[PDF]Kodd~a

[PDF]Book Source: Digital Library of India Item 2015.489195dc.contributor.author: Divaand-a Manohar Balavn’tdc.date.accessioned: 2015-09-23T18:42:49Zdc.date.available: 2015-09-23T18:42:49Zdc.date.digitalpublicationdate: 2005/06/24dc.date.citation: 1940dc.identifier.barcode: dc.identifier.barcodedc.identifier.origpath: /data_copy/upload/0052/141dc.identifier.copyno: 1dc.identifier.uri: http://www.new.dli.ernet.in/handle/2015/489195dc.description.scannerno: 8dc.description.scanningcentre: Osmania Universitydc.description.main: 1dc.description.tagged: 0dc.description.totalpages: 159dc.format.mimetype: application/pdfdc.language.iso: Hindidc.publisher.digitalrepublisher: Digital Library Of Indiadc.publisher: Sastaa Saahity Mand-ad’aldc.source.library: Osmania Universitydc.subject.classification: Philosophy. Psychologydc.subject.classification: Philosophy Of Minddc.title: Kodd~adc.type: Print - Paperdc.type: Book

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लेखक
श्री मनोहर बलवबंत दिवाण


अनुवादक
| ि * >>.
क्री आनंदवद्धन


सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली


प्रकाशक,


मातेण्ड ४१०० #
सस्ता साहित्य मण्डल| नई दिल्‍ली


क्‍ संस्करण
पहली बार : १०००
नवंबर : १९४३
मूल्य
बारह आना


आन नी ७-०-»न्‍कनननन---त> नबी >बिकलल >“तीजि-ज७+*+ अशकनिननओनी


नजजिज-+-+ ++








मुद्रक,


देवीग्रसाद शर्मा,
हिन्दुस्तान ट।इम्स प्रेस, नई दिल्‍ली


विषय-सूची


भूमिका (छू. वि. कुकड़े) (प्रारंभ में) २
निवेदन (लेखक ) फ ७
भतदया का मंत्र और विनियोग (आचाय विनोबा) ,, ११
१, कोढ़ का इतिहास *
२. कोढ़ का फेलाव ५
३. रोग का दायरा ७
४, कोढ़ कैसे होता है ? १०
५. संसगे-प्रवेश २०
६. कुंष्ठ-जन्तु २६
७. कुष्ठ रोग की शुरूआत हि २८
८. त्वचा के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण 80% 3 ३२
९. मज्जातन्तु के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण . '*' ४१
१०, कोढ़ के प्रकार का ५०
११, त्वचा के रुग्णकों की किसमें आह ६१
१२. विशिष्ट अवयवों के रुग्णक लक ६४
१३. कुष्ठ-प्रतिक्रिय ' ही प ७१
१४. कोढ़ की वृद्धि और उतार का क्रम - ७४
१५. कोढ़ का निदान डक ७६
१६. रोगियों का वर्गीकरण अल ८१
१७. कुष्ठ-जन्तु का प्रतिकार ८५
१८. कोढ़ का उपचार हे ९०
२९. साध्यासाध्य विचार 243 ९८
२०. कोढ़ी की मनःस्थिति कक १०१
२१. कोढ़ का प्रतिबंध डर १०५
२२. कोढ़ और गांव कप ११५
२३. कोढ़ संबंधी कुछ उल्लेखनीय संस्थायें शी ११९


भूमिका*


'लेप्रसी' यानी कोढ़, रक्तपित्त या महारोग की जानकारी हिन्दुस्तान
में तथा संसार के दूसरे भागों में बहुत पुराने समय से--ईस्वी सन्‌ के
दो-तीन हजार वर्ष पहले से, होने के प्रमाण मिलते हें । यह कोई मामूली
रोग होता और मनृष्य-जाति को विशेष पीड़ा या कलेशप्रद न होता
तो इसके बारे में बहुत सोचने-विचारने की जरूरत नहीं थी। परन्तु
अत्यन्त दुःखदायी और मानसिक पीड़ा उपजानेवाले जो रोग हैं यह तो
उनमें से एक हे ।

यह सब देशों में किसी भी फिकें के लोगों में होता हें । यद्यपि दीन-
दुर्बलों को यह अधिक सताता है, पर धनियों के साथ भी यह रत्ती-भर
भी रिआयत नहीं करता । यदि कोढ़ियों में पुरुषों की संख्या अधिक हैं,
तो यह समाज-रचना का परिणाम है; इससे यह नहीं समझना चाहिए
कि इस रोग से स्त्रियों के लिए किसी तरह की निर्भयता या छूट है|
छोटे बच्चों के शरीर में रोग-निवारण की शक्ति की बिल्कुल कमी,
और बचपन में आवरण त्वचा और इलेबष्मल त्वचा के कोमल और
नाजुक होने के कारण, जैसे कोढ़ी के नजदीक रहने से बच्चों को यह
बीमारी लग जाने का पूरा डर रहता है, वैसे ही असावधानी से कोढ़ी
के निकट संस्पर्श में रहने से युवा स्त्री-पुर॒ुषों को भी यह रोग लग
सकता है । यद्यपि कोढ़ियों की सन्‍्तान जन्म के समय से ही कुष्ठ-
वीड़ित नहीं होती, और जन्म के बाद ही रोग-पीड़ित माता-पिता से


* यह भूमिका ब्रि. ए. लेप्रसी रिलीफ एसोसियेशन की सो. पी.
ओर बरार प्रांतिक शाखा के एक्जिक्यूटिव कमेटी के चेयरमेन, कर्नल सर
कृ. वि. कुकडे, सीं. आई. है., भ्राईं. एम. एस., एल. एम. ऐड एस्‌.
(बंबई) एल्‌. आर. सी. पी. ऐंड एस (एनिबरा) रिटायढ इन्स्पेक्टर जन-
रल आफ सिविल हास्पिटह्स सी. पी. ने लिखी हे ।


( २ )


अलग कर देने पर नीरोग रह सकती है, तथापि कोढ़ियों की सनन्‍्तान के
शरीर में इस रोग का प्रतिकार करने की शक्ति दूसरों की सन्‍्तान की
अपेक्षा कम होती है, और इस वजह से कोढ़ियों के बाल-बच्चों को
किसी खास मोके पर इस रोग के लग जाने की अधिक सम्भावना रहती
है। यही बात क्षय और कंसर के रोगियों के बारे में भी होती है ।


कोढ़ प्रकट होजाने पर, उसका यदि समय रहते अच्छा इलाज
न हुआ तो फिर उसकी हालत न पूछिए । प्रायः रोग का प्राथमिक
चिन्ह चेहरे पर दिखाई देने के कारण उसका छिपाना असम्भव रहता हैं;
और रोग छुतहा होने के कारण लोग उसके पास फटकने से हिचकते हे ।
कुटुम्ब में पति-पत्नी एक-दूसरे को छोड़ देते हें; और गाँवबालों को तो
उसका गांव में रहना भी नहीं सुहाता । उसके बीमार पड़ने पर कोई उसकी
सेवा-शुश्रूषा करने तक की हिम्मत नहीं करता । रोग का जोर बढ़ जाने
पर उसके हाथ-पैर पर घाव होजाते हें और हाथ-पैरों की अंगूलियाँ गलने
लगती हैं । वास्तव में ऐसा कोढ़ी ( जिसे अंग्रेजी में 'बन्द्‌ आउट केस'
कहते हैं ) रोगाणुओं से मुक्त होता हे; उसके शरीर के कोढ़ के जन्तु
नष्ट हुए रहते हैं, और इसके बाद वह छुतहा नहीं रह जाता । परन्तु
उसकी इस बदशक्लो के कारण साधारण मनुष्य से उसकी ओर देखा
नहीं जाता । घाव आँखों पर होने पर वह अन्धा तक होजाता हैं और
गले में होने पर उसकी आवाज तक जाती रहती है । इस प्रकार से
विक्ंत होकर कई अगों में दुबंछ होने पर, भीख माँगने के लिए भी ऐसे
आदमी का सामने आना लोग पसन्द नहीं करते । सौभाग्य से दूसरे
आकस्मिक या महामार॑। जंसे रोगों के द्वारा मृत्यु से उसका शीक्ष
छुटकारा न हुआ तो उसको यह दुदंशा बीस-बीस वर्षो तक भोगनी
पड़ती है । |

सब राष्ट्रों का यह अनुभव हैँ कि जिस राष्ट्र ने इस रोग की ओर
से आँखें बन्द कीं और इसे निमूल करने में लापरवाही की नीति पकड़ी,
उस राष्ट्र में यह रोग बराबर बढ़ता ही गया; और इसके विपरीत


( ३)


जिस राष्ट्र ने विशेष रूप से ध्यान देकर इसे उखाड़ फेंकने में था इसके फैलने
देने के खिलाफ श्ास्त्रानुकूल और प्रभावकारी उपायों पर अमल किया,
उसे इस रोग का समूल नाश करने में बड़ी सफलता मिली। इस प्रकार
आज इंग्लण्ड, फ्रांस, जमंनी, नावें आदि राष्ट्रों ने इस रोग के रोकने का
जहाँतक हो सका, पूरा प्रबन्ध किया हैँ । कभी-कभी वहाँ कुछ रोगी जो
देखने में आते हें, वे इस रोग को दूसरे देशों से लाये हुए होते हैं ।

पहले कहा जा चुका है कि हिन्दुस्तान में इस रोग की जानकारी
प्राचीन समय से हैं । इस रोग का दवा-पानी भी होता रहा होगा । पर
रोग को रोकने का विशेष उपाथ तो रोगी को अलग रखना ही था ।
उपाय कोई भी काम मे लाया गया हो, यह सही है कि उससे रोग
अपेक्षित रूप से रुका नहीं ।


हिन्दुस्तान में इधर बहुत सालों से क्रिश्चियन मिशनरी लोग धर्मे-
परायणता और भूतदया से प्रेरित होकर कोढ़ियों का दुःख दूर करने
की कोशिश में लगे हें। उनका उद्देश्य बीमारों का सिर्फ शारीरिक ही
नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दुःख निवारण करना भी होता दे । सन्‌ १९२५
ईस्वी में ब्रिटिश एम्पायर लेप्रसी रिलीफ एसोसिएशन की हिन्दुस्तान
की मुख्य शाखा अर्थात्‌ इंडियन कौंसिल हिन्दुस्तान की राजधानी में
स्थापित हुई और उसकी ज्ाखाएँ हर प्रान्त में खोली गई और इस काम
के लिए एक खासी रकम एकत्र की गई ॥। सम्प्रति यह इंडियन
कौंसिल और इसकी उपशाखाएँ, प्रान्तीय सरकार, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड
और इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और करुणात्मक कार्य में हादिक रस लेने-
वाले विभिन्न प्रान्तों के कुछ नागरिक अथवा उनके द्वारा स्थापित की
हुई निजी संस्थाएं, सब मिलकर इस देग से कोढ़ को निर्मल करने के
लिए यथाशक्‍तय प्रयत्न कर रहे हें ।

उनकी कोशिशों का थोड़े में कुछ हाल नीचे दिया जाता है--

(१) रोग की उत्पत्ति, उसके फैलाव और उपचार के बारे में
लोज करना ।


( ४)


(२) डाक्टरों, कोढ़ के लिए काम करनेवालों, प्रत्यक्ष खुद
रोगी, साधारण जनता और खासकर अपनी अगली पीढ़ी यानी स्कूल
के विद्याथियों को इन सबकी विभिन्न आकलून दक्ति के अनुसार इस
रोग की शास्त्रीय जानकारी करा देना ।


(३) कोढ़ रोगियों की छत से ही होने के कारण निराश्चित रोगियों
को धर्मार्थ कोढ़ीखानों में, खुशहाल रोगियों को उनके खर्चे से कोढ़ीखाने
में, अथवा सम्भव हो तो उसके अपने ही घर में, और आवश्यकता पड़ने
'पर कुछ किसानों को गाँव से बाहर पास के किसी हवादार और स्वच्छ
स्थान में अलग रहने का और उपयकत इलाज का सुभीता कर देना ।
(जब हम समाज के हित के खयाल से कोढ़ के रोगियों को अलग रखते
हैं, तब उनके रहने और खान-पान आदि की ऐसी सुव्यवस्था होनी
चाहिए कि जहाँतक सम्भव हो रोग-पीडित मनुष्य स्वयं वहाँ रहने को
तैयार हो जाय ।)

(४) समाज-हित की दृष्टि से रोगी के सन्‍्तान न होना ही अच्छा हे ।
इस वजह से कोढ़ी पति-पत्नी को अलग-अरूग रखने का सुभीता
होना चाहिए । अथवा विकल्प से ( आल्टरनेटिवली ), शक्य
होने पर कोडढ़ी स्त्री-पुरुषों को शास्त्रक्रिया (आपरेशन) से बधिया
अर्थात्‌ अनुत्पादक कर देना चाहिए, यह भी कितने ही देशों में सुझाया
जारहा है ।


५. कोढ़ियों की निरोगी सन्‍्तानों को मां-बाप से अलग करके
उनके पालन-पोषण का उचित प्रबन्ध करना ।

६. कोढ़ियों को अलग रखना, इलाज करना आदि बातें कोढ़ियों
या उनके कुंदुम्बियों की रजामन्दी से होना अच्छा है। लेकिन बहुत
बार यह मुह्दिकक होजाता है । अत: ऐसे मौकों पर काम में आने-
वाले कानून सरकार से पास करा लेना। इत्यादि इत्यादि ।

हम कह चुके हें कि यह रोग छूत से फैलता हैं। इस वजह से
कोढ़ीखानों या दवाखानों में काम करने की सहसा लोग हिम्मत


( ४ 9)


नहीं करते। वास्तव में देखा जाय तो कोढ़ियों में काम करते हुए
बहुत सफाई से रहने, कोढ़ियों को अपने खानपान की चीजें, बतेन-भांडे,
कपड़े-लत्ते वगेरह न छूने देने, अपने शरीर पर कोई घाव हो तो
उसको बचाने, अथवा उतने दिन अपना काम बन्द रखने की
सावधानी रखलेने पर डाक्टरों अथवा रोगियों की सेवा करनेवालों
को छूत शायद ही लगती है, यह अनुभव है । पर बहुतों का खयाल
हैं कि इस रास्ते में न पड़ना ही सबसे अच्छा है । यह होते हुए भी मध्य-
प्रान्त के वर्धा कस्बे में कुछ विख्यात समाजसेवकों ने सन्‌ १९३६ ईस्वी
में “महारोगी ( कोढ़ी ) सेवा मंडल” नामक संस्था स्थापित की। इस
संस्था की ओर से डा० महोदय, एम. बी. बी. एस, और श्री मनोहरजी
दिवाण ने कोढ़ियों के बारे में मत-प्रचार, उपचार और जाँच करनेवाला
एक केन्द्र येलीकेली में खोलकर प्रत्यक्ष काय॑ आरम्भ कर दिया है।
काम की बाढ़ की वजह से उन्हें शीघ्र ही वायगांव में दूसरा केन्द्र
स्थापित करना पड़ा । श्री दिवाण डाक्टर नहीं हें, तथापि इस भूतदया
के काम के लिए उन्होंने अपना तन-मन-धन अपंण करके कामचलाऊ
सारा औपपत्तिक और व्यावहारिक ज्ञान हिन्दुस्तानी मिशन के
चाँदखुरी और पुरलिया कै खास कोढ़ीखानों मे रहकर प्राप्त किया है +
कलकत्ता के स्कूल आफ ट्रापिकल मेडिसन का लेप्रसी कोर्स भी उन्होंने
पूरा किया हैं । इस मण्डल को तथा इसके काम को मध्यप्रान्तीय
सरकार के पब्लिक हेल्‍थ डिपार्टमेण्ट की मंजूरी भी मिल गई है ।


यह पहले कहा जा चुका है कि अपने देश से कोढ़ को दूर करने
का यत्न करनेवाले कार्यकर्ता, स्वयं रोगियों और सुशिक्षित जनता को इस
रोग की साधारण श्ञास्त्रीय जानकारी करा देना एक खास काम है । इस
ज्ञान के फैलाने का काम करते समय श्री दिवाण को यह अड़चन जान
पड़ी कि इस विषय पर मराठी में कोई किताब नहीं है । इस कमी
की पूति के लिए उन्होंने अपनी सबंदा की उत्साहवृत्ति से यह पोथी
लिखने का काम हाथ में लिया। यह पुस्तक डाक्टरों के लिए नहीं लिखी


द्‌ कांढू
हिंदुस्तान में फेलाव

हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से में कोढ़ ने अपने हाथ-पांव फैला रक्‍्खे
हें। आदिनिवासियों में वह पुराने जमाने से चलता आरहा है । उसकी
रोक-थाम के खयाल से जातीय रीति-रिवाजों-संबंधी रूढ़ियाँ भी पाई
जाती हैं । कुछ जातियों में, जहां उसका नाम-निशान भी नहीं था, इधर
जंगलों की बस्तियों से मजूरी के लिए बड़े-बड़े शहरों में या उद्योग-केंद्रों
में जाने पर उसका प्रवेश होगया । वहाँ उन्हें उसकी छूत लग
जाती है और जब वे अपने स्थान पर वापस लौटते हैं तो उनसे जंगल
के दूसरे अधिवासियों में वह फंलने लगता हे ।

बर्मा में इसका काफी जोर हैं। आसाम की दोनों घाटियों में यह
पाया जाता है। बाहर के रोग-पग्रस्त भाग में जहाँ मजदूर बड़ी तादाद में
भर गये हैं वहाँ इसका विशेष रूप से प्रकोप है। विहार-बंगाल के मध्य
में छोटा नागपुर और गंगा किनारे के सपाट प्रदेश के बड़े हिस्से में एक
दक्षिणोत्तर पटिया की पटिया ही है, जिसमें गया, संथाल परगना, बीर-
भूम, परदिचिमी बदंवान, मानभूम (पुलिया), बाँकुड़ा और मिदनापुर
जिलों का समावेश है । यही पटिया नीचे की ओर उड़ीसा और मद्रास
इलाके में बालासोर, पुरी, गंजाम और गोदावरी तक फंली हुई हे ।
मद्रास का और दूसरा हिस्सा जहाँ इसका ज्यादा जोर हे अरकाट और
सेलम जिले हैं। त्रावणकोर, कोचीन और मलाबार में भी इसकी
बहुतायत हूँ । मध्यप्रांत के छत्तीसगढ़ और बरार-विभाग में भी ऊपर
के जितना ही है । नैपाल से सटे हुए बिहार के हिस्से और संयुकतप्रांत
में भी, कम होने पर भी, है सवंत्र । हिमालय में और काइ्मीर में यह
मुश्किल से मिलता है । इसका कारण आत्यंतिक हवामान और जंगली
रहन-सहन होसकता है । पूर्वी हिंदुस्तान में कोढ़ की प्रवृत्ति सावेत्रिक


कोढ़ का फेलाव ७


न होकर मर्यादित--दो-चार केंद्रों में ही--रहने की थी। पर जबसे
आमदरफ्त के साधन बढ़े ओर फेले, कल-कारखानों की बाढ़ हुई,
जातियों का पारस्परिक व्यवहार बढ़ा, बड़ी तादाद में लोगों का इधर
से उधर जाना आसान हुआ, तबसे अलिप्त हिस्से में भी रोगग्रस्त हिस्से
की तरह इसके फैलने की सुविधा होगई।


तीसरा प्रकरण
रोग का दायरा


हिंदुस्तान में कोढ़ के दायरे को चार शीषंकों में बाँटठा जाना
चाहिए-- ( १) स्थान, (२) रोग का प्रकार, (३) उम्र, (४)
सत्री-पुरुष-भेद ।

स्थान

हिंदुस्तान में कोढ़ कहाँ कितना फंला है, यह जानने के लिए मर्दुम-
शुमारी के अंकों के सिवा दूसरा साधन हमारे पास नहीं है । पिछले दस
सालों में कोढ़-संबंधी जांच का काम हिंदुस्तान के काफी हिस्सों में हुआ
है । १९२१ की मर्दुमशुमारी में कोढ़ियों की तादाद १,०२,००० थी।
१९३१ में वह १,४७,९११ मिलती हैँ । इससे यह नतीजा नहीं निकालना
चाहिए कि रोग बाढ़ पर है । इतना ही कहा जासकता है कि पहली
जाँच में कुछ ढिलाई रही होगी और पिछली जाँच चौकस हुई होगी ।
विशेषज्ञों की ओर से खास कोढ़ के संबंध में जो जाँच हुई, उसमें
रोगियों की तादाद असली मर्दुमशुमारी की तादाद से कहीं तिगुनी तो
कहीं बीस गुनी से ज्यादा पाई गई। मर्दुमशुमारी की संख्या से


(5 9


लोगों में इस मामले में जो अज्ञान और वहमी कल्पनाएँ हैं उन्हें दूर
करने से । वास्तव में तो अज्ञान ही रोग है और ज्ञान ही तारनहार है ।
शास्त्रीय आधार को काग्रम रखकर लौकिक पद्धति से कोढ़ का
सांगोपांग सरल विवेचन इस पुस्तक में किया गया हैं। यथाशकक्‍य भाषा
सरल, प्रकरण छोटे और पारिभाषिक संज्ञाओं का कम इस्तेमाल करते
हेए इस अपरिचित और कुछ क्लिष्ट विषय को सुलभ करने की कोशिक्ष
की गई है । पुस्तक को आकर्षक के बजाय उदबोधक और
शास्त्रीय की अपेक्षा सुगम बनाने की ओर नजर रक्‍्खी गई है। इसमें
मनोरंजकता चाहे न हो पर रोगियों के बारे में सहृदयता हैं, साहित्य
न हो पर सह-हित है । सुशिक्षितों के बजाय सिर्फ भाषा जाननेवाले
जिज्ञासु पाठकों का खयाल रखकर यह लिखी गई हैं । इतना मानकर
चलना तो अनिवायं था कि शरीर-विज्ञान का साधारण ज्ञान पाठकों को
हैं। पाठकों को शारीरिक विज्ञान का प्राथमिक ज्ञान न हो तो अवश्य
प्राप्त कर लेना चाहिए | बिना इसके ७वाँ और १७वाँ प्रकरण समझना
मुदिकल होगा । त्वचा और मज्जातन्तु की रचना और कार्य के सम्बन्ध
की जानकारी इसीलिए खासतौर से इस पुस्तक में शामिल की गई है ।
यह पुस्तक खासकर म्यूर के लेप्रसी, डायग्नासिस, ट्रीटमेंट ऐंड
प्रिवेंशन की ६ठी आवृत्ति और लो की 'लेक्चर नोट्स आन्‌ लेप्रसी', इन दो
अधिकारी ग्रंथों के आधार पर लिखी गई है। कुछ हिस्सा तो उनका
भावानुवाद ही है । इसके सिवा राजस और म्योर के 'लेप्रसी', 'लेप्रसी
इन इंडिया' त्रेमासिक के पुराने अंकों का और डा० डी. एन. मुकर्जी के
'शार्ट नोट्स' इत्यादि का आवश्यक उपयोग किया गया हैँ । रुणणक, काल-
कुष्ठ, कुष्ठिका, बेधक ब्रण इत्यादि कुछ शब्द नये भी गढ़ने पड़े हें ।
इस कार्य में अनेकों ने अनेक तरह वी सहायता की है। वर्धा डिस्ट्रिक्ट


( ६ 9


लेप्रसी कौंसिल और इंडियन कौंसिल ने भी यथाशक्‍य सहकार किया हैं +
इन सबका मंडल और में ऋणी ओर क्ृतज्ञ हूं ।

अन्त में अपने मन की हालत कहूँ तो 'माल मालिक का गुवाल के
हाथ में लकड़ी! वाली कहावत है । पुस्तक में कहीं कुछ सुझानेलायक
जान पड़े तो पाठक जरूर सुझावें । उसपर विचार किया जायगा।

समाज का इस सवाल की ओर ध्यान हो और इस रोग की जड़
दूर हो, यह प्रार्थना है ।

सर्वेधत्र सुख्िन: सन्‍्तु । सर्वे सन्‍्तु निरामया: ।
वर्धा


१० अगस्त १९४० मनोहर बलवन्त दिवाण:


भूतदया का मंत्र और विनियोग


कोढ़ सम्बन्धी जानकारी के लिए मराठी भाषा में प्रायः यह पहली
ही पुस्तक है । प्रत्यक्ष सेवा करते हुए लोक-शिक्षण के निमित्त आवश्यकता
देखकर यह लिखी गई है। मुझे आशा हैँ कि इसका ठीक उपयोग होगा ।
कोढ़ खास कर गांवों का रोग होने के कारण हमारे ग्रामसेवकों के लिए
यह पुस्तक काम की होगी ।
मराठी भाषा में आज इस विषय पर यह अकेली पुस्तक सामने आ
रही हैं । इसकी वजह हैं कि कोढ़ियों की सेवा की ओर आज भी हमारा
ध्यान नहीं गया हैं। जो कुछ थोड़ा-बहुत सेवा-कार्य चल रहा है वह ईसाई
लोग कर रहे हे । मानों हमने यह काम ईसाइथों के जिम्मे सौंप रखा
है । ईसाइयों के लिए यह भषण हे, पर हमारे लिए वही दृषण है।
ऐसा होने का कारण क्‍या है ? मुझे जान पड़ता है :--हमने “भुतदया
इस महान्‌ शब्द का उच्चारण किया । ईसाईधर्म ने 'मानवदया
( ह्यूमेनिटी ) इस मर्यादित शब्द का उच्चारण किया । 'भूतदया शब्द
का उच्चारण करने की वजह से एक ओर मांसाहार-निवृत्ति जैसे बढ़
प्रयोग हम थोड़े-बहुत कर सके, पर दूसरी ओर मानवदया से, जो भूत-
दया के पेट में अपनेआप और प्रथम ही आनेवाली चीज है, हम बेखबर
रहे ।
इस विसंगति से मुक्त होने के लिए भूतदया जब्द छोड़ने की जरूरत
नहीं है । शब्द महान हैं और वही योग्य हैँ । इससे वृत्ति को
व्यापक रखने में मदद मिलती है । पर वृत्ति व्यापक रखकर बत्तावि भी
विशिष्ट होना चाहिए। आत्मा महान होने के कारण उसकी मर्यादा
बाँधना ठीक नहीं | पर देह मर्यादित होने के कारण मर्यादा छोड़ना भी


( १२ )


संभव नहीं है । मानव की भूतदया का आरम्भ ही नहीं बल्कि उसका
मुख्य कार्यक्षेत्र भी मानव ही रहनेवाला है, यह हमें नहीं बिसरना
चाहिए । और दब्द व्यापक ही रखकर मानव के बाहर जितनी मानवता
लेजाई जासकती है उतनी लेजाने की गूजायश रखले तो हमारा
काम बन जाता हैं ।

हमारे स्माज में दयाभाव की कमी तो मुझे नहीं जान पड़ती । पर
दूसरी बहुतसी बातों की तरह हमारा दयाभाव अव्यवस्थित है । जब
वह व्यवस्थित होगा तब हमारा महान्‌ शब्द और हमारा महान्‌ देश इस
महारोग कोढ़ को-फिर वह रोग खुद कितना ही महान्‌ क्‍यों न हो--
जीवित नहीं रहने देगा । हमे आशा करनी चाहिए कि वह समय शीष्तर
ही आनेवाला है, और यह पुस्तक इसकी शुभसूचना देनेवाली
सिद्ध होगी ।

पवनारें

२७-८-४० विनोबा:


कोढ़
पहला प्रकरण
कोढ का इतिहास


कोढ़ का आदिस्थान अफ्रिका है या एशिया इस बारे में एक मत
नहीं हैं । संभवत: अफ्रिका में आरंभ हुआ होगा । कुछ बहुत पुराने वक्‍त के
प्रमाण पाये जाते है । उनमें यहला स्थान वेद में “कुष्ठ' रोग के उल्लेख
का हैं । ईस्वी सन्‌ के १५५० वर्ष पहले के इबर के पपरिस में “उचेड्‌
नाम से कोढ़ से मिलते-जुलते रोग का जिक्र है। ईस्वी सन्‌ के १३५०
वर्ष पहले के मिस्र में मिले हुए प्रमाण के आधार पर तो कहा जाता
है कि वह सूडान से मिस्र में गुलामों के द्वारा पहुँचा होगा। पर यह
प्रमाण संशयग्रस्त हें। जो हो, इतना सही जान पड़ता हैं कि प्राचीन
समय में कोढ़ के एक देश से दूसरे देश में फंलने में चढ़ाइयां और गुलामों
का व्यापार बड़े साधन थे। इस जमाने में भी वही बात हैं ।

बहुत पुराने समय में मध्य अफ्रिका, हिन्दुस्तान और मिस्र में
कोढ़ था । वहाँ वह आज भी है।

हिन्दुस्तान से वह पूर्व की ओर फंला । प्राचीन चीनी ग्रन्थों में उसके
होने के प्रमाण नहीं हें । पर ईस्वी सन्‌ के २०० से १०० वर्ष के पहले
के ग्रन्थों में तो उसका साफ जिक्र हैं। पहलेपहल उसका उल्लेख चाऊ
राज्यशासन के समय में मिलता है । और शांटंग प्रान्त में उसकी शुरु-
आत होने की बात कही जाती है ।

मिस्र में वह भूमध्यसागर के पूर्व की ओर फंला। यहूदियों की
बायबल में 'झराध' नाम के रोग का जिक्र अनेक बार आया हैं। सम्भवतः


र्‌ कोढ़


इस नाम से अनेक प्रकार के त्वचा--चमं-रोगों का उल्लेख होता रह
होगा । ईस्वी सन्‌ १५० के मध्य में यहुदी पुस्तकों के अनुवाद हुए । उसमे
त्वचा के रोग अर्थात्‌ झराथ' का अनुवाद लिप्रा' हुआ मिलता है । भूल
से ऐसा हुआ जान पड़ता हैं। यूनान में हिपोक्रेटिस के जमाने में को
नहीं रहा होगा । ईस्वी सन्‌ से पूर्व ३४५ में अरस्तू के जमाने में कोढ़ की
साफ-साफ चर्चा मिलती हे । उस वक्‍त कैम्बिसिस, डरायस और जेरकसीज
नामक ग्रीक योद्धाओं की मिस्र और एशियामाइनर में जो चढ़ाइयां
हुई उनकी वजह से ग्रीस में उसका आगमन हुआ होगा । प्राचीन अरबी
पोथी-पन्नों में कोढ़ का ज्यूदसम' (जुदाम) के नाम से उल्लेख हुआ है ।
उसका भी ऐसी ही भूलभरी कल्पना से अनुवाद हुआ हैं । पर एक बार
जो लेप्रा गब्द चला, आज भी वह यूरोपीय भाषाओं में चलता
जारहा है ।

रोमनों में ( इटली में ) ईस्वी सन्‌ पूर्व ६९ में पूंव की ओर
पाम्पी के सेनिकों की मार्फत उसने प्रवेश किया । आगे के रोमन इतिहास
में उसकी चर्चा लगातार मिलती है । रोमन साम्राज्य के साथ ही उसने
यूरोप के दूसरे राष्ट्रों में भी अपने पाँव फेलाये | ईस्वी सन १८० में
उसके जमेंनी में घुसने का उल्लेख हैँ । ईस्वी सन ६०० तक इटली और
जर्मनी में सेकड़ों कोढ़-आश्रम ( लेपर असाइलम ) खुलने की चर्चा
मिलती है । स्पेन में छठवीं सदी में उसका प्रवेश हुआ । जान पड़ता है
रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ससिन लोग उसे फ्रांस में लेगये ।
इंग्लेंड में पहला कोढ़-चिकित्सालय सन्‌ ६३८ में नटिघम में स्थापित
हुआ । फिर स्काटलेण्ड, नावें, आइसलेंड, डेन्माकं, स्वीडन, रूस
इत्यादि देशों में उसका फैलाब हुआ । ईस्वी सन्‌ १००० से १४०० के
बीच में कोढ़ हर जगह था । सन्‌ १२०० के करीब वह ज्यादा-से-


कोढ़ का इतिहास ३


ज्यादा बढ़ा हुआ जान पड़ता है। यह माना जाता हैं कि इस फंलाबव मे
धर्मयुद्ध का ज्यादा हाथ था। तेरहवीं सदी से वह घटना शुरू हुआ ।
कुछ फूटकर स्थानों को छोड़कर सत्रहवीं सदी में यूरोप में वह नहीं के
बराबर रह गया। हिसाब से एक हजार वर्ष तक यूरोप में उसका
डेरा रहा। यूरोप में उसके नष्टप्राय होने के कारणों का निश्चय
करना कठिन है। तथापि मुख्य दो कारण सामने हें--- (१) कोढ़ियों
को दूसरों से अलग कर देना; (२) रहन-सहन और गांव की सफाई
के सावंत्रिक सुधार । जहाँ इन दोनों उपायों का अमल होने में देर
हुए वहाँ उसके ज्यादा-से-ज्यादा सालों तक टिके रहने के प्रमाण
मिलते हैं ।

यूरोप में कोढ़ के घटने का जो समय था वही पश्चिमी गोलाद्धे---
उत्तर अमेरिका और वेस्ट इण्डीज में उसके फंलने का । यूरोप से आकर
बसनेवाले और अफ्रिका के गुलाम इसके खास कारण थे। दक्षिण
अमेरिका में स्पेनिश और पोतुंगीज चढ़ाइयों के कारण उसकी पेंठ हुई ॥
आगे चलकर नीग्रो गुलाम और चीनियों की वजह से वह ज्यादा फैला ।

पिछली सदी के आधे भाग में चीनी औपनिवेशिकों की मार्फत
पंसिफिक टापुओं में उसका प्रवेश हुआ जान पड़ता है। हवाई टापू,
न्यूकलेडोनिया, लायल्टी, माक्व॑ंसास इत्यादि टापुओं में तो हाल में उसके
पैर पड़े हें। इन टापुओं में पहले उसका कोई नाम तक नहीं जानता
था। न्यूकलेडोनिया में १८६५ के करीब पहला कुष्ठरोगी आया।
उसके बाद फिर तो दस वर्षों में ही कहीं-कहीं एक-चौथाई से ज्यादा
लोगों को उसने अपना शिकार बना लिया। नारू में तो कोढ़ का
फंलाव वर्तमान पीढ़ी के देखते-देखते हुआ है। वहां वह घुसकर धीरे-
धीरे बढ़ रहा था, पर सन १९१८ के इन्फ्लयेंजा के आक्रमण के


श्र कोढ़


बाद तो एकदम सपाटे से बढ़ने छगा। कुछ ही सालों में बीस फ़ीसदी
आदमियों को उसने बदशकल बना दिया। हां रोग का स्वरूप सौम्य
था। इसका प्रकोप तो शीघ्र ही रुक गया। अब वह कमी पर है।

आज अल्पाधिक प्रमाण में कोढ़ संसार के बहुतेरे देशों में पाया
जाता है । ह

इस इतिहास से मालूम होता है कि कोढ़ कुछ देशों में हजारों वर्षों
से अड्डा जमाये बैठा है। बीच-बीच में वह दूसरे हिस्से में जाता है,
बहां वह लम्बे काल की संक्रामकता का रूप पकड़ता है और फिर घटता
हैं। इतिहास और आधुनिक खोज से यह सिंद्ध होता है कि यह रोग
संस्कृति की विशिष्ट अवस्था और सामान्य रहन-सहन के सुधार की
कमी-बेशी पर निर्भर रहनेवाला हैं। खासकर इसके फैलाव का खास
कारण शुण्ड-के-झुण्ड मनुष्यों का स्थानान्तर करना हैँ। रोगरहित
देशों में जानेवाली सेना, गुलाम और मजदूरों की वजह से यह पसरता
है। इसके पुष्ट होने अथवा नेस्तनाबूद होने के रुख का भी इतिहास
से पता चलता हँ। समूचे समाज का रोग की रोकथाम के लिए सीधे
पर आवश्यक उपाय काम में लाना, समूचे समाज का रोग के स्वरूप
के बारे में सचेत होना और समूचे समाज की रहन-सहन की पद्धति
के बारे में सुधार होना इसकी जड़ खोने की प्रधान छातें हें ।


_अरकपमन-म्-णथटमम५भमदशाम-डपरक


दूसरा प्रकरण
कोढ़ का फेलाव


कोढ़ आज उष्ण कटिबन्ध * का रोग माना जाता है । और इस समय
वह खासकर वहीं पाया जाता हूँ । पर जंसा कि हम पहले प्रकरण में कह
चुके हें, उसके सिवा भी वह बहुत देशों में था और है । इस समय मध्य-
अफ्रिका, हिन्दुस्तान, चीन और दक्षिण अमेरिका में उसका खासतौर से
अड्डा है। अधिक-से-अधिक रोग-ग्रस्त हिस्से उष्ण कटिबन्ध में पड़ते
हैं। पर शीत-कटिबन्ध में भी वह पाया जाता है। ग्रीनलेण्ड, आइसलेण्ड,
नावें, बाल्टिक समुद्र के किनारे के देश, कनाडा--ये सभी शीत कटिबन्ध
में हें। उनमें आज भी कोढ़ मौजूद मिलता हे । सम-शीतोष्ण प्रदेशों में
वह कभी पूरी तौर से था। भिन्न-भिन्न कारणों से वहाँ आज कम हो
गया है। तापमान, नमी और घनी जनसंख्या उसके फंलाव के लिए
अनुकूल हैं। ये सब बातें उष्णकटिबन्ध के कुछ हिस्सों में पाई जाती
हैं। उसके फंलाव में सामाजिक रीति-रवाजों का भी बहुत-कुछ हाथ है।
विशेषतः विषयातिरेक और व्यभिचार कोढ़ के फंलने में मददगार होते
हैं। अफ्रिका और पैसिफिक टापुओं के आदिनिवासियों और वंसे ही
हिन्दुस्तान के पिछड़े हुए वर्ग में इस प्रकार से इस रोग के शिकार हुए
लोग बहुतायत से पाये जाते हें । चीन में, खासकर दक्षिण की ओर घनी
बस्ती वाले उष्ण प्रदेश में, कोढ़ पाया जाता हैँ । वहाँ गन्दी परिस्थिति
में, तंग जगह में, निकृष्ट रहन-सहन में जिन्दगी बितानेवालों की संख्या
अधिक है। अफ्रिका में नाइगेरिया और बेल्जियन कांगो और दक्षिण
अमेरिका में ब्रेजिल में भी इन्हीं कारणों से उसका कोप रहा है ।

+ पृथ्त्री का वह भाग जो कर्क और मकर रेखाओं के बीच में पड़ता हैँ ।


द्‌ कांढू
हिंदुस्तान में फेलाव


हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से में कोढ़ ने अपने हाथ-पांव फैला रक्‍खे
हैं। आदिनिवासियों में वह पुराने जमाने से चलता आरहा हैं । उसकी
रोक-थाम के खयाल से जातीय रीति-रिवाजों-संबंधी रूढ़ियाँ भी पाई
जाती हैँं। कुछ जातियों में, जहां उसका नाम-निशान भी नहीं था, इधर
जंगलों की बस्तियों से मजूरी के लिए बड़े-बड़े शहरों में या उद्योग-केंद्रों
में जानें पर उसका प्रवेश होगया । वहाँ उन्हें उसकी छूत लग
जाती हैं और जब वे अपने स्थान पर वापस लौटते हैं तो उनसे जंगल
के दूसरे अधिवासियों में वह फैलने लगता है ।

बर्मा में इसका काफी जोर हैं। आसाम की दोनों घाटियों में यह
पाया जाता है। बाहर के रोग-पग्रस्त भाग में जहाँ मजदूर बड़ी तादाद में
भर गये हें वहाँ इसका विशेष रूप से प्रकोप हे। बिहार-बंगाल के मध्य
में छोटा नागपुर और गंगा किनारे के सपाट प्रदेश के बड़े हिस्से में एक
दक्षिणोत्तर पटिया की पटिया ही है, जिसमें गया, संथाल परगना, बीर-
भूम, पश्चिमी बर्दवान, मानभूम (पुलिया), बाँकुड़ा और मिदनापुर
जिलों का समावेश है । यही पटिया नीचे की ओर उड़ीसा और मद्रास
इलाके में बालासोर, पुरी, गंजाम और गोदावरी तक फंली हुई है ।
मद्रास का और दूसरा हिस्सा जहाँ इसका ज्यादा जोर हैँ अरकाट और
सेलम जिले हूँ। त्रावणकोर, कोचीन और मलाबार में भी इसकी
बहुतायत हैँ । मध्यप्रांत के छत्तीसगढ़ और बरार-विभाग में भी ऊपर
के जितना ही हूं । नेपाल से सटे हुए बिहार के हिस्से और संयुक्तप्रांत
में भी, कम होने पर भी, है सवंत्र । हिमालय में और काझ्मीर में यह
मुश्किल से मिलता है । इसका कारण आत्यंतिक हवामान और जंगली
रहन-सहन होसकता है । पूर्वी हिंदुस्तान में कोढ़ की प्रवृत्ति सावंत्रिक


कोढ़ का फेलाव ७


न होकर मर्यादित--दो-चार केंद्रों में ही--रहने की थी। पर जबसे
आमदरफ्त के साधन बढ़े और फंले, कल-कारखानों की बाढ़ हुई,
जातियों का पारस्परिक व्यवहार बढ़ा, बड़ी तादाद में लोगों का इधर
से उधर जाना आसान हुआ, तबसे अलिप्त हिस्से में भी रोगग्रस्त हिस्से
की तरह इसके फलने की सुविधा होगई ।


तीसरा प्रकरण
रोग का दायरा


हिंदुस्तान में कोढ़ के दायरे को चार शीषंकों में बाँठा जाना
चाहिए--- (१) स्थान, (२) रोग का प्रकार, (३) उम्र, (४)
सत्री-पुरुष-भेद ।

स्‍थान

हिंदुस्तान में कोढ़ कहाँ कितना फैला है, यह जानने के लिए मर्दुम-
शमारी के अंकों के सिवा दूसरा साधन हमारे पास नहीं है । पिछले दस
सालों में कोढ़-संबंधी जांच का काम हिंदुस्तान के काफी हिस्सों में हुआ
है । १९२१ की मदुमशुमारी में कोढ़ियों की तादाद १,०२,००० थी।
१९३१ में वह १,४७,९११ मिलती है । इससे यह नतीजा नहीं निकालना
चाहिए कि रोग बाढ़ पर है । इतना ही कहा जासकता है कि पहली
जाँच में कुछ ढिलाई रही होगी और पिछली जाँच चौकस हुई होगी ।
विशेषज्ञों की ओर से खास कोढ़ के संबंध में जो जाँच हुई, उसमें
रोगियों की तादाद असली मदुमशुमारी की तादाद से कहीं तिगुनी तो
कहीं बीस गुनी से ज्यादा पाई गई। मदुमशुमारी की संख्या से


प कोढ़


हिंदुस्तान में वास्तविक कोढ़ियों की तादाद दस गुनी होगी यह मानने
में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। हिंदुस्तान में कम-से-कम १५ लाख
कोढ़ी होंगे। कुछ पीड़ित प्रदेशों में रोगमान का परिमाण २ प्रतिशत हैं,
कुछ थोड़े हिस्सों में ५ से ७ प्रतिशत और कुछ गाँवों में २० प्रतिशत
तक पहुंचा हुआ है। प्रत्यक्ष जांच से यह संख्या मालूम की गई है ।
रोग के प्रकार

कोढ़ के प्रकारों का विस्तृत वर्णन १० वें प्रकरण में करेंगे। मुख्य
प्रकार उसके दो हें : (१) सौम्य कुष्ठ ( न्‍्यूरल ) अथवा असांसगिक
प्रकार, (२) कालकुष्ठ (लेप्रोमटस) अथवा सांसगिक प्रकार ।

अनुभव किया गया हे कि हिंदुस्तान में आरम्भिक सौम्य प्रकार के --
संसग ( छूत ) न फैलानेवाले रोगी सेंकड़े ७०-७५ पाये जाते हैं ।
कालकुष्ठ के--संसर्ग फेलानेवाले २०-२५ प्रतिशत मिलते हें ।

उम्र

किस उम्र के कितने रोगी पाये जाते हैं, इस विचार का विशेष महत्त्व
नहीं हैं । अधिक उपयोगी यह देखना होगा कि कोढ़ के आम तौर से
किस उम्र में किस परिमाण में होने की सम्भावना रहती है | इसके लगने
की उम्र की जांच के लिए एक संस्था में ४०० रोगियों के अंक एकत्र
किये गये । उनमें हरेक की जबानी मालूम हुआ है कि पहले लक्षण ३०
साल की उम्र होने के पहले दिखाई देने लगे। कोढ़ के आरम्भिक
लक्षण शीघ्य ध्यान में नहीं चढ़ते। बहुत कार तक सुप्तावस्था
( किवसेंट स्टेट ) में रहते हूँ । संस लगने के बाद प्रथम लक्षण प्रकट
होने में भी इतना ही लम्बा समय रूगता हैं । इन बातों के विचार से
हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि अधिक उदाहरण इसके बचपन में,
युवावस्था में और प्रौढ़ावस्था के बिलकुल आरम्भ में होने के हे । ३०


रोग का दायरा ६


साल की उम्र के बाद रोग होने की सम्भावना बहुत कम रहती है ।
वह ५ प्रतिशत से अधिक नहीं होती ।

दूसरी खास बात हैं कि बचपन में लगे रोग के ज्यादा जोर पकड़ने
की अधिक सम्भावना रहती है और प्रौढ़ावस्था में लगा भी तो साधा-
रणत: सौम्यस्वरूप का ही होता है ।

त्रीं-पुरुष भेद

सारे कुष्ठग्रस्त देशों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में कोढ़ अधिक
मिलता है। मामूली तौर से दूने का फर्क हैँ ।इस भेद की सफाई में कुछ
लोगों का कहना हैँ कि समाज में स्त्रियों की जाँच का काम दुष्कर है ।
उनके बारे में पूरी रिपोर्ट नहीं मिलती होगी । हिंदुस्तान में तो परदे का
रिवाज होने से इस अनुमान के लिए बड़ी गुंजाइश हूँँ। सयुक्तिक
दिखाई देने पर भी यह अनुमान सही नहीं है। उदाहरण के लिए
न्यूगाइना को लीजिए । वहाँ तो स्त्री-पुरुष दोनों ही बिलकुल कम-से-कम
कपड़े पहननेवाले हैं। वहाँ कोढ़ की जांच हमेशा अनावश्यक वस्त्र
उतारकर की जाती है । उनमें भी स्त्रियों से पुर॒णष रोगियों की संख्या
डबल पाई जाती है। और इसके सिवा वहाँ यह भी देखा जाता हुँ कि
पुरुषों से स्त्रियों में यह रोग अपेक्षाकृत सौम्य रूप लेता हैँ। दूसरी
जगहों का भी यही अनुभव है । इससे जान पड़ता हूँ कि स्त्रियों की
अपेक्षा पुरुषों में उसका परिमाण बढ़ा हुआ है और स्वरूप भी तीकत्र
रहता है ।

स्‍त्री-पुरुषों में भिन्न-भिन्न उम्र की दृष्टि से रोगमान का लेखा देखा
जाय तो उसमें भी ऐसी ही विचित्रता पाई जाती है । बचपन में दोनों
का लेखा एक-सा रहता हैँ। पर युवावस्था आने पर अथवा उसके बाद
के कुछ वर्षों में स्त्रियों में रोग का जोर ज्यादा होने की प्रवृत्ति रहती


१० कोढ़


हँ। उसके बाद तो पुरुषों का नम्बर ही बढ़ा मिलता है ।

इन दोनों वर्गों में रोग के प्रमाण और तीव्रता में भेद होने की
वजह क्‍या है, यह कहना मुश्किल है। सम्भव है शरीर-रचना के भेद,
बाह्य परिस्थिति या रहन-सहन के भेद के कारण ऐसा होता हो। यह
सर्वमान्य बात हँ कि कुछ रोगों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को संसर्गे-
छुत लगने का डर रहता है । पर कोढ़ के संबंध में यह बात जितनी
स्पष्ट है उतनी दूसरे रोग में नहीं पाई जाती ।

सारांश, हिंदुस्तान में रोगमान हजार में तीन है। कहीं वह बीस
से भी ऊपर पहुंचता है । इनमें से दो-तिहाई से तीन-चौथाई सौम्य
प्रकार के रोगी हैं। एक-चौथाई से एक-तिहाई संसर्ग फैलानेवाले हें ।
रोग साधारणतः बचपन में या युवावस्था में लगता है। स्त्रियों की
अपेक्षा पुरुष अधिक ( लगभग दूने ) कुष्ठविक्ृत होते हैं । इसके
सिवा उनमें स्त्रियों की अपेक्षा रोग का अधिक उग्र रूप धारण करने
की ओर झुकाव रहता है ।


चौथा प्रकरण
कोढ केसे होता है ?


कोढ़ का नाम बहुत प्राचीन समय से सुना जाता हे । अनेक देक्षों
में वह फैला हुआ है । कहीं कम, कहीं ज्यादा, कहीं धीमा कहीं
तीज; कहीं एक-सा हिसाब नहीं है। इसमें बड़े चढ़ाव-उतार हुए हैं ।
न सुधरों को छोड़ा, न पिछड़ों को बख्शा। कहीं संक्रामक रूप धारण
करता हैं तो कहीं अड्डा जमाये बंठा मिलता हे । इससे स


कोढ़ केसे होता है ९ ११


मन में स्वाभावतः यह प्रइन उठना है कि यह रोग कैसे पैदा होता हैं ?
इसकी उत्पत्ति के बारे में बहुत तरह के गलत-सही खयालात लोगों में
पाये जाते हें । इन लोककल्पनाओं में कुछ सत्य का अंश, एक-
तरफापन और कुछ अतिशयोक्ति होना स्वाभाविक हें। शास्त्रज्ञों ने इन
सब कल्पनाओं की छानबीन करके इसका रोगोत्पत्तिशास्त्र (इटियालोजी )
बना डाला है । सन्‌ १८७१ में हनसेन के कुष्ठजंतु खोज निकालने के
बाद इन विचारों में शास्त्रीयता आगई ।
कुछ लोक-कल्पनाएं

प्रायः पहली कल्पना हैं कि अमुक चीज खाने या न खाने से यह
रोग होता हैं । कहीं लोगों की कल्पना है कि सरसों का तेल खाने से,
कहीं मूंगफली का, कहीं कोयने का, कहीं और किसी चीज का तेल खाने
से कोढ़ होता है। दध और मांस इकट्ठे खाने से भी कोढ़ होने की
बात सुनी जाती है । कुछ का कहना है कि जिस नमक पर छिपकली मृत
गई हो उसे खाने से कोढ़ होजाता है। यूरोप में भी जे. हचिसन ने सड़ी
मछलियों के भोजन को कोढ़ का कारण बतलाया था । पर बाद को
उसका मत बदल गया । जन्म से अर्थात्‌ इस रोग से पीड़ित पिता-माता
की कोख से जन्म लेने से यह रोग होने की कल्पना का भी जोर
है । रोगी के सहवास से इसके लग जाने की कल्पना भी उतनी ही जोर-
दार हैँ । इन दोनों का आगे विस्तार से विचार किया गया हैँ । उपदंश
(गर्मी) रोग से कोढ़ का बहुत निकट-संबंध है, यह कल्पना भी पुरानी
है । इन दोनों रोगों को एक ही मेह' नाम से पुकारते हेैं। रजस्वला-काल
में सत्रीसंगः करने से इस रोग के होने की बात कहनेवाले लोग भी
मिलते हैं ।

इनमें कुछ कल्पनाएं निराधार हें । वे शास्त्रीय कसौटी पर नहीं


१ कोढ़


ठहरतीं । कुछ में सत्य का थोड़ा अंश हैं; उतनासा लेना चाहिए ।
उदाहरणार्थं, अमुक वस्तु खाने से कोढ़ होता है इसके लिए कोई सबूत
नहीं है । पर अशास्त्रीय आहार कोढ़ फंलाने के लिए अनुकूल परिस्थिति
पैदा करने का एक प्रमुख साधन जरूर हैं । यह मानने में कोई ह्
नहीं हैं कि सूखी या नमकीन मछलियों के सेवन से इसके फैलने में
अप्रत्यक्ष सहायता होती हैं । खयाल रहे कि आहार का रोग-प्रतिकार-
क्षमता (रेजिस्टेंस) से संबंध है और प्रतिकार की शक्ति का रोग
के फैलने से । परंतु किसी खास खाद्य से रोग होता है यह मानने के
लिए शास्त्रीय आधार नहीं है । वेसे ही इस खयाल के लिए भी कोई
आधार नहीं हैँ कि सिर्फ चना, सिर्फ काजू इत्यादि खाने से रोग जाता
रहता हूँ | कुछ का मानना हे कि अन्न के द्वारा रोग लगता हे, बाहर
की छत से नहीं लगता । यह भी सही नहीं हे ।
सांसर्गिकता-संबंधी कल्पना
पुराने जमाने से इस रोग से सब जगह के लोग डरते ओर घृणा
करते रहे हैं । वेसे ही इस रोग के संबंध में लोगों के जो खयालात जमे
मिलते हैं उनसे जान पड़ता ह कि इसके छतहे होने की कल्पना लोगों
में थी। इसे आनुवंशिक मानने की ओर भी लोगों का कुछ झुकाव था ।
पर उसमें निश्चितता नहीं थी, उसमें अज्ञान ओर झूठे डर का मिश्रण
दिखाई देता है । इसकी वजह से कोढ़ियों के साथ बर्ताव करने में करता
का रिवाज चलता आया दिखाई देता है । यह ठीक हैँ कि इससे रोग के
रुकने में कुछ मदद मिली, लेकिन बहुत बार रोगियों को व्यर्थ कठोरता
का भी शिकार होना पड़ता है ।
रोग के स्पशंजन्य (छुतहा) होने की कल्पना थी, तथापि उसकी
स्पर्शजन्यता साधारण स्वरूप की थी या तीत्र स्वरूप की, इसकी कल्पना


ल्‍्दा


कोढ़ केसे होता है ९ १३


नहीं थी । इसका भो विचार नहीं हु आ था कि सभी रोगी
सांसगिक दशा वाले होते हें या कुछ । न इसीका विचार हुआ था
कि रोग लगने का भय किसे, किस परिस्थिति में और कितना होता
है ? कितनोंको रिवाजों का अतिरेक और कठोरता पसंद नहीं आती,
इसलिए वे एकबारगी दूसरे सिरे पर जाकर उलटे यह प्रतिपादन करने
लगते हैँ कि यह रोग सांसगिक नहीं है । यों, लोकमत का कांटा इधर से
उधर झूलता रहता हैँ । पहले कह चुके हैं कि यूरोप के बहुतेरे देशों में
अनेक कोढ़ी-आश्रम थे। अकेले फ्रांस में उनकी संख्या दो हजार से
ऊपर थी । पहले अंग्रेजों के यहां कोढ़ियों के संबंध में जो कायदे थे
उनके संत्रंध में व्यवस्थित तथ्य मिलता है । सर जेम्स सिम्सन ने निम्न-
लिखित वर्णन दिया है-“'कोढ़ी को कुटुम्ब से अलग कर देते, विवाहित
होने पर पत्नी को तलाक देदेना पड़ता, उसकी स्त्री को पुनविवाह करने
की इजाजत थी । उसे कोढ़ी-आश्रम में लाकर रखने के पहले पादरी
कुछ विधियां पूरी कराता और अंत्यविधि (मरणविधि) की भांति
उसके शरीर पर मिट्टी भी डालरूता। कायदे की निगाह से उसे मरा
मान लिया जाता । उसे एक खास तरह की पोशाक पहननी पड़ती ।
रास्ते से आते-जाते उसे एक खास तरह की आवाज करनी पड़ती । उसे
होटलों, गिर्जों , कारखानों और दुकानों में घुसने की मनाही थी। छोटे
बच्चों से कुछ भी लेने-देने पर रोक थी । वह सावंजनिक जलछाशयों का
उपयोग नहीं कर सकता था। कोढ़ियों को छोड़कर दूसरों के साथ खाने-
पीने पर प्रतिबंध था। आम रास्तों पर न चलने देकर संकड़ी गलियों में से
आँने-जाने की आज्ञा थी । रास्ते में बात करनी हो तो जोर से नहीं की
जासकती थी। बाजार में कुछ खरीदना हो तो छड़ी के इशारे से
बताना पड़ता। रहने का स्थान तो बस्ती से बहुत ही दूर होता था ।”


५४ कोढ़


अफ्रिका की पिछड़ी हुई जातियों में भी ऐसे ही अथवा इंससे भी
कड़े रीत-रिवाज प्रचलित होने के सबूत मिलते हैं । वहां तो रोगी को
जबद॑स्ती अलग कर दिया जाता है और वहीं उसे खाना पहुंचा दिया जाता
हैं । सेनेगाल, आइवरीतट, कोमोरो बंदर और मादागास्कर में १९२५
तक यह रिवाज था । हिंदचीन में मर जाने पर रोगी को उसके
बिछावन समेत जला देने की रीत है। गाड़ना हुआ तो ज्यादा गहरे
गड्ढे में गाड़ते हें। चीन और जापान में भी गांव से बाहर उनकी बस्ती
बसाने की प्रथा है। जापान में 'केन' नियम के अनुसार प्रतिष्ठित
कोढ़ियों तक को बहिष्कृत भिक्षुकों की पांत में जाना पड़ता है। अपने
यहां मनुस्मृति में भी इसी तरह का उल्लेख मिलता हैं। उसकी मरण-
क्रिया में नहीं जाना चाहिए, ऐसा लोकमत आज भी अपने यहां कहीं-कहीं
दिखाई देता है। उन्हें 'पापरोगिणः' यह नाम देने में तिरस्कार की हृद
होगई है । इन बातों से इस रोग के संसर्गज होने की कल्पना और
भय प्राचीन समय से जारी दिखाई देते हें ।

आनुवंशिकतासंबंधी कल्पना

पहले कहा जाचुका हूँ कि सांसगिकता की भांति आनुवंशिकता
( हेरिडिटी ) संबंधी खयाऊ भी पहले से चलता आया जान पड़ता
है। चीन, जापान और अफ़्िका में कोढ़ के आनुवंशिक होने का खयाल
आज भी मौजूद हे । हिंदुस्तान में अगर किसी रोगी से कहिए कि उसे
कोढ़ हैं तो अनेक बार यह उत्तर मिलता हैं कि मेरे पूव॑जों में यह किसी-
को नहीं था। इस जवाब में यहां रोग के आनुवंशिक होने का खयाल
समाया हुआ हैं ।

यूरोप में भी सत्रहवीं, अठारहवीं, उन्नीसवीं सदी में सन्‌ १८७१ तक
इस रोग के आनुवंशिक होने का खयाल खूब फेला हुआ था । पिछली


कोढ़ केसे होता है ९ १४


सदी में इस खयाल ने ज्यादा जोर पकड़ा । आनुवंशिकता और स्पशे-
जन्यता इन दोनों उपपत्तियों में होड़-सी लगी हुई थी । कभी इसकी तो
कभी उसकी प्रबलता होती थी । १८४८ में डैनियलसेन और बोअक
सरीखे अधिकारी विशेषज्ञों ने जो पुस्तक लिखी उसमें इस आनुवंशिकता
की उपपत्ति पर जोर दिया। इस खयाल को उत्तेजन मिलने का कारण
लंदन में 'रायल कालेज आफ फिजीशियंस' की रिपोर्ट हुई। उसकी
१८६२ की रिपोर्ट में यह फैसला दिया हुआ मिलता हैँ कि यह रोग
सांसगिक नहीं है और रोगी को बरबस अलग करने के लिए उपाय
करने की आवश्यकता नहीं है । पर आगे मालूम हुआ कि यह निर्णय करने
में गलती थी। इस रिपोर्ट के कारण प्रत्यक्ष रूप से यह फायदा तो
हुआ कि उसकी वजह से दोनों मतों की अच्छी छान-बीन हुई । इन बातों
की खोज की ओर जोर से ध्यान गया । उसके बाद तत्काल ही १८७१
में हनसेन ने सुक्ष्मदर्शक की सहायता से कुष्ठजंतु का होना सिद्ध
किया । कुष्ठविज्ञान ( लेप्रालोजी ) में इस टक्कर की खोज अभी-
तक नहीं हुई है ।
आलनुवंशिकता के विरुद्ध सबूत
कोढ़ आनुवंशिक है, संसर्गज नहीं, यह जो बीच के काल में प्रति-
पादित किया गया उसका आधार क्या था, इसकी छान-बीन करने
पर यह गलत साबित हुआ | कुछ का निरीक्षण मर्यदित क्षेत्र में था,
डूसलिए वे सही अनुमान नहीं कर सके थे। माल्म हुआ कि इनमें
कुछको रोग के प्रत्यक्ष स्वरूप का अनुभव नहीं था। कोढ़ की आनु-
वंशिकता की कल्पना के विरुद्ध विशेषज्ञों के इकट्ठे किये हुए सबृत तीन
भागों में बांटे जाते हें:--
; कुष्ठवेत्ताओं का अनुभव है कि कोढ़ की बाढ़ के


१६ कोढ़


साथ-साथ पुरुष रोगी की वंश-वृद्धि की शक्ति नष्ट होने लगती है।
तब यह असंभव हैं कि जो रोग वंशवृद्धि की शक्ति को नष्ट करता है
वह स्वतः आनुवंशिक हो । हु

२--हवाई द्वीप, न्यूक्लोडोनिया और माकंस्वास द्वीप में कोढ़
महामारी की तरह जोरों से फैला । सिर्फ बीस ही वर्षों की मीयाद में
वहां रोग ऐसी विलक्षणता से बढ़ा कि आनुवंशिकता की कल्पना के
लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई । इसके सिवा यूरोप-आगत
निवासियों में भी उसका संसर्ग फल गया, जिनके पूर्वजों की पीढ़ियों में
उसका नाम-निशान तक नहीं था । ब्रिटिश गायना और दूसरे उष्णकटिबंध
वाले प्रदेशों में ऐसे अनेक उदाहरण हें ।

३--यदि यह रोग आनुवंशिक होता तो जहां इसने डेरा डाल
दिया था वहाँसे उखड़ने या कम होने की बात सामने न आई होती ।
इसका एक मजेदार उदाहरण नावें के १७० आदमियों का हूँ । इनमें
कुछ को प्रत्यक्ष रोग का आरम्भ हाल ही में हुआ था, बाकी को संसर्गे
लग चुका था और वे रोग लगने की तैयारी में थे। उन्हें नाव से अमेरिका
के समशझीतोष्ण प्रदेश में बसने को भेज दिया गया। हनसेन ने बाद को
उनकी जांच की तो उनमें से एक के भी प्रत्यक्ष रोग नहीं मिला ।
उनके वंशजों में से किसीको भी होने का पता नहीं लगा ।

इसकी अपेक्षा निर्णायक सबूत इधर कोढ़-आशभ्रमों में रोगियों के जन्मे
हुए बच्चों का हैँ । कोढ़ियों के पेट से हुए बच्चे जन्म से ही अलग करके
पाले जाने पर निरोगी रहते हे और उन्हें निरोगी संतान होती है, यह
आज अनुभव से प्रत्यक्ष सिद्ध होगया है। हिंदुस्तान में तरनतारन
( पंजाब ) के कुष्ठ-निवास की रिपोर्ट और मादागास्कर के उदाहरण
इस संबंध में अध्ययन करनेयोग्य हें ।


कोढ़ केसे होता है ९ १७


यहां एक बात बताने की जरूरत जान पड़ती है। यद्यपि कोढ़
आनुवंशिक नहीं हैं, तथापि उसकी रोग-ग्रहणशीलता (ससेप्टिबिलिटी )
तो आनुवंशिक है । मतलूब, कोढ़ी की संतान को कोढ़ होजाने का डर
दूसरों की संतान की तुलना में अधिक होता है और यह उन्हें जन्म से
ही मिलता हैं । इसलिए ऐसे बच्चों को रोग से बचाने की ज्यादा खबर-
दारी रखनी चाहिए । क्षय रोग का भी यही अनुभव है ।

स्पशेजन्यता के विषय में प्रमाण

आधुनिक विशेषज्ञों ने जो अनेक और सबल प्रमाण सामने रकक्‍खे हें
उनसे इस रोग के स्पशंजन्य होने और संसर्ग के कारण ही फैलने के
विचार की पूरी पुष्टि होती है। ब्राउस, हिलिस, व्हाट, लेलायर के ग्रंथों
और हवाई द्वीप की रिपोर्ट में इसके व्यवस्थित प्रमाण एकत्र किये गये
हें । अपने यहां तो इसके इतने प्रत्यक्ष उदाहरण हैं कि उनका उल्लेख
करने की भी जरूरत नहीं है । तथापि कुछ चुने हुए उदाहरण देना
उपयोगी होगा:--

१--एक मालगुजार का एक नौकर कोढ़ी था । शुरूआत के बारे में
इसका किसीको पता नहीं था। वह गांव के पास के बाग में मोट चलाता
और बाग की रखवाली करता । उसकी रोटी वहीं पहुंच जाती। वार-तेवहार
वह घर भोजन के लिए जाता । बाग छोड़कर वह प्राय: कहीं जाता नहीं ।
मोट चलाना अथवा मालगुजार के छोटे बच्चे को लेकर बाग में खिलाना या
रखवाली करना यह उसका क्रम था। आगे चलरुकर उसका रोग बहुत
भयंकर होगया। मालगृजार के लड़के को भी हूुग गया। पर उस
कोढ़ी का जो निज का लड़का था वह बिलकुल ठीक पाया गया ।

२--किसी छोटे द्वीप में जब नये सिरे से रोग होता है तो स्पर्श-
जन्यता के अभ्यास के लिए अच्छे साधन मिलते हैँं। कनाडा के एक खंड


श्८ कोढ़


के किनारे पर ट्रिकार्डी लेपर एसाइलम है। उसके पड़ोस में ही बेट्सी
मंक्‍्कार्थी नाम की स्त्री का जन्म हुआ था। वह सामने के प्रिस एडवर्ड नाम
के छोटे द्वीप पर रहती थी। उसकी जिंदगी के ५२ वें साल में उसे यह
रोग फूटा । १८६४ में वह गुजर गई। रोग फूटने के पहले उसको पांच
बच्चे होचुके थ। सबसे बड़ा लड़का २० वे का था। ये सब लड़के
रोगग्रहणशील ( ससेप्टिबल ) उम्र के थे। उनमें सबसे छोटी लड़की
को छोद्कर बाकी के बच्चों को एकसाथ ही रोग ने घेरा । इसके बाद
उसका देहान्त होगया । छोटी लड़की की जान डेल नामक आदमी से
गादी हुई । जान डेल को रोग ने घेरा और उसकी दो लड़कियों को भी ।
एक आदमी ने चौथे बच्चे की सेवा-शुश्रषा की थी, आगे चलकर उसे
भी रोग लगा। उस स्त्री का जेम्स कमेरन नामक का दूसरा दामाद
उसके सांसगिक बच्चों के साथ उठता-बैठता था, उसे भी रोग ने सन
१८७० में पकड़ा । इस प्रकार इस एक स्त्री की छुत से ५ लड़के, २
नाती और ३ दूसरे संबंधी रोगग्रस्त हुए। तबतक उस टठापू में इसके
सिवा और किसीको कोढ़ रोग नहीं था । घर में छत फैलने का यह एक
खास उदाहरण हे । दामाद, मित्र और नौकर के बारे में तो आनुवंशि-
कता का कोई दूर का संबंध भी नहीं जोड़ा जासकता ।
३--हिदमहासागर में मारिशस के पास एक छोटा-सा रोडििग्यूज
नामक टापू है । १८७५ से ८५ के बीच डियांगो नामक एक मल्लाह
मारिशस से वहां बसने गया । तबतक उस टापू में किसीको कोढ़ नहीं
था। ४-५ वर्ष ब.द मल्लाह को कोढ़ फूटा । रोग के जोर पकड़ने पर वह
एक पहाड़ी पर जाकर रहने रूगा। तबसे सालभर के अंदर-ही-अंदर
डियाँगो के मालिक के लड़के में रोग के लक्षण प्रकट हुए। यह लड़का
नाव पर बराबर डियांगो के साथ काम करता था। फिर तो सन्‌ १९२०


कोढ़ केसे होता है ९ १६


के भीतर इस टापू में २३ कोढ़ी होगये । उनमें १६ मालिक के रिश्तेदार
थे और बाकी ७ डियांगो के संबंधी ।

४--रायरू कालेज आफ फिजिशियंस, लरुंदन की सन्‌ १८६२ की
रिपोर्ट के आधार पर उस वक्‍त चलते हुए कुछ कुष्ठ-निवास बंद कर
दिये गये । बाद में पता चल। कि उन स्थानों में कोढ़ की वृद्धि हुई । तब
फिर उन कुष्ठ-निवासों को चालू किया गया । इससे भी कोढ़ के स्पशे-
जन्य होने की बात साबित होती है ।

पति-पत्नी में संसगे-प्रमाण कम क्‍यों है ९

पारस्परिक संबंध के कारण रोग लगने के इतने उदाहरण मिलते हें
कि इसकी सांसगिकता--छूत के बारे में शंका की कोई गुंजाइश नहीं
रह जाती । फिर भी शंका की एक वजह है। मानिए, कोई रोगी है।
उसके ४-५ बच्चों को भी रोग लगा । पर उसकी स्त्री और उन बच्चों
की माँ रोगी पति से बराबर संसर्ग रखते हुए भी रोग से बची रहती हे,
ऐसे उदाहरण कई बार मिलते हैँ । ऐसे उदाहरणों की अच्छी छानबीन
किये बिना ही कितने ही लोग तय कर लेते हैँ कि कोढ़ आनुवंशिक हैं,
स्पर्शंजन्य नहीं । पति से स्त्री को और स्त्री से पति को रोग लगनेवाले
उदाहरण भी मिलते हे । पर संतान को माता-पिता से रोग लगने के
जितने उदाहरण मिलते हैँ उतने पति-पत्नी में नहीं मिलते, यह ठीक है।
एक को कोढ़ था और बढ़ चला था । बाल-बच्चे नहीं होते थे । उसने
पहली स्त्री के होते भी एक दूसरी जवान लड़की से शादी की । पहली
स्त्री ज्यादा दिनों से साथ रहने पर भी रोगी नहीं हुई, पर यह दूसरी
स्‍त्री दो-तीन वर्षों में ही रोग का शिकार बन गई। इसका कारण यह
जान पड़ता है कि इस आदमी का रोग जब सांसगिक दशा में पहुंचा तो
उसकी पहली पत्नी की उम्र रोगग्रहणशीलता से ऊपर होगई थी,


२० कोढ़


इसलिए उसे छुत लगनी मुश्किल थी। दूसरी रोगग्रहणशील उम्र में
थी और पति सांसगिक हालत में पहुंचा हुआ था | ऐसी परिस्थिति में
ताबड़तोड़ छत ऊूगना आसान था ।

कोढ़-रोगियों में बहुतेरे ऐसे होते हें कि उनका रोग दूसरों को नहीं
लगता । कुछ सांसगिक अवस्थावाले होते हैं, जिनसे वह दूसरों को
लगता है । इसी तरह सबको रोग लगने का डर भी नहीं रहता । बचपन
में, जवानी में, आम तौर से २५ वर्ष की उम्र के अंदर रोग लगने का
अधिक अंदेशा रहता हैं । ३० साल की उम्र के बाद रूगता भी है तो
सेकड़े ५ को। पहले लोगों को इस मर्यादा की स्पष्ट कल्पना नहीं थी,
इसी लिए इस तरह की गलत धारणा होती थी ।


पांचवां प्रकरण
| 4 कर
ससग-अवरा
रोगी शरीर से प्रत्यक्ष स्पर्श होने पर दूसरे को लगनेवाले रोग को
'स्पर्शजन्य अथवा स्पशैसंचारी या छुतहा' (कान्टेजियस ) रोग कहते हें।
रोगी शरीर से निकले हुए मल, मूत्र, पसीना. थूक, लार, नेटा, उच्छवास
वगरह के द्वारा दूसरे को लगनेवाले रोग को 'संसर्गंसंचारी अथवा सांस-
गिक' (इंफेक्शस ) रोग कहते हैं । साधारणतः कोढ़ को स्पशेजन्य कहा
जाता हैं । अखीर की बहुत भयंकर अवस्था में पहुँचने पर वह सांसगिक
भी होजाता हैं ।
संसग-प्रवेश-द्वार
वर्तमान समय में कष्ठवेत्ता कोढ को स्परशेजन्य मानते हें । पर शरीर


संसग-प्रवेश २१


में संसर्ग पहुँचने का निश्चित्र द्वार कौनसा है, यह आज भी निशचयपूर्वक
नहीं कहा जासकता । इस. रोग के सूक्ष्म जंतु होते हें। उनके शरीर में
घसते ही शरीर की पेशियां (सेल्स) उनसे झगड़ती हें । जंतु-प्रवेश और
उनके साथ होनेवाली पेशियों की प्रतिक्रिया के कारण शरीर में कोढ़ के
लक्षण पंदा होते हैं । कोढ़ पंदा करनेवाले सूक्ष्म जंतु * को कुष्ठ यष्टि
जंतु' अथवा लौकिक भाषा में “हनसेन के यष्टि जंतु ( लेप्रा बसिलस )
कहते हें । वह अतिसौम्य विष वाला होता हँ। वह मानव-दरीर में
घुस सकता है, और घटक के सारे पेशी जालों (टिश्यू) में पसर सकता
हैं । पर इसकी वजह से खयाल में आनेलायक कोई भी लक्षण एकबारगी
पंदा नहीं होता । संसर्ग अप्रकट अथवा ध्यान में न आनेलायक हालत में
बहुत वर्षों तक रहता है । भयंकर अवस्था में पहुंचे हुए कोढ़ी तक में
समझ में आनेलायक लक्षण कम ही मिलते है । समाज में तो साधारणतः:
वह निरोगी माना जाता हें। पर वह अपने सहवास में आनेवालों में लगा-
तार रोग फैलाता रहता है। इस प्रकार रोगसंसर्गी मनुष्य में भी बाहरी
लक्षण सहजमहज नहीं दिखाई देते। संसर्ग लगने के बाद अनेक वर्षों तक
तो संस लगनेवाले को पता तक नहीं चलता। इस दुहरे कारण की
वजह से संसर्ग कब और कैसे लगा और किस ससर्ग-द्वार से, यह तय
करना अशक्य-सा होता है ।


+* सुक्ष्मजंतु ( बेक्टिरिया ) एकपेशीमय होते हे और बहुत जल्दी
बिखर जाते हें । इनके चार उपभेद हें-- (१) गोलजंतु, (२) यष्टिजंतु,
(३) सूत्रजंतु ओर (४) सर्पिलजंतु । ये अपने नाम के अनुसार गोल,
बारीक तिनके की तरह के, सृत की तरह के और सांप की आकृति के
होते हें । इसके फिर रोगोत्पादक और अरोगोत्पादक भेद हें । कुष्ठजंतु
यब्दिजंतु वर्ग के होते हें। हनसेन ने १८७१ में इसकी खोज की थी ।


२२ कोढ़


के


रोग की अप्रकट अथवा बिलकुल आरम्भिक अवस्था जानने में उप-
योगी साधन सामान्यतः होनेवाले प्रयोग, जंतुसंवर्धन (कल्चर) और रकक्‍त-
जल (सीरम) के द्वारा प्राप्त होते हें । पर कोढ़ में वह भी काम में नहीं
आते । क्योंकि कुष्टजंतुओं का मनुष्य-शरीर के बाहर आज भी कृत्रिम रीति
से संवर्धन नहीं होपाया । प्रयोग करनेयोग्य प्राणियों के शरीर में लूस
घुसाकर यह रोग पैदा नहीं किया जासका । प्रकट बाहरी लक्षणों से अथवा
सूक्ष्म जंतुशास्त्र (बेक्टिरियालाजी ) की सहायता से जब रोग का निदान
(रोग-परीक्ष।) नहीं होपाता, तब रक्तजल के द्वारा परीक्षा करके रोग-
निर्णय किया जाता है। पर कोढ़ के लिए ऐसी कोई रक्तजल विषयक
परीक्षा भी अबतक आविष्कृत नहीं हुई ।

रोग अथवा जख्म के कारण शरीर के पेशीजाल ( टिशध्यू ) में जो
रचनात्मक परिवर्तन होता है उसे रुणक (लीजन ) कहते हे । उपदंश और
दूसरे रोगों में संसर्ग लगे हुए स्थान में ही पहला मुख्य रुगणक पैदा होता
है । कोढ़ में रोग-संसर्ग-स्थान में ही पहला चकत्ता पैदा होने के प्रमाण
मिलते हैं । पर साधारणत: अधिक उदाहरणों में संसर्ग के सारे शरीर में
फेल जाने पर उसके परिणामस्वरूप पहला चकत्ता उठता है। यह प्राय:
पहले फोड़ा हुए या जख्मी हुए स्थान पर ही उठता हें ।

उपर्युक्त कारणों से निद्िचत संसर्ग-द्वार बतलाना मुश्किल है। तथापि
विकुपित अवस्था ( प्रगत ) कै रोगी के सहवास में आनेवाले के
इलेष्मल त्वचा के ( म्यूकस मेम्न्रेन ) ब्रण ( घाव ) अथवा खरोंच
लगे हुए हिस्से से कृष्ठजंतु शरीर में घुसते हैं, यह मानने के लिए भरपूर
प्रमाण मौजूद हें। छोटे बच्चों के नाक कुचरने, कंडु रोग अथवा
कृमिदंश से परेशान होकर शरीर खुजलाने, शरीर पर के सादे या
पीप वाले; घाव वगरा संसर्ग पहुंचाने के बिलकल आसान मागेहें।


संसग-प्रवेश २३


कोढ़ी के उपयोग में आनेवाले जलाशय में स्नान-पान करने से रोग
पैदा होने का पक्‍का प्रमाण अभी नहीं मिला हैं। क्रमिदंश से रोग
फैलने के बारे में भी कोई माननेवाला आधार नहीं है । पर यह जान पड़ता
हैं कि बहुत बार कुष्ठजंतु को इधर से उधर करने में कृमि से मदद मिलती
हैं। कोढ़ी के रक्त से पुष्ट हुई मक्खियां, खटठमल और जूं के अंगों पर
कुष्ठजंतु मिले हें। कोढ़ी के बिछौने पर सोने से या उसके कपड़ों का
व्यवहार करने से रोग लगने के उदाहरण दिये गये हैं। कोढ़ी की
चटाई पर नंगे पांव चलने से अथवा उसके खाली किये हुए घर में रहने
से रोग रूग जाने के उदाहरण हें । इससे यह मानने की ओर प्रवृत्ति हैँ कि
मनुष्य-शरीर छोड़ने के कुछ समय बाद तक ये जंतु जिंदा रहते हैँ । रोगी
शरीर के बाहर उसके जीवित रहने की शक्ति नाममात्र की ही होती है।

प्रत्यक्ष संघटनात्मक स्पशं के कारण संसर्ग फंलता है, यह सिद्ध
करनेवाले भरपूर और सबल प्रमाण मौजूद हें । स्पर्श जितना निकटस्थ
और दीर्घकालीन और रोगी जितना अधिक सांसगिक और संसुष्ट,
जितना अशक्त अथवा नाजुक उम्र का होता है, रोग लूगने की संभावना
उतनी ही ज्यादा रहती हैं।

रोगियों के दो प्रकार--सांसग्गिक ओर असांसरगिक

कोढ़ियों में सभी रोगी संसर्ग फंलानेलायक हालत को पहुंचे हुए
नहीं होते । साधारणतः माना तो यह जाता है कि होंगे तो वे सांसगिक
ही, नहीं तो रोगी ही न होंगे । कुछ सांसगिक होते हूँ कुछ असांसगिक,
कुछ आज असांसगिक होने पर भी आगे चलकर सांसगिक होजाते हैं
कुछ आज सांसगिक हैं पर आगे फिर उनके असांसगिक होने की
संभावना है। ये बातें साधारण लोगों की मुश्किल से समझ में आने-
वाली होने पर भी जरूरी हैं । इसके कारण रोग का स्वरूप समझने


२४ कोढ़


और रोगी से व्यवहार करने में सुविधा होती है ।

कोढ़ियों में से थोड़े (एक-चौथाई) रोगी ही सांसगिक होते हैं ।
इधर हिंदुस्तान में जो जांचें हुई हैं उनसे पता चलता हे कि १०
रोगियों में १ अतिसांसगिक, १ साधारण सांसगिक और ७-८ असाँस-
गिक हालत वाले होते हें । त्वचा अथवा नाक की इलेष्मल त्वचा की
सूक्ष्मदर्शक यंत्र द्वारा योग्य रीति से फिर-फिर निश्चित अवधि पर
अनेक बार परीक्षा करने पर कुष्ठ-जंतु न पाये जायें तो रोगी असांस-
गिक समझा जाता है। इसकी यह स्वमान्य कसौटी हैं । रोगी सांसगिक
है या असांसगिक, यह सिर्फ देखने से अथवा बाहरी परीक्षा से हमेशा
तय नहीं किया जा सकता । इसके लिए सुक्ष्मदर्शकयंत्र ( माइक्रस्कोप )
की जरूरत पड़ती हें।

कोढ़ के मुख्य दो प्रकार हें । उनमें कालकुष्ठ (लेप्रोमटस्‌) प्रकार
के रोगी हमेशा रोग फैलानेवाले होते हैँ । ऐसे रोगी की बाहरी त्वचा
(एपिडमिस) की खरोची हुई झिल्ली पर कुष्ठ-जंतुओं का दल-का-
दल बहुत बार पाया जाता है। नेटे और थूक में, लार में, विशेषतः रोगी
के छींकने, खांसने अथवा जोर से सांस लेते हुए बाहर निकलनेवाले
खखार वगरा में जंतु कसकर भरे रहते हें। कुष्ठ-प्रतिक्रिया ( लेप्रा-
रीएक्शन ) होने पर नाक में की और चमड़ी पर की गांठें फूटकर बहने
लगने की अधिक संभावना रहती हैँ । ऐसे स्राव में जंतु खूब ही होते हें
और संसगं-छृत--लगने का भारी भय रहता हे ।

रोगप्रतिकार-क्षमता (रेजिस्टस)

रोग लगेगा या नहीं अथवा लगेगा तो कितना लगेगा, यह तय करने
का दूसरा महत्वपूर्ण साधन हैं संसर्ग लगेहुए ( संसृष्ट ) मनुष्य की
रोगप्रतिकार-शक्ति । बच्चों की प्रतिकार-शक्ति विशेष करके जन्म


संसग-प्रवेश २५


के बाद कुछ वर्षों तक बहुत कम होती है । छोटे बच्चों में जितनी
जल्दी-जल्दी और जिस उम्र रूप में संसर्ग लगता है, उससे यह बात
भलीभांति सिद्ध होती है । लेप्रालिन परीक्षा से भी यह बात प्रकट
होती हैँ। सहचारी रोग, हीन पोषण और आरोग्य के प्रतिकूल रहन-
सहन के कारण प्रतिकार-शक्ति क्षीण होती हे। वेसे ही जवानी
( प्यूबर्टी ), गर्भधारण और दूध पिलाने के दिनों ( लक्टेशन ) में भी
शरीर पर पड़नेवाले जोर की वजह से भी प्रतिकार-शक्ति में कमी होती
हैं। आरोग्य का प्रतिकूल वातावरण और रहन-सहन से बहुत निकट
का संबंध हे। उसी तरह भिन्न जाति अथवा वर्ग के रक्‍त-संबंध का
भी नजदीकी ताल्लुक होता है । आगे १७वें प्रकरण में इसका अधिक
विचार किया गया है ।


संसग की शक्याशक्यता

कोढ़ के सांसगिक होने पर भी उसका संस सौम्य प्रकार का
होता हैँ । बहुतेरे रोगी असांसगिक होते हैं । थोड़े स्पर्शंसंचारी होते
हैं। उनसे भी थोड़े संसर्गसंचारी होते हें | संसर्ग ऊपरी और हलका-
सा हुआ तो कुछ उपाय किये बिना ही उत्तम आरोग्य के कारण उसके
अपनेआप जाने की संभावना रहती है । संसर्ग साधारणत: बहुत समय
तक अप्रकट स्थिति में रहता है; बढ़ने लूगने पर भी धीरे-धीरे यथावकाश
बढ़ता है । लक्षण भी एकदम बहुत कुछ प्रकट नहीं होते । इसीलिए
कोढ़ को जीर्ण ( क्रानिक ) और गुप्त संचारी (इंसिडियस) रोग कहा
जाता हैँं। वह ज्यों-त्यों रोगी की बलि भी नहीं लेता | ( नानफेटल )

एक खास उम्र और हालत में रोग लगने का डर ज्यादा रहता
हैं। उत्तम प्रतिकार-क्षमता होने पर बाहरी प्रभावक संसर्ग होने
की संभावना कम रहती है। कोढ़ी की संतान को अलबत्ता दूसरों की


२६ कोढ़


अपेक्षा संसर्ग लगने का डर ज्यादा रहता हैं ।

प्रत्यक्ष संघटनात्मक और दीघंकालीन संसर्ग हुए बिना साधा-
रणत:ः ज्यों-त्यों रोग नहीं लगता । विशेषतः शरीर कहीं से कटा, खर्चा,
खुला हुआ घाव और गीली त्वचा होने पर संसर्ग शीघ्र रूगता है।
मामूली तौर से बराबर कुछ दिनों का संसर्ग हो और वह भी बहुत
निकट का, तब रोग लगता हैं ।

पर विशेष परिस्थिति में वह हर किसीको होसकता है । मनुष्य-
जाति का इस रोग सरीखा दुश्मन शायद ही कोई ओर होगा।
इसलिए सदा इससे सावधान रहना चाहिए। कोढ़ का संसर्ग न
होने देने के लिए टीका लेने का उपाय नकली ज॑सा हे । अत: सांसगरिक
रोगी से अलग रहना चाहिए और स्वास्थ्य अच्छा रखना चाहिए। तभी
संसर्ग टलने की अधिक संभावना है।


सन्‍्ला+जाभन---- सिशपकयह सातारा,


छटवां प्रकरण


कु-जतु
कुष्ठजंतु अथवा हनसेन के यष्टिजंतु २ से ८ माइक्रोन * लम्बाई
और ०.५ से १ माइक्रोन मोटाई के होते हें । इसके पेशीद्रव (प्रोटो-
प्लाज्म) में रंग धारण करनेवाले कण होते हें । ये कण कभी अनेक
और बहुत छोटे होते हैं । कभी एक ही बड़ा कण होता हैं। वह बीच
+ सूक्षमद्शक यंत्र के काम में आनेवाला एक सूच्तमातिसूक्षम


माप । मीटर का दस लाखवां भाग अथवा इंच का २९००० वाँ भाग।
९८-इसका निशान हे ।








कुष्ठज॑तु ( सूक्म्मदशकांतून ) ।
चित्र २







































































































































































चट्टा व त्याशीं संबद्ध घट्ट मज्जातंतु ।
























































































































































चट्टा व त्याशीं संबद्ध घट्ट मजातंतु ।


कुछ-जन्तु हे

में या सिरे पर होता है। कालकुष्ठ के रुग्णकों में अनेक जंतु मिलते
हैं । सौम्यकुष्ठ (न्यूरल लेप्रसी) में बहुत ही कम और बड़ी खोज के
बाद मिलते हैं । कोढ़ के दोनों प्रकारों में भारी भिन्‍नता के कारण इस
जंतु के दो उपभेद होने के बारे में कुछ ने मत प्रकट किया है । पर वह
ठीक नहीं है । कारण फिर संसर्ग न होकर सौम्य कुष्ठ ही कालकुष्ठ
रूप धारण करता है । परिवतंन जो होता है वह जंतु में नहीं होता ।
जंतु और पेशीजाल (टिश्यू) की पारस्परिक प्रतिक्रिया की समतुलनता
में होता हैं । कालकुष्ठीय रुग्णक में कुष्ठजंतु काफी पाय जाते हें।
कुष्ठविक्ृत सूजी हुई पेशी में जमा होकर रहने की ओर उनका विशेष
झुकाव होता है । क्षयजंतु और कुष्ठजंतु को अलगाने में यह विशिष्ट लक्षण
उपयोगी होता है । ये दोनों जंतु दिखने में और रंग-धारण-गुण (स्टेनिग
रिएक्शन ) में समान होते हैं। सूक्ष्मदर्शक के एक क्षेत्र में (फील्ड) क्षय-
जंतुओं की अपेक्षा कुष्ठजंतुओं की संख्या अधिक होती है । वे पुंज-के-
पुंज एक जगह जमा रहते हें। क्षयजंतु के मुकाबले में कुष्ठजंतु कम
टेढ़े--अधिक सरल दिखाई देते हें। साधारणतः क्षयजंतु फुफ्फूस में
पाये जाते हैं। कुष्ठजंतु त्वचा, इलेष्मल त्वचा और मज्जातंतु ( नव )
में पाये जाते हैं ! इन भेदों के कारण इन दोनों जंतुओं को अलग-
अलग पहचाना जाता हें । असली निर्णायक कसौटी के लिए गिनीपिग
( सफेद चूहे जैसे जीव ) के शरीर में जंतु की प्रत्यक्ष इंजेक्ट करते--
घुसाते हें । क्षयजंतु उसके शरीर में बढ़ते हें और रोग पैदा करते हें ।
वैसे कुष्ठजंतु नहीं बढ़ते । झील नीलसन की रीति से रंगने पर कुष्ठजंतु
क्षयजंतु की अपेक्षा कुछ कम अम्लस्थिर (एसिड फास्ट) पाया जाता है।
कुष्ठजंतु-संवर्धन ( कल्चर ) का प्रयोग अभी संशोधन-अवस्था

में है। प्रयोग करनेयोग्य प्राणियों के शरीर में कुष्ठ संचार करके


दर)


पर कोढ़


रोग का विकास करने की कोशिश में भी कामयाबी नहीं हुई है ।

कुछ कार्यकर्त्ताओं ने यह मत प्रकट किया हैँ कि कुष्ठजंतु और मूषक-
कुष्ठजंतु (बसिलस लेप्रा म्यूरिस) एक ही हें। पर यह सही नहीं है। (कोढ़
सरीखा एक रोग चूहों को भी होता है। एक प्रकार की भेंस में भी ऐसा ही
रोग मिलता है। उन्हें मृषककुष्ठ और महिषकुष्ठ कहना चाहिए । परंतु
इन रोगों का मानव कुष्ठ से कोई ताललक नहीं है ।) चूहे के शरीर में
मानव कुष्ठ के जंतु प्रवेश कराने से रोग पंदा नहीं होता । पर मूषक-
कुष्ठ जंतु घुसाने से सौ में सौ चूहों को होता हैं । ये ये दोनों जंतु एक
नहीं हें, तथापि कुछ बातों में समता हैं। आकार और रंग-धारण-गुण
दोनों में एकसा ही हैँ। दोनों के ही बारे में व्यवस्थित जंतु-संवर्धन
अथवा बाअसर टीका (इनाक्यूलेशन) अभीतक तैयार नहीं होपाया हे ।

यह विचारने की बात है कि मनुष्य के क्षयरोग की जड़ निचली
श्रेणी के जीवों के उसी प्रकार के रोग से हें। पर मानव-कुष्ठ-जंतु की
जड़ कहांसे आई ? या किसी ऐसे प्राणी से उसकी जड़ निकली थी
जो आज खत्म होगया हैं ? यह खोज का विषय हैं ।


सातवां प्रकरण
कुष्टरोग को शुरुआत


कुष्ठ-जंतु का स्वरूप और शरीर में प्रवेश करने की उसकी रीति
समझ लेने के बाद वह वहां अप्रकट स्थिति में कितने समय तक रहता हैं,
रोग का प्रथम उद्भव कंसे होता है, जंतु शरीर में किस-किस अवयव में
रु ्णक पैदा करता है, इन बातों का विचार करना आवश्यक होजाता है।


कुछ रोग की शुरुआत २६


अप्रकट अवस्था का समय (ल्लेटंट पीरियड)

संसर्ग-प्रवेश होने के बाद से प्रत्यक्ष रोग-लक्षण प्रकट होनेतक में
बहुतसा समय चला जाता है । पर उसकी अवधि निश्चित नहीं होती ।
इस समय को रोग-बीज-पोषण-काल (इन्क्यूेवेशन पीरियड) कहने की
अपेक्षा अप्रकट अवस्था का काल कहना अधिक शास्त्रसम्मत होगा। छः
हफ्ते के बच्चे के सारे शरीर पर रुग्णक देखने में आये हें। चार और
सात महीने के बच्चे के शरीर पर भी चककत्ते पाये जाने के सबूत हें | दूसरी
ओर कुछ रोगियों में रोग-संसरग के बाद बीस साल तक कोई भी लक्षण
सामने नहीं आये । एक रोगी के शरीर पर सिर्फ एक छोटा-सा चकत्ता
बाईस साल तक उतठना-का-उतना बड़ा बना रहा । यह समय संसर्ग के
प्रमाण और संसर्ग लगे हुए की प्रतिकार-क्षमता पर निर्भर रहता है। वह
कभी तो कुछ महीनों का, तो कभी कुछ वर्षा का होता है । आम तौर
से तो तीन वर्षों के आसपास होता है ।

प्रथम उद्भव ( आनसेट )

साधारणत: देखा जाता है कि कोढ़ की पहली शुरुआत बिलकुल
धीर गति से क्रम-क्रम से होती है । बिलकुल पहले दिखाई देनेवाले लक्षण
दो तरह के होते हें। (१) त्वचा पर एक-दो छोटे-से चकत्ते दिखाई देते
हें । उनमें संवेदना (सेंसेशन) का परिवततेन कभी होता है, कभी नहीं ।
(२) पीठ के हिस्से के मज्जातंतुओं में खराबी पेदा होती है । हाथ-पाँव
में अथवा चकत्तों पर चुनचुनाहट होती है, झुनझुनी उठती है या जड़ता
अथवा शून्यता जान पड़ती हैँ । ये लक्षण बहुधा स्थानबद्ध स्थान विशेष
पर होते हें । ऐसे स्थानों पर पहले का कोई घाव या चोट होने की
बात भी साधारणत: पाई जाती है ।

तथापि कभी-कभी शीघ्र परिणामकारी आकस्मिक स्वरूप की शुरु-


३० कोढ़


आत होती है । तब सारे रुग्णक उमड़ आते हें । इस परिस्थिति में वे
सब थोड़े ही समय में फूट जाते हैं। उनमें उपर्युक्त दोनों प्रकार के लक्षण
अधिक मात्रा में पाये जाते हैं । कभी गांठें भी निकल आती हैं ।
रुग्णकों का शरीर में विभाग
कोढ़ सारे शरीर का रोग है । खासकर त्वचा, कुछ इलेष्मल त्वचा
और पृष्ठभाग के मज्जातंतु (पेरिफीरल नव) में इसकी वजह से
खराबी आती है । विकुपित अवस्था में करीब-करीब सभी अवयव
(आगंन) और पेशीजाल ( टिश्यू ) कुष्ठविकृत हुए रहते हें।
इसमें उल्लेखनीय अपवाद मध्यवर्ती मज्जासंस्था ( सेंट्रल नव
सिस्टम) होती है । वह शायद ही विकृृत हुई मिलती है । मज्जा-रज्जू
(स्पीनल काडं) की कड़ी में जो खराबी पंदा होती है वह सौम्यकुष्ठ
के कारण होनेवाले पृष्ठीय मज्जातंतु के दाह का ( न्यूराइटिस )
अप्रत्यक्ष परिणाम होता हैं ।
कुष्ट-संसर्ग के कारण स्नायुओं ( मसल ) में प्रत्यक्ष विकृति नहीं
होती है । संलग्न मज्जातंतु के कारण उसमें अप्रत्यक्ष पोषणविषयक
(ट्राफिक) खराबी होती हे ।
हृदय भी प्रत्यक्ष रूप से विकृत नहीं होता । कुष्ठ-ज्वर अथवा मिश्र
संसर्ग के कारण फैलनेवाले जहर से उसमें विकलता पैदा होती है ।
लघु रक्‍्तवाहिनी-रक्तधमनियां ( ब्लड वेसरू ) विशेषतः कुंष्ठ-
विकृृत भाग की सूक्ष्म शाखा बहुत विक्ृत हुई होती है ।
विकृपित द्षा में पहुंचे हुए रोगी में थोड़े प्रमाण में फुफ्फुस
(लंग्ज) में संसर्ग पहुंचता हे ।
अन्नमार्ग (गस्ट्रो इंटेस्टिनल ट्रैक्ट) और मूत्रमार्ग (यूरिनरी ट्रैक्ट)
जहांतक जाना गया है सुरक्षित दिखाई देते हें। विषजन्य रक्‍्तदोष


कुछ रोग की शुरुआत ३१


के कारण (टाग्जिमिया ) उत्पन्न होनेवाली अप्रत्यक्ष विकलताभर होती है।

शवच्छेदन ( पोस्टमार्टम ) में यकृत ( लीवर ), प्लीहा--तिल्ली
(स्प्लीन) हमेशा कुष्ठग्रस्त पाये जाते हैं । बढ़े हुए रोग में उसके प्रकट
चिन्हों में एक चिन्ह उसका आकार बढ़ा हुआ भी पाया जाता है।
विशेषत: कुष्ठ-प्रतिक्रिया ( लेप्रारिएक्शन ) में यह बखूबी देखने में आता
है। पर इस परिवर्तन का प्रकट रोग-लक्षण की दृष्टि से (क्लिनिकली)
बहुत उपयोग नहीं होता । मिश्र संसर्ग में पोषणविषयक खराबी भी
पैदा हुई पाई जाती हैं ।

कालकुष्ठ में वीयप्रिड या वृषण (टेस्टीज) थोड़े-बहुत प्रमाण
में विक्ृत होते हे । वह विकार दोनों गोलियों के मध्यभाग में और
साथ ही उनके अंदरूनी हिस्से में भी होता है। अखीर-अखीर में तो
यह अवयव श्वेततंतु (फायब्रस) का पेशीजाल ही बन जाता है।

कालकुष्ठ के सब रोगियों में और सौम्यकुष्ठ के कुछ रोगियों में
रसग्रंथि ( लिफ नोइ्स ) कुष्ठ-विक्ृत होती है। आकार में फर्क न
पड़कर भी ग्रंथि की मोटाई बढ़ जाती हँ। इस ग्रंथि की छीलन
(सेक्शन) लेने से भीतरी गाभा और अस्थिमज्जारज्जु ( मेड्युलरी
कार्ड ) पीली-सी दिखाई देती है। क्षय रोग में वह ऐसी नहीं पाई
जाती । इससे कुष्ठ रोग की आसानी से परख होजाती है । पर बहुत
बार दानों रोग एक ही साथ होने की संभावना होती है। कोढ़ की जांच
करने में इस फूली हुई रसग्रंथि के छीलन की या सूई घुसाकर खींचे हुए
द्रव्य की परीक्षा करना उपयोगी होता हे । कुष्ठ-संसर्ग त्वचा के रसस्थान
(लिफ स्पेसेस) से रसवाहिनियों द्वारा ग्रंथ तक ऊपर पसरता हैं ।
यह ग्रंथि छतने अथवा फिल्टर का काम करती हैं। उससे रोग फैलना
बंद होजाता है, अथवा रुकावट तो हो ही जाती है।


आठवां प्रकरण
लचा के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण


पहले कह चुके हें कि कोढ़ सारे शरीर में होनेवाला रोग हे ।
उससे प्रत्यक्ष--बाहरी--अथवा अप्रत्यक्ष--भीतरी- -सभी अवयवों और
पेशीजाल में खराबी आती ह। फिर भी उसके संसर्ग से प्रकट-लक्षण-दृष्टि
से (क्लिनिकली ) अथवा सूक्ष्म शरीरशास्त्र-दृष्टि से (हिस्टालाजिकली )
परीक्षा करने योग्य परिवर्तत खासकर त्वचा, इलेष्मल त्वचा और
पृष्ठीय मज्जातंतु में उत्पन्न होता है । कोढ़ की सोम्य अथवा मज्जा-
तंतु संबंधी कुष्ठ और कालकुष्ठ ये दो किसमें हें। इनमें खास तौर से
मज्जातंतु और त्वचा में क्रम से आगे-पीछे विकार पैदा होता है ।
तथापि बहुतेरे रुग्णकों में दोनों में ही संसगं पहुंचा हुआ होता है । कोढ़
के हमेशा . मिलनेवाले नमूनेदार ( टिपिकल ) उदाहरणों में त्वचा और
मज्जातंतु एकसाथ ही विकृत हुए पाये जाते हैं । अतः त्वचा और
मज्जातंतु एक गुट मानकर अभ्यास करने में आसानी रहेगी । पहले
त्वचा के रुग्णकों के स्वरूप-लक्षणों का विचार किया जाता हैं।

त्वचा को रचना

त्वचा में कोढ़ का संसर्ग फंलने की रीति को स्पष्ट बतलाने के लिए
त्वचा की रचना के कुछ अंगों का वर्णन पहले करना उपयोगी होगा ।

त्वचा शरीर पर का बाहरी आवरण--परदा हें । बाहरी त्वचा
(एपिडमिस ) और भीतरी त्वचा (डमिस ) उसके ये दो हिस्से हें । इनमें
बाह्य त्वचा बाहरी परदा होने से मोटी और कड़ी होती है, वह पेशी
की अनेक तहों से बनी हुई होती हे । उनमें से ऊपर की तह की पेशी
चपटे और सींग सरीखे कडे पदार्थ की बनी हई होती हैं । वह छीजकर


त्वचा के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण ३३


धीरे-धीरे गल जाती है। उसकी जगह नीचे की तह की नई पेशियों से
पूरी होती हं। ऊपर की तह रवेदार और अधिक साफ होती हूँ ।
नीचे की तह को मल्पीगियन * तह कहते हें । बाहर्र। त्वचा में मज्जातंतु
अथवा रक्‍तवाहिनियां (ब्लड वेसल्स) नहीं होतीं। उसकी पेशियों का
पोषण निचले हिस्से की रक्‍्तवाहिनियों से झरनेवाले रस ( लिफ ) से
होता है । इस त्वचा से भीतरी भाग की रक्षा होती हैं । इसका भीतरी
त्वचा की ओर का हिस्सा सर्प की आकति में मुड़ा होता है और उसके
बिलकुल नीचे की तह में एक तरह का काले-से रंग का द्रव्य होता हैं।
वह झरनेवाले रस के कारण वहाँसे बहा जाया जाता है । उसकी कमो-
बेशी पर आदमी का गोरा या कालापन निर्भर रहता है । बाह्य त्वचा
के पृष्ठभाग की चपटी पेशी पर नीचे की भीतरी त्वचा में की रोग-
विकृति का खासा परिणाम होसकता हैं

भीतरी त्वचा अथवा असली त्वचा बाहरी त्वचा की भीतरी ओर
होती हे । उसमें सफेद और लचीला पेशीजाल, केशवाहिनी (ब्लड
कपिलरीज ) , रसवाहिनी (लिफ्याटिक्स ) मज्जातंतु, घमपिंड, स्नेहपिड
(सेबशियस ग्लेंड), रोओं की जड़े और कुछ स्नायुतंतु इत्यादि होते हें ।
बाहरी त्वचा के नीचे के सर्पमोड़ के हिस्से की तरह ही भीतरी त्वचा
का भी ऊपरी भाग सर्पमोड़ आकार का ही होता हे । इसमें के उठे हुए
हिस्से में केशवाहिनियां और स्पर्शज्ञान करानेवाले मज्जातंतुओं के
सिरे होते हें । कुछ हिस्से में इस मज्जातंतु के सिरे पर फूलावट जान
पड़ती हैँ । उनके द्वारा स्पशज्ञान होता हे, इससे उसे स्पर्शगोलूक
(टच काप्यूंस्कल) कहते हें। त्वचा के निचले हिस्से में चरबी की तह

+ इटाली में मार्सेलो मल्पीगी नाम के शरीरशाखवेत्ता ने इसकी
खोज की थी, इसलिए उस तरह का यह नाम मिल गया हे।


३७ कोढ़


होती हैं । वह शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देती ।

घर्मपिड (स्वेट ग्लेड) त्वचा के निचले हिस्से में होते हें । प्रत्येक
पिंड सूक्ष्म रक्तवाहिनियों से घिरा हुआ एक प्रकार का शिराओं का मल
ही होता है । उससे निकलनेवाली घर्मनलिका (स्वेट डक्‍ट) ऊपर
जाकर त्वचा के पृष्ठभाग पर खुलती हूँ । चमड़ी के पृष्ठभाग पर
हमें जो अनेक छिद्र दिखलाई देते हें वे इस घर्मंनलिका के मुंह हैं ।
भंतरी त्वचा में ऊपर को जाते यह घरंनलिका सीधी होती हैँ। पर
बाहरी त्वचा में से ऊपर को जाते वह सर्पमोड़ जैसी होती हे ।

रोयें सींग सरीखे कड़े पदाथे से बने हुए हूँ | बाहरी त्वचा से
उनकी उत्पत्ति होती हैँ । बाहरी त्वचा की एक खांच ( फलिकल )
भीतरी त्वचा तक गई हुई है । उसके नीचे जो रोमों का बूंद सरीखा
मोटा हिस्सा होता है उसे रोममूल कहते हैं । उस रोममूल के नीचे के
हिस्से से सूक्ष्म रक्तवाहिनियां और मज्जातंतु जुड़े हुए होते हें । जड़ से
रोमों तक एक सूक्ष्म स्नायु का संयोग भी रहता है । ठंढक या भय की
वजह से उसके सिकुड़ने पर रोयें खड़े होजाते हैं । जड़ से निकलकर
रोओं का जो काला भाग चमड़ी के बाहर निकलता हे, उसे गोड़
कहते हें ।

सस्‍्नेहपिड ( सेबशियस ग्लेंड )--यह सूक्ष्म ग्रंथी रोओं के बगल में
होती हैँ । उसमें से तेल सरीखा सीबम नामक एक पदार्थ निकलकर त्वचा
पर फलता है । उससे रोएं और त्वचा चिकने और मुलायम रहते हैं।

भीतरी त्वचा में शुद्ध और अशुद्ध रक्‍्तवाहिनियों और मज्जातंतुओों
से बने हुए खास दो जाल ( प्लेक्सस्‌ ) फंले हुए होते हें । इसमें एक
भीतरी त्वचा और उसके नीचे के पेशीजाल में होता हँ। इसे त्वचा के
नीचे का जाल कहते हें । दूसरा आंतरिक त्वचा और बाह्य त्वचा








घट्ट मज्ञातंतु व अभुख-त्रण ।








४व्या व ७व्या शीर्षीय मज्ञातंतूचा लकवा,
चलनवलन क्रियेत बिघाड़


त्वचा के रुग्णकों का स्बरूप-लक्षण ३४५


के बीच के सपक्किति भाग के नीचे होता है। इसे त्वचा के बीच का
या ऊध्वे ( उपरला ) जाल कहते हैँ । भीतरी त्वचा के नीचे की
शिराओं और मज्जातंतु में से निकली हुई शाखा से नीचे का जाल बना
हुआ होता हैं । इससे सूक्ष्म उपशाखा निकलकर रोममूल घर्मपिड और
सस्‍्नेहूपिड को घेरकर त्वचा में के ऊपर के जाल तक पहुंची हुई है ।
इस ऊध्वंजाल से फिर अधिक सूक्ष्म उपशाखा निकलकर सर्पाकेति भाग
तक गई हुई हूं ।
त्वचा और मज्जातंतु में के संसगे का प्रसार

जब कुष्ठसंसर्ग त्वचा में पहुंचता-.हे तब या तो रक्त में के रोग-
जंतुओं को खा डालनेवाले इ्वेतभक्षक गोलकों ( फ्यागोसिट ) द्वारा
नष्ट होजाता है अथवा फिर वह शिराओं और मज्जातंतु के जाल के
मार्ग से पसरने लगता हे । कुष्ठज्वर अथवा तात्कालिक जोरदार
पेशी की प्रतिक्रिया शुरू होने की वजह से रक्‍तपेशी रुग्णकों पर हमला
करके भक्षक गोलकों के द्वारा कुष्ठजंतुओं का नाश करती है । हमेशा
की साधारण परिस्थिति में त्वचा और मज्जातंतु में की कुछ पेशियां कुष्ठ-
जंतुओं का प्रतिकार करती हैं । कुष्ठजंतुओं का नाश करने में भाग
बंटानेवाली इस पेशी का 'माइक्रोफेज' नाम रक्‍्खा गया हैं। वह वाहिनियों
से सटे हुए सामने के पेशीजाल में होती है इसलिए उसे परिवाहिनी
पेशी कहते हें।

त्वचा में प्रवेश किये हुए कुष्ठजंतुओं की वृद्धि पेशी के अंदर और
एक पेशी से दूसरी के बीच के रससंस्थान ( लिफ स्पेसेस ) में होती
है । संसर्ग की वृद्धि का परिमाण और उसका शरीर में प्रसार
पेशी की प्रतिक्रिया के परिमाण पर निर्भर रहता है । और यह पेशी की
प्रतिक्रिया रोगी की प्रतिकारक्षमता पर अवलंबित रहती है । प्रतिकार-


३६ कोढ़


शक्ति के अत्यंत क्षीण रहने पर जाल के मार्ग से संसर्ग तीत्रता से फँलता
रहता हैं । बहुत बार ऊपर के बिलकुल पृष्ठभाग की परत में संसर्गे
मर्यादित रहता है । तथापि साधारणतः कम-ज्यादों मीयाद के बाद
संसर्ग रोममूल और धर्मपिड के सामने की वाहिनियों और मज्जा-
तंतुओं के द्वारा फैलकर नीचे के जाल में प्रवेश करता हूँ । वहां उसके
खूब बढ़ने की संभावना रहती है । वहांसे फिर उसका संसर्ग दूसरी
दाखाओं के द्वारा ऊपर के जाल में फिर घुस सकता हैं अथवा उसी
अवधि में नीचे के जाल के संवेदनावाहक मज्जातंतु के द्वारा अंदर
फैल सकता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष त्वचा से पृष्ठीय मज्जातंतु के विक्रत
होने की संभावना रहती है ।
कुष्ठजंतुओं पर त्वचा की पेशी की प्रतिक्रिया

भिन्न-भिन्न जालों और उनकी शाखा-उपशाखाओं में से संसर्ग
बढ़ते-बढ़ते वाहिनियों के सामने की पेशी कुष्ठजंतुओं के साथ भिड़ने
लगती है--प्रतिक्रिया करने लगती है । यह प्रतिक्रिया तीन तरह की
होती है। (१) स्वतः विभकत होकर पेशी की संख्या बढ़ाना, (२)
माइक्रोफेज पेशी का जंतु को निगल लेना, वा (३) अनुकूल परिस्थिति
में जंतुओं का नष्ट होना | प्रतिक्रिया का तीव्र या मन्द होना विशिष्ट
स्थान में प्रत्यक्ष मौजूद कुष्ठजंतुओं की संख्या और पेशी की प्रतिकार-
क्षमता या इन दोनों के परिमाण पर निर्भर हैं। इसके कारण जंतु-
प्रविष्ट जाल और वाहिनियों के चारों ओर माइक्रोफेज पेशी के कारण
उत्पन्न होनेवाला अन्त:सेक ( इंफिल्ट्रेशन ) इकट्ठा होता हैँ। यह
अन्त:सेक कमोबेश ढीला या गाढ़ा होता है । यह वहांके जंतुओं की
संख्या और पेशी की प्रतिक्रिया-शक्ति पर अवलंबित होता हैं । इस पेशी
की बाढ़ और उत्पन्न होनेवाले अंतःसेक के कारण रुग्णक पैदा होते हें ।


त्वचा के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण ३७


प्रतिकारक्षम नये रुग्णकों के जंतु माइत्रीफंज के द्वारा निगले
जाते हें और उनके नष्ट होने की क्रिया जोरों से चलती हैं । उसकी
वजह से पेशी के द्वारा बना हुआ गाढ़ा सूक्ष्म कणसंघ ( ग्रन्यूलोमा )
बन जाता है। उसमें सारे जंतु नष्ट हुए रहते हे अथवा दो-चार
नष्ट होने को बाकी रहते हैं । यदि पेशी की प्रतिकार-शक्ति
बिलकुल क्षीण हुई तो एक पेशी से दूसरी पेशी के बीच के रस-
संस्थान में पेशी के भीतरी द्रव ( प्रोटोप्लाज्म ) में जंतु बढ़ते रहते
हैं। ऐसे रुग्णफों की जांच की जाय तो उसमें अनेक कृष्ठजंतु
पाये जाते हैं । पर जंतुओं की संख्या के मुकाबले में पेशी के विभकत हो-
कर बढ़ने की क्रिया हलकी होती है । वाहिनी के चारों ओर शिथिल
कणसंघ होता है, इसीलिए दिखाई देनेयोग्य या छुकर समझनेयोग्य
लक्षण बहुत कम होते हैं या बिलकुल ही नहीं होते । इस प्रकार एक
ओर प्रतिकारक्षम उदाहरण में चिन्हित सख्ती लिये हुए छोटा-सा
चकत्ता होता है, तो दूसरी ओर क्षीणप्रतिकार में अंतःसेक सारी
त्वचा में व्याप जाता है । सिर्फ बाहरी लक्षण नहीं-से होते हें ।

त्वचा से मज्जातंतु में पसरनेवाला संसगे

नीचे के जाल में संसर्ग बढ़ते समय उस हिस्से से जुड़े हुए
संवेदनावाहक (सेंसरी) मज्जातंतुओं में भी उसका प्रसार होता हैं ।
ऐसे मज्जातंतुओं की सूक्ष्म शाखा की जांच करने से मज्जातंतु की
संधि की भीतरी रेखा में जंतु मिलते हैँ। त्वचा में वे केशवाहिनियों और
रक्‍्तवाहिनियों के चारों ओर माइक्रोफेज पेशी के पास-पड़ोस में पाये जाते
हैं । इस वजह से उनका नष्ट करना आसान रहता है । मज्जातंतुओं की
संधियों में वे केशवाहिनी से मज्जारेखा के कारण अलगाये जाते हैं । इस


फर्क के कारण मज्जातंतुओं में के जंतुओं का नष्ट होना कठिन होता है ।
डं


इ्८ कोढ़


जान पड़ता हैँ माइक्रोफेज की कुष्ठजंतुओं के साथ होनेवाली
प्रतिक्रिया कुछ अंशों में सान्निध्य पर अवलरूम्बित है । इससे मध्यम
प्रतिकार के उदाहरणों में मज्जातंतुओं में के जंतुओं के बजाय त्वचा के
जंतुओं का नाश होता है । मज्जातंतुओं में जब जंतु रहते हैं तब पेशी-
की भक्षण-मा रण क्रिया से मानों मज्जा-रेखा के कारण उनका संरक्षण हो-
जाता हैं। क्षीण प्रतिकार के उदाहरण में--कालकुष्ठ प्रकार में--त्वचा
और मज्जातंतु इन दोनों में भरपूर संसर्ग पसरा रहता है । त्वचा में पेशी
का अत:सेक भरपूर रहता हैँ । सिर्फ मज्जातंतु में बिलकुल कम रहता है ।

सौम्य कुष्ठ के चकत्तों में त्वचा में कणसंघ गाढ़ा बना हुआ
रहता है । उस दशा में एकाध जंतु मिले तो मिले, नहीं बिलकुल नही
मिलते । पर उससे जुड़े हुए मज्जातंतुओं में कणसंघमय अंतःसेक तो
होता है, पर तुलनात्मक दृष्टि से कुष्ठजंतु बड़ी तादाद में पाये जा-
सकते हैं ओर वे भी वाहिनी से दूर संधि-भाग में होते हें। इसलिए
त्वचा की अपेक्षा मज्जातंतुओं में के कुष्ठजंतुओं को नष्ट करने में अधिक
जोरदार प्रतिक्रिया-शक्ति की जरूरत होती है। मध्यम प्रतिकार के
उदाहरण में त्वचा के जंतुओं का नाश हुआ रहता है । परंतु पृष्ठीय
में मज्जातंतुओं में वे सिर्फ दबे-से रहते हें । यदि किन्‍्हीं कारणों से
प्रतिकार-शक्ति किसी समय कम होगई तो वे मज्जातंतुओं में से त्वचा में
फिर प्रवेश करने लगते हैं, यह संभव है । प्रायः यह देखा गया हैँ कि उस
समय जो चकत्ते अच्छे-से होगये थे उनमें फिर रोग-बद्धि के लक्षण
दिखाई देने लगे ।

प्रतिकार-शक्ति में चढ़ाव-उतार

प्रतिकार-शक्ति की कमी-बेशी के अनुसार रुग्णकों के प्रकट और

सूक्ष्म शरीर-स्वरूप में अंतर होता है, यह ऊपर कह आये हैं। प्रतिकार-


त्वचा के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण ३६


शक्ति में का चढ़ाव-उतार भी रुग्णकों के स्वरूप निश्चित करने का
एक महत्त्व का साधन हे। प्रतिकारशक्ति के इस चढ़ाव-उतार के
कारणों का आगे सत्रहवें प्रकरण में विचार किया जायगा ।

यदि प्रतिकारशक्ति किसी वक्‍त कम हुई तो जंतु बढ़ने लगते हैं;
त्वचा और मज्जातंतु दोनों में पसरते हें । वक्‍त से अगर प्रतिकार-शक्ति
फिर पहले की भांति होगई तो एकत्र कुष्ठजंतुओं से पेशी का तीक्र
प्रतिकार शुरू होजाता हैं। इसे “आरोग्य-स्थापन' ( रिकवरी ) की
प्रतिक्रिया कहा जासकता है । सौम्य कुष्ठ के रोगी जब सहचारी रोग
में से सुधार की ओर अग्रसर होने लगते हैं अथवा क्षीणता छानेवाले
कारण खत्म होजाते हैं तो ऐसा अक्सर होता हैं। उस समय त्वचा के
और मज्जातंतुओं के बाहरी लक्षण बिलकुल साफ दिखाई देते हें ।

यदि क्षीणता के कारण बहुत तीत्र या देर तक टिकाऊ हुए, तो
प्रतिकारशक्ति हमेशा के लिए क्षीण होने का भय रहता हैं । फिर
आरोग्य सुधरने पर रोग को रोकनेवाली पेशी की प्रतिक्रिया पूरी
जोरदार न होने की सम्भावना रहती हैँ । अथवा प्रतिक्रिया के कारण
रोग की संकरता अथवा घालमेल होजाती है और फिर प्रतिकार-शक्ति
गिर जाती है ।

कभी-कभी त्वचा की प्रतिकार-शक्ति इस दर्जे की होती है कि
बाहरी लक्षणों से समझ में आनेयोग्य त्वचा के रु्णकों का होना टल
जाता हैँ । परंतु संवेदनावाहक मज्जातंतुओं में से जंतुओं का ऊपर
फंलकर आरत्निक (अल्नर) सरीखे मिश्र मज्जातंतुओं में जाना नहीं
रुकता । इस प्रकार मुख्य मज्जातंतु कुष्ठविकृत होजाने से गाढ़ापन
या कोमलता अर्थात्‌ स्पर्शतासहत्व (टेंडरनेस) आता है । उसकी वजह
से पैदा होनेवाला पोषण, हलचल और संवेदना संबंधी (टद्राफिक,


४० कोढ़


मोटर, सेंसरी) लक्षण दिखाई देने लगते हें। ऐसे शुद्ध अथवा केवल
मज्जातंतु-कुष्ठ के उदाहरण कम ही होते हें । जब मज्जातंतु विक्ृत
होते हें, तब साधारणतः: उनसे व्याप्त भाग में त्वचा के रुग्णक होते हें ।
अथवा पहले रुग्णक होकर बदली हुई शक्ल में चकत्ते वगेरा आखिरी
लक्षण रहते हें ।
स्वयंमुक्तता

यह बात खूब ध्यान में रखनी चाहिए कि क्षय की भांति कोढ़ भी
अत्यल्प (स्लाइट) रोग होसकता हैं । संसगं पहुंच जाने पर भी वह
निष्फल अथवा अनुत्पादक भी रह सकता है। यत्किंचित रुग्णक हुए भी
तो बिना इलाज के अपनेआप ही अच्छे होसकते हें । इसके दुढ़ प्रमाण
हैं कि रोगग्रस्त प्रदेशों में बहुतेरे उदाहरणों में स्वयंमुक्ता होती है ।
इस प्रकार अपनेआप दुरुस्ती होना यह रोगी के सर्वेसामान्य आरोग्य
में वक्‍त से अच्छा सुधार होने पर निर्भर रहता हैं ।

कोढ़ की अतिप्रगत अवस्था में भी स्वयंमुक्तता बहुत बार आ
जाती है । कुपित अवस्था में पहुंचे हुए रोगियों में फिर संसर्ग क्रमशः
कम होता जाता है । रोगी फिर लछौटकर सौम्य कुष्ठ में पहुंचता है।
पूवेरोग के शेष चिन्हों के रूप में चेहरे और हाथ-पैरों पर कुरूपता
और व्यंगता बाकी रहती हैँ । ऐसों को रोग जलकर मुक्त हुए ( बन्‍टे
आउट ) रोगी कहते हें। ऐसे उदाहरणों में जंतु क्यों और कंसे नष्ट होते
हैं, इसका अभीतक ठीक फंसला नहीं होपाया हैं।


नवां प्रकरण
मजातंतु के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण


मज्जातंतु में संसर्ग कैसे फछता हैं, इसकी स्पष्ट कल्पना के लिए
पहले मज्जातंतु की रचना और उसके कार्य की कुछ जानकारी होने
की जरूरत हैं ।

मज्ञातंतु की रचना ओर काय

शरीर में अनेक इंद्रिय-संस्थाएं हें । वे अपना-अपना काम करती
रहती हैं । परंतु उन सबके कामों को संकलित और व्यवस्थित रूप
से चलाने के लिए उनपर अधिकार रखनेवाली एक इंद्विय-संस्था
है, जिसे मज्जा-संस्था (नर्वंस सिस्टम) कहते हैं ।

जिस प्रकार हरेक इंद्रियां असंख्य पेशियों से बनी हुई हें वैसे ही
सारी मज्जा-संस्था मज्जाकणों (न्यूरान) से बनी हुई है। प्रत्येक
मज्जाकण के मज्जापेशी और मज्जारेखा ( फायबर ) नाम के दो
हिस्से होते हं। मज्जापेशी पेशीद्रव की अनियमित आकार की एक
सूक्ष्म गोली ही होती हैँ । उसके मध्य में केंद्र-भाग होता है और बगल
में अनेक सूक्ष्मकण होते हैं। मज्जापेशी से अनेक शिखातंतु (डेंडस)
निकलते हें। इसके कारण पास-पास के मज्जाकण एक-दूसरे से जोड़े
जाते हें और एक की बात या संदेश दूसरे को सहज में समझ में
आता हूँ। इसमें एक ही शाखा हरूम्बी होती है। उसे मुख्यतंतु
(अक्ज़न) कहते हैं। मज्जापेशी से बाहर निकलने पर इसपर एक
तरह का परदा पड़ जाता हैं। इस आवरण-सहित को मुख्य तंतु
की मज्जा-रेखा कहते हें । शरीर में जो अनेक मज्जातंतु हमें दिखाई देते
हैं उनमें से प्रत्येक मज्जातंतु उपर्युक्त वर्णन के अनुसार सूक्ष्म


४२ कोढ़


मज्जा-रेखा का एक संयुक्त पदार्थ ही हे । ये सब तंतु मज्जा-पेशी से ही
निकले हुए होते हें । संयोगी पेशी-जाल से वे एक-दूसरे से गुंथे हुए होते हें ।

बिजली डाइनमो में तेयार होती है । तार सिर्फ उसके वाहक
हें। वेसे ही मज्जापेशी में प्रेरणा पैदा होती है और मज्जातंतु उसके
वाहकमात्र हैं । प्रेरणा उत्पन्न करना, दूसरी ओर से आई हुई प्रेरणा
को स्वीकारना और स्वीकार की हुई प्रेरणा को दूसरी ओर भेजना ये
तीन काम मज्जापेशी करती हे। प्रेरणा मज्जातंतु में अपनेआप
पंदा नहीं होसकती । जो मज्जातंतु शरीर के भिन्न-भिन्न भाग की
प्रेरणा को मस्तिष्क की ओर अथवा मज्जारज्ज्‌ (स्पायनल काडं)
के पास पहुंचाकर वहां संवेदना उत्पन्न करते हैं, उन्हें संवेदनावाहक
(अफरंट सेंसरी) मज्जातंतु कहते हें । मस्तिष्क या मज्जारज्जू की
ओर से आतनेवाला संदेश या आज्ञा शरीर के भिन्न-भिन्न भागों के पास
जिन मज्जातंतुओं के द्वारा पहुंचाई जाती है उन्हें आज्ञावाहक'
(इफरंट ) मज्जातंतु कहते हें । इन दूसरे मज्जातंतुओं के तीन प्रकार
हैं । (१) सस्‍्नायू की ओर जानेवाले मज्जातंतु । इनकी सहायता से
स्‍्नायू का आकुंचन होता है। इन्हें 'गतिवाहक' ( मोटर ) मज्जातंतु
कहते हैं। (२) भिन्न-भिन्न ग्रंथियों की ओर जानेवाले मज्जातंतु । इनकी
सहायता से ग्रंथियों में स्राव उत्पन्न होता हैं । इसे “रसविमोचक'
(सिक्नेटरी ) मज्जातंतु कहते हें । (३) रक्त के बहाव का नियंत्रण
करनेवाले मज्जातंतु । इनके संयोग से रक्‍्तवाहिनी की दीवारों के
स्‍्नायूओं का संकोचन और प्रसारण होता है । किसी हिस्से को रक्त
कम या ज्यादा पहुंचाने की जरूरत हुई तो वह काम इनके द्वारा होता
है । इन्हें 'धमनीचालक' (वाइसो मोटर) मज्जातंतु कहते हें । बहुत
जगह संवेदनावाहक और आज्ञावाहक दोनों प्रकार के तंतु एक ही


मज्जातंतु के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण ७३


मज्जातंतु में होते हेँं। इन्हें 'मिश्र' मज्जातंतु कहते हें । त्वचा के
बिलकुल पृष्ठभाग के पास जो सूक्ष्म मज्जातंतु हे उन्हें पृष्ठीय. अथवा
बहिमृंख' (पेरीफीरल) कहते हें।
मज्जातंतु में संसगे के प्रवेश की रीति

पृष्ठभाग के मज्जातंतुओं का रक्‍त-प्रवाह के जरिये कुष्ठजंतुओं
द्वारा विक्ृृत होना संभव हें। तथापि यह बात साधार हे कि जंतु
खासकर त्वचा से ऊपर चढ़नेवाले संसर्ग के कारण नीचे के जाल में
के संवेदनावाहक मज्जातंतुओं में प्रवेश करते हें। जहां आरंभिक सौम्य
कुष्ठ का एक ही चकत्ता है और उससे संलग्न भिन्‍नमूल की ओर
जानेवाले दो मज्जातंतु हैं ऐसे एक रुग्णक को जांच के लिए लीजिए,
उसकी जांच से जंतु-प्रवेश के उपयुक्त कायदे की पुष्टि हो जायगी । एक
उदाहरण में कान के ढकने पर एक चकत्ते जितना ही त्वचा का रुग्णक
था और सख्त हुए मज्जातंतु ठीक बाह्यकर्णीय ( आरिक्यूलर ) और
कर्णशंखीय ( आरिक्यूलो-टेपोरल ) ही पाये गये। दूसरे उदाहरण में
हाथ के पिछले हिस्से में चकत्ते जितना ही त्वचा का रुग्णक था।
उस हिस्से से सम्बद्ध आरत्निक (अल्नर) और प्रकोष्ठीय ( रेडियल )
मज्जातंतुओं की शाखाएं खूब सख्त हुई पाई गईं | ऐसे बहुत उदाहरण
मिले हैं। इससे अपने आप ही यह अनुमान निकलता हूँ कि पहले त्वचा
विकृत होती है और बाद को उसके द्वारा पूरक मज्जातंतुओं में संसर्ग
फेलता है । बहुत बार त्वचा में आदिवाला संसर्ग नष्ट हो जाता है और
वह सिर्फ मज्जातंतुओं में ही रहता हे। इसका कारण यह हैं कि
कुष्ठजंतु त्वचा की अपेक्षा मज्जातंतुओं के समूह में सुलभता से डेरा
जमाकर रहते और बढ़ते हें। इसी वजह से मज्जातंतु कुष्ठजंतुओं के
एकत्रित होने का स्थान बनता होगा ।


9४ कोढ़


संसगं के त्वचा के नीचे के जाल में रोओं की जड़ के चारों ओर
त्वचा के सपक्केति भाग में और उसकी नीचे की तह में प्रवेश करन
पर नया सूक्ष्म कणसंघ ( ग्रन्यूलोमा ) तैयार होता है; और बाहर
से दिखाई देने लायक फुंसियों का समृह का समूह, पहले के चककत्ते
की सीमा के बाहर को उभरा हुआ दिखाई देता है : मानों यह रोग के लिए
नया प्रदेश तलाशनेवाले चर हों । इस कारण उनका (पुरोगामीपीठिका'
(पायनीयर पप्युल्स) नाम पड़ गया है । त्वचा के नीचे के मज्जातंतुओं
में कुष्ठजंतुओं का जो एक प्रकार का जमाब रहता है, उसमें से फिर
त्वचा में संसगं जा सकता हे । उसकी वजह से शुरू के चकत्ते में दोबारा
संसर्ग पहुंचता है; अथवा पड़ोस की नई त्वचा कुष्ठ-विकृत होती हैं ।
रोगी की प्रतिकार-शक्ति के बीच की बीमारी के कारण अथवा तात्का-
लिक अशक्ति के कारण क्षीण होने पर अक्सर ऐसा होता है ।

सुक्ष्ममग्रंथिल (ट्यूबरक्यूलाइड ) प्रकार के चकत्तों का छीलन (सेक्शन )
अथवा विलेप (स्मीअर) लेकर जांचने पर जंतु नहीं मिलेंगे । मिले भी तो
कभी एकाध मिल जा सकते हें। तथापि उस चककत्ते में कितने ही महीने
अथवा साल तक जागृति अथवा क्रियाशीलता (ऐक्टिविटी) के लक्षण
मिलते है । उसका प्रकार या आकार करीब-करीब उतना ही रहता हैं ।
ऐसे चकत्तों के हठीलेपने की ठीक उपपत्ति उपर्युक्त स्पष्टीकरण से होती
हैं। जलती बत्ती जैसे धीरे-धीरे आगे सरकाते जाने से एकसां जलती
रहती है, वैसे ही पूरक मज्जातंतुओं के संग्रह में से निरंतर अथवा बीच-
बीच में दुबारा संसग होते रहने से ये चकत्ते निरंतर क्रियाशील रहते हें ।
ऐसे उदाहरण में कुष्ठजंतु मज्जातंतुओं में.से ज्यों-ज्यों त्वचा में पहुंचते
जाते हूं त्यों-त्यों नष्ठ होते जाते हें। इस वजह से वहां मंद क्षोभयुक्त
प्रतिक्रिया जारी रहती हैं ।


मज्जातंतु के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण ५५


क्षीण प्रतिकार के उदाहरण में संसग मज्जातंतुओं में से बिना रोक-
टोक के फल सकता हैं । पेशी की प्रतिक्रिया नहीं-सरीखी रहती है। इसकी
वजह से मज्जातंतुओं के लक्षण नहीं मिलते । कालकुष्ठ के स्पष्ट
उदाहरण में प्रतिकार-दशक्ति क्षीण होती है और ये मज्जातांत्वीय लक्षण
भी नहीं होते । परंतु ऐसे उदाहरणों में यह नहीं समझना चाहिए कि
मज्जातंतु कुष्ठविकृत नहीं हे । इसके विपरीत सौम्यकुष्ठ की अपेक्षा काल-
कुष्ठ में मज्जातंतुओं में अधिक जंतु पाये जाते हैं ।

स्पर्शंश्न्यता अथवा दूसरे मज्जातांत्वीय लक्षण जंतुओं से निकलने-
वाले विष के कारण पंदा नहीं होते । वंसे ही, मज्जारेखा पर जंतुओं का
दबाव पड़ने से भी उनकी उत्पत्ति नहीं होती । इन लक्षणों की उत्पत्ति
का कारण है जोर से प्रतिक्रिया करनेवाली और विभकत होकर बढ़ने-
वाली पेशियों के कारण कणसंघ का बनना और उसका आक्रमण करना ।
मज्जातंतुओं के समूह में अथवा समूह-समू्‌ह के बीच की केशवाहिनियों
से यह पेशी गुंंथी रहती हैँ । इस पेशी की प्रतिक्रिया पहले केशवाहिनियों
के निकट के जंतुओं के कारण होती हे; आगे चलकर पेशी विभक्‍त
होकर बढ़ती हँ और जंतुओं को निगलने लगती है और जब यह क्रिया
जोर पकड़ने लगती है _ तब वाहिनियों से दूर के हिस्से के मज्जारेखा में
के जंतुओं के कारण भी ऐसा होने लगता है ।

ऐसी दशा में मज्जातंतु की सूक्ष्म शाखा की तिरछी छीलन जांच
के लिए ली जाय तो उसके मध्य भाग में घट्टकुष्ठिका (लेप्रोमा) पाई
जाती है, जंतु नहीं मिलते। मज्जारेखा नष्ट हुई मिलती है । सिर्फ सीमा
के पास जंतु मिलते हैं, कुष्ठिका नहीं होती और मज्जारेखा साबित
रहती हूँ । जंतु कम होकर भी मज्जाजंतुओं के बाहरी और स्वसंवेद्य
लक्षणों का अधिक स्पष्ट होना यह प्रतिकारक्षम उदाहरण में


७६ कोढ़


बिल]


ही होता है। क्षीण प्रतिकार के उदाहरण में उस हिसाब से नहीं
होता ।

यहां एक प्रश्न यह पूछा जायगा कि ऐसे प्रतिकारक्षम उदाहरण
में जंतु मुख्य स्तंभ तक मज्जातंतुओं में से ऊपर जाते ही कंसे हें ?
पृष्ठभाग के पास के मज्जातंतुओं में रहते हुए पेशी की निगलने और मारने
की क्रिया से उनकी रक्षा क॑ंसे हो जाती है ? यह नहीं है कि प्रतिकार-
शक्ति हमेशा एक-सी ही रहती हो । अलग-अलग व्यक्तियों में वह भिन्न-
भिन्न होती है; उसी प्रकार एक ही व्यक्ति में भी परिस्थिति-भेद से कम-
ज्यादा होती रहती हे। प्रतिकारशक्ति जहां क्षीण हुई कि जंतु फंलने लगते
हैं; और जोरदार हुई कि पेशी की प्रतिक्रिया शुरू हो जाती हैँ । प्रतिकार-
शक्ति के गिरने पर जंतुओं को दूर तक फेलने का मौका मिलता हे ।

मज्जातंतुओं में से ऊपर जाते हुए घाव या रुकावट की जगह पर
जमा होने की जंतुओं की प्रवृत्ति रहती है । जहां शाखाएं मिलती हैं
अथवा मज्जातंतु स्नायु के, ववेततंतु पेशीजाल के, अथवा हड्डी के बत्र
भाग की ओर झुकते हें, अथवा संकड़े छिद्रों में से जाते हें वहां
रुकावट की अधिक संभावना रहती हूँ । पृष्ठीय मज्जातंतु जब हड्डी
से सटे रहते हें तब उनके रुग्ण होने का ज्यादा खटका रहता हे । जब क्षीण
प्रतिकार-शक्ति अच्छी तरह सुधर जाती हैँ तब ऐसे जंतु जहां
एकत्रित रहते हें वहीं मज्जातंतु विशेष सख्त हो जाते हैं । कारण
फूटकर एकाध जंतुओं, की अपेक्षा जंतुओं के समूह के कारण पेशी की
प्रतिक्रिया ज्यादा जोर से शुरू होती हैं। इसी वजह से केहुनी के पास
मुड़ते हुए आरत्निक ( अल्नर ), घुटने की गुल्फास्थि ( फिब्यूला) के
पास से मुड़ते हुए पेरोनियल और कान के पास के स्नायु की तरफ से
मुड़ते हुए बड़ा बाह्यकर्णीय ( ग्रेट आरिक्यूछर ) मज्जातंतु यह बहुत


मज्जातंतु के रुग्णकों का स्वरूप लक्षण ५9७


सख्त हो जाता हें । मज्जातंतुओं के रुग्णकों में यही तीन बिलकुल हमेशा
होते हैं ।
मज्जातंतुओं के रुग्णकों का स्वरूप

त्वचा में और मज्जातंतुओं में कुष्ठिका ( लेप्रोमा ) की शक्ल
बिलकुल एक-सां होती हें ॥ क्षीण प्रतिकार के उदाहरण में विशेषता यह
होती है कि कुष्ठ-पेशी (लेप्रा सेल) पाई जाती है । यह बीच में फूली हुई
तथा पोली होती है और फेन सरीखी दिखाई देती है । इसलिए कुछ लोग
उसे फ़ेन-पेशी (फोमी सेल) भी कहते हें । उसके भीतर निगले हुए कुष्ठ-
जंतू होते हें । बिलकुल किनारे की ओर सूक्ष्म गोल पेशी ( राउंड सेल
होती है । अच्छे प्रतिकारक्षम उदाहरण में कुष्ठ पेशी के बजाय 'उपलेपक
पेशी' ( एपिथेलाइड सेल ) पाई जाती है | जंतु बिलकुल कम होते हैं ।
त्वचा के रुग्णकों में 'दीघंकाय' ( ज्यांट्‌ ) पेशियां प्राय: भरपूर होती हे ।

त्वचा की अपेक्षा मज्जातंतुओं में पनीर सरीखा चिकटा पदार्थ बनाने
की क्रिया अर्थात्‌ पनीरीभवन (केसीएशन ) ज्यादा होता हैँ | बहुत बार
इस क्रिया के बढ़ जाने पर अमुखब्रण ( अबसेस ) भी उत्पन्न होजाते
हैं । मज्जातंतुओं के बेठन अथवा खोल (एपिन्यूरियम ) प्रायः सख्त
होगई होती हे । कई बार तो वह बहुत ही सख्त होती है। जंतुओं
पर जो पेशीय प्रतिक्रिया होती है उसकी वजह से ऐसा होता हैं । उसके
कारण चारों ओर के पेशीजालों में संसगगं के फैलने में रुकावट पड़ती
है । प्रतिकारक्षम उदाहरणों में कुष्ठजंतु मज्जातंतुओं में बंद हुए से रहते
हैं । उनके बाहर आने की शक्यता मज्जातंतु के आवरण अथवा त्वचा में
होती हैँ। पर वह बंद-सी रहती है । मज्जातंतुओं में जंतु टिके रह सकते
हैं और बढ़ भी सकते हूँ। इतना ही नहीं, पूर्व कथनानुसार उनके जीने
और बढ़ने के लिए मज्जातंतु ही अधिक अनुकूल स्थान है ।


मज्जातंतु के रुग्णकों का स्वरूप-लक्षण ४६


वाले हिस्से में एकाध या गुच्छा-का-गुच्छा मिलने की संभावना अधिक
रहती है । बेठन में अथवा पास की मज्जारेखा में उस हिसाब से कम
मिलने की बात रहती है । ऐसे मौकों पर मवादवाले हिस्से में बंद हो-
जाने के कारण निगलने और मारने की क्षमतावाली पेशी (माइक्रोफेज)
से उनकी रक्षा होती होगी ।
मज्जातंतु का आकुंचन

कुष्ठजंतुओं पर पेशी की प्रतिक्रिया होते हुए मज्जातंतुओं के बेठन
का खूब सख्त होना संभव है । इसकी वजह से वह मजबूत और न झुकने
वाला बन जाता है । ऐसे बेठन में जब तीत्र दाहजन्य क्रिया शुरू होती
है और उसके कारण रक्त जमकर (कंजेश्शन) सूजन आती है तब
मज्जारेखा पर खूब भार पड़ता हँ। उसकी चाल क्रिया में रुकावट
पड़ती हैं । भार दीघंकालीन और बहुत अधिक हुआ तो वह नष्ट भी
होजाता हैँ । कठिन रंघ्र में जाने के स्थान पर मज्जातंतुओं का आकुंचन
तो अधिक दु:सह होने की संभावना रहती है । कोने के हिस्से की ओर
झुकते हुए ब्वेततंतु (फायब्रस) पेशीजाल से आरत्निक (अल्नर) हड्डी
से ढका जाता हे। पेरोनियल का भी गुल्फास्थि के पास से जाते हुए
यही हाल होता है । मज्जातंतुओं के एक दम सूज जाने पर श्वेततंतुओं के
आकुंचित हुए बंधन अगर वक्‍त से काट न दिये गये तो हिलना, डुलना,
पोषण और संवेदना में हमेशा के लिए विक्ृति पेदा हो जाती है या
व्यंग्गता आजाती है ।

उसी प्रकार चेहरे के मज्जातंतुओं के सूजने पर छिद्र में से जाते
हुए ढके जाने की संभावना रहती हूँ । उस समय चेहरे के एक ओर पूरा
लकवा--पक्षघात (परिलिसिस ) हो जाता हैं। सौम्यकुष्ठ के प्रतिकार-
क्षम उदाहरण में जब चेहरे पर विस्तृत रुगणक रहते हैँ तब वहां आधा


४० कोढ़


लकवा (पेरीसिस) होना बराबर होनेवाली चीज हैं । उसकी क्जह से
चेहरा पुतले की तरह भावशून्य (मास्क लाइक अपियरेंस) होजाता
हैं । इस प्रकार के रोग का वह एक विशेष लक्षण ही हँ । चेहरे की
त्वचा में शून्यता आने की वजह से उसके नीचे के भाव व्यक्त करनेवाले
स्‍्नायु क्रिया करने में अंशत: असमर्थ हो जाते है । आंखों की पपनियां
और मुंह खोलने बन्द करनेवाले स्नायुओं का भी यही हाल हो जाता हैं ।
प्रगत रोगी बहुत बार मजब्रन होठ नहीं बन्द कर पाते और बराबर
लार गिरती रहती है । चेहरे के मज्जातंतुओं में रुणक होने पर ऐसा होता
दिखाई नहीं देता । ऊपर की स्पशंशुन्यता के कारण नीचे के स्नायुओं
की कायम की आरोग्यस्थिति न रह जाने पर यह संभव हे । उसी प्रकार
ऊर्ध्वाक्षिकोषीय (सुप्रा आबिटल) मज्जातंतु हड्डी के छेंद में से अक्षि-
कोष में जाते हुए जब बहक जाता है तब कपाल के एक हिस्से में बधिरता
आती हे। उसी के साथ कपाल में ऊपर को जाने वाले स्नायू के
(आक्सिपिटो फ्रान्टलिस ) उसी अंग को आधा लकवा भी होजाता है ।


दसवां प्रकरण
कोढ के प्रकार


प्रकट-रोग-लक्षण की दृष्टि से कोढ़ के मुख्य दो प्रकार हे । (१)
मज्जातांत्वीय (न्यूरल) अथवा सौम्यकुष्ठ और (२) कालकुष्ठ (प्रो
मटस्‌ )। सन्‌ १९३८ में काहरा (इजिप्ट) में इंटर नेशनल लेप्रसी कांग्रेस
( आंतर्राष्ट्रीय कुष्ठ कांग्रेस ) ने इन मुख्य दो प्रकारों की व्याख्या नीचे
लिखे अनुसार स्वीकार की थी :


कोढ़ के प्रकार ५१


१. मज्जातांत्वीय (म) प्रकार--कोढ़ के सौम्य रूप के सब उदा-
हरण । इनमें (१) पृष्ठ भाग की संवेदना में परिवर्तन, पोषण विषयक
बिगाड़, अपोषण-क्षय ( लकवा अथवा पक्षाघात ) , मज्जातंतुओं की
ज्ञानवाहक और हिलने-डुलने की क्षमता का क्षीण अथवा नष्ट होना।
और इनसे होनेवाले दूसरे अप्रत्यक्ष परिणाम ये सारी खराबियां
मज्जातंतु-दाह के ( न्यूरायटिस ) शक्ल की होती हैं । (२)
संवेदना की खराबी से होने पर स्थानबद्ध चकत्ते अथवा मंडल होते हें ।
अथवा (३) दोनों प्रकार के रुग्णक एकत्र पाये जाते हैं। ऐसे रोगी में
संसर्ग की पेशीप्रतिक्रिया ठीक परिमाण में होती रहती हैं। साध्या-
साध्य विचार ([प्राग्गोसिस) की दृष्टि से इसमें रोगी शायद ही मरता
हैं। सिफे अवयव के बदशक्ल अथवा विकृवत होने का खटका रहता है ।
लेप्रालिन परीक्षा साधारणत: अस्तिपक्ष में अथवा भावरूप होती हैं ।
त्वचा के रुग्णकों में सूक्ष्मदशेक परीक्षा में निरपवाद रूप से न सही तब
भी बहुत करके जन्तु नहीं पाये जाते । नाक की इलेष्मल त्वचा की जांच
में जंतु पाये जा सकते हें । सूक्ष्मशरी रशास्त्र की दृष्टि से (हिस्टालाजिकली )
बहुतेरे रुणणक सूक्ष्म ग्रंथि से बने हुए--'सूक्ष्म ग्रंथिल' (ट्यूबर क्युलाइड)
होते हे ।

२. कालकुष्ठ (क) प्रकार--नाम के मृताबिक ही यह कोढ़ का
विकट और दुश्चिकित्स्य प्रकार हे । इसमें रोगसंसग पर पेशीजाल-
की प्रतिक्रिया लगभग नहीं ही होती है । यह दुःसाध्य स्वरूप होता
है। लेप्रालिन परीक्षा अभावरूप (नास्तिपक्ष में) होती हैं । त्वचा और
दूसरे अवयव विशेषकर मज्जातंतु का मुख्य स्तंभ (ट्रंक) कुष्ठविकृत
हो जाता है । सुक्ष्मद्शंक परीक्षा में अनेक जंतु पाये जाते हैं । मज्जा-
तंतुदाह विषयक खराबी होती भी है और नहीं भी । प्रथम अवस्था


४२ कोढ़





के कालकुष्ठ के रुग्णकों में आरंभ में वह खराबी नहीं होती हैँ । सिर्फ
आगे चलकर होती हैं। सौम्यकुष्ठ से कालकुष्ठ में बदले हुए रुग्णकों
में वह प्रायः पाई जाती है ।
मज्जातांत्वीय अथवा सोम्य कुष्ठप्रकार

मज्जाटांत्वीय रुणणकों के (१) मंडलीय (मेक्‍्युलर) और (२)
स्पशंशन्य (अनेस्थेटिक) ऐसे उपप्रकार हें । मंडलीय उपप्रकार में त्वचा
और मज्जातंतु इन दोनों के लक्षण होते हें; त्वचा पर चककत्ते नहीं
होते । मंडडलीय उपप्रकार के सादे मंडलीय (सिपल मेक्‍्यूलर) और
सुक्ष्म्ंथिल ( ट्यूबरक्यूलाइड मेक्‍्युलर ) भेद हें । मंडलीय प्रकार
के ही रुग्णक ज्यादा होते हैं । सादे मंडलीय में चकत्ते साधारणत:ः सपाट
होते हैं। सूक्ष्म ग्रंथिल में मोटे, ऊपर उठे हुए, रवेदार और छूने में खुर-
दरे होते हैं । उनकी मोटाई और रवेदारपन के प्रमाण के हिसाब से
सक्ष्म ग्रंथिल के प्रधान और गौण दो सूक्ष्म उपभेद किये जाते हें । नीचे
इन सब मंडलीय उपप्रकारों का एक साथ ही विचार करेंगे ।

(१) मंडलीय स्थानीय

मज्जातांत्वीय अथवा सौम्यकुष्ठ के इस मंडलीय उपप्रकार में त्वचा
पर गोल लंबवतुछाकार अथवा बिना किसी खास आकार के बल्कि
खासकर सिरे की ओर मंडल अथवा चकत्ते होते हे । उनमें निम्नलिखित
एक अथवा कई परिवतेन होते हैँ :--

१-वर्णहानि (फीकापन होना)

२-पृष्ठभाग की संवेदनाशक्ित में हय्मस

३-रुग्णक के मज्जातंतु-परिवार का सख्त हो जाना

४-मोटाई और लाली, खासकर किनारे के हिस्से पर। कुछ ब्रण
हीने की ओर झुकाव।


कोढ़ के प्रकार ५३


५-पसीना निकलने में खराबी होने से पैदा होनेवाली खश्की,
बालों की बाढ़ रुकना इत्यादि ।

वर्णहानि सामान्य रूप से अंशतः होती हैं, पूर्णतः नहीं । रुग्णकों
के कुछ हिस्से में अधिक तो कुछ में कम होती हैं । कभी लाली के
कारण तो कभी मांसदाहक (कास्टिक) पदार्थ लगाने से कलझाये हुए
मोटे दागों की वजह से फीकापन ढक जाता हैं।

पृष्ठभाग की संवेदनाशक्ति के ह्यस में भी ऐसी ही कमी-बेशी
होती हैं । चेहरे पर के रुग्णकों मं तो वह नाममात्र को होती हैं । धड़
पर के (ट्रंक) रुग्णकों में उसकी अपेक्षा अधिक और हाथ-पांव के
रुण्णकों में सबसे ज्यादा होती हैँ । सारी संवेदनाशक्ति में भी .एक-सी
विक्ृति नहीं होती । साधारणतः जशीतोष्णसंवेदना पहले विक्ृत होती
है । इसके बाद सुख-दुःख-संवेदना और अंत में स्पशे-ज्ञान का खातमा
होता है । इस संवेदनात्मक अंतर के साथ बहुत बार विकार के कारण
बढ़ा हुआ अति तीछ्ष्ण. स्परशेज्ञान (हायपरस्थेशिया), हाथ पांवों पर
चुनचुनाहट, लहर उठनां, आघात करने पर झनझनाहट अथवा पीड़ा
होना इत्यादि जिन्हें रोगी खुद समझ सकता है ( स्वयंसंवेय ) फरक-भी
होता रहता हैं । |

रुग्णकों से संबंधित पृष्ठीय मज्जातंतुओं की सख्ती का जांच द्वारा
समझ में आना आसान नहीं है । बहुत बार मज्जातंतु खब सख्त होते हें ।
विशेषत: रुग्णकों के मोटे होने पर मज्जातंतुओं की सख्ती सहज' में मालूम
हो जाती हैं। पृष्ठीय मज्जातंतु से संबंध रखनेवाले शरीर-विभाग का
प्रा ज्ञान प्राप्त करके ठीक जांच करने से मज्जातंतुओं की सख्ती ध्यान में
आ सकती है । यह सख्ती ऐसे मज्जातंतुओं की उपशाखा से लेकर मुख्य
स्तंभ तक पसरी हुई पाई जाती है । स्तंभ भी बहुत बार सख्त होता हूं ।





५४ कोढ़


क्रियाशील रुग्णकों में मोटाई और लाली साधारणत: पाई जाती
है । उसका परिमाण भी कमोबेश रहता हँ। जो चककत्ते मोटे हो गये हें
उनमें यह ज्यादा दिखाई पड़ती है । कभी यह मोटाई और लाली थोडी-
सी और सिर्फ किनारे की ओर ही होती है, कभी दोनों ही बिलकुल साफ-
साफ होती हैं और रुग्णक के सारे-के-सारे बाहरी हिस्से को घेरे रहती
हैं । कभी-कभी उसकी बहुत ज्यादती रहती है और सारे हिस्से में व्याप्त
रहती हैं । उसकी वजह से बाहरी त्वचा की बारीक पपड़ी निकलती है |
कभी प्रत्यक्ष ब्रण उत्पन्न होकर भी पीड़ा होती हैं । शरीर के चकत्ते मोढे
और सुर्खी लिये होते हें या उससे विपरीत भी होते हें । ऐसे घन लाल
और मोटे चकत्तों की सूक्ष्म शरीर-शास्त्र की दृष्टि से की हुई जांच के
आधार पर बहुत बार उसे 'सूक्ष्म ग्रंथिल' संज्ञा दी जाती हे ।

ये ऊपर बताये हुए मंडल शरीर के किसी भी हिस्से पर हो सकते
हें । वे व्यास में ; इंच जितने छोटे और १ फूट या इससे भी अधिक
बड़े तक हो सकते हें । कभी एक ही ब्रण होता है; तो कभी छोटे-छोटे
सेंकड़ों की तादाद में होते हें। यह छोटे-छोटे सेंकड़ों त्रण मोटे हुए तो
उनका गंठियल ( नाड्युलर ) कोढ़ से साम्य रहता हे ।

क्रियाशील रुग्णक वर्तुूलाकार बढ़ते जाते हें और एक दूसरे में घुसकर
परस्पर गुंथ जाते हें । वे कभी-कभी कई महीनों, वर्षों अथवा स्देव सुप्त
(अक्रियाशील ) दशा में रहते हें ।
(२) स्परशेशन्य उपप्रकार

बिना क्रणों का सिफे मज्जातांत्वीय कुष्ठ का यह उपप्रकार है।
यह पृष्ठीय मज्जातंतु के कुष्ठविक्ृृत होने से पैदा होता है । रुग्णकों का
मज्जातंतुओं में का संस मुख्य स्तम्भ तक फंलते जाने से यह प्रकार हो जाता
है । बहुत बार त्वचा अथवा पृष्ठीय मज्जातंतु के प्रत्यक्ष विकृत न








































































































हर कक
रा.
8 ० मा 5


मज्ञातांत्वीय (सोम्य ) कुछ; म., प्रकार।


































































































चित्र ६


मज़ातांत्वीय ( सोम्य ) कुष्ठ, म. प्रकार ।





चित्र ९०





प्रगत मज्ातांत्वीय कुष्ठ; मे. प्रकार; पंजाकृति हात;






























































कोढ़ के प्रकार श्र


मिलने पर भी वेसा हो जाता है। विकृत हुए एक या अनेक मज्जातंतुओं
में कुछ लक्षण दिखाई देने लगते हें। उन्हें नीचे लिखे अनुसार रखा जा
सकता हें---

१--पृष्ठभाग की संवेदना शक्ति का बिगाड़ । इसका आरंभ पृष्ठ-
भाग से होता हे और विक्रृत अवयव के अन्दर बढ़कर वह उसमें व्याप्त
होने लगता हैं ।

२--विक्रेत भाग में पसीना आने की किया में खराबी। उसकी
वजह से खुइकी आती हैं | रूसी या खाल छटती हे ।

३--विक्ृत मज्जातंतुओं से पोषित स्नायु में क्षीणता आने से क्रिया
शक्ति का अंशतः वा पूर्णतः: लोप और उसके कारण पैदा होनेवाली
विरूपता । '
४--पोषण विषयक विक्ृति---हाथ-पांव की हडिड्यां चिनकही हो
जाती हैं अथवा पूर्णत: सूख जाती हें। वेधक त्रण (परफोरेटिंग अल्सर)
होते हें । उसमें हड्डी सड़ जाने की वजह से अस्थि-कोथ (नेक्रासिस)
हो जाता है । वह खींचकर बाहर निकाला जा सकता हैं। इस खराबी से
पैदा होनेवाले दूसरे अप्रत्यक्ष परिणाम भी होते हें ।

साधारणतः नित्य के विकृृत होनेवाले मज्जातंतु आरत्निक, पेरोनियल
और बृहत्‌ बाह्यकर्णीय होते हैं । घुटने के ऊपर की ओर के आरत्निक
मज्जातंतुओं की विक्रृति स्पष्ट रूप से पहचानी जाती हे । उसकी वजह
से कानी अंगुली, अंगूठे के पोरुए और हाथ और प्रकोष्ठ (फोर आर्म ) के
आरत्निक द्वारा व्याप्त भाग में स्पशंशून्यता आती है। फिर हाथ के सूक्ष्म
स्‍्नायुओं को लकवा होता है; और वह पक्षियों के पंजे के आकार-
सरीखा “पंजाइृति' (कला हेंड) हो जाता है। पेरोनियल मज्जातंतु घटने
की गुल्फास्थि (फिब्यूला) की ओर झुकता है, वहां साधारणत: विक॒ति


२६ कोढ़


आ जाती है। उसकी वजह से पैर का पीछे का हिस्सा और पर की नली
का आगे का हिस्सा स्पर्शशून्य हो जाता हैं । पेरोनियल स्नायु की हलचल
की शक्ति क्षीण होजाती है। परों में एक प्रकार की विक्रति आ जाने से
चाल भचककर पड़ने लगती हैं । पैर की नली के पीछे के हिस्से की ओर
नीचे उतरकर फिलल्‍ली तक जानेवाली पीछे की जंघास्थिगामी (टिबियल )
मज्जातंतु फिल्‍ली के भीतर और बाहर की ओर विक्ृत होते हें। उसकी
वजह से पांव की नली सुन्न हो जाती हे । बाहरी त्वचा विक्रत और खूब
मोटी हो जाती है । पांव के तलुए पर वेधक ब्रण उत्पन्न हो जाते हें ।

विश्वत हुए मज्जातंतु साधारणतः मोटे और कितनी ही बार तो बहुत
मोटे हो जाते हैं । आरत्निक और पेरोनियल दशा में यह विशेषरूप से
होता हैं । कभी-कभी मज्जातंतुओं की विहृति के कारण उसमें बिना मुंह
का फोड़ा अमुखब्रण हो जाता हैं । इसका पहले उल्लेख होचुका है।

प्रकोष्ठीय (रेडियल) मध्यगत (दंड और प्रकोष्ठ की मध्यरेखा को
जानेवाला, मीडियन ) और मस्तिष्क से निकलनेवाले पांचवें और सातवें,
शीर्षीय (क्रेनियल ) मज्जातंतु भी मोटे होनेवालों में से हें । प्रकोष्ठीय
और मध्यगत मज्जातंतु के विक्रत होने से हाथ में गन्‍्यता आती है ।
पोषणविषयक खराबी पैदा होती हैं ।

मस्तिष्क से निकलनेवाले ५ वें और ७ वें मज्जातंतु के कुष्ठ-विक्ृत
होने से आंखों के पारदर्शी पटल (कानिआ) को स्पशंशून्यता घर लेती
है। चेहरे और अक्षिकोष (आबिट) के स्नायु की संचालन शक्ति लुप्त
हो जाती हैं, नेत्रपटल बाहर की ओर निकल आते हें और नेत्रावरण--
पलकें (कंजन्क्टिग्हा) खुली और असंरक्षित रहती हेँ। आंखें बंद नहीं
हो पातीं । इससे आंखों में कोई चीज पड़ने पर पता नहीं चलता-उसका
स्पर्श नहीं मालूम होता है। इससे हानि होने का बड़ा डर रहता है । बहुत


कोढ़ के प्रकार श्७


बार नेत्रावरण की जलन (कंजक्टिविटिस ) पैदा हो जाती हैं अथवा पटल
पर ब्रण हो जाते हैं ।

स्पर्शशन्य सौम्यकुष्ठ जब जोर पकड़ जाता हैँ तो ऐसे रोगी के पूरे-
के-पूरे दोनों हाथ-पेर, सारा धड़ और चहरा स्पर्शशन्य हो जा सकता
हैं । अपोषण क्षय (लकवा) और पोषण विषयक दूसरी खराबी पंदा हो
जाती है। हाथ-पांवों पर और चेहरे पर व्यंगता और कुरूपता आजाती है ।

इस स्पर्शशन्य उपप्रकार में सूक्ष्म दर्शक के द्वारा कुष्ठजंतु बहुधा नहीं
पाये जाते ।
(३) मिश्र प्रकार

मंडलीय और स्पर्शशन्य दोनों उपप्रकार एक ही रोगी में एकत्र भी
हो सकते हैं। यह माना जा सकता है कि सौम्यकुष्ठ में त्वचा पर के
चकत्ते, पृष्ठीय मज्जातंतु और उसके मुख्य स्तंभ तक ही संसर्ग मर्यादित
रहता हें । नियमानूसार तो शरीर भर में ऐसी खराबी नही आती है ।
कालकुष्ठ से लौटकर सौम्यकुष्ठ में आये हुए रोगी में अथवा कुष्ठ-
प्रतिक्रिया शुरू हुए रोगी में शरीर भर में खराबी होती हूँ ।

ऊपर वर्णन किये हुए सब लक्षणों में ( १ ) पृष्ठीय मज्जातंतु की
निश्चित सख्ती और (२) संवेदना का ह॒य्नस ये दोनों लक्षण कोढ़ का
निदान करने में निर्णायक हें ।

कालकुष्ठ-प्रकार

कोढ़ के मुख्य दो प्रकारों की व्याख्या देते हुए, जैसा कि कहा जा
चुका हे, उग्र अथवा तीव्रतर रूप के रुग्णकों में यह कालकुष्ठ प्रकार
पाया जाता है । उसमें रोग-संसगं-संबंधी पेशीजाल की प्रतिक्षिया करीब-
करीब नहीं-जैसी होती है । पेशीजाल में कुष्ठजन्तुओं की संख्या बे-रोकटोक
बेहद बढ़ती और फंल जाती हैँ । पेशीजाल उनकी कोई प्रतिक्रिया मात्र


भ्र८ कोढ़


नहीं करता । मज्जातांत्वीय प्रकार की अपेक्षा इस प्रकार में ब्रण अथवा
रुएणक अस्पष्ट उभरे हुए रूप में पाये जाते हैं। वे दरीर में अधिक
प्रमाण में फंले हुए होते हें । त्वचा, मज्जातंतु, इलेष्मलत्वचा, रसग्रंथि
और भीतरी अवयवों तक बहुधा रोग-संसर्ग पहुंचा हुआ रहता है । प्रकट-
लक्षण-दृष्टि से मुख्य रुगणक त्वचा और इलेष्मलत्बचा में होते हें । इस
प्रकार में कृष्ठग्रंथि (नाइ्यूल्स) पंदा होती है । साधारणतः (हिंदु-
स्‍्तान में तो) विशेष खराबी की हालत के कुछ उदाहरणों में वह पाई
जाती हूँ। कुछ कार्यकर्ताओं का जो यह खयाल है कि कुष्ठग्रंथि का मिलना
इस प्रकार का एक लक्षण है, यह सही नहीं है । कालकुष्ठ-प्रकार की
त्वचा के रुग्णक बार-बार होते हें । अनुक्रम निम्नलिखित है--
१--तनिक-सा अस्पष्ट उभरे-रूप से सूजा हुआ फूला-सा भाग । बहुत
बार उसपर सुर्खी, त्वचा पर एक प्रकार का चमकीलापन, स्पश
मखमल-सा मुलायम ।

२--रंग में बदले हुए चकत्ते अथवा अस्पष्ट ऊंचाई से घिरा हुआ त्वचा
भाग । सौम्यकुष्ठ और कालकुष्ठ के चकत्तों का भेद भलीभांति
पहचानना आना चाहिए । कालकुष्ठ के चकत्तों का ऊपरी हिस्सा अधिक
गुलगूल होता है । उसपर एक तरह का चमकीलापन और मखमलीस्पश्-
सा होता है । ऊंचाई अस्पष्ट होती हे, सिमटे हुए नहीं होते । इस दशा
में स्पशे-वेदना में परिवर्तन नहीं पाया जाता । पृष्ठीय मज्जातंतु सख्त नहीं
हुए रहते । और सूक्ष्मदर्शक द्वारा अनेक कुष्ठजंतु पाये जाते हैं ।
३--त्वचा अथवा उसके नीचे के पेशीजाल में कुष्ठग्रंथियां पैदा होती
हैं। कभी ये गांठें आकार में बहुत बड़ी होती हें। कभी बिलकुल नन्‍हीं
फुंसी-सी दिखाई देती हैं ।

४--गांठ फूटकर ब्रण हो जाते हैं जो नम अथवा बहते रहते हैं ।


कोढ़ के प्रकार ५६


कालकुष्ठ-प्रकार में आरंभ में रुग्णक कुछ विशिष्ट भागों में ही
स्थानबद्ध रहते हें । पर साधारणत: यह स्थानबद्धता ऊपरी ही होती हैं ।
क्योंकि दूसरी ओर के अविक्ृत भाग की सूक्ष्मदशेक द्वारा परीक्षा करने
पर वहां भी कुष्ठजंतु पाये जाते हेँ। कालकुष्ठ के प्रगत रोगी में शरीर
पर की कुल त्वचा कुष्ठविकृत हो जाती हैं । रुग्णक बाहर सिर्फ कुछ
विशिष्ट भाग में खास तौर से पाये जाते हैं । उदाहरणार्थ मंह, कान, पीठ,
छाती, घुटना, केहनी, पजे का ऊपरी हिस्सा । त्वचा के कालकुष्ठ से
विक्ृत होने का एक लक्षण केशहानि (डीपिलेशन ) होता है । सारे ही
शरीर पर के बाल उड़ जाते हें। खासकर चेहरे पर भोंहें, डाढ़ी और
मोछ के बारे में यह दशा अधिक स्पष्ट दिखाई देती है । अंडकोष पर के
केश भी उड़ जाते हैं ।

इस प्रकार में त्वचा के रुग्णक में स्पशं-संवेदन संबंधी परिवतेन नहीं
पाया जाता । तथापि पृष्ठभागीय मज्जातंतु का स्तंभ विक्ृत हो जाने
से हाथ-पैरों में थोड़ी-सी स्पर्शशून्यता आजाती है । साधारणत: लोग इसे
मुर्दारपना कहते हें । मज्जातंतु कुष्ठविकृत होते हें, पर सौम्यकुष्ठ की
अपेक्षा उसमें सख्ती कम मालम होती है । स्पर्शंशुन्यता, पोषण-विषयक
रुए्णक, लकवे इत्यादि का इस प्रकार के लक्षणों में गौण स्थान होता
है । ऐसे रोगी में आगे चलकर त्वचा का रोग धीरे-धीरे कम होने से
त्वचा के रुग्णक म्रझाने लग जाते हें और उस जगह दर्वेततंतु-पेशीजाल
वैदा हो जाता हैं । जिससे सिकुड़न पड़ जाती हूँ, विक्रेत त्वचा खंखरी हो
जाती है। इस दशा में फिर वहां स्पर्शशून्यता आने लूगती हँ और पोषण-
विषयक रुग्णक दिखाई देने लगते हें, यह ध्यान में रखना चाहिए ।
क्योंकि रोगी के सुधरने में उसके फिर सौम्यकुष्ठ में जानें और तब
उसके लक्षण दिखाई देने की संभावना रहती है ।


६० कोढ़





कालकुष्ठ प्रकार में इलेष्मल त्वचा बहुधा विकृृृत हो जाती है । नाक,
कंठ और स्वरयंत्र (लेरिक्स) की इलेष्मल त्वचा का पूर्ण कुष्ठविकृत होना
संभव है । बहुत बार उसपर गांठ और ब्रण भी पाये जाते हैं। नाक
के ऐसे रुणकों की वजह से नासा-पटल नाक में का परदा, (सेप्ट्यूम )
गायब हो जाता हैं और नाक बेठ जाती है, कंठ में घर्घराहट की आवाज
आती है अथवा कभी-कभी इवास-रोध भी होने लगता है । रोग की भयंकर
अवस्था में आंखों का पारदर्शी पटल कुष्ठविकृत पाया जाता हैँ । पलक
ओर पुतली का जीर्ण दाह भी पाया जाता हैं ॥ अंडकोष का विक्ृत होना
भी मामूली बात है । जिसकी वजह से बहुत बार वहां के बाल झड़ जाते
हैं । स्तन फल जाते हैं । अंडकोष का अन्तःस्राव क्षीण होने की वजह से
दूसरी खराबियां भी हो जाती हैं । शवच्छेदन होने पर दूसरे भीतरी अंग
भी कुष्ठविकृत पाये जाते हैं, पर बाहरी लक्षण नजर नहीं आते ।

कालकुष्ठ का उपप्रकार नहीं हैं। उसके एक प्रकार को संकीण्णं
अथवा विकीर्ण (डिफ्यूज) कालकुष्ठ कहते हैं। उसमें त्वचा पर सर्वेत्र
बिलकुल सूक्ष्म बंद सरीखें असंख्य रुग्णक होते हे । ऊपर नंबर एक
में बताये अनुसार लाली, अस्पष्ट उभार, नरम गुलगुल स्पर्श वा विशिष्ट
चमक उसपर होती हूँ । विशेष अभ्यास के बिना इस किस्म की शीध
पहचान नहीं होती । हिन्दुस्तान में जब-तब यह किस्म पाई जाती है। पर
उसे आज भी सब जगह स्वतन्त्र उपप्रकार नहीं माना जाता ।


ग्यारहवां प्रकरण
त्वचा के रुग्णकों की किसमें


त्वचा के रुग्णकों के मुख्य तीन प्रकार हें -(१) मंडल, चकत्ते
अथवा स्थानबद्ध उभरी हुई त्वचा के भाग, (२) सवंगत अंतःसेक
(इन्फिल्ट्रेनन) और (३) कुष्ठग्रंथि ।

चकत्ते अथवा मंडल

कोढ़ के चकत्तों के चार वर्ग किये जाते हें ।

(१) सौम्यकुष्ट के 'सादे मंडलीय” प्रकार के चकत्त ।

(२) सौम्यकुष्ठ के 'सूक्ष्मग्रंथिल' प्रकार के चकत्ते ।

(३) कालकुष्ठ के अस्पष्ट उभरे, छूने मेंनरम हुए विशिष्ट चमकवाले
चकत्ते । इन तीनों का वर्णन ऊपर आ च॒का है। चौथे प्रकार के चकत्ते
छोटे बच्चों में पाये जाते हे । जो बच्चे रोगियों के संसर्ग में आते रहते
हैं उनके अंगपर शुरू मे बिलकुल छोटा फीका-सा चकत्ता दिखाई
देता हैं। पर उस समय रोग-निदान के लिए जो तीन आवश्यक लक्षण
हैं वे नहीं पाये जाते । कुछ समय बीत जाने पर उसमें वह लक्षण धीरे-
धीरे प्रकट होने लगते हें । ऐसे उदाहरणों में अधूरे लक्षण दिखाई देते
हैं, शंका की गुंजायश रह जाती है, पर निश्चित निर्णय करने के पूर्ण
साधन नहीं होते । ऐसे समय अनुभवी विशेषज्ञ निर्णय कर सकता है।
डसे स्वतंत्र प्रकार माना जाय या नहीं, यह निश्चित नहीं हुआ है । पर
इसी समय परीक्षा करके शकक्‍्य हो तो उपाय करना जरूरी है। दूसरे
साधारण त्वचारोगों में भी ऐसे चकत्ते या फूल अनेक बार उठ आते हैं,
उनमें भेद करना मुश्किल हो जाता है । इस प्रकार के चकत्ते कुष्ठ उत्पन्न
हो जाने पर होते हें या कुष्ठ के गर्भावस्‍था में रहने के समय के चकत्ते


६२ कोढ़


होते हैं, इस सम्बन्ध में पन्द्रहवें प्रकरण में फिर उल्लेख किया
जायगा ।

बाह्य लक्षणों से, स॒क्ष्मद्शक से अथवा छीलन (सेक्शन) लेकर सूक्ष्म
शरीर-ास्त्र दष्ट्या (हिस्टालाजिकली) भी कभी-कभी परीक्षा करनी
पड़ती हैँ । सौम्यकुष्ठ में वाहिनी के सामने कणसंघ (ग्रेन्युलोमा ) गाढ़ और
सिमटा होता है । साधारणतः वह रोममूठ और घमंपिंड के आसपास
अथवा नीचे के पेशीजाल में पाया जाता हें । ख़ासकर 'उपलेपक पेशी'
(एपिथेलाइड सेल) होती हँ। उसमें 'दीघंफाय' (ज्यांट) पेशी भी
साधारणत:ः पाई जाती हं। जहां ज़ोरों की प्रतिक्रिया चलती है उन
रुण्णकों में यह 'दीघंकाय' पेशी तो बराबर ही पाई जाती हैँं। इसके,
विपरीत कालकुष्ठ दशा में रुग्णकों में कणसंघ ढीला और बिखरा हुआ
होता है| जंतु पाये जाते है । उसमें “कुष्ठपेशी' अथवा "फेनपेशी' होती
है । दीघंपेशी प्रायः नहीं होती ।

सबंगत अन्तःसेक

ऊपर कहा जा चुका है कि कालकुष्ठ के क्षीण प्रतिकार के उदा-
हरण में यह सर्वंगत अंतःसेक होता है, बाह्यतः समझने योग्य लक्षण
कम होते हैं, जिसकी वजह से जानकारों से भी भले हो जाती हैं।
सूक्ष्मदशक के द्वारा सिर्फ अनेक जंतु पाये जाते हें । व्यवहार में ऐसों
के रोग-निर्णय करने में बड़ा धोखा रहता हेँ। वे पहचान में नहीं
आते; सबमें मिलते-जुलते रहते हें और बराबर छत फंलाते रहते हैं ।

कई बार इस प्रकार में त्वचा खब मोटी होजाती है। अगर यह
चेहरे पर हुआ तो वहां फूली हुई सूक्ष्म सिकुड़न-सी पड़ी दिखाई देती
हैं। उसमें लाली आजाने से चेहरा सिहमुखी ( लिओन्‍न्टियासिस )
दिखाई देता हैं । कान पर भी ऐसा ही होता है ।


त्वचा के रुग्णकों की किसमें ६३


यह कहते सुना जाता हें कि हथेली, पगथली और खोपड़ी पर रुग्णक
नहीं पाये जाते, पर यह सही नहीं हैं । सर्वंगत अन्तः सेक वहां भी फंलता
हैं। पर हथेली और पगथली की मोटी त्वचा के कारण अथवा सिर पर
बालों के आवरण के कारण सहज में वे लक्ष में नहीं आते ।

कुष्ठ-प्रंथि

साधारणत: जिस त्वचा में कुष्ठ-संसर्ग अच्छी तरह भिना हुआ होता
है उस त्वचा में यह गांठ होती हैँ । उसका रूप स्थायी होता हूँ । कुष्ठ-
प्रतिक्रिया में उठनेवाली गांठ का फिर दबना सम्भव रहता हैं। यह
गांठ कुष्ठण पेशीजाल से बनी हुई रहती हे । उसमें फूली हुई फेनपेशी
होती है और उसमें कसकर कुष्ठजंतु भरे रहते हें । ये सब श्वेत
तंतु पेशीजाल द्वारा बंधे हुए से होने से गांठ की शक्ल बन जाती हे जो
जबतक नवीन होती हैँ नरम रहती है । उसमें रसवाहिनियां भी होती हें ।
पुरानी होने लगने पर श्वेततंतु पेशीजाल सिकुड़ने लगता है और वह
कड़ी बन जाती हैँ । त्वचा में अथवा उसके नीचे के पेशीजाल में भी
वह होती है । उसके हमेशा के अड्डे तो हें खास तौर से आगे निकले हुए
अवयव जंसे चेहरा, कान, हाथ, ठहुने, पैर या केहुनी । पर वह कहीं भी
हो सकती है । नाक, मुंह, कंठ में भी होती है । हथेली, पगथली और
खोपड़ी पर कभी-कभी ही होती है ।

कभी-कभी यह गांठ फूट कर ब्रण हो जाते हें। साथ ही
भीतरी मवाद बह जाता हैं। तब सूख जाता हैं अथवा बहुत दिनों
तक बहाव जारी रहता है । इस ख्राव में कुष्ठजंतु होते हें । ऐसी दशा में
संसग फेलना आसान रहता हैँ । पीछे मज्जातंतु में के अमुखब्रण का जिक्र
आचुका है । इन दोनों प्रकार के ब्रणों में जो भेद हैं उसे समझ रखना
चाहिए । इन गांठों के होने का कोई निश्चित कारण नहीं बतलाया जा


६४ कोढ़





सकता । जरासी जख्म की जगह में कुष्ठजंतु ज्यादा तादाद में जमा
हो जाते और बढ़ते हैं। सामने का पेशीजाल उसका विशेष प्रतिकार
करता हैँ। सम्भव है इस प्रतिक्रिया के कारण वह गांठ बन जाती हो ।


चलन >नरननाकलकलक-ल्‍क + सीजपकासमकमलकसमन..


बारहवां प्रकरण
विशिष्ट अवयवों के रुग्णक


त्वचा में ओर मज्जातंतु के कोढ़ के रुग्णकों के विस्तार-पूर्वक
विवेचन करने के बाद अब विशेष अवयबों में जो विशेष प्रकार के
रुग्णक पैदा होते हें सुगमता के लिहाज से उनका स्वतंत्र रूप से विचार
करना और ज्यादा अच्छा होगा । ये रुग्णक साधारणत: कम पाये जाते
हैं । रोग-निदान और उपचार की दृष्टि से उनका महत्त्व है। वे खासकर
(१) आंख, (२) नाक, (३) मुंह और कंठ (४) इ्वसनेंद्रिय और
(५) जननेंन्द्रिय पर पाये जाते हें । कोढ़ में ब्रणों का भी अलग से विचार
करना पड़ता है ।

आंखों के रुग्णक

कोढ़ के कारण होने वाले रुण्णकों में आंखों के रुप्णक सबसे
अधिक दुःखद और अपंग बनानेवाले होते हैं। इनका पहले प्रसंगवश
उल्लेख आचुका है । पर उनका स्वतंत्ररूप से विचार करने की जरूरत है।
इन रुग्णकों के पारस्परिक भिन्न दो वर्ग होते हेैं। पहला प्रकार ५ वें
और ७ वें शीर्षीय मज्जातंतु के विक्ृत होने से होता है। उसमें
पारदर्शी पटल (कानिआ) में बहरापन पैदा हो जाता है। पलकों की
खुलने-बन्द होने की क्रिया में खराबी आती है। दूसरे प्रकार में आंख


विशिष्ट अबयबों के रुग्णक ६५


के कोए या पुतली (लेन्स) प्रत्यक्ष कुष्ठविकृत हो जाती हैं। यह दशा
भयंकरता प्राप्त रोगी में होती है । पहिला प्रकार मज्जातांत्वीय स्वरूप
का होता हे; दूसरा कालकुष्ठीय होता है ।

(१) प्रतिकारक्षम उदाहरण में चेहरे पर मज्जातांत्वीय कुष्ठ के
बड़े-बड़े रुणणक होने पर सामने की त्वचा की नाई कोएका आगे का
भाग भी सुन्न हो जाता हैं। चेहरे पर स्पशे शून्यता आजाने पर
भावव्यक्तकस्नायु पर असर होता हें। इसके कारण उस स्नायु की
सावेकालिक निरोगी स्थिति नहीं रहती। उसकी क्िया-शक्ति बिगड़
जाती है । विशेषकर पलकों को खोलने और बन्द करनेवाले स्नाय्‌
में यह स्पष्टत: प्रकट हो जाता हैं। पारदर्शी पटल की परावतेंन अथवा
प्रतिक्षिप्त क्रिया (रिफ्लेक्स ऐक्शन) के निरस्त हो जाने से और
पलकों के पूरे बन्द होने में असमर्थ होने से कोओं का नैसगिक
संरक्षण नहीं हो पाता । विशेषकर निद्रा के समय यह संरक्षण न रह
जाने से हानि होने की अधिक संभावना रहती है। विशेष संरक्षण का
उपाय न किया जाने पर. नेत्रावरण में जलन (कन्ज्याक्टिविटिस ) होने
लगती है । कई बार पारदर्शी पटरू पर भी ब्रण निकल आते हैं।
भयंकरता को पहुंचे हुए उदाहरणों में पलक बाहर निकल जाती हैं ।
पलकों के भीतरी भाग पर अश्रुनलिका के जो सूक्ष्म छिद्र हें वे भी इसकी
वजह से बाहर निकल आते हें और खुले रह जाते हें। आंसू गाल पर
बहते रहते हें । अश्रुकोष ( लक्रिमल सक्‌ ) जब प्रत्यक्ष रूप से विकृत
हुआ रहता है अथवा नाक में रुग्णक होते हें, तब अश्रुमार्ग (लबत्रिमल
डक्ट ) बन्द-सा “ हो जाता हैँ । उसमें अमुखब्रण पैदा होने की संभावना
रहती हैं ।

(२) कोओं के प्रत्यक्ष रूप से कुष्ठविक्ृत होने से होनेवाले काल-


६६ कोढ़


कुष्ठीय रुणणक इस दायरे में पड़ते हें। चारों ओर की त्वचा के पूर्णतः
विकृत हुए बिना कोये प्रत्यक्ष रूप से कुष्ठविक्रृत नहीं होते । पहला
संसर्ग रक्तवाहिनियों ( ब्लड वेसल्स ) द्वारा जाकर एकत्र हुए जंतुओं
के कारण होता होगा । अधिक उदाहरणों में चेहरे के चारों ओर की
त्वचा से रस-वाहिनियों ( लिफटिक्स ) के द्वारा संसर्ग का पहुंचना
संभव हैँ । आंख के ऊपर की भांति ही भीतरी अंग में भरपूर संसर्ग पहुंच
जाने पर भी रोगी को खुद समझने लायक (स्वसंवेद्य) अथवा बाह्य लक्षण
बिलकुल ही दिखाई नहीं देते । आंखें विकृत होने पर कुष्ठ प्रतिक्रिया
साधारणत: लक्षित होती । ऐसे समय जांच करने' पर नेत्रावरण में रक्‍्त-
संचय (कन्जेक्शन) पाया जाता है। प्रकाश असह्य हो जाता है (फोटो-
फोबिया ) । प्रकाश की आंख के अंदरूनी हिस्से में जो प्रतिक्रिया होती हें
अथवा दृष्टि का मेल साधने की जो शक्ति होती है उसमें कुछ खराबी
पैदा हो जाती हैं ।

कुछ उदाहरणों म॑ बाह्य अवयव विशेष विक्ेत दिखाई देते
हैं । नाक की ओर आंखों के कोनों में तिकोने आकार का गाढ़ा-सा
भाग ( टेरेजियम ) एकत्र होजाता है। वह पारदर्शी पटल पर भी
पसरने लगता है । जैसे शिराजाल रोग में ( पनस्‌ ) होता हूं वैसे ही
पारदर्शी पटलों का स्वरूप रुखड़े कांच सरीखा हो जाता है । यह बहुधा
ऊपर की अर्धाली में होता हैं । पर कुछ समय में कनीनिकापृतली
(प्यूपिल) को भी ग्रस लेता है । बाहरी अंगों के विकृत होने पर अन्दर
का भी प्राय: रक्षित नहीं रहता है । अट्रोपिन डालने से पुतली (प्यूपिल )
के बढ़ने की जो क्रिया होती है वह अव्यवस्थित अथवा मन्द हो जाती
हैं। कभी-कभी वह पूर्ण स्थिर हुई दीखती है । सब कालकुष्ठीय उठाहरणों
में चेहरे पर रुग्णक होने पर अट्रोपिन डालकर पुृतली की क्रिया की जांच


विशिष्ट श्रवयवों के रुग्णक ६७


कर लेना अच्छा है । कारण, बाहर से निरोगी दिखाई देनेवाले नेत्रों मे
भी पुतलियों की छोटी-बड़ी होने की दाक्तित बिगड़ी हुई होती है । इसके
सिवा भीतरी अवयवों में संसर्ग पहुंचने के बारे में जानने का वह एक
साधन हो जाता है। शुभ्रपटल ( सस्‍्कलेरा ) दुरुस्त रहने पर भीतर
के अवयव के विक॒त होने की संभावना नहीं रहती । आंखों की बाहर से
बहुत थोड़ी दिखनेवाली विक्ृति भी कुष्ठ-प्रतिक्रिया में दुःसह चक्षपीड़ा
( आपथल्मिया ) पैदा कर देती हे ।
नाक के रुग्णक

नाक की इलेष्मलत्वचा की झिल्ली में अथवा खरोंच लगे हुए
भाग से संसर्ग शरीर में फंछता हे इस अनुमान की पुष्टि में काफी
प्रमाण मिलते हैं । नाक के भीतरी हिस्से का उपलेपक (एपिथेलियल )
पेशीजाल त्वचा की अपेक्षा पतला होता है ) इसकी वजह से और विश्े-
धतः खाज के कारण नाखून से खुजला देने पर उसमें से जंतुओं के
अन्दर घुसने का सुभीता हो जाता है । त्वचा के सौम्य अथवा कालकुष्ठ
के जितने प्रकार के रुग्णकों का जिक्र ऊपर किया जा चुका हैं उतने सब
रुणक नाक की इलेष्मलत्वचा में भी होते हें । सौम्यकुष्ठ में त्वचा की
भांति इलेष्मलत्वचा स्पर्शशून्य रहती है । बहुत रोगियों में जुकाम नहीं
बहता, एसी दशा में इलेष्मलूत्वचा में सतत रहनेवाली नमी और सुर्खी
नहीं पाई जाती । वह सूखी और फीकी दिखाई देती है।

कुछ अन्य उदाहरणों में नाक के भीतरी भाग में संस बहुत ही
भिना हुआ होता है । नीचे की भाले के आकार की हड्डी (इन्फीरियर
टबिनेट ) लाल और गंठीली दिखाई देती है । नाक के परदे पर ब्रण
होते हैं । अथवा पुराने ब्रणों के काले-काले-से दाग होते हें । ना+ के छिद्र
सूखे हुए नेटे (नाक की इलेष्मा) के कारण बंद होजाने से रोगी को बहुत


छ्ष्८ कोढ़


पीड़ा होती हू । रकत-प्रवाह का अभाव हो जाने अथवा ब्रण हो जाने के
कारण कर्चामय (काटिलेजिनस ) आवरण में छेद हो जाते हें अथवा वह
गायत्र हो जाता है । उपदंश रोग में जैसे हड्डी के आवरण जाते रहते हें
वैसा कोढ़ में बिलकुल नहीं होता। इन दोनों रोगों में यह फर्क ध्यान
में रखना चाहिए। कर्चामय आवरण के जाते रहने से नाक चपटी हो जाती
है । पर खास कर के नाक के भीतर ब्रण हो जाने से र्वेततंतुओं का जो
आकुंचन होता है उसकी वजह से ऐसा होता है ।
मुंह ओर कंठ के रुग्णक

मुंह के चारों ओर की त्वचा विक॒त होने कें बाद साधारणत: होठों
पर रुग्णक पाये जाते हें । पर प्रारम्भ में पहले वहां नहीं होते । होठ के
बाहर की ओर किनारे पर बहुत बार कुष्ठ-ग्रंथि दिखाई देती हे । होठों
पर के और चारों ओर के रुग्णक जब बहुत बढ़ जाते हें तो आकुंचन
होता है और मुंह पूरा खुल नहीं सकता ( स्टेनासिस ) ।

कालकुष्ठीय-प्रकार के भयंकरता प्राप्त रोगी की जीभ पर गांठ भी
साधारणत: उभर आती हैं ।

ताल पर गंठीले अथवा बिखरे रुग्णक उठ आते हें । कुष्ठविकत


पेशीजाल के फटने से या नष्ट हो जाने से म॒दु ताल (साफ्ट प्लेट)
ओर सप्तपथद्वार' (फासेस) क्षब्ध और ब्रणयक्त हो जाते हैं। इन


१ मंह खोलने पर दोनों कमानियों के पीछे जो मार्ग हे उसे सप्त-

( फरिक्स ) कहते हें । कारण वहां सात मार्ग आकर मिले हूं।
दोनों कमानियों के बीच के दरवाजे को सप्तपथद्वार ( फासेस )
कहते हैं । सप्पपथ और सप्तपथद्वार इन दोनों को मिलाकर कंठ
कहते हैं । सप्तपथ में मिलने वाले सात मार्ग--१ मुंह का मार्ग, २-३
नाक के मार्ग के दो द्वार, ४ अन्न-सार्ग, ५ इवासमार्ग, ६-७ कान और
कंठ को जोड़नेवाली नरेयों के दोनों छित्र ।


विशिष्ट अवयदबों के रुग्णक ६६


त्रणों के अच्छे होने पर चकत्ते का हिस्सा सिकुड़ता हैँ। उसके कारण
सप्तपथद्वार घिरा-सा होता हे । फूफ्फूस में हवा लेजानेवाली नलिका
(एअर पेंसेजेस) और द्वास-मार्ग के परदे (एपिग्लाटिस) के चारों
ओर के ब्रण दुरुस्त होकर सिकुड़ते हें । उसकी वजह से श्वास-मार्ग का
अंशत: अवरोध होता हूँ । यह प्रकार बहुत तीब्र होने पर इवासनलिका
पर रास्त्रक्रिया (ट्रकिआटामी) भी करनी पड़ती है । कोढ़ में ताल
में छिद्र हुए भी पाये जाते हैं । पर साधारणत: वह सहचारी उपदंश का
परिणाम होता हू । नाक की इलेप्मल त्वचा से रसवाहिनियों के द्वारा
कंठ साधारणत: विक॒त हो जाता हैं ।

नाक, मुंह के ब्रण अच्छे होने पर जब व्वेततंतु उत्पन्न होने की
क्रिया (फायब्रासिस) विशेषता से होती हे तब गंधज्ञान और रुचिज्ञान
पूरा अथवा कुछ अंश में गायब हो जाता है। सौम्यकुष्ठ में जिहववा के
मज्जातंतु (लिग्वल नवं ) विकृत हुए रहते हैं; और रुचिज्ञान बिगड़
जाता है । कुष्ठविकुत पेशीजाल नष्ट होजाने की वजह से जीभ और
ताल पर गहरा रंग आजाता हूं । स्वरयंत्र (लेरिक्स ) विक्रत हो-
जाने से कोढ़ी की आवाज प्राय: भर्रा जाती हैँ । मुख्य स्वरतंतु (वोकल-
कार्ड) भी कुष्ठविकत हो सकते हैं ।

श्वसनेन्द्रियों के रुग्णक

कालकुष्ठ की विकराल दशा के उदाहरण में रोगी के थूक के साथ
मवाद मिली हुईं आती है। उसमें अनेक कुष्ठजंतु पाये जाते हे । प्रत्यक्ष
फुफ्फूस कुष्ठग्रस्त होते हें या नहीं इसके बारे में संशय हैं। श्वास-
नलिका (ट्रकिआ) में कुष्ठग्रंथि फूटने की वजह से ऐसा थूक आता
होगा । अथवा ऊपर की द्वासवाहिनियां [ब्रान्काय) बहुत ही विकृत
हो जाने की वजह से ऐसा हो सकता है। कुछ उदाहरणों में यह पृय-


७० कोढ़


स्राव नाक अथवा कठ में से आता होगा। क्षय और कोढ़ दोनों बहुत
बार एक साथ होते हें। उनकी भेदकारी (डिफरेन्शियल ) जांच करनी
चाहिए । संशय होने पर सर्फद चूहों के बदन में उस थूक का इंजेक्शन
देकर निर्णय किया जा सकता हें । अगर कोढ़ होगा तो कोई नतीजा
नहीं होगा । क्षय होने पर चहे पर रोग का असर होगा ।
जननेन्द्रिय के रुग्णक

कोढ़ के समस्त प्रगत उदाहरणों में बीयंपिंड और अंडकोष कुष्ठ-
विकृृृत होते हें । गोलियों के भीतर और दोनों गोलियों के बीच के
भाग में, दोनों जगह संसर्ग फैलता है। वीय॑नलिका में भी संसर्ग फैलता
होगा । गोलियों का पेशीजाल जाता -रहता है और श्वेततंतुओं का एक
गोला-सा बन जाता है । वहांके बाल झड़ जाते हैं। अंडकोष की अन्त:-
स्राव क्रिया बन्द हो जाने से स्तन बेतरह फूल जाते हैं। नारंगी के
आकार के या उससे भी बड़े हो जाते हें । जबतब उनमें वेदना होती है ।
वह कुछ काल तक जेसे-के-तंसे रहते हें । उनमें भी कुछ पारी होती हूँ ।

इसके सिवाय, कोढ़ में नपुंसकत्व आ जाता है॥ अन्तःस्राव प्रणाली
(इंडोक्राइन सिस्टम) में परस्पर सम्बन्ध बिगड़ जाता हैँ। उसे वक्‍त
रहते न सुधारा गया तो रोगी की मानसिक और शारीरिक स्थिति गिर
जाती है और वह उदास रहता है।

शवच्छेद करने पर रज:पिंड (ओवरी) और मूत्रपिड (किडनी)
कुष्ठविकृत पाया जाता हैं। पर जीवितावस्था में उनके काम में कोई
खराबी नहीं दिखाई देती ।

कोढ़ में ब्रण

पूर्वंकथनानुसार ये ब्रण दो प्रकार के होते हें। उनका भेद सम-

झना बढ़त जरूरी है। पहले प्रकार के ब्रण मज्जातंत के द्वारा मिलने-


कुष्न-प्रतिक्रिया ७९


वाले पोषण के नष्ट होने से पैदा होते हैं। वे पैरों को नीचे से ऊपर
की ओर की वेधन क्रिया की तरह काटते जाते हें। इसलिए उन्हें 'वेधक
ब्रण” (परफोरेटिंग अल्सर ) कहते हें। ऐसे ब्रणों में से कुष्ठजंतु साधारणत:
प्रायः बाहर नहीं निकलते । उनसे जितना डरा जाता है उस हिसाब से
वे रोग कम फैलाते हें।

दूसरे प्रकार के ब्रण 'कालकुष्ठीय ब्रण' हैं । वे त्वचा अथवा इलेष्मल-
त्वचा में के रुग्णकों के फूटने से होते हैं । ऐसे ब्रणों के पाये जाने
की नियमित जगह नथने हैं। ऐसे ब्रणों में से असंख्य जंतु निकलते
रहते हैं । कुष्ठग्रंथि फूटने से होनेवाले ब्रण भी इसी दायरे में आते हें ।
रोग को फलाने में इन ब्रणों का प्रमुख स्थान है ।

मज्जातंतु में के अमुखब्रणों की एक अलग ही क्रिस्म हैं। वे
फूटकर बहने लगें तो उन्हें दूसरे ब्रणों की भांति समझने में हज नहीं
हैं। उनका वर्णन पीछे किया जा च॒का है ।


तेरहवां प्रकरण


कुष्ठ-प्रतिक्रिया


कोढ़ बड़ा जीर्ण रोग है । इसमें चढ़ाव उतार बहुत धीरे-धीरे होता
है। रोगी में हफ्तों या महीनों तक भी कोई प्रत्यक्ष परिवर्तेन नहीं
होता । तथापि कुछ रोगियों में कुष्ठ-प्रतिक्रिया अथवा ज्वर की दशा
आती है, उस समय रोग के लक्षणों में एकबारगी अचानक कुछ वृद्धि
हो जाती हैं ।

इस कुष्ठ-प्रतिक्रिया के कारण बहुधा दुर्बोध अथवा संशयित रहते


२ कोढ़


हैं। स्थल दृष्टि से तो शरीर की पेशी की कार्यंशक्ति अथवा चयापचय *
(घटने-बढ़ने की) क्रिया में परिवर्तन पैदा करनेवाले अनेक कारणों से
वह होती है । जश्ीतज्वर अथवा मलेरिया सरीखे सहचारी रोगों के
अथवा चेचक निकलने या दरीर को दुबंल करनेवाले किसी भी
कारण से वह हो सकती है । कोढ़ियों को पोटेशियम आयोडाइड
पूर्ण मात्रा में देने पर वह प्रतिक्रिया हठात्‌ पैदा की जा सकती हूँ।
हिड़नोकार्पस अथवा चालमुग्रा तेल, आसंनिक (संखिया ), पारा इत्यादि
ओऔषधियां अति मात्रा में देकर भी वह पैदा की जा सकती है। अनेक बार
कुष्ठग्रस्त स्त्रियों की गर्भावस्‍था में वह हो जाती है । तथापि बहुत बार
खास कारण समझ में नहीं आता ।

कुष्ठ-प्रतिक्रिया के लक्षणों के संक्षेप में तीन भाग किये जाते हैं :-

१--त्वचा, मज्जातंतु, इलेष्मल त्वचा, नेत्र के पुराने रुग्णकों में
सख्ती, क्षोम अथवा दाह और बाढ़ ।

२--शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों पर नये रुग्णक उत्पन्न होना ।

३--अस्वस्थता, ज्वर इत्यादि।

प्रतिक्रिया के लक्षणों का स्वरूप रोग के प्रकार के हिसाब से बहुत
बदलता हूँ । सौम्यकुष्ठ में साधारणतः पुराने रुणक सख्त और लाल
हो जाते हें। उनमें वर्तुलाकार वृद्धि होती है। भिन्न-भिन्न अवयवों पर
ललाई लिये हुए नये रुग्णक होते हैं । कुष्ठविकृत मज्जातंतु की सख्ती और
दाह बढ़ता हैं । इसके कारण वेदना होती है, स्परशंशन्यता में वृद्धि होती
है । पर, सर्वे शरीरगत अस्वस्थता, ज्वर वगेरा आम तौर से नहीं होता
या बहुत थोड़े प्रमाण में होते पाये जाते हैं ।

१, इष्ट को लेना अनिष्ट को छोड़ना, पेशी की इस क्रिया को
मेटाबे लिज्म कहते हें । उसीका अनुवाद “चयापचय किया गया हे।


कुष प्रतिक्रिया ७३


कालकुष्ठ प्रकार के रोगी में जब प्रतिक्रिया होती है तब त्वचा और
इलेष्मल त्वचा के रुग्णक लाल, सख्त और कभी-कभी ब्रणयुक्त होजाते
हैं । नई गांठ उठती हैं। त्वचा और उसके नीचे के पेशीजाल में अन्त:सेक
फैलता हूँ। इलेष्मलत्ववा और आंखों के रुग्णकों के लक्षणों में वृद्धि
होती है। इस खराबी के साथ-साथ उष्णतामान का बढ़ना, अंगों में
लहर उठना, सिहरन होना, थकान--ग्लानि जान पड़ना, इत्यादि सारे
शरीर पर असर डालनेवाले लक्षण भी होते हें। ज्वर साधारणत:
दोपहर को ३ से ५ बजे के बीच में कुछ ज्यादा रहता है, यह उसकी एक
विशेषता होती हैं ।

कोढ़ के मज्जातांत्वीय प्रकार में जब कुष्ठ-प्रतिक्रिया होती है तब
लक्षणों में एकबारगी क्षोभ और वृद्धि होती है। पर विक॒त भाग में
कुष्ठजंतुओं की संख्या में कोई वृद्धि नहीं पाई जाती । इसे “अलेजिक'
रूप की मानने के लिए यह लक्षण पूर्ण प्रमाण है । उसमें कुष्ठजंतु अथवा
तज्जन्य द्रव्य को सहन करने में शरीर असमर्थ हो जाता है या नाजुक
हो गया जान पड़ता है। हमेशा तो नहीं पर बहुत बार रोग-निर्भयता
(इम्युनिटी ) में वृद्धि होती है। अवयवों में की दाहजनक खराबी बराबर
के लिए चली जाती है, अथवा बहुत कालूतक फिर नहीं होती । मज्जा-
तंतुओं के लिए अलबत्ता जबरदस्त और स्थायी खतरा होने की सम्भावना
रहती ह । उलटे कभी-कभी तो मज्जातांत्वीय प्रकार में प्रतिक्रिया के
कारण रोग बढ़ने लगता हैं| इतना ही नहीं उसके कालकुष्ठ के दायरे में
भी जाने की संभावना रहती है ।

कालकुष्ठ प्रकार में प्रतिक्रिया के बाद रोग-निर्भवता बढ़ने की
अथवा रुग्णकों के सुप्त अवस्था में जाने की बात साधारणतः नहीं
देखी जाती। उलठटे प्रतिक्रिया के बाद प्रतिक्रिया-सी होती हैं। रोगी'


७४ कोढ़


धीरे-धीरे क्षीण होता रहता है, उसकी हालत उत्तरोत्तर बिगड़ती जाती
है । खयाल है कि कालकुष्ठ में संस्गं-केंद्र (लेप्राटिक्‌ फोकस्‌ ) के फूटकर
दरीर में फंलने से यह प्रतिक्रिया होती होगी ।

आरोग्य सुधर कर प्रतिकार-शक्ति के पूब॑ंवत्‌ होने या बढ़ने पर
कोढ़ी में एक प्रकार की प्रतिक्रिया होती है, इसका उल्लेख पहले हो चुका
हैं । यह आरोग्यस्थापनारूपी (रिकवरी) प्रतिक्रिया उपयुक्त प्रतिक्रिया से
भिन्न होती हैं। इसका भेद समझ रखना चाहिए । एक प्रतिकार-शक्ति
के घटने की वजह से होती है, दूसरी प्रतिकार-शक्ति के बढ़ने लगने के
कारण होती ह ।

कुष्ठ-प्रतिक्रिया के संबंध में ध्यान में रखनेवाली एक और
ज़रूरी बात हैं। प्रतिक्रिया कोई टिकाऊ अवस्था नहीं होती हैँ । बिना
किसी खास उपचार के भी थोड़े समय के बाद वह साधारणतः अपने आप
दब जाती है। रोगी प्रतिक्रिया के पूर्व जिस दशा में था, फिर बहुधा
उसी दशा में हो जाता है। इस बात पर गौर न करने के कारण बहुत
बार गड़बड़ हो गई हैं । प्रतिक्रिया शीक्रपरिणामी (अक्यूट) अथवा
जीर्ण-विलंबी (क्रानिक) स्वरूप की भी हो सकती है ।





चौदहवां प्रकरण


कोठ की वृद्धि ओर उतार का क्रम


हिन्दुस्तान में कोढ़ की हमेशा नहीं तो प्राय: सौम्यकुष्ठ से शुरु-
आत होती है और उससे आगे नहीं ब्रढ़ता है । थोड़े से उदाहरणों में
कुछ सप्ताह या कभी-कभी कुछ वर्ष बीतने पर कालकुष्ठ के रुणणक पैदा
होते हें । इतनी तरक्की कर लेने पर रोग बहुधा धीरे-धीरे बढ़ता रहता


कोढ़ की वृद्धि ओर उतार का क्रम ७४


है । सारे शरीर पर की त्वचा विक्रृत हो जाती है। बीच में कोढ़ी सहचारी
रोगों के पंजे में न पड़ा तो कालांतर में कोढ़ का अपने आप चले जाने की
ओर रुख रहता हूँ । रोग-संसर्ग नष्ट हो जाता है; शरीर पर व्यंग्यता और
दाग भर रहता हैं। कोढ़ की सभी द्शाओं में रोग को नियंत्रित
करने की यह प्रवृत्ति होती है। जिन उदाहरणों में सौम्यकुष्ठ के छोटे
दाग होते हैं, उनमें थोड़े समय में ही इस प्रकार रुकाबट हुई दिखाई
देती है । कालकुष्ठ के जोरदार उदाहरणों में रोग का सम्पूर्ण क्रम ३०
से ४० वर्षों का होता हे।॥ उसके बाद रोग-संसर्ग नष्टप्राय होने की
संभावना रहती है । परंतु इस हालत को पहुंचने के पहले ही दूसरे सह-
चारी रोगों की या अशक्तता की वजह से रोगी का देहान्त हो जाता हैं।

जब कोढ़ का उतार होने लगता है तब सूक्ष्म कणों से बना हुआ
(ग्रन्युर ) पेशीजाल धीरे-धीरे नष्ट होकर उसके स्थान पर ख्वेततंतु
(फायब्रस ) पेशीजाल पैदा होता है । ज्यों-ज्यों रुणणक पतले होने लगते हैं
त्यों-त्यों यह श्वेततंतु पेशीजाल सिकुड़ता जाता है । सौम्यकुष्ठ के दागों
की बाढ़ मारी जाती है। ये पतले पड़ जाते हें और उन पर खरोंट आजाता
है । वर्ण और संवेदन में का ह्यस मात्र विशेष स्थायी होता हैं ।

इवेततंतु पेशीजाल उत्पन्न होने की क्रिया के कारण (फायब्रासिस)
मज्जातंतुओं की मोटाई नष्ट हो जाती है, उल्टे वे बारीक हो जाते हैं ।
उसके संबंध से मज्जातंतुओं के पेशीजाल को दूसरा आघात भी रूग
जाता है । स्पर्शशून्यता में और पोषण विषयक रुग्णकों में उलटे प्रत्यक्ष
वृद्धि होने की भी संभावना रहती है ।

कालकुष्ठ प्रकार के रुग्णकों के सुधरने में त्वचा में के रोग का अन्तः-
सेक धीरे-धीरे विनष्ट होता जाता हैँ । श्वेततंतु पेशीजाल उत्पन्न हो जाते
हैं । पतलापन आता है | त्वचा में सिकुड़न पड़ जाती है और कुष्ठजंतु


७६ कोढ़


क्रमशः नष्टप्राय हो जाते हैं। इलेष्मलत्वचा और दूसरे कुष्ठविकृत पेशी-
जालों में भी ऐसा ही परिवर्तन हो जाता है।


«० अचल टफमयनना_लननमकमलकमनवमणल-मनपनाद,


पन्द्रहवां प्रकरण
कोठ का निदान € रोग-निएंय )


रोग-संसर्ग होने के बाद रोग कंसे-कंसे बढ़ता जाता है, उसके कौन-
कौन से लक्षण किस-किस अवयव में दिखाई देते हैं, उसमें चढ़ाव-उतार
होते हुए कौन-सा फके पड़ता है, इन सब बातों का पहले विस्तार-पूर्वक
विवेचन किया गया है । किसी अन्य रोग के निदान में या उस रोग का
प्रकार तय करने में जेसे रोगी की संपूर्ण परीक्षा की जाती है, वैसी ही
कोढ़ी की भी की जानी चाहिए । कोढ़ में बाह्य प्रकट लक्षणों से,सूक्ष्म-
दर्शंक-परीक्षा और सूक्ष्म शरीरशास्त्र-दुष्टि-परीक्षा के आधार पर रोग-
निर्णय किया जाता हैँ । कोढ़ के निदान में उपयोग में आनेवाली रक्‍त-
जलविषयक (सीरालाजिकल ) परीक्षा अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है ।
यह पुस्तक किसी डाक्टर या वेद्य के लिए नही बल्कि सर्वेसाधारण जिज्ञासु
नागरिकों के लिए है, अतः उन्हें एक सूचना देना जरूरी हैं । कोढ़ का
निदान करना बड़ी जोखिम का काम है । जो इसके जानकार हैं उनके
सिवा दूसरों को कभी यह नहीं कहना चाहिए कि अम्‌क को कोढ़ है ।
शंका होने पर स्वयं सावधान रहना चाहिए। उसे फौरन डाक्टर से जांच द
कराने की सलाह देनी चाहिए। बहुत बार सिर्फ कोढ़ का नाम सामने
आते ही रोगी को धक्का लगता हैँ। इसलिए अनधिकृत लोगों को निर्णय
नक्रीं करना चाहिए. यह दोनों पक्षों के लिए द्वितकर हे ।


कोढ़ का निदान (रोग-निणय) ७७.
महारोग के निर्णायक लक्षण


कोढ़ का निदान करने में निर्णायक ( काडिनल ) लक्षण सिर्फ
तीन ही हें-(१) पृष्ठीय संवेदना में हवस, (२) मज्जातंत्‌ की सख्ती और
(३) सूक्ष्मदर्शंक-परीक्षा में कुष्ठजंतुओं का पाया जाना । इनपर जितना
जोर दिया जाय उतना ही कम हूँ। यह मुख्य नियम हैं कि इन तीन
लक्षणों में से कोई न मिले तो कभी कुष्ठ रोग नहीं मानना चाहिए ।
दायद ही कभी इस नियम का उल्लंघन होता हैं। पर ऐसे अपवाद
प्रसंगों में खास कारण अथवा परिस्थिति होती है । इसका निर्णय करना
विशेषज्ञों का काम हैं । कोढ़ से कितना भी हबहू मिलनेवाला उदाहरण
क्यों न हो, इन तीन लक्षणों में से कोई एक-दो निश्चय रूप से मिले
बिना कभी रोग-निर्णय नहीं करना चाहिए । ये तीन लक्षण कंसे ठहराने
चाहिए, इसका तरीका नीचे लिखे अनुसार है ।

१. पृष्ठीय संवेदता में हग्स--संवेदना में स्परश-संवेदना, सुख-दु:ःख-
संवेदना और शीत-उष्ण-संवेदना इन तीनों की परीक्षा करनी चाहिए ।
यह संवेदना का हमस प्रत्यक्ष दागों पर अथवा अवयवब से बिलकुल
दूर के अंग पर होता हैं । इस बात का खयाल रखना चाहिए कि बहुत
बार स्पशेशून्यता अधूरी होती है, पूर्णहप से नहीं होती कुछ रुग्णकों में
वह स्पष्ट होती है, कुछ में नाममात्र को होती है । स्पशेशन्यता जांचने
के लिए बिल्कुल पतले कागज का तिकोना टुकड़ा, पांख या बत्ती की
तरह बटी हुई रुई लेनी चाहिए । रोगी की आंखों पर पट्टी बांधे या
मंदने को कहें । फिर निरोगी और संशयित त्वचा को उलट-पलटकर
स्पर्श करें और रोगी को अंगुली लगाकर बताने को कहें । अगर रोगी
बताने में गलती करने लगे तो स्परश-संवेदना में खराबी होगई है यह मानने
में हर्ज नहीं हैं। कभी-कभी इस प्रकार बार-बार परीक्षा करनी पड़ती


८ कोढ़


है । रुग्णक के बिचले हिस्से और किनारे के हिस्से में स्पर्शज्ञान एक
सरीखा हैं या नहीं यह देखना चाहिए | बहुत बार स्पर्शज्ञान तो होता हैं
पर सुख-दुःख-संवेदना में खराबी आगई रहती है । इसके लिए एक-
से सिरेवाली दो आलपीनें लेकर ऊपर बताये अनुसार जांचें। शीत-
उष्ण का .भान है या नहीं इसकी जांच के लिए दो नलियों में अलग-
अलग गरम और उंढा पानी लेकर ऊपर के ढंग से जांचें। बहुत बार
रोगी का जबानी जवाब विश्वसनीय नहीं होता । परीक्षक को अपने
निर्णय को ही प्रमाण मानना चाहिए। छोटे बच्चों के बारे में सही
उत्तर मिलना सम्भव नहीं है । ऐसे मौकों पर निर्णय को टाल देना
चाहिए ओर बारंबार देखना चाहिए । यह न भरे कि भौंह के भाग में
और सख्त त्वचा के अवयवों का स्परशंज्ञान हमेशा ही कम होता है ।

२. मज्जातंतु में सख्ती--एकाध बहुत कम ही कभी-कभी दिखाई
देनेवाले ऐसे-वेसे रोगों को छोड़कर कोढ़ के सिवा किसी रोग में
मज्जातंतु सख्त नहीं होते । इसलिए कोढ़ को पहचानने का यह उत्तम
साधन हूँ । पर दुर्भाग्यवश यह सख्ती पहचानना विशेषज्ञों के लिए भ्री
बहुत ब्रार मुइकिल होजाता है । शरीर में मज्जातंतु के बंटवारे का
ज्ञान प्राप्त कर लेने पर दीघ अनुभव से यह पहचान आ सकती है ।
सख्त होने की शंका होने पर दोनों अंगों के मज्जातंतु की तुलना करनी
चाहिए । दोनों सख्त हों तो उसी आकार के दूसरे मनृष्य के मज्जातंतु
से तुलना “करनी चाहिए । इसके बिना निर्णय नहीं करना चाहिए |
अनुभव के बिना ऐसे मौकों पर निर्णय करना मुश्किल होता है ।

३. सृक्ष्मदर्शंक-परीक्षा में कुष्ठजंतु का सिलना--सूक्ष्मदर्शक-परीक्षा
करने का काम विशेषज्ञों का है। साधारण पाठकों के लिए उस रीति
के वर्णन की जरूरत नढ़ीं ढे । पर यह्र परीक्षा कब करनी जरूरी


कोढ़ का निदान (रोग-निशुय) ७६


हैं कब नहीं, यह सबको जानना चाहिए । ऐसे ही किस प्रकार में
वह साधारणत: अस्तिपक्ष में होती हैँ अथवा नहीं होती इसकी जानकारी
रहना भी उपयोगी हैँ । यह परीक्षा कोढ़ का निदान करने की अपेक्षा
रोगी सांसगिक हैं या नहीं इस निश्चय में अधिक उपयोगी हँ । निदान
करने में हमेशा उसका उपयोग नहीं होता; और न जरूरत ही है । किसी
रुग्णक में किस प्रमाण में साधारणत: जंतु पाये जाते हें इसका उल्लेख
पहले किया जा चुका हें।
अपवादात्मक उदाहरण

कोढ़ के कुछ अपवादात्मक उदाहरण ऐसे पाये जाते हें कि जिनमें
ये मुख्य निर्णायक तीनों लक्षण नहीं होते या संशयग्रस्त होते हैँं। छोटे
बच्चों के बारे में ऐसा अनेक बार होता हे । यह पहले बतलाया जा
चुका हैं । ऐसे प्रसंगों पर विशेषज्ञ ही निर्णय कर सकते हें। कुष्ठ-
रोगी की सोहबत से उत्पन्न कुष्ठ में ( संसृष्ट में ) कुछ अधूरे लक्षण
पाये जायं तो साधारण पाठकों को चाहिए कि फौरन उसे उचित
परीक्षा करा लेने को कहें, उसमें आलस्य न करें। समाज में से कोढ़
को नेस्तनाबूद करना हो तो जहांतक संभव हो शीघ्य निदान होना चाहिए,
तभी सफलता की आशा हूँ । इसपर जितना जोर दिया जाय कम हैं ।

भेदकारी चिकित्सा ( डिफरेन्शियल डायग्नोसिस )

निर्णायक लक्षण तय करने के बाद कोढ़ सरीखे दिखाई देनेवाले दूसरे
रोग कौन से हें और उनमें क्‍या भेद हें इसका विचार करना आवश्यक हूं ।
क्योंकि दूसरे रोगों में भी ऐसे ही बाह्य लक्षण मिलने संभव हें। उनका भेद
समझ में आये बिना रोग-निर्णय नहीं हो सकता । उदाहरणार्थे, शेरणी
रोग में त्वचा पर फीके सूक्ष्म दाग हो जाते हें। पर उनमें स्पर्शज्ञान
रहता है, पसीना आता हू, बाल भी पाये जाते हैं। 'पीछे कोढ़' रोग


८० कोढ़


के बारे में तो बहुत बार गलतियां होती हैं । इसकी वजह से उसका
“हवेत कुष्ठ' यह गलत नाम पड़ गया है। पर कोढ़ के साथ उसका कोई
भो संबंध नहीं हैँ । यह उपर्युक्त विवेचना के आधार पर भलीभांति
परीक्षा करने पर सहज में समझ में आ सकता हैँ। गजकर्ण
के चकत्तों के बारे में भी देहाती लोग बहुत बार गड़बड़घोटाला
कर देते हैं। गर्मी के चकत्ते या घाव भी बहुत बार कोढ़ जेसे दिखाई
देते हैं। पर उनमें कोढ़ के मुख्य लक्षण नहीं पाये जाते । कई बार
जरूम या चोट के कारण किसी हिस्से का स्पर्शज्ञान जाता रहता
है पर उसमें कोढ़ के दूसरे लक्षण नहीं होते हैं ॥ केवल स्पर्शज्ञानशुन्य
त्वचा के कारण उसे कोढ़ कहना उचित नहीं हें। दूसरे कारणों से
लकवा होकर हाथ-पैर अथवा चेहरे के हिस्से कोढ़ जंसे दिखाई दे
सकते हें पर रोग का इतिहास सुनने पर या भलीभांति परीक्षा करने पर
कोढ़ के दूसरे लक्षण नहीं मिलेंगे । कुछ स्त्रियों के हाथ रसोई बनाते
हुए जल जाने से कोढ़ियों की पंजाकृति सरीखे दीख पड़ते हैँ, केवल
इसी वजह से उसे कोढ़ी कहना गलत बात हैं। बहुत बार कोढ़ के
चुकत्तों को छिपाने के लिए तेजाब अथवा दूसरे मांसदाहक (कास्टिक )
पदार्थ लगा देने से शक्ल बदली हुई दिखाई देती है। पर ऐसों में मज्जातंतु
के लक्षण ज्यों-के-त्यों मिलेंगे। नपुसकत्व प्राप्त मनुष्य का चेहरा कुछ
कोढ़ी-सा दिखाई देता हंं। पर कोढ़ के मख्य लक्षण उसमें नहीं होते ॥
बहुत बार दो अथवा अधिक रोग एकत्र हो सकते हैं । उदाहरणार्थ, एक
चकत्ता गजकर्ण का होता हैं और बाकी २-३ कुष्ठ के होते ह। इसलिए
सारे शरीर की संपूर्ण परीक्षा करने में कभी आनाकानी नहीं करनी
चाहिए । रोगी का शरीर जहांतक संभव हो नंगा करने में संकोच नहीं
करना चाहिए। इसके बिना उचित परीक्षा नहीं हो सकती । गप्त


रोगियों का वर्गीकरण


भागों की जानकारी पूछकर प्राप्त कर लेनी चाहिए | बंगाल, आसाम
'की ओर पाया जानेवाला 'डमंल लिशमनियासिस्‌ नामक रोग हूबहू कोढ़
सरीखा दिखाई देता है । इसका सूक्ष्मदर्शक-परीक्षा से फौरन निर्णय हो
जायगा । सुरमा (सोरियासिस) भी एक ऐसा ही रोग हैँ । इधर वह
बहुत कम मिलता हैं। उसके चकत्तों पर रुपहली-सी सूक्ष्म पपड़ी होती
है। ऐसे ही अनेक रोगों का विचार भेदकारी चिकित्सा की दृष्टि से
करना जरूरी है। पर वह साधारण पाठकों की मर्यादा के बाहर है।
साधारणतः दाग--चकत्ते, संवेदन में खराबी, कुष्ठग्रंथि और व्यंग्यता के
बारे में समानता दिखाई देती है । मुख्य तीन लक्षणों की खोज करने से
भेद समझ में आ जायगा, और रोग-निर्णय सुलभ हो जायगा ।





सोलहवां प्रकरण
रोगियों का वर्गीकरण


सौम्य और कालकुष्ठ के नाते रोगियों के भी दो प्रकार होते हें ।
जिस रोग में सब रुग्णक केवल मज्जातांत्वीय कुष्ठ के होते हैं, उसे
मज्जातांत्वीय कहते हैं। एकाध रुग्णक भी कालकुष्ठीय स्वरूप के होने
पर ऐसा रोगी 'कालकुष्ठीय' कहलाता हैं । ऐसे रोगी में फिर मज्जा-
तांत्वीय प्रकार के दूसरे कितने ही रुग्णक क्‍यों न हों इसकी परवाह नहीं
की जाती ।

वर्गीकरण करने में 'म' (मज्जातांत्वीय) और 'क' (कालकुृष्ठोय )
इन संकेताक्ष रों (सबल) का उपयोग किया जाता है| उसीके साथ
रोग की बढ़ती के प्रमाण की कल्पना देनी आवश्यक होती है। इसके
लिए १, २, ३ इन अंकों का उपयोग करते हैं। अंक १ एक छोटे-से स्थान-


पर .._कोढ़


बद्ध रुग्णक को बतलाता हू, अंक ३ सर्वत्र फैले हुए प्रगत रुणणक बत-
लाता है और अंक २ इन दोनों के बीच की हालत जाहिर करता है ।
इस प्रकार के वर्गीकरण का बिलकुल सीधा-सादा प्रकार है म,, म,, म,
और क,, क,, क, ।

रोग के स्वरूप की ज्यादा सूक्ष्म जानकारी के लिए इस सादे वर्गी-
करण का विस्तार करना पड़ता है। इसकी दो पद्धतियां हें । जिस रोगी
में दोनों प्रकार के ₹्ग्णक जिस प्रमाण में मिलते है उससे प्रकट करने-
वाले अंकों के साथ इन दोनों संकेताक्षरों का उपयोग एकत्र करने की
एक पद्धति है । उदाहरणार्थ, क, म, इससे मालूम हुआ कि रोगी में
कालकुष्ठीय रुग्णक मध्यम प्रमाण में हें और मज्जातंतु के विक॒त होने
से पैदा हुई स्पर्शशून्यता मध्यम प्रमाण में । उससे कुछ आरंभिक व्यंगता
का बोध भी हो सकेगा । ।

अधिक सूक्ष्म रीति से वर्गीकरण करने की दूसरी पद्धति हे मुख्य
प्रकार के सामने उसके उपप्रकार का पहला अक्षर लिखना । 'मंडलीय'
और 'स्पशेंशून्य' इसके अथवा 'सादे' और सूक्ष्म ग्रंथिल'मंडलीय उपप्रकार


का वर्णन पहले किया जा चुका हैं। इसे दर्शाने के लिए गम व मा सू


चिन्हों का उपयोग करते हें। उसके आगे प्रमाण दरसाने को १, २,
३ अंक ऊपर बतलाये तरीके से रखते हें । उदाहरणार्थ म.. इससे



मज्जातांत्वीय प्रकार के दो-एक छोटे-से दागों के होने का पता चलता
है। म.. इससे रोगी के मज्जातंतु का मुख्य स्तंभ बड़े प्रमाण में विकृत



होगया है, दाग दिखाई न देकर त्वचा के बहुतेरे भाग पर स्पर्श-शून्यता
है, वेधक ब्रण पड़ने सरीखी पोषण विषयक खराबी भी होगई है, इत्यादि
बातें दिखाई जाती हें ।


रोगियों का वर्गीकरण ८३


वर्गकरण के संबंध में एक बात विशेष साफ करने की हैं। जिस
रोगी में मज्जातांत्वीय और कालकुष्ठीय दोनों रुग्णक मिले उसे काल-
कुष्ठीय वर्ग में ही डाला जायगा, चाहे कालकुष्ठीय रुगण्णक एकाध ही हों
और मज्जातांत्वीय अनेक । साध्यासाध्य-विचार, उपचार और रोगदप्रति-
बंधक इलाज की दृष्टि से कालकुष्टीय रुग्णक का पाया जाना अधिक
ध्यान खींचनेवाली बात है । वर्गीकरण करते हुए उस्ते प्रमुखता मिलनी
चाहिए .। उदाहरण के लिए क, म, लिखना चाहिए, म, क, लिखना
ठीक नहीं है । संक्षेप में कोढ़ का नोचे लिखे अनुसार वर्गीकरण होगा :--


कोढ़
लाश
सौम्य अथवा मज्जातांत्वीय कालकुष्ठ
हि
मंडलीय स्पशंशून्य
| हल
। के
सादा सुक्ष्मगग्रंथिल
|
। |
गौण प्रधान


कोढ़ के हमेशा मिलनेवाले उदाहरणों के वर्गीकरण में कोई कठि-
नाई नहीं होती । बहुत बार भिन्न तरह के उदाहरण मिलते हें, तब उनका
वर्गीकरण आसान नहीं रहता । कुछ सोम्यकुष्ठ के और कुछ कालकुष्ठ
के अध्रे लक्षण किसी किसी रोगी में एकत्र मिलते हें । उसमें संवेदना के
बदले हुए स्थानबद्ध दाग और सख्त मज्जातंतु मिलेंगे, पर उसीके साथ


न कोढ़


रे


अस्पष्ट उभार होगा और सूक्ष्मदर्शक-परीक्षा में थोड़े कुष्ठजंतु दिखाई
देंगे। ऐसे उदाहरण अकसर पाये जाते हेैं। ऐसे रोगियों में कुछ ज्यादा
दिनों तक मज्जातांत्वीय प्रकार में रहने के बाद जांच के समय कालकुष्ठ
में जाने की तंयारी में होते हें । कुछ सिफं मज्जातांत्वीय प्रकार के होते
हैं । ऐसे मौक़ों पर एक ही बार की परीक्षा से उनका यथार्थ वर्गीकरण
करना असम्भव होगा । ऐसे में नियमित समय पर बारंबार परीक्षा और
दीघे अवलोकन करने की आवश्यकता हैं ।

उपयु क्‍त वर्गीकरण प्रकट-रोग लक्षण की दृष्टि से किया गया है ।
पर कानूनी या समाज-नियम की दृष्टि से रोगी सांसगिक हैँ वा नहीं
इसके लिए दूसरी तरह के वर्गीकरण की जरूरत होती हैँ । सूक्ष्मदर्शंक
परीक्षा से इसका निर्णय होता हे । रोगी की त्वचा अथवा इलेष्मल त्वचा
की परीक्षा में कुष्ठजंतु पाये जाने पर वह रोगी सांसगिक समझा जाता
है, न पाये जाने पर उसे “असांसगरिक' मानते हें। कालकुष्ठ के सभी
रोगी सांसगिक होते हें । मज्जातांत्वीय ( सौम्य ) कुष्ठ के बहु-
संख्यक रोगी असांसगिक होते हैं । सौम्यकुष्ठ के थोड़े अपवादात्मक
उदाहरणों में चकत्तों में वा नाक की इलेष्मल त्वचा में कुष्ठजंत्‌ कभी-कभी
मिलते हे । सुक्ष्मद्शंक के एक क्षेत्र में पाये जाने वाले कुष्ठजंतुओं
की संख्या के हिसाब से संकेताक्षरों के आगे--,+, ++, +++ चिन्‍्हों
द्वारा सूक्ष्द्शक-परीक्षा का निर्णय बतलाया जाता है। हाथ-पैर के
'पोरुए टेढ़े होगये हैं, त्रण हें और कुछ जंत्‌ पाये जाते हें, यह म, +-
से मालम होगा ।

उपयुक्त वर्गीकरण-फद्धति साधारण उपयोग के लायक हैँ । रोग
का प्रकार, लक्षणों का स्वरूप और तीकब्रता दिखाने को बह काफी है ।
खास कुष्ठवेत्ताओं के उपयोग के लिए अधिक सूक्ष्म और गृत्थियोंवाली


कुष्ठजंतु का प्रतिकार ८५


निरालो पद्धति का रवाज हे । रोगी की रोग-स्थिति जाहिर करने के
लिए शरीराक॒ृति के चार्ट रखे जाते हें, उसमें संपूर्ण और व्यवस्थित
वर्णन रहता है । हर छठवें महीने नया चार्ट तैयार कर लेने से लक्षणों
में होनेवाले परिवर्तन और चढ़ाव-उतार का ठीक अन्दाजा हो जाता
हैं । उसकी तैयारी दवाखाने के क्षेत्र की बात हैं । तथापि तैयार किये
हुए चार्ट से रोग-स्थिति की कल्पना थोड़े-से अभ्यास से साधारण पाठक
को भी हो सकती हैं ।

पेशीजाल संबंधी कुष्ठजंतु पर होनेवाली प्रतिक्रिया विभिन्न
रोगियों में भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है । इस प्रतिक्रिया का भेद वर्गी-
करण करते हुए ध्यान में रखना चाहिए । वास्तव में इस भेद पर ही
वर्गीकरण निर्भर हैं। संसर्ग का प्रसार, पेशी में संस भिनने का प्रमाण,
त्वचा और मज्जातंतु की विकृति का स्वरूप और व्याप्ति यह सब
प्रतिकार-शक्ति पर अवलम्बित रहता है । वर्गीकरण-पद्धति में नया
परिवर्तन करते हुए रोगी की प्रतिकार-शक्ति का अंदाजा लगाने का
प्रयत्त करना चाहिए । तब वह अधिक सयक्तिक होगी ।


सतरहवां प्रकरण
कुष्ठ जंतु का प्रतिकार


रुग्णक की जांच होजाने, रोग-निर्णय होजाने और वर्ग तय हो-
जाने पर औषधोपचार का विचार करने के पहले इसका अन्दाज कर
लेना चाहिए कि रोगी की प्रतिकार-शक्ति किस दर्जे की है । यदि
वह क्षीण हो तो उसके कारण का भी विचार होना चाहिए। उसकी


८६ कोढ़्‌


ठीक-ठीक कल्पना हुए बिना औषधोपचार समाधानकारक नहीं हो-
सकता । क्योंकि औषधोपचार का मुख्य उद्देश्य हे रोगी का साधारण
आरोग्य सुधारना और उसके द्वारा .रोगप्रतिकार-क्षमता को बढ़ाना ।
अगर रोगी का साधारण आरोग्य खराब और रोग-प्रतिकार-शक्ति
निबंल है तो कोढ़ की सूइयां देना वगैरह खास उपचार करते रहने से
हित की अपेक्षा अहित ही होने की संभावना अधिक रहती है।

प्रतिकार-क्षमता का नियमन करनेवाले मुख्य कारण

उत्तम अथवा क्षीण प्रतिकार का रुग्णकों पर कंसा नतीजा होता
है, इसका विवेचन पहले हो चुका है। क्षीण प्रतिकार के मुख्यतः: तीन
कारण हें--(१)-कोमल वयस, (२)-अशक्तता और (३)-शरीर में
कुष्ठजंतुओं का बेहद बढ़ना । इसके विपरीत कुष्ठजंतुओं का थोड़ा-सा
संसर्ग होने पर उसके प्रतिकार करने की शरीर की शक्ति बढ़ जाती हैं,
यह बात स्मरण रखने योग्य है ।

छोटे बच्चों को इस रोग के संसर्ग का डर अधिक-से अधिक हैँ । यह
बात पहले से मालम हो चुकी है । कुष्ठी के सहवास में रहनेवाले बच्चों
में सेकड़े ४०-५० को रोग लगा पाया जाता है । वही प्रौढ़ावस्था में सेंकड़े
४-५ को होता है । लेप्रालिन्‌ ' परीक्षा के आधार से भी यही बात प्रकट
होती हैं । बालक की एक साल की अवस्था में सबसे ज्यादा डर रहता है ।


१. लेप्रालिन परीक्षा--मरे हुए कुष्ठजंतुओं को बहुत महीन पीस-
कर उनकी बुकनी कर ली जाती हे। उसे नमक के घोल (सोल्यूशन) में
मिलाते हैँ । उसमें थोड़ा कारबोनिक एसिड डालते हैँ। यह तैयार किया
हुआ द्रव्य सूई से त्वचा में देते हें । त्वचा के नीचे नहीं जाने देते । स्‌ई
देने के लिए केहुनी का ऊपरी हिस्सा पसन्द करते हें । जिनमें अच्छी
प्रतिकार शक्ति होती हे उनके इस सुई वाली जगह पर एक गांठ निकल


कुप्तजंतु का प्रतिकार ८७


अशक्तता दूसरा कारण है । सहचारी रोग, अयोग्य और अपूर्णं
आहार अथवा शरीर को कमजोर करनेवाले अन्य कारणों से वह होती
है। प्रत्यक्ष कोढ़ के कारण विशेष प्रमाण में अशक्तता पैदा होना
जरूरी नहीं है। परन्तु उसके दीघेंक्रम में बहुत उथलू-पुथल और
खराबी हो जाती है । उसकी वजह से काफी कमजोरी आ सकती है ।

देखा जाता है कि थोड़े कुष्ठजंतु शरीर में प्रवेश करने पर उनका
प्रतिकार करने की पेशीजाल की शक्ति बढ़ जाती है । निकट के कुष्ठ-
जंतुओं को निगलकर खात्मा करने की क्रिया पेशी जोर से करने
लगती हैं । पर एक खास हद से अधिक जंतु जब शरीर में बढ़ जाते
हैं तब उसका नतीजा उलटा हो जाता हैं| पहली दश्षा में कुष्ठ-जंतुओं
का प्रतिकार करने की शक्ति बढ़ने लगती है । दूसरी में उलटे कम
हो जाती है । पेशीजाल कुष्ठजंतुओं का प्रतिकार करने के बजाय उन्हें
सहन करने लगते हे। इसीकी वजह से कालकुष्ठ में एक प्रकार का
अनथंपरम्परा का चक्र चाल रहता है । प्रतिकार-शक्ति कम होते
ही जंतुओं की संख्या बढ़ने लगती हैँ और जंतु बढ़े कि फिर प्रतिकार-
शक्ति कम होती है । उसका नतीजा यह होता हूँ कि जन्तु अधिक जोर से
बढ़ने लगते हें । इसलिए यह विशिष्ट मर्यादा पहुंचने के पहले ही रोग की
रोक होना बहुत जरूरी हैँ । शरीर की पेशियों के कुष्ठजंतुओं को सहन
करने लगने के पहले ही रोग की गति कमजोर होनी चाहिए ।


आती हे । अद्क्त अथवा क्षोण प्रतिकार वालों में गांठ नहीं उठती।
दूसरे सप्ताह से आठवें सप्ताह तक इस गांठ के आकार को कालोपास
कंपास (कलिपसं)“से नापते हें। उसके तारतम्य के अनुपात से प्रतिकार-
शक्ति का अनुसान किया जाता हैँ । इधर लेप्रालिन के बदले इस
परीक्षा का नाम लेप्रामिन कहा जाने लगा हैँ । “लेखक


ज्ड कोढ़


रोगी की प्रतिकारक्षमता का अंदाज लगाना

यह अंदाज लगाने के लिए रोगी की जांच करते हुए नीचे लिखें
हुए विषय ध्यान म रखने चाहिए :--
१--रोग का काल, (यह उसके इतिहास से मालम हो जाता है) । रोग
बढ़ने अथवा कम होने की गति का प्रमाण । (रुप्णक बहुत बार
अनेक वर्षो तक सुप्त रहते हें, अथवा अचानक एकबारगी विलक्षण गति
से बढ़ने लगते हें। रोगी की प्रतिकार-शक्ति में परिवर्तन होने पर ऐसा
होना सम्भव हूँ ।)
२--रुग्णकों की संख्या, आकार और प्रकार (सौम्यकुष्ठ में उत्तम प्रति-
कार होता है; कालकुष्ठ में कमजोर होता है ।)
३-रोगी का सामान्य आरोग्य; शरीर कमजोर करने वाले सहचारी
रोग; आहार की योग्यता और प्रमाण; सामाजिक परिस्थिति और
आदतें; व्यायाम, दशरीरिक परिश्रम; विशेषकर रोगी की मानसिक स्थिति
(इसमें आकलन शक्ति, निरोग होने का इच्छाबल, बराबर बिना घबराये
दीर्घ और त्रासदायक उपचार लिये जाने की मन की तैयारी का भी इस
बात में विचार करना चाहिए।)
४--लेप्रालिन परीक्षा प्रतिकार शक्ति की जांच के लिए उपयोगी हे।
उससे पेशी की प्रतिक्रिया और इस तरह प्रतिकार क्षमता का पता चल
जाता है ।
५--सेडिमेंटेशन परीक्षा ' करना भी उपयोगी है । साधारणतः रोगी की


१ सेडिमेंटेशन परीक्षा:--एक पिचकारी में ०३ घ. सें. सोडियम्‌-
सिद्रेट का घोल लेते हें। उसीमे रोगी की अशुद्ध रक्तवाहिनी में से
(नीले में से) १२ घ. से रक्‍त खाँच लेते हें । फिर वह एकत्र मिलाकर
एक पिपेट (कांच की सुक्ष्म नली) में भर लेते हें। इस पिपेट के ऊपर


कुष्तजंतु का प्रतिकार ८६


अशक्तता बढ़ने लगने और प्रतिकारशक्ति कम होने लगने पर सेडिमें-
टेशन दर्शक (इन्डेक्स) चढ़ने लगता है ।

अनुभव, आग्रह और समय हुए बिना प्रतीकारशक्ति का अन्दाज
एकदम नहीं लगाया जा सकता । उपचार शुरू करने के पहले या उप-
चार चाल रहते बीच-बीच में इसका विचार करना चाहिए । उपचार
कितनी मात्रा में ( डोज में ) देना, कहांतक बढ़ाना अथवा कब बन्द
रखना यह ते करने में भी इसका उपयोग होता हैं।


न्‍कलधपपपइनलाक्‍८पाथाडाए डक अहम ताक कवर नानक,


से नोचे तक १०० भाग किये हुए होते हें। ऊपर के भाग में ०
निशान बना रहता हे । नीचे से ० इस निशान तक रक्‍त मिश्षित व्रव्य
लेने से वह १ घ. सें. भरता हे। इस पिपेट को एक रबर के स्टेड में खड़ा
कर देते हैं। १॥ घण्ट में उसे देखने पर रक्त के गोलक अलग होकर नीचे
तह में कचड़ा जमा हुआ दिखाई देता हे। ऊपर का हिस्सा पानी के समान
रंग रहित रहता हूँ। फिर एक घंटे भर उस पिपेंट को वेसे ही रख-
कर देखने से लाल कचड़े का भाग नीचे खिसका हुआ दिखाई देता
है । दोनों बार के नली पर के अंक मिलाकर उसका अनुपात निकालते
हैं, इसे सेडिमेंटेंशन दर्शक (इन्डेक्‍्स ) कहते हें । इस परीक्षा से प्रतिकार
शक्ति घटी हूँ कि सुधरी हे, इसका पता चलता हैँ। निरोगी मनुष्य
में सेडिमेंटेशन दर्शक ( से. द. ) १० के नीचे रहता है । रोगियों में
वह ८० तक बढ़ा हुआ पाया गया है । रोगी का यह से. द. बीच-बीच
में देखसे रहने से उसकी प्रतिकारशक्ति के उतार-चढ़ाव का अन्दाज
होता रहता हैं । उसके हिसाब से ओषधोपचार में अदल-बदल किया जा
सकता है । डाक्टर के लिए यह परीक्षा मार्ग-दर्शक होती है । पर इसी
पर सारा दार-मदार नहीं रखना चाहिए ।


अठारहवां प्रकरण
कोट का उपचार


उपचार की दिशा
उपचार की दिशा दिखाने के पहले एक बात साफ कर देना आव-


इथक हूं । प्रत्येक रोगी की स्थिति का स्वतंत्र ब्यवस्थित परीक्षण करना
चाहिए और प्रत्येक की ओर व्यक्तिगत ध्यान देना चाहिए, तभी उप-
चार में अधिक सफलता की आशा हो सकती है । उत्कृष्ट उपचार में दो
बातें शामिल हैं: (१) रोगी का साधारण आरोग्य सुधारना और प्रति-
कार-दक्ति का प्रमाण बढ़ाना, (२) साधारण आरोग्य को गिरने न
देकर जो खास ( स्पेशल ) उपचार प्राप्त हो वह जितना बढ़ाया जा
सके उतना बढ़ाना। साधारण (जनरल) उपचार में जिन बातों से
साधारण आरोग्य सुधरता हे उन सब बातों का समावेश होता है ।
सहचारी रोग का दुरुस्त करना भी उसीमें हे । कुष्ठ-प्रतिक्रिया सरीखे
प्रसंग में खास उपचार बन्द करके रोगी को आराम देना और प्रतिक्रिया
को ठंढा होने देना शामिल है । खास उपचार में रोग-संसर्ग को मिटाने
के लिए चालमुग्रा या हिडनोकार्पस सरीखे खास द्रव्यों का उपयोग
किया जाता है ।

साधारण उपचार का महत्त्व भलीभांति नहीं समझा जाता हैँ । उस
पर जितना ज्यादा जोर दिया जा सके देना चाहिए। हम एक आरंभिक
काल के रोगी को जानते हैं, जैसे ही उसे अपने रोग का पता चला उसने
अपने खेत में झोंपड़ी डालकर रहना शुरू किया। शुद्ध हवा में रहना,
खेत पर मेहनत करना, जो मिले वह ताजा भोजन करना, इसे उसने
अपना नियम बना लिया । किसी काम के लिए घर नहीं जाता था। सिर्फ


कोढ़ का उपचार ६१


अन्न घर से मंगाता था । दो बरस बाद उसका रोम बिना किसी दवा के
अच्छा हो चला । वह थोड़ी नीम की पत्तियां खाता था। इसके सिवा
उसने कोई दवा नहीं ली थी। इस उदाहरण में कोई अतिशयोक्ति नहीं
है । उत्तम प्रतिकार हो और रोग आरंभिक दशा में हो तो सिर्फ साधारण
उपचार से भी रोग की रोक-थाम संभव है । दूसरों के लिए भी ऐसा
सुधार संभव हैं । साधारण उपचार को खेत की जुताई कह सकते
हैं। खास उपचार ऊपर से बरसनेवाली वर्षा हे। जुताई न की गई
तो बरसात बेकार हैँ, यह सब किसान जानते हैं । इस बात से साधारण
उपचार का महत्त्व ध्यान में आजाना चाहिए। नावें से १७० आदमियों के
अमेरिका की बस्ती में भेजने का जिक्र पहले आचका है । उस उदा-
हरण से भी साधारण उपचार का महत्त्व समझ में आ जायगा।

पर साधारण उपचार और खास उपचार में व्यर्थ भेद करने की
. जरूरत नहीं है । दोनों एक साथ चल सकते हें । दोनों की उचित मात्रा
और सामंजस्य रखने में सफलता की कुंजी है । यह जान रखना चाहिए
कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं किसी भी खास उपचार का परिणाम
प्रतिकारशक्ति को पहले तात्कालिक कुछ कम करना होता हैं ।

सामान्य उपचार

कोढ़ का उपचार शुरू करने में एक नियम पर अधिक ध्यान देना
चाहिए ! दूसरा कोई भी 'रोग साथ हो तो पहले उसे संभालना चाहिए।
इसके बिना कोढ़ का इलाज शुरू न करें। उपचार शुरू करने पर बीच में
दूसरा राग पैदा हो जाय तो पहले उसकी ओर ध्यान देना चाहिए ।
यथासंभव इस नियम का पालन होना चाहिए। इस बात की बहुत
बार परवा नहीं की जाती । इसके कारण खास उपचार का वास्तविक
परिणाम सामने नहीं आता । जड़ेया, अतिसार, हुद्रकत, मवाद आना,


६२ कोढ़


कृमि रोग, सूजाक, गर्मी ये रोग हिंदुस्तान में कोढ़ के साथ प्रायः मिलते
हैं। अशक्त और बारंबार प्रतिक्रिया होनेवाले रोगियों का खास उपचार
शुरू करना अहितकर है । इसके लिए अनेक महीने और बहुत बार कई
बरस बाट देखनी पड़ती हेँ। ऐसे रोगी पूरी मेहनत लेते हैं .।

क्षय-रोगियों की भांति कोढ़ियों को भी समशीतोष्ण जलवायु अनु-
कल पड़ता है, विशेष नम नहीं । पसीना निकलने की किया में गड़बड़
होने पर और त्वचा में दूसरे विकार उत्पन्न होने पर शरीर की उष्णता
का नियमन करने का काय॑ व्यवस्थितरीत्या नहीं होता । इसलिए
बहुत गर्म और बहुत ठंढे जलवायु में शरीर पर विशेष जोर पड़ता
है । वह प्रतिकूल होता हूँ । उष्ण प्रदेश में जाड़ा शुरू होते ही रोगियों में
सुधार नजर आने लगता है । इसी वजह से ठंढी जगह जाने पर भी
यही परिणाम होता है ।

सामान्य उपचार में आहार का विशेष महत्त्व हैं। वह रोगी के
अनुकूल, युक्त, हलका लेकिन पोषक होना चाहिए। काडलिवर आयल,
थाइरायड, कुछ जीवनसत्त्व (विटेमिन्स) अथवा थोड़ा सीम्य हाइड़ो-
क्लोरिक अम्ल इत्यादि खास कारणों से डाक्टर देते हैं । पर भोजन में बहुत
ज्यादा और बारबार फेर-फार न करके नियमितता रखनी चाहिए ।
बहुत चढ़ाव-उतार और अचानक फेरफार लाभदायक नहीं होता ।

रोगी की दिनचर्या का विचार भी महत्त्व की चीज है । बहुत जोर न
पड़ने देकर शरीर और मन को बराबर काम में लगाये रखना चाहिए।
समय पर योग्य और पूरा विश्राम लेना चाहिए। रोग के लिए फिक्र
करने की आदत छोड़ देनी चाहिए ।

अनुकूल और खुली हवा में नियमित व्यायाम उत्तम आहार के समान
ही जरूरी है। उसमें अति न करे, पर धीरे-धीरे बढ़ावे । स्नायु जितने





ज्त


चित्र --१३ उपचार सुरू करण्यापृर्वीची अवस्था ।








चित्र --१४ २ वर्ष उपचार घेतल्यानंतरची अवस्था ।


कोढ़ का उपचार ६३


मजबूत होंगे उतना ही खास उपचार का अधिक परिणाम होगा, उसी
हिसाब से सुधार भी अधिक होगा । रोगी को आहार, व्यायाम और
नियमित कार्यक्रम के बारे में सनिकों के नियम-पालन की भांति नियम
पालना चाहिए। विशिष्ट प्रकार के व्यायाम अथवा आसन नियमित
रूप से करने से हित होता है ।

रोगी को सेडिमेन्टेशन परीक्षा का फल और अपना वजन बीच-बीच
में देखते रहना चाहिए । इसके घटने-बढ़ने का मतलब समझना चाहिए ।
इसके कारण की भी छानबीन करनी चाहिए। तापमान भी नोट कर
लेना चाहिए। दूसरे कारण से शक्ति में परिवतंन हुआ दीख पड़े तो उसका
भी विचार करना चौहिए ।

रोगी को विषय-संग से दूर रहना चाहिए, उससे शक्ति क्षीण होती
हैँ । परंतु उसके छोड़ने से मानसिक स्थिति न बिगड़ने देने का भी ध्यान
रखना चाहिए ।

अंतिम लेकिन महत्त्व की बात है कि रोगी का मन सदा प्रसन्न
और उत्साही रहना चाहिए । बीसवें प्रकरण में इसका सविस्तर विवेचन
मिलेगा । सामान्य उपचार व्यवस्थित लिया जारहा है या नहीं, यह
बताने के लिए प्रसन्न मन एक कसौटी की भांति हूँ। बुद्धिपू्वक और
स्वेच्छा से रोगी डाक्टर को सहयोग देता है तभी सफलता की आशा रहती
है । सामान्य उपचार का सार इसी सहकाय॑ में है। कोढ़ के संबंध मं
रोगी को अधिक-से-अधिक जितना ज्ञान मिल सके मिलना हितकर


.]


है ।
खास उपचार
अनुभव की कसोटी पर कसी हुई कोढ़ियों के लिए इस समय


अधिक-से-अधिक खास उपचार में काम में लाई जानेवाली दो दवाइयां


६४ कोढ़


हैं, हिडनोकापंस ' अथवा चालमुग्रा तेल । यह सूई से इंजेक्शन के रूप में
खाल में देते हें, स्नायू में भी सूई दी जाने में हज नहीं हैँ। शिरा
में (नील अथवा अशुद्ध रक्तवाहिनी में) नहीं दिया जा सकता । इसी
के साथ इन दिनों एक खास सुई के द्वारा सिर्फ त्वचा में देते हें। स्‌ई इतनी
छोटी होली है कि त्वचा के नीचे नहीं पहुंचती । इन त्वचा में की छोटी
सूइयों का स्पशंशन्य चकत्तों पर अच्छा और तात्कालिक परिणाम जान
पड़ता है । ये दोनों प्रकार की सूइयां ( सूचिकाभरण, इंजेक्शन्स ) साथ
ही ली जाती हें । रोगी की विशिष्ट परिस्थिति के अनुकल ऐसी अधिक-
से-अधिक मात्रा हफ्ते में एक बार लेने का रिवाज अधिक हूँ।पर
थोड़ी मात्रा में दो बार लेने की अपेक्षा अच्छा है कि अधिक-से-अधिक मात्रा
एक बार में ही ले ली जाय । त्वचा की छोटी सुई स्परशंशून्य चकत्तों के
अलावा दूसरी जगह लेने में भी हर्ज नहीं हैं । रोगी को थोड़ी-सी तकलीफ तो
होती हैं । पर रोगी लेने को उत्सुक हो तो कहीं भी दी जा सकती है।
कोढ़ की गांठ पर उसका खासा असर होता है । गांठ दबने लगती हू।

बाह्य उपचार में रोगी के लिए कुष्ठविक्ृत त्वचा पर चालमुग्रा तेल
की मालिश करना और उसपर सूर्य-किरणों का सेवन लाभदायक है।
मोटी, ऊबड़-खाबड़ अथवा विकृत दीखनेवाली त्वचा और कुष्ठग्रंथि
को साफ कर देने के लिए ट्रायक्लोअर असेटिक अम्ल लगाते हैं। उसका
उचित मात्रा में समझकर उपयोग करना चाहिए । वह जहरीला होता है ।

नाक में अनेक रोगियों को सड़ान की तकलीफ होती हैं। उन्हें दिन
में एक-दो बार 'इ. सी. सी. ओ', का फाहा लगाना चाहिए । बदब्‌ आवे

१. इस नाम का एक जंगली पेड़ है। उसके फलों के बीज से यह
तेल निकलता हे। मद्रास, आसाम, ब्रह्मदेश, श्याम, ब्राजिल वगैरा में
थाया जाता है । |


कोढ़ का उपचार ६४५


तो 'क्रोमिक अम्ल' का फाहा अच्छा है। घाव हो तो धोकर बोरिक मरहम
लगानी चाहिए ।

कोढ़ियों के सहवास में रहनेवालों को हाथ वगेरा धोने के लिए
'लायसोल' का घोल उपयोग करना चाहिए। फर्श और लकड़ी का सामान
वगेरा अधिक तीक्ष्ण घोल से धोना चाहिए। लायसोल विषेला पदार्थ है,
मुंह में जाने से बचाना चाहिए ।

उपचार संबंधी उपयुक्त जानकारी साधारण पाठकों को अथवा रोगियों
को होनी जरूरी है। उपचार की पद्धति, द्रव्य, समय, मात्रा का प्रमाण
इत्यादि तज्ज्ञ डाक्टरों को मालम रहता है। यहां उसके ब्यौरे में उतरने
की जरूरत नहीं जान पड़ती । मज्जातंत्‌ की खराबी, विशिष्ट अवयवों
के रुण्णक और कुष्ठ-प्रतिक्रिया के उपचार का ब्यौरा साधारण पाठकों
की मर्यादा के बाहर की चीज हैँ। पीछे वर्णन की हुई प्रत्येक विकति का
उपचार की दृष्टि से विचार होता है, पर यहां उसकी जरूरत नहीं है ।

कुष्ठ-प्रतिक्रिया के बारे में सिर्फ एक सूचना दे देना आवश्यक है ।
उस समय नित्य का खास उपचार, सूइयां बन्द रखनी पड़ती हें, पूरा
आराम लेना पड़ता है । बहुत बार बिना किसी उपचार के केवल आराम
लेने से ही वह अपने आप दब जाती है । लक्षणों के बढ़ने से डरकर रोगी
अधिकाधिक उपचार लेने का विशेष आग्रह करता है । उसका नतीजा
खराब होता हैं। जानकारों की सलाह मिलनी संभव हो तो लेनी
चाहिए । आवश्यकता जान पड़ने पर वह उपचार करेगा । यों, रोगी का
कोठा साफ रखना चाहिए, खान-पान हलका लेना चाहिए. पूरा आराम
लेना चाहिए। उस वक्‍त उपचार करने की परेशानी में बिलकुल नहीं
पड़ना चाहिए ।

कोढ़ रोग में खानेवाली कोई दवा नहीं हैं । कुछ रोगियों को


६६ कोढ़


किसी पीने की दवा के बिना तसलल्‍ली नहीं होती | उनकी यह खाम-
खयाली दूर करनी चाहिए। शक्ति-बृद्धि के लिए पौष्टिक (टानिक्स )
लेने में हज॑ नहीं है । सिफे जिन पौष्टिकों से शरीर में बहुत जलन
बढ़ती हो वे वर्जित हें । उनसे लाभ के बदले हानि होती है ।

शक्ति घटने न देना और दरीर में दाह न बढ़ने देना ही मुख्य पथ्य
हैं। फिर से कोढ़ रोगी का सहवास न होने देना भी उतना ही जरूरी
है । अन्यथा उपचार का वास्तविक परिणाम नहीं हो पाता ।

योग्य समय पर उपचार शुरू हो जाने से कोढ़ असाध्य नहीं है ।
उपचार के बारे में एक बड़ी कठिनाई है उसको बहुत दिनों तक चलाने
की जरूरत की है । फौरन ही कोई जादू का-सा असर होने की उम्मीद नहीं
की जासकती । रूंगन से किये जाने पर उपचार अवश्य हितकारक साबित
होता हैं । रोगी को यह नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञापनी दवाइयों के
फेर में पड़कर ऊटपटांग उपचार की अपेक्षा केवल साधारण उपचार चाल
रखना अधिक श्रेयस्कर हे ।

उपचार का काल ओर परिणाम

कोढ़ का उपचार-काल बहुत लम्बा होता है। आधुनिक सुधारों के
कारण उसकी अवधि बहुत कुछ घट गई है। फिर भी जिन रोगियों में
रोग पुरी तरह भिन गया है, उन्हें ३ से ५ वर्ष तक भी इलाज जारी
रखना पड़ता है । आरंभिक रोग में तो कुछ महीनों के बाद ही
अच्छा सुधार संभव है । आमतौर से १०० सुई लेने की जरूरत हो-
सकती हैं । जितनी जल्दी इलाज शुरू होगा उतना ही अधिक फायदा
होगा और इलाज में दिन भी कम लगेंगे। बह अच्छे लक्षण हें । इधर
आरंभिक अवस्था में यथासंभव शीधु इलाज कराने के लिए रोगी
अग्नसर होने छगे हें। रोग का प्रकार, रोग शुरू होने के बाद बीता हुआ


कोढ़ का उपचार ६७


समय और रोगी की प्रतिकार-शक्ति के अनुसार उपचार कम-ज्यादा
दिनों लेना पड़ता हैं ।

विशिष्ट उदाहरणों में उपचार कितने दिनों छेते रहना चाहिए यह
जानने के लिए रुग्णकों की तीन दशाएं जाननी चाहिए। (१) जागृत
अथवा क्रियाशील रुग्णक, (२) सुप्त अथवा अक़्िियाशील रुग्णक और
(३) निरुद्ध अथवा ठंढे पड़े रुणक । इनके भेद पर ध्यान देने की
जरूरत है।

क्रियाशीलता के लक्षण निम्नलिखित कहे जा सकते हें :--

१--रुग्णकों के आकार और तादाद में घट-बढ़ होना ।

२--रुग्णकों पर सुर्खी और मोटाई आना ।

३--मज्जातंतु मोटे हों या न हों, उनमें मुलायमियत होना

४--त्वचा या इलेष्मल त्वचा में कुष्ठजंतु का मिलना ।

जबतक ये लक्षण पाये जायं तबतक उसे जागृत रुगणक समझना चाहिए।

जब लगातार ६ महीनों तक इन चारों में से कोई भी लक्षण दिखाई न दे
तब उस रुग्णक को 'सुप्तः समझना चाहिए । 'सुप्त' रुणक जब उसी
हालत में दो साल तक रह जाय॑ तब उन्हें निरुद्ध अथवा “ठंढे पड़ गये
कहते हैं। कोढ़ में रोगी “निरुद्ध! (अरेस्टेड) होगया इतना ही अधिक-
से-अधिक कहा जायगा ,“रोगमुक्त' (क्योडे) शब्द का इस्तेमाल नहीं
किया जायगा। कारण, शरीर में रोग-संसर्ग का जरा भी लवलेश नहीं
रह गया, यह जानने का कोई साधन प्राप्त नहीं है ।

जबतक रोग क्रियाशील है तबतक इलाज जारी रखना चाहिए ।
सुप्त अवस्था में चले जाने पर भी आगे छः: महीने तक जारी रखना
चाहिए । उसके बाद इलाज बंद करके रोगी को निरीक्षण में रखा
जाना चाहिए । हर तीसरे महीने उसकी परीक्षा होनी चाहिए। कारण,


ध्प कोढ़


रोग के वापस लौटने की संभावना रहती है । शंका पंदा होते ही इलाज
शुरू कर देना चाहिए । ठंढा पड़ने पर सौम्यकुष्ठ के रोगी को
एक वर्ष तक निरीक्षण में रखना चाहिए । कालकुष्ठ के रोगियों को
सात वर्ष तक रखते हे । ठंढा पड़ने के बाद भी साधारण तन्दुरुस्ती गिरने
पर प्रायः रोग सिर उठाने रूगता है । इससे मालम होता है कि खास
उपचार बंद करने के बाद भी साधारण उपचार चाल रखना कितना
जरूरी हैं ।

साधारणत: देखा जाता हैं कि बाहर रहकर उपचार लेने की
अपेक्षा रुग्णालय में रहने पर रोगी को अधिक अथवा शीघ्‌ फायदा
होता हे । इसलिए घर रहनेवाले रोगियों को भी उचित है कि जहां तक
संभव हो रुग्णालयों की दिनचर्या के हिसाब से आहार-विहार रखने का
आग्रह रखें।


उन्नीसवां प्रकरण
साध्यासाध्य-विचार


रोगी कोढ़ की बलि तो शायद ही चढ़ते है। उसकी वजह से पैदा होने
वाली दूसरी गृत्थियों अथवा दुलेक्ष के कारण ही वह प्राय: मरता है। कोढ़
वैसा घातक या तड़फड़ जान लेने वाला रोग नहीं है। उसकी सौम्य
रोगों में ही गिनती है । इसकी साधारण पाठकों को ही नहीं, वेद्य-
डाक्टरों को भी खबर नहीं होती। थोड़ों को ही इसका पता होता हे कि
किसी खास इलाज के बिना भी शुरू के रोगी अच्छे किये जा सकते
है। समाज में इसके बारे में जो डर फंला हुआ है वह रोग के कारण


साध्यासाध्य-नवचार ६६


पैदा होनेवाली व्यंग्यता, कुरूपता और समाज म होनेवाले तिरस्कार
के कारण हैँ। यद्यपि यह रोग स्परदंजन्य हैँ तथापि इसकी स्पर्श-
जन्यता भी ऐसे ही सौम्यरूप की है । इस वजह से इसका साध्यासाध्य-
विचार ( प्राग्नासिस ) शायद दूसरे रोगों की अपेक्षा अधिक महत्त्व की
चीज होगी ।

इस साध्यासाध्य-विचार के दो अंग हें। (१) उनके सम्बन्ध में
विचार । जो संसगं में आये हुए हें (संसृष्ट), पर अभी सिर्फ रोग-लक्षण
जाहिर नहीं हुए हैं, ऐसे उदाहरणों में रोग प्रकट होने की कितनी
संभावना है, इसका मुख्य रूप से विचार करना पड़ता हें। (२) उन
रोगियों के संबंध में विचार कि जिनमें रोग-लक्षण प्रकट हो गये हें । रोग
दुरुस्त होने की कितनी संभावना हैँ । दुरुस्त होने में कितना समय
लगेगा ? रोग फिर से शुरू होने की संभावना रहेगी क्‍या ? दुरुस्‍्ती
हो गई तो भी व्यंग्यता रहेगी या नहीं ? इन प्रइनों का विचार नम्बर
दो में आता है ।

इन दोनों अंगों का विचार करने की दिशा एक ही है। उपर्युक्त
प्रश्नों का उत्तर देते समय छ बातों को लक्ष्य में रखने की जरूरत हं--( १)
उम्र, (२) रोग का प्रकार, (३) वंश, (४) रोग का समय और उसके
चढ़ाव-उतार की गति, (५) रोग-प्रतिकार-दशक्ति, (६) साधारण
शरीर प्रकृति अथवा आरोग्य ।

(१) छोटी उम्र में सुधार होने की संभावना प्रौढ़ों की अपेक्षा कम
होती है । छोटे बच्चों को सौम्यकुष्ठ के चकत्ते होने पर उसमें सुधार
होना सुलभ नहीं हैं। उलटे अधिक बविक्वत स्वरूप धारण करने की
संभावना रहती हैं ।

(२) कालकुष्ठ की अपेक्षा सौम्यकुष्ठ में सुधार होने की


१०० कोढ़


के


संभावना अधिक हैं । प्रौढ़ों में सौम्यकुष्ठ होने पर सुधार की विशेष
आशा रखने में हज नहीं है। कालकुष्ठ के आरंभ के उदाहरण में भी
आशा कम ही रखनी चाहिए । सौम्यकुष्ठ में भी सूक्ष्मग्रंथिल प्रकार
में सुधार की अधिक संभावना रहती है। मज्जातंतु में विशेष संसर्ग न
पहुंचे हुए सादे मंडलों के कालकुष्ठ में बदल जाने की अधिक संभवना
रहती है । इसलिए उसका सुधार अपेक्षाकृत दुष्कर होता है ।

(३) भिन्न-भिन्न वंशों में (जाति-संघों में) कमोबेश उग्र रूप धारण
करने की प्रवृत्ति में भिन्‍नता पाई जाती हैँ । इस संबंध में अभी तक
कोई पक्की बात नहीं मिली है। यूरोपियन अथवा एऐंग्लोॉइंडियनों की
अपेक्षा भारतीयों में रोग साधारणत: सौम्यरूपी पाया जाता है ।
भारतीयों की रोग-प्रतिकार-शक्ति भी ऊंचे दर्ज की होती है । चीनी
और जापानियों में भी वह हिदुस्तानवालों की अपेक्षा साधारणतः
ज्यादा जोर पकड़ता है। हिंदुस्तानियों की अपेक्षा बमियों में वह अधिक
उग्ररूप धारण करता पाया जाता है ।

(४) थोड़े दिनों के रुणक शीघ्र सुधर जाते हें । अधिक दिन हो जाने
पर ज्यादा वक्‍त लगता है। स्थिर रुग्णक में आशा की अधिक गुंजाइश
हैं। जिसमें चढ़ाव-उतार और वह भी अचानक या तीक्रगति से होता
है उनमें उस हिसाब से सुधार देरतलब होता है । ऐसे उदाहरणों में
सुधार हो जाने पर भी फिर रोग होने का डर अधिक रहता हे ।

(५) रोग-प्रतिकार-शक्ति के संबंध में १७ वें प्रकरण में विवेचन
होचुका है। इस विषय का निर्णय करने में लेप्रालिन परीक्षा यथेष्ट
उपयोगी है ।

(६) दुरबंछ काठी वाले रोगियों से मजबूत दोहरे बदन वालों के
सुधार की संभावना अंधिक है। गांव की सादी रहन-सहन और खुली


कोढ़ी की मनःस्थिति १०१


हवा में परिश्रम के कारण निकृष्ट आहार होने पर भी उनकी प्रतिकार-
शक्ति अच्छी रहती है। मजबूत स्नायुवाला रोगी औषधि की अधिक
मात्रा आसानी से पचा सकता हैं ।

रोगी की दृष्टि से यह प्रइन महत्त्वपूर्ण हे कि हाथ पैरों पर या चेहरे पर
व्यंग्यता आवेगी या नहीं। बिलकुल आरंभिक अवस्था में उपचार शुरू हो
जाने और फिर व्यवस्थित रूप से जारी रहने से व्यंग्यता आने की संभावना
कम रहती है । इस संबंध में विशिष्ट प्रकार के व्यायाम का विशेष महत्त्व
है । जिनके स्नायू अच्छे बने हुए हें और जो नित्य व्यायाम करते रहते
हैं ऐसों को हाथ-पैरों की पंगृता की विकृति शायद ही होती हैँ । बहुत
बढ़ी हुई हालत के उदाहरणों में कुछ स्पर्शशन्यता और सूक्ष्म स्नायु
में होनेवाली पोषण संबंधी विक्ृति सहसा दूर नहीं होती, वह स्थायी
होती हैं । पर उसे रोग के जागृत लक्षणों में गिनने की जरूरत नहीं
है । उसे पूवंरोग का अवशेष समझना चाहिए ।


बीसवां प्रकरण


कोढी की मनःस्थिति


'कोढ़ी' शब्द एक तरह की गाली ही है । बहुतेरै देशों में दुर्भाग्य से
जो इस रोग के पंजे में फंस जाते हें उन्हें लोग गालियां देते हें और उनसे
नफरत करते हेँ। लोगों का खयाल है कि कोढ़ी मनुष्य दुष्ट और पापी
न होता तो भगवान ने उसे इतनी बड़ी सजा क्‍यों दी होती । समाज
कोढ़ियों को धिक्‍्कार-दृष्टि से निहारता है । कोढ़ी के मन पर इसकी
प्रतिक्रिया (असर) हुए बिना नहीं रहती । यह प्रतिक्रिया ही कोढ़ी की


नाजुक और कमजोर मनःस्थिति का कारण होती है ।


१०२ कोढ़


के


किसी मौके पर रोगी से थोड़ी सहानुभूति दरसाने के सिवा अज्ञान
या आलस्य के कारण उसे सब जगह हिलने-मिलने देने के अतिरिक्त
और साधारणतः उसे लोग परे-परे ही रखते हें, पास नहीं फटकने देते ।
समाज में उसके बारे में इस तरह की मनोभावना पैदा होने के कारणों
पर विचार करना उपयुक्त जान पड़ता हे । कोढ़ रोग की अति सांसगि-
कता के (बहुत छतहेषन के) कारण ऐसी भावना पैदा होती हो सो बात
नहीं है । इंग्लेंड में कोढ़ लक्ष्य देने योग्य (नोटिफाएबल ) रोग नहीं
माना जाता, बल्कि क्षय के संसर्ग फेलानेवाले रोगियों पर विशेषतया ध्यान
रखा जाता है । कोढ़ की अपेक्षा क्षय निस्संदेह बहुत ही अधिक सांसगिक
रोग है । फिर भी समाज को क्षय से कोढ़ जितना डर नहीं लगता ।

फिर इस डर लगने का कारण क्या है ? कारण है, कोढ़ से शक्ल
बिगड़ जाना, मनुष्य के व्यक्तित्व को व्यक्त करनेवाले अवयव हाथ और
चेहरे में खराबी आ जाना जिनकी बीमारी भयंकरता को पहुंची हुई
होती हैँ उनमें कुछ की ओर तो ताका तक नहीं जाता । बीमार होने
पर भी वह कभी खाट नहीं पकड़ता । गांवभर में भटकता रहता हैं।
यह रोग तड़फड़ में ले लेने वाला, घातक नहीं होता । पता नहीं इसे गुण
समझा जाय या दोष । इसकी वजह से रोग की मीयाद लंबी,--बहुत
लंबी होती हे। रोगीं जीने से ऊब जाता है, पर रोग की उससे उल्टी दोस्ती
बढ़ती दिखाई देती है। उसपर कोढ़ का आक्रमण हुआ है या सिर्फ बाधा,
यह समझ में न आने पर भी वह कोढ़ी के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है ।
अंधे, बहरे, गंंगे या पागलों का जेसे एक वर्ग बन जाता है वैसे ही
इनका भी एक स्वतंत्र वर्ग हो जाता है । अंतर इतना ही होता है कि
बहरे-गृंगों की अपेक्षा इनसे ही नहीं इनके नाम से भी लोगों को डर
लगता है । कोढ़ियों में ऐसी विक्रृत अवस्था में थोड़े ही पहुंचते हें, पर


कोढ़ी की मनःस्थिति १०३


साधारण समाज में प्रमाण या प्रकार का तारतम्य नहीं है। उसे कोढ़ी-
मात्र से नफरत होती है। यह एक बार की घर की हुई भावना ज्यों-की-
त्यों जारी रहती है ।

समाज की ऐसी वृत्ति का रोगी की मनःस्थिति पर स्थायी परिणाम
होता हैं। पहले तो वह रोग को छिपाता है । जरा भी निश्ञान किसी
को दिखाई न पड़ जाये, इस डर से बेचारे का मन संशकित रहता
है । इसके कारण निरंतर का मानसिक आरोग्य और प्रसन्नता जाती
रहती है । आगे चलकर जंसे-जंसे रोग जाहिर होने लूगता है और
समाज में उसे तिरस्कार और बहिष्कार सहना पड़ता हैं, वसे-बंसे
उसके मन में हीनता की भावना बढ़ने लगती है । इसी समय कहीं अगर
उसका काम-धंधा छूट गया और उसे दूसरे की दया या भीख पर निर्वाह
करना पड़ा तो उसके स्वाभिमान की भावना को भारी चोट पहुंचती है ।
पूरा स्वाभिमानशून्य न होने पर भी हताश तो हो ही जाता हैं। रोगी
जितना सुशिक्षित और कुलीन होता है उसे उतनी ही अधिक मानसिक
व्यथा होती है ।

यह सिद्धांत हे कि मानसिक स्थिति कमजोर होते जाने देने से
शारीरिक स्थिति भी कमजोर होती जाती हैँ । उसकी वजह
से रोगी की रोग-प्रतिकार-शक्ति क्षीण हो जाती हैं । वह जैसे-जैसे कम
होती जाती हूं वेसे-वेंसे उसका रोग बढ़ता हें; और रोग छिपाने का
उपाय नहीं रह जाता । वह अगर जल्दी ही जाहिर होगया तो बहिष्कार
अधिक प्रमाण में प्रकट होने लगता हे । इस प्रकार अनर्थ परंपरा का
चक्र चाल होजाता है। मनुष्य जहां हताश हुआ, भविष्य की
आशा न रही, जग से और व्यवहार से प्रत्यक्ष वंचित हुआ वा होने का
डर ही मन में पंठा कि मन.और साथ ही शरीर भी छीजना शुरू हो जाता


१०४ कोढ़


हैं । कुछ दिनों वह बेकार रहता है और फिर काम करने में असमर्थ
भी हो जाता हूं । स्वत: हताश, समाज के लिए निरुपयोगी जीवन खुद
के और समाज के दोनों के लिए भारभूत हो जाता है । जीता है पर
आशा और स्वाभिमान मर जाता हें । यह मरण से भी बदतर मरण हैं ।

रोगी की मनःस्थिति के ये विचार अतिशयोक््तिपूर्ण नहीं हैं । कुष्ठ-
निवास के रोगियों की, मानसिक रोगदृष्टि से जांच करने पर यह भरी-
भांति प्रकट हो जाता है। ऐसे रोगियों में सेकड़े २० से २५ रोगी
किसी-न-किसी मानसिक बिगाड़ से पीड़ित पाये जाते हैं ।

इसके सिवा कोढ़ में एक और खास बात है ॥ अपेंडिसाइटिस
सरीखे रोग का सुधरना शस्त्रक्रिया करनेवाले डाक्टर की होशियारी
पर निर्भर करता है; विषमज्वर में शुश्रुषा करनेवाले पर; और कोढ़
स्वत: रोगी पर निर्भर करता है। डाक्टर और दूसरे हितचितक
कितनी ही मदद क्‍यों न करें, रोगी की दिनचर्या और प्रयत्न ही उसे
रोगमुक्त कर सकते हैं | कोढ़ के संसर्ग से पेशियों की प्रतिकार-शक्ति
जब घटती है तब घटती है, पर रोगी का मनोबल और प्रयत्न करने
की प्रेरणा तो पहले ही घट जाती है। इसलिए प्रयत्न करके वह सुधरता
नहीं, यही नहीं बल्कि वह प्रयत्न के लिए तैयार भी नहीं होता | जैसे
नदी में पड़ा मनुष्य डर जाता है तो बजाय इसके कि किनारा पकड़े अधिक
गोते खाने लगता हे, वेसे ही भयभीत और हताश हुआ रोगी गड़बड़ाने
लगता है । समाज के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से वह अधिक हतबुद्धि
होजाता है। प्रत्यक्ष रोग से जो शारीरिक वेदना होती हूँ उसकी अपेक्षा
समाज के इस तिरस्कारयुक्‍त व्यवहार से उसका दुःख दुस्सह हो जाता है ।
दरीर से बलवान दिखाई देने पर भी मन से वह दुर्बल हो जाता है ।

इसलिए ऐसे रोगियों को 'अभागाः अथवा 'करुणा-पात्र' कहने के


कोढ़ का प्रतिबंध १०४


बजाय उनसे सहानुभूति और सहृदयता का व्यवहार होना चाहिए।
मनृष्यता और भूतदया के नाते ही नहीं बल्कि रोगी की प्रतिकार-क्षमता
को प्रोत्साहन देने के विचार से भी ऐसा व्यवहार करना दूसरों के लिए
फर्ज हो जाता है । ऐसे रोगियों की स्थिति सुधारने के लिए क्या समाज
उनसे विवेकयुक्त प्रेमपूर्ण बर्ताव नहीं कर सकता ?





इकीसवां प्रकरण
कोढ का प्रतिबंध


प्रतिबंध के मूलतत्त्व

कोढ़ सांसगिक ( छत का ) रोग है । सांसगिक रोगी के
स्पर्श से वह निरोगी व्यक्ति को लग जाता है। बच्चों को इस प्रकार
से रोग-संसग होने का बड़ा डर रहता हैं।

दूसरे सांसगिक रोगों में जिन तत्त्वों के आधार पर प्रतिबंधात्मक
उपाय किये जाते हैं उन्हींका अवलंबन कोढ़ में भी किया जाता है । नीचे
लिखे उपाय अमल में लाये जाते हें---

१--सांसगिक रोगियों से दूसरों का सहवास बचाने के लिए उन्हें
अलग रखना ।

२--रोगियों को असांसगिक बनाने के लिए उनका इलाज
करना ।

३--समाज के सब व्यक्तियों को अथवा सहवास में जानेवाले
(संसृष्ट) व्यक्तियों को कृत्रिम उपायों से रोग-निर्भय (इम्युनाइज ) करना।

४--ससंग लगने न देने के लिए सामाजिक और आरोग्य-विषयक
परिस्थिति में सुधार करना ।


१०६ कोढ़


५--लोकमत तेयार करने और प्रतिबंधात्मक उपायों में लोगों के
स्वेच्छा से हाथ बंटाने के लिए प्रचार द्वारा समाज में रोग के संबंध
में जानकारी फैलाना ।

अन्य रोगों में उपयोग में आनेवाले ये सब उपाय दुर्भाग्यवश कोढ़
के संबंध में अमल में नहीं लाये जाते। अभीतक कोई ऐसा परिणाम-
कारी इलाज हाथ नहीं लगा हैँ कि जिससे सांसगिक रोगी बहुत शीघ्र
असांसगिक हो जाय । इस वजह से कोढ़ के प्रतिबंध में उपचार का
प्रत्यक्ष उपयोग नहीं हें। उसी प्रकार टीका ( इनाक्युलेशन )
इत्यादि के द्वारा कोढ़ से दूसरों को रोग-निर्भय भी नहीं किया जा
सकता हैं ।

तब अलगाव ( सेग्रेगेशन ), आरोग्य-विषयक-सुधार और लोक-
शिक्षण द्वारा प्रचार यही तीन उपाय बच रहते हैं। प्रत्यक्ष प्रतिबंध के
लिए उपचार का उपयोग यत्किंचित ही होने पर भी उपयुक्त तीनों
उपायों को लोकप्रिय बनाने में उसकी अप्रत्यक्षरूप से खासी सहायता
मिलती है । |

सांसगिक रोगियों को अलग करने के लिए समाज में के सारे रोगियों
की लिस्ट बनानी पड़ती है । विशेषज्ञ से प्रत्येक रोगी की जांच कराने
की जरूरत होती है, उनमें से सांसगिक और असांसगिक को छांटना
पड़ता हैं । समाज से सांसगिक रोगी का अरूग करना आसान नहीं हैं ।
वैसे ही समाज में सांसगिक रोगी कितने हें और कौन-कौन हें यह तय
करना भी सहज नहीं है ।

सावंजनिक आरोग्य के सुधार का सवाल समाज की आर्थिक, सामा-
जिक और राजनीतिक परिस्थिति के साथ गुंथा हुआ है। इसके लिए
एक तरह से समाज की सर्वांगीण उन्नति होने की ज़रूरत है ।


कोढ़ का प्रतिबंध १०७


लोकशिक्षक और आरोग्य-दूृतों ( हेलथविजिटर ) की स्वेच्छा

से सहायता मिले तो प्रचार का प्रइन कठिन नहीं है ।
दूसरे देशों में कोढ़ का प्रतिबंध

जहां रोगियों की संख्या एक हद के अन्दर हैं और आवश्यक आथिक
सहायता मिलने में अड़चन नहीं हं उन देशों में आमतौर से अनिवार्य रूप
से उन्हें अलग करने पर ज़ोर दिया जाता हैं। यह अलगाव साधारणतः
कुष्ठनिवास सरीखी संस्थाओं के मार्फत होता है । कुछ देशों में अनुकूल
परिस्थिति मिलने पर घर-के-घर में ही अलगाव किया गया है। एशिया
और अफ्रीका के कुछ देशों में कुष्ठग्राम बसाने की पूर्वापर प्रथा दिखाई
देती है ।

इस अलगाव का नतीजा अलग-अलग हुआ है । जहां लोकमत
अच्छा अनुकूल मिला जैसे नार्वे में, वहां अलगाव में अच्छी
कामयाबी हुई हैं | जहां लोकमत का जोर नहीं रहा वहां यथासंभव
कायदे को टालने की प्रवृत्ति रही है । सांसगिक रोगियों को अलग करना
मानवदया का कार्य हें यह न समझकर रोगियों के रोग छिपाने में
दूसरे लोग उलटे मदद करने लगे। ऐसे देशों में यह प्रयोग निष्फल सिद्ध
हुआ । जापान, फिलिपाइन्स सरीखे कुछ देशों में बीच के दर्जे की
कामयाबी रही ।

इधर अलगाव पहले से अधिक लोकप्रिय होने लगा है । एक बार
अलग किये गये कि फिर समाज में वापस लौटने की उम्मीद गई, यह
धारणा बदल रही हैं । आधुनिक उपचार से बहुतेरे रोगियों को समाज
में वापस लौटने की आशा होने लगी है। इन दिनों के कुष्ठनिवास
पहले जैसे केदखाने नहीं रह गये हैं। वे यथासंभव रमणीय, हवादार
स्थानों में बसाई बस्ती जैसे हें। दूसरी वजह है, उन देशों में पति-पत्नी


१ ०्ष्र कोढ़


को जबरदस्ती से अलग नहीं करते । जन्मते ही बच्चे को अलरूंग करके
उसके संवर्धन का प्रबंध किया जाता है। जापान सरीखें कुछ देशों में
संतति न होने देने के लिए पुरुष पर एक प्रकार की रास्त्रक्रिया करते
हैं और उसके बाद उन्हें एकत्र रहने देते हें। पहला उपाय बड़े खर्च
और जोखिम का हैं; दूसरे के सवंत्र लागू होने में सामाजिक अड़चनें हें।

दूसरे देशों की आरोग्य विषयक सुधार और शैक्षणिक प्रचार इन
दोनों उपायों की पद्धति के संबंध में विचार करने की यहां आवश्यकता
नहीं है ।

हिंदुस्तान में प्रतिबंध

हिंदुस्तान में इस संबंध में तीन विचारों के लोग मिलते हें। कुछ
पूरे निराशावादी दिखाई देते हें । उनका कहना है, कोढ़ का प्रश्न बड़ा
विकट हैं । उसको रोकने के साधन अपने यहां बहुत ही अल्प हे । समाज
अत्यंत दरिद्रावस्था में हैं । सामाजिक और आरोग्य विषयक
परिस्थिति बहुत निकृष्ट हें। आज की इस परिस्थिति में प्रयत्न करना
फजूल है, इसमें कुछ होने-जाने को नहीं हैँ। कुछ बड़े आशावादी हैं।
आधुनिक उपचार में कुछ थोड़े से सुधारों की ओर देख कर यह
प्रतिपादन करते हैं कि देश में सब जगह उपचार-केंद्र खोल देने चाहिएं,
रोग दूर हो जायगा। तीसरे हें जो दोनों सिरों को छोड़कर मर्यादा
समझकर प्रयत्न करनेवाले हें। यह प्रइन कितना बिशाल और कठिन
है, इसका उन्हें पूरा ज्ञान हे । वे जानते हें कि प्रतिबंध में उपचार का
उपयोग नहीं के बराबर हैँ । छोटे ,बच्चों को सांसगिक रोगियों से अलग
किये बिना इस रोग की रोक-थाम नहीं हो सकती, यह वे अच्छी
तरह जानते हैं । पचीस-पचास बरस में भी वे कोई आइचर्यकारक
परिणाम दिखाने की उम्मीद नहीं करते | हां, उनका यह विश्वास हे कि


कोढ़ का प्रतिबंध १०६


योग्य दिशा में कार्य करते रहने से उसमें समाज का स्थायी कल्याण है,
और रोग को वश में लाने में कदम आगे पड़ेंगे । इसके लिए
हिंदुस्तान में "जगह-जगह निम्नलिखित उपायों पर अमल करना
चाहिए :
(१) प्रचार

साधारण जनता में इस विषय का सही-सही ज्ञान फैलाना चाहिए ।
इसके बिना इस काम में विवेकपूर्ण लोकमत का बल पाने की
आशा नहीं है । आज तो इस संबंध में लोकमत उदासीन है। किसी
एकाध वर्ग को ही नहीं सारे समाज को मिलकर इस प्रश्न के संबंध में
जागृत होना चाहिए । इसके बिना रोग की रोक में कामयाबी नहीं
हो सकती ।
(२) कार्यकर्ताओं की शिक्षा

इस विषय के जानकार डाक्टर, परिचारक और आररोग्यदृतों की
तादाद बढ़ानी चाहिए। इसके लिए उनकी तालीम का प्रबंध करना
चाहिए ।
(३) अलगाव को कोशिश

कुष्ठनिवास सरीखी संस्थाओं के द्वारा अलगाव आदरशेंरूप से हो-
सकता है । आज हिंदुस्तान में जो ऐसी ५०-५५ संस्थाएं हैं उनमें
१०,०००रोगी अलग करने का सुभीता हैं। हिंदुस्तान में१५ से २०लछाख
कोढ़ी होने की कल्पना है । अगर उनमें सेंकड़े २० सांसगिक माने जाय॑
तो उनकी संख्या ३ लाख से ऊपर जायगी । इतनों के लिए ऐसी संस्था
स्थापित होना असंभव-सा दिखाई देता है । तथापि प्रत्येक रोगग्रस्त भाग
में ऐसी एक संस्था तो जरूर होनी चाहिए । उसमें रोगियों की परीक्षा,
उपचार, अलगाव और कार्यकर्ताओं के शिक्षण इत्यादि की सुविधा होनी


११० कोढ़


चाहिए । आज ऐसी संस्थाएं हों चाहे कम पर उनमें अलगाये हुए सब
रोगी सांसगिक ही नहीं हैं । अपाहिज विद्रुप रोगी, (बन्टे आऊढ केसेस )
सांसगिक न होने पर भी उन संस्थाओं में भरती कर लिये गये हें।
भूतदया की दृष्टि से ऐसे अपाहिजों का भी सुभीता करना जरूरी हैं
तथापि ऐसी संस्थाओं में केवल सांसगिक रोगियों का रखना आरोग्य-
दृष्टि से अधिक अच्छा हैँ । यह अनुभव से देखा गया हे कि इस संस्था का
विकास शहर के अस्पतालों के ढंग पर करने के बजाय देहात में गांवों
के ढंग पर करना अधिक उपयोगी होगा ।

ऐसी संस्थाएं ज्यादा नहीं कायम की जा सकतीं और घर में अलग
रहने का प्रइन हिंदुस्तान की आज की परिस्थिति में व्यावहारिक नहीं
हैं । गांवों के लिए तो अलगाव का ही एक मार्ग बच जाता है। जश्ञायद कुछ
गांवों का एक गुट बनाकर उनकी ओर से कोई कुष्ठग्राम बसाना अधिक
सुविधाजनक हो सकता है। पर अपने-अपने यहां की परिस्थिति के अनुसार
व्यावहारिक मार्ग वहां के पास-पड़ोस की जनता को ही तय करना
होगा । इसका प्रयत्न अवश्य होना चाहिए। यह काम सरकार का है,
यह समझकर समाज का निदिचिन्त रहना उचित नहीं है । पर समाज
उदासीन है इसलिए कुछ करना संभव नहीं है, यह कह देने भर से
सरकार की छुट्टी नहीं हो सकती । ऐसी बस्तियों में केवल सांसगिक
रोगियों को ही अलग करना चाहिए। गांव में आज जैसा उनका उदर-
निर्वाह होता है वहां भी कम-से-कम उतना होना चाहिए। इसका
खयाल रखना चाहिए कि उन्हें भीख पर गुजारा न करना पड़े स्त्रियों
और पुरुषों के निवास अलग-अलग होने चाहिएं | निरोगी आदमियों
'के लिए वहां रहने की मनाई होनी चाहिए । वहां के नियम और स्वच्छता
'पर उचित देखरेख होनी चाहिए ।


कोढ़ का प्रतिबंध १११


(४) उपचार-केंद्र (क्लिनिक ट्रीटमेंट सेंटर )

कोढ़ को रोकने में कुष्ठनिवास अथवा अस्पताल के बाद ही
उपचार-केंद्रों का नंबर है । निस्संदेह उनकी बहुत जरूरत हैं। बे कुष्ठ-
निवास की पृव्॑ त॑यारी के रूप में होते हें और प्रकरूप भी | सब असांसगिक
रोगियों और थोड़े आरंभिक सांसग़िक रोगियों के लिए उनका अच्छा
उपयोग होता है । उनके द्वारा रोग-निणंय, उपचार और प्रतिबंध
ये तीनों प्रकार के काम हो सकते हें । हिंदुस्तान में रोगियों में से ७५
प्रतिशत उपचार-केंद्रों में ही जाते हें । हिंदुस्तान में ऐसे उपचा र-कंद्रों
की संख्या आज लगभग १००० है । हफ्ते में एक बार सुई लगाना भर ही
उनका काम नहीं होना चाहिए । आदर केंद्रों में प्रत्येक रोगी के घर की
और उसके-सब कुटुंबवालों की हर छठे महीने जांच होनी चाहिए ।। कोढ़-
विषयक ज्ञान समाज में फेलाने की तो वह शाला ही हो । कुष्ठनिवासों
में रोगी भेजने का काम वास्तव में उन्हीं के द्वारा होना चाहिए ।
समाज में से ऐसे रोगियों को जल्दी-से-जल्दी खोज निकालना इन केंद्रों
के कामों में एक मुख्य काम हे। कुष्ठनिवास और उपचार-केंद्र का
चोली-दामन का सा साथ है । हिदुस्तान में केवल कुष्ठनिवासों द्वारा
अथवा केवल उपचार-केंद्रों द्वारा कोढ़ का प्रशरन हल होना संभव
नहीं हैं ॥ दोनों का उचित समन्वय और सहकार होना चाहिए । इन
दोनों में किसकी जरूरत ज्यादा हे, यह विषय कभी विवादास्पद था
पर आज तो दोनों की मर्यादा और महत्त्व सामने आगये हैं। जंसे
मनुष्य के दोनों हाथ समान भाव से उपयोगी हैं बसे ही ये दोनों भी हे ।
एक के अभाव में दूसरा पंगू रहेगा। हिंदुस्तान में कुष्ठनिवास और
उपचार केंद्र भिन्न-भिन्न प्रबंधों के आधीन हैं, इसकी वजह से परस्पर का
संबंध गाढ़ होने में अड़चन पड़ती है। होना तो चाहिए दोनों का


११२ कोढ़


पूर्ण सहकार; तभी समाज के लिए दोनों वास्तविक रूप से उपयोगी
होंगे ।

यहां कुष्डनिवास अथवा उपचार-केंद्रों की रचना ओर कायें-पद्धति
देने की आवश्यकता नहीं है । पाठकों को आसपास में कहीं ऐसी संस्था
हो तो जरूर देखने का लाभ लेना चाहिए ।

(५) ऐच्छिक बनाम जबरदस्ती

कितनों का सुझाव है कि सौम्यकुष्ठ के रोगियों का जबरदस्ती
इलाज और कालकुष्ठ के रोगियों का जबरदस्ती अलगाव करना
चाहिए । ऐच्छिक उपचार और अलगाव से जितनी कामयाबी होने की
उम्मीद हैं उतनी जोर-जबरदस्ती से नहीं । जबरदस्ती का उपाय काम
में लाने के लिए जिस उच्च कोटि के लोकमत की आवश्यकता हैँ वह
परिस्थिति हिंदुस्तान में अभी देर से आनेवाली है । जापान, फिली-
पाइनस सरीखे देशों में जबरदस्ती के सख्त कानून बनाये गये, पर बाद
को उन्हें बदलना या ढीला करना पड़ा । उनसे हमें सबक लेना चाहिए।
जबरदस्ती के उपाय में रोगी अपने ऊपर जुल्म मानकर असंतुष्ट रहता
है । डाक्टर के साथ सहकार नहीं करता । पद-पद पर नियम-भंग की
कोशिश करता है। यह सही हूँ कि ऐच्छिक पद्धति में भी सारे रोगी
अपनी खुशी से अग्रसर नहीं होते । पर जो आते हें उनकी उपचार पर
अथवा अलगाव पर श्रद्धा होती हैं। वे खुशी से अपना फायदा समझ-
कर नियम पालते हैं। संस्था में आने देने के लिए उपकार मानते हैं।
इसके सिवा स्वेच्छा से नियम-पालन में जो नैतिक आनन्द है वह निराला
ही है, जबरदस्ती के उपाय में लुकाव-छिपाव बहुत रहतां है । इसलिए
सब सांसगिक रोगियों को जबरद॑ंस्ती अलहूगाना मुश्किल हैं। लोकमत
पीछे हुए बिना कितना ही कड़ा कानून बना दिया जाय तो भी उसका


कोढ़ का प्रतिबंध ११३


वास्तविक परिणाम नहीं होता । उसका जितने भाग में पालन होता हैं
उससे ज्यादा भाग में वह भंग किया जाता है । देखा गया है कि बड़ी
दिक्कतों के बाद लुक-छिप करनेवाले रोगियों को तलाशा भी गया तो
उतने ही समय में वह बहुतों को संसर्ग का शिकार बना चुके होते
हैं। इसकी वजह से कानून की असली मंशा जहां-की-तहां ही रह जाती
हैं । इस संबंध में आजतक के अनुभव के आधार पर विशेषज्ञों ने यंह मत
कायम किया है कि लोकमत और शिक्षण द्वारा अलगाव करने पर
जोर देना अच्छा हे। जबरदस्ती के उपाय बिलकुल छोटे देश में
अथवा द्वीप में व्यावहारिक सिद्ध होसकते हें, किसी विश्ञाल देश में
नहीं ।

(६) जांच (सर्वे)

प्रत्येक रोगग्रस्त हिस्से की व्यवस्थित जांच होनी चाहिए। (१)
रोगमान और (२) वहां रोग-प्रसार के विशिष्ट कारणों की निश्चित
कल्पना हो जानी चाहिए ।

यह जांच तीन प्रकार की होती हूँ । रोगग्रस्त हिस्से में बीच-बीच
में कुछ गांव लेकर नमूने के लिए जांच की जाती हैँ (सेपल सर्व )। उससे
सारे हिस्से की साधारण कल्पना हो जाती हूँ। दूसरी जांच (कंसेन्ट्रेटेड-
सर्वे) में प्रत्येक रोगी जांचा जाता हे। उसके लिए कार्यकर्ताओं का
दल चाहिए और वक्‍त भी काफी चाहिए। तीसरी तरह की जांच खास
मौकों पर मुख्य रूप से संशोधन या अध्ययन के लिए की जाती है ।
ऐसी जांच में किसी खास भाग के प्रत्येक व्यक्ति की संपूर्ण शास्त्रीय
रीति से परीक्षा की जाती हैँ । उन हिस्सों का कई वर्ष बराबर अवलो-
कन और फिर-फिर जांच चाल रहती हैँ । ऐसी जांच विशेष मौकों पर
ही संभव होती है (एपिडिमिआलोजिकल सर्वे)


११४ कोढ़


(७) प्रचार

प्रचार जांच के साथ ही सुऊभता से हो सकता है। प्रचार को
उपयुक्त और आकषंक बनाने के लिए उन-उन गांवों के प्रत्यक्ष उदाहरणों
द्वारा प्रचार करना उत्तम होता हैं । उसमें तात्तिवकक विवेचन पर जोर
देने की जरूरत नहीं हैं । चित्र अथवा चित्रपटों की मदद मिल जाय तो
लेनी चाहिए। जो रोगी अच्छे हो गये हें वे अच्छे प्रचारक बन सकते
हैं। सीधी स्थानीय लोकभाषा में ही प्रचार करना चाहिए।

(८) प्रतिबंधक कार्य के लिए संगठन ।

उपयुक्त कार्यो का संघटन प्रांतिक सरकार या स्थानीय डिस्ट्रिक्ट-
बोर्ड और म्यूनिसिपलिटियों की ओर से खास तौर से हो सकता है ।
इसके सिवा दूसरे देशों क्रा और हिंदुस्तान का भी यह तजरबा है कि
सार्वजनिक लोकहितेषी संस्थाएं ऐसे कामों में अनमोल सहायता
कर सकती हें। इतना ही नहीं, उनके द्वारा जो लोकमत का सहारा
मिलता हैं वह मिले बिना ऐसे कामों में तरक्की नहीं होती। सरकारी
संस्थाओं के सिवा ऐसी सार्वजनिक संस्थाओं के कायम होने की जरूरत हैं ।
उनमें जो लगन और सेवा की भावना होती है वह सरकारी संस्थाओं में
नहीं मिल सकती । हां यह अवश्य होता है कि सरकारी संस्थाओं के पास
अधिकार और पैसे का जो जोर रहता हैं उससे वे रहित होती हें ।
थोड़े क्षेत्र में अच्छा काम सावंजनिक संस्थाओं से ज्यादा सध सकता है ।
व्यापक क्षेत्र में सरकार का ही हाथ लगाना ठीक हूँ ।





बाईसवां प्रकरण
कोढ़ ओर गांव


जेसे क्षय शहरों-उद्योग-केंद्रों में पाया जानेवाला रोग है, वंसे
ही कोढ़- खास कर देहातों में पाया जाता है। जैसे शरीर के सर्वेव्यापी
अवयव त्वचा और मज्जातंतु में यह फैलता हैं वेसे ही देशव्यापी गांवों
में उसका फंलाव है। संस्क्रति की विशिष्ट अवस्था और रहन-सहन के
साधारण सुधार के परिणाम पर यह॒ निर्भर करता है, इसलिए प्रत्येक
गांव का सुधार हुए बिना इसकी जड़ जाना कठिन है। इससे कोढ़ का
प्रशन गांवों के सामाजिक, आथिक और आरोग्य संबंधी प्रहइनों के साथ
बेतरह जुड़ा हुआ है ।

देश से यदि इसे निकाल भगाना है तो हर गांव को इस समस्या के
हल करने का काम गांव में ही शुरू करना चाहिए; तभी इस की रोक-
थाम संभव हैं । कोढ़ का किला कहिए, गढ़ कहिए, गांव हैं । वहीं
उसकी जड़ खोदनी चाहिए ।

गांवों में कोढ़ के बारे में कितनी ही मखंतापूर्ण रूढ़ियां फंली हुई
है । 'छुत की क्‍या बात हैँ जी, किस्मत में लिखा था हो गया' यह बराबर
सुना जाता है। व्यभिचार से अपना रोग दूसरे के पल्‍ले बंध जाता हैं
और खुद को मुक्ति मिल जाती है, यह माननेवाले भी पाये जाते हें ।
उन्हें इसका भेद नहीं मालम रहता कि सांसगिक रोगियों से अधिक
डरना चाहिए या अपंग और शक्ल बिगड़े हुए लोगों से ? छोटे बच्चों
को रोगियों के पास खेलने को छोड़कर बाहर काम के लिए जाते उन्हें
कोई दुविधा नहीं होती । कोढ़ी के वंश में औरों के साथ शादी-विवाह
होते रहने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हें।


११६ कोढ़


यह नहीं हे कि बहुतों को रोगों के वास्तविक रूप की कल्पना नहीं
होती । किसी गरीब आदमी के बारे में सिर्फ कठोरता से ही नहीं करता
से भी काम लिया जाता हैँ । परंतु कोई रोगी धनी हुआ या प्रतिष्ठित
तो आवश्यक नियम पालन करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ती । और
खद का जो नाते-रिश्तेदार हुआ तब तो किसी नियम का पालन करीब-
करीब असंभव ही हैँ । सांसगिक रोगी के स्वतंत्रता से कुटुंब में या
समाज में हिलने-मिलने से अनेकों को उसका संसग्गं-दोष पहुंच सकता हैं,
इसका उन्हें खयाल नहीं रहता । पत्नी रोगिणी हुई तो आमतौर से उसे
छोड़ ही दिया जाता हैं; और बाल-बच्चे सब उसी के साथ जाते हैं
और रोग के शिकार होते हें । पति रोगी हुआ तो कुटुब में खुल्लम-
खुल्ला सब व्यवहार चलाता है । भला कुटुब के मुखिया से कहने की हिम्मत
किसकी होगी कि भाई तुम अलग जा रहो । गांवों में सारे गांव का एक
ही नाई और धोबी होता हैं। उसके खास धंधे की वजह से गांव में
रोग हुआ तो उसे लगने का खटका रहता है और फिर उससे सारे
गांव सें फैलने का डर रहता हैं। कुछ जगह इन्हें खुराक देने का रवाज
होता हैं जिससे रोग फैलने की ज्यादा गूंजाइश रहती है ।

संसगग के दो हिस्से किये जा सकते हें : (१) कुटुब में बढ़नेवाला
और (२) गांव में दूसरों में फंलनेवाला। पहले प्रकार का संसर्गे
अलग किये बिना टलना कठिन है और वह कुट्ब के व्यक्ति पर निर्भर
'है । दूसरे प्रकार का संसर्ग न बढ़ने देने का हर जाति और गांव चाहे
तो अच्छी तरह प्रयत्न कर सकता है । 'जो गांव कर सकता है वह
राव (राजा) नहीं कर सकता' यह कहावत और मामलों में इतनी सही
शायद न ठहरे जितनी इस मामले में । रोकथाम के तत्त्वों का विवेचन
पिछले प्रकरणों में किया जाचुका हैं। उसका प्रा-पूरा अमल होना


कोढ़ ओर गांव ११७


चाहिए। प्रत्येक गांव में, या गांव बड़ा हो तो प्रत्येक जाति में, प्रतिबंधक
मंडल या कम-से-कम एक आरोग्यदृत--चौकीदार का होना जरूरी हैं ।
इसका काम होगा कि खास गांव में कोढ़ु को बढ़ने न देता, उसे जड़ से
नष्ट करना। उसे नीचे लिखी बातें करनी चाहिए :---

१--जितने कोढ़ी हों सबकी खबर रखना । इसमें निकट के
उपचार-केंद्र की अथवा दूसरे डाक्टरों की सहायता लेना। गांव के सब
कोढ़ियों की व्यवस्थित सूची रखना ।

२--उसमें से सौम्यकुष्ठ की लिस्ट अलग करना । उसे किससे कंसे
रोग रूगा इसका पता लगाने का प्रयत्न करना । उस असांसगिक रोगी
से और दूसरों को रोग न होने पावे इसकी कोशिश करना | सब सौम्य-
कुष्ठ के रोगियों को उपचार के लिए ले जाना । जो इलाज न करावें
उन्हें जाति बाहर का दंड दिलवाना ।

३--सांसगिक रोगियों का खाना अलग रखना । उन्हें अलग रखने
का प्रयत्न करना । उनसे दूसरों को रोग न लगने पावे इसकी खूब
खबरदारी रखना । छोटे बच्चों का तो प्रा-पूरा बचाव करना। ऐसे
रोगियों को भी इलाज के लिए ले जाना। उनके सब कुटंबियों की हर
छठे महीने जांच करवाना ।

४--गांव के सावेजनिक आरोग्य को सुधारने और इस रोग के बारे
में लोगों को जानकारी कराने का प्रयत्व करना । जो रोगी अच्छे हो गये
हें उन्हें प्रचारक बनाने का अच्छा उपयोग हो सकता है ।

५--कोढ़ियों को गांव में नीचे लिखे काम नहीं करने देने
चाहिए--

(१) अन्न और वस्त्र बनाने बेचने का काम ।

(२) घर का काम-काज, बच्चों का पालन और शिक्षण ।


श्श्प कोढ़


(३) शुश्रषा और दाई का काम ।

(४) नाई धोबी का काम ।

(५) कुली का काम ।

(६) गली-गली भीख मांगते फिरने.का काम ।

(७) सभा, तीथ॑ं या कहीं दावत खाने जाने का काम ।

६--कोढ़ियों का और दूसरों का परस्पर ब्याह-शादी रोकना ।

७--कोढ़ी को संतान होना इष्ट नहीं है । यदि हो जाय तो कच्चे
को निरोगी रिश्तेदारों के यहां पालना चाहिए ।

८--रोग को छिपाने की प्रव॒त्ति को जहां तक संभव हो दूर करना
चाहिए। इसके लिए रोगियों से तिरस्कार और हीनता का व्यवहार
नहीं होना चाहिए । समाज में सहानूभूति और सहायता की भावना
पैदा करनी चाहिए ।

९-जहां संभव हो वहां पुरानी कोढ़ी-गांव बसाने की पद्धति को
उत्तेजन देना चाहिए। ४-५ गांव मिलकर एक ऐसी बस्ती बसा
सकते हैं ।

१०--जो रोगी उपचार ले रहे हैं उन्हें 'सामान्य उपचार' शीर्षक
में जेसा बताया गया हे उसके अनुसार चलाना । इस संबंध के पत्र
पत्रिकाभों का लोगों में प्रचार करना ।


प्रंकरण २३ वां
कोढ संबंधी कुछ उल्लेखनीय संस्थाएं


दि इंटरनेशनल लेप्रसी कांग्रेस

दुनिया में कोढ़ के संबंध में अधिकार पूर्वक शज्ञास्त्रीय निर्णय करने-
वाली यह अकेली संस्था हूँ । संसार के भिन्न-भिन्न देशों में साधारणतः
हर पांचवें साल सब देशों के प्रतिनिधि-कुष्ठवेत्ता (लेप्रालाजिस्ट) इकट्ठे
होते हें; उस समय तक की शोधों ओर अनुभवों की चर्जा करते हें;
उत्तमोत्तम निबंध पढ़ें जाते हें और अंत में प्रस्ताव रूप से कार्यकर्ताओं
की स्वीकृति के लिए निर्णत्त मत प्रकट किया जाता हैं। १९३१ में
मनिला ( फिलिपाइंस ) में कांग्रेस हुई थी। उसके बाद १९३८ में
काहरा ( इजिप्ट ) में ५वां अधिवेशन हुआ। उसमें ५० देशों से
लगभग ३०० कुष्ठ रोग के जानकार जमा हुए थे। इस कांग्रेस के
अब तक ५ अधिवेशन हुए हें । इसकी ओर से “दि इंटरनेशनल जनल
आफ लेप्रसी' नामक त्रेमासिक पत्र निकलता हैँ । इस संस्था के निर्माण
में अमेरिकन लेप्रसी फाउंडेशन' से विशेष सहायता मिली हूँ ।

दि मिशन टु लेपसे

संसार के अनेक देशों में अनेक वर्षों से निष्ठा और सेवा-भाव से
कोढ़ियों के लिए बराबर काम करनेवाली दि मिशन टु लेप नामक
संस्था है । १८७४ में डब्ल. सी. बेली ने इसकी स्थापना की थी। बेली
उस बक्‍त अम्बाला ( पंजाब ) में थे और अपनी फुसंत का वक्‍त
कोढ़ियों के प्रन्‍न के विचार में लगाते थे। उनके पत्र से मांकस्टाउन
(डब्लिन) की तीन कुमारिकाओं ने उन्हें हर साल ४५० रुपये इकट्ठा
करके इस काम में खर्च करने को भेजने का निश्चय किया। उनकी
कोलिशों का नतीजा यह हुआ कि पहले साल के अंत में बजाय ४५०॥


१२० कोद


के ७५००) से ऊपर रकम जमा हुईं। दूसरे साल वह १२०००) से
भी बढ़ गयी । खद बेली को इतने रुपयों की जरूरत न थी, इसलिए
उन्होंने इस काम के करनेवाले हिन्दुस्तान में जो दूसरे मिशनरी थे उन्हें
सहायता देने का निश्चय किया । इस प्रकार काय्ये का आरम्भ होकर
इस जगद्व्यापी संस्था की नींव पड़ी। आज मिशन की सालाना
आमदनी १४ करोड़ से अधिक है। इस संस्था का आरम्भ जेसे हिंदु-
स्‍्तान में हुआ वैसे इसकी प्रधान शाखा भी हिंदुस्तान में ही है । इसके
सिवा चीन, जापान, कोरिया, फारमोसा, द्याम, अफ्रीका, अमेरिका
और दूसरी जगहों में भी शाखाएं हैं । हिंदुस्तान में मिशन के ३७
कोढ़ीखाने हैं । इनके सिवा ऐसे ही दूसरे १५ कोढ़ीखानों को वह
सहायता देता है । इनमें लगभग १०००० रोगियों के रहने, खाने-पीने
और दवा-पानी का बंदोबस्त हूँ । रोगियों के ८०० निरोग बच्चों को
अलग करके स्वतंत्र निवास में रखने की व्यवस्था की गयी हूँ । इसके
सिवा बाहरी ६००० रोगी मिशन के दवाखानों से दवा पाते हैं ।

मिशन के तीन उद्देश्य हुं“-(१) रोगियों और उनके बच्चों की
आध्यात्मिक शिक्षा का प्रबन्ध करना, (२) उनके भोतिक दुःख दूर
करना, (३) अपनी ताकत भर कोढ़ को नेस्‍्तनाबूद करने में मदद
करना । इसके सिवा रोगियों की प्राथमिक शिक्षा, उद्योग-धंधे, खेल-क्द
मनोरंजन वगरा की व्यवस्था की जाती है । इन संस्थाओं में आम
तौर से ईसाई ही अधिक हें और उन्हींका वायुमण्डल है। उनके
नियमों में यह भी हैँ कि धामिक मामले में किसी प्रकार की सख्ती न
की जाय | आज हिंदुस्तान के बहुतेरे कोढ़ीखाने मिशनरियों के इंतजाम
में ही हें, दूसरों के तो अंगुलियों पर गिनने भर को हैं। हिंदुस्तान में
इस काम में फिलहाल हर साल मिशन ८ राख रुपये से ऊपर खर्च


कोढ़ सम्बन्धी कुछ उल्लेखनीय संस्थाएं १२१


करता है। उसमें से आधी रकम सरकार से सहायता-स्वरूप, एक
तिहाई दूसरे देशों से सहायता और बाकी भारतीय जनता से मिलती
हैं । आरम्भ से अब तक इस काम में मिशन ने १५ करोड़ रुपये से ज्यादा
खरे किये हैं। हिंदुस्तान का प्रधान कार्य लय पुरुलिया (बिहार) में है ।
लेप्रसी रिलीफ असोसियेशन--इण्डियन कॉसिल

१९२४ में लंदन में लेप्रसी रिलीफ असोसियेशन की स्थापना हुई और
उसकी हिंदुस्तानी शाखा--इंडियन कौंसिल की साल भर बाद १९२५ में ।
हिन्दुस्तान में लोग रोगियों की दीन दशा से परिचित थे । इसलिए जब
इंडिया कौंसिल की स्थापना के बाद फंड के लिए पब्लिक अपील निकली
तो राजा महाराजा और जनता--सब ने बड़ी उदारता से उसका समर्थन
किया । २०२५००० रुपया स्थायी कोष में जमा हो गया, और उससे
मिलनेवाली १२२००० रुपये की साहाना रकम असोसियेशन की उद्देश्य-
पूर्ति के लिये खर्च होने लगी । बीच में एक्सचंज' की दर के कारण इस
आय में ११०००) सालाना की कमी हो गयी । पर आगे चल कर
सिलवर जुबिली फंड में से २१३०००) की सहायता मिल जाने से वह
कमी पूरी हो गयी ।

मर्यादित साधनों से अधिक से अधिक फायदा उठा लेने के लिए
इस काम के तीन हिस्से किये गये हं“-- (१) इस विषय के शोध अनु-
संधान के लिये प्रेरणा और प्रोत्साहन देना, (२) रोग की उत्पत्ति,
प्रतिबंध और उपचार संबंधी यथार्थ ज्ञान लोगों में फंलाना, और (३)
रोगी के आधुनिक उपचार पाने का प्रबंध करना। यह कार्यक्रम अमर
में लाने का काम मध्यवर्ती कौंसिल और प्रांतीय शाखाओं में बांट दिया
गया है । अनुसंधान, प्रचार और अनुभवी डाक्टर सिखा कर तेयार
करना इत्यादि स्व प्रांतीय उपयोग संबंधी जिम्मेदारी मध्यवर्ती कौंसिल


१२२ कोढ़


की हैं। रोगियों के उपचार पाने की व्यवस्था वगरा, जो स्थानीय
प्रकार की जिम्मेदारी है, प्रांतीय शाखाएं करती हैं। उन्हें इसके लिए
करीब-करीब आय का आधा हिस्सा दे दिया जाता है । डिस्ट्रिक्ट बोडड
और म्युनिसिपल बोर्डों से उन्हें और भी कुछ मदद मिल जाती है ।

स्कूल आफ ट्रापिकल मेडिसिस एंड हाइजीन (कलकत्ता) में अनु-
संधान-कार्य की व्यवस्था रखी गयी है । उसमें ट्रापिकल स्कूल ओर
इंडियन रिसर्च फंड असोसियेशन के अधिकारी सहायता करते हैं । १९३९
के अन्त तक पिछले १५ वर्षों में इसके लिए असोसियेशन ने ३६६८१२)
रुपये खर्च किये हें। इस संबंध का साहित्य, विज्ञापन, फिल्‍म और
स्लाइड तेयार कराकर जनता में कोढ़के बारे में प्रचार किया जाता
हेँ। लेप्रसी इन इंडिया” नामक एक त्रेमासिक पत्र भी निकाला जाता
हैं । इसकी वजह से कोढ़ संबंधी अनुभवों और खयालात के परस्पर
आदान-प्र दान का सुभीता कार्यकर्ताओं को हैं । अब तक असोसियेशन ने
९२०००) रुपये प्रचार के लिए खर्च किये हें। जानकार डाक्टर सिखा-
पढ़ाकर तेयार करने के लिए कलकत्ता और डिचपल्‍्ली में स्पेशल क्लास
खोले जाते हैँ। हिंदुस्तान तथा अन्य देशों में मिलाकर १००० डाक्टर तैयार
हो गये हें । इसके लिए असोसियेशन को ७९०००) रुपये खर्च करने पड़े
हैं। इन सीख-पढ़कर त॑यार हुए डाक्टरों ने अपने-अपने प्रांत में दूसरे डाक्टर
सिखाकर तेयार कर दिये हें। आज कोढ़ के आधुनिक-ज्ञान-प्राप्त जान-
कार डाक्टरों का किसी भी प्रांत में मिलना कठिन नहीं है ।

हिंदुस्तान के भिन्न-भिन्न भागों में तुलनात्मक रोगमान क्‍या है, किस
जाति और किस वर्ग में रोग अधिक है और उसके कारण क्या हैं यह
निश्चय करने को १९२७ में एक खास सब पार्टी ने बड़े हिस्से में जांच
का काम शुरू किया था। इसमें असोसियेशन के ८७३०००) रुपये


कोढ़ सम्बन्धी कुछ उल्लेखनीय संस्थाएं १२३


खर्च हुए। उपयुक्त जानकारी प्राप्त करने के बाद १९३१ में सव पार्टी
विसर्जित कर दीगई। कोढ़ रोकने के प्रभावशाली उपाय के अनुसंधान का
काम इस वक्‍त बंगाल और मद्रास के शहरी हिस्सों तथा गांवों में जारी है ।

प्रांतीय और स्थानीय सब शाखाओं के उपचार के प्रबंध का काम
उनकी आमदनी के अनुसार चलता हूं। सब देक्षों में कुल १०००
उपचार केन्द्र हें। उनमें काफी रोगी उपचार के लिए आते हें। हर
दाखा की यह रिपोर्ट हें कि नियमित और अधिक समय तक इलाज
कराने पर उचित सुधार होता है । हजारों रोगियों को योग्य उपचार
मिलता है और सुधरा हुआ रोगी बहुतेरे हताश भाइयों को केन्द्रों में भेजने
का कारण बनता है, यह सुचिन्ह हैं । इसकी वजह से हिंदुस्तान से कोढ़
को नेस्तनाबूद करने की कोशिश में कामयाबी की उम्मीद होने लगी हे ।

क्युलिन ( फिलिपाइन्स )

इस द्वीप में फिलिपाइंस के सब रोगी अलगा कर जमा कर दिये
गये हें। अमेरिकन और फिलिपाइन दोनों सरकारों ने मिल कर वहां
एक आदवर्श संस्था बना दी है। दुनिया की इस संबंध की यह एक
उत्तम संस्था हे । अनुसंधान के काम में इसका खास स्थान हें ।

कुछ उल्लेखनीय व्यक्षि

फादर इंमसियन--यह बेलजियन पादरी थे । इनका मूल नाम था
जोसेफ डिब्यूस्टर । इनका जन्म ३े जनवरी १८४० को ट्रेमेल में हुआ
था। रोजगार में लगने के इरादे से इन्होंने तालीम पायी थी। लेकिन
१८ वर्ष की उम्र में यह पादरी बन गये और डेमियन नाम पड़ा ।

यह नायब पादरी होकर काम कर रहे थे कि इनके एक पादरी
मित्र पेसिफिक द्वीप में बीमार पड़े । उनकी जगह यह काम करने गये ।
हवाई द्वीप की राजधानी होनोलूलू में माच॑ १८६४ में पहुंचे । आरम्भ


१२७ कीढ़


में हिवट्सन टाइड में इनकी नियुक्ति हुई। उस समय हर कोढ़ी को
मोलोकाई द्वीप में अलग भेज देने का हवाइयन सरकार का कायदा
था। उनकी हालत बहुत ही दयनीय और हृदयस्पर्शी थी। डेमियन
साहब उनका दु:ख दूर करने को तड़फड़ाने लगे। इन्होंने १८७३ में
खुद स्वयंसेवक की भांति मोलोकाई द्वीप में धर्मोपदेशक का काम करना
स्वीकार किया। मोलोकाई द्वीप में पांव रखने के बाद वहीं इन्होंने
अपनी जिंदगी बिता दी। सिर्फ पादरी के नाते होनोलल जाते थे।
उतना ही वख्त बाहर बीतता था, बाकी सब उसी द्वीप में । धर्मोपदेशक
के काम के सिवा पानी, रहने के मकानात, खानपान इत्यादि का सुधार
कर रोगियों की भौतिक सुख-सुविधा की ओर भी यह ध्यान देते थे।
इस काम में यह खुद शारीरिक श्रम करते थे, इससे उस ओर सरकार
का ध्यान भी खिचा था। शुरू के ५ वर्षों में इन्होंने सिर्फ अकेले ही
काम चलाया । उसके बाद वहां के दूसरे धर्मोपदेशक इनकी सहायता
करने लूगे । यह रोगियों की हर तरह की सेवा निःसंकोच होकर करते
थे। १८८५ में इनको खृद कोढ़ हो गया और १५वीं अप्रैल १८८९
में इन्होंने शरीर छोड़ा । स्टीवन्सन, क्लिफोर्ड और पम्पट्यूल वगेरा ने
इनके जो जीवनचरित्र लिखे हें वह पढ़ने योग्य हें ।

यूरोपीय देशों में कोढ़ियों के विषय में रस लेनेवालों में ईसामसीह
के बाद ही फादर डेमियन का नाम लिया जाता है। फादर डेमियन
स्वाथ्थ-त्याग और निरपेक्ष-सेवा की सच्ची प्रतिमूर्ति थे ।

आम्‌र हनसेन

इन्होंने १८७१ में कोढ़ के कीटाणुओं की खोज की | अभी तक
ऐसी दूसरी खोज नहीं हुई है । यह जैसे विशेषज्ञ थे बसे ही उदारचेता
भी । नारे में कोढ़ को नेस्तनाबूद करने में इनका खास हाथ था।

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