीष्ट फल का भागी होता है। सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सदभावना के साथ मन में
दयाभाव रखते हुए विद्वान पुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिए अन्यथा उसे फल नहीं
मिलता। पुण्य क्षेत्र में जीवन बिताने का निश्चय करने पर तथा वास करने पर पहले का सारा
पाप तत्काल नष्ट हो जाएगा। क्योंकि पुण्य को ऐश्वर्यदायक कहा जाता है। है ब्राह्मणो! तीर्थ
में वास करने पर उत्पन्न पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक--सभी पापों का नाश कर
देता है। तीर्थ में किया मानसिक पाप कई कल्पो तक पीछा नहीं छोड़ता, यह केवल ध्यान से
ही नष्ट होता है। 'वाचिक' पाप जाप से तथा 'कायिक' पाप शरीर को सुखाने जैसे कठोर तप
से नष्ट होता है। अतः सुख चाहने वाले पुरुष को देवताओं की पूजा करते हुए और ब्राह्मणों
को दान देते हुए, पाप से बचकर ही तीर्थ में निवास करना चाहिए।
तेरहवां अध्याय
सदाचार, संध्यावंदन, प्रणव, गायत्री जाप
एवं अग्निहोत्र की विधि तथा महिमा
ऋषियों ने कहा--सूत जी! आप हमें वह सदाचार सुनाइए जिससे विद्वान पुरुष पुण्य
लोकों पर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्ममय तथा नरक का कष्ट देने वाले
अधर्ममय आचारों का वर्णन कीजिए।
सूत जी बोले-सदाचार का पालन करने वाला मनुष्य ही “ब्राह्मण” कहलाने का
अधिकारी है। वेदों के अनुसार आचार का पालन करने वाले एवं वेद के अभ्यासी ब्राह्मण को
'विप्र' कहते हैं। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या गुणों से युक्त होने पर उसे 'द्विज' कहते हैं।
वेदों का कम आचार तथा कम अध्ययन करने वाले एवं राजा के पुरोहित अथवा सेवक
ब्राह्मण को क्षत्रिय ब्राह्मण' कहते हैं। जो ब्राह्मण कृषि या वाणिज्य कर्म करने वाला है तथा
ब्राह्मणोचित आचार का भी पालन करता है वह 'वैश्य ब्राह्मण" है तथा स्वयं खेत जोतने
वाला 'शूद्र-ब्राह्मण' कहलाता है। जो दूसरों के दोष देखने वाला तथा परद्रोही है उसे
चाण्डाल-द्विज' कहते हैं। क्षत्रियों में जो पृथ्वी का पालन करता है, वह राजा है तथा अन्य
मनुष्य राजत्वहीन क्षत्रिय माने जाते हैं। जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है, वह
वैश्य” कहलाता है। दूसरों को 'वणिक' कहते हैं। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा में
लगा रहता है 'शूद्र कहलाता है। जो शूद्र हल जोतता है, उसे 'वृषल' समझना चाहिए। इन
सभी वर्णो के मनुष्यों को चाहिए कि वे ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पूर्व की ओर मुख करके देवताओं
का, धर्म का, अर्थ का, उसकी प्राप्ति के लिए उठाए जाने वाले क्लेशों का तथा आय और
व्यय का चिंतन करें।
रात के अंतिम प्रहर के मध्य भाग में मनुष्य को उठकर मल-मूत्र त्याग करना चाहिए। घर
से बाहर शरीर को ढककर जाकर उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्र का त्याग करें। जल, अग्नि
ब्राह्मण तथा देवताओं का स्थान बचाकर बैठें। उठने पर उस ओर न देखें। हाथ-पैरों की शुद्धि
करके आठ बार कुल्ला करें। किसी वृक्ष के पत्ते से दातुन करें। दातुन करते समय तर्जनी
अंगुली का उपयोग नहीं करें। तदंतर जल-संबंधी देवताओं को नमस्कार कर मंत्रपाठ करते
हुए जलाशय में स्नान करें। यदि कंठ तक या कमर तक पानी में खड़े होने की शक्ति न हो तो
घुटने तक जल में खड़े होकर ऊपर जल छिड़ककर मंत्रोच्चारण करते हुए स्नान कर तर्पण
करें। इसके उपरांत वस्त्र धारण कर उत्तरीय भी धारण करें। नदी अथवा तीर्थ में स्नान करने
पर उतारे हुए वस्त्र वहां न धोएं। उसे किसी कुंए, बावड़ी अथवा घर ले जाकर धोएं। कपड़ों
को निचोड़ने से जो जल गिरता है, वह एक श्रेणी के पितरों की तृप्ति के लिए होता है। इसके
बाद जाबालि उपनिषद में बताए गए मंत्र से भस्म लेकर लगाएं। इस विधि का पालन करने से
पूर्व यदि भस्म गिर जाए तो गिराने वाला मनुष्य नरक में जाता है। 'आपो हिष्ठा' मंत्र से पाप
शांति के लिए सिर पर जल छिड़ककर 'यस्य क्षयाय' मंत्र पढ़कर पैर पर जल छिड़कें। 'आपो
हिष्ठा' में तीन ऋचाएं हैं। पहली ऋचा का पाठ कर पैर, मस्तक और हृदय में जल छिड़कें।
दूसरी ऋचा का पाठ कर मस्तक, हृदय और पैर पर जल छिड़कें तथा तीसरी ऋचा का पाठ
करके हृदय, मस्तक और पैर पर जल छिड़कें। इस प्रकार के स्नान को “मंत्र स्नान' कहते हैं।
किसी अपवित्र वस्तु से स्पर्श हो जाने पर, स्वास्थ्य ठीक न रहने पर, यात्रा में या जल
उपलब्ध न होने की दशा में, मंत्र स्नान करना चाहिए।
प्रातःकाल की संध्योपासना में “गायत्री मंत्र' का जाप करके तीन बार सूर्य को अर्घ्य दें।
मध्यान्ह में गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सूर्य को एक अर्घ्य देना चाहिए। सायंकाल में पश्चिम
की ओर मुख करके पृथ्वी पर ही सूर्य को अर्घ्य दें। सायंकाल में सूर्यास्त से दो घड़ी पहले की
गई संध्या का कोई महत्व नहीं होता। ठीक समय पर ही संध्या करनी चाहिए। यदि
संध्योपासना किए बिना एक दिन बीत जाए तो उसके प्रायश्चित हेतु अगली संध्या के समय
सौ गायत्री मंत्र का जाप करें। दस दिन छूटने पर एक लाख तथा एक माह छूटने पर अपना
“उपनयन संस्कार" कराएं।
अर्थसिद्धि के लिए ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चंद्रमा और यम व अन्य देवताओं
का शुद्ध जल से तर्पण करें। तीर्थ के दक्षिण में, मंत्रालय में, देवालय में अथवा घर में आसन
पर बैठकर अपनी बुद्धि को स्थिर कर देवताओं को नमस्कार कर प्रणव मंत्र का जाप करने
के पश्चात गायत्री मंत्र का जाप करें। प्रणव के 'अ', 'उ' और 'म' तीनों अक्षरों में जीव और
ब्रह्मा की एकता का प्रतिपादन होता है। अतः प्रणव मंत्र का जाप करते समय मन में यह
भावना होनी चाहिए कि हम तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु
तथा संहार करने वाले रुद्र की उपासना कर रहे हैं। यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कमेँद्रियों,
ज्ञानेंद्रियों, मन की वृत्तियों तथा बुद्धिवृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म
एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करें। जो मनुष्य प्रणव मंत्र के अर्थ का चिंतन करते हुए इसका जाप
करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्मा को प्राप्त करते हैं तथा जो मनुष्य बिना अर्थ जाने प्रणव मंत्र का
जाप करते हैं, उनको 'ब्राह्मणत्व' की पूर्ति होती है। इस हेतु श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन
प्रातःकाल एक सहस्र गायत्री-मंत्र का जाप करना चाहिए। मध्याह्न में सौ बार तथा सायं
अट्टाईस बार जाप करें। अन्य वर्णो के मनुष्यों को सामर्थ्य के अनुसार जाप करना चाहिए।
हमारे शरीर के भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, आज्ञा और सहस्रार नामक
छः चक्र हैं। इन चक्रों में क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं।
सदभावनापूर्वक श्वास के साथ 'सोऽहं' का जाप करें। सहस्र बार किया गया जाप ब्रह्मलोक
प्रदान करने वाला है। सौ बार किए जाप से इंद्र पद की प्राप्ति होती है। आत्मरक्षा के लिए जो
मनुष्य अल्प मात्रा में इसका जाप करता है, वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है। बारह लाख
गायत्री का जाप करने वाला मनुष्य “ब्राह्मण” कहा जाता है। जिस ब्राह्मण ने एक लाख
गायत्री का भी जप न किया हो उसे वैदिक कार्यो में न लगाएं। यदि एक दिन उल्लंघन हो
जाए तो अगले दिन उसके बदले में उतने अधिक मंत्रों का जाप करना चाहिए। ऐसा करने से
दोषों की शांति होती है। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, अर्थ से भोग सुलभ होता है। भोग से
वैराग्य की संभावना होती है। धर्मपूर्वक उपार्जित धन से भोग प्राप्त होता है, उससे भोगों के
प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धर्म से धन पाता है एवं तपस्याओं से दिव्य रूप प्राप्त
करता है। कामनाओं का त्याग करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, उस शुद्धि से ज्ञान का
उदय होता है।
सतयुग में 'तप' को तथा कलियुग में 'दान' को धर्म का अच्छा साधन माना गया है।
सतयुग में 'ध्यान' से, त्रेता में 'तपस्या' से और द्वापर में “यज्ञ” करने से ज्ञान की सिद्धि होती
है। परंतु कलियुग में प्रतिमा की पूजा से ज्ञान लाभ होता है। अधर्म, हिंसात्मक और दुख देने
वाला है। धर्म से सुख व अभ्युदय की प्राप्ति होती है। दुराचार से दुख तथा सदाचार से सुख
मिलता है। अतः भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए धर्म का उपार्जन करना चाहिए। किसी
ब्राह्मण को सौ वर्ष के जीवन निर्वाह की सामग्री देने पर ही ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। एक
सहस्र चांद्रायण व्रत का अनुष्ठान ब्रह्मलोक दायक माना जाता है। दान देने वाला पुरुष जिस
देवता को सामने रखकर दान करता है अर्थात जिस देवता को वह दान द्वारा प्रसन्न करना
चाहता है, उसी देवता का लोक उसे प्राप्त होता है। धनहीन पुरुष तपस्या कर अक्षय सुख को
प्राप्त कर सकते हैं।
ब्राह्मण को दान ग्रहण कर तथा यज्ञ करके धन का अर्जन करना चाहिए। क्षत्रिय बाहुबल
से तथा वैश्य कृषि एवं गोरक्षा से धन का उपार्जन करें। इस प्रकार न्याय से उपार्जित धन को
दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है एवं ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति सुलभ
होती है।
गृहस्थ मनुष्य को धन-धान्य आदि सभी वस्तुओं का दान करना चाहिए। जिसके अन्न को
खाकर मनुष्य कथा श्रवण तथा सदकर्म का पालन करता है तो उसका आधा फल दाता को
मिलता है। दान लेने वाले मनुष्य को दान में प्राप्त वस्तु का दान तथा तपस्या द्वारा पाप की
शुद्धि करनी चाहिए। उसे अपने धन के तीन भाग करने चाहिए-एक धर्म के लिए, दूसरा
वृद्धि के लिए एवं तीसरा उपभोग के लिए। धर्म के लिए रखे धन से नित्य, नैमित्तिक और
इच्छित कार्य करें। वृद्धि के लिए रखे धन से ऐसा व्यापार करें, जिससे धन की प्राप्ति हो तथा
उपभोग के धन से पवित्र भोग भोगें। खेती से प्राप्त धन का दसवां भाग दान कर दें। इससे
पाप की शुद्धि होती है। वृद्धि के लिए किए गए व्यापार से प्राप्त धन का छठा भाग दान देना
चाहिए।
विद्वान को चाहिए कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे। ब्राह्मण भी दोषवश दूसरों के
सुने या देखे हुए छिद्र को कभी प्रकट न करे। विद्वान पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त
प्राणियों के हृदय में रोष पैदा करने वाली हो। दोनों संध्याओं के समय अग्ने को विधिपूर्वक
दी हुई आहुति से संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य के द्वारा स्थालीपाक
बनाए तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्नि को अर्पित करे। यदि दोनों समय अग्निहोत्र
करने में असमर्थ हो तो संध्या के समय जाप और सूर्य की वंदना कर ले। आत्मज्ञान की इच्छा
रखने वाले तथा धनी पुरुषों को इसी प्रकार उपासना करनी चाहिए। जो मनुष्य सदा ब्रह्मयज्ञ
करते हैं, देवताओं की पूजा, अग्निपूजा और गुरुपूजा प्रतिदिन करते हैं तथा ब्राह्मणों को
भोजन तथा दक्षिणा देते हैं, वे स्वर्गलोक के भागी होते हैं।
चौदहवां अध्याय
अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का वर्णन
ऋषियों ने कहा--प्रभो! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का वर्णन करके हमें कृतार्थ करें।
सूत जी बोले--महर्षियो! गृहस्थ पुरुषों के लिए प्रातः: और सायंकाल अग्नि में दो चावल
और द्रव्य की आहुति ही अग्नियज्ञ है। ब्रह्मचारियों के लिए समिधा का देना ही अग्नियज्ञ है
अर्थात अग्ने में सामग्री की आहुति देना उनके लिए अग्नियज्ञ है। द्विजों का जब तक विवाह
न हो जाए, उनके लिए अग्ने में समिधा की आहुति, व्रत तथा जाप करना ही अग्नियज्ञ है।
द्विजो! जिसने अग्नि को विसर्जित कर उसे अपनी आत्मा में स्थापित कर लिया है, ऐसे
वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए यही अग्नियज्ञ है कि वे समय पर हितकर और पवित्र
अन्न का भोजन कर लें। ब्राह्मणो! सायंकाल अग्नि के लिए दी आहुति से संपत्ति की प्राप्ति
होती है तथा प्रातःकाल सूर्यदेव को दी आहुति से आयु की वृद्धि होती है। दिन में अग्निदेव
सूर्य में हो प्रविष्ट हो जाते हैं। अतः प्रात:काल सूर्य को दी आहुति अग्नियज्ञ के समान ही होती
|
इंद्र आदि समस्त देवताओं को प्राप्त करने के उददेश्य से जो आहुति अग्नि में दी जाती है,
वह देवयज्ञ कहलाती है। लौकिक अग्ने में प्रतिष्ठित जो संस्कार-निमित्तिक हवन कर्म है, वह
देवयज्ञ है। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नियम से विधिपूर्वक किया गया यज्ञ ही देवयज्ञ
है। वेदों के नित्य अध्ययन और स्वाध्याय को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं। मनुष्य को देवताओं की तृप्ति
के लिए प्रतिदिन ब्रह्मयज्ञ करना चाहिए। प्रातःकाल और सायंकाल को ही इसे किया जा
सकता है
अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे होता है? इसे श्रद्धा और आदर से सुनो। सृष्टि के आरंभ में
सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ महादेव शिवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिए वारों की कल्पना
की। भगवान शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिए वैद्य हैं। सबके ज्ञाता तथा समस्त
औषधियों के औषध हैं। भगवान शिव ने सबसे पहले अपने वार की रचना की जो आरोग्य
प्रदान करने वाला है। तत्पश्चात अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो संपत्ति प्रदान करने
वाला है। जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिए कुमार के वार की कल्पना की।
आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक
भगवान विष्णु का वार बनाया। इसके बाद शिवजी ने पुष्टि और रक्षा के लिए आयुःकर्ता
त्रिलोकसृष्टा परमेष्टी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया। तीनों लोकों की वृद्धि के लिए पहले
पुण्य-पाप की रचना होने पर लोगों को शुभाशुभ फल देने वाले इंद्र और यम के वारों का
निर्माण किया। ये वार भोग देने वाले तथा मृत्युभय को दूर करने वाले हैं। इसके उपरांत
भगवान शिव ने सात ग्रहों को इन वारों का स्वामी निश्चित किया। ये सभी ग्रह-नक्षत्र
ज्योतिर्मय मंडल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार के स्वामी सूर्य हैं। शक्ति संबंधी वार के स्वामी
सोम, कुमार संबंधी वार के अधिपति मंगल, विष्णुवार के स्वामी बुद्ध, ब्रह्माजी के वार के
स्वामी बृहस्पति, इंद्रवार के स्वामी शुक्र व यमवार के स्वामी शनि हैं। अपने-अपने वार में की
गई देवताओं की पूजा उनके फलों को देने वाली है।
सूर्य आरोग्य और चंद्रमा संपत्ति के दाता हैं। बुद्ध व्याधियों के निवारक तथा बुद्धि प्रदाता
हैं। बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं और शनि मृत्यु का निवारण करते हैं।
इन सातों वारों के फल उनके देवताओं के पूजन से प्राप्त होते हैं। अन्य देवताओं की पूजा का
फल भी भगवान शिव ही देते हैं। देवताओं की प्रसन्नता के लिए पूजा की पांच पद्धतियां हैं।
पहले उन देवताओं के मंत्रों का जाप, दूसरा होम, तीसरा दान, चौथा तप तथा पांचवां वेदी पर
प्रतिमा में अग्नि अथवा ब्राह्मण के शरीर में विशिष्ट देव की भावना करके सोलह उपचारों से
पूजा तथा आराधना करना।
दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग में और कुष्ठ रोग की शांति के लिए भगवान सूर्य की पूजा
करके ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाए तो जरा एवं
रोगों का नाश हो जाता है। इष्टदेव के नाम मंत्रों का जाप वार के अनुसार फल देते हैं। रविवार
को सूर्य देव व अन्य देवताओं के लिए तथा अन्य ब्राह्मणों के लिए विशिष्ट वस्तु अर्पित करें।
यह साधन विशिष्ट फल देने वाला होता है तथा इसके द्वारा पापों की शांति होती है। सोमवार
को संपत्ति व लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी की पूजा करें तथा पत्नी के साथ ब्राह्मणों को
घी में पका अन्न भोजन कराएं। मंगलवार को रोगों की शांति के लिए काली की पूजा करें।
उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल से युक्त अन्न का भोजन ब्राह्मणों को कराएं। बुधवार को
दधियुक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन करें। ऐसा करने से पुत्र-मित्र की प्राप्ति होती है।
जो दीर्घायु होने की इच्छा रखते हैं, वे बृहस्पतिवार को देवताओं का वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घी
मिश्रित खीर से पूजन करें। भोगों की प्राप्ति के लिए शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं
का पूजन करें और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिए षड्रस युक्त अन्न दें। स्त्रियों की प्रसन्नता के
लिए सुंदर वस्त्र का विधान करें। शनिवार अपमृत्यु का निवारण करने वाला है। इस दिन रुद्र
की पूजा करें। तिल के होम व दान से देवताओं को संतुष्ट करके, ब्राह्मणों को तिल मिश्रित
भोजन कराएं। इस तरह से देवताओं की पूजा करने से आरोग्य एवं उत्तम फल की प्राप्ति
होगी।
देवताओं के नित्य विशेष पूजन, स्नान, दान, जाप, होम तथा ब्राह्मण-तर्पण एवं रवि आदि
वारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होने पर विभिन्न देवताओं के पूजन में
जगदीश्वर भगवान शिव ही उन देवताओं के रूप में पूजित होकर, सब लोगों को आरोग्य फल
प्रदान करते हैं। देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनका ध्यान रखते हुए
महादेव जी आराधना करने वालों को आरोग्य आदि फल देते हैं। मंगल कार्यों के आरंभ में
और अशुभ कार्यो के अंत में तथा जन्म नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य
की समृद्धि के लिए सूर्य ग्रह का पूजन करें। इससे सिद्ध होता है कि देवताओं का पूजन
संपूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला है। पूजन वैदिक मंत्रों के अनुसार ही होना चाहिए। शुभ
फल की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सातों दिन अपनी शक्ति के अनुसार देवपूजन करना
चाहिए। निर्धन मनुष्य तपस्या व व्रत आदि से तथा धनी धन के द्वारा देवी-देवताओं की
आराधना करें। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है, वह पुण्यलोक
में अनेक प्रकार के फल भोगकर पुनः इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है। धनवान पुरुष सदा
भोग सिद्धि के लिए मार्ग में वृक्ष लगाकर लोगों के लिए छाया की व्यवस्था करते हैं और
उनके लिए कुएं, बावली बनवाकर पानी की व्यवस्था करते हैं। वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिए
पाठशाला का निर्माण या अन्य किसी भी प्रकार से धर्म का संग्रह करते हैं और स्वर्गलोक को
प्राप्त होते हैं। समयानुसार पुण्य कर्मो के परिपाक से अंतःकरण शुद्ध होने पर ज्ञान की सिद्धि
होती है। द्विजो! इस अध्याय को जो सुनता, पढ़ता अथवा सुनने की व्यवस्था करता है, उसे
'देवयज्ञ' का फल प्राप्त होता है।
पंद्रहवां अध्याय
देश, काल, पात्र और दान का विचार
ऋषियों ने कहा-समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूत जी हमसे देश, काल और दान
का वर्णन करें।
देश का वर्णन
सूत जी बोले-अपने घर में किया देवयज्ञ शुद्ध गृह के फल को देने वाला है। गोशाला का
स्थान घर में किए गए देवयज्ञ से दस गुना जबकि जलाशय का तट गोशाला से दस गुना है
एवं जहां तुलसी, बेल और पीपल वृक्ष का मूल हो, वह स्थान जलाशय तट से भी दस गुना
महत्व देने वाला है। देवालय उससे भी अधिक महत्व रखता है। देवालय से दस गुना महत्व
रखता है तीर्थ भूमि का तट। उससे भी श्रेष्ठ है नदी का किनारा तथा उसका दस गुना उत्कृष्ट
है तीर्थ नदी का तट। इससे भी अधिक महत्व रखने वाला है सप्तगंगा का तट, जिसमें गंगा,
गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिंधु, सरयू और रेवा नदियां आती हैं। इससे भी दस गुना
अधिक फल समुद्र का तट और उससे भी दस गुना अधिक फल पर्वत चोटी पर पूजा करने से
होता है और सबसे अधिक महत्व का स्थान वह होता है, जहां मन रम जाए।
काल का वर्णन
सतयुग में यज्ञ, दान आदि से संपूर्ण फलों की प्राप्ति होती है। त्रेता में तिहाई, द्वापर में
आधा, कलियुग में इससे भी कम फल प्राप्त होता है। परंतु शुद्ध हृदय से किया गया पूजन
फल देने वाला होता है। इससे दस गुना फल सूर्य-संक्रांति के दिन, उससे दस गुना अधिक
फल तुला और मेष की संक्रांति में तथा चंद्र ग्रहण में उससे भी दस गुना फल मिलता है। सूर्य
ग्रहण में उससे भी दस गुना अधिक फल प्राप्त होता है। महापुरुषों के साथ में वह काल
करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष मानते हैं।
पात्र वर्णन
तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ योगी पूजा के पात्र होते हैं। क्योंकि ये पापों के नाश के
कारण होते हैं। जिस ब्राह्मण ने चौबीस लाख गायत्री का जाप कर लिया हो वह भी पूजा का
पात्र है। वह संपूर्ण काल और भोग का दाता है। गायत्री के जाप से शुद्ध हुआ ब्राह्मण परम
पवित्र है। इसलिए दान, जाप, होम और पूजा सभी कर्मो के लिए वही शुद्ध पात्र है।
स्त्री या पुरुष जो भी भूखा हो वही अन्नदान का पात्र है। जिसे जिस वस्तु की इच्छा हो,
उसे वह वस्तु बिना मांगे ही दे दी जाए, तो दाता को उस दान का पूरा फल प्राप्त होता है।
याचना करने के बाद दिया गया दान आधा ही फल देता है। सेवक को दिया दान चौथाई फल
देने वाला होता है। दीन ब्राह्मण को दिए गए धन का दान दाता को इस भूतल पर दस वर्षों
तक भोग प्रदान करने वाला है। वेदवेत्ता को दान देने पर वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से
दस वर्षों तक दिव्य भोग देने वाला है। गुरुदक्षिणा में प्राप्त धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है। इसका
दान संपूर्ण फल देने वाला है। क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापार से आया
हुआ और शूट्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया धन उत्तम द्रव्य है।
दान का वर्णन
गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक, कोंहड़ा और कन्या नामक
बारह वस्तुओं का दान करना चाहिए। गोदान से सभी पापों का निवारण होता है और
पुण्यकमोँ की पुष्टि होती है। भूमि का दान परलोक में आश्रय देने वाला होता है। तिल का
दान बल देने वाला तथा मृत्यु का निवारक होता है। सुवर्ण का दान वीर्यदायक और घी का
दान पुष्टिकारक होता है। वस्त्र का दान आयु की वृद्धि करता है। धान्य का दान करने से अन्न
और धन की समृद्धि होती है। गुड़ का दान मधुर भोजन की प्राप्ति कराता है। चांदी के दान से
वीर्य की वृद्धि होती है। लवण के दान से षड्रस भोजन की प्राप्ति होती है। कोंहड़ा या
कूष्माण्ड के दान को पुष्टिदायक माना जाता है। कन्या का दान आजीवन भोग देने वाला
होता है।
जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इंद्रियों की तृप्ति होती है, उनका सदा दान करें। वेद और
शास्त्र को गुरुमुख से ग्रहण करके कमोँ का फल अवश्य मिलता है, इसे ही उच्चकोटि की
आस्तिकता कहते हैं। भाई-बंधु अथवा राजा के भय से जो आस्तिकता होती है, वह निम्न
श्रेणी की होती है। जिस मनुष्य के पास धन का अभाव है, वह वाणी और कर्म द्वारा ही पूजन
करे। तीर्थयात्रा और व्रत को शारीरिक पूजन माना जाता है। तपस्या और दान मनुष्य को सदा
करने चाहिए। देवताओं की तृप्ति के लिए जो कुछ दान किया जाता है, वह सब प्रकार के
भोग प्रदान करने वाला है। इससे इस लोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होने
वाला भोग प्राप्त होता है। ईश्वर को सबकुछ समर्पित करने एवं बुद्धि से यज्ञ व दान करने से
'मोक्ष' की प्राप्ति होती है।
सोलहवां अध्याय
देव प्रतिमा का पूजन तथा
शिवलिंग के वैज्ञानिक स्वरूप का विवेचन
ऋषियों ने कहा--साधु शिरोमणि सूत जी! हमें देव प्रतिमा के पूजन की विधि बताइए,
जिससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
सूत जी बोले--हे महर्षियो! मिट्टी से बनाई हुई प्रतिमा का पूजन करने से पुरुष-स्त्री
सभी के मनोरथ सफल हो जाते हैं। इसके लिए नदी, तालाब, कुआं या जल के भीतर की
मिट्टी लाकर सुगंधित द्रव्य से उसको शुद्ध करें, उसके बाद दूध डालकर अपने हाथ से सुंदर
मूर्ति बनाएं। पद्मासन द्वारा प्रतिमा का आदर सहित पूजन करें। गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव
पार्वती की मूर्ति और शिवलिंग का सदैव पूजन करें। संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिए
सोलह उपचारों द्वारा पूजन करें। किसी मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिंग पर एक सेर नैवेद्य से
पूजन करें। देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग को तीन सेर नैवेद्य अर्पित करें तथा स्वयं प्रकट
हुए शिवलिंग का पूजन पांच सेर नेवेद्य से करें। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। इस
प्रकार सहस्र बार पूजन करने से सत्यलोक की प्राप्ति होती है। बारह अंगुल चौड़ा और
पच्चीस अंगुल लंबा यह लिंग का प्रमाण है और पंद्रह अंगुल ऊंचा लोहे या लकड़ी के बनाए
हुए पत्र का नाम शिव है। इसके अभिषेक से आत्मशुद्धि, गंध चढ़ाने से पुण्य, नैवेद्य चढ़ाने से
आयु तथा धूप देने से धन की प्राप्ति होती है। दीप से ज्ञान और तांबूल से भोग मिलता है।
अतएव स्नान आदि छः पूजन के अंगों को अर्पित करें। नमस्कार और जाप संपूर्ण अभीष्ट
फलों को देने वाला है। भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों को पूजा के अंत में सदा
जाप और नमस्कार करना चाहिए। जो मनुष्य जिस देवता की पूजा करता है, वह उस देवता
के लोक को प्राप्त करता है तथा उनके बीच के लोकों में उचित फल को भोगता है। हे
महर्षियो! भू-लोक में श्रीगणेश पूजनीय हैं। शिवजी के द्वारा निर्धारित तिथि, वार, नक्षत्र में
जो विधि सहित इनकी पूजा करता है उसके सभी पाप एवं शोक दूर हो जाते हैं और वह
अभीष्ट फलों को पाकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
यदि मध्याहून के बाद तिथि का आरंभ होता है तो रात्रि तिथि का पूर्व भाग पितरों के श्राद्ध
आदि कर्म के लिए उत्तम होता है तथा बाद का भाग, दिन के समय देवकर्म के लिए अच्छा
होता है। वेदों में पूजा शब्द को ठीक प्रकार से परिभाषित नहीं किया गया है—'पू:' का अर्थ
है भोग और फल की सिद्धि जिस कर्म से संपन्न होती है, उसका नाम "पूजा' है। मनोवांछित
वस्तु तथा ज्ञान अभीष्ट वस्तुएं हैं। लोक और वेद में पूजा शब्द का अर्थ विख्यात है। नित्य
कर्म भविष्य में फल देने वाले होते हैं। लगातार पूजन करने से शुभकामनाओं की पूर्ति होती
है तथा पापों का क्षय होता है।
इसी प्रकार श्रीविष्णु भगवान तथा अन्य देवताओं की पूजा उन देवताओं के वार, तिथि,
नक्षत्र को ध्यान में रखते हुए तथा सोलह उपचारों से पूजन एवं भजन करने से अभीष्ट फल
की प्राप्ति होती है। शिवजी सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। महा आर्द्रा नक्षत्र अर्थात
माघ कृष्णा चतुर्दशी को शिवजी का पूजन करने से आयु की वृद्धि होती है। ऐसे ही और भी
नक्षत्रों, महीनों तथा वारों में शिवजी की पूजा व भोजन, भोग और मोक्ष देने वाला है।
कार्तिक मास में देवताओं का भजन विशेष फलदायक होता है। विद्वानों के लिए यह उचित है
कि इस महीने में सब देवताओं का भजन करें। संयम व नियम से जाप, तप, हवन और दान
करें, क्योंकि कार्तिक मास में देवताओं का भजन सभी दुखों को दूर करने वाला है। कार्तिक
मास में रविवार के दिन जो सूर्य की पूजा करता है और तेल व कपास का दान करता है,
उसका कुष्ठ रोग भी दूर हो जाता है। जो अपने तन-मन को जीवन पर्यंत शिव को अर्पित कर
देता है, उसे शिवजी मोक्ष प्रदान करते हैं। 'योनि' और “लिंग” इन दोनों स्वरूपों के शिव
स्वरूप में समाविष्ट होने के कारण वे जगत के जन्म निरूपण हैं, और इसी नाते से जन्म की
निवृत्ति के लिए शिवजी की पूजा का अलग विधान है। सारा जगत बिंदु-नादस्वरूप है। 'बिंदु
शक्ति’ है और नाद 'शिव'। इसलिए सारा जगत शिव-शक्ति स्वरूप ही है। नाद बिंदु का और
बिंदु इस जगत का आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश अथवा लय होता है। यही
'सकलीकरण' है। इस सकलीकरण की स्थिति में ही, सृष्टिकाल में जगत का आरंभ हुआ है।
शिवलिंग बिंदु नादस्वरूप है। अतः इसे जगत का कारण बताया जाता है। बिंदु 'देव' है और
नाद “शिव', इनका संयुक्त रूप ही शिवलिंग कहलाता है। अतः जन्म के संकट से छुटकारा
पाने के लिए शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। बिंदुरूपा देवी 'उमा' माता हैं और नादस्वरूप
भगवान "शिव" पिता। इन माता-पिता के पूजित होने से परमानंद की प्राप्ति होती है। देवी
उमा जगत की माता हैं और शिव जगत के पिता। जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्र पर
इनकी कृपा नित्य बढ़ती रहती है। वह पूजक पर कृपा कर उसे अपना आंतरिक ऐश्वर्य प्रदान
करते हैं।
अतः शिवलिंग को माता-पिता का स्वरूप मानकर पूजा करने से, आंतरिक आनंद की
प्राप्ति होती है। भर्ग (शिव) पुरुषरूप हैं और भर्गा (शक्ति) प्रकृति कहलाती है। पुरुष
आदिगर्भ है, क्योंकि वही प्रकृति का जनक है। प्रकृति में पुरुष का संयोग होने से होने वाला
जन्म उसका प्रथम जन्म कहलाता है। 'जीव' पुरुष से बारंबार जन्म और मृत्यु को प्राप्त
होता है। माया द्वारा प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है। जीव का शरीर
जन्मकाल से ही छः विकारों से युक्त होता है। इसीलिए इसे जीव की संज्ञा दी गई है।
जन्म लेकर जो प्राणी विभिन्न पाशों अर्थात बंधनों में पड़ता है, वह जीव है। जीव पशुता
के पाश से जितना छूटने का प्रयास करता है, उसमें उतना ही उलझता जाता है। कोई भी
साधन जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं कर पाते। शिव के अनुग्रह से ही महामाया
का प्रसाद जीव को प्राप्त होता है और मुक्ति मार्ग पर अग्रसर होता है। जन्म-मृत्यु के बंधन से
मुक्त होने के लिए श्रद्धापूर्वक शिव-लिंग का पूजन करना चाहिए।
गाय के दूध, दही और घी को शहद और शक्कर के साथ मिलाकर पंचामृत तैयार करें
तथा इन्हें अलग-अलग भी रखें। पंचामृत से शिवलिंग का अभिषेक व स्नान करें। दूध व अन्न
मिलाकर नैवेद्य तैयार कर प्रणव मंत्र का जाप करते हुए उसे भगवान शिव को अर्पित कर दें।
प्रणव को “ध्वनिलिंग”, 'स्वयंभूलिंग' और नादस्वरूप होने के कारण “*नादलिंग' तथा
बिंदुस्वरूप होने के कारण 'बिंदुलिंग' के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। अचल रूप से प्रतिष्ठित
शिवलिंग को मकार स्वरूप माना जाता है। इसलिए वह “मकारलिंग” कहलाता है। सवारी
निकालने में “उकारलिंग” का उपयोग होता है। पूजा की दीक्षा देने वाले गुरु-आचार्य विग्रह
आकार का प्रतीक होने से 'अकारलिंग' के छः भेद हैं। इनकी नित्य पूजा करने से साधक
जीवन मुक्त हो जाता है।
सत्रहवां अध्याय
प्रणव का माहात्म्य व शिवलोक के वैभव का वर्णन
ऋषि बोले--महामुनि! आप हमें “प्रणव मंत्र” का माहात्म्य तथा 'शिव” की भक्ति-पूजा
का विधान सुनाइए।
प्रणव का माहात्म्य
सूत जी ने कहा--महर्षियो! आप लोग तपस्या के धनी हें तथा आपने मनुष्यों की भलाई
के लिए बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है। मैं आपको इसका उत्तर सरल भाषा में दे रहा हूं। 'प्र'
प्रकृति से उत्पन्न संसार रूपी महासागर का नाम है। प्रणव इससे पार करने के लिए नौका
स्वरूप है। इसलिए ओंकार को प्रणव की संज्ञा दी गई है। प्र-प्रपंच, न-नहीं है, वः-तुम्हारे
लिए। इसलिए 'ओम्' को प्रणव नाम से जाना जाता है अर्थात प्रणव वह शक्ति है, जिसमें
जीव के लिए किसी प्रकार का भी प्रपंच अथवा धोखा नहीं है। यह प्रणव मंत्र सभी भक्तों को
मोक्ष देता है। मंत्र का जाप तथा इसकी पूजा करने वाले उपासकों को यह नूतन ज्ञान देता है।
माया रहित महेश्वर को भी नव अर्थात नूतन कहते हैं। वे परमात्मा के शुद्ध स्वरूप हैं। प्रणव
साधक को नया अर्थात शिवस्वरूप देता है। इसलिए विद्वान इसे प्रणव नाम से जानते हैं,
क्योंकि यह नव दिव्य परमात्म ज्ञान प्रकट करता है। इसलिए यह प्रणव है।
प्रणव के दो भेद हैं-- और 'सूक्ष्म'। 'ॐ' सूक्ष्म प्रणव व 'नमः शिवाय' यह पंचाक्षर
मंत्र स्थूल प्रणव है। जीवन मुक्त पुरुष के लिए सूक्ष्म प्रणव के जाप का विधान है क्योंकि यह
सभी साधनों का सार है। देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मंत्र का जाप, अर्थभूत
परमात्म-तत्व का अनुसंधान करता है। शरीर नष्ट होने पर ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त करता
है। इस मंत्र का छत्तीस करोड़ बार जाप करने से, मनुष्य योगी हो जाता है। यह अकार,
उकार, मकार, बिंदु और नाद सहित अर्थात 'अ', 'ऊ', 'म' तीन दीर्घ अक्षरों और मात्राओं
सहित 'प्रणव' होता है, जो योगियों के हृदय में निवास करता है। यही सब पापों का नाश
करने वाला है। 'अ' शिव है, 'उ' शक्ति और 'मकार' इनकी एकता है।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--पांच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि पांच विषय कुल
मिलाकर दस वस्तुएं मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मो का
अनुष्ठान करते हैं वे प्रवृत्ति मार्गी कहलाते हैं तथा जो निष्काम भाव से शास्त्रों के अनुसार
कमो का अनुष्ठान करते हैं वे निवृत्त मार्गी हैं। वेद के आरंभ में तथा दोनों समय की संध्या
वंदना के समय सबसे पहले उकार का प्रयोग करना चाहिए। प्रणव के नौ करोड़ जाप से
पुरुष शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ जाप से पृथ्वी की, फिर इतने ही जाप से तेज की,
फिर नौ करोड़ जाप से वायु की और फिर नौ-नौ करोड़ जाप से गंध की सिद्धि होती है।
ब्राह्मण सहस्र ओंकार मंत्रों का रोजाना जाप करने से प्रबुद्ध व शुद्ध योगी हो जाता है। फिर
जितेंद्रिय होकर पांच करोड़ का जाप करता है तथा शिवलोक को प्राप्त होता है।
क्रिया, तप और जाप के योग से शिवयोगी तीन प्रकार के होते हैं। धन और वैभव से पूजा
सामग्री एकत्र कर अंगों से नमस्कार आदि करते हुए इष्टदेव की प्राप्ति के लिए जो पूजा में
लगा रहता है, वह क्रियायोगी कहलाता है। पूजा में संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता
है एवं बाह्य इंद्रियों को जीतकर वश में करता है उसे तपोयोगी कहते हैं। सभी सदगुणों से
युक्त होकर सदा शुद्ध भाव से समस्त कार्य कर शांत हृदय से निरंतर जो जाप करता है, वह
'जप योगी' कहलाता है। जो मनुष्य सोलह उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता
है, वह शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करता है।
जपयोग का वर्णन
ऋषियो! अब मैं तुमसे जपयोग का वर्णन करता हूं। सर्वप्रथम, मनुष्य को अपने मन को
शुद्ध कर पंचाक्षर मंत्र 'नमः शिवाय' का जाप करना चाहिए। यह मंत्र संपूर्ण सिद्धियां प्रदान
करता है। इस पंचाक्षर मंत्र के आरंभ में ॐ' (ओंकार) का जाप करना चाहिए। गुरु के मुख
से पंचाक्षर मंत्र का उपदेश पाकर कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक साधक रोज एक
बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इंद्रियों को वश में रखे, माता-पिता की सेवा करे, नियम से
एक सहस्र पंचाक्षर मंत्र का जाप करे तभी उसका जपयोग शुद्ध होता है। भगवान शिव का
निरंतर चितन करते हुए पंचाक्षर मंत्र का पांच लाख जाप करे। जपकाल में शिवजी के
कल्याणमय स्वरूप का ध्यान करे। ऐसा ध्यान करे कि भगवान शिव कमल के आसन पर
विराजमान हैं। उनका मस्तक गंगाजी और चंद्रमा की कला से सुशोभित है। उनकी बाई ओर
भगवती उमा विराजमान हैं। अनेक शिवगण वहां खड़े होकर उनकी अनुपम छवि को निहार
रहे हैं। मन में सदाशिव का बारंबार स्मरण करते हुए सूर्यमंडल से पहले उनकी मानसिक
पूजा करे। पूर्व की ओर मुख करके पंचाक्षर मंत्र का जाप करे। उन दिनों साधक शुद्ध कर्म
करे तथा अशुद्ध कमों से बचा रहे। जाप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को शुद्ध
होकर शुद्ध हृदय से बारह सहस्र जाप करे। तत्पश्चात ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा
सद्योजात के प्रतीक स्वरूप पांच शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण कर, शिव का पूजन विधिपूर्वक
कर होम प्रारंभ करे।
विधि-विधान से भूमि को शुद्ध कर वेदी पर अग्ने प्रज्वलित करे। गाय के घी से ग्यारह सौ
अथवा एक हजार आहुतियां स्वयं दे या एक सौ आठ आहुतियां ब्राह्मण से दिलाए। दक्षिणा
के रूप में एक गाय अथवा बैल देना चाहिए। प्रतीकरूप पांच ब्राह्मणों के चरणों को धोए
तथा उस जल से मस्तक को सींचे। ऐसा करने से अगणित तीर्थो में तत्काल स्नान का फल
प्राप्त होता है। इसके उपरांत ब्राह्मणों को भरपूर भोजन कराकर देवेश्वर शिव से प्रार्थना करे।
फिर पांच लाख जाप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। पुनः पांच लाख जाप करने
पर, भूतल से सत्य लोक तक चौदह भुवनों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है।
कर्म माया और ज्ञान माया का तात्पर्य
मां का अर्थ है लक्ष्मी। उससे कर्मभोग प्राप्त होता है। इसलिए यह माया अथवा कर्म माया
कहलाती है। इसी से ज्ञान-भोग की प्राप्ति होती है। इसलिए उसे माया या ज्ञानमाया भी कहा
गया है। उपर्युक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग है और ऊपर नित्य भोग। नश्वर भोग में जीव
सकाम कमोँ का अनुसरण करता हुआ विभिन्न योनियों व लोकों के चक्कर काटता है। बिंदु
पूजा में तत्पर रहने वाले उपासक नीचे के लोकों में घूमते हैं। निष्काम भाव से शिवलिंग की
पूजा करने वाले ऊपर के लोक में जाते हैं। नीचे कर्मलोक है और यहां सांसारिक जीव रहते
हैं। ऊपर ज्ञानलोक है जिसमें मुक्त पुरुष रहते हैं और आध्यात्मिक उपासना करते हैं।
शिवलोक के वैभव का वर्णन
जो मनुष्य सत्य अहिंसा से भगवान शिव की पूजा में तत्पर रहते हैं, कालचक्र को पार कर
जाते हैं। काल चक्रेश्वर की सीमा तक महेश्वर लोक है। उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म
की स्थिति है। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया चार पाद हैं। वह साक्षात शिवलोक के
द्वार पर खड़ा है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं। वह वेदध्वनिरूपी शब्द से विभूषित है।
भक्ति उसके नेत्र व विश्वास और बुद्धि मन हैं। क्रिया आदि धर्मरूपी वृषभ हैं, जिस पर शिव
आरूढ़ होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आयु को दिन कहते हैं। कारण स्वरूप ब्रह्मा के
सत्यलोक पर्यंत चौदह लोक स्थित हैं, जो पांच भौतिक गंध से परे हैं। उनसे ऊपर कारणरूप
विष्णु के चौदह लोक हैं तथा इससे ऊपर कारणरूपी रुद्र के अट्टाईस लोकों की स्थिति है।
फिर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं। सबसे ऊपर पांच आवरणों से युक्त ज्ञानमय
कैलाश है, जहां पांच मंडलों, पांच ब्रह्मकालों और आदि शक्ति से संयुक्त आदिलिंग है, जिसे
शिवालय कहा जाता है। वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि,
पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि कार्यों में कुशल हैं। नित्य कमों द्वारा देवताओं का
पूजन करने से शिव-तत्व का साक्षात्कार होता है। जिन पर शिव की कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे
सब मुक्त हो जाते हैं। अपनी आत्मा में आनंद का अनुभव करना ही मुक्ति का साधन है। जो
पुरुष क्रिया, तप, जाप, ज्ञान और ध्यान रूपी धमो से शिव का साक्षात्कार करके मोक्ष को
प्राप्त कर लेता है, उसके अज्ञान को भगवान शिव दूर कर देते हैं।
शिवभक्ति का सत्कार
साधक पांच लाख जाप करने के पश्चात भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए महाभिषेक
एवं नैवेद्य से शिव भक्तों का पूजन करे। भक्त की पूजा से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं।
शिव भक्त का शरीर शिवरूप ही है। जो शिव के भक्त हैं और वेद की सारी क्रियाओं को
जानते हैं, वे जितना अधिक शिवमंत्र का जाप करते हैं, उतना ही शिव का सामीप्य बढ़ता है।
शिवभक्त स्त्री का रूप पार्वती देवी का है तथा मंत्रों का जाप करने से देवी का सान्निध्य प्राप्त
हो जाता है। साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति अर्थात पार्वती का पूजन शक्ति, बेर
तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी से इनकी आकृति का निर्माण करके, प्राण प्रतिष्ठा
कर इसका पूजन करे। शिवलिंग को शिव मानकर अपने को शक्ति रूप समझकर शक्ति लिंग
को देवी मानकर पूजन करे। शिवभक्त शिव मंत्र रूप होने के कारण शिव के स्वरूप है। जो
सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। उपासना के
उपरांत शिव भक्त की सेवा से विद्वानों पर शिवजी प्रसन्न होते हैं। पांच, दस या सौ सपत्नीक
शिवभक्तों को बुलाकर आदरपूर्वक भोजन कराए। शिव भावना रखते हुए निष्कपट पूजा
करने से भूतल पर फिर जन्म नहीं होता।
अठारहवा अध्याय
बंधन और मोक्ष का विवेचन
शिव के भस्मधारण का रहस्य
ऋषि बोले--सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूत जी! बंधन और मोक्ष क्या है? कृपया हम पर कृपा कर
हमें बताएं?
सूत जी ने कहा--महर्षियो! मैं बंधन और मोक्ष के स्वरूप व उपाय का वर्णन तुम्हारे लिए
कर रहा हूं। पृथ्वी के आठ बंधनों के कारण ही आत्मा की जीव संज्ञा है। अर्थात बंधनों में
बंधा हुआ जीव 'बद्ध' कहलाता है और जो उन बंधनों से छूटा हुआ है उसे 'मुक्त' कहते हैं।
प्रकृति, बुद्धि, त्रिगुणात्मक अहंकार और पांच तन्मात्राएं आदि आठ तत्वों के समूह से देह की
उत्पत्ति हुई है। देह से कर्म होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है। शरीर को
स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से जानना चाहिए। स्थूल शरीर व्यापार कराने वाला, सूक्ष्म
शरीर इंद्रिय भोग प्रदान करने वाला तथा शरीर को आत्मानंद की अनुभूति कराने वाला होता
है। कमो के द्वारा ही जीव पाप और पुण्य भोगता है। इन्हीं से सुख-दुख की प्राप्ति होती है।
अतः कर्मपाश में बंधकर जीव शुभाशुभ कमों द्वारा चक्र की भांति घुमाया जाता है। इससे
छुटकारा पाने के लिए महाचक्र के कर्ता भगवान शिव की स्तुति और आराधना करनी
चाहिए। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण और अनंत शक्तियों को धारण किए हैं। जो मन, वचन, शरीर
और धन से बेरलिंग या भक्तजनों में शिव भावना करके उनकी पूजा करते हैं, उन पर शिवजी
की कृपा अवश्य होती है। शिवलिंग में शिव की प्रतिमा ने शिव भक्तजनों में शिव की भावना
करके उनकी प्रसन्नता के लिए पूजा करनी चाहिए। पूजन शरीर, मन, वाणी और धन से कर
सकते हैं। भगवान शिव पूजा करने वाले पर विशेष कृपा करते हैं और अपने लोक में निवास
का सौभाग्य प्रदान करते हैं। जब तन्मात्राएं वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदंबा सहित शिव
का सामीप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान का प्रसाद प्राप्त होने पर बुद्धि वश में हो जाती है।
सर्वज्ञता और तृप्ति शिव के ऐश्वर्य हैं। इन्हें पाकर मनुष्य की मुक्ति हो जाती है। इसलिए शिव
का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिए उन्हीं का पूजन करना चाहिए। शिवक्रिया, शिव तप,
शिवमंत्र-जाप, शिवज्ञान और शिव ध्यान प्रतिदिन प्रातः से रात को सोते समय तक, जन्म से
मृत्यु तक करना चाहिए एवं मंत्रों और विभिन्न पुष्पों से शिव की पूजा करनी चाहिए। ऐसा
करने से भगवान शिव का लोक प्राप्त होता है।
ऋषि बोले—उत्तम व्रत का पालन करने वाले सूत जी! शिवलिंग की पूजा कैसे करनी
चाहिए? कृपया हमें बताइए?
सूत जी ने कहा-ब्राह्मणो! सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले लिंग के स्वरूप का मैं
तुमसे वर्णन कर रहा हूं। सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूल लिंग सकल। पंचाक्षर मंत्र को
स्थूल लिंग कहते हैं। दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देने वाले हैं। प्रकृति एवं पौरुष लिंग के रूपों
के बारे में एकमात्र भगवान शिव ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। पृथ्वी पर पांच लिंग हैं,
जिनका विवरण मैं तुम्हें सुनाता हूं।
पहला 'स्वयंभू शिवलिंग”, दूसरा “बिंदुलिंग”“, तीसरा “प्रतिष्ठित लिंग“, चौथा “चरलिंग',
और पांचवां “गुरुलिंग” है। देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिए
पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप में व्याप्त हुए भगवान शिव वृक्षों के अंकुर की भांति भूमि को
भेदकर “नादलिंग” के रूप में व्यक्त हो जाते हैं। स्वतः प्रकट होने के कारण ही इसका नाम
'स्वयंभूलिंग' है। इसकी आराधना करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। सोने-चांदी, भूमि, वेदी पर
हाथ से प्रणव मंत्र लिखकर भगवान शिव की प्रतिष्ठा और आह्वान करें तथा सोलह उपचारों
से उनकी पूजा करें। ऐसा करने से साधक को ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। देवताओं और
ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिए "पौरुष लिंग” की स्थापना मंत्रों के उच्चारण द्वारा की है। यही
प्रतिष्ठित लिंग' कहलाता है। किसी ब्राह्मण अथवा राजा द्वारा मंत्रपूर्वक स्थापित किया गया
लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है, किंतु वह “प्राकृत लिंग' है। शक्तिशाली और नित्य होने
वाला “पौरुष लिंग” तथा दुर्बल और अनित्य होने वाला “प्राकृत लिंग" कहलाता है।
लिंग, नाभि, जीभ, हृदय और मस्तक में विराजमान आध्यात्मिक लिंग को “चरलिंग'
कहते हैं। पर्वत को “पौरुष लिंग' और भूतल को विद्वान 'प्राकृत लिंग" मानते हैं। पौरुष लिंग
समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करने वाला है। प्राकृत लिंग धन प्रदान करने वाला है। 'चरलिंग' में
सबसे प्रथम 'रसलिंग'” ब्राह्मणों को अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। 'सुवर्ण लिंग” वैश्यों को
धन, 'बाणलिंग” क्षत्रियों को राज्य, “सुंदर लिंग” शूद्रों को महाशुद्धि प्रदान करने वाला है।
बचपन, जवानी और बुढ़ापे में स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान
करने वाला है।
समस्त पूजा कर्म गुरु के सहयोग से करें। इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात अगहनी के
चावल की बनी खीर तथा नैवेद्य अर्पण करें। निवृत्त मनुष्य को 'सूक्ष्म लिंग” का पूजन विभूति
के द्वारा करना चाहिए। विभूति लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित तीन
प्रकार की होती हैं। लोकाग्निजनित अर्थात लौकिक भस्म को शुद्धि के लिए रखें। मिट्टी,
लकड़ी और लोहे के पात्रों की धान्य, तिल, वस्त्र आदि की भस्म से शुद्धि होती है। वेदों से
जनित भस्म को वैदिक कमों के अंत में धारण करना चाहिए। मूर्तिधारी शिव का मंत्र पढ़कर
बेल की लकड़ी जलाएं। कपिला गाय के गोबर तथा शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलताश
और बेर की लकड़ियों से अग्नि जलाएं, इसे शुद्ध भस्म माना जाता है। भगवान शिव ने अपने
गले में विराजमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से सारतत्व को ग्रहण किया है। उनके सारे
अंग विभिन्न वस्तुओं के सार रूप हैं। भगवान शिव ने अपने माथे के तिलक में ब्रह्मा, विष्णु
और रुद्र के सारतत्व को धारण किया है। सजल भस्म को धारण करके शिवजी की पूजा
करने से सारा फल मिलता है। शिव मंत्र से भस्म धारण कर श्रेष्ठ आश्रमी होता है। शिव की
पूजा अर्चना करने वाले को अपवित्रता और सूतक नहीं लगता। गुरु शिष्य के राजस, तामस
और तमोगुण का नाश कर शिव का बोध कराता है। ऐसे गुरु के हाथ से भस्म धारण करनी
चाहिए।
जन्म और मरण सब भगवान शिव ने ही बनाए हैं, जो इन्हें उनकी सेवा में ही अर्पित कर
देता है, वह बंधनों से मुक्त हो जाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण को वश में कर लेने से मोक्ष
प्राप्त होता है। जो शिव की पूजा में तत्पर हो, मौन रहे, सत्य तथा गुणों से युक्त हो, क्रिया,
जाप, तप करता रहे, उसे दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा ज्ञान का उदय होता है।
शिवभक्त यथायोग्य क्रिया एवं अनुष्ठान करें तथा धन का उपयोग कर शिव स्थान में निवास
करें। भगवान शिव के माहात्म्य का सभी के सामने प्रचार करें। शिव मंत्र के रहस्य को उनके
अलावा कोई नहीं जानता है, इसलिए शिवलिंग का नित्य पूजन करें।
उन्नीसवां अध्याय
पूजा का भेद
ऋषि बोले--हे सूत जी! आप हम पर कृपा करके पार्थिव महेश्वर की महिमा का वर्णन,
जो आपने वेद-व्यास जी से सुना है, सुनाइए।
सूत जी बोले--हे ऋषियो! मैं भोग और मोक्ष देने वाली पार्थिव पूजा पद्धति का वर्णन
कर रहा हूं। पार्थिव लिंग सभी लिंगों में सर्वश्रेष्ठ है। इसके पूजन से मनोवांछित फलों की
प्राप्ति होती है। अनेक देवता, दैत्य, मनुष्य, गंधर्व, सर्प एवं राक्षस शिवलिंग की उपासना से
अनेक सिद्धियां प्राप्त कर चुके हैं। जिस प्रकार सतयुग में रत्न का, त्रेता में स्वर्ण का व द्वापर
में पारे का महत्व हे, उसी प्रकार कलियुग में पार्थिव लिंग अति महत्वपूर्ण है। शिवमूर्ति का
पूजन तप से भी अधिक फल प्रदान करता है। जिस प्रकार गंगा नदी सभी नदियों में श्रेष्ठ एवं
पवित्र मानी जाती है, उसी प्रकार पार्थिव लिंग सभी लिंगों में सर्वश्रेष्ठ है। जैसे सब व्रतों में
शिवरात्रि का व्रत श्रेष्ठ है, सब दैवीय शक्तियों में दैवी-शक्ति श्रेष्ठ है, वैसे ही सब लिंगों में
“पार्थिव लिंग' श्रेष्ठ है।
'पार्थिव लिंग" का पूजन धन, वैभव, आयु एवं लक्ष्मी देने वाला तथा संपूर्ण कार्यों को पूर्ण
करने वाला है। जो मनुष्य भगवान शिव का पार्थिव लिंग बनाकर प्रतिदिन पूजा करता है, वह
शिवपद एवं शिवलोक को प्राप्त करता है। निष्काम भाव से पूजन करने वाले को मुक्ति मिल
जाती है। जो ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी पूजन नहीं करता, वह घोर नरक को प्राप्त
करता है।
बीसवां अध्याय
पार्थिव लिंग पूजन की विधि
पार्थिव लिंग की श्रेष्ठता तथा महिमा का वर्णन करते हुए सूत जी ने कहा-हे श्रेष्ठ
महर्षियो! वैदिक कर्मो के प्रति श्रद्धाभक्ति रखने वाले मनुष्यों के लिए पार्थिव लिंग पूजा
पद्धति ही परम उपयोगी एवं श्रेष्ठ है तथा भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली है। सर्वप्रथम सूत्रों
की विधि से स्नान करें। सांध्योपासना के उपरांत ब्रह्मयज्ञ करें। तत्पश्चात देवताओं, ऋषियों,
मनुष्यों और पितरों का तर्पण करें। सब नित्य कर्मो को करके शिव भगवान का स्मरण करते
हुए भस्म तथा रुद्राक्ष को धारण करें। फिर पूर्ण भक्ति भावना से पार्थिव-लिंग की पूजा
अर्चना करें। ऐसा करने से संपूर्ण मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। किसी नदी या तालाब
के किनारे, पर्वत पर या जंगल में या शिवालय में अथवा अन्य किसी पवित्र स्थान पर, पार्थिव
पूजन करना चाहिए। पवित्र स्थान की मिट्टी से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिए। ब्राह्मण
श्वेत मिट्टी से, क्षत्रिय लाल मिट्टी से, वैश्य पीली मिट्टी से एवं शूद्र काली मिट्टी से
शिवलिंग का निर्माण करें।
शिवलिंग हेतु मिट्टी को एकत्र कर उसे गंगाजल से शुद्ध करके धीरे-धीरे उससे लिंग का
निर्माण करें तथा इस संसार के सभी भोगों को तथा संसार से मोक्ष प्राप्त करने हेतु पार्थिव
लिंग का पूजन भक्तिभावना से करें। सर्वप्रथम ॐ नमः शिवाय' मंत्र का उच्चारण करते हुए
समस्त पूजन सामग्री को एकत्र कर उसे जल से शुद्ध करें। 'भूरसि' मंत्र द्वारा क्षेत्र की सिद्धि
करें। फिर जल का संस्कार करें। स्फटिक शिला का घेरा बनाएं तथा क्षेत्र शुद्धि करें। तत्पश्चात
शिवलिंग की प्रतिष्ठा करें तथा वैदिक रीति से पूजा-उपासना करें। भगवान शिव का आवाहन
करें तथा आसन पर उन्हें स्थापित करके उनके समक्ष आसन पर स्वयं बैठ जाएं। शिवलिंग
को दूध, दही और घी से स्नान कराएं, ऋचाओं से मधु (शहद) और शक्कर से स्नान कराएं।
ये पांचों वस्तुएं-दूध, दही, घी, शहद और शक्कर 'पंचामृत' कहलाते हैं। इन्हीं वस्तुओं से
लिंग को स्नान कराएं। तदोपरांत उत्तरीय धारण कराएं। चारों ऋचाओं को पढ़कर भगवान
शिव को वस्त्र और यज्ञोपवीत समर्पित करें तथा सुगंधित चंदन एवं रोली चढ़ाएं तथा अक्षत
फूल और बेलपत्र अर्पित करें। नेवेद्य और फल अर्पित कर ग्यारह रुद्रं का पूजन करें तथा
पूजन कर्म करने वाले पुरोहित को दक्षिणा दें। हर, महेश्वर, शंभु, शूल-पाणि, पिनाकधारी,
शिव, पशुपति, महादेव, गिरिजापति आदि नामों से पार्थिव-लिंग का पूजन करें तथा आरती
करें। शिवलिंग की परिक्रमा करें तथा भगवान शिव को साष्टांग प्रणाम करें। पंचाक्षर मंत्र तथा
सोलह उपचारों से विधिवत पूजन करें। इस प्रकार पूजन करते हुए भगवान शिव से इस
प्रकार प्रार्थना करें
सबको सुख-समृद्धि प्रदान करने वाले हे कृपानिधान, भूतनाथ शिव! आप मेरे प्राणों में
बसते हैं। आपके गुण ही मेरे प्राण हैं। आप मेरे सबकुछ हैं। मेरा मन सदैव आपका ही चिंतन
करता है। हे प्रभु! यदि मैंने कभी भूलवश अथवा जानबूझकर भक्तिपूर्वक आपका पूजन
किया हो तो वह सफल हो जाए। मैं महापापी हूं, पतित हूं जबकि आप पतितपावन हैं। हे
महादेव सदाशिव! आप वेदों, पुराणों और शास्त्रों के सिद्धांतों के परम ज्ञाता हैं। अब तक
कोई भी आपको पूर्ण रूप से नहीं जानता है फिर भला मुझ जेसा पापी मनुष्य आपको कैसे
जान सकता है? हे महेश्वर! मैं पूर्ण रूप से आपके अधीन हूं। हे प्रभु! कृपा कर मुझ पर प्रसन्न
होइए और मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान शिव को फूल व
अक्षत चढ़ाकर प्रणाम कर आदरपूर्वक विसर्जन करें। हे मुनियो! इस प्रकार की गई भगवान
शिव की पूजा, भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली एवं भक्तिभाव बढ़ाने वाली है।
इक्कीसवां अध्याय
शिवलिंग की संख्या
सूत जी बोले-महर्षियो! पार्थिव लिंगों की पूजा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है।
कलियुग में शिवलिंग पूजन मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। यह भोग और मोक्ष देने वाला एवं
शास्त्रों का निश्चित सिद्धांत है। शिवलिंग तीन प्रकार के हैं--उत्तम, मध्यम और अधम। चार
अंगुल ऊंचे वेदी से युक्त, सुंदर शिवलिंग को “उत्तम शिवलिंग” कहा जाता है। उससे आधा
'मध्यम' तथा मध्यम से आधा 'अधम' कहलाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों को
वैदिक उपचारों से आदरपूर्वक शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए।
ऋषि बोले-हे सूत जी! शिवजी के पार्थिव लिंग की कुल कितनी संख्या है?
सूत जी बोले-हे ऋषियो! पार्थिव लिंग की संख्या मनोकामना पर निर्भर करती है। बुद्धि
की प्राप्ति के लिए सदभावनापूर्वक एक हजार पार्थिव शिवलिंग का पूजन करें। धन की
प्राप्ति के इच्छुक डेठ़ हजार शिवलिंगों का तथा वस्त्र प्राप्ति हेतु पांच सौ शिवलिंगों का पूजन
करें। भूमि का इच्छुक एक हजार, दया भाव चाहने वाला तीन हजार, तीर्थ यात्रा करने की
चाह रखने वाले को दो हजार तथा मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य एक करोड़ पार्थिव लिंगों की
वेदोक्त विधि से पूजा-आराधना करें। अपनी कामनाओं के अनुसार शिवलिंगों की पूजा करें।
पार्थिव लिंगों की पूजा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है तथा उपासक को भोग और मोक्ष
प्रदान करती है। इसके समान कोई और श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात यह सर्वश्रेष्ठ है।
शिवलिंग की नियमित पूजा-अर्चना से मनुष्य सभी विपत्तियों से मुक्त हो जाता है।
शिवलिंग का नियमित पूजन भवसागर से तरने का सबसे सरल तथा उत्तम उपाय है। हर रोज
लिंग का पूजन वेदोक्त विधि से करना चाहिए। भगवान शंकर का नैवेद्यांत पूजन करना
चाहिए।
भगवान शंकर की आठ मूर्तियां पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चंद्रमा तथा
यजमान हैं। इसके अतिरिक्त शिव, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव तथा पशुपति नामों का
भी पूजन करें। अक्षत, चंदन और बेलपत्र लेकर भक्तिपूर्वक शिवजी का पूजन करें तथा
उनके परिवार, जिसमें ईशान, नंदी, चण्ड, महाकाल, भुंगी, वृष, स्कंद, कपर्दीश्वर, शुक्र तथा
सोम हैं, का दसों दिशाओं में पूजन करें। शिवजी के वीर भद्र और कीर्तिमुख के पूजन के
पश्चात ग्यारह रुद्रों की पूजा करें। पंचाक्षर-मंत्र का जाप करें तथा शतरुद्रिय और शिवपंचाग
का पाठ करें। इसके उपरांत शिवलिंग की परिक्रमा कर शिवलिंग का विसर्जन करें। रात्रि के
समय समस्त देवकायोँ को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके ही करना चाहिए। पूजन करते
समय मन में भगवान शिव का स्मरण करना चाहिए। जिस स्थान पर शिवलिंग स्थापित हो
वहां पर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में न बैठे, क्योंकि पूर्व दिशा भगवान शिव के सामने
पड़ती है और इष्टदेव का सामना नहीं रोकना चाहिए। उत्तर दिशा में शक्तिस्वरूपा देवी उमा
विराजमान रहती हैं। पश्चिम दिशा में शिवजी का पीछे का भाग है और पूजा पीछे से नहीं की
जा सकती, इसलिए दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठना चाहिए।
शिव के उपासकों को भस्म से त्रिपुण्ड लगाकर, रुद्राक्ष की माला, बेलपत्र आदि लेकर
भगवान का पूजन करना चाहिए। यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से ही त्रिपुण्ड का निर्माण
करके पूजन करना चाहिए।
बाईसवां अध्याय
शिव नैवेद्य और बिल्व माहात्म्य
ऋषि बोले--हे सूत जी! हमने पूर्व में सुना है कि शिव का नैवेद्य ग्रहण नहीं करना चाहिए।
इस संबंध में शास्त्र क्या कहते हैं? इसके बारे में बताइए तथा बिल्व के माहात्म्य को भी स्पष्ट
कीजिए।
सूत जी ने कहा--हे मुनियो! आप सभी शिव व्रत का पालन करने वाले हैं। इसलिए मैं
आपको प्रसन्नतापूर्वक सारी बातें बता रहा हूं। आप ध्यानपूर्वक सुनें। भगवान शिव के भक्त
को, जो उत्तम व्रत का पालन करता है तथा बाहर-भीतर से पवित्र व शुद्ध है अर्थात निष्काम
भावना से भगवान शंकर की पूजा-अर्चना करता है, शिव नैवेद्य का अवश्य भक्षण करना
चाहिए क्योंकि नैवेद्य को देख लेने से ही सारे पाप दूर हो जाते हैं। उसको ग्रहण करने से बहुत
से पुण्यों का फल मिलता है। नैवेद्य को खाने से हजारों और अरबों यज्ञों का पुण्य अंदर आ
जाता है। जिसके घर में शिवजी के नेवेद्य का प्रचार होता है, उसका घर तो पवित्र है ही,
बल्कि वह साथ के अन्य घरों को भी पवित्र कर देता है। इसलिए सिर झुकाकर प्रसन्नतापूर्वक
एवं भक्ति भावना से इसे ग्रहण करें और इसे खा लें। जो मनुष्य इसे ग्रहण करने या लेने में
विलंब करता है, वह पाप का भागी होता है। शिव की दीक्षा से युक्त शिवभक्त के लिए नैवेद्य
महाप्रसाद है।
जो मनुष्य भगवान शिव के अलावा अन्य देवताओं की दीक्षा भी धारण किए हैं, उनके
संबंध में ध्यानपूर्वक सुनिए-ब्राह्मणो! जहां से शालग्राम शिला की उत्पत्ति होती है, वहां
उत्पन्न लिंग में रसलिंग में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिंग में, देवताओं तथा सिद्धो
द्वारा प्रतिष्ठित लिंग में, केसर लिंग, स्फटिक लिंग, रत्न निर्मित लिंग तथा समस्त ज्योतिलिँगों
में विराजमान भगवान शिव के नैवेद्य को ग्रहण करना 'चांद्रायण व्रत' के समान पुण्यदायक
है। शिव नेवेद्य भक्षण करने एवं उसे सिर पर धारण करने से ब्रह्म हत्या के पाप से भी
छुटकारा मिल जाता है और मनुष्य पवित्र हो जाता है परंतु जहां चाण्डालों का अधिकार हो
वहां का महाप्रसाद भक्तिपूर्वक भक्षण नहीं करना चाहिए। बाणलिंग, लौह निर्मित लिंग
सिद्धलिंग उपासना से प्राप्त अर्थात सिद्धों द्वारा स्थापित लिंग, स्वयंभूलिंग एवं मूर्तियों का
जहां पर चण्ड का अधिकार नहीं है, जो मनुष्य भक्तिपूर्वक स्नान कराकर उस जल का तीन
बार आचमन करता है, उसके सभी कायिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हो जाते हैं। जो
वस्तु भगवान शिव को अर्पित की जाती है वह अत्यंत पवित्र मानी जाती है।
हे ऋषियो! बिल्व अर्थात बेल का वृक्ष महादेव का रूप है। देवताओं द्वारा इसकी स्तुति
की गई है। तीनों लोकों में स्थित सभी तीर्थ बिल्व में ही निवास करते हैं क्योंकि इसकी जड़ में
लिंग रूपी महादेव जी का वास होता है। जो इसकी पूजा करता है, वह निश्चय ही शिवपद
प्राप्त करता है।
जो मनुष्य बिल्व की जड़ के पास अपने मस्तक को जल से सींचता है, उसे संपूर्ण तीर्थ
स्थलों पर स्नान का फल प्राप्त होता है। बिल्व की जडों को पूरा पानी से भरा देखकर
भगवान शिव संतुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं, जो मनुष्य बिल्व की जडों अर्थात मूल भाग का गंध,
पुष्प इत्यादि से पूजन करता है वह सीधा शिवलोक जाता है। उसे संतान और सुख की प्राप्ति
होती है। भक्तिपूर्वक पवित्र मन से बिल्व की जड़ में दीपक जलाने वाला मनुष्य सब पापों से
छूट जाता है। इस वृक्ष के नीचे जो मनुष्य एक शिवभक्त ब्राह्मण को भोजन कराता हे, उसे
एक करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल मिलता है। इस वृक्ष के नीचे दूध-घी में पके
अन्न का दान देने से दरिद्रता दूर हो जाती है।
हे त्रषियो! प्रवृत्ति और *निवृत्ति' के दो मार्ग हें। 'प्रवृत्ति' के मार्ग में पूजा-पाठ करने से
मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह संपूर्ण अभीष्ट फल प्रदान करता है। किसी सुपात्र गुरु द्वारा
विधि-विधान से पूजन कराएं। अभिषेक के बाद अगहनी चावल से बना नैवेद्य अर्पण करें।
पूजा के अंत में शिवलिंग को संपुट में विराजमान कर घर में किसी शुद्ध स्थान पर रख दें।
निवृत्ति मार्गी उपासकों को हाथ में ही पूजन करना चाहिए। भिक्षा में प्राप्त भोजन को ही
नेवेद्य के रूप में अर्पित करें। निवृत्ति पुरुषों के लिए सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ है। विभूति से पूजन
करें तथा विभूति को ही निवेदित करें। पूजा करने के उपरांत लिंग को मस्तक पर धारण करें।
तेईसवां अध्याय
शिव नाम की महिमा
ऋषि बोले--हे व्यास शिष्य सूत जी! आपको नमस्कार है। हम पर कृपा कर हमें परम
उत्तम 'रुद्राक्ष' तथा शिव नाम की महिमा का माहात्म्य सुनाइए।
सूत जी बोले-हे ऋषियो! आपने बहुत ही उत्तम तथा समस्त लोकों के हित की बात
पूछी है। भगवान शिव की उपासना करने वाले मनुष्य धन्य हैं। उनका मनुष्य होना सफल हो
गया है। साथ ही शिवभक्ति से उनके कुल का उद्धार हो गया है। जो मनुष्य अपने मुख से
सदाशिव और शिव नामों का उच्चारण करते हैं, पाप उनका स्पर्श भी नहीं कर पाता है।
भस्म, रुद्राक्ष और शिव नाम त्रिवेणी के समान महा पुण्यमय हैं। इन तीनों के निवास और
दर्शन मात्र से ही त्रिवेणी के स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। इनका निवास जिसके शरीर में
होता है, उसके दर्शन से ही सभी पापों का विनाश हो जाता है। भगवान शिव का नाम “गंगा”
है, विभूति (भस्म) 'यमुना' मानी गई है तथा रुद्राक्ष को 'सरस्वती' कहा गया है। इनकी
संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करने वाली है। है श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इनकी महिमा सिर्फ
भगवान महेश्वर ही जानते हैं। यह शिव नाम का माहात्म्य समस्त पापों को हर लेने वाला है।
'शिव-नाम' अग्नि है और 'महापाप' पर्वत है। इस अग्ने से पाप रूपी पर्वत जल जाते हैं।
शिव नाम को जपने मात्र से ही पाप-मूल नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस पृथ्वी लोक में
भगवान शिव के जाप में लगा हुआ रहता है, वह विद्वान पुण्यात्मा और वेदों का ज्ञाता है।
उसके द्वारा किए गए धर्म-कर्म फल देने वाले हैं। जो भी मनुष्य शिव नाम रूपी नौका पाकर
भवसागर को तर जाते हैं, उनके भवरूपी पाप निःसंदेह ही नष्ट हो जाते हैं। जो पाप रूपी
दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नामरूपी अमृत का पान करना चाहिए।
है मुनीश्वरो! जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है, उसे ही पापों का नाश करने वाली
शिव भक्ति प्राप्त होती है। जिस मनुष्य के मन में कभी न खण्डित होने वाली शिव-भक्ति
प्रकट हुई है, उसे ही मोक्ष मिलता है। जो अनेक पाप करके भी भगवान शिव के नाम-जप में
आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें जरा भी संशय नहीं है।
जिस प्रकार जंगल में दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिव नाम रूपी
दावानल से दग्ध होकर उसके सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जिसके भस्म लगाने से अंग पवित्र
हो गए हैं और जो आदर सहित शिव नाम जपता है, वह इस अथाह भवसागर से पार हो
जाता है। संपूर्ण वेदों का अवलोकन करके महर्षियों ने शिव नाम को संसार-सागर को पार
करने का उपाय बताया है। भगवान शंकर के एक नाम में भी पाप को समाप्त करने की
इतनी शक्ति है कि उतने पातक कभी कोई मनुष्य कर ही नहीं सकता। पूर्वकाल में इंद्रद्युम्न
नाम का एक महापापी राजा हुआ था और एक ब्राह्मण युवती, जो बहुत पाप कर चुकी थी,
शिव नाम के प्रभाव से दोनों उत्तम गति को प्राप्त हुए। हे द्विजो! इस प्रकार मैंने तुमसे शिव
नाम की महिमा का वर्णन किया है।
चौबीसवां अध्याय
भस्मधारण की महिमा
सूत जी ने कहा--हे ऋषियो! अब मैं तुम्हारे लिए समस्त वस्तुओं को पावन करने वाले
भस्म का माहात्म्य सुनाता हूं। भस्म दो प्रकार की होती है-एक 'महाभस्म' और दूसरी
'स्वल्प भस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। यह तीन प्रकार की होती है-'श्रोता',
'स्मार्थ', और 'लौकिक'। श्रोता और स्मार्थ भस्म केवल ब्राह्मणों के ही उपयोग में आने योग्य
है। लौकिक भस्म का उपयोग सभी मनुष्यजन कर सकते हैं। ब्राह्मणों को वैदिक मंत्रों का
जाप करते हुए भस्म धारण करनी चाहिए तथा अन्य मनुष्य बिना मंत्रों के भस्म धारण कर
सकते हैं। उपलों से सिद्ध की हुई भस्म “आग्नेय भस्म' कहलाती है। यह त्रिपुण्ड का द्रव्य है।
अन्य यज्ञ से प्रकट हुई भस्म भी त्रिपुण्ड धारण के काम आती है। जाबालि उपनिषद के
अनुसार, “अग्नि' इत्यादि मंत्रों द्वारा सात बार जल में भिगोकर शरीर में भस्म लगाएं। तीनों
संध्याओं में जो शिव भस्म से त्रिपुण्ड लगाता है, वह सब पापों से मुक्त होकर शिव की कृपा
से मोक्ष पाता है। त्रिपुण्ड और भस्म लगाकर विधिपूर्वक जाप करें। भगवान शिव और विष्णु
ने भी त्रिपुण्ड धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और देवी लक्ष्मी ने इनकी
प्रशंसा की है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूट्रों, वर्णसंकरों तथा जातिभ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन
एवं त्रिपुण्ड रूप में भस्म धारण की है।
महर्षियो! इस प्रकार संक्षेप में मैने त्रिपुण्ड का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के
लिए गोपनीय है। ललाट अर्थात माथे पर भौंहों के मध्य भाग से भौंहों के अंत भाग जितना
बड़ा त्रिपुण्ड ललाट में धारण करना चाहिए। मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएं
करके अंगूठे द्वारा बीच में सीधी रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। त्रिपुण्ड अत्यंत उत्तम तथा भोग
और मोक्ष देने वाला है। त्रिपुण्ड की एक-एक रेखा में नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित
हैं। प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति,
प्रातः सवन तथा महादेव-ये त्रिपुण्ड की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का दूसरा अक्षर
उकार-दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यदिन सवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा तथा
महेश्वर—ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का तीसरा अक्षर मकार आहवनीय अग्नि,
परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद तृतीय सवन तथा शिव—ये तीसरी रेखा के
नौ देवता हैं।
प्रतिदिन स्नान से शुद्ध होकर भक्तिभाव से त्रिपुण्ड में स्थित देवताओं को नमस्कार कर
त्रिपुण्ड धारण करें तो भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है। भस्म को बत्तीस, सोलह,
आठ अथवा पांच स्थानों में धारण करें। सिर, माथा, दोनों कान, दोनों आंखें, नाक के दोनों
नथुनों, दोनों हाथ, मुंह, कंठ, दोनों कोहनी, दोनों भुजदंड, हृदय, दोनों बगल, नाभि, दोनों
अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों घुटनों, दोनों पिंडली, दोनों जांघों और पांव आदि बत्तीस अंगों में
क्रमश: अग्नि, वायु, पृथ्वी, देश, दसों दिशाएं, दसों दिग्पाल, आठों वसुंधरा, ध्रुव, सोम, आम,
अनिल, प्रातःकाल इत्यादि का नाम लेकर भक्तिभाव से त्रिपुण्ड धारण करें अथवा
एकाग्रचित्त हो सोलह स्थान में ही त्रिपुण्ड धारण करें। सिर, माथा, कण्ठ, दोनों कंधों, दोनों
हाथों, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयों, हृदय, नाभि, दोनों पसलियों एवं पीठ में त्रिपुण्ड
लगाकर इन सोलह अंगों में धारण करें। तब अश्विनीकुमार, शिवशक्ति, रुद्र, ईश, नारद और
वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करके उन्हें त्रिपुण्ड में धारण करें। सिर, बालों, दोनों कान,
मुंह, दोनों हाथ, हृदय, नाभि, उरुयुगल, दोनों पिंडली एवं दोनों पावों-इन सोलह अंगों में
क्रमशः शिव, चंद्रमा, रुद्र, ब्रह्मा, गणेश, लक्ष्मी, विष्णु, शिव, प्रजापति, नाग, दोनों नाग कन्या,
ऋषि कन्या, समुद्र तीर्थ इत्यादि के नाम स्मरण करके त्रिपुण्ड भस्म धारण करें। माथा, दोनों
कान, दोनों कंधे, छाती, नाभि एवं गुह्य अंग आदि आठ अंगों में सप्तऋषि ब्राह्मणों का नाम
लेकर भस्म धारण करें अथवा मस्तक, दोनों भुजाएं, हृदय और नाभि इन पांच स्थानों को
भस्म धारण करने के योग्य बताया गया है। देश तथा काल को ध्यान में रखकर भस्म को
अभिमंत्रित करना चाहिए तथा भस्म को जल में मिलाना चाहिए। त्रिनेत्रधारी, सभी गुणों के
आधार तथा सभी देवताओं के जनक और ब्रह्मा एवं रुद्र की उत्पत्ति करने वाले परब्रह्म
परमात्मा 'शिव' का ध्यान करते हुए ' नमः शिवाय' मंत्र को बोलते हुए माथे एवं अंगों पर
त्रिपुण्ड धारण करें।
पच्चीसवां अध्याय
रुद्राक्ष माहात्म्य
सूत जी कहते हैं-महाज्ञानी शिवस्वरूप शौनक! भगवान शंकर के प्रिय रुद्राक्ष का
माहात्म्य मैं तुम्हें सुना रहा हूं। यह रुद्राक्ष परम पावन है। इसके दर्शन, स्पर्श एवं जप करने से
समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इसकी महिमा तो स्वयं सदाशिव ने संपूर्ण लोकों के कल्याण के
लिए देवी पार्वती को सुनाई है।
भगवान शिव बोले-हे देवी! तुम्हारे प्रेमवश भक्तों के हित की कामना से रद्राक्ष की
महिमा का वर्णन कर रहा हूं। पूर्वकाल में मैंने मन को संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक
घोर तपस्या की। एक दिन अचानक मेरा मन क्षुब्ध हो उठा और मैं सोचने लगा कि मैं संपूर्ण
लोकों का उपकार करने वाला स्वतंत्र परमेश्वर हूं। अतः मैंने लीलावश अपने दोनों नेत्र खोल
दिए। नेत्र खुलते ही मेरे नेत्रों से जल की झड़ी लग गई, उसी से गौड़ देश से लेकर मथुरा
अयोध्या, काशी, लंका, मलयाचल पर्वत आदि स्थानों में रुद्राक्षों के पेड़ उत्पन्न हो गए। तभी
से इनका माहात्म्य बढ़ गया और वेदों में भी इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इसलिए
रुद्राक्ष की माला समस्त पापों का नाश कर भक्ति-मुक्ति देने वाली है। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय
और शूद्र जातियों में जन्मे शिवभक्त सफेद, लाल, पीले या काले रुद्राक्ष धारण करें। मनुष्यों
को जाति अनुसार ही रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। आंवले के फल के बराबर रद्राक्ष को श्रेष्ठ
माना जाता है। बेर के फल के बराबर को मध्यम श्रेणी का और चने के आकार के रुद्राक्ष को
निम्न श्रेणी का माना जाता है।
हे देवी! बेर के समान रुद्राक्ष छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख,
सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। जो रुद्राक्ष आंवले के बराबर है, वह सभी अनिष्टों का
विनाश करने वाला तथा सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है। रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा
होता है, वैसे ही वैसे अधिक फल देने वाला होता है। पापों का नाश करने के लिए रुद्राक्ष
धारण अवश्य करना चाहिए। यह संपूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति सुनिश्चित करता है। लोक में
मंगलमय रुद्राक्ष जेसा फल देने वाला कुछ भी नहीं है। समान आकार वाले चिकने, गोल,
मजबूत, मोटे, कांटेदार रुद्राक्ष (उभरे हुए छोटे-छोटे दानों वाले रुद्राक्ष) सब मनोरथ सिद्धि एवं
भक्ति-मुक्ति दायक हैं किंतु कीड़ों द्वारा खाए गए, टूटे-फूटे, कांटों से युक्त तथा जो पूरा गोल
न हो, इन पांच प्रकार के रद्राक्षों का त्याग करें। जिस रुद्राक्ष में अपने आप डोरा पिरोने के
लिए छेद हो, वही उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य द्वारा छेद किया हो उसे मध्यम श्रेणी का
माना जाता है। इस जगत में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जो फल पाता है, उसका
वर्णन नहीं किया जा सकता। भक्तिमान पुरुष साढ़े पांच सौ रुद्राक्ष के दानों का मुकुट बना ले
और उसे सिर पर धारण करे। तीन सौ साठ दानों का हार बना ले, ऐसे तीन हार बनाकर
उनका यज्ञोपवीत धारण करे।
महर्षियो! सिर पर ईशान मंत्र से, कान में तत्पुरुष मंत्र से रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। गले
में रुद्राक्ष, मस्तक पर त्रिपुण्डधारी रुद्राक्ष पहने 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करने वाला
मनुष्य यमपुर को नहीं जाता। रुद्राक्ष माला पर मंत्र जपने का करोड़ गुना फल मिलता है।
तीन मुख वाला रुद्राक्ष साधन सिद्ध करता है एवं विद्याओं में निपुण बनाता है। चार मुख
वाला रुद्राक्ष ब्रह्मस्वरूप है। इसके दर्शन एवं पूजन से नर-हत्या का पाप छूट जाता है। यह
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थो का फल देता है। पांच मुख वाले रुद्राक्ष को
कालाग्नि अर्थात पंचमुखी कहा जाता है। यह सर्व कामनाएं पूर्ण कर मोक्ष प्रदान करता है।
अभोग्य स्त्रियों को भोगने के पाप तथा भक्षण के पापों से मुक्त हो जाता है। छः मुखी रुद्राक्ष
कार्तिकेय का स्वरूप है। इसको सीधी बांह में बांधने से ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिलती है।
सप्तमुखी रुद्राक्ष धारण करने से धन की प्राप्ति होती है। आठ मुखों वाला रुद्राक्ष 'भैरव' का
स्वरूप है। इसे धारण करने से लंबी आयु प्राप्त होती है और मरने पर शिव-पद प्राप्त हो
जाता है। नौ मुखों वाला रुद्राक्ष भैरव तथा कपिल मुनि का स्वरूप माना जाता है और
भगवती दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इसे बाएं हाथ में धारण करने से समस्त
वैभवों की प्राप्ति होती है। दस मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात भगवान विष्णु का रूप है। इसे
धारण करने से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। ग्यारह मुख वाला रद्राक्ष रुद्ररूप है। इसको
धारण करने से मनुष्य को सब स्थानों पर विजय मिलती है। बारह मुख वाले रुद्राक्ष को बालों
में धारण करने से मस्तक पर ] सूर्यो के समान तेज प्राप्त होता है। तेरह मुख वाला रुद्राक्ष
विश्वेदेवों का स्वरूप है। इसे धारण करने से सौभाग्य और मंगल का लाभ मिलता है। चौदह
मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव स्वरूप है। इसे भक्तिपूर्वक मस्तक पर धारण करने से समस्त
पापों का नाश हो जाता है। इस प्रकार मुखों के भेद से रुद्राक्ष के चौदह भेद बताए गए हैं। हे
पार्वती जी! अब मैं तुम्हें रुद्राक्ष धारण के मंत्र सुनाता हूं-() 'ॐ हीं नमः', (2) 'ॐ नमः',
(3) 'क्लीं नम ॐ ह्वीं नम ॐ ह्वीं नम ॐ हीं हुं नमः', (7) 'ॐ हुं
नमः', (8) 'ॐ हुं नमः', (9) 'ॐ हुं नमः', (0) “ॐ हृ हुं नमः', () 'ॐ ह्वीं हुं नमः', (2)
ॐ हुं नमः', (3) 'ॐ क्रौं क्षीरो नमः’ तथा (।4) 'ॐ ह्रीं नमः'। इन चौदह मंत्रों द्वारा
क्रमशः एक से लेकर चौदह मुख वाले रुद्राक्ष को धारण करने का विधान है। साधक को नींद
और आलस्य का त्याग कर श्रद्धाभक्ति से मंत्रों द्वारा रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले मनुष्य को देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी,
शाकिनी दूर भाग जाते हैं। रुद्राक्षधारी पुरुष को देखकर स्वयं मैं, भगवान विष्णु, देवी दुर्गा,
गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए धर्म की वृद्धि के लिए भक्तिपूर्वक
मंत्रों द्वारा विधिवत रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
मुनीश्वर! भगवान शिव ने देवी पार्वती से जो कुछ कहा था, वह मैंने आपको कह सुनाया
है। मैंने आपके समक्ष विद्येश्वर संहिता का वर्णन किया है। यह संहिता संपूर्ण सिद्धियों को देने
वाली तथा भगवान शिव की आज्ञा से मोक्ष प्रदान करने वाली है। जो मनुष्य इसे नित्य पढ़ते
अथवा सुनते हैं, वे पुत्र-पौत्रादि के सुख भोगकर, सुखमय जीवन व्यतीत करके अंत में
शिवरूप होकर मुक्त हो जाते हैं।
।। विद्येश्वर संहिता संपूर्ण ।।
।। ॐ नमः शिवाय ।।
श्रीरुद्र संहिता
प्रथम खण्ड
पहला अध्याय
ऋषिगणों की वार्ता
जो विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय आदि के एकमात्र कारण हैं,
गिरिराजकुमारी उमा के पति हैं, जिनकी कीर्ति का कहीं अंत नहीं है, जो
माया के आश्रय होकर भी उससे दूर हैं तथा जिनका स्वरूप दुर्लभ है, मैं उन
भगवान शंकर की वंदना करता हूं। जिनकी माया विश्व की सृष्टि करती है।
जैसे लोहा चुंबक से आकर्षित होकर उसके पास ही लटका रहता है, उसी
प्रकार ये सारे जगत जिसके आसपास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने इन प्रपंचों
को रचने की विधि बताई है, जो सभी के भीतर अंतर्यामी रूप से विराजमान
हैं, मैं उन भगवान शिव को नमन करता हूं।
ऋषि बोले-हे सूत जी! अब आप हमसे भगवान शिव व पार्वती के परम उत्तम व दिव्य
स्वरूप का वर्णन कीजिए। सृष्टि की रचना से पूर्व, सृष्टि के मध्यकाल व अंतकाल में महेश्वर
किस प्रकार व किस रूप में स्थित होते हैं? सभी लोकों का कल्याण करने वाले भगवान शिव
कैसे प्रसन्न होते हैं? तथा प्रसन्न होने पर अपने भक्तों को कौन-कौन से उत्तम फल देते हैं?
हमने सुना है कि भगवान शिव महान दयालु हैं। अपने भक्तों को कष्ट में नहीं देख सकते।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवता शिवजी के अंग से ही उत्पन्न हुए हैं। हम पर कृपा कर
शिवजी के प्राकट्य, देवी उमा की उत्पत्ति, शिव-उमा विवाह, गृहस्थ धर्म एवं शिवजी के
अनंत चरित्रों को सुनाइए।
सूत जी बोले--हे ऋषियो! आप लोगों के प्रश्न पतित-पावनी श्री गंगाजी के समान हैं। ये
सुनने वालों, कहने वालों और पूछने वालों इन तीनों को पवित्र करने वाले हैं। आपकी इस
कथा को सुनने की आंतरिक इच्छा है, इसलिए आप धन्यवाद के पात्र हैं। ब्राह्मणो! भगवान
शंकर का रूप साधु, राजसी और तामसी तीनों प्रकृति के मनुष्यों को सदा आनंद प्रदान करने
वाला है। वे मनुष्य, जिनके मन में कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे-ऐसे महात्मा पुरुष भगवान शिव
के गुणों का ज्ञान करते हैं क्योंकि शिव की भक्ति मन और कानों को प्रिय लगने वाली और
संपूर्ण मनोरथों को देने वाली है। हे ऋषियो! मैं आपके प्रश्नों के अनुसार ही शिव के चरित्रों
का वर्णन करता हूं, आप उसे आदरपूर्वक श्रवण करें। आपके प्रश्नों के अनुसार ही नारद जी
ने अपने पिता ब्रह्माजी से यही प्रश्न किया था, तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर शिव चरित्र सुनाया
था। उसी संवाद को मैं तुम्हें सुनाता हूं क्योंकि उस संवाद में भवसागर से मुक्त कराने वाले
गौरीश की अनेकों आश्चर्यमयी लीलाएं वर्णित हैं।
दूसरा अध्याय
नारद जी की काम वासना
सूत जी बोले--हे ऋषियो! एक समय की बात है। ब्रह्मा पुत्र नारद जी हिमालय पर्वत की
एक गुफा में बहुत दिनों से तपस्या कर रहे थे। उन्होंने दृढ़तापूर्वक समाधि लगाई थी और तप
करने लगे थे। उनके उग्र तप का समाचार पाकर देवराज इंद्र कांप उठे। उन्होंने सोचा कि
नारद मुनि मेरे स्वर्गलोक के राज्य को छीनना चाहते हैं। यह खयाल आते ही इंद्र ने उनकी
तपस्या में विघ्न डालने की कोशिश की। उन्होंने कामदेव को बुलाया और कहने लगे-हे
कामदेव! तुम मेरे परम मित्र एवं हितैषी हो। नारद हिमाचल पर्वत की गुफा में बैठकर तपस्या
कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि वह वरदान में ब्रह्माजी से मेरा स्वर्ग का राज्य ही मांग बैठे।
अतः तुम वहां जाकर उसका तप भंग कर दो। यह आज्ञा पाकर कामदेव वसंत को साथ ले
बड़े गर्व से उस स्थान पर गए और अपनी सारी कलाएं रच डालीं। कामदेव और वसंत के
बहुत प्रयत्न करने पर भी नारद मुनि के मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ। महादेव जी के
अनुग्रह से उन दोनों का गर्व चूर्ण हो गया।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि महादेव जी की कृपा से नारद मुनि पर कामदेव का कोई
प्रभाव नहीं पड़ा था। पहले उस आश्रम में भगवान शिव ने भी तपस्या की थी। उसी स्थान पर
उन्होंने ऋषि-मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को भस्म कर डाला था।
कामदेव को भस्म देखकर उनकी पत्नी रति ने बिलखते हुए भगवान शंकर से उन्हें जीवित
करने की प्रार्थना की तथा सभी देवता भी शिवजी से प्रार्थना करने लगे तो भगवान महादेव
जी ने कहा था कि कुछ समय पश्चात कामदेव स्वयं जीवित हो जाएंगे। किंतु इस स्थान पर
और इसके आस-पास जहां तक भस्म दिखाई देती है, वहां तक की पृथ्वी पर कामदेव की
माया और काम बाण का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इस प्रकार उस स्थान से कामदेव लज्जित
होकर वापस लौट आया। देवराज इंद्र ने जब यह सुना कि नारद जी पर कामदेव का कोई
प्रभाव नहीं पड़ा तो उन्होंने नारद जी की खूब प्रशंसा की। भगवान शिव की माया के कारण
वे भूल गए थे कि शिवजी के शाप के कारण उस स्थान पर कामदेव की माया नहीं चल
सकती। नारद जी भगवान शिव की कृपा से बहुत समय तक तपस्या करते रहे। अपने तप
को पूर्ण हुआ समझकर नारद जी उठे तो उन्हें कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ध्यान
आया। तब उन्हें मन ही मन इस बात का घमंड हुआ कि उन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर
ली है। इस प्रकार अभिमान से उनका ज्ञान नष्ट हो गया। वे यह समझ नहीं सके कि कामदेव
के पराजित होने में भगवान शंकर की ही माया थी। तब वे अपनी काम विजय की कथा
सुनाने के लिए शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे और भगवान शिव को नमस्कार करके
अपनी तपस्या की सफलता का समाचार तथा कामदेव पर विजय प्राप्त करने का समाचार
कह सुनाया।
यह सब सुनकर महादेव जी ने नारद की प्रशंसा करते हुए कहा--हे नारद जी! आप परम
धन्य हैं परंतु मेरी एक बात याद रखना कि यह समाचार किसी अन्य देवता को मत सुनाना
विशेषकर भगवान विष्णु से तो इस बात को कदापि न कहना। यह वृत्तांत सबसे छिपाकर
रखने योग्य है। तुम मेरे प्रिय हो, इसलिए मैं तुम्हें यह आज्ञा देता हूं कि यह बात किसी के
सामने प्रकट मत करना। परंतु वे तो शिव की माया से मोहित हो चुके थे। इसलिए उनकी दी
शिक्षा को ध्यान में न रखते हुए वे ब्रह्मलोक चले गए। वहां ब्रह्माजी को नमस्कार कर बोले
मैंने अपने तपोबल से कामदेव को जीत लिया है। यह सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान शिव के
चरणों का चिंतन करके सारा कारण जान लिया तथा अपने पुत्र नारद को यह सब किसी और
से कहने के लिए मना कर दिया।
नारद के मन में अभिमान के अंकुर उत्पन्न हो गए थे जिसके फलस्वरूप उनकी बुद्धि नष्ट
हो गई थी। वे तो तुरंत विष्णुलोक पहुंचकर भगवान विष्णु को यह सारा किस्सा सुनाना
चाहते थे। अतः शीघ्र ही वे ब्रह्मलोक से चल दिए। नारद मुनि को आते देखकर भगवान विष्णु
सिंहासन से उठ खड़े हुए। उन्होंने नारद को गले लगा लिया और आदर सहित आसन पर
बैठाया। भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके भगवान विष्णु ने नारद जी से पूछा, नारद
जी! आप कहां से आ रहे हैं और इस लोक में आपका शुभागमन किसलिए हुआ है? यह
सुनकर नारद जी ने अहंकार सहित अपने तप के पूर्ण होने एवं कामदेव पर विजय प्राप्त
करने का समस्त हाल उन्हें कह सुनाया। भगवान विष्णु काम के विजय के असली कारण को
समझ चुके थे। वे नारद जी से बोले-हे नारद जी! आपकी कीर्ति एवं निर्मल बुद्धि धन्य है।
काम-क्रोध एवं लोभ-मोह उन मनुष्यों को पीड़ित करते हैं, जो भक्तिहीन हैं। आप तो ज्ञान,
वैराग्य से युक्त एवं ब्रह्मचारी हैं, फिर भला यह काम आपका क्या बिगाड़ सकता था?
देवर्षि नारद बोले—हे भगवन्! यह सब आपकी कृपा का ही फल है। आपकी कृपा के
आगे कामदेव की क्या सामर्थ्य है जो मेरा कुछ बिगाड़ सके। मैं तो सदा ही निर्भय हूं। इतना
कहकर नारद जी विष्णु भगवान को नमस्कार कर वहां से चल दिए।
तीसरा अध्याय
नारद जी का भगवान विष्णु से उनका रूप मांगना
सूत जी बोले--महर्षियो! नारद जी के चले जाने पर शिवजी की इच्छा से विष्णु भगवान
ने एक अदभुत माया रची। उन्होंने जिस ओर नारद जी जा रहे थे, वहां एक सुंदर नगर बना
दिया। वह नगर बैकुण्ठलोक से भी अधिक रमणीय था। वहां बहुत से विहार-स्थल थे। उस
नगर के राजा का नाम 'शीलनिधि' था। उस राजा की एक बहुत सुंदर कन्या थी। उन्होंने
अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया था। उनकी कन्या का वरण करने के लिए
उत्सुक बहुत से राजकुमार पधारे थे। वहां बहुत चहल-पहल थी। इस नगर की शोभा देखते
ही नारद जी का मन मोहित हो गया। जब राजा शीलनिधि ने नारद जी को आते देखा तो उन्हें
सादर प्रणाम करके स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर अपनी देव-सुंदरी
कन्या को बुलाया जिसने महर्षि के चरणों में प्रणाम किया। नारद जी से उसका परिचय
कराते हुए शीलनिधि ने निवेदन किया-महर्षि! यह मेरी पुत्री 'श्रीमती' है। इसके स्वयंवर का
आयोजन किया गया है। इस कन्या के गुण दोषों को बताने की कृपा कीजिए।
राजा के ऐसे वचन सुनकर नारद जी बोले-राजन! आपकी कन्या साक्षात लक्ष्मी है।
इसका भावी पति भगवान शिव के समान वैभवशाली, त्रिलोकजयी, वीर तथा कामदेव को
भी जीतने वाला होगा। ऐसा कहकर नारद मुनि वहां से चल दिए। शिव की माया के कारण वे
काम के वशीभूत हो सोचने लगे कि राजकुमारी को कैसे प्राप्त करूं? स्वयंवर में आए सुंदर
एवं वैभवशाली राजाओं को छोड़कर भला यह मेरा वरण कैसे करेगी? वे सोचने लगे कि
नारियों को सौंदर्य बहुत प्रिय होता है। सौंदर्य को देखकर ही 'श्रीमती' मेरा वरण कर सकती
है। ऐसा विचार कर नारद जी फिर विष्णुलोक में जा पहुंचे और उन्हें राजा शीलनिधि की
कन्या के स्वयंवर के बारे में बताया तथा उस कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा व्यक्त
की। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे अपना रूप उन्हें प्रदान करें ताकि श्रीमती
उन्हें ही वरे।
सूत जी कहते है-महर्षियो! नारद मुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान मधुसूदन हंस पड़े
और भगवान शंकर के प्रभाव का अनुभव करके उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया। भगवान
विष्णु बोले-हे नारद! वहां आप अवश्य जाइए, मैं आपका हित उसी प्रकार करूंगा, जिस
प्रकार पीड़ित व्यक्ति का श्रेष्ठ वैद्य करता है क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो। ऐसा कहकर
भगवान विष्णु ने नारद मुनि को वानर का मुख तथा शेष अंगों को अपना मनोहर रूप प्रदान
कर दिया। तब नारद जी अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने को परम सुंदर समझकर शीघ्र ही
स्वयंवर में आ गए और उस राज्य सभा में जा बैठे। उस सभा में रुद्रगण ब्राह्मण के रूप में
बैठे हुए थे। नारद जी का वानर रूप केवल कन्या और रुद्रगणों को ही दिखाई दे रहा था,
बाकी सबको नारद जी का वास्तविक रूप ही दिखाई दे रहा था। नारद जी मन ही मन प्रसन्न
होते हुए श्रीमती की प्रतीक्षा कर रहे थे।
हे ऋषियो! वह कन्या हाथ में जयमाला लिए अपनी सखियों के साथ स्वयंवर में आई।
उसके हाथों में सोने की सुंदर माला थी। वह शुभलक्षणा राजकुमारी लक्ष्मी के समान अपूर्व
शोभा पा रही थी। नारद मुनि का भगवान विष्णु जेसा शरीर और वानर जैसा मुख देख वह
कुपित हो गई और उनकी ओर से दृष्टि हटाकर मनोवांछित वर की तलाश में आगे चली गई।
सभा में अपने मनपसंद वर को न पाकर वह उदास हो गई। उसने किसी के भी गले में
वरमाला नहीं डाली। तभी भगवान विष्णु राजा की वेशभूषा धारण कर वहां आ पहुंचे।
विष्णुजी को देखते ही उस परम सुंदरी ने उनके गले में वरमाला डाल दी। विष्णुजी
राजकुमारी को साथ लेकर तुरंत अपने लोक को चले गए। यह देखकर नारद जी विचलित हो
गए। तब ब्राह्मणों के रूप में उपस्थित रुद्रगणों ने नारद जी से कहा-हे नारद जी! आप व्यर्थ
ही काम से मोहित हो सौंदर्य के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हैं। पहले जरा अपना
वानर के समान मुख तो देख लीजिए। सूत जी बोले-यह वचन सुनकर नारद जी को बड़ा
आश्चर्य हुआ। उन्होंने दर्पण में अपना मुंह देखा। वानर के समान मुख को देखकर वे अत्यंत
क्रोधित हो उठे तथा दोनों रुद्रगणों को शाप देते हुए बोले—तुमने एक ब्राह्मण का मजाक
उड़ाया है। अतः तुम ब्राह्मण कुल में पैदा होकर भी राक्षस बन जाओ। यह सुनकर वे शिवगण
कुछ नहीं बोले बल्कि इसे भगवान शिव की इच्छा मानते हुए उदासीन भाव से अपने स्थान
को चले गए और भगवान शिव की स्तुति करने लगे।
चौथा अध्याय
नारद जी का भगवान विष्णु को शाप देना
ऋषि बोले--हे सूत जी! रुद्रगणों के चले जाने पर नारद जी ने क्या किया और वे कहां
गए? इस सबके बारे में भी हमें बताइए।
सूत जी बोले--हे ऋषियो! माया से मोहित नारद जी उन दोनों शिवगणों को शाप देकर
भी मोहवश कुछ जान न सके। तत्पश्चात क्रोधित होते हुए वे तालाब के पास पहुंचे और वहां
जल में पुनः अपनी परछाई देखी तो उन्हें फिर वानर जैसी आकृति दिखाई दी। उसे देखकर
नारद जी को और अधिक क्रोध चढ़ आया। वे सीधे विष्णुलोक की ओर चल दिए। वहां
पहुंचकर भगवान विष्णु से वे बोले-हे हरि! तुम बड़े दुष्ट हो। अपने कपट से विश्व को मोहने
वाले तुम दूसरों को सुखी होता नहीं देख सकते। तभी तो तुमने सागर मंथन के समय
मोहिनी' का रूप धारण कर दैत्यों से अमृत का कलश छीन लिया था और उन्हें अमृत की
जगह मदिरा पिलाकर पागल बना दिया था। यदि उस समय भगवान शंकर दया करके विष
को न पीते तो तुम्हारा सारा कपट प्रकट हो जाता। तुम्हें कपटपूर्ण चालें अधिक प्रिय हैं।
भगवान महादेव जी ने ब्राह्मणों को सर्वोपरि बताया है। आज तुम्हें मैं ऐसी सीख दूंगा, जिससे
तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कार्य नहीं कर सकोगे। अब तक तुम्हारा किसी शक्तिशाली
मनुष्य से पाला नहीं पड़ा है। इसलिए तुम निडर बने हुए हो परंतु अब तुम्हें तुम्हारी करनी का
पूरा फल मिलेगा। माया मोहित नारद जी क्रोध से खिन्न थे। वे भगवान विष्णु को शाप देते
हुए बोले-विष्णु! तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया है। तुम सभी को मोह में डालते हो।
तुमने राजा का रूप धारण करके मुझे छला था। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम्हारे जिस
रूप ने कपटपूर्वक मुझे छला है, तुम्हें वही रूप मिले। तुम राजा होगे और इसी तरह स्त्री का
वियोग भोगोगे, जिस तरह मीं भोग रहा हूं। तुमने जिन वानरों के समान मेरी आकृति बना दी
है, वही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। तुम दूसरों को स्त्री वियोग का दुख देते हो, इसलिए
तुम्हें भी यही दुख भोगना पड़ेगा। तुम्हारी स्थिति अज्ञान से मोहित मनुष्य जैसी हो जाएगी।
अज्ञान से मोहित नारद जी का शाप विष्णु भगवान ने स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात
उन्होंने महालीला करने वाली मोहिनी माया को समाप्त कर दिया। माया के जाते ही नारद जी
का खोया हुआ ज्ञान लौट आया और उनकी बुद्धि पहले की तरह हो गई। उनकी सारी
व्याकुलता चली गई तथा मन में आश्चर्य उत्पन्न हो गया। यह सब जानकर नारद जी बहुत
पछताने लगे और अपने को धिक्कारते हुए भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और उनसे
क्षमा मांगने लगे। नारद जी कहने लगे कि मैंने अज्ञानवश होकर और माया के कारण आपको
जो शाप दे दिया है, वह झूठा हो जाए। भगवान मेरी बुद्धि खराब हो गई थी, जो मैंने आपके
लिए बुरे वचन अपनी जबान से निकाले। मैंने बहुत बड़ा पाप किया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा
कर मुझे ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे मेरा सारा पाप नष्ट हो जाए। कृपया मुझे प्रायश्चित
का तरीका बताइए। तब श्रीविष्णु ने उन्हें उठाकर मधुर वाणी में कहा--
हे महर्षि! आप दुखी न हों, आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। नारद जी
आप चिंता मत कीजिए, आप परम धन्य हैं। आपने अहंकार के वशीभूत होकर भगवान शिव
की आज्ञा का पालन नहीं किया था। इसलिए उन्होंने ही आपका गर्व नष्ट करने के लिए यह
लीला रची थी। वे निर्गुण और निर्विकार हैं और सत, रज और तम आदि गुणों से परे हैं।
उन्होंने अपनी माया से ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों रूपों को प्रकट किया है। निर्गुण अवस्था
में उन्हीं का नाम शिव है, वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनंत और महादेव
नामों से जाने जाते हैं। उन्हीं की आज्ञा से ब्रह्माजी जगत के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकों का
पालन करता हूं और शिवजी रुद्ररूप में सबका संहार करते हैं। वे शिवस्वरूप सबके साक्षी
हैं। वे माया से भिन्न और निर्गुण हैं। वे अपने भक्तों पर सदा दया करते हैं। मैं तुम्हें समस्त
पापों का नाश करने वाला, भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाला उपाय बताता हूं। अपने सारे
शकों एवं चिताओं को त्यागकर भगवान शंकर की यश और कीर्ति का गुणगान करो और
सदा अनन्य भाव से शिवजी के शतनाम स्तोत्र का पाठ करो। उनकी उपासना करो तथा
प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना करो। जो मनुष्य शरीर, मन और वाणी द्वारा भगवान शिव की
उपासना करते हैं, उन्हें पण्डित या ज्ञानी कहा जाता है। जो मनुष्य शिवजी की भक्ति करते हैं
उन्हें संसाररूपी भवसागर से तत्काल मुक्ति मिल जाती है। जो लोग पाप रूपी दावानल से
पीड़ित हैं, उन्हें शिव नाम रूपी अमृत का पान करना चाहिए। वेदों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने
के पश्चात ही ज्ञानी मनुष्यों ने शिवजी की पूजा को जन्म-मरण रूपी बंधनों से मुक्त होने का
सर्वश्रेष्ठ साधन बताया है। इसलिए आज से ही रोज भगवान शिव की कथा सुनो और कहा
करो तथा उनका पूजन किया करो। अपने हृदय में भगवान शिव के चरणों की स्थापना करो
तथा उनके तीर्थो में निवास करते हुए उनकी स्तुति कर उनका गुणगान करो।
इसके बाद नारद जी तुम मेरी आज्ञा से अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए ब्रह्मलोक जाना।
वहां अपने पिता ब्रह्माजी की स्तुति करके उनसे शिव महिमा के बारे में पूछना। ब्रह्माजी
शिवभक्तो में श्रेष्ठ हैं। वे तुम्हें भगवान शंकर का माहात्म्य और शतनाम स्तोत्र अवश्य
सुनाएंगे। आज से तुम शिवभक्ति में लीन हो जाओ। वे अवश्य तुम्हारा कल्याण करेंगे। यह
कहकर विष्णुजी अंतर्धान हो गए।
पाचवा अध्याय
नारद जी का शिवतीर्थों में भ्रमण व ब्रह्माजी से प्रश्न
सूत जी बोले--महर्षियो! भगवान श्रीहरि के अंतर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद
शिवलिंगों का भक्तिपूर्वक दर्शन करने के लिए निकल गए। इस प्रकार भक्ति-मुक्ति देने वाले
अनेक शिवलिंगों के उन्होंने दर्शन किए। जब उन रुद्रगणों ने नारद जी को वहां देखा तो वे
दोनों गण अपने शाप की मुक्ति के लिए उनके चरणों पर गिर पड़े और उनसे प्रार्थना करने
लगे कि वे उनका उद्धार करें। नारद मुने! हम आपके अपराधी हैं। राजकुमारी श्रीमती के
स्वयंवर में आपका मन माया से मोहित था। उस समय भगवान शिव की प्रेरणा से आपने हमें
शाप दे दिया था। अब आप हमारी जीवन रक्षा का उपाय कीजिए। हमने अपने कर्मो का फल
भोग लिया हौ। कृपा कर हम पर प्रसन्न होकर हमें शापमुक्त कीजिए।
नारद जी ने कहा--हे रुद्रगणों! आप महादेव के गण हैं एवं सभी के लिए आदरणीय हैं।
उस समय भगवान शिव की इच्छा से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। इसलिए मोहवश मैंने आपको
शाप दे दिया था। आप लोग मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें। परंतु मेरा वचन झूठा नहीं हो
सकता। इसलिए मैं आपको शाप से मुक्ति का उपाय बताता हूं। मुनिवर विश्रवा के वीर्य द्वारा
तुम एक राक्षसी के गर्भ में जन्म लोगे। समस्त दिशाओं में रावण और कुंभकर्ण के नाम से
प्रसिद्धि पाओगे। राक्षसराज का पद प्राप्त करोगे। तुम बलवान व वैभव से युक्त होओगे।
तुम्हारा प्रताप सभी लोकों में फैलेगा। समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर भी भगवान शिव के
परम भक्तों में होओगे। भगवान शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के अवतार के हाथों से
मृत्यु पाकर तुम्हारा उद्धार होगा तथा फिर अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जाओगे।
सूत जी कहने लगे कि इस प्रकार नारद जी का कथन सुनकर वे दोनों रुद्रगण प्रसन्न होते
हुए वहां से चले गए और नारद जी भी आनंद से सराबोर हो मन ही मन शिवजी का ध्यान
करते हुए शिवतीथों का दर्शन करने लगे। इसी प्रकार भ्रमण करते-करते वे शिव की प्रिय
नगरी काशीपुरी में पहुंचे और काशीनाथ का दर्शन कर उनकी पूजा-उपासना की। श्री नारद
जी शिवजी की भक्ति में डूबे, उनका स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को चले गए। वहां पहुंचकर
उन्होंने ब्रह्माजी को आदरपूर्वक नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। उस समय
उनका हृदय शुद्ध हो चुका था और उनके हृदय में शिवजी के प्रति भक्ति भावना ही थी और
कुछ नहीं।
नारद जी बोले-हे पितामह! आप तो परमब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को अच्छी प्रकार से
जानते हो। आपकी कृपा से मैंने भगवान विष्णु के माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त किया है एवं भक्ति
मार्ग, ज्ञान मार्ग, तपो मार्ग, दान मार्ग तथा तीर्थ मार्ग के बारे में जाना है परंतु मैं शिव तत्व के
ज्ञान को अभी तक नहीं जान पाया हूं। मैं उनकी पूजा विधि को भी नहीं जानता हूं। अतः
अब मैं उनके बारे में सभी कुछ जानना चाहता हूं। मैं भगवान शिव के विभिन्न चरित्रों, उनके
स्वरूप तथा वे सृष्टि के आरंभ में, मध्य में, किस रूप में थे, उनकी लीलाएं कैसी होती हैं और
प्रलय काल में भगवान शिव कहां निवास करते हैं? उनका विवाह तथा उनके पुत्र कार्तिकेय
के जन्म आदि की कथाएं मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूं। भगवान शिव कैसे प्रसन्न
होते है और प्रसन्न होने पर क्या-क्या प्रदान करते हैं? इस संपूर्ण वृत्तांत को मुझे बताने की
कृपा करें।
अपने पुत्र नारद की ये बातें सुनकर पितामह ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए।
छठा अध्याय
ब्रह्माजी द्वारा शिवतत्व का वर्णन
ब्रह्माजी ने कहा--है नारद! तुम सदैव जगत के उपकार में लगे रहते हो। तुमने जगत के
लोगों के हित के लिए बहुत उत्तम बात पूछी है। जिसके सुनने से मनुष्य के सब जन्मों के
पापों का नाश हो जाता है। उस परमब्रह्म शिवतत्व का वर्णन मैं तुम्हारे लिए कर रहा हूं। शिव
तत्व का स्वरूप बहुत सुंदर और अदभुत है। जिस समय महाप्रलय आई थी और पूरा संसार
नष्ट हो गया था तथा चारों ओर सिर्फ अंधकार ही अंधकार था, आकाश व ब्रह्माण्ड तारों व
ग्रहों से रहित होकर अंधकार में डूब गए थे, सूर्य और चंद्रमा दिखाई देने बंद हो गए थे, सभी
ग्रहों और नक्षत्रों का कहीं पता नहीं चल रहा था, दिन-रात, अग्नि-जल कुछ भी नहीं था।
प्रधान आकाश और अन्य तेज भी शून्य हो गए थे। शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, रस का अभाव हो
गया था, सत्य-असत्य सबकुछ खत्म हो गया था, तब सिर्फ 'सत्' ही बचा था। उस तत्व को
मुनिजन एवं योगी अपने हृदय के भीतर ही देखते हैं। वाणी, नाम, रूप, रंग आदि की वहां
तक पहुंच नहीं है।
उस परब्रह्म के विषय में ज्ञान और अज्ञान से किए गए संबोधन के द्वारा कुछ समय बाद
अर्थात सृष्टि का समय आने पर एक से अनेक होने के संकल्प का उदय हुआ। तब उन्होंने
अपनी लीला से मूर्ति की रचना की। वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्य तथा गुणों से युक्त, संपन्न
सर्वज्ञानमयी एवं सबकुछ प्रदान करने वाली है। यही सदाशिव की मूर्ति है। सभी पण्डित,
विद्वान इसी प्राचीन मूर्ति को ईश्वर कहते हैं। उसने अपने शरीर से स्वच्छ शरीर वाली एवं
स्वरूपभूता शक्ति की रचना की। वही परमशक्ति, प्रकृति गुणमयी और बुद्धित्व की जननी
कहलाई। उसे शक्ति, अंबिका, प्रकृति, संपूर्ण लोकों की जननी, त्रिदेवों की माता, नित्या और
मूल कारण भी कहते हैं। उसकी आठ भुजाओं एवं मुख की शोभा विचित्र है। उसके मुख के
सामने चंद्रमा की कांति भी क्षीण हो जाती है। विभिन्न प्रकार के आभूषण एवं गतियां देवी की
शोभा बढ़ाती हैं। वे अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं।
सदाशिव को ही सब मनुष्य परम पुरुष, ईश्वर, शिव-शंभु और महेश्वर कहकर पुकारते हैं।
उनके मस्तक पर गंगा, भाल में चंद्रमा और मुख में तीन नेत्र शोभा पाते हैं। उनके पांच मुख हैं
तथा दस भुजाओं के स्वामी एवं त्रिशूलधारी हैं। वे अपने शरीर में भस्म लगाए हैं। उन्होंने
शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया है। यह परम पावन स्थान काशी नाम से जाना जाता
है। यह परम मोक्षदायक स्थान है। इस क्षेत्र में परमानंद रूप "शिव" पार्वती सहित निवास
करते हैं। शिव और शिवा ने प्रलयकाल में भी उस स्थान को नहीं छोड़ा। इसलिए शिवजी ने
इसका नाम आनंदवन रखा है।
एक दिन आनंदवन में घूमते समय शिव-शिवा के मन में किसी दूसरे पुरुष की रचना करने
की इच्छा हुई। तब उन्होंने सोचा कि इसका भार किसी दूसरे व्यक्ति को सौंपकर हम यहीं
काशी में विराजमान रहेंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने अपने वामभाग के दसवें अंग पर अमृत मल
दिया। जिससे एक सुंदर पुरुष वहां प्रकट हुआ, जो शांत और सत्व गुणों से युक्त एवं गंभीरता
का अथाह सागर था। उसकी कांति इंद्रनील मणि के समान श्याम थी। उसका पूरा शरीर
दिव्य शोभा से चमक रहा था तथा नेत्र कमल के समान थे। उसने हाथ जोड़कर भगवान शिव
और शिवा को प्रणाम किया तथा प्रार्थना की कि मेरा नाम निश्चित कीजिए। यह सुनकर
भगवान शिव हंसकर बोले कि सर्वत्र व्यापक होने से तुम्हारा नाम “विष्णु” होगा। तुम भक्तों
को सुख देने वाले होओगे। तुम यहीं स्थिर रहकर तप करो। वही सभी कार्यों का साधन है।
ऐसा कहकर शिवजी ने उन्हें ज्ञान प्रदान किया तथा वहां से अंतर्धान हो गए। तब विष्णुजी ने
बारह वर्ष तक वहां दिव्य तप किया। तपस्या के कारण उनके शरीर से अनेक जलधाराएं
निकलने लगीं। उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्मरूप जल अपने
स्पर्शमात्र से पापों का नाश करने वाला था। उस जल में भगवान विष्णु ने स्वयं शयन किया।
नार अर्थात जल में निवास करने के कारण ही वे 'नारायण' कहलाए। तभी से उन महात्मा से
सब तत्वों की उत्पत्ति हुई। पहले प्रकृति से महान और उससे तीन गुण उत्पन्न हुए तथा उनसे
अहंकार उत्पन्न हुआ। उससे शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध एवं पांच भूत प्रकट हुए। उनसे
ज्ञानेंद्रियां एवं कर्मेद्रियां बनीं। उस समय एकाकार 24 तत्व प्रकृति से प्रकट हुए एवं उनको
ग्रहण करके परम पुरुष नारायण भगवान शिवजी की इच्छा से जल में सो गए।
सातवा अध्याय
विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णु के मध्य अग्नि-स्तंभ का प्रकट होना
ब्रह्माजी कहते हैं--हे देवर्षि! जब नारायण जल में शयन करने लगे, तब शिवजी की
इच्छा से विष्णुजी की नाभि से एक बहुत बड़ा कमल प्रकट हुआ। उसमें असंख्य नालदण्ड
थे। वह पीले रंग का था और उसकी ऊंचाई भी कई योजन थी। कमल सुंदर, अदभुत और
संपूर्ण तत्वों से युक्त था। वह रमणीय और पुण्य दर्शनों के योग्य था। तत्पश्चात भगवान शिव
ने मुझे अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया। उन महेश्वर ने अपनी माया से मोहित कर नारायण
देव के नाभि कमल में मुझे डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे प्रकट किया। इस प्रकार उस
कमल से पुत्र के रूप में मुझे जन्म मिला। मेरे चार मुख लाल मस्तक पर त्रिपुण्ड धारण किए
हुए थे। भगवान शिव की माया से मोहित होने के कारण मेरी ज्ञानशक्ति बहुत दुर्लभ हो गई
थी और मुझे कमल के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैं कौन हूं? कहां से
आया हूं? मेरा कार्य क्या है? मैं किसका पुत्र हूँ? किसने मेरा निर्माण किया है? कुछ इसी
प्रकार के प्रश्नों ने मुझे परेशानी में डाल दिया था। कुछ क्षण बाद मुझे बुद्धि प्राप्त हुई और
मुझे लगा कि इसका पता लगाना बहुत सरल है। इस कमल का उदगम स्थान इस जल में
नीचे की ओर है और इसके नीचे मैं उस पुरुष को पा सकूंगा जिसने मुझे प्रकट किया है। यह
सोचकर एक नाल को पकड़कर मीं सौ वर्षों तक नीचे की ओर उतरता रहा, परंतु फिर भी मैंने
कमल की जड़ को नहीं पाया। इसलिए मैं पुन: ऊपर की ओर बढ़ने लगा। बहुत ऊपर जाने
पर भी कमल कोश को नहीं पा सका। तब मैं और अधिक परेशान हो गया। उसी समय
भगवान शिव की इच्छा से मंगलमयी आकाशवाणी प्रकट हुई। उस वाणी ने कहा, 'तपस्या
करो'।
उस आकाशवाणी को सुनकर अपने पिता का दर्शन करने हेतु मैंने तपस्या करना आरंभ
कर दिया और बारह वर्ष तक घोर तपस्या की। तब चार भुजाधारी, सुंदर नेत्रों से शोभित
भगवान विष्णु प्रकट हुए। उन्होंने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पदम धारण कर रखे थे।
उनका शरीर श्याम कांति से सुशोभित था। उनके मस्तक पर मुकुट विराजमान था तथा
उन्होंने पीतांबर वस्त्र और बहुत से आभूषण धारण किए हुए थे। वे करोड़ों कामदेवों के
समान मनोहर दिखाई दे रहे थे और सांवली व सुनहरी आभा से शोभित थे। उन्हें वहां
देखकर मुझे बहुत हर्ष व आश्चर्य हुआ।
भगवान शिव की लीला से हम दोनों में विवाद छिड़ गया कि हम में बड़ा कौन है? उसी
समय हम दोनों के बीच में एक ज्योतिर्मय लिंग प्रकट हो गया। हमने उसका पता लगाने का
निश्चय किया। मैंने ऊपर की ओर और विष्णुजी ने नीचे की ओर उस स्तंभ के आरंभ और
अंत का पता लगाने के लिए चलना आरंभ किया परंतु हम दोनों को उस स्तंभ का कोई ओर-
छोर नहीं मिला। थककर हम दोनों अपने उसी स्थान पर आ गए। हम दोनों ही शिवजी की
माया से मोहित थे। श्रीहरि ने सभी ओर से परमेश्वर शिव को प्रणाम किया। ध्यान करने पर
भी हमें कुछ ज्ञात न हो सका। तब मैंने और श्रीहरि ने अपने मन को शुद्ध करते हुए अग्नि
स्तंभ को प्रणाम किया।
हम दोनों कहने लगे--महाप्रभु! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो भी हैं, हम
आपको नमस्कार करते हैं! आप शीघ्र ही हमें अपने असली रूप में दर्शन दें। इस प्रकार हम
दोनों अपने अहंकार को भूलकर भगवान शिव को नमस्कार करने लगे। ऐसा करते हुए सौ
वर्ष बीत गए।
आठवा अध्याय
ब्रह्मा-विष्णु को भगवान शिव के दर्शन
ब्रह्माजी बोले--मुनिश्रेष्ठ नारद! हम दोनों देवता घमंड को भूलकर निरंतर भगवान शिव
का स्मरण करने लगे। हमारे मन में ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट परमेश्वर के वास्तविक रूप
का दर्शन करने की इच्छा और प्रबल हो गई। शिव शंकर गरीबों के प्रतिपालक, अहंकारियों
के गर्व को चूर करने वाले तथा सबके अविनाशी प्रभु हैं। वे हम पर दया करते हुए हमारी
उपासना से प्रसन्न हो गए। उस समय वहां उन सुरश्रेष्ठ से 'ॐ' नाद स्पष्ट रूप से सुनाई देता
था। उस नाद के विषय में मैं और विष्णुजी दोनों यही सोच रहे थे कि यह कहां से सुनाई पड़
रहा है। उन्होंने लिंग के दक्षिण भाग में सनातन आदिवर्ण अकार का दर्शन किया। उत्तर भाग
में उकार का, मध्य भाग में मकार का और अंत में 'ॐ' नाद का साक्षात दर्शन एवं अनुभव
किया। दक्षिण भाग में प्रकट हुए आकार का सूर्य मण्डल के समान तेजोमय रूप देखकर
जब उन्होंने उत्तर भाग में देखा तो वह अग्नि के समान दीप्तिशाली दिखाई दिया। तत्पश्चात
'ॐ' को देखा, जो सूर्य और चंद्रमण्डल की भांति स्थित थे और जिनके शुरू एवं अंत का
कुछ पता नहीं था तथा सत्य आनंद और अमृत स्वरूप परब्रह्म परायण ही दृष्टिगोचर हो रहा
था। परंतु यह कहां से प्रकट हुआ है? इस आग्ने स्तंभ की उत्पत्ति कहां से हुई है? यह श्रीहरि
सोचने लगे तथा इसकी परीक्षा लेने के संबंध में विचार करने लगे। तब श्रीहरि ने भगवान
शिव का चिंतन करते हुए वेद और शब्द के आवेश से युक्त हो अनुपम अग्नि स्तंभ के नीचे
जाने का निर्णय लिया। मैं और विष्णुजी विश्वात्मा शिव का चिंतन कर रहे थे, तभी वहां एक
ऋषि प्रकट हुए। उन्हीं ऋषि के द्वारा परमेश्वर विष्णु ने जाना कि इस शब्द ब्रह्ममय शरीर वाले
परम लिंग के रूप में साक्षात परब्रह्मस्वरूप महादेव जी प्रकट हुए हैं। ये चितारहित रुद्र हैं।
परब्रह्म परमात्मा शिव का वाचक प्रणव ही है। वह एक सत्य परम कारण, आनंद, अकृत,
परात्पर और परमब्रह्म है। प्रणव के पहले अक्षर 'अकार' से जगत के बीजभूत अर्थात
ब्रह्माजी का बोध होता है। दूसरे अक्षर 'उकार' से सभी के कारण श्रीहरि विष्णु का बोध होता
है। तीसरा अक्षर 'मकार' से भगवान शिव का ज्ञान होता है। 'अकार' सृष्टिकर्ता, “उकार' मोह
में डालने वाला और 'मकार' नित्य अनुग्रह करने वाला है। 'मकार' अर्थात भगवान शिव
बीजी अर्थात बीज के स्वामी हैं, तो 'अकार' अर्थात ब्रह्माजी बीज हैं। 'उकार' अर्थात
विष्णुजी योनि हैं। महेश्वर बीजी, बीज और योनि हैं। इन सभी को नाद कहा गया है। बीजी
अपने बीज को अनेक रूपों में विभक्त करते हैं। बीजी भगवान शिव के लिंग से “उकार' रूप
योनि में स्थापित होकर चारों तरफ ऊपर की ओर बढ़ने लगा। वह दिव्य अण्ड कई वर्षों तक
जल में रहा।
हजारों वर्ष के बाद भगवान शिव ने इस अण्ड को दो भागों में विभक्त कर दिया। तब
इसके दो भागों में से पहला सुवर्णमय कपाल ऊपर की ओर स्थित हो गया, जिससे स्वर्गलोक
उत्पन्न हुआ तथा कपाल के नीचे के भाग से पांच तत्वों वाली पृथ्वी प्रकट हुई। उस अण्ड से
चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जो समस्त लोकों के सृष्टा हैं। भगवान महेश्वर ही 'अ', उ" व 'म'
त्रिविध रूपों में वर्णित हैं। इसलिए ज्योतिर्लिंग स्वरूप सदाशिव को 'ॐ' कहा गया है।
इसकी सिद्धि यजुर्वेद में भी होती है। देवेश्वर शिव को जानकर विष्णुजी ने शक्ति संभूत मंत्रों
द्वारा उत्तम एवं महान अभ्युदय से शोभित भगवान शिव की स्तुति करनी शुरू कर दी। इसी
समय मैंने और विश्वपालक भगवान विष्णु ने एक अद्भुत व सुंदर रूप देखा। जिसके पांच
मुख, दस भुजा, कपूर के समान गौरवर्ण, परम कांतिमय, अनेक आभूषणों से विभूषित,
महान उदार, महावीर्यवान और महापुरुषों के लक्षणों से युक्त था और जिसके दर्शन पाकर मैं
और विष्णुजी धन्य हो गए। तब परमेश्वर महादेव भगवान प्रसन्न होकर अपने दिव्यमय रूप में
स्थित हो गए। 'अकार' उनका मस्तक और आकार ललाट है। इकार दाहिना और ईकार
बायां नेत्र है। उकार दाहिना और ऊकार बायां कान है। ऋकार दायां और ऋकार बायां गाल
है। लू, लिं उनकी नाक के छिद्र हैं। एकार और ऐकार उनके दोनों होंठ हैं। ओकार और
औकार उनकी दोनों दंत पक्तियां हैं। अं और अः देवाधिदेव शिव के तालु हैं। 'क' आदि पांच
अक्षर उनके दाहिने पांच हाथ हैं और 'च' आदि बाएं पांच हाथ हैं। 'त' और 'ट' से शुरू पांच
अक्षर उनके पैर हैं। पकार पेट है, फकार दाहिना और बकार बायां पार्श्च भाग है। भकार
कंधा, मकार हृदय है। हकार नाभि है। 'य' से 'स' तक के सात अक्षर सात धातुएं हैं जिनसे
भगवान शिव का शरीर बना है।
इस प्रकार भगवान महादेव व भगवती उमा के दर्शन कर हम दोनों कृतार्थ हो गए। हमने
उनके चरणों में प्रणाम किया तब हमें पांच कलाओं से युक्त ॐकार जनित मंत्र का
साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात महादेव जी 'ॐ तत्वमसि" महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ, जो परम
उत्तम मंत्ररूप है। इसके बाद धर्म और अर्थ का साधक बुद्धिस्वरूप चौबीस अक्षरीय गायत्री
मंत्र प्रकट हुआ, जो पुरुषार्थरूपी फल देने वाला है। तत्पश्चात मृत्युंजय-मंत्र फिर पंचाक्षर मंत्र
तथा दक्षिणामूर्ति व चिंतामणि का साक्षात्कार हुआ। इन पांचों मंत्रों को विष्णु भगवान ने
ग्रहण कर जपना आरंभ किया। ईशों के मुकुट मणि ईशान हैं, जो पुरातत्व पुरुष हैं, हृदय को
प्रिय लगने वाले, जिनके चरण सुंदर हैं, जो सांप को आभूषण के रूप में धारण करते हैं,
जिनके पैर व नेत्र सभी ओर हैं, जो मुझ ब्रह्मा के अधिपति, कल्याणकारी तथा सृष्टिपालन
एवं संहार करने वाले हैं। उन वरदायक शिव की मेरे साथ भगवान विष्णु ने प्रिय वचनों द्वारा
संतुष्ट चित्त से स्तुति की।
नवा अध्याय
देवी उमा एवं भगवान शिव का प्राकट्य एवं उपदेश देना
ब्रह्माजी बोले--नारद! भगवान विष्णु द्वारा की गई अपनी स्तुति सुनकर कल्याणमयी
शिव बहुत प्रसन्न हुए और देवी उमा सहित वहां प्रकट हो गए। भगवान शिव के पांच मुख थे
और हर मुख में तीन-तीन नेत्र थे, मस्तक में चंद्रमा, सिर पर जटा तथा संपूर्ण अंगों में विभूति
लगा रखी थी। दसभुजा वाले गले में नीलकंठ, आभूषणों से विभूषित और माथे पर भस्म का
त्रिपुण्ड लगाए थे। उनका यह रूप मन को मोहित करने वाला और परम आनंदमयी था।
महादेव जी के साथ भगवती उमा ने भी हमें दर्शन दिए। उनको देखकर मैंने और विष्णुजी ने
पुनः उनकी स्तुति करनी शुरू कर दी। तब पापों का नाश करने वाले तथा अपने भक्तों पर
सदा कृपादृष्टि रखने वाले महेश्वर ने मुझे और भगवान विष्णु को श्वास से वेद का उपदेश
दिया। तत्पश्चात उन्होंने हमें गुप्त ज्ञान प्रदान किया। वेद का ज्ञान प्राप्त कर कृतार्थ हुए
विष्णुजी और मैंने भगवान शिव और देवी के सामने अपने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार
किया तथा प्रार्थना की।
विष्णुजी ने पूछा-हे देव! आप किस प्रकार प्रसन्न होते हैं? तथा किस प्रकार आपकी
पूजा और ध्यान करना चाहिए? कृपया कर हमें इसके बारे में बताएं तथा सदुपदेश देकर धन्य
करें।
ब्रह्माजी कहते है-नारद! इस प्रकार श्रीहरि की यह बात सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए
कृपानिधान शिव ने प्रीतिपूर्वक यह बात की।
श्रीशिव बोले-मैं तुम दोनों की भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं। मेरे इसी रूप का पूजन व चिंतन
करना चाहिए। तुम दोनों महाबली हो। मेरे दाएं-बाएं अंगों से तुम प्रकट हुए हो। लोकपिता
ब्रह्मा मेरे दाहिने पार्श्व से और पालनहार विष्णु मेरे बाएं पार्श्व से प्रकट हुए हो। मैं तुम पर
भली-भांति प्रसन्न हूं और तुम्हें मनोवांछित फल देता हूं। तुम दोनों की भक्ति सुदृढ़ हो। मेरी
आज्ञा का पालन करते हुए ब्रह्माजी आप जगत की रचना करें तथा भक्त विष्णुजी आप इस
जगत का पालन करें।
भगवान विष्णु बोले-प्रभो! यदि आपके हृदय में हमारी भक्ति से प्रीति उत्पन्न हुई है और
आप हम पर प्रसन्न होकर हमें वर देना चाहते हैं, तो हम यही वर मांगते हैं कि हमारे हृदय में
सदैव आपकी अनन्य एवं अविचल भक्ति बनी रहे।
ब्रह्माजी बोले-नारद! विष्णुजी की यह बात सुनकर भगवान शंकर प्रसन्न हुए। तब हमने
दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।
शिवजी कहते हैं-मैं सृष्टि, पालन और संहार का कर्ता हूं। मेरा स्वरूप सगुण और निर्गुण
है! मैं ही सच्चिदानंद निर्विकार परमब्रह्म और परमात्मा हूं। सृष्टि की रचना, रक्षा और
प्रलयरूप गुणों के कारण मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण कर तीन रूपों में विभक्त
हुआ हूं। मैं भक्तवत्सल हूं और भक्तों की प्रार्थना को सदैव पूरी करता हूं। मेरे इसी अंश से रुद्र
की उत्पत्ति होगी। पूजा की विधि-विधान की दृष्टि से हममें कोई अंतर नहीं होगा। विष्णु,
ब्रह्मा और रुद्र तीनों एकरूप होंगे। इनमें भेद नहीं है। इनमें जो भेद मानेगा, वह घोर नरक को
भोगेगा। मेरा शिवरूप सनातन है तथा सभी का मूलभूत रूप है। यह सत्य ज्ञान एवं अनंत
ब्रह्म है, ऐसा जानकर मेरे यथार्थ स्वरूप का दर्शन करना चाहिए। मैं स्वयं ब्रह्माजी की भृकुटि
से प्रकट होऊंगा। ब्रह्माजी आप सूष्टि के निर्माता बनो, श्रीहरि विष्णु इसका पालन करें तथा
मेरे अंश से प्रकट होने वाले रुद्र प्रलय करने वाले हैं। 'उमा' नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति
देवी है। इन्हीं की शक्तिभूता वाग्देवी सरस्वती ब्रह्माजी की अर्धांगिनी होंगी और दूसरी देवी,
जो प्रकृति देवी से उत्पन्न होंगी, लक्ष्मी रूप में विष्णुजी की शोभा बढ़ाएंगी तथा काली नाम
से जो तीसरी शक्ति उत्पन्न होगी, वह मेरे अंशभूत रुद्रदेव को प्राप्त होंगी। कार्यसिद्धि के लिए
वे ज्योतिरूप में प्रकट होंगी। उनका कार्य सृष्टि, पालन और संहार का संपादन है। मैं ही सृष्टि,
पालन और संहार करने वाले रज आदि तीन गुणों द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम से प्रसिद्ध
हो तीन रूपों में प्रकट होता हूं। तीनों लोकों का पालन करने वाले श्रीहरि अपने भीतर
तमोगुण और बाहर सत्वगुण धारण करते हैं, त्रिलोक का संहार करने वाले रुद्रदेव भीतर
सत्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवन की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी बाहर
और भीतर से रजोगुणी हैं। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र तीनों देवताओं में गुण हैं तो शिव
गुणातीत माने जाते हैं। हे विष्णो! तुम मेरी आज्ञा से सृष्टि का प्रसन्नतापूर्वक पालन करो।
ऐसा करने से तुम तीनों लोकों में पूजनीय होओगे।
दसवा अध्याय
श्रीहरि को सृष्टि की रक्षा का भार एवं त्रिदेव को आयुर्बल देना
परमेश्वर शिव बोले--हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले विष्णु! तुम सर्वदा सब लोकों में
पूजनीय और मान्य होगे। ब्रह्माजी के द्वारा रचे लोक में कोई दुख या संकट होने पर दुखों
और संकटों का नाश करने के लिए तुम सदा तत्पर रहना। तुम अनेकों अवतार ग्रहण कर
जीवों का कल्याण कर अपनी कीर्ति का विस्तार करोगे। मैं तुम्हारे कार्यों में तुम्हारी सहायता
करूंगा और तुम्हारे शत्रुओं का नाश करूंगा। तुममें और रुद्र में कोई अंतर नहीं है, तुम एक-
दूसरे के पूरक हो। जो मनुष्य रुद्र का भक्त होकर तुम्हारी निंदा करेगा, उसका पुण्य नष्ट हो
जाएगा और उसे नरक भोगना पड़ेगा। मनुष्यों को तुम भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले और
उनके परम पूज्य देव होकर उनका निग्रह, अनुग्रह आदि करोगे।
ऐसा कहकर भगवान शिव ने मेरा हाथ विष्णुजी के हाथ में देकर कहा-तुम संकट के
समय सदा इनकी सहायता करना तथा सभी को भोग और मोक्ष प्रदान करना तथा सभी
मनुष्यों की कामनाओं को पूरा करना। तुम्हारी शरण में आने वाले मनुष्य को मेरा आश्रय भी
मिलेगा तथा हममें भेद करने वाला मनुष्य नरक में जाएगा।
ब्रह्माजी कहते हैं-देवर्षि नारद! भगवान शिव का यह वचन सुनकर मैंने और भगवान
विष्णु ने महादेव जी को प्रणाम कर धीरे से कहा—हे करुणानिधि भगवान शंकर! मैं आपकी
आज्ञा मानकर सब कार्य करूंगा। मेरा जो भक्त आपकी निंदा करे, उसे आप नरक प्रदान
करें। आपका भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।
महादेव जी बोले-अब ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के आयुर्बल को सुनो। चार हजार युग का
ब्रह्मा का एक दिन होता है और चार हजार युग की एक रात होती है। तीस दिन का एक
महीना और बारह महीनों का एक वर्ष होता है! इस प्रकार के वर्ष-प्रमाण से ब्रह्मा की सौ वर्ष
की आयु होती है और ब्रह्मा का एक वर्ष विष्णु का एक दिन होता है। वह भी इसी प्रकार से
सौ वर्ष जिएंगे तथा विष्णु का एक वर्ष रुद्र के एक दिन के बराबर होता है और वह भी इसी
क्रम से सौ वर्ष तक स्थित रहेंगे। तब शिव के मुख से एक ऐसा श्वास प्रकट होता है, जिसमें
उनके इक्कीस हजार छः सौ दिन और रात होते हैं। उनके छः बार सांस अंदर लेने और
छोड़ने का एक पल और आठ घड़ी और साठ घड़ी का एक दिन होता है। उनके सांसों की
कोई संख्या नहीं है इसलिए वे अक्षय हैं। अतः तुम मेरी आज्ञा से सृष्टि का निर्माण करो।
उनके वचनों को सुनकर विष्णुजी ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा कि आपकी आज्ञा मेरे लिए
शिरोधार्य है। यह सुनकर भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अंतर्धान हो गए। उसी
समय से लिंग पूजा आरंभ हो गई।
ग्यारहवां अध्याय
शिव पूजन की विधि तथा फल प्राप्ति
ऋषि बोले--हे सूत जी! अब आप हम पर कृपा कर हमें ब्रह्माजी व नारद के संवादों के
अनुसार शिव पूजन की विधि बताइए, जिससे भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र आदि चारों वर्णों को शिव पूजन किस प्रकार करना चाहिए? आपने व्यास जी
के मुख से जो सुना हो, कृपया हमें भी बताइए।
महर्षियों के ये वचन सुनकर सूत जी ने ऋषियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए
कहना आरंभ किया।
सूत जी बोले--हे मुनिश्वर! जैसा आपने पूछा है, वह बड़े रहस्य की बात है। मैंने इसे जैसा
सुना है, उसे मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपको सुना रहा हूं। पूर्वकाल में व्यास जी ने
सनत्कुमार जी से यही प्रश्न किया था। फिर उपमन्यु जी ने भी इसे सुना था और इसे भगवान
श्रीकृष्ण को सुनाया था। वही सब मैं अब ब्रह्मा-नारद संवाद के रूप में आपको बता रहा हूं।
ब्रह्माजी ने कहा-भगवान शिव की भक्ति सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है तथा
समस्त मनोवांछित फलों को देने वाली है। यह दरिद्रता, रोग, दुख तथा शत्रु द्वारा दी गई पीड़ा
का नाश करने वाली है। जब तक मनुष्य भगवान शिव का पूजन नहीं करता और उनकी
शरण में नहीं जाता, तब तक ही उसे दरिद्रता, दुख, रोग और शत्रुजनित पीड़ा, ये चारों प्रकार
के पाप दुखी करते हैं। भगवान शिव की पूजा करते ही ये दुख समाप्त हो जाते हैं और अक्षय
सुखों की प्राप्ति होती है। वह सभी भोगों को प्राप्त कर अंत में मोक्ष प्राप्त करता है। शिवजी
का पूजन करने वालों को धन, संतान और सुख की प्राप्ति होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
और शूट्रों को सभी कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिए विधि अनुसार पूजा-उपासना
करनी चाहिए।
ब्रह्ममुहूर्त में उठकर गुरु तथा शिव का स्मरण करके तीर्थो का चितन एवं भगवान विष्णु
का ध्यान करें। फिर मेरा स्मरण-चिंतन करके स्तोत्र पाठ पूर्वक शंकरजी का विधिपूर्वक नाम
लें। तत्पश्चात उठकर शौचक्रिया करने के लिए दक्षिण दिशा में जाएं तथा मल-मूत्र त्याग करें।
ब्राह्मण गुदा की शुद्धि के लिए उसमें पांच बार शुद्ध मिट्टी का लेप करें और धोऐएं। क्षत्रिय
चार बार, वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार यही क्रम करें। तत्पश्चात बाएं हाथ में दस बार और
दोनों हाथों में सात बार मिट्टी लगाकर धोएं। प्रत्येक पैर में तीन-तीन बार मिट्टी लगाएं।
स्त्रियों को भी इसी प्रकार क्रम करते हुए शुद्ध मिट्टी से हाथ-पैर धोने चाहिए। ब्राह्मण को
बारह अंगुल, क्षत्रिय को ग्यारह, वैश्य को दस और शूद्र को नौ अंगुल की दातुन करनी
चाहिए। षष्ठी, अमावस्या, नवमी, व्रत के दिन, सूर्यास्त के समय, रविवार और श्राद्ध के दिन
दातुन न करें। दातुन के पश्चात जलाशय में जाकर स्नान करें तथा विशेष देश-काल आने पर
मंत्रोच्चारपूर्वक स्नान करें। फिर एकांत स्थान पर बैठकर विधिपूर्वक संध्या करें तथा इसके
उपरांत विधि-विधान से शिवपूजन का कार्य आरंभ करें। तदुपरांत मन को सुस्थिर करके
पूजा ग्रह में प्रवेश करें तथा आसन पर बैठें।
सर्वप्रथम गणेश जी का पूजन करें। उसके उपरांत शिवजी की स्थापना करें। तीन बार
आचमन कर तीन प्राणायाम करते समय त्रिनेत्रधारी शिव का ध्यान करें। महादेव जी के पांच
मुख, दस भुजाएं और जिनकी स्फटिक के समान उज्ज्वल कांति है। सब प्रकार के आभूषण
उनके श्रीअंगों को विभूषित करते हैं तथा वे बाघंबर बांधे हुए हैं। फिर प्रणव-मंत्र अर्थात
ओंकार से शिवजी की पूजा आरंभ करें। पाद्य, अर्घ्य और आचमन के लिए पात्रों को तैयार
करें। नौ कलश स्थापित करें तथा उन्हें कुशाओं से ढककर रखें। कुशाओं से जल लेकर ही
सबका प्रक्षालन करें। तत्पश्चात सभी कलशों में शीतल जल डालें। खस और चंदन को
पाद्यपात्र में रखें। चमेली के फूल, शीतल चीनी, कपूर, बड़ की जड़ तथा तमाल का चूर्ण बना
लें और आचमनीय के पात्र में डालें। इलायची और चंदन को तो सभी पात्रों में डालें।
देवाधिदेव महादेव जी के सामने नंदीश्वर का पूजन करें। गंध, धूप तथा दीपों द्वारा भगवान
शिव की आराधना आरंभ करें।
‘सद्योजातं प्रपद्यामि’ मंत्र से शिवजी का आवाहन करें। ॐ वामदेवाय नमः' मंत्र द्वारा
भगवान महेश्वर को आसन पर स्थापित करें। फिर 'ईशानः सर्वविद्यानाम्” मंत्र से आराध्य देव
का पूजन करें। पाद्य और आचमनीय अर्पित कर अर्घ्य दें। तत्पश्चात गंध और चंदन मिले हुए
जल से भगवान शिव को विधिपूर्वक स्नान कराएं। तत्पश्चात पंचामृत से भगवान शिव को
स्नान कराएं। पंचामृत के पांचों तत्वों-दूध, दही, शहद, गन्ने का रस तथा घी से नहलाकर
महादेव जी के प्रणव मंत्र को बोलते हुए उनका अभिषेक करें। जलपात्रों में शुद्ध व शीतल
जल लें। सर्वप्रथम महादेव जी के लिंग पर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चंपा, गुलाब, सफेद
कनेर, बेला, कमल और उत्पल पुष्पों एवं चंदन को चढ़ाकर पूजा करें। उन पर अनवरत जल
की धारा गिरने की भी व्यवस्था करें। जल से भरे पात्रों से महेश्वर को नहलाएं। मंत्रों से भी
पूजा करनी चाहिए। ऐसी पूजा समस्त अभीष्ट फलों को देने वाली है।
पावमान मंत्र, रुद्र मंत्र, नीलरुद्र मंत्र, पुरुष सूक्त, श्री सूक्त, अथर्वशीर्ष मंत्र, शांति मंत्र,
भारुण्ड मंत्र, स्थंतरसाम, मृत्युंजय मंत्र एवं पंचाक्षर मंत्रों से पूजन करें। शिवलिंग पर एक
सहस्र या एक सौ जलधाराएं गिराने की व्यवस्था करें। स्फटिक के समान निर्मल, अविनाशी,
सर्वलोकमय परमदेव, जो आरंभ और अंत से हीन तथा रोगियों के औषधि के समान हैं,
जिन्हें शिव के नाम से पहचाना जाता है एवं जो शिवलिंग के रूप में विख्यात हैं, उन भगवान
शिव के मस्तक पर धूप, दीप, नैवेद्य और तांबूल आदि मंत्रों द्वारा अर्पित करें। अर्घ्य देकर
भगवान शिव के चरणों में फूल अर्पित करें। फिर महेश्वर को प्रणाम कर आत्मा से शिवजी
की आराधना करें और प्रार्थना करते समय हाथ में फूल लें। भगवान शिव से क्षमायाचना
करते हुए कहें-हे कल्याणकारी शिव! मैंने अनजाने में अथवा जानबूझकर जो जप-तप
पूजा आदि सत्कर्म किए हों, आपकी कृपा से वे सफल हों। हर्षित मन से शिवजी को फूल
अर्पित करें। स्वस्ति वाचन कर, अनेक आशीर्वाद ग्रहण करें। भगवान शिव से प्रार्थना करें कि
“प्रत्येक जन्म में मेरी शिव में भक्ति हो तथा शिव ही मेरे शरणदाता हों।' इस प्रकार परम
भक्ति से उनका पूजन करें। फिर सपरिवार भगवान को नमस्कार करें।
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रतिदिन भगवान शिव की पूजा करता है, उसे सब सिद्धियां प्राप्त
होती हैं। उसे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। उसके सभी रोग, दुख, दर्द और कष्ट
समाप्त हो जाते हैं। भगवान शिव की कृपा से उपासक का कल्याण होता है। भगवान शंकर
की पूजा से मनुष्य में सदगुणों की वृद्धि होती है।
यह सब जानकर नारद अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने पिता ब्रह्माजी को धन्यवाद देते हुए
बोले कि आपने मुझ पर कृपा कर मुझे शिव पूजन की अमृत विधि बताई है। शिव भक्ति
समस्त भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।
बारहवां अध्याय
देवताओं को उपदेश देना
नारद जी बोले--ब्रह्माजी! आप धन्य हैं क्योंकि आपने अपनी बुद्धि को शिव चरणों में
लगा रखा है। कृपा कर इस आनंदमय विषय का वर्णन सविस्तार पुनः कीजिए।
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! एक समय की बात है। मैने सब ओर से देवताओं और
ऋषियों को बुलाया और क्षीरसागर के तट पर भगवान विष्णु की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न
किया। भगवान विष्णु प्रसन्न होकर बोले-है ब्रह्माजी! एवं अन्य देवगणो। आप यहां क्यों
पधारे हैं? आपके मन में क्या इच्छा है? आप अपनी समस्या बताइए। मैं निश्चय ही उसे दूर
करने का प्रयत्न करूंगा।
यह सुनकर, ब्रह्माजी बोले—हे भगवन्! दुखों को दूर करने के लिए किस देवता की सेवा
करनी चाहिए? तब भगवान विष्णु ने उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-है ब्रह्मन्! भगवान
शिव शंकर ही सब दुखों को दूर करने वाले हैं। सुख की कामना करने वाले मनुष्य को उनकी
भक्ति में सदैव लगे रहना चाहिए। उन्हीं में मन लगाए और उन्हीं का चिंतन करे। जो मनुष्य
शिव भक्ति में लीन रहता है, जिसके मन में वे विराजमान हैं, वह मनुष्य कभी दुखी नहीं हो
सकता। पूर्व जन्म में किए गए पुण्यों एवं शिवभक्ति से ही पुरुषों को सुंदर भवन, आभूषणों
से विभूषित स्त्रियां, मन का संतोष, धन-संपदा, स्वस्थ शरीर, पुत्र-पौत्र, अलौकिक प्रतिष्ठा,
स्वर्ग के सुख एवं मोक्ष प्राप्त होता है। जो स्त्री या पुरुष प्रतिदिन भक्तिपूर्वक शिवलिंग की
पूजा करता है उसको हर जगह सफलता प्राप्त होती है। वह पापों के बंधन से छूट जाता है।
ब्रह्माजी एवं अन्य गणों ने भगवान विष्णु के उपदेश को ध्यानपूर्वक सुना। भगवान विष्णु
को प्रणाम कर, कामनाओं की पूर्ति हेतु उन्होंने शिवलिंग की प्रार्थना की। तब श्री विष्णु ने
विश्वकर्मा को बुलाकर कहा-है मुने! तुम मेरी आज्ञा से देवताओं के लिए शिवलिगों का
निर्माण करो।' तब विश्वकर्मा ने मेरी और श्रीहरि की आज्ञा को मानते हुए, देवताओं के लिए
उनके अनुसार लिंगों का निर्माण कर उन्हें प्रदान किया।
मुनिश्रेष्ठ नारद! सभी देवताओं को प्राप्त शिवलिंगों के विषय में सुनो। सभी देवता अपने
द्वारा प्राप्त लिंग की पूजा उपासना करते हैं। पदमपराग मणि का लिंग इंद्र को, सोने का कुबेर
को, पुखराज का धर्मराज को, श्याम-वर्ण का वरुण को, इंद्रनीलमणि का विष्णु को और
ब्रह्माजी हेमलय लिंग को प्राप्त कर उसका भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं। इसी प्रकार विश्वदेव
चांदी के लिंग की और वसुगण पीतल के बने लिंग की भक्ति करते हैं। पीतल का अश्विनी
कुमारों को, स्फटिक का लक्ष्मी को, तांबे का आदित्यों को और मोती का लिंग चंद्रमा को
प्रदान किया गया है। व्रज-लिंग ब्राह्मणों के लिए व मिट्टी का लिंग ब्राह्मणों की स्त्रियों के लिए
है। मयासुर चंदन द्वारा बने लिंग का और नागों द्वारा मूंगे के बने शिवलिंग का आदरपूर्वक
पूजन किया जाता है। देवी मक्खन के बने लिंग की अर्चना करती हैं। योगीजन भस्म-मय
लिंग की, यक्षगण दधि से निर्मित लिंग की, छायादेवी आटे के लिंग और ब्रह्मपत्नी रत्नमय
शिव लिंग की पूजा करती हैं। बाणासुर पार्थिव लिंग की पूजा करता है। भगवान विष्णु ने
देवताओं को उनके हित के लिए शिवलिंग के साथ पूजन विधि भी बताई। देवताओं के वचनों
को सुनकर मेरे हृदय में हर्ष की अनुभूति हुई। मैंने लोकों का कल्याण करने वाली शिव पूजा
की उत्तम विधि बताई। यह शिव भक्ति समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करने वाली है।
इस प्रकार लिंगों के विषय में बताकर ब्रह्माजी ने शिवलिंग व शिवभक्ति की महिमा का
वर्णन किया। शिवपूजन भोग और मोक्ष प्रदान करता है। मनुष्य जन्म, उच्च कुल में प्राप्त
करना अत्यंत दुर्लभ है। इसलिए मनुष्य रूप में जन्म लेकर मनुष्य को शिव भक्ति में लीन
रहना चाहिए। शास्त्रों द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए, जाति के नियमों का
पालन करते हुए कर्म करें। संपत्ति के अनुसार दान आदि दें। जप, तप, यज्ञ और ध्यान करें।
ध्यान के द्वारा ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है। भगवान शंकर अपने भक्तों के लिए सदा
उपलब्ध रहते हैं।
जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक कमों से ही आराधना करें। इस संसार में जो-जो
वस्तु सत-असत रूप में दिखती है अथवा सुनाई देती है, वह परब्रह्म शिव रूप है। तत्वज्ञान न
होने तक देव की मूर्ति का पूजन करें। अपनी जाति के लिए अपनाए गए कर्म का प्रयत्नपूर्वक
पालन करें। आराध्य देव का पूजन श्रद्धापूर्वक करें क्योंकि पूजन और दान से ही हमारी सभी
विघ्न व बाधाएं दूर होती हैं। जिस प्रकार मैले कपड़े पर रंग अच्छे से नहीं चढ़ता, परंतु साफ
कपड़े पर अच्छी तरह से रंग चठ़ता है, उसी प्रकार देवताओं की पूजा-अर्चना से मनुष्य का
शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है। उस पर ज्ञान का रंग चढ़ता है और वह भेदभाव आदि
बंधनों से छूट जाता है। बंधनों से छूटने पर उसके सभी दुख-दर्द समाप्त हो जाते हैं और
मोह-माया से मुक्त मनुष्य शिवपद प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जब तक गृहस्थ आश्रम में रहे,
तब तक सभी देवताओं में श्रेष्ठ भगवान शंकर की मूर्ति का प्रेमपूर्वक पूजन करे। भगवान
शंकर ही सभी देवों के मूल हैं। उनकी पूजा से बढ़कर कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार वृक्ष की
जड़ में पानी से सींचने पर जड़ एवं शाखाएं सभी तृप्त हो जाती हैं उसी प्रकार भगवान शिव
की भक्ति है। अतः मनोवांछित फलों की प्राप्ति के लिए शिवजी की पूजा करनी चाहिए।
अभीष्ट फलों की प्राप्ति तथा सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों को सदैव लोक कल्याणकारी
भगवान शिव का पूजन करना चाहिए।
तेरहवां अध्याय
शिव-पूजन की श्रेष्ठ विधि
ब्रह्माजी कहते हैं--हे नारद! अब मैं शिव पूजन की सर्वोत्तम विधि बताता हूं। यह विधि
समस्त अभीष्ट तथा सुखों को प्रदान करने वाली हे। उपासक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जगदंबा
पार्वती और भगवान शिव का स्मरण करे। दोनों हाथ जोड़कर उनके सामने सिर झुकाकर
भक्तिपूर्वक प्रार्थना करे-हे देवेश! उठिए, हे त्रिलोकीनाथ! उठिए, मेरे हृदय में निवास करने
वाले देव उठिए और पूरे ब्रह्माण्ड का मंगल करिए। हे प्रभु! गैं धर्म-अधर्म को नहीं जानता हूं।
आपकी प्रेरणा से ही मैं कार्य करता हूं। फिर गुरु चरणों का ध्यान करते हुए कमरे से
निकलकर शौच आदि से निवृत्त हों। मिट्टी और जल से देह को शुद्ध करें। दोनों हाथों और
पैरों को धोकर दातुन करें तथा सोलह बार जल की अंजलियों से मुंह को धोएं। ये कार्य
सूर्योदय से पूर्व ही करें। हे देवताओ और ऋषियो! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी और
रविवार के दिन दातुन न करें। नदी अथवा घर में समय से स्नान करें। मनुष्य को देश और
काल के विरुद्ध स्नान नहीं करना चाहिए। रविवार, श्राद्ध, संक्रांति, ग्रहण, महादान और
उपवास वाले दिन गरम जल में स्नान न करें। क्रम से वारों को देखकर ही तेल लगाएं। जो
मनुष्य नियमपूर्वक रोज तेल लगाता है, उसके लिए तेल लगाना किसी भी दिन दूषित नहीं है।
सरसों के तेल को ग्रहण के दिन प्रयोग में न लाएं। इसके उपरांत स्नान पूर्व या उत्तर की ओर
मुख करके करें।
स्नान के उपरांत स्वच्छ अर्थात धुले हुए वस्त्र को धारण करें। दूसरों के पहने हुए अथवा
रात में सोते समय पहने वस्त्रों को बिना धुले धारण न करें। स्नान के बाद पितरों एवं देवताओं
को प्रसन्न करने हेतु तर्पण करें। उसके बाद धुले हुए वस्त्र धारण करें और आचमन करें। पूजा
हेतु स्थान को गोबर आदि से लीपकर शुद्ध करें। वहां लकड़ी के आसन की व्यवस्था करें।
ऐसा आसन अभीष्ट फल देने वाला होता है। उस आसन पर बिछाने के लिए मृग अर्थात हिरन
की खाल की व्यवस्था करें। उस पर बैठकर भस्म से त्रिपुण्ड लगाएं। त्रिपुण्ड से जप-तप तथा
दान सफल होता है। त्रिपुण्ड लगाकर रुद्राक्ष धारण करें। तत्पश्चात मंत्रों का उच्चारण करते
हुए आचमन करें। पूजा सामग्री को एकत्र करें। फिर जल, गंध और अक्षत के पात्र को दाहिने
भाग में रखें। फिर गुरु की आज्ञा लेकर और उनका ध्यान करते हुए सपरिवार शिव का पूजन
करें। विघ्न विनाशक गणेश जी का बुद्धि-सिद्धि सहित पूजन करें। ' गणपतये नमः' का
जाप करके उन्हें नमस्कार करें तथा क्षमा याचना करें। कार्तिकेय एवं गणेश जी का एक साथ
पूजन करें तथा उन्हें बारंबार नमस्कार करें। फिर द्वार पर स्थित लंबोदर नामक द्वारपाल की
पूजा करें। तत्पश्चात भगवती देवी की पूजा करें। चंदन, कुमकुम, धूप, दीप और नैवेद्य से
शिवजी का पूजन करें। प्रेमपूर्वक नमस्कार करें। अपने घर में मिट्टी, सोना, चांदी, धातु या
अन्य किसी धातु की शिव प्रतिमा बनाएं। भक्तिपूर्वक शिवजी की पूजा कर उन्हें नमस्कार
करें।
मिट्टी का शिवलिंग बनाकर विधिपूर्वक उसकी स्थापना करें तथा उसकी प्राण प्रतिष्ठा करें।
घर में भी मंत्रोच्चार करते हुए पूजा करनी चाहिए। पूजा उत्तर की ओर मुख करके करनी
चाहिए। आसन पर बैठकर गुरु को नमस्कार करें। अर्घ्यपात्र से शिवलिंग पर जल चढ़ाएं।
शांत मन से, पूर्ण श्रद्धावनत होकर महादेव जी का आवाहन इस प्रकार करें।
जो कैलाश के शिखर पर निवास करते हैं और पार्वती देवी के पति हैं। जिनके स्वरूप का
वर्णन शास्त्रों में है। जो समस्त देवताओं के लिए पूजित हैं। जिनके पांच मुख, दस हाथ तथा
प्रत्येक मुख पर तीन-तीन नेत्र हैं। जो सिर पर चंद्रमा का मुकुट और जटा धारण किए हुए हैं,
जिनका रंग कपूर के समान है, जो बाघ की खाल बांधते है। जिनके गले में वासुकि नामक
नाग लिपटा है, जो सभी मनुष्यों को शरण देते हैं और सभी भक्तगण जिनकी जय-जयकार
करते हैं। जिनका सभी वेद और शास्त्रों में गुणगान किया गया है। ब्रह्मा, विष्णु जिनकी स्तुति
करते हैं। जो परम आनंद देने वाले तथा भक्तवत्सल हैं, ऐसे देवों के देव महादेव भगवान
शिवजी का मैं आवाहन करता हूं।
इस प्रकार आवाहन करने के पश्चात उनका आसन स्थापित करें। आसन के बाद शिवजी
को पाद्य और अर्ध्य दें। पंचामृत के द्रव्यों द्वारा शिवलिंग को स्नान कराएं तथा मंत्रों सहित
द्रव्य अर्पित करें। स्नान के पश्चात सुगंधित चंदन का लेप करें तथा सुगंधित जलधारा से
उनका अभिषेक करें। फिर आचमन कर जल दें और वस्त्र अर्पित करें। मंत्रों द्वारा भगवान
शिव को तिल, जौ, गेहूं, मूंग और उड़द अर्पित करें। पुष्प चढ़ाएं। शिवजी के प्रत्येक मुख पर
कमल, शतपत्र, शंख-पुष्प, कुश पुष्प, धतूरा, मंदार, द्रोण पुष्प, तुलसीदल तथा बेलपत्र
चढ़ाकर पराभक्ति से महेश्वर की विशेष पूजा करें। बेलपत्र समर्पित करने से शिवजी की पूजा
सफल होती है। तत्पश्चात सुगंधित चूर्ण तथा सुवासित तेल बड़े हर्ष के साथ भगवान शिव को
अर्पित करें। गुग्गुल और अगरु की धूप दें। घी का दीपक जलाएं। प्रभो शंकर! आपको हम
नमस्कार करते हैं। आप अर्घ्य को स्वीकार करके मुझे रूप दीजिए, यश दीजिए और भोग व
मोक्ष रूपी फल प्रदान कीजिए। यह कहकर अर्घ्य अर्पित करें। नैवेद्य व तांबूल अर्पित करें।
पांच बत्ती की आरती करें। चार बार पैरों में, दो बार नाभि के सामने, एक बार मुख के सामने
तथा संपूर्ण शरीर में सात बार आरती दिखाएं। तत्पश्चात शिवजी की परिक्रमा करें।
हे प्रभु शिव शंकर! मैंने अज्ञान से अथवा जान-बूझकर जो पूजन किया है, वह आपकी
कृपा से सफल हो। हे भगवन मेरे प्राण आप में लगे हैं। मेरा मन सदा आपका ही चिंतन
करता है। हे गौरीनाथ! भूतनाथ! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। प्रभो! जिनके पैर लड़खड़ाते हैं,
उनका आप ही एकमात्र सहारा हैं। जिन्होंने कोई भी अपराध किया है, उनके लिए आप ही
शरणदाता हैं। यह प्रार्थना करके पुष्पांजलि अर्पित करें तथा पुनः भगवान शिव को नमस्कार
करें।
देवेश्वर प्रभो! अब आप परिवार सहित अपने स्थान को पधारें तथा जब पूजा का समय
हो, तब पुनः यहां पधारें। इस प्रकार भगवान शंकर की प्रार्थना करते हुए उनका विसर्जन करें
और उस जल को अपने हृदय में लगाकर मस्तक पर लगाएं।
हे महर्षियो! इस प्रकार मैंने आपको शिवपूजन की सर्वोत्तम विधि बता दी है, जो भोग
और मोक्ष प्रदान करने वाली है।
ऋषिगण बोले--हे ब्रह्माजी! आप सर्वश्रेष्ठ हैं। आपने हम पर कृपा कर शिवपूजन की
सर्वोत्तम विधि का वर्णन हमसे किया, जिसे सुनकर हम सब कृतार्थ हो गए।
चौदहवां अध्याय
पुष्पों द्वारा शिव पूजा का माहात्म्य
ऋषियों ने पूछा--हे महाभाग! अब आप यह बताइए कि भगवान शिवजी की किन-किन
फूलों से पूजा करनी चाहिए? विभिन्न फूलों से पूजा करने पर क्या-क्या फल प्राप्त होते हैं?
सूत जी बोले-हे ऋषियो! यही प्रश्न नारद जी ने ब्रह्माजी से किया था। ब्रह्माजी ने उन्हें
पुष्पों द्वारा शिवजी की पूजा के माहात्म्य को बताया।
ब्रह्माजी ने कहा-नारद! लक्ष्मी अर्थात धन की कामना करने वाले मनुष्य को कमल के
फूल, बेल पत्र, शतपत्र और शंख पुष्प से भगवान शिव का पूजन करना चाहिए। एक लाख
पुष्पों द्वारा भगवान शिव की पूजा होने पर सभी पापों का नाश हो जाता है और लक्ष्मी की
प्राप्ति होती है। एक लाख फूलों से शिवजी की पूजा करने से मनुष्य को संपूर्ण अभीष्ट फलों
की प्राप्ति होती है। जिसके मन में कोई कामना न हो, वह उपासक इस पूजन से शिव स्वरूप
हो जाता है।
मृत्युंजय मंत्र के पांच लाख जाप पूरे होने पर महादेव के स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं। एक
लाख जाप से शरीर की शुद्धि होती है। दूसरे लाख के जाप से पहले जन्म की बातें याद आ
जाती हैं। तीसरे लाख जाप के पूर्ण होने पर इच्छा की गई सभी वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती
है। चौथे लाख जाप पूर्ण होने पर भगवान शिव सपनों में दर्शन देते हैं। पांचवां लाख जाप पूरा
होने पर वे प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। मृत्युंजय मंत्र के दस लाख जाप करने से संपूर्ण फलों की
सिद्धि होती है। मोक्ष की कामना करने वाले मनुष्य को एक लाख दभो (दूर्वा) से शिव पूजन
करना चाहिए। आयु वृद्धि की इच्छा करने वाले मनुष्य को एक लाख दुर्वाओं द्वारा पूजन
करना चाहिए। पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को एक लाख धतूरे के फूलों से पूजा
करनी चाहिए। पूजन में लाल डंठल वाले धतूरे को शुभदायक माना जाता है। यश प्राप्ति के
लिए एक लाख आगस्त्य के फूलों से पूजा करनी चाहिए। तुलसीदल द्वारा शिवजी की पूजा
करने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। अड़हुल (जवा कुसुम) के एक लाख फूलों से
पूजा करने पर शत्रुओं की मृत्यु होती है। एक लाख करवीर के फूलों से शिव पूजन करने पर
समस्त रोगों का नाश हो जाता है। दुपहरिया के फूलों के पूजन से आभूषण तथा चमेली के
फूलों से पूजन करने से वाहन की प्राप्ति होती है। अलसी के फूलों से शिव पूजन करने से
विष्णुजी भी प्रसन्न होते हैं। बेलों के फूलों से अर्घ्य देने पर अच्छे जीवन साथी की प्राप्ति होती
है। जूही के फूलों से पूजन करने पर घर में धन-संपदा का वास होता है तथा अन्न के भंडार
भर जाते हैं। कनेर के फूलों से पूजा करने पर वस्त्रों की प्राप्ति होती है। सेदुआरि और
शेफालिका के फूलों से पूजन करने पर मन निर्मल हो जाता है। हारसिंगार के फूलों से पूजन
करने पर सुख-संपत्ति की वृद्धि होती है। राई के एक लाख फूलों से पूजन करने पर शत्रु मृत्यु
को प्राप्त होते हैं। चंपा और केवढड़े के फूलों से शिव पूजन नहीं करना चाहिए। ये दोनों फूल
महादेव के पूजन के लिए अयोग्य होते हैं। इसके अलावा सभी फूलों का पूजा में उपयोग
किया जा सकता है।
महादेवी जी पर चावल चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। ये चावल अखण्डित होने
चाहिए। उन्हें विधिपूर्वक अर्पित करें। रुद्रप्रधान मंत्र से पूजन करते हुए, शिवलिंग पर वस्त्र
अर्पित करें। गंध, पुष्प और श्रीफल चढ़ाकर धूप-दीप से पूजन करने से पूजा का पूरा फल
प्राप्त होता है। उसी प्रांगण में बारह ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इससे सांगोपांग पूजा संपन्न
होती है। एक लाख तिलों से शिवजी का पूजन करने पर समस्त दुखों और क्लेशों का नाश
होता है। जौ के दाने चढ़ाने पर स्वर्गीय सुख की प्राप्ति होती है। गेहूं के बने भोजन से लाख
बार शिव पूजन करने से संतान की प्राप्त होती है। मूंग से पूजन करने पर उपासक को धर्म,
अर्थ और काम-भोग की प्राप्ति होती है तथा वह पूजा समस्त सुखों को देने वाली है।
उपासक को निष्काम होकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान शिव की पूजा करनी
चाहिए। भक्तिभाव से विधिपूर्वक शिव की पूजा करके जलधारा समर्पित करनी चाहिए। शत
रुद्रीय मंत्र से एकादश रुद्र जप, सूक्त, षडंग, महामृत्युंजय और गायत्री मंत्र में नमः लगाकर
नामों से अथवा प्रणव 'ॐ' मंत्र द्वारा शास्त्रोक्त मंत्र से जलधारा शिवलिंग पर चढ़ाएं।
धारा पूजन से संतान की प्राप्ति होती है। सुख और संतान की वृद्धि के लिए जलधारा का
पूजन उत्तम होता है। उपासक को भस्म धारण प्रेमपूर्वक शुभ एवं दिव्य द्रवों द्वारा शिव पूजन
कर उनके सहस्र नामों का जाप करते हुए शिवलिंग पर घी की धारा चढ़ानी चाहिए। इससे
वंश का विस्तार होता है। दस हजार मंत्रों द्वारा इस प्रकार किया गया पूजन रोगों को समाप्त
करता है तथा मनोवांछित फल की प्राप्त होती है। नपुंसक पुरुष को शिवजी का पूजन घी से
करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और प्राजापत्य का व्रत रखना चाहिए।
बुद्धिहीन मनुष्य को दूध में शक्कर मिलाकर इसकी धारा शिवलिंग पर चढ़ानी चाहिए।
इससे भगवान प्रसन्न होकर उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं। यदि मनुष्य का मन उदास रहता हो,
जी उचट जाए, कहीं भी प्रेम न रहे, दुख बढ़ जाए तथा घर में सदैव लड़ाई रहती हो तो
मनुष्यों को शक्कर मिश्रित दूध दस हजार मंत्रों का जाप करते हुए शिवलिंग को अर्पित
करना चाहिए। खुशबू वाला तेल चढ़ाने पर भोगों की वृद्धि होती है। यदि शिवजी पर शहद
चढ़ाया जाए तो टी. बी. जैसा रोग भी समाप्त हो जाता है। शिवजी को गन्ने का रस चढ़ाने से
आनंद की प्राप्ति होती है। गंगाजल को चढ़ाने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
उपरोक्त वस्तुओं को अर्पित करते समय मृत्युंजय मंत्र के दस हजार जाप करने चाहिए
और ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस प्रकार शिवजी की विधि सहित पूजा
करने से पुत्र-पौत्रादि सहित सब सुखों को भोगकर अंत में शिवलोक की प्राप्ति होती है।
पट्रहवा अध्याय
सृष्टि का वर्णन
नारद जी ने पूछा--हे पितामह! आपने बहुत सी ज्ञान बढ़ाने वाली उत्तम बातों को
सुनाया। कृपया इसके अलावा और भी जो आप सृष्टि एवं उससे संबंधित लोगों के बारे में
जानते हैं, हमें बताने की कृपा करें।
ब्रह्माजी बोले—मुने! हमें आदेश देकर जब महादेव जी अंतर्धान हो गए तो मैं उनकी
आज्ञा का पालन करते हुए ध्यानमग्न होकर अपने कर्तव्यों के विषय में सोचने लगा। उस
समय भगवान श्रीहरि विष्णु से ज्ञान प्राप्त कर मैंने सृष्टि की रचना करने का निश्चय किया।
भगवान विष्णु मुझे आवश्यक उपदेश देकर वहां से चले गए। भगवान शिव की कृपा से
ब्रह्माण्ड से बाहर बैकुण्ठ धाम में जा पहुंचे और वहीं निवास करने लगे। सृष्टि की रचना करने
के उद्देश्य से मैंने भगवान शिव और विष्णु का स्मरण करके, जल को हाथ में लेकर ऊपर की
ओर उछाला। इससे वहां एक अण्ड प्रकट हुआ, जो चौबीस तत्वों का समूह कहा जाता है।
वह विराट आकार वाला अण्ड जड़ रूप में था। उसे चेतनता प्रदान करने हेतु मैं कठोर तप
करने लगा और बारह वर्षो तक तप करता रहा। तब श्रीहरि विष्णु स्वयं प्रकट हुए और
प्रसन्नतापूर्वक बोले।
श्रीविष्णु ने कहा-ब्रह्मन्! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। जो इच्छा हो वह वर मांग लो। भगवान
शिव की कृपा से मैं सबकुछ देने में समर्थ हूं
ब्रह्मा बोले-महाभाग! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। भगवान शंकर ने मुझे आपके
हाथों में सौंप दिया है। आपको मैं नमस्कार करता हूं। कृपा कर इस विराट चौबीस तत्वों से
बने अण्ड को चेतना प्रदान कीजिए। मेरे ऐसा कहने पर श्रीविष्णु ने अनंतरूप धारण कर
अण्ड में प्रवेश किया। उस समय उनके सहस्रो मस्तक, सहस्र आंखें और सहस्र पैर थे। उनके
अण्ड में प्रवेश करते ही वह चेतन हो गया। पाताल से सत्य लोक तक अण्ड के रूप में वहां
विष्णु भगवान विराजने लगे। अण्ड में विराजमान होने के कारण विष्णुजी 'वैराज पुरुष'
कहलाए। पंचमुख महादेव ने अपने निवास हेतु कैलाश नगर का निर्माण किया। देवर्षि!
संपूर्ण ब्रह्माण्ड का नाश होने पर भी बैकुण्ठ और कैलाश अमर रहेंगे अर्थात इनका नाश नहीं
हो सकता। महादेव की आज्ञा से ही मुझमें सृष्टि की रचना करने की इच्छा उत्पन्न हुई है।
अनजाने में ही मुझसे तमोगुणी सृष्टि की उत्पत्ति हुई, जिसे अविद्या पंचक कहते हैं। उसके
पश्चात भगवान शिव की आज्ञा से स्थावरसंज्ञक वृक्ष, जिसे पहला सर्ग कहते हैं, का निर्माण
हुआ परंतु पुरुषार्थ का साधक नहीं था। अतः दूसरा सर्ग 'तिर्यक्स्रोता' प्रकट हुआ। यह दुखों
से भरा हुआ था। तब ब्रह्माजी द्वारा 'ऊर्ध्वत्रोता' नामक तीसरे सर्ग की रचना की गई। यह
सात्विक सर्ग देव सर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह सर्ग सत्यवादी तथा परम सुखदायक है।
इसकी रचना के उपरांत मैंने पुनः शिव चितन आरंभ कर दिया। तब एक रजोगुणी सृष्टि का
आरंभ हुआ जो 'अर्वाकस्रोता' नाम से विख्यात हुआ। इसके बाद मैंने पांच विकृत सृष्टि और
तीन प्राकृत सगो को जन्म दिया। पहला 'महत्तत्व', दूसरा 'भूतो' और तीसरा 'वैकारिक' सर्ग
है। इसके अलावा पांच विकृत सर्ग हैं। दोनों को मिलाकर कुल आठ सर्ग होते हैं। नवां
'कौमार' सर्ग है जिससे सनत सनंदन कुमारों की रचना हुई है। सनत आदि मेरे चार मानस
पुत्र हैं, जो ब्रह्मा के समान हैं। वे महान व्रत का पालन करने वाले हैं। वे संसार से विमुख एवं
ज्ञानी हैं। उनका मन शिव चितन में लगा रहता है। मुनि नारद! मेरी आज्ञा पाकर भी उन्होंने
सृष्टि के कार्य में मन नहीं लगाया। इससे मुझमें क्रोध प्रवेश कर गया। तब भगवान विष्णु ने
मुझे समझाया और भगवान शिव की तपस्या करने के लिए कहा। मेरी घोर तपस्या से मेरी
भौंहों और नाक के मध्य भाग से महेश्वर की तीन मूर्तियां प्रकट हुई, जो पूर्णांश, सर्वेश्वर एवं
दया सागर थीं और भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप प्रकट हुआ।
जन्म-मरण से रहित, परम तेजस्वी, सर्वज्ञ, नीलकंठ, साक्षात उमावल्लभ भगवान महादेव
के साक्षात दर्शन कर मैं धन्य हो गया। मैंने भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उन्हें प्रसन्न
करने के लिए उनकी स्तुति करने लगा। तब मैंने उनसे जीवों की रचना करने की प्रार्थना की।
मेरी प्रार्थना स्वीकारते हुए देवाधिदेव भगवान शिव ने रुद्र गणों की रचना की। तब मैंने उनसे
पुनः कहा-_देवेश्वर शिव शंकर! अब आप संसार की मोह-माया में लिप्त ऐसे जीवों की रचना
करें, जो मृत्यु और जन्म के बंधन में बंधे हों। यह सुनकर महादेव जी हंसते हुए कहने लगे।
शिवजी ने कहा-है ब्रह्मा! मैं जन्म और मृत्यु के भय में लिप्त जीवों की रचना नहीं
करूंगा क्योंकि वे जीव संसार रूपी बंधन में बंधे होने के कारण दुखों से युक्त होंगे। मैं सिर्फ
उनका उद्धार करूंगा। उन्हें परम ज्ञान प्रदान कर उनके ज्ञान का विकास करूंगा। हे प्रजापते!
इन जीवों की रचना आप करें। मोह-माया के बंधनों में बंधे इस प्रकार के जीवों की सृष्टि
करने पर भी आप इस माया में नहीं बंधेंगे। मुझसे इस प्रकार कहकर महादेव शिव शंकर
अपने पार्षदों के साथ वहां से अंतर्धान हो गए।
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२ SS
सोलहवां अध्याय
सृष्टि की उत्पत्ति
ब्रह्माजी बोले--नारद! शब्द आदि पंचभूतों द्वारा पंचकरण करके उनके स्थूल, आकाश,
वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, वृक्ष और कला आदि से युगों और कालों की मैंने
रचना की तथा और भी कई पदार्थ मैंने बनाए। उत्पत्ति और विनाश वाले पदार्थों का भी मैंने
निर्माण किया है परंतु जब इससे भी मुझे संतोष नहीं हुआ तो मैंने मां अंबा सहित भगवान
शिव का ध्यान करके सृष्टि के अन्य पदार्थों की रचना की और अपने नेत्रों से मरीच को, हृदय
से भृगु को, सिर से अंगिरा को, कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से
वशिष्ठ को, अपान से कृतु को, दोनों कानों से अत्री को, प्राण से दक्ष को और गोद से तुमको,
छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया। सब साधनाओं के साधन धर्म को भी मैंने अपने
संकल्प से प्रकट किया। मुनिश्रेष्ठ! इस तरह साधकों की रचना करके, महादेव जी की कृपा से
मैंने अपने को कृतार्थ माना। मेरे संकल्प से उत्पन्न धर्म मेरी आज्ञा से मानव का रूप धारण
कर साधन में लग गए। इसके उपरांत मैंने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से देवता व असुरों के
रूप में अनेक पुत्रों की रचना करके उन्हें विभिन्न शरीर प्रदान किए। तत्पश्चात भगवान शिव
की प्रेरणा से मैं अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दो रूपों वाला हो गया। मैं आधे
शरीर से पुरुष व आधे से नारी हो गया। पुरुष स्वयंभुव मनु नाम से प्रसिद्ध हुए एवं उच्चकोटि
के साधक कहलाए। नारी रूप से शतरूपा नाम वाली योगिनी एवं परम तपस्विनी स्त्री उत्पन्न
हुई। मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी, शतरूपा का पाणिग्रहण किया और मैथुन द्वारा
सृष्टि को उत्पन्न करने लगे। उन्होंने शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा
आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन पुत्रियां प्राप्त कीं। आकूति का 'रुचि' मुनि से,
देवहूति का 'कर्दम' मुनि से तथा प्रसूति का 'दक्ष प्रजापति’ के साथ विवाह कर दिया गया।
इनकी संतानों से पूरा जगत चराचर हो गया।
रुचि और आकूति के वैवाहिक संबंध में यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुष का जोड़ा
उत्पन्न हुआ। यज्ञ की दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। मुने! कर्दम और देवहूति के संबंध से बहुत
सी पुत्रियां पैदा हुई। दक्ष और प्रसूति से चीबीस कन्याएं हुई। दक्ष ने तेरह कन्याओं का विवाह
धर्म से कर दिया। ये तेरह कन्याएं--श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि,
लज्जा, वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति हैं। अन्य ग्यारह कन्याओं-ख्याति, सती, संभूति,
स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा का विवाह भृगु, शिव, मरीचि,
अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, अग्नि और पितर नामक मुनियों से संपन्न हुआ।
इनकी संतानों से पूरा त्रिलोक भर गया।
अंबिका पति महादेव जी की आज्ञा से बहुत से प्राणी श्रेष्ठ मुनियों के रूप में उत्पन्न हुए।
कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्याएं हुई। उनमें से दस कन्याओं का विवाह धर्म से, सत्ताईस का
चंद्रमा से, तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि से संपन्न हुआ। नारद! उन्होंने चार कन्याएं
अरिष्टनेमि को ब्याह दीं। भृगु, अंगिरा और कुशाश्च से दो-दो कन्याओं का विवाह कर दिया।
कश्यप ऋषि की संतानों से संपूर्ण त्रिलोक आलोकित है। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी,
पर्वत तथा लताएं आदि कश्यप पत्नियों से पैदा हुए हैं। इस तरह भगवान शंकर की आज्ञा से
ब्रह्माजी ने पूरी सृष्टि की रचना की। सर्वव्यापी शिवजी द्वारा तपस्या के लिए प्रकट देवी,
जिन्हें रुद्रदेव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर उनकी रक्षा की वे सती देवी ही दक्ष से प्रकट
हुई थीं। उन्होंने भक्तों का उद्धार करने के लिए अनेक लीलाएं कीं। इस प्रकार देवी शिवा ही
सती के रूप में भगवान शंकर की अर्धांगिनी बनीं। परंतु अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का
अपमान देखकर उन्होंने अपने शरीर को यज्ञ की अग्ने में भस्म कर दिया। देवताओं की
प्रार्थना पर ही वे मां सती पार्वती के रूप में प्रकट हुई और कठिन तपस्या करके उन्होंने पुनः
भगवान भोलेनाथ को प्राप्त कर लिया। वे इस संसार में कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा,
विजया, जया, जयंती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अंबा, मृडानी और
सर्वमंगला आदि अनेक नामों से पूजी जाती हैं। देवी के ये नाम भोग और मोक्ष को देने वाले
हैं।
मुनि नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा सुनाई है। पूरा ब्रह्माण्ड
भगवान शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र आदि तीनों देवता
उन्हीं महादेव के अंश हैं। भगवान शिव निर्मुण और सगुण हैं। वे शिवलोक में शिवा के साथ
निवास करते हैं।
सत्रहवां अध्याय
पापी गुणनिधि की कथा
सूत जी कहते हैं--हे ऋषियो! तत्पश्चात नारद जी ने विनयपूर्वक प्रणाम किया और उनसे
पूछा--भगवन्! भगवान शंकर कैलाश पर कब गए और महात्मा कुबेर से उनकी मित्रता
कहां और कैसे हुई? प्रभु शिवजी कैलाश पर क्या करते हैं? कृपा कर मुझे बताइए। इसे सुनने
के लिए मैं बहुत उत्सुक हूं।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! मैं तुम्हें चंद्रमौलि भगवान शिव के विषय में बताता हूं। कांपिल्य
नगर में यज्ञ दत्त दीक्षित नामक एक ब्राह्मण रहते थे। जो अत्यंत प्रसिद्ध थे। वे यज्ञ विद्या में
बड़े पारंगत थे। उनका गुणनिधि नामक एक आठ वर्षीय पुत्र था। उसका यज्ञोपवीत हो चुका
था और वह भी बहुत सी विद्याएं जानता था। परंतु वह दुराचारी और जुआरी हो गया। वह हर
वक्त खेलता-कूदता रहता था तथा गाने बजाने वालों का साथी हो गया था। माता के बहुत
कहने पर भी वह पिता के समीप नहीं जाता था और उनकी किसी आज्ञा को नहीं मानता था।
उसके पिता घर के कार्यों तथा दीक्षा आदि देने में लगे रहते थे। जब घर पर आकर अपनी
पत्नी से गुणनिधि के बारे में पूछते तो वह झूठ कह देती कि वह कहीं स्नान करने या
देवताओं का पूजन करने गया है। केवल एक ही पुत्र होने के कारण वह अपने पुत्र की
कमियों को छुपाती रहती थी। उन्होंने अपने पुत्र का विवाह भी करा दिया। माता नित्य अपने
पुत्र को समझाती थी। वह उसे यह भी समझाती थी कि तुम्हारी बुरी आदतों के बारे में तुम्हारे
पिता को पता चल गया तो वे क्रोध के आवेश में हम दोनों को मार देंगे। परंतु गुणनिधि पर मां
के समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
एक दिन उसने अपने पिता की अंगूठी चुरा ली और उसे जुए में हार आया। दैवयोग से
उसके पिता को अंगूठी के विषय में पता चल गया। जब उन्होंने अंगूठी जुआरी के हाथ में
देखी और उससे पूछा तो जुआरी ने कहा-मैंने कोई चोरी नहीं की है। अंगूठी मुझे तुम्हारे पुत्र
ने ही दी है। यही नहीं, बल्कि उसने और जुआरियों को भी बहुत-सारा धन घर से लाकर दिया
है। परंतु आश्चर्य तो यह है कि तुम जैसे पण्डित भी अपने पुत्र के लक्षणों को नहीं जान पाए।
यह सारी बातें सुनकर पंडित दीक्षित का सिर शर्म से झुक गया। वे सिर झुकाकर और अपना
मुंह ढककर अपने घर की ओर चल दिए। घर पहुंचकर, गुस्से से उन्होंने अपनी पत्नी को
पुकारा। अपनी पत्नी से उन्होंने पूछा, तेरा लाडला पुत्र कहां गया है? मेरी अंगूठी जो मैंने
सुबह तुम्हें दी थी, वह कहां है? मुझे जल्दी से दो। पंडित की पत्नी ने फिर झूठ बोल दिया,
मुझे स्मरण नहीं है कि वह कहां है। अब तो दीक्षित जी को और भी क्रोध आ गया। वे अपनी
पत्नी से बोले—तू बड़ी सत्यवादिनी है। इसलिए मैं जब भी गुणनिधि के बारे में पूछता हूं, तब
मुझे अपनी बातों से बहला देती है। यह कहकर दीक्षित जी घर के अन्य सामानों को ढूंढ़ने
लगे किंतु उन्हें कोई वस्तु न मिली, क्योंकि वे सब वस्तुएं गुणनिधि जुए में हार चुका था। क्रोध
में आकर पंडित ने अपनी पत्नी और पुत्र को घर से निकाल दिया और दूसरा विवाह कर
लिया।
अठारहवां अध्याय
गुणनिधि को मोक्ष की प्राप्ति
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! जब यह समाचार गुणनिधि को मिला तो उसे अपने भविष्य की
चिंता हुई। वह कई दिनों तक भूखा-प्यासा भटकता रहा। एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल
वह एक शिव मंदिर के पास बैठ गया। एक शिवभक्त अपने परिवार सहित, शिव पूजन के
लिए विविध सामग्री लेकर वहां आया था। उसने परिवार सहित भगवान शिव का विधि-
विधान से पूजन किया और नाना प्रकार के पकवान शिवलिंग पर चढ़ाए।
पूजन के बाद वे लोग वहां से चले गए तो गुणनिधि ने भूख से मजबूर होकर उस भोग को
चोरी करने का विचार किया और मंदिर में चला गया। उस समय अंधेरा हो चुका था इसलिए
उसने अपने वस्त्र को जलाकर उजाला किया। यह मानो उसने भगवान शिव के सम्मुख दीप
जलाकर दीपदान किया था। जैसे ही वह सब भोग उठाकर भागने लगा उसके पैरों की धमक
से लोगों को पता चल गया कि उसने मंदिर में चोरी की है। सभी उसे पकड़ने के लिए दौड़े
और उसका पीछा करने लगे। नगर के लोगों ने उसे खूब मारा। उनकी मार को उसका भूखा
शरीर सहन नहीं कर सका। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।
उसके कुकमों के कारण यमदूत उसको बांधकर ले जा रहे थे। तभी भगवान शिव के
पार्षद वहां आ गए और गुणनिधि को यमदूतों के बंधनों से मुक्त करा दिया। यमदूतों ने
शिवगणों को नमस्कार किया और बताया कि यह बड़ा पापी और धर्म-कर्म से हीन है। यह
अपने पिता का भी शत्रु है। इसने शिवजी के भोग की भी चोरी की है। इसने बहुत पाप किए
हैं। इसलिए यह यमलोक का अधिकारी है। इसे हमारे साथ जाने दें ताकि विभिन्न नरकों को
यह भोग सके। तब शिव गणों ने उत्तर दिया कि निश्चय ही गुणनिधि ने बहुत से पाप कर्म किए
हैं परंतु इसने कुछ पुण्य कर्म भी किए हैं। जो संख्या में कम होने पर भी पापकमों को नष्ट
करने वाले हैं। इसने रात्रि में अपने वस्त्र को फाड़कर शिवलिंग के समक्ष दीपक में बत्ती
डालकर उसे जलाया और दीपदान किया।
इसने अपने पिता के श्रीमुख से एवं मंदिर के बाहर बैठकर शिवगुणों को सुना है और ऐसे
ही और भी अनेक धर्म-कर्म इसने किए हैं। इतने दिनों तक भूखा रहकर इसने व्रत किया और
शिवदर्शन तथा शिव पूजन भी अनेकों बार किया है। इसलिए यह हमारे साथ शिवलोक को
जाएगा। वहां कुछ दिनों तक निवास करेगा। जब इसके संपूर्ण पापों का नाश हो जाएगा तो
भगवान शिव की कृपा से यह कलिंग देश का राजा बनेगा। अतः यमदूतो, तुम अपने लोक
को लौट जाओ। यह सुनकर यमदूत यमलोक को चले गए। उन्होंने यमराज को इस विषय में
सूचना दे दी और यमराज ने इसको प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।
तत्पश्चात गुणनिधि नामक ब्राह्मण को लेकर शिवगण शिवलोक को चल दिए। कैलाश पर
भगवान शिव और देवी उमा विराजमान थे। उसे उनके सामने लाया गया। गुणनिधि ने
भगवान शिव-उमा की चरण वंदना की और उनकी स्तुति की। उसने महादेव से अपने किए
कर्मों के बारे में क्षमा याचना की। भगवान ने उसे क्षमा प्रदान कर दी। वहां शिवलोक में कुछ
दिन निवास करने के बाद गुणनिधि कलिंग देश के राजा 'अरिंदम' के पुत्र दम के रूप में
विख्यात हुआ।
हे नारद! शिवजी की थोड़ी सी सेवा भी उसके लिए अत्यंत फलदायक हुई। इस गुणनिधि
के चरित्र को जो कोई पढ़ता अथवा सुनता है, उसकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं तथा वह
मनुष्य सुख-शांति प्राप्त करता है।
उन्नीसवां अध्याय
गुणनिधि को कुबेर पद की प्राप्ति
नारद जी ने प्रश्न किया--हे ब्रह्माजी! अब आप मुझे यह बताइए कि गुणनिधि जैसे
महापापी मनुष्य को भगवान शिव द्वारा कुबेर पद क्यों और कैसे प्रदान किया गया? हे प्रभु!
कृपा कर इस कथा को भी बताइए। ब्रह्माजी बोले--नारद! शिवलोक में सारे दिव्य भोगों का
उपभोग तथा उमा महेश्वर का सेवन कर, वह अगले जन्म में कलिंग के राजा अरिंदम का पुत्र
हुआ। उसका नाम दम था। बालक दम की भगवान शंकर में असीम भक्ति थी। वह सदैव
शिवजी की सेवा में लगा रहता था। वह अन्य बालकों के साथ मिलकर शिव भजन करता।
युवा होने पर उसके पिता अरिंदम की मृत्यु के पश्चात दम को राजसिंहासन पर बैठाया गया।
राजा दम सब ओर शिवधर्म का प्रचार और प्रसार करने लगे। वे सभी शिवालयों में दीप
दान करते थे। उनकी शिवजी में अनन्य भक्ति थी। उन्होंने अपने राज्य में रहने वाले सभी
ग्रामाध्यक्षों को यह आज्ञा दी थी कि 'शिव मंदिर” में दीपदान करना सबके लिए अनिवार्य है।
अपने गांव के आस-पास जितने शिवालय हैं, वहां सदा दीप जलाना चाहिए। राजा दम ने
आजीवन शिव धर्म का पालन किया। इस तरह वे बड़े धर्मात्मा कहलाए। उन्होंने शिवालयों में
बहुत से दीप जलवाए। इसके फलस्वरूप वे दीपों की प्रभा के आश्रय हो मृत्योपरांत
अलकापुरी के स्वामी बने।
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! भगवान शिव का पूजन व उपासना महान फल देने वाली है।
दीक्षित के पुत्र गुणनिधि ने, जो पूर्ण अधर्मी था, भगवान शिव की कृपा पाकर दिक्पाल का
पद पा लिया था। अब मैं तुम्हें उसकी भगवान शिव के साथ मित्रता के विषय में बताता हूं।
नारद! बहुत पहले की बात है। मेरे मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और
विश्रवा के पुत्र कुबेर हुए। उन्होंने पूर्वकाल में बहुत कठोर तप किया। उन्होंने विश्वकर्मा द्वारा
रचित अलकापुरी का उपभोग किया। मेघवाहन कल्प के आरंभ होने पर वे कुबेर के रूप में
घोर तप करने लगे। वे भगवान शिव द्वारा प्रकाशित काशी पुरी में गए और अपने मन के
रत्नमय दीपों से ग्यारह रुद्रों को उदबोधित कर वे तन्मयता से शिवजी के ध्यान में मग्न होकर
निश्चल भाव से उनकी उपासना करने लगे। वहां उन्होंने शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। उत्तम पुष्पों
द्वारा शिवलिंग का पूजन किया। कुबेर पूरे मन से तप में लगे थे। उनके पूरे शरीर में केवल
हड्डियों का ढांचा और चमड़ी ही बची थी। इस प्रकार उन्होंने दस हजार वर्षो तक तपस्या की।
तत्पश्चात भगवान शिव अपनी दिव्य शक्ति उमा के भव्य रूप के साथ कुबेर के पास गए।
अलकापति कुबेर मन को एकाग्र कर शिवलिंग के सामने तपस्या में लीन थे। भगवान शिव ने
कहा-अलकापते! मैं तुम्हारी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार
वर मांग सकते हो। यह सुनकर जैसे ही कुबेर ने आंखें खोलीं तो उन्हें अपने सामने भगवान
नीलकंठ खड़े दिखाई दिए। उनका तेज सूर्य के समान था। उनके मस्तक पर चंद्रमा अपनी
चांदनी बिखेर रहा था। उनके तेज से कुबेर की आंखें चौंधिया गईं। तत्काल उन्होंने अपनी
आंखें बंद कर लीं। वे भगवान शिव से बोले--भगवन! मेरे नेत्रों को वह शक्ति दीजिए, जिससे
मैं आपके चरणारविंदों का दर्शन कर सकूं।
कुबेर की बात सुनकर भगवान शिव ने अपनी हथेली से कुबेर को स्पर्श कर देखने की
शक्ति प्रदान की। दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर वे आंखें फाड़-फाड़कर देवी उमा की ओर देखने
लगे। वे सोचने लगे कि भगवान शिव के साथ यह सर्वांग सुंदरी कौन है? इसने ऐसा कौन सा
तप किया है जो इसे भगवान शिव की कृपा से उनका सामीप्य, रूप और सौभाग्य प्राप्त हुआ
है। वे देवी उमा को निरंतर देखते जा रहे थे। देवी को घूरने के कारण उनकी बायीं आंख फूट
गई। शिवजी ने उमा से कहा--उमे! यह तुम्हारा पुत्र है। यह तुम्हें क्रूर दृष्टि से नहीं देख रहा
है। यह तुम्हारे तप बल को जानने की कोशिश कर रहा है, फिर भगवान शिव ने कुबेर से कहा
--मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें वर देता हूं कि तुम समस्त निधियों और गुहा
शक्तियों के स्वामी हो जाओ। सुत्रतों, यक्षों और किन्नरों के अधिपति होकर धन के दाता बनो।
मेरी तुमसे सदा मित्रता रहेगी और मैं तुम्हारे पास सदा निवास करूंगा अर्थात तुम्हारे स्थान
अलकापुरी के पास ही मैं निवास करूंगा। कुबेर अब तुम अपनी माता उमा के चरणों में
प्रणाम करो। ये ही तुम्हारी माता हैं। ब्रह्माजी कहते हैं--नारद! इस प्रकार भगवान शिव ने
देवी से कहा--हे देवी! यह आपके पुत्र के समान है। इस पर अपनी कृपा करो।” यह सुनकर
उमा देवी बोली--वत्स! तुम्हारी, भगवान शिव में सदैव निर्मल भक्ति बनी रहे। बायीं आंख
फूट जाने पर तुम एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। महादेव जी ने जो वर तुम्हें प्रदान किए हैं,
वे सुलभ हैं। मेरे रूप से ईर्ष्या के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होगे। कुबेर को वर देकर
भगवान शिव और देवी उमा अपने धाम को चले गए। इस प्रकार भगवान शिव और कुबेर में
मित्रता हुई और वे अलकापुरी के निकट कैलाश पर्वत पर निवास करने लगे।
नारद जी ने कहा--ब्रह्माजी! आप धन्य हैं। आपने मुझ पर कृपा कर मुझे इस अमृत कथा
के बारे में बताया है। निश्चय ही, शिव भक्ति दुखों को दूर कर समस्त सुख प्रदान करने वाली
है।
बीसवां अध्याय
भगवान शिव का कैलाश पर्वत पर गमन
ब्रह्माजी बोले--हे नारद मुनि! कुबेर के कैलाश पर्वत पर तप करने से वहां पर भगवान
शिव का शुभ आगमन हुआ। कुबेर को वर देने वाले विश्वेश्वर शिव जब निधिपति होने का वर
देकर अंतर्धान हो गए, तब उनके मन में विचार आया कि मैं अपने रुद्र रूप में, जिसका जन्म
ब्रह्माजी के ललाट से हुआ है और जो संहारक है, कैलाश पर्वत पर निवास करूंगा। शिव की
इच्छा से कैलाश जाने के इच्छुक रुद्र देव ने बड़े जोर-जोर से अपना डमरू बजाना शुरू कर
दिया।
वह ध्वनि उत्साह बढ़ाने वाली थी। डमरू की ध्वनि तीनों लोकों में गूंज रही थी। उस ध्वनि
में सुनने वालों को अपने पास आने का आग्रह था। उस डमरू ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, विष्णु
आदि सभी देवता, ऋषि-मुनि, वेद-शास्त्रों को जानने वाले सिद्ध लोग, बड़े उत्साहित होकर
कैलाश पर्वत पर पहुंचे। भगवान शिव के सारे पार्षद और गणपाल जहां भी थे वे कैलाश
पर्वत पर पहुंचे। साथ ही असंख्य गणों सहित अपनी लाखों-करोड़ों भयावनी भूत-प्रेतों की
सेना के साथ स्वयं शिवजी भी वहां पहुंचे। सभी गणपाल सहस्रो भुजाओं से युक्त थे। उनके
मस्तक पर जटाएं थीं। सभी चंद्रचूड, नीलकण्ठ और त्रिलोचन थे। हार, कुण्डल, केयूर तथा
मुकुट से वे अलंकृत थे।
भगवान शिव ने विश्वकर्मा को कैलाश पर्वत पर निवास बनाने की आज्ञा दी। अपने व
अपने भक्तों के रहने के लिए योग्य आवास तैयार करने का आदेश दिया। विश्वकर्मा ने आज्ञा
पाते ही अनेकों प्रकार के सुंदर निवास स्थान वहां बना दिए। उत्तम मुहूर्त में उन्होंने वहां प्रवेश
किया। इस मधुर बेला पर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों और सिद्धों सहित ब्रह्मा
विष्णुजी ने शिवजी व उमा का अभिषेक किया। विभिन्न प्रकार से उनकी पूजा-अर्चना और
स्तुति की। प्रभु की आरती उतारी। उस समय आकाश में फूलों की वर्षा हुई। इस समय चारों
ओर भगवान शिव तथा देवी उमा की जय-जयकार हो रही थी। सभी की स्तुति से प्रसन्न
होकर भगवान शिव ने उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार वरदान दिया तथा उन्हें अभीष्ट और
मनोवांछित वस्तुएं भेंट कीं।
तत्पश्चात भगवान शंकर की आज्ञा लेकर सभी देवता अपने-अपने निवास को चले गए।
कुबेर भी भगवान शिव की आज्ञा पाकर अपने स्थान अलकापुरी को चले गए। तत्पश्चात
भगवान शंभु वहां निवास करने लगे। वे योग साधना में लीन होकर ध्यान में मग्न रहते। कुछ
समय तक वहां अकेले निवास करने के बाद उन्होंने दक्षकन्या देवी सती को पत्नी रूप में
प्राप्त कर लिया। देवर्षि! अब रुद्र भगवान देवी सती के साथ वहां सुखपूर्वक विहार करने
लगे।
हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें भगवान शिव के रुद्र अवतार का वर्णन और उनके कैलाश
पर आगमन की उत्तम कथा सुनाई है। तुम्हें शिवजी व कुबेर की मित्रता और भगवान शिव
की विभिन्न लीलाओं के विषय में बताया है। उनकी भक्ति तीनों लोकों का सुख प्रदान करने
वाली तथा मनोवांछित फलों को देने वाली है। इस लोक में ही नहीं परलोक में भी सदगति
प्राप्त होती है।
इस कथा को जो भी मनुष्य एकाग्र होकर सुनता या पढ़ता है, वह इस लोक में सुख और
भोगों को पाकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
नारद जी ने ब्रह्माजी का धन्यवाद किया और उनकी स्तुति की। वे बोले कि प्रभु, आपने
मुझे इस अमृत कथा को सुनाया है। आप महाज्ञानी हैं। आप सभी की इच्छाओं को पूर्ण
करते हैं। मैं आपका आभारी हूं। शिव चरित्र जैसा श्रेष्ठ ज्ञान आपने मुझे दिया है। हे प्रभो! मैं
आपको बारंबार नमन करता हूं।
।। श्रीरुद्र संहिता संपूर्ण ।।
।। ॐ नमः शिवाय ।।
श्रीरुद्र संहिता
द्वितीय खण्ड
पहला अध्याय
सती चरित्र
नारद जी ने पूछा-हे ब्रह्माजी! आपके श्रीमुख से मंगलकारी व अमृतमयी शिव कथा
सुनकर मुझमें उनके विषय में और अधिक जानने की लालसा उत्पन्न हो गई है। अतः भगवान
शिव के बारे में मुझे बताइए। विश्व की सृष्टि करने वाले है ब्रह्माजी! गैं सती के विषय में भी
जानना चाहता हूं। सदाशिव योगी होते हुए एक स्त्री के साथ विवाह करके गृहस्थ कैसे हो
गए? उन्हें विवाह करने का विचार कैसे आया? जो पहले दक्ष की कन्या थी, फिर हिमालय
की कन्या हुई, वे सती (पार्वती) किस प्रकार शंकरजी को प्राप्त हुई? पार्वती ने किस प्रकार
घोर तपस्या की और कैसे उनका विवाह हुआ? कामदेव को भस्म कर देने वाले भगवान शिव
के आधे शरीर में वे किस प्रकार स्थान पा सकीं? उनका अर्द्धनारीश्वर रूप क्या है? हे प्रभो!
आप ही मेरे इन प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। आप ही मेरे संशयों का निवारण कर सकते हैं।
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! देवी सती और भगवान शिव का शुभ यश परमपावन दिव्य
और गोपनीय है। उसके रहस्य को वे ही समझते हैं। सर्वप्रथम तुम्हारी प्रार्थना पर मैं सती के
चरित्र को बताता हूं।
पहले मेरे एक कन्या पैदा हुई। जिसे देखकर मैं काम पीड़ित हो गया। तब रद्र ने धर्म का
स्मरण कराते हुए मुझे बहुत धिक्कारा। फिर वे अपने निवास कैलाश पर्वत को चले गए। उन्हें
मैंने समझाने की कोशिश की, परंतु मेरे सभी प्रयत्न निष्फल हो गए। तब मैंने शिवजी की
आराधना की। शिवजी ने मुझे बहुत समझाया परंतु मैंने हठ नहीं छोड़ा और फिर रुद्रदेव को
मोहित करने के लिए शक्ति का उपयोग करने लगा। मेरे पुत्र दक्ष के यहां सती का जन्म हुआ।
वह दक्ष सुता 'उमा' नाम से उत्पन्न होकर कठिन तप करके रुद्र की स्त्री हुई। रुद्र ने
गृहस्थाश्रम में सुखपूर्वक समय व्यतीत किया। उधर शिवजी की माया से दक्ष को घमंड हो
गया और वह महादेव जी की निंदा करने लगा।
दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में दक्ष ने मुझे, विष्णुजी को, सभी
देवी-देवताओं को और ऋषि-मुनियों को निमंत्रण दिया परन्तु महादेव शिवजी एवं अपनी
पुत्री सती को उस विशाल यज्ञ का निमंत्रण नहीं दिया। सती को जब इस बात की जानकारी
मिली, तो उन्होंने शिव-चरणों में वंदना कर उनसे दक्ष-यज्ञ में जाने की इच्छा प्रकट की।
भगवान शिव ने देवी सती को बहुत समझाया कि बिना बुलाए ऐसे आयोजनों में जाना
अपमान और अनिष्टकारक होता है। लेकिन सती ने जाने का हठ किया। शिव ने भावी को
देखते हुए आज्ञा दे दी। शिव सर्वज्ञ हैं। सती पिता के घर चली गई। वहां यज्ञ में महादेव जी के
लिए भाग न देख और अपने पिता के मुख से अपने पति की घोर निंदा सुनकर उन्हें बहुत
क्रोध आया। वे महादेव की निंदा सहन न कर सकीं और उन्होंने उसी यज्ञ कुंड में कूदकर
अपने शरीर का त्याग कर दिया।
जब इसका समाचार शिव तक पहुंचा, तो वे बहुत कुपित हुए। उन्होंने अपनी जटा का
एक बाल उखाड़कर वीरभद्र नामक अपने गण को उत्पन्न किया। भगवान शिव ने वीरभद्र को
आज्ञा दी कि वह दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दे। वीरभद्र ने शिव आज्ञा का पालन करते हुए
यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काट दिया। इस उपद्रव को देखकर सभी लोग
भगवान शिव की प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शिव ने दक्ष को पुनः जीवित कर दिया और
उनके यज्ञ को पूर्ण कराया। भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर वहां से चले गए। उस
समय सती के शरीर से उत्पन्न ज्वाला पर्वत पर गिरी थी। वही पर्वत आज भी ज्वालामुखी के
नाम से पूजित है। आज भी उसके दर्शन से मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
वही सती दूसरे जन्म में हिमाचल के घर में पुत्री रूप में प्रकट हुई, जिनका नाम पार्वती
था। उन्होंने कठोर तप द्वारा पुनः महादेव शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त कर लिया।
दूसरा अध्याय
शिव-पार्वती चरित्र
सूत जी बोले--हे ऋषियो! ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर नारद जी पुनः पूछने लगे। हे
ब्रह्माजी! मैं सती और शंकरजी के परम पवित्र व दिव्य चरित्र को पुनः सुनना चाहता हूं कि
सती की उत्पत्ति कैसे हुई और महादेव जी का मन विवाह करने के लिए कैसे तैयार हुआ?
दक्ष से नाराज होकर देवी सती ने अपनी देह को कैसे त्याग दिया और फिर कैसे हिमाचल की
पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया? उनके तप, विवाह, काम-नाश आदि की सभी कथाएं
मुझे सविस्तार सुनाने की कृपा करें।
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! पहले भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निर्विकारी और दिव्य थे
परंतु देवी उमा से विवाह करने के बाद वे सगुण और शक्तिमान हो गए। उनके बाएं अंग से
ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और दाएं अंग से विष्णु उत्पन्न हुए। तभी से भगवान सदाशिव के तीन
रूप ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र--सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के रूप में विख्यात हुए।
उनकी आराधना करते हुए मैं सुरासुर सहित मनुष्य आदि जीवों की रचना करने लगा। मैंने
सभी जातियों का निर्माण किया। मैंने ही मरीच, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वशिष्ठ
नारद, दक्ष और भगु की उत्पत्ति की और ये मेरे मानस पुत्र कहलाए। तत्पश्चात, मेरे मन में
माया का मोह उत्पन्न होने लगा। तब मेरे हृदय से अत्यंत मनोहारी और सुंदर रूप वाली नारी
प्रकट हुई। उसका नाम संध्या था। वह दिन में क्षीण होती, परंतु रात में उसका रूप-सौंदर्य
और निखर जाता था। वह सायं संध्या ही थी। संध्या निरंतर मंत्र का जाप करती थी। उसके
सौंदर्य से ऋषि-मुनियों का मन भी भ्रमित हो जाता था। इसी प्रकार मेरे मन से एक मनोहर
रूप वाला पुरुष भी प्रकट हुआ। वह अत्यंत सुंदर और अदभुत रूप वाला था। उसके शरीर
का मध्य भाग पतला था। वह काले बालों से युक्त था। उसके दांत सफेद मोतियों से चमक
रहे थे। उसके श्वास से सुगंधि निकल रही थी। उसकी चाल मदमस्त हाथी के समान थी।
उसकी आंखें कमल के समान थीं। उसके अंगों में लगे केसर की सुगंध नासिका को तृप्त कर
रही थी। तभी उस रूपवान पुरुष ने विनयपूर्वक अपने सिर को मुझ ब्रह्मा के सामने झुकाकर,
मुझे प्रणाम किया और मेरी बहुत स्तुति की।
वह पुरुष बोला-ब्रह्मान्! आप अत्यंत शक्तिशाली हैं। आपने ही मेरी उत्पत्ति की है। प्रभु
मुझ पर कृपा करें और मेरे योग्य काम मुझे बताएं ताकि मैं आपकी आज्ञा से उस कार्य को
पूरा कर सकूं।
ब्रह्माजी ने कहा-—हे भद्रपुरुष! तुम सनातनी सृष्टि उत्पन्न करो। तुम अपने इसी स्वरूप में
फूल के पांच बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करो। इस चराचर जगत में कोई भी जीव
तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर पाएगा। तुम छिपकर प्राणियों के हृदय में प्रवेश करके सुख का
हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य आगे बढ़ाओगे। तुम्हारे पुष्पमय बाण समस्त प्राणियों को
भेदकर उन्हें मदमस्त करेंगे। आज से तुम “पुष्प बाण” नाम से जाने जाओगे। इसी प्रकार तुम
सृष्टि के प्रवर्तक के रूप में जाने जाओगे।
तीसरा अध्याय
कामदेव को ब्रह्माजी द्वारा शाप देना
ब्रह्माजी ने कहा--हे नारद! सभी ऋषि-मुनि उस पुरुष के लिए उचित नाम खोजने लगे।
तब सोच-विचारकर वे बोले कि तुमने उत्पन्न होते ही ब्रह्मा का मन मंथन कर दिया है। अतः
तुम्हारा पहला नाम मन्मथ होगा। तुम्हारे जैसा इस संसार में कोई नहीं है इसलिए तुम्हारा
दूसरा नाम काम होगा। तीसरा नाम मदन और चौथा नाम कंदर्प होगा। अपने नामों के विषय
में जानते ही काम ने अपने पांच बाणों का नामकरण कर उनका परीक्षण किया। काम ने
अपने पांच बाणों को हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण और मारण नाम से सुशोभित किया। ये
बाण ऋषि-मुनियों को भी मोहित कर सकते थे। उस स्थान पर बहुत से देवता व ऋषि
उपस्थित थे। उस समय संध्या भी वहीं थी। कामदेव द्वारा चलाए गए बाणों के फलस्वरूप
सभी मोहित हो गए। सबके मनों में विकार आ गया। सभी काम के वशीभूत हो चुके थे।
प्रजापति, मरीचि, अत्रि, दक्ष आदि सब मुनियों के साथ-साथ ब्रह्माजी भी काम के वश में
होकर संध्या को पाने की इच्छा करने लगे। ब्रह्मा व उनके मानस पुत्रों, सभी को एक कन्या
पर मोहित होते देखकर धर्म को बहुत दुख हुआ। धर्म ने धर्मरक्षक त्रिलोकीनाथ का स्मरण
किया। तब मुझे देखकर शिवजी हंसे और कहने लगे-हे ब्रह्मा! अपनी पुत्री के ही प्रति तुम
मोहित कैसे हो गए? सूर्य का दर्शन करने वाले दक्ष, मरीचि आदि योगियों का निर्मल मन कैसे
स्त्री को देखते ही मलिन हो गया? जिन देवताओं का मन स्त्री के प्रति आसक्त हो, उनके साथ
शास्त्र संगति किस प्रकार की जा सकती है?
इस प्रकार के शिव वचन सुनकर मुझे बहुत लज्जा का अनुभव हुआ और मेरा पूरा शरीर
पसीने-पसीने हो गया। मेरा विकार समाप्त हो गया परंतु मेरे शरीर से जो पसीना नीचे गिरा
उससे पितृगणों की उत्पत्ति हुई। उससे चौंसठ हजार आग्नेष्वातो पितृगण उत्पन्न हुए और
छियासी हजार बहिर्षद पितर हुए। एक सर्व गुण संपन्न, अति सुंदर कन्या भी उत्पन्न हुई,
जिसका नाम रति था। उसका रूप-सौंदर्य देखकर ऋतु आदि स्खलित हो गए एवं उससे
अनेक पितरों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार संध्या से बहुत से पितरों की उत्पत्ति हुई।
शिवजी के वहां से अंतर्धान होने पर मीं काम पर क्रोधित हुआ। मेरे क्रुद्ध होने पर काम ने
वह बाण वापस खींच लिया। बाण के निकलते ही मैं क्रोध की आग्नि से जलने लगा। मैंने
काम को शिव बाण से भस्म होने का शाप दे डाला। यह सुनकर काम और रति दोनों मेरे
चरणों में गिर पड़े और मेरी स्तुति करने लगे तथा क्षमा-याचना करने लगे।
तब काम ने कहा--हे प्रभु! आपने ही तो मुझे वर देते हुए कहा था कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र
समेत सभी देवता, ऋषि-मुनि और मनुष्य तुम्हारे वश में होंगे। मैं तो सिर्फ अपनी उस शक्ति
का परीक्षण कर रहा था। इसलिए मैं निरपराध हूं। प्रभु मुझ पर कृपा करें। इस शाप के प्रभाव
को समाप्त करने का उपाय बताएं।
इस प्रकार काम के वचनों को सुनकर ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ। तब उन्होंने कहा कि
मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तुम महादेव के तीसरे नेत्र रूपी अग्नि बाण से भस्म
हो जाओगे। परंतु कुछ समय पश्चात जब शिवजी विवाह करेंगे अर्थात उनके जीवन में देवी
पार्वती आएंगी, तब तुम्हारा शरीर तुम्हें पुनः प्राप्त हो जाएगा।
चौथा अध्याय
काम-रति विवाह
नारद जी ने पूछा-हे ब्रह्माजी! इसके पश्चात क्या हुआ? आप मुझे इससे आगे की कथा
भी बताइए। भगवन् काम और रति का विवाह हुआ या नहीं? आपके शाप का क्या हुआ?
कृपया इसके बारे में भी मुझे सविस्तार बताइए।
ब्रह्माजी बोले-शिवजी के वहां से अंतर्धान हो जाने पर दक्ष ने काम से कहा-हे
कामदेव! आपके ही समान गुणों वाली परम सुंदरी एवं सुशीला मेरी कन्या को तुम पत्नी के
रूप में स्वीकार करो। मेरी पुत्री सर्वगुण संपन्न है तथा हर तरीके से आपके लिए सुयोग्य है। हे
महातेजस्वी मनोभव! यह हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी और तुम्हारी इच्छानुसार कार्य करेगी।
यह कहकर दक्ष ने अपनी कन्या, जो उनके पसीने से उत्पन्न हुई थी, का नाम 'रति' रख
दिया। तत्पश्चात कामदेव और रति का विवाह सोल्लास संपन्न हुआ। हे नारद! दक्ष की पुत्री
रति बड़ी रमणीय और परम सुंदरी थी। उसका रूप-लावण्य मुनियों को भी मोह लेने वाला
था। रति से विवाह होने पर कामदेव अत्यंत प्रसन्न हुए। वे रति पर पूर्ण मोहित थे। उनके
विवाह पर बहुत बड़ा उत्सव हुआ। प्रजापति दक्ष पुत्री के लिए सुयोग्य वर पाकर बहुत खुश
थे। दक्षकन्या देवी रति भी कामदेव को पाकर धन्य हो गई थी। जिस प्रकार बादलों में बिजली
शोभा पाती है, उसी प्रकार कामदेव के साथ रति शोभा पा रही थी। कामदेव ने रति को अपने
हृदय सिंहासन में बैठाया तो रति भी कामदेव को पाकर उसी प्रकार प्रसन्न हुई, जिस प्रकार
श्रीहरि को पाकर देवी लक्ष्मी। उस समय आनंद और खुशी से सराबोर कामदेव व रति
भगवान शिव का शाप भूल गए।
सूत जी कहते हैं-ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर महर्षि नारद बड़े प्रसन्न हुए और
हर्षपूर्वक बोले-हे महामते! आपने भगवान शिव की अदभुत लीला मुझे सुनाई है। प्रभो!
अब मुझे आप यह बताइए कि कामदेव और रति के विवाह के उपरांत सब देवताओं के अपने
धाम चले जाने के बाद, पितरों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मकुमारी संध्या कहां गई? उनका
विवाह कब और किससे हुआ? संध्या के विषय में मेरी जिज्ञासा शांत करिए।
पाचवा अध्याय
संध्या का चरित्र
सूत जी बोले--हे ऋषियो! नारद जी के इस प्रकार प्रश्न करने पर ब्रह्माजी ने कहा--मुने!
संध्या का चरित्र सुनकर समस्त कामनियां सती-साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या मेरी मानस
पुत्री थी, जिसने घोर तपस्या करके अपना शरीर त्याग दिया था। फिर वह मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि
की पुत्री अरुंधती के रूप में जन्मी। संध्या ने तपस्या करते हुए अपना शरीर इसलिए त्याग
दिया था क्योंकि वह स्वयं को पापिनी समझती थी। उसे देखकर स्वयं उसके पिता और
भाइयों में काम की इच्छा जाग्रत हुई थी। तब उसने इसका प्रायश्चित करने के बारे में सोचा
तथा निश्चय किया कि वह अपना शरीर वैदिक अग्नि में जला देगी, जिससे मर्यादा स्थापित
हो। भूतल पर जन्म लेने वाला कोई भी जीव तरुणावस्था से पहले काम के प्रभाव में नहीं आ
पाएगा। यह मर्यादा स्थापित कर मैं अपने जीवन का त्याग कर दूंगी।
मन में ऐसा विचार करके संध्या चंद्रभाग नामक पर्वत पर चली गई। यहीं से चंद्रभागा नदी
का आरंभ हुआ। इस बात का ज्ञान होने पर मैंने वेद-शास्त्रों के पारंगत, विद्वान, सर्वज्ञ और
ज्ञानयोगी पुत्र वशिष्ठ को वहां जाने की आज्ञा दी। मैंने वशिष्ठ जी को संध्या को विधिपूर्वक
दीक्षा देने के लिए वहां भेजा था।
नारद! चंद्रभाग पर्वत पर एक देव सरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से पूर्ण है। उस
सरोवर के तट पर बैठी संध्या इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जैसे प्रदोष काल में उदित
चंद्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। तभी उन्होंने चंद्रभागा नदी का भी दर्शन
किया। तब उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या से वशिष्ठ जी ने आदरपूर्वक पूछा, है देवी! तुम
इस निर्जन पर्वत पर क्या कर रही हो? तुम्हारे माता-पिता कीन हैं? यदि यह छिपाने योग्य न
हो तो कृपया मुझे बताओ। यह वचन सुनकर संध्या ने महर्षि वाशिष्ठ की ओर देखा। उनका
शरीर दिव्य तेज से प्रकाशित था। मस्तक पर जटा धारण किए वे साक्षात कोई पुण्यात्मा
जान पड़ते थे। संध्या ने आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए वशिष्ठ जी को अपना परिचय देते हुए
कहा--ब्रह्मन्। मैं ब्रह्माजी की पुत्री संध्या हूं। गैं इस निर्जन पर्वत पर तपस्या करने आई हूं।
यदि आप उचित समझें तो मुझे तपस्या की विधि बताइए। मैं तपस्या के नियमों को नहीं
जानती हूं। अतः मुझ पर कृपा करके आप मेरा उचित मार्गदर्शन करें। संध्या की बात सुनकर
वशिष्ठ जी ने जान लिया कि देवी संध्या मन में तपस्या का दृढ़ संकल्प कर चुकी हैं। इसलिए
वशिष्ठ जी ने भक्तवत्सल भगवान शिव का स्मरण करते हुए कहा
हे देवी! जो सबसे महान और उत्कृष्ट हैं, सभी के परम आराध्य हैं, जिन्हें परमात्मा कहा
जाता है, तुम उन महादेव शिव को अपने हृदय में धारण करो। भगवान शिव ही धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष के स्रोत हैं। तुम उन्हीं का भजन करो। 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करते
हुए मौन तपस्या करो। उसके अनुसार मौन रहकर ही स्नान तथा शिव-पूजन करो। प्रथम दो
बार छठे समय में जल को आहार के रूप में लो। तीसरी बार छठा समय आने पर उपवास
करो। देवी! इस प्रकार की गई तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा अभीष्ट मनोरथों को
पूरा करने वाली होती है। अपने मन में शुभ उददेश्य लेकर शिवजी का मनन व चिंतन करो।
वे प्रसन्न होकर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेंगे। इस प्रकार संध्या को तपस्या की विधि
बताकर और उपदेश देकर मुनि वशिष्ठ वहां से अंतर्धान हो गए।
छठा अध्याय
संध्या की तपस्या
ब्रह्माजी बोले--हे महाप्रज्ञ नारद! तपस्या की विधि बताकर जब वशिष्ठ जी चले गए, तब
संध्या आसन लगाकर कठोर तप शुरू करने लगी। वशिष्ठ जी द्वारा बताए गए विधान एवं मंत्र
द्वारा संध्या ने भगवान शिव की आराधना करनी आरंभ कर दी। उसने अपना मन शिवभक्ति
में लगा दिया और एकाग्र होकर तपस्या में मग्न हो गई। तपस्या करते-करते चार युग बीत
गए। तब भगवान शिव प्रसन्न हुए और संध्या को अपने स्वरूप के दर्शन दिए, जिसका चिंतन
संध्या द्वारा किया गया था। भगवान का मुख प्रसन्न था। उनके स्वरूप से शांति बरस रही थी।
संध्या के मन में विचार आया कि मैं महादेव की स्तुति कैसे करूं? इसी सोच में संध्या ने नेत्र
बंद कर लिए। भगवान शिव ने संध्या के हृदय में प्रवेश कर उसे दिव्य ज्ञान दिया। साथ ही
दिव्य-वाणी और दिव्य-दृष्टि भी प्रदान की। संध्या ने प्रसन्न मन से भगवान शिव की स्तुति
की।
संध्या बोली-हे निराकार! परमज्ञानी, लोकस्रष्टा, भगवान शिव, मैं आपको नमस्कार
करती हूं। जो शांत, निर्मल, निर्विकार और ज्ञान के स्रोत हैं। जो प्रकाश को प्रकाशित करते
हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करती हूं। जिनका रूप अद्वितीय, शुद्ध, माया रहित,
प्रकाशमान, सच्चिदानंदमय, नित्यानंदमय, सत्य, ऐश्वर्य से युक्त तथा लक्ष्मी और सुख देने
वाला है, उन परमपिता परमेश्वर को मेरा नमस्कार है। जो सत्वप्रधान, ध्यान योग्य,
आत्मस्वरूप, सारभूत सबको पार लगाने वाला तथा परम पवित्र है, उन प्रभु को मेरा प्रणाम
है। भगवान शिव आपका स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्नमय, आभूषणों से अलंकृत एवं कपूर के
समान है। आपके हाथों में डमरू, रुद्राक्ष और त्रिशूल शोभा पाते हैं। आपके इस दिव्य
चिन्मय, सगुण, साकार रूप को मीं नमस्कार करती हूं। आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज
और काल सभी आपके रूप हैं। हे प्रभु! आप ही ब्रह्मा के रूप में जगत की सूष्टि, विष्णु रूप
में संसार का पालन करते हैं। आप ही रुद्र रूप धरकर संहार करते हैं। जिनके चरणों से पृथ्वी
तथा अन्य शरीर से सारी दिशाएं, सूर्य, चंद्रमा एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं, जिनकी नाभि से
अंतरिक्ष का निर्माण हुआ है, वे ही सदब्रह्म तथा परब्रह्म हैं। आपसे ही सारे जगत की उत्पत्ति
हुई है। जिनके स्वरूप और गुणों का वर्णन स्वयं ब्रह्मा, विष्णु भी नहीं कर सकते, भला उन
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की स्तुति मैं कैसे कर सकती हूं? गैं एक अज्ञानी और मूर्ख स्त्री हूं।
मैं किस तरह आपको पूजूं कि आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे प्रभु! मैं बारंबार आपको नमस्कार
करती हूं।
ब्रह्माजी बोले-नारद! संध्या द्वारा कहे गए वचनों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए।
उसकी स्तुति ने उन्हें द्रवित कर दिया। भगवान शिव बोले-हे देवी! मैं तुम्हारी तपस्या से
बहुत प्रसन्न हूं अतः तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांगो। तुम्हारी इच्छा मैं अवश्य पूर्ण
करूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर संध्या खुशी से उन्हें बार-बार प्रणाम करती हुए
बोली--हे महेश्वर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर कोई वर देना चाहते हैं और यदि मैं अपने
पूर्व पापों से शुद्ध हो गई हूं तो हे महेश्वर! हे देवेश! आप मुझे वरदान दीजिए कि आकाश,
पृथ्वी और किसी भी स्थान में रहने वाले जो भी प्राणी इस संसार में जन्म लें, वे जन्म लेते ही
काम भाव से युक्त न हो जाएं। हे प्रभु! मेरे पति भी सुहृदय और मित्र के समान हों और
अधिक कामी न हों। उनके अलावा जो भी मनुष्य मुझे सकाम भाव से देखे, वह पुरुषत्वहीन
अर्थात नपुंसक हो जाए। हे प्रभु! मुझे यह वरदान भी दीजिए कि मेरे समान विख्यात और
परम तपस्विनी तीनों लोकों में और कोई न हो।
निष्पाप संध्या के वरदान मांगने को सुनकर भगवान शिव बोले--हे देवी संध्या! तथास्तु!
तुम जो चाहती हो, मैं तुम्हें प्रदान करता हूं। प्राणियों के जीवन में अब चार अवस्थाएं होंगी।
पहली शैशव अवस्था, दूसरी कोमार्यावस्था, तीसरी यौवनावस्था और चौथी वृद्धावस्था।
तीसरी अवस्था अर्थात यौवनावस्था में ही मनुष्य सकाम होगा। कहीं-कहीं दूसरी अवस्था के
अंत में भी प्राणी सकाम हो सकते हैं। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर ही मैंने यह मर्यादा
निर्धारित की है। तुम परम सती होगी और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी मनुष्य तुम्हें
सकाम भाव से देखेगा वह तुरंत पुरुषत्वहीन हो जाएगा। तुम्हारा पति महान तपस्वी होगा,
जो कि सात कल्पों तक जीवित रहेगा। इस प्रकार मैंने तुम्हारे द्वारा मांगे गए दोनों वरदान
तुम्हें प्रदान कर दिए हैं। अब मैं तुम्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का साधन बताता हूं। तुमने
अग्नि में अपना शरीर त्यागने की प्रतिज्ञा की थी। मुनिवर मेधातिथि का एक यज्ञ चल रहा है,
जो कि बारह वर्षों तक चलेगा। उसमें अग्नि बड़े जोरों से जल रही है। तुम उसी अग्ने में
अपना शरीर त्याग दो। चंद्रभागा नदी के तट पर ही तपस्वियों का आश्रम है, जहां महायज्ञ हो
रहा है। तुम उसी अग्ने से प्रकट होकर मेधातिथि की पुत्री होगी। अपने मन में जिस पुरुष की
इच्छा करके तुम शरीर त्यागोगी वही पुरुष तुम्हें पति रूप में प्राप्त होगा। संध्या, जब तुम इस
पर्वत पर तपस्या कर रही थीं तब त्रेता युग में प्रजापति दक्ष की बहुत सी कन्याएं हुई। उनमें
से सत्ताईस कन्याओं का विवाह उन्होंने चंद्रमां से कर दिया। चंद्रमा उन सबको छोड़कर
केवल रोहिणी से प्रेम करते थे। तब दक्ष ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया। चंद्रमा को शाप
से मुक्त कराने के लिए उन्होंने चंद्रभागा नदी की रचना की। उसी समय मेधातिथि यहां
उपस्थित हुए थे। उनके समान कोई तपस्वी न है, न होगा। उन्हीं का 'ज्योतिष्टोम' नामक यज्ञ
चल रहा है, जिसमें अग्निदेव प्रज्वलित हैं। तुम उसी आग में अपना शरीर डालकर पवित्र हो
जाओ और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।
इस प्रकार उपदेश देकर भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।
सातवां अध्याय
संध्या की आत्माहुति
ब्रह्माजी कहते है--नारद! जब भगवान शिव देवी संध्या को वरदान देकर वहां से अंतर्धान
हो गए, तब संध्या उस स्थान पर गई, जहां पर मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने अपने
हृदय में तेजस्वी ब्रह्मचारी वशिष्ठ जी का स्मरण किया तथा उन्हीं को पतिरूप में पाने की
इच्छा लेकर संध्या महायज्ञ की प्रज्वलित अग्ने में कूद गई। अग्ने में उसका शरीर जलकर
सूर्य मण्डल में प्रवेश कर गया। तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिए उसे दो
भागों में बांटकर रथ में स्थापित कर दिया। उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या हुआ
और शेष भाग सायं संध्या हुआ। सायं संध्या से पितरों को संतुष्टि मिलती है। सूर्योदय से पूर्व
जब आकाश में लाली छाई होती है अर्थात अरुणोदय होता है उस समय देवताओं का पूजन
करें। जिस समय लाल कमल के समान सूर्य अस्त होता है अर्थात डूबता है उस समय पितरों
का पूजन करना चाहिए। भगवान शिव ने संध्या के प्राणों को दिव्य शरीर प्रदान कर दिया।
जब मेधातिथि मुनि का यज्ञ समाप्त हुआ, तब उन्होंने एक कन्या को, जिसकी कांति सोने के
समान थी, अग्ने में पड़े देखा। उसे मुनि ने भली प्रकार स्नान कराया और अपनी गोद में बैठा
लिया। उन्होंने उसका नाम 'अरुंधती' रखा। यज्ञ के निर्विघ्न समाप्त होने और पुत्री प्राप्त होने
के कारण मेधातिथि मुनि बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने अरुंधती का पालन आश्रम में ही किया। वह
धीरे-धीरे उसी चंद्रभागा नदी के तट पर रहते हुए बड़ी होने लगी। जब वह विवाह योग्य हुई
तो हम त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मेधा मुनि से बात कर, उसका विवाह मुनि वाशिष्ठ से
करा दिया।
मुने! मेधातिथि की पुत्री महासाध्वी अरुंधती अति पतिव्रता थी। वह मुनि वशिष्ठ को पति
रूप में पाकर बहुत प्रसन्न थी। वह उनके साथ रमण करने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं
रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए। हे नारद! इस प्रकार मैने तुम्हें परम पवित्र देवी संध्या का चरित्र सुनाया
है। यह समस्त अभीष्ट फलों को देने वाला है। यह परम पावन और दिव्य है। जो स्त्री-पुरुष
इस शुभ व्रत का पालन करते हैं, उनकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं।
आठवां अध्याय
काम की हार
सूत जी बोले--हे ऋषियो! जब इस प्रकार प्रजापति ब्रह्माजी ने कहा, तब उनके वचनों
को सुनकर नारद जी आनंदित होकर बोले-हे ब्रह्मन्! मैं आपको बहुत धन्यवाद देता हूं कि
आपने इस दिव्य कथा को मुझे सुनाया है। हे प्रभु! अब आप मुझे संध्या के विषय में और
बताइए कि विवाह के बाद उन्होंने क्या किया? क्या उन्होंने दुबारा तप किया या नहीं? सूत
जी बोले-इस प्रकार नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा। उन्होंने यह भी पूछा कि जब कामदेव
रति के साथ विवाह करके वहां से चले गए और दक्ष आदि सभी मुनि वहां से चले गए, संध्या
भी तपस्या के लिए वहां से चली गई, तब वहां पर क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले-है श्रेष्ठ नारद! तुम भगवान शिव के परम भक्त हो, तुम उनकी लीला को
अच्छी प्रकार जानते हो। पूर्वकाल में जब मैं मोह में फंस गया तब भगवान शिव ने मेरा
मजाक उड़ाया, तब मुझे बड़ा दुख हुआ। मैं भगवान शिव से इर्ष्या करने लगा। मैं दक्ष मुनि के
यहां गया। देवी रति और कामदेव भी वहीं थे। मैंने उन्हें बताया कि शिवजी ने किस प्रकार
मेरा मजाक उड़ाया था। मैंने पुत्रों से कहा कि तुम ऐसा प्रयत्न करो जिससे महादेव शिव
किसी कमनीय कांति वाली स्त्री से विवाह कर लें। मैंने प्रभु शिव को मोहित करने के लिए
कामदेव और रति को तैयार किया। कामदेव ने मेरी आज्ञा को मान लिया। कामदेव बोले-हे
ब्रह्माजी! मेरा अस्त्र तो सुंदर स्त्री ही है। अतः आप भगवान शिव के लिए किसी परम सुंदरी
की सृष्टि कीजिए। यह सुनकर मैं चिंता में पड़ गया। मेरी तेज सांसों से पुष्पों से सजे बसंत
का आरंभ हुआ। बसंत और मलयानल ने कामदेव की सहायता की। इनके साथ कामदेव ने
शिवजी को मोहने की चेष्टा की, पर सफल नहीं हुए। मैंने मरुतगणों के साथ पुनः उन्हें
शिवजी के पास भेजा। बहुत प्रयत्न करने पर भी वे सफल नहीं हो पाए।
अतः मैंने बसंत आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर शिवजी को मोहित करने को
कहा। फिर कामदेव प्रसन्नता से रति और अन्य सहायकों को साथ लेकर शिवजी के स्थान
को चले गए।
नवां अध्याय
ब्रह्मा का शिव विवाह हेतु प्रयत्न
ब्रह्माजी बोले--काम ने प्राणियों को मोहित करने वाला अपना प्रभाव फैलाया। बसंत ने
उसका पूरा सहयोग किया। रति के साथ कामदेव ने शिवजी को मोहित करने के लिए अनेक
प्रकार के यत्न किए। इसके फलस्वरूप सभी जीव और प्राणी मोहित हो गए। जड़-चेतन
समस्त सृष्टि काम के वश में होकर अपनी मर्यादाओं को भूल गई। संयम का व्रत पालन करने
वाले ऋषि-मुनि अपने कृत्यों पर पश्चाताप करते हुए आश्चर्यचकित थे कि उन्होंने कैसे अपने
व्रत को तोड़ दिया। परंतु भगवान शिव पर उनका वश नहीं चल सका। कामदेव के सभी
प्रयत्न व्यर्थ हो गए। तब कामदेव निराश हो गए और मेरे पास आए और मुझे प्रणाम करके
बोले--हे भगवन्! मैं इतना शक्तिशाली नहीं हूं, जो शिवजी को मोह सकूं। यह बात सुनकर मैं
चिंता में डूब गया। उसी समय मेरे सांस लेने से बहुत से भयंकर गण प्रकट हो गए। जो अनेक
वाद्य-यंत्रों को जोर-जोर से बजाने लगे और “मारो-मारो" की आवाज करने लगे। ऐसी
अवस्था देखकर कामदेव ने उनके विषय में मुझसे प्रश्न किया। तब मैंने उन गणों को 'मार'
नाम प्रदान कर उन्हें कामदेव को सौंप दिया और बताया कि ये सदा तुम्हारे वश में रहेंगे।
तुम्हारी सहायता के लिए ही इनका जन्म हुआ है। यह सुनकर रति और कामदेव बहुत प्रसन्न
हुए।
काम ने कहा_प्रभु! मैं आपकी आज्ञा के अनुसार पुनः शिवजी को मोहित करने के लिए
जाऊंगा परंतु मुझे यह लगता है कि मैं उन्हें मोहने में सफल नहीं हो पाऊंगा। साथ ही मुझे
इस बात का भी डर है कि कहीं वे आपके शाप के अनुसार मुझे भस्म न कर दें। यह कहकर
कामदेव रति, बसंत और अपने मारगणों को साथ लेकर पुनः शिवधाम को चले गए। कामदेव
ने शिवजी को मोहित करने के लिए बहुत से उपाय किए परंतु वे परमात्मा शिव को मोहित
करने में सफल न हो सके। फिर कामदेव वहां से वापस आ गए और मुझे अपने असफल
होने की सूचना दी। मुझसे कामदेव कहने लगे कि है ब्रह्मन्! आप ही शिवजी को मोह में
डालने का उपाय करें। मेरे लिए उन्हें मोहना संभव नहीं है।
दसवा अध्याय
ब्रह्मा-विष्णु संवाद
ब्रह्माजी बोले--नारद! काम के चले जाने पर श्री महादेव जी को मोहित कराने का मेरा
अहंकार गिरकर चूर-चूर हो गया परंतु मेरे मन में यही चलता रहा कि ऐसा क्या करूं, जिससे
महात्मा शिवजी स्त्री ग्रहण कर लें। यह सोचते-सोचते मुझे विष्णुजी का स्मरण हुआ। उन्हें
याद करते ही पीतांबरधारी श्रीहरि विष्णु मेरे सामने प्रकट हो गए। मैंने उनकी प्रसन्नता के
लिए उनकी बहुत स्तुति की। तब विष्णुजी मुझसे पूछने लगे कि मैंने उनका स्मरण किस
उद्देश्य से किया था? यदि तुम्हें कोई दुख या कष्ट है तो कृपया मुझे बताओ मीं उस दुख को
मिटा दूंगा। तब मैंने उनसे कहा-हे केशव! यदि भगवान शिव किसी तरह पत्नी ग्रहण कर लें
अर्थात विवाह कर लें तो मेरे सभी दुख दूर हो जाएंगे। मैं पुन: सुखी हो जाऊंगा। मेरी यह बात
सुनकर भगवान मधुसूदन हंसने लगे और मुझ लोकस्रष्टा ब्रह्मा का हर्ष बढ़ाते हुए बोले
है ब्रह्माजी! मेरी बातों को सुनकर आपके सभी भ्रमों का निवारण हो जाएगा। शिवजी ही
सबके कर्ता और भर्ता हैं। वे ही इस संसार का पालन करते हैं। वे ही पापों का नाश करते हैं।
भगवान शिव ही परब्रह्म, परेश, निर्गुण, नित्य, अनिर्देश्य, निर्विकार, अद्वितीय, अनंत और
सबका अंत करने वाले हैं। वे सर्वव्यापी हैं। तीनों गुणों को आश्रय देने वाले, ब्रह्मा, विष्णु और
महेश नाम से प्रसिद्ध रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुण से दूर एवं माया से रहित हैं। भगवान शिव
योगपरायण और भक्तवत्सल हैं।
हे विधे! जब भगवान शिव ने आपकी कृपा से हमें प्रकट किया था। उस समय उन्होंने हमें
बताया था कि यद्यपि ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र तीनों मेरे ही अवतार होंगे परंतु रुद्र को मेरा पूर्ण
रूप माना जाएगा। इसी प्रकार देवी उमा के भी तीन रूप होंगे। एक रूप का नाम लक्ष्मी
होगा और वह श्रीहरि की पत्नी होंगी। दूसरा रूप सरस्वती का होगा और वे ब्रह्माजी की
पत्नी होंगी। देवी सती उमा का पूर्णरूप होंगी। वे ही भावी रुद्र की पत्नी होंगी। ऐसा कहकर
भगवान महेश्वर वहां से अंतर्धान हो गए। समय आने पर हम दोनों (ब्रह्मा-विष्णु) का विवाह
देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी से हुआ।
भगवान शिव ने रद्र के रूप में अवतार लिया। वे कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। जैसा
कि भगवान शिव ने बताया था कि रुद्र अवतार की पत्नी देवी सती होंगी, जो साक्षात शिवा
रूप हैं। अतः तुम्हें उनके अवतरण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए। अपने मनोरथ का ध्यान करते
हुए देवी शिवा की स्तुति करो। वे देवेश्वरी प्रसन्न होने पर तुम्हारी सभी परेशानियों और
बाधाओं को दूर कर देंगी। इसलिए तुम सच्चे हृदय से उनका स्मरण कर उनकी स्तुति करो।
यदि शिवा प्रसन्न हो जाएंगी तो वे पृथ्वी पर अवतरित होंगी। वे इस लोक में किसी मनुष्य की
पुत्री बनकर मानव शरीर धारण करेंगी। तब वे निश्चय ही भगवान रुद्र का वरण कर उन्हें पति
रूप में प्राप्त करेंगी। तब तुम्हारी सभी इच्छाएं अवश्य ही पूर्ण होंगी। अतएव तुम प्रजापति
दक्ष को यह आज्ञा दो कि वे तपस्या करना आरंभ करें। उनके तप के प्रभाव से ही पार्वती देवी
सती के रूप में उनके यहां जन्म लेंगी। देवी सती ही महोदव को विवाह सूत्र में बांधेंगी। शिवा
और शिवजी दोनों निर्गुण और परम ब्रह्मस्वरूप हैं और अपने भक्तों के पूर्णतः अधीन हैं। वे
उनकी इच्छानुसार कार्य करते हैं।
ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि विष्णु वहां से अंतर्धान हो गए। उनकी बातें सुनकर मुझे बड़ा
संतोष हुआ क्योंकि मुझे मेरे दुखों और कष्टों का निवारण करने का उपाय मालूम हो गया
था।
ग्यारहवां अध्याय
ब्रह्माजी की काली देवी से प्रार्थना
नारद जी बोले--पूज्य पिताजी! विष्णुजी के वहां से चले जाने पर क्या हुआ? ब्रह्माजी
कहने लगे कि जब भगवान विष्णु वहां से चले गए तो मैं देवी दुर्गा का स्मरण करने लगा और
उनकी स्तुति करने लगा। मैंने मां जगदंबा से यही प्रार्थना की कि वे मेरा मनोरथ पूर्ण करें। वे
पृथ्वी पर अवतरित होकर भगवान शिव का वरण कर उन्हें विवाह बंधन में बांधें। मेरी अनन्य
भक्ति-स्तुति से प्रसन्न हो योगनिद्रा चामुण्डा मेरे सामने प्रकट हुई। उनकी कज्ज्ल सी कांति,
रूप सुंदर और दिव्य था। वे चार भुजाओं वाले शेर पर बैठी थीं। उन्हें सामने देख मैंने उनको
अत्यंत नम्रता से प्रणाम किया और उनकी पूजा-उपासना की। तब मैंने उन्हें बताया कि देवी!
भगवान शिव रुद्र रूप में कैलाश पर्वत पर निवास कर रहे हैं। वे समाधि लगाकर तपस्या में
लीन हैं। वे पूर्ण योगी हैं। भगवान रुद्र ब्रह्मचारी हैं और वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करना
चाहते। वे विवाह नहीं करना चाहते। अतः आप उन्हें मोहित कर उनकी पत्नी बनना स्वीकार
करें। हे देवी! स्त्री के कारण ही भगवान शिव ने मेरा मजाक उड़ाया है और मेरी निंदा की है।
इसलिए मैं भी उन्हें स्त्री के लिए आसक्त देखना चाहता हूं। देवी! आपके अलावा कोई भी
इतना शक्तिशाली नहीं है कि वह भगवान शंकर को मोह में डाले। मेरा आपसे अनुरोध है कि
आप प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या के रूप में जन्म लें और भगवान शिव का वरण कर
उन्हें गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कराएं।
देवी चामुण्डा बोलीं-है ब्रह्मा! भगवान शिव तो परम योगी हैं। भला उनको मोहित करके
तुम्हें क्या लाभ होगा? इसके लिए तुम मुझसे क्या चाहते हो? मैं तो हमेशा से ही उनकी दासी
हूं। उन्होंने अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए ही रुद्र अवतार धारण किया है। यह कहकर
वे शिवजी का स्मरण करने लगीं। फिर वे कहने लगीं कि यह तो सच है कि कोई भगवान
शिव को मोहमाया के बंधनों में नहीं बांध सकता। इस संसार में कोई भी शिवजी को मोहित
नहीं कर सकता। मुझमें भी इतनी शक्ति नहीं है कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से विमुख कर
सकूं। फिर भी आपकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर मैं इसका प्रयत्न करूंगी जिससे भगवान शिव
मोहित होकर विवाह कर लें। मैं सती रूप धारण कर पृथ्वी पर अवतरित होऊंगी। यह
कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गई।
बारहवां अध्याय
दक्ष की तपस्या
नारद जी ने पूछा-<हे ब्रह्माजी! उत्तम व्रत का पालन करने वाले प्रजापति दक्ष ने तपस्या
करके देवी से कौन-सा वरदान प्राप्त किया? और वे किस प्रकार दक्ष की कन्या के रूप में
जन्मीं?
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष क्षीरसागर के उत्तरी तट पर चले
गए। वे उसी तट पर बैठकर देवी उमा को अपनी पुत्री के रूप में प्राप्त करने के लिए, उन्हें
हृदय से स्मरण करते हुए तपस्या करने लगे। मन को एकाग्र कर प्रजापति दक्ष दृढ़ता से
कठोर व्रत का पालन करने लगे। उन्होंने तीन हजार दिव्य वर्षो तक घोर तपस्या की। वे
केवल जल और हवा ही ग्रहण करते थे। तत्पश्चात देवी जगदंबा ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए।
कालिका देवी अपने सिंह पर विराजमान थीं। उनकी श्यामल कांति व मुख अत्यंत मोहक
था। उनकी चार भुजाएं थीं। वे एक हाथ में वरद, दूसरे में अभय, तीसरे में नीलकमल और
चौथे हाथ में खड्ग धारण किए हुए थीं। उनके दोनों नेत्र लाल थे और केश लंबे व खुले हुए
थे। देवी का स्वरूप बहुत ही मनोहारी था। उत्तम आभा से प्रकाशित देवी को दक्ष और उनकी
पत्नी ने श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया। उन्होंने देवी की श्रद्धाभाव से स्तुति की।
दक्ष बोले-हे जगदंबा! भवानी! कालिका! चण्डिके! महेश्वरी! मैं आपको नमस्कार
करता हूं। मैं आपका बहुत आभारी हूं, जो आपने मुझे दर्शन दिए हैं। हे देवी! मुझ पर प्रसन्न
होइए।
ब्रह्माजी ने कहा-हे नारद! देवी जगदंबा ने स्वयं ही दक्ष के मन की इच्छा जान ली थी। वे
बोलीं-दक्ष! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपने मन की इच्छा मुझे बताओ। मैं
तुम्हारे सभी दुखों को अवश्य दूर करूंगी। तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग सकते हो।
जगदंबा की यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और देवी को प्रणाम करने लगे।
दक्ष बोले-हे देवी! आप धन्य हैं। आप ही प्रसन्न होने पर मनोवांछित फल देने वाली हैं।
हे देवी! यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं तो मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें और मेरी इच्छा पूर्ण
करें। हे जगदंबा, मेरे स्वामी शिव ने रुद्र अवतार धारण किया है परंतु अब तक आपने कोई
अवतार धारण नहीं किया है। आपके सिवा कौन उनकी पत्नी होने योग्य है। अतः हे देवी!
आप मेरी पुत्री के रूप में धरती पर जन्म लें और भगवान शिव को अपने रूप लावण्य से
मोहित करें। हे जगदंबा! आपके अलावा कोई भी शिवजी को कभी मोहित नहीं कर सकता।
इसलिए आप हर मोहिनी अर्थात भगवान को मोहने वाली बनकर संपूर्ण जगत का हित
कीजिए। यही मेरे लिए वरदान है।
दक्ष का यह वचन सुनकर जगदंबिका हंसने लगीं और मन में भगवान शिव का स्मरण कर
बोलीं-हे प्रजापति दक्ष! तुम्हारी पूजा-आराधना से मैं प्रसन्न हूं। तुम्हारे वर के अनुसार मैं
तुम्हारी पुत्री के रूप में जन्म लूंगी। तत्पश्चात बड़ी होकर मैं कठीर तप द्वारा महादेव जी को
प्रसन्न कर, उन्हें पति रूप में प्राप्त करूंगी। मैं उनकी दासी हूं। प्रत्येक जन्म में शिव शंभु ही
मेरे स्वामी होते हैं। अतः मैं तुम्हारे घर में जन्म लेकर शिवा का अवतार धारण करूंगी। अब
तुम घर जाओ। परंतु एक बात हमेशा याद रखना। जिस दिन तुम्हारे मन में मेरा आदर कम
हो जाएगा उसी दिन मैं अपना शरीर त्यागकर अपने स्वरूप में लीन हो जाऊंगी।
यह कहकर देवी जगदंबिका वहां से अंतर्धान हो गई तथा प्रजापति दक्ष सुखी मन से घर
लौट आए।
तेरहवां अध्याय
दक्ष द्वारा मैथुनी सृष्टि का आरंभ
ब्रह्माजी कहते हैं--हे नारद! प्रजापति दक्ष देवी का वरदान पाकर अपने आश्रम में लौट
आए। मेरी आज्ञा पाकर प्रजापति दक्ष मानसिक सृष्टि की रचना करने लगे परंतु फिर भी प्रजा
की संख्या में वृद्धि होती न देखकर वे बहुत चिंतित हुए और मेरे पास आकर कहने लगे--हे
प्रभो! मैंने जितने भी जीवों की रचना की है वे सभी उतने ही रह गए अर्थात उनमें कोई भी
वृद्धि नहीं हो पाई। हे तात! मुझे कृपा कर ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे वे जीव अपने
आप बढ़ने लगें।
ब्रह्माजी बोले--प्रजापति दक्ष! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो। तुम त्रिलोकीनाथ भगवान शिव
की भक्ति करते हुए यह कार्य संपन्न करो। वे निश्चय ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। तुम प्रजापति
वीरण की परम सुंदर पुत्री असिक्नी से विवाह करो और स्त्री के साथ मैथुन-धर्म का आश्रय
लेकर प्रजा बढ़ाओ। असिक्नी से तुम्हें बहुत सी संतानें प्राप्त होंगी। मेरी आज्ञा के अनुसार
दक्ष ने वीरण की पुत्री असिक्नी से विवाह कर लिया। उनकी पत्नी के गर्भ से उन्हें दस हजार
पुत्रों की प्राप्ति हुई। ये हरयश्च नाम से जाने गए। सभी पुत्र धर्म के पथ पर चलने वाले थे। एक
दिन अपने पिता दक्ष से उन्हें प्रजा की सृष्टि करने का आदेश मिला। तब इस उद्देश्य से
तपस्या करने के लिए वे पश्चिम दिशा में स्थित नारायण सर नामक तीर्थ पर गए। वहां सिंधु
नदी व समुद्र का संगम हुआ है। उस पवित्र तीर्थ के जल के स्पर्श से उनका मन उज्ज्वल और
ज्ञान से संपन्न हो गया। वे उसी स्थान पर प्रजा की वृद्धि के लिए तप करने लगे।
नारद! इस बात को जानने के बाद तुम श्रीहरि विष्णु की इच्छा से उनके पास गए और
बोले-दक्षपुत्र हर्यश्चगण! तुम पृथ्वी का अंत देखे बिना सृष्टि की रचना करने के लिए कैसे
उद्यत हो गए?
ब्रह्माजी बोले-हर्यश्च बड़े ही बुद्धिमान थे। वे तुम्हारा प्रश्न सुनकर उस पर विचार करने
लगे। वे सोचने लगे, कि जो उत्तम शास्त्ररूपी पिता के निवृत्तिपरक आदेश को नहीं समझता,
वह केवल रजो गुण पर विश्वास करने वाला पुरुष सृष्टि निर्माण का कार्य कैसे कर सकता है?
इस बात को समझकर वे नारद जी की परिक्रमा करके ऐसे रास्ते पर चले गए, जहां से वापस
लौटना असंभव है।
जब प्रजापति दक्ष को यह पता चला कि उनके सभी पुत्र नारद से शिक्षा पाकर मेरी आज्ञा
को भूलकर ऐसे स्थान पर चले गए, जहां से लौटा नहीं जा सकता, तो दक्ष इस बात से बहुत
दुखी हुए। वे पुत्रों के वियोग को सह नहीं पा रहे थे। तब मैंने उन्हें बहुत समझाया और उन्हें
सांत्वना दी। तब पुनः दक्ष की पत्नी असिक्नी के गर्भ से शबलाश्च नामक एक सहस्र पुत्र हुए।
वे सभी अपने पिता की आज्ञा को पाकर पुनः तपस्या के लिए उसी स्थान पर चले गए, जहां
उनके बड़े भाई गए थे। नारायण सरोवर के जल के स्पर्श से उनके सभी पाप नष्ट हो गए और
मन शुद्ध हो गया। वे उसी तट पर प्रणव मंत्र का जाप करते हुए तपस्या करने लगे। तब नारद
तुमने पुनः वही बातें, जो उनके भाइयों को कहीं थीं, उन्हें भी बता दीं और तुम्हारे दिखाए
मार्ग के अनुसार वे अपने भाइयों के पथ पर चलते उर्ध्वगति को प्राप्त हुए। दक्ष को इस बात
से बहुत दुख हुआ और वे दुख से बेहोश हो गए। जब प्रजापति दक्ष को ज्ञात हुआ कि यह
सब नारद की वजह से हुआ है तो उन्हें बहुत क्रोध आया। संयोग से तुम भी उसी समय वहां
पहुंच गए। तुम्हें देखते ही क्रोध के कारण वे तुम्हारी निंदा करने लगे और तुम्हें धिक्कारने
लगे।
वे बोले-तुमने सिर्फ दिखाने के लिए ऋषियों का रूप धारण कर रखा है। तुमने मेरे पुत्रों
को ठगकर उन्हें भिक्षुओं का मार्ग दिखाया है। तुमने लोक और परलोक दोनों के श्रेय का
नाश कर दिया है। जो मनुष्य ऋषि, देव और पितृ ऋणों को उतारे बिना ही मोक्ष की इच्छा
मन में लिए माता-पिता को त्यागकर घर से चला जाता है, संन्यासी बन जाता है वह अधोगति
को प्राप्त हो जाता है। हे नारद! तुमने बार-बार मेरा अमंगल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप
देता हूं कि तुम कहीं भी स्थिर नहीं रह सकोगे। तीनों लोकों में विचरते हुए तुम्हारा पैर कहीं
भी स्थिर नहीं रहेगा अर्थात तुम्हें ठहरने के लिए सुस्थिर ठिकाना नहीं मिलेगा। नारद! यद्यपि
तुम साधुपुरुषों द्वारा सम्मानित हो, परंतु तुम्हें शोकवश दक्ष ने ऐसा शाप दिया, जिसे तुमने
शांत मन से ग्रहण कर लिया और तुम्हारे मन में किसी प्रकार का विकार नहीं आया।
चौदहवां अध्याय
दक्ष की साठ कन्याओं का विवाह
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिराज! दक्ष के इस रूप को जानकर मैं उसके पास गया। मैंने उसे
शांत करने का बहुत प्रयत्न किया और सांत्वना दी। मैंने उसे तुम्हारा परिचय दिया। दक्ष को
मैंने यह जानकारी भी दी कि तुम भी मेरे पुत्र हो। तुम मुनियों में श्रेष्ठ एवं देवताओं के प्रिय
हो। तत्पश्चात प्रजापति दक्ष ने अपनी पत्नी से साठ सुंदर कन्याएं प्राप्त कीं। तब उनका धर्म
आदि के साथ विवाह कर दिया। दक्ष ने अपनी दस कन्याओं का विवाह धर्म से, तेरह
कन्याओं का ब्याह कश्यप मुनि से और सत्ताईस कन्याओं का विवाह चंद्रमा से कर दिया। दो-
दो भूतागिरस और कृशाश्व को और शेष चार कन्याओं का विवाह ताक्ष्य के साथ कर दिया।
इन सबकी संतानों से तीनों लोक भर गए। पुत्र-पुत्रियों की उत्पत्ति के पश्चात प्रजापति दक्ष ने
अपनी पत्नी सहित देवी जगदंबिका का ध्यान किया। देवी की बहुत स्तुति की। प्रजापति दक्ष
की सपत्नीक स्तुति से देवी जगदंबिका ने प्रसन्न होकर दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लेने का
निश्चय किया। उत्तम मुहूर्त देखकर दक्ष पत्नी ने गर्भ धारण किया। उस समय उनकी शोभा
बढ़ गई।
भगवती के निवास के प्रभाव से दक्ष पत्नी महामंगल रूपिणी हो गई। देवी को गर्भ में
जानकर सभी देवी-देवताओं ने जगदंबा की स्तुति की। नौ महीने बीत जाने पर शुभ मुहूर्त में
देवी भगवती का जन्म हुआ। उनका मुख दिव्य आभा से सुशोभित था। उनके जन्म के समय
आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे। देवता आकाश में खड़े
मांगलिक ध्वनि करने लगे। यज्ञ की बुझी हुई अग्नि पुनः जलने लगी। साक्षात जगदंबा को
प्रकट हुए देखकर दक्ष ने भक्ति भाव से उनकी स्तुति की।
स्तुति सुनकर देवी प्रसन्न होकर बोली—हे प्रजापते! तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने
तुम्हारे घर में पुत्री के रूप में जन्म लेने का जो वर दिया था, वह आज पूर्ण हो गया है। यह
कहकर उन्होंने पुनः शिशु रूप धारण कर लिया तथा रोने लगीं। उनका रोना सुनकर दासियां
उन्हें चुप कराने हेतु वहां एकत्र हो गई। जन्मोत्सव में गीत और अनेक वाद्य यंत्र बजने लगे।
दक्ष ने वैदिक रीति से अनुष्ठान किया और ब्राह्मणों को दान दिया। उन्होंने अपनी पुत्री का
नाम 'उमा' रखा। देवी उमा का पालन बहुत अच्छे तरीके से किया जा रहा था। वह
बालकपन में बहुत सी लीलाएं करती थीं। देवी उमा इस प्रकार बढ़ने लगीं जैसे शुक्ल पक्ष में
चंद्रमा की कला बढ़ती है। जब भी वे अपनी सखियों के साथ बैठतीं, वे भगवान शिव की
मूर्ति को ही चित्रित करती थीं। वे सदा प्रभु शिव के भजन गाती थीं। उन्हीं का स्मरण करतीं
और भगवान शिव की भक्ति में ही लीन रहतीं।
पंद्रहवां अध्याय
सती की तपस्या
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! एक दिन मैं तुम्हें लेकर प्रजापति दक्ष के घर पहुंचा। वहां मैंने
देवी सती को उनके पिता के पास बैठे देखा। मुझे देखकर दक्ष ने आसन से उठकर मुझे
नमस्कार किया। तत्पश्चात सती ने भी प्रसन्नतापूर्वक मुझे नमस्कार किया। हम दोनों वहां
आसन पर बैठ गए। तब मैंने देवी सती को आशीर्वाद देते हुए कहा--सती! जो केवल तुम्हें
चाहते हैं और तुम्हारी ही कामना करते हैं। तुम भी मन में उन्हीं को सोचती हो और उसी के
रूप का स्मरण करती हो। उन्हीं सर्वज्ञ जगदीश्वर महादेव को तुम पति रूप में प्राप्त करो। वे
ही तुम्हारे योग्य हैं। कुछ देर बाद दक्ष से विदा लेकर मैं अपने धाम को चल दिया। दक्ष को
मेरी बातें सुनकर बड़ा संतोष एवं प्रसन्नता हुई। मेरे कथन से उनकी सारी चिंताएं दूर हो गई।
धीरे-धीरे सती ने कुमारावस्था पार कर ली और वे युवा अवस्था में प्रवेश कर गई। उनका रूप
अत्यंत मनोहारी था। उनका मुख दिव्य तेज से शोभायमान था। देवी सती को देखकर
प्रजापति दक्ष को उनके विवाह की चिंता होने लगी। तब पिता के मन की बात जानकर देवी
सती ने महादेव को पति रूप में पाने की इच्छा अपनी माता को बताई। उन्होंने अपनी माता
से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने की आज्ञा मांगी। उनकी माता ने
आज्ञा देकर घर पर ही उनकी आराधना आरंभ करा दी।
आश्विन मास में नंदा अर्थात प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथियों में उन्होंने भक्तिपूर्वक
भगवान शिव का पूजन कर उन्हें गुड़, भात और नमक का भोग लगाया व नमस्कार किया।
इसी प्रकार एक मास बीत गया। कार्तिक मास की चतुर्दशी को देवी सती ने मालपुओं और
खीर से भगवान शिव को भोग लगाया और उनका निरंतर चिंतन करती रहीं। मार्गशीर्ष मास
के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को वे तिल, जौ और चावल से शिवजी की आराधना करतीं और घी
का दीपक जलातीं। पौष माह की शुक्ल पक्ष सप्तमी को पूरी रात जागरण कर सुबह खिचड़ी
का भोग लगातीं। माघ की पूर्णिमा की रातभर वे शिव आराधना में लीन रहतीं और सुबह
नदी में स्नान कर गीले वस्त्रों में ही पुन: पूजा करने बैठ जाती थीं। फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष
की चतुर्दशी तिथि को जागरण कर शिवजी की विशेष पूजा करती थीं। उनका सारा समय
शिवजी को समर्पित था। वे अपने दिन-रात शिवजी के स्मरण में ही बिताती थीं। चैत्र मास के
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे ढाक के फूलों और दवनों से भगवान की पूजा करती थीं।
वैशाख माह में वे सिर्फ तिलों को खाती थीं। वे नए जौ के भात से शिव पूजन करती थीं।
ज्येष्ठ माह में वे भूखी रहतीं और वस्त्रों तथा भटकटैया के फूलों से शिव पूजन करती थीं।
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को वे काले वस्त्रों और भटकटैया से रुद्रदेव का
पूजन करती थीं। श्रावण मास में यज्ञोपवीत, वस्त्रों तथा कुश आदि से वे पूजन करती थीं।
भाद्रपद मास में विभिन्न फूलों व फलों से वे शिव को प्रसन्न करने की कोशिश करतीं। वे सिर्फ
जल ही ग्रहण करती थीं। देवी सती हर समय भगवान शिव की आराधना में ही लीन रहती
थीं। इस प्रकार उन्होंने दृढ़तापूर्वक नंदा व्रत को पूरा किया। व्रत पूरा करने के पश्चात वे
शिवजी का ध्यान करने लगीं। वे निश्चित आसन में स्थित हो निरंतर शिव आराधना करती
रहीं।
हे नारद! देवी सती की इस अनन्य भक्ति और तपस्या को अपनी आंखों से देखने मैं,
विष्णु तथा अन्य सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि वहां गए। वहां सभी ने देवी सती को
भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और उनके सामने मस्तक झुकाए। सभी देवी-देवताओं ने उनकी
तपस्या को सराहा। तब सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि मेरे (ब्रह्मा) और विष्णु सहित
कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां भगवान शिव ध्यानमग्न थे। हमने उनके निकट जाकर, दोनों
हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति आरंभ कर दी। हमने कहा
प्रभो! आप परम शक्तिशाली हैं। आप ही सत्व, रज और तप आदि शक्तियों के स्वामी हैं।
वेदत्रयी, लोकत्रयी आपका स्वरूप है। आप अपनी शरण में आए भक्तों की सदैव रक्षा करते
हैं। आप सदैव भक्तों का उद्धार करते हैं। हे महादेव! हे महेश्वर! हम आपको नमस्कार करते
हैं। आपकी महिमा जान पाना कठिन ही नहीं असंभव है। हम आपके सामने अपना मस्तक
झुकाते हैं।
ब्रह्माजी बोले-नारद! इस प्रकार भगवान शिव-शंकर की स्तुति करके सभी देवता
मस्तक झुकाकर शिवजी के सामने चुपचाप खड़ हो गए।
सोलहवां अध्याय
रुद्रदेव का सती से विवाह
ब्रह्माजी बोले--श्रीविष्णु सहित अनेक देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों द्वारा की गई
स्तुति सुनकर सृष्टिकर्ता शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक हम सबके आगमन का कारण पूछा।
रुद्रदेव बोले--हे हरे! हे देवताओ और महर्षियो। मुझे अपने कैलाश पर आगमन के विषय
में बताइए। आप लोग यहां किसलिए आए हैं? और आपको कौन-सा कार्य है? कृपया मुझे
बताइए। मुने! महादेव जी के इस प्रकार पूछने पर भगवान विष्णु की आज्ञा से मैंने इस प्रकार
निवेदन किया।
मैं बोला--हे देवाधिदेव महादेव! करुणासागर! हम सब यहां आपकी सहायता मांगने के
लिए आए हैं। भगवन्, हम तीन होते हुए भी एक हैं। सृष्टि के चक्र को नियमित तथा सुचारु
रूप से चलाने के लिए हम एक-दूसरे के सहयोगी की तरह कार्य करते हैं। हम एक-दूसरे के
सहायक हैं। हम तीनों के परस्पर सहयोग के फलस्वरूप ही जगत के सभी कार्य संपन्न होते
हैं। महेश्वर! कुछ असुरों का वध आपके द्वारा, कुछ असुरों का वध मेरे द्वारा तथा कुछ असुरों
का वध श्रीहरि द्वारा निश्चित है। हे प्रभो! कुछ असुर आपके वीर्य द्वारा उत्पन्न पुत्र के द्वारा नष्ट
होंगे। हे भगवन्! आप घोर असुरों का विनाश कर जगत को स्वास्थ्य व अभय प्रदान करते
हैं। हे प्रभो! सृष्टि की रचना, पालन और संहार ये तीनों ही हमारे कार्य हैं। यदि हम अपने
कार्य सही तरह से नहीं करें तो हमारे अलग-अलग शरीर धारण करने का कोई उद्देश्य ही
नहीं रहेगा। हे देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपों में अभिव्यक्त हुए हैं। वास्तव में
शिव स्वतंत्र हैं। वे लीला के उददेश्य से सृष्टि का कार्य करते हैं। भगवान विष्णु उनके बाएं अंग
से प्रकट हुए हैं। मैं (ब्रह्मा) उनके दाएं अंग से प्रकट हुआ हूं। रुद्रदेव उनके हृदय से प्रकट हुए
हैं। इसलिए वे ही भगवान शिव का पूर्ण रूप हैं। उनकी आज्ञा के अनुसार मैं सृष्टि की रचना
और विष्णुजी जगत का पालन करते हैं। हम अपना कार्य करते हुए विवाह कर सपत्नीक हो
गए हैं। अतः आप भी विश्व हित के लिए परम सुंदरी को पत्नी के रूप में ग्रहण करें। हे
महेश्वर! पूर्वकाल में आपने शिवरूप में हमें एक बात कही थी।
आपने कहा था-मेरा एक अवतार तुम्हारे ललाट से होगा, जिसे 'रुद्र' नाम से जाना
जाएगा। तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता होओगे, भगवान विष्णु जगत का पालन करेंगे। मैं (शिव) सगुण
रुद्ररूप संहार करने वाला होऊंगा। एक स्त्री के साथ विवाह करके लोक के कार्यों की सिद्धि
करूंगा। हे महादेव! अब अपनी कही बात को पूरा कीजिए।
हे प्रभु! आपके बिना हम दोनों अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं। अतः प्रभु! आप ऐसी
स्त्री को पत्नी रूप में धारण करें, जो कि लोकहित के कार्य कर सके। भगवन् जिस प्रकार
लक्ष्मी विष्णु की और सरस्वती मेरी सहधर्मिणी है, उसी प्रकार आप भी अपने जीवनसाथी
को स्वीकार कीजिए।
मेरी यह बात सुनकर महादेव जी मुस्कराने लगे और हमसे इस प्रकार बोले, उन्होंने कहा
-हे ब्रह्मा! हे विष्णु! तुम मुझे सदा से अत्यंत प्रिय हो। तुम समस्त देवताओं में श्रेष्ठ तथा
त्रिलोक के स्वामी हो। परंतु मेरे लिए विवाह करना उचित नहीं है। मैं सदैव तपस्या में लीन
रहता हूं। इस संसार से मैं सदा विरक्त रहता हूं। मैं तो एक योगी हूं, जो सदैव निवृत्ति के मार्ग
पर चलता है। घर-गृहस्थी से भला मेरा क्या काम? मीं तो सदैव आत्मरूप हूं। जो माया से दूर
है, जिसका शरीर अवधूत है। जो ज्ञानी, आत्मा को जानने वाला और कामना से शून्य हो,
भोगों से दूर रहता है, जो अविकारी है, भला उसे संसार में स्त्री से क्या प्रयोजन है? मैं तो योग
करते समय ही आनंद का अनुभव करता हूं। जो मनुष्य ज्ञान से रहित हैं, वे ही भोग को
अधिक महत्व देते हैं। विवाह एक बहुत बड़ा बंधन है। इसलिए मैं विवाह के बंधनों में बंधना
नहीं चाहता। आत्मा का चिंतन करने के कारण मेरी लौकिक स्वार्थ में कोई रुचि नहीं है। फिर
भी जगत के हित के लिए तुमने जो कहा है वह मैं करूंगा। तुम्हारे कहे अनुसार मैं विवाह
अवश्य ही करूंगा, क्योंकि मैं सदा अपने भक्तों के वश में रहता हूं। परंतु मैं ऐसी स्त्री
विवाह करूंगा जो योगिनी तथा इच्छानुसार रूप धारण करने वाली हो। जब मीं योग साधना
करूं तो वह भी योगिनी हो जाए और जब मैं कामासक्त होऊं तब वह कामिनी बन जाए।
ऐसी स्त्री ही मुझे पत्नी रूप में स्वीकार्य होगी। मैं सदैव शिव चिंतन में लगा रहता हूं। जो स्त्री
मेरे चिंतन में विघ्न डालेगी, वह जीवित नहीं रह सकेगी। मैं, विष्णु और ब्रह्मा हम सभी शिव
के अंश हैं। इसलिए हम सदा ही उनका चिंतन करते हैं। उनके चिंतन के लिए मैं बिना विवाह
किए रह सकता हूं। अतः मुझे ऐसी पत्नी प्रदान कीजिए जो मेरे अनुसार ही कार्य करे। यदि
वह स्त्री मेरे कार्यों में विघ्न डालेगी तो मैं उसे त्याग दूंगा।
विवाह हेतु शिव की स्वीकृति पाकर मैं और विष्णुजी प्रसन्न हो गए। फिर मैं विनम्रतापूर्वक
भगवान शिव से बोला-हे नाथ! महेश्वर! प्रभो! आपको जिस प्रकार की स्त्री की
आवश्यकता है, ऐसी ही स्त्री के विषय में सुनो।
हे प्रभु! भगवान शिव की पत्नी उमा ही विभिन्न अवतार धारण करके पृथ्वी पर प्रकट
होती हैं और सृष्टि के विभिन्न कायोँ को पूरा करने में अपना सहयोग प्रदान करती हैं। उन्हीं
देवी उमा ने लक्ष्मी रूप धारण कर श्रीहरि को वरा। सरस्वती रूप में वे मेरी अरद्धागिनी बनीं।
अब वही देवी लोकहित के लिए अपने तीसरे अवतार में अवतरित हुई हैं। उमा देवी प्रजापति
दक्ष की कन्या के रूप में अवतार लेकर आपको पति रूप में पाने की इच्छा लिए घोर तपस्या
कर रही हैं। उनका नाम देवी सती है। सती ही आपकी भार्या होने के योग्य हैं। वे महा
तेजस्विनी ही आपको पति रूप में प्राप्त करेंगी।
हे भगवन्! आप उनकी कठोर तपस्या को पूर्ण करके उन्हें फलस्वरूप वरदान प्रदान
करिए। उनका तपस्या का प्रयोजन आपको पति रूप में प्राप्त करना ही है। अतः प्रभु आप
देवी सती की मनोकामना को पूरा कीजिए। हम सभी देवी-देवताओं की यही इच्छा है। हम
आपके विवाह का उत्सव देखना चाहते हैं। आपका विवाह तीनों लोकों को सुख प्रदान करेगा
तथा सभी के लिए मंगलमय होगा।
तब भगवान शिव बोले आप सबकी आज्ञा मेरे लिए सबसे ऊपर है क्योंकि मैं सदैव
अपने भक्तों के अधीन हूं। आपकी इच्छानुसार मैं देवी सती द्वारा तपस्या पूरी कर उनसे
विवाह अवश्य करूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर हम सभी बहुत प्रसन्न हुए और
उनसे आज्ञा लेकर अपने-अपने धाम को चले गए।
सत्रहवां अध्याय
सती को शिव से वर की प्राप्ति
ब्रह्माजी कहते हैं--हे नारद! सती ने आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उपवास
किया। नंदाव्रत के पूर्ण होने पर जब वे भगवान शिव के ध्यान में मग्न थीं तो भगवान शिव ने
उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए। भगवान शिव का रूप अत्यंत मनोहारी था। उनके पांच मुख थे और
प्रत्येक मुख में तीन नेत्र थे। मस्तक पर चंद्रमा शोभित था। उनके कण्ठ में नील चिन्ह था।
उनके हाथ में त्रिशूल, ब्रह्मकपाल, वर तथा अभय था। उन्होंने पूरे शरीर पर भस्म लगा रखी
थी। गंगा जी उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रही थीं। उनका मुख करोड़ों चंद्रमाओं के समान
प्रकाशमान था। सती ने उन्हें प्रत्यक्ष रूप में अपने सामने पाकर उनके चरणों की वंदना की।
उस समय लज्जा और शर्म के कारण उनका सिर नीचे की ओर झुका हुआ था। तपस्या का
फल प्रदान करने के लिए शिवजी बोले-उत्तम व्रत का पालन करने वाली हे दक्ष नंदिनी! मैं
तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए तुम्हारी मनोकामना को पूरा करने के लिए स्वयं
यहां प्रकट हुआ हूं। अतः तुम्हारे मन में जो भी इच्छा है, तुम्हारी जो भी कामना है, जिसके
वशीभूत होकर तुमने इतनी घोर तपस्या की है, वह मुझे बताओ, मैं उसे अवश्य ही पूर्ण
करूंगा।
ब्रह्माजी कहते है—हे मुनि! जगदीश्वर महादेव जी ने सती के मनोभाव को समझ लिया
था। फिर भी वे सती से बोले कि देवी वर मांगो। देवी सती शर्म से सिर झुकाए थीं। वे चाहकर
भी कुछ नहीं कह पा रही थीं। भगवान शिव के वचन सुनकर सती प्रेम में मग्न हो गई थीं।
शिवजी बार-बार सती से वर मांगने के लिए कह रहे थे। तब देवी सती ने महादेव जी से कहा
-—-हे वर देने वाले प्रभु! मुझे मेरी इच्छा के अनुसार ही वर दीजिए। इतना कहकर देवी चुप हो
गई। जब भगवान शिव ने देखा कि देवी सती लज्जावश कुछ कह नहीं पा रही हैं तो वे स्वयं
उनसे बोले-हे देवी! तुम मेरी अद्धांगिनी बनो। यह सुनकर सती अत्यंत प्रसन्न हुई, क्योंकि
उन्हें अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हुई थी। वे अपने हाथ जोड़कर और मस्तक को
झुकाकर भक्तवत्सल शिव के चरणों की वंदना करने लगीं। सती बोलीं-हे देवाधिदेव
महादेव! प्रभो! आप मेरे पिता को कहकर वैवाहिक विधि से मेरा पाणिग्रहण करें।
ब्रह्माजी बोले-नारद! सती की बात सुनकर शिवजी ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि ऐसा
ही होगा।' तब देवी सती ने भगवान शिव को हर्ष एवं मोह से देखा और उनसे आज्ञा लेकर
अपने पिता के घर चली गई। भगवान शिव कैलाश पर लौट गए और देवी सती का स्मरण
करते हुए उन्होंने मेरा चितन किया। शिवजी के स्मरण करने पर मैं तुरंत कैलाश की ओर चल
दिया। मुझे देखकर भगवान शिव बोले
ब्रह्मन्! दक्षकन्या सती ने बड़ी भक्ति से मेरी आराधना की है। उनके नंदाव्रत के प्रभाव से
और आप सब देवताओं की इच्छाओं का सम्मान करते हुए मैंने देवी सती को उनका
मनोवांछित वर प्रदान कर दिया है। देवी ने मुझसे यह वर मांगा कि मैं उनका पति हो जाऊं।
उनके वर के अनुसार मैंने सती को अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करने का वर दे दिया है। वर
प्राप्त कर वे बड़ी प्रसन्न हुईं तथा उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उनके पिता प्रजापति दक्ष
के समक्ष देवी सती से विवाह करने का प्रस्ताव रखूं और पाणिग्रहण कर उनका वरण करूं।
उनके विनम्र अनुरोध को मैंने स्वीकार कर लिया है। इसलिए मैंने आपको यहां बुलाया है कि
आप प्रजापति दक्ष के घर जाकर उनसे देवी सती का कन्यादान मुझसे करने का अनुरोध
करें।
भगवान शिव की आज्ञा से मैं बहुत प्रसन्न हुआ और मैंने उनसे कहा-भगवन्, मैं धन्य हो
गया जो आपने हम सभी देवी-देवताओं के अनुरोध को स्वीकार कर देवी सती को अपनी
पत्नी बनाना स्वीकार करने और इस कार्य को पूरा करने के लिए मुझे चुना। मैं आपकी
आज्ञानुसार अभी प्रजापति दक्ष के घर जाता हूं तथा उन्हें आपका संदेश सुनाकर देवी सती
का हाथ आपके लिए मांगता हूं। यह कहकर मैं वेगशाली रथ से दक्ष के घर की ओर चल
दिया।
नारद जी ने पूछा-हे पितामह! पहले आप मुझे यह बताइए कि देवी सती के घर लौटने
पर क्या हुआ? दक्ष ने उनसे क्या कहा और क्या किया?
ब्रह्माजी नारद जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए बोले-जब देवी सती तपस्या पूर्ण होने पर
अपनी इच्छा के अनुरूप भगवान शिव से वर पाकर अपने घर लौटीं तो उन्होंने श्रद्धापूर्वक
अपने माता-पिता को प्रणाम किया। उन्होंने अपनी सहेली द्वारा अपने माता-पिता को यह
सूचना दी कि उन्हें भगवान शिव से वरदान की प्राप्ति हो गई है। वे सती की तपस्या से बहुत
प्रसन्न हुए हैं और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं। यह सुनकर प्रजापति
दक्ष और उनकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने आनंदित होकर बड़े उत्सव का आयोजन
किया। उन्होंने ब्राह्मणों को भोजन कराया और उन्हें दक्षिणा दी। उन्होंने गरीबों और दीनों को
दान दिया।
कुछ समय बीतने पर प्रजापति दक्ष को पुनः चिंता होने लगी कि वे अपनी पुत्री का विवाह
भगवान शिव से कैसे करें? क्योंकि वे अब तक मेरे पास सती का हाथ मांगने नहीं आए हैं।
इस प्रकार प्रजापति दक्ष चिंतामग्न हो गए। लेकिन उन्हें ऐसी चिंता ज्यादा दिनों तक नहीं
करनी पड़ी। शिव तो कृपा के सागर और करुणा की खान हैं, तब वह कैसे चिंतित रह सकता
है, जिसकी पुत्री ने तप द्वारा शिव का वरण किया है।
जब मीं सरस्वती सहित उनके घर उपस्थित हो गया, तब मुझे देखकर उन्होंने मुझे प्रणाम
किया और बैठने के लिए आसन दिया। तत्पश्चात दक्ष ने मेरे आने का कारण पूछा तो मैंने
अपने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा
है प्रजापति दक्ष! मैं भगवान शिव की आज्ञा से आपके घर आया हूं। मैं देवी सती का हाथ
महादेव जी के लिए मांगने आया हूं। सती ने उत्तम आराधना करके भगवान शिव को प्रसन्न
कर उन्हें अपने पति के रूप में प्राप्त करने का वर प्राप्त किया है। अतः तुम शीघ्र ही सती का
पाणिग्रहण शिवजी के साथ कर दो।
नारद! मेरी यह बातें सुनकर दक्ष बहुत प्रसन्न हुआ। उसने हर्षित मन से इस विवाह के
लिए अपनी स्वीकृति दे दी। तब मैं प्रसन्न मन से कैलाश पर्वत पर चल दिया। वहां भगवान
शिव मेरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर प्रजापति दक्ष, उनकी पत्नी और
पुत्री सती विवाह प्रस्ताव आने पर हर्ष से विभोर हो रहे थे।
अठारहवा अध्याय
शिव और सती का विवाह
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब मैं कैलाश पर्वत पर भगवान शिव को प्रजापति दक्ष की
स्वीकृति की सूचना देने पहुंचा तो वे उत्सुकतापूर्वक मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। तब मैंने
महादेव जी से कहा--
हे भगवन्! दक्ष ने कहा है कि वे अपनी पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से करने को
तैयार हैं क्योंकि सती का जन्म महादेव जी के लिए ही हुआ है। यह विवाह होने पर उन्हें
सबसे अधिक प्रसन्नता होगी। उनकी पुत्री सती ने महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करने हेतु
ही उनकी घोर तपस्या की है। उन्हें इस बात की भी खुशी है कि मैं स्वयं आपकी आज्ञा से
उनकी पुत्री के लिए आपका अर्थात भगवान शिव का विवाह प्रस्ताव लेकर वहां गया। उन्होंने
कहा—
हे पितामह! उनसे कहिए कि वे शुभ लग्न और मुहूर्त में अपनी बारात लेकर स्वयं आएं। मैं
अपनी पुत्री का कन्यादान सहर्ष महादेव जी को कर दूंगा। हे भगवन्! दक्ष ने मुझसे यह बात
कही है, इसलिए आप शुभ मुहूर्त देखकर शीघ्र ही उनके घर चलें और देवी सती का वरण
करें। हे नारद! मेरे ऐसे वचन सुनकर शिवजी ने कहा
हे संसार की सृष्टि करने वाले ब्रह्माजी! मैं तुम्हारे और नारद जी के साथ ही प्रजापति दक्ष
के घर चलूंगा। इसलिए ब्रह्माजी आप नारद और अपने मानस पुत्रों का स्मरण कर उन्हें यहां
बुला लें। साथ ही मेरे पार्षद भी दक्ष के घर चलेंगे।
नारद! तब भगवान शिव की आज्ञा पाकर मैंने तुम्हारा और अपने अन्य मानस पुत्रों का
स्मरण किया। उन तक मेरा संदेश पहुंचते ही वे तुरंत कैलाश पर्वत पर उपस्थित हो गए।
उन्होंने हर्षित मन से महादेव जी को और मुझे प्रणाम किया। तत्पश्चात शिवजी ने भगवान
श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। भगवान विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ अपने विमान गरुड़ पर
बैठ वहां आ गए। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि में रविवार को पूर्वा फाल्गुनी
नक्षत्र में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की बारात धूमधाम से कैलाश पर्वत से निकली। उनकी
बारात में मैं, देवी सरस्वती, विष्णुजी, देवी लक्ष्मी, सभी देवी-देवता, मुनि और शिवगण
आनंदमग्न होकर चल रहे थे। रास्ते में खूब उत्सव हो रहा था। भगवान शिव की इच्छा से
बैल, बाघ, सांप, जटा और चंद्रकला उनके आभूषण बन गए। भगवन् स्वयं नंदी पर सवार
होकर प्रजापति दक्ष के घर पहुंचे।
द्वार पर भगवान शिव की बारात देखकर सभी हर्ष से फूले नहीं समा रहे थे। प्रजापति दक्ष
ने विधिपूर्वक भगवान शिव की पूजा अर्चना की। उन्होंने सभी देवताओं का खूब आदर-
सत्कार किया तथा उन्हें घर के अंदर ले गए। दक्ष ने भगवान शिव को उत्तम आसन पर
बैठाया और हम सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी यथायोग्य स्थान दिया। सभी का
भक्तिपूर्वक पूजन किया। तत्पश्चात दक्ष ने मुझसे प्रार्थना की कि मैं ही वैवाहिक कार्य को
संपन्न कराऊं। मैंने दक्ष की प्रार्थना को स्वीकार किया और वैवाहिक कार्य कराने लगा। शुभ
लग्न और शुभ मुहूर्त देखकर प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती का हाथ भगवान शिव के
हाथों में सौंप दिया और विधि-विधान से पाणिग्रहण-संस्कार संपन्न कराया। उस समय वहां
बहुत बड़ा उत्सव हुआ और नाच-गाना भी हुआ। सभी आनंदमग्न थे। हम सभी देवी-
देवताओं ने भगवान शिव और देवी सती की बहुत स्तुति की और उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम
किया। भगवान शिव और सती का विवाह हो जाने पर उनके माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए
और महादेव जी को अपनी कन्या का दान कर प्रजापति दक्ष कृतार्थ हो गए। महेश्वर का
विवाह होने का पूरा संसार मंगल उत्सव मनाने लगा।
उन्नीसवां अध्याय
ब्रह्मा और विष्णु द्वारा शिव की स्तुति करना
ब्रह्माजी कहते है--नारद! कन्यादान करके दक्ष ने भगवान शिव को अनेक उपहार प्रदान
किए। उन्होंने सभी ब्राह्मणों को भी दान-दक्षिणा दी। तत्पश्चात भगवान विष्णु अपनी पत्नी
लक्ष्मी जी सहित भगवान शिव के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े हो उनकी आराधना करने लगे।
वे बोले—हे दयासागर महादेव जी! आप संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी सती सबकी माता
हैं। भगवन् आप दोनों ही अपने भक्तों की रक्षा के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए
अनेक अवतार धारण करते हैं। इस प्रकार उन्होंने शिव-सती की बहुत स्तुति की।
नारद! मैं उनके पास आकर विधि के अनुसार फेरे कराने लगा। ब्राह्मणों की आज्ञा और
मेरे सहयोग से सती और भगवान शिव ने विधिपूर्वक अग्ने के फेरे लिए। उस समय वहां
बहुत अद्भुत उत्सव किया जा रहा था। वहां विभिन्न प्रकार के बाजे और शहनाइयां बज रहीं
थी। स्त्रियां मंगल गीत गा रही थीं और खुशी से सभी नृत्य कर रहे थे।
तत्पश्चात भगवान विष्णु बोले-सदाशिव! आप संपूर्ण प्रकृति के रचयिता हैं। आपका
स्वरूप ज्योतिर्मय है। ब्रह्माजी, मैं और रुद्रदेव आपके ही रूप हैं। हम सभी सृष्टि की रचना,
पालन और संहार करते हैं। हे प्रभु! हम सब आपका ही अंश हैं। प्रभु! आप आकाश के
समान सर्वव्यापी और ज्योतिर्मय हैं। जिस प्रकार हाथ, कान, नाक, मुंह, सिर आदि शरीर के
विभिन्न रूप हैं। उसी प्रकार हम सब भी आपके शरीर के ही अंग हैं। आप निर्गुण निराकार
हैं। समस्त दिशाएं आपकी मंगल कथा कहती हैं। सभी देवी-देवता और ऋषि-मुनि आपके ही
चरणों की वंदना करते हैं। आपकी महिमा का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। भगवन्, यदि हम
सबसे कुछ गलती हो गई हो तो कृपया उसे क्षमा करें और प्रसन्न हों।
ब्रह्माजी बोलेइस प्रकार श्रीहरि ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। उनकी स्तुति
सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। विवाह की सभी रीतियों के पूर्ण होने पर हम सभी ने
महादेव जी एवं देवी सती को बधाइयां दीं तथा उनसे प्रार्थना की कि वे अपनी कृपादृष्टि सदैव
सभी पर बनाए रखें। वे जगत का कल्याण करें। तत्पश्चात भगवान शिव ने मुझसे कहा-हे
ब्रह्मन्! आपने मेरा वैवाहिक कार्य संपन्न कराया है। अतः आप ही मेरे आचार्य हैं। आचार्य
को कार्यसिद्धि के लिए दक्षिणा अवश्य दी जाती है। इसलिए आप मुझे बताइए कि मैं दक्षिणा
में आपको क्या दूँ? महाभाग! आप जो भी मांगेंगे मैं उसे अवश्य ही दूंगा।
मुने! भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर मैं हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो
गया। मैंने उन्हें प्रणाम करके कहा-हे देवेश! यदि आप मुझे अपना आचार्य मानकर कोई
वर देना चाहते हैं तो मैं आपसे यह वर मांगता हूं कि आप सदा इसी रूप में इसी वेदी पर
विराजमान रहकर अपने भक्तों को दर्शन दें। इस स्थान पर आपके दर्शन करने से सभी
पापियों के पाप धुल जाएं। आपके यहां विराजमान होने से मुझे आपका साथ प्राप्त हो
जाएगा। मैं इसी वेदी के पास आश्रम बनाकर यहां निवास करूंगा और तपस्या करूंगा। हे
प्रभु! मेरी यही इच्छा है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में
रविवार के दिन जो भी मनुष्य भक्तिभाव से आपका दर्शन करे उसके सभी पाप नष्ट हो जाएं।
रोगी मनुष्य के सभी रोग दूर हो जाएं। इस दिन आपका दर्शन कर मनुष्य जिस इच्छा को
आपके सामने व्यक्त करे उसे आप तुरंत पूरा करें। हे प्रभु! आप इस दिन सभी को
मनोवांछित वर प्रदान करें। भगवन् यही वरदान मैं आपसे मांगता हूं।
मेरी यह बात सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। वे बोले-है ब्रह्मा! मैं आपकी इच्छा
अवश्य ही पूरी करूंगा। तुम्हारे वर के अनुसार मैं देवी सती सहित इस वेदी पर विराजमान
रहूंगा। यह कहकर भगवान शिव देवी सती के साथ मूर्ति रूप में प्रकट होकर वेदी के मध्य
भाग में विराजमान हो गए। इस प्रकार मेरी इच्छा को पूरा कर जगत के हित के लिए प्रभु
शिव वेदी पर अंशरूप में विराजमान हुए।
बीसवां अध्याय
शिव-सती का विदा होकट कैलाश जाना
ब्रह्माजी बोले--हे महामुनि नारद! मुझे मेरा मनोवांछित वरदान देने के पश्चात भगवान
शिव अपनी पत्नी देवी सती को साथ लेकर अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाने के
लिए तैयार हुए। तब अपनी बेटी सती व दामाद भगवान शिव को विदा करते समय प्रजापति
दक्ष ने अपने हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर महादेव जी की भक्तिपूर्वक स्तुति की। साथ
ही श्रीहरि सहित सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों ने हर्ष से प्रभु का जय-जयकार
किया। भगवान शिव ने अपने ससुर प्रजापति दक्ष से आज्ञा लेकर अपनी पत्नी को अपनी
सवारी नंदी पर बैठाया और स्वयं भी उस पर बैठकर कैलाश पर्वत की ओर चले गए। उस
समय वृषभ पर बैठे भगवान शिव व सती की शोभा देखते ही बनती थी। उनका रूप
मनोहारी था। सब मंत्रमुग्ध होकर उन दोनों को जाते हुए देख रहे थे। प्रजापति दक्ष और
उनकी पत्नी अपनी बेटी व दामाद के अनोखे रूप पर मोहित हो उन्हें एकटक देख रहे थे।
उनकी विदाई पर चारों ओर मंगल गीत गाए जा रहे थे। विभिन्न वाद्य यंत्र बज रहे थे। सभी
बाराती शिव के कल्याणमय उज्ज्वल यश का गान करते हुए उनके पीछे-पीछे चलने लगे।
भगवान शिव देवी सती के साथ अपने निवास कैलाश पर पहुंचे। सभी देवता सहित गैं और
विष्णुजी भी कैलाश पर्वत पर पहुंचे। भगवान शिव ने उपस्थित सभी देवी-देवताओं और
ऋषि-मुनियों का हृदय से धन्यवाद किया। भगवान शिव ने सभी को सम्मानपूर्वक विदा
किया। तब सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की और प्रसन्रतापूर्वक अपने-अपने धाम को चले
गए। तत्पश्चात भगवान शिव और देवी सती सुखपूर्वक अपने वैवाहिक जीवन का आनंद
उठाने लगे।
सूत जी कहते हैं-हे मुनियो! मैंने तुम्हें भगवान शिव के शुभ विवाह की पुण्य कथा सुनाई
है। भगवान शिव का विवाह कब और किससे हुआ? वे विवाह के लिए कैसे तैयार हुए? इस
प्रकार मैंने सभी प्रसंगों का वर्णन तुमसे किया है। विवाह के समय, यज्ञ अथवा किसी भी
शुभ कार्य के आरंभ में भगवान शिव का पूजन करने के पश्चात इस कथा को जो सुनता
अथवा पढ़ता है उसका कार्य या वैवाहिक आयोजन बिना विघ्न और बाधाओं के पूरा होता
है। इस कथा के श्रवण से सभी शुभकार्य निर्विघ्न पूर्ण होते हैं। इस अमृतमयी कथा को
सुनकर जिस कन्या का विवाह होता है वह सुख, सौभाग्य, सुशीलता और सदाचार आदि
सदगुणों से युक्त हो जाती है। भगवान शिव की कृपा से पुत्रवती भी होती है।
इक्कीसवां अध्याय
शिव-सती विहार
नारद जी ने पूछा--हे पितामह ब्रह्माजी! शिवजी के विवाह के पश्चात सभी पधारे देवी-
देवताओं और ऋषि-मुनियों सहित श्रीहरि और आपको विदा करने के पश्चात क्या हुआ? हे
प्रभु! इससे आगे की कथा का वर्णन भी आप मुझसे करें। यह सुनकर ब्रह्माजी ने मुस्कुराते
हुए कहा-हे महर्षि नारद! सभी उपस्थित देवताओं को विवाहोपरांत भगवान शिव और देवी
सती ने प्रसन्रतापूर्वक विदा कर दिया। तत्पश्चात देवी सती ने सभी शिवगणों को भी कुछ
समय के लिए कैलाश पर्वत से जाने की आज्ञा प्रदान की। सभी शिवगणों ने महादेव जी को
प्रणाम कर उनकी स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने भगवान शंकर से वहां से जाने की आज्ञा
मांगी। आज्ञा देते हुए महादेव जी ने कहा—जाएं लेकिन मेरे स्मरण करने पर आप सभी तुरंत
मेरे समक्ष उपस्थित हो जाएं। तब नंदी समेत सभी गण वहां भगवान शिव और देवी सती को
अकेला छोड़कर कुछ समय के लिए कैलाश पर्वत से चले गए।
अब कैलाश पर्वत पर भगवान शिव सती के साथ अकेले थे। देवी सती भगवान शिव को
पति रूप में प्राप्त कर बहुत खुश थीं। बहुत कठिन तप के उपरांत ही उन्हें भगवान शिव का
सान्निध्य मिल पाया था। यह सोचकर वह बहुत रोमांचित थीं। उधर देवी सती के अनुपम
सौंदर्य को देखकर शिवजी भी मोहित हो चुके थे। वे भी देवी सती का साथ पाकर अपने को
धन्य समझ रहे थे। एकांत पाकर शिवजी अपनी पत्नी सती के साथ कैलाश पर्वत के शिखर
पर रमण करने लगे।
बाईसवां अध्याय
शिव-सती का हिमालय गमन
कैलाश पर्वत पर श्रीशिव और दक्ष कन्या सती के विविध विहारों का विस्तार से वर्णन
करने के बाद ब्रह्माजी ने कहा--
नारद! एक दिन की बात है कि देवी सती भगवान शिव को प्रेमपूर्वक प्रणाम करके दोनों
हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। उन्हें चुपचाप खड़े देखकर भगवान शिव समझ गए कि देवी सती
के मन में कुछ बात अवश्य है, जिसे वह कहना चाह रही हैं। तब उन्होंने मुस्कुराकर देवी सती
से पूछा कि हे प्राणवत्सला! कहिए आप क्या कहना चाहती हैं? यह सुनकर देवी सती बोलीं
हे भगवन्! वर्षा ऋतु आ गई है। चारों ओर का वातावरण सुंदर व मनोहारी हो गया है। हे
देवाधिदेव! मैं चाहती हूं कि कुछ समय हम कैलाश पर्वत से दूर पृथ्वी पर या हिमालय पर्वत
पर जाकर रहें। वर्षा काल के लिए हम किसी योग्य स्थान पर चले जाएं और कुछ समय वहीं
निवास करें। देवी सती की यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव हंसने लगे। हंसते हुए ही उन्होंने
अपनी पत्नी सती से कहा कि प्रिये! जहां पर मीं निवास करता हूं, वहां पर मेरी इच्छा के
विरुद्ध कोई भी आ-जा नहीं सकता है। मेघ भी मेरी आज्ञा के बिना कैलाश पर्वत की ओर
कभी नहीं आएंगे। वर्षा काल में भी मेघ सिर्फ नीचे की ओर ही घूमकर चले जाएंगे।
हे प्रिये! तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई भी तुम्हें परेशान नहीं कर सकता। फिर भी यदि
आप चाहती हैं तो हम हिमालय पर्वत पर चलते हैं। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी सती
के साथ हिमालय पर चले गए। कुछ समय वहां प्रसन्नतापूर्वक विहार करने के पश्चात वे पुनः
अपने निवास पर लौट आए।
तेईसवां अध्याय
शिव द्वारा ज्ञान और मोक्ष का वर्णन
ब्रह्माजी बोले--हे महर्षि नारद! भगवान शिव और सती के हिमालय से वापस आने के
पश्चात वे पुनः पहले की तरह कैलाश पर्वत पर अपना निवास करने लगे। एक दिन देवी सती
ने भगवान शिव को भक्तिभाव से नमस्कार किया और कहने लगीं--हे देवाधिदेव! महादेव!
कल्याणसागर! आप सभी की रक्षा करते हैं। हे भगवन्! मुझ पर भी अपनी कृपादृष्टि
कीजिए। प्रभु, आप परम पुरुष और सबके स्वामी हैं। आप रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण
से दूर हैं। आपको पति रूप में पाकर मेरा जन्म सफल हो गया। हे करुणानिधान! आपने
मुझे हर प्रकार का सुख दिया है तथा मेरी हर इच्छा को पूरा किया है परंतु अब मेरा मन तत्वों
की खोज करता है। मैं उस परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूं जो सभी को सुख
प्रदान करने वाला है। जिसे पाकर जीव संसार के दुखों और मोह-माया से मुक्त हो जाता है
और उसका उद्धार हो जाता है। प्रभु! मुझ पर कृपा कर आप मेरा ज्ञानवर्द्धन करें।
ब्रह्माजी बोले—मुने! इस प्रकार आदिशक्ति देवी सती ने जीवों के उद्धार के लिए भगवान
शिव से प्रश्न किया। उस प्रश्न को सुनकर महान योगी, सबके स्वामी भगवान शिव
प्रसन्रतापूर्वक बोले—हे देवी! हे दक्षनंदिनी! मैं तुम्हें उस अमृतमयी कथा को सुनाता हूं, जिसे
सुनकर मनुष्य संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यही वह परमतत्व विज्ञान है जिसके
उदय होने से मेरा ब्रह्मस्वरूप है। ज्ञान प्राप्त करने पर उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि शुद्ध हो
जाती है। उस विज्ञान की माता मेरी भक्ति है। यह भोग और मोक्ष रूप को प्रदान करती है।
भक्ति और ज्ञान सदा सुख प्रदान करता है। भक्ति के बिना ज्ञान और ज्ञान के बिना भक्ति की
प्राप्ति नहीं होती है। हे देवी! मैं सदा अपने भक्तों के अधीन हूं। भक्ति दो प्रकार की होती है—
सगुण और निर्गुण। शास्त्रों से प्रेरित और हृदय के सहज प्रेम से प्रेरित भक्ति श्रेष्ठ होती है परंतु
किसी वस्तु की कामनास्वरूप की गई भक्ति, निम्नकोटि की होती है। हे प्रिये! मुनियों ने
सगुणा और निर्गुणा नामक दोनों भक्तियों के नौ-नौ भेद बताए हैं। श्रवण, कीर्तन, स्मरण,
सेवन, दास्य, अर्चन, वंदन, सख्य और आत्मसमर्पण ही भक्ति के अंग माने जाते हैं। जो एक
स्थान पर स्थिरतापूर्वक बैठकर तन-मन को एकाग्रचित्त करके मेरी कथा और कीर्तन को
प्रतिदिन सुनता है, इसे 'श्रवण' कहा जाता है। जो अपने हृदय में मेरे दिव्य जन्म-कमों का
चिंतन करता है और उसका अपनी वाणी से उच्चारण करता है, इसे भजन रूप में गाना ही
'कीर्तन' कहा जाता है।
मेरे स्वरूप को नित्य अपने आस-पास हर वस्तु में तलाश कर मुझे सर्वत्र व्यापक मानना
तथा सदैव मेरा चिंतन करना ही 'स्मरण' है। सूर्य निकलने से लेकर रात्रि तक (सूर्यास्त तक)
हृदय और इंद्रियों से निरंतर मेरी सेवा करना ही 'सेवन' कहा जाता है। स्वयं को प्रभु का
किंकर समझकर अपने हृदयामृत के भोग से भगवान का स्मरण 'दास्य' कहा जाता है।
अपने धन और वैभव के अनुसार सोलह उपचारों के द्वारा मनुष्य द्वारा की गई मेरी पूजा
'अर्चन' कहलाती है। मन, ध्यान और वाणी से मंत्रों का उच्चारण करते हुए इष्टदेव को
नमस्कार करना 'वंदन' कहा जाता है। ईश्वर द्वारा किए गए फैसले को अपना हित समझकर
उसे सदैव मंगल मानना ही 'सख्य' है। मनुष्य के पास जो भी वस्तु है वह भगवान की
प्रसन्नता के लिए उनके चरणों में अर्पण कर उन्हें समर्पित कर देना ही 'आत्मसमर्पण'
कहलाता है। भक्ति के यह नौ अंग भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। ये सभी ज्ञान के
साधन मुझे प्रिय हैं।
मेरी सांगोपांग भक्ति ज्ञान और वैराग्य को जन्म देती है। इससे सभी अभीष्ट फलों की
प्राप्ति होती है। मुझे मेरे भक्त बहुत प्यारे हैं। तीनों लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान
दूसरा कोई भी सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुग में, जब ज्ञान और वैराग्य का हास हो
जाएगा तब भी भक्ति ही शुभ फल प्रदान करने वाली होगी। मैं सदा ही अपने भक्तों के वश में
रहता हूं। मैं अपने भक्तों की विपरीत परिस्थिति में सदैव सहायता करता हूं और उसके सभी
कष्टों को दूर करता हूं। मैं अपने भक्तों का रक्षक हूं।
ब्रह्माजी बोले-नारद! देवी सती को भक्त और भक्ति का महत्व सुनकर बहुत प्रसन्नता
हुई। उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया और पुनः शास्त्रों के बारे में पूछा। वे यह जानना
चाहती थीं कि सभी जीवों का उद्धार करने वाला, उन्हें सुख प्रदान करने वाला सभी साधनों
का प्रतिपादक शास्त्र कौन-सा है? वे ऐसे शास्त्र का माहात्म्य सुनना चाहती थीं। सती का प्रश्न
सुनकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सब शास्त्रों के विषय में देवी सती को बताया। महेश्वर ने
पांचों अंगों सहित तंत्रशास्त्र, यंत्रशास्त्र तथा सभी देवेश्वरों की महिमा का वर्णन किया। उन्होंने
इतिहास की कथा भी सुनाई। पुत्र और स्त्री के धर्म की महिमा भी बताई। मनुष्यों को सुख
प्रदान करने वाले वैद्यक शास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र का भी वर्णन किया। भगवान शिव ने
भक्तों का माहात्म्य और राज धर्म भी बताया।
इसी प्रकार भगवान शिव ने सती को उनके पूछे सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए सभी कथाएं
सुनाई।
चौबीसवां अध्याय
शिव की आज्ञा से सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा
नारद जी बोले-हे ब्रह्मन्! हे महाप्राज्ञ! हे दयानिधे! आपने मुझे भगवान शंकर तथा देवी
सती के मंगलकारी चरित्र के बारे में बताया। हे प्रभु! मैं महादेव जी का सपत्नीक यश वर्णन
सुनना चाहता हूं। कृपया अब मुझे आप यह बताइए कि तत्पश्चात शिवजी व सती ने क्या
किया? उनके सभी चरित्रों का वर्णन मुझसे करें।
ब्रह्माजी ने कहा--मुने! एक बार की बात है कि सतीजी को अपने पति का वियोग प्राप्त
हुआ। यह वियोग भी उनकी लीला का ही रूप था क्योंकि इनका परस्पर वियोग तो हो ही
नहीं सकता है। यह वाणी और अर्थ के समान है, यह शक्ति और शक्तिमान है तथा
चित्रस्वरूप है। सती और शिव तो ईश्चर हैं। वे समय-समय पर नई-नई लीलाएं रचते हैं।
सूत जी कहते हैं-महर्षियो! ब्रह्माजी की बात सुनकर नारद जी ने ब्रह्माजी से देवी सती
और भगवान शिव के बारे में पूछा कि भगवान शिव ने अपनी पत्नी सती का त्याग क्यों
किया? ऐसा किसलिए हुआ कि स्वयं वर देने के बाद भी उन्होंने देवी सती को छोड़ दिया?
प्रजापति दक्ष ने अपने यज्ञ के आयोजन में भगवान शिव को निमंत्रण क्यों नहीं दिया? और
यज्ञ स्थल पर भगवान शंकर का अनादर क्यों किया। उस यज्ञ में सती ने अपने शरीर का
त्याग क्यों किया तथा इसके पश्चात वहां पर क्या हुआ? है प्रभु! कृपा कर मुझे इस विषय में
सविस्तार बताइए।
ब्रह्माजी बोले-हे महाप्राज्ञ नारद! मैं तुम्हारी उत्सुकता देखकर तुम्हारी सभी जिज्ञासाओं
को शांत करने के लिए तुम्हें सारी बातें बताता हूं। ये सभी भगवान शिव की ही लीला है।
उनका स्वरूप स्वतंत्र और निर्विकार है। देवी सती भी उनके अनुरूप ही हैं। एक समय की
बात है, भगवान शिव अपनी प्राणप्रिया पत्नी सती के साथ अपनी सवारी नंदी पर बैठकर
पृथ्वीलोक का भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वे दण्डकारण्य में आ गए। उस वन में उन्होंने
भगवान श्रीराम को उनके भ्राता लक्ष्मण के साथ जंगलों में भटकते हुए देखा। वे अपनी पत्नी
सीता को खोज रहे थे, जिसे लंका का राजा रावण उठाकर ले गया था। वे जगह-जगह
भटकते हुए उनका नाम पुकार कर उन्हें ढूंढ़ रहे थे। पत्नी के बिछुड़ जाने के कारण श्रीराम
अत्यंत दुखी दिखाई दे रहे थे। उनकी कांति फीकी पड़ गई थी। भगवान शिव ने वन में राम
जी को भटकते देखा परंतु उनके सामने प्रकट नहीं हुए। देवी सती को यह देखकर बड़ा
आश्चर्य हुआ। वे शिवजी से बोलीं
हे सर्वेश! हे करुणानिधान सदाशिव! हे परमेश्वर! ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता आपकी
ही सेवा करते हैं। आप सब के द्वारा पूजित हैं। वेदांत और शास्त्रों के द्वारा आप ही निर्विकार
प्रभु हैं। हे नाथ! ये दोनों पुरुष कीन हैं? ये दोनों विरह व्यथा से व्याकुल रहते हैं। ये दोनों
धनुर्धर वीर जंगलों में क्यों भटक रहे हैं? भगवन् इनमें ज्येष्ठ पुरुष की अंगकांति नीलकमल
के समान श्याम है। आप उसे देखकर इतना आनंद विभोर क्यों हो रहे हैं? आपने
प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम क्यों किया? स्वामी कभी भक्त को प्रणाम नहीं करता। हे
कल्याणकारी शिव! आप मेरे संशय को दूर कीजिए और मुझे इस विषय में बताइए।
ब्रह्माजी बोले-नारद! कल्याणमयी आदिशक्ति देवी सती ने जब भगवान शिव से इस
प्रकार प्रश्न पूछने आरंभ किए तो देवों के देव महादेव भगवान हंसकर बोले-देवी यह सभी
तो पूर्व निर्धारित है। मैंने उन्हें दिए गए वरदान स्वरूप ही उन्हें नमस्कार किया था। ये दोनों
भाई सभी वीरों द्वारा सम्मानित हैं। इनके शुभ नाम श्रीराम और लक्ष्मण हैं। ये सूर्यवंशी राजा
दशरथ के पुत्र हैं। इनमें गोरे रंग के छोटे भाई साक्षात शेष के अंश हैं तथा उनका नाम लक्ष्मण
है। बड़े भाई श्रीराम भगवान विष्णु का अवतार हैं। धरती पर इनका जन्म साधुओं की रक्षा
और पृथ्वी वासियों के कल्याण के लिए ही हुआ है। भगवान शिव की ये बातें सुनकर देवी
सती को विश्वास नहीं हुआ। ऐसा विभ्रम भगवान शिव की माया के कारण ही हुआ था। जब
भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ कि देवी सती को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ है तो वे
अपनी पत्नी दक्षकन्या सती से बोले देवी! यदि तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं है तो तुम
स्वयं श्रीराम की परीक्षा ले लो। जब तक तुम इस बात से आश्वस्त न हो जाओ कि वे दोनों
पुरुष ही राम और लक्ष्मण हैं, और तुम्हारा मोह न नष्ट हो जाए, तब तक मीं यहीं बरगद के
नीचे खड़ा हूं। तुम जाकर श्रीराम और लक्ष्मण की परीक्षा लो।
ब्रह्माजी बोले-हे महामुने नारद! अपने पति भगवान शिव के वचन सुनकर सती ने अपने
पति का आदेश प्राप्त कर श्रीराम-लक्ष्मण की परीक्षा लेने की ठान ली परंतु उनके मन में
बार-बार एक ही विचार उठ रहा था कि मैं कैसे उनकी परीक्षा लूं। तब उनके मन में यह
विचार आया कि मैं देवी सीता का रूप धारण कर श्रीराम के सामने जाती हूं। यदि वे साक्षात
विष्णुजी का अवतार हैं, तो वे मुझे आसानी से पहचान लेंगे अन्यथा वे मुझे पहचान नहीं
पाएंगे। ऐसा विचार कर उन्होंने सीता का वेश धारण कर लिया और रामजी के समक्ष चली
गई। सती ने ऐसा भगवान शिव की माया से मोहित होकर ही किया था। सती को सीता के
रूप में देखकर, राम जी सबकुछ जान गए। वे हंसते हुए देवी सती को प्रणाम करके बोले
हे देवी सती! आपको मैं नमस्कार करता हूं। हे देवी! आप तो यहां है, परंतु त्रिलोकीनाथ
भगवान शिव कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। बताइए देवी, आप इस निर्जन वन में अकेली
कया कर रही हैं? और आपने अपने परम सुंदर और कल्याणकारी रूप को त्यागकर यह नया
रूप क्यों धारण किया है?
श्री रामचंद्र जी की बातें सुनकर देवी सती आश्चर्यचकित हो गईं। तब वे शिवजी की बातों
का स्मरण कर तथा सच्चाई को जानकर बहुत शर्मिंदा हुई और मन ही मन अपने पति
भगवान शंकर के चरणों का स्मरण करती हुई बोलीं-हम अपने पति करुणानिधान भगवान
शिव तथा अन्य पार्षदों के साथ पृथ्वी का भ्रमण करते हुए इस वन में आ गए थे। यहां
आपको लक्ष्मण जी के साथ सीता की खोज में भटकते हुए देखकर भगवान शिव ने आपको
प्रणाम किया और वहीं बरगद के पीछे खड़े हो गए। आपको वहां देख भगवान शिव आनंदित
होकर आपकी महिमा का गान करने लगे। वे आपके दर्शनों से आनंदविभोर हो गए। मेरे द्वारा
इस विषय में पूछने पर जब उन्होंने मुझे बताया कि आप श्रीविष्णु का अवतार हैं तो मुझे इस
पर विश्वास ही नहीं हुआ और मं स्वयं आपकी परीक्षा लेने यहां आ गई। आपके द्वारा मुझे
पहचान लेने से मेरा सारा भ्रम दूर हो गया है। हे श्रीहरि! अब मुझे आप यह बताइए कि आप
भगवान शिव के भी वंदनीय कैसे हो गए? मेरे मन में यही एक संशय है। कृपया, आप मुझे
इस विषय में बताकर मेरे संशय को दूर कर मुझे शांति प्रदान करें।
देवी सती के ऐसे वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न होते हुए तथा अपने मन में शिवजी का
स्मरण करते हुए प्रेमविभोर हो उठे। वे प्रभु शिव के चरणों का चिंतन करते हुए मन में उनकी
महिमा का वर्णन करने लगे।
पच्चीसवां अध्याय
श्रीराम का सती के संदेह को दूर करना
श्रीराम बोले--हे देवी सती! प्राचीनकाल की बात है। एक बार भगवान शिव ने अपने
लोक में विश्वकर्मा को बुलाकर उसमें एक मनोहर गोशाला बनवाई, जो बहुत बड़ी थी। उसमें
उन्होंने एक मनोहर विस्तृत भवन का भी निर्माण करवाया। उसमें एक दिव्य सिंहासन तथा
एक दिव्य श्रेष्ठ छत्र भी बनवाया। यह बहुत ही अद्भुत और परम उत्तम था। तत्पश्चात उन्होंने
सब ओर से इंद्र, देवगणों, सिद्धों, गंधर्वो, समस्त उपदेवों तथा नाग आदि को भी शीघ्र ही उस
मनोहर भवन में बुलवाया। सभी वेदों और आगमों को, पुत्रों सहित ब्रह्माजी को, मुनियों,
अप्सराओं सहित समस्त देवियों सहित सोलह नाग कन्याओं आदि सभी को उसमें आमंत्रित
किया, जो कि अनेक मांगलिक वस्तुओं के साथ वहां आई। संगीतज्ञों ने वीणा-मृदंग आदि
बाजे बजाकर अपूर्व संगीत का गान किया।
इस प्रकार यह एक बड़ा समारोह और उत्सव था। राज्याभिषेक की सारी सामग्रियां
एकत्रित हुई और तीर्थो के जल से भरे घड़े मंगाए गए। अनेक दिव्य सामग्रियां भी गणों द्वारा
मंगवाई गईं। फिर उच्च स्वरों में वेदमंत्रों का घोष कराया गया।
हे देवी! भगवान श्रीहरि विष्णु की उत्तम भक्ति से भगवान शिव सदा प्रसन्न रहते थे।
उन्होंने बड़े प्रसन्न होकर श्रीहरि को बैकुंठ से बुलवाया और शुभ मुहूर्त में श्रेष्ठ सिंहासन पर
बैठाया। महादेव जी ने स्वयं अपने हाथों से उन्हें बहुत से आभूषण और अलंकार पहनाए।
उन्होंने भगवान विष्णु के सिर पर मुकुट पहनाकर उनका अभिषेक किया। उस समय वहां
अनेक मंगल गान गाए गए। तब भगवान शिव ने अपना सारा ऐश्वर्य, जो कि किसी के पास
भी नहीं था, उन्हें प्रेमपूर्वक प्रदान किया। इसके पश्चात भगवान शंकर ने उनकी बहुत स्तुति
की और जगतकर्ता ब्रह्माजी से बोले-हे लोकेश! आज से श्रीहरि विष्णु मेरे वंदनीय हुए। यह
सुनकर सभी देवता स्तब्ध रह गए। तब वे पुनः बोले कि आप सहित सभी देवी-देवता
भगवान विष्णु को प्रणाम कर उनकी स्तुति करें तथा सभी वेद मेरे साथ-साथ श्रीविष्णु जी
का भी वर्णन करें।
श्री रामचंद्र जी बोले-हे देवी! भगवान शिव अपने भक्तों के ही अधीन हैं। वे अत्यंत
दयालु और कृपानिधान हैं। वे सदा ही भक्तों के वश में रहते हैं। इसलिए भगवान विष्णु की
शिव भक्ति से प्रसन्न होकर भक्तवत्सल शिव ने यह सबकुछ किया तथा इसके उपरांत उन्होंने
विष्णुजी के वाहन गरुडध्वज को भी प्रणाम किया। तत्पश्चात सभी देवी-देवताओं और ऋषि-
मुनियों ने भी श्रीहरि की सच्चे मन से स्तुति की। तब भगवान शिव ने विष्णुजी को बहुत से
वरदान दिए तथा कहा--श्रीहरि! आप मेरी आज्ञा के अनुसार संपूर्ण लोकों के कर्ता, पालक
और संहारक हों। धर्म, अर्थ और काम के दाता तथा बुरे अथवा अन्याय करने वाले दुष्टों को
दंड तथा उनका नाश करने वाले हों। आप पूरे जगत में पूजित हों तथा सभी मनुष्य सदैव
आपका पूजन करें। तुम कभी भी पराजित नहीं होगे। मैं तुम्हें इच्छा की सिद्धि, लीला करने
की शक्ति और सदैव स्वतंत्रता का वरदान प्रदान करता हूं। हे हरे। जो तुमसे बैर रखेंगे उनको
अवश्य ही दंड मिलेगा। मैं तुम्हारे भक्तों को भी मोक्ष प्रदान करूंगा तथा उनके सभी कष्टों का
भी निवारण करूंगा। तुम मेरी बायीं भुजा से और ब्रह्माजी मेरी दायीं भुजा से प्रकट हुए हो।
रुद्र देव, जो साक्षात मेरा ही रूप हैं, मेरे ही हदय से प्रकट हुए हैं। हे विष्णो! आप सदा
सबकी रक्षा करेंगे। मेरे धाम में तुम्हारा स्थान उज्ज्वल एवं वैभवशाली है। वह गोलोक नाम से
जाना जाएगा। तुम्हारे द्वारा धारण किए गए सभी अवतार सबके रक्षक और मेरे परम भक्त
होंगे। मैं उनका दर्शन करूंगा।
श्री रामचंद्र जी कहते है-देवी! श्रीहरि को अपना अखंड ऐश्वर्य सौंपकर भगवान शिव
स्वयं कैलाश पर्वत पर रहते हुए अपने पार्षदों के साथ क्रीड़ा करते हैं। तभी भगवान
लक्ष्मीपति विष्णु गोपवेश धारण करके आए और गोप-गोपी तथा गौओं के स्वामी बनकर
प्रसन्नतापूर्वक विचरने लगे तथा जगत की रक्षा करने लगे। वे अनेक प्रकार के अवतार ग्रहण
करते हुए जगत का पालन करने लगे। वे ही भगवान शिव की आज्ञा से चार भाइयों के रूप में
प्रकट हुए। अब इस समय मैं (विष्णु) ही अवतार रूप में प्रकट होकर चार भाइयों में सबसे
बड़ा राम हूं। दूसरे भरत हैं, तीसरे लक्ष्मण हैं और चौथे भाई शत्रुघ्न हैं। गैं अपनी माता के
आदेशानुसार वनवास भोगने के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ इस वन में आया था। किसी
राक्षस ने मेरी पत्नी सीता का अपहरण कर लिया है और मीं यहां-वहां भटकता हुआ अपनी
पत्नी को ही ढूंढ़ रहा हूं। सौभाग्यवश मुझे आपके दर्शन हो गए। अब निश्चय ही मुझे मेरे कार्य
में सफलता मिलेगी। हे माता! आप मुझ पर कृपादृष्टि करें और मुझे यह वरदान दें कि गैं उस
पापी राक्षस को मारकर अपनी पत्नी सीता को उसके चंगुल से मुक्त कर सकूं। मेरा यह
महान सौभाग्य है कि मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए। मैं धन्य हो गया।
इस प्रकार देवी की अनेक प्रकार से स्तुति करके श्रीराम जी ने उन्हें अनेकों बार प्रणाम
किया। श्रीराम की बातें सुनकर सती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई और भक्तवत्सल भगवान
शिव की स्तुति एवं चिंतन करने लगीं। अपनी भूल पर उन्हें लज्जा आ रही थी। वे उदास मन
से शिवजी के पास चल दीं। वे रास्ते में सोच रही थीं कि मैंने अपने पति महादेव जी की बात
न मानकर बहुत बुरा किया और श्रीराम जी के प्रति भी बुरे विचार अपने मन में लाई। अब मैं
भगवान शिव को क्या उत्तर दूंगी? उन्हें अपनी करनी पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। वे
शिवजी के समीप गई और चुपचाप खड़ी हो गईं। सती को इस प्रकार चुपचाप और दुखी
देखकर भगवान शंकर ने पूछा-देवी! आपने श्रीराम की परीक्षा किस प्रकार ली? यह प्रश्न
सुनकर देवी सती चुपचाप सिर झुकाकर खड़ी हो गईं। उन्होंने शिवजी को कोई उत्तर नहीं
दिया। वे असमंजस में थीं कि क्या उत्तर दें। लेकिन महायोगी शिव ने ध्यान से सारा विवरण
जान लिया और उनका मन से त्याग कर दिया। भगवान शिव ने सोचा, अब यदि मैं सती को
पहले जैसा ही स्नेह करूं तो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी। वेद धर्म के पालक शिवजी ने
अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए सती का मन से त्याग कर दिया। फिर सती से कुछ न कहकर वे
कैलाश की ओर बढ़े। मार्ग में सबको, विशेषकर सती जी को सुनाने के लिए आकाशवाणी
हुई कि महायोगी शिव आप धन्य हैं। आपके समान तीनों लोक में कोई भी प्रतिज्ञा-पालक
नहीं है। इस आकाशवाणी को सुनते ही देवी सती शांत हो गईं। उनकी कांति फीकी पड़ गई।
तब उन्होंने भगवान शिव से पूछा--
हे प्राणनाथ! आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? कृपया आप मुझे बताइए। परंतु भगवान
शिव ने विवाह के समय भगवान विष्णु के समक्ष जो प्रतिज्ञा की थी, उसे सती को
बताया। तब देवी सती ने भगवान शिव का ध्यान करके उन सभी कारणों को जान लिया
जिसके कारण भगवन् ने उनका त्याग कर दिया था। त्याग देने की बात जानकर देवी सती
अत्यंत दुखी हो गईं। दुख बढ़ने के कारण उनकी आखों में आंसू आ गए और वह सिसकने
लगीं। उनके मनोभावों को समझकर और देवी सती की ऐसी हालत देखकर भगवान शिव ने
अपनी प्रतिज्ञा की बात उनके सामने नहीं कही। तब सती का मन बहलाने के लिए शिवजी
उन्हें अनेकानेक कथाएं सुनाते हुए कैलाश की ओर चल दिए। कैलाश पर पहुंचकर, शिवजी
अपने स्थान पर बैठकर समाधि लगाकर ध्यान करने लगे। सती ने दुखी मन से अपने धाम में
रहना शुरू कर दिया।
भगवान शिव को समाधि में बैठे बहुत समय बीत गया। तत्पश्चात शिवजी ने अपनी
समाधि तोड़ी। जब देवी सती को पता चला तो वे तुरंत शिवजी के पास दौड़ी चली आई। वहां
आकर उन्होंने शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। भगवान शिव ने उन्हें अपने सम्मुख आसन
दिया और उन्हें प्रेमपूर्वक बहुत सी कथाएं सुनाई। इससे देवी सती का शोक दूर हो गया परंतु
शिवजी ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। हे नारद। ऋषि-मुनि आदि सभी शिव और सती की इन
कथाओं को उनकी लीला का ही रूप मानते हैं क्योंकि वे तो साक्षात परमेश्वर हैं। एक-दूसरे
के पूरक हैं। भला उनमें वियोग कैसे संभव हो सकता है। सती और शिव वाणी और अर्थ की
भांति एक-दूसरे से मिले हुए हैं। उनमें वियोग होना असंभव है। उनकी इच्छाओं और
लीलाओं से ही उनमें वियोग हो सकता है।
छब्बीसवां अध्याय
दक्ष का भगवान शिव को शाप देना
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! पूर्वकाल में समस्त महात्मा और ऋषि प्रयाग में इकट्ठा हुए। वहां
पर उन्होंने एक बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। उस यज्ञ में देवर्षि, देवता, ऋषि-
मुनि, साधु-संत, सिद्धगण तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करने वाले महान ज्ञानी पधारे। जिसमें मैं
स्वयं अपने महातेजस्वी निगमों-आगमों सहित परिवार को लेकर वहां पहुंचा। वहां बहुत बड़ा
उत्सव हो रहा था। अनेक शास्त्रों में ज्ञान की चर्चा एवं वाद-विवाद हो रहा था। उस यज्ञ में
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव भी देवी सती और अपने गणों सहित पधारे थे। भगवान शिव को
वहां आया देख मैंने, सभी देवताओं, ऋषियों-मुनियों ने उन्हें झुककर, भक्तिभाव से प्रणाम
किया तथा अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की। शिवजी की आज्ञा पाकर सभी ने अपना
आसन ग्रहण कर लिया। इसी समय प्रजापति दक्ष भी वहां आ पहुंचे। वे बड़े ही तेजस्वी थे।
प्रजापति दक्ष ने मुझे प्रणाम करके अपना आसन ग्रहण कर लिया। वे ब्रह्माण्ड के अधिपति
थे। इसी कारण उन्हें अपने पद का घमंड हो गया था। उनके मन में अहंकार ने घर कर लिया
था। ब्रह्माण्ड के अधिपति होने के कारण वे सभी देवताओं के वंदनीय थे। सभी ऋषि-मुनियों
सहित देवर्षियों ने भी मस्तक झुकाकर प्रजापति दक्ष को प्रणाम किया और उनकी स्तुति कर
उनका आदर-सत्कार किया। परंतु त्रिलोकीनाथ भगवान शिव शंभु ने न तो उन्हें प्रणाम किया
और न ही अपने आसन से उठकर दक्ष का स्वागत किया। इस बात पर दक्ष क्रोधित हो गए।
ज्ञानशून्य होने के कारण प्रजापति दक्ष ने क्रोधित नेत्रों से महादेव जी को देखा और सबको
सुनाते हुए उच्च स्वर में कहने लगे।
प्रजापति दक्ष बोले-सभी देवता, असुर, ब्राह्मण, ऋषि-मुनि सभी मुझे नम्रतापूर्वक
प्रणाम कर मेरे आगे सिर झुकाते हैं। ये सभी उत्तम भक्ति भाव से मेरी आराधना करते हैं परंतु
सदैव प्रेतों और पिशाचों से घिरा रहने वाला यह दुष्ट मनुष्य क्यों मुझे देखकर अनदेखा कर
रहा है? श्मशान में निवास करने वाला यह निर्लज्ज जीव क्यों मेरे सामने मस्तक नहीं
झुकाता? भूतों-पिशाचों का साथ करने के कारण क्या यह शास्त्रों की विधि भी भूल गया है।
इसने नीति के मार्ग को भी कलंकित किया है। इसके साथ रहने वाले या इसकी बातों का
अनुसरण करने वाले मनुष्य पाखण्डी, दुष्ट और पाप का आचरण करने वाले होते हैं। वे
ब्राह्मणों की बुराई करते हैं तथा स्त्रियों के प्रति आकर्षित होते हैं। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक
और कुरूप है। इसलिए इस पावन यज्ञ से इसे बहिष्कृत कर दिया जाए। यह उत्तम कुल और
जन्म से हीन है। अतः इसे यज्ञ में भाग न लेने दिया जाए।
पुत्र! क्रोध से विवेक समाप्त हो जाता है। दक्ष ने शिव के लिए अपशब्द कहते समय
उसके परिणाम पर तनिक भी विचार नहीं किया। अहंकार के कारण वह शिव के स्वरूप को
भूल गया। वह यह भी भूल गया कि आदिशक्ति ने जिसका तप द्वारा वरण किया है, वह कोई
साधारण मनुष्य, ऋषि या देव नहीं है।
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! दक्ष की ये बातें सुनकर भूगु आदि बहुत से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट
मानकर उनकी निंदा करने लगे। ये बातें सुनकर नंदी को बुरा लगा। उनका क्रोध बढ़ने लगा
और वे दक्ष को शाप देते हुए बोले कि हे महामूढ़! दुष्टबुद्धि दक्ष! तू मेरे स्वामी देवाधिदेव
महेश्वर को यज्ञ से निकालने वाला कौन होता है? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल हो जाते
हें और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं तू उन महादेव जी को कैसे शाप दे सकता है? मेरे स्वामी
निर्दोष हें और तूने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए उन्हें शाप दिया है और उनका मजाक
उड़ाया है। जिन सदाशिव ने इस जगत की सृष्टि की, इसका पालन किया और जो इसका
संहार करते हैं, तू उन्हीं महेश्वर को शाप देता है।
नंदी के ऐसे वचनों को सुनकर प्रजापति दक्ष के क्रोध की कोई सीमा न रही। वे आग
बबूला हो गए और नंदी समेत सभी रुद्रगणों को शाप देते हुए बोलेअरे दुष्ट रुद्रगणो। मैं
तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सब वेदों से बहिष्कृत हो जाओ। तुम वैदिक मार्ग से भटक जाओ
और सभी ज्ञानी मनुष्य तुम्हारा त्याग कर दें। तुम शिष्ट आचरण न करो और पाखंडी हो
जाओ। सिर पर जटा, शरीर पर भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान (शराब का
सेवन) करो। जब दक्ष ने शिवजी के प्रिय पार्षदों को इस प्रकार शाप दे दिया तो नंदी बहुत
क्रुद्ध हो गए। नंदी भगवान शिव के प्रिय पार्षद हैं। वे बड़े गर्व से दक्ष को उत्तर देते हुए बोले।
नंदीश्वर ने कहा-है दुर्बुद्धि दक्ष! तुझे शिव तत्व का ज्ञान नहीं है। तूने अहंकार में
शिवगणों को शाप दे दिया है। तेरे कहने पर भृगु आदि ब्राह्मणों ने भी अभिमान के कारण
भगवान शिव का मजाक उड़ाया है। अतः मैं भगवान शिव के तेज के प्रभाव से तुझे शाप देता
हूं कि तुझ जैसे अहंकारी मनुष्य, जो सिर्फ कर्मो के फल को देखते है, वेदवाद में फंसकर रह
जाएंगे। उनका वेद तत्वज्ञान शून्य हो जाएगा। वे सदैव मोह-माया में ही लिप्त रहेंगे। वे
पुरुषार्थ विहीन होंगे और स्वर्ग को ही महत्व देंगे। वे क्रोधी व लोभी होंगे। वे सदा ही दान लेने
में लगे रहेंगे।
हे दक्ष! जो भी भगवान शिव को सामान्य देवता समझकर उनका अनादर करेगा, वह
सदैव के लिए तत्वज्ञान से विमुख हो जाएगा। वह आत्मज्ञान को भूलकर पशु के समान हो
जाएगा तथा यह दक्ष, जो कि कर्मों से भ्रष्ट हो चुका है, इसका मुख बकरे के समान हो
जाएगा। इस प्रकार बहुत गुस्से से भरे नंदी ने जब दक्ष और ब्राह्मणों को शाप दिया तो वहां
बहुत शोर मच गया। भगवान शिव मधुर वाणी में नंदी को समझाने लगे कि वे शांत हो जाएं।
प्रभु शिव बोले-नंदी! तुम तो परम ज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए। तुमने बिना
कुछ जाने और समझे ही दक्ष तथा समस्त ब्राह्मण कुल को शाप दे दिया है। सच्चाई तो यह है
कि मुझे कोई भी शाप छू ही नहीं सकता है। इसलिए तुम्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना
चाहिए था। किसी की बुद्धि कितनी ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे
सकता। नंदी! तुम तो सिद्धों को भी तत्वज्ञान का उपदेश देने वाले हो। तुम तो जानते हो कि
मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही यज्ञकर्म हूं। यज्ञ की आत्मा मैं हूं, यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूं। फिर मैं
कैसे यज्ञ से बहिष्कृत हो सकता हूं? तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणों को शाप दे दिया है।
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब भगवान शिव ने अनेक प्रकार से नंदी को समझाया तो उनका
क्रोध शांत हो गया। तब शिवजी अपने अन्य गणों व पार्षदों के साथ अपने निवास स्थान
कैलाश पर्वत पर चले गए। क्रोध से भरे दक्ष भी ब्राह्मणों के साथ अपने स्थान पर चले गए
परंतु उनके मन में महादेव जी के लिए क्रोध एवं इर्ष्या का भाव ऐसा ही रहा। उन्होंने शिवजी
के प्रति श्रद्धा को त्याग दिया और उनकी निंदा करने लगे। दिन-ब-दिन उनकी इर्ष्या बढ़ती
जा रही थी।
सत्ताईसवां अध्याय
दक्ष द्वारा महान यज्ञ का आयोजन
ब्रह्माजी बोले--हे महर्षि नारद! इस प्रकार, क्रोधित व अपमानित दक्ष ने कनखल नामक
तीर्थ में एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में उन्होंने सभी देवर्षियों, महर्षियों
तथा देवताओं को दीक्षा देने के लिए बुलाया। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि,
भगवान व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमंतु, त्रिक, कंक
और वैशंपायन सहित अनेक ऋषि-मुनि अपनी पत्नियों व पुत्रों सहित प्रजापति दक्ष के यज्ञ
में सम्मिलित हुए। समस्त देवता अपने देवगणों के साथ प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ में गए। अपने पुत्र
दक्ष की प्रार्थना स्वीकार करके मैं विश्वस्रष्टा ब्रह्मा और बैकुण्ठलोक से भगवान विष्णु भी उस
यज्ञ में पहुंचे। वहां दक्ष ने सभी पधारे हुए अतिथियों का खूब आदर-सत्कार किया। उस यज्ञ
के स्थान का निर्माण देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा किया गया था। विश्वकर्मा ने बहुत से
दिव्य भवनों का निर्माण किया। उन भवनों में दक्ष ने यज्ञ में पधारे अतिथियों को ठहराया।
दक्ष ने भृगु ऋषि को ऋत्विज बनाया। भगवान विष्णु यज्ञ के अधिष्ठाता थे। इस विधि को मैंने
ही बताया। दक्ष सुंदर रूप धारण कर यज्ञ मण्डल में उपस्थित था। उस महान यज्ञ में
अट्ठासी हजार ऋषि एक साथ हवन कर सकते थे। चौंसठ हजार देवर्षि मंत्रों का उच्चारण
कर रहे थे। सभी मग्न होकर वेद मंत्रों का गान कर रहे थे।
दक्ष ने उस महायज्ञ में गंधर्वो, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों व उनके गणों तथा नागों
को भी आमंत्रित किया था। साथ ही देश-विदेश के अनेक राजा उसमें उपस्थित थे, जो
अपनी सेना एवं दरबारियों सहित यज्ञ में पधारे थे। कौतुक और मंगलाचार कर दक्ष ने यज्ञ
की दीक्षा ली परंतु उस दुरात्मा दक्ष ने त्रिलोकीनाथ करुणानिधान भगवान शिव को यज्ञ के
लिए निमंत्रण नहीं भेजा था। न ही अपनी पुत्री सती को ही बुलाया था। दक्ष के अनुसार
भगवान शिव कपालधारी हैं, इसलिए उन्हें यज्ञ में स्थान देना गलत है। सती भी शिवजी की
पत्नी होने के कारण 'कंपाली भार्या' हुई। अतः उन्हें भी बुलाना पूर्णतः अनुचित था। दक्ष का
यज्ञ महोत्सव अत्यंत धूमधाम एवं हर्ष-उल्लास से आरंभ हुआ। सभी ऋषि-मुनि अपने-अपने
कार्य में संलग्न हो गए। तभी वहां महर्षि दधीचि पधारे। उस यज्ञ में भगवान शंकर को न
पाकर दधीचि बोले-हे श्रेष्ठ देवताओ और महर्षियो! मैं आप सभी को श्रद्धापूर्वक नमस्कार
करता हूं। हे श्रेष्ठजनो! आप सभी यहां इस महान यज्ञ में पधारे हैं। मैं आप सबसे यह पूछना
चाहता हूं कि मुझे इस यज्ञ में त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं।
उनके बिना यह यज्ञ मुझे सूना लग रहा है। उनकी अनुपस्थिति से यज्ञ की शोभा कम हो गई
है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि भगवान शिव की कृपा से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। वे
परम सिद्ध पुरुष, नीलकंठधारी प्रभु शंकर, यहां क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं? जिनकी कृपा से
अमंगल भी मंगल हो जाता है, जो सर्वथा सबका मंगल करते हैं, उन भगवान शिव का यज्ञ में
उपस्थित होना बहुत आवश्यक है। इसलिए आप सभी को यज्ञ के सकुशल पूर्ण होने के लिए
परम कल्याणकारी भगवान शिव को अनुनय-विनय कर इस यज्ञ में लाना चाहिए। तभी इस
यज्ञ की पूर्ति हो सकती है। इसलिए आप सभी श्रेष्ठजन तुरंत कैलाश पर्वत पर जाएं और
भगवान शिव और देवी सती को यज्ञ में ले आएं। उनके आने से यह यज्ञ पवित्र हो जाएगा। वे
परम पुण्यमयी हैं। उनके यहां आने से ही यह यज्ञ पूरा हो सकता है।
महर्षि दधीचि की बातों को सुनकर दक्ष हंसते हुए बोला कि भगवान विष्णु देवताओं के
मूल हैं। अतः मैंने उन्हें सादर यहां बुलाया है। जब वे यहां उपस्थित हैं तो भला यज्ञ में क्या
कमी हो सकती है। भगवान विष्णु के साथ-साथ ब्रह्माजी भी वेदों, उपनिषदों और विविध
आगमों के साथ यहां पधारे हैं। देवगणों सहित इंद्र भी यहां उपस्थित हैं। वेद और वेदतत्वों
को जानने वाले तथा उनका पालन करने वाले सभी महर्षि यज्ञ में आ चुके हैं। जब सभी
देवगण एवं श्रेष्ठजन यहां उपस्थित हैं तो रुद्रदेव की यहां क्या आवश्यकता है? मैंने सिर्फ
ब्रह्माजी के कहने पर अपनी पुत्री सती का विवाह शिवजी से कर दिया था। मैं जानता हूं कि
वे कुलहीन हैं। उनके माता-पिता का कुछ भी पता नहीं है। वे भूतों, प्रेतों और पिशाचों के
स्वामी हैं। वे स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते हैं। वे मूढ़, जड़, मौनी और इर्ष्यालु होने के कारण
यज्ञ में बुलाए जाने के योग्य नहीं हैं। अतः दधीचि जी, आप उन्हें यज्ञ में बुलाने के लिए न
कहें। आप सब ऋषि-मुनि मिलकर अपने सहयोग से मेरे इस यज्ञ को सफल बनाएं।
दक्ष की बात सुनकर दधीचि मुनि बोले-हे दक्ष! परम कल्याणकारी भगवान शिव को
यज्ञ में न बुलाकर तुमने इस यज्ञ को पहले ही भंग कर दिया है। यह यज्ञ कहलाने लायक ही
नहीं है। तुमने भगवान शिव को निमंत्रण न देकर उनकी अवहेलना की है। इसलिए तुम्हारा
विनाश निश्चित है, यह कहकर दधीचि वहां से अपने आश्रम चले गए। उनके पीछे-पीछे
भगवान शिव का अनुसरण करने वाले सभी ऋषि-मुनि भी वहां से चले गए। दक्ष के समर्थकों
ने यज्ञ छोड़कर गए ऋषियों-मुनियों के प्रति व्यंग्य भरे वचनों का प्रयोग किया। इस प्रकार
प्रसन्न होकर दक्ष बोलने लगे कि यह बहुत अच्छी बात है कि मंदबुद्धि और मिथ्यावाद में लगे
दुराचारी मनुष्य सभी इस यज्ञ का त्याग करके स्वयं ही चले गए हैं। भगवान विष्णु और
ब्रह्माजी, जो कि सभी वेदों के ज्ञाता हैं और वेद तत्वों से परिपूर्ण हैं, इस यज्ञ में उपस्थित हैं।
ये ही मेरे यज्ञ को सफल बनाएंगे।
ब्रह्माजी बोले कि दक्ष की ये बातें सुनकर वे सभी शिव माया से मोहित हो गए। सभी
देवर्षि आदि देवताओं का पूजन करने लगे। इस प्रकार यज्ञ पुनः आरंभ हो गया। मुनिश्रेष्ठ!
इस प्रकार वहां यज्ञस्थल पर रुके अनेक देवर्षि और मुनि वहां पुनः यज्ञ को पूर्ण करने हेतु
पूजन करने लगे।
अट्टाईसवां अध्याय
सती का दक्ष के यज्ञ में आना
ब्रह्माजी कहते है-नारद! जिस समय देवता और ऋषिगण दक्ष के यज्ञ में भाग लेने के
लिए उत्सव करते हुए जा रहे थे, उस समय दक्ष की पुत्री सती अपनी सखियों के साथ
गंधमादन पर्वत पर धारागृह में अनेक क्रीड़ाएं कर रही थीं। सती ने देखा कि रोहिणी के साथ
चंद्रमा कहीं जा रहे थे। तब सती ने अपनी प्रिय सखी विजया से कहा कि विजये! जल्दी
जाकर पूछो कि देवी रोहिणी और चंद्र कहां जा रहे हैं? तब विजया दौड़कर चंद्रदेव के पास
गई और उन्हें नमस्कार करके उनसे पूछा कि हे चंद्रदेव! आप कहां जा रहे हैं? चंद्रदेव ने उत्तर
दिया कि वे दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में निमंत्रित हैं, अतः वहीं जा रहे हैं। यज्ञोत्सव के बारे में
सुनकर देवी विजया तुरंत देवी सती के पास आई और सारी बातों से सती को अवगत
कराया। तब देवी सती को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसी क्या बात है, जो पिताजी ने यज्ञोत्सव
के लिए अपनी बेटी-दामाद को निमंत्रण तो दूर, सूचना भी नहीं दी। बहुत सोचने पर भी
उनकी समझ में कुछ नहीं आ सका। असमंजस की स्थिति में वे अपने पति महादेव जी के
पास गई और उनसे कहने लगीं।
सती बोलीं-हे महादेव जी! मुझे ज्ञात हुआ है कि मेरे पिताश्री दक्ष जी ने एक बहुत बड़े
यज्ञोत्सव का आयोजन किया है। जिसमें उन्होंने सभी देवर्षियों, महर्षियों एवं देवताओं को
आमंत्रित किया है। सभी देवता और ऋषिगण वहां एकत्रित हो चुके हैं। हे प्रभु! मुझे बताइए
कि आप वहां क्यों नहीं जा रहे हैं? आप सभी सुहृदयों से मिलने को हमेशा आतुर रहते हैं।
आप भक्तवत्सल हैं। प्रभो! उस महायज्ञ में सभी आपके भक्त पधारे हैं। आप मेरी प्रार्थना
मानकर आज ही मेरे साथ मेरे पिता के उस महान यज्ञ में चलिए। सती इस प्रकार भगवान
शंकर से यज्ञशाला में चलने की प्रार्थना करने लगीं।
सती की प्रार्थना सुनकर भगवान महेश्वर बोले-हे देवी! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही
हो गए हैं। वे मुझसे बैर की भावना रखते हैं। इसी कारण उन्होंने मुझे निमंत्रण नहीं दिया और
जो बिना बुलाए दूसरों के घर जाते हैं, वे मरण से भी अधिक अपमान पाते हैं। हे देवी! उस
यज्ञ में सभी अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य देवता और ऋषि ही हैं। उत्तम व्रत का पालन
करने वाले और मेरा पूजन करने वाले सभी ऋषि-मुनियों और देवताओं ने उस महायज्ञ का
त्याग कर दिया है तथा अपने-अपने धाम को वापस चले गए हैं। अतः प्रिये, हमारा उस यज्ञ
में जाना अनुचित है। वैसे भी बिना बुलाए जाना अपना अपमान कराना है।
शिवजी के इन वचनों को सुनकर देवी सती क्रुद्ध हो गई और शिवजी से बोलीं-हे प्रभु!
आप तो सबके परमेश्वर हैं। आपके उपस्थित होने से यज्ञ सफल हो जाते हैं। आपको मेरे दुष्ट
पिता ने आमंत्रित नहीं करके आपका अपमान किया है। भगवन्! मैं ऐसा करने का प्रयोजन
जानना चाहती हूं कि क्यों मेरे पिता ने आपका अनादर किया है? इसलिए मैं अपने पिता के
यज्ञ में जाना चाहती हूं, ताकि इस बात का पता लगा सकूं। अतः प्रभु! आप मुझे आज्ञा
प्रदान करें।
देवी सती के क्रोधित शब्दों को सुनकर भगवान शंकर बोले--हे देवी! यदि तुम्हारी इच्छा
वहां जाने की है तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि अपने पिता के यज्ञ में जाओ। नंदीश्वर को
सजाकर, उस पर चढ़कर अपने संपूर्ण वैभव के साथ अपने पिता के यहां जाओ। शिवजी की
आज्ञा मानकर देवी सती ने उत्तम शृंगार किया और अनेक प्रकार के आभूषण धारण करके
देवी सती अपने पिता के घर की ओर चल दीं। उनके साथ शिवजी ने साठ हजार रौद्रगणों को
भी भेजा। वे सभी गण उत्सव रचाकर देवी का गुणगान करते हुए दक्ष के घर की ओर जाने
लगे। शिवगणों ने पूरे रास्ते शिव-शिवा के यश का गान किया। उस यात्रा काल में जगदंबा
बहुत शोभा पा रही थीं। उनकी जय-जयकार से सारी दिशाएं गूंज रही थीं।
उन्तीसवां अध्याय
यज्ञशाला में सती का अपमान
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! दक्षकन्या देवी सती उस स्थान पर गईं जहां महान यज्ञोत्सव चल
रहा था। जहां देवता, असुर और मुनि, साधु-संत अग्नि में मंत्रोच्चारण के साथ आहुतियां
डाल रहे थे। सती ने अपने पिता के घर में अनेक आश्चर्यजनक बहुमूल्य वस्तुएं देखीं। अनेक
मनोहारी और उत्तम आभा से परिपूर्ण धन्य-धान्य से युक्त दक्ष का भवन अनोखी शोभा पा
रहा था। देवी सती नंदी से उतरकर अकेली ही यज्ञशाला के अंदर चली गई। सती को वहां
आया देखकर उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुई और देवी सती का खूब आदर सत्कार
करने लगीं। परंतु उनके पिता दक्ष ने उनको देखकर कोई खुशी जाहिर न की और न ही
उनकी तरफ ध्यान दिया। दक्ष के भय से ही अन्य लोगों ने भी देवी सती का आदर नहीं
किया। सभी के व्यवहार में तिरस्कार देखकर देवी सती को बहुत आश्चर्य हुआ। फिर भी
उन्होंने अपने माता-पिता के चरणों में मस्तक झुकाया। देवी सती ने यज्ञ में सभी देवताओं का
अलग-अलग भाग देखा। जब सती को अपने पति भगवान शिव का भाग वहां दिखाई नहीं
दिया तो उन्हें बहुत क्रोध आया। अपमानित होने के कारण देवी सती दक्ष को लताड़ते हुए
बोलीं-हे प्रजापति! आपने परम मंगलकारी भगवान शिव को इस यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया?
जिनकी उपस्थिति से ही सारा जगत पवित्र हो जाता है। भगवान शिव यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं।
वे ही यज्ञ के अंग हैं। वे ही यजमान हैं। जब सबकुछ वे ही हैं तो उनके बिना इस महायज्ञ की
सिद्धि कैसे हो सकती है? उनके बिना तो यह यज्ञ अपवित्र है। आपने भगवान शिव को
सामान्य समझकर उनका घोर अनादर किया है। शायद आपकी बुद्धि के भ्रष्ट होने के कारण
ही ऐसा हुआ है। मुझे तो यह समझ में नहीं आ रहा है कि बिना भगवान शिव के आए ये
विष्णु और ब्रह्मा सहित सभी ऋषि-मुनि इस यज्ञ में कैसे आ गए?
तब देवी सती मेरे सम्मुख खड़ी हुई और विष्णु सहित सभी उपस्थित देवताओं व ऋषियों
और मुनियों को डांटने लगीं और उन्हें बहुत फटकारा।
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! क्रोध से भरी देवी जगदंबा ने अत्यंत दुखी मन से हम
सभी देवता और मुनियों को बहुत सी बातें सुनाई। देवी सती की बातें सुनकर कोई भी कुछ
नहीं बोला परंतु उनके पिता दक्ष उनके वचनों से बहुत अधिक क्रोधित हो गए और इस प्रकार
बोले
दक्ष ने कहा--हे पुत्री सती! तुम्हारे इस प्रकार के वचनों से क्या लाभ होगा? तुम बिना
बात के सभी का अपमान कर रही हो। वैसे भी मैने तुम्हें यहां आने का कोई निमंत्रण नहीं
दिया था तो तुम क्यों चली आई? तुम यहां खड़ी रहो या वापस चली जाओ, तुम्हारी इच्छा है।
वैसे भी यहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि-मुनि यह जानते हैं कि तुम्हारे पति शिव
अमंगलकारी हैं। उन्हें वेदों से बहिष्कृत किया गया है। वे भूतों, प्रेतों तथा पिशाचों के स्वामी
हैं। उन्होंने बहुत बुरा वेश धारण किया है। इसलिए मैंने रुद्र को इस महायज्ञ में नहीं बुलाया
है। मैंने बिना सोचे-समझे ब्रह्माजी के कहने पर तुम्हारा विवाह उनसे कर दिया। नहीं तो शिव
इस योग्य नहीं हैं कि उनसे किसी भी प्रकार से कोई संबंध बनाया जाए। अब तुम आ ही गई
हो तो स्थान ग्रहण कर लो। आगे तुम्हारी जैसी इच्छा। हमारा कोई आग्रह नहीं है।
दक्ष की ये बातें सुनकर उनकी दुहिता सती ने अपने पति की बुराई करने वाले अपने पिता
को देखा तो उनके मन में रोष बढ़ गया। वे क्रोध से भर गईं। तब वे मन में ही विचार करने
लगीं कि अब मैं शिवजी के सामने कैसे जाऊंगी? यदि किसी तरह उनके पास चली भी गई
तो उनके द्वारा यज्ञ का समाचार पूछने पर क्या कहूंगी? यह सब सोचकर वे अपने पिता दक्ष
से बोलीं-जो त्रिलोकीनाथ करुणानिधान महादेव जी की निंदा करता अथवा सुनता है वह
हमेशा के लिए नरक में जाता है। अर्थात जब तक सूर्य और चंद्रमा का अस्तित्व है, उसे नरक
भोगना पड़ता है। इस प्रकार देवी सती को वहां आने पर बहुत पश्चाताप हो रहा था। अपने
पति भगवान शिव की अवहेलना को वह सहन नहीं कर पा रही थीं। तब वे अपने पिता दक्ष
सहित अन्य देवताओं से कहने लगीं।
देवी सती बोलीं-तुम सभी भगवान शिव के निंदक हो। तुमने उनकी अवहेलना होते
देखकर प्रभु शिव का अपमान किया है। इस पाप का फल तुम सभी को अवश्य भोगना
पड़ेगा। जो लोग भक्ति और ज्ञान से विमुख हैं, वे यदि ऐसा कार्य करें तो कोई आश्चर्य नहीं
होता परंतु जिन लोगों ने अज्ञान के अंधेरों को दूर कर अपने ज्ञान चक्षुओं को खोल लिया है,
जो महात्माओं के चरणों की धूल से अपने को शुद्ध और पवित्र कर चुके हैं, उन्हें किसी से बैर
भाव रखना, इर्ष्या करना और निंदा करना कतई शोभा नहीं देता है। भगवान के श्रीचरणों का
ध्यान करते हुए उनका दो अक्षर का नाम *शिव' का उच्चारण करने से ही सारे पाप धुल जाते
हैं। तुम मूर्खता के वश में होकर उन्हीं भगवान का अनादर कर रहे हो। उनसे द्रोह करके तुम्हे
कुछ भी हासिल नहीं होगा। उदार भगवान महादेव जी जटा और कपाल धारण किए श्मशान
में भूतों के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं। वे शरीर पर भस्म लगाए और गले में नरमुंडों की
माला धारण करते हैं। फिर भी मनुष्य उनके चरणों की धूल अपने माथे पर लगाते हैं, क्योंकि
वे साक्षात परमेश्वर हैं। वे परम ब्रह्म परमात्मा हैं। वे ऐश्वर्य से सदा ही दूर रहते हैं। जो ऐसे
महापुरुष की निंदा करता है, उसके जीवन को धिक्कार है। मैंने भी तुम्हारे द्वारा की गई अपने
पति भगवान शिव की निंदा को सुना है। इसलिए मैं अपने शरीर को त्याग दूंगी। इस यज्ञ की
अग्ने में प्रवेश कर मैं भस्म हो जाऊंगी। मैंने अपने प्रिय पति भगवान शिव का अनादर देख
भी लिया है और उनके प्रति अपने पिता के कटु वचनों को भी सुन लिया है। अतः अब मैं इस
जीवन का क्या करूं? मैं इस समय पूर्णतः असमर्थ हूं।
इस यज्ञशाला में जो भी शक्तिवान और सामर्थ्यवान पुरुष हो, वह भगवान शिव की उपेक्षा
करने वालों और उन्हें बुरा और अमंगलकारी कहने वाले की जीभ काट दे। तभी वह शिव
निंदा सुनने के पाप से बच सकता है। जो ऐसा करने में समर्थ न हो तो उसे अपने दोनों कानों
को बंद करके यहां से तुरंत चले जाना चाहिए। तभी वह दोषमुक्त होगा। फिर देवी सती अपने
पिता दक्ष की ओर मुख करके बोलीं-जब मेरे पति महादेव जी मुझे आपके साथ संबंध होने
के कारण दाक्षायणी कहकर पुकारेंगे तो मैं कैसे कुछ कह पाऊंगी। हे पिताजी! आपने मेरे
पति का घोर अपमान करके मुझे उनके सामने जाने लायक भी नहीं छोड़ा। इसलिए मेरे पास
अब एक ही रास्ता शेष है। मैं आपके द्वारा प्राप्त इस घृणित शरीर का आपके सामने ही त्याग
कर दूंगी। तत्पश्चात सती वहां उपस्थित सभी देवताओं से बोलीं कि तुम सबने करुणानिधान
भगवान शिव की निंदा सुनी है। इसलिए तुम्हारे कमोँ का दुष्परिणाम तुम्हें अवश्य मिलेगा।
मेरे पति भगवान शिव तुम सबको इसका दंड अवश्य ही देंगे।
उस समय देवी बहुत क्रोधित थीं। यह सब कहकर वे चुप हो गई और अपने मन में अपने
प्राणवल्लभ भगवान शिव का स्मरण करने लगीं।
तीसवां अध्याय
सती द्वारा योगाग्नि से शरीर को भस्म करना
ब्रह्माजी से श्री नारद जी ने पूछा--हे पितामह! जब सती जी ऐसा कहकर मौन हो गईं तब
वहां क्या हुआ? देवी सती ने आगे क्या किया? इस प्रकार नारद जी ने अनेक प्रश्न पूछ डाले
और ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि वे आगे की कथा सविस्तार सुनाएं। यह सुनकर ब्रह्माजी
मुस्कुराए, और प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे
हे नारद! मौन होकर देवी सती अपने पति भगवान शिव का स्मरण करने लगीं। उनका
स्मरण करने के बाद उनका क्रोधित मन शांत हो गया। तब शांत मनोभाव से शिवजी का
चिंतन करती हुई देवी सती पृथ्वी पर उत्तर की ओर मुख करके बैठ गई। तत्पश्चात विधिपूर्वक
जल से आचमन करके उन्होंने वस्त्र ओढ़ लिया। फिर पवित्र भाव से उन्होंने अपनी दोनों
आंखें मूंद लीं और पुनः शिवजी का चितन करने लगीं। सती ने प्राणायाम से प्राण और अपान
को एकरूप करके नाभि में स्थित कर लिया। सांसों को संयत कर नाभिचक्र के ऊपर हृदय में
स्थापित कर लिया। सती ने अपने शरीर में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि को स्थापित
कर लिया। तब उनका शरीर योग मार्ग में स्थित हो गया। उनके हृदय में शिवजी विद्यमान थे।
यही वह समय था जब उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था। उनका शरीर यज्ञ की पवित्र
योगाग्नि में गिरा और पल भर में ही भस्म हो गया। वहां उपस्थित मनुष्यों सहित देवताओं ने
जब यह देखा कि देवी सती भस्म हो गई हैं, तो आकाश और भूमि पर हाहाकार मच गया।
यह हाहाकार सभी को भयभीत कर रहा था। सभी लोग कह रहे थे कि किस दुष्ट के
दुर्व्यवहार के कारण भगवान शिव की पत्नी सती ने अपनी देह का त्याग कर दिया। तो कुछ
लोग दक्ष की दुष्टता को धिक्कार रहे थे, जिसके व्यवहार से दुखी होकर देवी सती ने यह
कदम उठाया था। सभी सत्पुरुष उनका सम्मान करते थे। उनका हृदय असहिष्णु था। उन्होंने
ऐसी महान देवी और उनके पति करुणानिधान भगवान शिव का अनादर और निंदा करने
वाले दक्ष को भी कोसा। सभी कह रहे थे कि दक्ष ने अपनी ही पुत्री को प्राण त्यागने के लिए
मजबूर किया है। इसलिए दक्ष अवश्य ही महा नरक में जाएगा और पूरे संसार में उसका
अपयश होगा।
दूसरी ओर, देवी सती के साथ पधारे सभी शिवगणों ने जब यह दृश्य देखा तो उनके क्रोध
की कोई सीमा न रही। वे तुरंत अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिए दौड़े। वे साठ
हजार पार्षदगण क्रोध से चिल्ला रहे थे और अपने को ही धिक्कार रहे थे कि यहां उपस्थित
होते हुए भी हम अपनी माता देवी सती की रक्षा नहीं कर पाए। उनमें से कई पार्षदों ने तो
स्वयं अपने शरीर का त्याग कर दिया। बचे हुए सभी शिवगण दक्ष को मारने के लिए बड़ी
तेजी से आगे बढ़ रहे थे। जब ऋषि भृगु ने उन्हें आक्रमण के लिए आगे बढ़ते हुए देखा तो
उन्होंने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिए यजुर्मत्र पढ़कर दक्षिणाग्नि में
आहुति दे दी। आहुति के प्रभाव के फलस्वरूप यज्ञकुण्ड में से ऋभु नामक अनेक देवता, जो
प्रबल वीर थे, वहां प्रकट हो गए। ऋभु नामक सहस्रों देवताओं और शिवगणों में भयानक
युद्ध होने लगा। वे देवता ब्रह्मतेज से संपन्न थे। उन्होंने शिवगणों को मारकर तुरंत भगा दिया।
इससे वहां यज्ञ में और अशांति फैल गई। सभी देवता और मुनि भगवान विष्णु से इस विघ्न
को टालने की प्रार्थना करने लगे। देवी सती का भस्म हो जाना और भगवान शिव के गणों को
मारकर वहां से भगाए जाने का परिणाम सोचकर सभी देवता और ऋषि विचलित थे। हे
नारद! इस प्रकार दक्ष के उस महायज्ञोत्सव में बहुत बड़ा उत्पात मच गया था और सब ओर
त्राहि-त्राहि मच गई थी। सभी भावी परिणाम की आशंका से भयभीत दिखाई दे रहे थे।
इकतीसवां अध्याय
आकाशवाणी
ब्रह्माजी कहते हैं--हे नारद! जब दक्ष के उस महान यज्ञ में घोर उत्पात मचा हुआ था और
सभी डर के कारण भयभीत हो रहे थे तो उस समय वहां पर एक आकाशवाणी हुई।
हे मूर्ख दक्ष! तूने यह बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया है। तूने शिव भक्त दधीचि के कथन को
प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिए परम मंगलकारी और आनंददायक था। तूने उनका भी
अपमान किया और वे तुझे शाप देकर तेरी यज्ञशाला से चले गए। तब भी तू कुछ भी नहीं
समझा। तूने अपने घर में स्वयं आई, साक्षात मंगल स्वरूपा अपनी पुत्री सती का अपमान
किया। तूने सती और शंकर का पूजन भी नहीं किया। अपने को ब्रह्माजी का पुत्र समझकर
तुझे बहुत घमंड हो गया था। तूने उस सती देवी का अपमान किया जो सत्पुरुषों की भी
आराध्या हैं। वे समस्त पुण्यों का फल देती हैं। वे तीनों लोकों की माता, कल्याणस्वरूपा और
भगवान शंकर की अद्धागिनी हैं। सती देवी प्रसन्न होने पर सुख और सौभाग्य प्रदान करती
हैं। वे परम मंगलकारी हैं। देवी सती की पूजा करने से समस्त भयों से छुटकारा मिल जाता है
और मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। देवी सभी उपद्रवों को नष्ट कर देती हैं। वे ही
पराशक्ति हैं तथा कीर्ति, संपत्ति, भोग और मोक्ष प्रदान करती हैं। वे ही जन्मदात्री हैं अर्थात
जन्म देने वाली माता हैं। वे ही इस जगत की रक्षा करने वाली आदि शक्ति हैं और वे ही
प्रलयकाल में जगत का संहार करने वाली हैं। सती ही भगवान विष्णु सहित ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र
अग्नि, सूर्यदेव आदि सभी देवताओं की जननी हैं। वे साक्षात जगदंबा हैं। वे ही दुष्टों का नाश
करने वाली और भक्तों की रक्षा करने वाली हैं। ऐसी उत्तम महिमा और गुणों वाली भगवान
शिव की प्राणप्रिया धर्मपत्नी का तूने इस यज्ञ में अपमान किया है।
भगवान शिव तो परमब्रह्म परमेश्वर हैं। वे सबके स्वामी हैं। वे सबका कल्याण करते हैं।
सभी मनुष्य प्रभु का दर्शन पाने की अभिलाषा सदैव अपने मन में रखते हैं। दर्शनों की इच्छा
लिए घोर तपस्या करते हैं। वे भगवान शिव ही जगत को धारण कर उसका पालन-पोषण
करते हैं। वे ही समस्त विद्याओं के ज्ञाता और मंगलों का भी मंगल करने वाले हैं। वे ही
समस्त मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। हे दुष्ट दक्ष! तूने उन परम शक्तिशाली भगवान शिव
की शक्ति की अवहेलना करके बहुत बुरा किया है। इसलिए तेरे इस महायज्ञ के विनाश को
कोई नहीं रोक सकता। जिनके चरणों की धूल शेषनाग रोज अपने मस्तक पर धारण करता
है, जिनके चरणकमल का ध्यान करने से ब्रह्मा को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ है, तूने उनका और
उनकी पत्नी सती का पूजन न करके बहुत अनिष्ट किया है। भगवान शिव ही इस संपूर्ण
जगत के पिता और उनकी पत्नी देवी सती इस जगत की माता हैं। तूने उन माता-पिता का
सत्कार न कर उनका घोर अपमान किया है। अब तेरा कल्याण कैसे हो सकता है? तूने स्वयं
दुर्भाग्य से अपना नाता जोड़ लिया है। तूने देवी सती और भगवान शिव की भक्तिभाव से
आराधना नहीं की। तेरी यह सोच ही कि कल्याणकारी शिव का पूजन किए बिना भी मैं
कल्याण का भागी हो सकता हूं, तुझे ले डूबी है। तेरा सारा घमंड नष्ट हो जाएगा। यहां बैठा
कोई भी देवता शिवजी के विरुद्ध होकर तेरी सहायता नहीं कर पाएगा। यदि करना भी
चाहेगा तो स्वयं भी नष्ट हो जाएगा। अब तेरा अमंगल निश्चित है। सभी देवता और मुनिगण
यज्ञ मण्डप को छोड़कर तुरंत यहां से अपने-अपने धाम को चले जाएं अन्यथा सबका नाश
हो जाएगा।
इस प्रकार यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोगों को चेतावनी देकर वह आकाशवाणी मौन हो
गई।
बत्तीसवां अध्याय
शिवजी का क्रोध
ब्रह्माजी कहते हैं--नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवता और मुनि आश्चर्य से
इधर-उधर देखने लगे। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। वे अत्यंत भयभीत हो गए।
उधर, भृगु के मंत्रों से उत्पन्न गणों द्वारा भगाए गए शिवगण, जो कि न्ट होने से बच गए थे,
शिवजी की शरण में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और
वहां यज्ञ में जो कुछ भी हुआ था, उसका और सती के शरीर त्यागने का सारा वृत्तांत उन्हें
सुनाया।
शिवगण बोले-हे महेश्वर! दक्ष बड़ा ही दुरात्मा और घमंडी है। उसने माता सती का बहुत
अपमान किया। वहां उपस्थित देवताओं ने भी उनका आदर-सत्कार नहीं किया। उस घमंडी
दक्ष ने यज्ञ में आपका भाग भी नहीं दिया। हे प्रभु! दक्ष ने आपके प्रति बुरे शब्द कहे। आपके
विषय में ऐसी बातें सुनकर माता क्रोधित हो गई और उन्होंने पिता की बहुत निंदा की। जब
दक्ष ने उनका भी अपमान किया तो वे शांत होकर सोचने लगीं। फिर उन्होंने वहां उपस्थित
सभी देवताओं और मुनियों को फटकारा, जिन्होंने आपका अनादर किया था। उन्होंने कहा
कि शिव निंदा सुनकर मैं जीवित नहीं रह सकती। यह कहकर उन्होंने योगाग्नि में जलकर
अपना शरीर भस्म कर दिया। यह देखकर बहुत से पार्षदों ने माता के साथ ही अपने शरीर
की आहुति दे दी। तब हम सब शिवगण उस यज्ञ को विध्वंस करने के लिए तेजी से आगे बढ़े
परंतु भृगु ऋषि ने मंत्रों द्वारा गणों को उत्पन्न कर हम पर आक्रमण कर दिया। हममें से बहुत
से गणों को उन भृगु के गणों ने मार डाला। तब वहां आकाशवाणी हुई, जिसने कहा कि दक्ष
तुम्हारा अंत अब निश्चित है तथा जो भी देवता एवं मुनि तुम्हारा साथ देंगे वे भी पाप के भागी
बनकर मृत्यु को प्राप्त होंगे। यह सुनकर सभी उपस्थित लोग वहां से चले गए और हम यहां
आपको इस विषय में बताने के लिए आपके पास चले आए। हे कल्याणकारी भगवान शिव!
आप उस महादुष्ट अधर्मी दक्ष को उसके अपराध का कठोर दंड अवश्य दे। यह कहकर सभी
गण चुप हो गए।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! अपने पार्षदों की बातें सुनकर भगवान शिव ने उस यज्ञ की सारी
बातें और जानकारी जानने के लिए तुम्हारा स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही तुम वहां जा
पहुंचे और भक्तिभाव से नमस्कार करके चुपचाप खड़े हो गए। तब महादेव जी ने तुमसे दक्ष
के यज्ञ के विषय में पूछा। तब तुमने उत्तम भाव से उस यज्ञशाला में जो-जो हुआ था, वह सब
वृत्तांत उन्हें सुना दिया। सारी बातों से अवगत होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए।
पराक्रमी शंकर के क्रोध का कोई अंत न रहा। तब लोकसंहारी शंकर ने अपनी जटा का एक
बाल उखाड़कर उसे कैलाश पर्वत पर दे मारा। जैसे ही वह बाल जमीन पर गिरा उसके दो
टुकड़े हो गए। उस समय वहां बहुत भयंकर गर्जना हुई। बाल के प्रथम भाग से महापराक्रमी,
महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों में शिरोमणि हैं। उनका शरीर बहुत बड़ा
और विशाल था। उनकी एक हजार भुजाएं थीं। उस जटा के दूसरे भाग से अत्यंत भयंकर
और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुई। उस समय रद्र देव के क्रोधपूर्वक सांस
लेने से सौ प्रकार के ज्वर और अनेक प्रकार के रोग पैदा हो गए। वे सभी शरीरधारी, क्रूर और
भयंकर थे। वे अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित थे। तब वीरभद्र और महाकाली ने दोनों हाथ
जोड़कर भगवान शिव को प्रणाम किया।
वीरभद्र बोले-हे महारुद्र! आपने सोम, सूर्य और अग्नि को अपने तीनों नेत्रों में धारण
किया है। हे प्रभु! कृपा कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मुझे क्या कार्य करना है? क्या मुझे पृथ्वी
के सभी समुद्रों को एक क्षण में सुखाना है या संपूर्ण पर्वतों को पीसकर पल भर में ही
मसलकर चूर्ण बनाना है? है प्रभु! मैं इस ब्रह्माण्ड को भस्म कर दूं या मुनियों को जला दूं।
भगवन्, आपका आदेश पाकर मैं समस्त लोकों में उलट-पुलट कर सकता हूं। आपके इशारा
करने से ही मैं जगत के समस्त प्राणियों का विनाश कर सकता हूं। आपकी आज्ञा पाकर मैं
इस संसार में सभी कार्यों को कर सकता हूं। हे प्रभु! मेरे समान पराक्रमी न तो कोई हुआ है
और न ही होगा। भगवन्, आपकी आज्ञा से हर कार्य सिद्ध हो सकता है। मुझे ये सभी
शक्तियां आपकी ही कृपा से प्राप्त हुई हैं। बिना आपकी आज्ञा के एक तिनका भी नहीं हिल
सकता है। हे करुणानिधान! गैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। आप अपने कार्य की
सिद्धि की जिम्मेदारी मुझे सौंपिए। मैं उसे पूर्ण करने का पूरा प्रयास करूंगा। हे प्रभु! आपके
चरणों का मैं हर समय चिंतन करता रहता हूं। आपकी भक्ति परम उत्तम है। आप बिना कहे
ही अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूरा करके उन्हें मनोवांछित और अभीष्ट फल प्रदान
करते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। भगवन्, मुझे कार्य करने का आदेश दें तथा साथ ही उस कार्य
की सफलता का भी आशीर्वाद दे।
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ! वीरभद्र के ये वचन सुनकर शिवजी को बहुत संतोष हुआ
तथा उन्होंने वीरभद्र को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान शिव बोले-पार्षदों में श्रेष्ठ
वीरभद्र! तुम्हारी जय हो। ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा ही दुष्ट है। उसे अपने पर बहुत घमंड है।
इस समय वह एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा है। उसने उस यज्ञ में मेरा बहुत अपमान किया है।
मेरी पत्नी ने मेरा अपमान होता हुआ देखकर उसी यज्ञ की अग्ने में अपने शरीर को भस्म
कर दिया है। अब तुम सपरिवार उस यज्ञ में जाओ। वहां यज्ञशाला में जाकर तुम उस यज्ञ को
विनष्ट कर दो। यदि देवता, गंधर्व अथवा कोई अन्य तुम्हारा सामना करे और तुम्हें ललकारे तो
तुम उसे वहीं भस्म कर देना।
दधीचि की दी हुई चेतावनी के बाद भी जो देवतागण वहां यज्ञ में मौजूद हैं, तुम उन्हें भी
भस्म कर देना क्योंकि वे सभी मुझसे बैर रखते हैं। तुम उन सभी को बंधु-बांधवों सहित
जलाकर भस्म कर देना। वहां कलशीं में भरे हुए जल को पी लेना।
इस प्रकार वैदिक मर्यादा के पालक, भक्तवत्सल करुणानिधान शिव ने क्रोधित होकर
वीरभद्र को यज्ञ का विनाश करने का आदेश दिया।
तेंतीसवां अध्याय
वीरभद्र और महाकाली का यज्ञशाला की ओर प्रस्थान
ब्रह्माजी कहते हैं--नारद! महेश्वर के आदेश को आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र ने शिवजी
को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनसे आज्ञा लेकर वीरभद्र यज्ञशाला की ओर चल दिए। शिवजी
ने प्रलय की अग्नि के समान और करोड़ों गणों को उनके साथ भेज दिया। वे अत्यंत तेजस्वी
थे। वे सभी वीरगण कौतूहल से वीरभद्र के साथ-साथ चल दिए। उसमें हजारों पार्षद वीरभद्र
की तरह ही महापराक्रमी और बलशाली थे। बहुत से काल के भी काल भगवान रुद्र के
समान थे। वे शिवजी के समान ही शोभा पा रहे थे। तत्पश्चात वीरभद्र शिवजी जेसा वेश
धारण कर ऐसे रथ पर चढ़कर चले, जो चार सौ हाथ लंबा था और इस रथ को दस हजार
शेर खींच रहे थे और बहुत से हाथी, शार्दूल, मगर, मत्स्य उस रथ की रक्षा के लिए आगे-आगे
चल रहे थे। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता और
वैष्णवी नामक नव दुर्गाओं ने भी भूतों-पिशाचों के साथ दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए
उस ओर प्रस्थान किया। डाकिनी, शाकिनी, भूत-पिशाच, प्रमथ, गुह्यक, कूष्माण्ड, पर्पट,
चटक, ब्रह्मराक्षस, भैरव तथा क्षेत्रपाल आदि सभी वीरगण भगवान शिव की आज्ञा पाकर
दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए यज्ञशाला की ओर चल दिए। वे भगवान शंकर के
चौंसठ हजार करोड़ गणों की सेना लेकर चल दिए। उस समय भेरियों की गंभीर ध्वनि होने
लगी। अनेकों प्रकार के शंख चारों दिशाओं में बजने लगे। उस समय जटाहर, मुखों तथा शृंगों
के अनेक प्रकार के शब्द हुए। भिन्न-भिन्न प्रकार की सींगे बजने लगीं। महामुनि नारद! उस
समय वीरभद्र की उस यात्रा में करोड़ों सैनिक (शिवगण एवं भूत पिशाच) शामिल थे। इसी
प्रकार महाकाली की सेना भी शोभा पा रही थी।
इस प्रकार वीरभद्र और महाकाली दोनों की विशाल सेनाएं उस दक्ष के यज्ञ का विनाश
करने के लिए गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ने लगीं। उस समय अनेक शुभ शगुन होने लगे।
चौंतीसवां अध्याय
यज्ञ-मण्डप में भय और विष्णु से जीवन रक्षा की प्रार्थना
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! जब वीरभद्र और महाकाली की विशाल चतुरंगिणी सेना अत्यंत
तीव्र गति से दक्ष के यज्ञ की ओर बढ़ी तो यज्ञोत्सव में अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे।
वीरभद्र के चलते ही यज्ञ में विध्वंस की सूचना देने वाला उत्पात होने लगा। दक्ष की बायीं
आंख, बायीं भुजा और बायीं जांघ फड़कने लगी। वाम अंगों का फड़कना बहुत अशुभ होता
है। उस समय यज्ञशाला में भूकंप आ गया। दक्ष को कम दिखाई देने लगा। भरी दोपहर में
उसे आसमान में तारे दिखने लगे। दिशाएं धुंधली हो गईं। सूर्य में काले-काले धब्बे दिखाई देने
लगे। ये धब्बे बहुत डरावने लग रहे थे। बिजली और अग्ने के समान सारे नक्षत्र उन्हें टूट-
टूटकर गिरते हुए दिखने लगे। वहां यज्ञशाला में हजारों गिद्ध दक्ष के सिर पर मंडराने लगे।
उस यज्ञमण्डप को गिद्धों ने पूरा ढक दिया था। वहां एकत्र गीदड़ बड़ी भयानक और डरावनी
आवाजें निकाल रहे थे। सभी दिशाएं अंधकारमय हो गई थीं। वहां अनेक प्रकार के अपशकुन
होने लगे। फिर उसी समय वहां आकाशवाणी हुई--ओ महामूर्ख, दुष्ट दक्ष! तेरे जन्म को
धिक्कार है। तू बहुत बड़ा पापी है। तूने भगवान शिव की बहुत अवहेलना की है। तूने देवी
सती, जो कि साक्षात जगदंबा रूप हैं, का भी अनादर किया है। सती ने तेरी ही वजह से
अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया है। तुझे तेरे कर्मों का फल जरूर
मिलेगा। आज तुझे तेरी करनी का फल अवश्य ही मिलेगा। साथ ही यहां उपस्थित सभी
देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी अवश्य ही उनकी करनी का फल मिलेगा। भगवान शिव
तुम्हें तुम्हारे पापों का फल जरूर देंगे।
इस प्रकार कहकर वह आकाशवाणी मौन हो गई। उस आकाशवाणी को सुनकर और
वहां यज्ञशाला में प्रकट हो रहे अनेक अशुभ लक्षणों को देखकर दक्ष तथा वहां उपस्थित
सभी देवतागण भय से कांपने लगे। दक्ष को अपने द्वारा किए गए व्यवहार का स्मरण होने
लगा। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। तब दक्ष सहित सभी देवता श्रीहरि विष्णु
की शरण में गए। वे डरे हुए थे। भय से कांपते हुए वे सभी लक्ष्मीपति विष्णुजी से अपने
जीवन की रक्षा की प्रार्थना करने लगे।
पैंतीसवां अध्याय
वीरभद्र का आगमन
दक्ष बोले--हे विष्णु! कृपानिधान! मैं बहुत भयभीत हूं। आपको ही मेरी और मेरे यज्ञ की
रक्षा करनी है। प्रभु! आप ही इस यज्ञ के रक्षक हैं। आप साक्षात यज्ञस्वरूप हैं। आप हम सब
पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए। हम सब आपकी शरण में आए हैं। प्रभु! हमारी रक्षा करें, ताकि
यज्ञ का विनाश न हो।
ब्रह्मा जी कहते हैं--हे मुनि नारद! इस प्रकार जब दक्ष ने भगवान विष्णु के चरणों में
गिरकर उनसे प्रार्थना की, उस समय दक्ष का मन भय से बहुत अधिक व्याकुल था। तब
श्रीहरि ने दक्ष को उठाकर अपने मन में करुणानिधान भगवान शिव का स्मरण किया और
शिवतत्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले--दक्ष! तुम्हें तत्व का ज्ञान नहीं है,
इसलिए तुमने सबके अधिपति भगवान शंकर की अवहेलना की है। भगवान की स्तुति के
बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। उस कार्य में अनेक परेशानियां आती हैं। जहां
पूजनीय व्यक्तियों की पूजा नहीं होती, वहां गरीबी, मृत्यु तथा भय का निवास होता है।
इसलिए तुम्हें भगवान शिव का सम्मान करना चाहिए। परंतु तुमने महादेव का सम्मान और
आंदर-सत्कार नहीं किया, अपितु तुमने उनका घोर अपमान किया है। इसी के कारण तुम्हारे
ऊपर घोर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मैं तुम पर छाए इस संकट से तुम्हें उबारने में पूर्णतः
असमर्थ हूं।
ब्रह्माजी कहते है-नारद! भगवान विष्णु का वचन सुनकर दक्ष सोच में डूब गया। उसके
चेहरे का रंग उड़ गया और वे घोर चिता में पड़ गए। तभी भगवान शिव द्वारा भेजे गए गणों
सहित वीरभद्र और महाकाली का उनकी सेनाओं सहित उस यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। वे
सभी महान पराक्रमी थे। उनकी गणना करना असंभव था। उनके सिंहनाद से सारी दिशाएं
गूंज रही थीं। पूरे आसमान में धूल और अंधकार के बादल छाए हुए थे। पूरी पृथ्वी पर्वतों,
वनों और काननों सहित कांप रही थी। समुद्रो में ज्वार-भाटा उठ रहा था। उस विशालकाय
सेना को देखकर समस्त देवता आश्चर्यचकित थे। उन्हें देखकर दक्ष अपनी पत्नी के साथ
भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और बोले-हे प्रजापालक विष्णु! आपके बल से ही मैंने
इस विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। प्रभु! आप कमो के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक
हैं। आप ही धर्म के रक्षक हैं। अतः प्रभु श्रीहरि! आप ही यज्ञ को विनाश से बचा सकते हैं।
इस प्रकार दक्ष की विनतीपूर्ण बातों को सुनकर श्रीहरि उन्हें समझाते हुए बोले-दक्ष!
निश्चय ही मुझे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिए परंतु देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य की उस
घटना का स्मरण करो। इस यज्ञ के आयोजन में कया तुम उस घटना को भूल गए हो? यहां
इस यज्ञशाला की और तुम्हारी रक्षा करने में कोई भी देवता समर्थ नहीं है। इस समय जब
महादेव जी के गण और उनके सेनापति वीरभद्र तुम्हें भगवान शिव का अपमान करने का
दंड देने आए हैं, उस समय कोई मूर्ख ही तुम्हारी सहायता को आगे आ सकता है। दक्ष!
केवल कर्म ही समर्थ नहीं होता, अपितु कर्म को करने में जिसके सहयोग की आवश्यकता
होती है, उसका भी उतना ही महत्व है। भगवान शिव ही कर्मों के कल्याण की शक्ति देते हैं।
जो शांत मन से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करता है, महादेव जी उसे तत्काल ही उस
कर्म का फल देते हैं। जो मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, वे नरक के भागी होते हैं।
दक्ष! यह वीरभद्र शंकर के गणों का ऐसा सेनापति है, जो शिवजी के शत्रु का तुरंत नाश
कर देता है। निःसंदेह यह तुम्हारा तथा यहां पर उपस्थित सभी लोगों का नाश कर देगा।
शिवजी की आज्ञा का उल्लंघन करके, मैं तुम्हारे यज्ञ में आया हूं, जिसका दुष्परिणाम मुझे भी
भोगना पड़ेगा। अब इस विनाश को रोकने की शक्ति मेरे पास नहीं है। यदि हम यहां से
भागकर स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी कहीं भी छिप जाएं, तो भी वीरभद्र के शस्त्र हमें ढूंढ़ लेंगे।
शिवजी के सभी गण बहुत शक्तिशाली हैं। विष्णुजी यह कह ही रहे थे कि वीरभद्र अपनी
अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा।
छत्तीसवां अध्याय
श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध
ब्रह्माजी कहते है-नारद! जब शिवजी की आज्ञा पाकर वीरभद्र की विशाल सेना ने
यज्ञशाला में प्रवेश किया तो वहां उपस्थित सभी देवता अपने प्राणों की रक्षा के लिए
शिवगणों से युद्ध करने लगे परंतु शिवगणों की वीरता और पराक्रम के आगे उनकी एक न
चली। सारे देवता पराजित होकर वहां से भागने लगे। तब इंद्र आदि लोकपाल युद्ध के लिए
आगे आए। उन्होंने गुरुदेव बृहस्पति जी को नमस्कार कर उनसे विजय के विषय में पूछा।
उन्होंने कहा-हे गुरुदेव बृहस्पति! हम यह जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी?
उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति जी बोले-हे इंद्र! समस्त कमो का फल देने वाले तो
ईश्वर हैं। सभी को अपनी करनी का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। जो ईश्वर के अस्तित्व को
जानकर और समझकर उनकी शरण में आकर अच्छे कर्म करता है उसी को उसके सत्कर्मो
का फल मिलता है परंतु जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है, वह ईश्चरद्रोही कहलाता
है और उसे किसी भी अच्छे फल की प्राप्ति नहीं होती। उन परमपुण्य भगवान शिव के
स्वरूप को जानना अत्यंत कठिन है। वे सिर्फ अपने भक्तों के ही अधीन हैं। इसलिए उन्हें
भक्तवत्सल भी कहा जाता है। भक्ति और ईश्वर सत्ता में विश्वास न रखने वाले मनुष्य यदि
वेदों का दस हजार बार भी अध्ययन कर लें तो भी भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति
नहीं जान पाएंगे। भगवान शिव के शांत, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से ध्यान करने एवं उनकी
उपासना करने से ही शिवतत्व की प्राप्ति होती है। तुम उन करुणानिधान भगवान महेश्वर की
अवहेलना करने वाले उस मूर्ख दक्ष के निमंत्रण पर यहां इस यज्ञ में भाग लेने आ गए हो।
भगवान शिव की पत्नी देवी सती का भी इस यज्ञ में घोर अपमान हुआ है। उन्होंने इसी यज्ञ
में अपने प्राणों की आहुति दे दी है। इसी कारण भगवान शंकर ने रुष्ट होकर इस यज्ञ का
विध्वंस करने के लिए वीरभद्र के नेतृत्व में अपने शिवगणों को भेजा है। अब इस यज्ञ के
विनाश को रोक पाना किसी के भी वश में नहीं है। अब चाहकर भी तुम लोग कुछ नहीं कर
सकते।
बृहस्पति जी के ये वचन सुनकर इंद्र सहित अन्य देवता चिंता में पड़ गए। सभी वीरभद्र
और अन्य शिवगण उनके निकट पहुंच गए। वहां वीरभद्र ने उन सभी को बहुत डांटा और
फटकारा। गुस्से से वीरभद्र ने इंद्र सहित सभी देवताओं पर अपने तीखे बाणों से प्रहार करना
शुरू कर दिया। बाणों से घायल हुए सभी देवताओं में हाहाकार मच गया और वे अपने प्राणों
की रक्षा के लिए यज्ञमण्डप से भाग खड़े हुए। यह देखकर वहां उपस्थित सभी ऋषि-मुनि
भयभीत होकर श्रीहरि के सम्मुख प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब मैं और विष्णुजी
वीरभद्र से युद्ध करने के लिए उनके पास गए। हमें देखकर वीरभद्र जो पहले से ही क्रोधित
थे, हम सबको डांटने लगे। उनके कठोर वचनों को सुनकर विष्णुजी मुस्कुराते हुए बोले--हे
शिवभक्त वीरभद्र! मैं भी भगवान शिव का ही भक्त हूं। उनमें मेरी अपार श्रद्धा है। मैं उन्हीं का
सेवक हूं परंतु दक्ष अज्ञानी और मूर्ख है। यह सिर्फ कर्मकाण्डों में ही विश्वास रखता है। जिस
प्रकार महेश्वर भगवान अपने भक्तों के ही अधीन हैं उसी प्रकार मैं भी अपने भक्तों के ही
अधीन हूं। दक्ष मेरा अनन्य भक्त है। उसकी बारंबार प्रार्थना पर मुझे इस यज्ञ में उपस्थित
होना पड़ा। हे वीरभद्र! तुम रुद्रदेव के रौद्र रूप अर्थात क्रोध से उत्पन्न हुए हो। तुम्हें भगवान
शंकर ने इस यज्ञ का विनाश करने के लिए यहां भेजा है। उनकी आज्ञा तुम्हारे लिए शिरोधार्य
है। मैं इस यज्ञ का रक्षक हूं। अतः इसे बचाना मेरा पहला कर्तव्य है। इसलिए तुम भी अपना
कर्तव्य निभाओ और मैं भी अपना कर्तव्य निभाता हूं। हम दोनों को ही अपने उत्तरदायित्व
की रक्षा के लिए आपस में युद्ध करना पड़ेगा।
भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर, वीरभद्र हंसकर बोला कि आप मेरे परमेश्वर भगवान
शिव के भक्त हैं, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। भगवन्, मैं आपको नमस्कार करता हूं।
आप मेरे लिए भगवान शिव के समान ही पूजनीय हैं। मैं आपका आदर करता हूं परंतु शिव
आज्ञा के अनुसार मुझे इस यज्ञ का विनाश करना है। यह मेरा कर्तव्य है। यज्ञ का रक्षक होने
के नाते इसे बचाना आपका उत्तरदायित्व है। अतः हम दोनों को ही अपना-अपना कार्य करना
है। तब श्रीहरि और वीरभद्र दोनों ही युद्ध के लिए तैयार हो गए। तत्पश्चात दोनों में घोर युद्ध
हुआ। अंत में वीरभद्र ने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को जड़ कर दिया। उनके धनुष के
तीन टुकड़े कर दिए। वीरभद्र विष्णुजी पर भारी पड़ रहे थे। तब उन्होंने वहां से अंतर्धान होने
का विचार किया। सभी देवता व ऋषिगण यह समझ चुके थे कि यह जो कुछ हो रहा है, वह
देवी सती के प्रति अन्याय और शिवजी के अपमान का ही परिणाम है। इस संकट की घड़ी में
कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। तब वे देवता और ऋषिगण शिवजी का स्मरण करते
हुए अपने-अपने लोक को चले गए। मैं भी दुखी मन से अपने सत्यलोक को चला आया। उस
यज्ञस्थल पर बहुत उपद्रव हुआ। वीरभद्र और महाकाली ने अनेकों मुनियों एवं देवताओं को
प्रताड़ित करके उनका वध कर दिया। भृगु, पूषा और भग नामक देवताओं को उनकी करनी
का फल देते हुए उन्हें पृथ्वी पर फेंक दिया।
सैंतीसवां अध्याय
दक्ष का सिर काटकर यज्ञ कुंड में डालना
हे नारद! यज्ञशाला में उपस्थित सभी देवताओं को डराकर और मारकर वीरभद्र ने वहां से
भगा दिया और जो बाकी बचे उनको भी मार डाला। तब उन्होंने यज्ञ के आयोजक दक्ष को,
जो कि भय के मारे अंतर्वेदी में छिपा था, बलपूर्वक पकड़ लिया। वीरभद्र ने दक्ष के शरीर पर
अनेकों वार किए। वे दक्ष का सिर तलवार से काटने लगे। परंतु दक्ष के योग के प्रभाव से वह
सिर काटने में असफल रहे। वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दोनों हाथों से उसकी
गरदन मरोड़कर तोड़ दी। तत्पश्चात दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल दिया।
उस महान यज्ञ का संपूर्ण विनाश करने के उपरांत वीरभद्र और सभी गण जीत की खुशी
के साथ कैलाश पर्वत पर चले गए और शिवजी को अपनी विजय की सूचना दी। इस
समाचार को पाकर महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए।
6 ML,
अड़तीसवां अध्याय
दधीचि-क्षुव विवाद
सूत जी कहते हैं--हे महर्षियो! ब्रह्माजी के द्वारा कही हुई कथा को सुनकर नारद जी
आश्चर्यचकित हो गए तथा उन्होंने ब्रह्माजी से पूछा कि भगवान विष्णु शिवजी को छोड़कर
अन्य देवताओं के साथ दक्ष के यज्ञ में क्यों चले गए? क्या वे अद्भुत पराक्रम वाले भगवान
शिव को नहीं जानते थे? क्यों श्रीहरि ने रुद्रगणों के साथ युद्ध किया? कृपया कर मेरे अंदर
उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी शंकाओं का समाधान कीजिए।
ब्रह्माजी ने नारद जी के प्रश्नों के उत्तर देते हुए कहा-है मुनिश्रेष्ठ नारद! पूर्व काल में राजा
क्षुव की सहायता करने वाले श्रीहरि को दधीचि मुनि ने शाप दे दिया था। इसलिए वे भूल गए
और दक्ष के यज्ञ में चले गए। प्राचीन काल में दधीचि मुनि महातेजस्वी राजा क्षुव के मित्र थे
परंतु बाद में उन दोनों के बीच बहुत विवाद खड़ा हो गया। विवाद का कारण मुनि दधीचि का
चार वरणो-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताना था परंतु राजा क्षुव,
जो कि धन वैभव के अभिमान में डूबे हुए थे, इस बात से पूर्णतः असहमत थे। क्षुव सभी
वर्णों में राजा को ही श्रेष्ठ मानते थे। राजा को सर्वश्रेष्ठ और सर्ववेदमय माना जाता है। यह
श्रुति भी कहती है। इसलिए ब्राह्मण से ज्यादा राजा श्रेष्ठ है। हे दधीचि! आप मेरे लिए
आदरणीय हैं। राजा क्षुव के कथन को सुनकर दधीचि को क्रोध आ गया। उन्होंने इसे अपना
अपमान समझा और क्षुव के सिर पर मुक्के का प्रहार कर दिया। दधीचि के इस व्यवहार से
मद में चूर क्षुव को और अधिक क्रोध आ गया। उन्होंने वज्र से दधीचि पर प्रहार कर दिया।
वज्र से घायल हुए दधीचि मुनि ने पृथ्वी पर गिरते हुए योगी शुक्राचार्य का स्मरण किया।
शुक्राचार्य ने तुरंत आकर दधीचि मुनि के शरीर को पूर्ववत कर दिया। शुक्राचार्य ने दधीचि से
कहा कि मैं तुम्हें महामृत्युंजय का मंत्र प्रदान करता हूं।
“त्रयम्बकं यजामहे' अर्थात हम तीनों लोकों के पिता भगवान शिव, जो सूर्य, सोम और
अग्नि तीनों मण्डलों के पिता हैं, सत्व, रज और तम आदि तीनों गुणों के महेश्वर हैं, जो
आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिव तत्व, पृथ्वी, जल व तेज सभी के स्रोत हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु
और शिव तीनों आधारभूत देवताओं के भी ईश्वर महादेव हैं, उनकी आराधना करते हैं।
'सुगंधिम् पुष्टिवर्धनम्’ अर्थात जिस प्रकार फूलों में खुशबू होती है, उसी प्रकार भगवान शिव
भूतों में, गुणों में, सभी कार्यों में इंद्रियों में, अन्य देवताओं में और अपने प्रिय गणों में क्षारभूत
आत्मा के रूप में समाए हैं। उनकी सुगंध से ही सबकी ख्याति एवं प्रसिद्धि है। “पुष्टिवर्धनम्'
अर्थात वे भगवान शिव ही प्रकृति का पोषण करते हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, मुनियों एवं सभी
देवताओं का पोषण करते हैं। “उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्' अर्थात जिस प्रकार
खरबूजा पक जाने पर लता से टूटकर अलग हो जाता है उसी प्रकार मैं भी मृत्युरूपी बंधन से
मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करूं। हे रुद्रदेव! आपका स्वरूप अमृत के समान है। जो
पुण्यकर्म, तपस्या, स्वाध्याय, योग और ध्यान से उनकी आराधना करता है, उसे नया जीवन
प्राप्त होता है। भगवान शिव अपने भक्त को मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर देते हैं और उसे मोक्ष
प्रदान करते हैं। जैसे उर्वारुक अर्थात ककड़ी को उसकी बेल अपने बंधन में बांधे रखती है
और पक जाने पर स्वयं ही उसे बंधन मुक्त कर देती है। यह महामृत्युंजय मंत्र संजीवनी मंत्र
है। तुम नियमपूर्वक भगवान शिव का स्मरण करके इस मंत्र का जाप करो। इस मंत्र से
अभिमंत्रित जल को पियो। इस मंत्र का जाप करने से मृत्यु का भय नहीं रहता। इसके
विधिवत पूजन करने से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। वे सभी कार्यों की सिद्धि करते हैं तथा
सभी बंधनों से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करते हैं।
ब्रह्माजी बोले--नारद! दधीचि मुनि को इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य अपने निवास
पर चले गए। उनकी बातों का दधीचि मुनि पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव का
स्मरण कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने वन में चले गए। वन में उन्होंने प्रेमपूर्वक
भगवान शिव का चिंतन करते हुए उनकी तपस्या आरंभ कर दी। दीर्घकाल तक वे
महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे। उनकी इस निःस्वार्थ भक्ति से भक्तवत्सल भगवान शिव
प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गए। दधीचि ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम
किया। उन्होंने महादेव जी की बहुत स्तुति की।
शिव ने कहा-मुनिश्रेष्ठ दधीचि! मैं तुम्हारी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हुआ हूं।
तुम वर मांगो। मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु प्रदान करूंगा। यह सुनकर दधीचि हाथ जोड़े
नतमस्तक होकर कहने लगे-हे देवाधिदेव! करुणानिधान! महादेव जी! अगर आप मुझ पर
प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे तीन वर प्रदान करें। पहला यह कि मेरी अस्थियां वज्र के समान हो
जाएं। दूसरा-कोई मेरा वध न कर सके अर्थात मैं हमेशा अवध्य रहूं और तीसरा कि मैं हमेशा
अदीन रहूं। कभी दीन न होऊं। शिवजी ने 'तथास्तु' कहकर तीनों वर दधीचि को प्रदान कर
दिए। तीनों मनचाहे वरदान मिल जाने पर दधीचि मुनि बहुत प्रसन्न थे। वे आनंदमग्न होकर
राजा क्षुव के स्थान की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर दधीचि ने क्षुव के सिर पर लात मारी।
क्षुव विष्णु जी का परम भक्त था। राजा होने के कारण वह भी अहंकारी था। उसने क्रोधित
हो तुरंत दधीचि पर वज्र से प्रहार कर दिया परंतु क्षुव के प्रहार से दधीचि मुनि का बाल भी
बांका नहीं हुआ। यह सब महादेव जी के वरदान से ही हुआ था। यह देखकर क्षुव को बड़ा
आश्चर्य हुआ। तब उन्होंने वन में जाकर इंद्र के भाई मुकुंद की आराधना शुरू कर दी। तब
विष्णुजी ने प्रसन्न होकर क्षुव को दिव्य दृष्टि प्रदान की। क्षुव ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी
भक्तिभाव से स्तुति की।
तत्पश्चात क्षुव बोले-भगवन्, मुनिश्रेष्ठ दधीचि पहले मेरे मित्र थे परंतु बाद में हम दोनों के
बीच में विवाद उत्पन्न हो गया। दधीचि ने परम पूजनीय भगवान शिव की तपस्या
महामृत्युंजय मंत्र से कर उन्हें प्रसन्न किया तथा अवध्य रहने का वरदान प्राप्त कर लिया। तब
उन्होंने मेरी राजसभा में मेरे समस्त दरबारियों के बीच मेरा घोर अपमान किया। उन्होंने सबके
सामने मेरे मस्तक पर अपने पैरों से आघात किया। साथ ही उन्होंने कहा कि मैं किसी से नहीं
डरता। भगवन्! मुनि दधीचि को बहुत घमंड हो गया है।
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब श्रीहरि को इस बात का ज्ञान हुआ कि दधीचि मुनि को
महादेव जी द्वारा अवध्य होने का आशीर्वाद प्राप्त है, तो वे कहने लगे कि क्षुव महादेव जी के
भक्तों को कभी भी किसी प्रकार का भी भय नहीं होता है। यदि मैं इस विषय में कुछ करूं तो
दधीचि को बुरा लगेगा और वे शाप भी दे सकते हैं। उन्हीं दधीचि के शाप से दक्ष यज्ञ में मेरी
शिवजी से पराजय होगी। इसलिए मैं इस संबंध में कुछ नहीं करना चाहता परंतु ऐसा कुछ
जरूर करूंगा, जिससे आपको विजय प्राप्त हो। भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर राजा चुप
हो गए।
उन्तालीसवां अध्याय
दधीचि का शाप और क्षुव पर अनुग्रह
ब्रह्माजी बोले--नारद! श्रीहरि विष्णु अपने प्रिय भक्त राजा क्षुव के हितों की रक्षा करने के
लिए एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण करके दधीचि मुनि के आश्रम में पहुंचे। विष्णुजी
भगवान शिव की आराधना में मग्न रहने वाले ब्रह्मर्षि दधीचि से बोले कि हे प्रभु, मैं आपसे
एक वर मांगता हूं। दधीचि श्रीविष्णु को पहचानते हुए कहने लगे--मैं सब समझ गया हूं कि
आप कौन हैं और क्या चाहते हैं? इसलिए मैं आपसे क्या कहूं। हे श्रीहरि विष्णु! क्षुव का
कल्याण करने के लिए आप यह ब्राह्मण का वेश बनाकर आए हैं। आप ब्राह्मण वेश का त्याग
कर दें। लज्जित होकर भगवान विष्णु अपने असली रूप में आ गए और महामुनि दधीचि को
प्रणाम करके बोले कि महामुनि! आपका कथन पूर्णतया सत्य है। मैं यह भी जानता हूं कि
शिवभक्तों को कभी भी, किसी भी प्रकार का कोई भी भय नहीं होता है। परंतु आप सिर्फ मेरे
कहने से राजा क्षुव के सामने यह कह दें कि आप राजा क्षुव से डरते हैं। श्रीविष्णु की यह
बात सुनकर दधीचि हंसने लगे। हंसते हुए बोले कि भगवान शिव की कृपा से मुझे कोई भी
डरा नहीं सकता। जब कोई वाकई मुझे डरा नहीं सकता तो मैं क्यों झूठ बोलकर पाप का
भागी बनूं? दधीचि मुनि के इन वचनों को सुनकर विष्णु को बहुत अधिक क्रोध आ गया।
उन्होंने मुनि दधीचि को समझाने की बहुत कोशिश की। सभी देवताओं ने श्री विष्णुजी का ही
साथ दिया। भगवान विष्णु ने दधीचि मुनि को डराने के लिए अनेक गण उत्पन्न कर दिए परंतु
दधीचि ने अपने सत से उनको भस्म कर दिया। तब विष्णुजी ने वहां अपनी मूर्ति प्रकट कर
दी। यह देखकर दधीचि मुनि बोले-हे श्रीहरि! अब अपनी माया को त्याग दीजिए। आप
अपने क्रोध और अहंकार का त्याग कर दीजिए। आपको मुझमें ही ब्रह्मा, रुद्र सहित संपूर्ण
जगत का दर्शन हो जाएगा। मैं आपको दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूं। तब विष्णुजी को दधीचि
मुनि ने अपने शरीर में पूरे ब्रह्मांड के दर्शन करा दिए। तब विष्णुजी का क्रोध बहुत बढ़ गया।
उन्होंने चक्र उठा लिया और महर्षि को मारने के लिए आगे बढ़े, परंतु बहुत प्रयत्न करने पर
भी चक्र आगे नहीं चला।
यह देखकर दधीचि हंसते हुए बोले कि हे श्रीहरि! आप भगवान शिव द्वारा प्रदान किए
गए इस सुदर्शन चक्र से उनके ही प्रिय भक्त को मारना चाहते हैं, तो भला यह चक्र क्यों
चलेगा? शिवजी द्वारा दिए गए अस्त्र से आप उनके भक्तों का विनाश किसी भी तरह नहीं
कर सकते परंतु फिर भी यदि आप मुझे मारना चाहते हैं तो ब्रह्मास्त्र आदि का प्रयोग
कीजिए। लेकिन दधीचि को साधारण मनुष्य समझकर विष्णुजी ने उन पर अनेक अस्त्र
चलाए।
तब दधीचि मुनि ने धरती से मुट्ठी पर कुशा उठा ली और कुछ मंत्रों के उच्चारण के
उपरांत उसे देवताओं की ओर उछाल दिया। वे कुशाएं कालाग्नि के रूप में परिवर्तित हो गई,
जिनमें देवताओं द्वारा छोड़े गए सभी अस्त्र-शस्त्र जलकर भस्म हो गए। यह देखकर वहां पर
उपस्थित अन्य देवता वहां से भाग खड़े हुए परंतु श्रीहरि दधीचि से युद्ध करते रहे। उन दोनों
के बीच भीषण युद्ध हुआ। तब मैं (ब्रह्मा) राजा क्षुव को साथ लेकर उस स्थान पर आया,
जहां उन दोनों के बीच युद्ध हो रहा था। मैंने भगवान विष्णु से कहा कि आपका यह प्रयास
निरर्थक है। क्योंकि आप भगवान शिव के परम भक्त दधीचि को हरा नहीं सकते हैं। यह
सुनकर विष्णुजी शांत हो गए, उन्होंने दधीचि मुनि को प्रणाम किया। तब राजा क्षुव भी दोनों
हाथ जोड़कर मुनि दधीचि को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे, उनसे माफी मांगने लगे
और कहने लगे कि प्रभु आप मुझ पर कृपादृष्टि रखिए।
ब्रह्माजी बोले-नारद! इस प्रकार राजा क्षुव द्वारा की गई स्तुति से दधीचि को बहुत
संतोष मिला और उन्होंने राजा क्षुव को क्षमा कर दिया परंतु विष्णुजी सहित अन्य देवताओं
पर उनका क्रोध कम नहीं हुआ। तब क्रोधित मुनि दधीचि ने इंद्र सहित सभी देवताओं और
विष्णुजी को भी भगवान रुद्र की क्रोधाग्नि में नष्ट होने का शाप दे दिया। इसके बाद राजा
क्षुव ने दधीचि को पुनः नमस्कार कर उनकी आराधना की और फिर वे अपने राज्य की ओर
चल दिए। राजा क्षुव के वहां से चले जाने के पश्चात इंद्र सहित सभी देवगणों ने भी अपने-
अपने धाम की ओर प्रस्थान किया। तदोपरांत श्रीहरि विष्णु भी बैकुंठधाम को चले गए। तब
से वह पुण्य स्थान 'थानेश्वर' नामक तीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। इस तीर्थ के दर्शन से
भगवान शिव का स्नेह और कृपा प्राप्त होती है।
हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह पूरी अमृत कथा का वर्णन सुनाया। जो मनुष्य क्षुव और
दधीचि के विवाद से संबंधित इस प्रसंग को प्रतिदिन सुनता है, वह अपमृत्यु को जीत लेता है
तथा मरने के बाद सीधा स्वर्ग को जाता है। इसका पाठ करने से युद्ध में मृत्यु का भय दूर हो
जाता है तथा निश्चित रूप से विजयश्री की प्राप्ति होती है।
चालीसवां अध्याय
ब्रह्माजी का कैलाश पर शिवजी से मिलना
नारद जी ने कहा-हे महाभाग्य! हे विधाता! हे महाप्राण! आप शिवतत्व का ज्ञान रखते
हैं। आपने मुझ पर बड़ी कृपा की जो इस अमृतमयी कथा का श्रवण मुझे कराया। मैं आपका
बहुत-बहुत धन्यवाद करता हूं। हे प्रभु! अब मुझे यह बताइए कि जब वीरभद्र ने दक्ष के यज्ञ
का विनाश कर दिया और उनका वध करके कैलाश पर्वत को चले गए तब क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब भगवान शिव द्वारा भेजी गई उनकी विशाल सेना
ने यज्ञ में उपस्थित सभी देवताओं और ऋषियों को पराजित कर दिया और उन्हें पीट-पीटकर
वहां से भाग जाने को मजबूर कर दिया तो वे सभी वहां से भागकर मेरे पास आ गए। उन्होंने
मुझे प्रणाम करके मेरी स्तुति की तथा वहां का सारा वृत्तांत मुझे सुनाया। तब अपने पुत्र दक्ष
की मुझे बहुत चिंता होने लगी और मेरा दिल पुत्र शोक के कारण व्यथित हो गया। तत्पश्चात
मैंने श्रीहरि का स्मरण किया और अन्य देवताओं और ऋषि-मुनियों को साथ लेकर
बैकुंठलोक गया। वहां उन्हें नमस्कार करके हम सभी ने उनकी भक्तिभाव से स्तुति की। तब
मैंने श्रीहरि से विनम्रता से प्रार्थना की कि भगवन् आप कुछ ऐसा करें, जिससे हम सभी का
दुख कम हो जाए। देवेश्वर आप कुछ ऐसा करें, जिससे वह यज्ञ पूरा हो जाए तथा उसके
यजमान दक्ष पुनः जीवित हो जाएं। अन्य सभी देवता और ऋषि-मुनि भी पूर्व की भांति सुखी
हो जाएं।
मेरे इस प्रकार निवेदन करने पर लक्ष्मीपति विष्णुजी, जो अपने मन में शिवजी का चिंतन
कर रहे थे, प्रजापति ब्रह्मा और देवताओं को संबोधित करते हुए इस प्रकार बोले-कोई भी
अपराध किसी भी स्थिति में कभी भी किसी के लिए भी मंगलकारी नहीं हो सकता। हे
विधाता! सभी देवता, परमपिता परमेश्वर भगवान शिव के अपराधी हैं क्योंकि इन्होंने यज्ञ में
शिवजी का भाग नहीं दिया। साथ ही वहां उनका अनादर भी किया। उनकी प्रिय पत्नी सती
ने भी उनके अपमान के कारण ही अपनी देह का त्याग कर दिया। उनका वियोग होने के
कारण भगवन् अत्यंत रुष्ट हो गए हैं। तुम सभी को शीघ्र ही उनके पास जाकर उनसे क्षमा
मांगनी चाहिए। भगवान शिव के पैर पकड़कर उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न करो क्योंकि
उनके कुपित होने से संपूर्ण जगत का विनाश हो सकता है। दक्ष ने शिवजी के लिए अपशब्द
कहकर उनके हृदय को विदीर्ण कर दिया है। इसलिए उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमा
मांगो। उन्हें शांत करने का यही सर्वोत्तम उपाय है। वे भक्तवत्सल हैं। यदि आप लोग चाहें तो
मैं भी आपके साथ चलकर उनसे क्षमा याचना करूंगा।
ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि, मैं और अन्य देवता एवं ऋषि-मुनि आदि कैलाश पर्वत की
ओर चल दिए। वह पर्वत बहुत ही ऊंचा और विशाल है। उसके पास में ही शिवजी के मित्र
कुबेर का निवास स्थल अलकापुरी है। अलकापुरी महा दिव्य एवं रमणीय है। वहां चारों ओर
सुगंध फैली हुई थी। अनेक प्रकार के पेड़-पौधे शोभा पा रहे थे। उसी के बाहरी भाग में परम
पावन नंदा और अलकनंदा नामक नदियां बहती हैं। इनका दर्शन करने से मनुष्य को सभी
पापों से मुक्ति मिल जाती है।
हम लोग अलकापुरी से आगे उस विशाल वट वृक्ष के पास पहुंचे, जहां दिव्य योगियों द्वारा
पूजित भगवान शिव विराजमान थे। वह वट-वृक्ष सौ योजन ऊंचा था तथा उसकी अनेक
शाखाएं पचहत्तर योजन तक फैली हुई थीं। वह परम पावन तीर्थ स्थल है। यहां भगवान शिव
अपनी योगाराधना करते हैं। उस वट वृक्ष के नीचे महादेव जी के चारों ओर उनके गण थे और
यज्ञों के स्वामी कुबेर भी बैठे थे। तब उनके निकट पहुंचकर विष्णु आदि समस्त देवताओं ने
अनेकों बार नमस्कार कर उनकी स्तुति की। उस समय शिवजी ने अपने शरीर पर भस्म लगा
रखी थी और वे कुशासन पर बैठे थे और ज्ञान का उपदेश वहां उपस्थित गणों को दे रहे थे।
उन्होंने अपना बायां पैर अपनी दायीं जांघ पर रखा था और बाएं हाथ को बाएं पैर पर रख
रखा था। उनके दाएं हाथ में रुद्राक्ष की माला थी।
भगवान शिव के साक्षात रूप का दर्शन कर विष्णुजी और सभी देवताओं ने दोनों हाथ
जोड़कर और अपने मस्तक को झुकाकर दयासागर परमेश्वर शिव से क्षमा याचना की और
कहा कि हे प्रभु! आपकी कृपा के बिना हम नष्ट-भ्रष्ट हो गए हैं। अतः प्रभु आप हम सबकी
रक्षा करें। भगवन्! हम आपकी शरण में आए हैं। हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें। इस
प्रकार सभी देवता व ऋषि-मुनि भगवान शिव का क्रोध कम करने और उनकी प्रसन्नता के
लिए प्रार्थना करने लगे।
इकतालीसवां अध्याय
शिव द्वारा दक्ष को जीवित करना
देवताओं ने महादेव जी की बहुत स्तुति की और कहा-भगवन्, आप ही परमब्रह्म हैं और
इस जगत में सर्वत्र व्याप्त हैं। आप मृत्युंजय हैं। चंद्रमा, सूर्य और अग्नि आपकी तीन आंखें
हैं। आपके तेज से ही पूरा जग प्रकाशित है। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और चंद्र आदि देवता आपसे
ही उत्पन्न हुए हैं। आप ही इस संसार का पोषण करते हैं। भगवन् आप करुणामय हैं। आप
ही दुष्टों का संहार करते हैं। प्रभु! आपकी आज्ञानुसार अग्नि जलाती है और सूर्य अपनी तपन
से झुलसाता है। मृत्यु आपके भय से कांपती है। हे करुणानिधान! जिस प्रकार आज तक
आपने हमारी हर विपत्ति से रक्षा की है, उसी प्रकार हमेशा अपनी कृपादृष्टि बनाएं। भगवन्!
हम अपनी सभी गलतियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हैं। आप प्रसन्न होकर यज्ञ को पूर्ण
कीजिए तथा यजमान दक्ष का उद्धार कीजिए। वीरभद्र और महाकाली के प्रहारों से घायल
हुए सभी देवताओं व ऋषियों को आरोग्य प्रदान करें। उन सभी की पीड़ा को कम कर दें। हे
शिवजी! आप प्रजापति दक्ष के अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण कर दे और दक्ष को पुनर्जीवित कर दे।
भग ऋषि को उनकी आंखें, पूषा को दांत प्रदान करें। साथ ही जिन देवताओं के अंग नष्ट हो
गए हैं, उन्हें ठीक कर दें। आप सभी को आरोग्य प्रदान करें। हम आपको यज्ञ में पूरा-पूरा
भाग देंगे। ऐसा कहकर हम सभी देवता त्रिलोकीनाथ महादेव के चरणों में लेट गए।
हमारी स्तुति और अनुनय-विनय से भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न हो गए। शिवजी बोले
— हे ब्रह्मा! श्रीहरि विष्णु! आपकी बातों को मैं हमेशा मानता हूं। इसलिए आपकी प्रार्थना
को मैं नहीं टाल सकता परंतु मैं यह बताना चाहता हूं कि दक्ष के यज्ञ का विध्वंस मैंने नहीं
किया है। उसके यज्ञ का विध्वंस इसलिए हुआ क्योंकि वह हमेशा दूसरों का बुरा चाहता है,
उनसे द्वेष रखता है। परंतु जो दूसरों का बुरा चाहता है उसका ही बुरा होता है। अतः हमें कोई
भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी को कष्ट हो। तुम्हारी प्रार्थना से मैंने तुम्हें
क्षमा कर दिया है और तुम्हारी विनती मानकर मैं दक्ष को जीवित कर रहा हूं परंतु दक्ष का
मस्तक अग्नि में जल गया है। इसलिए उनके सिर के स्थान पर बकरे का सिर जोड़ना पड़ेगा।
भग सूर्य के नेत्र से यज्ञ भाग को देख पाएंगे तथा पूषा के टूटे हुए दांत सही हो जाएंगे। मेरे
गणों द्वारा मारे गए देवताओं के टूटे हुए अंग भी ठीक हो जाएंगे। भृगु की दाढ़ी बकरे जैसी हो
जाएगी। सभी अध्वर्यु प्रसन्न होंगे।
यह कहकर वेदी के अनुसरणकर्ता, परम दयालु भगवान शंकर चुप हो गए। तत्पश्चात मैंने
और विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने भगवान शिव का धन्यवाद किया। फिर देवर्षियों
सहित शिवजी को उस यज्ञ में आने के लिए आमंत्रित कर, हम लोग यज्ञ के स्थान पर गए,
जहां दक्ष ने अपना यज्ञ आरंभ किया था। उस कनखल नामक यज्ञ क्षेत्र में शिवजी भी पधारे।
तब उन्होंने वीरभद्र द्वारा किए गए उस विध्वंस को देखा। स्वाहा, स्वधा, पूषा, तुष्टि, धृति,
समस्त ऋषि, पितर, अग्नि व यज्ञ, गंधर्व और राक्षस वहां पड़े हुए थे। कितने ही लोग अपने
प्राणों से हाथ धो चुके थे। तब भगवान शिव ने अपने परम पराक्रमी सेनापति वीरभद्र का
स्मरण किया। याद करते ही वीरभद्र तुरंत वहां प्रकट हो गए और उन्होंने भगवान शिव को
नमस्कार किया। तब शिवजी हंसते हुए बोले कि हे वीरभद्र! तुमने तो थोड़ी सी देर में सारा
यज्ञ विध्वंस कर दिया और देवताओं को भी दंड दे दिया। हे वीरभद्र! तुम इस यज्ञ का
आयोजन करने वाले दक्ष को जल्दी से मेरे सामने ले आओ।
भगवान शिव की आज्ञा पाकर वीरभद्र गए और दक्ष का शरीर वहां लाकर रख दिया परंतु
उसमें सिर नहीं था। दक्ष के शरीर को देखकर शिवजी ने वीरभद्र से पूछा कि दक्ष का सिर
कहां है? तब वीरभद्र ने बताया कि दक्ष का सिर काटकर उसने यज्ञ की अग्ने में ही डाल
दिया था। तब शिवजी के आदेशानुसार बकरे का सिर दक्ष के धड़ में जोड़ दिया गया। जैसे
ही शिवजी की कृपादृष्टि दक्ष के शरीर पर पड़ी वह जीवित हो गया। दक्ष के शरीर में प्राण आ
गए और वह इस प्रकार उठ बैठा जैसे गहरी नींद से उठा हो। उठते ही उसने अपने सामने
महादेव जी को देखा। उसने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगा। उसके
(दक्ष के) हृदय में प्रेम उमड़ आया और उसके प्रसन्नचित्त होते ही उसका कलुषित हृदय
निर्मल हो गया। तब दक्ष को अपनी पुत्री का भी स्मरण हो गया और इस कारण दक्ष बहुत
लज्जित महसूस करने लगा। तत्पश्चात अपने को संभालते हुए दक्ष ने करुणानिधान भगवान
शिव से कहा-—हे कल्याणमय महादेव जी! आप ही इस जगत के आदि और अंत हैं। आपने
ही इस सृष्टि की रचना का विचार किया है। आपके द्वारा ही हर जीव की उत्पत्ति हुई है। मैंने
आपके लिए अपशब्द कहे और आपको यज्ञ में भाग भी नहीं दिया। मेरे बुरे वचनों से आपको
बहुत चोट पहुंची है। फिर भी आप मुझ पर कृपा कर यहां मेरा उद्धार करने आ गए। भगवन्!
आप ऐश्वर्य से संपन्न हैं। आप ही परमपिता परमेश्वर हैं। प्रभु! आप मुझ पर एवं यहां
उपस्थित सभी जनों पर प्रसन्न होइए और हमारी पूजा-अर्चना को स्वीकार कीजिए।
ब्रह्माजी बोले-नारद! इस प्रकार भगवान शिव की स्तुति करने के बाद दक्ष चुप हो गए।
तब श्रीहरि विष्णुजी ने भगवान शिव की बहुत स्तुति की। तत्पश्चात मैंने भी महादेव जी की
बहुत स्तुति की। भगवन्! आपने मेरे पुत्र दक्ष पर अपनी कृपादृष्टि की और उसका उद्धार
किया। देवेश्वर! अब आप प्रसन्न होकर सभी शापों से हमें मुक्ति प्रदान करें।
महामुनि! इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके मैं दोनों हाथ जोड़कर और सिर
झुकाकर खड़ा हो गया। हम सभी देवगणों की स्तुति सुनकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और
उनका मुख खिल उठा। तब वहां उपस्थित इंद्र सहित अनेक सिद्धों, ऋषियों और प्रजापतियों
ने भी भक्तवत्सल करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। यज्ञशाला में
उपस्थित अनेक उपदेवों, नागों तथा ब्राह्मणों ने भगवान शिव को प्रणाम किया और उनका
प्रसन्न मन से स्तवन किया। इस प्रकार सभी देवों के मुख से अपना स्तवन सुनकर भगवान
शिव को बहुत संतोष प्राप्त हुआ।
बयालीसवां अध्याय
दक्ष का यज्ञ को पूर्ण करना
ब्रह्माजी कहते हैं--नारद मुनि! इस प्रकार श्रीहरि, मेरे, देवताओं और ऋषि-मुनियों की
स्तुति से भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए। वे हम सबको कृपादृष्टि से देखते हुए बोले--
प्रजापति दक्ष! मैं तुम सभी पर प्रसन्न हूं। मेरा अस्तित्व सबसे अलग है। मैं स्वतंत्र ईश्वर हूं।
फिर भी मैं सदैव अपने भक्तों के अधीन ही रहता हूं। चार प्रकार के पुण्यात्मा मनुष्य ही मेरा
भजन करते हैं। उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है। परंतु
ज्ञानी को ही मेरा खास सान्निध्य प्राप्त होता है। उसे मेरा ही स्वरूप माना जाता है। वेदों को
जानने वाले परम ज्ञानी ही मेरे स्वरूप को जानकर मुझे समझ सकते हैं। जो मनुष्य कमोँ के
अधीन रहते हैं वे मेरे स्वरूप को नहीं पा सकते। इसलिए तुम ज्ञान को जानकर शुद्ध हृदय
एवं बुद्धि से मेरा स्मरण कर उत्तम कर्म करो। हे दक्ष! मैं ही ब्रह्मा और विष्णु का रक्षक हूं। मैं
ही आत्मा हूं। मैंने ही इस संसार की सृष्टि की है। मैं ही संसार का पालनकर्ता हूं। मैं ही दुष्टों
का नाश करने के लिए संहारक बन उनका विनाश करता हूं। बुद्धिहीन मनुष्य, जो कि सदेव
सांसारिक बंधनों और मोह-माया में फंसे रहते हैं, कभी भी मेरा साक्षात्कार नहीं कर सकते।
मेरे भक्त सदैव मेरे ही स्वरूप का चिंतन और ध्यान करते हैं।
हम तीनों अर्थात ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव एक ही हैं। जो मनुष्य हमें अलग न मानकर
हमारा एक ही स्वरूप मानता है, उसे सुख-शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है परंतु जो
अज्ञानी मनुष्य हम तीनों को अलग-अलग मानकर हममें भेदभाव करते हैं, वे नरक के भागी
होते हैं। हे प्रजापति दक्ष! यदि कोई श्रीहरि का परम भक्त मेरी निंदा या आलोचना करेगा या
मेरा भक्त होकर ब्रह्मा और विष्णु का अपमान करेगा, उसे निश्चय ही मेरे कोप का भागी होना
पड़ेगा। तुम्हें दिए गए सभी शाप उसको लग जाएंगे।
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा श्रेष्ठ विद्वानों
को हर्ष हुआ तथा दक्ष भी प्रभु की आज्ञा मानकर अपने परिवार सहित शिवजी की भक्ति में
मग्न हो गया। सब देवता भी महादेव जी का ही गुणगान करने लगे। वे शिवभक्ति में लीन हो
गए और उनके भजनों को गाने लगे। इस प्रकार जिसने जिस प्रकार से भगवान शिव की
स्तुति और आराधना की, भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उसे ऐसा ही वरदान प्रदान दिया।
तत्पश्चात, भक्तवत्सल भगवान शंकर जी से आज्ञा लेकर प्रजापति दक्ष ने अपना यज्ञ पुनः
आरंभ किया। उस यज्ञ में उन्होंने सर्वप्रथम शिवजी का भाग दिया। सब देवताओं को भी
उचित भाग दिया गया। यज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों को दक्ष ने सामर्थ्य के अनुसार दान
दिया। महादेव जी का गुणगान करते हुए दक्ष ने यज्ञ के सभी कमो को भक्तिपूर्वक संपन्न
किया। इस प्रकार सभी देवताओं, मुनियों और ऋत्विजों के सहयोग से दक्ष का यज्ञ सानंद
संपन्न हुआ।
तत्पश्चात सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों ने महादेव जी के यश का गान किया और
अपने-अपने निवास की ओर चले गए। वहां उपस्थित अन्य लोगों ने भी शिवजी से आज्ञा
मांगकर वहां से प्रस्थान किया। तब मैं और विष्णुजी भी शिव वंदना करते हुए अपने-अपने
लोक को चल दिए। दक्ष ने करुणानिधान भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की और
शिवजी को बहुत सम्मान दिया। तब वे भी प्रसन्न होकर अपने गणों को साथ लेकर कैलाश
पर्वत पर चल दिए।
कैलाश पर्वत पर पहुंचकर शिवजी को अपनी प्रिय पत्नी देवी सती की याद आने लगी।
महादेव जी ने वहां उपस्थित गणों से उनके बारे में अनेक बातें कीं। वे उनको याद करके
व्याकुल हो गए। हे नारद! मैंने तुम्हें सती के परम अदभुत और दिव्य चरित्र का वर्णन
सुनाया। यह कथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह उत्तम वृत्तांत सभी कामनाओं
को अवश्य पूरा करता है। इस प्रकार इस चरित्र को पढ़ने व सुनने वाला ज्ञानी मनुष्य पापों से
मुक्त हो जाता है। उसे यश, स्वर्ग और आयु की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य भक्तिभाव से इस
कथा को पढ़ता है, उसे अपने सभी सत्कमों के फलों की प्राप्ति होती है।
।। श्रीरुद्र संहिता (सती खण्ड) संपूर्ण ।।
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।। ॐ नमः शिवाय ।।
श्रीरुद्र संहिता
तृतीय खण्ड
पहला अध्याय
हिमालय विवाह
नारद जी ने पूछा--हे पितामह! अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर का त्याग करने के
बाद जगदंबा सती देवी कैसे हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं? उन्होंने किस प्रकार महादेव
जी को पुनः पति रूप में प्राप्त किया? हे प्रभु! मुझ पर कृपा कर, मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देकर
मेरी जिज्ञासा शांत कीजिए। ब्रह्माजी उत्तर देते हुए बोले-है मुनिश्रेष्ठ नारद! उत्तर दिशा की
ओर हिमवान नामक विशाल पर्वत है। यह पर्वत तेजस्वी और समृद्ध है तथा दो रूपों में
प्रसिद्ध हैँ पहला स्थावर और दूसरा जंगम। उस पर्वत पर रत्नों की खान है। इस पर्वत के
पूर्वी और पश्चिमी भाग समुद्र से लगे हुए हैं। हिमवान पर्वत पर अनेक प्रकार के जीव-जंतु
निर्भय होकर निवास करते हैं। हिम के विशाल भंडार पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं। अनेक देवता,
ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुष उस पर्वत पर निवास करते हैं। हिमवान पर्वत पवित्र और पावन
है। अनेक ज्ञानियों और साधु-संतों की तपस्या इस स्थान पर सफल हुई है। भगवान शिव को
यह पर्वत अत्यंत प्रिय है क्योंकि इस पर प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है।
एक बार की बात है, गिरिवर हिमवान ने अपने कुल की परंपरा को आगे बढ़ाने तथा धर्म
की वृद्धि कर अपने पितरों को संतुष्ट करने के लिए विवाह करने के विषय में सोचा। जब
हिमवान ने विवाह करने का पूरा मन बना लिया तब वे देवताओं के पास गए और उन
देवताओं से बड़े संकोच के साथ अपने विवाह करने की इच्छा बताई। तब देवता प्रसन्न होकर
अपने पितरों के पास गए और प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गए। तब पितरों ने देवताओं के
आने का कारण पूछा।
इस पर देवताओं ने कहा-हे पितरो! आपकी सबसे बड़ी पुत्री मैना मंगल स्वरूपिणी है।
आप मैना का विवाह गिरिराज हिमवान से कर दें। इस विवाह से सभी को लाभ होगा।
सबका मंगल होगा तथा साथ ही हमारे कुल में जन्मी इन कन्याओं में से कम से कम एक तो
शाप-मुक्त हो जाएगी।
तब पितरों ने थोड़ा विचार करने के बाद इस विवाह की स्वीकृति प्रदान कर दी। पितरों ने
प्रसन्नतापूर्वक बहुत बड़ा उत्सव रचाया और अपनी पुत्री मैना के साथ हिमवान का विवाह
कर दिया। विवाह उत्सव में श्रीहरि विष्णु सहित सभी देवी-देवता सम्मिलित हुए थे।
विवाहोपरांत सभी देवता प्रसन्रतापूर्वक अपने-अपने लोक को चले गए। हिमवान भी मैना के
साथ अपने लोक को प्रस्थान कर गए।
दूसरा अध्याय
पूर्व कथा
नारद जी बोले--हे पितामह! अब आप मैना की उत्पत्ति के बारे में बताइए। साथ ही
कन्याओं को दिए शाप के बारे में मुझे बताकर, मेरी शंका का समाधान कीजिए।
नारद जी के ये प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए और बोले-हे नारद! मेरे पुत्र दक्ष की साठ
हजार पुत्रियां हुई। जिनका विवाह कश्यपादि महर्षियों से हुआ। उनमें स्वधा नाम वाली कन्या
का विवाह पितरों के साथ हुआ था। उनकी तीन पुत्रियां हुई। वे बड़ी सौभाग्यशाली और
साक्षात धर्म की मूर्ति थीं। उनमें पहली कन्या का नाम मीना, दूसरी का धन्या और तीसरी का
कलावती था। ये तीनों कन्याएं पितरों की मानस पुत्रियां थीं अर्थात उनके मन से प्रकट हुई
थीं। इन तीनों का जन्म माता की कोख से नहीं हुआ था। ये संपूर्ण जगत की वंदनीया हैं।
इनके नामों का स्मरण और कीर्तन करके मनुष्य को सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती
है। ये तीनों सारे जगत में मनुष्य एवं देवताओं से प्रेरित होती हैं। इनको 'लोकमाताएं' नाम से
भी जाना जाता है। मुनिश्वर! एक बार मैना, धन्या और कलावती तीनों बहनें श्वैत द्वीप में
विष्णुजी के दर्शन करने के लिए गई। वहां बहुत से लोग एकत्रित हो गए थे। उस स्थान पर
मेरे पुत्र सनकादिक भी आए हुए थे। सबने विष्णुजी की बहुत स्तुति की। सभी सनकादिक
को देखकर उनके स्वागत के लिए खड़े हो गए परंतु ये तीनों बहनें उनके स्वागत के लिए
खड़ी नहीं हुई। उन्हें शिवजी की माया ने मोहित कर दिया था। तब इन बहनों के इस बुरे
व्यवहार से वे क्रोधित हो गए और उन्होंने इन बहनों को शाप दे दिया। सनकादिक मुनि बोले
कि तुम तीनों बहनों ने अभिमानवश खड़े होकर मेरा अभिवादन नहीं किया, इसलिए तुम
सदैव स्वर्ग से दूर हो जाओगी और मनुष्य के रूप में ही पृथ्वी पर रहोगी। तुम तीनों मनुष्यों
की ही स्त्रियां बनोगी।
तीनों साध्वी बहनों ने चकित होकर ऋषि का वचन सुना। तब अपनी भूल स्वीकार करके
वे तीनों सिर झुकाकर सनकादिक मुनि के चरणों में गिर पड़ीं और उनकी अनेकों प्रकार से
स्तुति करने लगीं। उन्होंने अनेकों प्रकार से क्षमायाचना की। तीनों कन्याएं, मुनिवर को प्रसन्न
करने हेतु उनकी प्रार्थना करने लगीं। वे बोलीं कि हम मूर्ख हैं, जो हमने आपको प्रणाम नहीं
किया। अब हम पर कृपा कर हमें स्वर्ग को पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताइए। तब
सनकादिक मुनि बोले-हे पितरो की कन्याओ! हिमालय पर्वत हिम का आधार है। तुममें
सबसे बड़ी मैना हिमालय की पत्नी होगी और इसकी कन्या का नाम पार्वती होगा। दूसरी
कन्या धन्या, राजा जनक की पत्नी होगी और इसके गर्भ से महालक्ष्मी के साक्षात स्वरूप
देवी सीता का जन्म होगा। इसी प्रकार तीसरी पुत्री कलावती राजा वृषभानु को पति रूप में
प्राप्त करेगी और राधा की माता होने का गौरव प्राप्त करेगी। तत्पश्चात मैना व हिमालय
अपनी पुत्री पार्वती के वरदान से कैलाश पद को प्राप्त करेंगे। धन्या और उनके पति राजा
सीरध्वज जनक देवी सीता के पुण्यस्वरूप के कारण बैकुण्ठधाम को प्राप्त करेंगे। वृषभानु
और कलावती अपनी पुत्री राधा के साथ गोलोक में जाएंगे। पुण्यकर्म करने वालों को निश्चय
ही सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए सदैव सत्य मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। तुम पितरों की
कन्या होने के कारण स्वर्ग भोगने के योग्य हो परंतु मेरा शाप भी अवश्य फलीभूत होगा।
परंतु जब तुमने मुझसे क्षमा मांगी है, तो मैं तुम्हारे शाप के असर को कुछ कम अवश्य कर
दूंगा।
धरती पर अवतीर्ण होने के पश्चात तुम साधारण मनुष्यों की भांति ही रहोगी, परंतु विवाह
के पश्चात जब तुम्हें संतान की प्राप्ति हो जाएगी और तुम्हारी कन्याओं को यथायोग्य वर मिल
जाएंगे और उनका विवाह हो जाएगा अर्थात तुम अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर
लोगी, तब भगवान श्रीहरि विष्णु के दर्शनों से तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। मैना की पुत्री
पार्वती कठिन तप के द्वारा शिव की प्राणवल्लभा बनेंगी। धन्या की पुत्री सीता दशरथ नंदन
श्रीरामचंद्र जी को पति रूप में प्राप्त करेंगी। कलावती की पुत्री राधा श्रीकृष्ण के स्नेह में
बंधकर उनकी प्रिया बनेंगी। यह कहकर मुनि सनकादिक वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात
पितरों की तीनों कन्याएं शाप से मुक्त होकर अपने धाम को चली गई।
तीसरा अध्याय
देवताओं का हिमालय के पास जाना
नारद जी बोले-हे ब्रह्माजी! हे महामते! आपने अपने श्रीमुख से मैना के पूर्व जन्म की
कथा कही, जो कि अदभुत व अलौकिक थी। भगवन्! अब आप मुझे यह बताइए कि पार्वती
जी मैना से कैसे उत्पन्न हुई और उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को किस प्रकार पति रूप
में प्राप्त किया।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! मैना और हिमवान के विवाह पर बहुत उत्सव मनाया गया।
विवाह के पश्चात वे दोनों अपने घर पहुंचे। तब हिमालय और मैना सुखपूर्वक अपने घर में
निवास करने लगे। तब श्रीहरि अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर हिमालय के पास गए।
सब देवताओं को अपने राजदरबार में आया देखकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सभी
देवताओं को प्रणाम कर उनकी स्तुति की। वे भक्तिभाव से उनका आदर-सत्कार करने लगे।
वे देवताओं की सेवा करके अपने को धन्य मान रहे थे। मुने! हिमालय दोनों हाथ जोड़कर
उनके सामने खड़े हो गए और बोले-भगवन्! आप सबको एक साथ अपने घर आया
देखकर मैं प्रसन्न हूं। सच कहूं तो आज मेरा जीवन सफल हो गया है। आज मैं धन्य हो गया
हूं। मेरा राज्य और मेरा पूरा कुल आपके दर्शन मात्र से ही धन्य हो गया। आज मेरा तप, ज्ञान
और सभी कार्य सफल हो गए हैं। भगवन्! आप मुझे अपना सेवक समझें और मुझे आज्ञा दें
कि मैं आपकी क्या सेवा करूं? मुझे बताइए कि मेरे योग्य क्या सेवा है?
गिरिराज हिमालय के ये वचन सुनकर देवतागण प्रसन्नतापूर्वक बोले-हे हिमालय! हे
गिरिराज! देवी जगदंबा उमा ही प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या सती के रूप में प्रकट
हुई। घोर तपस्या करने के बाद उन्होंने शिवजी को पति रूप में प्राप्त किया, परंतु अपने पिता
दक्ष के यज्ञ में वे अपने पति का अपमान सह न सकीं और उन्होंने योगाग्नि में अपना शरीर
भस्म कर दिया। यह सारी कथा तो आप भी जानते ही हैं। अब देवी जगदंबा पुनः धरती पर
अवतरित होकर शिवजी की अद्धागिनी बनना चाहती हैं। हे हिमालय! हम सभी यह चाहते हैं
कि देवी सती पुनः आपके घर में अवतरित हों।
श्रीविष्णु जी की यह बात सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक बोले
भगवन्! यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि देवी मेरे घर-आंगन को पवित्र करने के
लिए मेरी पुत्री के रूप में प्रकट होंगी। तब हिमालय अपनी पत्नी के साथ और देवताओं को
लेकर देवी जगदंबा की शरण में गए। उन्होंने देवी का स्मरण किया और श्रद्धापूर्वक उनकी
स्तुति करने लगे।
देवता बोले-हे जगदंबे! हे उमे! हे शिवलोक में निवास करने वाली देवी। हे दुर्गे! हे
महेश्वरी! हम सब आपको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। आप परम कल्याणकारी हैं। आप
पावन और शांतिस्वरूप आदिशक्ति हैं। आप ही परम ज्ञानमयी शिवप्रिया जगदंबा हैं। आप
इस संसार में हर जगह व्याप्त हैं। सूर्य की तेजस्वी किरण आप ही हैं। आप ही अपने तेज से
इस संसार को प्रकाशित करती हैं। आप ही जगत का पालन करती हैं। आप ही गायत्री,
सावित्री और सरस्वती हैं। आप धर्मस्वरूपा और वेदों की ज्ञाता हैं। आप ही प्यास और आप
ही तृप्ति हैं। आपकी पुण्यभक्ति भक्तों को निर्मल आनंद प्रदान करती है। आप ही
पुण्यात्माओं के घर में लक्ष्मी के रूप में और पापियों के घर में दरिद्रता और निर्धनता बनकर
निवास करती हैं। आपके दर्शनों से शांति प्राप्त होती है। आप ही प्राणियों का पोषण करती हैं
तथा पंचभूतों के सारतत्व से तत्वस्वरूपा हैं। आप ही नीति हैं और सामवेद की गीति हैं।
आप ही ऋग्वेद और अथर्वेद की गति हैं। आप ही मनुष्यों के नाक, कान, आंख, मुंह और
हृदय में विराजमान होकर उनके घर में सुखों का विस्तार करती हैं। हे देवी जगदंबा! इस
संपूर्ण जगत के कल्याण एवं पालन के लिए हमारी पूजा स्वीकार करके आप हम पर प्रसन्न
हों।
इस प्रकार जगज्जननी सती-साध्वी देवी जगदंबा उमा की अनेकों बार स्तुति करके सभी
देवता उनके साक्षात दर्शनों के लिए दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
चौथा अध्याय
देवी जगदंबा के दिव्य स्वरूप का दर्शन
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! देवताओं के द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर दुखों का नाश
करने वाली जगदंबा देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हो गईं। वे अपने दिव्य रत्नजड़ित रथ पर
बैठी हुई थीं। उनका मुख करोड़ों सूर्य के तेज के समान चमक रहा था। उनका गौर वर्ण दूध
के समान उज्ज्वल था। उनका रूप अतुल्य था। रूप में उनकी तुलना किसी से नहीं की जा
सकती थी। वे सभी गुणों से युक्त थीं। दुष्टों का संहार करने के कारण वे ही चण्डी कहलाती
हैं। वे अपने भक्तों के सभी दुखों और पीड़ाओं का निवारण करती हैं। देवी जगदंबा पूरे संसार
की माता हैं। वे ही प्रलयकाल में समस्त दुष्टों को उनके बंधु-बांधवों सहित घोर निद्रा में सुला
देती हैं। वही देवी उमा इस संसार का उद्धार करती हैं। उनके मुखमण्डल का तेज अदभुत है।
इस तेज के कारण उनकी ओर देख पाना भी संभव नहीं है। तब उनके अमृत दर्शनों की
इच्छा लेकर श्रीहरि सहित सभी ने स्तुति की। तब उनके अमृतमय स्वरूप को देखा।
उनके अद्भुत स्वरूप के दर्शनों से सभी देवता आनंदित होकर बोले-हे महादेवी! हे
जगदंबा! हम आपके दास हैं। आपकी शरण में हम बहुत आशा से आए हैं। कृपा करके
हमारे आने के उद्देश्य को समझकर हमारे मनोरथ को पूर्ण कीजिए। हे देवी! पहले आप
प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में प्रकट होकर रुद्रदेव की पत्नी बनीं और ब्रह्माजी व अन्य
देवताओं के दुखों को दूर किया। अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर
स्वेच्छा से अपने शरीर का त्याग कर दिया। इससे रुद्रदेव बड़े दुखी हैं। वे अत्यंत शोकाकुल
हो गए हैं। साथ ही आपके यहां चले आने से देवताओं की जो इच्छा थी वह भी अधूरी रह गई
है। इसलिए हे जगदंबिके! आप पृथ्वीलोक पर पुनः अवतार लेकर रुद्रदेव को पति रूप में
पाइए ताकि इस लोक का कल्याण हो सके और सनत्कुमार मुनि का कथन भी पूर्ण हो सके।
हे भगवती! आप हम सब पर ऐसी ही कृपा करें ताकि हम सभी प्रसन्न हो जाएं तथा महादेव
जी भी पुनः सुखी हो जाएं, क्योंकि आपसे वियोग होने के कारण वे अत्यंत दुखी हैं। कृपा
करके हमारे सभी कष्टों और दुखों को दूर करें।
हे नारद! ऐसा कहकर सभी देवता पुनः भगवती की आराधना करने लगे। तत्पश्चात हाथ
जोड़कर चुपचाप खड़े हो गए। तब उनकी अनन्य स्तुति से देवी उमा को बहुत प्रसन्नता हुई।
तब देवी शिवजी का स्मरण करते हुए बोलीं-हे हरे! है ब्रह्माजी! तथा समस्त देवताओ और
ऋषि-मुनियो! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। अब तुम सभी अपने-अपने निवास
स्थानों पर जाओ और सुखपूर्वक वहां पर निवास करो। मैं निश्चय ही अवतार लेकर हिमालय-
मैना की पुत्री के रूप में प्रकट होऊंगी, क्योंकि मैं अच्छे से जानती हूं कि जब से मैंने दक्ष के
यज्ञ की अग्ने में अपना शरीर त्यागा है तब से मेरे पति त्रिलोकीनाथ महादेव जी भी निरंतर
कालाग्नि में जल रहे हैं। उन्हें हर समय मेरी ही चिंता रहती है। वे हर समय यह सोचते हैं कि
उनके क्रोध के कारण ही मैं उनका अपमान देखकर वापिस नहीं आई और मैंने वहीं अपना
शरीर त्याग दिया। यही कारण है कि उन्होंने अलौकिक वेश धारण कर लिया है और सदैव
योग में ही लीन रहते हैं। अपनी प्राणप्रिया का वियोग वे सहन नहीं कर सके हैं। इसलिए
उनकी भी यही इच्छा है कि मैं पुनः पृथ्वी पर अवतीर्ण हो जाऊं ताकि हमारा मिलन पुनः
संभव हो सके। महादेव जी की इच्छा मेरे लिए सदैव सर्वोपरि है। अतः मैं अवश्य ही
हिमालय-मैना की पुत्री के रूप में अवतार लूंगी।
इस प्रकार देवताओं को बहुत आश्वासन देकर देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गईं।
तत्पश्चात श्रीहरि व अन्य देवताओं का मन प्रसन्नता और हर्ष से खिल उठा। वे उस स्थान को,
जहां देवी ने दर्शन दिए थे, अनेकों बार नमस्कार कर अपने-अपने धाम को चले गए।
पांचवां अध्याय
मैना-हिमालय का तप व वरदान प्राप्ति
नारद जी ने पूछा--हे विधाता! देवी के अंतर्धान होने के बाद जब सभी देवता अपने-
अपने धाम को चले गए तब आगे क्या हुआ? हे भगवन्! कृपा करके मुझे आगे की कथा भी
सुनाइए।
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब देवी जगदंबा वहां सभी देवताओं और हिमालय
को आश्वासन देकर अपने लोक को चली गई, तब श्रीहरि विष्णु ने मैना और हिमालय को
देवी जगदंबा को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने के लिए कहा। साथ ही देवी का
भक्तिपूर्वक चिंतन करने और उनकी भक्तिभावना से तपस्या करने का उपदेश देकर सभी
देवताओं सहित विष्णुजी भी अपने बैकुण्ठ लोक को चले गए। तत्पश्चात मैना और हिमालय
दोनों सदैव देवी जगदंबा के अमृतमयी और कल्याणमयी स्वरूप का चितन करते और उनकी
आराधना में ही मग्न रहते थे। मैना देवी की कृपादृष्टि पाने के लिए शिवजी सहित उनकी
आराधना करती थीं। वे ब्राह्मणों को दान देतीं और उन्हें भोजन कराती थीं। मन में देवी दुर्गा
को पुत्री रूप में पाने की इच्छा लिए हिमालय और मैना ने चैत्रमास से आरंभ कर सत्ताईस
वर्षों तक देवी की पूजा अर्चना नियमित रूप से की। मैना अष्टमी तिथि व्रत रखकर नवमी को
लड्डू, खीर, पीठी, शृंगार और विभिन्न प्रकार के पुष्पों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करतीं।
उन्होंने गंगा के किनारे दुर्गा देवी की मूर्ति बना रखी थी। वे सदैव उसकी नियम से पूजा करती
थीं। मैना देवी की निराहार रहकर पूजा करतीं। कभी जल पीकर, कभी हवा से ही व्रत को
पूरा करतीं। सत्ताईस वर्षो तक नियमपूर्वक भक्तिभावना से जगदंबा दुर्गा की आराधना करने
के पश्चात वे प्रसन्न हो गईं। तब देवी जगदंबा ने मैना और हिमालय को अपने साक्षात दर्शन
दिए।
देवी जगदंबा बोलीं-हे गिरिराज हिमालय और महारानी मैना! मैं तुम दोनों की तपस्या से
बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए जो तुम्हारी इच्छा हो वह वरदान मांग सकते हो। हे हिमालय प्रिया
मैना! तुम्हारी तपस्या और व्रत से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इसलिए मैं तुम्हें मनोवांछित फल
प्रदान करूंगी। सो, जो इच्छा हो कहो। तब मीना देवी दुर्गा को भक्तिभावना से प्रणाम करके
बोलीं-देवी जगदंबिके! आपके प्रत्यक्ष दर्शन करके मैं धन्य हो गई। हे देवी। मैं आपके
स्वरूप को प्रणाम करती हूं। हे माते! हम पर प्रसन्न होइए।
मैना के वचनों को सुनकर देवी दुर्गा को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने मैना को गले से
लगा लिया। देवी के गले लगते ही मैना को ज्ञान की प्राप्ति हो गई। तब वे देवी जगदंबा से
कहने लगीं-इस जगत को धारण करने वाली! लोकों का पालन करने वाली! तथा
मनोवांछित फलों को देने वाली देवी! मैं आपको प्रणाम करती हूं। आप ही इस जगत में
आनंद का संचार करती हैं। आप ही माया हैं। आप ही योगनिद्रा हैं। आप अपने भक्तों के
शोक और दुखों को दूर करती हैं। आप ही अपने भक्तों को अज्ञानता के अंधेरों से निकालकर
उन्हें ज्ञान रूपी तेज प्रदान करती हैं। भला मैं तुच्छ स्त्री कैसे आपकी महिमा का वर्णन कर
सकती हूं। आप आकार रहित तथा अदृश्य हैं। आप शाश्वत शक्ति हैं। आप परम योगिनी हैं
और इच्छानुसार नारी रूप में धरती पर अवतार लेती हैं। आप ही पृथ्वीलोक पर चारों ओर
फैली प्रकृति हैं। ब्रह्म के स्वरूप को अपने वश में करने वाली विद्या आप ही हैं। हे जगदंबा
माता! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आप ही यज्ञ में अग्ने के रूप में प्रज्वलित होती हैं। माता!
आप ही सूर्य की किरणों को प्रकाश प्रदान करने वाली शक्ति हैं। चंद्रमा की शीतलता भी आप
ही हैं। ऐसी महान और मंगलकारी देवी जगदंबा का मैं स्तवन करती हूं। माते! मैं आपकी
वंदना करती हूं। संपूर्ण जगत का पालन करने वाली और जगत का कल्याण करने वाली
शक्ति भी आप ही हैं। आप ही श्रीहरि की माया हैं। है दुर्गा मां! आप ही इच्छानुसार रूप
धारण करके इस संसार की रचना, पालन और संहार करती हैं। हे देवी! मैं आपको नमस्कार
करती हूं। कृपा करके हम पर प्रसन्न होइए।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! मैना द्वारा भक्तिभाव से की गई स्तुति को सुनकर देवी बोलीं कि
मैना तुम अपना मनोवांछित वर मांग लो। तुम्हारे द्वारा मांगी गई वस्तु मैं अवश्य प्रदान
करूंगी। मेरे लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं है।
देवी जगदंबा के इन वचनों को सुनकर मैना बहुत खुश हुई और बोलीं-हे शिवे! आपकी
जय हो। हे जगदंबिके! आप ही ज्ञान प्रदान करती हैं। आप ही सबको मनोवांछित वस्तु प्रदान
करती हैं। हे देवी! मैं आपसे वरदान मांगती हूं। हे माते! आप मुझे सौ पुत्र प्रदान करें जो
बलशाली और पराक्रमी हों, जिनकी आयु लंबी हो। तत्पश्चात मेरी एक पुत्री हो, जो साक्षात
आपका ही रूप हो। हे देवी! आप सारे संसार में पूजित हैं तथा सभी गुणों से संपन्न और
आनंद देने वाली हैं। हे माता! आप ही सभी कार्यो की सिद्धि करने वाली हैं। हे भगवती।
देवताओं के कार्यो को पूरा करने के लिए आप रुद्रदेव की पत्नी होइए और इस संसार को
अपनी कृपा से कृतार्थ करने के लिए मेरी पुत्री बनकर जन्म लीजिए।
मैना के कहे वचनों को सुनकर देवी भगवती मुस्कुराने लगीं। तब सबके मनोरथों को पूर्ण
करने वाली देवी मुस्कुराते हुए बोलीं मैना! मैं तुम्हारी भक्तिभाव से की गई तपस्या से बहुत
प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारे द्वारा मांगे गए वरदानों को अवश्य ही पूर्ण करूंगी। सर्वप्रथम मैं तुम्हें सौ
बलशाली पुत्रों की माता होने का वर प्रदान करती हूं। उन सौ पुत्रों में से सबसे पहले जन्म
लेने वाला पुत्र सबसे अधिक शक्तिशाली और बलशाली होगा। तत्पश्चात मैं स्वयं तुम्हारी पुत्री
के रूप में तुम्हारे गर्भ से जन्म लूंगी। तब मैं देवताओं के हित का कल्याण करूंगी।
ऐसा कहकर जगत जननी, परमेश्वरी देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गई। तब महेश्वरी से
अपने द्वारा मांगा गया अभीष्ट फल पाकर देवी मैना खुशी से झूम उठीं। तत्पश्चात वे अपने घर
चली गई। घर जाकर मैना ने अपने पति हिमालय को भी अपनी तपस्या की पूर्णता और
वरदानों की प्राप्ति के बारे में बताया। जिसे सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब वे दोनों
अपने भाग्य की सराहना करने लगे। तत्पश्चात, कुछ समय बाद मीना को गर्भ ठहरा।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। समय पूर्ण होने पर मीना ने एक पुत्र को जन्म दिया
जिसका नाम मैनाक रखा गया। पुत्र प्राप्ति की सूचना मिलने पर हिमालय हर्ष से उद्वेलित हो
गए और उन्होंने अपने नगर में बहुत बड़ा उत्सव किया। इसके बाद हिमालय के यहां
निन्यानवे और पुत्रों ने जन्म लिया। सौ पुत्रों में मैनाक सबसे बड़ा और बलशाली था। उसका
विवाह नाग कन्याओं से हुआ। जब इंद्र देव पर्वतों पर क्रोध करके उनके पंखों को काटने लगे
तो मैनाक समुद्र की शरण में चला गया। उस समय पवनदेव ने इस कार्य में मैनाक की
सहायता की। वहां उसकी समुद्र से मित्रता हो गई। मैनाक पर्वत ही अपने बाद प्रकटे सभी
पर्वतों में पर्वतराज कहलाता है।
छठा अध्याय
पार्वती जन्म
ब्रह्माजी कहते हैं--हे नारद! तत्पश्चात हिमालय और मैना देवी भगवती और शिवजी के
चिंतन में लीन रहने लगे। उसके बाद जगत की माता जगदंबिका अपना कथन सत्य करने के
लिए अपने पूर्ण अंशों द्वारा पर्वतराज हिमालय के हृदय में आकर विराजमान हुईं। उस समय
उनके शरीर में अद्भुत एवं सुंदर प्रभा उतर आई। वे तेज से प्रकाशित हो गए और आनंदमग्न
हो देवी का ध्यान करने लगे। तब उत्तम समय में गिरिराज हिमालय ने अपनी प्रिया मैना के
गर्भ में उस अंश को स्थापित कर दिया। मैना ने हिमालय के हृदय में विराजमान देवी के अंश
से गर्भ धारण किया। देवी जगदंबा के गर्भ में आने से मैना की शोभा व कांति निखर आई
और वे तेज से संपन्न हो गईं। तब उन्हें देखकर हिमालय बहुत प्रसन्न रहने लगे। जब देवताओं
सहित श्रीहरि और मुझे इस बात का ज्ञान हुआ तो हमने देवी जगदंबिका की बहुत स्तुति की
और सभी अपने-अपने धाम को चले गए। धीरे-धीरे समय बीतता गया। दस माह पूरे हो जाने
के पश्चात देवी शिवा ने मैना के गर्भ से जन्म ले लिया। जन्म लेने के पश्चात देवी शिवा ने मैना
को अपने साक्षात रूप के दर्शन कराए। देवी के जन्म दिवस वाले दिन बसंत ऋतु के चैत्र
माह की नवमी तिथि थी। उस समय आधी रात को मृगशिरा नक्षत्र था। देवी के जन्म से सारे
संसार में प्रसन्नता छा गई। मंद-मंद हवा चलने लगी। सारा वातावरण सुगंधित हो गया।
आकाश में बादल उमड़ आए और हल्की-हल्की फुहारों के साथ पुष्प वर्षा होने लगी। तब मां
जगदंबा के दर्शन हेतु विष्णुजी और मेरे सहित सभी देवी-देवता गिरिराज हिमालय के घर
पहुंचे। देवी के दर्शन कर सबने दिव्यरूपा महामाया मंगलमयी जगदंबिका माता की स्तुति
की। तत्पश्चात सभी देवता अपने-अपने धाम को चले गए।
स्वयं माता जगदंबा को पुत्री रूप में पाकर हिमालय और मैना धन्य हो गए। वे अत्यंत
आनंद का अनुभव करने लगे। देवी के दिव्य रूप के दर्शन से मैना को उत्तम ज्ञान की प्राप्ति
हो गई। तब मैना देवी से बोली-हे जगदंबा! हे शिवा! हे महेश्वरी! आपने मुझ पर बड़ी कृपा
की, जो अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन मुझे दिए। हे माता! आप तो परम शक्ति हैं। आप तीनों
लोकों की जननी हैं और देवताओं द्वारा आराध्य हैं। हे देवी! आप मेरी पुत्री रूप में आकर
शिशु रूप धारण कर लीजिए।
मैना की बात सुनकर देवी मुस्कुराते हुए बोलीं मैना! तुमने मेरी बड़ी सेवा की है। तुम्हारी
भक्ति भावना से प्रसन्न होकर ही मैने तुम्हें वर मांगने के लिए कहा था और तुमने मुझे अपनी
पुत्री बनाने का वर मांग लिया था। तब मैंने 'तथास्तु' कहकर तुम्हें अभीष्ट फल प्रदान किया
था। तत्पश्चात मैं अपने धाम चली गई थी। उस वरदान के अनुसार आज मैने तुम्हारे गर्भ से
जन्म ले लिया है। तुम्हारी इच्छा का सम्मान करते हुए मैंने तुम्हें अपने दिव्य रूप के दर्शन
दिए। अब आप दोनों दंपति मुझे अपनी पुत्री मानकर मेरा लालन-पालन करो और मुझसे
स्नेह रखो। मैं पृथ्वी पर अदभुत लीलाएं करूंगी तथा देवताओं के कार्यों को पूरा करूंगी।
बड़ी होकर मैं भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर उनकी पत्नी बनकर इस जगत का
उद्धार करूंगी।
ऐसा कहकर जगतमाता देवी जगदंबा चुप हो गईं। तब देखते ही देखते देवी भगवती नन्हे
शिशु के रूप में परिवर्तित हो गई।
सातवां अध्याय
पार्वती का नामकरण
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! मैना के सामने जब देवी जगदंबिका ने शिशु रूप धारण
किया तो वे सामान्य बच्चे की भांति रोने लगीं। उनका रोना सुनकर सभी स्त्रियां और पुरुष,
जो उस समय वहां उपस्थित थे, प्रसन्न हो गए। उस श्यामकांति वाली नीलकमल के समान
शोभित उस परम तेजस्वी सुंदर कन्या को देखकर गिरिराज हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब
शुभ मुहूर्त में हिमालय ने अपनी पुत्री का नाम रखने के बारे में सोचा। उस समय मैना और
हिमालय बहुत प्रसन्न थे। तब देवी के गुणों और सुशीलता को देखकर उनका नाम 'पार्वती'
रखा गया। चंद्रमा की कला की तरह हिमालय पुत्री धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके अंग-
प्रत्यंग चंद्रमा की कला एवं बिंब के समान अत्यंत शोभायमान होने लगे। गिरिजा अपनी
सहेलियों के साथ खेलती थीं। पार्वती अपनी सखियों के साथ कभी गंगा की रेत से घर
बनातीं तो कभी कंदुक क्रीड़ा करतीं। खेलती-खेलती वे बड़ी होने लगीं। जब वे शिक्षा के
योग्य हो गई, तो आचार्यो ने उन्हें विभिन्न धर्मशास्त्रं का उपदेश देना प्रारंभ किया। उससे उन्हें
अपने पूर्व जन्म की सभी बातें स्मरण हो आई। मुने! इस प्रकार मैंने शिवा की लीला का
वर्णन तुमसे किया है।
एक समय की बात है तुम शिवलीला से प्रेरित होकर हिमालय के घर गए। हे नारद! तुम
शिवतत्व के ज्ञाता हो और उनकी विभिन्न लीलाओं को समझते हो। तुम्हें आया हुआ देखकर
हिमालय-मैना ने तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक नमस्कार किया तथा खूब आदर-सत्कार किया।
तत्पश्चात हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती को बुलाया और उससे तुम्हारे चरणों में प्रणाम
कराया। फिर स्वयं भी बार-बार नमस्कार करने लगे और बोले-हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद। हे
ब्रह्मा पुत्र नारद! आप परम ज्ञानी हैं। आप सदैव सबका उपकार करते हैं। आप भूत, भविष्य
और वर्तमान जानते हैं। आप परोपकारी और दयालु हैं। कृपया मेरी कन्या का भाग्य बताएं
और मुझे यह भी बताएं कि मेरी बेटी किसकी सौभाग्यवती पत्नी होगी?
नारद! हिमालय के ऐसे प्रश्न सुनकर तुमने पार्वती का हाथ देखा और उसके मुख मंडल
को देखकर कहना शुरू किया। हे गिरिराज और मैना! आपकी यह पुत्री चंद्रमा की कला की
तरह शोभित हो रही है। यह समस्त शुभ लक्षणों से युक्त है। इसका भाग्य बड़ा प्रबल है। यह
अपने पति के लिए सुखदायिनी होगी। साथ ही अपने माता-पिता के यश और कीर्ति को
बढ़ाएगी। यह परम साध्वी और संसार की स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ होगी। इसका पति योगी, नग्न,
निर्गुण, कामवासना से रहित, माता-पिता हीन, अभिमान से रहित, पवित्र एवं साधु वेषधारी
होगा। इस बात को सुनकर मैना और हिमालय दोनों दुखी हो गए। पार्वती देवी सोचने लगीं
कि मुनि नारद की बात हमेशा सत्य होती है। जो लक्षण नारद जी ने बताए हैं वे सभी तो
शिवजी में विद्यमान हैं। भगवान शिव को अपना भावी पति मानकर पार्वती मन ही मन हर्ष से
खिल उठीं और शिवजी के चरणों का चिंतन करने लगीं। तब हिमालय बड़े दुखी स्वर से बोले
कि हे नारद। अपनी पुत्री के भावी पति के विषय में जानकर मैं बहुत दुखी हूं। आप कृपया
मेरी पुत्री को बचाने का कोई मार्ग सुझाएं।
गिरिराज हिमालय के ये वचन सुनकर हे नारद तुमने कहा--गिरिराज, मेरी कही बात
सर्वथा सच होगी क्योंकि हाथ की रेखाएं ब्रह्माजी द्वारा लिखीं जाती हैं और कभी भी झूठ
नहीं हो सकतीं। इस रेखा का फल तो अवश्य मिलेगा किंतु ऐसा होने पर भी पार्वती
सुखपूर्वक रहे इस हेतु पार्वती का विवाह भगवान शिव से कर दें। भगवान शिव में ये सभी
गुण हैं। महादेव जी में ये अशुभ लक्षण भी शुभ हो जाते हैं। इसलिए गिरिराज, तुम बिना
विचार किए अपनी कन्या का विवाह भगवान शिव से कर दो। वे सबके ईश्वर हैं तथा
निर्विकार, सामर्थ्यवान और अविनाशी हैं किंतु ऐसा होना इतना सरल नहीं है। पार्वती-शिव
विवाह तभी संभव हो सकता है, जब किसी तरह भगवान शिव प्रसन्न हो जाएं। भगवान
शंकर को प्रसन्न करने और वश में करने का सबसे सरल और उत्तम साधन है यदि आपकी
पुत्री भगवान शिव की अनन्य भक्ति भाव से तपस्या करे तो सब ठीक हो जाएगा। पार्वती
भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करेंगी। वे सदैव भगवान शिव के अनुसार ही कार्य
करेंगी क्योंकि वे उत्तम व्रत का पालन करने वाली महासाध्वी हैं। वे अपने माता-पिता के सुख
को बढ़ाने वाली हैं।
हे गिरिराज हिमालय! भगवान शिव और शिवा का प्रेम तो अलौकिक है। ऐसा प्रेम न तो
किसी का हुआ है और ना ही होगा। भगवान शिव इनके अलावा और किसी स्त्री को अपनी
पत्नी नहीं बनाएंगे। हिमालय! शिव-शिवा को एकाकार होकर देवताओं की सिद्धि के लिए
अनेक कार्य करने हैं। आपकी पुत्री को पत्नी रूप में प्राप्त करके ही भगवान अद्धनारीश्वर
होंगे। आपकी पुत्री पार्वती भगवान शिव की तपस्या से उन्हें संतुष्ट कर उनकी अद्धांगिनी बन
जाएंगी।
मुनि नारद! तुम्हारे इन वचनों को सुनकर हिमालय बोले-है मुनिश्रेष्ठ नारद! भगवान
शिव सभी प्रकार की इच्छाओं का त्याग करके अपने मन को संयम में रखकर नित्य तपस्या
करते हैं। उनका ध्यान सदैव परमब्रह्म में लगा रहता है। भला वे अपने मन को कैसे योग से
हटाकर मोह-माया के बंधनों में फंसने हेतु विवाह करेंगे। जो भगवान शिव अविनाशी, प्रकृति
से परे, निर्गुण, निराकार और दीपक की ली की तरह प्रकाशित हैं और सदैव परमब्रह्म के
प्रकाशपुंज को तलाशते हैं, वे कैसे मेरी पुत्री से विवाह करने पर राजी होंगे। मेरी जानकारी के
अनुसार भगवान शिव ने बहुत पहले अपनी पत्नी सती के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे
उनके अलावा किसी और को पत्नी रूप में कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। अब जब सती ने
अपने शरीर को त्याग दिया है, तो वे किसी और स्त्री को कैसे ग्रहण करेंगे? यह सुनकर
आपने कहा, गिरिराज! आपको इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारी कन्या ही पूर्व जन्म
में दक्ष की पुत्री सती थी और शिवजी की प्राणप्रिया थी। अपने पिता दक्ष द्वारा अपने पति का
अनादर देखकर लज्जित होकर सती ने योगाग्नि में अपने को भस्म कर दिया था। अब वही
देवी जगदंबा, जो पहले सती के रूप में अवतरित हुई थीं, अब पार्वती के रूप में तुम्हारी पुत्री
बनी हैं। इसलिए तुम्हें पार्वती के विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। देवी
पार्वती ही भगवान शिव की पत्नी होंगी।
तुम्हारी बातें सुनकर गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना व उनके पुत्रों को बहुत
संतोष हुआ और उनके सभी संदेह और शंकाएं पूर्णतः दूर हो गए। पास ही बैठी पार्वती ने भी
अपने पूर्व जन्म की कथा के विषय में सुना। भगवान शिव को अपना पति जानकर देवी
पार्वती लज्जा से सिर झुकाकर बैठ गईं। मैना और हिमालय ने उनके सिर पर हाथ फेरकर
उन्हें अनेक आशीर्वाद दिए। तत्पश्चात पार्वती को तपस्या के विषय में बताकर नारद आप
वहां से अंतर्धान हो गए। आपके जाने के बाद मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए।
आठवां अध्याय
मैना और हिमालय की बातचीत
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! तुम्हारे स्वर्गलोक जाने के पश्चात कुछ समय तक सबकुछ ऐसे
ही चलता रहा। एक दिन मैना अपने पति हिमालय के पास गई और उन्हें प्रणाम कर उनसे
कहने लगी--
हे प्राणनाथ! उस दिन जब देवर्षि नारद हमारे यहां पधारे थे और पार्वती का हाथ देखकर
उसके विषय में अनेक बातें बता गए थे, तब मैंने उनकी बातों पर ध्यान दिया था। अब पार्वती
बड़ी हो रही है। मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप उसके विवाह के लिए सुयोग्य व सुंदर
वर की खोज शुरू कर दे। जिसके साथ हमारी पुत्री पार्वती सुख से अपना जीवन व्यतीत कर
सके। वह शुभ लक्षणों वाला तथा कुलीन होना चाहिए क्योंकि मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों
से भी अधिक प्यारी है। मैं सिर्फ पुत्री का सुख चाहती हूं।
यह कहकर मैना की आंखों में आंसू आ गए और वे अपने पति के चरणों में गिर पड़ीं।
तत्पश्चात हिमालय ने पत्नी मैना को प्रेमपूर्वक उठाया और उन्हें समझाने लगे। वे बोले-हे
देवी! तुम व्यर्थ की चिंता त्याग दो। मुनि नारद की बात कभी झूठ नहीं हो सकती। यदि तुम
पार्वती को सुखी देखना चाहती हो तो उसे भगवान शिव की तपस्या के लिए प्रेरित करो। यदि
शिवजी प्रसन्न हो गए तो वे स्वयं ही पार्वती का पाणिग्रहण कर लेंगे। तब सबकुछ शुभ ही
होगा। सभी अनिष्ट और अशुभ लक्षणों का नाश होगा। भगवान शंकर सदा मंगलकारी हैं।
इसलिए तुम पार्वती को शिवजी की कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए तपस्या करने की शिक्षा
दो।
हिमालय की बात सुनकर मीना प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को तपस्या के लिए
कहने उनके पास चली गई।
नवां अध्याय
पार्वती का स्वप्न
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब मैना पार्वती के पास पहुंचीं तो उन्हें देखकर सोचने
लगीं कि मेरी पुत्री तो कोमल और नाजुक है। यह सदैव राजसी ठाठ-बाट में रही है। दुख और
कष्टों को सहना तो दूर की बात है इनके बारे में भी यह सर्वथा अनजान है। पार्वती को उन्होंने
बड़े ही लाड़ और प्यार से पाला है। तब कैसे मैं अपनी प्रिय पुत्री को कठोर तपस्या करने के
लिए प्रेरित कर सकती हूं? यही सब सोचकर मैना अपनी पुत्री से तपस्या के लिए कुछ नहीं
बोल सकीं। तब अपनी माता के चिंतित चेहरे को देखकर साक्षात जगदंबा का अवतार धारण
करने वाली देवी पार्वती यह जान गईं कि उनकी माताजी कया कहना चाहती हैं? तब सबकुछ
जानने वाली देवी भगवती का साक्षात स्वरूप पार्वती बोलीं-हे माता! आप यहां कब आई?
आप बैठिए। माता, पिछली रात्रि के ब्रह्ममुहूर्त में मैंने एक स्वप्न देखा है। उसके विषय में मैं
आपको बताती हूं। मेरे सपने में एक दयालु और तपस्वी ब्राह्मण आए। जब मैंने उन्हें हाथ
जोड़कर नमस्कार किया तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि तुम अवश्य ही भगवान शिव शंकर की
प्राणवल्लभा बनोगी। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रेमपूर्वक तपस्या करो।
यह सुनकर मैना ने अपनी पुत्री के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा और अपने पति हिमालय को
वहां बुलाया। हिमालय के आने पर मैना ने पार्वती के सपने के बारे में उनको बताया। तब
उनके मुख से पुत्री के सपने के विषय में जानकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब वे अपनी
पत्नी से बोले--प्रिय मैना! मैंने भी पिछली रात को एक सपना देखा था। मैंने अपने सपने में
एक बड़े उत्तम तपस्वी को देखा। वे नारद मुनि द्वारा बताए गए सभी लक्षणों से युक्त थे। वे
उत्तम तपस्वी मेरे नगर में तपस्या करने के लिए आए थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत खुशी हुई।
मैं अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर उनके दर्शनों के लिए उनके पास पहुंचा। तब मुझे ज्ञात
हुआ कि वे नारद जी के बताए हुए वर भगवान शिव ही हैं। तब मैंने पार्वती को उनकी सेवा
करने का उपदेश दिया परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। तभी वहां सांख्य और वेदांत पर
विवाद छिड़ गया। तत्पश्चात उनकी आज्ञा पाकर पार्वती वहीं रहकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा
करने लगीं। हे प्रिये! यही मेरा सपना था जिसे देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मैं सोचता हूं
कि हमें कुछ समय तक इस सपने के सच होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा कहकर
हिमालय और मैना उस उत्तम सपने के सच होने की प्रतीक्षा करने लगे।
दसवा अध्याय
भौम-जन्म
ब्रह्माजी बोले--नारद! भगवान शिव का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्द्धक और
उत्तम है। दक्ष-यज्ञ से वे अपने निवास कैलाश पर्वत पर वापस आ गए थे। वहां आकर
भगवान शिव अपनी पत्नी सती के वियोग से बहुत दुखी थे। उनका मन देवी सती का स्मरण
कर रहा था और वे उन्हें याद करके व्याकुल हो रहे थे। तब उन्होंने अपने सभी गणों को वहां
पर बुलाया और उनसे देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। फिर
गृहस्थ धर्म को त्यागकर वे कुछ समय तक सभी लोकों में सती को खोजते हुए घूमते रहे।
इसके बाद वापस कैलाश पर्वत पर आ गए क्योंकि उन्हें कहीं भी सती का दर्शन नहीं हो
सका था। तब अपने मन को एकाग्र करके वे समाधि में बैठ गए। भगवान शिव इसी प्रकार
बहुत लंबे समय तक समाधि लगाकर बैठे रहे। असंख्य वर्ष बीत गए। समाधि के परिश्रम के
कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और वह बूंद एक शिशु में परिवर्तित हो
गई। उस बालक का रंग लाल था। उसकी चार भुजाएं थीं। उसका रूप मनोहर था। वह
बालक दिव्य तेज से संपन्न अनोखी शोभा पा रहा था। वह प्रकट होते ही रोने लगा। उसे
देखकर संसारी मनुष्यों की भांति शिवजी उसके पालन-पोषण का विचार करके व्याकुल हो
गए। उसी समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई। उसने उस बालक को अपनी गोद में उठा
लिया और उसका मुख चूमने लगीं। तब उन्होंने उसे दूध पिलाकर उस बालक के रोने को
शांत किया। फिर वह उसे खिलाने लगी। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं पृथ्वी माता थीं।
संसार की सृष्टि करने वाले, सबकुछ जानने वाले महादेव जी यह देखकर हंसने लगे। वह
पृथ्वी को पहचान चुके थे। वे पृथ्वी से बोले-हे धरिणी! तुम इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन
करो। यह शिशु मेरे पसीने की बूंद से प्रकट हुआ है। हे वसुधा! यद्यपि यह बालक मेरे पसीने
से उत्पन्न हुआ है परंतु इस जगत में यह तुम्हारे ही पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम
गुणवान और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख देने वाला होगा। हे देवी! तुम इसका
धारण करो।
नारद! यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए। उनका दुखी हृदय थोड़ा शांत हो गया था।
उधर शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी अपने पुत्र को साथ लेकर अपने निवास
स्थान पर चली गईं। बड़ा होकर यह बालक 'भौम' नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर भौम
काशी गया। वहां उसने बहुत लंबे समय तक भगवान शिव की सेवा-आराधना की। तब
भगवान शंकर की कृपादृष्टि पाकर भूमि पुत्र भीम दिव्यलोक को चले गए।
ग्यारहवां अध्याय
भगवान शिव की गंगावतरण तीर्थ में तपस्या
ब्रह्माजी बोले--नारद! गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती, जो साक्षात जगदंबा का
अवतार थीं, जब आठ वर्ष की हो गई तब भगवान शिव को उनके जन्म का समाचार मिला।
तब उस अदभुत बालिका को हृदय में रखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपने मन को
एकाग्र कर तपस्या करने के विषय में सोचा। तत्पश्चात नंदी एवं कुछ और गणों को अपने
साथ लेकर महादेव जी हिमालय के सर्वोच्च शिखर पर गंगोत्री नामक तीर्थ पर चले गए। इसी
स्थान पर पतित पावनी गंगा ब्रह्मलोक से गिर रही हैं। भगवान शिव ने उसी स्थान को तपस्या
करने के लिए चुना। शिवजी अपने मन को एकाग्रचित्त कर आत्मभूत, ज्ञानमयी, नित्य
ज्योतिर्मय चिदानंद स्वरूप परम ब्रह्म परमात्मा का चिंतन करने लगे। अपने स्वामी को ध्यान
में मग्न पाकर नंदी एवं अन्य शिवगण भी समाधि लगाकर बैठ गए। कुछ गण शिवजी की
सेवा करते तथा कुछ उस स्थान की सुरक्षा हेतु कार्य करते।
जब गिरिराज हिमालय को शिवजी के आगमन का यह शुभ समाचार प्राप्त हुआ तब वे
प्रेमपूर्वक मन में आदर का भाव लिए अपने सेवकों सहित उस स्थान पर आए जहां वे तपस्या
कर रहे थे। हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर रुद्रदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनकी
भक्तिभाव से पूजा-आराधना करने लगे। हाथ जोड़कर हिमालय बोले-भगवन्! आप यहां
पधारे, यह मेरा सौभाग्य है। प्रभु! आप भक्तवत्सल हैं। आज आपके साक्षात दर्शन पाकर
मेरा जन्म सफल हो गया है। आप मुझे अपना सेवक समझें और मुझे अपनी सेवा करने की
आज्ञा प्रदान करें। हे प्रभो। आपकी सेवा करके मेरा मन अत्यधिक आनंद का अनुभव
करेगा।
गिरिराज हिमालय के वचन सुनकर महादेव जी ने अपनी आंखें खोलीं और वहां हिमालय
और उनके सेवकों को खड़े देखा। उन्हें देखकर महादेव जी मुस्कुराते हुए बोले-हे गिरिराज!
मैं तुम्हारे शिखर पर एकांत में तपस्या करने के लिए आया हूं। हिमालय तुम तपस्या के धाम
हो, देवताओ, मुनियों और राक्षसों को भी तुम आश्रय प्रदान करते हो। गंगा, जो कि सबके
पापों को धो देती है, तुम्हारे ऊपर से होकर ही निकलती है। इसलिए तुम सदा के लिए पवित्र
हो गए हो। मैं इस परम पावन स्थल, जो कि गंगा का उद्गम स्थल है, पर तपस्या करने के
लिए आया हूं। मैं यह चाहता हूं कि मेरी तपस्या बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरी हो जाए।
इसलिए तुम ऐसी व्यवस्था करो कि कोई भी मेरे निकट न आ सके। अब तुम अपने घर
जाओ और इसका उचित प्रबंध करो।
ऐसा कहकर भगवान शिव चुप हो गए। तब हिमालय बोले-हे परमेश्वर! आप मेरे निवास
के क्षेत्र में पधारे, यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। मैं आपका स्वागत करता हूं। भगवन्
अनेकों मनुष्य आपकी अनन्य भाव से तपस्या और प्रार्थना करने पर भी आपके दर्शनों के
लिए तरसते हैं। ऐसे महादेव ने मुझ दीन को अपने अमृत दर्शनों से कृतार्थ किया है। भगवन्,
आप यहां पर तपस्या के लिए पधारे हैं। इससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। आज मैं स्वयं को देवराज
इंद्र से भी अधिक भाग्यशाली मानता हूं। आप यहां बिना किसी विघ्न-बाधा के एकाग्रचित्त हो
तपस्या कर सकते हैं। यहां आपको किसी भी तरह की कोई परेशानी नहीं होगी, ऐसा मैं
आपको विश्वास दिलाता हूं।
ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय अपने घर लौट गए। घर पहुंचकर उन्होंने अपनी पत्नी
मैना को शिवजी से हुई सारी बातों का वृत्तांत कह सुनाया। तब उन्होंने अपने सेवकों को
बुलाया और समझाते हुए कहने लगे कि आज से कोई भी गंगावतरण अर्थात गंगोत्री नामक
स्थान पर नहीं जाएगा। वहां जाने वाले को मैं दंड दूगा। इस प्रकार हिमालय ने अपने गणों
को शिवजी की तपस्या के स्थान पर न जाने का आदेश दे दिया।
बारहवां अध्याय
पार्वती को सेवा में रखने के लिए हिमालय का शिव को मनाना
ब्रह्माजी बोले--हे मुनि नारद! तत्पश्चात हिमालय अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर
शिवजी के पास गए। वहां जाकर उन्होंने योग साधना में डूबे त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को
दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया तथा इस प्रकार प्रार्थना करने लगे-भगवन्, मेरी पुत्री
पार्वती आपकी सेवा करने की बहुत उत्सुक है। इसलिए आपकी आराधना करने के लिए मैं
इसे अपने साथ यहां लाया हूं। हे प्रभु! यह अपनी दो सखियों के साथ आपकी सेवा में रहेगी।
आप मुझ पर कृपा करके इसे अपनी सेवा का अवसर प्रदान करिए। तब भगवान शिव ने उस
परम सुंदरी हिमालय कन्या पार्वती को देखकर अपनी आखें बंद कर लीं और पुनः परमब्रह्म
के स्वरूप का ध्यान करने में निमग्न हो गए। उस समय सर्वेश्वर एवं सर्वव्यापी शिवजी तपस्या
करने लगे। यह देखकर हिमालय इस सोच में डूब गए कि भगवान शंकर उनकी तपस्या
स्वीकार करेंगे या नहीं? तब एक बार पुन: हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी के चरणों
में प्रणाम किया और बोले-हे देवाधिदेव महादेव! हे भोलेनाथ! शिवशंकर! मैं दोनों हाथ
जोड़े आपकी शरण में आया हूं। कृपया आंखें खोलकर मेरी ओर देखिए। भगवन्! आप सभी
विपत्तियों को दूर करते हैं। हे भक्तवत्सल! मैं रोज अपनी पुत्री के साथ आपके दर्शनों के लिए
यहां आउऊंगा। कृपया मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए।
हिमालय के वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने नेत्र खोल दिए और
बोले-हे गिरिराज हिमालय! आप अपनी कन्या को घर पर ही छोड़कर मेरे दर्शनों को आ
सकते हैं, नहीं तो आपको मेरा भी दर्शन नहीं होगा। महेश्वर की ऐसी बात सुनकर हिमालय ने
अपना मस्तक झुका दिया और शिवजी से बोले-है प्रभु! हे महादेव जी! कृपया यह बताइए
कि मैं अपनी पुत्री के साथ आपके दर्शनों के लिए क्यों नहीं आ सकता? क्या मेरी पुत्री
आपकी सेवा के योग्य नहीं है? फिर इसे न लेकर आने का कारण मुझे समझ में नहीं आता।
हिमालय की बात सुनकर शिवजी हंसने लगे और बोले-हे गिरिराज! आपकी पुत्री सुंदर
चंद्रमुखी और अनेक शुभ लक्षणों से संपन्न है। इसलिए आपको इसे मेरे पास नहीं लाना
चाहिए क्योंकि विद्वानों ने नारी को माया रूपिणी कहा है। युवतियां ही तपस्वियों की तपस्या
में विघ्न डालती हैं। मैं योगी हूं। सदैव तपस्या में लीन रहता हूं और माया-मोह से दूर रहता हूं।
इसलिए मुझे स्त्री से दूर ही रहना चाहिए। हे हिमालय। आप धर्म के ज्ञानी और वेदों की
रीतियां जानते हैं। स्त्री की निकटता से मन में विषय वासना उत्पन्न हो जाती है और वैराग्य
नष्ट हो जाता है जिससे तपस्वी और योगी का ध्यान नष्ट हो जाता है। इसलिए तपस्वी को
स्त्रियों का साथ नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार कहकर भगवान शिव चुप हो गए। हिमालय शिवजी के ऐसे वचनों को सुनकर
चकित और व्याकुल हो गए। उन्हें चुप देखकर पार्वती देवी असमंजस में पड़ गई।
तेरहवां अध्याय
पार्वती-शिव का दार्शनिक संवाद
भगवान शंकर के वचन सुनकर पार्वती जी बोलीं--योगीराज! आपने जो कुछ भी मेरे
पिताश्री गिरिराज हिमालय से कहा उसका उत्तर मैं देती हूं। अंतर्यामी। आपने महान तप
करने का निश्चय किया है। ऐसा करने का निश्चय आपने शक्ति के कारण ही लिया है। सभी
कमो को करने की यह शक्ति ही प्रकृति है। प्रकृति ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार करती
है। प्रभु! आप थोड़ा विचार करें, प्रकृति क्या है? और आप कोन हैं? यदि प्रकृति न हो तो
शरीर तथा स्वरूप किस प्रकार हों? आप सदा प्राणियों के लिए वंदनीय और चिंतनीय हैं। यह
सब प्रकृति के ही कारण है।
पार्वती जी के वचनों को सुनकर उत्तम लीला करने वाले भगवान शिव हंसते हुए बोले-मैं
अपने कठोर तप द्वारा प्रकृति का नाश कर चुका हूं। अब मैं तत्व रूप में स्थित हूं। साधु
पुरुषों को प्रकृति का संग्रह नहीं करना चाहिए। भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को
सुनकर पार्वती हंसती हुई बोलीं-हे करुणानिधान! कल्याणकारी योगीराज! आपने जो
कहा, क्या वह प्रकृति नहीं है, तो फिर आप उससे अलग कैसे हो सकते हैं? बोलना या कुछ
भी करना अर्थात हमारे द्वारा किया गया हर क्रियाकलाप ही प्रकृति है। हम सदा ही प्रकृति के
ही वश में हैं। यदि आप प्रकृति से अलग हैं तो न आपको बोलना चाहिए और न ही कुछ और
करना चाहिए क्योंकि ये कार्य तो प्रकृति के हैं अर्थात प्राकृत हैं। भगवन्! आप हंसते, सुनते
खाते देखते और करते हैं वह सब भी तो प्रकृति का ही कार्य है। इसलिए व्यर्थ के वाद-विवाद
से कोई लाभ नहीं है। यदि आप वाकई प्रकृति से अलग हैं तो इस समय यहां तपस्या क्यों कर
रहे हैं? सच तो यह है कि आप प्रकृति के वश में हैं और इस समय अपने स्वरूप को खोजने
के लिए ही तपस्या में लीन रहना चाहते हैं। योगीराज! आप किस प्रकार की बात कर रहे हैं,
थोड़ा विचार कर कहें। यदि आपने प्रकृति का नाश कर डाला है तो आप किस प्रकार
विद्यमान रहेंगे, क्योंकि संसार तो सदा से ही प्रकृति से बंधा हुआ है। क्या आप प्रकृति का यह
तत्व नहीं जान रहे हैं कि मैं ही प्रकृति हूं। आप पुरुष हैं। यह पूर्णतया सच है। मेरे ही कारण
आप सगुण और साकार माने जाते हैं। भगवन्, आप जितेंद्रिय होने पर भी प्रकृति के अनुसार
ही कर्म करते हैं। हे महादेव! यदि आप यही मानते हैं कि आप प्रकृति से अलग हैं तो आपको
मेरी किसी भी सेवा से और किसी भी प्रकार से डरना नहीं चाहिए।
पार्वती के मुख से निकले सांख्य-शास्त्र में डूबे हुए वचन सुनकर भगवान शिव निरुत्तर हो
गए। तब उन्होंने पार्वती जी को अपने दर्शन और सेवा करने की आज्ञा प्रसन्नतापूर्वक प्रदान
कर दी। तत्पश्चात भगवान शिव पर्वतराज हिमालय से बोले-हे गिरिराज हिमालय! मैं तुम्हारे
इस शिखर पर तपस्या करना चाहता हूं। कृपया मुझे इसकी आज्ञा प्रदान करें।
देवाधिदेव भगवान शिव के इस प्रकार के वचनों को सुनकर गिरिराज हिमालय दोनों हाथ
जोड़कर बोले--हे महादेव! यह पूरा संसार आपका ही है। सभी देवता, असुर और मनुष्य
सदैव आपका ही पूजन और चिंतन करते हैं। मैं आपके सामने एक तुच्छ मनुष्य हूं, भला मैं
आपको किस प्रकार आज्ञा दे सकता हूं? प्रभु! यह आपकी इच्छा है, आप जब तक यहां
निवास करना चाहें, कर सकते हैं। गिरिराज के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव मुस्कुराने
लगे और आदरपूर्वक हिमालय से बोले--अब आप जाइए। अब हमारी तप करने की इच्छा
है। तुम्हारी कन्या नित्य आकर मेरे दर्शन कर सकती है और मेरी सेवा करने की भी मैं उसे
आज्ञा देता हूं।
लोक कल्याणकारी भगवान शिव के इन उत्तम वचनों को सुनकर हिमालय और पार्वती
जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नमस्कार किया और अपने घर
लौट गए। उसी दिन से पार्वती जी प्रतिदिन भगवान शिव के दर्शनों के लिए वहां आतीं। उस
समय उनके साथ उनकी दो सखियां भी वहां जातीं और भक्तिपूर्वक शिवजी की सेवा करतीं।
वे महादेव के चरणों को धोकर उस चरणामृत को पीती थीं। तत्पश्चात उनके चरणों को
पोंछतीं। फिर उनका षोडशोपचार अर्थात सोलह उपचारों से विधिवत पूजन करने के पश्चात
अपने घर वापस लौट आतीं। इस प्रकार प्रतिदिन शिवजी का पूजन करते हुए बहुत समय
व्यतीत हो गया। कभी-कभी पार्वतीजी अपनी सखियों के साथ वहां भक्तिपूर्वक उनके
भजनों को भी गाती थीं। एक दिन सदाशिव ने पार्वती जी को इस प्रकार अपनी सेवा में तत्पर
देखकर विचार किया कि जब इनके हृदय में उपजे अभिमान के बीज के अंकुर का नाश हो
जाएगा, तभी मैं इनका पाणिग्रहण करूंगा।
ऐसा सोचकर लीलाधारी भगवान शिव पुनः ध्यान में मग्न हो गए। तब उनका मन
चिंतामुक्त हो गया। तब देवी पार्वती भगवान शिव के रूप का चिंतन करती हुई भक्तिभाव से
उनकी सेवा करती रहतीं। भगवान शंकर भी शुद्ध भाव से पार्वती को प्रतिदिन दर्शन देते थे।
इसी बीच इंद्र और अन्य देवता व मुनि ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी की आज्ञा से
कामदेव हिमालय पर्वत पर गए। सभी देवताओं के कार्य की सिद्धि हेतु काम की प्रेरणा से वे
पार्वती-शिव का संयोग कराना चाहते थे। इसका कारण यह था कि महापराक्रमी तारकासुर
ने ऋषि-मुनियों और देवताओं की नाक में दम कर रखा था। उसका वध करने के लिए उन्हें
भगवान शिव जैसे महापराक्रमी और बलवान पुत्र की आवश्यकता थी।
कामदेव ने हिमालय के शिखर पर पहुंचकर अनेक यत्न किए परंतु भगवान शिव काम की
माया से मोहित न हो सके। उन्होंने क्रोध से कामदेव को भस्म कर दिया। अब शक्ति में ही
सामर्थ्य थी कि शिव को मोहित कर वे देवताओं की इच्छा को साकार करतीं। इसीलिए काम
के अनंग होने के बाद जनकल्याण के लिए तथा अपने व्रत को पूरा करने के लिए पार्वती ने
मन ही मन शिवजी को पति रूप में पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। कठोर तपस्या करके देवी
पार्वती ने शिवजी के हृदय को जीत लिया। तब वे दोनों अत्यंत प्रेम से प्रसन्नतापूर्वक रहने
लगे और उन्होंने देवताओं के महान कार्य को सिद्ध किया।
चौदहवां अध्याय
वज्रांग का जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना
नारद जी कहने लगे-ब्रह्माजी! तारकासुर कौन था? जिसने देवताओं को भी पीड़ित
किया। उन्हें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया और स्वर्ग पर अपना एकाधिकार स्थापित कर
लिया। कृपया मुझे इसके विषय में बताइए।
ब्रह्माजी बोले-हे मुनि नारद! मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि थे। उनकी तेरह स्त्रियां थीं,
जिसमें सबसे बड़ी दिति थीं। उससे हिरण्यर्काशिपु तथा हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र हुए।
हिरण्यर्काशिपु तथा हिरण्याक्ष को श्रीहरि विष्णु ने वाराह तथा नृसिंह का रूप धारण करके
मार दिया था। तब अपने पुत्रों के मर जाने से दुखी होकर दिति ने कश्यप से प्रार्थना की तथा
उनकी बहुत सेवा की। उनकी कृपा से दिति पुनः गर्भवती हुई। जब इंद्र को इस बात का पता
चला तो उन्होंने दिति के गर्भ में ही उनके बच्चे के छोटे-छोटे टुकड़े कर दिए परंतु दिति के
व्रत एवं अन्य भक्तिभाव से बालक को मारने में वे सफल न हुए। समय पूरा होने पर उसके
गर्भ से उनचास बालक उत्पन्न हुए। ये सभी भगवान शिव के गण हुए तथा शीघ्र ही स्वर्ग में
चले गए। तत्पश्चात दिति पुनः अपने पति कश्यप मुनि के पास गई और उनसे पुनः मां बनने
के विषय में कहने लगीं। तब कश्यप मुनि ने कहा-हे प्रिय दिति! अपना तन-मन शुद्ध कर
भक्ति भाव से तपस्या करो। दस हजार वर्ष बीतने के पश्चात तुम्हें तुम्हारी इच्छा के अनुरूप
पुत्र की प्राप्ति होगी। यह सुनकर दिति ने श्रद्धापूर्वक दस हजार वर्षो तक कठोर तपस्या की।
तपस्या के उपरांत पुनः वे अपने घर लौट आई। तब कश्यप मुनि की कृपा से दिति गर्भवती
हुई। इस बार उन्होंने एक अत्यंत पराक्रमी और बलवान पुत्र को जन्म दिया। इस पुत्र का नाम
वज्रांग था। वज्रांग दिति की इच्छा के अनुरूप ही था। दिति इंद्र द्वारा किए गए छल-कपट से
बहुत दुखी थी और उनसे बदला लेने के लिए अपने पुत्र वज्रांग को देवताओं से युद्ध करने की
आज्ञा दी।
वज्रांग और सभी देवताओं का बहुत भयानक युद्ध हुआ। तत्पश्चात वीर और पराक्रमी
वज्रांग ने अपनी माता के आशीर्वाद से सभी देवताओं को परास्त कर दिया और स्वर्ग का
राज्य हथिया कर वहां का राजा बन गया। सभी देवता उसके अधीन हो गए। तब यह देखकर
दिति को बहुत प्रसन्नता हुई। एक दिन कश्यप मुनि के साथ मैं स्वयं वज्रांग के पास गया। मैंने
वज्रांग से अनुरोध किया कि वह देवताओं को इंद्र की गलती की सजा न दे तथा इंद्र सहित
सभी देवताओं को क्षमा कर दे। मेरे इस प्रकार कहने पर वज्रांग बोला-हे ब्रह्मन्! मुझे राज्य
का कोई लोभ नहीं है। मैंने इंद्र की दुष्टता के कारण ही ऐसा किया है। इंद्र ने मेरी माता के गर्भ
में घुसकर मेरे भाइयों को मारने का प्रयत्न किया था। तभी मैंने इंद्र के राज्य को जीतकर उसे
स्वर्ग से निष्कासित कर दिया है। भगवन्! मुझे भोग-विलास की भी कोई इच्छा नहीं है। इंद्र
सहित सभी देवता अपने-अपने कर्मों का फल भोग चुके हैं। अब मैं स्वर्ग का राज्य इंद्र को
वापस सौंप सकता हूं। मैंने अपनी माता की आज्ञा मानकर यह सब किया है। प्रभो! आप
मुझे सार तत्व का उपदेश दें, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो।
वज्रांग के उद्देश्य को उत्तम जानकर मैंने उसे सात्विक तत्व के बारे में समझाया। फिर
मैंने एक सुंदर व गुणी स्त्री उत्पन्न की और उसका विवाह वज़रांग से करा दिया। वज्रांग ने
अपने सभी बुरे विचारों को त्याग दिया परंतु उसकी पत्नी के हृदय में बुरे विचारों का ही मानो
साम्राज्य था। उसकी पत्नी ने उसकी बहुत सेवा की। तब प्रसन्न होकर वज्रांग ने कहा-हे
प्राणप्रिया! तुम क्या चाहती हो? मुझे बताओ। मैं तुम्हारी इच्छाएं अवश्य पूरी करूंगा। यह
सुनकर वह परम सुंदरी बोली-पतिदेव! यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं तो कृपया मुझे इस
त्रिलोकी को जीतने वाला महापराक्रमी और बलवान पुत्र प्रदान करिए। जो ऐसा बलवान हो
कि समस्त देवता उससे भयभीत रहें। अपनी पत्नी के ऐसे वचन सुनकर वज्रांग सोच में डूब
गया क्योंकि वह स्वयं देवताओं से किसी प्रकार का कोई बैर नहीं रखना चाहता था परंतु
उसकी पत्नी देवताओं के साथ शत्रुता बढ़ाना चाहती थी। वज्रांग सोचने लगा कि यदि सिर्फ
अपनी पत्नी की इच्छा को सर्वोपरि मानकर उसे पूरा कर दिया तो सारे संसार सहित
देवताओं एवं मुनियों को दुख उठाना पड़ेगा और यदि पत्नी की इच्छा को पूरा नहीं किया तो
मैं नरक का भागी बनूंगा। तब इस धर्म संकट में पड़ने के बाद उसने अपनी पत्नी की
अभिलाषा को पूरा किया। अपनी पत्नी की इच्छानुसार पुत्र प्राप्त करने हेतु वज्रांग ने बहुत
वर्षों तक कठोर तपस्या की। मुझसे वर प्राप्त कर अत्यंत हर्षित होता हुआ वज्रांग अपनी
पत्नी को पुत्र प्रदान करने हेतु अपने लोक में चला गया।
पद्रहवा अध्याय
तारकासुर का जन्म व उसका तप
ब्रह्माजी बोले-है मुनिश्रेष्ठ नारद! कुछ समय बाद वज्रांग की पत्नी गर्भवती हो गई।
समय पूर्ण होने पर उसकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। वह बालक बहुत लंबा-चौड़ा
था। उसका शरीर बहुत अधिक विशाल था। वह अत्यंत शक्तिशाली और पराक्रमी था। उसके
जन्म के समय सारे संसार में कोहराम मच गया। चारों ओर उपद्रव होने लगे। आकाश में
भयानक बिजलियां चमकने लगीं तथा चारों दिशाओं में भयंकर गर्जनाएं होने लगीं। धरती पर
भूकंप आ गया। पहाड़ कांपने लगे। नदी, सरोवर का जल जोर-जोर से उछलने लगा। चारों
ओर आंधियां चलने लगीं। सूर्य को राहु ने निगल लिया और चारों ओर अंधकार छा गया।
उसके जन्म के समय के ऐसे अशुभ लक्षणों को देखते हुए कश्यप मुनि ने उसका नाम तारक
रखा। तारक का जन्म हो जाने पर वज्रांग के घर ही उसका लालन-पालन होने लगा। थोड़े ही
समय में तारक का शरीर और बड़ा हो गया। वह पर्वत के समान विशाल और विकराल होता
जा रहा था। कुछ समय पश्चात तारक ने अपनी माता और पिता वज्रांग से तपस्या करने की
आज्ञा मांगी। तब उसके माता-पिता ने प्रसन्नतापूर्वक उसको आज्ञा प्रदान कर दी। साथ ही
उसकी माता ने उसे यह आदेश दिया कि वह देवताओं को अवश्य जीते और उन पर अपना
आधिपत्य कर स्वर्ग पर अधिकार कर ले।
अपनी माता की आज्ञा पाकर वज्रांग का पुत्र तारक तपस्या करने के लिए मधुवन चला
गया। वहां तारक ने मुझे प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करना आरंभ कर दिया। उसने अपने
दोनों हाथों को सिर के ऊपर ऊंचा कर लिया और ऊपर की ओर देखने लगा तथा एक पैर पर
खड़े होकर एकाग्र मन से सौ वर्ष तक तपस्या करता रहा। उस समय वह केवल जल और
वायु से ही अपना जीवन यापन कर रहा था। तत्पश्चात उसने सौ वर्ष जल में, सौ वर्ष थल में,
सौ वर्ष अग्ने में रहकर कठिन तप करके मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न किया। फिर सौ वर्ष
पृथ्वी पर हथेली धारण करके, सौ वर्ष वृक्ष की शाखा को पकड़कर तथा अनेकों प्रकार के
दुख सह-सहकर वह तप करता रहा। इस तपस्या के प्रभाव से उसके शरीर से तेज निकलने
लगा। जिससे देव लोक जलने लगा। यह देखकर सभी देवता घबरा गए। फिर मैं स्वयं
तारकासुर के पास वरदान देने के लिए गया। मैंने तारकासुर से कहा-तारक! मैं तुम्हारी इस
दुस्सह तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने इस प्रकार कठोर तप करके मुझे प्रसन्न किया है।
तुम्हारा इसके पीछे क्या प्रयोजन है, निस्संकोच मुझे बताओ। मैं तुम्हें तुम्हारा मनोवांछित
फल अवश्य प्रदान करूंगा। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो।
ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर तारकासुर उनकी स्तुति करने लगा। तत्पश्चात वह बोला
— हे विधाता! हे ब्रह्माजी! अगर आप मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे वरदान देना चाहते हैं
तो प्रभु मुझे पहला वर यह दे कि आपके द्वारा बनाई गई इस सृष्टि में, मेरे समान कोई भी
तेजवान और बलवान न हो। दूसरा वर यह दें कि मैं अमर हो जाऊं अर्थात कभी भी मृत्यु को
प्राप्त न होऊं। तब मैंने कहा कि इस संसार में कोई भी अमर नहीं है। इसलिए तुम
इच्छानुसार मृत्यु का वर मांगो। तारक ने अहंकार भरी विनम्रता से निवेदन किया--भगवन्!
मेरी मृत्यु भगवान शंकर के वीर्य से उत्पन्न बालक के चलाए हुए शस्त्र से ही हो और कोई मेरा
वध न कर पाए।
मैंने तारक को उसके मांगे हुए वर प्रदान कर दिए तथा अपने लोक में लौट आया। वर
पाकर तारक बहुत खुश था। वह भी वर प्राप्ति का समाचार देने के लिए अपने घर को चला
गया। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने तारक को असुरों का राजा बना दिया। अब तारक तारकासुर
नाम से प्रसिद्ध हो गया। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था
इसलिए सबको पीड़ित कर, उनसे युद्ध कर, उन्हें हराकर सबके राज्यों पर अपना अधिकार
करता जा रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र ने भी डरकर अपना वाहन ऐरावत हाथी, अपना
खजाना और नौ सफेद रंग के घोड़े उसे दे दिए। ऋषियों ने डर के मारे कामधेनु गाय
तारकासुर को दे दी। इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी अपनी-अपनी प्रिय वस्तुएं तारकासुर
को अर्पित कर दीं। अन्य लोगों के पास भी जो उत्तम-उत्तम वस्तुएं थीं उन्हें भी दैत्यराज
तारक ने अपने अधिकार में कर लिया। इतना ही नहीं समुद्रों ने भी भयभीत होकर अपने
अंदर छिपे सभी अमूल्य रत्न निकालकर तारकासुर को सौंप दिए। तारकासुर के भय से पूरा
जगत कांपने लगा था। उसका आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा था। पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा,
वायु, अग्नि सभी तारकासुर के डर के कारण अपने सभी कार्य सुचारु रूप से कर रहे थे।
दैत्यराज तारकासुर ने देवताओं और पितरों के भागों पर भी अपना अधिकार जमा लिया था।
उसने इंद्र को युद्ध में हराकर स्वर्ग का सिंहासन भी हासिल कर लिया था। उसने स्वर्ग के
सभी देवताओं को वहां से निष्कासित कर दिया, जो अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर
भटक रहे थे।
सोलहवां अध्याय
तारक का स्वर्ग त्याग
ब्रह्माजी बोले--नारद जी! सभी देवता तारकासुर के डर के कारण मारे-मारे इधर-उधर
भटक रहे थे। इंद्र ने सभी देवताओं को मेरे पास आने की सलाह दी। सभी मेरे पास आए।
सभी देवताओं ने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मेरी अनेकों प्रकार से स्तुति करने
लगे। अपना दुख-दर्द बताते हुए देवता कहने लगे-हे विधाता! है ब्रह्माजी! आपने ही
तारकासुर को अभय का वरदान दिया है। तभी से तारक त्रिलोकों को जीतकर अभिमानी
होता जा रहा है। उसने लोगों को डरा-धमकाकर उन्हें अपने अधीन कर लिया है। तारक ने
स्वर्ग पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया है और हम सभी को स्वर्ग से निकाल दिया
है। उसने इंद्र के सिंहासन पर भी अपना अधिकार कर लिया है। अब उसके आदेश से उसके
असुर हमारे प्राणों के प्यासे बनकर हमें ही ढूंढ़ रहे हैं। तभी हम अपने प्राणों की रक्षा के लिए
आपकी शरण में आए हैं। हे प्रभु! हमारे दुखों को दूर कीजिए।
देवताओं के कष्टों को सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा-मैं
इस संबंध में कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि तारकासुर के घोर तप से प्रसन्न होकर ही मैंने
उसे अतुल्य बलशाली होने का वर प्रदान किया था, परंतु उसने मदांध होकर सभी देवताओं
और मनुष्यों को प्रताड़ित किया है और उनकी संपत्तियों पर जबरदस्ती अपना अधिकार कर
लिया है, इसलिए अब आप सभी इस बात से निश्चिंत रहिए कि एक दिन तारकासुर का
विनाश अवश्य ही होगा। उसकी मृत्यु जरूर होगी पर इस समय हम विवश हैं। इस समय
तारक को मैं, विष्णुजी और शिवजी इन तीनों में से कोई भी नहीं मार सकता क्योंकि उसने
मुझसे वर पाया है कि उसका वध शिवजी के वीर्य से उत्पन्न उनके पुत्र के द्वारा ही हो सकता
है। इसलिए तुम सबको शिवजी के विवाह के पश्चात उनके पिता बनने तक प्रतीक्षा करनी ही
पड़ेगी। प्रतीक्षा के अलावा अन्य कोई भी उपाय संभव नहीं है।
यह सुनकर इंद्र सहित सभी देवता असमंजस में पड़ गए तथा पूछने लगे कि प्रभु महादेव
जी की प्रिय पत्नी सती ने तो अपना शरीर योगाग्नि में नष्ट कर दिया है। अब वे कैसे और
किससे विवाह करेंगे और यह कैसे संभव हो सकेगा? तब मैंने उन्हें बताया कि प्रजापति दक्ष
की पुत्री और त्रिलोकीनाथ शिवजी की प्राणवल्लभा सती हिमालय पत्नी मैना के गर्भ से
जन्म लेकर बड़ी हो गई हैं। उनका नाम पार्वती है। पार्वती ही भगवान शिव की पत्नी बनने
का गौरव प्राप्त करेंगी। अतः अब तुम भगवान शिव के पास जाकर उन्हें विवाह के लिए राजी
करने की कोशिश करो। शिव-पार्वती का पुत्र ही तुम्हें तारकासुर के भय से मुक्त करा सकता
है। अतएव तुम भगवान शिव से प्रार्थना करो कि वे पार्वती के साथ विवाह करने के लिए
राजी हो जाएं। इस बात को अच्छे से जान लो कि शिवपुत्र ही तुम्हारा उद्धार कर सकता है।
अब मीं तारकासुर को समझाता हूं कि वह व्यर्थ में देवताओं को तंग करना बंद कर दे और
उन्हें उनका भाग वापिस दे दे और स्वयं भी शांति से जीवन यापन करे। यह कहकर मैंने इंद्र
व अन्य देवताओं को वहां से विदा किया। तत्पश्चात मैं स्वयं तारकासुर को समझाने के लिए
उसके पास गया। तारकासुर ने मुझे प्रणाम किया और मेरी स्तुति एवं वंदना करने लगा।
मैंने तारकासुर से कहा--हे पुत्र तारक! मैंने तुम्हारी भक्तिभाव से की गई तपस्या से प्रसन्न
होकर तुम्हें मनोवांछित वर प्रदान किए थे। वे वरदान मैंने खुशी से तुम्हारी बेहतरी के लिए
दिए थे परंतु तुम उन वरदानों का गलत उपयोग कर रहे हो। वर प्राप्त करने के उपरांत तुम
अपनी सीमाओं को भूल गए हो। अनावश्यक अभिमान के नशे में चूर होकर तुम्हें यह भी
याद नहीं रहा कि देवता सर्वथा पूजनीय और वंदनीय होते हैं। तुमने उन्हें भी कष्ट पहुंचाया है।
साथ ही उन्हें स्वर्ग से निकालकर बेघर कर दिया है। तुम्हारे सशस्त्र सैनिक अभी भी देवताओं
को मारने के लिए ढूंढ रहे हैं। तारकासुर, स्वर्ग पर सिर्फ देवताओं का ही अधिकार है। वहां से
उन्हें निकालने की तुम्हारी कैसे हिम्मत हुई? स्वर्ग का राज्य छोड़कर वापिस पृथ्वी पर लौट
जाओ और वहीं पर शासन करो। यह मेरी आज्ञा है।
तारकासुर को यह आदेश देकर मैं वहां से लौट आया। तत्पश्चात तारकासुर ने मेरी बात
का सम्मान करते हुए स्वर्ग का राज्य छोड़ दिया। वह पृथ्वी पर आकर शोणित नामक नगर
पर शासन करने लगा। मेरी आज्ञा पाकर देवताओं सहित देवेंद्र स्वर्गलोक को चले गए और
पूर्व की भांति पुनः स्वर्ग का शासन करने लगे।
सत्रहवां अध्याय
कामदेव का शिव को मोहने के लिए प्रस्थान
ब्रह्माजी बोले--नारद! स्वर्ग में सब देवता मिलकर सलाह करने लगे कि किस प्रकार से
भगवान रुद्र काम से सम्मोहित हो सकते हैं? शिवजी किस प्रकार पार्वती जी का पाणिग्रहण
करेंगे? यह सब सोचकर देवराज इंद्र ने कामदेव को याद किया। कामदेव तुरंत ही वहां पहुंच
गए। तब इंद्र ने कामदेव से कहा--हे मित्र! मुझ पर बहुत बड़ा दुख आ गया है। उस दुख का
निवारण सिर्फ तुम्हीं कर सकते हो। हे काम। जिस प्रकार वीर की परीक्षा रणभूमि में, स्त्रियों
के कुल की परीक्षा पति के असमर्थ हो जाने पर होती है, उसी प्रकार सच्चे मित्र की परीक्षा
विपत्ति काल में ही होती है। इस समय मैं भी बहुत बड़ी मुसीबत में फंसा हुआ हूं और इस
विपत्ति से आप ही मुझे बचा सकते हैं। यह कार्य देव हित के लिए है। इसमें कोई संशय नहीं
है।
देवराज इंद्र की बातें सुनकर कामदेव मुस्कुराए और बोले--हे देवराज! इस संसार में कौन
मित्र है और कौन शत्रु, यह तो वाकई देखने की वस्तु है। इसे कहकर कोई लाभ नहीं है।
देवराज, मैं आपका मित्र हूं और आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश अवश्य ही करूंगा।
इंद्रदेव, जिसने आपके पद और राज्य को छीनकर आपको परेशान किया है मैं उसे दण्ड देने
के लिए आपकी हर संभव मदद अवश्य करूंगा। अतः जो कार्य मेरे योग्य है, मुझे अवश्य
बताइए।
कामदेव के इस कथन को सुनकर इंद्रदेव बड़े प्रसन्न हुए और उनसे बोले--हे तात! मैं जो
कार्य करना चाहता हूं उसे सिर्फ आप ही पूरा कर सकते हैं। आपके अतिरिक्त कोई भी उस
कार्य को करने के विषय में सोच भी नहीं सकता। तारक नाम का एक प्रसिद्ध दैत्य है। तारक
ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या करके वरदान प्राप्त किया है। तारक अजेय हो गया है। अब वह
पूर्णतः निश्चिंत होकर पूरे संसार को कष्ट दे रहा है। वह धर्म का नाश करने को आतुर है।
उसने सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों को दुखी कर रखा है। हम देवताओं ने उससे
युद्ध किया परंतु उस पर अस्त्र-शस्त्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यही नहीं, स्वयं श्रीहरि का
सुदर्शन चक्र भी तारक का कुछ नहीं बिगाड़ सका। मित्र, भगवान शिव के वीर्य से उत्पन्न
हुआ बालक ही तारकासुर का वध कर सकता है। अतः तुम्हें भगवान शिव के हृदय में
आसक्ति पैदा करनी है।
भगवान शंकर इस समय हिमालय पर्वत पर तपस्या कर रहे हैं और देवी पार्वती अपनी
सखियों के साथ मिलकर महादेव जी की सेवा कर रही हैं। ऐसा करने के पीछे देवी पार्वती
का उद्देश्य प्रभु शिव को पति रूप में प्राप्त करना है परंतु भगवान शिव तो परम योगी हैं।
उनका मन सदैव ही उनके वश में है। हे कामदेव! आप कुछ ऐसा उपाय करें कि भगवान
शंकर के हृदय में पार्वती का निवास हो जाए और वे उन्हें अपनी प्राणवल्लभा बना उनका
पाणिग्रहण कर लें। आप कुछ ऐसा कार्य करें जिससे देवताओं के सभी कष्ट दूर हो जाएं और
हम सभी को तारकासुर नामक दैत्य से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए। यदि कामदेव
आप ऐसा करने में सफल हो जाएंगे तो हम सभी आपके सदैव आभारी रहेंगे। ब्रह्माजी बोले
नारद! देवराज इंद्र के कथन को सुनकर कामदेव का मुख प्रसन्नता से खिल गया। तब
कामदेव देवराज से कहने लगे कि मैं इस कार्य को अवश्य करूंगा। इंद्रदेव को कार्य करने का
आश्वासन देकर कामदेव अपनी पत्नी रति और वसंत को अपने साथ लेकर हिमालय पर्वत
पर चल दिए, जहां शिवजी तपस्या कर रहे थे।
अठारहवां अध्याय
कामदेव का भस्म होना
ब्रह्माजी बोले--हे मुनि नारद! कामदेव अपनी पत्नी रति और वसंत ऋतु को अपने साथ
लेकर हिमालय पर्वत पर पहुंचे जहां त्रिलोकीनाथ भगवान शिव शंकर तपस्या में मग्न बैठे थे।
कामदेव ने शिवजी पर अपने बाण चलाए। इन बाणों के प्रभाव से शिवजी के हृदय में देवी
पार्वती के प्रति आकर्षण होने लगा तथा उनका ध्यान तपस्या से हटने लगा। ऐसी स्थिति देख
महायोगी शिव अत्यंत आश्चर्यचकित हुए और मन में सोचने लगे कि मैं क्यों अपना ध्यान
एकाग्रचित्त नहीं कर पा रहा हूं? मेरी तपस्या में यह कैसा विघ्न आ रहा है?
अपने मन में यह सोचकर भगवान शिव इधर-उधर चारों ओर देखने लगे। जब महादेव जी
की दृष्टि दिशाओं पर पड़ी तो वे भी डर के मारे कांपने लगीं। तभी भगवान शिव की दृष्टि
सामने छिपे हुए कामदेव पर पड़ी। उस समय काम पुनः बाण छोड़ने वाले थे। उन्हें देखते ही
शिवजी को बहुत क्रोध आ गया। इतने में काम ने अपना बाण छोड़ दिया परंतु क्रोधित हुए
शिवजी पर उसका कोई प्रभाव नहीं हो सका। वह बाण शिवजी के पास आते ही शांत हो
गया। तब अपने बाण को बेकार हुआ देख कामदेव डर से कांपने लगे और इंद्र आदि
देवताओं को याद करने लगे। सभी देवतागण वहां आ पहुंचे और महादेव जी को प्रणाम
करके उनकी भक्तिभाव से स्तुति करने लगे।
जब देवतागण उनकी स्तुति कर ही रहे थे तभी भगवान शिव के मस्तक के बीचोंबीच
स्थित तीसरा नेत्र खुला और उसमें से आग निकलने लगी। वह आग आकाश में ऊपर उड़ी
और अगले ही पल पृथ्वी पर गिर पड़ी। फिर चारों ओर गोले में घूमने लगी। इससे पूर्व कि
इंद्रदेव या अन्य देवता भगवान शिव से क्षमायाचना कर पाते, उस आग ने वहां खड़े कामदेव
को जलाकर भस्म कर दिया। कामदेव के मर जाने से देवताओं को बड़ी निराशा व दुख
हुआ। वे यह देखकर बड़े व्याकुल हो गए कि काम उनकी वजह से ही शिवजी के क्रोध का
भागी बना।
कामदेव के अग्ने में जलने का दृश्य देखकर वहां उपस्थित देवी पार्वती और उनकी
सखियां भी अत्यंत भयभीत हो गई। उनका शरीर जड़ हो गया, जैसे शरीर का खून सफेद हो
गया हो। पार्वती अपनी सखियों के साथ तुरंत अपने घर की ओर चली गईं। कामदेव की
पत्नी रति तो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। मूर्च्छा टूटने पर वह जोर-जोर से विलाप करने लगी
अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? देवताओं ने मेरे साथ बहुत बुरा किया, जो मेरे पति को यहां
भेजकर शिवजी के क्रोध की अग्ने में भस्म करा दिया। हे स्वामी! हे प्राणप्रिय! ये आपको
कया हो गया? इस प्रकार देवी रति रोती-बिलखती हुई अपने सिर के बालों को जोरों से नोचने
लगी। उनके करुण क्रंदन को सुनकर समस्त चराचर जीव भी अत्यंत दुखी हो गए। तत्पश्चात
इंद्र आदि देवता वहां देवी रति को धैर्य देते हुए उन्हें समझाने लगे।
देवता बोले--हे देवी! आप अपने पति कामदेव के शरीर की भस्म का थोड़ा सा अंश
अपने पास रख लो और अनावश्यक भय से मुक्त हो जाओ। त्रिलोकीनाथ करुणानिधान
शिवजी अवश्य ही कामदेव को पुनः जीवित कर देंगे। तब तुम्हें पुन: कामदेव की प्राप्ति हो
जाएगी। वैसे भी संसार में सबकुछ पूर्व निश्चित कर्मों के अनुसार ही होता है। अतः आप दुख
को त्याग दें। भगवान शिव अवश्य ही कृपा करेंगे।
इस प्रकार देवी रति को अनेक आश्वासन देकर सभी देवता शिवजी के पास गए और उन्हें
प्रणाम करते हुए कहने लगे-हे भक्तवत्सल! हे त्रिलोकीनाथ। भगवान आप कामदेव के
ऊपर किए अपने क्रोध पर पुनः विचार अवश्य करिए। कामदेव यह कार्य अपने लिए नहीं कर
रहे थे। इसमें उनका निजी स्वार्थ कतई नहीं था। हे भगवन्! हम सभी तारकासुर के सताए
हुए थे। उसने हमारा राज्य छीनकर हमें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया था। इसलिए तारकासुर
का विनाश करने के लिए ही कामदेव ने यह कार्य किया था। आप कृपा करके अपने क्रोध
को शांत करें और रोती-बिलखती कामदेव की पत्नी रति को समझाने की कृपा करें। उसे
सांत्वना दें। अन्यथा हम यही समझेंगे कि आप हम सभी देवताओं और मनुष्यों का संहार
करना चाहते हैं। है प्रभु! कृपा कर रति का शोक दूर करें।
तब सदाशिव बोले-हे देवगणो! हे ऋषियो! मेरे क्रोध के कारण मैंने कामदेव को अपने
तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया है। जो कुछ हो गया है उसको अब बदला नहीं जा सकता, परंतु
कामदेव का पुनर्जन्म अवश्य होगा। जब विष्णु भगवान श्रीकृष्ण का अवतार लेंगे और
रुक्मणी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारेंगे, तब देवी रुक्मणी के गर्भ से श्रीकृष्ण के पुत्र
के रूप में कामदेव जन्म लेंगे। उस समय कामदेव प्रद्युम्न नाम से जाने जाएंगे। प्रद्युम्न के
जन्म के तुरंत बाद ही शंबर नाम का असुर उसका अपहरण कर लेगा और उसे समुद्र में फेंक
देगा। रति तब तक तुम्हें शंबर के नगर में ही निवास करना होगा। वहीं पर तुम्हें अपने पति
कामदेव की प्रद्युम्न के रूप में प्राप्ति होगी। वहीं पर प्रद्युम्न के द्वारा शंबरासुर का वध होगा।
भगवान शिव की बात सुनकर देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया और बोले-हे
देवाधिदेव महादेव! करुणानिधान! आप कामदेव को जीवन दान दें और कामदेव के पुनर्जन्म
तक देवी रति के प्राणों की रक्षा करें।
देवताओं की यह बात सुनकर करुणानिधान भगवान शिव ने कहा कि मैं कामदेव को
अवश्य ही जीवित कर दूंगा। वह मेरा गण होकर आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करेगा। अब तुम
सब निश्चिंत होकर अपने-अपने धाम को जाओ। ऐसा कहकर महादेवजी भी वहां से अंतर्धान
हो गए। उनके कहे वचनों से देवताओं की सभी शंकाएं दूर हो गईं। तत्पश्चात देवताओं ने
कामदेव की पत्नी रति को अनेकों आश्वासन दिए और फिर अपने धाम को चले गए। देवी
रति भी शिव आज्ञा के अनुसार शंबर नगर को चली गई और वहां पहुंचकर अपने प्रियतम के
प्रकट होने की प्रतीक्षा करने लगीं।
उन्नीसवां अध्याय
शिव क्रोधाग्नि की शांति
ब्रह्माजी बोले--हे नारद जी! जब भगवान शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसकी
अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया तो इस त्रिलोक के सभी चराचर जीव डर के मारे कांपने
लगे और भयमुक्ति और महादेवजी के क्रोध को शांत कराने के लिए मेरे पास बड़ी आशा के
साथ आए। उन्होंने मुझे अपने कष्टों और दुखों से अवगत कराया। तब सबकुछ जानकर मैं
भगवान शंकर के पास पहुंचा। वहां पहुंचकर मैंने देखा कि भगवान शंकर का क्रोध सातवें
आसमान पर था। वे भयंकर क्रोध की अग्ने में जल रहे थे। मैंने उस धधकती अग्नि को
शिवजी की कृपा से अपने हाथ में पकड़ लिया और समुद्र के पास जा पहुंचा। मुझे अपने
पास आया देखकर समुद्र ने पुरुष रूप धारण किया और मेरे पास आ गए और बोले-हे
विधाता! हे ब्रह्माजी! मैं आपकी क्या सेवा करूं?
यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे-हे सागर! भगवान शिव शंकर ने अपने तीसरे नेत्र की
अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया है। इस क्रोधाग्नि से पूरा संसार जलकर राख हो सकता
है। इसी कारण मैं इस क्रोधाग्नि को रोककर आपके पास ले आया हूं। हे सिंधुराज! मेरी
आपसे यह विनम्र प्रार्थना है कि सृष्टि के प्रलयकाल तक आप इसे अपने अंदर धारण कर लें।
जब मीं आपसे इसे मुक्त करने के लिए कहूं तभी आप इस शिव-क्रोधाग्नि का त्याग करना।
आपको ही इसे भोजन और जल प्रतिदिन देना होगा तथा इसे अपने पास धरोहर के रूप में
सुरक्षित रखना होगा।
इस प्रकार मेरे कहे अनुसार समुद्र ने क्रोधाग्नि को अपने अंदर धारण कर लिया। उसके
समुद्र में प्रविष्ट होते समय पवन के साथ बड़े-बड़े आग के गोलों के रूप में क्रोधाग्नि समुद्र के
पास धरोहर के रूप में सुरक्षित हो गई। तत्पश्चात मैं अपने लोक वापिस लौट आया।
बीसवां अध्याय
शिवजी के बिछोह से पार्वती का शोक
ब्रह्माजी कहते हैं--नारद! जब भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसकी अग्नि
से कामदेव को भस्म कर दिया तब मैंने उस क्रोधाग्नि से भयभीत देवताओं सहित सभी
प्राणियों को भय से मुक्त कराने के लिए उस अग्नि को शिव की आज्ञा से पकड़ लिया और
उसे लेकर मैं समुद्र तट की ओर चल पड़ा। समुद्र को उस क्रोधाग्नि को सौंपकर मैं वापस
अपने धाम लौट गया। तब पूरा जगत भयमुक्त होकर पहले की भांति प्रसन्न हो गया।
नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा-हे दयानिधे! आप मुझे यह बताइए कि कामदेव के भस्म
हो जाने पर पार्वती देवी ने क्या किया? वे अपनी सखियों के साथ कहां गई? हे प्रभु! कृपया
मुझे इस बारे में भी बताइए।
नारद जी के यह वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले-भगवान शंकर के तीसरे नेत्र से उत्पन्न
अग्नि ने जब कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया तब पूरा आकाश गूंजने लगा। यह दृश्य
देखकर देवी पार्वती और उनकी सखियां डरकर अपने घर को चली गई। वहां पहुंचकर
पार्वती जी ने सारा हाल अपने माता-पिता को बताया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ।
अपनी पुत्री को विह्वल देखकर हिमालय को बहुत दुख हुआ। हिमालय ने पार्वती के आंसुओं
को पोंछकर कहा-पार्वती! डरो मत और रोओ मत। तब हिमालय ने अपनी पुत्री को अनेकों
प्रकार से सांत्वना दी।
कामदेव को भस्म करने के उपरांत शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। तब शिवजी को वहां
न पाकर पार्वती अत्यंत व्याकुल हो गई। उनकी नींद और चैन जाते रहे। वे दुखी और बेचैन
रहने लगीं। उन्हें कहीं भी सुख-शांति का अनुभव नहीं होता था। तब उन्हें अपने रूप के प्रति
भी शंका होती थी। पार्वती सोचतीं कि क्यों मैंने अपनी सखियों द्वारा समझाने पर भी कभी
ध्यान नहीं दिया। देवी पार्वती सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और अपनी
सखियों के साथ होते हुए भी सिर्फ महादेव जी का ही ध्यान और चिंतन करती थीं। इस
प्रकार उनका मन शिवजी के बिछोह की वेदना सहन नहीं कर पा रहा था। वे शारीरिक रूप
से अपने पिता के घर और हृदय से भगवान शंकर के पास रहती थीं। शोक में डूबी पार्वती
बार-बार मूर्च्छित हो जातीं थीं। इससे गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना बहुत दुखी
रहती थीं। वे पार्वती को समझाने की बहुत कोशिश करते थे परंतु पार्वती का ध्यान शिवजी
की ओर से जरा भी नहीं हटता था।
हे देवर्षि नारद! एक दिन देवराज इंद्र की इच्छा से आप घूमते हुए हिमालय पर्वत पर
आए। तब शैलराज हिमालय ने आपका बहुत आदर-सत्कार किया और आपका कुशल-
मंगल पूछा। आपको उत्तम आसन पर बिठाकर हिमालय ने सारा वृत्तांत सुनाया। हिमालय ने
बताया कि किस प्रकार पार्वती जी ने महादेवजी की सेवा आरंभ की। इसके बाद अपनी पुत्री
के शिव पूजन से लेकर कामदेव के भस्म होने तक की सारी कथा आपको सुनाई। यह सब
सुनकर आपने गिरिराज हिमालय से कहा कि आप भगवान शिव का भजन करें। तत्पश्चात
हिमालय से विदा लेकर आप एकांत में गुम-सुम बैठी देवी पार्वती के पास आ गए। तब
उनका हित करने की इच्छा से आपने उन्हें इस प्रकार सत्य वचन कहे।
आपने कहा-है पार्वती! तुम मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनो। तुम्हारी यह दशा देखकर ही मैं
तुमसे यह बात कह रहा हूं। तुमने हिमालय पर्वत पर पधारे महादेवजी की सेवा की, परंतु
तुम्हारे मन में कहीं न कहीं अहंकार का वास हो गया था। शिव भक्तवत्सल हैं। वे अपने भक्तों
पर सदैव अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं। वे विरक्त और महायोगी हैं। तुम्हारे अंदर उत्पन्न
हुए अभिमान को तोड़ने के लिए ही सदाशिव ने ऐसा किया है। अतः तुम उन्हें तपस्या द्वारा
प्रसन्न करने का प्रयत्न करो। तुम चिरकाल तक उत्तम भक्ति भाव से उनकी तपस्या करो।
तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेवजी निश्चय ही तुम्हें अपनी सहधर्मिणी बनाना स्वीकार
करेंगे यही शिवजी को पति रूप में प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।
हे नारद! आपकी यह बात सुनकर देवी शिवा हर्षित होते हुए इस प्रकार बोलीं-हे
मुनिश्रेष्ठ! आप सबकुछ जानने वाले तथा इस जगत का उपकार करने वाले हैं। अतः आप
शिवजी की आराधना के लिए मुझे कोई मंत्र प्रदान करें। तब आपने पार्वती को पंचाक्षर शिव
मंत्र ॐ नमः शिवाय'का विधिपूर्वक उपदेश दिया। इसके प्रभाव का वर्णन करते हुए आपने
कहा-यह मंत्र सब मंत्रों का राजा है और सभी कामनाओं को पूरा करने वाला है। यह मंत्र
भगवान शिव को बहुत प्रिय है। यह साधक को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस
पंचाक्षर मंत्र का विधिपूर्वक व नियमपूर्वक जाप करने से शिवजी के साक्षात दर्शन होते हैं।
देवी! इस मंत्र का विधिपूर्वक जाप करने से तुम्हारे आराध्य देव करुणानिधान भगवान शिव
शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रकट हो जाएंगे। अतः तुम शुद्ध हृदय से शिवजी के चरणों का चिंतन
करती हुई इस महामंत्र का जाप करो। इससे तुम्हारे आराध्य देव संतुष्ट होकर तुम्हें दर्शन देगे।
अब देवी पार्वती तुम इस मंत्र को जपते हुए शिवजी की तपस्या करो। इससे महादेव जी वश
में हो जाते हैं। उत्तम भाव से की गई तपस्या से ही मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।
ब्रह्माजी बोले-नारद! तुम भगवान शिव के प्रिय भक्त हो। तुम अपनी इच्छानुसार जगत
में भ्रमण करते हो। तुमने देवी पार्वती को सभी कुछ समझाकर देवताओं के हित का कार्य
किया। तत्पश्चात तुम स्वर्गलोक को चले गए। तुम्हारी बात सुनकर देवी पार्वती बहुत प्रसन्न
हुई।
इक्कीसवां अध्याय
पार्वती की तपस्या
ब्रह्माजी बोले-हे देवर्षि नारद! जब तुम पंचाक्षर मंत्र का उपदेश देकर उनके घर से चले
आए तो देवी पार्वती मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई क्योंकि उन्हें महादेव जी को पति रूप में
प्राप्त करने का साधन मिला गया था। वे जान गई थीं कि त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को
सिर्फ उनकी तपस्या करके ही जीता जा सकता है। तब मन ही मन तपस्या करने का निश्चय
करके पार्वती अपने पिता हिमराज और माता मैना से बोलीं कि मैं शिवजी की तपस्या करना
चाहती हूं। तप के द्वारा ही मेरे शरीर, स्वरूप, जन्म एवं वंश आदि की कृतकृत्यता होगी।
इसलिए आप मुझे तप करने की आज्ञा प्रदान करें। उनकी तप करने की बात सुनकर पिता
हिमालय ने सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दी परंतु माता मैना ने उन्हें घर से दूर वनों में जाकर
तपस्या करने से रोका। पार्वती को रोकते हुए मैना के मुंह से 'उ' 'मा' शब्द निकले तभी से
उनका नाम 'उमा' हो गया। पार्वती के हठ के सामने मैना कुछ न कर सकीं। तब खुशी से
उन्होंने पार्वती को तपस्या करने की आज्ञा प्रदान कर दी। तत्पश्चात माता-पिता की आज्ञा
पाकर देवी पार्वती खुशी से मन में शिवजी का स्मरण करते हुए अपनी सखियों को साथ
लेकर तपस्या करने के लिए चली गई। रास्ते में पार्वती ने सुंदर वस्त्रों को त्याग दिया तथा
वल्कल और मृग चर्म को धारण कर लिया। उत्तम वस्त्रों का त्याग करने के उपरांत देवी
गंगोत्री नामक तीर्थ की ओर चलदीं
जिस स्थान पर भगवान शंकर ने घोर तपस्या की थी और जहां शिवजी ने कामदेव को
भस्म कर दिया था, वह स्थान गंगावतरण तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। वहीं पर देवी पार्वती ने
तप करने का निश्चय किया। गीरी के यहां तपस्या करने से ही यह पर्वत 'गौरी शिखर' के नाम
से प्रसिद्ध हुआ है। उस स्थान पर पार्वती ने अनेक फलों के वृक्ष लगाए। तत्पश्चात पृथ्वी को
शुद्ध करके वेदी बनाकर अपनी इंद्रियों को वश में करके मन को एकाग्र कर कठिन तपस्या
करनी आरंभ कर दी। ऐसी तपस्या ऋषि-मुनियों के लिए भी दुष्कर थी। भयंकर गरमी के
दिनों में पार्वती अपने चारों ओर अग्नि जलाकर बीच में बैठकर 'ॐ नमः शिवाय' का जाप
करती थीं। वर्षा ऋतु में वे किसी चट्टान पर अथवा वेदी पर बैठकर निरंतर जलधारा से
भीगती हुई शांत भाव से मंत्र जपती रहती थीं। सर्दियों में बिना कुछ खाए ठंडे जल में बैठकर
पंचाक्षर मंत्र का जाप करती थीं। कभी-कभी तो वे पूरी रात बर्फ की चट्टान पर बैठकर ध्यान
करती थीं। सबकुछ भूलकर वे भगवान शिव के ध्यान में मग्न होकर उनका ध्यान करती
रहती थीं। समय मिलने पर अपने द्वारा लगाए गए वृक्षों को पानी देती थीं।
शुद्ध हृदय वाली पार्वती आंधी-तूफान, कड़ाके की सर्दी, मूसलाधार वर्षा तथा तेज धूप
की परवाह किए बगैर निरंतर मनोवांछित फलों के दाता भगवान शिव का ध्यान करती रहती
थीं। उन पर अनेक प्रकार के कष्ट आए परंतु उनका मन शिवजी के चरणों में ही लगा रहा।
तपस्या के पहले वर्ष में उन्होंने केवल फलाहार किया। दूसरे वर्ष में वे केवल पेड़ के पत्तों को
ही खाती थीं। इस प्रकार तपस्या करते-करते अनेकानेक वर्ष बीतते गए। देवी पार्वती ने
सबकुछ खाना-पीना छोड़ दिया था। अब वे केवल निराहार रहकर ही शिवजी की आराधना
करती थीं। तब भोजन हेतु पर्ण का भी त्याग कर देने के कारण देवताओं ने उन्हें 'अपर्णा'
नाम दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती एक पैर पर खड़ी होकर 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करने
लगीं। उनके शरीर पर वल्कल वस्त्र थे तथा मस्तक पर जटाएं थीं। इस प्रकार उस तपोवन में
भगवान शिव की तपस्या करते-करते तीन हजार वर्ष बीत गए।
तीन हजार वर्ष बीत जाने पर देवी पार्वती को चिंता सताने लगी। वे सोचने लगीं कि क्या
इस समय महादेव जी यह नहीं जानते कि मैं उनके लिए ही तपस्या कर रही हूं? फिर क्या
कारण है कि वे मेरे पास अभी तक नहीं आए। वेदों की महिमा तो यही कहती है कि भगवान
शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा, सबकुछ जानने वाले, सभी ऐश्वर्या को प्रदान करने वाले, सबके मन
की बातों को सुनने वाले, मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाले तथा समस्त दुखों को दूर करने
वाले हैं। तब क्यों वे अपनी कृपादृष्टि से मुझ दीन को कृतार्थ नहीं करते? मैंने अपनी सभी
इच्छाओं और कामनाओं को त्यागकर अपना ध्यान भगवान शिव में लगाया है। भगवन् यदि
मैंने पंचाक्षर मंत्र का भक्तिपूर्वक जाप किया हो तो महादेवजी आप मुझ पर प्रसन्न हों।
इस प्रकार हर समय पार्वती शिवजी के चरणों के ध्यान में ही मग्न रहती थीं। जगदंबा मां
का साक्षात अवतार देवी पार्वती की वह तपस्या परम आश्चर्यजनक थी। उनकी तपस्या सभी
को मुग्ध कर देने वाली थी। उनके तप की महिमा के फलस्वरूप प्राणी और जानवर उनके
ध्यान में बाधा नहीं बनते थे। उनकी तपस्या के परिणामस्वरूप वहां का वातावरण बड़ा
मनोरम हो गया था। वृक्ष सदा फलों से लदे रहते थे। विभिन्न प्रकार के सुंदर सुगंधित फूल हर
समय वहां खिले रहते थे। वह स्थान कैलाश पर्वत की सी शोभा पा रहा था तथा पार्वती की
तपस्या की सिद्धि का साकार रूप बन गया था।
बाईसवां अध्याय
देवताओं का शिवजी के पास जाना
ब्रह्माजी कहते हैं-मुनिश्चर! भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती को
तपस्या करते-करते अनेक वर्ष बीत गए। परंतु भगवान शिव ने उन्हें वरदान तो दूर अपने
दर्शन तक न दिए। तब पार्वती के पिता हिमाचल, उनकी माता मैना और मेरु एवं मंदराचल ने
आकर पार्वती को बहुत समझाया तथा उनसे वापस घर लौट चलने का अनुरोध किया।
तब उन सबकी बात सुनकर देवी पार्वती ने विनम्रतापूर्वक कहा-हे पिताजी और
माताजी! क्या आप लोगों ने मेरे द्वारा की गई प्रतिज्ञा को भुला दिया है? मैं भगवान शिव को
अवश्य ही अपनी तपस्या द्वारा प्राप्त करूंगी। आप निश्चिंत होकर अपने घर लौट जाएं। इसी
स्थान पर महादेव जी ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया था और वनों को अपनी
क्रोधाग्नि में भस्म कर दिया था। उन त्रिलोकीनाथ भगवान शंकर को मैं अपनी तपस्या द्वारा
यहां बुलाऊंगी। आप सभी यह जानते हैं कि भक्तवत्सल भगवान शिव को केवल भक्ति से ही
वश में किया जा सकता है। अपने पिता, माता और भाइयों से ये वचन कहकर देवी पार्वती
चुप हो गई। उन्हें समझाने आए उनके सभी परिजन उनकी प्रशंसा करते हुए वापस अपने घर
लौट गए। अपने माता-पिता के लौटने के पश्चात देवी पार्वती दुगुने उत्साह के साथ पुनः
तपस्या करने में लीन हो गई। उनकी अद्भुत तपस्या को देखकर सभी देवता, असुर, मनुष्य,
मुनि आदि सभी चराचर प्राणियों सहित पूरा त्रिलोक संतृप्त हो उठा।
देवता समझ नहीं पा रहे थे कि पूरी प्रकृति क्यों उद्विग्न और अशांत है। यह जानने के
लिए इंद्र व सब देवता गुरु बृहस्पति के पास गए। तत्पश्चात वे सभी मुझ विधाता की शरण में
सुमेरु पर्वत पर पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा मेरी स्तुति
की। तब वे मुझसे पूछने लगे कि प्रभु! इस जगत के संतृप्त होने का क्या कारण है? उनका
यह प्रश्न सुनकर मैंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए यह जान लिया
कि जगत में उत्पन्न हुआ दाह देवी पार्वती द्वारा की गई तपस्या का ही परिणाम है। अतः
सबकुछ जान लेने के उपरांत मैं इस बात को श्रीहरि विष्णु को बताने के लिए देवताओं के
साथ क्षीरसागर को गया। वहां श्रीहरि सुखद आसन पर विराजमान थे। मुझ सहित सभी
देवताओं ने विष्णुजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करना आरंभ कर दिया। तत्पश्चात मैंने
श्रीहरि से कहा-हे हरि! देवी पार्वती के उग्र तप से संतृप्त होकर हम सभी आपकी शरण में
आए हैं। हम सबकी रक्षा कीजिए। भगवन् हमें बचाइए।
हमारी करुण पुकार सुनकर शेषशय्या पर बैठे श्रीहरि बोले-आज मैंने देवी पार्वती की
इस घोर तपस्या का रहस्य जान लिया है परंतु उनकी इच्छा को पूरा करना हमारे वश की बात
नहीं है। अतः हम सब मिलकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के पास चलते हैं। केवल वे ही हैं
जो हमें इस विकट स्थिति से उबार सकते हैं। देवी पार्वती तपस्या के माध्यम से भगवान शिव
को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए भगवान शिव से यह प्रार्थना करनी चाहिए
कि वे देवी पार्वती से विधिवत विवाह कर लें। हम सभी को इस विश्व का कल्याण करने के
लिए भगवान शिव से पार्वती का पाणिग्रहण करने का अनुरोध करना चाहिए।
भगवान विष्णु की बात सुनकर सभी देवता भयभीत होते हुए बोले-भगवन्! भगवान
शिव बहुत क्रोधी और हठी हैं। उनके नेत्र काल की अग्ने के समान दीप्त हैं। हम भूलकर भी
भगवान शंकर के पास नहीं जाएंगे। उनका क्रोध सहा नहीं जाएगा। उन्होंने कामदेव को भस्म
कर दिया था। हमें डर है कि कहीं क्रोध में वे हमें भी भस्म न कर दें।
हे नारद! इंद्रादि देवताओं की बात सुनकर लक्ष्मीपति श्रीहरि बोले—तुम सब मेरी बातों
को ध्यानपूर्वक सुनो! भगवान शिव समस्त देवताओं के स्वामी और भयों का नाश करने वाले
हैं। तुम सबको मिलकर कल्याणकारी भगवान शिव की शरण में जाना चाहिए। भगवान
शंकर पुराण पुरुष, सर्वेश्वर और परम तपस्वी हैं। हमें उनकी शरण में जाना ही चाहिए।
भगवान विष्णु के इन वचनों को सुनकर सब देवता त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का दर्शन
करने के लिए उस स्थान की ओर चल पड़े, जहां महादेव जी तपस्या कर रहे थे।
उस मार्ग में ही देवी पार्वती उत्तम तपस्या में लीन थीं। उनके तप को देखकर सभी
देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। तत्पश्चात उनके तप की
प्रशंसा करते हुए गैं, श्रीहरि विष्णु और अन्य देवता भगवान शिव के दर्शनार्थ चल दिए। वहां
पहुंचकर हम सभी देवता कुछ दूरी पर खड़े हो गए और हमने तुम्हें भगवान शिव के करीब
यह देखने के लिए भेजा कि वे कुपित हैं या प्रसन्न। नारद! तुम भगवान शिव के परमभक्त हो
तथा उनकी कृपा से सदा निर्भय रहते हो। इसलिए तुम भगवान शिव के निकट गए तथा
तुमने उन्हें प्रसन्न देखा। फिर तुम वापस लौटकर हम सभी के पास आए तथा उनकी प्रसन्नता
के बारे में हमें बताया। तब हम सब भगवान शिव के करीब गए। भगवान शिव सुखपूर्वक
प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए थे। भक्तवत्सल भगवान शिव चारों ओर से अपने गणों से घिरे हुए थे
और तपस्वी का रूप धारण करके योगपट्ट पर आसीन थे। मैंने, श्रीहरि और अन्य देवताओं
ने भगवान शिव शंकर को प्रणाम करके वेदों और उपनिषदों द्वारा ज्ञात विधि से उनकी स्तुति
की।
तेईसवां अध्याय
शिव से विवाह करने का उनुरोध
ब्रह्माजी कहते हैं--हे नारद! देवताओं ने वहां पहुंचकर भगवान शिव को प्रणाम करके
उनकी स्तुति की। वहां उपस्थित नंदीश्वर भगवान शिव से बोले--प्रभु! देवता और मुनि संकट
में पड़कर आपकी शरण में आए हैं। सर्वेश्वर आप उनका उद्धार करें। दयालु नंदी के इन
वचनों को सुनकर भगवान शिव ने धीरे-धीरे आंखें खोल दीं। समाधि से विरत होकर
परमज्ञानी परमात्मा भगवान शंकर देवताओं से बोले--हे ब्रह्माजी! हे श्रीहरि विष्णु! एवं
अन्य देवताओ, आप सब यहां एक साथ क्यों आए हैं? आपके आने का क्या प्रयोजन है?
आप सभी को साथ देखकर लगता है कि अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण बात है। अतः आप मुझे
उस बात से अवगत कराएं।
भगवान शंकर के ये वचन सुनकर सभी देवताओं का भय पूर्णतः दूर हो गया और वे प्रसन्न
होकर भगवान विष्णु को देखने लगे। तब श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं का प्रतिनिधित्व करते
हुए भगवान शिव से बोले-भगवान शंकर! तारकासुर नामक दानव ने हम सभी देवताओं
को बहुत दुखी कर रखा है। उसने हमें अपने-अपने स्थानों से भी निकाल दिया है। यही सब
बताने के लिए हम सब देवता आपके पास आए हैं। भगवन्! ब्रह्माजी द्वारा प्राप्त वरदान के
फलस्वरूप उस तारकासुर की मृत्यु आपके पुत्र के द्वारा निश्चित है। हे स्वामी! आप उस दुष्ट
का नाश कर हम सबकी रक्षा करें। हम सबका उद्धार कीजिए। प्रभो! आप हिमालय पुत्री
पार्वती का पाणिग्रहण कीजिए। आपका विवाह ही हमारे कष्टों को दूर कर सकता है। आप
भक्तवत्सल हैं। अपने भक्तों के दुखों को दूर करने के लिए आप देवी पार्वती से शीघ्र विवाह
कर लीजिए।
विष्णुजी के ये वचन सुनकर भगवान शिव बोले-देवताओ! यदि मैं आपके कहे अनुसार
परम सुंदरी देवी पार्वती से विवाह कर लूं तो इस धरती पर सभी मनुष्य देवता और ऋषि-मुनि
कामी हो जाएंगे। तब वे परमार्थ पद पर नहीं चल सकेंगे। देवी दुर्गा अपने विवाह से कामदेव
को पुनः जीवित कर देंगी। मैंने कामदेव को भस्म करके देवताओं के हित का ही कार्य किया
था। सभी देव निष्काम भाव से उत्तम तपस्या कर रहे थे, ताकि विशिष्ट प्रयोजन को पूर्ण कर
सकें। कामदेव के न होने से सभी देवता निर्विकार होकर शांत भाव से समाधि में ध्यानमग्न
होकर बैठ सकेंगे। काम से क्रोध होता है। क्रोध से मोह हो जाता है और मोह के फलस्वरूप
तपस्या नष्ट हो जाती है। इसलिए मैं तो आप सबसे भी यही कहता हूं कि आप भी काम और
क्रोध को त्यागकर तपस्या करें।
ब्रह्माजी बोले-हे नारद! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के मुख से इस प्रकार की बातें
सुनकर हम सभी हत्प्रभ से उन्हें देखते रहे और वे हम सब देवताओं और मुनियों को निष्काम
होने का उपदेश देकर चुप हो गए और पुनः पहले की भांति सुस्थिर होकर ध्यान में लीन हो
गए। भगवान शिव ब्रह्म स्वरूप आत्मचिंतन में लग गए। श्रीहरि विष्णु सहित अन्य देवताओं
ने जब परमेश्वर शिव को ध्यान में मग्न देखा तब सब देवता नंदीश्वर से कहने लगे--नंदीश्वर
जी! हम अब क्या करें? हमें भगवान शिव को प्रसन्न करने का कोई मार्ग सुझाइए। तब
नंदीश्वर सभी देवताओं को संबोधित करते हुए बोले आप भक्तवत्सल भगवान शिव की
प्रार्थना करते रहो। वे सदैव ही अपने भक्तों के वश में रहते हैं। तब नंदीश्वर की बात सुनकर
देवता पुनः भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे बोले-हे देवाधिदेव! महादेव!
करुणानिधान! भगवान शिव शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। आप
हम सबके सभी दुखों और कष्टों को दूर कीजिए और हम सबका उद्धार कीजिए।
इस प्रकार देवताओं ने भगवान शिव की अनेकों बार स्तुति की। इसके बाद भी जब
भगवान ने आंखें नहीं खोलीं तो सब देवता उनकी करुण स्वर में स्तुति करते हुए रोने लगे।
तब श्रीहरि विष्णु मन ही मन भगवान शिव का स्मरण करने लगे और करुण स्वर में अपना
निवेदन करने लगे।
देवताओ, मेरे और श्रीहरि विष्णु के बार-बार निवेदन करने पर भगवान शिव की तंद्रा टूटी
और उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक अपनी आंखें खोल दीं। तब भगवान शिव बोले-तुम सब एक
साथ यहां किसलिए आए हो? मुझे इससे अवगत कराओ।
श्रीहरि विष्णु बोले-हे देवेश्वर! हे शिव शंकर! आप सर्वज्ञ हैं। सबके अंतर्यामी ईश्वर हैं।
आप तो सबकुछ जानते हैं। भगवन्, आप हमारे मन की बात भी अवश्य ही जानते होंगे।
फिर भी यदि आप हमारे मुख से सुनना चाहते हैं तो सुनें। तारक नामक असुर आजकल बड़ा
बलशाली हो गया है। वह देवताओं को अनेकों प्रकार के कष्ट देता है। इसलिए हम सभी
देवताओं ने देवी जगदंबा से प्रार्थना कर उन्हें गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में
अवतार ग्रहण कराया है। इसलिए ही हम बार-बार आपकी प्रार्थना कर रहे हैं कि आप देवी
पार्वती को पत्नी रूप में प्राप्त करें। ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार भगवान शिव और देवी
पार्वती का पुत्र ही तारकासुर का वध कर हमें उसके आतंक से मुक्त करा सकता है। मुनिश्रेष्ठ
नारद के उपदेश के अनुसार देवी पार्वती कठोर तपस्या कर रही हैं। उनकी तपस्या के तेज के
प्रभाव से समस्त चराचर जगत संतप्त हो गया है। इसलिए हे भगवन्! आप पार्वती को
वरदान देने के लिए जाइए। हे प्रभु! देवताओं पर आए इस संकट और उनके दुखों को मिटाने
के लिए आप देवी पार्वती पर अपनी कृपादृष्टि कीजिए। आपका विवाह-उत्सव देखने के लिए
हम सभी बहुत उत्साहित हैं। अतः प्रभु, आप शीघ्र ही विवाह बंधन में बंधकर हमारी इस
इच्छा को भी पूरा करें। भगवन्! आपने रति को जो वरदान प्रदान किया था, उसके पूरा होने
का भी अवसर आ गया है। अतः महेश्वर! आप अपनी प्रतिज्ञा को शीघ्र ही पूरा करें।
ब्रह्माजी बोले—हे नारद! ऐसा कहकर और प्रणाम करके विष्णुजी और अन्य देवताओं ने
पुनः शिवजी की स्तुति की। तत्पश्चात वे सब हाथ जोड़कर खड़े हो गए। तब उन्हें देखकर वेद
मर्यादाओं के रक्षक भगवान शिव हंसकर बोले-'हे हरे! हे विधे! और हे देवताओ! मेरे
अनुसार विवाह करना उचित कार्य नहीं है क्योंकि विवाह मनुष्य को बांधकर रखने वाली बेड़ी
है। जगत में अनेक कुरीतियां हैं। स्त्री का साथ उनमें से एक है। मनुष्य सभी प्रकार के बंधनों
से मुक्त हो सकता है परंतु स्त्री के बंधन से वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। एक बार को लोहे
और लकड़ी की बनी जंजीरों से मुक्ति मिल सकती है परंतु विवाह एक ऐसी कैद है, जिससे
छुटकारा पाना असंभव है। विवाह मन को विषयों के वशीभूत कर देता है, जिससे मोक्ष की
प्राप्ति असंभव हो जाती है। मनुष्य यदि सुख की इच्छा रखता है तो उसे इन विषयों को त्याग
देना चाहिए। विषयों को विष के समान माना जाता है। इन सब बातों का ज्ञान होते हुए भी, मैं
आप सबकी प्रार्थना को सफल करूंगा क्योंकि मैं सदैव ही अपने भक्तों के अधीन रहता हूं।
मैने अपने भक्तों की रक्षा के लिए अनेक कष्ट सहे हैं।
हे हरे! और हे विधे! आप तो सबकुछ जानते ही हैं। मेरे भक्तों पर जब-जब विपत्ति आती
है, तब-तब मैं उनके सभी कष्टों को दूर करता हूं। भक्तों के अधीन होने के कारण मैं उनके
हित में अनुचित कार्य भी कर बैठता हूं। भक्तों के दुखों को मैं हमेशा दूर करता हूं। तारकासुर
ने तुम्हें जो दुख दिए हैं, उन्हें मैं भलीभांति जानता हूं। उनको मैं अवश्य ही दूर करूंगा। जैसा
कि आप सभी जानते हैं, मेरे मन में विवाह करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी पुत्र प्राप्ति
हेतु मैं देवी पार्वती का पाणिग्रहण अवश्य करूंगा। अब तुम सब देवता निर्भय और निडर
होकर अपने-अपने धाम को लौट जाओ मैं तुम्हारे कार्य की सिद्धि अवश्य करूंगा। इसलिए
अपनी सभी चिंताओं को त्यागकर सभी सहर्ष अपने घर जाओ।
ऐसा कहकर भगवान शिव शंकर पुनः मौन हो गए और समाधि में बैठकर ध्यान में मग्न
हो गए। तत्पश्चात, विष्णुजी और मैं देवराज इंद्र सहित सभी देवता अपने-अपने धामों को
खुशी से लौट आए।
चौबीसवां अध्याय
सप्तऋषियों द्वारा पार्वती की परीक्षा
ब्रह्माजी कहते हैं--देवताओं के अपने-अपने निवास पर लौट जाने के उपरांत भगवान
शिव पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने के विषय में सोचने लगे। वे अपने परात्पर, माया
रहित स्वरूप का चिंतन करने लगे। वैसे तो वे सर्वेश्वर और सर्वज्ञ हैं। वे ही सब के रचनाकार
और परमेश्वर हैं।
उस समय देवी पार्वती बहुत कठोर तप कर रही थीं। उस तपस्या को देखकर स्वयं
भगवान शिव भी आश्चर्यचकित हो गए। उनकी अटूट भक्ति ने शिवजी को विचलित कर
दिया। तब भगवान शिव ने सप्तऋषियों का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही सातों ऋषि
वहां आ गए। वे अत्यंत प्रसन्न थे और अपने सौभाग्य की सराहना कर रहे थे। उन्हें देखकर
शिवजी हंसते हुए बोले-आप सभी परम हितकारी व सभी वस्तुओं का ज्ञान रखने वाले हैं।
गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती इस समय सुस्थिर होकर शुद्ध हृदय से गौरी शिखर पर्वत
पर घोर तपस्या कर रही हैं। उनकी इस तपस्या का एकमात्र उद्देश्य मुझे पति रूप में प्राप्त
करना है। उन्होंने अपनी सभी कामनाओं को त्याग दिया है। मुनिवरो, आप सब मेरी इच्छा से
देवी पार्वती के पास जाएं और उनकी दृढ़ता की परीक्षा लें।
भगवान शिव की आज्ञा पाकर सातों ऋषि देवी पार्वती के तपस्या वाले स्थान पर चले
गए। वहां देवी पार्वती तपस्या में लीन थीं। उनका मुख तपपुंज से प्रकाशित था। उन उत्तम
व्रतधारी सप्तत्ऋषियों ने हाथ जोड़कर मन ही मन देवी पार्वती को प्रणाम किया। तत्पश्चात
ऋषि बोले-हे देवी! गिरिराज नंदिनी! हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि आप किसलिए
यह तपस्या कर रही हैं? आप इस तप के द्वारा किस देवता को प्रसन्न करना चाहती हैं? और
आपको किस फल की इच्छा है?
उन सप्तऋषियों के इस प्रकार पूछने पर गिरिराजकुमारी देवी पार्वती बोलीं-मुनीश्वरो!
आप लोगों को मेरी बातें अवश्य ही असंभव लगेंगी। साथ ही मुझे इस बात की भी आशंका है
कि आप लोग मेरा परिहास उड़ाएंगे परंतु फिर भी जब आपने मुझसे कुछ पूछा है तो मैं
आपको इसका उत्तर अवश्य दूंगी। मेरा मन एक बहुत उत्तम कार्य के लिए तपस्या कर रहा
है। वैसे तो यह कार्य होना बहुत मुश्किल है, तथापि मैं इसकी सिद्धि हेतु पूरे मनोयोग से कार्य
कर रही हूं। देवर्षि नारद द्वारा दिए गए उपदेश के अनुसार मैं भगवान शिव को पतिरूप में
प्राप्त करने के लिए उनकी तपस्या कर रही हूं। मेरा मन सर्वथा उन्हीं के ध्यान में मग्न रहता है
तथा मैं उन्हीं के चरणारविंदों का चितन करती रहती हूं।
देवी पार्वती का यह वचन सुनकर सप्तर्षि हंसने लगे और पार्वती को तपस्या मार्ग से
निवृत्त करने के उद्देश्य से मिथ्या वचन बोलने लगे। उन्होंने कहा--'हे हिमालय पुत्री पार्वती!
देवर्षि नारद तो व्यर्थ ही अपने को महान पंडित मानते हैं। उनके मन में क्रूरता भरी रहती है।
आप तो बहुत समझदार दिखाई देती हैं। क्या आप उनको समझ नहीं पाई? नारद सदैव
छल-कपट की बातें करते हैं। वे दूसरों को मोह-माया में डालते रहते हैं। उनकी बातें मानने से
सिर्फ हानि ही होती है। प्रजापति दक्ष के पुत्रों को उन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि वे हमेशा के
लिए अपना घर छोड़कर चले गए। दक्ष के ही अन्य पुत्रों को भी उन्होंने बेघर कर दिया और वे
भिखारी बन गए। विद्याधर चित्रकेतु का नारद ने घर उजाड़ दिया। प्रह्लाद को भक्ति मार्ग पर
चलवाकर और उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु से प्रह्लाद पर बहुत से
अत्याचार करवाए। मुनि नारद सदैव लोगों को अपनी मीठी-मीठी वाणी द्वारा मोहित करते
हैं। फिर अपनी इच्छानुसार सबसे कार्य करवाते हैं। वे केवल शरीर से ही शुद्ध दिखाई देते हैं
जबकि उनका मन मलिन और क्लेशयुक्त रहता है। वे सदैव हमारे साथ रहते हैं। इसलिए हम
उन्हें भली-भांति जानते और पहचानते हैं। हे देवी! आप तो अत्यंत विद्वान और परम ज्ञानी
जान पड़ती हैं। भला आप कैसे नारद के द्वारा मूर्ख बन गई?
देवी! आप जिनके लिए इतनी कठोर तपस्या कर रही हैं, वे भगवान शिव तो बहुत
उदासीन और निर्विकार हैं। वे सदैव काम के शत्रु हैं। हे पार्वती! आप थोड़ा विचार करके
देखो कि आप किस प्रकार का पति चाहती हैं? आप मुनि नारद के बहकावे में न आएं।
भगवान शिव तो महा निर्लज्ज, अमंगल रूप, काम के परम शत्रु, निर्विकारी, उदासीन, कुल
से हीन, भूतों व प्रेतों के साथ रहने वाले हैं। भला इस प्रकार का पति पाकर आपको किस
प्रकार का सुख मिल सकता है? नारद मुनि ने अपनी माया से तुम्हारे ज्ञान और विवेक को
पूर्णतया नष्ट कर दिया है और तुम्हें अपनी छल-कपट-प्रपंच वाली बातों से छला है। देवी!
कृपया आप यह सोचें कि इन्हीं शिव शंकर ने परम गुणवती सुंदर दक्ष पुत्री सती के साथ
विवाह किया था। उस बेचारी को भी उनके साथ अत्यंत दुख उठाने पड़े। भगवान शिव सती
को त्यागकर पुनः अपने ध्यान में निमग्न हो गए। वे सदा अकेले और शांत रहने वाले हैं। वे
किसी स्त्री के साथ निर्वाह नहीं कर सकते। तभी तो देवी सती ने इसी दुख के कारण अपने
पिता के घर जाकर अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया था।
हे देवी! इन सब बातों को यदि आप शांत मन से ध्यान लगाकर सोचें तो पूर्णतया सही
पाएंगी। इसलिए हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप यह तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न
करने का हठ छोड़ दें और वापिस अपने पिता हिमालय के घर चली जाएं। जहां तक आपके
विवाह का प्रश्न है हम आपका विवाह योग्य वर से अवश्य करा देंगे। इस समय आपके लिए
त्रिलोकी में सबसे योग्य पुरुष बैकुण्ठ के स्वामी, लक्ष्मीपति श्रीहरि विष्णु हैं। वे तुम्हारे
अनुरूप ही सुंदर एवं मंगलकारी हैं। उन्हें पति के रूप में प्राप्त करके आप सुखी हो जाएंगी।
अतः देवी आप भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के इस हठ को त्याग दें।
सप्ततऋषियों की ऐसी बातें सुनकर साक्षात जगदंबा का अवतार देवी पार्वती हंसने लगीं
और उन परम ज्ञानी सप्तऋषियों से बोलीं-हे मुनीश्वरो, आप अपनी समझ के अनुसार सही
कह रहे हैं परंतु मैं अपने दृढ़ विश्वास को त्याग नहीं सकती। गैं गिरिराज हिमालय की पुत्री हूं।
पर्वत पुत्री होने के कारण मैं स्वाभाविक रूप से कठीर हूं। मैं तपस्या से घबरा नहीं सकती।
इसलिए हे मुनिगणो, आप मुझे रोकने की चेष्टा न करें। मैं जानती हूं कि देवर्षि नारद ने जो
उपदेश मुझे दिया है और शिवजी की प्राप्ति का साधन जो मुझे बताया है, वह असत्य नहीं
है। मैं उसका पालन अवश्य करूंगी। यह तो सर्वविदित है कि गुरुजनों का वचन सदैव हित
के लिए ही होता है। इसलिए मैं अपने गुरु नारद जी के वचनों का सर्वथा पालन करूंगी।
इससे ही मुझे दुखों से छुटकारा मिलेगा और सुख की प्राप्ति होगी। जो गुरु के वचनों को
मिथ्या जानकर उन पर नहीं चलते, उन्हें इस लोक और परलोक में दुख ही मिलता है।
इसलिए गुरु के वचनों को पत्थर की लकीर मानकर उनका पालन करना चाहिए। अतः मेरा
घर बसे या न बसे, मैं तपस्या का यह पथ नहीं छोडूंगी।
हे मुनिश्वरो! आपका कथन भी सही है। भगवान विष्णु सदगुणों से युक्त हैं तथा नित नई
लीलाएं रचते हैं परंतु भगवान शिव साक्षात परब्रह्म हैं। वे परम आनंदमय हैं। माया-मोह में
फंसे लोगों को ही प्रपंचों की आवश्यकता होती है। ईश्वर को इन सबकी न तो कोई
आवश्यकता होती है और न ही रुचि। भगवान शिव सिर्फ भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। वे धर्म
या जाति विशेष पर कृपा नहीं करते। ऋषियो! यदि भगवान शिव मुझे पत्नी रूप में नहीं
स्वीकारेंगे, तो मैं आजीवन कुंवारी ही रहूंगी और किसी अन्य का वरण कदापि नहीं करूंगी।
यदि सूर्य पूर्व की जगह पश्चिम से निकलने लगे, पर्वत अपना स्थान छोड़ दें और अग्ने
शीतलता अपना ले, चट्टानों पर फूल खिलने लगें, तो भी मैं अपना हठ नहीं छोडूंगी।
ऐसा कहकर देवी पार्वती ने सप्तऋषियों को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा
भक्तिभाव से शिव चरणों का स्मरण करते हुए पुनः तपस्या में लीन हो गईं। तब पार्वती के
श्रीमुख से उनका दृढ़ निश्चय सुनकर सप्तऋषि बहुत प्रसन्न हुए और उनकी जय-जयकार
करने लगे। उन्होंने पार्वती को तपस्या में सफल होकर भगवान शिव से मनोवांछित वरदान
प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात देवी पार्वती की तपस्या की परीक्षा लेने गए
सप्तर्षि उन्हें प्रणाम करके प्रसन्न मुद्रा में भगवान शिव को वहां हुई सभी बातों का ज्ञान कराने
के लिए शीघ्र उनके धाम की ओर चल दिए। तब भगवान शिव शंकर के पास पहुंचकर
सप्तऋषियों ने उनके समीप जाकर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति
की। तत्पश्चात सप्तऋषियों ने महादेव जी को सारा वृत्तांत बताया। फिर प्रभु शिव की आज्ञा
पाकर सप्तऋषि स्वर्गलोक चले गए।
पच्चीसवां अध्याय
शिवजी द्वारा पार्वती जी की तपस्या की परीक्षा करना
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! सप्तऋषियों ने पार्वती जी के आश्रम से आकर
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को वहां का सारा वृत्तांत सुनाया। सप्तऋषियों के अपने लोक
चले जाने के पश्चात शिवजी ने देवी पार्वती की तपस्या की स्वयं परीक्षा लेने के बारे में सोचा।
परीक्षा लेने के लिए महादेव जी ने एक तपस्वी का रूप धारण किया और उस स्थान की ओर
चल दिए जहां पार्वती तपस्यारत थीं। आश्रम में पहुंचकर उन्होंने देखा देवी पार्वती वेदी पर
बैठी हुई थीं और उनका मुखमंडल चंद्रमा की कला के समान तेजोद्दीप्त था। भगवान शिव
ब्राह्मण देवता का रूप धारण करके उनके सम्मुख पहुंचे। ब्राह्मण देवता को आया देखकर
पार्वती ने भक्तिपूर्वक उनका फल-फूलों से पूजन सत्कार किया। पूजन के बाद देवी पार्वती ने
ब्राह्मण देवता से पूछा-<हे ब्राह्मणदेव! आप कोन हैं और कहां से पधारे हैं? मुनिश्वर! आपके
परम तेज से यह पूरा वन प्रकाशित हो रहा है। कृपा कर मुझे अपने यहां आने का कारण
बताइए।
तब ब्राह्मण रूप धारण किए हुए महादेव जी बोले-मैं इच्छानुसार विचरने वाला ब्राह्मण
हूं। मेरा मन प्रभु के चरणों का ही ध्यान करता है। मेरी बुद्धि सदैव उन्हीं का स्मरण करती है।
मैं दूसरों को सुखी करके खुश होता हूं। देवी, मैं एक तपस्वी हूं। पर आप कौन हैं? आप
किसकी पुत्री हैं? और इस समय इस निर्जन वन में क्या कर रही हैं? हे देवी! आप इस दुर्लभ
और कठिन तपस्या से किसे प्रसन्न करना चाहती हैं? तपस्या या तो ऋषि-मुनि करते हैं या
फिर भगवान के चरणों में ध्यान लगाना वृद्धों का काम है। भला इस तरुणावस्था में आप क्यों
घर के ऐशो आराम को त्यागकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई तपस्विनी का जीवन जी रही
हैं? आप किस तपस्वी की धर्मपत्नी हैं और पति के समान तप कर रही हैं? हे देवी! अपने
बारे में मुझे जानकारी दीजिए कि आपका क्या नाम है? और आपके पिता का क्या नाम है?
किस प्रकार आप तप के प्रति आसक्त हो गई? क्या आप वेदमाता गायत्री हैं? लक्ष्मी हैं
अथवा सरस्वती हैं?
देवी पार्वती बोलीं-हे मुनिश्रेष्ठ! न तो मैं वेदमाता गायत्री हूं, न लक्ष्मी और न ही सरस्वती
हूं। मैं गिरिराज हिमालय की पुत्री पार्वती हूं। पूर्व जन्म में मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी
परंतु मेरे पिता दक्ष द्वारा मेरे पति भगवान शिव का अपमान देखकर मैंने योगाग्नि द्वारा अपने
शरीर को जलाकर भस्म कर दिया था। इस जन्म में भी प्रभु शिवशंकर की सेवा करने का
मुझे अवसर मिला था। मैं नियमपूर्वक उनकी सेवा में व्यस्त थी परंतु दुर्भाग्य से कामदेव के
चलाए गए बाण के फलस्वरूप शिवजी को क्रोध आ गया और उन्होंने कामदेव को अपने
क्रोध की अग्ने से भस्म कर दिया और वहां से उठकर चले गए। उनके इस प्रकार चले जाने
से मैं पीड़ित होकर उनकी प्राप्ति का प्रयत्न करने हेतु तपस्या करने गंगा के तट पर चली
आई हूं। यहां मैं बहुत लंबे समय से कठोर तपस्या कर रही हूं ताकि मैं शिवजी को पुनः पति
रूप में प्राप्त कर सकूं परंतु मैं ऐसा करने में सफल नहीं हो सकी हूं। मैं अभी अग्नि में प्रवेश
करने ही वाली थी कि आपको आया देखकर ठहर गई। अब आप जाइए, मैं अग्ने में प्रवेश
करूंगी क्योंकि भगवान शिव ने मुझे स्वीकार नहीं किया है।
ऐसा कहकर देवी पार्वती उन ब्राह्मण देवता के सामने ही अग्ने में समा गई। ब्राह्मण देव ने
उन्हें ऐसा करने से बहुत रोका परंतु देवी पार्वती ने उनकी एक भी बात नहीं सुनी और अग्नि
में प्रवेश कर लिया परंतु देवी पार्वती की तपस्या के प्रभाव के फलस्वरूप वह धधकती हुई
अग्नि एकदम ठंडी हो गई। सहसा पार्वती आकाश में ऊपर की ओर उठने लगीं। तब ब्राह्मण
रूप धारण किए हुए भगवान शिव हंसते हुए बोले-हे देवी! तुम्हारे शरीर पर अग्नि का कोई
प्रभाव न पड़ना तुम्हारी तपस्या की सफलता का ही सूचक है। परंतु तुम्हारी मनोवांछित
इच्छा का पूरा न होना तुम्हारी असफलता को दर्शाता है। अतः देवी तुम मुझ ब्राह्मण से
अपनी तपस्या के मनोरथ को बताओ।
शिवजी के इस प्रकार पूछने पर उत्तम व्रत का पालन करने वाली देवी पार्वती ने अपनी
सखी को उत्तर देने के लिए कहा। उनकी सखी बोलीं-हे साधु महाराज! मेरी सखी गिरिराज
हिमालय की पुत्री पार्वती हैं। पार्वती का अभी तक विवाह नहीं हुआ है। ये भगवान शिव को
ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसी के लिए वे तीन हजार वर्षो से कठीर तपस्या कर
रही हैं। मेरी सखी पार्वती ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इंद्र को छोड़कर पिनाकपाणि भगवान
शंकर को ही पति रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। इसलिए ये मुनि नारद की आज्ञानुसार
कठोर तपस्या कर रही हैं।
देवी पार्वती की सखी की बातें सुनकर जटाधारी तपस्वी का वेष धारण किए हुए भगवान
शिव हंसते हुए बोले-देवी! आपकी सखी ने जो कुछ मुझे बताया है, मुझे परिहास जैसा
लगता है। यदि फिर भी यही सत्य है तो पार्वती आप स्वयं इस बात को स्वीकार करें और
मुझसे इस बात को कहैं।
छब्बीसवां अध्याय
पार्वती को शिवजी से दूर रहने का आदेश
पार्वती बोलीं--हे जटाधारी मुनि! मेरी सखी ने जो कुछ भी आपको बताया है, वह
बिलकुल सत्य है। मैंने मन, वाणी और क्रिया से भगवान शिव को ही पति रूप में वरण किया
है। मैं जानती हूं कि महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ कार्य है। फिर भी
मेरे हृदय में और मेरे ध्यान में सदैव वे ही निवास करते हैं। अतः उन्हीं की प्राप्ति के लिए ही
मैंने इस तपस्या के कठिन मार्ग को चुना है। यह सब ब्राह्मण को बताकर देवी पार्वती चुप हो
गईं। उनकी बातों को सुनकर ब्राह्मण देवता बोले--हे देवी! अभी कुछ समय पूर्व तक मेरे मन
में यह जानने की प्रबल इच्छा थी कि क्यों आप कठोर तपस्या कर रही हैं परंतु देवी आपके
मुख से यह सब सुनकर मेरी जिज्ञासा पूरी तरह शांत हो गई है। देवी आपके किए गए कार्य
के अनुरूप ही इसका परिणाम होगा परंतु यदि यह तुम्हें सुख देता है तो यही करो। यह
कहकर ब्राह्मण जैसे ही जाने के लिए उठे वैसे ही देवी पार्वती उन्हें प्रणाम करके बोली--हे
विप्रवर! आप कहां जा रहे हैं? कृपया यहां कुछ देर और ठहरिए और मेरे हित की बात
कहिए।
देवी पार्वती के ये वचन सुनकर साधु का वेश धारण किए हुए भगवान शिव वहीं ठहर गए
और बोले-हे देवी! यदि आप वाकई मुझे यहां रोककर मुझसे अपने हित की बात सुनना
चाहती हैं तो मैं आपको अवश्य ही समझाऊंगा, जिससे आपको अपने हित का स्वयं ज्ञान हो
जाएगा। देवी! मैं स्वयं भी महादेव जी का भक्त हूं। इसलिए उन्हें अच्छी प्रकार से जानता हूं।
जिन भगवान शिव को आप अपना पति बनाना चाहती हैं वे प्रभु शिव शंकर सदैव अपने
शरीर पर भस्म धारण किए रहते हैं। उनके सिर पर जटाएं हैं। शरीर पर वस्त्रों के स्थान पर वे
बाघ की खाल पहनते हैं और चादर के स्थान पर वे हाथी की खाल ओढ़ते हैं। हाथ में भीख
मांगने के लिए कटोरे के स्थान पर खोपड़ी का प्रयोग करते हैं। सांपों के अनेक झुंड उनके
शरीर पर सदा लिपटे रहते हैं। जहर को वे पानी की भांति पीते हैं। उनके नेत्र लाल रंग के
और अत्यंत डरावने लगते हैं। उनका जन्म कब, कहां और किससे हुआ, यह आज तक भी
कोई नहीं जानता। वे घर-गृहस्थी के बंधनों से सदा ही दूर रहते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं।
देवी! मैं यह नहीं समझ पाता हूं कि शिवजी को अपना पति क्यों बनाना चाहती हो। आपका
विवेक कहां चला गया है? प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्री सती को सिर्फ इसीलिए ही अपने यज्ञ
में नहीं बुलाया, क्योंकि वे कपालधारी भिक्षुक की भार्या हैं। उन्होंने अपने यज्ञ में शिव के
अतिरिक्त सभी देवताओं को भाग दिया। इसी अपमान से क्रोधित होकर सती ने अपने प्राणों
को त्याग दिया था।
देवी आप अत्यंत सुंदर एवं स्त्रियों में रत्न स्वरूप हैं। आपके पिता गिरिराज हिमालय
समस्त पर्वतों के राजा हैं। फिर क्यों आप इस उग्र तपस्या द्वारा भगवान शिव को पति रूप में
पाने का प्रयास कर रही हैं। क्यों आप सोने की मुद्रा के बदले कांच को खरीदना चाहती हैं?
सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने शरीर पर कीचड़ क्यों मलना चाहती हैं? सूर्य के तेज को
छोड़कर क्यों जुगनू की चमक पाना चाहती हैं? सुंदर, मुलायम वस्त्रों को त्यागकर क्यों चमड़े
से अपने शरीर को ढंकना चाहती हैं? क्यों राजमहल को छोड़कर वनों और जंगलों में
भटकना चाहती हैं? आपकी बुद्धि को क्या हो गया है जो आप देवराज इंद्र एवं अन्य
देवताओं को, जो कि रत्नों के भंडार के समान हैं, छोड़कर लोहे को अर्थात शिवजी को पाने
की इच्छा करती हैं। सच तो यह है कि इस समय मुझे आपके साथ शिवजी का संबंध परस्पर
विरुद्ध दिखाई दे रहा है। कहां आप और कहां महादेव जी? आप चंद्रमुखी हैं तो शिवजी
पंचमुखी, आपके नेत्र कमलदल के समान हैं तो शिवजी के तीन नेत्र सदैव क्रोधित दृष्टि ही
डालते हैं। आपके केश अत्यंत सुंदर है, जो कि काली घटाओं के समान प्रतीत होते हैं वहीं
भगवान शिव के सिर के जटाजूट के विषय में सभी जानते हैं। आप सुंदर कोमल साड़ी धारण
करती हैं तो शिवजी कठोर हाथी की खाल का उपयोग करते हैं। आप अपने शरीर पर चंदन
का लेप करती हैं तो वे हमेशा अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाए रखते हैं। आप अपनी
शोभा बढ़ाने हेतु दिव्य आभूषण धारण करती हैं, तो शिवजी के शरीर पर सदैव सर्प लिपटे
रहते हैं। कहां मृदंग की मधुर ध्वनि, कहां डमरू की डमडम? देवी पार्वती! महादेव जी सदा
भूतों की दी हुई बलि को स्वीकार करते हैं। उनका यह रूप इस योग्य नहीं है कि उन्हें अपना
सर्वांग सौंपा जा सके। देवी! आप परम सुंदरी हैं। आपका यह अद्भुत और उत्तम रूप
शिवजी के योग्य नहीं हैं। आप ही सोचें-यदि उनके पास धन होता तो क्या वे इस तरह नंगे
रहते? सवारी के नाम पर उनके पास एक पुराना बैल है। कन्या के लिए योग्य वर ढूंढ़ते समय
वर की जिन-जिन विशेषताओं और गुणों को देखा-परखा जाता है, शिवजी में वह कोई भी
गुण मौजूद नहीं है। और तो और आपके प्रिय कामदेव जी को भी उन्होंने अपनी क्रोधाग्नि से
भस्म कर दिया था। साथ ही उस समय आपको छोड़कर चले जाना आपका अनादर करना
ही था। हे देवी! उनकी जात-पात, ज्ञान और विद्या के बारे में सभी अनजान हैं। पिशाच ही
उनके सहायक हैं। उनके गले में विष दिखाई देता है। वे सदैव सबसे अलग-थलग रहते हैं।
इसलिए आपको भगवान शिव के साथ अपने मन को कदापि नहीं जोड़ना चाहिए।
आपके और उनके रूप और सभी गुण अलग-अलग हैं, जो कि परस्पर एक-दूसरे के विरोधी
जान पड़ते हैं। इसी कारण मुझे आपका और महादेव जी का संबंध रुचिकर नहीं लगता है।
फिर भी जो आपकी इच्छा हो, वैसा ही करो। वैसे मैं तो यह चाहता हूं कि आप असत की
ओर से अपना मन हटा लें। यदि यह सब नहीं करना चाहती हैं तो आपकी इच्छा। जो चाहो
करो। अब मुझे और कुछ नहीं कहना है।
उन ब्राह्मण मुनि की बातों को सुनकर देवी पार्वती बहुत दुखी हुई। अपने प्राणप्रिय
त्रिलोकीनाथ शिव के विषय में कठोर शब्दों को सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगा। वे मन ही मन
क्रोधित हो गईं। लेकिन मन ही मन यह भी सोच रही थीं कि शिव के सौंदर्य को स्थूलदृष्टि से
देखने-परखने का प्रयास करने वाले कैसे जान सकते हैं। संसारी व्यक्ति मंगल-अमंगल को
अपने सुख के साथ जोड़कर देखता है, वह सत्य को कहां देख पाता है। इस तरह विवेक
द्वारा अपने मन को समझा-बुझाकर अपने को संयत करते हुए देवी पार्वती कहने लगीं।
सत्ताईसवां अध्याय
पार्वती जी का क्रोध से ब्राह्मण को फटकारना
पार्वती बोलीं--हे ब्राह्मण देवता! मैं तो आपको परमज्ञानी महात्मा समझ रही थी परंतु
आपका भेद मेरे सामने पूर्णतः खुल चुका है। आपने शिवजी के विषय में मुझे जो कुछ भी
बताया है वह मुझे पहले से ही ज्ञात है पर यह सब बातें सर्वथा झूठ हैं। इनमें सत्य कुछ भी
नहीं है। आपने तो कहा था कि आप शिवजी को अच्छी प्रकार से जानते हैं। आपकी बातें
सुनकर लगता है कि आप झूठ बोल रहे हैं क्योंकि ज्ञानी मनुष्य कभी भी त्रिलोकीनाथ
भगवान शिव के विषय में कोई भी अप्रिय बात नहीं कहते हैं। यह सही है कि लीलावश
शिवजी कभी-कभी अदभुत वेष धारण कर लेते हैं परंतु सच्चाई तो यह है कि वे साक्षात परम
ब्रह्म हैं। वे ही परमात्मा है। उन्होंने स्वेच्छा से ऐसा वेष धारण किया है। हे ब्राह्मण! आप कौन
हैं? जो ब्राह्मण का रूप धरकर मुझे छलने के लिए यहां आए हैं। आप ऐसी अनुचित व
असंगत बातें करके एवं तर्क-वितर्क करके क्या साबित करना चाहते हैं? मैं भगवान शिव के
स्वरूप को भली-भांति जानती हूं। वास्तव में शिवजी निर्गुण ब्रह्म हैं। समस्त गुण ही जिनका
स्वरूप हों, भला उनकी जाति कैसे हो सकती है? शिवजी तो सभी विद्याओं का आधार हैं।
भला, फिर उनको विद्या से क्या काम हो सकता है? पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही श्रीहरि
विष्णु को संपूर्ण वेद प्रदान किए थे। जो चराचर जगत के पिता हैं, उनके भक्तजन मृत्यु को
भी जीत लेते हैं। जिनके द्वारा इस प्रकृति की उत्पत्ति हुई है, जो सभी तत्वों के आरंभ के
विषय में जानते हैं, उनकी आयु का माप कैसे किया जा सकता है? भक्तवत्सल शिवजी सदा
ही अपने भक्तों के वश में ही रहते हैं। वे अपने भक्तों को प्रसन्न होने पर प्रभुशक्ति,
उत्साहशक्ति और मंत्रशक्ति नामक अक्षय शक्तियां प्रदान करते हैं। उनके परम चरणों का
ध्यान करके ही मृत्यु को जीता जा सकता है। इसलिए शिवजी को 'मृत्युंजय' नाम से जाना
जाता है।
भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके ही विष्णुजी को विष्णुत्व, ब्रह्माजी को ब्रह्मत्व और
अन्य देवताओं को देवत्व की प्राप्ति हुई है। भगवान शिव महाप्रभु हैं। ऐसे कल्याणमयी
भगवान शिव की आराधना करने से ऐसा कौन-सा मनोरथ है जो सिद्ध नहीं हो सकता?
उनकी सेवा न करने से मनुष्य सात जन्मों तक दरिद्र होता है। वहीं दूसरी ओर उनका
भक्तिपूर्वक पूजन करने से सदैव के लिए लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। भगवान शिव के समक्ष
आठों सिद्धियां सिर झुकाकर इसलिए नृत्य करती हैं कि भगवान उनसे सदा संतुष्ट रहें। भला
ऐसे भगवान शिव के लिए कोई भी वस्तु कैसे दुर्लभ हो सकती है? भगवान शिव का स्मरण
करने से ही सबका मंगल होता है। इनकी पूजा के प्रभाव से ही उपासक की सभी कामनाएं
सिद्ध हो जाती हैं। ऐसे निर्विकारी भगवान शिव में भला विकार कहां से और कैसे आ सकता
है? जिस मनुष्य के मुख में सदैव “शिव' का मंगलकारी नाम रहता है, उसके दर्शन मात्र से ही
सब पवित्र हो जाते हैं। आपने कहा था कि वे अपने शरीर पर चिता की भस्म लगाते हैं। यह
पूर्णतया सत्य है, परंतु उनके शरीर पर लगी हुई यह भस्म, जब जमीन पर गिरकर झड़ती है
तो क्यों सभी देवता उस भस्म को अपने मस्तक पर लगाकर अपने को धन्य समझते हैं।
अर्थात उनके स्पर्श मात्र से ही अपवित्र वस्तु भी पवित्र हो जाती है। भगवान शिव ही इस
जगत के पालनकर्ता, सृष्टिकर्ता और संहारक हैं। भला उन्हें कैसे साधारण बुद्धि द्वारा जाना
जा सकता है? उनके निर्गुण रूप को आप जैसे लोग कैसे जान सकते हैं? दुराचारी और पापी
मनुष्य भगवान शिव के स्वरूप को नहीं समझ सकते। जो मनुष्य अपने अहंकार और
अज्ञानता के कारण शिवतत्व की निंदा करते हैं उसके जन्म का सारा पुण्य भस्म हो जाता है।
हे ब्राह्मण! आपको ज्ञानी महात्मा जानकर मैंने आपकी पूजा की है परंतु आपने शिवजी की
निंदा करके अपने साथ-साथ मुझे भी पाप का भागी बना दिया है। आप घोर शिवद्रोही हैं।
शास्त्रों में बताया गया है कि शिवद्रोही का दर्शन हो जाने पर शुद्धिकरण हेतु स्नान करना
चाहिए तथा प्रार्याश्चेत करना चाहिए।
यह कहकर देवी पार्वती का क्रोध और बढ़ गया और वे बोलीं-अरे दुष्ट! तुम तो कह रहे
थे कि तुम शंकर को जानते हो, परंतु सच तो यह है कि तुम उन सनातन शिवजी को नहीं
जानते हो। भगवान शिव परम ज्ञानी, सत्पुरुषों के प्रियतम व सदैव निर्विकार रहने वाले हैं। वे
मेरे अभीष्ट देव हैं। ब्रह्मा और विष्णु भी सदा महादेव जी को नमन करते हैं। सारे देवताओं
द्वारा शिवजी को आराध्य माना जाता है। काल भी सदा उनके अधीन रहता है। वे भक्तवत्सल
शिवशंकर ही सर्वेश्वर हैं और हम सबके परमेश्वर हैं। वे दीन-दुखियों पर अपनी कृपादृष्टि
बनाए रखते हैं। उन्हीं महादेव जी को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैं शुद्ध हृदय से इस
वन में घोर तपस्या कर रही हूं कि वे मुझे अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ कर मेरे मन की इच्छा
पूरी करें।
ऐसा कहकर देवी पार्वती चुप हो गई और निर्विकार होकर पुनः शांत मन से शिवजी का
ध्यान करने लगीं। उनकी बातों को सुन ब्राह्मण देवता ने जैसे ही कुछ कहना चाहा, पार्वती ने
मुंह फेर लिया और अपनी सखी विजया से बोलीं-'सखी! इस अधम ब्राह्मण को रोको। यह
बहुत देर से मेरे आराध्य प्रभु शिव की निंदा कर रहा है। अब पुनः उनके ही विषय में कुछ
बुरा-भला कहना चाहता है। शिव निंदा करने वाले के साथ-साथ शिव निंदा सुनने वाला भी
पाप का भागी बन जाता है। अतः भगवान शिव के उपासकों को शिव निंदा करने वाले का
वध कर देना चाहिए। यदि शिव-निंदा करने वाला कोई ब्राह्मण हो तो उसका त्याग कर देना
चाहिए तथा उस स्थान से दूर चले जाना चाहिए। यह दुष्ट ब्राह्मण है, अतः हम इसका वध
नहीं कर सकते। इसलिए हमें इसका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। हमें इसका मुंह भी नहीं
देखना चाहिए। हम सब आज इसी समय इस स्थान को छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले
जाते हैं, ताकि इस अज्ञानी ब्राह्मण से पुनः हमारी भेंट न हो।
इस प्रकार कहकर देवी पार्वती ने जैसे ही कहीं और चले जाने के उद्देश्य से अपना पैर
आगे बढ़ाया वैसे ही भगवान शिव अपने साक्षात रूप में उनके सामने प्रकट हो गए। देवी
पार्वती ने अपने ध्यान के दौरान शिव के जिस स्वरूप का स्मरण किया था। शिवजी ने उन्हें
उसी रूप के साक्षात दर्शन करा दिए। साक्षात भगवान शिव शंकर को इस तरह अनायास ही
अपने सामने पाकर गिरिजानंदिनी पार्वती का सिर शर्म से झुक गया।
तब भगवान शिव देवी पार्वती से बोले--हे प्रिये! आप मुझे यहां अकेला छोड़कर कहां जा
रही हैं? देवी! मैं आपकी इस कठोर तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं। मैंने सभी देवताओं एवं
ऋषि-मुनियों से आपकी तपस्या और दृढ़ निश्चय की प्रशंसा सुनी है। इसलिए आपकी परीक्षा
लेने की ठानकर मैं आपके सामने चला आया हूं। अब आप मुझसे कुछ भी मांग सकती हैं
क्योंकि मैं जान चुका हूं आप अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमा होने के साथ-साथ ज्ञान, बुद्धि और
विवेक का अनूठा संगम हैं। आज आपने अपने उत्तम भक्ति भाव से मुझे अपना खरीदा हुआ
दास बना दिया है। सुस्थिर चित्त वाली देवी गिरिजा मैं जान गया हूं कि आप ही मेरी सनातन
पत्नी हैं। मैंने अनेकों प्रकार से बार-बार आपकी परीक्षा ली है। हे देवी! मेरे इस अपराध को
आप क्षमा कर दें। हे शिवे! इन तीनों लोकों में आपके समान अनुरागिणी कोई न है, न थी
और न ही कभी हो सकती है। मैं आपके अधीन हूं। देवी! आपने मुझे पति बनाने का उद्देश्य
मन में लेकर ही यह कठिन तपस्या की है। अतः आपकी इस इच्छा को पूरा करना मेरा धर्म
है। देवी मैं शीघ्र ही आपका पाणिग्रहण कर आपको अपने साथ कैलाश पर्वत पर ले
जाऊंगा।
देवाधिदेव महादेव जी के इन वचनों को सुनकर गिरिजानंदिनी पार्वती के आनंद की कोई
सीमा नहीं रही। वे अत्यंत प्रसन्न हुई। हर्षातिरेक से उनका तपस्या करते हुए सारा कष्ट पल में
ही दूर हो गया। उनकी सारी थकावट तुरंत ही दूर हो गई। पार्वती अपनी तपस्या की सफलता
और त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल महादेव जी के साक्षात दर्शन पाकर कृतार्थ हो गई और उनके
सभी दुख क्लेश पल भर में ही दूर हो गए।
अट्टाईसवां अध्याय
शिव-पार्वती संवाद
ब्रह्माजी कहते हैं--नारद! परमेश्वर भगवान शिव की बातें सुनकर और उनके साक्षात
स्वरूप का दर्शन पाकर देवी पार्वती को बहुत हर्ष हुआ। उनका मुख मंडल प्रसन्नता के
कारण कमल दल के समान खिल उठा। उस समय वे बहुत सुख का अनुभव करने लगीं।
अपने सम्मुख खड़े महादेव जी से वे इस प्रकार बोलीं-हे देवेश्वर! आप सबके स्वामी हैं। हे
प्रभो! पूर्वकाल में आपने जिस प्रिया के कारण प्रजापति दक्ष के संपूर्ण यज्ञ का पलों में
विनाश कर दिया था, भला उसे ऐसे ही क्यों भुला दिया? है सर्वेश्वर! हम दोनों का साथ तो
जन्म-जन्मांतर का है। प्रभु! इस समय मैं समस्त देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उनको
तारकासुर के दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्वतों के राजा हिमालय की पत्नी देवी मैना के
गर्भ से उत्पन्न हुई हूं। आपको ज्ञात ही है कि आपको पुनः पति रूप में प्राप्त करने हेतु ही मैंने
यह कठोर तपस्या की है। इसलिए देवेश! आप मुझसे विवाह कर मुझे मेरी इच्छानुसार
अपनी पत्नी बना लें। भगवन् आप तो अनेक लीलाएं रचते हैं। अब आप मेरे पिता शैलराज
हिमालय और मेरी माता मैना के समक्ष चलकर उनसे मेरा हाथ मांग लीजिए।
भगवन्! जब आप इन सब बातों से मेरे पिता को अवगत कराएंगे, तब वे निश्चय ही मेरा
हाथ प्रसन्नतापूर्वक आपको सौंप देंगे। पूर्व जन्म में जब मैं प्रजापति दक्ष की पुत्री सती थी,
उस समय मेरा और आपका विवाह हुआ था। तब मेरे पिता दक्ष ने ग्रहों की पूजा नहीं की
थी। उस विवाह में ग्रहपूजन से संबंधित बहुत बड़ी त्रुटि रह गई थी। मैं यह चाहती हूं कि इस
बार शास्त्रोक्त विधि से हमारा विवाह संपन्न हो। हमें विवाह से संबंधित सभी रीति-रिवाजों
और रस्मों का भली-भांति पालन करना चाहिए ताकि इस बार हमारा विवाह सफल हो सके।
देवेश्वर! आप मेरे पिता हिमालय को इस संबंध में बताएं ताकि उन्हें अपनी पुत्री की तपस्या
के विषय में ज्ञात हो सके।
देवी पार्वती के प्रेम और निष्ठा भरे इन शब्दों को सुनकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए
और हंसते हुए बोले-हे देवी! महेश्वरी! इस संसार में हमारे आस-पास जो कुछ भी दिखाई
देता है, वह सब ही नाशवान अर्थात नश्वर है। मैं निर्गुण परमात्मा हूं। मैं अपने ही प्रकाश से
प्रकाशित होता हूं। मेरा अस्तित्व स्वतंत्र है। देवी आप समस्त कर्मो को करने वाली प्रकृति हैं।
आप ही महामाया हैं। आपने ही मुझे इस माया-मोह के बंधनों में फंसाया है। मैंने इन सभी
को धारण कर रखा है। कौन मुख्य ग्रह है? कोन ऋतु समूह हैं? हे देवी! आप और मैं दोनों ही
सदैव अपने भक्तों को सुख देने के लिए ही अवतार ग्रहण करते हैं। आप सगुण और निर्गुण
प्रकृति हैं। हे गिरिजे! मैं आपके पिता के पास आपका हाथ मांगने के लिए नहीं जा सकता।
फिर भी आपकी इच्छा को पूरा करना मेरा कर्तव्य है। अतः आप जैसा कहेंगी मैं अवश्य
करूंगा।
महादेव जी के ऐसा कहने पर देवी पार्वती अति हर्ष का अनुभव करने लगीं और शिवजी
को भक्तिपूर्वक प्रणाम करके बोलीं--हे नाथ! आप परमात्मा हैं और मैं प्रकृति हूं। हम दोनों
का अस्तित्व स्वतंत्र एवं सगुण है, फिर भी अपने भक्तों की इच्छा पूरा करना हमारा कर्तव्य
है। भगवन्! मेरे पिता हिमालय से मेरा हाथ मांगकर उन्हें दाता होने का सौभाग्य प्रदान करें।
हे प्रभु! आप तो जगत में भक्तवत्सल नाम से विख्यात हैं। मैं भी तो आपकी परम भक्त हूं।
क्या मेरी इच्छा को पूरा करना आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं है? नाथ! हम दोनों जन्म-जन्म से
एक-दूसरे के ही हैं। हमारा अस्तित्व एक साथ है। तभी तो आपका अर्द्धनारीश्वर रूप सभी
मनुष्यों, ऋषि-मुनियों एवं देवताओं द्वारा पूज्य है। गैं आपकी पत्नी हूं। गैं जानती हूं कि आप
निर्गुण, निराकार और परमब्रह्म परमेश्वर हैं। आप सदा अपने भक्तों का हित करने वाले हैं।
आप अनेकों प्रकार की लीलाएं रचते हैं। भगवन्! आप सर्वज्ञ हैं। मुझ दीन पर भी अपनी
कृपादृष्टि करिए और अनोखी लीला रचकर इस कार्य की सिद्धि कीजिए।
नारद! ऐसा कहकर देवी पार्वती दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक झुकाकर खड़ी हो गई।
अपनी प्राणवल्लभा पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए महादेवजी ने हिमालय से उनका
हाथ मांगने हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ महादेव जी उस स्थान
से अंतर्धान होकर अपने निवास कैलाश पर्वत पर चले गए। कैलाश पर्वत पर पहुंचकर
शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक सारा वृत्तांत नंदीश्वर सहित अपने सभी गणों को सुनाया। यह
जानकर सभी गण बहुत खुश हुए और नाचने-गाने लगे। उस समय वहां महान उत्सव होने
लगा। उस समय सभी खुश थे और आनंद का वातावरण था।
उनतीसवां अध्याय
शिवजी द्वारा हिमालय से पार्वती को मांगना
ब्रह्माजी बोले--हे महामुनि नारद! भगवान शिव के वहां से अंतर्धान हो जाने के उपरांत
देवी पार्वती भी अपनी सखियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने पिता के घर की ओर चल दीं।
उनके आने का शुभ समाचार सुनकर देवी मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और तुरंत
सिंहासन से उठकर देवी पार्वती से मिलने के लिए चल दिए। उनके सभी भाई भी उनकी
जय-जयकार करते हुए उनसे मिलने के लिए आगे चले गए। देवी पार्वती अपने नगर के
निकट पहुंचीं। वहां उन्होंने अपने माता-पिता और भाइयों को नगर के मुख्य द्वार पर अपना
इंतजार करते पाया। वे अत्यंत हर्ष से विभोर होकर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे।
पार्वती ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। हिमालय और मैना ने अपनी पुत्री को अनेकानेक
आशीर्वाद देकर गले से लगा लिया। भाव विह्वल होकर उनकी आंखों से आंसू टपकने लगे।
सभी उपस्थित लोगों ने उनकी मुक्त हृदय से प्रशंसा की। वे कहने लगे कि पार्वती ने उनके
कुल का उद्धार किया है और अपने मनोवांछित कार्य की सिद्धि की है। इस प्रकार सभी
प्रसन्न थे और उनकी प्रशंसा करते हुए नहीं थक रहे थे। लोगों ने सुगंधित पुष्पों, चंदन एवं
अन्य सामग्रियों से देवी पार्वती का पूजन किया। इस शुभ बेला में उन पर स्वर्ग से देवताओं ने
भी पुष्प वर्षा की तथा उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बहुत आदर सहित उन्हें घर की ओर ले
जाया गया और विधि-विधान से उनका गृह-प्रवेश कराया गया। ब्राह्मणों, ऋषि-मुनियों
देवताओं और प्रजाजनों ने उन्हें अनेकों शुभ व उत्तम आशीर्वाद प्रदान किए।
इस शुभ अवसर पर शैलराज हिमालय ने ब्राह्मणों एवं दीन-दुखियों को दान दिया। उन्होंने
ब्राह्मणों से मंगल पाठ भी कराया। उन्होंने पधारे हुए सभी ऋषि-मुनियों, देवताओं और स्त्री-
पुरुषों का आदर सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय अपनी पत्नी मैना को साथ लेकर गंगा
स्नान को चलने लगे, तभी भगवान शिव नाचने वाले नट का वेश धारण करके उनके समीप
पहुंचे। उनके बाएं हाथ में सींग और दाहिने हाथ में डमरू था और पीठ पर कथरी रखी थी।
उन्होंने सुंदर, लाल वस्त्र पहने थे। नाचने-गाने में वे पूर्णतः मग्न थे। नट रूप धारण किए हुए
शिवजी ने बहुत सुंदर नृत्य किया और अनेक प्रकार के गीत गा-गाकर सभी का मन मोह
लिया। नृत्य करते समय वे बीच-बीच में शंख और डमरू भी बजा रहे थे और मनोरम लीलाएं
कर रहे थे। उनकी इस प्रकार की मन को हरने वाली लीलाएं देखने के लिए पूरे नगर के स्त्री-
पुरुष, बच्चे-बूढ़े, वहां आ गए। नटरूपी भगवान शिव को नृत्य करते हुए देखकर और उनका
गाना सुनकर सभी मंत्र मुग्ध हो गए। परंतु देवी पार्वती से भला यह कब तक छिपता? उन्होंने
मन ही मन अपने प्रिय महादेव जी के साक्षात दर्शन कर लिए। शिवजी का रूप ही अलौकिक
है। उन्होंने पूरे शरीर पर विभूति मल रखी थी तथा उनके शरीर पर त्रिशूल बना हुआ था। गले
में हड्डियों की माला पहन रखी थी। उनका मुख सूर्य के तेज के समान शोभा पा रहा था।
उनके गले में यज्ञोपवीत के समान नाग लटका हुआ था। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के इस
सुंदर, मनोहारी स्वरूप का हृदय में दर्शन कर लेने मात्र से ही देवी पार्वती हर्षातिरेक से बेहोश
हो गईं। वे जैसे उनके स्वप्न में कह रहे थे कि देवी “अपना मनोवांछित वर मांगो।' हृदय में
विराजमान इस अनोखे स्वरूप को मन ही मन प्रणाम करके पार्वती ने कहा कि भगवन! मेरे
पति बन जाइए। तब देवेश्वर ने मुस्कुराते हुए 'तथास्तु' कहा और उनके स्वप्न से अंतर्धान हो
गए। जब उनकी आंखें खुलीं तो उन्होंने शिवजी को नट रूप धारण किए वहां नाचते-गाते
देखा।
नट के रूप में स्वयं भक्तवत्सल भगवान शिव के नाच-गाने से प्रसन्न होकर पार्वती की
माता मैना सोने की थाली में रत्न, माणिक, हीरे और सोना लेकर उन्हें भिक्षा देने के लिए
आई। उनका ऐश्वर्य देखकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए परंतु उन्होंने उन सुंदर रत्नों और
आभूषणों को लेने से इनकार कर दिया। वे बोले देवी! भला मुझे रत्नों और आभूषणों से
कया लेना-देना। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी कन्या का दान दे दीजिए।
यह कहकर वे पुनः नृत्य करने लगे। उनकी बातें सुनकर देवी मैना क्रोध से उफन उठीं। वे
उन्हें उसी समय वहां से निकालना चाहती थीं कि तभी गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान
करके वापिस लौट आए। जब उनकी पत्नी मैना ने उन्हें सभी बातें बताई तो वे भी जल्द से
जल्द नट को वहां से निकालने को तैयार हो गए। उन्होंने अपने सेवकों को नट को बाहर
निकालने की आज्ञा दी। परंतु यह असंभव था। वे साक्षात शिव भले ही नट का रूप धारण
किए हुए थे परंतु उनका शरीर अद्भुत तेज से संपन्न था और वे परम तेजस्वी दिखाई दे रहे
थे। उन्हें उठाकर निकाल फेंकना तो दूर की बात थी, उन्हें तो छूना भी कठिन था। तब उन्होंने
मैना-हिमालय को अनेक प्रकार की लीलाएं रचकर दिखाई। नट ने तुरंत ही श्रीहरि विष्णु का
रूप धारण कर लिया। उनके माथे पर किरीट, कानों में कुण्डल और शरीर पर पीले वस्त्र
अनोखी शोभा पा रहे थे। उनकी चार भुजाएं थीं। पूजा करते समय हिमालय और मैना ने जो
पुष्प, गंध एवं अन्य वस्तुएं अर्पित की थीं वे सभी उनके शरीर और मस्तक पर शोभा पा रही
थीं। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। तत्पश्चात नट ने जगत की रचना करने वाले
ब्रह्माजी का चतुर्मुख रूप धारण कर लिया। उनका शरीर लाल रंग का था और वे वैदिक मंत्रों
का उच्चारण कर रहे थे। उन सभी ने उस नट भक्तवत्सल भगवान शिव के उत्तम रूप को
देखा। उनके साथ देवी पार्वती भी थीं। वे रुद्र रूप में मुस्कुरा रहे थे। उनका वह स्वरूप
अत्यंत सुंदर एवं मनोहारी था। उनकी ये सुंदर लीलाएं देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए थे
और परम आनंद का अनुभव कर रहे थे। तत्पश्चात पुनः एक बार नट रूपी शिवजी ने मैना-
हिमालय से उनकी पुत्री का हाथ मांगा तथा अन्य भिक्षा ग्रहण करने से इनकार कर दिया
परंतु शिवजी की माया से मोहित हुए गिरिराज हिमालय ने उन्हें अपनी पुत्री सौंपने से मना
कर दिया। बिना कुछ भी लिए वह नट वहां से अंतर्धान हो गया। वे सोचने लगे कि शायद वे
स्वयं भगवान शिव ही थे, जो स्वयं यहां पधार कर हमारी कन्या का हाथ मांग रहे थे और हमें
अपनी माया से छलकर अपने निवास कैलाश पर वापिस चले गए हैं। यह सोचकर हिमालय
और मैना दोनों ही एक पल को बहुत प्रसन्न हुए परंतु अगले ही पल यह सोचकर उदास हो
गए कि हमने स्वयं साक्षात शिवजी को, बिना कुछ दिए और उनका आदर-सम्मान किए बिना
ही खाली हाथ अपने द्वार से लौटा दिया। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे।
तीसवां अध्याय
ब्राह्मण वेष में पार्वती के घर जाना
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! गिरिराज हिमालय और देवी मैना के मन में भगवान शिव के
प्रति भक्ति भाव देखकर सभी देवता आपस में विचार-विमर्श करने लगे। तब देवताओं के गुरु
बृहस्पति और ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर सभी भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पर गए। वहां
नकर उन्होंने हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी अनेकानेक बार स्तुति
|
तत्पश्चात देवता बोले--हे देवाधिदेव! महादेव! भगवान शंकर! हम दोनों हाथ जोड़कर
आपकी शरण में आए हैं। हम पर प्रसन्न होइए और हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए। प्रभो!
आप तो भक्तवत्सल हैं और अपने भक्तों की प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। आप दीन-
दुखियों का उद्धार करते हैं। आप दया और करुणा के अथाह सागर हैं। आप ही अपने भक्तों
को संकटों से दूर करते हैं तथा उनकी सभी विपत्तियों का विनाश करते हैं।
इस प्रकार महादेव जी की अनेकों बार स्तुति करने के बाद देवताओं ने भगवान शिव को
गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना की भक्ति से अवगत कराया और आदर सहित
सभी बातें उन्हें बता दीं। तत्पश्चात भगवान शिव ने हंसते हुए उनकी सभी प्रार्थनाओं को
स्वीकार कर लिया। तब अपने कार्य को सिद्ध हुआ समझकर सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक
अपने-अपने धाम लौट गए। जैसा कि सभी जानते हैं कि भगवान शिव को लीलाधारी कहा
जाता है। वे माया के स्वामी हैं। पुनः वे शैलराज हिमालय के घर गए।
उस समय राजा हिमालय अपनी पुत्री पार्वती सहित सभा भवन में बैठे हुए थे। उन्होंने
ऐसा रूप धारण किया कि वे कोई ब्राह्मण अथवा साधु-संत जान पड़ते थे। उनके हाथ में
दण्ड व छत्र था। शरीर पर दिव्य वस्त्र तथा माथे पर तिलक शोभा पा रहा था। उनके गले में
शालग्राम तथा हाथ में स्फटिक की माला थी। वे मुक्त कंठ से हरिनाम जप रहे थे। उन्हें आया
देखकर पर्वतों के राजा हिमालय तुरंत उठकर खड़े हो गए और उन्होंने ब्राह्मण को भक्तिभाव
से साष्टांग प्रणाम किया। देवी पार्वती अपने प्राणेश्वर भगवान शिव को तुरंत पहचान गई।
उन्होंने उत्तम भक्तिभाव से सिर झुकाकर उनकी स्तुति की। वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई।
तब ब्राह्मण रूप में पधारे भगवान शिव ने सभी को आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात हिमालय ने
उन ब्राह्मण देवता की पूजा-आराधना की और उन्हें मधुपर्क आदि पूजन सामग्री भेंट की,
जिसे शिवजी ने प्रसन्रतापूर्वक ग्रहण किया। तत्पश्चात पार्वती के पिता हिमालय ने उनका
कुशल समाचार पूछा और बोले-हे विप्रवर! आप कीन हैं?
यह प्रश्न सुनकर वे ब्राह्मण देवता बोले-हे गिरिश्रेष्ठ! मैं वैष्णव ब्राह्मण हूं और भूतल पर
भ्रमण करता रहता हूं। मेरी गति मन के समान है। एक पल में यहां तो दूसरे पल में वहां। मैं
सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्धात्मा हूं। मैं ज्योतिषी हूं और भाग्य की सभी बातें जानता हूं। कया
हुआ है? क्या होने वाला है? यह सबकुछ मैं जानता हूं। मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी
दिव्य सुलक्षणा पुत्री पार्वती को, जो कि सुंदर एवं लक्ष्मी के समान है, आश्रय विहीन, कुरूप
और गुणहीन महेश्वर शिव को सौंपना चाहते हैं। वे शिवजी तो मरघट में रहते हैं। उनके शरीर
पर हर समय सांप लिपटे रहते हैं और वे अधिक समय योग और ध्यान में ही बिताते हैं। वे
नंग-धड़ंग होकर ही इधर-उधर भटकते फिरते हैं। उनके पास पहनने के लिए वस्त्र भी नहीं
हैं। आज कोई उनके कुल के विषय में भी नहीं जानता है। वे स्वभाव से बहुत ही उग्र हैं।
बात-बात पर उन्हें क्रोध आ जाता है। वे अपने शरीर पर सदा भस्म लगाए रहते हैं। सिर पर
उन्होंने जटा-जूट धारण कर रखा है। ऐसे अयोग्य वर को, जिसमें अच्छा और रुचिकर कहने
लायक कुछ भी नहीं है, आप क्यों अपनी पुत्री का जीवन साथी बनाना चाहते हैं? आपका
यह सोचना कि शिव ही आपकी पुत्री के योग्य हैं, सर्वथा गलत है। आप तो महान ज्ञानी हैं।
आप नारायण कुल में उत्पन्न हुए हैं। भला आपकी सुंदर पुत्री को वरों की कया कमी हो
सकती है? उस परम सुंदरी से विवाह करने को अनेकों देशों के महान वीर, बलशाली, सुंदर,
स्वस्थ राजा और राजकुमार सहर्ष तैयार हो जाएंगे। आप तो समृद्धिशाली हैं। आपके घर में
भला किस वस्तु की कमी हो सकती है? परंतु शैलराज जहां आप अपनी पुत्री को ब्याहना
चाह रहे हैं, वे बहुत निर्धन हैं। यहां तक कि उनके भाई-बंधु भी नहीं हैं। वे सर्वथा अकेले हैं।
गिरिराज हिमालय! आपके पास अभी समय है। अतः आप अपने भाई-बंधुओं, पुत्रों व
अपनी प्रिय पत्नी देवी मैना से इस विषय में सलाह कर लें परंतु अपनी पुत्री पार्वती से इस
विषय में कोई सलाह न लें क्योंकि वे शिव के गुण-दोषों के बारे में कुछ भी नहीं जानती हैं।
ऐसा कहकर ब्राह्मण देवता, जो वास्तव में साक्षात भगवान शिव ही थे, हिमालय का
आदर-सत्कार ग्रहण करके आनंदपूर्वक वहां से अपने धाम को चले गए।
इकत्तीसवां अध्याय
सप्तऋषियों का आगमन और हिमालय को समझाना
ब्रह्माजी बोले--ब्राह्मण के रूप में पधारे स्वयं भगवान शिव की बातों का देवी मैना पर
बहुत प्रभाव पड़ा और वे बहुत दुखी हो गईं। वे अपने पति हिमालय से कहने लगीं कि इस
ब्राह्मण ने शिवजी की निंदा की है, उसे सुनकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया है। जब भगवान
शिव का रूप और शील सभी कुत्सित हैं तथा सभी उनके विषय में बुरा ही सोचते हैं और
उन्हें मेरी पुत्री के सर्वथा अयोग्य मानते हैं, तो मैं अपनी प्रिय पुत्री का हाथ कदापि उनके हाथ
में नहीं दूंगी। मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। यदि आपने मेरी बात नहीं
मानी तो मैं इसी समय विष खा लूंगी और अपने प्राण त्याग दूंगी। साथ ही अपनी बेटी पार्वती
को लेकर इस घर से चली जाऊंगी। मैं पार्वती के गले में फांसी लगा दूंगी, उसे वनों में ले
जाऊंगी अथवा किसी सागर में डुबो दूंगी परंतु किसी भी हालत में उसका ब्याह पिनाकधारी
शिव के साथ नहीं होने दूंगी।
यह कहकर देवी मैना रोती हुई तुरंत कोप भवन में चली गई और उन्होंने कीमती वस्त्रों-
आभूषणों का त्याग कर दिया और जमीन पर लेट गई। जब इस विषय में भगवान शिव को
जानकारी हुई तो उन्होंने सप्तऋषियों को याद किया। वे तुरंत ही वहां आ गए। तब
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने सप्तऋषियों को देवी मैना को समझाने की आज्ञा देकर उनके
घर भेजा।
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का आदेश मिलने पर सप्ततऋषि उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके
आकाश मार्ग से पर्वतों के राजा हिमालय के राज्य की ओर चल दिए। सप्तऋषि जब
हिमालय के नगर के निकट पहुंचे तो वहां का ऐश्वर्य देखकर उसकी प्रशंसा करने लगे। वे
सातों ऋषि आकाश में सूर्य के समान चमकते हुए जान पड़ते थे। उन्हें आकाश मार्ग से आता
देखकर हिमालय को बहुत आश्चर्य हुआ। शैलराज सोचने लगे कि इन तेजस्वी सप्तत्ऋषियों
के आगमन से आज मेरा संपूर्ण राज्य धन्य हो गया।
तभी सूर्यतुल्य तपस्वी सप्तऋषि आकाश से उतरकर पृथ्वी पर खड़े हो गए। गिरिराज
हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर और अपना मस्तक झुकाकर आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया
और उनका पूजन तथा स्तुति की। तत्पश्चात गिरिराज हिमालय ने कहा कि आज मेरा घर
आपके चरणों की रज पाकर पवित्र हो गया है। मेरा जीवन आपके दर्शनों से धन्य हो गया है।
फिर आदरपूर्वक हिमालय ने सप्तत्ऋषियों को आसनों पर बैठाया। हिमालय बोले-आज
मेरा जीवन सफल हो गया है। आज मेरा सम्मान इस संसार में बहुत बढ़ गया है। जिस प्रकार
अनेक तीर्थो के दर्शनों को पुण्य कमाने का स्रोत माना जाता है उसी प्रकार आज मैं भी पवित्र
तीर्थो के समान वंदनीय हो गया हूं। हे ऋषिगणो! आप साक्षात भगवान विष्णु के समान हैं।
आपने हम दीनों के घरों की शोभा बढ़ा दी है। आज मैं स्वयं को संसार का सबसे महत्वपूर्ण
व्यक्ति मान रहा हूं। यद्यपि मैं एक तुच्छ अदना-सा मनुष्य हूं, फिर भी मेरे योग्य कोई सेवा हो
तो मुझे अवश्य बताएं। आपका कार्य करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
सप्तऋषि कहने लगे--हे शैलराज! भगवान शिव इस संपूर्ण जगत के पिता हैं। वे निर्गुण
और निराकार हैं। वे सर्वज्ञ हैं। वे ही परम ब्रह्म परमात्मा हैं और वे ही सर्वेश्वर हैं। वे ही इस
जगत का आदि और अंत हैं। आप भली-भांति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के विषय में
सबकुछ जानते ही हैं। वे भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन हैं। तुम्हारी परम
प्रिय पुत्री देवी पार्वती ने भगवान शिव को अपनी कठोर तपस्या से प्रसन्न करके अपना
मनोवांछित वर प्राप्त कर लिया है। उन्होंने प्रभु शिव को पति रूप में पाने का वर प्राप्त किया
है। जिस प्रकार भगवान शिव को इस जगत का पिता माना जाता है, उसी प्रकार शिवा जगत
माता कही जाती हैं। अतः आप अपनी कन्या पार्वती का विवाह महात्मा शिव शंकर से कर
दीजिए। ऐसा करके आपका जन्म सफल हो जाएगा और आप गुरुओं के भी गुरु बन
जाएंगे।
सप्तत्ऋषियों के ऐसे वचन सुनकर हिमालय बोले-हे महर्षियो! मेरे अहोभाग्य हैं, जो
आपने मुझे इस योग्य समझकर मुझसे यह बात कही। सच कहूं तो मेरी हार्दिक इच्छा भी
यही है कि मेरी पुत्री का विवाह भगवान शिव के साथ ही हो परंतु एक परेशानी यह है कि
कुछ दिनों पूर्व एक ब्राह्मणदेव हमारे घर पधारे थे। उन्होंने भक्तवत्सल भगवान शिव के विषय
में अनेक उल्टी-सीधी बातें कीं। उस वैष्णव ब्राह्मण ने शिवजी की घोर निंदा की। उन्हें
अमंगलकारी बताया। ये सब बातें सुनकर मेरी पत्नी देवी मैना की बुद्धि पलट गई है। उनका
समस्त ज्ञान भ्रष्ट हो गया है। अब वे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह परम योगी रुद्रदेव से
कदापि नहीं करना चाहती हैं। हे सप्तत्ऋषियो, वे जिद करके बैठीं हैं कि वे अपनी पुत्री पार्वती
का विवाह भगवान शिव से नहीं करेंगी। इसलिए वे लड़-झगड़कर, सभी आभूषणों तथा
राजसी वस्त्रों को त्यागकर कोप-भवन में जाकर लेट गई हैं। मेरे बहुत समझाने पर भी वे
कुछ नहीं समझ रही हैं। आपसे सच-सच अपने दिल की इच्छा कहूं तो उन वैष्णव ब्राह्मण
की बातें सुनकर अब मैं भी नहीं चाहता कि मेरी पुत्री का विवाह शिवजी से हो।
नारद! इस प्रकार भगवान शिव की माया से मोहित होकर गिरिराज हिमालय ने ये सब
बातें कहीं और यह कहकर चुप हो गए। तब सप्तत्ऋषियों ने कोप भवन में लेटी हुई देवी मैना
को समझाने के लिए देवी अरुंधती को भेजा। अपने पति की आज्ञा पाकर देवी अरुंधती उस
कोप भवन में पहुंचीं, जहां देवी मैना रुष्ट होकर पृथ्वी पर लेटी हुई थीं और पार्वती उनके पास
ही बैठकर उन्हें समझा रही थीं। साध्वी अरुंधती बड़े ही मधुर स्वर में बोलीं-देवी मीना!
उठिए मैं अरुंधती और सप्तत्ऋषि तुम्हारे घर पधारे हैं। देवी अरुंधती को वहां अपने कक्ष में
देखकर देवी मैना उठकर बैठ गई और साक्षात लक्ष्मी के समान उन परम तेजस्विनी को देख
उनके चरणों में अपना सिर रखकर बोलीं-आज हमारे घर में ब्रह्माजी की पुत्रवधू और
महर्षि वाशिष्ठ की पत्नी अरुंधती सहित सप्तऋषियों ने पधार कर हमें किस पुण्य का फल
दिया है? आपके आने से हमारा कुल धन्य हो गया है। मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि
आपके इस तरह यहां आने का क्या उद्देश्य है? देवी मैना के ऐसा कहने पर देवी अरुंधती
मुस्कुराई और उन्हें समझाकर कोपभवन से बाहर उस स्थान पर ले गईं जहां सप्तऋषियों
सहित गिरिराज हिमालय बैठे हुए थे। तब देवी मैना को वहां आया देखकर श्रेष्ठ और परम
ज्ञानी सप्तर्षि भगवान शिव को मन में स्मरण कर समझाने लगे।
सप्तऋषि बोले--हे शैलराज! तुम अपनी पुत्री पार्वती का विवाह त्रिलोकीनाथ
भक्तवत्सल भगवान शिव से कर दो। वे तो सर्वेश्वर हैं, वे कभी भी किसी से याचना नहीं
करते। जगत की रचना के स्रोत ब्रह्माजी ने तारकासुर को यह वरदान दिया है कि केवल शिव
पुत्र के हाथों ही उसका वध होगा। इस समय तारकासुर के कारण तीनों लोकों में हाहाकार
मचा हुआ है। उसने देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। साथ ही
वह निर्दोष लोगों का भी शत्रु बन बैठा है। साधुओं और ऋषि-मुनियों को यज्ञ नहीं करने देता
तथा उनकी पूजा-उपासना को तारकासुर के सैनिक समय-समय पर नष्ट कर देते हैं। उन्होंने
सभी के जीवन को कष्टकारी बना रखा है। इस संसार में व्याप्त बुराइयों और दुष्प्रवृत्तियों के
विनाश के लिए संहारक रुद्रदेव का पुत्र ही सबसे उपयुक्त है। उस वीर और बलवान पुत्र की
प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि भगवान शिव विवाह कर लें। इसलिए ब्रह्माजी ने भगवान
शिव से विवाह करने की प्रार्थना की है। यह सर्वविदित है कि भगवान शिव परम योगी हैं और
विवाह के लिए उत्सुक नहीं हैं। तुम्हारी पुत्री पार्वती ने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके
शिव को अपना पति बनाने के लिए वर प्राप्त किया था। यही कारण है कि महादेवजी देवी
पार्वती का पाणिग्रहण करना चाहते हैं।
सप्तत्ऋषियों की यह बात सुनकर हिमालय विनयपूर्वक बोले-हे ऋषिगण! आपकी बातें
सहीं हैं। परंतु जहां तक मैं जानता हूं शिवजी के पास न तो रहने के लिए घर है, न ही कोई
नाते-रिश्तेदार हैं और न ही बंधु-बांधव हैं। उनके पास कोई राजपाट भी नहीं है और न ही वे
ऐश्वर्य और विलासिता का जीवन ही जीते हैं। आप वेद विधाता ब्रह्माजी के पुत्र हैं। इसलिए मैं
आपका आदर और सम्मान करता हूं। आप परम ज्ञानी हैं और यह जानते हैं कि जो पिता
काम, मोह, भय अथवा लोभ के कारण अपनी कन्या का विवाह अयोग्य वर से कर देते हैं वे
मरने के बाद नरक के भागी होते हैं। इसलिए मैं कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहता, जिससे मैं
नरक का भागी बनूं। मैं अपनी प्रिय पुत्री पार्वती का विवाह स्वेच्छा से कभी भी शूलपाणि
शिव के साथ नहीं करूंगा। यही मेरा और मेरी पत्नी मैना दोनों का फैसला है। हे महर्षियो।
आप परम ज्ञानी और समझदार हैं। इसलिए हमारे लिए उचित विधान को बताकर हमें कृतार्थ
करें।
बत्तीसवां अध्याय
वशिष्ठ मुनि का उपदेश
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! हिमालय के कहे वचनों को सुनकर महर्षि वशिष्ठ बोले--हे
शैलराज! भगवान शंकर इस संपूर्ण जगत के पिता हैं और देवी पार्वती इस जगत की जननी
हैं। शास्त्रों की जानकारी रखने वाला उत्तम मनुष्य वेदों में बताए गए तीन प्रकार के वचनों को
जानता है। पहला वचन सुनते ही बड़ा प्रिय लगता है परंतु वास्तविकता में वह असत्य व
अहितकारी होता है। इस प्रकार का कथन हमारा शत्रु ही कह सकता है। दूसरा वचन सुनने में
अच्छा नहीं लगता परंतु उसका परिणाम सुखकारी होता है। तीसरा वचन सुनने में अमृत के
समान लगता है तथा वह परिणामतः हित करने वाला होता है। इस प्रकार नीति शास्त्र में
किसी बात को कहने के तीन प्रकार बताए गए हैं। आप इन तीनों प्रकार में किस तरह का
वचन सुनना चाहते हैं? मैं आपकी इच्छानुसार ही बात करूंगा। भगवान शंकर सभी देवताओं
के स्वामी हैं, उनके पास दिखावटी संपत्ति नहीं है। वे महान योगी हैं और सदैव ज्ञान के
महासागर में डूबे रहते हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं। गृहस्थ पुरुष राज्य और संपत्ति के स्वामी
मनुष्य को ही अपनी पुत्री का वर चुनता है। ऐसा न करके यदि वह किसी दीन-हीन को
अपनी कन्या ब्याह दे तो उसे कन्या के वध का पाप लगता है।
शैलराज! आप शिव स्वरूप को जानते ही नहीं हैं। धनपति कुबेर आपका सेवक है। कुबेर
को यहां धन की कौन-सी कमी है? जो स्वयं सारे संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार करते
हैं, उन्हें भोजन की भला कया कमी हो सकती है? ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव सभी भगवान
शिव का ही रूप हैं। शिवजी से प्रकट हुई प्रकृति अपने अंश से तीन प्रकार की मूर्तियों को
धारण करती है। उन्होंने मुख से सरस्वती, वक्ष स्थल से लक्ष्मी एवं अपने तेज से पार्वती को
प्रकट किया है। भला उन्हें दुख कैसे हो सकता है? तुम्हारी कन्या तो कल्प-कल्प में उनकी
पत्नी होती रही है एवं होती रहेगी। अपनी कन्या सदाशिव को अर्पण कर दो। तुम्हारी कन्या
के तपस्या करते समय देवताओं की प्रार्थना पर सदाशिव तुम्हारी कन्या के समीप पहुंचकर,
उन्हें उनका मनोवांछित वर प्रदान कर चुके हैं। तुम्हारी पुत्री पार्वती के कहे अनुसार शिवजी
तुमसे तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने के लिए तुम्हारे घर दो बार पधारे थे पर तुम उन्हें नहीं
पहचान सके। वे नटराज और ब्राह्मण वेशधारी शिव ही थे जो तुम्हारी कन्या का हाथ मांगने
आए थे पर तुमने मना कर दिया। यह तुम्हारा दुर्भाग्य नहीं है तो क्या है?
अब यदि तुमने प्रेम से शिवजी को अपनी कन्या का दान न किया तो भगवान शंकर
बलपूर्वक ही तुम्हारी कन्या से विवाह कर लेंगे। शैलेंद्र! यह बात अगर आप ठीक से नहीं
समझेंगे तो आपका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। आपको शायद ज्ञात नहीं है कि पूर्व में
देवी शिवा ने ही प्रजापति दक्ष की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया था और सती के नाम से
प्रसिद्ध हुई थीं। उन्होंने कठोर तपस्या करके भक्तवत्सल भगवान शिव को वरदान स्वरूप
पति के रूप में प्राप्त किया था परंतु अपने पिता दक्ष द्वारा आयोजित महान यज्ञ में अपने
पति त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की अवहेलना एवं निंदा होते देखकर उन्होंने स्वेच्छा से अपने
शरीर को त्याग दिया था। वही साक्षात जगदंबा इस समय आपकी पत्नी मैना के गर्भ से
प्रकट हुई हैं और कल्याणमयी भगवान शिव को जन्म-जन्मांतर की भांति पति रूप में पाना
चाहती हैं। अतः गिरिराज हिमालय, आप स्वयं अपनी इच्छा से अपनी पुत्री का हाथ महादेव
जी के हाथों में सौंप दीजिए। इन दोनों का साथ इस जगत के लिए मंगलकारी है।
शैलराज! यदि आप स्वेच्छा से शिवजी व देवी पार्वती का विवाह नहीं करेंगे तो पार्वती
स्वयं अपने आराध्य भगवान शिव के धाम कैलाश पर्वत चली जाएंगी। आपकी प्रिय पुत्री
पार्वती की इच्छा का सम्मान करते हुए ही भगवान शिव स्वयं आपसे पार्वती का हाथ मांगने
के लिए वेश बदलकर आपके घर आए थे परंतु आपने उनको नहीं पहचाना और अपनी
कन्या देने से इनकार कर दिया। आपके शिखर पर तपस्या के लिए पधारे भगवान शिव की
देवी पार्वती ने जब सेवा की थी तो आप भी उनके इस निर्णय में उनके साथ थे। आपकी
आज्ञा प्राप्त करके ही देवी पार्वती भगवान शिव को पति रूप में पाने की इच्छा लेकर तपस्या
करने हेतु वन में गई थीं। उनके इस प्रण और कार्य को आपने सराहा था। फिर आज ऐसा
क्या हो गया कि आप अपने ही वचनों से पीछे हट रहे हैं।
भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके हम सप्तऋषियों को और देवी
अरुंधती को आपके पास भेजा है। इसलिए हम आपको यह समझाने आए हैं कि आप
पार्वती जी का हाथ भगवान शिव के हाथों में दे दे। ऐसा करके आपको बहुत आनंद मिलेगा।
भगवान शिव ने तपस्या के पश्चात प्रसन्न होकर देवी पार्वती को यह वरदान दिया है कि वे
उनकी पत्नी हों। भगवान शिव परमेश्वर हैं। उनकी वाणी कदापि असत्य नहीं हो सकती।
उनका वरदान अवश्य सत्य सिद्ध होगा। इसलिए हम सप्ततऋषि आपसे यह अनुरोध कर रहे
हैं कि आप इस विवाह हेतु प्रसन्रतापूर्वक अपनी स्वीकृति प्रदान करें। ऐसा करके आप अपने
परिवार का ही नहीं समस्त मानवों और देवताओं का कल्याण करेंगे।
तेंतीसवां अध्याय
अनरण्य राजा की कथा
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! कुल की रक्षा करने के लिए किसी एक का त्याग कर देना ही
नीति शास्त्र कहलाता है। जिस प्रकार राजा अनरण्य ने अपने राज-पाट, संपत्ति और अपने
परिवार की रक्षा के लिए अपनी पुत्री का विवाह एक ब्राह्मण से कर दिया था। इसी प्रकार
लोक कल्याण के लिए आपको भी स्वीकृति दे ही देनी चाहिए। राजा अनरण्य के बारे में
सुनकर शैलराज हिमालय ने पूछा-हे महर्षि! मैं राजा अनरण्य की कथा सुनना चाहता हूं।
गिरिराज हिमालय के ऐसे वचन सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले
हे पर्वतराज! महाराजा मनु की चौदहवीं संतान इंद्रासावर्णि के वंश में ही राजा अनरण्य
का जन्म हुआ था। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। सातों द्वीपों पर उनका राज था। राजा
अनरण्य ने भृगु मुनि को अपना आचार्य बनाकर सौ यज्ञ पूर्ण कराए थे। राजा अनरण्य की
पांच रानियां, सौ पुत्र व एक साक्षात लक्ष्मीस्वरूपा परम सुंदरी कन्या थी, जिसका नाम पदमा
था। पदमा इकलौती पुत्री होने के कारण बहुत लाडली थी। राजा अनरण्य और उनकी पांचों
रानियां पदमा को बहुत प्यार करते थे। राजा बहुत ही सरल, न्यायप्रिय व उदार थे। देवताओं
द्वारा स्वर्ग का सिंहासन दिए जाने पर उन्होंने उसे ग्रहण करने से इनकार कर दिया था।
जब राजा अनरण्य की प्रिय पुत्री पदमा विवाह के योग्य हुई तो राजा अनरण्य को उसके
विवाह की चिंता सताने लगी। पदमा के लिए योग्य वर की खोज शुरू हो गई। चारों दिशाओं
में सुयोग्य वर की तलाश की जा रही थी। अनेकों राजाओं को पत्र लिखे गए। एक दिन
संयोगवश देवी पदमा वन में विहार के लिए अपनी सखियों के साथ गई हुई थी। वहां तपस्या
करके लौट रहे ऋषि पिप्पलाद की दृष्टि पद्मा नाम की उस सुंदरी पर पड़ गई, वे उसकी
सुंदरता पर मोहित हो गए। वे उस सुंदरी को मन में बसाए हुए ही अपनी कुटिया पर पहुंच
गए। सुंदरी का सौंदर्य पिप्पलाद के मन-मस्तिष्क में धंस गया था। एक दिन ऋषि पिप्पलाद
पुष्पा भद्रा नामक नदी में स्नान करने गए। संयोगवश राजा अनरण्य की परम सुंदरी पुत्री
पदमा भी वहां उपस्थित थी। उसे पुनः देखकर ऋषि पिप्पलाद के मन की इच्छा पूरी हो गई।
उन्होंने पदमा की सखियों और सैनिकों से उसका परिचय प्राप्त कर लिया। वहीं कुछ मनुष्यों
ने ऋषि की हंसी उड़ाते हुए कहा कि ऋषि जी आपका मन देवी पदमा पर मुग्ध हो गया है तो
आप महाराज से उन्हें मांग क्यों नहीं लेते? इस प्रकार के वचन सुनकर पिप्पलाद लज्जित तो
हुए परंतु उनके दिल में सुंदरी पदमा को पाने की इच्छा कम न होकर और बलवती हो गई।
स्नान, नित्यकर्म और शिव पूजन आदि से निवृत्त होकर मुनि पिप्पलाद राजा अनरण्य की
सभा में चले गए। अपने दरबार में मुनि को पधारा देखकर राजा अनरण्य ने चरण छूकर
उनका अभिवादन किया तथा विधिवत पूजन करने के पश्चात उन्हें आसन पर बैठाया तथा
पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? इस पर ऋषि पिप्पलाद बोले, राजा आप
अपनी कन्या पदमा को मुझे सौंप दीजिए। यह सुनकर राजा चुप हो गए। इस पर पिप्पलाद
मुनि कहने लगे कि राजा यदि शीघ्र ही तुमने अपनी कन्या मुझे नहीं दी तो मैं क्षण भर में ही
तुम्हें और तुम्हारे कुल को भस्म कर दूंगा। यह बात सुनकर राजा, उनकी रानियां, नौकर-
चाकर, दासियां सभी रोने लगे। राजा अनरण्य यह सोच अत्यंत व्याकुल हो उठे कि कैसे वे
अपनी फूलों से भी कोमल पुत्री का हाथ एक बूढ़े ऋषि को दें। राजा इसी चिंता में डूबे हुए थे
कि वे क्या करें कि तभी वहां उनके पुरोहित और राजगुरु आ पहुंचे। राजा ने सारा वृत्तांत
उन्हें सुनाया। इस पर राजगुरु बोले कि राजन, आपको अपनी कन्या का विवाह किसी से तो
करना ही है, तो क्यों न उसका विवाह ऋषि पिप्पलाद से ही कर दिया जाए। इससे आपके
कुल की भी रक्षा हो जाएगी। यह ब्राह्मण इस कुल का विनाश कर दे इससे तो अच्छा है कि
पदमा का विवाह इन्हीं से हो जाए।
इस प्रकार अपने राजपुरोहित और राजगुरु के वचन सुनकर राजा अनरण्य ने अपने कुल
की रक्षा करने के लिए अपनी कन्या को वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत करा उसे ऋषि
पिप्पलाद को अर्पित कर दिया। तत्पश्चात देवी पदमा और ऋषि पिप्पलाद का वैदिक रीति से
परिणयोत्सव संपन्न हुआ तथा राजा ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री को विदा कर दिया। राजा
अनरण्य से विदा लेकर ऋषि पिप्पलाद अपनी पत्नी पदमा को साथ लेकर अपने आश्रम पर
पहुंचे। इस शोक में कि हमने अपनी पुत्री को एक वनवासी बूढ़े को सौंप दिया है, राजा
अनरण्य राजपाट छोड़कर वन में चले गए। अपने पति और पुत्री की याद में रो-रोकर रानी ने
अपने प्राण त्याग दिए। उनके घर-परिवार में चारों ओर दुख ही दुख था। राजा अनरण्य ने
शिव कृपा से शिवलोक को प्राप्त किया। तत्पश्चात उनके पुत्र कीर्तिमान ने राज्य किया और
उनके कुल का नाम चारों ओर फैला। इसलिए हे हिमालय राज! आप अपनी पुत्री को
भगवान शिव को अर्पण करके अपने राज्य, कुल और धन की रक्षा करके सभी देवताओं को
अपने अधीन कर लीजिए।
चौंतीसवां अध्याय
पदमा-पिप्पलाद की कथा
ब्रह्माजी बोले--नारद जी! शैलराज हिमालय राजा अनरण्य की कथा सुनकर बोले कि हे
मुनि वशिष्ठ! आपने मुझे बहुत ही उत्तम कथा सुनाई है। अब मुझ पर कृपा करके मुझे ऋषि
पिप्पलाद और देवी पदमा के विवाह से आगे की भी कथा सुनाइए। पदमा को पत्नी बनाकर
ऋषि कहां गए और उन्होंने क्या किया?
शैलराज हिमालय के इस प्रकार कहे प्रश्नों को सुनकर मुनि वशिष्ठ बोले_पर्वतराज!
ऋषि पिप्पलाद अत्यंत वृद्ध थे, उनकी कमर झुकी हुई थी तथा वे कांप-कांप कर आगे चल
पाते थे। इस प्रकार बूढ़े ऋषि की पत्नी बनकर देवी पदमा उनके साथ उनकी कुटिया में आ
गई। पदमा रूपवती होने के साथ-साथ गुणवती भी थी। वह साक्षात लक्ष्मी का रूप थी।
अपने पति को वह साक्षात विष्णु समझकर उनकी सेवा करती थी। एक दिन की बात है देवी
पदमा स्वर्णदा नामक नदी में स्नान करने गई, तभी धर्मराज वहां आ पहुंचे और उनके मन में
पदमा की परीक्षा लेने की बात आई। धर्मराज ने राजसी वस्त्रों एवं आभूषणों को धारण किया
और रथ में बैठ गए। रथ में बैठे वे साक्षात कामदेव प्रतीत हो रहे थे। देवी पद्मा को मार्ग में
ही रोककर उन्होंने कहा
देवी! आप तो परम सुंदरी हैं। आपकी सुंदरता को देखकर तो चांद भी शरमा जाए। आप
तो राजरानी बनने योग्य हैं। आप इस भयानक जंगल में उस बूढ़े पिप्पलाद के साथ क्या कर
रही हैं? वह बूढ़ा तो मृत्यु के बहुत पास है? देवी! आप उसको त्यागकर मेरे साथ चलें। मैं
आपको अपने हृदय में स्थान दूंगा। आप मेरी रानी बनकर राज करेंगी। आपकी सेवा करने के
लिए हजारों दासियां होंगी, जो आपकी हर आज्ञा को शिरोधार्य करेंगी। मैं स्वयं आपका दास
बनकर रहूंगा।
यह कहकर धर्मराज रथ से नीचे उतरकर देवी पदमा का हाथ पकड़ने हेतु आगे बढ़े। यह
देखकर पदमा क्रोधित हो गई और पीछे हटकर जोर से बोलीं-अरे मूर्ख! अज्ञानी! अधर्मी!
पापी! दूर हट जा। यदि तूने मुझे स्पर्श भी किया तो तू नष्ट हो जाएगा। तू काम में अंधा होकर
मेरे पतिव्रत धर्म को भ्रष्ट करना चाहता है। तू क्या सोचता है कि तेरा यह राजसी रूप और
धन देखकर मैं अपने परम पूज्य महातेजस्वी ऋषि पिप्पलाद को त्याग दूंगी? नहीं, कदापि
नहीं। याद रख, यदि तू मुझे बुरी नजर से देखेगा तो भस्म हो जाएगा।
देवी पदमा के शाप को सुनकर धर्मराज भयभीत हो गए। उन्होंने तुरंत राजा का वेश त्याग
दिया और अपने असली रूप में आकर बोले-माता! मैं धर्म हूं। मैं ज्ञानियों का गुरु हूं और
हर स्त्री को सदैव अपनी माता मानता हूं। मैंने यह सब आपकी परीक्षा लेने के लिए ही किया
है। मेरा जन्म ही इसलिए हुआ है कि मैं धर्मात्मा मनुष्यों की धर्म संबंधी परीक्षा लेकर उन्हें
धर्म में दृढ़ करूं परंतु देवी आपने मुझे शाप दे दिया है, अब मेरा कया होगा? यह कहकर
धर्मराज चुपचाप खड़े हो गए।
तब देवी पदमा ने कहा--हे धर्मराज! आप तो इस संसार के सभी जीवों के कर्मों के साक्षी
हैं। फिर मेरी परीक्षा लेने के लिए आपको यह सब ढोंग करने की क्या आवश्यकता थी? अब
तो शब्द मेरे मुंह से निकल चुके हैं। जिस प्रकार कमान से निकला तीर कमान में वापिस नहीं
जा सकता, उसी प्रकार मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता। धर्म आपके चार पाद हैं। सतयुग में
तुम्हारे चारों पाद होंगे, त्रेता युग में तीन पाद होंगे और द्वापर युग में दो पाद होंगे। कलियुग में
एक भी पाद नहीं होगा परंतु जब पुनः सतयुग शुरू होगा तो तुम्हारे चारों पाद पूर्व की भांति
वापिस आ जाएंगे।
पदमा के वचनों को सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गए और कहने लगे--देवी! आप धन्य हैं।
आप अति पतिव्रता हैं। आपका अपने पति से अटूट प्रेम है। आप सदा ही उनके चरणों से
प्रेम करोगी। मैं आपके पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर आपको वरदान देता हूं कि आपके पति
जवान हो जाएं तथा उनकी जवानी स्थिर रहे। वे मार्कण्डेय के समान दीर्घायु हों, कुबेर के
समान धनवान तथा इंद्र के समान सुंदर एवं वैभव संपन्न हों। देवी! आपको शीघ्र ही दस पुत्रों
की प्राप्ति होगी, जो कि गुणवान व दीर्घायु होंगे।
यह कहकर धर्म अंतर्धान हो गए और देवी पदमा अपने घर वापिस आ गई। उसने घर
पहुंचकर देखा तो उसके पति धर्म के वरदान के अनुसार जवान हो गए थे। उनके घर में सुख-
विलास की सभी वस्तुएं मौजूद थीं। इस प्रकार पिप्पलाद और पदमा सुखपूर्वक जीवन
व्यतीत करने लगे। कुछ समय पश्चात देवी पदमा को दस पुत्रों की प्राप्ति हुई, जिन्हें पाकर
दंपति का जीवन खुशियों से भर गया।
पैंतीसवां अध्याय
हिमालय का शिवजी के साथ पार्वती के विवाह का निश्चय करना
ब्रह्माजी बोले--नारद! महर्षि वशिष्ठ ने, राजा अनरण्य की पुत्री पदमा और ऋषि
पिप्पलाद के विवाह तथा धर्मराज द्वारा पदमा को प्रदान किए गए वरदान की कथा सुनाकर
कि पिप्पलाद स्थिर रहने वाले यौवन के स्वामी होंगे, इंद्र के समान सुंदर व वैभव से संपन्न
होंगे और दस सर्वगुण संपन्न पुत्रों की उन्हें प्राप्ति होगी, शैलराज हिमालय से कहा कि राजन!
मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आपके और आपकी पत्नी मैना के मन में, जो भी नाराजगी
है, उसे भूलकर आप अपनी पुत्री पार्वती का विवाह त्रिलोकीनाथ महादेव जी के साथ कर दें।
आज से एक सप्ताह बाद का मुहूर्त जब रोहिणी नक्षत्र में चंद्रमा अपने पुत्र बुध के साथ लग्न
में स्थित होंगे, अत्यंत शुभ है। मार्गशीर्ष माह के सोमवार को लग्न में सभी शुभ ग्रहों की दृष्टि
होगी। उस समय बृहस्पति भी सौभाग्य के वश में होंगे। ऐसे शुभ मुहूर्त में अपनी पुत्री पार्वती,
जो कि साक्षात जगदंबा का अवतार हैं, का पाणिग्रहण भक्तवत्सल भगवान शिव से कर देने
पर आप अपने आपको धन्य समझेंगे।
यह कहकर ज्ञान शिरोमणि मुनि वशिष्ठ चुप हो गए। उनकी बात सुनकर मैना और
हिमालय आश्चर्यचकित रह गए और अन्य पर्वतों से बोले-गिरिराज मेरु! मंदराचल, मैनाक
गंधमादन, सह्य, विध्य आप सभी ने मुनिराज वशिष्ठ के वचनों को सुना है। कृपया आप सब
मुझे यह बताइए कि इन परिस्थितियों में मुझे क्या करना चाहिए? आप सभी इस संबंध में
मुझे अपने विचारों से अवगत कराइए।
शैलराज हिमालय के कहे इन वचनों को सुनकर सभी पर्वतों ने आपस में विचार-विमर्श
किया और बोले-हे गिरिराज हिमालय! इस समय ज्यादा सोच-विचार करने से कुछ नहीं
होगा। अच्छा यही है कि हम सप्तऋषियों द्वारा कही गई बात को मानकर देवी पार्वती का
विवाह शिवजी से करा दें। क्योंकि वास्तव में पार्वती का जन्म ही देवताओं के कार्यो को पूरा
करने के लिए हुआ है। अतः हमें शीघ्र ही उनकी अमानत उनके हाथों में सौंपकर अपनी
जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहिए।
तब सुमेरु तथा अन्य पर्वतों की बात सुनकर हिमालय प्रसन्न हुए और देवी पार्वती भी मन
ही मन मुस्कुराने लगीं। देवी अरुंधती ने भी विविध प्रकार की कथाओं को सुनाकर पार्वती की
माता मैना को समझाने का प्रयत्न किया। मैना जब समझ गई तो बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने
सभी को उत्तम भोजन कराया। उनके मन का सारा संदेह और भय दूर हो गया। शैलराज
हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर उन सप्ततऋषियों से कहा कि आपकी बातों को सुनकर मेरे
मन का सारा शक दूर हो गया है। मैं भली-भांति जान गया हूं कि शिवजी ही ईश्वरों के भी
ईश्वर अर्थात सर्वेश्वर हैं। वे इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। वे अतुलनीय हैं। इस संसार
की हर वस्तु एवं हर प्राणी उन्हीं का है। यह कहकर हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का हाथ
पकड़कर उसे सप्तऋषियों के पास खड़ा कर दिया और बोले कि आज से मेरी पुत्री शिवजी
की अमानत है। वे जब चाहें इसे यहां से ले जा सकते हैं।
ऋषिगण शैलराज की बातें सुनकर प्रसन्न हुए और बोले--भगवान शिवजी आपकी पुत्री
को स्वयं मांगकर आपको सौभाग्य प्रदान कर रहे हैं। यह कहकर वे ऋषिगण पार्वती को
आशीर्वाद देने लगे और बोले--देवी! आपका कल्याण हो तथा आपके गुणों में निरंतर वृद्धि
हो। आप शिवजी की अर्द्धांगिनी बनकर उनका जीवन खुशियों से भर दें। सप्तत्र्षियो ने
सुविचार करके चार दिनों के बाद का शुभ मुहूर्त विवाह के लिए निकाला। तब शैलराज
हिमालय और देवी मैना से आज्ञा लेकर वे सप्तऋषि देवी अरुंधती सहित वहां से भगवान
शिव के पास चले गए।
छत्तीसवां अध्याय
सप्तऋषियों का शिव के पास आगमन
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! शैलराज हिमालय और मैना से विदा लेकर सप्तऋषि
भगवान शिव के निवास स्थल कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने दोनों हाथ
जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी भक्तिभाव से स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने
कहना आरंभ किया। हे देवाधिदेव! महादेव! परमेश्वर! महाप्रभो! महेश्वर! हमने गिरिराज
हिमालय और मैना को समझा दिया है। वे इस संबंध को स्वीकार कर चुके हैं। उन्होंने पार्वती
का वाग्दान कर दिया है। हे प्रभु! अब आप अपने पार्षदों तथा देवताओं के साथ बारात लेकर
हिमालय के यहां जाइए और देवी पार्वती का पाणिग्रहण संस्कार करिए। भगवन्, आप
वेदोक्त रीति से पार्वती को अपनी पत्नी बना लीजिए।
सप्तत्ऋषियों का यह वचन सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और बोले
—हे ऋषिगण! मैं विवाह के रीति-रिवाजों के संबंध में कुछ नहीं जानता। आप लोगों ने पूर्व
में विवाह की जो रीति देखी हो अथवा इस विषय में आप जो कुछ जानते हो कृपया मुझे
बताएं।
भगवान शिव के इस शुभ वचन को सुनकर सप्ततऋषि बोले-भगवन्! आप सर्वप्रथम
श्रीहरि विष्णु एवं सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को उनके पुत्रों एवं पार्षदों सहित यहां बुला लीजिए।
सभी ऋषि-मुनियों, यक्ष, गंधर्वो, किन्नरों, सिद्धगणों एवं देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं
और अप्सराओं को अपने विवाह में आमंत्रित करें। वे सब मिलकर इस विवाह का सफल
आयोजन करेंगे।
ऐसा कहकर सप्तऋषि भगवान शिव से आज्ञा लेकर उनकी भक्तिभाव से स्तुति करते हुए
प्रसन्नतापूर्वक अपने धाम को चले गए।
सैंतीसवां अध्याय
हिमालय का लग्न पत्रिका भेजना
नारद जी ने पूछा--हे तात! महाप्राज्ञ! कृपा कर अब आप मुझे यह बताइए कि
सप्तऋषियों के वहां से चले जाने पर हिमालय ने क्या किया?
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब वे सप्तऋषि हिमालय से विदा लेकर कैलाश पर्वत पर चले
गए तो हिमालय ने अपने सगे-संबंधियों एवं भाई-बंधुओं को आमंत्रित किया। जब सभी वहां
एकत्रित हो गए तब ऋषियों की आज्ञा के अनुसार हिमालय ने अपने राजपुरोहित श्री गर्गजी
से लग्न पत्रिका लिखवाई। उसका पूजन अनेकों सामग्रियों से करने के पश्चात उन्होंने लग्न
पत्रिका भगवान शंकर के पास भिजवा दी। गिरिराज हिमालय के बहुत से नाते-रिश्तेदार
लग्न-पत्रिका को लेकर कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान
शिव के मस्तक पर तिलक लगाया और उन्हें लग्न पत्रिका दे दी। शिवजी ने उनका खूब
आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात वे सभी वापिस लौट आए।
शैलराज हिमालय ने देश के विविध स्थानों पर रहने वाले अपने सभी भाई-बंधुओं को इस
शुभ अवसर पर आमंत्रित किया। सबको निमंत्रण भेजने के पश्चात हिमालय ने अनेकों प्रकार
के रत्नों, वस्त्रों और बहुमूल्य आभूषणों तथा विभिन्न प्रकार की बहुमूल्य देने योग्य वस्तुओं
को संगृहीत किया। तत्पश्चात उन्होंने विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री-चावल, आटा, गुड़,
शक्कर, दूध, दही, घी, मक्खन, मिठाइयां तथा पकवान आदि एकत्र किए ताकि बारात का
उत्तम रीति से आदर-सत्कार किया जा सके। सभी खाद्य वस्तुओं को बनाने के लिए अनेकों
हलवाई लगा दिए गए। चारों ओर उत्तम वातावरण था।
शुभमुहूर्त में गिरिराज हिमालय ने मांगलिक कार्यो का शुभारंभ किया। घर की स्त्रियां
मंगल गीत गाने लगीं। हर जगह उत्सव होने लगे। देवी पार्वती का संस्कार कराने के पश्चात
वहां उपस्थित नारियों ने उनका शृंगार किया। विभिन्न प्रकार के सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से
विभूषित पार्वती देवी साक्षात जगदंबा जान पड़ती थीं। उस समय अनेक मंगल उत्सव और
अनुष्ठान होने लगे। अनेकों प्रकार के साज-शुंगार से सुशोभित होकर स्त्रियां इकट्टी हो गई।
शैलराज हिमालय भी प्रसन्नतापूर्वक निमंत्रित बंधु-बांधवों की प्रतीक्षा करने लगे और उनके
पधारने पर उनका यथोचित आदर-सत्कार करने लगे।
लोकोचार रीतियां होने लगीं। गिरिराज हिमालय द्वारा निमंत्रित सभी बंधु-बांधव उनके
निवास पर पधारने लगे। गिरिराज सुमेरु अपने साथ विभिन्न प्रकार की मणियां और महारत्नं
को उपहार के रूप में लेकर आए। मंदराचल, अस्ताचल, मलयाचल, उदयाचल, निषद, दर्दुर,
करवीर, गंधमादन, महेंद्र, पारियात्र, नील, त्रिकूट, चित्रकूट, कोंज, पुरुषोत्तम, सनील, वेंकट,
श्री शैल, गोकामुख, नारद, विंध्य, कालजंर, कैलाश तथा अन्य पर्वत दिव्य रूप धारण करके
अपने-अपने परिवारों को साथ लेकर इस शुभ अवसर पर पधारे। सभी देवी पार्वती और
शिवजी को भेंट करने के लिए उत्तम वस्तुएं लेकर आए।
इस विवाह को लेकर सभी बहुत उत्साहित थे। इस मंगलकारी अवसर पर शीण, भद्रा,
नर्मदा, गोदावरी, यमुना, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, विपासा, चंद्रभागा, भागीरथी, गंगा आदि नदियां भी
नर-नारी का रूप धारण करके अनेक प्रकार के आभूषणों एवं सुंदर वस्त्रों से सज-धजकर
शिव-पार्वती का विवाह देखने के लिए आई। शैलराज हिमालय ने उनका खूब आदर-सत्कार
किया तथा सुंदर, उत्तम स्थानों पर उनके ठहरने का प्रबंध किया। इस प्रकार शैलराज की पूरी
नगरी, जो शोभा से संपन्न थी, पूरी तरह भर गई। विभिन्न प्रकार के बंदनवारों एवं ध्वज
पताकाओं से यह नगर सजा हुआ था। चारों ओर चंदोवे लगे हुए थे। विभिन्न प्रकार की
नीली-पीली, रंग-बिरंगी प्रभा नगर की शोभा को और भी बढ़ा रही थी।
अड़तीसवां अध्याय
विश्वकर्मा द्वारा दिव्य मंडप की रचना
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! शैलराज हिमालय ने अपने नगर को बारात के स्वागत
के लिए विभिन्न प्रकार से सजाना शुरू कर दिया। हर जगह की सफाई का विशेष ध्यान रखा
गया। सड़कों को साफ कराया गया और उन पर छिड़काव कराया गया। तत्पश्चात उन्हें
बहुमूल्य साधनों से सुसज्जित एवं शोभित किया गया। प्रत्येक घर के दरवाजे पर केले का
मांगलिक पेड़ लगाया गया। आम के पत्तों को रेशम के धागे से बांधकर सुंदर बंदनवारें बनाई
गईं। विभिन्न प्रकार के सुगंधित फूलों से हर स्थान को सजाया गया। सुंदर तोरणों से घर को
शोभायमान किया गया। चारों ओर का वातावरण अत्यंत सुगंधित था। वहां का दृश्य दिव्य
और अलौकिक था।
विश्वकर्मा को गिरिराज हिमालय ने आदरपूर्वक बुलवाया और उन्हें एक दिव्य मंडप की
रचना करने को कहा। वह मंडप दस हजार योजन लंबा और चौड़ा था। वह दिव्य मंडप
चालीस हजार कोस के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। विश्वकर्मा, जो कि देवताओं के शिल्पी
कहे जाते हैं, ने इस उत्तम मंडप की रचना करके अपनी कुशलता एवं निपुणता का परिचय
दिया। यह मंडप अद्भुत जान पड़ता था। उस मंडप में अनेकों प्रकार के स्थावर, जंगम पुष्प
तथा स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां बनाई गई थीं जो कि इतनी सुंदर थीं कि यह निश्चय कर पाना
कठिन था कि कीन ज्यादा सुंदर एवं मनोरम है? वहां जल में थल तथा थल में जल दिखाई दे
रहा था। कोई भी मनुष्य इस कलाकृति को देखकर यह नहीं जान पा रहा था कि यहां जल है
या थल। विभिन्न प्रकार के जानवरों की कलाकृतियां जीवंत बनाई गई थीं। अपनी सुंदरता से
जड़ हृदयों को मोहित करते सारस कहीं सरोवर में पानी पीते दिखाई देते थे तो कहीं जंगलों
में सिंह ऐसे लग रहे थे मानो अभी दहाड़ना शुरू कर देंगे। नृत्य करने की मुद्रा में बनाई गई
स्त्री-पुरुषों की मूर्तियों को देखकर ऐसा लगता था मानो वाकई नर-नारी नृत्य कर रहे हों। द्वार
पर खड़े द्वारपाल हाथों में धनुष बाण लेकर ऐसे खड़े थे जैसे सचमुच अभी बाणों की वर्षा
शुरू कर देंगे। इस प्रकार सभी कृत्रिम वस्तुएं बहुत ही सुंदर एवं मनोहर थीं, जो कि बिलकुल
जीवंत लगती थीं।
द्वार के मध्य में देवी महालक्ष्मी की सुंदर मूर्ति की स्थापना की गई थी, जिन्हें देखकर ऐसा
प्रतीत होता था मानो क्षीरसागर से निकलकर साक्षात लक्ष्मी देवी वहां आ गई हों। वे सभी
शुभ लक्षणों से युक्त दिखाई दे रहीं थीं। मंडप में विभिन्न स्थानों पर हाथियों की कलाकृतियां
भी बनाई गई थीं। कई स्थानों पर घोड़े घुड़सवारों सहित खड़े थे तो कहीं सुंदर अदभुत दिव्य
रथ जिन पर सफेद अश्च जुते हुए थे। मंडप के मुख्य द्वार पर नंदीश्वर, जो कि शिवजी की
सवारी हैं, की मूर्ति बनाई गई थी, जो कि स्फटिक मणि के समान चमक रही थी। उसके ऊपर
दिव्य पुष्पक विमान की रचना की गई थी, जिसे पल्लवों और सफेद चामरों से सजाया गया
था। विश्वकर्मा द्वारा समस्त देवताओं की भी प्रतिमूर्ति की रचना की गई थी जो कि हू-ब-हू
वास्तविक देवताओं से मिलती थी।
क्षीरसागर में निवास करने वाले श्रीहरि विष्णु एवं उनके वाहन गरुड़ की रचना भी उस
मंडप में की गई थी, जिसका स्वरूप साक्षात विष्णुजी जेसा ही था। इसी प्रकार विश्वकर्मा
द्वारा जगत के सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी की भी प्रतिमा उनके पुत्रों और वेदों सहित बनाई गई थी।
साथ ही वह प्रतिमा वैदिक सूर्क्तों का पाठ करती हुई दिखाई देती थी। स्वर्ग के राजा देवेंद्र
अर्थात इंद्र एवं उनके वाहन ऐरावत हाथी की मूर्तियां भी जीवंत थीं।
इस प्रकार विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई सभी कलाकृतियां कला का अदभुत नमूना थीं जो
कि दिव्य एव मनोरम थीं। जिन्हें देखकर यह जान पाना अत्यंत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन
था कि वे असली हैं या फिर नकली। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित यह दिव्य
मंडप आश्चयोँ से युक्त एवं सभी को मोहित कर लेने वाला था। तत्पश्चात शैलराज हिमालय
की आज्ञा के अनुसार विश्वकर्मा ने देवताओं के रहने के लिए कृत्रिम लोकों का निर्माण किया
जो कि अद्भुत थे। साथ ही उनके बैठने के लिए दिव्य सिंहासनों की भी रचना की गई।
ब्रह्माजी के रहने के लिए विश्वकर्मा ने सत्यलोक की रचना की जो दीप्ति से प्रकाशित हो रहा
था। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु के लिए बैकुंठ का निर्माण किया गया। देवराज इंद्र के लिए
समस्त एऐश्वया से संपन्न दिव्य स्वर्गलोक की रचना की गई। अन्य देवताओं के लिए भी उन्होंने
सुंदर एवं अद्भुत भवनों की रचना की। देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने पलक झपकते ही
इस अदभुत कार्य को मूर्त रूप दे दिया। सभी देवताओं के रहने हेतु उनके दिव्य लोकों जैसे
कृत्रिम लोकों का निर्माण करने के पश्चात विश्वकर्मा ने भक्तवत्सल भगवान शिव के ठहरने
हेतु एक सुंदर, मनोरम एवं अदभुत घर का निर्माण किया। यह भवन भगवान शिव के कैलाश
स्थित धाम के अनुरूप ही था। यहां शिव चिल्ल शोभा पाता था। यह भवन परम उज्ज्वल,
दिव्य प्रभापुंज से सुभासित, उत्तम और अदभुत था। इस भवन की सभी ने बहुत प्रशंसा की।
यहां तक कि स्वयं भगवान शिव भी उसे देखकर आश्चर्यचकित हो गए और विश्वकर्मा की इन
रचनाओं को उन्होंने बहुत सराहा। विश्वकर्मा की यह रचना अदभुत थी। इस प्रकार जब सुंदर
एवं दिव्य मनोरम मंडप की रचना हो गई और सभी देवताओं के ठहरने के लिए यथायोग्य
लोकों का भी निर्माण कर दिया गया तो शैलराज हिमालय ने विश्वकर्मा को बहुत-बहुत
धन्यवाद दिया। तत्पश्चात हिमालय प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव के शुभागमन की प्रतीक्षा
करने लगे।
हे नारद! इस प्रकार मैंने वहां का सारा वृत्तांत तुम्हें सुना दिया है। अब आप और क्या
सुनना चाहते हैं?
उन्तालीसवां अध्याय
शिवजी का देवताओं को निमंत्रण
नारद जी बोले--हे महाप्रज्ञ! हे विधाता! आपको नमस्कार है। आपने अपने श्रीमुख से
मुझे अमृत के समान दिव्य और अलौकिक कथा को सुनाया है। अब मैं भगवान चंद्रमौली के
मंगलमय वैवाहिक जीवन का सार सुनना चाहता हूं, जो कि समस्त पापों का नाश करने
वाला है। भगवन् कृपा कर मुझे यह बताइए कि जब शैलराज हिमालय द्वारा भेजी गई लग्न
पत्रिका महादेव जी को प्राप्त हो गई तो महादेव जी ने क्या किया? प्रभो! इस अमृत कथा को
सुनाने की कृपा कीजिए।
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! लग्न पत्रिका को पाकर भगवान शिव ने मन में बहुत
हर्ष का अनुभव किया। लग्न पत्रिका लेकर आए शैलराज के बंधु-बांधवों का उन्होंने
यथायोग्य आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात उन्होंने उस लग्न पत्रिका को पढ़कर स्वीकार किया
तथा पत्रिका लेकर आए हुए लोगों को आदर-सम्मान से विदा किया। तब शिवजी
प्रसन्नतापूर्वक सप्तऋषियों से बोले कि हे मुनियो! आपने मेरे लिए इस शुभ कार्य का संपादन
किया है और मैंने इस विवाह हेतु अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी है। अतः आप सभी मेरे
विवाह में सादर आमंत्रित हैं।
भगवान शिव के शुभ वचन सुनकर ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए और उनको आदरपूर्वक
प्रणाम करके अपने धाम को चले गए। जब ऋषिगण कैलाश पर्वत से चले गए तब
भक्तवत्सल भगवान शिव ने तुम्हारा स्मरण किया। तुम अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए
तुरंत उनसे मिलने उनके धाम पहुंच गए। शिवजी के श्रीचरणों में तुमने मस्तक झुकाकर
प्रणाम किया और वहां हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
भगवान शिव बोले-हे नारद! तुम्हारे दिए गए उपदेश से प्रभावित होकर ही देवी पार्वती
ने घोर तपस्या की और उससे प्रसन्न होकर मैंने उन्हें अपनी पत्नी बनाने का वरदान दे दिया
है। पार्वती की भक्ति ने मुझे वश में कर लिया है। अब मैं उनके साथ विवाह करूंगा।
सप्तऋषियों ने शैलराज हिमालय को संतुष्ट कर इस विवाह की स्वीकृति प्राप्त कर ली है और
हिमालय की ओर से लग्न पत्रिका भी आ चुकी है। आज से सातवें दिन मेरे विवाह का दिन
सुनिश्चित हुआ है। इस अवसर पर महान उत्सव होगा। अतः तुम श्रीहरि, ब्रह्मा, सब देवताओं,
मुनियों और सिद्धों को मेरी ओर से निमंत्रण भेजो और उनसे कहो कि वे लोग उत्साह और
प्रसन्नतापूर्वक सज-धजकर अपने-अपने परिवार के साथ सादर मेरे विवाह में पधारें।
नारद! भगवान शिव की आज्ञा पाकर, आपने हर जगह जाकर आदरपूर्वक सबको इस
विवाह में पधारने का निमंत्रण दे दिया। तत्पश्चात भगवान शिव के पास आकर उन्हें सारी
जानकारी दे दी। तब भगवान शिव भी आदरपूर्वक सब देवताओं के पधारने की प्रतीक्षा करने
लगे। भगवान शिव के सभी गण संपूर्ण दिशाओं में नाचने-गाने लगे। सभी ओर उत्सव होने
लगा। निमंत्रण पाकर अति प्रसन्नता से सज-धजकर भगवान श्रीहरि विष्णु भी श्री लक्ष्मी और
अपने दलबल को साथ लेकर कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। वहां पधारकर उन्होंने भक्तिभाव से
भगवान शिव को प्रणाम किया और प्रभु की आज्ञा लेकर अपना स्थान ग्रहण किया।
तत्पश्चात मैं भी सपत्नीक अपने पुत्रों सहित भगवान शिव के विवाह में सम्मिलित होने के
लिए पहुंचा। भगवान शिव को प्रणाम करके मैंने भी वहां आसन ग्रहण कर लिया। इसी
प्रकार सब देवता, देवराज इंद्र आदि भी अपने-अपने गणों एवं परिवारों के साथ सुंदर वस्त्रों
और बहुमूल्य आभूषणों से शोभायमान होकर वहां पहुंच गए।
सिद्ध, चारण, गंधर्व, ऋषि, मुनि सब सहर्ष विवाह में सम्मिलित होने के लिए कैलाश पर
पहुंच गए। अप्सराएं नृत्य करने लगीं और देव नारियां गीत गाने लगीं। त्रिलोकीनाथ भगवान
शिव ने स्वयं आगे बढ़कर सभी अतिथियों का सहर्ष आदर-सत्कार किया। उस समय कैलाश
पर्वत पर बहुत अनोखा और महान उत्सव होने लगा। सभी देवगण हर कार्य को कुशलता के
साथ संपन्न कर रहे थे मानो उनका अपना ही कार्य हो। प्रसन्नतापूर्वक सातों मातृकाएं शिवजी
को आभूषण पहनाने लगीं। लोकोचार रीतियां करके भगवान शिव की आज्ञा से श्रीविष्णु
आदि सभी देवता, वरयात्रा अर्थात बारात ले जाने की तैयारी करने लगे।
सातों माताओं ने भगवान शिव का शृंगार किया। उनके मस्तक पर तीसरा नेत्र मुकुट बन
गया। चंद्रकला का तिलक लगाया गया। उनके गले में पड़े दोनों सांपों को उन्होंने और ऊंचा
कर लिया और वे इस प्रकार प्रतीत होने लगे मानो सुंदर कुण्डल हों। इसी प्रकार सभी अंगों
पर सांप लिपट गए जो आभूषण की सी शोभा देने लगे। सारे अंगों पर चिता की भस्म रमा
दी गई, वह चंदन के समान चमक उठी। वस्त्र के स्थान पर सिंह तथा हाथी की खाल को
उन्होंने ओढ़ लिया। इस प्रकार शृंगार से सुशोभित होकर भगवान शिव दूल्हा बनकर तैयार हो
गए। उनके मुखमंडल पर जो आभा सुशोभित हो रही थी, उसका वर्णन करना कठिन है। वे
साक्षात ईश्वर हैं। तत्पश्चात समस्त देवता, यज्ञ, दानव, नाग, पक्षी, अप्सरा और महर्षिंगण
मिलकर भगवान शिव के पास गए और प्रसन्नतापूर्वक बोले—हे महादेव, महेश्वर जी! अब
आप देवी पार्वती को ब्याह लेने के लिए हम लोगों के साथ चलिए और हम पर कृपा कीजिए।
तत्पश्चात क्षीरसागर के स्वामी श्रीहरि विष्णु भगवान शिव को आदरपूर्वक नमस्कार कर बोले
—हे देवाधिदेव! महादेव! भक्तवत्सल! आप सदैव ही अपने भक्तों के कार्यो को सिद्ध करते
हैं। हे प्रभु! आप गिरिजानंदनी देवी पार्वती के साथ वेदोक्त रीति से विवाह करिए। आपके
द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली विवाह रीति ही जगत में विवाह-रीति के रूप में विख्यात
होगी। भगवन्! आप कुलधर्म के अनुसार मण्डप की स्थापना करके इस लोक में अपने यश
का विस्तार कीजिए।
भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर महादेव जी ने विधिपूर्वक सब कार्य करने के लिए मुझ
(ब्रह्मा) से कहा। तब मैंने श्रेष्ठ मुनियों कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, गौतम, भागुरि गुरु, कण्व,
बृहस्पति, शक्ति, जमदग्नि, पराशर, मार्कण्डेय, अगस्त्य, च्यवन, गर्ग, शिलापाक, अरुणपाल,
अकृतश्रम, शिलाद, दधीचि, उपमन्यु, भरद्वाज, अकृतव्रण, पिप्पलाद, कुशिक, कौत्स तथा
शिष्यों सहित व्यास आदि उपस्थित ऋषियों को बुलाकर भगवान शिव की प्रेरणा से
विधिपूर्वक आभ्युदयिक कर्म कराए। सबने मिलकर भगवान शंकर की रक्षा विधान करके
ऋग्वेद, यजुर्वेद द्वारा स्वस्तिवाचन किया। फिर सभी ऋषियों ने सहर्ष मंगल कार्य संपन्न
कराए। तत्पश्चात ग्रहों एवं विघ्नों की शांति हेतु पूजन कराया। इन सब वैदिक और अलौकिक
कमो को विधिपूर्वक संपन्न हुआ देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। तब भगवान शिव
हर्षपूर्वक देवताओं और ब्राह्मणों को साथ लेकर अपने निवास स्थान कैलाश पर्वत से बाहर
आए। उस समय शिवजी ने सब देवताओं और ब्राह्मणों को आदरपूर्वक हाथ जोड़कर
नमस्कार किया। चारों ओर गाजे-बाजे बजने लगे, सभी मंत्रमुग्ध होकर नृत्य करने लगे। वहां
बहुत बड़ा उत्सव होने लगा।
चालीसवां अध्याय
भगवान शिव की बारात का हिमालयपुरी की ओर प्रस्थान
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! भगवान शिव ने कुछ गणों को वहीं रुकने का आदेश
देते हुए नंदीश्वर सहित सभी गणों को हिमालयपुरी चलने की आज्ञा दी। उसी समय गणों के
स्वामी शंखकर्ण करोड़ों गण साथ लेकर चल दिए। फिर भगवान शिव की आज्ञा पाकर
गणेश्वर, शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, पारिजात, विकृतानन, दुंदुभ, कपाल, संदारक,
कंदुक, कुण्डक, विष्टंभ, पिप्पल, सनादक, आवेशन, कुण्ड, पर्वतक, चंद्रतापन, काल,
कालक, महाकाल, अग्निक, अग्निमुख, आदित्यमूर्द्धा, घनावह, संनाह, कुमुद, अमोघ,
कोकिल, सुमंत्र, काकपादोदर, संतानक, मधुपिंग, कोकिल, पूर्णभद्र, नील, चतुर्वक्त्र, करण,
अहिरोमक, यज्ज्वाक्ष, शतमन्यु, मेघमन्यु, काष्ठागूढ, विरूपाक्ष, सुकेश, वृषभ, सनातन,
तालकेलु, षण्मुख, चैत्र, स्वयंप्रभु, लकुलीश, लोकांतक, दीप्तात्मा, दैन्यांतक, भृंगिरिटि,
देवदेवप्रियः अशनि, भानुक, प्रमथ तथा वीरभद्र अपने असंख्य गणों को साथ लेकर चल
पड़े। नंदीश्वर एवं गणराज भी अपने-अपने गणों को ले क्षेत्रपाल और भैरव के साथ
उत्साहपूर्वक चल दिए।
उन सभी गणों के सिर पर जटा, मस्तक पर चंद्रमा और गले में नील चिल्ल था। शिवजी ने
रुद्राक्ष के आभूषण धारण किए हुए थे। शरीर पर भस्म शोभायमान थी। सभी गों ने हार,
कुंडल, केयूर तथा मुकुट पहने हुए थे। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ महादेव अपने लाखों-करीोड़ों
शिवगणों तथा मुझे, श्रीहरि और अन्य सभी देवताओं को साथ लेकर धूमधाम से हिमालय
नगरी की ओर चल दिए।
शिवजी के आभूषणों के रूप में अनेक सर्प उनकी शोभा बढ़ा रहे थे और वे अपने नंदी
बैल पर सवार होकर पार्वती जी को ब्याहने के लिए चल दिए। इस समय चंडी देवी महादेव
जी की बहन बनकर खूब नृत्य करती हुई उस बारात के साथ हो चलीं। चंडी देवी ने सांपों को
आभूषणों की तरह पहना हुआ था और वे प्रेत पर बैठी हुई थीं तथा उनके मस्तक पर सोने से
भरा कलश था, जो कि दिव्य प्रभापुंज-सा प्रकाशित हो रहा था। उनकी यह मुद्रा देखकर शत्रु
डर के मारे कांप रहे थे। करोड़ों भूत-प्रेत उस बारात की शोभा बढ़ा रहे थे। चारों दिशाओं में
डमरुओं, भेरियों और शंखों के स्वर गूंज रहे थे। उनकी ध्वनि मंगलकारी थी जो विघ्नों को दूर
करने वाली थी।
श्रीहरि विष्णु सभी देवताओं और शिवगणों के बीच में अपने वाहन गरुड़ पर बैठकर चल
रहे थे। उनके सिर के ऊपर सोने का छत्र था। चमर ढुलाए जा रहे थे। मैं भी वेदों, शास्त्रों
पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा अन्यान्य परिजनों के साथ
शोभायमान होकर चल रहा था। स्वर्ग के राजा इंद्र भी ऐरावत हाथी पर आभूषणों से सज-
धजकर बारात की शोभा में चार चांद लगा रहे थे। भक्तवत्सल भगवान शिव की बारात में
अनेक ऋषि-मुनि और साधु-संत भी अपने दिव्य तेज से प्रकाशित होकर चल रहे थे।
देवाधिदेव महादेव जी का शुभ विवाह देखने के लिए शाकिनी, यातुधान, बैताल,
ब्रह्मराक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ आदि गण, तुम्बुरु, नारद, हा हा और हू हू आदि श्रेष्ठ
गंधर्व तथा किन्नर भी प्रसन्न मन से नाचते-गाते उनके साथ हो लिए। इस विवाह में शामिल
होने में स्त्रियां भी पीछे न थीं। सभी जगत्माताएं, देवकन्याएं, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और
सभी देवांगनाएं और देवपत्नियां तथा देवमाताएं भी खुशी-खुशी शंकर जी के विवाह में
सम्मिलित होने के लिए बारात के साथ हो लीं। वेद, शास्त्र, सिद्ध और महर्षि जिसे धर्म का
स्वरूप मानते हैं, जो स्फटिक के समान श्वेत व उज्ज्वल है, वह सुंदर बैल नंदी भगवान शिव
का वाहन है।
शिवजी नंदी पर आरूढ़ होकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। भगवान शिव की यह छवि बड़ी
मनोहारी थी। वे सज-धजकर समस्त देवताओं, ऋषि-मुनियों, शिवगणों, भूत-प्रेतों, माताओं
के सान्निध्य में अपनी विशाल बारात के साथ अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का पाणिग्रहण
करने के लिए सानंद होकर अपने ससुर गिरिराज हिमालय की नगरी की ओर पग बढ़ा रहे
थे। वे सब मदमस्त होकर नाचते-गाते हुए हिमालय के भवन की तरफ बढ़े जा रहे थे।
हिमालय की तरफ बढ़ते समय उनके ऊपर आकाश से पुष्पों की वर्षा हो रही थी। बारात का
वह दृश्य बहुत ही मनोहारी लग रहा था। चारों दिशाओं में शहनाइयां बज रही थीं और मंगल
गान गूंज रहे थे। उस बारात का अनुपम दृश्य सभी पापों का नाश करने वाला तथा सच्ची
आत्मिक शांति प्रदान करने वाला था।
इकतालीसवां अध्याय
मंडप वर्णन व देवताओं का भय
ब्रह्माजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ नारद! तुम भी भगवान शिव की बारात में सहर्ष शामिल हुए
थे। भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णु से सलाह करके सबसे पहले तुमको हिमालय के पास
भेजा, वहां पहुंचकर तुमने विश्वकर्मा के बनाए दिव्य और अनोखे मंडप को देखा तो बहुत
आश्चर्यचकित रह गए। विश्वकर्मा द्वारा बनाई गई विष्णु, ब्रह्मा, समस्त देवताओं की मूर्तियों
को देखकर यह कह पाना कठिन था कि ये असली हैं या नकली। वहां रत्नों से जड़े हुए
लाखों कलश रखे थे। बड़े-बड़े केलों के खंभों से मण्डप सजा हुआ था।
तुम्हें वहां आया देखकर शैलराज हिमालय ने तुमसे पूछा कि देवर्षि क्या भगवान शिव
बारात के साथ आ गए हैं? तब तुम्हें साथ लेकर हिमालय के पुत्र मैनाक आदि तुम्हारे साथ
बारात की अगवानी के लिए आए। तब मैंने और विष्णुजी ने भी तुमसे वहां के समाचार के
बारे में पूछा। हमने तुमसे यह भी पूछा कि शैलराज हिमालय अपनी पुत्री पार्वती का विवाह
भगवान शिव से करने के इच्छुक हैं या नहीं? कहीं उन्होंने अपना इरादा बदल तो नहीं दिया
है। यह प्रश्न सुनकर आप मुझे विष्णुजी और देवराज इंद्र को एकांत स्थान पर ले गए और
वहां जाकर तुमने वहां के बारे में बताना शुरू किया। तुमने कहा कि हे देवताओ। शैलराज
हिमालय ने शिल्पी विश्वकर्मा से एक ऐसे मंडप की रचना करवाई है जिसमें आप सब
देवताओं के जीते-जागते चित्र लगे हुए हैं। उन्हें देखकर मैं तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठा
था। इसे देखकर मुझे यह लगता है कि गिरिराज आप सब लोगों को मोहित करना चाहते हैं।
यह सुनकर देवराज इंद्र भय के मारे कापंने लगे और बोले-हे लक्ष्मीपति विष्णुजी! मैंने
त्वष्टा के पुत्र को मार दिया था। कहीं उसी का बदला लेने के लिए मुझ पर विपत्ति न आ
जाए। मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं मैं वहां जाकर मारा न जाऊं। तब इंद्र के वचन सुनकर
श्रीहरि विष्णु बोले कि
इंद्र! मुझे भी यही लगता है कि वह मूर्ख हिमालय हमसे बदला लेना चाहता है क्योंकि मेरी
आज्ञा से ही तुमने पर्वतों के पंखों को काट दिया था। शायद यह बात आज तक उन्हें याद है
और वे हम सब पर विजय पाना चाहते हैं, परंतु हमें डरना नहीं चाहिए। हमारे साथ तो स्वयं
महादेव जी हैं, भला फिर हमें कैसा भय? हमें इस प्रकार गुप-चुप बातें करते देखकर भगवान
शिव ने लौकिक गति से हमसे बात की और पूछा-हे देवताओ! क्या बात है? मुझे स्पष्ट बता
दो। शैलराज हिमालय मुझसे अपनी पुत्री पार्वती का विवाह करना चाहते हैं या नहीं? इस
प्रकार यहां व्यर्थ बातें करते रहने से भला क्या लाभ?
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर नारद तुम बोले-हे देवाधिदेव! शिवजी।
गिरिजानंदिनी पार्वती से आपका विवाह तो निश्चित है। उसमें भला कोई विघ्न-बाधा कैसे आ
सकती है? तभी तो शैलराज हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को मेरे साथ बारात की
अगवानी के लिए यहां भेजा है। मेरी चिंता का कारण दूसरा है। प्रभु! आपने मुझे हिमालय के
यहां बारात के आगमन की सूचना देने के लिए भेजा था। जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने विश्वकर्मा
द्वारा बनाए गए मंडप को देखा। शैलराज हिमालय ने देवताओं को मोहित करने के लिए एक
अदभुत और दिव्य मंडप की रचना कराई है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे सब
इतने जीवंत हैं कि कोई भी उन्हें देखकर मोहित हुए बगैर नहीं रह सकता। उन चित्रों को
देखकर ऐसा महसूस होता है कि वे अभी बोल पड़ेंगे। प्रभु! उस मंडप में श्रीहरि, ब्रह्माजी,
देवराज इंद्र सहित सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित अनेक जानवरों और पशु-पक्षियों के
सुंदर व लुभावने चित्र बनाए गए हैं। यही नहीं, मंडप में आपकी और मेरी भी प्रतिमूर्ति बनी
है, जिन्हें देखकर मुझे यह लगा कि आप सब लोग यहां न होकर वहीं हिमालय नगरी में पहुंच
गए हैं। नारद! तुम्हारी बातें सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और देवताओं से बोले-आप
सभी को भय की कोई आवश्यकता नहीं है। शैलराज हिमालय अपनी प्रिय पुत्री पार्वती हमें
समर्पित कर रहे हैं। इसलिए उनकी माया हमारा क्या बिगाड़ सकती है? आप अपने भय को
त्यागकर हिमालय नगरी की ओर प्रस्थान कीजिए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी
बाराती भयमुक्त होकर उत्साह और प्रसन्नता के साथ पुनः नाचते-गाते शिव-बारात में चल
दिए। शैलराज हिमालय के पुत्र मैनाक आगे-आगे चल रहे थे और बाकी सभी उनका
अनुसरण कर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। इस प्रकार बारात हिमालयपुरी जा पहुंची।
बयालीसवां अध्याय
बारात की अगवानी और अभिनंदन
ब्रह्माजी बोले-भगवान शिव अपनी विशाल बारात के साथ हिमालय पुत्रों के पीछे
चलकर हिमालय नगरी पहुंच गए। जब गिरिराज हिमालय ने उनके आगमन का समाचार
सुना तो वे प्रसन्नतापूर्वक, भक्ति से ओत-प्रोत होकर भगवान शिव के दर्शनों के लिए स्वयं
आए। हिमालय का हृदय प्रेम की अधिकता के कारण द्रवित हो उठा था और वे अपने भाग्य
को सराह रहे थे। हिमालय अपने साथी पर्वतों को साथ लेकर बारात की अगवानी के लिए
पहुंचे। भगवान शंकर की बारात देखकर शैलराज हिमालय आश्चर्यचकित रह गए। तत्पश्चात
देवता और पर्वत प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार एक-दूसरे के गले लगे मानो पूर्व और पश्चिम के
समुद्रों का मिलन हो रहा हो। सभी अपने को धन्य मान रहे थे। इसके बाद शैलराज महादेव
जी के पास पहुंचे और दोनों हाथ जोड़कर उनको प्रणाम करके स्तुति करने लगे। सभी पर्वतों
और ब्राह्मणों ने भी शिवजी की वंदना की। शिवजी अपने वाहन बैल पर बैठे थे।
भगवान शिव आभूषणों से विभूषित थे तथा दिव्य प्रकाश से आलोकित थे। उनके
लावण्य से सारी दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। भगवान शिव के मस्तक पर रत्नों से जड़ा
हुआ मुकुट शोभा पा रहा था। उनके गले और अन्य अंगों पर लिपटे सर्प उनके स्वरूप को
अद्भुत और शोभनीय बना रहे थे। उनकी अंगकांति दिव्य और अलौकिक थी। अनेक
शिवगण हाथ में चंवर लेकर उनकी सेवा कर रहे थे। उनके बाएं भाग में भगवान श्रीहरि विष्णु
और दाएं भाग में स्वयं मैं था। समस्त देवता भगवान शिव की स्तुति कर रहे थे।
नारद! जैसा तुम जानते ही हो भगवान शिव परमब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही सबके ईश्वर हैं।
वे इस जगत का कल्याण करते हैं और अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा कर उन्हें
मनवांछित फल प्रदान करते हैं। वे सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। वे सच्चिदानंद
स्वरूप हैं और सर्वेश्वर हैं। उनके बाएं भाग में श्रीहरि विष्णु गरुड़ पर बैठे थे तो दाएं भाग में
मैं (ब्रह्मा) स्थित था। हम तीनों के स्वरूप का एक साथ दर्शन कर गिरिराज आनंदमग्न हो
गए।
तत्पश्चात शैलराज ने शिवजी के पीछे तथा उनके आस-पास खड़े सभी देवताओं के
सामने अपना मस्तक झुकाया और सभी को बारंबार प्रणाम किया। फिर भगवान शिव की
आज्ञा लेकर, शैलराज हिमालय अपने निवास की ओर चल दिए और वहां जाकर उन्होंने
सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों एवं अन्य बारातियों के ठहरने की उत्तम व्यवस्था की। हिमालय
ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि तुम सभी भगवान शिव के पास जाकर
उनसे प्रार्थना करो कि वे स्वयं अतिशीघ्र यहां पधारें। मैं उन्हें अपने भाई-बंधुओं से मिलवाना
चाहता हूं। तुम वहां जाकर कहो कि मैं उनकी यहां प्रतीक्षा कर रहा हूं। अपने पिता गिरिराज
हिमालय की आज्ञा पाकर उनके पुत्र उस ओर चल दिए जहां बारात के ठहरने की व्यवस्था
की गई थी। वहां वे भगवान शिव के पास पहुंचे। प्रणाम करके उन्होंने अपने पिता द्वारा कही
हुई सभी बातों से शिवजी को अवगत करा दिया। तब भगवान शंकर ने कहा कि तुम जाकर
अपने पिता से कहो कि हम शीघ्र ही वहां पहुंच रहे हैं। शिवजी से आज्ञा लेकर हिमालय के
पुत्र वापिस चले गए। तत्पश्चात देवताओं ने तैयार होकर गिरिराज हिमालय के घर की ओर
प्रस्थान किया। महादेव जी के साथ भगवान विष्णु और मैं (ब्रह्मा) शीघ्रतापूर्वक चलने लगे।
तभी देवी पार्वती की माता देवी मैना के मन में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को देखने की
इच्छा हुई। इसलिए देवी मैना ने तुमको संदेशा भेजकर अपने पास बुलवा लिया। भगवान
शिव से प्रेरित होकर देवी मैना की हार्दिक इच्छा को पूरा करने के लिए आप वहां गए।
तेंतालीसवां अध्याय
शिवजी की अनुपम लीला
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! तुमको अपने सामने देखकर देवी मैना बहुत प्रसन्न हुईं और तुम्हें
प्रणाम करके बोलीं--हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी! मैं भगवान शिव के इसी समय दर्शन करना
चाहती हूं। मैं देखना चाहती हूं, जिन शिवजी को पाने के लिए मेरी बेटी पार्वती ने घोर तपस्या
की तथा अनेक कष्टों को भोगा उन शिवजी का रूप कैसा है? वे कैसे दिखते हैं? यह कहकर
तुमको साथ लेकर देवी मैना चंद्रशाला की ओर चल पड़ीं। इधर भगवान शिव भी मैना के इस
अभिमान को समझ गए और मुझसे व विष्णुजी से बोले कि तुम सब देवताओं को अपने
साथ लेकर गिरिराज हिमालय के घर पहुंचो। मैं भी अपने गणों के साथ पीछे-पीछे आ रहा
|
भगवान विष्णु ने इसे भगवान शिव की आज्ञा माना और सब देवताओं को बुलाकर उनकी
आज्ञा का पालन करते हुए शैलराज के घर की ओर प्रस्थान किया। देवी मैना तुम्हारे साथ
अपने भवन के सबसे ऊंचे स्थान पर जाकर खड़ी हो गईं। तब देवताओं की सजी-सजाई
सेना को देखकर मैना बहुत प्रसन्न हुई। बारात में सबसे आगो सुंदर वस्त्रों एवं आभूषणों से
सजे हुए गंधर्व गण अपने वाहनों पर सवार होकर बाजे बजाते और नृत्य करते हुए आ रहे थे।
इनके गण अपने हाथों में ध्वज की पताका लेकर उसे फहरा रहे थे। साथ में स्वर्ग की सुंदर
अप्सराएं मुग्ध होकर नृत्य कर रही थीं। उनके पीछे वसु आ रहे थे। फिर मणिग्रीवादि यक्ष,
यमराज, निर्त्रति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, देवराज इंद्र, चंद्रमा, सूर्य, भृगु आदि देव व
मुनीश्वर एक से एक सुंदर और मनोहारी रूप के स्वामी थे और सर्वगुण संपन्न जान पड़ते थे।
उन्हें देखकर नारद वह तुमसे यही प्रश्न करती कि क्या ये ही शिव हैं? तब तुम मुस्कुराकर यह
उत्तर देते कि नहीं ये भगवान शिव के सेवक हैं। देवी मैना यह सुनकर हर्ष से विभोर हो जातीं
कि जब उनके सेवक इतने सुंदर और वैभवशाली हैं तो वे स्वयं कितने रूपवान और ऐश्वर्य
संपन्न होंगे।
उधर, दूसरी ओर भगवान शिव, जो कि सर्वेश्वर हैं, उनसे भला जगत की कोई बात कैसे
छिप सकती है? वे देवी मैना के हृदय की बात तुरंत जान गए और मन ही मन उन्होंने उनके
मन में उत्पन्न अहंकार का नाश करने का निश्चय कर लिया। तभी वहां से, जहां मैना और
नारद तुम खड़े हुए थे, श्रीहरि विष्णु पधारे। उनकी कांति के सामने चंद्रमा की कांति भी
फीकी पड़ जाती है। वे जलंधर के समान श्याम तथा चार भुजाधारी थे और उन्होंने पीले वस्त्र
पहन रखे थे। उनके नेत्र कमल दल के समान सुंदर व प्रकाशित हो रहे थे। वे गरुड़ पर
विराजमान थे। शंख, चक्र आदि उनकी शोभा में वृद्धि कर रहे थे। उनके सिर पर मुकुट
जगमगा रहा था और वक्ष स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह था। उनका सौंदर्य अप्रतिम तथा देखने
वाले को मंत्रमुग्ध करने वाला था। उन्हें देखकर देवी मैना के हर्ष की कोई सीमा न रही और वे
तुमसे बोलीं कि जरूर ये ही मेरी पार्वती के पति भगवान शिव होंगे।
नारद जी! देवी मैना के वचनों को सुनकर आप मुस्कुराए और उनसे बोले कि देवी, ये
आपकी पुत्री पार्वती के होने वाले पति भगवान शिव नहीं, बल्कि क्षीरसागर के स्वामी और
जगत के पालक श्रीहरि विष्णु हैं। ये भगवान शिव के प्रिय हैं और उनके कार्यो के अधिकारी
भी हैं। हे देवी! गिरिजा के पति भगवान शिव तो संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अधिकारी हैं। वे सर्वेश्वर
हैं और वही परम ब्रह्म परमात्मा हैं। वे विष्णुजी से भी बढ़कर हैं।
तुम्हारी ये बातें सुनकर मैना शिवजी के बारे में बहुत कुछ सोचने लगीं कि मेरी पुत्री बहुत
भाग्यशाली और सौभाग्यवती है, जिसे धन-वैभव और सर्वशक्ति संपन्न वर मिला है। यह
सोचकर उनका हृदय हर्ष से प्रफुल्लित हो रहा था। वे शिवजी को दामाद के रूप में पाकर
अपने कुल का भाग्योदय मान रही थीं। वे कह रही थीं कि पार्वती को जन्म देकर मैं धन्य हो
गई। मेरे पति गिरिराज हिमालय भी धन्य हो गए। मैंने अनेक तेजस्वी देवताओं के दर्शन
किए, इन सभी के द्वारा पूज्य और इन सबके अधिपति मेरी पुत्री पार्वती के पति हैं फिर तो
मेरा भाग्य सर्वथा सराहने योग्य है।
इस प्रकार मैना अभिमान में आकर जब यह सब कह रही थी उसी समय उसका
अभिमान दूर करने के लिए अपने अदभुत रूप वाले गणों को आगे करके शिवजी भी आगे
बढ़ने लगे। भगवान शिव के सभी गण मैना के अहंकार और अभिमान का नाश करने वाले
थे। भूत, प्रेत, पिशाच आदि अत्यंत कुरूपगणों की सेना सामने से आ रही थी। उनमें से कई
बवंडर का रूप धारण किए थे, किसी की टेढ़ी सूंड थी, किसी के होंठ लंबे थे, किसी के चेहरे
पर सिर्फ दाढ़ी-मूंछें ही दिखाई देती थीं, किसी के सिर पर बाल नहीं थे तो किसी के सिर पर
बालों का घना जंगल था। किसी की आंखें नहीं थीं, कोई अंधा था तो कोई काणा। किसी की
तो नाक ही नहीं थी। कोई हाथों में बड़े भारी-भारी मुद्गर लिए था, तो कोई औंधा होकर चल
रहा था। कोई वाहन पर उल्टा होकर बैठा हुआ था। उनमें कितने ही लंगड़े थे। किसी ने दण्ड
और पाश ले रखे थे। सभी शिवगण अत्यंत कुरूप और विकराल दिखाई देते थे। कोई सींग
बजा रहा था, कोई डमरू तो कोई गोमुख को बजाता हुआ आगे बढ़ रहा था। उनमें किसी
का सिर नहीं था तो किसी के धड़ का पता नहीं चल रहा था तो किसी के अनेकों मुख थे।
किसी के चेहरे पर अनगिनत आंखें लगी थीं तो किसी के अनेकों पैर थे। किसी के हाथ नहीं
थे तो किसी के अनेकों कान थे, तो किसी के अनेकों सिर थे। सभी शिवगणों ने अचंभित
करने वाली वेश-भूषा धारण की हुई थी। कोई आकार में बहुत बड़ा था तो कोई बहुत छोटा
था। वे देखने में बहुत ही भयंकर लग रहे थे। उनकी लंबी-चौड़ी विशाल सेना मदमस्त होकर
नाचते-गाते हुए आगे बढ़ रही थी। तभी तुमने अंगुली के इशारे से शिवगणों को दिखाते हुए
देवी मैना से कहा-देवी! पहले आप भगवान शिव के गणों को देख लें, तत्पश्चात महादेव जी
के दर्शन करना।
भूत-प्रेतों की इतनी बड़ी सेना को देखकर देवी मैना भय से कांपने लगीं। इसी सेना के
बीच में पांच मुख वाले, तीन नेत्रों, दस भुजाओं वाले, शरीर पर भस्म लगाए, गले में मुण्डों
की माला पहने, गले में सपो को डाले, बाघ की खाल को ओढे, पिनाक धनुष हाथ में उठाए,
त्रिशूल कंधे पर रखकर बड़े कुरूप और बूढ़े बैल पर चढ़े हुए भगवान शंकर देवी मैना को
दिखाई दिए। उनके सिर पर जटाजूट थी और आंखें भयंकर लाल थीं।
नारद! तभी तुमने मैना को बताया कि वे ही भगवान शिव हैं। तुम्हारी यह बात सुनकर
देवी मैना अत्यंत व्याकुल होकर तेज वायु के झकोरे लगने से टूटी लता के समान धरती पर
धड़ाम से गिरकर मूर्छित हो गईं। उनके मुख से सिर्फ यही शब्द निकले कि सबने मिलकर
मुझे छल-कपट से राजी किया है। मैं सबके आग्रह को मानकर बरबाद हो गई। मैना के इस
प्रकार बेहोश हो जाने पर उनकी अनेकों दासियां वहां भागती हुई आ गईं। अनेकों प्रकार के
उपाय करने के पश्चात धीरे-धीरे मैना होश में आई।
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चवालीसवां अध्याय
मैना का विलाप एवं हठ
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब हिमालय पत्नी मैना को होश आया तब वे बड़ी दुखी थीं और
रोए जा रही थीं। उनका जोर-जोर से दहाड़ें मार-मारकर रोना रुकने का नाम ही नहीं ले रहा
था। वे रोते हुए अपने पुत्रों, पुत्री तथा अपने पति गिरिराज हिमालय सहित देवर्षि नारद व
सप्तऋषियों की निंदा करते हुए उन्हें कोस रही थीं।
मैना बोलीं--हे नारद मुनि! आपने ही हमारे घर आकर यह कहा था कि शिवा शिव का
वरण करेंगी। तुम्हारी बातों को मानकर हम सबने अपनी पुत्री पार्वती को भगवान शिव की
तपस्या करने के लिए वनों में भेज दिया। मेरी बेटी ने अपने तप के द्वारा सभी को प्रसन्न कर
दिया। उसने ऐसी तपस्या की जो कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिए भी कठिन है। परंतु
उसकी इतनी पूजा-आराधना का यह फल उसे मिला, जो कि देखने में भी दुख देने वाला है।
इसे देखकर हमें अत्यंत दुख और भय प्राप्त हुआ है। हे भगवान! मीं क्या करूं? कहां जाऊं?
भला कीन मुझे इस असह्य दुख से छुटकारा दिला सकता है? मैं तो किसी को भी अपना मुंह
दिखाने योग्य नहीं रही। भला, कोई देखो वे दिव्य सप्तऋषि और उनकी वो धूर्त पत्नी
अरुंधती कहां चली गई, जो मुझे समझाने आई थीं। जिसने मुझे झूठ-सच कह-कहकर
जबरदस्ती इस विवाह के लिए मेरी स्वीकृति ले ली थी। यदि वे मेरे सामने आ जाएं तो मैं उन
ऋषियों की दाढ़ी-मूंछ नोच लूं। हाय! मेरा तो सबकुछ लुट गया। मैं तो पूरी तरह से बरबाद हो
गई हूं।
यह कहकर देवी मैना अपनी पुत्री पार्वती से बोलीं-तूने हमसे कौन से जन्म का बदला
लिया है? तूने यह क्या कार्य कर दिया, जो तेरे माता-पिता के लिए अत्यंत दुख का कारण
बन गया है। इस प्रकार मैना पार्वती को खूब खरी-खोटी सुनाने लगीं। वे कहने लगीं कि
नासमझ तूने सोने के बदले कांच खरीद लिया है। सुंदर सुगंधित चंदन को छोड़कर अपने
शरीर पर कीचड़ का लेप कर लिया है। यह मूर्खा तो यह भी नहीं समझती कि इसने हंस को
उड़ाकर उसके स्थान पर कौए को पाल लिया है। गंगाजल, जिसे सबसे पवित्र समझा जाता
है, उसको फेंककर कुएं के जल को पी लिया है। उजाले को पाने की चाह लेकर उसके स्रोत
सूर्य को छोड़कर जुगनू को पकड़ने के लिए दौड़ रही है। चावल के भूसे को रखकर अच्छे
चावलों को फेंक रही है। बेटी, तूने हमारे कुल के यश का सर्वनाश करने की इच्छा कर ली है।
तभी तो, मंगलमयी विभूति को फेंककर घर में चिता की अमंगलमयी राख को लाना चाहती
है। जानवरों के सिरमौर सिंह को त्याग कर सियार के पीछे पड़ी है।
पार्वती! तूने बड़ी भारी मूर्खता कर दी है, जो सूर्य, चंद्रमा, श्रीहरि विष्णु और देवराज इंद्र
जैसे सुंदर, सर्वगुण संपन्न, परम ऐश्वर्य और वैभव के स्वामियों को छोड़कर दुष्ट नारद की
बातों में आकर एक महा-कुरूप शिव के लिए रात-दिन वनों की खाक छानती रही और घोर
तपस्या करती रही। तुझे, तेरी बुद्धि, तेरे रूप तथा तेरी सहायता करने वाले प्रत्येक उस मनुष्य
को धिक्कार है, जिसने तुझे गलत राह पर चलने में मदद की। हमको भी धिक्कार है जो मैंने
और तेरे पिता ने तुझे जन्म दिया। सुबुद्धि देने वाले उन सप्तत्ऋषियों को भी मैं धिक्कारती हूं,
जिन्होंने गलत उपदेश देकर मुझे गलत रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने तो मेरा घर
जलाने का पूरा प्रबंध कर दिया है। मेरे कुल को सर्वनाश की कगार पर ले आए हैं। पार्वती!
मैंने तुझे कितना समझाया, पर तू अपनी जिद पर अड़ी रही। पर अब और नहीं, अब मैं तेरी
एक भी नहीं सुनूंगी। गैं तो अभी तुझे मार डालूंगी, तुझे जीवित रखने का अब कोई प्रयोजन
नहीं है। तुझे मारकर खुद की जीवन लीला भी समाप्त कर दूंगी। भले ही मुझे नरक का भागी
क्यों न होना पड़े। मेरा दिल करता है कि मैं तेरा सिर काट दूं, तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर
दूं। तुझे छोड़कर कहीं चली जाऊं।
यह कहकर देवी मैना मूर्छित होकर फर्श पर गिर पड़ीं। तब उस समय उनकी ऐसी हालत
देखकर सभी देवता उन्हें समझाने के लिए उनके पास गए। सबसे पहले मैं (ब्रह्मा) उनके
पास पहुंचा। तब मुझे वहां देखकर नारद तुमने कहा--'देवी! आपको इस बात का ज्ञान नहीं
है कि शिवजी बहुत सुंदर हैं। अभी तुमने उनका सही स्वरूप देखा ही कहां है? अभी जो कुछ
तुमने देखा है, वह उनकी लीला मात्र है। देवी! आप अपने क्रोध को त्याग दे और स्वस्थ
होकर शुद्ध हृदय से विवाह का कार्य आरंभ करें। इतना सुनना था कि मैना के क्रोध की अग्नि
भभक उठी, वे बोलीं दुष्ट नारद! यहां से इसी समय चला जा। तू दुष्टों का भी दुष्ट और नीच
है। तू मेरे सामने भूलकर भी मत आना। इसी समय यहां से निकल जा। मैं तेरी सूरत तक
देखना नहीं चाहती।
मैना के ये वचन सुनकर इंद्रादि देवता दौड़कर वहां चले आए और बोले-हे पितरों की
कन्या मैना! भगवान शिव तो इस समस्त चराचर जगत के स्वामी हैं। वे तो सबको सुख देने
वाले तथा सबको मनोवांछित वर देने वाले सर्वेश्वर हैं। वे तो भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने
भक्तों के अधीन रहते हैं। आपकी पुत्री पार्वती ने कठिन तप करके भगवान शिव को प्रसन्न
किया है तथा वरदान के रूप में उनको अपना पति होने का वर प्राप्त किया है। तभी तो आज
वे अपने दिए वरदान को पूरा करने के लिए उनका पाणिग्रहण करने के लिए यहां पधारे हैं।
यह सुनकर मैना और अधिक रोने लगीं और बोलीं-शिव तो बहुत भयंकर हैं। मैं अपनी
पुत्री पार्वती कदापि उन्हें नहीं दूंगी। आप सब देवता क्यों ये षडयंत्र रच रहे हैं? आप मेरी
प्राणप्रिय, फूलों के समान कोमल पुत्री को क्यों इन भूत-प्रेतों के हवाले करना चाहते हैं? इस
प्रकार देवी मैना सब देवताओं पर क्रोधित होकर उन्हें फटकारने लगीं।
जब वशिष्ठ आदि सप्तऋषियों ने देवी मैना के इस प्रकार के वचन सुने तो वे भी मैना को
समझाने के लिए उनके निकट आ गए। तब वे बोले-हे पितरों की कन्या मैना! हम तो
तुम्हारा कार्य सिद्ध करने के लिए यहां आए हैं। भगवान शिव का दर्शन तो सभी पापों का
नाश करने वाला है और यहां तो वे स्वयं आपके घर पधारे हैं। इस बात को सुनकर भी देवी
मैना को कोई संतोष नहीं हुआ। उनका क्रोध यथावत रहा तथा उन्होंने फिर कहा कि मैं
पार्वती के टुकड़े-टुकड़े कर दूगी परंतु उसको शिव के साथ नहीं भेजूंगी। दूसरी ओर देवी मैना
के इस व्यवहार से चारों ओर हाहाकार मच गया। जब शैलराज हिमालय को मैना के इस
व्यवहार की सूचना मिली तो वे फौरन दौड़ते हुए अपनी पत्नी के पास आए और बोले--हे
प्रिये! तुम इतनी क्रोधित क्यों हो रही हो? देखो, हमारे घर में कौन-कौन से महात्मा पधारे हैं
और तुम इनका अपमान कर रही हो। तुम भगवान शंकर के भयानक रूप को देखकर
भयभीत हो गई हो। देवी! वे तो सर्वेश्वर हैं। भय करना छोड़कर उनके मंगलमय रूप का
दर्शन करो। विवाह के शुभ कार्यों का शुभारंभ करो। अपने हठ को छोड़ो और क्रोध का त्याग
कर शिव-पार्वती विवाह के मंगलमय कार्यों को संपन्न करो। देवी! तुम जानती हो कि भगवान
शिव अनुपम लीलाएं करते हैं। यह भी उनकी लीला का एक भाग ही है। अतः तुम अपने मन
के डर को दूर करके यथाशीघ्र पूर्ववत कार्य करो।
शैलराज हिमालय के ये वचन सुनकर उनकी पत्नी मैना अत्यंत क्रोधित हो गई और बोलीं
-—हे स्वामी! आप ऐसा करिए कि पार्वती के गले में रस्सी बांधकर उसे पर्वत से नीचे गिरा
दीजिए या फिर उसे समुद्र में डुबो दीजिए। चाहे कुछ भी करके उसकी जीवन लीला समाप्त
कर दीजिए। मैं आपको कुछ नहीं कहूंगी, परंतु मैं पार्वती का हाथ किसी भी परिस्थिति में
शिव को नहीं सौपूंगी। यदि फिर भी आपने हठपूर्वक पार्वती का विवाह शिव से करने की
ठान ली है, तो मैं अपने प्राणों को त्याग दूंगी।
अपनी माता मीना के ऐसे वचन सुनकर पार्वती उनके करीब आकर बोलीं-माता! आप
तो ज्ञान की प्रतिमूर्ति हैं। आप सदा ही धर्म के पथ का अनुसरण करने वाली हैं। भला आज
ऐसा क्या हो गया है, जो आप धर्म के मार्ग से विमुख हो रही हैं। हे माता। महादेवजी तो देवों
के देव हैं। वे निर्गुण निराकार हैं। वे तो परब्रह्म परमात्मा हैं और सबके सर्वेश्वर हैं। वे तो इस
संसार की उत्पत्ति के आधार हैं। भगवान शिव भक्तवत्सल हैं एवं अपने भक्तों को सदैव सुख
प्रदान करने वाले हैं। भगवान शिव सब अनुष्ठानों के अधिष्ठाता हैं। वे ही सबके कर्ता, हर्ता
और स्वामी हैं। ब्रह्मा, विष्णु भी सदा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं। हे माता। आपको तो इस
बात का गर्व होना चाहिए कि आपकी पुत्री का हाथ मांगने के लिए देवता भी याचक की
भांति आपके दरवाजे पर पधारे हैं। अत: आप बेकार की बातों को छोड़कर उत्तम कार्य करो।
मुझे भगवान शिव के हाथों में सौपकर अपने जीवन को सफल कर लो। माता! मेरी छोटी-सी
विनती स्वीकार कर लो और मुझे भगवान शिव के चरणों में उनकी सेवा के लिए समर्पित कर
दो। मां! मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान शिव को अपना पति मान लिया है। अब मैं
किसी और का वरण नहीं कर सकती। मैं सिर्फ महादेवजी का ही स्मरण करती हूं। उन्हें पति
रूप में पाने की इच्छा लेकर ही मैंने अपने जिंदगी के इतने वर्ष बिताए हैं। भला, आज मैं कैसे
अपने वचन से पीछे हट जाऊं।
पार्वती जी के कहे वचनों को सुनकर मैना क्रोध के आधिक्य से उद्वेलित हो गई और उसे
डांटने तथा बुरे वचन कहने लगीं। मैना रोती जा रही थीं। मैंने और वहां उपस्थित सभी
महानतम सिद्धो ने देवी मैना को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परंतु सब निरर्थक सिद्ध
हुआ। वे किसी भी स्थिति में समझने को तैयार नहीं थीं। तभी उनके हठ की बातें सुनकर
परम शिव भक्त भगवान श्रीविष्णु वहां आ पहुंचे और बोले-हे पितरों की मानसी पुत्री एवं
शैलराज हिमालय की पत्नी मैना! आप ब्रह्माजी के कुल से संबंधित हैं। इसी कारण आपका
सीधा संबंध धर्म से है। आप धर्म की आधारशिला हैं। फिर भला कैसे धर्म का त्याग कर
सकती हैं? इस प्रकार हठ करना आपको शोभा नहीं देता। स्वयं सोचिए, भला सभी देवता,
ऋषि-मुनि और स्वयं ब्रह्माजी और मैं आपसे असत्य वचन क्यों कहेंगे। भगवान शिव निर्गुण
और सगुण दोनों ही हैं। वे कुरूप हैं, तो सुरूप भी हैं। सभी उनका पूजन करते हैं। वे ही
सज्जनों की गति हैं। मूल प्रकृति रूपी देवी एवं पुरुषोत्तम का निर्माण भगवान शिव ने ही
किया है। मेरी और ब्रह्माजी की उत्पत्ति भी भगवान शिव के द्वारा ही हुई है। उसके बाद सारे
लोकों का हित करने के लिए उन्होंने स्वयं भी रुद्र का अवतार धारण कर लिया है। तत्पश्चात
वेद, देवता तथा इस जल एवं थल में जो भी चराचर वस्तु या प्राणी दिखाई देता है, उस सारे
जगत की रचना भगवान शिव ने ही की है। हे देवी! कोई भी उनके रूप को नहीं जानता है
और न ही जान सकता है। यहां तक कि मैं और ब्रह्माजी भी उनकी समस्त लीलाओं को
आज तक नहीं जान पाए हैं। इस संसार में जो कुछ भी विद्यमान है, वह भगवान शिव का ही
स्वरूप है। यह तो भगवान शिव की ही माया है, जो वे स्वयं आपको अपना रूप इस प्रकार
दिखा रहे हैं। हे देवी! आप सबकुछ भूलकर, सच्चे मन से शिवजी का स्मरण करके उनके
चरणों में अपना ध्यान लगाए आपके सारे दुख और क्लेश मिट जाएंगे और आपको परम
सुख की प्राप्ति होगी। श्रीहरि विष्णु द्वारा जब मैना को इस प्रकार समझाया गया तो देवी मैना
का क्रोध कुछ कम हुआ। वस्तुतः शिवजी की माया से मोहित होने के कारण ही वे यह सब
कर रही थीं। कुछ शांत होने पर उन्होंने कुछ देर मन में विचार किया। तत्पश्चात मैना श्रीहरि
विष्णुजी से बोली_प्रभु! मैं आपकी हर बात समझ गई हूं। मैं यह भी जानती हूं कि भगवान
शिव सर्वेश्वर हैं और इस जगत के कण-कण में व्याप्त हैं। मैं आपकी इच्छानुसार भगवान
शिव को अपनी पुत्री सौंप सकती हूं, पर मेरी एक शर्त है। तब विष्णुजी के आग्रह करने पर
देवी मैना ने कहा, यदि महादेव जी सुंदर शरीर धारण कर लें, तो मैं सहर्ष अपनी पुत्री पार्वती
का विवाह उनसे कर दूंगी।
ऐसा कहकर देवी मैना चुप हो गई। धन्य हैं भक्तवत्सल त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की
माया, जो सबको मोह में डालने वाली है।
पैंतालीसवां अध्याय
शिव का सुंदर व दिव्य स्वरूप दर्शन
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! उस समय जब देवी मैना ने विष्णुजी के सामने इस प्रकार की
शर्त रखी, तब मैंने तुमको भगवान शिव के पास जाने का आदेश दिया। तुमने वहां जाकर
उनकी स्तुति की और उन्हें संतुष्ट किया। तब तुम्हारी बात मानकर तथा देवताओं का कार्य
सिद्ध करने की इच्छा से भगवान शिव ने प्रसन्नतापर्वूक अदभुत, उत्तम और दिव्य रूप धारण
कर लिया। उस समय भगवान शिव कामदेव से अधिक रूपवान लग रहे थे। उनके सुंदर
रूप-लावण्य को देखकर तुम प्रसन्न होते हुए तुरंत देवी मीना के पास उन्हें यह शुभ समाचार
देने के लिए चले गए। वहां पहुंचकर, जहां देवी मैना बैठी थीं उन्हें देखकर, तुम बोले-हे
शैलराज की पत्नी और पार्वती की माता मैना! आप चलकर स्वयं भगवान शिव के सुंदर और
मनोहारी रूप का दर्शन करें।
यह समाचार पाकर देवी मीना की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वे आपको अपने साथ
लेकर भगवान शिव के दर्शन करने के लिए गई। वहां पहुंचकर मैना ने भगवान शिव के परम
आनंददायक सुंदर रूप के दर्शन किए। शिवजी का मुखारविंद करोड़ों सूयो के समान
तेजस्वी, सुंदर एवं दिव्य था। उनके विशाल मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित था। सूर्य ने उनके
सिर पर छत्र धारण कर रखा था। भगवान शिव प्रसन्न मुद्रा में थे। वे ललित लावण्य से युक्त
मनोहर, गौरवर्ण, चंद्रलेखा से अलंकृत होकर बिजली की भांति चमक रहे थे। विष्णु सहित
सभी देवता एवं ऋषि-मुनि उनकी प्रेमपूर्वक सेवा कर रहे थे। उनके शरीर पर दिव्य
अलौकिक सुंदर वस्त्र व आभूषण शोभा पा रहे थे। गंगा और यमुना चंवर झुला रही थीं और
अणिमा आदि आठों सिद्धियां मुग्ध होकर नाच-गा रही थीं। इस प्रकार भगवान शंकर सुंदर व
दिव्य रूप धारण करके बारात लेकर हिमालय के घर की ओर आ रहे थे। उनके साथ-साथ
मैं, विष्णुजी तथा देवराज इंद्र भी विभूषित होकर चल रहे थे। उनके पीछे-पीछे सुंदर एवं
अनेकों रूपों वाले गण, सिद्ध मुनि व समस्त देवता जय-जयकार करते हुए चल रहे थे।
समस्त देवता इस विवाह को देखने के लिए बड़े ही उत्कंठित थे और अपने परिवार के साथ
शिवजी के विवाह में सम्मिलित होने के लिए आए थे। विश्ववसु आदि गंधर्व व सुंदर अप्सराएं
भगवान शिव के यश का गान करते हुए चल रहे थे।
भगवान शिव के गिरिराज हिमालय के द्वार पर पधारते ही वहां महान उत्सव होने लगा।
उस समय महादेव जी की शोभा अदभुत व निराली थी। उनका सुंदर विलक्षण रूप देखकर
पल भर के लिए मीना चित्रलिखित-सी होकर रह गई। फिर प्रसन्नतापूर्वक बोली-हे
देवाधिदेव! महेश्वर! शिवजी! मेरी पुत्री पार्वती धन्य है जिसने घोर तपस्या करके आपको
प्रसन्न किया। मेरा सौभाग्य है कि परम कल्याणकारी भगवान सदाशिव आज मेरे घर पधारे
हैं। भगवन्! मैं अक्षम्य अपराध कर बैठी हूं। मैंने आपकी बहुत निंदा की है। प्रभु! मैं आपसे
दोनों हाथ जोड़कर क्षमा याचना करती हूं। कृपा कर मेरी भूल क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न
हो जाएं।
इस प्रकार चंद्रमौली भगवान शिव की स्तुति करती हुई शैलप्रिया मैना लज्जित होते हुए
नतमस्तक हो गई। उस समय पुरवासिनी स्त्रियां सभी घर के कामों को छोड़कर, बाहर आकर
भगवान शिव के दर्शन की लालसा लेकर उन्हें देखने का प्रयत्न करने लगीं। चक्की पीसने
वाली ने चक्की छोड़ दी, पति की सेवा में लगी हुई पत्नी पति की सेवा छोड़कर भाग गई।
कोई-कोई तो दूध पीते हुए बच्चे को छोड़कर भाग आई। इस प्रकार सभी अपने-अपने
आवश्यक कार्यो को छोड़कर भगवान शिव के दर्शन के लिए दौड़ आई थीं। भगवान शिव के
मनोहर रूप के दर्शन करके सब मोहित हो गईं। तब सहर्ष शिवजी की सुंदर मूर्ति को अपने
मन मंदिर में धारण करके वे बोलीं-सखियो! हम सबके अहोभाग्य हैं। हिमालय नगरी में
रहने वाले नर-नारियों के नेत्र आज भगवान शिव के दिव्य स्वरूप का दर्शन करके सफल हो
गए हैं। आज निश्चय ही हमने संसार की हर विषय-वस्तु को पा लिया है। शिव स्वरूप का
दर्शन करने मात्र से ही हमारे सारे पाप नष्ट हो गए हैं। उनकी छवि सर्वथा सब क्लेशों व दुखों
का नाश करने वाली है। आज उन्हें साक्षात सामने देखकर हमारा जीवन सफल हो गया है।
पार्वती ने उत्तम तपस्या द्वारा भगवान शिव को पाकर अपने साथ-साथ हम सबका भी जीवन
सार्थक कर दिया है। हे पार्वती। तुम निश्चय ही धन्य हो। तुम परब्रह्म परमेश्वर भगवान शिव
की अद्धागिनी बनकर इस जगत को सुशोभित करोगी। यदि विधाता पार्वती-शिव का इस
प्रकार मेल न कराते तो निश्चय ही उनका सारा परिश्रम निष्फल हो जाता। आज शिव-शिवा
की इस युगल जोड़ी को साथ देखकर हमारे सारे कार्य सार्थक हो गए हैं। आज वाकई हम
सब इनके उत्तम दर्शनों से धन्य हो गए हैं।
इस प्रकार कहकर वे पुरवासिनी स्त्रियां अक्षत, कुमकुम और चंदन से शिवजी का पूजन
करने लगीं तथा प्रसन्नतापूर्वक उन पर खीलों की वर्षा करने लगीं। वे स्त्रियां देवी मैना के पास
खड़ी होकर उनके भाग्य और कुल की सराहना करने लगीं। उनके मुख से इस प्रकार शुभ व
मंगलकारी बातें सुनकर सभी देवताओं को बहुत प्रसन्नता हुई।
छियालीसवां अध्याय
शिव का परिछन व पार्वती का सुंदर रूप देख प्रसन्न होना
ब्रह्माजी बोले--नारद! भगवान शिव सबको आनंदित करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने
गणों, देवताओं, सिद्ध मुनियों तथा अन्य लोगों के साथ गिरिराज हिमालय के धाम में गए।
हिमालय की पत्नी मैना भी अंदर से शिवजी की आरती उतारने के लिए सुंदर दीपकों से
सजी हुई थाली लेकर बाहर आईं। उस समय उनके साथ ऋषि पत्नियां तथा अन्य स्त्रियां भी
मौजूद थीं। भगवान शिव का मनोहर रूप चारों ओर अपनी कांति बिखेर रहा था। उनकी
शोभा करोड़ों कामदेवों के समान थी। उनके प्रसन्न मुखारबिंद पर तीन नेत्र थे। अंगकांति चंपा
के समान थी। शरीर पर सुंदर वस्त्र और आभूषण उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा रहे थे।
उनके मस्तक पर सुंदर चंद्रमुकुट लगा था, गले में हार तथा हाथों में कड़े तथा बाजूबंद उनकी
शोभा बढ़ा रहे थे। चंदन, कस्तूरी, कुमकुम और अक्षत से उनका शरीर विभूषित था। उनका
रूप दिव्य और अलौकिक था, जो अनायास ही सबको अपनी ओर आकर्षित कर रहा था।
उनका मुख अनेकों चंद्रमाओं की चांदनी के समान उज्ज्वल और शीतल था। ऐसे परम सुंदर
और मनोहर रूप वाले दामाद को पाकर हिमालय पत्नी मैना की सभी चिंताएं दूर हो गई। वे
आनंदमग्न होकर अपने भाग्य की सराहना करने लगीं। शिवजी को दामाद बनाकर स्वयं को
कृतार्थ मानने लगीं और अपनी पुत्री पार्वती, अपने पति हिमालय तथा अपने कुल को धन्य
मानने लगीं। उस समय प्रसन्नतापूर्वक वे शिवजी की आरती उतारने लगीं। आरती उतारते हुए
देवी मैना सोच रही थीं कि जैसा पार्वती ने महादेव जी के बारे में बताया था, ये उससे भी
अधिक सुंदर हैं। इनका रूप लावण्य तो चित्त को प्रसन्नता देने वाला तथा समस्त पापों और
दुखों का नाश करने वाला है। विधिपूर्वक आरती पूरी करने के पश्चात मैना अंदर चली गई।
उस समय उस विवाह में पधारी युवतियों ने वर के रूप में पधारे परमेश्वर शिव के सुंदर,
कल्याणकारी और मनोहारी रूप की बहुत प्रशंसा की। वे आपस में हंसी-ठिठोली कर रही
थीं। साथ ही साथ अपनी सखी पार्वती के भाग्य की भी सराहना कर रही थीं कि उसे शिवजी
जैसे वर की प्राप्ति हुई है। वे मैना से कहने लगीं कि हमने तो इतना सुंदर वर किसी के विवाह
में भी नहीं देखा है। पार्वती धन्य हैं जो उसे ऐसा पति प्राप्त हो रहा है। भगवान शिव के सुंदर
मनोहारी रूप के दर्शन करके सब देवताओं सहित ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। गंधर्व भगवान
शिव के यश का गान करने लगे तथा अप्सराएं प्रसन्न होकर नृत्य करने लगीं। उस समय
गिरिराज हिमालय के यहां आनंद ही आनंद था। हिमालय ने आदरपूर्वक मंगलाचार किया
और मैना सहित वहां उपस्थित सभी नारियों ने वर का परिछन किया तथा घर के भीतर चली
गई। तत्पश्चात महादेव जी व उनके साथ बारात में पधारे हुए सभी महानुभाव जनवासे में चले
गए।
तत्पश्चात साक्षात दुर्गा का अवतार देवी पार्वती कुलदेवी की पूजा करने के लिए अपने
कुल की स्त्रियों सहित अपने अंतःपुर से बाहर आइ। वहां जिसकी दृष्टि भी पार्वती पर पड़ी,
वह उन्हें देखता ही रह गया। पार्वती की अंगकांति नील अंजन के समान थी। उनके लंबे, घने
और काले केश सुंदर चोटी में गुंथे हुए थे। मस्तक पर कस्तूरी की बेदी के साथ सिंदूरी बिंदी
उनके रूप लावण्य को बढ़ा रही थी। उनके गले में अनेक सुंदर रत्नों से जड़े हार शोभा पा रहे
थे। सुंदर रत्नों से बने केयूर, वलय और कंकण उनकी भुजाओं को विभूषित कर रहे थे। रत्नों
से जड़े कानों के कुंडल दमकती शोभा से उनके गालों पर अनुपम छवि बना रहे थे। उनके
मोती के समान सुंदर एवं सफेद दांत अनार के दानों की भांति चमक रहे थे। उनके होंठ मधु
से भरे बिंबफल की तरह लाल थे। महावर पैरों की शोभा में वृद्धि कर रही थी। उनके अंगों में
चंदन, अगर, कस्तूरी और कुमकुम का अंगराग लगा हुआ था। पैरों में पड़ी पायजेब से
निकली घुंघरुओं की रुन-झुन रुन-झुन की आवाज कानों में मधुर संगीत घोल रही थी।
उनकी इस मंत्रमुग्ध छवि को देखकर सभी देवता उनके सामने नतमस्तक होकर जगत जननी
पार्वती को भक्तिभाव से प्रणाम कर रहे थे। उस समय भगवान शिव भी उनके इस अनुपम
सौंदर्य को कनखियों से देखकर हर्ष का अनुभव कर रहे थे। पार्वती के अनुपम रूप को
देखकर शिवजी ने अपनी विरह की वेदना को त्याग दिया। पार्वती के रूप ने उनको मोहित
कर दिया था।
इधर पार्वती ने कुलदेवताओं की प्रसन्नता के लिए उनका विधि-विधान से पूजन किया।
तत्पश्चात वे अपनी सखियों और ब्राह्मण पत्नियों के साथ पुनः महल में लौट गई। उधर मैं,
विष्णुजी व भगवान शिव भी अपने-अपने स्थान पर ठहर गए।
सैंतालीसवां अध्याय
वर-वधू द्वारा एक-दूसरे का पूजन
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! गिरिराज हिमालय ने उत्साहपूर्वक वेद मंत्रों द्वारा पार्वती और
शिवजी को उपस्नान करवाया। तत्पश्चात वैदिक और लौकिक आचार रीति का पालन करते
हुए भगवान शिव द्वारा लाए गए वस्त्रों एवं आभूषणों से गिरिजानंदिनी देवी पार्वती को
सजाया गया। पार्वती की सखियों और वहां उपस्थित ब्राह्मण पत्नियों ने पार्वती को उन सुंदर
वस्त्रों एवं सुंदर रत्नजड़ित आभूषणों से अलंकृत किया। शृंगार करने के उपरांत तीनों लोकों
की जननी महाशैलपुत्री देवी शिवा अपने हृदय में महादेव जी का ही ध्यान कर रही थीं। उस
समय उनका मुखमंडल चंद्रमा की चांदनी के समान सुंदर व दिव्य लग रहा था।
हिमालयनगरी में चारों ओर महोत्सव होने लगा। लोगों की प्रसन्नता और उल्लास देखते ही
बनता था। उस समय वहां हिमालय ने शास्त्रोक्त रीति से लोगों को बहुत दान दिया और अन्य
वस्तुएं भी बांटीं।
गिरिराज हिमालय के राजपुरोहित मुनि गर्ग जी ने हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज। लग्न
का समय हो रहा है। आप भगवान शिव तथा अन्य सभी बारातियों को यथाशीघ्र यहां बुला
लें। तब शैलराज के मंत्री सब देवताओं सहित भगवान शिव को बुलाने के लिए जनवासे में
गए और उन्हें जल्दी विवाह मंडप में पधारने का निमंत्रण दिया। उन्होंने शिवजी से कहा कि
प्रभु! कन्यादान का समय नजदीक आ गया है। वर और कन्या को पंडित जी बुला रहे हैं। तब
भगवान सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित होकर अपने वाहन नंदी पर बैठकर सब देवताओं
और ऋषि-मुनियों के साथ मण्डप की ओर चल दिए। साथ में उनके गण भी अपने स्वामी
भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए नाचते-गाते चलने लगे। शिवजी के मस्तक पर छत्र
था और चारों ओर चंवर डुलाया जा रहा था। महान उत्सव हो रहा था। शंख, भेरी, पटह,
आनक, गोमुख बाजे बज रहे थे। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। चारों दिशाओं से देवगण उन
पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे। इस प्रकार महादेव जी सुशोभित होकर यज्ञ के मंडप पर
पहुंचे।
मंडप के द्वार पर उनकी प्रतीक्षा कर रहे पर्वतों ने आदरपूर्वक उन्हें नंदी पर से उतारा और
भीतर ले गए। शैलराज हिमालय ने भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया और विधि-विधान के
अनुसार उनकी आरती उतारी। उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु, मुझे तथा सदाशिव को पाद्य
अर्घ्य दिया और सुंदर उत्तम आसनों पर हमें बैठाया। तत्पश्चात शैलराज प्रिया देवी मैना
ब्राह्मण स्त्रियों व पुरवासिनों के साथ वहां पधारीं। उन्होंने अपने दामाद भगवान शिव की
आरती उतारी और उनका मधुपर्क से पूजन किया तथा सारे मंगलमय कार्य संपन्न किए।
तत्पश्चात शैलराज हिमालय, मुझे, विष्णुजी व भगवान शिव को साथ लेकर उस स्थान पर
गए जहां देवी पार्वती वेदी पर बैठी हुई थीं। तब वहां बैठे सभी ऋषि-मुनि, समस्त देवता व
अन्य शिवगण उत्सुकता से शिव-पार्वती के लग्न की प्रतीक्षा करने लगे। हिमालय के कुलगुरु
श्री गर्ग जी ने पार्वती जी की अंजलि में चावल भरकर शिवजी के ऊपर अक्षत डाले।
तत्पश्चात पार्वती जी ने दही, अक्षत, कुश और जल से आदरपूर्वक भगवान शिव का पूजन
किया। पूजन करते समय प्रसन्नतापूर्वक पार्वती भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को निहार रही
थीं। पार्वती जी के अपने वर शिवजी का पूजन कर लेने के पश्चात गर्ग मुनि के कथनानुसार
त्रिलोकीनाथ महादेव जी ने अपनी वधू होने जा रही देवी पार्वती का पूजन किया। इस प्रकार
एक-दूसरे का पूजन करने के पश्चात वर-वधू शिव व पार्वती वहीं वेदी पर बैठ गए। उनकी
छवि अत्यंत उज्ज्वल और मनोहर थी। दोनों वहां बहुत शोभा पा रहे थे। तब लक्ष्मी आदि
सभी देवियों ने उनकी आरती उतारी।
अड़तालीसवां अध्याय
शिव-पार्वती का विवाह आरंभ
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! गर्ग मुनि की आज्ञा के अनुसार शैलराज हिमालय ने कन्यादान
की रस्मों को निभाना शुरू किया। शैलराज प्रिया मैना जी सुंदर वस्त्र आभूषणों से सुसज्जित
होकर हाथों में सोने का कलश लेकर अपने पति हिमालय के दाहिने भाग में बैठी हुई थीं।
शैलराज हिमालय ने भगवान शिव का पाद्य से पूजन करने के पश्चात सुंदर वस्त्रों, आभूषणों
एवं चंदन से उन्हें अलंकृत किया तथा ब्राह्मणों से बोले कि हे ब्राह्मणो! अब आप कन्यादान
हेतु संकल्प कराइए। तब श्रेष्ठ मुनिगण सहर्ष संकल्प पढ़ने लगे। तब गिरिश्रेष्ठ हिमालय ने
आदरपूर्वक वर रूप में विराजमान भगवान शिव से पूछा—हे शिव शंकर! विधि-विधान से
पार्वती का पाणिग्रहण करने हेतु आप अपने कुल का परिचय दें। आप अपना गोत्र, प्रवर,
कुल नाम, वेद शाखा सबकुछ ब्राह्मणों को बता दें।
गिरिराज का यह प्रश्न सुनकर भगवान शंकर गंभीर होकर कुछ सोचने लगे। सब देवताओं,
ऋषि-मुनियों ने जब भगवान शिव को इस प्रकार चुप देखा तो वे इस संबंध में कुछ भी उत्तर
नहीं दे रहे थे और शांत थे। तब यह देखकर कन्या पक्ष के कुछ लोग उन पर हंसने लगे।
नारद! यह देखकर तुम तत्काल पार्वती के पिता शैलराज के पास पहुंचे और बोले-हे
पर्वतराज! आप भगवान शिव से उनका गोत्र पूछकर बहुत बड़ी मूर्खता कर रहे हैं। उनका
कुल, गोत्र आदि तो ब्रह्मा, विष्णु आदि भी नहीं जानते तो और भला कोई कैसे जान सकता
है? भगवान शिव तो निर्गुण और निराकार हैं। वे परमब्रह्म परमेश्वर हैं। वे निर्विकार, मायाधारी
एवं परात्पर हैं। वे तो स्वतंत्र परमेश्वर हैं, जिनका कुल, गोत्र आदि से कुछ भी लेना-देना नहीं
है। ये सब तो मनुष्यों के द्वारा निर्मित आडंबर मात्र हैं। शिवजी तो अपनी इच्छा के अनुसार
रूप और अवतार धारण करने वाले हैं। यह तो पार्वती के द्वारा किए हुए उग्र तप का प्रभाव है
जिसके कारण आप शिवजी के साक्षात स्वरूप के दर्शन कर पा रहे हैं। शैलराज! भगवान
शिव गोत्रहीन होकर भी श्रेष्ठ गोत्र वाले हैं और कुलहीन होने पर भी कुलीन हैं। इनकी विविध
लीलाएं इस चराचर संसार को मोहित करने वाली हैं।
हे गिरिश्रेष्ठ हिमालय! नाना प्रकार की लीला करने वाले इन भगवान शिव का गोत्र और
कुल नाद है। शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है। नाद और शिव में कहीं कोई अंतर नहीं है।
जब भगवान शिव ने सृष्टि की रचना का विचार किया था तब सबसे पहले शिवजी ने नाद को
ही प्रकट किया था। इसलिए अब आप व्यर्थ की बातों को त्यागकर अपनी पुत्री पार्वती का
विवाह यथाशीघ्र शिवजी के साथ संपन्न करा दो।
नारद! तुम्हारी बात सुनकर शैलराज हिमालय के मन में उत्पन्न हुई शंका समाप्त हो गई।
तब हम सभी देवताओं ने तुम्हें धन्यवाद दिया कि तुमने इस विषम परिस्थिति को चतुराई से
संभाल लिया। यह सब जानकर वहां उपस्थित सभी विद्वान प्रसन्नतापूर्वक बोले कि हमारे
अहोभाग्य हैं, जो आज हमने इस जगत को प्रकट करने वाले, आत्मबोध स्वरूप स्वतंत्र
परमेश्वर, नित्य नई लीलाएं रचने वाले त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के दर्शन कर लिए हैं।
आपके दर्शनों से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार सब मिलकर भगवान शिव
की जय-जयकार करने लगे। तब वहां उपस्थित मेरु आदि अनेक पर्वतों ने शैलराज हिमालय
से कहा कि हे पर्वतराज! अब आप व्यर्थ का विलंब क्यों कर रहे हैं? जल्दी से अपनी कन्या
पार्वती का दान क्यों नहीं करते?
तब हिमालय-मैना ने प्रसन्रतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती का कन्यादान कर दिया।
कन्यादान करते समय पर्वतराज बोले-हे परमेश्वर करुणानिधान भगवान शिव! मैं अपनी
कन्या पार्वती आज आपको देता हूं। आप इसे अपनी पत्नी बनाकर मुझे और मेरे कुल को
कृतार्थं करें।
इस प्रकार शैलराज हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का हाथ व जल भगवान शिव के हाथों
में दे दिया। तब सदाशिव ने वेद मंत्रों के वचनों के अनुसार मंत्रों को बोलते हुए देवी पार्वती
का हाथ लेकर पृथ्वी का स्पर्श करते हुए लौकिक रीति से उनका पाणिग्रहण स्वीकार किया।
इस प्रकार गिरिराज के कन्यादान करते ही चारों ओर शिव-पार्वती की जय-जयकार की ध्वनि
गूंजने लगी। गंधर्व प्रसन्नतापूर्वक उत्तम गीत गाने लगे और सुंदर अप्सराएं मगन होकर नाचने
लगीं। सभी इस मंगलमय विवाह के संपन्न होने पर मन में बहुत प्रसन्न थे। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र
आदि सभी देवता भी बहुत प्रसन्न हुए। उसके बाद शैलराज हिमालय ने भगवान शिव को
अनेकों वस्तुएं प्रदान कीं। रत्नों से जड़े हुए सुंदर स्वर्ण के आभूषण, पात्र एवं दूध देने वाली
सवा लाख गीएं, एक लाख सुसज्जित अश्व, एक करोड़ हाथी तथा एक करोड़ सोने
जवाहरातों से जड़े रथ आदि वस्तुएं सादर भेंट कीं। उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती की सेवा में
लगे रहने के लिए एक लाख दासियां भी दीं। तत्पश्चात विवाह में पधारे अनेक पर्वतों ने भी
अपनी इच्छा और सामर्थ्य के अनुसार उत्तम वस्तुएं शिव-पार्वती को उपहार स्वरूप भेंट कीं।
इस विवाह से सभी प्रसन्न थे। सारी दिशाएं शहनाइयों की मधुर ध्वनि से गुंजायमान थीं।
आकाश से भगवान शिव और उनकी प्रिया पार्वती पर पुष्प वर्षा हो रही थी। कल्याणमयी
और भक्तवत्सल भगवान शिव को अपनी प्रिय पुत्री पार्वती को समर्पित करने के बाद
शैलराज हिमालय और उनकी प्रिय पत्नी मैना हर्ष से प्रफुल्लित हो रहे थे। शैलराज हिमालय
ने यजुर्वेद की माध्यंदिनी में लिखे हुए स्तोत्रों द्वारा शुद्ध हृदय और भक्तिभाव से भगवान शिव
की अनेकानेक बार स्तुति की। तत्पश्चात वहां उपस्थित श्रेष्ठ मुनिजनों ने उत्साहपूर्वक भगवान
शिव और देवी पार्वती के सिर का अभिषेक किया। उस समय हिमालय नगरी में महान उत्सव
हो रहा था। सभी नर-नारी प्रसन्नता से नाच-गा रहे थे।
उनचासवां अध्याय
ब्रह्माजी का मोहित होना
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! उसके उपरांत मेरी आज्ञा पाकर महादेव जी ने अग्नि की
स्थापना कराई तथा अपनी प्राणवल्लभा पत्नी पार्वती को अपने आगे बैठाकर चारों वेद--
ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा सामवेद के मंत्रों द्वारा हवन कराकर उसमें आहुतियां दीं। उस
समय पार्वती के भाई मैनाक ने उनके हाथों में खीलें दीं फिर लोक मर्यादा के अनुसार
भगवान शिव और देवी पार्वती अग्ने के फेरे लेने लगे।
उस समय मैं शिवजी की माया से मोहित हो गया। मेरी दृष्टि जैसे ही परम सुंदर दिव्यांगना
देवी पार्वती के शुभ चरणों पर पड़ी मैं काम से पीड़ित हो गया। मुझे मन में बड़ी लज्जा का
अनुभव हुआ। किसी की दृष्टि मेरे इन भावों पर पड़ जाए इस हेतु मैंने अपने मन के भावों को
दबा लिया परंतु भगवान शिव तो सर्वव्यापी और सर्वेश्वर हैं। भला उनसे कुछ कैसे छिप
सकता है। उनकी दृष्टि मुझ पर पड़ गई और उन्हें मेरे मन में उत्पन्न हुए बुरे विचार की
जानकारी हो गई। भगवान शिव के क्रोध की कोई सीमा न रही। कुपित होकर शिवजी मुझे
मारने हेतु आगे बढ़ने लगे। उन्हें क्रोधित देखकर मैं भय से कांपने लगा तथा वहां उपस्थित
अन्य देवता भी डर गए।
भगवान शिव के क्रोध की शांति के लिए सभी देवता एक स्वर में शिवजी से बोले-हे
सदाशिव! आप दयालु और करुणानिधान हैं। आप तो सदा ही अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर
उन्हें उनकी इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं। भगवन्, आप तो सत्चित् और आनंद स्वरूप हैं।
प्रसन्न होकर मुक्ति पाने की इच्छा से मुनिजन आपके चरण कमलों का आश्रय ग्रहण करते
हैं। हे परमेश्वर! भला आपके तत्व को कौन जान सकता है। भगवन्, अपनी गलती के लिए
ब्रह्माजी क्षमाप्रार्थी हैं। आप तो भक्तों के सदा वश में है। हम सब भक्तजन आपसे प्रार्थना
करते हैं कि आप ब्रह्माजी की इस भूल को क्षमा कर दें और उन्हें निर्भय कर दें।
इस प्रकार देवताओं द्वारा की गई स्तुति और क्षमा प्रार्थना के फलस्वरूप भगवान शिव ने
ब्रह्माजी को निर्भय कर दिया। नारद, तब मैंने अपने उन भावों को सख्ती के साथ मन में ही
दबा दिया। फिर भी उन भावों के जन्म से हजारों बालखिल्य ऋषियों की उत्पत्ति हो गई, जो
बड़े तेजस्वी थे। यह जानकर कि कहीं उन ऋषियों को देख शिवजी क्रोधित न हो जाएं, तुमने
उन्हें गंधमादन पर्वत पर जाने का आदेश दे दिया। बालखिल्य ऋषियों को तुमने सूर्य भगवान
की आराधना और तपस्या करने का आदेश प्रदान किया। तब वे बालखिल्य ऋषि तुरंत मुझे
और भगवान शिव को प्रणाम करके गंधमादन पर्वत पर चले गए।
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पचासवां अध्याय
विवाह संपन्न और शिवजी से विनोद
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! उसके बाद मैंने भगवान शिव की आज्ञा पाकर शिव-पार्वती
विवाह के शेष कार्यों को पूरा कराया। सर्वप्रथम शिवजी व पार्वती जी के मस्तक का
अभिषेक हुआ। तत्पश्चात वहां उपस्थित ब्राह्मणों ने दोनों को ध्रुव का दर्शन कराया और
उसके बाद हृदय छूना और स्वस्ति पाठ आदि कार्यो को पूरा कराया। यह सब कार्य पूरे होने
के बाद भगवान शिव ने देवी पार्वती की मांग में सौभाग्य और सुहाग की निशानी माने जाने
वाला सिंदूर भरा। मांग में सिंदूर भरते ही देवी पार्वती का रूप लाखों कमलदलों के समान
खिल उठा। उनकी शोभा देखते ही बनती थी। सिंदूर से उनके सौंदर्य में अभिवृद्धि हो गई थी।
इसके पश्चात शिव-पार्वती को एक साथ एक सुयोग्य आसन पर बिठाया गया और वहां
उन्होंने अन्नप्राशन किया।
इस प्रकार इस उत्तम विवाह के सभी कार्य विधि-विधान से संपन्न हो गए। तब भगवान
शिव ने प्रसन्न होकर, इस विवाह को सानंद संपन्न कराने हेतु मुझ ब्रह्मा को आचार्य मानकर
पूर्णपात्र दान किया। फिर गर्ग मुनि को गोदान किया तथा वैवाहिक कार्य पूरा करने में
सहयोग करने वाले सब ऋषि-मुनियों को सौ-सौ स्वर्ण मुद्राएं और अनेक बहुमूल्य रत्न दान
में दिए। तब सब ओर आनंद का वातावरण था। सभी बहुत प्रसन्न थे और शिव-पार्वती की
जय-जयकार कर रहे थे। तब मैं श्रीहरि और अन्य ऋषि-मुनि सभी देवताओं सहित शैलराज
की आज्ञा लेकर जनवासे में वापिस आ गए।
हिमालय नगर की स्त्रियां, पुरनारियां और पार्वती की सखियां भगवान शिव और पार्वती
को लेकर कोहबर में गई और वहां उनसे लोकोचार रीतियां कराने के उपरांत उन्हें कौतुकागार
में ले जाकर अन्य रीति-रिवाजों और रस्मों को सानंद संपन्न कराया। उसके पश्चात उन दोनों
को उत्साहपूर्वक केलिग्रह में ले जाया गया। केलिग्रह में भगवान शिव और पार्वती के
गंठबंधन को खोला गया। उस समय शिव-पार्वती की शोभा देखने योग्य थी। उस समय
उनकी अनुपम मनोहारी छवि देखने के लिए सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, अदिति, शची,
लोपामुद्रा, अरुंधती, अहिल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, पृथ्वी, संज्ञा, शतरूपा तथा रति नाम
की सोलह दिव्य देवांगनाएं, देवकन्याएं, नागकन्याएं और मुनि कन्याएं वहां पधारीं और
भगवान शिव से हास्य-विनोद करने लगीं।
सरस्वती बोलीं-भगवान शिव! अब तो आपने चंद्रमुखी पार्वती को पत्नी रूप में प्राप्त
कर लिया है। अब इनके चंद्रमुख को देख-देखकर अपने हृदय को शीतल करो। लक्ष्मीजी
बोलीं-हे देवों के देव! अब लज्जा किसलिए? अपनी प्राणवल्लभा पत्नी को अपने हृदय से
लगाओ। जिसके बिछड़ने के कारण आप दुखी होकर इधर-उधर भटकते रहे। उस प्राणप्रिया
के मिल जाने पर कैसी लज्जा? तो उधर सावित्री बोलीं-अब तो पार्वती जी को भोजन
कराकर ही भोजन होगा और पार्वती को कपूर सुगंधयुक्त तांबूल भी अर्पित करना होगा। तब
जान्हवी बोलीं कि--हे त्रिलोक के स्वामी! स्वर्ण के समान सुंदर पार्वती जी के केश धोना एवं
शृंगार करना भी आपका कर्तव्य है। इस पर शची कहने लगीं कि--हे सदाशिव! जिन पार्वती
को पाने के लिए आप सदा आतुर थे तथा जिनके वियोग के दिन आपने विलाप कर-कर
बिताए हैं, आज वही पार्वती जब आपकी पत्नी बनकर आपके साथ विराजमान हैं, तो फिर
काहे का संकोच? क्यों आप पार्वती को अपने हृदय से नहीं लगा रहे हैं? देवी अरुंधती बोलीं
--इस सती सुंदरी को मैंने आपको दिया है। अब आप इसे अपने पास रखें और उसके सुख-
दुख का खयाल करें।
देवी अहिल्या बोलीं-भगवन्! आप तो सबके ईश्वर हो। इस पूरे संसार के स्वामी हो।
आपके परमब्रह्म स्वरूप को कोई नकार नहीं सकता। आप निर्गुण निराकार हैं परंतु आज
सब देवताओं ने मिलकर आपको भी दास बना दिया है। प्रभो! अब आप भी अपनी
प्राणवल्लभा पार्वती के अधीन हो गए हैं। यह सुनकर वहां खड़ी तुलसी कहने लगीं--आपने
तो कामदेव को भस्म करके पार्वती का त्याग कर दिया था, फिर आपने क्यों आज उनसे
विवाह कर लिया है? इस प्रकार उन देवांगनाओं की हंसी-मजाक चल रही थी और वे
भगवान शिव से ऐसी ही बातें करके बीच-बीच में जोर-जोर से हंसती तो कभी
खिलखिलाकर रह जातीं।
इस पर स्वाहा ने कहा कि--हे सदाशिव! इस प्रकार हम सबकी हंसी-ठिठोली सुनकर
क्रोधित मत हो जाइएगा। विवाह के समय तो कन्याएं व स्त्रियां ऐसा ही हंसी-मजाक करती
हैं। तब वसुंधरा ने कहा--हे देवाधिदेव! आप तो भावों के ज्ञाता है आप तो जानते ही है कि
काम से पीड़ित स्त्रियां भोग के बिना प्रसन्न नहीं होतीं। प्रभु! अब तो पार्वती की प्रसन्नता के
लिए कार्य करो। अब तो पार्वती आपकी पत्नी हो गई हैं। उन्हें खुश रखना आपका परम
कर्तव्य है।
इस प्रकार स्त्रियों के विनोदपूर्ण वचन सुनते हुए भगवान शिव चुप थे परंतु जब स्त्रियां चुप
न हुई और इसी प्रकार उन्हें लक्ष्य बनाकर तरह-तरह की हंसी की बातें करती रहीं, तब
भगवान शिव ने कहा-हे देवियो! आप लोग तो जगत की माताएं हैं। माता होते हुए पुत्र के
सामने इस प्रकार के चंचल तथा निर्लज्ज वचन क्यों कह रही हैं? तब भगवान शिव के ये
वचन सुनकर सभी स्त्रियां शरमा कर वहां से भाग गई।
इक्यानवां अध्याय
रति की प्रार्थना पर कामदेव को जीवनदान
ब्रह्माजी बोले—हे नारद जी! उस समय अनुकूल समय देखकर देवी रति भगवान शिव के
निकट आकर बोलीं-हे दीनवत्सल भगवान शिव! आपको मैं प्रणाम करती हूं। देवी पार्वती
का पाणिग्रहण करके आपने निश्चय ही लोकहित का कार्य किया है। देवी पार्वती को
प्राणवल्लभा बनाने से आपके सौभाग्य में निश्चय ही वृद्धि हुई है। आपने तो पार्वती का वरण
कर लिया है परंतु भगवन् मेरे पति कामदेव की क्या गलती थी? उन्होंने तो लोककल्याण वश
सभी देवताओं की प्रार्थना मानकर आपके हृदय में पार्वती के प्रति आसक्ति पैदा करने हेतु ही
कामबाणों का उपयोग किया था। उनका यह कार्य तो इस संसार को तारकासुर नामक
भयानक और दुष्ट असुर से मुक्ति दिलाने के लिए प्रेरित करना था। वे तो स्वार्थ से दूर थे?
फिर क्यों आपने उन्हें अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया?
हे देवाधिदेव महादेव जी! हे करुणानिधान! भक्तवत्सल! अपने मन में काम को जगाकर
मेरे पति कामदेव को पुनर्जीवित कर मेरे वियोग के कष्ट को दूर करें। आप तो सब की पीड़ा
जानते हैं। मेरी पीड़ा को समझकर मेरे दुख को दूर करने में मेरी मदद कीजिए। भगवन्,
आज जब सबके हृदय में प्रसन्नता है तो मेरा मन क्यों दुखी हो? मैं अपने पति के बिना कब
तक ऐसे ही रहूं? भगवन्, आप तो दीनों के दुख दूर करने वाले हैं। अब आप अपनी कही
बात को सच कर दीजिए। भगवन् इस त्रिलोक में आप ही मेरे इस कष्ट और दुख को दूर कर
सकते हैं। प्रभो! मुझ पर दया कीजिए और मुझे भी सुखी करके आनंद प्रदान कीजिए।
भगवन्! अपने विवाह के शुभ अवसर पर मुझे भी मेरे पति से हमेशा के लिए मिलाकर मेरी
विरह-वेदना को कम कीजिए। महादेव जी! मेरे पति कामदेव को जीवित कर मुझ दीन-दासी
को कृतार्थ कीजिए।
ऐसा कहकर देवी रति ने अपने दुपट्टे की गांठ में बंधी अपने पति कामदेव के शरीर की
भस्म को भगवान शिव के सामने रख दिया और जोर-जोर से रोते-रोते भगवान शिव शंकर से
कामदेव को जीवित करने की प्रार्थना करने लगी। देवी रति को इस प्रकार रोते हुए देखकर
वहां उपस्थित सरस्वती आदि देवियां भी रोने लगीं और सब भगवान शिव से कामदेव को
जीवनदान देने की प्रार्थना करने लगीं।
इस प्रकार देवी रति के बार-बार प्रार्थना करने और स्तुति करने पर भगवान शिव प्रसन्न हो
गए और उन्होंने रति के कष्टों को दूर करने का निश्चय कर लिया। शूलपाणि भगवान शिव की
अमृतमयी दिव्य दृष्टि पड़ते ही उस भस्म में से सुंदर पहले जैसा वेष और रूप धारण किए
कामदेव प्रकट हो गए। अपने प्रिय पति कामदेव को पहले की भांति सुंदर और स्वस्थ पाकर
देवी रति की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वे कामदेव को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और
उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव को नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगीं।
दोनों पति-पत्नी कामदेव और रति बार-बार भगवान शिव के चरणों में गिरकर उनका
धन्यवाद करके उनकी स्तुति करने लगे। उनकी इस प्रकार की गई स्तुति से प्रसन्न होकर
भगवान शिव बोले-हे काम और रति! तुम्हारी इस स्तुति से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं
बहुत प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो मनोवांछित वस्तु मांग सकते हो। भगवान शिव के ये वचन
सुनकर कामदेव को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर कहा
—हे भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो पूर्व में मेरे द्वारा किए गए अपराध को क्षमा कर
दीजिए और मुझे वरदान दीजिए कि आपके भक्तों से मेरा प्रेम हो और आपके चरणों में मेरी
भक्ति हो।
कामदेव के वचन सुनकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले 'तथास्तु' जेसा तुम
चाहते हो वैसा ही होगा। मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम अपने मन से भय निकाल दो। अब तुम
भगवान श्रीहरि विष्णु के पास जाओ। तत्पश्चात कामदेव ने भगवान शिव को नमस्कार किया
और वहां से बाहर चले गए। उन्हें जीवित देखकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि
कामदेव आप धन्य हैं। महादेव जी ने आपको जीवनदान दे दिया।
तब कामदेव को आशीर्वाद देकर विष्णु पुनः अपने स्थान पर बैठ गए। उधर, भगवान शिव
ने अपने पास बैठी देवी पार्वती के साथ भोजन किया और अपने हाथों से उनका मुंह मीठा
किया। तत्पश्चात शैलराज की आज्ञा लेकर शिवजी पुनः जनवासे में चले गए। जनवासे में
पहुंचकर शिवजी ने मुझे, विष्णुजी और वहां उपस्थित सभी मुनिगणों को प्रणाम किया। तब
सब देवता शिवजी की वंदना और अर्चना करने लगे। फिर मैंने, विष्णुजी और इंद्रादि ने शिव
स्तुति की। सब ओर भगवान शिव की जय-जयकार होने लगी और मंगलमय वेद ध्वनि बजने
लगीं। भगवान शिव की स्तुति करने के पश्चात उनसे विदा लेकर सभी देवता और ऋषि-मुनि
अपने-अपने विश्राम स्थल की ओर चले गए।
बावनवा अध्याय
भगवान शिव का आवासगृह में शयन
ब्रह्माजी बोले--नारद! शैलराज हिमालय ने सभी बारातियों के भोजन की व्यवस्था करने
हेतु सर्वप्रथम अपने घर के आंगन को साफ कराकर सुंदर ढंग से सजाया। तत्पश्चात गिरिराज
हिमालय ने अपने पुत्रों मैनाक आदि को जनवासे में भेजकर भोजन करने हेतु सभी देवी-
देवताओं, साधु-संतों, ऋषि-मुनियों, शिवगणों, देवगणों सहित विष्णु और भक्तवत्सल
भगवान शिव को भोजन के लिए आमंत्रित किया। तब सभी देवताओं को साथ लेकर
सदाशिव भोजन करने के लिए पधारे। हिमालय ने पधारे हुए सभी देवताओं एवं भगवान
शिव का बहुत आदर-सत्कार किया और उन्हें उत्तम आसनों पर बैठाया। अनेकों प्रकार के
भोजन परोसे गए तथा गिरिराज ने सबसे भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की। सभी बारातियों
ने तृप्ति के साथ भोजन किया तथा आचमन करके सब देवता विश्राम के लिए अपने-अपने
विश्रामस्थल पर चले गए।
तब हिमालय प्रिया देवी की आज्ञा लेकर, नगर की स्त्रियों ने भगवान शिव को सुंदर
सुसज्जित वासभवन में रत्नजड़ित सिंहासन पर सादर बैठाया। वहां उस भवन में सैकड़ों
रत्नों के दीपक जल रहे थे। उनकी अद्भुत जगमगाहट से पूरा भवन आलोकित हो रहा था।
उस वास भवन को अनेकों प्रकार की सामग्रियों से सजाया और संवारा गया था। मोती,
मणियों एवं श्वेत चंवरों से पूरे भवन को सजाया गया था। मुक्ता-मणियों की सुंदर बंदनवारें
द्वार की शोभा बढ़ा रही थीं। उस समय वह वासभवन अत्यंत दिव्य, मनोहर और मन को
उमंग-तरंग से आलोकित करने वाला लग रहा था। फर्श पर सुंदर बेल-बूटे बने थे। भवन को
सुगंधित करने हेतु सुवासित द्रव्यों का प्रयोग किया गया था। जिसमें चंदन और अगर का
प्रयोग प्रमुख रूप से था। उस वासभवन में देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए
कृत्रिम बैकुण्ठलोक, ब्रह्मलोक, इंद्रलोक तथा शिवलोक सभी के दर्शन एक साथ हो रहे थे,
इन्हें देखकर भगवान शिव को बहुत प्रसन्नता हुई। वासभवन में बीचोंबीच एक सुंदर रत्नों से
जड़ा अदभुत पलंग था। उस पर महादेव जी ने सोकर रात बिताई। दूसरी ओर हिमालय ने
अपने बंधु-बांधवों को भोजन कराने के उपरांत बचे हुए सारे कार्य पूर्ण किए।
प्रातःकाल चारों ओर पुनः शिव-विवाह का अनोखा उत्सव होने लगा। अनेकों प्रकार के
सुरीले वाद्य यंत्र बजने लगे। मंगल-ध्वनि होने लगी। सभी देवता अपने-अपने वाहनों को
तैयार करने लगे। सभी की तैयारियां पूर्ण हो जाने के पश्चात भगवान श्रीहरि विष्णु ने धर्म को
भगवान शिव के पास भेजा। तब धर्म सहर्ष भगवान शिव के पास वासभवन में गए। उस
समय करुणानिधान भगवान शिव सोए हुए थे। यह देखकर योगशक्ति संपन्न धर्म ने भगवान
शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की और बोले-हे महेश्वर! हे महादेव! मैं भगवान श्रीहरि
विष्णु की आज्ञा से यहां आया हूं। हे भगवन्! उठिए और जनवासे में पधारिए। वहां सभी
देवता और ऋषि-मुनि आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रभु वहां पधारकर हम सबको कृतार्थ
करिए।
धर्म के वचन सुनकर सदाशिव बोले--हे धर्मदेव! आप जनवासे में वापस जाइए। मैं
अतिशीघ्र जनवासे में आ रहा हूं। भगवान शिव के ये वचन सुनकर धर्म ने भगवान शिव को
प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर पुनः जनवासे की ओर चले गए। उनके जाने के पश्चात
भगवान शिव तैयार होकर जैसे ही चलने लगे, हिमालय नगरी की स्त्रियां उनके चरणों के
दर्शन हेतु आ गई और मंगलगान करने लगीं। तब महादेव जी ने गिरिराज हिमालय और मैना
से आज्ञा ली और जनवासे की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर महादेव जी ने मुझे और
विष्णुजी सहित सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम किया। तब सब देवताओं सहित मैंने और
विष्णुजी ने शिवजी की वंदना और स्तुति की।
तिरेपनवां अध्याय
बारात का ठहरना और हिमालय का बारात को विदा करना
ब्रह्माजी बोले--जब करुणानिधान भगवान शिव जनवासे में पधार गए तो हम सब
मिलकर कैलाश लौट चलने की बातें करने लगे। तभी वहां पर पर्वतराज हिमालय पधारे और
सभी को भोजन का निमंत्रण देकर वहां से चले गए। तब सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों और
अन्य बारातियों को साथ लेकर भगवान शिव, मैं और श्रीहरि विष्णु भोजन ग्रहण करने हेतु
नियत स्थान पर पहुंचे। वहां द्वार पर स्वयं शैलराज खड़े थे। उन्होंने सर्वप्रथम महादेव जी के
चरणों को धोया और उन्हें अंदर सुंदर आसन पर बैठाया। तत्पश्चात शैलराज ने मेरे, श्रीहरि,
देवराज इंद्र सहित सभी मुनियों के चरण धोए और यथायोग्य आसनों पर हम सबको
आदरपूर्वक बैठाया। वहां शैलराज हिमालय अपने पुत्रों एवं बंधु-बांधवों सहित कार्य में लगे
हुए थे। उन्होंने हमारे सामने अनेक स्वादिष्ट व्यंजन परोसे और हमसे ग्रहण करने के लिए
कहा। तब सभी ने आनंदपूर्वक आचमन और भोजन किया। तब गिरिराज बोले-है देवेश्वर!
आपके दर्शनों से हम आनंदित हुए हैं। आपसे एक प्रार्थना करते हैं कि आप बारातियों के
साथ कुछ दिन और निवास करें। इस प्रकार शैलराज भगवान शिव से कुछ दिन और रुकने
का आग्रह करने लगे। उनकी यह बात सुनकर भगवान शिव बोले-हे शैलेंद्र! आप धन्य हैं।
आपकी कीर्ति महान है। आप धर्म की साक्षात मूर्ति हैं। इस त्रिलोक में आपके समान कोई
और नहीं है। तब देवताओं ने कहा--हे पर्वतराज! आपके दरवाजे पर परब्रह्म परमात्मा
भगवान शिव स्वयं अपने दासों के साथ पधारे हैं और आपने उन्हें सब प्रकार से पूजकर
प्रसन्न किया है।
तब शैलराज हिमालय ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव से प्रार्थना करके कहा कि
भगवन्, मुझ पर कृपा करके आप कुछ दिन और यहां रुककर मेरा आतिथ्य ग्रहण करें।
गिरिराज के बहुत कहने पर भगवान शिव ने वहां ठहरने के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान कर
दी। तब सब हिमालय से आज्ञा लेकर अपने-अपने ठहरने के स्थान पर चले गए। तीसरे दिन,
गिरिराज हिमालय ने सबको आदरपूर्वक दान दिया और उनका सत्कार किया। चौथे दिन,
विधिपूर्वक चतुर्थी कर्म किया गया क्योंकि इसके बिना विवाह को पूर्ण नहीं माना जाता। जैसे
ही विधि अनुसार चतुर्थी कर्म पूरा हुआ, चारों ओर मंगल ध्वनि बजने लगी। महान उत्सव
होने लगा। नगर की स्त्रियां मंगल गीत गाने लगीं। कुछ तो प्रसन्न होकर नाचने भी लगीं।
पांचवें दिन सब देवताओं ने गिरिराज हिमालय से कहा कि हे पर्वतराज! आपने हमारा
बहुत आदर सत्कार किया है। हम सब भगवान शिव के विवाह के लिए यहां पधारे थे।
आपके सहयोग से शिव-पार्वती का विवाह आनंदपूर्वक, हर्षोल्लास के साथ संपन्न हो गया है।
अतः अब आप हमें यहां से जाने की आज्ञा प्रदान करें परंतु गिरिराज हिमालय स्नेहपूर्वक
बोले—हे भगवान शिव! ब्रह्माजी! श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र! अपनी प्रिय पुत्री पार्वती के
कठिन तप के कारण ही आज मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि जगत के कर्ता, पालक,
संहारक सहित सभी देवता और महान ऋषि-मुनि एक साथ मेरे घर की शोभा बढ़ाने आए हैं।
आप सबकी एक साथ सेवा करने का जो शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ है, उसका पूरा आनंद
आप मुझे उठाने दीजिए। हे देवाधिदेव! अपने इस तुच्छ भक्त पर इतनी सी कृपा और कर
दीजिए।
इस प्रकार पर्वतों के राजा हिमालय ने अनेकानेक तरीके से सब देवताओं सहित शिवजी
की बहुत अनुनय-विनय की और इस प्रकार उन्हें हठपूर्वक कुछ दिन और रोक लिया।
हिमालय ने सबका बहुत सेवा-सत्कार किया। उन्होंने सभी का विशेष खयाल रखा। सभी की
आवश्यकताओं का पूरा ध्यान रखा जाता। शैलराज ने देवताओं के लिए हर संभव सुविधा
उपलब्ध कराई। इस प्रकार खूब आदर-सत्कार करके सबका मन जीत लिया।
जब बहुत दिन बीत गए तब देवताओं ने शैलराज हिमालय के पास सप्तत्ऋषियों को भेजा
ताकि वे देवी मैना और उनके पति पर्वतराज हिमालय को बारात विदा करने के लिए तैयार
करें। तब वे सप्तऋषि प्रसन्न हृदय से शैलराज हिमालय के पास पहुंचे और उनके भाग्य की
सराहना करने लगे कि आपके अहोभाग्य हैं, जो स्वयं भगवान शिव आपके दामाद बने।
पर्वतराज! आपने अपनी पुत्री पार्वती को शास्त्रों एवं वेदों के अनुसार भगवान शिव की पत्नी
बनाकर उन्हें सौंप दिया है। कन्यादान तभी पूर्ण माना जाता है, जब कन्या को बारात के साथ
विदा कर दिया जाता है। इसलिए आप भी सहर्ष देवी पार्वती को भगवान शिव के साथ सादर
विदा कर दीजिए तभी कन्यादान की रस्म पूरी होगी। तब मैना और उनके पति गिरिराज
हिमालय बारात को विदा करने के लिए राजी हो गए।
जब भगवान शिव और सभी देवता और ऋषि-मुनि विदा लेकर कैलाश पर्वत की ओर
चलने लगे तब देवी मैना जोर-जोर से रोने लगीं और बोलीं-हे कृपानिधान भगवान शिव!
मेरी पुत्री पार्वती का ध्यान रखिएगा। मेरी पुत्री आपकी परम भक्त है। सोते-जागते वह सिर्फ
आपके चरणों का ही ध्यान करती है। आप सदा उसके हृदय में विराजमान रहते हैं। आपके
गुणगान करते वह नहीं थकती और आपकी निंदा कतई सुन नहीं सकती। यदि मेरी बच्ची से
जाने-अनजाने में कोई अपराध हो जाए तो उसे क्षमा कर दीजिएगा। आप तो भक्तवत्सल हैं,
करुणानिधान हैं। मेरी पुत्री पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखिएगा। ऐसा कहकर मैना ने अपनी
पुत्री भगवान शिव को सौंप दी। कितने आश्चर्य की बात है कि प्रत्येक माता-पिता इस बात
को जानते हैं कि बेटियां धान के पौधे की तरह होती हैं, वे जहां जन्मती हैं, वहां वृद्धि को
प्राप्त नहीं होती हैं, फिर भी उसकी विदाई के समय वे दुखी होते हैं, अनजाने ही अपनी
आंखों से आंसुओं की झड़ी कैसे लग जाती है।
अपनी प्रिय पुत्री पार्वती के वियोग को सोचते ही वे मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़ीं।
तब उनके मुंह पर जल की बूंदें डालकर उन्हें होश में लाया गया। तब सदाशिव ने देवी मैना
को अनेकों प्रकार से समझाया ताकि वे अपना दुख भूल जाएं। फिर कुछ समय के लिए मैना
और पार्वती को अकेला छोड़कर भगवान शिव सब देवताओं व अपने गणों के साथ हिमालय
से आज्ञा लेकर चल दिए। हिमालय नगरी के एक सुंदर बगीचे में बैठकर वे सब प्रसन्नतापूर्वक
भगवान शिव की प्राणवल्लभा पत्नी देवी पार्वती के आगमन की बांट संजोए उनकी प्रतीक्षा
करने लगे। वे शिवगण प्रसन्नतापूर्वक प्रभु महादेव जी की जय-जयकार कर रहे थे।
चौवनवां अध्याय
पार्वती को पतिव्रत धर्म का उपदेश
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब शैलराज हिमालय और देवी मैना से आज्ञा लेकर
भगवान शिव सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों सहित अन्य देवगणों व शिवगणों को साथ
लेकर उस स्थान से बाहर चले गए, तब सप्तऋषियों ने कहा कि हे शैलराज! अपनी पुत्री को
शीघ्र ही भगवान शिव के साथ भेजने की कृपा करें। यह सुनकर हिमालय बहुत व्याकुल हो
गए। उन्होंने देवी मैना से पार्वती को भेजने के लिए कहा। देवी मैना ने वैदिक रीति का पालन
करते हुए अपनी पुत्री का सुंदर वस्त्रो और आभूषणों से शृंगार किया। उस समय मैना ने एक
ब्राह्मण पत्नी को बुलाकर पतिव्रत धर्म की शिक्षा देने के लिए कहा।
ब्राह्मण पत्नी ने वहां आकर पार्वती को शिक्षा देते हुए कहा-है पार्वती! इस सुंदर संसार
में नारी विशेष पूजनीय मानी जाती है। जो स्त्रियां पतिव्रत का पालन करती हैं, वे धन्य हैं। वे
दोनों कुलों को पवित्र करती हैं। उनके दर्शन मात्र से पाप नष्ट हो जाते है जो पति को
साक्षात ईश्वर मानकर उसकी सेवा-सुश्रूषा करती हैं, वे स्त्रियां इस लोक में आनंद प्राप्त कर
सद्गति को प्राप्त करती हैं और अपने दोनों कुलों को तार देती हैं। सावित्री, लोपामुद्रा,
अरुंधती, शांडिली, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वंधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मैना और
स्वाहा आदि नारियां साध्वी कहलाती हैं। वे अपने पातिव्रत्य धर्म के कारण ब्रह्मा, विष्णु और
शिव की भी पूजनीय हैं। इसलिए स्त्री को सदैव अपने पति की आज्ञा का पालन करना
चाहिए। पतिव्रता स्त्री पति के भोजन कर लेने के बाद ही भोजन करे। जब तक वह खड़ा हो
खुद भी न बैठे। पति के सो जाने के बाद ही सोए और उसके उठने से पहले उठ जाए।
क्रोधित होने पर या अत्यधिक प्रसन्नता होने पर भी अपने पति का नाम न लें। पति के बुलाने
पर सभी कामों को छोड़कर पति के पास चली जाएं। उसकी हर आज्ञा को अपना धर्म
मानकर उसका पालन करे। कभी वह प्रवेश द्वार पर खड़ी न हो। बिना किसी कार्य के किसी
के घर न जाए और जाने पर बिना कहे कदापि न बैठे। अपने घर की वस्तुएं किसी को न दे।
पतिव्रता स्त्री को वस्त्रों और आभूषणों से विभूषित होकर ही अपना मुख पति को दिखाना
चाहिए। जब पति घर से बाहर या परदेश गया हो तो उन दिनों में पतिव्रता स्त्री को सजना-
संवरना नहीं चाहिए। पति के सेवन की चीजें ठीक समय पर जब उसे आवश्यकता हो, तुरंत
दे दे। अपना हर कार्य चतुराई और होशियारी से करे। अपने पति की हर आज्ञा का पालन
करना ही पतिव्रता स्त्री का परम धर्म होता है। पति की आज्ञा लिए बिना पत्नी को कहीं भी
नहीं जाना चाहिए, यहां तक कि तीर्थस्थान जैसे पुण्यस्थलों पर भी नहीं। पति के चरणों को
धोकर उसको पीने से ही पत्नी का तीर्थ स्नान पूरा हो जाता है। पति द्वारा छोड़े गए जूठे
भोजन को पत्नी को प्रसाद समझकर खाना चाहिए।
देवता, पितरों, अतिथियों या भिखारियों को भोजन का भाग देकर ही भोजन करना
चाहिए। व्रत तथा उपवास रखने से पूर्व पति की आज्ञा अवश्य लें अन्यथा व्रत का पुण्य नहीं
मिलता। किसी चीज को पाने के लिए अपने पति से झगड़ा कदापि न करें। सुख से
आरामपूर्वक बैठे हुए या सोते समय पति को कभी भी न उठाएं। यदि पति किसी बात के
कारण दुखी हो, धनहीन हो, बीमार हो या वृद्ध हो गया हो तो भी उसका परित्याग न करे।
रजस्वला होने पर तीन दिन तक अपने पति के सामने न जाए। उसे अपना मुख न दिखाए।
जब तक स्नान करके शुद्ध न हो जाए, तब तक पति से कोई बात न करे। शुद्ध होकर
सर्वप्रथम अपने पति का ही दर्शन करे।
उत्तम पतिव्रत का पालन करने वाली स्त्री को सुहाग का प्रतीक मानी जाने वाली वस्तुओं-
जैसे सिंदूर, हल्दी, रोली, काजल, चूड़ियां, मंगलसूत्र, पायल, बिछुए, नाक की लौंग, कान के
कुंडलों को सदैव धारण करना चाहिए। जो स्त्रियां सुहाग की निशानी मानी जाने वाली इन
वस्तुओं को हर वक्त धारण किए रहती हैं, उनके पति की आयु में वृद्धि होती है। पतिव्रता स्त्री
को कभी भी छिनाल, कुलटा आदि भाग्यहीन स्त्रियों के साथ नहीं रहना चाहिए अर्थात उनसे
मित्रता नहीं करनी चाहिए। पति से लड़ने वाली एवं उससे वैर भाव रखने वाली स्त्री को
सहेली न बनाएं। कभी भी अकेली न रहें। वस्त्रहीन होकर स्नान न करें। सदा पति के कहे
अनुसार चलें। पति की इच्छा होने पर ही रमण करें। उसकी हर इच्छा को ही अपनी इच्छा
समझें। पति के हंसने पर हंसे और उसके दुखी होने पर दुखी हों।
पतिव्रता स्त्री के लिए उसका पति ही उसका आराध्य होना चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु और शिव
से अधिक उसे अपने पति को महत्व देना चाहिए। अपने पति को शिव स्वरूप मानकर उसे
पूजना चाहिए। पति के साथ लड़ने वाली स्त्री कुतिया या सियारिन के रूप में जन्म लेती है।
पति जिस स्थान पर बैठा हो, उससे ऊंचे स्थान पर न बैठे। किसी की भी निंदा न करे। सबसे
मीठे वचन बोले। पति स्त्री की जिंदगी में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। इसलिए उसका
सदैव पूजन करे। नारी को अपने पति को ही देवता, गुरु, धर्म, तीर्थ एवं व्रत समझकर उसकी
आराधना करनी चाहिए। पति से कभी दुर्वचन न कहे। सास, ससुर, जेठ, जिठानी, गुरुओं
सहित सभी बड़ों का आदर करे। उनके सामने कभी ऊंचा न बोले और न ही हंसे। बाहर से
पति के आने पर आदरपूर्वक उसके चरण धोए।
जो मूढ़ बुद्धि नारियां अपने पति को त्यागकर व्यभिचार करती हैं अथवा दुष्ट पुरुषों के
सान्निध्य में रहती हैं वे उल्लू का जन्म लेती हैं। पति से हीन नारी सदा के लिए अपवित्र हो
जाती है। तीर्थ स्नान करने पर भी वह अपवित्र रहती है। जिस घर में पतिव्रता नारी का वास
होता है, उसके पति, पिता और माता तीनों के कुल तर जाते हैं। वे सीधे स्वर्गलोक की शोभा
बढ़ाते हैं। इसके विपरीत जो स्त्रियां पर पुरुषों की ओर आकर्षित होकर अपने मार्ग से भटक
जाती हैं वे अपने साथ-साथ अपने कुल का भी नाश करती हैं। पतिव्रता नारी के स्पर्श होने
मात्र से ही वहां की भूमि पावन और पापों का नाश करने वाली हो जाती है। सूर्य, चंद्रमा तथा
वायुदेव भी पवित्रता हेतु नारी का स्पर्श करते हैं, ताकि वे दूसरों को पवित्र कर सकें। पतिव्रता
पत्नी ही गृहस्थ आश्रम की नींव है, सुखों का भंडार है, वही धर्म को पाने का एकमात्र रास्ता
है तथा वही परिवार की वंश बेल को आगे बढ़ाने वाली है।
भगवान विश्वनाथ में अटूट भक्तिभाव रखने वाले शिव भक्तों को ही पतिव्रता नारियों की
प्राप्ति होती है। पत्नी से ही पति का अस्तित्व होता है। एक-दूसरे के बिना दोनों का कोई
अस्तित्व नहीं रह जाता। पत्नी के बिना पति देवयज्ञ, पितृ यज्ञ और अतिथि यज्ञ आदि कोई
भी यज्ञ अकेले संपन्न नहीं कर सकता। पतिव्रता नारियों को पवित्र पावनी गंगा के समान
पवित्र माना जाता है। उसके दर्शनों से ही सबकुछ पवित्र हो जाता है। पति-पत्नी का संबंध
अटूट है। पति प्रणव है और पत्नी वेद की ऋचा, एक तप है तो एक क्षमा। पत्नी द्वारा किए
अच्छे कर्मों का फल है पति।
हे गिरिजानंदिनी! शास्त्रों में पतिव्रता नारियों को चार प्रकार का बताया गया है। उत्तमा,
मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा। ये पतिव्रता स्त्रियों के भेद हैं। जो स्त्रियां स्वप्न में भी सिर्फ
अपने पति का ही स्मरण करती हैं, ऐसी स्त्रियां 'उत्तमा' पतिव्रता कहलाती हैं। जो स्त्रियां
प्रत्येक पुरुष को पिता भाई एवं पुत्र के रूप में देखती हैं, वह 'मध्यमा' पतिव्रता कहलाती हैं।
जिसके मन में धर्म और लोकलाज का भय रहता है और इस कारण वह सदैव धर्म का पालन
करती है, वह 'निकृष्टा' पतिव्रता कहलाती हैं। जो स्त्री अपने पति से डरकर या कुल के
बदनाम होने के डर से व्यभिचार से दूर रहती है वह स्त्री 'अतिनिकृष्टा' पतिव्रता कहलाती है।
ये चारों प्रकार की पतिव्रता स्त्रियां पावन, पवित्र और समस्त पापों का नाश करने वाली कही
जाती हैं। मुनि अत्रि की पत्नी अनसूया ने अपने पतिव्रत के प्रभाव से त्रिदेवों ब्रह्मा, विष्णु
और शिव को शिशु बना दिया था। यही नहीं उन्होंने मरे हुए एक ब्राह्मण को अपने सतीत्व के
बल से जीवित कर दिया था।
हे गिरिजानंदिनी! मैंने पतिव्रता स्त्री की सभी विशेषताएं और गुण तुम्हें बता दिए हैं। अब
आप इसी के अनुरूप ही आचरण किया करें। अपने पति की हर आज्ञा को सर्वोपरि मानकर
उसका पालन करें। पति को खुश रखने से ही सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।
आप तो जगदंबा का रूप हैं और आपके पति तो साक्षात भगवान शिव हैं। आपको यह सब
बताकर कोई लाभ नहीं, क्योंकि आप तो यह सब जानती ही हैं और इसका उत्तम पालन भी
करेंगी। आपके विषय में तो सोचकर ही स्त्रियां पवित्र एवं पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली
हो जाती हैं। इसलिए मुझे अधिक कुछ कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे विश्वास है
कि आप उत्तम पतिव्रत धर्म का पालन करके संसार की अन्य स्त्रियों के समक्ष उदाहरण
प्रस्तुत करेंगी।
ऐसा कहकर वह ब्राह्मण पत्नी चुप हो गई। उनसे पतिव्रत धर्म का उपदेश सुनकर देवी
पार्वती ने बहुत हर्ष का अनुभव किया। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण पत्नी को नमस्कार
किया तथा उत्तम धर्म के विषय में ज्ञान देने के लिए उनका धन्यवाद दिया। देवी पार्वती ने
अपने आचरण से सभी उपस्थित परिजनों को शिक्षा दी कि भले ही कोई कितना भी
जानकार क्यों न हो, उसे अपनी परंपराओं का आदरपूर्वक पालन करना चाहिए। जो अहंकार
के कारण लोकधर्म का परित्याग करता है, उसका अपयश होता है तथा वह अपनी संतानों
को पथभ्रष्ट करता है।
पचपनवां अध्याय
बारात का विदा होना तथा
शिव-पार्वती का कैलाश पर निवास
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! इस प्रकार ब्राह्मणी ने देवी पार्वती को पतितव्रत धर्म की शिक्षा देने
के उपरांत महारानी मैना से कहा कि हे महारानी! आपकी आज्ञा के अनुसार मैंने आपकी
पुत्री को पतिव्रत धर्म एवं उसके पालन के विषय में बता दिया। अब आप इसकी विदा की
तैयारी कीजिए। देवी मैना ने पार्वती को अपने हृदय से लगा लिया और जोर-जोर से रोने
लगीं। अपनी माता को इस प्रकार रोते देख पार्वती की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। पार्वती
और मैना को रोता देख सभी देवताओं की पत्नियां एवं वहां उपस्थित सभी नारियां
भावविह्वल हो उठीं। तभी पर्वतराज हिमालय अपने पुत्रों मैनाक, मंत्रियों के साथ वहां आए
और मोह के कारण अपनी पुत्री पार्वती को गले से लगाकर रोने लगे। गिरिजा की मां,
भाभियां तथा वहां उपस्थित सभी स्त्रियां रो रही थीं। तब तत्वज्ञानियों और मुनियों तथा
पुरोहितों ने अध्यात्म ज्ञान द्वारा सबको समझाया तथा यह भी बताया कि उपस्थित शुभमुहूर्त
में ही बारात विदा करनी चाहिए।
ऋषि-मुनियों के समझाने से भावनाओं का सागर थमा। तब पार्वती ने भक्ति-भाव से
अपने माता-पिता, भाइयों एवं गुरुजनों के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया तथा
पुनः रोने लगीं। तब सबने प्रेमपूर्वक उन्हें चुप कराया।
शैलराज हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती के बैठने के लिए एक सुंदर रत्नों से जड़ी हुई
पालकी मंगवाई। ब्राह्मण पत्नियों ने उन्हें उस पालकी में बैठाया। सभी ने उन्हें ढेरों आशीष
और शुभकामनाएं दीं। शैलराज हिमालय और मीना ने उन्हें अनेक दुर्लभ वस्तुएं उपहार
स्वरूप भेंट कीं। देवी पार्वती ने हाथ जोड़कर सबको विनम्रतापूर्वक नमस्कार किया और
उनकी पालकी वहां से चल दी। प्रेम के वशीभूत होकर उनके पिता हिमालय और भाई भी
उनकी पालकी के साथ-साथ चल दिए। कुछ देर बाद वे उस स्थान पर पहुंचे जहां शिवजी
अन्य बारातियों के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। हिमालय ने नम्रतापूर्वक वहां उपस्थित
भगवान शिव, ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी श्रेष्ठजनों को नमस्कार किया और अपनी पुत्री को
शिवजी को सौंप दिया। तत्पश्चात हम सबसे विदा लेकर वे हिमालयपुरी लौट गए।
जब शैलराज हिमालय अपने नगर को लौट गए। तब हम सब भी कैलाश पर्वत की ओर
चल दिए। भगवान शिव और पार्वती के विवाह हो जाने पर सभी की प्रसन्नता की कोई सीमा
न रही। सभी उत्साहपूर्वक चलने लगे। महादेवजी के शिवगण नाचते-कूदते, गाते-बजाते
अपने स्वामी के परम पावन निवास की ओर बढ़ रहे थे। मैं और श्रीहरि विष्णुजी भी शिवजी
के विवाह होने से प्रसन्न थे। उधर, देवराज इंद्र के हर्ष की कोई सीमा नहीं थी। वह सोच रहे थे
कि शिव-पार्वती के विवाह से उनके कष्टों और दुखों में अवश्य कमी होगी। उन्हें इस बात का
यकीन हो गया था कि अब जल्द ही उन्हें और सब देवताओं को तारकासुर नामक भयंकर
दैत्य से मुक्ति अवश्य मिलेगी। भगवान शिव भी हर्ष का अनुभव कर रहे थे, उन्हें उनके जन्म-
जन्म की प्रेयसी पार्वती पुनः पत्नी रूप में प्राप्त हो गई थी। इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक आनंद
में मगन होकर सभी कैलाश पर्वत की ओर जा रहे थे। उस समय सभी दिशाओं से पुष्प वर्षा
हो रही थी, मंगल ध्वनि बज रही थी और मंगल गान गाए जा रहे थे।
इस प्रकार यात्रा करते हुए सभी कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान शिव ने
पार्वती से कहा-हे देवेश्वरी! आप सदा से ही मेरी प्रिया हैं। आप पूर्व जन्म में मुझसे बिछुड़
गई थीं। सब देवताओं की कृपा से आज हम पुनः एक हो गए हैं। आज आपको पुनः अपने
पास विराजमान पाकर मैं बहुत प्रसन्न हूं। हम दोनों का साथ तो जन्म-जन्मांतरों से है। शिव
शिवा के बिना और शिवा शिव के बिना अधूरी हैं। आज मुझे पुनः अपनी प्राणवल्लभा मिल
गई हैं।
प्रभु शिव की इन प्यारी बातों को सुनकर देवी पार्वती का मुख लज्जा से लाल हो गया।
उनके बड़े-बड़े सुंदर नेत्र झुक गए और वे धीरे से बोलीं -हे नाथ! आपकी हर एक बात मुझे
स्मरण है। मेरे जीवन में सबकुछ आप ही हैं। आज आपने अपनी इस दासी को अपने चरणों
में जगह देकर बहुत बड़ा उपकार किया है। मैं आपको पति के रूप में पाकर धन्य हो गई हूं।
देवी पार्वती के उत्तम मधुर वचनों को सुनकर भगवान शिव मुस्कुरा दिए। तत्पश्चात
भगवान शिव ने सभी देवताओं को स्वादिष्ट भोजन कराया एवं उन्हें सुंदर उपहार भेंट स्वरूप
दिए। भोजन करने के बाद सभी देवता एवं ऋषि-मुनि भगवान शिव के पास आए और उन्हें
प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे और शिव-पार्वती से आज्ञा लेकर अपने-अपने धाम चले
गए। तब मैने और श्रीहरि ने भी चलने के लिए आज्ञा मांगी तो शिवजी ने हमें प्रणाम किया।
तब मैंने और विष्णुजी ने हृदय से लगाकर उन्हें आशीर्वाद दिया। फिर हम भी अपने-अपने
लोकों को चले गए।
हम सबके कैलाश पर्वत से चले जाने के बाद भगवान शिव अपनी प्राणवल्लभा पार्वती के
साथ आनंदपूर्वक वहां निवास करने लगे। भगवान शिव के गण शिव-पार्वती की भक्तिपूर्वक
आराधना करने लगे। नारद! इस प्रकार मौने तुम्हें भगवान शिव-पार्वती के विवाह का पूर्ण
विवरण सुनाया। यह उत्तम कथा शोक का नाश करने वाली, आनंद, धन और आयु की वृद्धि
करने वाली है। जो मनुष्य सच्चे मन से प्रतिदिन इस प्रसंग को पढ़ता अथवा सुनता है, वह
शिवलोक को प्राप्त कर लेता है। इस कथा से समस्त रोगों का नाश होता है तथा सभी विघ्न-
बाधाएं दूर हो जाती हैं। यह कथा यश, पुत्र, पौत्र आदि मनोवांछित वस्तु प्रदान करने वाली
तथा मोक्ष प्रदान करने वाली है। सभी शुभ अवसरों और मंगल कार्यों के समय इस कथा का
पठन अथवा श्रवण करने से समस्त कार्यो की सिद्धि होती है। इसमें कोई संशय नहीं है। यह
सर्वथा सत्य है।
।। श्रीरुद्र संहिता (पार्वती खंड) संपूर्ण ।।
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।। ॐ नमः शिवाय ||
श्रीरुद्र संहिता
चतुर्थ खंड
पहला अध्याय
शिव-पार्वती विहार
जिनका मन वंदना करने से प्रसन्न होता है, जो प्रेम प्रिय हैं और जो प्रेम
प्रदान करने वाले हैं, जो पूर्णानंद हैं और अपने भक्तों की इच्छाओं को सदा
पूरा करने वाले हैं, जो ऐश्वर्य संपन्न और कल्याणकारी हैं, जो साक्षात सत्य
के स्वामी हैं, सर्त्याप्रिय और सत्य के प्रदाता हैं, ब्रह्मा और विष्णु जिनकी
सदा स्तुति करते हैं, जो अपनी इच्छा के अनुरूप शरीर को धारण करते हैं,
उन परम आदरमयी भगवान शिव की मीं चरण वंदना करता हूं।
मुनिश्रेष्ठ नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा-हे ब्रह्मन! आप समस्त देवताओं और प्राणियों का
मंगल करने वाले हैं। हे भगवन्, आप मुझ पर कृपा करके यह बताइए कि देवाधिदेव
करुणानिधान भगवान शिव तो अत्यंत शक्तिशाली और समर्थ हैं। फिर भी जिस अभीष्ट फल
की सिद्धि के लिए उन्होंने गिरिजानंदिनी पार्वती से विवाह रचाया था, क्या वह पूर्ण हुआ?
उन्हें पुत्र की प्राप्ति कब और कैसे हुई? तारकासुर का वध किस प्रकार हुआ? प्रभु! कृपया
कर मेरी इन जिज्ञासाओं की शांति हेतु मुझे इनके बारे में विस्तृत रूप में बताइए।
सूत जी कहते हैं कि जब नारद जी ने यह पूछा तब ब्रह्माजी ने प्रसन्नतापूर्वक भगवान शिव
का स्मरण करते हुए कहा-—नारद! जब भगवान शिव देवी पार्वती के साथ कैलाश पर्वत पर
पधारे तब वहां सबने मंगल उत्सव किया। सभी खुशी में मगन होकर नृत्य कर रहे थे। तब
भगवान शिव ने सभी को उत्तम भोजन कराया। तब सब देवताओं और मुनिगणों ने उनसे
विदा लेकर अपने-अपने धाम की ओर प्रस्थान किया। सब देवताओं के कैलाश पर्वत से चले
जाने के पश्चात भगवान शिव अपनी प्रिया पार्वती को साथ लेकर अत्यंत मनोहर, दिव्य और
निर्जन स्थान पर चले गए और वहीं सहस्रो वर्षो तक पार्वती जी के साथ विहार करते रहे।
इस प्रकार भगवान शिव ने इतने अधिक समय को क्षण भर के समान व्यतीत कर दिया।
इस प्रकार समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा था परंतु भगवान शिव का पुत्र अब
तक उत्पन्न नहीं हुआ था। यह जानकर सभी देवताओं को मन ही मन चिंता सताने लगी। तब
देवराज इंद्र ने एक सभा करने का विचार किया और उन्होंने सभी देवताओं को सुमेरु पर्वत
पर आमंत्रित किया। उस सभा में सब देवता इस बात पर विचार करने लगे कि इतना समय
व्यतीत हो जाने पर भी अब तक शिवजी ने पुत्र क्यों नहीं उत्पन्न किया? वे सोचने लगे कि
शिवजी अब क्यों विलंब कर रहे हैं? उस समय मुझ ब्रह्मा को लेकर सब देवता भगवान
श्रीहरि विष्णु के पास गए और कहने लगे कि हे हरे! भगवान शिव हजारों वर्षो से रति क्रीड़ा
कर रहे हैं। उनका पार्वती जी के साथ विहार अब भी जारी है परंतु अब तक किसी शुभ
समाचार की प्राप्ति नहीं हुई है। तब भगवान श्रीहरि विष्णु मुस्कुराए और बोले-हे देवताओ!
आप इस विषय में इतनी चिंता मत कीजिए। शिवजी स्वयं अपनी इच्छानुसार इस स्थिति से
विरत हो जाएंगे। वैसे भी हमारे शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है कि जो व्यक्ति स्त्री-पुरुष का
वियोग कराता है उसे हर जन्म में इस वियोग को स्वयं भी भोगना पड़ता है। अतः अभी कुछ
भी नहीं करना चाहिए। कुछ समय और व्यतीत हो जाने दो। अभी हमें सिर्फ प्रतीक्षा करनी
होगी। कुछ देर सोचने के पश्चात श्रीहरि ने पुनः कहा, एक हजार वर्ष बीत जाने पर आप सब
लोक शिवजी के पास जाना तथा कोई युक्ति लगाकर ऐसा उपाय करना कि उनका शक्तिपात
किसी भी प्रकार से हो जाए। उसी शक्ति से हमें उनके पुत्र की प्राप्ति हो सकती है परंतु इस
समय आप सब देवता अपने-अपने धाम को चले जाएं। भगवान शिव को अपनी पत्नी
पार्वती के साथ आनंदपूर्वक विहार करने दें।
सब देवताओं को समझाकर श्रीहरि बैकुण्ठधाम को चले गए। श्रीहरि के चले जाने के
उपरांत सब देवताओं ने अपनी चिता त्याग दी और प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम चले गए।
समय अपनी गति से बीतता गया परंतु शिवजी का पुत्र नहीं हुआ। तारकासुर का भय और
आतंक का साया दिन पर दिन और बढ़ने लगा। देवताओं सहित ऋषि-मुनियों और साधारण
मनुष्यों का जीवन उसने दूभर कर दिया था। तारकासुर के डर से पृथ्वी कांप उठी तब
श्रीविष्णु जी ने सब देवताओं को बुलाया और भगवान शिव के पास चलने के लिए कहा। तब
सब देवताओं को साथ लेकर भगवान श्रीहरि और मैं भगवान शिव से भेंट करने के लिए
कैलाश पर्वत पर पहुंचे परंतु भगवान शिव कैलाश पर्वत पर नहीं थे। उनके गणों से जब हमने
महादेव जी के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि भगवान शिव माता पार्वती के पास उनके
मंदिर में गए हैं। तब श्रीहरि ने शिवगणों से उनका पता पूछा।
तत्पश्चात हम सब उस स्थान पर पहुंचे जहां त्रिलोकीनाथ भगवान शिव अपनी प्रिया के
साथ निवास कर रहे थे। तब वहां उनके निवास के द्वार पर पहुंचकर सब देवताओं ने भगवान
शिव का स्मरण कर उन्हें मन में प्रणाम कर उनकी स्तुति आरंभ कर दी।
दूसरा अध्याय
स्वामी कार्तिकेय का जन्म
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! भगवान शिव तो सर्वेश्वर हैं। हर विषय के ज्ञाता हैं। भला उनसे
कोई बात किस प्रकार छुप सकती है? भगवान शिव तो महान योगी हैं और सबकुछ जानने
वाले हैं। इसलिए उन्होंने अपने योग बल से यह जान लिया कि मैं, विष्णुजी सभी देवताओं
को साथ लेकर उनके द्वार पर आए हैं। तब वे बड़े हर्षित हुए और हम सबसे मिलने के लिए
द्वार पर पधारे और हमारी स्तुति को स्वीकारते हुए बोले-आप सब एक साथ यहां क्यों
पधारे हैं? तब हमने अपने आने का प्रयोजन बताते हुए कहा कि हे देवाधिदेव! करुणानिधान
भगवान! तारकासुर के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। प्रभु, अब तो उपाय कीजिए
कि हमें उसके आतंक से मुक्ति मिल जाए।
देवताओं के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव दुखी हो गए और कुछ देर तक चुपचाप
कुछ सोचने के बाद बोले-हे देवताओ! आपके दुखों को मैं समझ रहा हूं परंतु मेरे लिए एक
कठिन समस्या है कि मेरे द्वारा किए गए शक्तिपात को कौन धारण कर सकता है? ऐसा
कहकर उन्होंने अपना शक्तिपात धरती पर गिरा दिया। तब सब देवताओं ने अग्निदेव से
प्रार्थना की कि वे भगवान शिव की उस शक्ति को कपोत बनकर धारण कर लें। सब देवताओं
का आग्रह स्वीकार करके अग्निदेव ने कपोत रूप धारण कर उस शक्ति को अपने अंदर
समाहित कर लिया।
जब बहुत देर तक भगवान शिव देवी पार्वती के पास वापस नहीं पहुंचे तो परेशान होकर
देवी स्वयं उन्हें देखने बाहर चली आई। वहां जब उन्होंने अग्निदेव को उस शक्ति का भक्षण
करते हुए देखा तो वे क्रोधित हो गई। उस समय उनकी आंखें गुस्से के कारण लाल हो गई
थीं। तब देवी पार्वती ने अग्निदेव से कहा-हे दुष्ट अग्निदेव! आपने मेरे पति त्रिलोकीनाथ की
शक्ति का भक्षण किया है, इसलिए आज मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम सर्वभक्षी होगे। जो भी
तुम्हारे संपर्क में आएगा वह तत्काल नष्ट हो जाएगा। तुम सर्वथा इस आग में स्वयं भी जलते
रहोगे। अग्निदेव को क्रोध में यह शाप देकर देवी पार्वती वहां से चली गई। उनके साथ
शिवजी भी वहां से चले गए। इधर समस्त देवताओं द्वारा अग्ने में होम करने से और अन्न
आदि के सेवन द्वारा वह शक्ति सब देवताओं के शरीर में पहुंच गई। उस शक्ति की गरमी से
सभी देवता दुखी हो गए थे। तब सब पुनः भगवान शिव की शरण में पहुंचे और उनसे हाथ
जोड़कर प्रार्थना करने लगे कि भगवन्! हमें इस जलन से मुक्ति दिलाएं। हम सबकी पीड़ा
अनुभव कर उन्होंने हमसे कहा कि इस शक्ति के ताप और जलन को बंद करने के लिए उसे
हमें अपने शरीर से वमन के द्वारा बाहर निकालना होगा।
भगवान शिव की आज्ञा मानकर हम सभी देवताओं ने वमन द्वारा शिवजी की उस शक्ति
को अपने शरीर से निकाल दिया। उसके निकलते ही सबने संतोष की सांस ली और महादेव
जी की स्तुति करके उन्हें धन्यवाद दिया परंतु अग्नि देव की पीड़ा किसी भी प्रकार कम नहीं
हो रही थी। उनका हृदय जल रहा था। तब मैंने अग्निदेव को भगवान शिव की शरण में जाने
की सलाह दी। मेरी बात मानकर अग्नि देवता ने भक्तवत्सल भगवान शिव की बहुत स्तुति की
तब शिवजी प्रसन्न हुए और बोले--कहिए अग्निदेव, आप क्या कहना चाहते हे? तब
अग्निदेव ने हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। तत्पश्चात वे बोले
-र्हे देवाधिदेव! कृपा करके मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिए। मैं बहुत बड़ा मूर्ख हूं जो मैंने
आपकी शक्ति का भक्षण कर लिया। आप मुझे क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न हों। भगवन्,
मुझ पर कृपा कर इस शक्ति के ताप को कम करके मुझे मुक्ति दिलाएं।
यह सुनकर भगवान प्रसन्नतापूर्वक अग्निदेव से बोले-हे अग्निदेव! आपने उस शक्ति का
सेवन करके बहुत बड़ी भूल की है। अपने किए का दंड आप काफी समय से भोग रहे हैं
इसलिए मैं आपको क्षमा करता हूं। तुम मेरी इस शक्ति को किसी नारी शरीर में स्थिर कर दो।
ऐसा करने से तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे। यह सुनकर अग्ने ने दुबारा प्रश्न किया कि
भगवन् आपका तेज धारण करने की क्षमता तो किसी में भी नहीं है। तभी नारद तुम भी वहां
आ गए और अग्निदेव से बोले कि जैसा भगवान शिव की आज्ञा है, वैसा ही करो। ऐसा करने
से तुम्हारे कष्ट दूर हो जाएंगे।
तब तुमने अग्निदेव से कहा कि माघ महीने में जो भी स्त्री सबसे पहले प्रयाग में स्नान करे
उसके शरीर में आप इस शक्ति को स्थित कर देना। माघ का महीना आने पर सुबह ब्रह्म मुहूर्त
में सर्वप्रथम सप्तऋषियों की पत्नियां प्रयाग में स्नान करने पहुंचीं। स्नान करने के उपरांत
जब उन्होंने अत्यधिक ठंड का अनुभव किया तो उनमें से छः स्त्रियां अग्नि के पास जाकर
आग तापने लगीं। उसी समय उनके रोमों के द्वारा शिवजी की शक्ति के कण अग्नि से
निकलकर उनके शरीर में पहुंच गए। तब अग्निदेव को जलन की पीड़ा से मुक्ति मिल गई।
समयानुसार वे छः ऋषि पत्नियां गर्भवती हो गई। उनके पतियों ने उन्हें व्यभिचारी
समझकर उनका त्याग कर दिया। तब वे सब हिमालय पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगीं।
वहीं उस पर्वत पर उन्होंने कई भागों में मानव अंगों को जन्म दिया, परंतु वह पर्वत उनके भार
को सहन नहीं कर सका और उसने उन्हें गंगाजी में गिरा दिया। गंगाजी ने उन्हें जोड़ दिया पर
वे उस बालक के तेज को सहन नहीं कर सकीं और उसे अपनी तरंगों में बहाकर सरकंडे के
वन के निकट छोड़ दिया। वह तेजस्वी बालक मार्गशीर्ष में शुक्ल षष्ठी के दिन पृथ्वी पर
उत्पन्न हुआ। उसके पृथ्वी पर आते ही सभी को आनंद की अनुभूति हुई। आकाश में दुदुभियां
बजने लगीं और फूलों की वर्षा होने लगी।
तीसरा अध्याय
स्वामी कार्तिकेय और विश्वामित्र
नारद जी बोले-है ब्रह्माजी! जब वह बालक पृथ्वी पर अवतरित हो गया, तब वहां क्या
और कैसे हुआ? तब नारद जी का प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब गंगाजी द्वारा
उस तेजस्वी बालक को लहरों द्वारा बहाकर सरकंडे के वन के पास छोड़ दिया गया, तभी
वहां मुनि विश्वामित्र पधारे।
उस बालक का देदीप्यमान मुख देखकर विश्वामित्र दंग रह गए। वह बालक दिव्य तेज से
प्रकाशित हो रहा था। उसे बड़ा प्रतापी और बलशाली जानकर मुनि विश्वामित्र ने उसे
नमस्कार किया और उसकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात मुनि बोले कि भगवान शिव की इच्छा
से ही तुम यहां प्रकट हुए हो। शिव तो सर्वेश्वर हैं। वे ही परम ब्रह्म परमात्मा हैं। इस संसार का
हर प्राणी, हर जीव उनकी आज्ञा का ही पालन करता है। तब मुनि विश्वामित्र के ऐसे वचन
सुनकर वह बालक बोला--हे महाज्ञानी, प्रकांड पंडित, मुनि विश्वामित्र! मेरे इस स्थान पर
आने के बाद सर्वप्रथम आप ही यहां पधारे हैं। निश्चय ही आपका यहां आना भगवान शिव
की प्रेरणा से ही प्रेरित है। इसलिए आप ही विधि-विधान के अनुसार मेरा नामकरण संस्कार
कीजिए। आज से आप ही मेरे पुरोहित हैं और मेरे द्वारा पूज्य हैं। मेरे द्वारा पूज्य होने के
कारण आप इस जगत में विख्यात और पूज्य होंगे।
उस बालक के ऐसे वचन सुनकर मुनि विश्वामित्र आश्चर्यचकित होकर उस बालक से पूछने
लगे कि हे बालक! आप कीन हैं? अपने विषय में मुझे बताइए। तब उनकी बात सुनकर वह
बालक बोला-हे विश्वामित्र! अब आप ब्रह्मर्षि हो गए हैं। मेरे विषय में जानने से पूर्व आप
मेरा संस्कार कीजिए। तब मुनि विश्वामित्र ने उस अद्भुत बालक का नामकरण संस्कार किया
और उसका नाम कार्तिकेय रखा। गुरु दक्षिणा के रूप में उसने मुनि को दिव्य ज्ञान प्रदान
किया। तब मैंने स्वयं वहां जाकर उस बालक को गोद में लिया और उसे चूमा। तत्पश्चात मैंने
उसे शक्तियां और शस्त्र प्रदान किए। उन अदभुत शक्तियों को प्राप्त कर वह बालक बहुत
प्रसन्न हुआ और तुरंत ही पहाड़ पर चढ़ गया। पहाड़ पर चढ़कर वह उसके शिखरों को गिराने
लगा तथा वहां की संपदा नष्ट करने लगा। यह देखकर उस स्थान पर निवास करने वाले
राक्षस उस बालक को मारने के लिए दौड़े। उन भयंकर राक्षसों से बिना भयभीत हुए उसने
उन सबको भगा दिया। उनके भयंकर युद्ध से पूरा त्रिलोक कांपने लगा।
त्रिलोक को भयभीत होता देखकर सब देवता वहां पहुंचे। देवराज इंद्र ने क्रोध में आकर
उस बालक पर प्रहार किया। इस प्रहार के फलस्वरूप उस बालक के शरीर से विशाख नाम
का दूसरा पुरुष पैदा हो गया। उन्होंने उस बालक पर एक और प्रहार किया तो नेगम नाम का
एक और महाबली पुरुष पैदा हो गया। इस प्रकार इंद्र के प्रहारों से चार स्कंध पैदा हुए, जो
बहुत वीर और बलवान थे। तब क्रोधित होकर ये चारों स्कंध एक साथ मिलकर स्वर्ग के राजा
इंद्र को मारने के लिए दौड़े। यह देखकर इंद्र घबराकर अपनी जान बचाने के लिए कहीं दूर
जाकर छिप गए। उनको ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वह बालक उनके धाम स्वर्ग में पहुंच गया।
उस समय जब वह बालक स्वर्ग पहुंचकर देवराज इंद्र को ढूंढ़ रहा था। एक सुंदर सरोवर
में छः कृत्तिकाएं स्नान कर रही थीं। उस सुंदर-सलोने बालक को देखकर वह उसे प्यार करने
और गोद में खिलाने के लिए दौड़ीं और उसे पकड़कर ले आई। तब उन कृत्तिकाओं ने उस
नन्हे बालक को बहुत प्यार किया और तब वे आपस में उसे दूध पिलाने के लिए लड़ने लगीं।
तब उस बालक ने छः मुख धारण करके सब माताओं का स्तनपान किया। तब वे
प्रसन्नतापूर्वक उस बालक को अपने साथ अपने लोक में ले गई और उसका लालन-पालन
करने लगीं।
चौथा अध्याय
कार्तिकिय की खोज
ब्रह्माजी बोले--इस प्रकार उस दिव्य बालक को लेकर वे कृत्तिकाएं अपने लोक में चली
गईं। वहां जाकर उन्होंने उस बालक को सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से अलंकृत किया और
बड़े लाड़-प्यार से उस बच्चे को पालने लगीं। जब बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन
पार्वती जी ने अपने पति शिवजी से पूछा--हे प्रभु! आप तो सबके ईश्वर हैं, सब प्राणियों के
वंदनीय हैं। सब आपका ही ध्यान करते हैं। भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं।
तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने मुस्कुराकर कहा--देवी पूछो, क्या पूछना चाहती हो? तब
देवी पार्वती ने कहा प्रभु! आपकी शक्ति जो पृथ्वी पर गिरी थी, वह कहां गई?
देवी पार्वती के इन वचनों को सुनकर शिवजी ने विष्णुजी, मेरा और सब देवताओं और
मुनियों का स्मरण किया। यह ज्ञात होते ही कि भगवान शिव ने हमें बुलाया है, हम सभी तुरंत
कैलाश पर्वत पर चले गए। वहां पहुंचकर हमने महादेव जी और देवी पार्वती को हाथ
जोड़कर नमस्कार किया और उनकी स्तुति की। तब भगवान शिव बोले-हे देवताओ, मुझे
यह बताइए कि मेरी वह अमोघ शक्ति कहां है? शीघ्र बताओ, अन्यथा मैं तुम्हें इसके लिए दंड
दूंगा।
भगवान शिव के ये वचन सुनकर सभी देवता भय से कांपने लगे। तब उन्होंने जैसे-जैसे
वह शक्ति जहां-जहां गई थी, वह सभी बातें शिव-पार्वती को विस्तार सहित बताईं। तब
उन्होंने यह भी बताया कि उस बालक को छः कृत्तिकाएं अपने साथ अपने लोक को ले गई हैं
और उसको पाल रही हैं। यह सुनकर शिवजी व देवी पार्वती को बहुत प्रसन्नता हुई। वे दोनों
अपने उस पुत्र को देखने के लिए बहुत उत्सुक थे। तब शिवजी ने अपने गणों को उस बालक
को कृतिकाओं के पास से वापस ले आने की आज्ञा दी।
भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके वीर बलशाली गण, क्षेत्रपाल और भूत-प्रेत गण
लाखों की संख्या में शिवजी के पुत्र की खोज में निकल पड़े। तब उन सबने वहां पहुंचकर
कृत्तिकाओं के घर को घेर लिया। यह देखकर कृत्तिकाएं भय से व्याकुल हो गईं। तब
कृत्तिकाओं ने अपने पुत्र कार्तिकेय से कहा कि हमें चारों ओरसे असंख्य सेनाओं ने घेर लिया
है। अब हमें बचने का मार्ग खोजना होगा।
यह सुनकर स्वामी कार्तिकेय मुस्कुराए और बोले-हे माताओ! आपको डरने की कोई
आवश्यकता नहीं है। आपका यह पुत्र आपके साथ है। मेरे रहते कोई भी शत्रु इस घर में
प्रवेश नहीं कर सकता। माता! मेरे बालरूप को देखकर आप मुझे अयोग्य न समझें। गैं इन
सभी को हराने में सक्षम हूं। इससे पूर्व कि कार्तिकेय उन गणों की सेनाओं को नुकसान
पहुंचाते नंदीश्वर उनके सामने आकर खड़े हो गए और बोले-हे माताओ! हे भ्राता! मुझे
संसार के संहारकर्ता भगवान शिव ने यहां भेजा है। मेरे यहां आने का उद्देश्य किसी को
नुकसान पहुंचाना नही है। मैं तो सिर्फ आपको अपने साथ ले जाने आया हूं। इस समय ब्रह्मा,
विष्णु और शिव त्रिदेव आपकी कैलाश पर्वत पर प्रतीक्षा कर रहे हैं तथा आपके लिए चिंतित
हैं। आप शीघ्र ही हमारे साथ पृथ्वी पर चलें। आप अभी तक अपने जन्म के उद्देश्य से सर्वथा
अनजान हैं। आपका जन्म दैत्यराज तारकासुर का वध करने के लिए ही हुआ है। अतः आप
हमारे साथ चलें। वहां पृथ्वी लोक पर सब देवताओं सहित स्वयं भगवान शिव आपका
अभिषेक करेंगे तथा सब देवता अपनी-अपनी दिव्य शक्तियां और अस्त्र-शस्त्र आपको प्रदान
करेंगे।
यह सुनकर कार्तिकेय बोले-यदि आपको भगवान शिव ने यहां मेरे पास भेजा है तो मैं
अवश्य ही उनके दर्शनों के लिए आपके साथ चलूंगा। हे तात! ये ज्ञानयोगिनियां प्रकृति की
कला हैं। इन्हें कृत्तिका नाम से जाना जाता है। इन्होंने ही अब तक मेरा पालन-पोषण किया
है। इसलिए ये मेरी माताएं हैं और मीं इनका पौष्य पुत्र हूं। तब स्वामी कार्तिकेय ने हाथ
जोड़कर कृत्तिकाओं से नंदीश्वर के साथ जाने की आज्ञा मांगी। माताओं ने अपना आशीर्वाद
देकर उन्हें वहां से जाने की आज्ञा प्रदान कर दी।
पाचवा अध्याय
कुमार का अभिषेक
ब्रह्माजी बोले--जब कार्तिकेय अपनी माताओं कृत्तिकाओं से आज्ञा लेकर भगवान शिव
के पास जाने के लिए वहां से निकले तो द्वार पर देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा बनाया
गया सुंदर रथ उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह रथ दिव्य था और द्रुत गति से चलने वाला था।
उस रथ को उनकी माता पार्वती ने उनके लिए भेजा था। उनके पार्षद उस रथ के पास खड़े
हुए थे। कार्तिकेय दुखी मन से उस रथ पर चढ़ने लगे। तभी उनकी माताएं दौड़कर रोते हुए
उनसे लिपट गई और कहने लगीं कि पुत्र हम तुम्हारे बिना क्या करें? पुत्र हम तुमसे बहुत
प्यार करती हैं, तुम्हारे बिना यहां रहना हमारे लिए संभव नहीं है। तुम शीघ्र ही वापिस लीट
आना। यह कहकर उन्होंने कार्तिकेय को हृदय से लगा लिया और भारी मन से कार्तिकेय को
रोते-रोते जाने की आज्ञा दी। तब कार्तिकेय ने कृत्तिकाओं को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया।
तत्पश्चात कार्तिकेय उस दिव्य मनोहर रथ पर बैठ गए और वह उन्हें ले उड़ा। आकाशीय मार्ग
से तीव्र गति से चलता हुआ वह रथ कैलाश पर्वत पर आकर रुका। तब शिवगणों ने भगवान
शिव और माता पार्वती के पास जाकर, कार्तिकेय के आगमन की शुभ सूचना उन्हें दी। उनके
आगमन के बारे में सुनकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान
शिव, मुझे, विष्णुजी, देवी पार्वती और अन्य देवताओं को साथ लेकर उस स्थान पर पहुंचे
जहां कार्तिकेय का रथ रुका हुआ था। सबके मन में गंगाजी से उत्पन्न उस बालक को देखने
की बड़ी इच्छा थी।
जब सब देवता कार्तिकेय से मिलने के लिए आ रहे थे उस समय चारों दिशाओं में शंख
और भेरी बजने लगीं। सभी शिवगण नाचते-गाते और उनकी जय-जयकार करते हुए अपने
आराध्य भगवान शिव के पुत्र को देखने के लिए चल दिए। वहां पहुंचकर सब बहुत प्रसन्न
हुए। भगवान शिव ने प्रेमपूर्वक उस बालक को गोद में बैठा लिया। तब देवी पार्वती ने भी उस
बालक को बहुत प्यार किया। भगवान शिव ने उस बालक के लिए एक सुंदर रत्नों से जड़ा
हुआ सिंहासन मंगाया और उस सिंहासन पर बालक को बैठाया। तत्पश्चात भगवान शिव ने
सब तीर्थ स्थानों से मंगाए गए जल को वेद मंत्रों से पवित्र करके उससे बालक को स्नान
कराया। छः कृत्तिकाओं द्वारा पोषित होने के कारण उस दिव्य बालक को 'कार्तिकेय' के
नाम से जाना गया।
तीर्थो के पवित्र जल से स्नान कराने के उपरांत सभी देवताओं ने कार्तिकेय को तरह-तरह
की अमूल्य वस्तुएं, विद्याएं और अदभुत शक्तियां प्रदान कीं। तब सर्वप्रथम देवी पार्वती ने
अपने पुत्र को हृदय से लगाकर उसे चिरंजीव होने का आशीर्वाद प्रदान किया। माता लक्ष्मी ने
दिव्य मनोहर हार उस बालक को पहनाया तो देवी सावित्री ने सारी सिद्धि विधाएं उन्हें प्रदान
कीं। फिर श्रीविष्णुजी ने रत्नों से निर्मित, किरीट मुकुट, बाजूबंद, वैजयंतीमाला और अपना
सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक अपने पुत्र कार्तिकेय को शूल,
पिनाक, फरसा, शक्ति, पाशुपास्त्र, बाण, संहारास्त्र आदि परम दिव्य वस्तुएं प्रदान कीं। फिर
मुझ ब्रह्मा ने यज्ञोपवीत, वेद माता गायत्री ने कमंडल, ब्रह्मास्त्र तथा शत्रुओं का नाश करने
वाली विद्या प्रदान की। देवराज इंद्र ने अपना वाहन ऐरावत हाथी और वज्र प्रदान किया। वायु
देव वरुण ने श्वेत छत्र और रत्नों की मालाएं प्रदान कीं। सूर्यदेव ने मन की तरह तीव्र गति से
चलने वाला द्रुतगामी रथ और शरीर की रक्षा करने वाला कवच भी प्रदान किया। यमराज
द्वारा दंड और समुद्र देव द्वारा उन्हें अमृत भेंट किया गया। धन के अकूत भंडार के स्वामी
कुबेर ने गदा दी।
इस प्रकार सब देवताओं ने भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय को अनेकों प्रकार के अस्त्र-
शस्त्र और उपहार प्रदान किए। सभी देवताओं और शिवगणों ने उनका अभिवादन किया।
इस समय वहां पर बहुत बड़ा उत्सव होने लगा। चारों ओर हर्ष की लहर दौड़ रही थी।
छठवा अध्याय
कार्तिकेय का अद्भुत चरित्र
ब्रह्माजी बोले-नारद! इस प्रकार सभी अभीष्ट देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त करके कुमार
कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सभी देवताओं का धन्यवाद व्यक्त किया। तत्पश्चात वे
अपने सिंहासन पर जा बैठे। तभी वहां एक ब्राह्मण दौड़ता हुआ आया। उस ब्राह्मण ने आकर
कार्तिकेय को प्रणाम किया और उनके चरण पकड़ लिए और बोला--हे स्वामी! मैं आपकी
शरण में आया हूं। मुझ पर कृपा करके मेरे कष्ट को दूर करें। तब कार्तिकेय ने उस ब्राह्मण को
उठाया और आदरपूर्वक अपने पास बैठाकर उसके दुखी होने का कारण पूछा।
तब वह ब्राह्मण बोला-हे भगवन्! मैं अश्वमेध यज्ञ कर रहा हूं परंतु आज मेरा घोड़ा
अपने बंधनों को तोड़कर कहीं चला गया है। हे प्रभु! मुझ पर कृपा करें और मेरे घोड़े को
यथाशीघ्र ढूंढ़ दें, अन्यथा मेरा यज्ञ भंग हो जाएगा। यह कहकर वह ब्राह्मण पुनः कार्तिकेय के
चरणों को पकड़कर रोने-गिड़गिड़ाने लगा। वह रोते-रोते बोला-आप पूरे ब्रह्माण्ड के स्वामी
हैं। आप सबकी सेवा करने को सदा तत्पर रहते हैं। आप सब देवताओं के स्वामी हैं और
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के पुत्र हैं।
इस प्रकार उस ब्राह्मण द्वारा की गई स्तुति को सुनकर कुमार कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए।
तब उन्होंने अपने वीर बलशाली प्रमुख गण वीरबाहु को बुलाकर उस घोड़े को जल्दी से
जल्दी ढूंढ लाने की आज्ञा प्रदान की तथा यज्ञ को विधि-विधान के अनुसार पूर्ण कराने के
लिए कहा। तब वीरबाहु ने कार्तिकेय को प्रणाम किया और ब्राह्मण के घोड़े को ढूंूने के लिए
निकल पड़ा। उसने पृथ्वीलोक पर हर जगह उस घोड़े को ढूंढ़ा। जिस व्यक्ति ने जो भी
जानकारी दी उसके अनुसार वीरबाहु ने हर जगह उसकी तलाश की, परंतु वह असफल रहा।
तब वह उस घोड़े की तलाश करने के लिए भगवान श्रीहरि विष्णु के लोक बैकुंठधाम गया।
वहां जाकर वीरबाहु ने देखा कि एक घोड़े ने विष्णुलोक में बहुत आतंक मचा रखा था।
विष्णुलोक में वह घोड़ा खूब उपद्रव कर रहा था। कुमार कार्तिकेय के उस गण वीरबाहु ने
तुरंत उस घोड़े को बंधक बना लिया और उसे पकड़कर अपने स्वामी कार्तिकेय के पास ले
आया। तब स्वामी कार्तिकेय पूरे संसार का भार लेकर उस घोड़े पर चढ़कर बैठ गए और उस
घोड़े को पूरे त्रिलोक की परिक्रमा करने का आदेश प्रदान किया। वह अद्भुत घोड़ा एक ही
पल में तीनों लोकों की परिक्रमा करके लौट आया। तब कुमार कार्तिकेय उस घोड़े से
उतरकर पुनः अपने आसन पर बैठ गए।
तब वह ब्राह्मण हाथ जोड़कर कार्तिकेय का धन्यवाद करने लगा और उनसे बोला कि
प्रभु! आप यह घोड़ा मुझे सौंप दीजिए ताकि मैं अपना यज्ञ पूर्ण कर सकूं। तब कार्तिकेय
मुस्कुराए और बोले-है ब्राह्मण! यह घोड़ा उत्तम है और यह वध के योग्य नहीं है। इसलिए
आप इसे अपने साथ ले जाने के लिए न कहें। मैं आपके यज्ञ को पूर्ण होने का वरदान देता
हूं। मेरे आशीर्वाद से आपका यज्ञ अवश्य सफल होगा।
सातवां अध्याय
भगवान शिव द्वारा कार्तिकेय को सौंपना
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! अपने पुत्र कार्तिकेय का अद्भुत पराक्रम देखकर भगवान शिव
और देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुए। तब सब देवताओं सहित श्रीहरि विष्णु और देवराज इंद्र
और मैं भी बहुत हर्षित हुए और भगवान शिव से बोले-हे देवाधिदेव! भगवन्! आप तो
सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। संसार की सब घटनाएं आपकी इच्छा से ही घटती हैं। आप तो जानते
ही हैं कि ब्रह्माजी द्वारा असुरराज तारक को दिए गए वर के अनुसार शिव पुत्र ही उसका वध
करने में सक्षम होगा। इसलिए ही कुमार कार्तिकेय का जन्म हुआ है। प्रभु! हम लोगों के कष्टों
को दूर करके हमारे जीवन को सुखी करने के लिए आप अपने पुत्र कार्तिकेय को आज्ञा
दीजिए कि वह तारकासुर का वध करे।
यह कहकर सब देवता भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव का हृदय हम
सबकी प्रार्थना से द्रवित हो उठा। उन्होंने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अपने पुत्र
कुमार कार्तिकेय को देवताओं को सौंप दिया। तब भगवान शिव ने अपने पुत्र कार्तिकेय को
यह आज्ञा दी कि देवताओं की विशाल सेना का नेतृत्व करें और देवताओं के दुखों और
संकटों को दूर करने के लिए तारकासुर का वध करें। अपने पिता भगवान शिव की यह आज्ञा
पाकर स्वामी कार्तिकेय बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हाथ जोड़कर अपनी माता पार्वती और
पिता महादेव जी को प्रणाम किया और कहा कि हे माता! हे पिता! आप मुझे विजयी होने
का आशीर्वाद प्रदान करें। यह सुनकर भगवान शिव मुस्कुराए और बोले_कुमार! निश्चय ही
तुम अपने इस प्रथम युद्ध में अपने घोर शत्रु तारकासुर का वध करके विजयी होगे। हमारा
आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।
इधर देवी पार्वती के हृदय में अपने प्रिय पुत्र के युद्ध में जाने की बात सुनकर ही पीड़ा होने
लगी। वात्सल्य के कारण उनकी आंखों में आंसू आ गए थे। वे बहुत दुखी हुई और कहने
लगीं-हे नाथ! हे देवाधिदेव! मेरा पुत्र कार्तिकेय अभी बहुत छोटा है और वह तारकासुर
महाबलशाली और शक्तिशाली है। उस दुष्ट ने अपनी दुष्टता से सभी देवताओं को भी परास्त
कर दिया है। जब इतनी शक्तियों के स्वामी देवता उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके तो मेरा यह
नन्हा-सा पुत्र भला कैसे उसको हरा सकता है। मेरा दिल मुझे कार्तिकेय को युद्ध में भेजने की
आज्ञा नहीं देता है। मैं अपने पुत्र को अपने साथ रखना चाहती हूं। यह वचन सुनकर सभी
देवताओं सहित भगवान शिव भी चिंतित हो गए। तब महादेव जी देवी पार्वती को समझाते
हुए बोले-हे देवी! हे शिवा! आप सामान्य स्त्रियों की तरह क्यों व्यवहार कर रही हैं? यह
मेरा और आपका पुत्र होने के कारण महाशक्तिशाली और वीर योद्धा है। देवताओं ने इसे
अपनी अभीष्ट शक्तियां प्रदान की हैं। कार्तिकेय की जीत निश्चित है। कार्तिकेय का उत्पन्न
होना तारकासुर के वध का प्रतीक है। आप व्यर्थ में चिंतित न हों और अपने पुत्र को खुशी-
खुशी तारक के वध के लिए भेजें। भगवान शिव के ऐसे वचन सुनकर देवी पार्वती को बहुत
संतोष हुआ और उन्होंने कार्तिकेय को युद्ध में जाने की आज्ञा दे दी। तब सब देवताओं का
भय दूर हुआ और उनमें प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।
आठवा अध्याय
युद्ध का आरंभ
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब देवी पार्वती और भगवान शिव ने कुमार कार्तिकेय को युद्ध
का नेतृत्व करने की आज्ञा प्रदान की, तो सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और एकत्र होकर उस
पर्वत की ओर चल दिए। सिंहनाद करते हुए वे आगे बढ़ने लगे। उस समय कार्तिकेय सेना का
नेतृत्व करते हुए सबसे आगे चल रहे थे। सब देवता मन में यही सोच रहे थे कि अब उन्हें
तारकासुर नाम की मुसीबत से छुटकारा मिल जाएगा। जब तारकासुर को इस बात का पता
चला कि देवताओं ने युद्ध की तेयारी पूरी कर ली है, तो तारकासुर ने भी तुरंत युद्ध की
घोषणा कर दी। अपनी विशाल चतुरंगिणी सेना को लेकर तारक भी सिंहनाद करता हुआ
देवताओं की ओर बढ़ने लगा। राक्षसों की सेना देखकर एक पल के लिए देवता घबरा गए।
उसी समय आकाशवाणी हुई-हे देवगणो! तुम लोग भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय के
नेतृत्व में युद्ध करने जा रहे हो। इसलिए तुम जरूर जीतोगे। तारकासुर कार्तिकेय के हाथों
अवश्य मारा जाएगा।
उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवताओं का उत्साह बढ़ गया और उनका डर दूर हो
गया। उस समय 'दुंदुभी' और अनेक प्रकार के बाजों की ध्वनि आकाश में गूंजने लगी। तब
देवता और राक्षस युद्ध करने के लिए पृथ्वी और सागर के संगम पर पहुंचे। दोनों पक्षों में बड़ा
भयानक युद्ध छिड़ गया। युद्ध की भयंकर गर्जना से पृथ्वी भी डोलने लगी। देवताओं की
सेना का नेतृत्व शिवपुत्र कार्तिकेय कर रहे थे। उनके पीछे-पीछे देवराज इंद्र सहित देवताओं
की विशाल सेना थी। कार्तिकेय उस समय दंद्रदेव के ऐरावत हाथी पर विराजमान थे। तब
उन्होंने उस हाथी को छोड़दिया और रत्नों से जड़े सुंदर यान पर बैठ गए। उस सुंदर विमान
पर प्रचेता ने सुंदर छत्र रखा। उस सुंदर विमान में बैठकर कार्तिकेय बहुत निराले और शोभा
संपन्न लग रहे थे।
उसी समय देवताओं और असुरों में भयानक युद्ध प्रारंभ हो गया। पृथ्वी कांपने लगी और
फल भर में खण्ड-मुण्डों में बदलने लगी। हजारों सैनिक, जो पराक्रम से लड़ रहे थे, कट
कटकर और घायल होकर धरती पर गिरने लगे। चारों तरफ खून की नदियां बहने लगी थीं।
ऐसा भयानक दृश्य देखकर बहुत से भूत-प्रेत और गीदड़-गीदड़ी उस मांस को खाने और
खून पीने के लिए वहां आ गए। तभी महाबली तारकासुर ने विशाल सेना सहित देवताओं पर
आक्रमण किया। देवराज इंद्र सहित अनेक देवताओं ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया
परंतु असफल रहे और तारकासुर भयानक गर्जना करता हुआ आगे बढ़ता गया। चारों ओर
भयानक शोर मचा हुआ था। आक्रमण करते समय सैनिक बड़े जोर-जोर से अपने मुंह से
आवाज निकालते हुए आगे बढ़ रहे थे। देवताओं और राक्षसों का युद्ध बड़ा वीभत्स रूप ले
चुका था। वहां भारी कोलाहल मचा हुआ था। तत्पश्चात देवताओं और असुरराज तारक के
राक्षसगण आपस में द्वंद्व युद्ध करने लगे थे। एक-दूसरे को मारकर वे अपने को बहुत
बलशाली समझ रहे थे। वे पूरे बल के साथ एक-दूसरे पर प्रहार करते। कोई किसी के हाथ
तोड़ देता तो कोई पैर। दोनों सेनाएं अपने को पराक्रमी समझ रही थीं।
नवां अध्याय
तारकासुर की वीरता
ब्रह्माजी बोले--नारद! इस प्रकार देवताओं और दानवों में बड़ा विनाशकारी युद्ध होने
लगा। तारकासुर ने अपनी विशेष शक्ति चलाकर इंद्रदेव को घायल कर दिया। इसी प्रकार
दानवों की सेना के वीर और बलवान राक्षसों ने देवताओं की सेना को बहुत नुकसान
पहुंचाया। उन्होंने कई लोकपालों को युद्ध में हरा दिया और देवगणों को मार-मारकर भगाने
लगे। असुर सैनिकों को देवताओं पर हावी होते देखकर असुर खुशी में झूम उठे और भयंकर
गर्जना करने लगे। तब देवताओं की ओर से लड़ रहे वीरभद्र क्रोधित होकर तारकासुर के
निकट पहुंचे। असुरों ने वीरभद्र को चारों ओर से घेर लिया। उन्होंने परस्पर पाश, खड्ग,
फरसा और पट्टिश आदि आयुधों का प्रयोग किया। देवता और असुर आपस में गुत्थम--
गुत्था होकर लड़ने लगे।
तभी देवताओं की ओर से वीरभद्र तारकासुर से लड़ने लगे। वीरभद्र ने पूरी शक्ति से
तारकासुर पर आक्रमण किया और उसको त्रिशूल के प्रहार से घायल कर दिया। घायल
होकर तारक जमीन पर गिर पड़ा परंतु अगले ही पल उसने स्वयं को संभाल लिया और पुनः
खड़े होकर वीरभद्र से युद्ध करने लगा। महाकोतुकी तारक ने भीषण मार से वीरभद्र को
घायल करके वहां से भगा दिया। तत्पश्चात उसने वहां युद्ध कर रहे देवताओं को अपने क्रोध
का निशाना बनाया। तारक देवताओं पर अपने बाणों की बरसात करने लगा। तारकासुर के
इस अनायास बाणों की वर्षा से देवता भयभीत हो गए। तब स्वयं श्रीहरि विष्णु तारकासुर से
लड़ने के लिए आगे आए। श्रीहरि ने गदा से तारकासुर पर ज्यों ही प्रहार किया उसने विशित्व
बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। तब क्रोधित होकर विष्णुजी ने शारंग धनुष उठाया
और तारक को मारने के लिए बढ़े। तभी तारक ने प्रहार करके उन्हें गिरा दिया तो श्रीविष्णु ने
गुस्से से सुदर्शन चक्र चला दिया।
नारद! तब मैंने कुमार कार्तिकेय के पास जाकर उनसे कहा कि मेरे दिए हुए वरदान के
अनुसार तारकासुर का वध आपके श्रीहाथों से ही होगा। इसलिए कोई भी देवता तारक का
कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। यह सुनकर कार्तिकेय रथ से नीचे उतर गए और पैदल ही
तारक को मारने के लिए दौड़े। उनके हाथ में उनकी शक्ति थी, जो लपटों के समान चमकती
हुई उल्का की तरह लग रही थी। छः मुख वाले कुमार कार्तिकेय को देखकर तारकासुर बोला
-—देवताओ! क्या यही बालक है तुम्हारा वीर, पराक्रमी कुमार, जो शत्रुओं का पल में विनाश
कर देता है? यह कहकर तारकासुर जोर से अट्टहास करने लगा और बोला कि इस बालक के
साथ तुम सभी को मार दूंगा। तुम इस बालक की मेरे हाथों हत्या कराओगे। ऐसा बोलते हुए
भयानक गर्जना करता हुआ वह कुमार कार्तिकेय की ओर पलटा और बोला कि हे बालक! ये
मूर्ख देवता तो व्यर्थ में तुझे बलि का बकरा बनाना चाहते हैं। पर मैं इतना कठोर नहीं हूं कि
बिना किसी अपराध के एक मासूम बालक पर वार करूं। इसलिए जा तू भाग जा। मैं तेरे
प्राणों को छोड़ देता हूं।
देवराज इंद्र और भगवान श्रीहरि विष्णु की निंदा करने से तारक द्वारा कमाया गया तपस्या
का सारा पुण्य नष्ट हो गया था। तभी इंद्र ने उस पर वज्र का प्रहार किया, जिससे वह धरती
पर गिर पड़ा। तब कुछ ही देर में तारकासुर पूरे उत्साह के साथ पुनः उठ खड़ा हुआ और
अपने भीषण प्रहार से उसने देवराज इंद्र को घायल कर दिया और उन पर अपने पैर का
प्रहार किया। यह देखकर देवता भयभीत हो गए और इधर-उधर भागने लगे। तभी श्रीहरि
विष्णु ने इस स्थिति को संभालने के लिए तारकासुर पर अपना सुदर्शन चक्र चला दिया। चक्र
ने तारकासुर को धराशायी कर दिया परंतु तारकासुर इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं
था। वह अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः उठकर खड़ा हो गया। तब उसने अपनी प्रचंड शक्ति
हाथ में लेकर भगवान विष्णु को ललकारा और उन्हें अपने भीषण प्रहार से घायल कर दिया।
विष्णुजी मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
वहां का यह दृश्य देखकर सभी देवताओं में कोहराम मच गया। सब अपने प्राणों की रक्षा
करने के लिए इधर-उधर भागने लगे। सारी सेना तितर-बितर होने लगी। यह देख वीरभद्र ने
तारकासुर पर आक्रमण किया। उसने त्रिशूल उठाया और तारकासुर पर वार किया, जिससे
तारकासुर भूमि पर गिर पड़ा, किंतु उसी क्षण उठकर उसने वीरभद्र को अपनी शक्ति से
घायल करके मूर्छित कर दिया और जोर-जोर से हंसने लगा।
दसवा अध्याय
तारकासुर-वध
ब्रह्माजी बोले--नारद! यह सब देखकर कुमार कार्तिकेय को तारकासुर पर बड़ा क्रोध
आया और वे अपने पिता भगवान शिव के श्रीचरणों का स्मरण कर अपने असंख्य गणों को
साथ लेकर तारकासुर को मारने के लिए आगे बढ़े। यह देखकर सभी देवताओं में उत्साह की
एक लहर दौड़ गई और वे प्रसन्न मन से कार्तिकेय की जय-जयकार का उद्घोष करने लगे।
ऋषि-मुनियों ने अपनी वाणी से कुमार कार्तिकेय की स्तुति की। तत्पश्चात तारकासुर और
कार्तिकेय का बड़ा भयानक, दुस्सह युद्ध हुआ। दोनों परमवीर और बलशाली एक-दूसरे पर
भीषण प्रहार करने लगे। दोनों अनेक प्रकार के दांवपेचों का प्रयोग कर रहे थे। कार्तिकेय
और तारकासुर के बीच मंत्रों से भी युद्ध हो रहा था। दोनों अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य का
प्रयोग एक-दूसरे को मारने के लिए कर रहे थे। इस भयानक युद्ध में दोनों ही घायल हो रहे
थे। युद्ध भयानक रूप लेता जा रहा था। उस भीषण युद्ध को सब देवता, गंधर्व बैठकर देखने
लगे। वह अदभुत युद्ध अनायास ही सबके आकर्षण का केंद्र बन गया। हवा चलना भूल गई।
सूर्य की किरणें ठहर गईं। यहां तक कि सभी पर्वत इस युद्ध को देखकर अत्यंत भयभीत हो
उठे। वे शिव-पार्वती के इस पुत्र की रक्षा करने के लिए तुरंत उधर आ गए।
यह देखकर कार्तिकेय बोले-हे पर्वतो! आप कोई चिंता न करें। आज इस महापापी को
मैं सबके सामने मौत के घाट उतारकर भय से मुक्ति दिलाऊंगा। जब कार्तिकेय पर्वतों से बात
करने में निमग्न थे, उसी समय तारक ने अपनी शक्ति हाथ में लेकर उन पर धावा बोल दिया।
उस शक्ति के प्रहार के आघात से शिवपुत्र कार्तिकेय भूमि पर गिर पड़े परंतु अगले ही क्षण वे
अपनी पूरी शक्ति के साथ पुनः उठ खड़े हुए और लड़ने के लिए तैयार हो गए। कार्तिकेय ने
अपने मन में अपने माता-पिता पार्वती जी व भगवान शिव को प्रणाम करके उनका
आशीर्वाद लिया और अपनी प्रबल शक्ति से तारकासुर की छाती पर आघात किया। उसकी
चोट से तारकासुर का शरीर विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। सबके देखते ही देखते वह
महाबली असुर पल भर में ढेर हो गया।
महाबली तारकासुर के मारे जाते ही चारों ओर कार्तिकेय की जय-जयकार गूंज उठी।
तारकासुर के वध से सभी देवता बहुत प्रसन्न थे। तब अपने महाराज तारकासुर को मरा
जानकर असुरों की विशाल सेना में भयानक कोलाहल मच गया। अपने प्राणों की रक्षा करने
के लिए सभी असुर इधर-उधर भाग रहे थे। देवताओं ने मिलकर सभी असुरों को मार
गिराया। कुछ असुर डरकर मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए थे। तो बहुत से दैत्य और राक्षस
हाथ जोड़कर कुमार कार्तिकेय की शरण में आ गए और उनसे क्षमा मांगने लगे। तब कुमार
ने प्रेमपूर्वक उन्हें क्षमा कर दिया और उन दानवों को आदेश दिया कि वे सदैव के लिए पाताल
में चले जाएं।
इस प्रकार तारकासुर के मारे जाने पर उसकी सारी सेना पल भर में नष्ट हो गई। यह
देखकर देवराज इंद्र के साथ-साथ समस्त देवताओं और संसार के प्राणियों में खुशी की लहर
दौड़ पड़ी। पूरा त्रिलोक आनंद में डूब गया। जैसे ही कुमार कार्तिकेय की विजय का समाचार
भगवान शिव-पार्वती के पास पहुंचा वे तुरंत अपने गणों को साथ लेकर युद्ध स्थल पर पधारे।
श्री पार्वती जी ने अपने प्राणप्रिय पुत्र को अपने हृदय से लगा लिया और अपनी गोद में
बिठाकर बहुत देर तक उसे चूमती रहीं। तभी वहां पर पर्वतराज हिमालय भी पहुंच गए और
उन्होंने अपनी पुत्री पार्वती, भगवान शिव और कार्तिकेय की स्तुति की। चारों दिशाओं से उन
पर फूलों की वर्षा होने लगी। मंगल ध्वनि हर ओर गूंजने लगी। हर तरफ उनकी ही जय-
जयकार हो रही थी। देवताओं के स्वामी देवराज इंद्र ने अपने साथी देवताओं के साथ कुमार
कार्तिकेय की हाथ जोड़कर स्तुति की। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती को साथ
लेकर शिवगणों सहित कैलाश पर्वत पर लौट गए।
ग्यारहवां अध्याय
बाणासुर और दैत्य प्रलंब का वध
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब तारकासुर कुमार कार्तिकेय के द्वारा मारा गया तब यह
देखकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित जन साधारण में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।
सभी खुश थे। सभी देवताओं ने मिलकर भक्तिभाव से कार्तिकेय की स्तुति की। तभी क्रौंच
नामक एक पर्वत दुखी होकर कार्तिकेय के पास आया। वह क्रौंच बाणासुर नामक दैत्य द्वारा
सताया गया था। वह कुमार के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और भक्तिभाव से स्वामी
कार्तिकेय की स्तुति करने लगा। तत्पश्चात बोला--हे प्रभो! बाणासुर मुझे बहुत कष्ट दे रहा है,
आप उससे मेरी रक्षा कीजिए। तब कार्तिकेय ने पर्वतराज क्रौंच की स्तुति से प्रसन्न होकर
क्रौंच को सांत्वना दी।
जब पर्वतराज क्रौंच शांत हो गए तब कुमार कार्तिकेय ने उन्हें उनके दुखों और कष्टों से
छुटकारा दिलाने हेतु भगवान शिव का स्मरण करके वहीं से अपनी अदभुत शक्ति का परिचय
देते हुए एक अनोखी शक्ति छोड़ी। इस शक्ति का प्रयोग कुमार कार्तिकेय ने उस दुष्ट राक्षस
बाणासुर पर किया था। तब वह शक्ति दैत्यराज बाणासुर को भस्म करके शीघ्र ही कार्तिकेय
के पास वापिस लौट आई। यह शक्ति जब उनके पास वापस पहुंच गई तब वे क्रौंच से बोले
— हे पर्वतराज क्रौंच! अब आपको बाणासुर नामक दैत्य से डरने की कोई आवश्यकता नहीं
है। मैंने बाणासुर को मारकर तुम्हारी इस परेशानी को सदा-सदा के लिए हल कर दिया है।
अतः अब तुम अपने भय को छोड़कर हमेशा के लिए निर्भय हो जाओ। अब तुम
प्रसन्नतापूर्वक अपने घर की ओर प्रस्थान करो।
बाणासुर के भय से मुक्ति का समाचार पाकर पर्वतराज क्रौंच बहुत प्रसन्न हुआ और उसने
भक्तिभाव से कार्तिकेय की स्तुति की। तत्पश्चात वह उनसे विदा लेकर अपने गृह स्थान की
ओर चल दिया। वहां पहुंचकर क्रौंच ने अपने स्वामी कार्तिकेय की प्रसन्नता के लिए भगवान
शिव के तीन शिवलिंगों की स्थापना की। प्रतिज्ञेश्वर, कपालेश्वर और कुमारेश्वर नामक ये तीन
शिवलिंग विश्व विख्यात हैं और लोगों की आस्था और भक्ति का जीता-जागता उदाहरण हैं।
ये शिवलिंग सिद्धिदायक हैं और सोलह महान ज्योर्तिलिंगों में सम्मिलित हैं।
पर्वतराज क्रंच के अपने स्थान पर वापिस लौट जाने के उपरांत देवताओं के गुरु बृहस्पति
ने कुमार कार्तिकेय से कहा कि कुमार! देवताओं द्वारा आपको शिव-पार्वती की आज्ञा से यहां
महाबली तारकासुर का वध करने के लिए लाया गया था। इस अभीष्ट कार्य की पूर्ति हो चुकी
है। अतः अब आपको कैलाश पर्वत पर लौट जाना चाहिए। गुरु बृहस्पति की बात अभी पूरी
भी नहीं हुई थी कि तभी प्रलंबासुर नामक दैत्य ने बहुत उपद्रव मचाना शुरू कर दिया और
लोगों को कष्ट देना आरंभ कर दिया। तब शेष जी के पुत्र कुमुद दुखी अवस्था में कुमार
कार्तिकेय के पास आए। वहां आकर कुमुद ने कार्तिकेय की स्तुति की और कहा--है प्रभु! मैं
आपकी शरण में आया हूं। है गिरिजापुत्र! मुझे प्रलंबासुर की प्रताड़ना से मुक्ति दिलाइए।
तब कुमार कार्तिकेय ने प्रसन्नतापूर्वक कुमुद को प्रलंबासुर द्वारा दिए गए कष्टों से मुक्ति
दिलाने हेतु अपनी शक्ति द्वारा उसका भी संहार कर दिया। उस प्रलंबासुर को उसके साथियों
सहित मरा जानकर उसके शेष पुत्र कुमुद ने कार्तिकेय की बहुत स्तुति की और अपने निवास
स्थान पाताल को चला गया।
बारहवां अध्याय
कार्तिकेय का कैलाश-गमन
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! इस प्रकार जब कार्तिकेय द्वारा दैत्यराज बाणासुर और
प्रलंबासुर को भस्म कर दिया गया तब सभी देवताओं ने सहर्ष कुमार कार्तिकेय का स्तवन
किया। देवता बोले-हे देव! हम राक्षसराज तारक का वध करने वाले आपको नमस्कार
करते हैं।
हे शंकर नंदन! हे गिरिजापुत्र! आपने बाणासुर और प्रलंबासुर नामक राक्षसों को मारकर
इस त्रिलोक के संकटों को दूर किया है। आपकी भक्ति पवित्र है तथा आपका स्वरूप विचघ्नों
का नाश कर अभय प्रदान करने वाला है। हम सब स्वच्छ मन से आपकी स्तुति करते हैं।
आप हमारी इस स्तुति को स्वीकार करें। कुमार! हम आशा करते हैं कि आप इसी प्रकार
सदैव हमारे कष्टों और संकटों को दूर करने में हमारी सहायता करेंगे।
देवताओं द्वारा की गई इस अनन्य स्तुति को सुनकर कुमार कार्तिकेय का हृदय प्रसन्नता से
खिल उठा। उन्होंने सभी देवताओं को सहर्ष उत्तम वरदान प्रदान किए तथा भविष्य में सदैव
सहायता करने का उन्हें वचन दिया। पर्वतों द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर कार्तिकेय बोले
-—हे भूधरो! आप सदा से उत्तम और श्रेष्ठ हैं। आज से आप सभी साधु-संतों और तपस्या में
लीन रहने वाले साधको द्वारा पूजनीय होंगे। पर्वतों में श्रेष्ठ मेरे नाना हिमालय इन ज्ञानियों
और तपस्वियों के लिए फलदाता सिद्ध होंगे।
श्रीहरि विष्णु बोले—हे कुमार! महाबली तारक का वध करके आपने इस चराचर जगत
को सुखी कर दिया है। अब आप अपना पुत्र होने का कर्तव्य भी निभाएं। अब आपको अपने
माता-पिता भगवान शिव और पार्वती की प्रसन्रता के लिए उनके पास कैलाश पर्वत पर
जाना चाहिए।
तत्पश्चात कुमार सभी देवताओं के साथ दिव्य विमान में बैठकर अपने माता-पिता के पास
कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। वे सब आनंद ध्वनि करते हुए भगवान शिव के पास पहुंचे।
विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति
की। कुमार कार्तिकेय ने भी अपने माता-पिता को सेवा भाव से प्रणाम किया। भगवान शिव
ने प्रसन्नता से अपने पुत्र का मुंह चूम लिया और बहुत स्नेह किया। देवी पार्वती ने कुमार को
अपनी गोद में बिठाकर खूब चूमा। यह देखकर सभी देवता आनंद में मगन होकर शिव-
पार्वती और कार्तिकेय की जय-जयकार करने लगे।
तत्पश्चात सभी देवताओं सहित श्रीहरि विष्णु और मैंने देवाधिदेव शिवजी से जाने की
आज्ञा मांगी और अपने-अपने लोक को चले गए। तब भगवान शिव अपनी प्राणप्रिया देवी
पार्वती और पुत्र कार्तिकेय के साथ आनंदपूर्वक कैलाश पर निवास करने लगे।
तेरहवां अध्याय
पार्वती द्वारा गणेश की उत्पत्ति
सूत जी कहते हैं--कुमार कार्तिकेय के उत्तम चरित को सुनकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए
और प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्माजी से बोले--हे विधाता! आप ज्ञान के अथाह सागर हैं तथा
करुणानिधान भगवान शिव के विषय में सबकुछ जानते हैं। आपने शिवपुत्र स्वामी कार्तिकेय
के अमृतमय चरित को सुनाकर मुझ पर बड़ी कृपा की है। भगवन्! अब मैं विघ्न विनाशक
श्रीगणेश के विषय में जानना चाहता हूं। उनके दिव्य चरित, उनकी उत्पत्ति के विषय में,
सबकुछ सविस्तार बताकर मुझे कृतार्थ कीजिए।
मुनिश्रेष्ठ नारद के ये उत्तम वचन सुनकर ब्रह्माजी हर्षपूर्वक बोले-नारद! तुम गणेश
उत्पत्ति की कथा सुनना चाहते हो। अतएव तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं तुम्हें उनके जन्म के
विषय में बताता हूं। एक बार की बात है। देवी पार्वती की दो सखियां जया और विजया, जो
सदा से ही उनके पास रहती थीं, उनके पास आई और बोलीं-हे सखी! यहां कैलाश पर्वत
पर भगवान शिव के असंख्य गण हैं। वे सदा भगवान शिव की आज्ञा का प्रसन्नता से पालन
करते हैं। वे सदा भगवान शिव की आज्ञा को ही सर्वोपरि मानते हैं। इसलिए आपको भी
अपने लिए किसी एक विशेष ऐसे गण की रचना करनी चाहिए, जिसके लिए आपकी ही
आज्ञा सर्वोच्च हो और वह किसी अन्य के सामने न झुके। अपनी सखियों की बात यद्यपि
पार्वती को एक बार को अच्छी लगी परंतु अगले ही पल वे बोलीं कि भला मुझमें और मेरे
पति में कया भेद है? हम दोनों एक ही हैं और सभी शिवगण मुझमें और सदाशिव में कोई
अंतर नहीं समझते। वे हम दोनों की ही आज्ञाओं का सदा पालन करते हैं।
जी के ये वचन सुनकर उनकी सखियां आगे कुछ नहीं बोलीं और वहां से चली
गई। एक दिन की बात है, देवी पार्वती अपने कक्ष में स्नान कर रही थीं। वे नंदी को द्वारपाल
बनाकर द्वार पर बैठाकर गई थीं। तभी कक्ष में भगवान शिव का प्रवेश हो गया क्योंकि नंदी
अपने आराध्य शिव को अंदर आने से रोक न पाए। देवी पार्वती को उस समय बड़ी लज्जा
महसूस हुई। इस घटना के उपरांत पार्वती को अपनी सखियों द्वारा दिए गए सुझाव का
स्मरण हुआ।
तब उन्होंने सोचा कि मेरा भी कोई ऐसा सेवक होना चाहिए जो कार्यकुशल हो और मेरी
आज्ञा का सदैव पालन करे। अपने कर्तव्य से कभी भी विचलित न हो। ऐसा विचार करके
उन्होंने अपने शरीर के मैल से शुभ लक्षणों से युक्त उत्तम बालक की रचना की। वह बालक
शोभा संपन्न, महाबली, पराक्रमी और सुंदर था। पार्वती जी ने उसे सुंदर वस्त्र और आभूषणों
से विभूषित करके उसे अनेक आशीर्वाद दिए। पार्वती ने कहा कि तुम मेरे पुत्र हो। तुम्हारा
नाम गणेश है।
पार्वती जी के ये वचन सुनकर वह तेजस्वी बालक गणेश बोला-हे माता! हे जननी!
आज आपने मुझे इस जगत में उत्पन्न किया है। आज से मैं आपका पुत्र हूं। मैं आपको
बारंबार नमस्कार करता हूं। मेरे लिए अब क्या कार्य है? बताइए, मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा।
तब देवी पार्वती बोलीं--हे पुत्र गणेश! आज से तुम मेरे द्वारपाल बन जाओ। मेरी यह
आज्ञा है कि मेरे महल में कोई मेरी अनुमति के बिना प्रविष्ट न हो। कोई कितना भी हठ क्यों
न करे, तुम उसे अंदर नहीं आने देना। यह कहकर पार्वती ने एक छड़ी गणेश के हाथ में
पकड़ा दी और प्रेमपूर्वक उनका मुख चूमकर अंदर स्नान करने के लिए चली गई।
गणेश सजगता से हाथ में छड़ी लेकर महल के द्वार पर पहरा देने लगे। उसी समय
भगवान शिव देवी पार्वती से मिलने की इच्छा लेकर महल में आ गए। जब वे द्वार पर पहुंचे
तो गणेश ने उनसे कहा-हे देव! इस समय मेरी माता अंदर स्नान कर रही हैं। अतः आप
यहां से चले जाएं तथा बाद में आएं। यह कहकर उन्होंने भगवान शिव के सामने छड़ी अड़ा
दी। चूँकि गणेश जी ने भगवान शिव को पहले कभी नहीं देखा था इसलिए उन्हें वे नहीं
पहचान सके।
यह देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया और वे बोले औओ मूर्ख! तू मुझको अंदर
जाने से रोक रहा है। तू नहीं जानता कि मैं कौन हूं? मैं शिव हूं। मैं ही पार्वती का पति हूं और
अपने ही घर में जा रहा हूं। यह कहकर जैसे ही भगवान शिव आगे बढ़े, गणेश जी ने उन पर
छड़ी से प्रहार कर दिया। यह देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने गणों को
गणेश को वहां से हटाने की आज्ञा दी और स्वयं बाहर खड़े हो गए।
चौदहवां अध्याय
शिवगणों का गणेश से विवाद
ब्रह्माजी बोले--नारद! शिवगण अपने प्रभु भगवान शिव की आज्ञा पाकर द्वार पर पहुंचे
और द्वारपाल बने श्रीगणेश को वहां से हट जाने के लिए कहा। परंतु जब गणेश ने हटने से
साफ इनकार कर दिया और शिवगणों को डांटा-फटकारा तो वे भी गणेश से लड़ने लगे और
बोले--ओ मूर्ख बालक! अगर तू अपने प्राणों की रक्षा करना चाहता है तो अभी और इसी
वक्त महल के द्वार को छोड़कर यहां से चला जा अन्यथा दंड पाने के लिए तैयार हो जा।
यह देखकर गणेश को क्रोध आ गया और वे कठोरतापूर्वक शिवगणों से बोले कि तुम इसी
समय यहां से दूर चले जाओ वरना मेरे क्रोध को भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। गणेश की
बातें सुनकर शिवगण हंसने लगे, फिर द्वारपाल श्री गणेश को डांटते हुए बोले--मूर्ख हम
भगवान शिव के गण हैं और उनकी आज्ञा से ही तुम्हें यहां से हटने के लिए कह रहे हैं। अब
तक तुम्हें बालक समझकर हम छोड़ रहे थे, परंतु तुम तो बहुत ही हठी बालक हो, जो मानने
को बिलकुल भी तैयार नहीं हो। अभी भी कहते हैं कि शीघ्र ही यहां से हट जाओ अन्यथा
मार दिए जाओगे। शिवगणों के इन वाक्यों को सुनकर गणेश जी अत्यंत क्रोधित हो गए।
उन्होंने शिवगणों को डांटा और धमकाकर वहां से भगा दिया। उनके इस प्रकार डांटने से
शिवगण भयभीत होकर वहां से भागकर भगवान शिव के पास वापस आ गए। वहां जाकर
उन शिवगणों ने अपने स्वामी भगवान शिव को जाकर सारी बातें बता दीं। यह सुनकर
भगवान शिव ने क्रोधित होकर श्री गणेश को द्वार से हटाने का आदेश अपने गणों को दिया।
शिवगण पुनः द्वार पर पहुंचे और गणेश को हटने के लिए कहने लगे परंतु गणेश ने वहां से
हटने से साफ इनकार कर दिया। गणेश निर्भय होकर उन गणों से बोले कि मैं पार्वती का पुत्र
हूं और तुम भगवान शिव के गण हो। हम दोनों ही अपनी-अपनी जगह अपने-अपने कर्तव्य
का पालन कर रहे हैं। तुम शिवजी की आज्ञा मानकर मुझे द्वार से हटाना चाहते हो, परंतु मैं
अपनी माता की आज्ञा मानते हुए उनकी बिना आज्ञा प्राप्त किए किसी को भी इस द्वार से
प्रवेश करने की आज्ञा नहीं दे सकता। अतः मुझसे बार-बार द्वार से हटने के लिए न कहो और
जाकर अपने आराध्य स्वामी को इसकी सूचना दे दो। तब शिवगण भगवान शिव के पास गए
और उन्हें सब बातों से अवगत करा दिया। भगवान शिव तो महान लीलाधारी हैं। उनकी बातों
को समझ पाना अत्यंत कठिन है। यह सुनकर उन्होंने अपने गणों से कहा कि वह छोटा-सा
बालक अकेला तुम्हें डरा रहा है और तुम इतनी अधिक संख्या में होकर भी उससे डर रहे हो।
जाओ, जाकर उससे युद्ध करो और उसे बंदी बनाकर द्वार के सामने से हटाकर ही मेरे सामने
आना।
पंद्रहवां अध्याय
शिवगणों से गणेश का युद्ध
ब्रह्माजी बोले--नारद! जब भगवान शिव ने इस प्रकार अपने गणों को आज्ञा दी कि वे
द्वार पर खड़े उस गण को किसी भी प्रकार से हटा दे, तब शिवगण निर्भय होकर पुनः महल
के द्वार पर आ खड़े हुए। उन्हें देखकर गणेश जी हंसने लगे और बोले कि तुम फिर से आ
गए। तुम्हें मैंने अभी समझाया था कि मैं यहां से हटने वाला नहीं हूं। मेरी माता पार्वती ने मुझे
इसीलिए ही उत्पन्न किया है ताकि मैं उनकी हर आज्ञा का पालन कर सकूं। मेरे लिए उनकी
आज्ञा ही सर्वश्रेष्ठ है। उनकी अवज्ञा मेरे वश में नहीं है। तुम ऐसे ही बार-बार मुझे परेशान
करने के लिए यहां अउा रहे हो।
तब शिवगण बोले-अरे मूर्ख! अबकी बार हम तुमसे विनम्रता से कहने नहीं आए हैं
क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। अब हम तुम्हें तुम्हारी धृष्टता के लिए दंड देने आए
हैं। यह कहकर सभी शिवगण, जो कि विभिन्न प्रकार के आयुधों से विभूषित थे, गणेश पर
टूट पड़े। गणेश और शिवगणों में बहुत भयानक युद्ध होने लगा परंतु गणेश के साहस और
पराक्रम को देखकर सभी शिवगणों के होश उड़ गए। शिवजी का कोई भी गण गणेश को
परास्त नहीं कर सका। गणेश ने अकेले ही अनेकों शिवगणों को मार-मारकर घायल कर
दिया और वहां से भागने को विवश कर दिया। तत्पश्चात पुनः महल के द्वार पर डटकर खड़े
हो गए। तब सब शिवगण घायल अवस्था में शिवजी के पास पहुंचे और उन्हें सारी बातें कह
सुनाई।
हे नारद! तभी मैं और श्रीहरि भी भगवान शिव के दर्शनों के लिए कैलाश पर पहुंचे। वहां
हमने भगवान शिव को इस प्रकार चिंतित देखकर उनकी परेशानी का कारण पूछा। तब
शिवजी ने कहा-हे विधाता! हे विष्णो! मेरे महल के द्वार पर एक बालक हाथ में छड़ी लेकर
खड़ा है और वह मुझे महल के भीतर नहीं जाने दे रहा है। अतः मैं यहां खड़ा हूं। उसने मेरे
गणों को भी मार-पीटकर वहां से भगा दिया है। ब्रह्माजी! आप जाकर उस बालक को
समझाएं। तब मैं भगवान शिव की आज्ञा से गणेश को समझाने के लिए गया। मुझे वहां
आया देखकर गणेश जी का क्रोध और बढ़ गया और वे मुझे मारने के लिए दीड़े। उन्होंने मेरी
दाढ़ी-मूंछे नोच डालीं और मेरे साथ गए गणों को प्रताड़ित करने लगे। यह देखकर मैं वहां से
लौट आया।
भगवान शिव को मैंने सारी घटना बता दी। यह सुनकर उन्हें बहुत क्रोध आया। तब
शिवजी ने इंद्र सहित सभी देवताओं, भूतों-प्रेतों को गणेश जी को द्वार से हटाने के लिए भेजा
परंतु यह सब व्यर्थ हो गया। गणेश ने सबको मार-पीटकर वहां से भगा दिया। उस छोटे से
बालक ने देवताओं की विशाल सेना के छक्के छुड़ाकर रख दिए। जब इस बात की सूचना
महादेव जी को मिली तो वे बहुत क्रोधित हुए और स्वयं ही गणेश को दंडित करने के लिए
चल दिए।
सोलहवां अध्याय
गणेशजी का शिरोच्छेदन
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार जब सभी शिवगण, देवता और भूत-प्रेत उस
बालक द्वारा परास्त हो गए तो स्वयं भगवान शिव उस बालक को दंड देने के लिए चल दिए।
वहां गणेश ने अपनी माता के चरणों का स्मरण करके भगवान शिव से युद्ध करना आरंभ
किया। एक छोटे से बालक को इस प्रकार निर्भयतापूर्वक युद्ध करते देखकर भगवान शिव
आश्चर्यचकित रह गए। इतना वीर, पराक्रमी और साहसी बालक देखकर शिवजी को एक पल
अच्छा लगा, परंतु तभी अगले पल उन्हें उस बालक की धृष्टता का स्मरण हो आया। उस
बालक ने उनके प्रिय भक्तों और गणों सहित देवराज इंद्र व मुझे भी प्रताड़ित किया था।
भगवान शिव क्रोध के वशीभूत होकर गणेश से युद्ध करने लगे।
उन्होंने अपने हाथ में धनुष उठा लिया। भगवान शिव को इस प्रकार अपने निकट आते
देखकर गणेश ने अपनी माता पार्वती का स्मरण करके भगवान शिव पर अपनी शक्ति से
प्रहार कर दिया। गणेश के प्रहार से शिवजी के हाथ का धनुष टूटकर गिर गया। तब उन्होंने
पिनाक उठा लिया परंतु गणेश ने उसे भी गिरा दिया। यह देखकर शिवजी का क्रोध सातवें
आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने त्रिशूल उठा लिया। अब तो गणेश और त्रिलोकीनाथ
भगवान शिव के बीच अत्यंत भयानक युद्ध छिड़ गया।
भगवान शिव तो सर्वेश्वर हैं। सब देवताओं में श्रेष्ठ और लीलाधारी हैं। उनकी माया को
समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। वे महान वीर और पराक्रमी हैं। उनकी शक्ति
को ललकारना स्वयं अपनी मृत्यु को बुलावा देने जैसा है परंतु गणेश भी यह न समझ सके।
अपनी माता का आशीर्वाद पाकर गणेश ने अपने को अजेय जानकर पूरे पराक्रम से युद्ध
किया। दोनों में भीषण युद्ध चलता रहा। सभी देवताओं और शिवगणों के साथ मीं भी उनका
वह युद्ध विस्मित होकर देखता रहा। जब गणेश किसी भी तरह से अपने हठ से पीछे हटने
को तैयार न हुए, तो भगवान शिव के क्रोध की सारी सीमाएं टूट गई और उन्होंने अपने त्रिशूल
से श्री गणेश का सिर काट दिया।
सत्रहवा अध्याय
पार्वती का क्रोध एवं गणेश को जीवनदान
नारद जी बोले--हे ब्रह्माजी! जब भगवान शिव ने क्रोधित होकर देवी पार्वती के प्रिय पुत्र
गणेश का सिर काट दिया, तब फिर क्या हुआ? जब देवी पार्वती को गणेश की मृत्यु की
सूचना मिली तो उन्होंने क्या किया? भगवन्! मुझ पर कृपा कर मुझे आगे के वृत्तांत के बारे
में बताइए।
नारद जी के इस प्रकार प्रश्न करने पर ब्रह्माजी मुस्कुराए और बोले-नारद! जैसे ही
भगवान शिव ने क्रोधवश उस बालक का सिर काटकर उसे मौत के घाट उतारा, वैसे ही वहां
खड़े सभी शिवगणों की प्रसन्नता देखते ही बनती थी। उन सभी ने खुश होकर गाजे-बाजे
बजाए और वहां बहुत बड़ा उत्सव होने लगा। सब मस्त होकर नाचने लगे। भगवान शिव की
चारों ओर जय-जयकार होने लगी।
दूसरी ओर जब पार्वती स्नान कर चुकीं तो उन्होंने अपनी सखी को बाहर भेजा कि वह
गणेश को अंदर बुला ले। और जब वह बाहर गई तो उसने वहां का जो हाल देखा उसे
देखकर भयभीत हो गई। गणेश का सिर कटा हुआ अलग पड़ा था और धड़ अलग। सब
देवता और शिवगण प्रसन्न होकर नृत्य कर रहे थे। यह दृश्य देखकर पार्वती की वह सखी
भागी-भागी भीतर गई और जाकर पार्वती को इन सब बातों से अवगत कराया।
अपने पुत्र गणेश की मृत्यु का समाचार पाते ही देवी पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गईं। उन्होंने
रोना आरंभ कर दिया। रोते-बिलखते वे कहतीं-हाय मीं क्या करूं? कहां जाऊं? मीं तो अपने
पुत्र की रक्षा भी न कर सकी। सब देवताओं और शिवगणों ने मिलकर मेरे प्यारे पुत्र को मौत
के घाट उतार दिया। अब मैं भी अपने पुत्र का संहार करने वालों का विनाश करके रहूंगी। मैं
प्रलय मचा दूंगी। यह कहकर उन्होंने सौ हजार शक्तियों की रचना कर दी और देखते ही
देखते वहां मां जगदंबा की विशाल सेना इकटूठी हो गई। वे शक्तियां प्रकट होते ही हाथ
जोड़कर पार्वती को प्रणाम करते हुए बोलीं-हे माता! हे देवी! हम सबको इस प्रकार प्रकट
करने का कया कारण है? हमें आज्ञा दीजिए कि हम क्या करें?
तब क्रोध से तमतमाती देवी पार्वती बोलीं तुम सब जाकर मेरे पुत्र का वध करने वालों
का नाश कर दो। तुम देवसेना में प्रलय मचा दो। आज्ञा पाते ही देवी पार्वती की वह
शक्तिशाली सेना वहां से चली गई। बाहर जाकर उसने देवताओं और शिवगणों पर आक्रमण
कर दिया। वे क्रोधित देवियां किन्हीं देवताओं को पकड़-पकड़कर अपने मुंह में डाल लेतीं तो
किसी पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करतीं। इस प्रकार उन्होंने वहां बहुत आतंक मचाया। वहां
चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। लोग अपनी जान बचाने के लिए जहां-तहां भागने लगे।
यह नजारा देखकर भगवान शिव, मैं और श्रीहरि विष्णु बहुत चिंतित हुए। हमने सोचा कि
अगर इन दैवीय शक्तियों को न रोका गया तो पल भर में ही देवताओं की समाप्ति हो जाएगी।
इस धरा पर प्रलय आ जाएगी। सब सोचने लगे कि इस विनाशलीला को कैसे रोका जा
सकता है? नारद, उसी समय तुम आकर कहने लगे कि इस संहार को देवी पार्वती ही रोक
सकती हैं। इसके लिए आवश्यक है कि उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया जाए और
किसी भी तरह उनके क्रोध को शांत किया जाए। सभी देवताओं को तुम्हारा यह विचार बहुत
पसंद आया परंतु देवी पार्वती के गुस्से से सभी घबरा रहे थे। उनके सामने जाने का साहस
किसी में भी नहीं था। सबने तुम्हें आगे कर दिया। हम सब महल के भीतर पार्वती के पास
गए। सब देवता मिलकर देवी की स्तुति करने लगे और बोले--हे जगदंबे! हे चण्डिके! हम
सब आपको प्रणाम करते हैं। आप आदिशक्ति हैं। आप परम शक्तिशाली हैं। आपने ही इस
जगत की रचना की है। आप ही प्रकृति हैं। आप प्रसन्न होने पर मनोवांछित फलों को देती हैं
जबकि क्रोधित होने पर सबकुछ छीन लेती हैं। हे देवी! हम सब अपने अपराध के लिए
आपसे क्षमायाचना करते हैं। हम सबके अपराध को क्षमा कर दो और अपने क्रोध को शांत
करो। हे महामाई! हम तुम्हारे चरणों में अपना शीश झुकाते हैं। हे माता! हम पर अपनी
कृपादृष्टि करो। हे परमेश्वरी! सबकुछ भूलकर प्रसन्न हो जाओ और भयानक रक्तपात को
रोक दो।
इस प्रकार देवताओं की स्तुति सुनकर देवी चुप रहीं। कुछ समय सोचकर बोलीं-हे
देवताओ! वैसे तो तुम्हारा अपराध सर्वथा अक्षम्य है। फिर भी तुम्हारी क्षमा याचना को मैं
सिर्फ एक शर्त पर स्वीकार कर सकती हूं। यदि मेरा पुत्र गणेश पहले की भांति जीवित हो
जाए तो मैं तुम सबको क्षमा कर दूंगी। यह सुनकर सब देवता चुप हो गए क्योंकि यह तो
असंभव कार्य था। फिर सभी देवता हाथ जोड़कर करुण अवस्था में भगवान शिव के सामने
खड़े हो गए और बोले-भगवन्! अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। जिस प्रकार आपने
गणेश का सिर काटकर उसे मारा है, उसी प्रकार अब उसे जीवित कर दीजिए। देवताओं को
प्रार्थना सुनकर भगवान शिव बोले कि देवताओ, तुम परेशान मत होओ। मैं वही कार्य
करूंगा, जिससे तुम्हारा मंगल हो।
भगवान शिव ने देवताओं को आदेश दिया कि उत्तर दिशा में जाएं और जो भी पहला
प्राणी मिले उसका सिर काटकर ले आएं। तब उसका सिर हम गणेश के धड़ से जोड़कर उसे
जीवित कर देंगे। देवता उत्तर दिशा की ओर चल दिए। वहां सर्वप्रथम उन्हें एक दांत वाला
हाथी मिला, वे उसका सिर काटकर ले आए। वहां महल के द्वार पर वापस आकर उन्होंने
गणेश के धड़ को धो-पोंछकर साफ किया और उसकी पूजा की तब उसमें हाथी का सिर
लगा दिया। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु ने भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए मंत्रों से
अभिमंत्रित जल गणेश के मृत शरीर पर छिड़का। जल के छींटे पड़ते ही भगवान शिव की
कृपा से वह बालक ऐसे उठ खड़ा हुआ जैसे अभी-अभी नींद से जागा हो। वह बालक अब
हाथी का मुख लग जाने से गजमुखी हो गया था परंतु फिर भी बहुत सुंदर और दिव्य लग रहा
था। रक्तवर्ण का वह बालक अद्भुत शोभा से आलोकित हो रहा था।
जब भगवान शिव की कृपा से पार्वती पुत्र गणेश जीवित हो गया तो सभी देवता और
शिवगण अत्यंत प्रसन्न होकर नृत्य करने लगे। उनका सारा दुख पल भर में ही दूर हो गया।
देवी पार्वती अपने प्रिय पुत्र गणेश को जीवित देखकर बहुत प्रसन्न हुईं। उनका क्रोध भी शांत
हो गया था।
अट्टारहवां अध्याय
गणेश गौरव
नारद जी बोले--हे विधाता! जब भगवान शिव की कृपा से पार्वती पुत्र गणेश पुनः
जीवित हो गए, तब वहां क्या हुआ? जीवित होकर उन्होंने क्या कहा? नारद जी का यह प्रश्न
सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब श्रीहरि विष्णु ने हाथी का मस्तक गणेश के धड़ से
जोड़कर उसे जीवित कर दिया तब यह देखकर देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने गणेश
को बांहों में भरकर गले से लगा लिया और उसे चूमने लगीं। फिर उन्होंने गणेश को सुंदर व
मनोहर वस्त्रों एवं रत्नजडित आभूषणों से सजाया। अनेक सिद्धियों एवं मंत्रों से विधिपूर्वक
अपने पुत्र का पूजन करने के बाद कल्याणमयी पार्वती ने गणेश के सिर पर हाथ रखकर
वरदान देते हुए कहा--ऐ मेरे प्यारे पुत्र गणेश! तुझे तेरी माता की आज्ञा से बहुत कष्ट सहना
पड़ा परंतु आज के बाद तुझे कभी भी किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होगा। सभी देवता
तुझे पूजेंगे। पुत्र! तुम्हारे मस्तक पर सिंदूरी रंग की आभा है, इसलिए तुम्हारा पूजन सदैव
सिंदूर से किया जाएगा। जो भी सिद्धियों और अभीष्ट फलों को प्राप्त करने के लिए तुम्हारा
पूजन सिंदूर से करेगा, उसके काम में आने वाली सभी बाधाएं और विघ्न दूर हो जाएंगे।
इस प्रकार जब देवी पार्वती ने गणेश पर अपने आशीर्वादों की कृपा की, तब भगवान शिव
भी प्रसन्रतापूर्वक गणेश के सिर पर हाथ फेरने लगे। माता पार्वती ने प्रसन्रतापूर्वक पहले
भगवान शिव को देखा, फिर श्रीगणेश को संबोधित करती हुई बोलीं-पुत्र! ये ही तुम्हारे
पिता भगवान शिव हैं। तब गणेशजी तुरंत उठ खड़े हुए और भगवान शिव के चरणों पर
गिरकर अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे। गणेश ने कहा-हे पिताजी! मैं अज्ञानतावश
आपको पहचान नहीं सका, इसी कारण मैंने आपको घर के भीतर नहीं जाने दिया था। हे
प्रभु, आप मेरी इस मूर्खता को कृपा करके क्षमा कर दें।
अपने पुत्र गणेश को इस प्रकार क्षमायाचना करते देखकर भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक
उन्हें क्षमा कर दिया। तब मैं, विष्णुजी और शिवजी त्रिदेवों ने कहा-जिस प्रकार इस संसार
में हम तीनों देवों की पूजा होती है उसी प्रकार गणेश भी सभी के द्वारा पूज्य होंगे। किसी भी
मांगलिक कार्य में सर्वप्रथम गणेश का पूजन किया जाएगा, तत्पश्चात हम सबका। यदि ऐसा
न किया गया तो पूजा सफल नहीं मानी जाएगी तथा पूजा का फल भी नहीं मिलेगा। तब
शिवजी ने सभी मांगलिक पूजन वस्तुएं मंगाकर गणेश का पूजन किया। उसके बाद मैंने,
विष्णुजी, पार्वती और अन्य देवताओं ने भी उनकी विधि-विधान से पूजा की। उसके उपरांत
सभी देवताओं ने उन्हें यथायोग्य वरदान प्रदान किए। उसी दिन से गणेशजी को अग्रपूजा का
आशीर्वाद मिला।
उन्नीसवां अध्याय
गणेश चतुर्थी व्रत का वर्णन
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार गणेश जी के जीवित होने पर सब ओर
आनंद छा गया। सभी बहुत प्रसन्न थे। सभी देवता उन्हें विभिन्न प्रकार के वरदान प्रदान कर
रहे थे। तब ईश्वरों के ईश्वर महादेव जी भी गणेश पर अपनी विशेष कृपादृष्टि बनाकर बोले
हे गिरिजानंदन! तुम मेरे दूसरे पुत्र हो। तुम्हें न पहचानने के कारण तुम्हारा यहां अपमान हुआ
है। इसलिए मेरे भक्तों ने तुम पर आक्रमण किया परंतु आज से कोई भी तुम्हारा विरोध नहीं
करेगा। तुम सभी के पूजनीय और वंदनीय होगे। तुम साक्षात् जगदंबा के तेज से उत्पन्न होने
के कारण परम तेजस्वी और पराक्रमी हो। तुम्हारी वीरता और साहस का लोहा इस संसार में
हर प्राणी मानेगा। आज से तुम मेरे सभी शिवगणों के अध्यक्ष हो। ये सभी तुम्हारे आदेशों का
ही पालन करेंगे। आज से तुम गणपति नाम से भी जाने जाओगे। यह कहकर सर्वेश्वर
भगवान शिव दो पल के लिए मौन हुए फिर बोले-हे गणपति! तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास
के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को देवी पार्वती के निर्मल हृदय से चंद्रमा के उदय के समय
हुआ है। इसलिए आज से इस दिन जो भी पूरी भक्तिभावना से तुम्हारा स्मरण करके व्रत
करेगा उसे समस्त सुखों की प्राप्ति होगी। मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी के दिन
सुबह स्नान करके व्रत रखें। धातु, मूंगे या मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करें।
तत्पश्चात मूर्ति की दिव्य गंधों, चंदन एवं सुगंधित फूलों से पूजा करें। रात्रि में बारह अंगुल
लंबी तीन गांठ वाली एक सौ एक दूर्वाओं से पूजन करना चाहिए। उसके बाद धूप, दीप
नेवेद्य, तांबूल, अर्घ्य देकर गणेशजी की पूजा करें। बाद में बाल चंद्रमा का पूजन करें। फिर
ब्राह्मणों को उत्तम भोजन कराएं। स्वयं बिना नमक का ही खाना खाएं। इस प्रकार इस उत्तम
गणेश चतुर्थी व्रत को करें।
जब व्रत करते-करते एक वर्ष पूरा हो जाए तब भक्तिभावना से इस व्रत का उद्यापन करना
चाहिए। उद्यापन में बारह ब्राह्मणों को भोजन कराएं। व्रत का उद्यापन करते समय पहले से
स्थापित कलश के ऊपर गणेश की मूर्ति रखें। वेदी तैयार कर उस पर अष्टदल कमल बनाकर
हवन करें। तत्पश्चात मूर्ति के सामने दो स्त्रियों व दो बालकों को बिठाकर उनकी विधि-विधान
से पूजा करें। फिर उन्हें आदरपूर्वक भोजन कराएं। पूरी रात उनका भक्तिभाव से जागरण
करें। सुबह होने पर गणेशजी का पुन: पूजन करें। पूजन करने के पश्चात उनका विसर्जन कर
दे। फिर बालकों से का आशीर्वाद लेकर उनसे स्वस्ति वाचन कराएं और व्रत को पूर्ण करने
हेतु श्रीगणेश को पुष्प अर्पित करें। तत्पश्चात भक्तिभाव से दोनों हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार
करें।
हे गणेश! इस प्रकार जो श्रद्धापूर्वक उत्तम भक्तिभाव के साथ तुम्हारी शरण में आएगा
और तुम्हें रोज पूजेगा, उसके सभी कार्य सफल हो जाएंगे तथा उसे सभी अभीष्ट फलों की
प्राप्ति होगी। गणेश का पूजन सच्चे मन से सिंदूर, चंदन, चावल और केतकी के फूलों से
करने वाले के सभी विघ्नों और क्लेशों का नाश हो जाएगा। उस मनुष्य के अभीष्ट कार्य
अवश्य ही सिद्ध होंगे। यह गणेश चतुर्थी व्रत सभी स्त्री एवं पुरुषों के लिए श्रेष्ठ है। विशेषतः
जो मनुष्य अभ्युदय की इच्छा रखते हैं, उन्हें उत्तम भक्तिभावना से इस व्रत को अवश्य करना
चाहिए क्योंकि गणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले मनुष्य की सभी इच्छाएं और कामनाएं पूरी
होती हैं। इसलिए सभी मनुष्यों को इस श्रेष्ठ व्रत को पूरा करना चाहिए तथा सदैव तुम्हारी
भक्तिभाव से आराधना करनी चाहिए। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने पुत्र
गणेश को सभी मनुष्यों तथा देवताओं द्वारा पूजित होने का उत्तम आशीर्वाद प्रदान किया।
सभी देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव के वचन सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनके आनंद की
कोई सीमा न रही। वे सभी भक्ति रस में डूबकर शिव-पार्वती पुत्र गणपति की आराधना करने
लगे। यह देखकर देवी पार्वती की खुशी की कोई सीमा न रही। वे देवताओं को अपने पुत्र
गणेश का पूजन करते देख मन ही मन भगवान शिव के चरणों का ध्यान करते हुए उनका
धन्यवाद करने लगीं। उनका सारा क्रोध पल भर में ही शांत हो गया था। उस समय सभी
दिशाओं में सुमधुर दुंदुभियां बजने लगीं। अप्सराएं सहर्ष नृत्य करने लगीं। सुंदर, मंगल गान
होने लगे तथा श्रीगणेश जी पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। अपने पुत्र को गणाधीश
बनाए जाने पर माता पार्वती फूली नहीं समा रही थीं। उस समय चारों ओर उत्सव होने लगा।
तत्पश्चात उस समय वहां उपस्थित समस्त देवता और ऋषि-मुनि उस स्थान के निकट गए
जहां भगवान शिव और देवी पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ विराजमान थे। देवताओं और
ऋषियों ने भक्तिभावना से उन्हें नमस्कार किया और उनकी स्तुति करने लगे। फिर शिवजी से
विदा लेकर सब अपने-अपने धामों को चले गए। फिर मैं और श्रीहरि भी उनसे विदा लेकर
अपने लोकों को लौट गए। जो मनुष्य शुद्ध हृदय से सावधान होकर इस परम मंगलकारी
कथा को सुनता है, वह सभी मंगलों का भागीदार हो जाता है। यह गणेश चतुर्थी व्रत की
उत्तम कथा पुत्रहीनों को पुत्र, निर्धनों को धन, रोगियों को आरोग्य, अभागों को सौभाग्य
प्रदान करती है। जिस स्त्री का पति उसे छोड़कर चला गया हो, गणेश की आराधना के प्रभाव
से पुनः उसके पास लौट आता है। दुखों और शोकों में डूबा मनुष्य इस उत्तम कथा को
सुनकर शोक रहित होकर सुखी हो जाता है। जिस मनुष्य के घर में श्रीगणेश की महिमा का
वर्णन करने वाले उत्तम ग्रंथ रहते हैं, उस घर में सदा मंगल होता है। श्रीगणेश की कृपा अपने
भक्तों पर सदा रहती है और वे अपने भक्तों के कार्य में आने वाले सभी विघ्नों का विनाश कर
उसकी सभी मनोकामनाओं को पूरा करते हैं।
बीसवां अध्याय
पृथ्वी परिक्रमा का आदेश, गणेश विवाह व
कार्तिकेय का रुष्ट होना
नारद जी ने पूछा-हे विधाता! आपने मुझे श्रीगणेश के जन्म एवं उनके अदभुत पराक्रम
और साहस के साथ माता पार्वती के द्वार की रक्षा करने का उत्तम वृत्तांत सुनाया। अब मुझे
यह बताइए कि जब भगवान शिव ने गणेश को पुनर्जीवित करके अनेक आशीर्वाद प्रदान
किए, तब उसके पश्चात वहां क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले-है मुनिश्रेष्ठ नारद! तत्पश्चात भगवान शिव-पार्वती अपने दोनों पुत्रों गणेश
और कार्तिकेय के साथ आनंदपूर्वक अपने निवास कैलाश पर्वत पर रहने लगे। शिव-पार्वती
अपने पुत्रों गणेश और कार्तिकेय की बाल लीलाओं को देखकर बहुत प्रसन्न होते और बहुत
लाड़-प्यार करते। वे दोनों अपने माता-पिता की भक्तिभावना से पूजा-अर्चना करते थे,
जिससे शिव-पार्वती बहुत प्रसन्न होते। धीरे-धीरे ऐसी ही लीलाओं के बीच समय बीतता गया
और गणेश व कार्तिकेय युवा हो गए।
तब एक दिन शिव-पार्वती साथ-साथ बैठे हुए आपस में बातचीत कर रहे थे। देवी पार्वती
ने भगवान शिव से कहा कि प्रभु हमारे दोनों ही पुत्र विवाह के योग्य हो गए हैं। अतः हमें अब
दोनों पुत्रों का विवाह कर देना चाहिए। तब दोनों ये विचार करने लगे कि पहले गणेश का
विवाह किया जाए या कार्तिकेय का। जब माता-पिता ने अपनी इच्छा पुत्रों को बताई तो
उनके मन में भी विवाह की इच्छा जाग उठी। दोनों पुत्र विवाह के लिए सहर्ष तैयार हो गए।
तब भगवान शिव अपने पुत्रों से बोले-है पुत्रो! तुम दोनों ही हमारे लिए प्रिय हो परंतु हम
इस असमंजस में हैं कि तुम दोनों में से पहले किसका विवाह किया जाए? इसलिए हमने एक
युक्ति निकाली है। तुम दोनों में से जो भी पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले लौट आएगा,
उसका विवाह पहले किया जाएगा। अपने पिता के ये वचन सुनकर कुमार कार्तिकेय तुरंत
अपने वाहन पर सवार होकर यथाशीघ्र पृथ्वी की परिक्रमा करने हेतु माता-पिता की आज्ञा
लेकर निकल पड़े परंतु श्री गणेश वहीं यथावत खड़े होकर कुछ सोचने लगे। तत्पश्चात उन्होंने
घर के अंदर जाकर स्नान किया और पुनः माता-पिता के पास आए और बोलेआप दोनों
मेरे द्वारा लगाए गए इन आसनों को ग्रहण कीजिए। मैं आप दोनों की परिक्रमा करना चाहता
हूं। तब भगवान शिव और देवी पार्वती ने हर्षपूर्वक आसन ग्रहण कर लिया। शिव-पार्वती के
आसन पर बैठ जाने के पश्चात गणेश ने उन्हें हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम किया और उनकी
विधि-विधान से पूजा-अर्चना की। पूजा करने के बाद उन्होंने भक्तिभाव से उनकी सात बार
परिक्रमा की।
माता-पिता की सात बार परिक्रमा करने के पश्चात गणेश हाथ जोड़कर प्रभु के सामने
खड़े हो गए और उनकी स्तुति करते हुए बोले-आपकी आज्ञा को मैंने पूरा किया। अब आप
यथाशीघ्र मेरा विवाह संपन्न कराएं। यह सुनकर शिव-पार्वती ने गणेश से पृथ्वी की परिक्रमा
कर आने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करने गए
हैं, तुम भी जाओ और उनसे पहले लौट आओ तभी तुम्हारा विवाह पहले हो सकता है।
शिव-शिवा के ये वचन सुनकर गणेश बोलेआप दोनों तो महा बुद्धिमान हैं। आपके ज्ञान
की कोई सीमा नहीं है। आप धर्म और शास्त्रों में पारंगत हैं। मैं तो आपकी आज्ञा के अनुरूप
पृथ्वी की परिक्रमा एक बार नहीं बल्कि सात बार कर आया हूं। यह सुनकर शिव-पार्वती बड़े
आश्चर्यचकित होकर बोले कि है पुत्र! तुम इतनी विशाल सात द्वीप वाली समुद्र, पर्वत और
काननों से युक्त पृथ्वी की परिक्रमा कब कर आए? तुम तो यहां से कहीं गए भी नहीं।
भगवान शिव और देवी पार्वती के इस प्रकार किए गए प्रश्न को सुनकर बुद्धिमान गणेश
जी बोले-मैंने आप दोनों की पूजा करके आपकी सात बार परिक्रमा कर ली है। इस प्रकार
मेरे द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा पूरी हो गई। वेदों में इस बात का वर्णन है कि अपने माता-पिता
की श्रद्धाभाव से पूजा करने के पश्चात उनकी परिक्रमा करने से पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य
फल प्राप्त होता है। माता-पिता के चरणों की धूल ही पुत्र के लिए महान तीर्थ है। वेद शास्त्र
इसको प्रमाणित करते हैं। फिर आप क्यों इस बात को मानने से इनकार कर रहे हैं? हे
पिताश्री! आप तो सर्वेश्वर हैं। निर्गुण, निराकार, परब्रह्म ईश्वर हैं। भला आप कैसे मेरे वचनों
को झुठला सकते हैं? कृपा कर बताइए कि शास्त्रों के अनुसार क्या मैं गलत हूं?
इस प्रकार गणेश जी के वचन सुनकर शिव-पार्वती अत्यंत आश्चर्यचकित हुए। अपने पुत्र
गणेश को वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता जानकर उनकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। तब
मुस्कुराते हुए भगवान शिव-पार्वती बोले--हे प्रिय पुत्र! तुम बलवान और साहसी होने के
साथ-साथ परम बुद्धिमान भी हो। यह सत्य है कि जिसके पास बुद्धिबल है, वही बलशाली
भी है। बिना बुद्धि के बल का प्रयोग भी संभव नहीं होता। बुद्धिहीन मनुष्य संकट में फंस
जाने पर बलशाली होने के बावजूद भी, मुक्त नहीं हो पाता। वेद-शास्त्र और पुराण यही बताते
हैं कि मां-बाप का स्थान सबसे ऊपर होता है। उनके चरणों में ही स्वर्ग है। अपने माता-पिता
की आज्ञा का पालन करना ही पुत्र का एकमात्र धर्म है। उनकी परिक्रमा पृथ्वी की परिक्रमा
से भी बढ़कर है। अतः तुम्हारी बात सर्वथा सत्य है। तुमने कार्तिकेय से पहले ही पृथ्वी की
परिक्रमा पूर्ण कर ली है। अतः हमें तुम्हारा विवाह सबसे पहले और शीघ्र ही करना है।
जब भगवान शिव और पार्वती ने गणेश की बात का समर्थन कर उसे स्वीकार कर लिया
तब गिरिजानंदन प्रसन्न हो गए और अपने माता-पिता को प्रणाम करके वहां से चले गए।
महादेव जी अपनी प्रिया पार्वती जी के साथ बैठकर इस चिंता में डूब गए कि हम विवाह के
लिए वधू की खोज कहां करें? जब वे इस प्रकार विचार कर रहे थे तभी प्रजापति विश्वरूप
कैलाश पर्वत पर पधारे और उन्होंने भक्तिभाव से शिव-शिवा को नमस्कार कर उनकी स्तुति
की। जब महादेव जी ने उनसे कैलाश आगमन का कारण जानना चाहा तब प्रसन्न हृदय से
विश्वरूप जी ने कहा-हे भगवन्! मैं आपके पास अपनी दो पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के
विवाह का प्रस्ताव लेकर आया हूं। प्रभु! सिद्धि और बुद्धि सुंदर और सर्वगुण संपन्न हैं। मैं
उनका विवाह आपके पुत्र से करना चाहता हूं।
प्रजापति विश्वरूप के वचन सुनकर भगवान शिव और देवी पार्वती बहुत हर्षित हुए और
उन्होंने उनका विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। भगवान शिव-शिवा ने अपने प्रिय पुत्र
गणेश का शुभ विवाह सिद्धि-बुद्धि के साथ आनंदपूर्वक संपन्न कराया। इस शुभ अवसर पर
सब देवता हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए। उन्होंने गणेश को सपत्नीक ढेरों आशीर्वाद और
शुभाशीष प्रदान किए और अपने-अपने स्थान पर लौट गए। तत्पश्चात श्रीगणेश अपनी दोनों
पत्नियों के साथ आनंदपूर्वक विहार करने लगे। काफी समय व्यतीत हो जाने के पश्चात उनके
दो पुत्र उत्पन्न हुए। सिद्धि से उत्पन्न पुत्र का नाम 'शुभ' तथा बुद्धि से प्राप्त पुत्र का नाम
'लाभ' रखा गया। इस प्रकार श्रीगणेश अपनी दोनों पत्नियों और पुत्रों के साथ आनंदपूर्वक
रहने लगे।
जब श्रीगणेश को सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हुए काफी समय बीत गया, तब
कुमार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा पूरी करके लौट आए। वे घर पहुंचने ही वाले थे कि रास्ते
में ही उनकी भेंट नारद तुमसे हो गई। तब तुमने कार्तिकेय से कहा कि तुम्हारे माता-पिता ने
तुमसे सौतेला व्यवहार किया है। तुम्हें पृथ्वी की परिक्रमा पर भेजकर तुम्हारे भाई गणेश का
दो सुंदर कन्याओं से विवाह कर दिया है। अब तो उनके दो पुत्र भी हो चुके हैं और वे
आनंदपूर्वक अपना जीवन सुख से बिता रहे हैं। यह तुम्हारे माता-पिता ने अच्छा नहीं किया
है। नारद! तुम्हारी ऐसी बातें सुनकर कार्तिकेय क्रोध में भर गए। वे अत्यंत व्याकुल होकर
अतिशीघ्र घर पहुंचे। क्रोध के कारण उनका मुख लाल हो गया था। कैलाश पर्वत पर
पहुंचकर उन्होंने अपने माता-पिता को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तत्पश्चात उन्होंने अपने
माता-पिता से इस विषय पर अपनी नाराजगी प्रकट की। कार्तिकेय ने कहा कि आप दोनों ने
अपने ही पुत्र को धोखे से यहां से भगा दिया और अपने प्रिय पुत्र गणेश का चुपचाप विवाह
रचा दिया। आप दोनों ने मेरे साथ सौतेले पुत्र जैसा व्यवहार किया है। यदि आप गणेश का ही
विवाह पहले करना चाहते थे, तो मुझसे एक बार कहते, मैं स्वयं अपने भाई गणेश का विवाह
उत्साहपूर्वक आनंद के साथ कराता परंतु आपने छल-कपट का सहारा लिया। आप सिर्फ
एक पुत्र से ही प्यार करते हैं। मेरे होने न होने का आपको कोई फर्क ही नहीं पड़ता। अतः मैं
यहां से हमेशा-हमेशा के लिए जा रहा हूं। अब मैं क्रॉंच पर्वत पर जाकर सदैव तपस्या
करूंगा। यह कहकर कुमार कार्तिकेय वहां से चले गए। भगवान शिव और पार्वती ने उन्हें
समझाना चाहा, पर उन्होंने उनकी बात अनसुनी कर दी।
नारद! उस दिन से स्वामी कार्तिकेय कुमार नाम से प्रसिद्ध हो गए। तब से इन तीनों लोकों
में उनका नाम कुमार कार्तिकेय विख्यात हो गया। कार्तिकेय का नाम पापहारी, शुभकारी,
पुण्यमयी एवं ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रदान करने वाला है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृति नक्षत्र में,
जो भी मनुष्य स्वामी कार्तिकेय के दर्शन अथवा पूजन करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो
जाते है और उसे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। सभी देवता और ऋषिगण भी इस
दिन कार्तिकेय के दर्शनों को जाते हैं। उधर कुमार कार्तिकेय के इस प्रकार नाराज होकर चले
जाने के कारण उनकी माता पार्वती बहुत दुखी थीं। वे शिवजी को साथ लेकर क्रौंच पर्वत पर
गई। उन्हें देखकर कार्तिकेय पहले ही वहां से चले गए। तब भगवान शिव उस उत्तम स्थान
पर, जहां उनके पुत्र कार्तिकेय ने तप किया था, मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग के रूप में
स्थापित हो गए और आज भी देवी पार्वती के साथ विराजमान हैं। उस दिन से शिव-शिवा
दोनों अपने पुत्र कार्तिकेय को ढूंढने के लिए अमावस्या को शिव और पूर्णिमा के दिन पार्वती
जी क्रौंच पर्वत पर जाते हैं।
नारद! मैंने तुम्हें समस्त पापों का नाश करने वाले श्रीगणेश और कार्तिकेय के चरित्र को
सुनाया है। जो भी मनुष्य भक्तिभाव से इसे पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है, उसके सभी
मनोरथ पूर्ण होते हैं। यह कथा पापनाशक, सुख देने वाली, मोक्ष दिलाने वाली एवं
कल्याणकारी है। इसलिए निष्काम भक्तों को इसको अवश्य सुनना और पढ़ना चाहिए।
।। श्रीरुद्र संहिता (कुमारखण्ड) संपूर्ण ।।
।। ॐ नमः शिवाय ।।
श्रीरुद्र संहिता
पंचम खंड
पहला अध्याय
तारकपुत्रों की तपस्या एवं वरदान प्राप्ति
नारद जी बोले--हे प्रभो! आपने मुझे कुमार कार्तिकेय और श्रीगणेश के उत्तम तथा पापों
को नाश करने वाले चरित्र को सुनाया। अब आप कृपा करके मुझे भगवान शिव के उस चरित्र
को सुनाइए, जिसमें उन्होंने देवताओं और इस पृथ्वीलोक के शत्रुओं, दुष्ट दानवों और राक्षसों
को लोकहितार्थ मार गिराया। साथ ही महादेव जी द्वारा एक ही बाण से तीन नगरों को एक
साथ भस्म करने की कथा का भी वर्णन कीजिए।
ब्रह्माजी बोले--हे मुनिश्रेष्ठ नारद! बहुत समय पूर्व, एक बार व्यास जी ने सनत्कुमार से
इस विषय में पूछा था। उस समय जो कथा उन्होंने बताई थी वही आज मैं तुम्हें बताता हूं।
जब देवताओं की रक्षार्थ भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध कर दिया
गया, तब उसके तीनों पुत्रों तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष को बहुत दुख हुआ। वे तीनों
ही महान बलशाली, जितेद्रिय, सत्यवादी, संयमी, वीर और साहसी थे परंतु अपने पिता
तारकासुर का वध देवताओं द्वारा होने के कारण उनके मन में देवताओं के लिए रोष उत्पन्न
हो गया। तब उन तीनों ने अपना राज-पाट त्यागकर मेरु पर्वत की एक गुफा में जाकर उत्तम
तपस्या करनी शुरू कर दी। उन्होंने अपनी कठिन और उग्र तपस्या से मुझ ब्रह्मा को प्रसन्न
कर लिया। मैं उन तीनों असुरों को वरदान देने के लिए मेरु पर्वत गया।
वहां पहुंचकर मैंने तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष से कहा कि हे महावीर दैत्यो! मैं
तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। मांगो, मुझसे क्या मांगना चाहते हो। तुम्हारी मनोकामना मैं
अवश्य पूरी करूंगा। मुझे बताओ कि किस वरदान की प्राप्ति हेतु तुम लोगों ने इतना कठोर
तप किया है?
ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर उन तीनों तारक पुत्रों को बड़ा संतोष हुआ। तब उन्होंने मेरे
चरणों में पड़कर प्रणाम किया और मेरा स्तवन करने लगे। तत्पश्चात वे बोले-हे देवेश! हे
विधाता! यदि आप वाकई हम पर प्रसन्न हैं तो हमें अवध्य होने का वरदान प्रदान कीजिए।
कोई भी प्राणी हमारा वध करने में सक्षम न हो और हम अजर-अमर हों। हम चाहें तो किसी
का भी वध कर सकें। प्रभो! हमें यही वरदान दीजिए कि हम अपने शत्रुओं को मौत के घाट
उतार सकें और निभर्यतापूर्वक इस त्रिलोक में आनंद का अनुभव करते हुए विचरें। कोई
हमारा बाल भी बांका न कर सके।
तारक पुत्रों के ऐसे वचन सुनकर मैं ब्रह्मा त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल भगवान शिव के चरणों
का स्मरण करते हुए बोला-हे असुरो! निःसंदेह ही तुम्हारी इस उत्तम तपस्या ने मुझे बहुत
प्रसन्न किया है परंतु अमरत्व की प्राप्ति सभी को नहीं हो सकती है। यह प्रकृति का नियम है।
जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। अतः इसके अतिरिक्त कोई अन्य वर मांगो। मैं तुम्हें
तुम्हारी इच्छित मृत्यु का वरदान दे सकता हूं। तुम जिस प्रकार अपनी मृत्यु चाहोगे, उसी
प्रकार तुम्हारी मृत्यु होगी।
मेरे इस प्रकार के वचन सुनकर तीनों तारक पुत्र कुछ देर के लिए सोच में डूब गए।
तत्पश्चात वे बोले--भगवन्! यद्यपि हम तीनों ही महान बलशाली हैं। फिर भी हमारे पास
रहने का कोई ऐसा स्थान नहीं है, जो पूर्णतया सुरक्षित हो और जिसमें शत्रु प्रवेश न कर
सकें। प्रभु! आप हम तीनों भाइयों के लिए तीन ऐसे नगरों का निर्माण करें, जो पूर्णतया
सुरक्षित हों। ये तीनों अदभुत नगर संपूर्ण धन-संपत्ति और वैभव से शोभित हों तथा अस्त्र
शस्त्रं की सभी सामग्रियां भी वहां उपस्थित हों और उसे कोई भी नष्ट न कर सके। तब
तारकाक्ष ने अपने लिए सोने का, कमलाक्ष ने चांदी का तथा विद्युन्माली ने कठोर लोहे का
बना नगर वरदान में मांगा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ये तीनों पुर दोपहर अभिजित
मुहूर्त में चंद्रमा के पुष्य नक्षत्र में होने पर एक साथ मिला करेंगे। ये तीनों ही महल आकाश में
नीले बादलों में एक के ऊपर एक रहेंगे तथा जनसाधारण सहित किसी को भी नहीं दिखाई
देंगे। एक सहस्र वर्षो बाद जब पुष्करावर्त नामक काले बादल बरस रहे हों, उस समय जब
तीनों महल आपस में मिले, तब हम सबके वंदनीय भगवान शिव असंभव रथ पर बैठकर
एक ही बाण से हमारे नगरों सहित हमारा भी वध करें।
इस प्रकार तारकासुर के पुत्रों के मांगे वरदान को सुनकर मीं मुस्कुराया और 'तथास्तु'
कहकर उनका इच्छित वर उन्हें प्रदान कर दिया। फिर मय दानव को बुलाकर ऐसे तीन लोकों
को बनाने की आज्ञा देकर मैं वहां से अपने लोक को लौट आया। मय ने मेहनत से तारकाक्ष
के लिए सोने का, कमलाक्ष के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे के उत्तम लोकों
का निर्माण किया। ये तीनों ही लोक सभी साधनों और सुविधाओं से संपन्न थे। इन तीनों
लोकों का निर्माण होने के उपरांत वे तीनों अपने-अपने लोकों में चले गए और मय ने उन्हें
एक के ऊपर एक करके, एक को आकाश में, एक को स्वर्ग के ऊपर और तीसरे को पृथ्वी
लोक में स्थिर कर दिया। तत्पश्चात तीनों असुरों की आज्ञानुसार मय भी वहीं पर निवास करने
लगा। तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों ही सदैव शिव-भक्ति में लीन रहा करते थे।
इस प्रकार वे तीनों ही असुर अब आनंदपूर्वक अपने-अपने लोकों में सुखों को भोगने लगे।
दूसरा अध्याय
देवताओं की प्रार्थना
नारद जी बोले--हे पिताश्री! जब तारकासुर के तीनों पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष और
विद्युन्माली आनंदपूर्वक अपने-अपने लोकों में निवास करने लगे, तब फिर आगे क्या हुआ?
ब्रह्माजी बोले—हे नारद! तारकपुत्रों के तीनों लोकों के अदभुत तेज से दग्ध होकर सभी
देवतागण देवराज इंद्र के साथ दुखी अवस्था में ब्रह्मलोक में मेरी शरण में आए। वहां मुझे
नमस्कार करने के पश्चात देवताओं ने अपना दुख बताना शुरू किया। वे बोले-हे विधाता!
त्रिपुरों के स्वामी, तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों तारकपुत्रों ने हम सभी
देवताओं को संतप्त कर दिया है। भगवन्! अपनी रक्षा के लिए हम सभी आपकी शरण में
आए हैं। प्रभु आप हमें उनके वध का कोई उपाय बताइए, ताकि हम अपने दुखों को दूर
करके पुनः पहले की भांति अपने लोक में सुख से रह सकें।
यह सुनकर मैंने उनसे कहा-हे देवताओ! तुम्हें इस प्रकार उन तारकपुत्रों से डरने की
कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी इच्छा के अनुसार मैं तुम्हें उनके वध का उपाय बताता हूं।
उन तीनों ही असुरों को मैंने वरदान प्रदान किया है। अतः मैं उनका वध नहीं कर सकता।
इसलिए तुम सब भगवान शिव की शरण में जाओ वे ही तुम्हारी इस दुख की घड़ी में सहायता
करेंगे। तुम उनके पास जाकर उन्हें प्रसन्न करो।
मुझ ब्रह्मा के ये वचन सुनकर सभी देवता अपने स्वामी देवराज इंद्र के नेतृत्व में भगवान
शिव के पास कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां सबने भक्तिभाव से भगवान शिव को प्रणाम किया
और उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात देवता बोले-हे महादेव जी! तारकासुर के तीनों पुत्रों
ने हमें परास्त कर दिया है। यही नहीं उन्होंने सभी ऋषि-मुनियों को भी बंदी बना लिया है। वे
उन्हें यज्ञ नहीं करने देते हैं। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। उन्होंने इस त्रिलोक को अपने
वश में कर लिया है और पूरे संसार को नष्ट करने में लगे हुए हैं। ब्रह्माजी द्वारा इन तीनों को
अवध्य होने का वरदान मिला है। इसी कारण वे तीनों बलशाली दानव मदांध हो चुके हैं और
मनुष्यों और देवताओं को तरह-तरह से प्रताड़ित कर रहे हैं। हे भक्तवत्सल! हे करुणानिधान!
हम सब देवता परेशान होकर आपकी शरण में इस आशा के साथ आए हैं कि आप हम
सबकी उन तीनों असुरों से रक्षा करेंगे तथा इस पृथ्वी और स्वर्ग को उनके आतंकों से मुक्ति
दिलाएंगे। भगवन्! इससे पहले कि वे इस जगत का ही विनाश कर दें आप उनसे हम सबकी
रक्षा करें।
तीसरा अध्याय
भगवान शिव का देवताओं को विष्णु के पास भेजना
ब्रह्माजी बोले--हे नारद! इस प्रकार सब देवताओं ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को उन
तीनों तारकपुत्रों के आतंक के विषय में सब कुछबता दिया। तब सारी बातें सुनकर भगवान
शिव बोले--हे देवताओ! मैंने तुम्हारे कष्टों को जान लिया है। मैं जानता हूं कि तारकाक्ष,
कमलाक्ष और विद्युन्माली ने तुम्हें बहुत परेशान किया हुआ है परंतु फिर भी वे तीनों पुण्य
कार्यों में लगे हुए हैं। वे तीनों मेरे भक्त हैं और सदा मेरे ध्यान में निमग्न रहते हैं। भला मैं
अपने भक्तों को कैसे मार सकता हूं। वे तीनों तारकपुत्र पुण्य संपन्न हैं। वे प्रबल होने के साथ-
साथ भक्तिभावना भी रखते हैं। जब तक उनका पुण्य संचित है और वे मेरी आराधना करते
रहेंगे, मेरे लिए उन्हें मारना असंभव है क्योंकि स्वयं ब्रह्माजी के अनुसार मित्रद्रोह से बढ़कर
कोई भी पाप नहीं है। जब वे तीनों असुर नियमपूर्वक मेरी पूजा-आराधना करते हैं, तो मीं क्यों
बिना किसी ठोस कारण से उनका वध करूं? हे देवताओ। इस समय मैं तुम्हारी कोई
सहायता नहीं कर सकता। अतः तुम सब श्रीहरि विष्णु की शरण में जाओ। अब वे ही तुम्हारा
उद्धार करेंगे।
भगवान शिव की आज्ञा पाकर सभी देवताओं ने उन्हें पुनः हाथ जोड़कर प्रणाम किया
और श्रीहरि विष्णु से मिलने के लिए उनके निवास बैकुंठ लोक की ओर चल दिए। उन्होंने
अपने साथ मुझ ब्रह्मा को भी ले लिया। बैकुंठ लोक पहुंचकर सब देवताओं ने भक्तिपूर्वक
श्रीहरि को प्रणाम किया और उन्हें भगवान शिव द्वारा कही गई सब बातों से अवगत कराया।
देवताओं की बातें सुनकर भगवान विष्णु बोले-हे देवताओ! यह बात सत्य है कि जहां
सनातन धर्म और भक्तिभावना हो, वहां ऐसा करना उचित नहीं होता। तब देवता पूछने लगे
कि प्रभु हम क्या करें? हमारा दुख कैसे दूर होगा? प्रभु! आप शीघ्र ही उन तारकपुत्रों के वध
का कोई उपाय कीजिए अन्यथा हम सभी देवता अकाल ही मृत्यु का ग्रास बन जाएंगे।
भगवन्! आप ऐसा उपाय कीजिए, जिससे वे तीनों असुर सनातन धर्म से विमुख होकर
अनाचार का रास्ता अपना लें। उनके वैदिक धर्म का नाश हो जाए और वे अपनी इंद्रियों के
वश में हो जाएं। वे दुराचारी हो जाएं तथा उनके सभी शुभ आचरण समाप्त हो जाएं।
तब देवताओं की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु एक पल को सोच में डूब
गए। तत्पश्चात बोले-तारकपुत्र तो स्वयं भगवान शिव के भक्त हैं परंतु फिर भी जब तुम सब
मेरी शरण में आए हो तो मैं तुम्हें निराश नहीं करूंगा। तुम्हारी सहायता अवश्य ही करूंगा।
तब श्रीहरि विष्णु ने मन ही मन यज्ञों का स्मरण किया। उनका स्मरण होते ही यज्ञगण
तुरंत वहां उपस्थित हो गए। वहां श्रीहरि को नमस्कार करके उन्होंने पूछा कि प्रभु! आपने हमें
यहां क्यों बुलाया है? तब श्रीहरि मुस्कुराए और बोले कि हमें तुम्हारी सहायता की
आवश्यकता है। इसलिए हमने तुम्हारा स्मरण किया है। तब वे देवराज इंद्र से बोले कि हे
देवराज! आप त्रिलोक की विभूति के लिए यज्ञ करें। यज्ञ के द्वारा ही तारकपुत्रों के तीनों पुरों
(नगरों) का विनाश संभव है।
भगवान श्रीहरि विष्णु के ये वचन सुनकर सभी देवताओं ने आदरपूर्वक विष्णुजी का
धन्यवाद किया और उन्हें प्रणाम करने के पश्चात यज्ञ के ईश्वर की स्तुति करने लगे। तत्पश्चात
उन्होंने बहुत विशाल यज्ञ का आयोजन किया। सविधि उन्होंने उत्तम यज्ञ भक्ति भावना से
आरंभ किया। यज्ञ अग्ने प्रज्वलित हुई। यज्ञ पूर्ण होने पर उस यज्ञ कुंड से शूल शक्तिधारी
विशालकाय हजारों भूतों का समुदाय निकल पड़ा। तत्पश्चात अनेक रूपों से युक्त नाना
वेषधारी, कालाग्नि रुद्र के समान तथा काल सूर्य के समान प्रकट हुए उन भूतों ने भगवान
विष्णु को नमस्कार किया। उन भूतगणों को आज्ञा देते हुए विष्णुजी बोले
हे भूतगणो! देवकार्य को पूरा करने के लिए तुम जाकर त्रिपुरों को नष्ट करो। विष्णुजी की
आज्ञा सुनकर वे भूतगण दैत्यों के उस महासुंदर नगर त्रिपुर की ओर चल दिए। जब उन्होंने
त्रिपुर नगरी में घुसना चाहा तो वहां के तेज से वे भस्म हो गए। जो भूतगण बचे वे लौटकर
भगवान विष्णु के पास वापस आ गए तथा उन्होंने श्रीहरि को इस बात की सूचना दी।
जब भगवान विष्णु को इस प्रकार भूतगणों के नगरी के तेज से जलने की जानकारी हुई
तो वे अत्यंत चिंतित हो गए। तब उन्होंने देवताओं को समझाया कि वे अपनी चिंता त्यागकर
अपने-अपने लोकों को जाएं। मैं इस संबंध में विचार करके आपके लाभ के लिए यथासंभव
कार्य करूंगा। मैं तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों असुरों को शिवभक्ति से
विमुख करने का प्रयास करता हूं, तभी उन पर विजय पाना संभव होगा। तब श्रीहरि को
प्रणाम करके सभी देवता अपने-अपने लोकों को वापस लौट गए।
चौथा अध्याय
नास्तिक शास्त्र का प्रादुर्भाव
ब्रह्माजी नारद से बोले--तब भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपनी आत्मा के तेज से अत्यंत
तेजस्वी एक मायावीर पुरुष प्रकट किया। उसका सिर मुंडा हुआ था। उसने अत्यंत गंदे वस्त्र
पहने हुए थे। उसके एक हाथ में लकड़ी का एक कटोरा तथा दूसरे हाथ में झाड़ू थी। उसने
अपने मुख पर वस्त्र लपेट रखा था। व्याकुल वाणी में उसने श्रीहरि को प्रणाम किया और
पूछा--हे प्रभु! मेरी उत्पत्ति का क्या प्रयोजन हे? भगवन् मैं कौन हूं?
तब श्रीहरि विष्णु ने उत्तर दिया--हे वत्स! तुम मेरे शरीर से ही उत्पन्न हुए हो। इसलिए तुम
“अरिह' नाम से जाने जाओगे। तुम्हें मैंने एक विशेष कार्य के लिए उत्पन्न किया है। तुम बड़े
मायावी हो। तुम्हें एक ऐसे शास्त्र की रचना करनी है जिसमें सोलह हजार श्लोक होंगे।
जिसमें वर्णाश्रम धर्म की जानकारी होगी तथा जिसमें अपभ्रंश शब्दों व कर्म-विवाह की भी
व्याख्या की गई होगी।
विष्णुजी के इन वचनों को सुनकर अरिह ने उन्हें प्रणाम किया और बोला कि मेरे लिए
अब क्या आज्ञा है? तब श्रीहरि ने उसे माया से रचित वह अद्भुत शास्त्र पढ़ाया जिसका मूल
यह था कि स्वर्ग और नरक सब यहीं हैं। उनका अलग से कोई भी अस्तित्व नहीं है। तब
विष्णु ने अरिह को आज्ञा दी कि वह सब दैत्यों को जाकर शास्त्र पढ़ाए और उनकी बुद्धि का
नाश करे। इस प्रकार यह शास्त्र पढ़कर त्रिपुरों में तमोगुण की वृद्धि होगी, जो उनके विनाश
का कारण सिद्ध होगी। मेरी कृपा से तुम्हारे इस धर्म का विस्तार होगा। तत्पश्चात तुम मरुस्थल
में निवास करना। तुम्हारा कार्य कलयुग आने पर ही पुनः आरंभ होगा।
ऐसा कहकर श्रीहरि विष्णु अंतर्धान हो गए। तब अरिह ने भगवान विष्णु की आज्ञा के
अनुसार अपने अनेक शिष्य बनाए और उन्हें उसी मायामय शास्त्र की शिक्षा दी। विशेष रूप
से उनके चार शिष्य बने जिनको उन्होंने कृषि, पत्ति, कीर्य और उपाध्याय नाम प्रदान किया।
वे चारों शिष्य अपने गुरु के समान ही आचरण करने वाले थे। उनका एक ही धर्म था--
पाखंड। वे नाक पर कपड़ा लपेटे गंदे वस्त्र धारण करके इधर-उधर घूमते रहते थे। एक दिन
अरिह अपने चारों शिष्यों को अपने साथ लेकर त्रिपुर नगर में चल दिए। वहां पहुंचकर उन्होंने
अपनी माया फैलानी आरंभ की, परंतु भगवान शिव की कृपा से उस त्रिपुरी में उनकी माया
का प्रभाव नहीं हो रहा था। तब उन्होंने व्याकुल होकर भगवान विष्णु का स्मरण किया।
भगवान विष्णु ने अलौकिक गति से सभी बातें जान लीं।
भगवान शिव का ध्यान करते हुए विष्णुजी ने हे नारद तब तुम्हारा स्मरण किया। अपने
स्वामी के स्मरण करते ही तुम तत्काल उनकी सेवा में उपस्थित हो गए। उन्हें प्रणाम करके
तुमने याद करने का कारण पूछा। तब श्रीहरि ने तुम्हें आज्ञा प्रदान की कि तुम अरिह और
उसके शिष्यों को साथ लेकर त्रिपुर नगरी में प्रवेश करो और वहां के निवासियों को मोहित
करके उन्हें माया से ओत-प्रोत उस शास्त्र की शिक्षा प्रदान करो। अपने आराध्य भगवान
श्रीहरि की आज्ञा शिरोधार्य कर तुम उन पाखण्डी ब्राह्मणों को साथ लेकर त्रिपुर नगरी की
ओर चल दिए। वहां जाकर तुम तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक त्रिपुर स्वामियों
से मिले तथा उनसे उस मायामय शास्त्र की प्रशंसा करने लगे। तुमने उन्हें बताया कि तुम इसी
शास्त्र से शिक्षा ग्रहण करते हो। यह बात जानकर उन त्रिपुर स्वामियों को बड़ा आश्चर्य हुआ
और वे उस मायामय शास्त्र की माया से मोहित होने लगे। तब उन्होंने 'अरिह' को अपना गुरु
बना लिया और उनसे दीक्षा लेने लगे। यह देखकर त्रिपुरं के अन्य निवासी भी उन मायावी
शिष्यों एवं उनके गुरु से शिक्षा ग्रहण करने लगे।
पांचवा अध्याय
नास्तिक मत से त्रिपुर का मोहित होना
नारद जी ने पूछा-हे ब्रह्मदेव! उन तीनों महा बलशाली दैत्यराजों के उन मायावी और
पाखंडी अरिह और उनके शिष्यों द्वारा शिक्षा ग्रहण होने पर वहां क्या हुआ? उन मायावी
पुरुषों ने क्या किया? कृपया मुझे बताइए।
नारद जी का प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे नारद! जब त्रिपुर के राजा ही उस मायामय
शास्त्र द्वारा दीक्षित हो गए तो वहां की जनता क्यों नहीं होती? अरिहन ने कहा-मेरा ज्ञान
वेदांत का सार है। यह अनादिकाल से चला आ रहा है। इसमें कर्ता कर्म नहीं है। आत्मा के
देह अर्थात शरीर से जितने भी बंधन हैं, वे सब ईश्वर के ही हैं। ईश्वर के समान कोई भी न तो
शक्तिशाली है और न ही सामर्थ्यवान। ब्रह्मा, विष्णु और महेश सब अरिहन ही कहे जाते हैं।
समय आने पर ये तीनों ही लीन हो जाते हैं। आत्मा एक है। मृत्यु सभी के लिए सत्य है। मृत्यु
शाश्वत है और सबके लिए निश्चित है। इसलिए हमें कभी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए और
सदा ही अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिए। अहिंसा ही परम धर्म है। किसी को दुख पहुंचाना
महापाप है। इसलिए हमें कभी भी कमजोर और निर्बलों को नहीं सताना चाहिए। दूसरों को
क्षमा करना ही सबसे बड़ा गुण है। इसलिए सदा अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए।
हिंसा और लड़ाई झगड़े का मार्ग हमें नरक की ओर ले जाता है। इसलिए किसी को
डराओ-धमकाओ मत। सदैव विनम्रता का आचरण करो। भूखों को भोजन दो। रोगियों को
औषधि और छात्रों को विद्या का दान करो। भक्ति के साथ उपासना करो। आडंबरों की कोई
आवश्यकता नहीं होती। मन को शुद्ध रखो तथा बारह स्थानों की पूजा करो, जिनमें पांच
कमेँद्रिया, पांच ज्ञानेंद्रियां तथा मन व बुद्धि सम्मिलित हैं। इसी धरा पर ही स्वर्ग और नरक
दोनों स्थित हैं। अतः अनावश्यक रूप से उनकी कामना मन में लेकर अपनों को कष्ट देना
पूर्णतः गलत है। शांति और सुखपूर्वक मरना ही मोक्ष की प्राप्ति है।
स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा मन में लेकर हवन की अग्ने में तिल, घी और पशु की बलि देना
कहां की मानवता है। इस प्रकार उन असुर राजाओं को अपना जीवन-दर्शन सुनाकर अरिह
उस पुर के निवासियों से बोले कि मनुष्य को सुखपूर्वक निवास करना चाहिए। आनंद ही ब्रह्म
है और परम ब्रह्म की प्राप्ति सिर्फ एक कल्पना है। तभी कहता हूं कि जब तक आपका शरीर
स्वस्थ और समर्थ है, अपने सुख का मार्ग ढूंढ़कर उसका अनुसरण करो। अन्यथा शीघ्र ही
तुम पर बुढ़ापा आ जाएगा और तुम्हारा शरीर नष्ट हो जाएगा। इसलिए ज्ञानियों को स्वयं
अपने सुख की खोज करनी चाहिए। मेरी इस बात का समर्थन वेद भी करते हैं। मनुष्य को
जाति-पांति के बंधनों में फंसकर कभी किसी को कम नहीं समझना चाहिए।
सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। उनके दक्ष और मरीचि नामक दो पुत्र हुए।
मरीचि के पुत्र कश्यप जी ने दक्ष की तेरह कन्याओं का धर्म से विवाह कराया। फिर प्रजापति
के मुख, बाहु, उरु, जंघा और चरण से वर्ण उत्पन्न हुए। ऐसा कहा जाता है, परंतु ये सभी बातें
गलत जान पड़ती हैं, क्योंकि एक ही शरीर से जन्म लेने वाले सभी पुत्र भिन्न-भिन्न रूप वाले
कैसे हो सकते हैं? इसलिए वर्ण भेद को अनुचित मानना चाहिए।
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार उन अरिह नामक धर्मात्मा ने अपने भाषण द्वारा तारकाक्ष,
कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों असुरों के निवासियों को वेद मार्ग से विमुख कर
दिया। साथ ही उन्होंने पतिव्रता स्त्रियों के पतिव्रता धर्म और पुरुषों के जितेंद्रिय धर्म को
अस्वीकार कर दिया। उन्होंने धर्म, यज्ञ, तीर्थ, श्रद्धा और धर्मशास्त्रं का भी खंडन किया।
विशेषरूप से उन्होंने भगवान शिव की पूजा न करने के लिए सभी को प्रोत्साहित किया और
सब देवताओं के पूजन और आराधना को व्यर्थ बताया। इस प्रकार उन अरिह ने पुर के
वासियों को अपने झूठे धर्म और पाखंड से मोहित कर दिया। इस प्रकार वहां अधर्म फैल
गया। तत्पश्चात भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से देवी महालक्ष्मी भी उन त्रिपुरों में अपना
अनादर देख उस स्थान को त्यागकर चली गई।
छठवां अध्याय
त्रिपुर सहित उनके स्वामियों के वध की प्रार्थना
व्यास जी ने पूछा-हे सनत्कुमार जी! जब उन त्रिपुर स्वामियों की बुद्धि उनकी प्रजा
सहित मोहित हो गई तब क्या हुआ? कौन-सी घटना घटी? प्रभो! कृपा कर इस विषय में मेरे
ज्ञान को बढ़ाइए। तब व्यास जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षि!
जब उन तीनों पुरों का मुख पूर्व दिशा की ओर हो गया और तारकाक्ष, कमलाक्ष और
विद्युन्माली नामक दैत्यों ने भगवान शिव का पूजन और अर्चन छोड़ दिया, तब उनके राज्य में
चारों ओर दुराचार फैल गया। उस समय भगवान विष्णु और ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ
भगवान शिव की स्तुति करने कैलाश पर्वत पर गए। वहां पहुंचकर उन्होंने शिवजी को साष्टांग
प्रणाम किया।
तत्पश्चात देवता बोले-हे देवाधिदेव! हे करुणानिधान! आप सभी जीवों के आत्मस्वरूप,
कल्याण करने वाले और अपने भक्तों की पीड़ा हरने वाले हैं। गले में नीला चिन्ह होने के
कारण आप नीलकंठ कहलाते हैं। हम हाथ जोड़कर आपको प्रणाम करते हैं। आप सब
प्राणियों एवं देवताओं के लिए वंदनीय हैं तथा सबकी बाधाओं और विपत्तियों को दूर करते
हैं। भगवन्! आप ही रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण के आश्रय से ब्रह्मा, विष्णु और महेश
के अवतार धरकर जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। आप ही अपने भक्तों को इस
भवसागर से पार कराने वाले हैं। वेद आपके परब्रह्म स्वरूप और तत्वरूप का वर्णन करते हैं।
आप सर्वव्यापी, सर्वात्मा और इन तीनों लोकों के अधिपति हैं। आप सूर्य से भी अधिक
तेजस्वी और दीप्तिमान हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप ही इस प्रकृति के प्रवर्तक हैं
तथा सब प्राणियों के शरीर में रहते हैं। ऐसे परमेश्वर को हम प्रणाम करते हैं। हे शिव शंभो।
तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक त्रिपुर स्वामियों ने हम देवताओं को अनेकों
प्रकार से परेशान कर प्रताड़ित किया है। वे देवताओं का विनाश करने के लिए उन्मुख हैं।
हे प्रभो! हम आपकी शरण में आए हैं। भगवन्! उन असुरों का विनाश करके हमारी रक्षा
कीजिए। इस समय तीनों असुरों ने धर्म मार्ग को छोड़ दिया है और नास्तिक शास्त्र का पालन
कर रहे हैं। आपकी इच्छा के अनुरूप तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों धर्म-कर्म से
विमुख हो गए हैं। अतः अब आप उनका वध कर देवताओं को मुक्ति दिलाइए। इस प्रकार
कहकर सभी देवता चुप हो मस्तक झुकाकर खड़े हो गए। तब भगवान शिव बोले-हे
देवताओ! तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली तीनों ही यद्यपि धर्म से विमुख होकर धन,
वैभव और ऐश्वर्य रूप में डूबकर सबकुछ भूल गए हैं, परंतु फिर भी वे मेरे असीम भक्त रहे
हैं। जब भगवान विष्णु ने उन त्रिपुर स्वामियों को वहां की प्रजा के साथ मोहित कर धर्म-कर्म
से विमुख कर ही दिया है तो वे स्वयं ही उनका वध क्यों नहीं कर देते?
शिवजी के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे परमेश्वर! आप भक्तवत्सल हैं। पाप आपसे
कोसों दूर भागता है। प्रभु! आपकी आज्ञा के बिना इस जगत में पत्ता तक नहीं हिलता।
भगवन्! आपकी इच्छा के अनुरूप ही विष्णुजी ने उन सबको मोहित कर पथश्रष्ट किया हे।
अब आप उन त्रिपुर स्वामियों का वध करके इस जगत का उद्धार कीजिए। प्रभु! आप तो इस
जगत का आधार हैं। हम सब आपके सेवक हैं और आपकी आज्ञा के अनुसार कार्य को पूरा
करते हैं। आप सम्राट और हम आपकी प्रजा हैं। ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर भगवान
शिव प्रसन्न होकर बोले-है ब्रह्मन्! आप मुझे देवताओं का सम्राट कह रहे हैं। पर आप ऐसा
कैसे कह सकते हैं, जबकि आप जानते हैं कि मेरे पास न तो कोई दिव्य रथ है और न ही
कोई सारथी है। फिर भला मीं कैसे उन सर्व सुविधा संपन्न त्रिपुर स्वामियों को युद्ध में परास्त
कर पाऊंगा? मेरे पास तो धनुष भी नहीं है जिससे मैं उन दैत्यों का वध कर सकूं।
भगवान शिव के यह कहते ही सब देवता प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा कि प्रभु! यदि आप
उनका वध करने के लिए तैयार हैं तो हम सभी आपके लिए रथ तथा अन्य शस्त्र सामग्री का
प्रबंध कर देंगे।
सातवा अध्याय
देवताओं द्वारा शिव-स्तवन
सनत्कुमार जी बोले-हे व्यास जी! जेसे ही शरणागत भक्तवत्सल भगवान शिव ने
देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली का वध करने का मन
बनाया, उसी समय देवी पार्वती अपने पुत्र को गोद में लेकर वहां आई। तब जगज्जननी मां
जगदंबा को आता देखकर ब्रह्मा, विष्णु सहित अन्य देवताओं ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम
किया। अपने पुत्रों को देख भगवान शिव उन्हें प्यार करने लगे। तब देवी पार्वती भगवान शिव
को अपने साथ लेकर अपने भवन के भीतर चली गई। भगवान शिव के इस प्रकार बिना कुछ
कहे अपने भवन में चले जाने के कारण सब देवता बहुत दुखी हो गए परंतु उन्होंने वहीं खड़े
रहकर भगवान शिव की प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया। उस समय वे दैत्यों के भाग्य की
प्रशंसा करने लगे। वे सब देवता वहीं शिवजी के भवन के द्वार पर खड़े थे। तभी भगवान शिव
के गण ने अपने स्वामी के द्वार के सामने भीड़ जमा देखकर उन पर आक्रमण कर दिया।
देवता इस अनजान खतरे से संभल न सके और अपने प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर
दौड़ने लगे। कई साधु और ऋषिगण गिर पड़े। चारों ओर हाहाकार मच गया। तब भयभीत
होकर सब देवता भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। देवताओं को समझाते हुए श्रीहरि
विष्णु ने कहा, देवताओ तथा मुनिगणो! आप लोग क्यों इतना दुखी हो रहे हैं? महान पुरुषों
की आराधना करने में दुख तो आते ही हैं। इन कष्टों को झेलकर ही भक्त की दृढ़ता बढ़ती है
और तब वह अपने आराध्य देवों को प्रसन्न कर पाता है। भगवान शिव तो समस्त गणों के
अध्यक्ष तथा परमेश्वर हैं। आप सब मिलकर भगवान आशुतोष की प्रसन्नता के लिए 'ॐ नमः
शिवाय। शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ' मंत्र का एक करोड़ बार जाप करो। वे इससे
अवश्य ही प्रसन्न होंगे और हमारा कार्य पूरा करेंगे।
भगवान श्रीहरि विष्णु के इन वचनों को सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और सहर्ष
भगवान शिव की आराधना करने लगे। अपने कार्य की सिद्धि के लिए उन्होंने एक करोड़ बार
विष्णुजी द्वारा बताए गए मंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। जैसे ही उनकी यह आराधना
संपन्न हुई, भगवान शिव उनके सामने प्रकट हो गए।
भगवान शिव बोले-मैं आपकी इस उत्तम आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। आप अपना
इच्छित वर मांगें। प्रभु के ये वचन सुनकर देवता बोले-हे देवाधिदेव! हे जगदीश्वर! आप
सबके कल्याणकर्ता है। भगवन्, हम पर कृपा कर हमारी रक्षा कीजिए। आप त्रिपुर स्वामियों
का वध करके हमें भय से मुक्ति दिलाएं। तब भगवान शिव देवताओं की प्रार्थना सुनकर पुनः
बोले-हे हरे! हे ब्रह्मन्! हे देवगण तथा मुनियो! जैसा आप चाहते हैं वैसा ही होगा। मैं
अवश्य ही आपकी आराधना सफल करूंगा। हे विष्णो! आप इस जगत के पालनकर्ता हैं।
इसलिए त्रिपुर विनाश के लिए आप मेरी सहायता करें। मेरे लिए दिव्य रथ, सारथी और धनुष
सहित आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करें।
सनत्कुमार जी बोले--मुने! भगवान शिव की इच्छा जानकर सब देवता बहुत प्रसन्न हुए
तथा शिवजी की आज्ञानुसार समस्त युद्ध सामग्री की व्यवस्था करने लगे। मुने! देवताओं
द्वारा शिवजी को प्रसन्न करने के लिए एक करोड़ बार जपा गया यह मंत्र महान पुण्यदायी है।
यह शिवजी को तुरंत प्रसन्न करने वाला तथा भक्ति-मुक्ति के मार्ग पर ले जाने वाला है। यह
मंत्र शिवभक्तों की सभी कामनाओं और इच्छाओं को पूरा करता है। इस मंत्र से धन, यश की
प्राप्ति होती है और आयु में वृद्धि होती है। यह निष्काम मनुष्यों के लिए मोक्ष प्राप्ति का
साधन है। जो मनुष्य भक्तिभाव और शुद्ध हृदय से इस मंत्र को जपता है, उसकी सभी
अभिलाषाएं भक्तवत्सल कल्याणकारी भगवान शिव अवश्य ही पूरी करते हैं।
आठवा अध्याय
दिव्य रथ का निर्माण
व्यास जी ने सनत्कुमार जी से पूछा-हे स्ननत्कुमार जी! आप अत्यंत बुद्धिमान और
सर्वज्ञ हैं। आपने मुझे अद्भुत शिव कथा सुनाने की कृपा की है। मुनि! जब भगवान शिव ने
देवताओं के अभीष्ट कार्यों को पूरा करने के लिए त्रिपुर स्वामियों का वध करने हेतु विष्णुजी
से दिव्य रथ का निर्माण करने के लिए कहा तब विष्णुजी ने क्या किया? दिव्य रथ का
निर्माण किसने और कैसे किया?
सूत जी बोले-हैे मुने! व्यास जी की यह बात सुनकर सनत्कुमार जी ने भगवान शिव के
चरणों का ध्यान करके कहा-भगवान शिव के लिए दिव्य रथ के निर्माण करने के लिए
देवताओं ने अपने शिल्पी विश्वकर्मा को बुलाकर उन्हें कार्य सौंपा। तब भगवान शिव के
अनुरूप ही विश्वकर्मा ने उनके लिए रथ का निर्माण किया। उस रथ के समान कोई दूसरा रथ
नहीं था। वह दिव्य रथ सोने का बना हुआ था। उस रथ के दाएं पहिए में सूर्य और बाएं पहिए
में चंद्रमा लगे हुए थे। सूर्य के पहिए में बारह अरे लगे हुए थे जो कि बारह महीनों का
प्रतिनिधित्व कर रहे थे। चंद्रमा के पहिए में लगे सोलह उरे चंद्रमा की सोलह कलाओं का
प्रदर्शन कर रहे थे। ब्रह्मांड में विद्यमान अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र उस रथ के पीछे के भाग
की शोभा बढ़ा रहे थे। छहों ऋतु सूर्य और चंद्रमा के बने पहियों की धुरी बनीं। अंतरिक्ष रथ
के आगे का भाग और मंदराचल पर्वत उस रथ में बैठने का स्थान बना तथा संवत्सर रथ का
वेग बनकर उसे गति प्रदान करने लगा। इंद्रियां उस दिव्य रथ को चारों ओर से सुसज्जित
किए थीं तथा श्रद्धा रथ की चाल बनी। वेदों के अंग रथ के भूषण तथा पुराण, न्याय, मीमांसा
तथा धर्मशास्त्र आदि रथ की शोभा बढ़ाने लगे। महान तीर्थ पुष्कर दिव्य रथ की ध्वज पताका
बनकर फहराने लगा। विशाल समुद्रों ने रथ के बाहरी भाग का निर्माण किया। गंगा-यमुना
आदि पवित्र नदियां स्त्री रूप धारण कर रथ में चंवर डुलाने लगीं।
स्वयं ब्रह्माजी उस दिव्य रथ में सारथी बनकर भगवान शिव की सेवा में उपस्थित हुए तथा
ॐकार उनके रथ का चाबुक बना। अकार विशाल छत्र बनकर रथ को शोभित करने लगे।
भगवान शिव के धनुष का निर्माण करने हेतु शैलराज हिमालय स्वयं धनुष बने तो नागराज
उस धनुष के लिए प्रत्यंचा बने। देवी सरस्वती धनुष की घंटा और भगवान श्रीहरि बाण बने
और अग्निदेव ने बाण की नोक में अपनी शक्ति डाली। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा
अथर्ववेद उस दिव्य रथ में घोड़े बनकर जुत गए। वायुदेव बाजा बजाने लगे। उस दिव्य रथ में
इस ब्रह्मांड की हर वस्तु उपयोगिता बढ़ा रही थी। इस प्रकार देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा ने
उस उत्तम दिव्य रथ का निर्माण किया।
नवां अध्याय
भगवान शिव की यात्रा
सनत्कुमार जी बोले--हे महर्षि! भगवान शिव के लिए बनाया गया वह दिव्य रथ
अनेकानेक आश्चर्यो से युक्त था। विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया वह रथ ब्रह्माजी ने भगवान शिव
को समर्पित कर दिया। तत्पश्चात श्रीहरि विष्णु, ब्रह्माजी और सभी देवता एवं ऋषि-मुनि
कल्याणकारी भगवान शिव की प्रार्थना करने लगे। उन्होंने भगवान शिव को दिव्य रथ पर
आरूढ़ किया। स्वयं ब्रह्माजी उस रथ के सारथी बने। भगवान शिव के रथ पर आरूढ होते ही
चारों दिशाओं में मंगल गान होने लगे, पुष्प वर्षा होने लगी। ब्रह्माजी ने सर्वेश्वर शिव की आज्ञा
लेकर रथ को आगे बढ़ाया। वह उत्तम दिव्य रथ भगवान शिव को लेकर विद्युत की गति से
आकाश में उड़ने लगा।
जब भगवान शिव का वह दिव्य रथ तेजी से आकाश मार्ग से होता हुआ उन त्रिपुरं की
ओर जा रहा था तो बीच मार्ग में ही कल्याणकारी देवाधिदेव भगवान शिव ब्रह्माजी से बोले
—हे विधाता! तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक परम बलशाली राक्षसों का वध
करने के लिए मुझे उनके समान ही शक्ति चाहिए। वे तीनों असुर पहले मेरे परम भक्त थे परंतु
श्रीहरि की माया से मोहित होकर उन्होंने भक्ति मार्ग को त्याग दिया है। अब उन त्रिपुर
स्वामियों में तामसिक प्रवृत्ति बढ़ गई है, पशुत्व बढ़ गया है। अतः उन तीनों दैत्यों का संहार
करने के लिए मुझे भी पशुओं की सी शक्ति की आवश्यकता होगी। अतः आप सब देवता
पशुत्व की वृद्धि करने हेतु पशुओं का आधिपत्य मुझे प्रदान करें। तभी उन असुरों का वध हो
पाएगा।
भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर सभी देवता चिंतित हो गए और सोच में डूब
गए। पशुत्व की बात सुनकर उनका मन अप्रसन्न हो गया। देवताओं को सोच में देखकर
भक्तवत्सल भगवान शिव को स्थिति समझते देर न लगी। वे देवताओं की चिंता तुरंत समझ
गए।
देवताओं से भगवान शिव ने कहा-देवताओ! इस प्रकार दुखी मत हो। मैं तुम्हारे दुख का
कारण समझ गया हूं। तुम लोग यह कदापि मत सोचो कि पशुत्व से तुम्हारा पतन हो जाएगा।
मैं तुम्हें पशुत्व से मुक्ति का मार्ग बताता हूं। हे देवताओ! जो भी पवित्र मन और स्वच्छ निर्मल
हृदय एवं उत्तम भक्ति भावना से दिव्य पाशुपत-व्रत को पूरा करेंगे, वे सदा-सदा के लिए
पशुत्व से मुक्त हो जाएंगे। तुम्हारे अतिरिक्त जो मनुष्य भी पाशुपत-व्रत का पालन करेंगे, उन्हें
भी पशुत्व से मुक्ति मिल जाएगी। हे देवताओ! नित्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह, छः
अथवा तीन वर्षों तक पाशुपत-व्रत का पालन करने से सभी मनुष्यों एवं देवताओं को पशुत्व
से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी तथा मोक्ष की प्राप्ति होगी। उसका कल्याण होगा,
क्योंकि पाशुपत-व्रत परम कल्याणकारी है।
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु एवं सभी देवी-देवता बहुत
प्रसन्न हुए और देवाधिदेव भक्तवत्सल भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। तब सब
देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए पशु बन गए। तभी से सदाशिव
'पशुपति' नाम से जगत में विख्यात हुए। उनका पशुपति नाम अत्यंत कल्याणकारी एवं
अभीष्ट की सिद्धि देने वाला है। उस समय भगवान शिव के स्वरूप को देखकर सभी देवता
एवं ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान शिव ने अन्य देवताओं के साथ त्रिपुरों की
ओर प्रस्थान किया। उस समय सारे देवता अपने हाथों में हल, मूसल, भुशुंडि और अनेक
प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण करके हाथी, घोड़े, सिंह, रथ और बैलों पर सवार होकर चल
दिए। भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए वे आगे बढ़ते जा रहे थे। आकाश से उन पर
फूलों की वर्षा हो रही थी। कल्याणकारी भगवान शिव के साथ उनके केश, विगतवास,
महाकेश, महाज्वर, सोमवल्ली, सवर्ण, सोमप, सनक, सोमधुकू, सूर्यवर्चा, सूर्यप्रेक्षणक,
सूर्याक्ष, सूरिनामा, सुर, सुंदर, प्रस्कंद, कुंदर, चंड, कंपन, अतिकंपन, इंद्र, इंद्रजय, यंता,
हिमकर, शताक्ष, पंचाक्ष, सहस्राक्ष, महोदर, सतीजहु, शतास्य, रंक, कर्पूरपूतन, द्विशिख,
त्रिशिख, अंहकारकारक, अजवक्त्र, अष्टवक्त्र, हयवक्त्र, अर्दवक्त्र आदि महावीर बलशाली
गणाध्यक्ष उनको घेरकर चल रहे थे।
इस प्रकार देवाधिदेव भगवान शिवशंकर के साथ ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र
सहित अनेकों देवता, ऋषि-मुनि, साधु-संत भी अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर त्रिपुरों
के स्वामियों व त्रिपुरों का संहार देखने हेतु उनके साथ-साथ चल दिए।
दसवा अध्याय
त्रिपुरासुर-वध
सनत्कुमार जी बोले--जब युद्ध की सामग्रियों को साथ में लेकर भगवान सदाशिव अपने
दिव्य रथ में बैठकर आकाश मार्ग से उन त्रिपुरों के निकट पहुंच गए तब उन्होंने उन त्रिपुरों
का उनके स्वामियों के साथ विनाश करने के लिए रथ के शीर्ष स्थान पर चढ़कर अपने परम
दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई परंतु उनका बाण धनुष से नहीं निकला और वे उसी प्रकार उस
स्थान पर स्थित हो गए। वे इसी प्रकार अनेक वर्षों तक वहीं खड़े रहे क्योंकि गणेशजी उनके
अंगूठे के अग्रभाग में खड़े होकर उनके कार्य में विघ्न डाल रहे थे। इसलिए ही तीनों पुरों का
नाश नहीं हो पा रहा था।
इस प्रकार जब भगवान शिव का बाण बहुत समय तक नहीं चला और वे एक ही स्थान
पर स्थिर हो गए तो सभी देवता चिंतित हो गए कि ऐसा क्यों हो रहा है? तभी वहां
आकाशवाणी हुई-हे ऐश्वर्यशाली! देवाधिदेव! सर्वेश्चर कल्याणकारी शिव-शंकर जब तक
आप गणेश जी का पूजन नहीं करेंगे, तब तक त्रिपुरों का संहार नहीं कर पाएंगे।
आकाशवाणी के वचनों को सुनकर सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब अपने कार्यों को
यथाशीघ्र पूरा करने के लिए भगवान शिव ने भद्रकाली को बुलाया। विधि-विधान से सबने
मिलकर अग्रपूज्य भगवान गणेश का पूजन संपन्न किया।
पूजन संपन्न होते ही विघ्न विनाशक गणपति प्रसन्न होकर उनके मार्ग से हट गए और
उन्होंने कार्य में आने वाले सभी विघ्नों को दूर कर दिया। उनके हटते ही भगवान शिव को
तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली के तीनों नगर सामने नजर आने लगे। तीनों पुर कालवश
शीघ्र ही एकता को प्राप्त हुए अर्थात मिल गए। ब्रह्माजी द्वारा प्रदान किए गए वरदान के
अनुसार उनके अंत का यही समय था, जब त्रिपुर आपस में मिल जाएं। त्रिपुरों को मिला देख
सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए। वे प्रसन्न होकर भगवान शिव की जय-जयकार के नारे लगाने
लगे। तब ब्रह्मा और विष्णुजी ने महेश्वर से कहा कि हे देवाधिदेव! तारकासुर के इन तीनों
दैत्य पुत्रों के वध का समय आ गया है। तभी ये तीनों पुर मिलकर परस्पर एक हो गए हैं।
इससे पहले कि ये तीनों पुर फिर से अलग हो जाएं, आप इन्हें भस्म कर दीजिए और हमारे
कार्य को पूर्ण कीजिए।
तब भगवान शिव ने ब्रह्माजी और श्रीहारि की प्रार्थना स्वीकार करके अपने दिव्य धनुष पर
पाशुपतास्त्र नामक बाण चढ़ाया। उस समय अभिजित मुहूर्त था। विशाल धनुष की टंकार से
पूरा ब्रह्मांड गूंज उठा। तब भगवान शिव ने तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली को
ललकारकर उन पर करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान पाशुपतास्त्र छोड़ दिया। उस बाण की
नोक पर स्वयं अग्निदेव विराजमान थे। उन विष्णुमय अग्ने बाणों ने त्रिपुरवासियों को दग्ध
कर दिया, जिससे देखते ही देखते वे तीनों पुर एक साथ ही समुद्रों से घिरी भूमि पर गिर पड़े।
सैकड़ों असुर उस अग्निबाण से जलकर भस्म हो गए। चारों ओर हाहाकार मच गया। जब
तारकाक्ष अपने भाइयों सहित जलने लगा तब उसे यह एहसास हुआ कि यह सब भगवान
शिव की भक्ति से विमुख होने का परिणाम है। तब उसने मन ही मन अपने आराध्य भगवान
शिव का स्मरण किया और रोने लगा।
तारकाक्ष बोला-हे भक्तवत्सल! कृपानिधान! करुणानिधान भगवान शिव! यह तो हम
जानते ही हैं कि आप हमें भस्म किए बिना नहीं छोड़ेंगे। फिर भी प्रभु हम आपकी कृपा
चाहते हैं। अतः आप हम पर प्रसन्न होइए। भगवन्! जो मृत्यु असुरों के लिए दुर्लभ है, वह हमें
आपकी कृपा से प्राप्त हुई है। प्रभु! बस अब हमारी आपसे सिर्फ एक ही प्रार्थना है कि हमारी
बुद्धि जन्म-जन्मांतर तक आप में ही लगी रहे। यह कहकर वे सभी दानव उस भीषण अग्नि
में जलकर भस्म हो गए। भगवान शिव की आज्ञा से उन पुरों के बालक, वृद्ध, स्त्रियां-पुरुष,
पेड़-पौधे आदि सभी जीव-जंतु भी अग्नि की भेंट चढ़ गए। उस भीषण अग्ने ने स्थावर-
जंगम आदि सभी को पल भर में ही राख के ढेर में बदल दिया।
पाशुपतास्त्र से प्रज्वलित अग्ने में सभी जलकर भस्म हो गए परंतु भगवान शिव का भक्त
मय नामक दैत्य, जो असुरों का विश्वकर्मा था और जो देवों का विरोधी भी नहीं था, भगवान
शिव के तेज से सुरक्षित बच गया। इस प्रकार जिन दैत्यों या प्राणियों का किसी भी स्थिति में
मन धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता है, उनका पतन किसी भी स्थिति में, किसी के द्वारा
नहीं होता है। इसलिए सज्जन पुरुषों को सदैव अच्छे कर्म ही करने चाहिए। दूसरों की निंदा
करने वालों का सदा ही विनाश होता है। अतः हम सभी को परनिंदा से बचना चाहिए और
अपने बंधु-बांधवों के साथ इस जगत के स्वामी भगवान शिव की आराधना में तन्मय होकर
लगे रहना चाहिए।
ग्यारहवां अध्याय
भगवान शिव द्वारा देवताओं को वरदान
व्यासजी बोले--हे सनत्कुमार जी! आप परम शिवभक्त हैं और ब्रह्माजी के पुत्र हैं। आप
मुझे अब यह बताइए कि जब त्रिपुर नष्ट हो गए तब देवताओं ने क्या किया? मय कहां चला
गया? भगवन्! इन बातों के बारे में सविस्तार मुझे बताइए।
व्यास जी का प्रश्न सुनकर सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षे!
जब भगवान शिव ने त्रिपुरों को उनके स्वामियों के साथ जलाकर भस्म कर दिया तब सभी
देवता बहुत प्रसन्न हुए, क्योंकि उन्हें अपने संकट और भय से मुक्ति मिल गई थी। परंतु जब
सब देवताओं ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की ओर देखा तो अत्यंत भयभीत हो गए। उस
समय भगवान शिव ने रौद्र रूप धारण कर रखा था। वे करोड़ों सूर्यो के तेज के समान
प्रकाशित हो रहे थे। उनके दिव्य तेज से सारी दिशाएं आलोकित हो रही थीं। भगवान के इस
रौद्र और प्रलयंकारी रूप को देखकर कोई भी उनसे कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पाया।
सब नत-मस्तक खड़े हो गए। यहां तक कि श्रीहरि और ब्रह्माजी भी शिवजी के इस रूप को
देखकर आतंकित हो गए थे। कोई भी भगवान शिव के सम्मुख मुंह नहीं खोल पाया।
देव सेना को इस प्रकार भयग्रस्त देखकर ऋषियों ने हाथ जोड़कर भगवान शिव को
प्रणाम किया। ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु, देवराज इंद्र सहित सभी देवता और ऋषि-मुनि
भक्तवत्सल कल्याणकारी भगवान शिव की स्तुति करने लगे। इस प्रकार सबको अपनी स्तुति
में मग्न देखकर भगवान शिव का क्रोध शांत हो गया और वे पहले की भांति अपने सरल,
सौम्य रूप में आ गए और बोले-है ब्रह्माजी! हे विष्णो और सभी देवताओ! मैं तुम्हारी स्तुति
से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो। मैं तुम्हारी इच्छाओं को अवश्य ही पूरा
करूंगा।
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर देवता बहुत प्रसन्न हुए और बोले-हे देवाधिदेव
करुणानिधान भगवान शिव! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं और हमें कोई वर प्रदान करना
चाहते हैं तो प्रभु हमें यह वर दीजिए कि जब-जब हम पर कोई भी संकट आएगा आप हमारी
सहायता करेंगे।
जब ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णुजी और देवताओं ने भगवान शिव से यह प्रार्थना की तब
शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा--तथास्तु अर्थात ऐसा ही होगा। ऐसा कहकर भगवान शिव ने
देवताओं के अभीष्ट फल को उन्हें प्रदान कर दिया।
बारहवां अध्याय
वर पाकर मय दानव का वितल लोक जाना
व्यास जी ने पूछा--हे महाबुद्धिमान सनत्कुमार जी! जब ब्रह्मा, श्रीहरि विष्णु एवं सभी
देवताओं ने भगवान शिव की स्तुति की तब वे प्रसन्न हुए और उन्होंने देवताओं को विपत्ति के
समय उनकी सहायता करने का वचन दिया। उसी समय भगवान शिव को प्रसन्न देखकर मय
नामक दानव, जो कि त्रिपुर की अग्ने में भस्म होने से बच गया था, उनके सामने आकर हाथ
जोड़कर खड़ा हो गया। तत्पश्चात मय ने निर्मल, स्वच्छ हृदय से करुणानिधान भगवान शिव
की स्तुति करनी आरंभ कर दी। उसने भगवान शिव के चरण पकड़ लिए।
मय ने भगवान शिव से कहा-हे करुणानिधान! भक्तवत्सल भगवान शिव! मैं आपकी
शरण में आया हूं। अतएव आप मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार मय ने प्रभु की बहुत स्तुति
की। उसकी ऐसी भक्तिमयी स्तुति को देखकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए और बोले-हे
दानवश्रेष्ठ मय! तुम अपनी परेशानियां भूल जाओ और अपने कष्टों का त्याग कर दो। मैं तुम
पर प्रसन्न हूं। तुम्हारी जो इच्छा हो मांग लो। मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा।
भगवान शिव के ये वचन सुनकर मय दानव की सभी चिंताएं दूर हो गई और उसके चेहरे
पर जो भय था, वह भी दूर हो गया। तब वह बोला-हे देवाधिदेव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न
हैं और मुझे कुछ वरदान देना चाहते हैं तो मुझे अपनी शाश्चत भक्ति प्रदान कीजिए। मैं
आपके मित्रों से सदैव मित्रता रखूं और आपके शत्रु मेरे भी शत्रु हों। मैं सभी प्राणियों से प्रेम
और दया से मिलूं। मुझमें सदैव विनम्रता विद्यमान रहे। मुझमें कभी भी आसुरी प्रवृत्ति का
उदय न हो। मैं सदेव आपके चरणों का ध्यान करता रहूं, कोई भी मुझे मेरे भक्ति मार्ग से हटा
न सके।
मय दानव की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव प्रसन्न होकर बोले
मय! तुम मेरे भक्त हो, इसलिए तुममें कभी कोई विकार नहीं आएगा। तुमने जो कुछ मांगा
है वह तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा। तुम सदैव मेरे अनन्य भक्त बने रहोगे तथा मेरी विशेष कृपा
तुम पर रहेगी। अब मैं तुम्हें वितल लोक जाने की आज्ञा प्रदान करता हूं। तुम वहीं पर निर्भय
होकर मेरी भक्ति में मगन रहो।
भगवान शिव की आज्ञा मानकर मय दानव वहां से सब देवताओं व अपने आराध्य
भगवान शिव को प्रणाम कर वितल लोक चला गया। तत्पश्चात देवाधिदेव भगवान शिव भी
देवी पार्वती सहित वहां से अंतर्धान हो गए। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के वहां से अंतर्धान
होते ही उनके अभीष्ट कार्यों को पूरा करने के लिए उपलब्ध कराए गए साधन-जैसे उनके
धनुष, बाण, रथ आदि भी वहां से अदृश्य हो गए। तब वहां उपस्थित ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु,
देवराज इंद्र व अन्य सभी देवता व ऋषि-मुनि भी हर्षपूर्वक अपने आराध्य भगवान शिव का
गुणगान करते अपने-अपने लोकों को चले गए।
भगवान शिव के इस रुद्ररूप का स्मरण करने से शत्रुओं का विनाश होता है। महर्षे! जीव
के सबसे भारी शत्रु और कोई नहीं, उसके मनोविकार ही तो हैं। इनके वशीभूत होकर जीव
अपने लक्ष्य से भटककर नष्ट हो जाता है। ऐसा करके वह अपने इहलोक के साथ-साथ
परलोक को भी बिगाड़ता है। भगवान शिव आशुतोष हैं। उनकी लीलाओं को सुनने से समस्त
पापों का नाश होता है और सभी अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
महर्षे! इस प्रकार मैंने तुम्हें तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली नामक तीनों महा असुरों
का संहार करने वाली भगवान शशिमौली शिव शंकर जी की लीलामय कथा सुनाई है।
तेरहवां अध्याय
इंद्र को जीवनदान व बृहस्पति को “जीव” नाम देना
व्यासजी बोले-हे ब्राह्मण! आपने मुझ पर कृपा करके मुझे भगवान शिव के अनेक
चरित्रों को बताया है। अब मैं आपसे एक और कथा जानना चाहता हूं। मैंने पूर्व में सुना था
कि भगवान शिव ने जलंधर का वध किया था। कृपा कर मुझे इस कथा के बारे में भी बताएं।
सूत जी बोले कि जब व्यास जी ने महामुनि से इस प्रकार पूछा तो सनत्कुमार जी बोले
हे महामुने! एक बार की बात है कि देवगुरु बृहस्पति और देवराज इंद्र भगवान शिव के दर्शन
करने के लिए कैलाश पर्वत पर गए। तब भगवान शिव ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के
विषय में सोचा। उन्होंने मार्ग में उन्हें रोक लिया। कैलाश पर्वत के रास्ते में ही वे अपना रूप
बदलकर तपस्वी का वेश धारण करके बैठ गए। जैसे ही देवराज इंद्र वहां से निकले, उन्होंने
तपस्वी से पूछा कि भगवान शिव अपने स्थान पर ही हैं या कहीं और गए हैं? यह पूछकर
उन्होंने तपस्वी से उनके नाम आदि के विषय में भी जानना चाहा परंतु तपस्वी रूप में शिवजी
चुप रहे और कुछ न बोले।
उन तपस्वी को इस प्रकार अपने प्रश्न के उत्तर में चुप देखकर देवराज इंद्र बहुत क्रोधित
हुए। वे बोले-अरे, मैं तुमसे पूछ रहा हूं और तू है कि उत्तर ही नहीं दे रहा है। जब तपस्वी ने
पलटकर पुनः उत्तर नहीं दिया तब इंद्र ने हाथ में बज्र लेकर तपस्वी रूप धारण किए भगवान
शिव पर आक्रमण कर दिया परंतु शिवजी ने तुरंत पलटवार करते हुए इंद्र के हाथ को पीछे
धकेल दिया। तब क्रोध के कारण शिवजी का रूप प्रज्वलित हो उठा और उस तेज को
देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि यह तेज सबकुछ जलाकर भस्म कर देगा। इंद्र की भुजा को
झटकने से इंद्र का क्रोध भी बढ़ गया परंतु गुरु बृहस्पति उस तेज से भगवान शिव को
पहचान गए।
देवगुरु बृहस्पति ने तुरंत हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान शिव को प्रणाम किया और
उनकी स्तुति करने लगे। बृहस्पति जी ने देवराज इंद्र को भी शिव चरणों में झुका दिया और
क्षमा याचना करने लगे। वे बोले कि हे प्रभु! अज्ञानतावश हम आपको पहचान नहीं पाए।
भूलवश आपकी अवहेलना करने का अपराध देवराज इंद्र से हो गया है। हे भगवन्! आप तो
करुणानिधान हैं। भक्तवत्सल होने के कारण आप सदा अपने भक्तों के ही वश में रहते हैं।
प्रभु! कृपा करके इंद्रदेव को क्षमा कर दीजिए।
बृहस्पति जी के ऐसे वचन सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बोले कि मैं अपने नेत्रों की
ज्वाला नहीं रोक सकता। तब बृहस्पति जी बोले कि प्रभु आप इंद्र देव पर दया कीजिए और
अपने क्रोध की अग्नि को कहीं और स्थापित कर देवराज का अपराध क्षमा कीजिए। तब
भगवान शिव बोले-हे बृहस्पति! मैं तुम्हारे चातुर्य से प्रसन्न हूं। आज तुमने इंद्र को जीवनदान
दिलाया है इसलिए तुम्हें “जीव” नाम से प्रसिद्धि मिलेगी। यह कहकर उन्होंने अपने क्रोध की
ज्वाला को समुद्र में फेंक दिया। तब इंद्र देव और देवगुरु बृहस्पति ने भगवान शिव को
धन्यवाद दिया और उन्हें प्रणाम करके स्वर्ग लोक चले गए।
चौदहवां अध्याय
जलंधर की उत्पत्ति
व्यासजी बोले--सनत्कुमार जी! जब भगवान शिव ने अपने क्रोध की ज्वाला समुद्र में
प्रवाहित कर दी, तब क्या हुआ?
सनत्कुमार जी बोले--हे मुने! जब भगवान शिव ने अपना क्रोध समुद्र में डाल दिया तो
क्रोध की वह ज्वाला बालक का रूप लेकर जोर-जोर से रोने लगी। उस बालक के रोने की
आवाज से सारा संसार भयभीत हो गया। पूरा संसार उसकी आवाज से व्याकुल था। तब
सभी चिंतित होकर ब्रह्माजी की शरण में गए। तब सब देवताओं ने सादर ब्रह्माजी को प्रणाम
किया और उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात बोले-हे ब्रह्माजी! इस समय हम सभी पर
बड़ा भारी संकट आन पड़ा है। प्रभु! आप तो सबकुछ जानते ही हैं। उस बालक ने, जो समुद्र
से उत्पन्न हुआ है, अपने भयंकर रुदन द्वारा पूरे संसार को आहत किया है। सभी भय से
आतुर हैं। हे महायोगिन्! आप उस बालक का संहार करके हमें भयमुक्त कराएं।
देवताओं की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी अपने लोक से पृथ्वीलोक पर
उतरकर उस समुद्र पर पहुंचे जहां वह बालक विद्यमान था। ब्रह्माजी को अपने पास आता
देखकर समुद्र ने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और उस बालक को ब्रह्माजी को सौंप दिया।
तब ब्रह्माजी ने आश्चर्यचकित होकर समुद्र देव से प्रश्न किया कि यह बालक किसका है?
ब्रह्माजी के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए समुद्र देव बोले कि हे भगवन्! यह बालक गंगा सागर
की उत्पत्ति स्थल पर प्रकट हुआ है परंतु मैं इस बालक के विषय में और कुछ नहीं जानता।
इस प्रकार जब ब्रह्माजी समुद्र से बातें कर रहे थे, तब उस समय उस बालक ने ब्रह्माजी के
गले में हाथ डाल दिया और उनका गला जोर से दबा दिया। जिसकी पीड़ा स्वरूप उनकी
आंखों से आंसू बहने लगे। तब ब्रह्माजी ने यत्नपूर्वक उस बालक की पकड़ से अपने को मुक्त
कराया और समुद्र से बोले कि तुम्हारे इस जातक पुत्र ने मेरे नेत्रों से जल निकाला है। अत
यह बालक 'जलंधर' नाम से प्रसिद्ध होगा। उत्पन्न होते ही युवा हो जाने के कारण यह बालक
महापराक्रमी, महाधीर जवान, महायोद्धा और रण-दुर्मद होगा। यह बालक युद्ध में सदैव
विजयी होगा। यहां तक कि यह भगवान श्रीहरि विष्णु को भी जीत लेगा। यह बालक दैत्यों
का अधिपति होगा। कोई भी मनुष्य या देवता इसका चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।
इसका संहार केवल त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के द्वारा ही संभव है। यह कहकर ब्रह्माजी ने
असुरों के गुरु शुक्राचार्य को बुलाया और उनके हाथों से उस बालक को दैत्यों का राजा
स्वीकार करते हुए उसका राज्याभिषेक कराया। तत्पश्चात ब्रह्माजी स्वयं वहां से अंतर्धान हो
गए।
अपने जातक पुत्र के विषय में जानकर समुद्र देव बहुत प्रसन्न हुए और वे उसे अपने
निवास स्थान पर ले गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने जलंधर का विवाह कालनेमि नामक
असुर की परम सुंदर पुत्री वृंदा से संपन्न करा दिया। जलंधर आनंदपूर्वक अपनी पत्नी के
साथ निवास करने लगा और असुरों के राज्य को बड़ी चतुराई और कर्तव्यपरायणता के साथ
चलाने लगा। उसकी पत्नी वृंदा महान पतिव्रता नारी थी।
पट्रहवा अध्याय
देव-जलंधर युद्ध
सनत्कुमार जी बोले--हे महर्षि! एक दिन की बात है असुरराज जलंधर अपने दरबारियों
एवं मंत्रियों के साथ अपनी राजसभा में विराजमान था। तभी वहां असुरों के महान गुरु
शुक्राचार्य पधारे।
वे परम कांतिमान थे और उनके तेज से सब दिशाएं प्रकाशित हो रही थीं। शुक्राचार्य को
वहां आया देखकर जलंधर राजसिंहासन से उठा और आदरपूर्वक अपने गुरु को नमस्कार
करने लगा। तत्पश्चात उन्हें सुयोग्य दिव्य आसन पर बिठाया। फिर उसने भी अपना आसन
ग्रहण किया। अपने गुरु की यथायोग्य सेवा करने के उपरांत जलंधर ने शुक्राचार्य से प्रश्न
किया कि गुरुजी! राहु का सिर किसने काटा था? इसके बारे में आप मुझे सविस्तार बताइए।
शुक्राचार्य ने अपने शिष्य सागर-पुत्र जलंधर के प्रश्न का उत्तर देना आरंभ किया। वे बोले
--एक बार देवताओं और असुरों ने मिलकर सागर के गर्भ में छुपे अनमोल रत्नों को
निकालने के लिए सागर मंथन करने के विषय में सोचा। इस प्रकार दोनों (असुरों व देवताओं)
में यह तय हुआ कि जो कुछ भी समुद्र मंथन से प्राप्त होगा उसे देवताओं और असुरों में
आधा-आधा बांट लिया जाएगा। तब दोनों ओर से देवता और असुर प्रसन्नतापूर्वक इस कार्य
को पूरा करने में लग गए। समुद्र मंथन में बहुत से बहुमूल्य रत्न आदि प्राप्त हुए, जिसे
देवताओं और असुरों ने आपस में बांट लिया परंतु जब समुद्र मंथन द्वारा अमृत का कलश
निकला तो राहु ने देवता का रूप धर कर अमृत पी लिया। यह जानते ही कि राहु ने अमृत पी
लिया है, देवताओं के पक्षधर भगवान विष्णु ने राहु का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
यह सब उन्होंने देवराज इंद्र के बहकावे में आकर किया था। यह सुनते ही जलंधर के नेत्र
क्रोध से लाल हो गए। उसने घस्मर नामक राक्षस का स्मरण किया, जो पलभर में ही वहां
उपस्थित हो गया। जलंधर ने पूरा वृत्तांत घस्मर को बताते हुए इंद्र को बंदी बनाकर लाने का
आदेश दे दिया। घस्मर जलंधर का वीर और पराक्रमी दूत था। वह आज्ञा पाते ही इंद्र देव को
लाने के लिए वहां से चला गया।
देवराज इंद्र की सभा में पहुंचकर जलंधर के दूत ने अपने स्वामी का संदेश इंद्र को सुना
दिया। वह बोला कि तुमने मेरे स्वामी जलंधर के पिता समुद्र देव का मंथन करके उनके सभी
रत्नों को ले लिया है। तुम वह सभी रत्न लेकर और अपने अधीनस्थों के साथ मेरे स्वामी की
शरण में चलो। घस्मर के वचन सुनकर देवराज इंद्र अत्यंत क्रोधित हो गए और बोले कि उस
सागर ने मुझसे डरकर अपने अंदर सभी रत्नों को छुपा लिया था। उसने मेरे शत्रु असुरों की
भी मदद की है और उनकी रक्षा की है। इसलिए मैंने समुद्र के कोष पर अपना अधिकार
किया है। मैं किसी से नहीं डरता हूं। जाकर अपने स्वामी को बता दो कि हिम्मत है तो इंद्र के
सामने आकर दिखाओ।
देवराज इंद्र के ऐसे वचन सुनकर जलंधर का घस्मर नामक दूत वापिस लौट गया। उसने
अपने स्वामी जलंधर को इंद्र के कथन से अवगत कराया। यह सुनकर जलंधर के क्रोध की
कोई सीमा न रही और उसने देवलोक पर तुरंत चढ़ाई कर दी। अपनी वीर पराक्रमी असुर
सेना के साथ उसने देवराज इंद्र पर आक्रमण कर दिया। उनके युद्धं के बिगुल से पूरा
इंद्रलोक गूंज उठा। चारों ओर भयानक युद्ध चल रहा था। मार-काट मची हुई थी। मृत
सैनिकों को देवताओं के गुरु बृहस्पति और दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य मृत संजीवनी से पुनः
जीवित कर रहे थे।
जब किसी भी प्रकार से उन्हें युद्ध में विजय नहीं मिल रही थी तो जलंधर ने अपने गुरु
शुक्राचार्य से प्रश्न किया कि है गुरुदेव! मैं रोज युद्ध में देवताओं के अनेक सैनिकों को मार
गिराता हूं, फिर भी देवसेना किसी भी तरह कम नहीं हो रही है। मेरे द्वारा मारे गए सारे
देवगण अगले दिन फिर से युद्ध करते हुए दिखते हैं। गुरुदेव! मृतों को जीवन देने वाली विद्या
तो आपके पास है, फिर देवता कैसे जीवित हो जाते हैं? तब शुक्राचार्य ने जलंधर को बताया
कि द्रोणगिरी पर्वत पर अनमोल औषधि है, जो देवताओं की रक्षा कर रही है। यदि तुम उन्हें
हराना चाहते हो तो द्रोणगिरी को उखाड़ कर समुद्र में फेंक दो। अपने गुरु शुक्राचार्य की
आज्ञा लेकर जलंधर द्रोण पर्वत की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर उसने अपनी महापराक्रमी
भुजाओं से द्रोण पर्वत को उठाकर समुद्र में फेंक दिया और पुनः जाकर देवसेना से युद्ध करने
लगा।
जलंधर ने अनेक देवताओं को अपने प्रहारों से घायल कर दिया और हजारों देवगणों को
पलक झपकते ही मौत के घाट उतार दिया। जब देवगुरु बृहस्पति देवताओं के लिए औषधि
लेने द्रोणगिरी पहुंचे तो पर्वत को अपने स्थान पर न देखकर बहुत आश्चर्यचकित हुए। वापस
आकर उन्होंने देवराज इंद्र को इस विषय में बताया और आज्ञा दी कि यह युद्ध तुरंत रोक
दिया जाए, क्योंकि अब तुम असुरराज जलंधर को नहीं जीत सकोगे। ऐसी स्थिति में प्राणों
की रक्षा करना ही बुद्धिमत्ता है।
सोलहवां अध्याय
श्रीविष्णु का लक्ष्मी को जलंधर का वध न करने का वचन देना
सनत्कुमार जी बोले--हे व्यास जी! इस प्रकार जब देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं को युद्ध
रोक देने के विषय में कहा तो सभी ने गुरु की आज्ञा का पालन किया और युद्ध रुक गया
परंतु जलंधर का क्रोध शांत नहीं हुआ। वह इंद्र को ढूंढ़ता-ढूंढ़ता स्वर्ग लोक आ पहुंचा।
जलंधर को वहां आता देखकर इंद्र व अन्य देवता अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु वहां से
भागकर भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में बैकुण्ठ लोक जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने
भगवान विष्णु को प्रणाम किया और उनकी भक्ति भाव से स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने
भगवान विष्णु से कहा—हे कृपानिधान! हम आपकी शरण में आए हैं, हमारी रक्षा कीजिए।
तब देवताओं ने विष्णुजी को जलंधर के विषय में सबकुछ बता दिया।
समस्त वृत्तांत सुनकर श्रीहरि विष्णु ने देवताओं से कहा कि वे अपने भय का त्याग कर
दें। उन्होंने उनकी प्राण रक्षा करने का आश्वासन दिया और कहा कि मीं जलंधर का वध कर
तुम्हें उससे मुक्ति दिलाऊंगा। यह कहकर भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर
चलने लगे। यह देखकर देवी लक्ष्मी के नेत्रों में आंसू आ गए और वे बोलीं-हे स्वामी!
जलंधर समुद्र देव का जातक पुत्र होने के कारण मेरा भाई है। आप मेरे स्वामी होकर मेरे भाई
को क्यों मारना चाहते हैं? यदि मैं आपको प्रिय हूं तो आप मेरे भाई का वध नहीं करेंगे।
अपनी प्राणवल्लभा लक्ष्मी जी के वचन सुनकर विष्णुजी बोले-हे देवी! यदि तुम ऐसा
चाहती हो तो ऐसा ही होगा परंतु तुम तो जानती ही हो कि पापी का नाश अवश्य होता है।
तुम्हारा भाई जलंधर अधर्म के मार्ग पर चल रहा है और देवताओं को कष्ट पहुंचा रहा है। फिर
भी मैं उसका वध अपने हाथों से नहीं करूंगा परंतु इस समय तो मुझे युद्ध में जाना होगा। यह
कहकर भगवान विष्णु युद्धस्थल की ओर चल दिए।
भगवान विष्णु उस स्थान पर पहुंचे, जहां असुरराज जलंधर था। भगवान विष्णु को आया
देखकर देवताओं में हर्ष और ऊर्जा का संचार हुआ। देवसेना अत्यंत रोमांचित हो गई। सभी
देवताओं ने हाथ जोड़कर श्रीहरि को प्रणाम किया। भगवान विष्णु का मुखमंडल अद्भुत
आभा से प्रकाशित हो रहा था। उनके दिव्य तेज के सामने दैत्य और दानवों का खड़े रह पाना
मुश्किल हो रहा था। श्रीहरि विष्णु के वाहन गरुड़ के पंखों से निकलने वाली प्रबल वायु ने
वहां पर आंधी-सी ला दी थी। इस आंधी में दैत्य इस प्रकार घूमने लगे, जिस प्रकार आसमान
में बादल घूमते हैं। अपनी सेना को ऐसी विकट परिस्थिति में देखकर जलंधर अत्यंत क्रोधित
हो उठा।
सत्रहवा अध्याय
श्रीविष्णु-जलंधर युद्ध
सनत्कुमार जी बोले--हे महर्षे! दैत्यों के तेज प्रहारों से व्याकुल देवता बचने के लिए जब
इधर-उधर भाग रहे थे, तब भगवान विष्णु के युद्धस्थल में आने से देवताओं को थोड़ा साहस
बंधा। उनके वाहन गरुड़ के पंखों के फड़फड़ाने से आए तूफान में दैत्य अपनी सुध-बुध
खोकर इधर-उधर उड़ने लगे। पर जल्दी ही उन्होंने अपने को संभाल लिया। जलंधर ने जब
अपनी दैत्य सेना को इस प्रकार तितर-बितर होते देखा तो क्रोधित होकर उसने भगवान
श्रीहरि विष्णु पर आक्रमण कर दिया। श्रीहरि विष्णु ने अपने आपको उसके प्रहार से बचा
लिया।
जब भगवान श्रीहरि ने देखा कि देव सेना पुनः आतंकित हो रही है और उनके सेनापति
देवराज इंद्र भी भयग्रस्त हैं। तब विष्णुजी ने अपना शार्ङ्ग नामक धनुष उठा लिया और बड़े
जोर से धनुष से टंकार की। फिर उन्होंने देखते ही देखते पल भर में हजारों दैत्यों के सिर काट
दिए। यह देखकर दैत्यराज जलंधर क्रोधावेश में उन पर झपटा।
तब श्रीहरि ने उसकी ध्वजा, छत्र और बाण काट दिए तथा उसे अपनी गदा से उठाकर
गरुड़ के सिर पर दे मारा। गरुड़ से टकराकर नीचे गिरते ही जलंधर के होंठ फड़कने लगे।
तब दोनों ही अपने-अपने वाहनों से भीषण बाणों की वर्षा करने लगे। विष्णुजी ने जलंधर की
गदा अपने बाणों से काट दी। फिर उसे बाणों से बांधना शुरू कर दिया परंतु जलंधर भी
महावीर और पराक्रमी था। वह भी कहां मानने वाला था। उसने भी भीषण बाणवर्षा शुरू
कर दी और विष्णुजी के धनुष को तोड़ दिया। तब उन्होंने गदा उठा ली और उससे जलंधर
पर प्रहार किया परंतु उसका महादैत्य जलंधर पर कोई असर नहीं हुआ। तब उसने अग्नि के
समान धधकते त्रिशूल को विष्णुजी पर छोड़ दिया। उस त्रिशूल से बचने के लिए विष्णुजी ने
भगवान शिव का स्मरण करते हुए नंदक त्रिशूल चलाकर जलंधर के वार को काट दिया।
तत्पश्चात विष्णु भगवान और जलंधर दोनों धरती पर कूद पड़े और फिर उनके बीच मल्ल
युद्ध होने लगा। जलंधर ने भगवान विष्णु की छाती पर बड़े जोर का मुक्का मारा। तब
विष्णुजी ने भी पलटकर उस पर मुक्के का प्रहार किया। इस प्रकार दोनों में बाहुयुद्ध होने
लगा। उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। दोनों ही वीर और बलशाली थे। न
भगवान विष्णु कम थे और न ही जलंधर। सभी देवता और दानव उनके बीच के युद्ध को
आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। युद्ध समाप्त न होते देख भगवान विष्णु ने कहा
हे दैत्यराज जलंधर! तुम निश्चय ही महावीर हो। तुम्हारा पराक्रम प्रशंसनीय है। तुम इतने
भयानक आयुधों से भी भयभीत नहीं हुए और निरंतर युद्ध कर रहे हो। मैं तुम पर प्रसन्न हूं।
तुम जो चाहे वरदान मांग सकते हो। मैं निश्चय ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करूंगा।
भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर जलंधर बहुत हर्षित हुआ और बोला-हे विष्णो! आप
मेरी बहन लक्ष्मी के पति हैं। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो अपनी पत्नी और कुटुंब के लोगों
के साथ पधारकर मेरे घर को पवित्र कीजिए। तब भगवान श्रीहरि ने 'तथास्तु' कहकर उसे
उसका इच्छित वर प्रदान किया।
अपने दिए गए वर के अनुसार श्रीहरि विष्णु देवी लक्ष्मी व अन्य देवताओं को अपने साथ
लेकर जलंधर का आतिथ्य ग्रहण करने के लिए उसके घर पहुंचे। जलंधर उन्हें देखकर बहुत
प्रसन्न हुआ और उसने सब देवताओं का बहुत आदर-सत्कार किया और उनकी वहीं पर
स्थापना कर दी। विष्णु परिवार के स्थापित हो जाने के बाद जलंधर निर्भय होकर श्रीविष्णु के
अनुग्रह से त्रिभुवन पर शासन करने लगा। उसके राज्य में सभी सुखी थे और धर्म-कर्म का
पालन करते थे।
अठारहवा अध्याय
नारद जी का कपट जाल
सनत्कुमार जी बोले--हे मुनिश्वर! जब जलंधर इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य कर रहा था तो
देवता बड़े दुखी थे। उन्होंने अपने मन में देवाधिदेव भगवान शिव का स्मरण करना शुरू कर
दिया और उनकी स्तुति करने लगे। एक दिन नारद जी भगवान शिव की प्रेरणा से इंद्रलोक
पहुंचे। नारद जी को वहां आया देखकर सभी देवताओं सहित देवराज ने उन्हें प्रणाम किया
और उनकी स्तुति करने लगे। तब नारद जी को उन्होंने सभी बातों से अवगत कराया और
उनसे प्रार्थना की कि वे उनके दुखों को दूर करने में मदद करें। यह प्रार्थना सुनकर नारद जी
बोले कि देवराज मैं सबकुछ जान गया हूं। मैं अवश्य ही तुम्हारे कार्य को पूर्ण करने का प्रयास
करूंगा। अभी तो मैं दैत्यराज जलंधर से मिलना चाहता हूं। इसलिए उसके राजमहल में जा
रहा हूं। यह कहकर नारद जी जलंधर के राज्य की ओर चल दिए। वहां पहुंचकर नारद जी ने
जलंधर की राजसभा में प्रवेश किया। उन्हें देखकर दैत्यों के स्वामी जलंधर ने उन्हें सिंहासन
पर बैठाया, उनके चरणों को धोया और पूछा-है ब्रह्मन्! आप कहां से आ रहे हैं? मैं धन्य
हुआ जो आपने मेरे घर को पवित्र किया है। मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आपकी क्या सेवा
करूं?
दैत्यराज जलंधर के ऐसे वचन सुनकर नारद जी बोले-है दैत्यराज जलंधर! आप धन्य
हैं। निश्चय ही आप पर सभी की कृपा है। इस लोक में आप सब सुखों को भोग रहे हैं।
जलंधर! अभी कुछ समय पूर्व मैं ऐसे ही घूमते हुए कैलाश पर्वत पर गया था। वहां कैलाश
पर मैंने सैकड़ों कामधेनुओं को हजारों योजन में फैले कल्पतरु के वन में घूमते हुए देखा। वह
कल्पतरु वन दिव्य, अद्भुत और सोने के समान है। वहीं पर मैंने भगवान शिव और उनकी
प्राणवल्लभा देवी पार्वती को भी देखा। भगवान शिव सर्वांग सुंदर, गौरवर्णी तीन नेत्रों वाले हैं
और अपने मस्तक पर चंद्रमा धारण किए हुए हैं। असुरराज! इस पूरे त्रिलोक में उनके समान
कोई भी नहीं है। उनके समान समृद्धिशाली और ऐश्वर्य संपन्न कोई भी नहीं है। तभी मुझे
तुम्हारी धन-संपत्ति का भी ध्यान आया। इसलिए मैं तुम्हारे पास आ गया।
नारद जी के वचनों को सुनकर जलंधर अत्यंत गर्वित महसूस करने लगा और उसने महर्षि
नारद को अपने धन के खजाने और सभी संचित अमूल्य निधियां दिखा दीं। जलंधर की धन
संपदा देखकर नारद जी जलंधर की प्रशंसा करते हुए बोले-- हे दैत्येंद्र! आप अवश्य ही इस
त्रिलोक के स्वामी होने के योग्य हैं। आपके पास ऐरावत हाथी है, उच्चैःश्रवा घोड़ा भी आपके
पास है। कल्प वृक्ष, धन के देवता कुबेर के खजाने, रत्नों, हीरों, मणियों के अंबार आपके
पास हैं। ब्रह्माजी का दिव्य विमान भी आपने ले लिया है। स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की सभी
ऐश्वर्यपूर्ण वस्तुएं और अनमोल खजानों का आपके पास अंबार है। आपका धन-वैभव
देखकर सभी आपसे ईषया कर सकते हैं परंतु दैत्यराज आपके पास अभी भी स्त्री-रत्न की
कमी है। बिना दिव्य स्त्री के पुरुष अधूरा है। उसका स्वरूप तभी पूर्ण होता है, जब वह किसी
स्त्री को ग्रहण करता है। इसलिए असुरराज आप कोई परम सुंदरी ग्रहण कर, इस कमी को
यथाशीघ्र पूरा करें।
देवर्षि नारद की चालभरी बातों से भला कोई कैसे बच सकता है। उन्होंने जैसा सोचा था
वैसा ही हुआ। जलंधर ने नारद जी के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रश्न किया कि महर्षि आपके
द्वारा वर्णित ऐसी सुंदर दिव्य स्त्री मुझे कहां मिलेगी, जो रत्नों से भी श्रेष्ठ हो। यदि आप इस
प्रकार के स्त्री-रत्न के बारे में मुझे बता दें, तो मैं उस रत्न को अवश्य ही लाकर अपने
राजभवन की शोभा बढ़ाऊंगा।
जलंधर की बातें सुनकर देवर्षि नारद ने कहा-हे दैत्येंद्र! ऐसा अनमोल स्त्री रत्न तो
त्रिलोकीनाथ महान योगी भगवान शिव के पास है। वह है उनकी परम सुंदर पत्नी देवी
पार्वती। वे सर्वांग सुंदर होने के साथ-साथ सर्वगुण संपन्न भी हैं। संसार की कोई भी स्त्री
उनकी बराबरी नहीं कर सकती। उनका मनोहारी रूप पलभर में सबको मोहित कर सकता
है। वास्तव में उनके समान कोई नहीं है। यह कहकर देवर्षि नारद ने जलंधर से आज्ञा ली और
आकाश मार्ग से वापस लौट गए।
उन्नीसवां अध्याय
दूत-संवाद
व्यास जी बोले--हे सनत्कुमार जी! जब देवर्षि नारद इस प्रकार दैत्यराज जलंधर को देवी
पार्वती की सुंदरता और भगवान शिव के परम ऐश्वर्य और समृद्धि के बारे में बता आए तब
वहां क्या हुआ? दैत्यराज ने क्या किया?
व्यास जी के ऐसे प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले-हे महामुनि! नारद जी के वहां से चले
जाने पर असुरराज जलंधर ने अपने राहू नामक दूत को बुलाया और उसे भगवान शिव के
निवास स्थान कैलाश पर्वत पर जाने की आज्ञा दी। जलंधर ने कहा-राहू, उस पर्वत पर एक
योगी रहता है। उस जटाधारी योगी की पत्नी सर्वांग सुंदरी है। तुम्हें मेरे लिए उसकी पत्नी को
लाना है। अपने स्वामी जलंधर की आज्ञा पाकर वह दूत भगवान शिव के स्थान कैलाश पर्वत
पर गया। वहां नंदी ने उस राहू नामक दूत को अंदर जाने से रोका परंतु वह सीधा अंदर चला
गया। वहां कैलाशपति भगवान शिव के सामने उसने अपने स्वामी दैत्यराज जलंधर का संदेश
शिवजी को सुना दिया। जैसे ही असुरराज जलंधर के दूत राहू ने यह संदेश त्रिलोकीनाथ
भगवान शिव को सुनाया, उसी समय शिवजी के सामने की धरती फट गई और उसमें से एक
बड़ा भयानक गर्जना करता हुआ पुरुष प्रकट हुआ। वह पुरुष अत्यंत बलशाली और वीर
जान पड़ता था। उसका मुख सिंह के समान था और ऐसा लगता था कि सिंह मानव का रूप
लेकर साक्षात सामने आकर खड़ा हो गया है। वह नृसिंह रूपी पुरुष तुरंत राहू को खाने के
लिए झपटा। यह देखकर राहू अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए दौड़ा परंतु असफल रहा।
उसने राहू को कस कर पकड़ लिया।
जब राहू ने देखा कि अब बचने का कोई रास्ता नहीं बचा है, तब राहू भगवान शिव से यह
प्रार्थना करने लगा कि वे उसके प्राणों की रक्षा करें। वह बोला भगवन्! मैं तो असुरराज
जलंधर का दूत हूं। मैंने तो सिर्फ वही कहा है, जो मेरे स्वामी की आज्ञा थी। हे कृपानिधान!
मेरी भूल के लिए मुझे क्षमा करें। राहू के वचन सुनकर करुणानिधान भगवान शिव ने नृसिंह
रूपी पुरुष को आज्ञा दी कि वह राहू को छोड़ दे। अपने प्रभु की आज्ञा पाकर उसने राहू को
छोड़ दिया।
जब उसने राहू को छोड़ दिया तब वह शिवजी से बोला कि भगवन्! आपकी आज्ञा
मानकर मैंने इस दुष्ट को छोड़ दिया है परंतु हे प्रभु! मैं बहुत भूखा हूं। अब मैं क्या करूं? क्या
खाकर अपनी भूख शांत करूं? तब भगवान शिव ने उससे कहा कि अपने हाथ-पैरों के मांस
को खाकर अपनी भूख शांत करो। शिवजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर उसने अपने हाथों
और पैरों का मांस खा लिया। अब सिर्फ उसका सिर ही बचा था। यह देखकर भगवान शिव
उस पर प्रसन्न हो गए और बोले, तुमने मेरी आज्ञा का पालन करके मुझे प्रसन्न किया है। तुम
वाकई मेरे प्रिय हो। आज से तुम मेरे भक्तों द्वारा भी पूज्य होगे। जो भी मनुष्य मेरी पूजा
करेगा वह तुम्हारी भी आराधना अवश्य करेगा। जो तुम्हारी पूजा नहीं करेगा उस भक्त पर
मेरी कृपादृष्टि नहीं होगी। उस दिन से वह कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का प्रिय गण बनकर
रहने लगा और संसार में 'स्वकीर्तिमुख' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बीसवां अध्याय
शिवगणों का असूुरों से युद्ध
व्यास जी बोले--हे सनत्कुमार जी! असुरराज जलंधर के राहू नामक दूत का क्या हुआ?
जब भगवान शिव ने राहू को अभयदान दे दिया, फिर राहू कैलाश पर्वत से कहां गया और
उसने कया किया? इस विषय में मुझे बताइए।
महर्षि व्यास के इन वचनों को सुनकर सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षि! जब राहू नामक
दूत को शिवजी ने उस पुरुष के हाथों से मुक्त करा दिया, तब राहू वहां से तुरंत भागकर अपने
स्वामी दैत्यराज जलंधर के पास गया और वहां उसने अपने स्वामी को सभी बातें बता दीं, जो
वहां हुई थीं। उन सारी बातों को जानकर असुरराज जलंधर का क्रोध सातवें आसमान पर
चढ़ गया।
जलंधर ने अपने सेनापति और अन्य अधिकारियों को बुलाकर अपनी दैत्य सेना को युद्ध
के लिए तैयार होने की आज्ञा प्रदान की। अपने स्वामी की आज्ञा पाकर कालनेमि, शुंभ
निशुंभ आदि महावीर पराक्रमी दैत्य युद्ध के लिए तैयारी करने लगे। जलंधर की विशाल
चतुरंगिणी दैत्य सेना भगवान शिव से युद्ध करने के लिए निकल पड़ी। उस सेना के साथ ही
दैत्यगुरु शुक्राचार्य और राहू भी थे।
इधर, जब देवताओं को ज्ञात हुआ कि जलंधर अपनी सेना को साथ लेकर भगवान शिव
से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा है तो देवराज इंद्र शिवजी को अवगत कराने के लिए
कैलाश पर्वत पर गए और वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को सारी बातें बता दीं। इंद्र
ने भगवान विष्णु के विषय में भी उन्हें बताया कि भगवान विष्णु भी अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी
के साथ असुरराज जलंधर के वश में हैं और उसके घर में निवास करते हैं। इसी कारण हम
सब देवता विवश हैं। हमें न चाहते हुए भी जलंधर के अधीन होना पड़ा है। भगवन्! आप
भक्तवत्सल हैं। आप अपने भक्तों की रक्षा कर हमें जलंधर से मुक्ति दिलाएं। उसे मारकर
हमारे प्राणों की रक्षा करें।
सारी बातें ज्ञात हो जाने पर भगवान शिव ने सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण
किया। प्रभु के स्मरण करते ही विष्णुजी वहां तुरंत प्रकट हो गए। उन्हें देखकर शिवजी ने
उनसे पूछा-हे विष्णो! तुम्हें मैंने दैत्येंद्र जलंधर का वध करने के लिए भेजा था, फिर तुमने
उसका वध क्यों नहीं किया? आप उसके घर में क्यों निवास कर रहे हैं?
अपने आराध्य भगवान शिव के ये वचन सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपने दोनों हाथ
जोड़ लिए और विनम्रतापूर्वक बोले-हे करुणानिधान भगवान शिव! मैं जानता हूं कि आपने
मुझे दैत्यराज जलंधर का संहार करने की आज्ञा दी थी, परंतु मैं उसे नहीं मार सका। इसलिए
आपसे क्षमा याचना करता हूं। मेरी गलती क्षमा करें। प्रभु! मैंने जलंधर का वध इसलिए नहीं
किया, क्योंकि जलंधर मेरी प्राणवल्लभा देवी लक्ष्मी का भ्राता है और उसमें आपका अंश भी
विद्यमान है। इसलिए उस दैत्य की वीरता से प्रसन्न होकर मैं उसके घर में निवास करता हूं।
भगवान विष्णु के वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव हंसने लगे। फिर बोले--
देवताओ! तुम सभी सोच और चिंताओं को त्याग दो। तुम्हारी रक्षा के लिए मैं अवश्य ही
जलंधर का संहार करूंगा। यह सुनकर सभी देवता निश्चिंत हो गए।
इसी समय जलंधर अपनी विशाल सेना साथ लेकर कैलाश पर्वत के निकट पहुंच गया।
उसने कैलाश पर्वत को चारों ओर से घेर लिया। उस समय बड़ा कोलाहल होने लगा। यह शोर
सुनकर भगवान शिव को क्रोध आ गया। तब उन्होंने अपने गणों को आज्ञा दी कि वे जाकर
राक्षसों से युद्ध करें। अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके गण युद्ध करने चले
गए। शिवगणों और जलंधर की दैत्यसेना में बड़ा भीषण युद्ध होने लगा। शिवगण बड़ी वीरता
से दैत्यों से भिड़ गए। उन्होंने कई दैत्यों को पल भर में ही मौत के घाट उतार दिया और
सैकड़ों को घायल कर दिया। परंतु दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से सभी मृत
दानवों को पुनः जीवन दान दे रहे थे और वे उठकर पुन: युद्ध करने लगते थे।
जब दैत्यसेना किसी भी प्रकार कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी, तब शिवगण
व्याकुल होने लगे। तब शिवगणों ने भगवान शिव के पास जाकर उन्हें इसकी सूचना दी। जब
शिवजी को यह बात ज्ञात हुई कि यह सब शुक्राचार्य कर रहे हैं तो वे क्रोधित हो उठे। उस
समय भगवान शिव के मुख से एक भयंकर ज्वाला कृत्या के रूप में प्रकट हुई। उसका रूप
अत्यंत रौद्र और भयानक था। वह वहां से सीधे युद्ध भूमि में गई और दैत्यों को पकड़-
पकड़कर खाने लगी। इसी प्रकार भ्रमण करते हुए कृत्या शुक्राचार्य के निकट पहुंची और
उन्हें वहां से गायब कर दिया। जब अपने परम सहायक गुरु शुक्राचार्य उन्हें वहां न दिखाई
दिए तथा हजारों वीर मारे गए या घायल हो गए, तब दैत्य सेना का मनोबल टूटने लगा। दैत्य
सेना युद्धभूमि छोड़कर भागने लगी। जलंधर के कालनेमी, शुंभ, निशुंभ आदि वीर दैत्य फिर
भी पूरी ताकत से युद्ध करते रहे। इधर, भगवान शिव की सेना का प्रतिनिधित्व करने वाले
स्वामी कार्तिकेय और गणेश जी भी पूरे मनोयोग से दैत्य सेना को पछाड़ने के लिए युद्ध कर
रहे थे।
इक्कीसवां अध्याय
८६-युड
सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षे! भगवान शिव के गण व उनके दोनों पुत्र गणेश और
कार्तिकेय बहुत बलवान, वीर और साहसी थे। उन्होंने अपने पराक्रम से दैत्येंद्र जलंधर के
परम वीरों कालनेमि, शुंभ और निशुंभ को पराजित कर दिया। असुर सेना डरकर इधर-उधर
छिप गई। सब दैत्य अपने प्राणों की रक्षा हेतु भागने लगे। यह देखकर असुरराज जलंधर
अपने रथ पर बैठकर युद्धभूमि में आगे की ओर बढ़ने लगा और बड़ी भयानक गर्जना करने
लगा। उसकी ललकार सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के गण भी बढ़-चढ़कर युद्ध करने
लगे। असुर सेना और देवताओं की सेनाओं के रथों, हाथी, घोड़े, शंख तथा भेरी से युद्धभूमि
गुंजायमान हो रही थी।
दैत्यराज जलंधर ने तब ऐसा एक बाण छोड़ा, जिससे चारों ओर कोहरा फैल गया। धरती
से आकाश तक सिर्फ एक धुंध ही दिखाई दे रही थी। फिर उसने नंदीश्वर, गणेश, वीरभद्र को
एक साथ कई बाण मारकर घायल कर दिया। यह देखकर स्वामी कार्तिकेय को बहुत क्रोध
आ गया और उन्होंने असुरराज जलंधर पर अपनी शक्ति चला दी। कार्तिकेय की चलाई गई
शक्ति के फलस्वरूप जलंधर धरती पर गिर पड़ा परंतु गिरते ही वह उठकर खड़ा हो गया
और पूरी शक्ति के साथ पुनः युद्ध करने लगा। उसने सबसे पहला प्रहार कार्तिकेय पर ही
किया। जलंधर ने अपनी गदा उठा ली और पूरे बल के साथ कार्तिकेय को मारी जिससे
कार्तिकेय अपनी चेतना खो बैठे और बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। यह दृश्य देखकर
गणेश और नंदी भी चिंतित हो उठे। तब जलंधर ने उन पर भी गदा से प्रहार किया। गदा के
प्रहार से वे दोनों भी मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर गए।
तब वीरभद्र जलंधर से युद्ध करने के लिए आगे आए। जलंधर ने उन पर भी अपनी गदा
से प्रहार किया, जिससे वीरभद्र का सिर फट गया और रक्त बहने लगा। यह देखकर सभी
शिवगण व्याकुल हो गए और डरकर युद्ध-भूमि को छोड़कर इधर-उधर भागने लगे।
बाईसवां उध्याय
शिव-जलंधर युद्ध
सनत्कुमार जी बोले--हे महर्षे! जब युद्धभूमि में देवसेना का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी
वीर साहसी घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, तब यह देखकर सभी शिवगण भयभीत होकर
शिव की शरण में चले गए। जब भगवान शिव को युद्धस्थल का सब समाचार मिल गया, तब
वे स्वयं दैत्यराज जलंधर को सबक सिखाने के लिए युद्धस्थल की ओर चल पड़े। अपने
आराध्य भगवान शिव को युद्ध का नेतृत्व करते देखकर सभी शिवगण, जो पहले डरकर
भाग गए थे पुनः लौट आए। शिवगणों ने पहले जैसे जोश के साथ युद्ध करना प्रारंभ कर
दिया।
भगवान शिव के रौद्र रूप को देखकर भयानक दैत्य भी भयभीत होने लगे और युद्ध
छोड़कर भागने लगे। यह देखकर असुरों के स्वामी जलंधर को क्रोध आ गया। वह तीव्र गति
से शिवजी की ओर दौड़ा। इस कार्य में शुंभ-निशुंभ नामक सेनापतियों ने अपने स्वामी का
साथ दिया। यह देखकर भगवान शिव ने प्रतिउत्तर देते हुए जलंधर के बाणों को काट दिया।
वे अपने धनुष से बाणों की वर्षा करने लगे। उन्होंने कई दैत्यों को फरसे से काट दिया।
बलाहक और धस्मर जैसे भयानक राक्षसों को पल भर में मार गिराया। शिवजी का वाहन
बैल भी अपने सींगों के प्रहारों से सबको घायल करने लगा। तब यह देखकर जलंधर अपने
सैनिकों को समझाने लगा कि वे न डरें और युद्ध करते रहें। पर दैत्य सेना भगवान शिव से
युद्ध करने को तैयार ही नहीं हो रही थी। क्रोधित जलंधर उन्हें ललकारने लगा। जलंधर ने
अनेकों बाणों को एक साथ चलाकर उसमें भगवान शिव को बांधने का प्रयास किया, लेकिन
वह सफल न हो सका। भगवान शिव ने उसके सभी बाणों को काट दिया और उसके रथ की
ध्वजा को भी नीचे गिरा दिया।
असुरराज जलंधर के सभी बाणों को काटने के पश्चात भगवान शिव ने एक बाण मारकर
जलंधर को घायल कर दिया और उसके धनुष को काट दिया। यह देखकर जलंधर ने युद्ध
करने के लिए गदा उठा ली। तब शिवजी ने अपने बाण से उसकी गदा के भी दो टुकड़े कर
दिए। यह सब देखकर दैत्येंद्र जलंधर यह जान गया कि त्रिलोकीनाथ भगवान शिव उससे
अधिक बलवान हैं और उन्हें युद्ध में पराजित कर पाना उसके लिए मुश्किल है। तब जलंधर
ने जीतने के लिए गंधर्व माया उत्पन्न की। वहां उस युद्धस्थल पर हजारों की संख्या में गंधर्व
और अप्सराओं के गण उत्पन्न हो गए और वहां नृत्य करने लगे। वहां मधुर संगीत बजने
लगा। यह सब देखकर सभी देव सेना के सैनिक मोहित हो गए और युद्ध को भूलकर नृत्य
और गाना-बजाना देखने में मग्न हो गए। इधर, देवाधिदेव भगवान शिव भी गंधर्व माया से
मोहित होकर नृत्य देखने लगे।
जब दैत्यराज जलंधर ने देखा कि सभी देवताओं सहित देवाधिदेव भगवान शिव भी उस
गंधर्व माया के द्वारा मोहित होकर अप्सराओं के नृत्य को देख रहे हैं, तब वह वहां से चुपके से
भाग खड़ा हुआ। असुरराज जलंधर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का रूप धारण कर बैल पर
बैठकर देवी पार्वती के पास कैलाश पर्वत पर पहुंचा। वहां कैलाश पर देवी पार्वती अपनी
सखियों के साथ व्यस्त थीं। जब उन्होंने अपने पति भगवान शिव को आता देखा, तब उन्होंने
अपनी सखियों को वहां से भेज दिया और स्वयं भगवान शिव के समीप आ गई |
देवी पार्वती के अप्रतिम सौंदर्य को देखकर जलंधर का मन विचलित हो उठा और वह
उन्हें अपलक निहारने लगा। जलंधर के इस प्रकार के व्यवहार को देख पार्वती को यह
समझते हुए देर नहीं लगी कि वह कोई बहुरूपिया है, जो भगवान शिव का रूप धारण कर
उन्हें ठगने आया है। यह विचार मन में आते ही देवी पार्वती वहां से अंतर्धान हो गई। तब वे
एक अन्य स्थान पर पहुंची और उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु का स्मरण करके उन्हें वहां
बुलाया। विष्णुजी ने वहां पहुंचकर देवी को नमस्कार किया और उनसे प्रश्न किया कि क्या
आप जलंधर के इस कार्य को जानते हैं?
देवी पार्वती के इस प्रश्न को सुनकर श्रीविष्णु ने हाथ जोड़ लिए और बोले-हे माता!
आपकी क्या आज्ञा है? मैं उस दुष्ट को किस प्रकार का दंड दूं? तब देवी ने कहा कि आप जो
उचित समझें वह करें। तब श्रीविष्णु जलंधर को छलने के लिए उसके नगर की ओर चल
दिए।
तेईसवां अध्याय
वृंदा का पतिव्रत भंग
व्यास जी बोले-सनत्कुमार जी! जब माता पार्वती की आज्ञा पाकर भगवान विष्णु
सागरपुत्र जलंधर की नगरी को चले गए, तब फिर आगे क्या हुआ? उन्होंने वहां जाकर क्या
किया?
व्यास जी का प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी मुस्कुराए और बोले-हे महर्षे! दैत्यराज जलंधर
की नगरी में पहुंचकर श्रीहरि विष्णु सोच में पड़ गए कि वे क्या करें परंतु अगले ही पल उन्हें
समझ में आ गया कि जैसे को तेसा। उन्होंने सोचा कि जिस प्रकार जलंधर ने छदम शिव रूप
धारण करके देवी पार्वती को छलने की कोशिश की थी, वे भी वहां जाकर उसकी पत्नी वृंदा
का पतिव्रत धर्म भंग करेंगे। वे जानते थे कि जलंधर अपनी पत्नी के पतिव्रत धर्म से ही अभी
तक बचा हुआ है। इसलिए उसका पतिव्रत धर्म नष्ट करना जरूरी है। मन में यह विचार आते
ही वे नगर के राज उद्यान में जाकर ठहर गए।
दूसरी ओर दैत्यराज जलंधर की पतिव्रता पत्नी वृंदा अपने कक्ष में सो रही थी। भगवान
श्रीहरि विष्णु की माया के फलस्वरूप उन्होंने रात्रि में एक सपना देखा। उसने देखा कि
उसका पति निर्वस्त्र होकर सिर पर तेल लगाकर और गले में काले रंग के फूलों की माला
पहनकर भैंसे पर बैठा है और उसके चारों ओर हिंसक जीव-जंतु उसको घेरे खड़े हैं। उस
समय चारों ओर घोर अंधकार फैला हुआ था और वह दक्षिण दिशा की ओर बढ़ता जा रहा
था। ऐसा सपना देखकर वह डर गई और उसकी आंख खुल गई। तभी उसने देखा कि सूर्य
उदय हो रहा है परंतु वह सूर्य अत्यंत कांतिहीन था और उसे सूर्य में एक छेद भी दिखाई दे
रहा था। यह सब देखकर वृंदा का मन बहुत व्याकुल हो उठा और वह इधर-उधर टहलने
लगी। कभी छज्जे और अटारी पर चढ़ती तो कभी जमीन पर बैठ जाती परंतु उसे चैन नहीं
था?
जब इस प्रकार वृंदा का मन शांत नहीं हुआ तो वह मन की शांति प्राप्त करने हेतु उद्यान
की ओर चल दी परंतु उस निर्जन उद्यान में उसके पीछे सिंह के समान दो भयंकर राक्षस पड़
गए। वृंदा उन्हें देखकर बहुत डर गई और अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए वहां से भागने
लगी। भागते हुए उसे सामने से आते हुए एक तपस्वी दिखाई दिए। भयभीत वृंदा उन मुनि से
अपने जीवन की रक्षा करने के लिए प्रार्थना करने लगी। उन तपस्वी ने अपने कमण्डल से
जल निकालकर उन राक्षसों को ललकारते हुए उन पर जल छिड़क दिया। जल छिड़कते ही
दोनों राक्षस वहां से भाग खड़े हुए। तब वृंदा ने दोनों हाथ जोड़कर उन तपस्वी को प्रणाम
किया तथा उनका धन्यवाद व्यक्त किया। तत्पश्चात उनको अत्यंत दिव्य और शक्तिशाली
जानकर वृंदा ने उन मुनि से अपने पति दैत्यराज जलंधर के विषय में पूछा। मुनि ने उत्तर
दिया कि देवी तुम्हारा पति तो युद्ध में मारा गया है। यह कहकर उन्होंने कुछ इशारा किया,
जिसके फलस्वरूप दो वानर उनके सामने प्रकट हो गए। अगले ही पल उन तपस्वी का संकेत
पाकर वे वानर आकाश मार्ग से उड़कर चले गए और कुछ समय पश्चात दैत्यराज जलंधर का
कटा हुआ सिर और उसके अन्य सामान को लेकर लौट आए।
अपने पति जलंधर का कटा हुआ सिर देखकर वृंदा बेहोश होकर गिर पड़ी। कुछ समय
पश्चात होश में आने पर रोते हुए वृंदा उन मुनि से प्रार्थना करने लगी कि वे उसके पति को
पुनः जीवित कर दें। यह कहकर वह बहुत जोर-जोर से रोने लगी और बोली कि यदि आप
मेरे पति को जीवनदान नहीं दे सकते तो मुझे भी मृत्यु दे दें।
वृंदा के इस प्रकार के वचन सुनकर मुनि बोले-हे देवी! तुम्हारे पति का वध त्रिलोकीनाथ
भगवान शिव के द्वारा हुआ है। अतः उसको जीवित करना देवाधिदेव भगवान शिव का
विरोध करना है परंतु अपनी शरण में आए हुए मनुष्य की रक्षा करना मेरा भी धर्म है।
इसलिए मैं तुम्हारे पति को पुनः जीवित अवश्य करूंगा। यह कहकर उन्होंने अपने कमण्डल
से जल निकाला और मंत्रोच्चारण करते हुए जलंधर पर छिड़का, जिसके फलस्वरूप वह
जीवित हो गया। जलंधर को जीवन दान देकर वे तपस्वी वहां से अंतर्धान हो गए। वस्तुतः
उस तपस्वी ने ही सूक्ष्म रूप से जलंधर की काया में प्रवेश कर लिया था। दरअसल, तपस्वी
का रूप धारण करने वाले वे मुनि और कोई नहीं स्वयं श्रीहरि विष्णु थे। अपने पति को अपने
पास पाकर देवी वृंदा बहुत खुश हुई और तुरंत अपने पति के गले लग गई। उसने उन सब
बातों को भयानक स्वप्र समझकर भुला दिया फिर बहुत समय तक उस छदम वेशधारी
जलंधर के साथ वन में ही रमण करती रही परंतु मायावी की माया भला कब तक छिप
सकती थी? एक दिन वृंदा को ज्ञात हो गया कि उसके साथ विहार करने वाला पुरुष और
कोई नहीं स्वयं श्रीहरि विष्णु हैं, जो कि उसके पति का रूप धारण करके उसे छल रहे हैं।
यह सारी सच्चाई जानकर देवी वृंदा बहुत दुखी हुई। तब वह श्रीहरि विष्णु से बोली
तुमने एक पराई स्त्री का उसका पति बनकर उपभोग किया है। तुम्हें धिक्कार है। मैं किस
प्रकार अपने पति का सामना कर सकती हूं? अब मुझे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं
है पर तुम्हें तुम्हारी करनी की सजा अवश्य ही मिलेगी। तुमने मुझे अबला जानकर मेरा
इस्तेमाल किया है। मैं तुम्हें शाप देती हूं कि जिन राक्षसो से तुमने मुझे डराकर मेरा विश्वास
जीता था, वे ही राक्षस तुम्हारी पत्नी का भी हरण करेंगे और तुम उसके वियोग में हर ओर
भटकोगे। तब यही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे। मेरा अगला जन्म तुलसी के रूप में होगा
और मेरी संजीवनी-शक्ति ही मेरी पवित्रता का प्रमाण होगी।
भगवान श्रीहरि विष्णु को इस प्रकार शाप देकर असुरश्रेष्ठ जलंधर की पत्नी वृंदा ने अग्नि
में प्रवेश कर लिया और उसमें अपने प्राणों की आहुति दे दी। उस अग्ने में से एक तेज प्रकट
हुआ और वह जाकर देवी पार्वती में समा गया।
चौबीसवां अध्याय
जलंधर का वध
व्यास जी बोले--हे तात! उधर, जब असुरराज जलंधर द्वारा फैलाई गई गंधर्व माया से
मोहित होकर सभी देवताओं सहित भगवान शिव भी युद्ध को भूलकर अप्सराओं का नृत्य-
गान देखने में व्यस्त हो गए तब क्या हुआ? उधर, जब जलंधर को पहचानकर देवी पार्वती
कैलाश पर्वत से अंतर्धान हो गई तब वहां क्या हुआ? भगवान शिव ने क्या किया?
सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षे! जब जलंधर को अपने सामने भगवान शिव के रूप में
देखकर देवी पार्वती ने यह जान लिया कि वह कोई बहुरूपिया है तो वे तुरंत वहां से अंतर्धान
हो गई।
उनके अंतर्धान होते ही सारी माया वहां से गायब हो गई। माया के गायब होते ही सभी
देवता अपने-अपने होश में आ गए। उधर, देवाधिदेव भगवान शिव की चेतना भी वापस लौट
आई और जलंधर की माया को जानकर उन्हें अत्यधिक क्रोध आ गया। तब जलंधर भी देवी
पार्वती के अचानक वहां से गायब हो जाने के कारण तुरंत ही युद्धभूमि में लौट आया।
तत्पश्चात भगवान शिव और असुरराज जलंधर में बड़ा भयानक युद्ध होने लगा। परंतु
त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की वीरता और बल के सामने वह तुच्छ असुर कहां टिक पाता?
यह बात जल्द ही उसे समझ आ गई कि सर्वेश्वर शिव को जीत पाना आसान नहीं है बल्कि
असंभव है। तब असुरराज जलंधर ने भगवान शिव को जीतने के लिए माया का सहारा
लिया। उसने तुरंत अपनी माया द्वारा पार्वती को प्रकट किया और उन्हें अपने रथ पर बांध
लिया। जलंधर के दो सेनापति शुंभ और निशुंभ अपने हाथों में भयानक अस्त्र लेकर देवी
पार्वती को मारने के लिए उन पर झपट रहे थे और देवी पार्वती रोते हुए अपनी सहायता के
लिए अपने आराध्य भगवान शिव को पुकार रही थीं।
यह दृश्य देखकर भगवान शिव भी अत्यंत चिंतित हो गए। अपनी प्राणवल्लभा देवी
पार्वती को इस प्रकार कष्ट में देखकर वे व्याकुल हो उठे। तब अपनी प्रिया पार्वती को दैत्येंद्र
जलंधर से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने बड़ा भयानक रूप धारण कर लिया। उनका वह रौद्र
रूप देखकर राक्षसी सेना भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी और छिपने का प्रयास करने
लगी। उधर, दैत्य सेना के प्रधान शुंभ और निशुंभ भी डर गए और युद्ध से बचने की कोशिश
करने लगे। उनके भयभीत होते ही जलंधर की माया समाप्त हो गइ। युद्धभूमि में हाहाकार
मच गया। सब इधर-उधर दौड़ रहे थे। जब शुंभ-निशुंभ भी अपने प्राणों की रक्षा करने के
लिए भाग रहे थे, तब भगवान शिव ने उन्हें ललकारा परंतु वे फिर भी युद्ध के लिए तत्पर न
हुए। भगवान शिव बोले-तुम तो देवी पार्वती को मारने बढ़ रहे थे, अब क्यों डरकर भाग रहे
हो? आओ और मेरे साथ युद्ध करके अपनी वीरता का परिचय दो।
भगवान शिव के वचनों का उन दोनों पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा और वे भागते रहे। तब
क्रोधवश भगवान शिव ने शुंभ-निशुंभ को शाप देते हुए कहा-हे दुष्ट असुरो! युद्ध में कभी
भी पीठ दिखाने वाले पर वार नहीं करना चाहिए। इसलिए मैं तुम दोनों को छोड़ रहा हूं परंतु
जिनको तुम मारने का प्रयत्न कर रहे थे, वे ही देवी पार्वती तुम दोनों का एक दिन वध करेंगी।
भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर क्रोध से भरा जलंधर उन पर झपटा। उसने भयानक
बाण चलाकर पूरी पृथ्वी पर अंधकार कर दिया। इससे भगवान शिव का क्रोध अत्यधिक बढ़
गया और उन्होंने अपने चरणांगुष्ट से बने हुए सुदर्शन चक्र को चला दिया। उस चक्र ने तुरंत
जलंधर के सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया।
जब चक्र ने असुरराज जलंधर का सिर काटा तो बहुत भयानक ध्वनि हुई और महादानव
जलंधर पल भर में ही ढेर हो गया। जिस प्रकार अंजन (काजल) का विशाल पर्वत दो टुकड़ो
में विभक्त हो गया था, उसी प्रकार जलंधर का शरीर भी दो टुकड़ों में बंट गया। सारे युद्ध-
भूमि में उसका रक्त फैल गया। भगवान शिव की आज्ञा से जलंधर का रक्त और मांस
महारौरव में जाकर रक्त का कुंड बन गया। दैत्यराज जलंधर के शरीर से निकला अद्भुत तेज
उस समय भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर गया। जलंधर का वध होते ही चारों ओर हर्ष
की लहर दौड़ गई। सभी देवता ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अप्सराएं और गंधर्व मंगल गान
गाने लगे। सारी दिशाओं से भगवान शिव पर फूलों की वर्षा होने लगी।
पच्चीसवां अध्याय
देवताओं द्वारा शिव-स्तुति
सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षे! इस प्रकार दैत्यराज जलंधर का देवाधिदेव भगवान शिव
के हाथों से वध देखकर सब ओर प्रसन्नता छा गई। सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी और
श्रीहरि विष्णु भी हर्षित हुए। तब वे करुणानिधान भगवान शिव को धन्यवाद देने लगे और
उनकी स्तुति करने लगे और बोले-हे करुणानिधान! हे कृपानिधान देवाधिदेव भगवान
शिव! आप प्रकृति से परे हैं। भगवन्! आप ही परमब्रह्म परमेश्वर हैं। प्रभो! हम सब देवता
आपके दास हैं और आपकी आज्ञा की पूर्ति करने हेतु कार्य करते हैं। हे देवेश! आप हम पर
प्रसन्न हों। हे प्रभु! जब भी देवताओं पर कोई विपत्ति पड़ी है, आपने हमारी सहायता की है
और हमें अनेक दैत्यों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई है। हम सदा ही आपके चरणों की वंदना
करते हैं और आपके अनोखे दिव्य स्वरूप का ही स्मरण करते हैं। आपके ही कारण हमारा
भी अस्तित्व है। आपके बिना हम कुछ भी नहीं हैं। आप भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने
भक्तों का हित करते हैं।
इस प्रकार भगवान शिव की वंदना करके सभी देवता चुप हो गए और हाथ जोड़कर खड़े
हो गए। तब भगवान शिव बोले-हे देवताओ! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें
वरदान देता हूं कि मीं हमेशा तुम्हारे अभीष्ट कार्यों की सिद्धि करूंगा। तुम्हारे दुखों को मैं सदा
दूर करूंगा। इसके अतिरिक्त तुम और कुछ भी चाहो तो मुझसे मांग सकते हो। परंतु उन्होंने
उनकी कृपादृष्टि बनाए रखने के अतिरिक्त उनसे कुछ नहीं मांगा।
तब उन देवताओं को आवश्यकता पड़ने पर उनकी मदद करने का आश्वासन देकर
देवाधिदेव भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।
इस प्रकार जब त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल शिव ने देवताओं को उनकी सहायता का
आश्वासन दिया तो सभी देवता हर्ष से फूले नहीं समाए और भगवान शिव की महिमा का
गुणगान और जय-जयकार करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धाम को वापस चले गए।
छब्बीसवां अध्याय
धात्री, मालती और तुलसी का आविर्भाव
व्यास जी बोले-है ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी! जब भगवान श्रीहरि विष्णु की माया से
मोहित होकर जलंधर पत्नी वृंदा छदम भेष धारण किए विष्णुजी को अपना पति मानकर
उनके साथ रमण करने लगी तब श्रीहरि की भी उनसे प्रीति जुड़ गई। सच्चाई जान लेने के
बाद कि जलंधर के रूप में भगवान श्रीहरि ने उसके साथ छल किया है, उसने अग्ने में
जलकर अपने प्राणों की आहुति दे दी। तब फिर आगे कया हुआ? भगवान विष्णु कहां गए
और उन्होंने क्या किया? तुलसी के रूप में वृंदा का जन्म कैसे और कब हुआ? कृपया वह
कथा मुझे बताइए।
सनत्कुमार जी बोले-हे महर्षे! मैं आपके सभी प्रश्नों का उत्तर देता हूं। मेरी कथा सुनिए,
आपकी सभी जिज्ञासाएं दूर हो जाएंगी। जब वृंदा ने विष्णुजी द्वारा ठगे जाने पर अपने शरीर
का त्याग कर दिया तो भगवान विष्णु को बहुत दुख हुआ और वे वृंदा की चिता की राख को
अपने शरीर पर लपेट कर इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे।
इधर, जब देवताओं को भगवान श्रीहरि विष्णु की इस हालत के बारे में पता चला तो वे
सब बहुत चिंतित हुए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? जगत के पालनकर्ता
भगवान विष्णु को इस तरह दर-दर भटकना शोभा नहीं देता। जब देवताओं को इस समस्या
का कोई हल नहीं सूझा तब वे देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्माजी को साथ
लेकर देवराज इंद्र देवताओं सहित कैलाश पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान
शिव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात शिव के पूछने
पर देवताओं ने वहां आने का प्रयोजन शिवजी को बताया। देवताओं ने कहा-हे देवाधिदेव!
करुणानिधान! भक्तवत्सल शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं, सर्वज्ञाता हैं। इस संसार की कोई बात
आपसे छिपी नहीं है। भगवन्! भगवान श्रीहरि विष्णु ने दैत्यराज जलंधर की पत्नी वृंदा को
जलंधर का रूप लेकर ठगा परंतु उसके साथ-साथ रहते श्रीविष्णु की उनमें प्रीति हो गई और
अब वे उनका वियोग सह नहीं पा रहे हैं। वे अपने शरीर पर वृंदा की चिता की आग लपेटकर
जोगी बनकर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रभो! आप उन्हें समझाइए कि वे ऐसा न करें। भगवन्!
यह जगत आपके अधीन है और आपको ही इस समय उनकी मदद करनी है, ताकि वे पहले
की भांति होकर अपने कार्यो को पूरा करें।
देवताओं की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव बोले-है ब्रह्माजी! हे देवराज
इंद्र व अन्य देवताओ! यह सारा जगत माया के अधीन है परंतु इस जगत की जननी मूल
प्रकृति परम मनोहर महादेवी पार्वती इस माया के वशीभूत नहीं हैं। उन पर इस माया जाल
का कोई असर नहीं पड़ता। इसलिए आप भगवान श्रीहरि विष्णु के इस मोहमाया के जाल
को दूर करने के लिए आदि देवी प्रकृति की आधारभूत देवी पार्वती की शरण में जाइए। यदि
आपके द्वारा वे प्रसन्न हो गईं तो आपकी हर एक समस्या का समाधान हो जाएगा और वे
आपके कार्यों को पूर्ण करेंगी।
देवाधिदेव महादेव भगवान शिव के इन वचनों को सुनकर सभी देवताओं को अत्यंत
प्रसन्नता हुई और वे भगवान शिव से आज्ञा लेकर मूल प्रकृति की शरण में चले गए। इस
प्रकार जब देवता प्रकृति देवी की शरण में जा रहे थे, उस समय वहां आकाशवाणी हुई--हे
देवताओ! मैं ही तीन प्रकार से तीनों प्रकार के गुणों से अलग होकर निवास करती हूं। मैं
सत्यगुण में गौरा बनकर, रजोगुण में लक्ष्मी और तमोगुण में ज्योति बनकर इस जगत को
आलोकित करती हूं। इसलिए आप अपनी इच्छापूर्ति हेतु देवी जगदंबा की शरण में जाओ। वे
अवश्य ही तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगी।
यह आकाशवाणी सुनते ही सभी देवता गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती को हाथ जोड़कर
प्रणाम करने लगे और मन में उनका वंदन और स्तुति करने लगे। इस प्रकार जब देवताओं ने
शुद्ध हृदय से तीनों देवियों का स्मरण किया। तब वे तीनों देवियां वहां प्रकट हो गई। देवियों
को साक्षात अपने सामने पाकर देवता बहुत हर्षित हुए और गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती की
वंदना और पूजन-अर्चन करने लगे। तब तीनों देवियों ने मुस्कराकर कहा-हे देवताओ! हम
तीनों देवियां तुम्हारी स्तुति से बहुत प्रसन्न हैं। तुम जो कुछ चाहते हो, हमें बताओ। हम
तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगी।
देवियों के इस कथन को सुनकर देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए देवराज इंद्र ने
भगवान श्रीहरि विष्णु के बारे में सबकुछ गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती देवी को बता दिया। तब
उन्होंने कुछ बीज देवताओं को दिए और कहा कि ये बीज ले जाकर तुम देवी वृंदा की चिता
की राख में बो दो। ऐसा करने से तुम्हारे अभीष्ट कार्यो की सिद्धि होगी। उन बीजों को लेकर
देवताओं ने तीनों देवियों का धन्यवाद व्यक्त किया। तब देवियां वहां से अंतर्धान हो गई।
तत्पश्चात ब्रह्माजी सहित सभी देवता उस स्थान पर पहुंचे, जहां देवी वृंदा ने अपने प्राणों की
आहुति आग्नि में दी थी। वहां पहुंचकर उन्होंने देवी द्वारा दिए गए उन बीजों को वृंदा की चिता
की राख में डाल दिया। तब उन बीजों में से कुछ दिन पश्चात धात्री, मालती और तुलसी
नामक वनस्पतियां पैदा हुई। देवी सरस्वती द्वारा दिए गए बीजों से धात्री, देवी महालक्ष्मी के
बीजों से मालती और देवी गौरी के बीजों से तुलसी का आविर्भाव हुआ। जेसे ही धात्री,
मालती और तुलसी नामक ये स्त्री रूपी वनस्पतियां उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि विष्णु ने
उन्हें देखा तो उन पर से माया का परदा हट गया और वे पहले की भांति हो गए। वे उन
वनस्पतियों पर अपनी कृपादृष्टि रखने लगे और तभी से धात्री, मालती और तुलसी नामक इन
वनस्पतियों को भी विष्णुजी से विशेष अनुराग हो गया। तब भगवान श्रीहरि विष्णु पुनः
बैकुण्ठ लोक को चले गए।
सत्ताईसवां अध्याय
शंखचूर्ण की उत्पत्ति
सनत्कुमार जी बोले--हे महामुने! शंखचूर्ण नाम का एक दैत्य था। जिसका वध भगवान
शिव ने स्वयं अपने हाथों से त्रिशूल मारकर किया था। अब मैं आपको उस शंखचूर्ण नामक
दैत्य के विषय में बताता हूं।
हे मुने! आप यह जानते ही हैं कि विधाता के पुत्र मरीचि हुए हैं और उनके पुत्र महर्षि
कश्यप हुए। मरीचि के पुत्र कश्यप मुनि बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के संत थे। वे बड़े ही
धर्मात्मा थे और इस सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी की हर आज्ञा को शिरोधार्य मानकर
उसका पालन किया करते थे। प्रजापति दक्ष ने उनके व्यवहार और गुणों से प्रसन्न होकर
अपनी तेरह कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप से कर दिया था। इन्हीं की संतानों से यह पूरा
संसार भर गया। कश्यप मुनि की तेरह पत्नियों में से एक पत्नी का नाम दनु था। दनु
रूपवती, गुणवती होने के साथ-साथ परम सौभाग्यवती थी। वह एक अत्यंत शांत साध्वी भी
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