[PDF]'Hindi Kavya Sangrah by Hemraj Mani and Mira Sarin - Kendriya Hindi Samsthan'
Please sign in to contact this author
| हुमा |
PRAKASHAN
Publisher & Book-Seller | |
Chowk, Varanasi-221 001 — .
| Ph. & Fax 0542-353741,853082 |
PA वनेर -
हिन्दी काव्य संग्रह
प्रथम एवं द्वितीय संस्करण
सपादक
हेमराज मीणा
मीरा सरीन
तृतीय संशोधित संस्करण
सपादक
रामवीर सिंह
हेमा उप्रेती
मीरा सरीन
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान « आगरा
(8 केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा
प्रथम संस्करण : 1983
द्वितीय संशोधित संस्करण : 1986
मूल पाठ संस्करण : 1993
» २ संशोधित संस्करण : 1995
तृतीय संशोधित संस्करण : 1996
चतुर्थ संस्करण (पुनर्मुद्रण) : 2000
पुनर्मुद्रण : 2001
मूल्य : रू० 80-00 *
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, हिन्दी संस्थान मार्ग, आगरा 282 005 द्वारा प्रकाशित
और मैसर्स परीक्षा समिति प्रेस, निराला नगर, नगला पदी, आगरा-5 में मुद्रित
प्रथम संस्करण का आघुख
केंद्रीय हिंदी संस्थान अब दो दशक से भी अधिक समय से हिंदी भाषा और
साहित्य के शिक्षग-प्रशिक्षण, हिंदी से संबद्ध भाषावैज्ञानिक विश्लेषण, अनुप्रयुक्त
भाषाविज्ञान, सामग्री निर्माण, एवं भारतीय समाजभाषावैज्ञानिक समस्याओं के उच्च
अध्ययन एवं शोध केंद्र के रूप में विकसित हो गया है। हिंदी भाषा एवं साहित्य,
विशेष रूप से द्वितीय तथा विदेशी भाषा और उसके साहित्य, अध्ययन-अध्यापन में
संरचनात्मक, अनुप्रयोगात्मक एवं तुलनात्मक सभी पद्धतियों से प्राप्त परिणामों का
उपयोग करना आवश्यक और उपयोगी है। इसके अतिरिक्त संस्थान भाषा एवं
साहित्य के अधिगम के परीक्षण और मुल्यांकन के क्षेत्रों में भी अनेक शोधपरक
परियोजनाओं पर कार्य करता है ।
प्रायः यह माना जाता है कि भाषा अध्ययन-अध्यापन तो बहुत बड़ी सीमा
तक वस्तुनिष्ठ रूप में हो सकता है परन्तु साहित्य के अध्ययन-अध्यापन मे उस प्रकार
की वस्तुनिष्ठता, निश्चितता एवं अनुभवाश्चितता का न होना स्वाभाविक और तके-
संगत है, और यही कारण है कि साहित्य की समीक्षा, विश्लेषण एवं मूल्यांकन में
और उनकी निरूपक भाषा में अमूतंता की प्रधानता रहती है । वस्तुतः न तो यह
आवश्यक है और न अनिवार्य । यदि हम भाषा के अन्तर्गत साहित्य के अध्ययन-
अध्यापन के संदर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें तो हमें यह स्पष्ट हो जाएगा कि
साहित्य का अध्ययन-अध्यापन, साहित्य की प्रकृति से अनुशासित होते हुए भी अपेक्षा-
कृत सुनिश्चित एवं वस्तुनिष्ठ दृष्टि से संभव है । यह बात प्रथम भाषा के साहित्य
विषयक अध्ययन पर उसी सीमा तक लागू होती है जितनी द्वितीय और विदेशी
भाषा के साहित्य के अध्ययन पर d
बिविध ज्ञानात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कराये जाने वाले भाषायी शिक्षण
में साहित्य शिक्षण का एक अपना स्थात है । भापार्वज्ञानिक अध्ययन में पाई जाने
वाली नियमबद्धता, अनुस्तरीयता, लक्ष्यपरकता आदि की धारणाओं को साहित्य
शिक्षण के क्षेत्र में लागू किया जाना उचित है और सामग्री चयन एवं प्रस्तुतीकरण आदि
के क्षेत्र में भाषाविज्ञान की इन अद्यतन संकल्पनाओं से लाभ उठाया जाना चाहिए ।
भाषा-शैली-मूलक साहित्य-शिक्षण की महत्ता को स्वीकार करते हुए संस्थान
साहित्य की विविध विधाओं के शिक्षण के लिए आवश्यक सामग्री तैयार करतः है ।
( चार )
यह सामग्री प्रारम्भिक स्तर के शिक्षाथियों से लेकर उच्च स्तर के शिक्षाथियों
(विश्वविद्यालय स्तर तक के छात्रों) के लिए तैयार की जाती है । संस्थान ने उच्च
स्तर (स्नातक तथा परास्नातक वर्गों) के विद्याथियो के लिए एक संकलन श्रृंखला
प्रारम्भ की है जिसके अन्तगंत आधुनिक एकांको संग्रह, आधुनिक कहानी संग्रह,
आधुनिक निबन्ध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। अब इसी क्रम में हिंदी काव्य संग्रह
प्रकाशित किया जा रहा है। इस संग्रह में हिंदी साहित्य के विभिन्न कालों और
प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि कृतिकारों की रचनाओं का संकलन किया गया है। संकलन
करते समय इस बात का ध्यान रखा गया है कि विभिन्न कालो और प्रवृत्तियों के
ऐसे प्रतिनिधि कवियों का ही समावेश किया जाए जो विषय-वरतु, अभिव्यक्ति एवं
भाषा-शैली आदि सभी दृष्टिकोणों से अपने-अपने युगों का ऐसा प्रतिनिधित्व करें
जिससे सभी कालों एवं प्रवृत्तियों का एक सांगोपांग चित्र प्रस्तुत हो जाय । रचनाओं
के चयन में भाषा-शेली तथा प्रोक्ति प्राख्पों की विविधता के साथ-साथ गुणवत्ता
ओर रोचकता का भी ध्यान रखा गया है। अध्ययन-अध्यापन में सुविधा की दृष्टि
से सहायक सूचनाएं और टिप्पणियाँ आदि परिशिष्ट में दी गई Ea भूमिका में हिदी
काव्य-परम्परा का संक्षिप्त इतिहास भी दिया गया है । मुझे विश्वास है कि अपने
इस रूप में यह संग्रह, हिंदी काव्य रचनाओं के विशवत्रिद्यालयस्तरीय अध्येताओं के
लिए उपयोगी सिद्ध होगा। इस हिंदी काव्य संग्रह में रचनाओं के संकलन, भूमिका
तथा टिप्पणी भादि को अत्यन्त लगन एवं श्रम से तैयार करने के लिए संकलन-कर्ता
हमारे साधुवाद के पात हैं ।
बाल गोविन्द मिश्र
निदेशक
4
आमुख
संस्थान ने स्नातक और स्नातकोत्तर स्तरों के हिन्दी छात्रों के लिए कविता,
कहानी, निबन्ध एवं एकांकी विधाओं के संग्रहों का प्रकाशन किया है। प्रस्तुत कृति
कबीर से लेकर धूमिल तक हिन्दी काव्य के विभिन्न कालों एवं प्रवृत्तियों के प्रमुख
कवियों की रचनाओं का संकलन है।
सामान्य छात्रों के लिये भाषिक-दृष्टि से कठिन होने के कारण आदिकाल के
कवियों की कविताएँ इस संग्रह में स्थान नहीं पा सकी हैं| भक्तिकालीन हिन्दी कवियों
में कबीर, मलिक मुहम्मद जायसी, सूरदास तथा गोस्वामी तुलसीदास भक्ति की
प्रमुख शाखाओं एवं धाराओं का प्रतिनिधित्व करते है इनके अतिरिक्त प्रेम-पीड़ा की
भाव विहृवलता तथा भाषा में राजस्थानी के प्रयोगों से छात्रों को परिचित कराने की
दृष्टि से मीरा का तथा श्रीकृष्ण के प्रति अभिव्यक्त सहजभक्ति उद्गारो की दृष्टि से
रसखान का अपना स्थान है | इसी प्रकार अकबर दरबार के राज्याश्रित कवि होने तथा
नीति विषयक दोहों का प्रणयन करने की दृष्टि से रहीम का भी अपना स्थान है।
रीतिकालीन कवियों में कवि देव एवं बिहारी रीतिबद्ध काव्यधारा के तथा कवि
घनानन्द रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं।
आधुनिक काल में ब्रजे भाषा के स्थान पर कविता में खड़ी बोली की प्रतिष्ठा
तथा विषयगत बदलाव की दृष्टियों से अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध” तथा
मैथिलीशरण गुप्त का अन्यतम स्थान है। गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से उत्पन्न
स्वाधीनता आन्दोलन के मानस स्पंदनों से प्रभावित “शुद्ध गांधीवादी? कवियों में से
इस संग्रह में रामनरेश त्रिपाठी को स्थान प्राप्त हुआ है।
छायावादी धारा के प्रतिनिधि कवि जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला”,
सुमित्रानंदन पंत तथा महादेवी वर्मा हैं।
अवसाद, विषाद एवं वेदना व्यंजक तथा मादक, मृदुल एवं आत्मविह्वल गीतों
के गायक बच्चन तथा अप्रतिहत आशा और पौरुष का जीवनदर्शन लेकर एक ओर
( छह )
देश प्रेम तथा दूसरी ओर व्यक्तिगत राग के धरातल पर मानव की सहज मांसलता को
ऊष्मा प्रदान करने वाले दिनकर की रचनाएँ प्रस्तुत कृति में संग्रहीत हैं।
हिन्दी में प्रयोगवाद, प्रगतिवाद तथा नई कविता के सार्थक हस्ताक्षरों में से इस
संग्रह में “तारसप्तक” के कवियों में अज्ञेय, मुक्तिबोध एवं गिरिजाकुमार माथुर तथा
“दूसरा सप्तक? के कवियों में मवानीप्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती
तथा रघुवीर सहाय की रचनाएँ संग्रहीत हैं।
जिन कवियों को “दूसरा सप्तक? में सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया
गया था किंतु जिन्होंने कविता को प्रयोग का विषय मानने वाले राहों के अन्वेषियों की
पंक्ति में सम्मिलित होने से इंकार कर दिया था उनमें सामाजिक यथार्थवादी दृष्टि के
नागार्जुन एवं केदारनाथ अग्रवाल की रचनाएँ समाहित हैं।
सातवें दशक के अन्त तथा आठवें दशक के पूर्वार्द्ध के रचनाकारों के प्रति-
निधि के रूप में धूमिल को स्थान प्राप्त हुआ है जिन्होने सामाजिक-राजनैतिक चेतना
को तीखे रूप में वैचारिक भूमि पर प्रस्थापित करने का प्रयास किया।
इस काव्य संग्रह की भूमिका भारतीय साहित्य के संदर्भ में हिन्दी काव्यधारा की
अंतश्चेतना को समझने में सहायक सिद्ध होगी। मूल पाठ संस्करणों को जोड़कर
पुस्तक का यह छठवाँ संस्करण है तथा पुस्तक के सम्पूर्ण भाग की दृष्टि से यह तृतीय
संशोधित संस्करण का पुनर्मुद्रित चतुर्थ संस्करण है भूमिका तथा परिशिष्ट भाग की
टिप्पणियों को परिवर्तित एवं संशोधित करने के लिए संग्रह के संपादक साधुवाद के
पात्र हैं ।
(महावीर सरन जैन)
निदेशक
विषय-सूचो
कू. सं. अध्याय
[] भूमिका
1,
10.
कबीर
[पद 51, साखी 54]
मलिक मुहम्मद जायसी
[नागमती वियोग-वर्णन 57]
सुरदास
[(क) विनय 62, (ख) भ्रमर-गीत 63]
गोस्वामी तुलसीदास
[(क) भरत-महिमा 66, (ख) कवितावली 70, (ग) विनय-पत्निका 7
(घ) गीतावली 72]
सौरा |
[पद 73]
रसखान
रहीम
[वन्दना 78, अनन्यता 78, प्रेम 78, राम-नाम 78, मित्र 79,
चेतावनी 79, लोक-नीति 79]
देव
[मंगलाचरण 81, cim (राधा-कृष्ण) 81, पूर्व-राग 81,
विरह-वर्णन 82, ऋतु वर्णन : शरद 83]
बिहारी
घनानन्द
[प्रेम-साधना 87, प्रेम की अनन्यता 87, उपालम्भ 87, विरह 88,
विविध 88]
अयोध्यासिह उपाध्याय 'हरिओघ'
[पवन-दूतिका 90]
[भक्ति 84, ऋतु-वर्णन 84; नीति 84, सौन्दर्य और प्रेम 86]
पृष्ठ d.
1-50
51
57
62
66
1,
73
76
78
81
84
87
90
( आठ )
क्र. सं. अध्याय पृष्ठ सं.
12. मेथिलोशरण गुप्त 94
[1. यशोधरा के विरह गीत 94, 2. सीता का उटज गीत 97,
3. नहुष का पतन 100, 4. आशा 102, 5. अन्ध कुणाल 103]
13. रामनरेश त्रिपाठी 105
[विधवा का दर्षृण 105]
14. जयशंकर प्रसाद 108
[1. चिन्ता 108, 2. आँसु 118, 3.ले चल वहाँ 121,
4. मधुमय देश 122, SiHgr wr गीत 122, 6. सुवासिनी
का गीत 123, 7. पेशोला की प्रतिध्वनि 124]
15. सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला! 126
[1. जुही की कली 126, 2. भिक्षुक 127, 3+ तोड़ती पत्थर 128, '
4. वादल राग 129, 5. सन्ध्या सुन्दरी 130, 6. तुम और मैं 131,
7. मैं अकेला 133, 8. बाँधो न नाव 133, 9. वर दे, वीणा
वादिनि 134]
16. सुमित्रानन्दन पंत 135
[1. प्रथम रश्मि 135, 2. ताज 136, 3. गीत विहग 137, 4; तप |
रे! 138, 5. धेनुएं 139]
17. महादेवी वर्मा 141
[1. मैं नीर भरी दुःख की बदली 141, 2. qq होने दो अपरिचित
142, 3. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल ! 143, 4. हे चिर महान् !
144 5. कन-कन में जब छाई थी 145]
18. रामधारीसिह (दिनकर? 146
[1. जनतंत्र का जन्म 146, ' 2, अभिनव मनुष्य 147, 3. पुरुरवा
149, 4, उर्वशी 150, 5. परिचय 152] $
19. हुरिवंश राय 'बच्चन' 154
[1. जुगनू 154, 2. पथ की पहचान 155]
20. सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय? 158
c (i 58, 2, कलगी बाजरे की 159, 3. यह दीप
अकेला 160, 4. नन्दादेवी 161]
21. भवानो प्रसाद मिश्च 163
[1. होना तो उनका है 163, 2. गीत फ़रोश 164, 38अज्ञात,
'पंछो 166, 4. अभिव्यक्ति 167]
m. सं. अध्याय
( नी )
पृष्ठ सं.
22. नागार्जुन 169
[1. प्रेत का बयान 169, 2, बहुत दिनों के बाद 171, 3. गीत 172]
23. शमशेर बहादुर fag 173
[1. अम्त का राग 173, 2. एक पीली शाम 177, 3. धूप कोठरी
के आइने में खड़ी 177]
24. गजानन साधव 'मुकितबोध' 178
[1. ब्रह्म राक्षस 178, 2. पूँजीवादी समाज के प्रति 184]
25. केदारनाथ अग्रवाल 185
[1. बसन्ती gar 185, 2, जीवन से 186]
26. गिरिजाकुमार माथुर 187
[1. बसन्त की रात 187, 2. कौन थकान हरे जीवन की 188,
3. बुद्ध 188, 4. गीत 190]
27. घर्मबोर भारती 191
[1. टूटा पहिया 191, 2. कस्बे की शाम 192, 3. पराजित पीढ़ी
का गीत 193, 4. बोआई का गीत 194]
28. रघुवीर सहाय 195
[1. धूप 195, 2. रामदास 196]
39. धूमिल 198
[मोचीराम 198]
[_] परिशिष्ट 203-366
[1. कबीर 205 (पद 210, साखी 212); 2. मलिक मुहम्मद जायसी
213 (नागमती वियोग वर्णन 215, अन्तःकथा 217); 3. सूरदास
219 (विनय 222, भ्रमर-गीत 225); 4. गोस्वामी तुलसीदास 228
(भरत महिमा 231, कवितावली 231, विनय पत्रिका 233),
5. मीराबाई 236 (मीरा के पद 237); 6. रसखान 239 (रसखान
241); 7. रहीम 243 (भावार्थं और संदर्भ 245); 8. देव 248;
9. बिहारी 254; 10. घनानन्द 261; 11. अयोध्यासिह उपाध्याय
“हरिओध' 265 (पवन दृतिका 267); 12. मंथिलोशरण
गुप्त 270 (1. यशोधरा 271, 2. सीता का उटज गीत 273,
3. नहुष का पतन 276, 4. आशा 278, 5. अन्ध कुणाल 278);
13. रामनरेश त्रिपाठी 279 (विधवा का «dw 280);
14. जयशंकर प्रसाद 282 (1. कामायनी 285, 2. आँसू 292,
Meum)
3. ले चल वहाँ 297, 4. मधुमय देश 298, 5. श्रद्धा का गीत 299
6. सुवासिनी का गीत 299, 7. पेशोला की प्रतिध्वनि' 300);
15. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' 301 (1. जुही की कली 303,
2. भिक्षुक 305, 3 तोड़ती पत्थर 305, 4. बादल राग 306,
5. संध्या सुन्दरी 308, 6. तुम और मैं 309, 7. मैं अकेला 309,
8. बाँधो न नाव 311, 9. वर दे वीणा वादिनि 311); 16. सुमिद्रा-
नन्दन पंत 312 (1. प्रथम रश्मि 315, 2..ताज 316, 3. गीत विहग
318, 4. तप रे 319, 5. घेनुएँ 319); 17. महादेवी वर्मा 321
(1. मैं नीर भरी दुःख को बदली 323, 2. पंथ होने दो अपरिचित
324, 3. हे चिर महान् 326, 4. कन-कन में जब छाई थी 327,
5. मधुर-मधुर मेरे दीपक जल 328); 18 रामधारीसिह दिनकर
329 (1. जनतंत्न का जन्म 331, 2. अभिनव मनुष्य 331, 3.
पुरुरवा 332, 4. उवंशी 333); 19. डॉ० हरिवंशराय बच्चन 333
(1. जुगनू 335, 2. पथ की पहचान 336); 20. सच्चिदानन्द
हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञोय' 337 (1. हिरोशिमा 339, 2. कलगी
वाजरे की 339, 3. यह दीप अकेला 340, 4. नन्दा देवी 340),
21. भवानी प्रसाद मिश्र 341 (1. होना तो उनका है 342, 2 गीत
फ़रोण 343, 3. अज्ञात पंछी 343, 4. अभिव्यक्ति 343);
22. नागार्जुन 344 (1. प्रेत का बयान 346, 2. बहुत दिनों के बाद
347, 3. गीत 347); 23. शमशेर बहादुर सिह 347 (1. अम्न
का राग 249, 2. एक पीली शाम 350, 3. धूप कोठरी के आइने
में खड़ी 350); 24. गजानन माधव 'मुक्तिबोध' 350 (1. ब्रह्म
राक्षस 352, 2 पूँजीवादी समाज के प्रति 353); 25. केदारनाथ
अग्रवाल 353 (1. बसन्ती gar 354, 2. जीवन से 355);
26. गिरिजाकुमार माथुर 355 (1. बसन्त की रात 357, 2. कौन
थकान हुरे जीवन क्री 357, 3. बुद्ध 358, 4. छाया मत छूना (गीत)
358); 27. धमंबीर भारती 359 (1. टूटा पहिया 360, 2. कस्बे
की शाम 360, 3. पराजित पीढ़ी का गीत 361, 4. बोआई का गीत
361); 28. रघुवीर सहाय 361 (1. धूप 363, 2. रामदास 363);
29. धूमिल 364 (मोचीराम 366) |]
भूमिका
गति जीवन और स्थिरता विनाश का प्रतीक a गतिमय जीवन
परिवर्तित और विकसित होता है । यही प्रकृति का नियम है । साहित्य का इतिहास
इसका जीता-जागता उदाहरण हे । परिवतंन के इसी अनवरत चक्र में हिंदी साहित्य
की जाहू नवी सहस्त्रटारा होकर अनेक दिशाएँ बदलती रही हैं। विगत युगों की पल-पल
परिवर्तित राजनीतिक, सामाजिक एवं धामिक परिस्थितियों के फलस्वरूप निरन्तर
ही नवीन-नवीन विचारधाराओं को अपने में आत्मसात् करना उसका लक्ष्य रहा है ।
युगानुसारं प्रवृत्तियां उसमें उभरी हैं । कहीं भक्ति और श्यृंगार की, कहीं सिद्धों की
हठयोग साधना, कहीं आश्रयदाताओं की प्रशंसा तो कहीं आदर्शवाद और यथार्शवाद,
कहीं जीबन की विकृतियों और विसंगतियों के कारण कुठा, संत्रास से त्रस्त मानव
की चीख-पुकार है । अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में हिदी कविता इन सभी रूपों.को अपने
में आत्मसात् कर प्रवाहित हो रही है ।
इतिहास के संदर्भ में इस प्रकार के प्रश्न शर्नः शने: उठते रहे हैं कि हिंदी
का प्रारंभ कब्र से हुआ ? हिंदी कविता का प्रादुर्भाव किस काल में हुआ ? हिंदी का
आदि कवि कौत है ? इसी प्रकार कविता क्या है? कवि कौत है ? इत्यादि प्रश्न
सदा से सहुदयों को उद्वेलित करते रहे हैं। विद्वानों ने इन प्रश्नों का समाधान
करने का प्रयत्न किया, उसके फलस्वरूप काव्य में अनेक वादों का जन्म हुआ ।
कविता को परिभाषा की सीमा में बांधने का जब-जब्र प्रयास हुआ है, जीवन
के बदलते पहलुओं ने उसे झकझोर डाला । यह वात आज साहित्य के इतिहास के
अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है । साहित्य मानव-जीवन को भावात्मक स्थिति एवं
गतिशील चेतना की अभिव्यक्ति है । हिंदी कविता के इतिहास को समझने के लिए
तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन अपेक्षित हो जाता है।
हिदी साहित्य का प्रारंभिक चरण : सिद्ध साहित्य और जेन साहित्य
ug सर्वेविदित. है कि हिदी साहित्य का प्रादुर्भाव युद्ध, संघर्ष ओर अशांति के
वातावरण में हुआ था p यह युग मुसलमानों के आक्रमण का युग था । वैदिक काल
से चली आने वाली भारतीय संस्कृति की धारा निष्प्राण और निस्तेज होती जा रही
4
थी । शास्त्रीय आचार संहिता! समाज के लिए दुर्वह बोझ बन गयी थी । इसी की
प्रतिक्रिया स्वरूप नैतिक एवं धामिक उत्पीड़न का Í pu जेन एवं बौद्ध धमं के
' माध्यम से प्रारंभ हुआ । उन्होंने शास्त्रों के विधान को स्वीकार नहीं किया । इन
लोगों ने वेदों को नहीं माना और न ही जातिवाद को स्वीकार किया । सिद्धों ने
बौद्ध धमं के वञ्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य 'जनभाषा' में लिखा
वह हिंदी के.सिद्ध-साहित्य की सीमा में आता है । इस प्रकार हिंदी के पूर्वी क्षेत्र में
सिद्धों ने और पश्चिम में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम
से किया । आगे चलकर सिद्धों की वाममार्गी भोग-प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया
के रूप में नाथ संप्रदाय उठ खड़ा हुआ । इस संप्रदाय के प्रारंभकर्त्ता गोरखनाथ
माने जाते हैं | प्रायः सभी भाषाओं के प्रारम्भिक साहित्य के विकाउ में नाथ पन्थी
तथा शैव साधुओं का महत्वपूर्ण योग रहा है । सिद्ध एवं नाथ साहित्य का सृजन
यद्यपि दक्षिण में उत्तरी और पूर्वी भारत की अपेक्षा बहुत कम हुआ है फिर भी नाथ-
प्रभाव दक्षिण तक पहुँच गया था । 'नवनाथ चरित्रम्' (तेलुगु) आदि कृतियाँ इसका
प्रमाण हैं । मराठी और बंगला में भी नाथ साहित्य की विशिष्ट धारा प्रवाहित हुई
है । मराठी में तो स्वयं गोरखनाथ की ही वाणी मिलती है जिसका नाम है 'अमरनाथ
सनवड' । बंगला तो नाथ-संप्रदाय का गढ़ था। गुण परिमाण दोनों की दृष्टि से
बंगला का नाथ-साहित्य सर्वाधिक समृद्ध है । उसमें liqui के सहजिया संप्रदाय तथा
1. वेद विहितो धर्म: । वेद विहित धर्म को 'आचार' कहा गया है । वह ग्रंथ जिनमें
व्यक्तिगत जीवन तथा सामाजिक जीवन के आधारभूत नियम लिखे गए हों
उसे “आचार संहिता' कहा गया है । यह वेदों पर आधारित है ।
2. सिद्ध साहित्य अप्र श-दोहों तथा चर्यापदों के रूप में उपलब्ध है और जिसमें
बौद्ध तांत्रिक सिंद्धान्तों को मान्यता दी गई है। बौद्ध सिद्धाचायाँ की
रचनाएं दो काव्य रूपों में उपलब्ध हैं--दोहा कोष तथा चर्यापद ।
भारतीय साहित्य कोश--पु० । 349
3. नाथसंप्रदाय के सिद्धान्तो में ईश्वर की उपासना तथा बाहृय विधानों के प्रति
उपेक्षा प्रकट की गयी है । वेद, शास्त्र का अध्ययन व्यर्थे ठहराकर विद्वानों के
प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई है। तीर्थाटन आदि निष्फल कहे-गये हैं । इस
संप्रदाय का साहित्य पन्द्रहवीं शती तक लिखा जाता रहा । कविता का विषय
माया-मोह् त्याग एवं आध्यात्मिक चितन है | इसमें योगसाधना की प्रधानता
है । नाथ-संश्रदाय के साहित्य की भाषा पंजाबी और हिंदी मिश्चित है ।--
` भारतीय साहित्य कोश--पृ० 621-622
3
चर्यागीत आदि उपलब्ध हैं । असमिया तथा उड्या के प्राचीन काव्य पर नाथ
आन्दोलन का प्रभाव तो है लेकिन नाथ-साहित्य की कोई स्वतन्त्र धारा वहाँ नहीं
दिखाई देती । बंगाल के बाद इस संप्रदाय का दूसरा विकास केंद्र पंजाब था ।
पंजाबी के इतिहासकार गोरखनाथ और चरपटनाथ को अपने साहित्य के आरंभिक
लेखक मानते हैं । इस साहित्य के सृष्टा गुरू, नाथ, सिद्ध, पीर और बाबा आदि
नाम से प्रसिद्ध थे । वस्तुतः वही काव्य-प्रवाह हिंदी में भी आया । आगे चलकर
भक्तिकाल के संतमत का विकास भी वास्तव में नाथ-साहित्य से ही हुआ है जिसके
प्रथम कवि कबीरदास जी थे ।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि सिद्धों की रचनाओं से ही हिन्दी साहित्य
का प्रारंभ मानना युक्तिसंगत है । अधिक विस्तार में न जाकर उत्तर अपश्र GP से
ही हिंदी का पूर्वापर संबंध नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अपश्रश
काव्य का सबसे प्राचीन रूप सिद्ध-साहित्य और जैन-साहित्य में मिलता है, साथ ही
धार्मिक चेतना के मूल-रूप को ध्यान में रखकर सिद्ध साहित्य से ही हिंदी साहित्य
का प्रारंभ मानना युक्तिसंगत है । -
आदिकाल
जिस समय भारतीय भाषाओं का साहित्य अपने विकासक्रम में था उस समय
भारत में राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्र में काफी उथल-पुथल हो रही थी जिसका
सबसे अधिक प्रभाव उत्तर भारत पर था, दक्षिण #।२5 इससे अछूता रहा । हर्षवर्धन
की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत कई छोटे-छोटे राजपूत राज्यों में विभक्त हो गया
था ये सभी राज्य आपस में एक दूसरे से लड़ा करते थे । गजनवी की मृत्यु (सं.
1087), मोहम्मद गोरी की पहली चढ़ाई (सं. 1047), जिसमें पृथ्वीराज वंदी वना
लिया गया था, के बाद से ही भारत में मुस्लिम शासन की नींव पड़ी जिसने राजपूती
वीरता को शिथिल कर दिया था। ये शासक परस्प” वेर शोधन के लिए युद्ध रत
1. 1926 ई. में डा. सुनीतिकुमार चटर्जी ने भाषा तात्विक विचार के आधार पर
इसे बंगला भाषा का प्राचीनतम रूप सिद्ध किया । इन पदों के लेखक लुइपाद,
कानुपा, भूसुक सरहपाद आदि बौद्ध सहजिया मंतावलंबी साधक हैं । इसकी
भाषा सांध्यभाषा है। दसवीं से बारहवीं शती के बीच रचित योगियों के ये
गीत बंगला भाषा के प्राचीनतम उदाहरण हैं ।
2. चद्धघर शर्मा गुलेरी के शब्दों में उत्तर अपभ्रंश ही पुरानी हिंदी है । साहि-
त्यिक अपश्नश से इतर बोलचाल की उस भाषा का वोधक है, जो साहित्यिक
eue के रूप में स्वीकृति के पश्चात उसके बाद के रूप में स्थापित होती जा
रही थी ।
4
होकर अपनी शक्ति क्षीण कर रहे थे । देश के गौरव का उनको ध्यान न था
जिसका परिणाम यह हुआ कि शर्नः शनैः इस्लामी संस्कृति के-प्रसार ने भारतीय
संस्कृति एवं सभ्यता पर अपना प्रभाव डाला और यहाँ के साहित्य, धर्म-साधना
और दार्शनिक विचारधारा तक इससे अछती नहीं रही । इस प्रकार आठवीं शताब्दी
से पन्द्रहवी शताब्दी ईसवी तक के भारतीय इतिहास का रूप हिन्दू-सत्ता के धीरे-
धीरे क्षय होने तथा इस्लाम सत्ता के धीरे-धीरे उदय होने की कहानी है जिसके फल-
स्वरूप कोई भी एक प्रवृत्ति साहित्य में स्थान न पा सकी । अतः इस काल का समस्त
हिंदी साहित्य आक्रमण और quu से प्रभावित होकर सामने आया ।
आदिकाल के इस युद्ध प्रभावित जीवन में कहीं संतुलन न UT प्रमुख
वीरगाथाकाल पृथ्वी राज चौहान, जयचंद, परमदिदेव आदि राजाओं तथा उनके अनु-
यायियों के प्रतिद्वंदितापूर्ण चरित्रों पर आश्रित है । धीरे-धीरे मुस्लिम राजाओं एवं
सामंतों की विलासिता हिंदू वर्ग में समाविष्ट हो गयी । राजपूतों के लहू में
मुगल दरवार की विलासिता प्रवेश कर गयी जिसका स्पष्ट प्रभाव इस युग
के साहित्य पर दिखाई देता है। उस काल के साहित्य-निर्माता चारण लोग
थे जो अपने आश्रयदाताओं का यशोगान कर उन्हें युरध के लिए प्रेरित करते थे ।
चारण काव्य लिखने की यह् प्रवृत्ति अधिकांश भाषाओं में प्रायः समान है । तमिल
भाषा में चारण काव्य संगम काल? के प्रारम्भ से ही मिलते हैं। “पोहतरात्रुप्पदई
अर्थात् सेनापति की बात’ करइकल के राजा की स्तुति में लिखी गई है । संगम-युग
का प्रसिद्ध महाकाव्य 'सिलप्पदिकारम्' भी चारणकाव्य है । तेलुगु में श्रीनाथ का
तमिलनाडु में प्राचीन काल में संघ (संगम) स्थापित करके साहित्य सजँन' हुआ
करता था । तमिल का प्राचीनतम साहित्य जो उपलब्ध है वह तीसरे संगम काल
(संघ काल) या अंतिम संघ का है । प्रथम ओर दूसरे संघ (संगम) का कोई
साहित्य नहीं मिलता । उस काल के कवियों और साहित्य का उल्लेख परवर्ती
साहित्य में मिलता है । यों तो संघ काल के काल-निर्णय पर भारी मतभेद है
फिर भी यह निश्चित है कि ईसवी पूर्व कई शताब्दियों पहले ही तमिल की
साहित्य संपदा समृद्ध थी जिसमें से बहुत थोड़ा-सा अंश हमें प्राप्य है ।
संगम कालीन साहित्य में लक्षण ग्रंथ भी हैं, लक्ष्य ग्रंथ भी । संगम
कालीन लक्षण ग्रंथ तोलकाप्पियम है । संस्कृत में जो स्थान पाणिनि का है,
बही तमिल में तोलकाप्पियम का है। इसमें काव्य-रीतियों का अच्छा विवेचन है ।
संगम कालीन लक्ष्य ग्रंथों को दो भागों में बाँटा गया है। अहम
(आंतरिक प्रेम संबंधी काव्य), पुरम (बाहय, वीरता और धर्म के काव्य)
5
लोकप्रिय काव्य 'पलनाटिवीरचरित्रम्' इस वर्ग के श्रेष्ठ काव्य हें । मलयालम के आदि
काव्य-संग्रह "पय पाट्टकुल', मराठी के वीराख्यान रूप पवाडे चारण काव्य हैं जिसमें
चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओं और वीरों के शौय का यशोगान किया
है । गुजराती साहित्य में श्रीधर रचित 'रणमल्लछंदे' आदि चारणकाव्य को अमूल्य
विभूतियाँ हैं । इस प्रकार उस समय के काव्य पर वीरता की छाप wd स्पष्ट है
जिसके परिणामस्वरूप इतिहसकारों ने आदिकालीन साहित्य को 'वीरगाथाकाल' की
संज्ञा से सुशोभित किया है । इन वीरगाथाओं के साथ-कांब कार नें शगार का पुट
(छाप) पर्याप्त मात्रा में था ।
इस युग का प्रमुख प्रबंध काव्य चंदवरदाई कृत 'पृथ्वीराउ रासो' आदिकाल
के ग्रंथों में सबसे प्रसिद्ध और प्रतिनिधि ग्रंथ साना जाता है । रासो काव्य लेखन की
परंपरा इस युग की प्रमुख प्रवृत्तियों में से एक है । इसमें वीरतापुर्ण भावों की बड़ी
सुंदर अभिव्यंजना की गई है । वीरगाथा प्रबंधकाव्यों के साथ मुक्तक वीरगीत के
रूप में नरपति नाल्ह कवि का 'बीसलदेव रासो' ही एकमात्र ऐसा रासो काव्य है
जिसमें वीरत्व व्यंजना की अपेक्षा प्रेम के संयोग और विप्रलम्भ दोनों रूपों की प्रधा-
नता है । इसके अतिरिक्त दलपतिविजय का 'खुमाण रासो', जगनिक का 'आएह de
एवं 'ढोला-मारूरा-दूहा', 'परमाल रासो' आदि रचनाएँ इसके उदाहरण हैं ।
समग्ररूपेण आदिकालीन साहित्यिक पृष्ठभूमि अत्यंत समृद्ध रही है । संस्कृत
साहित्य तो समृद्ध बन चुका था । दूसरी ओर अपभ्रंश साहित्य जैनधमे का आश्रय
लेकर सूंदर कथा काव्यों और मुक्तकों का सृजन कर रहा था d सिद्ध और नाथ
साहित्य यद्यपि उच्चकोटि के काव्यरूप न दे सके परंतु भाषा के क्षेत्र में पुरानी हिदी
के विकास में इनका योगदान विशेष रूप से रहा है। जैसे जसे हिंदी का विकास
होता गया वह प्राकृत और अपभ्रंश के बंधन को छोड़ती गयी, जिंसका बहुत कुछ श्रेय
आदिकालीन साहित्य को है ।
मैथिली साहित्य और विद्यापति
आदिकालीन परिचय के समक्ष एक मात्र समस्यः विद्यापति को लेकर उठ
खड़ी हुई है । उन्हें हिदी का आदि गीतकार कहा जाता है। ये 'मैथिल कोकिल' नाम
से भी प्रसिद्ध हैं । मधुर गीतों के रचयिता होने के कारण इन्हें 'अभिनव जयदेव' के
नाम से भी पुकारा जाता है । इनकी प्रारंभिक कृति 'कीतिलता' और 'कीतिपताका'
नामक दो अवह टूट रचनाएँ हैं जिसमें कवि ने अपने आश्रयदाता मिथिला नरेश कीति-
सिह के शौर्ये प्रशस्ति का गान किया है। विद्यापति की कीति का मुख्य आधार
मैथिली लोकभाषा में रचित पदावली है । इसमें राधा-कृष्ण कौ लीलाओं का मधुर
चित्रग है । विद्यापति के पदों का रूपांतर बंगला में भी पाया जाता है । विषय की
6
दृष्टि से विद्यापति भक्त कवियों की परंपरा में आते हैं लेकिन श्रृंगार की अति-
शयता के कारण उसे भक्तिकाल की कृति कहने में भी संकोच होता है । विद्यापतिः
अपने युग में एक विशिष्ट कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो प्राचीन का अनुयायी
होकर भी हिंदी में नए काव्य रूपों (पद परंपरा) को जन्म दे रहा है। वास्तव में
विद्यापति एक ऐसे सबि स्थल पर खड़े हैं जहाँ हिंदी साहित्य का एक युग समाप्त
होकर दुसरे युग की शुरूआत हो रही है ।
इस प्रकार हिदी का आदिकाल राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से संघर्ष
और गृहकलह का रूप था और धामिक दृष्टि से दो भिन्न स्वभाव वाली साधनाओं
का विराट जन-आन्दोलन था । मुसलमानों के आक्रमण से भारतीय संस्कृति एवं
सभ्यता का ह्वास हो चुका था । ऐसी स्थिति में हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन
के मध्य पाते हैं जो उन सव राजनीतिक, सामाजिक आंदोलनों से कहीं अधिक विशाल
और भारतव्यापी था ।
मध्ययुगीन जागरण तथा भक्तिकाल
ह् कहना उपहासास्पद होगा कि मुसलमानों के आक्रमण से आक्रात जनता
भक्ति की शरण में गई और यहीं से 'भक्तिकाल' का प्रारंभ हुआ । इस संदर्भ में
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन कि “भारतीय चिता स्वभावतः ही इस
ओर अग्रसर होती गई है ।' हाँ इतना अवश्य कह सकते हैं.कि प्रारंभ से चली आ
रही वर्णाश्रम व्यवस्था एवं सिद्धों और नाथों की जो योगधारा आगे चलकर विदेशी
आक्रमणों के प्रभाव से कुछ समय के लिए मंद पड़ गई थी, वह समय पाकर पुनः
प्रज्ज्वलित हो उठी जिसे भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भक्ति आंदोलन कहा गया
है । यह आंदोलन हिंदी में नाथ, सिद्धों, कबीर जैसे निर्गुण संतों, जायसी जैसे सूफी
प्रेममागियो, qx जैसे कृष्णभवत कवियों तथा तुलसी जैसे रामभक्त कवियों में परि-
लक्षित होता है । भक्ति आंदोलन का यह रूप भारत की अधिकांश भाषाओं में प्रायः
रामान है । दक्षिण की भाषाओं में भक्ति भावना का प्रावल्य अपेक्षाकृत अधिक है ।
आलवार! भक्तों की श्रृंखला इसका उदाहरण है । आलवार भक्तों में भक्तिपूर्ण
उपाशना पद्धति विद्यमान थी । आलवारों का भक्तिवाद जनसाधारण का भक्तिमत
1. आलवारों की विशेष चर्चा यहाँ आवश्यक है क्यग्रोंकि आलवार ही वास्तव में
उत्तर-भारत में भक्ति परंपरा के प्रेरक रहे हैं और श्रीरामानंद उन्हीं आलवारों
की परंपरा में आते हुँ । ये आलवार मुख्यतः बारह बताये जाते है जिनमें आण्डाल
नामक भक्त महिला भी थीं जिनकी तुलत्ता भक्तिंकालीन मीराबाई से की जाती.
हैं आण्डाल के अन्य नाम हैं-कीदै या गोदा, शुडिककोडुत्त नाच्चियार आदि |
आण्डाल की दो रचनाएं हैं। तिरुप्पार्वं और नाच्चियार तिरुमोलि। इन
दोनों रचनाओं का धामिक एवं साहित्यिक महत्व अक्षुण्ण है ।
7
था जिसमें किसी विशिष्ट जाशि-पाँति अथवा बाहू याचारों का प्राधान्य न था । ये आल-
वार मुख्यतः निम्न जाति के और अशिक्षित भी कितु इनमें ईश्वर के प्रति प्रगाढ
भक्ति थी । इन्हीं आलवारों ५) परम्परा में वैष्णव आचार्य श्री रामानुज का प्रादुर्भाव
हुआ । तमिल में वैष्णव काट संग्रह 'नालायिरप्रबंधम्' नाम से प्रसिद्ध है । इसके
रचयिता बारह आलवार भक्त हैं । तेलुगु की प्राचीनतम रामायण 'रंगनाथ रामायण'
तथा कवयित्री मुद्रदुपलजि की काव्यकृति 'राधिकासांत्वनम' कृष्ण काव्य की सरस
रचनाएँ हैं । इसी प्रकार कन्नड़ में भी वैष्णव भक्तों का पद-साहित्य उपलब्ध है जो
वहाँ 'दास साहित्य' के नाम से प्रसिद्ध है । मलयालम का 'कथकलि साहित्य' भी
मुलतः भक्तिपरक है । 'कृष्णगाथा' मलयालम में वैष्णव काव्य का आदि ग्रन्थ माना
जाता है । वैष्णव काव्यधारा का सबसे अधिक वेग गुजराती काव्य में मिलता है ।
गूजराती में कृष्णभक्ति का प्राधान्य है । नरसी मेहता, भालण, विष्णुदास, प्रेमचन्द
और मीराबाई की कष्णभक्तिपरक रचनाएँ और मराठी में सन्त ज्ञानेश्वर, तुकाराम
और गरुरामदास की कृतियाँ इसी भक्तिधारा की विविध लहरें हैं । बंगला, असमिया
और उड्या में वैष्णव भक्ति का आंदोलन चंडीदास, सरलदास और महाप्रभु शंकरदेव
की रचनाओं में प्रतिविवित होता है । इन्होंने रामभक्ति एवं कृष्णभक्तिपरक रचनाए
की हैं । 'बड़गीत' (वरगीत)! असमिया का विशिष्ट काव्यरूप है जिसका प्रमुख विषय
कृष्ण का बाल वर्णन है । असमिया रामायण तथा उड्या रामायण रामकाव्य के अन्य
उदाहरण हैं ।
उपर्यक्त विवेचना से स्पष्ट है कि हिंदी का भक्ति साहित्य मात्र उत्तर
भारत तक ही सीमित न था वरन् बंगाल, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आसाम से होता हुआ
दक्षिण की सभी भाषाओं में अपना अप्रतिम स्थान रखे हुए है। इतना ही नहीं समस्त
उत्तर-भारत में वैष्णव भक्ति लाने का श्रेय श्रीरामानुज को है जो दक्षिण के ही थे ।
इन्हीं की शिष्य परंपरा में राघवानन्द के शिष्य स्वामी रामानन्द हुए । भक्तिकाल की
समस्त चिन्तनधारा के स्वामी रामानन्द ही थे । इस नवीन भक्ति आंदोलन ने मानव-
मात्र के लिए भवित का दूवार उन्मुक्त कर दिया था । एक साथ Wu और fast को
वैष्णव धर्म में दीक्षित होने का अधिकार दिया । इसका स्पष्ट प्रमाण एक और वैष्णव
1. mx का अर्थ या तो बडा है अथवा श्रेष्ठ । गीतों के उच्च आध्यात्मिक गुणों के
के कारण शायद यह नाम पडा होगा । शंकरदेव जो असमिया साहित्य जगत के
सूर्य कहलाते हैं, उन्हीं के अनुसरण पर माधवदेव ने बरगीत लिखे थे जिनका
wer विषय बालकृष्ण की लीलाओं का वर्णन था । शंकरदेव ने भी बरगीत लिखे
लेकिन उतका मुख्य विषय जीवन की नश्वरता तथा हरिभजन आदि था ।
भारतीय साहित्य कोश पृ. 787
8
संत गोस्वामी तुलसीदास हैं तो दुसरी ओर वणे विरोधी कबीरदास और रैदास ।
“विशिष्ट बात यह है कि इन वैष्णव भक्तों ने अपने चतुदिक फैले मत-मतांतरों के
मध्य समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया जिसके मध्य हिंदू, मुस्लिम, उच्च-निम्न जाति
आदि सभी को एक साथ समाविष्ट कर लिया जिसकी कि उस युग में अत्यधिक
आवश्यकता थी । वास्तव में रामानन्दी भक्ति में विभिन्न धर्म, संप्रदाय समाहित
हो गए हैं--यदि यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी । रामानन्द के वैष्णव
संप्रदाय से प्रभावित होकर कुछ अन्य वैष्णव संप्रदाय भी उत्पन्न हुए थे । ये मुख्यतः
कृष्ण भक्ति समर्थक थे, एकमात्र रामानन्द का रामवत्' सम्प्रदाय रामभक्ति पोषक
था--अन्य सभी वल्लभ संप्रदाय, चेतन्य संप्रदाय, राधावल्लम संप्रदाय कृष्णभक्ति
पोषक थे ।
इस प्रकार इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों का विभाजन इस प्रकार कर
सकते हैं ।
1. निर्गुण भक्ति काव्य--ज्ञानाश्रयी शाखा/संत काव्य धारा
प्रेममार्गी शाखा/सूफी काव्य धारा
2. सगुण भक्ति काव्य--रामभक्ति शाखा
कृष्ण भक्ति शाखा ।
निर्गुण भक्ति काव्य का स्वरूप--निर्गुण का अथं है गुण-रहित, गुणातीत ।
निर्गुण-संप्रदाय को संत-संप्रदाय, निर्गुण-मागे अथवा निर्गुनिया कहते हैं। अर्थात्
निराकार की उपासना करने वाले को निगु'ण भक्तिमार्गी कहते हैं। निगुण संत
काव्य भक्तिकालीन साहित्य का आरंभिक अंश है जिसके प्रवर्तक कबीरदास जी माने
जाते हैं । दूसरे शब्दों में आदिकालीन नाथ-साहित्य से ही भक्तिकाल के निगु ण-पंथ
(संत-मत) का विकास हुआ है, जिसके प्रथम कवि कबीरदास हैं। संत-काव्य की यह
- परंपरा प्राय: स्त्र व्याप्त है। तमिल के अठारह सिद्ध संत कवि थे जिन्होंने सरल
वाणी में रहस्यवादी रचनाएँ की हैं । तेलुगु में वेमन, वीरब्रह म और कन्नड के सर्वज्ञ
आदि इस वर्ग के प्रमुख कवि हैं। मराठी का संत-काव्य तो अत्यन्त प्रसिदध है । संत
T उनकें अनुयायी नामदेव, और संत तुकाराम और वारकरी पंथ के अन्य संत
थां एकनाथ आदि संत-काव्य परंपरा के प्रतिनिधि हैं । गुजराती में यह प्रवृत्ति
अखा की रत्रनाओं-वित्तविचार संवाद, अनुभव-बिन्दु तथा अखोगीता में और
प्रीतमदास आदि संत कवियों की कविता में मिलती है । इन कवियों ने गुजरात में
वल्लभ संप्रदाय के विरुदूध आवाज उठाई तथा सहज भक्ति का महत्व प्रतिपादित
9
"किया । बंगाल के बाउलगीतों के रचयिता ग्रामीण संत कवि ये | उड्या के कंघ
कवि भीमाभाई का नाम भी संत काव्य परंपरा में लिया जाता है । पंजाबी में
'गुरुतानक तथा अन्य सिख कवियों और अनेक हिंदु-मुसलमान संतों की अमृतवाणी
संत काव्य का उदाहरण है । संत कवियों ने राम और रहीम की एकता का, हिदू-
मुसलमानों के बाहू याडंबरों, जाति-पाँति तथा निरर्थक रूढ़ियों का विरोध कर दो
विभिन्न जातियों के मध्य समन्वयकारी कबीरदास इस धारा के प्रवर्तक थे ।
कबीरदास--कबी रदास ने गुरु रामानन्द से शिष्यत्व ग्रहण कर जनसाधारण
के मध्य भक्ति के जिस व्यापक रूप का प्रचार किया उसमें उच्च-निम्न-वगे, हिंदू
और मुसलमान सभी समाहित हो जाते हैं । वास्तव में कबीरदास को एक सहज-भक्त
से ज्यादा कुछ और न कहना ही उचित होगा । वे संप्रदाय विशेष में रहकर भी संप्रदाय
से विरक्त थे । उन्होंने शंकराचार्य के अद्वेतवाद से निर्गुण ब्रहू म की भावना ली,
वैष्णव से वैष्णवी दयाभाव और भक्ति तत्व, नाथ-पंथियों से प्राचीन शास्त्रों की अवहे-
लना, वर्णव्यवस्था का विरोध, सूफियों से प्रेमसाधना और मुसलमानी शरीयत से तीर्थ
और मूतिपूजा का खंडन सीखा । इन साधना पद्धतियों से दूर जिस सहज साधना
पद्धति का नया मार्ग कबीर ने निकाला था, वह संपूर्ण बाहू य विधानों से मुक्त था।
यह संत कबीर की मौलिक उपलब्धि है ।
अखिल-भारतीय-परिप्रेक्ष्य में धर्म और संप्रदाय की समाज और व्यक्ति की
व्याख्या है-कबीरदास उसके कंद्र बिन्दु थे। कबीर संसार के ऐसे अद्वितीय
उदाहरण हैं जो निरक्षर होकर भी सच्चे अर्थो में ज्ञानी और शिक्षित थे । कबीर की
वाणी का संग्रह 'बीजक' नामक ग्रंथ में संग्रहीत है--इसके तीन भाग हैं-रमेनी,
सवद और साखी । काव्य-सौष्ठव तथा भाषा की दृष्टि से संत-काव्य को आलोचना
होती रही है | संत कवि अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे । अनुभूति को गहनता से उनको
भाषा में लक्षणा और व्यंजना का प्राधान्य है। इनकी भाषा में कई बोलियों का
1. प्राचीनकाल से ही बंगाल में एक प्रकार की आध्यात्मिक संगीत धारा का प्रचलन
था जो 'बाउल गान' के नाम से प्रसिद्ध है । arse साधक हिदू मुस्लिम जैसे
धर्म के कठोर नियमों के बंधन से मुक्त होकर साधना पथ पर अग्रसर होते हैं ।
किसी भी शास्त्र को ये स्वीकार नहीं करते । इनकी भाषा रहस्यात्मक साध्य-
भाषा है । बंगाल में बहुत दिनों तक भद्र शिक्षित समाज का इन गीतों को ओर
ध्यान न था । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शिक्षित समाज का ध्यान इस ओर आकर्षित
किया । उन्नीसवीं शताब्दी क॑ बाउल कवियों में लालन फक्रीर का नाम बहुत
विख्यात है ।
भारतीय साहित्य कोश--पृ. 807
10
संग्रह है क्योंकि इनका जीवन प्रचारक के रूप में अधिक रहा है । कबीरदास के
अतिरिक्त रेदास, दादुदयाल, सुन्दरदास, मुलकदास आदि अनेक सन्त हुए हैं जो प्राय:
कबीर-पंथी (निर्गुण पन्थ) मार्ग के ही अनुगामी थे ।
हिदी प्रेमाख्यानक काव्य-परम्परा--निगु ण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा से
इतर सूफी कवियों के प्रेमाख्यानक काव्यों का सृजन भी इसी दौर में हुआ । जैसा कि
पूर्व विवेचना में स्पष्ट किया जा चुका है, मुसलमानी सत्ता के आगमन के साथ ही
साथ देश में सूफी साधकों का आगमन होने लगा था । 'सूफी' शब्द का प्रयोग इस्लाम
धर्म के रहस्यवादियों के लिए किया जाता है । इश्क्रमजाजी से इश्कहकीकी की ओर
अर्थात् लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की ओर उन्मुख होने की साधना ही प्रेममार्गी
सूफियों की भक्ति-पद्धति है । इन्होंने प्रेमाख्यानक काव्य परम्परा द्वारा प्रेम के जिस
व्यापक रूप का निरूपण किया है, उसका ज्ञानोश्रयी शाखा में अभाव था। सूफी
परमेश्वर को प्रेयसी के रूप में देखते हैं। सारा लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम की ही
झलक है । लौकिक प्रेम के द्वारा सूफियों ने अलौकिक प्रेम का उद्घाटन
किया है ।
इस संदर्भ में यह कहना कि भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा
का अभाव था--उचित न होगा । प्रेमाख्यान काव्य की यह परंपरा प्रायः समान रूप
से सभी भाषाओं में देखने को मिलती है तेलुगु में राजशेखर चरित्रम्, कलापूर्णोदयम्,
चंद्रमती परिणयम आदि प्रेमगथाएँ हैं। गुजराती में प्रेमगाथाओं की परंपरा और
भी अधिक समृद्ध है । प्राचीन गुजराती में असायत ने 'हंसावलि' व हीरानंद ने
विद्या विलासिनी' की रचना की । बंगला साहित्य भी इस काव्यधारा से प्रभावित
है-आराकान की राजसभा में बैठकर दौलत काजी तथा अलाओल ने भी ऐसे सरल
साहित्य की रचना की है । सूफी भावधारा को हिंदू भावधारा में ढालकर इन लोगों
ने अपने काव्य का सृजन किया । सैयद अलाओल ने जायसी के पद्मात्रत का बंगला
में पद्य में अनुवाद किया । पंजाबी और हिंदी में प्रेमाख्यानों की परंपरा अत्यंत
विस्तृत है । पंजाबी में हीर-राँझा, लैला-मजन्ं', 'कामरूप कामलता” आदि अनेका-
नेक रचनाएँ प्रेमकथाओं पर आश्रित हैं। हिंदी का प्रेमाख्यान कदाचित और भी
समृद्ध है । उदाहरणार्थं महाभारत में वणित 'शांतनु-सत्यवती! 'अर्जुन-सुभद्रा', कृष्ण-
रुक्मिणी 'नल-दमयन्ती' आदि इसी प्रकार के प्रेमाख्यान हैं । इस धारा के कवियों में
जायसी का पद्मावत विशेष उल्लेखनीय है जिसकी विस्तार से चर्चा आगामी पष्ठों
में की जायगी । -
सुफी संत कवि जायसी--मलिक मुहम्मद जायसी जायस के निवासी थे और
सूफी फकीर शेख मुहीउद्दीन के शिष्य थे | तुलसी के 'रामचरितमानस' के वाद
11
सबसे अधिक महत्व इनके पद्मावत का है। यह हिंदी का श्रेष्ठ vd सरस प्रवन्ध-
काव्य है जिसमें कवि ने राजा र॒त्तसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के
प्रेम का वर्णन किया है । पद्मावती ईश्वर तथा रत्तसेन आत्मा के प्रतीक रूप में
लिए गए हैं । नागमती के विरह और पद्मावती के रूप वर्णन में जायसी ने अद्भुत
प्रतिभा का परिचय दिया है । सूफियों का मूल कथ्य प्रेमभावना का चित्रण करना
रहा है | सूफी सिद्धांतों के अनुसार आत्मा एकमात्र प्रेम का अवलंब लेकर ही पर-
मात्मा से तादात्म्य स्थापित कर सकती है जिसके निरूपण करने में इन सूफी कवियों
ने प्रेमी और प्रेमिका के पारस्परिक प्रेम का ही चित्रण किया है । कुतुवन शेख के
'मुगावती' उसमान की 'चित्रावली' आदि अनेकानेक महत्वपूर्ण प्रेमाख्यान काव्य हैं ।
जायसी के 'पद्मावत' के अतिरिक्त उनके द्वारा रचित 'अखरावट' 'आखिरीकलाम'
और 'चित्रलेखा' आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं ।
सगुणभक्ति काव्य का स्वरूप--मध्य-युग की संपूर्ण काव्यधारा सगुण और
निगुण इन दो नामों से विख्यात है । सगुण से तात्पर्यं साकार रूप की उपासना से
है। भारतीय भक्तिभावना में सगुण धारा का महत्व प्रसिद्ध है । राम और कृष्ण
को काव्य का आलंबन बनाकर अनेकानेक कवियों ने जिस लोकोन्मृखी काव्यधारा
का निर्माण किया है उसे सगुण भक्तिकाव्य नाम से अभिहित किया जाता है। ये
भक्त कवि वैष्णव और विष्णु भगवान के सगुण साकार रूप जो रामकुष्णादि अवतारों
में व्यक्त हुआ था--के उपासक थे । वैष्णव धर्म के प्रमुख प्रवर्तक स्वामी रामानन्द
और वल्लभाचार्य ने क्रमशः रामभक्ति और कृष्णभवित सगुणोपासक कवियों को इस
ओर प्रेरित कर रामभक्ति और कुष्णभक्ति साहित्य का विस्तार किया | वैष्णव
भक्ति की यह धारा अन्य भारतीय भाषाओं में क्रिस रूप में वित है--इसका
उल्लेख qd पष्ठों में किया जा चुका है । (देखिए-मध्य-युगीन जागरण तथा भक्ति
काव्य) गोस्वामी तुलसीदास और सूरदास आदि कवियों d इन आचार्यों द्वारा
प्रतिपादित सगुणभक्ति काव्य को प्रशस्त किया जिसकी विवेचना आगे को पंक्तियों में
की जाएगी ।
रामभक्ति काव्य--गोस्वामी तुलसीदास रामभक्त के उपासक ये । इन्होंने
राम को अवतार रूप में ग्रहण कर उनके उदात्त चरित्र एवं व्यक्तित्व का ऐसा
मार्मिक चित्रण किया है जिससे समस्त जनमानस प्रभावान्वित हो उठा है । तुलसी
के राम लोक आदर्श हैं । उनका प्रमुख ग्रंथ--“रामचरितमानस' उनके लोकनायक रूप
का प्रतिनिधित्व करता है । गोस्वामीजी कवि, युग-द्रष्टा, समाज-सुधारक, समन्वय-
वादी एवं भावुक भक्त सब कुछ थे । रामचरितमानस में उन्होंने राम के जिस
नायक रूप की प्रतिष्ठा की है उससे समस्त जनमातस आज भी लाभान्वित होता
आ रहा है । रामचरितमानस इनका सुप्रसिद्ध महाकाव्य है । यदि यह कहा जाए कि
12
'गोस्वामी तुलसीदास का समस्त काव्य साहित्य उनके अपने समय की जन सामान्य
'की आन्तरिक अनुभूतियों का यूटोपिया है--तो अत्युक्ति न होगी । इसीलिए आचार्य
शुक्ल ने तुलसीदास को 'लोकमंगल की साधनावस्था' का कवि कहा है । इनके प्रमुख
ग्रंथों में दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका, पार्वती मंगल, रामलला-
"ew और बरवे रामायण आदि उल्लेखनीय हैं । गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन
रामभक्त कवियों में नाभादास का नाम विशेष रूप से लिया जाता है । 'भक्तमाल'
इनका प्रसिद्ध ग्रंथ $i 'रामचरितमानस' के पश्चात "uaque ही भक्तियुग
'का लोकप्रिय ग्रन्थ है जिसमें भक्तों के जीवनवृत्त संकलित हैं ।
रामकाव्य परंपरा में तुलसीदास के पश्चात् केशवदास की : रामचंद्रिका' का
'भी उल्लेख करना आवश्यक है । इसका मूल प्रति पाद्य रामचरित होते हुए भी इसकी
प्रमुख भावना भक्तिमूलक नहीं है । अतः काल-क्रमानुसार केशवदास का समय भक्ति-
काल के अंतर्गत होते हुए भी काव्य-रचना और प्रवृत्ति के अनुसार इसका विश्लेषण
jare (रीतिकाल) के अंतर्गत होता & ।
केशवदास के उपरान्त रामचरित काव्यान्तगंत सेनापति का अपना स्थान है ।
सेनापति के काव्य में भक्ति और श्युंगार दोनों ही प्रवृत्तियों का मिला-जुला रूप
'मिलता है । अतः सेनापति को भक्ति और शगार कालों के संधि-युग कवि के रूप
में देखे तो अधिक उचित होगा ।
रामकाव्य को यह परम्परा न केवल हिदी साहित्य में ही है वरन् अन्य
भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी समान रूप से पाई जाती हे। तेलुगु भाषा में
राम-भक्ति का प्रचार अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक रहा है। इसी प्रकार मलयालम,
असमिया, उडिया आदि अन्य भारतीय भाषाओं में रामकाव्य पर्याप्त माता में रचा
'गया है जिसका उल्लेख qd पृष्ठों में किया जा चुका है ।
कृष्णभक्त कवियों द्वारा प्रणीत रामकाव्य--रामभक्ति की परम्परा में
कृष्णभक्त कवियों का भी महत्वपूरण स्थान रहा है । इन कवियों ने रामकथा विषयक
अनेक पदों की रचना की है । महाकवि विद्यापति और मीराबाई ने अनेक पदों में
राम के प्रति अपनी श्रद्धा अपित की है । 'सूरसागर' के प्रथम और नवम स्कन्धं
में राम कथा से सम्त्रन्धित अनेक पद प्राप्त होते हैं अष्टछाप के कवियों में नंददास,
परमानन्ददास, और गोविन्दस्वामी द्वारा रचित रामकथा सम्बन्धी अनेक पद मिलते
हैं जिनमें राम की लीलाओं के प्रति कृष्णभक्त कवियों की प्रवृत्ति स्पष्ट व्यंजित होती
है । इध प्रकार कृष्ण भक्ति पोषक कवियों का रामभक्त के प्रति निबेदन एवं -राम-
कथा कवियों का कृष्ण के प्रति अपनी श्रद्धा अपित करना वास्तव में 'वैष्णवभक्ति'
13
की उदार समन्वयात्मक दृष्टिकोण का परिचय है जिसके मध्य “भक्ति” अपने व्यापक
रूप में सर्वत्र व्याप्त है ।
कृुषणभक्तिकाव्य और अष्टछाप के प्रमुख कवि सूरदास
इस धारा के महान कवि सूरदास जी हैं जिन्होंने श्रीकृष्ण चरित्र पर विस्तार
से लिखा है । इन्होंने श्रीकृष्ण का वात्सल्य वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया
है । हिंदी साहित्य में यद्यपि श्रीकृष्ण का चरित्र चित्रण अन्य कवियों ने भी किया है
लेकिन सूर का सानी और कोई नहीं । इससे यह तात्पर्य नहीं कि हिदी साहित्य में ही
कृष्णकाव्य संबंधी रचनाएँ मिलती हैं। अन्य भायाओं के साहित्य में विस्तार से
कृष्ण संबंधी काव्य दिखाई देते हैं । दक्षिण की बहुत सी भाषाओं में जसे मलयालम
में 'कष्णगाथा' ग्रन्थ में कुष्ण के जन्म से लेकर स्वर्गारोहण तक की कथा है जिसमें
श्रृंगार के अतिरिक्त वात्सल्य का चित्रण अद्भुत है । इसी प्रकार बंगला, असमिया,
उड़िया, गुजराती आदि भाषाओं में भी कृष्णचरित्र वर्णित है। गुजराती में तो
कृष्ण भक्ति का प्राधान्य है जिसका उल्लेख पूर्व पृष्ठों में किया जा चुका है ।
उपर्युक्त शीर्षक में जिन अष्टछाप! के कवियों का उल्लेख किया जा रहा है.
उनमें सूर का स्थान सर्वोपरि है । आचायं वल्लभ के ये शिष्य थे और इन्होंने
वल्लभ के सिद्धांतों का पूर्णतः पालन किया है । वल्लभाचायं ने पुष्टिमार्गेर पर
बल दिया है। 'पुष्टि' से तात्पर्य प्रेम करने से है। भगवान से प्रेम करना ही
पुष्टिमागे का प्रमुख सिद्धांत है । सूर ने अपनी रचनाओं में कृष्ण की प्रेम-मयी .
भक्ति को ही सर्वोपरि स्थान दिया है ।
1. कृष्णकाव्य के अंतर्गत पुष्टिमागं के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचायं के चार और
उनके पत्र विटठलनाथ के चार प्रधान शिष्य भक्त-कवि क्रमशः कुभनदास,
सूरदास, कृष्णदास, परमानंददास, गोविदस्वामी, छोतस्वामी, नंददास और चतु
भीजदास अष्टछाप नाम से प्रसिद्ध Za इस संप्रदाय के इष्टदेव श्रीनाथजी हैं ।
अष्टछाप के भक्त-कवि विभिन्न जातियों और वर्गो के थे, लेकिन सभी अच्छे
गायक थे ।
अष्टछाप काव्य प्रधानतः स्फुट और गीतकाव्य हे । कृष्ण को काव्य
का आलंबन बनाकर इन कवियों ने समाज को एक नई दिशा दी है।
2. महाप्रभु वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्द तवाद के आधार भक्ति का जो संप्रदाय स्थापित
किया था उस्ती का नाम 'पुष्टिमार्ग' है । 'श्रीमद्भागवत' के 'पोषणें तदनुग्रह
के आधार पर भगवदानुग्रह के अर्थ में ही 'qfsz' शब्द का प्रयोग किया गया
है । पुष्टिमागं में सच्ची भगवत्सेवा को ही भक्ति माना गया t
14
रामभक्ति के समान संपूर्ण भारतीय इतिहास में श्रीकृष्ण का चरित्र एक
ऐसा चरित्र है जो एक ओर अवतार धारण कर भक्तों की दीनता का निवारण करते
हैं, दूसरी ओर बल्यावस्था में गोप बालकों के साथ गाय चराते हुए, किशो र-वय
में राधा और गोपियों के साथ रास-लीला करते हें और अंत में कंस का वघ
करने के लिए संपूर्ण राग से मुक्त हो मथुरा चले जाते हैं। एक साथ इतनी
लीलाओं का चित्रण करने में सूर जैसे भकत कवि की लेखनी ही सक्षम हो
सकती थी । सूर 'भ्रमरगीत' वियोग श्र गार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है वरन् इसके
द्वारा निगुण पर सगुण की विजय दिखाकर सगुण-भक्ति , का प्रतिपादन भी है।
दुसरी ओर यह पुष्टिमार्गीय भक्ति सिद्धांतों का सुन्दर विवेचन है । महाप्रभु वल्लभा-
चार्यं ने जिस भक्ति संप्रदाय की स्थापना की थी, उसका जिन हिदी भक्त-कवियों ने
पल्लवन किया उन्हें अप्टछाप के कवि कहा जाता है ।
सुर को प्रसिद्ध कृति है 'सूरसागर' | इसके अतिरिक्त ,सूरसारावली' 'साहित्य
लहरी' जैसी कृतियों का भी अपना महत्व है । सूरदास ने अपनी कृतियों में वात्सल्य
शगार और शांत रसों को अपनाया है कितु वात्सल्य रस में वे सबसे आगे हैं । ब्रज-
भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था । सूर के समय ब्रजभापा की जैसी स्थिति थी उसे
देखते हुए सूर ही इतने समर्थ थे कि उन्होंने सूरसागर जेसी रचना प्रस्तुत की, अन्य
कृष्णोपासक संप्रदायों (जिनका उल्लेख पूर्व किया जा चुका है) ने भी कृष्ण-काव्य
की वृद्धि में अच्छा योगदान दिया है । मुक़्तकार कवि के रूप में ब्रजभाषा के
समृद्ध पोषक एवं हिदी के सफल गीतकार महाकवि सूरदास को लेखनी ने कृष्ण
काव्य का जैसा चित्रण किया है, बह प्रशंसनीय है ।
अष्टछाष के अन्य कवि--सूरदास के अतिरिक्त अष्टछाप के जिन कवियों
का उल्लेख हुआ है, वे सभी कृष्णभक्ति उपासक थे । सूरदास का स्थान अष्टछाप के
कवियों में सर्वोपरि रहा“है | अप्टछाप के कवि रूप में नंददास का स्थान भी महत्वपूर्ण
है । इनकी “रासपंचाध्यायी' काव्यसौंदर्य की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है ।
संप्रदाय निरपेक्ष कवि रसान ओर मीराबाई
कृप्ण-भक्ति से संबंध रखने वाले कवियों में मीरा और रसखान का नाम
विशेष रूप से उल्लेखनीय है । विद्वानों ने इन कवियों को संप्रदाय निरपेक्ष भक्ति
काव्य के अंतर्गत रक्षा है । इन कवियों की उपासना का लक्ष्य मात्र ईश्वर की भक्ति
ही रहा है । मीराबाई की उपासना माधुर्ये भाव की थी अर्थात् श्रीकृष्ण के प्रति
तन्मयतापूर्ण । इनकी प्रीति ही इनके काव्य की विशिष्टता है -जिसमें प्रेमी अपने
प्रियतम से कुछ नहीं चाहता, बस प्रियतम का तादात्म्य बना रहे। मीराबाई के पद
|
|
|
|
15
तन्मयता को इसी प्रेम-पीड़ा से आपूर्ण हैं। इन्होंने राजस्थानी में और कुछ शुद्ध
अजभाषा में पद लिखे EOD कृष्ण-भक्त कवियों में रसखान का स्थान अक्षुण्ण है ।
श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य भक्ति एवं प्रेम के इतने सहज उद्गार इनके सवैयों
में होते थे किं उन सवैयों को ही लोग 'रसखान' कहने लगे ।
अंततोगत्वा यह कहा जा सकता है कि कवयित्री मीराबाई और कवि रसखान
के सहज भक्ति-उद्गारों (जिनमें भक्ति जीवन का अंग बनकर रहती) को देखकर
ही विद्वानों ने इनकी गणना 'संप्रदाय निरपेक्ष' भक्ति-काञ्य के अंतर्गत की है ।
भक्तिकाव्य के सूर, तुलसी, मीरा जैसे कवियों के अतिरिक्त इस युग में कुछ
कवि अपवाद स्वरूप ऐसे भी हैं जिनके काव्य में भक्ति आरोपित वर्णनों को देख-
कर भक्तिकाल में वर्णन हुआ है अथवा कालक्रम की दृष्टि से इन कवियों की गणना
भक्ति-काल में हुई है । वस्तुत: इन कवियों में भक्ति विषयक वे उद्गार नहीं हैं जो
पुर्वं चचित कवियों में हैं ऐसे कत्रियों में विद्यापति, केशवदास, सेनापति, घनानन्द
आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इसी संदर्भ में अकवरी दरबार के कुछ कवियों का
उल्लेख करना भी आवश्यक है । इन राज्याश्रित कवियों में रहीम का नाम प्रमुख
है । इन्होंने भक्तिं के अतिरिक्त शगार और नीति आदि अन्य विषयों पर फुटकर
रचनाएं की हैं । रहीप के नीति-विषयक दोहे 'रहीम सतसई' नाम से विख्यात हैं ।
इसके अतिरिक्त अवधी भाषा में रचित नायिक्रा-भेद संबंधी 'बरवं' बड़े सरस हैं।
नायिका-भेद रीतिकाल का प्रमुख वियय रहा है जिसका प्रारंभिक रूप रहीम के
काव्य में पाते हैं ।
इस प्रकार भक्तिकाल के उत्तरादूर्ध में ही वे संपूर्ण प्रधान प्रवृत्तियाँ पृष्ठ
भूमि के रूप में प्राप्त हो चुकी थीं, जो आगे चलकर परवर्ती श्रृ गारकालीन साहित्य
का मुल विवेच्य रही हैं ।
रोतिवादी कविता और दरबारी संस्कृति
भक्तिकालीन काव्य-साहित्य की पूर्व विवेचना में हम देख चुके हैं कि राम-
काव्य की अपेक्षा कृष्ण-काव्य का विस्तार अधिक है । कृष्ण-काव्य अधिकांशतः माध्य
भाव के कारण जनता तथा कवियों का कंठहार बना । अतः मधुरा-भ वित और श्युंगार
का चोली-दामन का सा संबंध रहा है । विद्वानों का यह कथन है कि रीतिकालीन
1. यह प्रसिद्ध है कि रहीम ने सात-सौ दोहों को रचना कर उन्हें अपनी 'सत्तसई'
में संकलित किया था । सम्पूर्ण सतसई अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। हिंदी की
सतसई-परंपरा में 'बिहारी-सतसई' की विशेष प्रसिद्ध है। कितु रहीम की
सतसई हिदी को 'पहली सतसई' मानी जाती है ।
16
श्र गारपरक काव्य भक्तिकाल की प्रतिक्रिया है--उचित नहीं - लगता । भक्तिकाल
में राधा-कृष्ण के माधुयं-प्रेम का जो चित्रण अष्टछाप के कवियों ने किया है उसे
आध्यात्मिक स्तर तक ही लेना चाहिए । भक्तिकाल का श्ट गार वर्णन उदात्त e
रीतिवादी अथवा रीतिकाव्य की विवेचना करने से पूर्व यह जानना आवश्यक
है कि रीति क्या है ? रीतिकाध्य क्या है ? काव्यशास्त्र का एक मौलिक काव्य
सिद्धांत है--रीतिवाद । रीति-सं प्रदाय की विधिवत स्थापना नवीं शती में आचार्य
वामन ने की । उनके अनुसार काव्य-सौन्दर्य का निर्माण करने वाले शब्द और अथ के
धर्मो से युक्त विशेष प्रकार की पद-रचना का नाम रीति है । रीतिकाव्य से तात्पर्य
है रीतिकाल में निमित काव्य क्योंकि इसी काल में ही अधिकांशतः रीतिकाव्यों का
प्रणयन हुआ था । इसके रचयिता मूलतः कवि थे, जो कि अधिकतर राज्याश्रित थे ।
दरवारों में पहुँच जाना ओर वहाँ की प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेना ही कवियों की महत्व
पूर्ण सिद्ध होती थी । इस युग में कविता लोकजीवन से हटकर दरबारों की सजावट
का साधन बन गई । जो स्वयं कविता न लिख सकते थे उन्होंने कवियों को आश्रय
दिया । प्रत्येक कवि पांडित्य प्रदर्शन तथा आपसी- होड़ की टकराहट एवं राजाओं का
आकर्षण प्राप्त करने की इच्छा से रस, अलंकार, नायक-नायिका भेद आदि काव्यांगों
की विवेचना में लग गया । इस प्रकार कविता में लक्षण और उदाहरण देने वाली
कविताएं अधिक लिखी गई और स्वतंत्र रचनाएँ कम ।
इस काल में प्रवन्ध काव्यों की अपेक्षा मुत रचताओं का बाहुल्य देखा
जाता है। इसका कारण कवियों की आपसी टकराहुट एवं चमत्कार प्रदर्शन था ।
जिस समय दरबारों में कवियों की रचना कौशल एव चमत्कार प्रदर्शन की. होड़
लगती थी उस समय विस्तृत प्रबन्ध की रचना करना कठिन कार्य था । कवियों की
दृष्टि चमत्कार प्रवाह की ओर भधिक देखी जाती है, कविता के अनुभूति पक्ष को
ओर कम | कवियों ने कृष्ण और राधा को काव्य का आलंबन बनाकर नायक-
नायिका रूप में प्रतिष्ठित किया । प्रकृति का वर्णन इस काल में उद्दीपन रूप में
हुआ है। इस काल के प्रमुख कृतिकारों में चिंतामणि त्रिपाठी, बिहारीलाल, मतिराम,
भूषण, देव, पद्माकर भट्ट, कुलपति मिश्र, आलम, घनानन्द और ठाकुर आंदि केः
नाम विशेष उल्लेखनीय हैं ।
जैसा कि पूवं पृष्ठों में संकेत किया जा चुका है, रीतिकाल में प्रमुख वर्ग
उत कवियों का है जिन्होंने लक्षण ग्रंथों को मुख्य आधार मानकर उनके उदाहरण-
स्वरूप कविता की रचना की है । परन्तु इसी युग में ऐसे भी कवि हुए हैं जिन्होंने
रीति के प्रभावों से मुक्त होकर कविता की है । इस प्रकार रीतिकालीन कवियों कोः
दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-#रीतिबद्ध कवि ओर रीतिमुक्त कवि ।:
qu
बौ
वा
ने
या
गए
ता
m ७
v
ज:
i29
दि-
Hr
ACER DERE
आदिकालीन qqu साहित्य को विशेषताऐ--14वो शताब्दी)
अपभ्रश साहित्य
(आदि काल के पूर्वा में).
|
|
$
सिद्ध साहित्य जैन साहित्य
EMSC I Enti. -
| || | |
विषयगत अभिव्यक्तिगत विषयगत अभिव्यक्तिमत
| | | | |
Y Y Y Y Y
अन्तःसाधना पर जोर
वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध
बौद्धों के वज्ञयान तत्व का प्रचार
वाममार्गी साधना का उपदेश
आदर्शो पर
आधारित साधना
का महत्व
अयभ्र श॒ नैतिक एवं धाभिक अपश्नश विषयगत
जैन धर्म के सिद्धांतों वासाचार का निराकरण
शिवोपासना
देश भाषा साहित्य
(आदिकाल का उत्तराद्धं)
--- IM |
| |
x i
E लोकजीवनपरक
|
M १
नाथ साहित्य त्याले काका |
Y
i प्रबन्धात्मक वीर-काव्य (रासो काव्य) वीरमीत काव्य
| | |
Y Y Y
अभिव्यक्तिगत
| ।
Y १
पद्य एवं गद्य विषयगत अभिव्यक्तिगत
का प्रयोग | |
सांकेतिक शैली | i
आश्रयदाताओं को प्रशंसा |
Y
युद्धों का सजीव वर्णन तथा डिगल भाषा पिगल भाषा
वीर रस का प्राधान्य
Y
श्रृंगार रस का समावेश |
Y
कल्पना का प्राचुये छ्न्द
(प्राचीन छन्द)
Y
me moe 1 1
| |
um v
कवित्त छप्पय
दोहा
Y Y Y
चौपाई कुण्डलियाँ रोला
अन्य
[ET roc uim जाओ
भक्तिकालीन काव्य की EE (14वीं से 16वो शताब्दी)
|
|
सगुण भक्ति साहित्य निर्गण E साहित्य
| EE
५ i
कि 1|] —
| | | |
राम-भक्ति-साहित्य कृष्ण-भक्ति-साहित्य ज्ञानाश्रयी/संत साहित्य प्रेमाश्रयी/सूफी साहित्य
| | | |
MSR Y _ 4000 उ Y.
| | | 0! |
विषयगत अभिव्यवितगत विषयगत अभिव्यक्तिगत विषयगत अभिव्यक्तिगत विषयगत bs:
| | | | | |
Y Y Y Y y Y Y Y
राम के साकार रूप अवधी/ब्रज श्रीकृष्ण के साकार रूप की उपासना शुद्ध ब्रजभाषा निर्गुणवादी सध॒क्कड़ी भाषा प्रेमगाथाओं की महत्ता अवधी
की उपासना भगवान के अनुग्रह की प्रधानता नाम की महत्ता (मिश्रित रूप) सूफी उपासना का प्रभाव |
Y Y Y
वैष्णव धर्मे की प्रतिष्ठा छ्न्द श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन काव्यरूप मिथ्या आडंबर का विरोध ईश्वर और जीव में प्रेम का संबंध छन्द
भक्ति की महत्ता | भक्ति की महत्ता | गुरु की महत्ता गुरु का महत्व
MBS की TR SE Y Meo
इष्टदेव की लीलाओं | | | | | | साख्य, दास्य, वात्सल्य | | अन्तर्मुखी साधना पर जोर पंगम्बर को स्तुति | |
का वर्णन १ १४ $ $ $ एवं माधुर्य भाव V Y Y Y
दोहा चौपाई कुण्डलियाँ छप्पय सवेया सोरठा को प्रधानता मुक्तक गीत-काव्य ईश्वर की वन्दना दोहा चोपाई
नवरसों का परिपाक. (वियोग) शगार रस |
श्यृंगार, वात्सल्य Y
और शान्त रस फारसी की मसनवी
शेली का प्रभाव
EM, हि
डे T ७५
$ -
P. d ^
* -
Ne.
m
XB
m
bot
. ~
(
2
ई ;
ix. Tt
EE - M)
~ ]
Mis = leere तयत1यय
१ ५ EPIS
१ j s^ E क)
x
* ८, t
Tis n
"s TED
frs,
yum हि फेक -
mee कै
17
रीतिबदूध कवि और कविता--रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने अलंकार,
नायिका भेद आदि काव्य लक्षणों को मुख्य आधार बनाकर उनके उदाहरण स्वरूप
कविता की रचना की है। इसमें अधिकांश कवियों का प्रतिपाद्य श्यूंगार रस ही
या । संस्कृत काव्य शास्त्र की परंपरा को ही एक प्रकार से इन कंबियों ने
हिदी में उतारा है। संस्कृत साहित्य में कवि और शास्त्रकार दो अलग व्यक्ति
होते थे, पर श्रृंगार काल में यह भेद लुप्त हो गया। केशवदास की 'रसिक
प्रिया’ और “कवि प्रिया” रीतिकाल के प्रारंम्भिक ग्रन्थ E तत्पश्चात चितामणि
त्रिपाठी से लक्षण ग्रंथों की अखंड परम्परा चली । चितामणि त्रिपाठी का 'कवि-
कुल कल्पतरू' रीतिकाल का प्रथम शास्त्रीय ग्रंथ है। इसमें काव्यांगों का अच्छा
विवेचन हुआ है । इन रीतिवादी कवियों में केशवदास, बिहारी, देव, मतिराम,
भिखारीदास, पद्माकर आदि महत्वपूर्ण हैं । वीर रस के ओजस्वी कवि भूषण भी
इसी कोटि में आते हैं।
महाकवि बिहारी काव्यशास्त्रीय परंपरा के पोषक होते हुए भी अपनी कविता
में पर्याप्त मौलिक हैं । बिहारी में कवित्व और आचार्यत्व का अपुर्व मिश्रण है । भावों
की गहराई एवं शगार वर्णन सम्बंधी जितने हाव-भाव, अनुभाव आदि है--'बिहारी
सतसई' में सब qd हो उठे हैं। सप्तशतियों की परम्परा में बिहारी सतसई
का विशिष्ट स्थान है । इसका अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। सूर अगर
वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए थे तो बिहारी ने भी अपनी अपूर्व-काव्य-प्रतिभा
से श्ंगार का कोई भी पक्ष अनछुआ नहीं छोड़ा ।
महाकवि देव भी आचार्य और कवि दोनों ही रूपों में सामने आते हैं । इन्होंने
नीति संबंधी कई ग्रंथ लिखे Ea इनकी अधिकांश रचनाएं किसी न किसी आश्रय-
दाता को समापित की गई हैं । इनके ग्रंथों में काव्यांगों का अच्छा निरूपण किया
गया है । ब्रजभाषा साहित्य में देव और मतिराम अपनी सर्वोत्कृष्ट भाषा के लिए
विशेष प्रसिद्ध हूँ । रीतिकालीन शृंगारिक वृत्ति और नायिका भेदयुक्त कविता
के परिवेश में भूषण एकमात्र ऐसे हैं जिन्होंने शिवाजी और छत्रसाल के पराक्रम एवं
देशप्रेम का प्रभावपूर्ण वर्णन प्रस्तुत करके वीर रस की कविता लिखी । "शिवराज:
भूषण', “शिवा बावनी' और 'छत्रसाल शतक' इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं ।
रीतिमुकत कवि और कविता--इस दौर में कुछ कवि ऐसे भी हैं जो प्रारंभ
से चली E रही परिपाटी से कुछ हटकर स्वतः प्रेरित काव्य E ES देते
p इनकी कविता में रीतिकालीन परिपाटी की अपेक्षा निजीपन और हृदय का
St अधिक है । इन कवियों ने काव्य में रीति-रूढ़ियों का तिरस्कार कर
धारा का अनुसरण किया है इसीलिए उन्हें “रीतिमुक्त कवि कहा गया है। ऐ.
18
कवियों में घनानन्द, बोधा और ठाकुर के नाम उल्लेखनीय हें । ये सभी कवि श्युंगारी
हैं लेकिन इनमें नायिका-भेद वर्णन का रूढ विधान नहीं है। इनके श्हंगार वर्णन
में हृदय की सहजता है तथा काव्य-कला में अलंकारों की सायास सजावट नहीं है ।
समग्रतः रीतिमुक्त कवि कविता के समग्र क्षेत्र में मुक्त होकर अवगाहन करने वाले
कवि हैं ।
भक्तिकाल के पश्चात् रीतिकाल का उदय कविता के क्षेत्र में अवश्य ही एक
नया प्रयोग रहा है। यह नवीनता विषय, भाषा, रस अलंकार आदि सभी क्षेत्रों में
रही है । इन कवियों ने हिंदी पाठकों को काव्यांग निरूपण की उस पूर्व दशा का
ज्ञान कराया है जो भामह, दंडी आदि के समय में थी । ब्रजभाषा के काव्यरूप का
पूर्ण विकास कर, कवित्त और सवैया की पूर्णसंयोजना दुवारा मुक्तक काव्य परंपरा
का जैसा उत्कर्ष रीतिकाव्य में हुआ, वह अपने में अनूठा कार्य है, इसमें संदेह नहीं ।
रीतिकालीन काव्य प्रवृत्ति को जब हम अन्य भारतीय भाषाओं के संदर्भ में
देखते हैं तो पता चलता है कि अन्य भारतीय भाषाओं में 'रीतिकाल' जैसा स्पष्ट
विभाजन तो नहीं किया गया है लेकिन रीतिकालीन विशेषताएँ प्रायः उसी रूप में
दिखाई देती हैं। बंगला, मराठी, असमिया, तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड
आदि सभी भारतीय भाषाएँ हिंदी के रीतिकालीन काव्य प्रवृत्ति के उदाहरण हैं।
बंगला के लोकप्रिय कवि भारतचंद्र जो राजा कृष्णचन्द्र के ही दरबार में थे इन्होंने
'आनंदामंगल' काव्य की रचना करने के साथ ही साथ 'रस मंजरी' ग्रंथ की रचना की
जिसमें संस्कृत के साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों की तरह नायिका भेद, लक्षण उदाहरण
निबद्ध हैं । असमिया साहित्य भी इस प्रवृत्ति से वंचित नहीं रहा । वहाँ भी अहोम
राजाओं ने कवियों और पंडितों को सभाश्रय देकर असमिया साहित्य का विकास
किया है । 17वीं तथा 18वीं शती में यह राजाश्रय बहुत बढ़ गया था । इन्हीं दिनों
कविशेखर भट्टाचाय ने रतिशास्त्र विषयक ग्रंथ 'हरिवंश' की रचना की । मराठी में
यह परंपरा पंत कवि! तथा तंत्र कवि? के रूप में प्रसिद्ध है । यहाँ भी कवियों ने हिंदी
1. मराठी साहित्य में कवियों के दो वर्ग हैं--1. पन्त कवि जो संस्कृत के विद्वान
कवि थे और दुसरे जनकवि जो तंत्र कवि कहलाते हैं । पंत कवियों ने भाषा
और रीति पर अधिक जोर दिया है और कविता में अलंकरण तथा नक्काशी
अधिक पसंद की है । ये कवि संस्कृत के पंडित थे और काव्य में कलापक्ष की
दृष्टि से अधिक चमत्कारिक थे ।
भारतीय साहित्य की रूपरेखा--डाँ० भोलाशंकर व्यास पृ. 220
2. da कवि वे हैं जिन्होंने जनता के लिए वोरकाव्य तथा हलके-फुलके श्वृंगार-
“परक भावगीतों की रचना की है। ये जन कवि मराठी साहित्य में शाहीर
कहलाते हैं । बही--पृ. 221
19
1९७ ७७७ 188६ pe 10%७२॥।४३॥॥४ R 22 NR BIA । है 121£113 je hak) LAB R
klhk 253 1% ४४०1२
1121213) 1५ /४॥-112% 2102 b bà 1%12]112-%
(bop 1% 1px [२९ 11221021:12 1
Vv
। है p> sHje
pele 12७1५३ A
२1१९ BJ (४७ blB € HE
113५21३] 1७२ b> 211124
12112 1५ 1५२३] > xe 10912
५ 2112120151) PJD
७1४] 1५ kek 103030 "Iabb) P)
॥:[]४-1812 2102 11223 8212] ५
22812 ॥५ [2218 [>>] Bb BLA ५४ pole?
1121:11315 Lp »1५२४७ DbjP Ph Ihlkiel
|
21221०२१३९
bh 1५:1:]112
1121211215 1% kine Xlhf«
२०५९]
e
[छ 1४81 M jb I— hiBhlab) ६४ ४४५ 20५
20
के रीतिकालीन कवियों की तरह कविता प्हंगार और वीर रस तक ही सीमित Po
कवियों ने भाषा और रीति पर ही अधिक जोर दिया है । इस प्रकृति के कवियों में
वामन पंडित, रघुनाथ पंडित और मोरो पंत अधिक प्रसिद्ध हैं। राजाश्रय तथा लक्षण
ग्रंथों के निरूपण को यह परंपरा तेलुगु में भी उसी रूप से दृष्टिगत होती. है ।
श्रीकृष्णदेव रायल अपने समय के प्रतापी राजा थे। इनके दरवार में अनेक कवियों
ओर पंडितों को राजाश्रय प्राप्त था । पेछत्न, तेमन्त, चिनन्त जैसे तेलुगु कवि इन्हीं
के दरबार से संबद्ध थे । कविता में पांडित्य प्रदर्शन तथा चमत्कारवादी प्रवृत्ति
अधिक थी । राजाओं का जीवन विलासितापूर्ण हो गया था । विलास, परिणय भौर
शांतवन इन तीन शैलियों में काव्य लिखे गए जिनमें तिम्मकवि, जग्गकवि, वेंकट
नरसिहाचायं की रचनाएं प्रसिद्ध हैं । लक्षण ग्रंथों में सूर कवि का 'आंध्ररसमंजरी'
है । इसी प्रकार की प्रवृत्ति कन्नड, मलयालम ओर उड्या आदि भाषाओं में भी
देखने को मिलती है ।
सांस्कृतिक पुनर्जागरण--आधुनिक् काव्यधारा
यह सत्य ही कहा गया है कि विलासिता की अतिशयता विनाश का कारण
बन जाती है, क्योंकि इस अवस्था में मानव जीवन की विषमताओं और जीवन मूल्यों
से बहुत दूर चला जाता है । लेकिन परिस्थितियां उसे सचेत करती हैं । यही सत्य
साहित्य के इतिहास 'रीतिकाल' का प्रतिफल थीं जिसकी विवेचना पूर्व की जा चुकी
है । यद्यपि रीतिकाल में भूषण, सूदन और लाल ऐसे कवियों का सहानुभूतिपुण हृदय
हिंदुत्व की पुकार से गुंजित हो चुका था, लेकिन अभी मोहनिद्रा भंग नहीं हुई थी ।
इस जड़ता को तोड़ने वाले अंग्रेज ही थे । उनके भारत पर आधिपत्य ने जनता को
सजग कर दिया । केवल इतना ही नहीं, विचारों में क्रांति हुई जिसके फलस्वरूप
राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यक और भाषायी आदि सभी क्षेत्रों में
आंदोलन हो उठा । देश को आजाद कराने के लिए लोग स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े ।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भारत में एक नए युग का निर्माण होता है ।
19वीं शती का सांस्कृतिक पुनर्जागरण उसी चेतना का एक रूप है जिसने भारतीय
जन-मानस में अतीत गौरव का वोध जागृत करते के साथ ही हम क्या d ? क्या हो
गए जैसे प्रश्नों को पुन: दोहराया है। मध्ययुगीन विलासिता की अंगड़ाइयों के अंधकार
से मुक्त कराके नए प्रकाश की ओर प्रेरित किया । नए ढंग के साहित्य में एक नया
परिवर्तन किया जिसके अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे ।
गद्य का आविर्भाव ओर खडी बोली का आंदोलन
इस नयी जागृति को सुकुमार ब्रजभाषा और पद्य के द्वारा प्रस्तुत करना
कठिन ही नहीं असंभव हो गया था । अतः साहित्य में गद्य की माँग प्रबलता से
21
होने“लगी । उसके लिए जनता की भाषा खड़ी बोली ही उपयुक्त थी । भारतेन्दु-युग
से पूर्व हिंदी गद्य का जो रूप मिलता है, वह ब्रजभाषा में ही उपलब्ध था--यथा
वल्लभाचार्य के पौत्न श्रीगोकुलनाथजी दुवारा “चौरासी वैष्णवन की वार्ता' और “दो
सौ बावन वैष्णवन की वार्ता” इसके उदाहरण हैं । कितु इसे गद्य साहित्य का यथेष्ट
विकास नहीं माना जा सकता । जनता की रुचि पद्य की ओर अधिक थी । अतः खड़ी
बोली गद्य को आन्दोलन के रूप में बढ़ावा देने वालों में लल्लूजीलाल (प्रेमसागर),
सदा सुखलाल (सुखसागर), सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्थान), इंशा अल्लाखां (रानी
केतकी की कहानी) का योगदान विशेष उल्लेखनीय है । इस प्रकार खड़ी बोली गद्य
का सूत्रपात तो हो गया लेकिन अव आवश्यकता थी ऐसे विद्वान लेखकों की जो
जनता की रुचि के अनुसार गद्य की विविध विधाओं का सूत्रपात करें । ऐसे ही समय
भारतेन्दु का व्यक्तित्व उभर कर आया जिसने साहित्य की प्रत्येक विधा--नाटक,
उपन्यास, कहानी, निबन्ध एवं आलोचना आदि विविध विधाओं का विकास
किया ।
सारतेन्दु युग--भारतेन्दु युग में गद्य के क्षेत्र में तो क्रांतिकारी परिवर्तन हुए
उसी प्रकार काव्य की धारा को नए-नए क्षेत्रों की ओर मोडा जिसमें प्रमुख स्वर देश
भक्ति एवं समाज सुधार का था । भारतेन्दु एक ओर भक्तिकाल और रीतिकाल से
अनुबद्ध थे, तो दूसरी ओर समकालीन परिवेश के प्रति जागरूक थे। कविता में
भारतेन्दु ने काव्य को नए-नए विषयों की ओर उन्मुख किया, किसी नवीन प्रणाली
अथवा भाषा का नवीकरण वे न कर सके । भाषा ब्रज ही रही । यद्यपि भारतेन्दु ने
खड़ी बोली में कुछ पद्य लिखे, पर मन न रमा। वस्तुतः यह कार्य 19वीं शताब्दी
के अंत में श्रीधर पाठक द्वारा संपन्न हुआ । श्रीधर पाठक ने द्विवेदी युग से qd ही
खड़ी-बोली में कविता लिखकर अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति का परिचय दिया । आपका
“एकांतवासी-योगी' खड़ी बोली का पहला मधुर काव्य है ।
1. ब्रजभाषा के प्राचीनतम गद्य की झाँकी प्रस्तुत करने के कारण वार्ता-साहित्य
का अपना महत्व है महाप्रभु वल्लभाचार्य के (पुष्टि संप्रदायो में भक्तो की चरि-
तावलियाँ गाने के कारण वार्ताओं का अपना महत्व है । चौरासी वैष्णवन की
वार्ता में वल्लभ के शिष्यों, की कथाएँ संकलित हैं मध्ययुगीन क्ृष्णभक्ति
साहित्य की राजनीतिक, सामाजिक एवं धामिक स्थिति से अवगत होने के लिए
पृष्ठभूमि के रूप में वार्ता-साहित्य की भूमिका अविस्मरणीय है ।
: ~ _ भारतीय साहित्य कोश--414
22
t
R
8४४ है Ble [४४७
pei
$
2] 2198 >1£2120 "b 011५ bbb,
Ble ७४७४२।॥३२४६:
Bj bi
Dlr Bh
Bye d
Bib tbh bolebjlle helps belklBh
| | | | >188 »+ 1७1०६४] 818
| whl २102 [०९] ५४९1३1७
७921५ 1122122 12२1२ 192 >)120>112312
| 1721218515 jb 112५:142110£0£.
Ib 1% 1०३०1] ‘bie ५ 2५३ 1२] >> ४1221 bh bole 20२7४. 2०७
21९1122121
12९२७ >b blb3 ५ 1151038 नह
|
२२२१०६१] 20७९)
| |
त
Whips]
21012] heh]le
1
1 218 ३४18 dbi ode ‘bof 121612021१
९२४ :npfus hin bbh bb 1028 । है ०10 ४ (9112५ 112£]५) dba bejlbp 12129
Bxple > bn) $blle । है ७० १ b Dish) 90) कू ४४-९४] jhe br 1012 "
१०६७ PS Bit ७०४
| 12219 911९ 1५ 112121212 2102 BUBIN .
109109100७
| Trew
12119)
a bab \pelbls 1026 T — (1229112 1230) ble minus
23
द्विवेदी युग--कविता के क्षेत्र में द्विवेदी युग का प्रारंभ एक आंदोलन के
रूप में सामने आया । सन् 1903 में 'सरस्वती' पत्रिका के संपादन, का कार्यभार
सँभालकर पं. महावीर प्रसाद दिववेदी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में विषय
भाषा, व्याकरण एवं काव्यरूप आदि सभी रूपों में चतुदिक विकास किया । राष्ट्रीयता,
मानवता की भावना, सामाजिक सुधार की भावना, सांस्कृतिक .जागरण एवं
अध्यात्मवाद की नवीन व्याख्या की। सामाजिक रूढ़ियों और धामिक अंध-
विश्वासों पर प्रहार किया । भाषा के क्षेत्र में गद्य एवं पद्य की भाषा खड़ी-बोली की
स्थापना की । छंदों में संस्कृत के वणेवृत्तों, का प्रयोग किया । काव्यरूप की दृष्टि से
्रबंधकाव्यांतर्गत महाकाव्य और खंडकाव्य की रचना हुई । द्वितीय धारा गीति
एवं प्रगीत-काव्य की (पत्र गीति, शोक गीति, व्यंग्य गीति, नीतिपरक एवं उप-
देशात्मक गीति), इसके अतिरिक्त राजा रवि वर्मा के चित्रों पर आधारित पद्य
कथाएँ द्ववेदीयुगीन काव्य की उपलब्धियाँ हैं ।
दिववेदी युगीन काव्य की विशिष्टता वास्तव में काव्य को बाहू य आवरणों से
सजाने की नहीं थी, वरन् उसकी आत्मा में परिवर्तन लाकर उसे युगु-सापेक्ष बनाना
तथा युग को प्रेरणा देना थी । अथोध्यासिह उपाध्याय हरिऔध का/प्रियप्रवास', गुप्त
जी का 'साकेत', रामनरेश त्रिपाठी के खंडकाव्य 'पथिक', 'मिलन' आदि युगीन
प्रमुख काव्य-ग्रंथ हैं जिसमें उपर्युक्त सभी विशिष्टताएँ समाविष्ट é
राष्ट्रीय काव्यधारा--राष्ट्रीय काव्यधारा तो युगीन काव्य की प्रमुख
विशिष्टता रही है । गूप्तजी की भारत भारती” जिसमें अतीत के गौरव का गान
करते हुए देश की वर्तेमान-दशा पर क्षोभ प्रकट किया है । राष्ट्रीयता की यह ओजस्वी
धारा जो भारतेंदुःयुग से प्रारंभ हुई आगे चलकर 20वीं शताब्दी के परिवर्ती दशकों
में मैथिलीशरण गुप्त और रामनरेश त्रिपाठी द्वारा विकसित होती हुई माखनलाल
चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सुभद्राकुमारी चौहान, तथा हुँकार' के साथ दिनकर
के रूप में क्रमशः प्रज्ज्वलित होती गई है । भाज की राष्ट्रीयता का स्वर अतीत का
चित्रण कर वर्तमान को जागरूक करना मात्र नहीं वरत् पूंजीपतियों से शोषितों और
पीड़ितों की रक्षा करना है । राष्ट्रीयता का यह नया स्वर प्रगतिवादी कवि दिनकर में
अधिक दिखाई पड़ता है । राष्ट्रीयता अव अपने "राष्ट्र तक ही सीमित नहीं है वरन्
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका मुल्यांकन करना आवश्यक हो गया है । हिंदी की राष्ट्रीय
काव्यधारा वास्तव में युग के देशव्यापी उत्साह की सबसे ओजस्वी अभिव्यक्ति है ।
स्पष्ट है कि हिंदी कविता की विकास यात्रा अपने विकासक्रम की अवधि
नित्यप्रति परिवर्तन को स्वीकार करती चली आ रही है। ऐतिहासिक "परिप्रेक्ष्य
में 'छायावाद? आधुनिक हिन्दी कविता की एक धारा है। यह कहता कि
'छायावाद' दिविवेदी-युग की प्रतिक्रिया है या विरोध--असंगत-सा लगता है ।
24
“रोतिकाल के पश्चात् आधुनिक काव्यधारा का विकास (विशेषतः द्विवेदी युग के
पश्चात्) समय की गति के साथ-साथ विकसनशील रहा है जिसके फलस्वरूप कविता
की अनेक धारायें प्रवाहित होती रही हैं ।
छायावाव-युग--द्ववेदी-युग के पश्चात् आने वाले छाप्रावादी प्रभाव के
लक्षण तो हमें द्ववेदी-युग में ही श्रीधर पाठक और रामनरेश त्रिपाठी की कविताओं
में दिखाई देते हैं । श्रीधर पाठक ने हिंदी कविता में जिस स्वच्छंदत्तावादी विचारधारा
का सूत्रपात किया था, उसका ही व्यापक रूप छायावाद है । दिववेदी-युग की आदर्श-
वादिता एवं नैतिकता के कठोर बंधन के भार से आगे के कवि बोझिल हो उठे d ||
ऐसे कणों में प्रणयानुभूति एवं अनुभूति की मांसलता के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक
ही था । अतः कविता अंतजंगत की ओर उन्मुख होती हुई वैयक्तिक अनुभूति की
प्रधानता, भावना की गहराइयों की पेठ, सौंदर्य मयी कल्पना तथा सांकेतिक पदावली
में अवतरित होने लगी । वास्तव में छायावाद ने वस्तुगत् सौंदर्यं के सूक्ष्म स्तरों का
उद्घाटन कर वस्तु के बाहू य आकार की अपेक्षा उसमें निहित भावों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म
गहराइयों की ds करके हिंदी कविता के इतिहास में अत्यंत महत्वपुर्ण कार्यं
किया है ।
समग्ररूपेण छायावाद वयक्तिक अनुभूति की ही कविता है । वैयक्तिकता से
तात्पयं व्यक्ति स्वातंत्र्य से है जिसमें उसके सुख-दुःख की अबाध अभिव्यक्ति, भावुकता
का निवेदन वह स्वच्छंद रूप से कर सकता है । छायावाद की यह विशिष्टता उसे रीति-
काल की कविता से पृथक कर देती है । महादेवीजी के शब्दों में “इस व्यक्ति प्रधान
युग में व्यक्तिगत सुख-दुःख अपनी अभिव्यक्ति के लिए आकुल थे ।” यह विशिष्टता
उसे छायावादी-कविता में ही दिखायी देती है जिसे दिववेदी-युगीन मर्यादावादी
सिद्धांतों एवं संयम ने विवश कर रक्खा था । कविता की इसी आत्मपरक प्रवृत्ति
के कारण ही छायावाद मुख्यतः प्रगीत-काव्य है ।
अंत: छायावादी-काव्य की भावुकतापुण मांसलता तथा सोंदर्यानुभूतिजन्य
कल्पना की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक था कि भाषा भी अधिक सूक्ष्म, लाक्षणिक
एवं चित्वात्मक हो जिससे भावप्रवणता एवं अर्थ-गांभीयं सहजता से आ सके । छापा-
वादी कवियों ने अपने भाव और विषय के अनुकूल भाषा को भी चमत्कारिक उत्कर्ष
और गहराई प्रदान की । प्रतीकात्मकता, चित्रात्मक भाषा एवं लाक्षणिक्र पदावली,
ध्वन्यात्मकता, गेयता और नवीन अलंकार विधान का प्रयोग आदि ऐसी विशेषताएँ
हैं जिनसे छायावादी कवियों ने भाषा खड़ी बोली को जो उत्कर्ष प्रदान किया वह्
द्विवेदीकालीन इतिवृत्तात्मक खड़ी-बोली के समक्ष अपने में अनूठा है ।
25
छंद विधान में कवियों ने मुक्त-छंद का स्वागत किया । यद्यपि द्विवेदी-युग
में संस्कृत के अतुकान्त वणंवृत्तो के प्रयोग द्वारा नवीनता का सूत्रपात हो चुका था।
'छायावादी कवि इससे एक कदम आगे बढ़े हैं । इनकी छंद-प्रकृति का मौलिक आधार
है भाव-लय' । अर्थात् भावुकताप्रवण कवियों ने पूर्ववर्ती कवियों की तरह छंदों के
साँचों के अनुसार भावों को मोड़ना उचित नहीं समझा वरन् 'भाव-लय' के अनुसार
'छंद-लय' का रूप निर्धारित किया । निराला की जुही की कली” ऐसे ही मुक्त छंद
'का उदाहरण $— "8T तू प्रिये छोड़कर बंधनयम छंदों की छोटी राह ।”
काव्य-रूप की दृष्ट से छायावादी काव्य अत्यंत समृद्ध रहा है । एक ओर
उसमें गीतों और मुक्त-छंद की कविताओं की अधिकता है, तो दूसरी ओर 'आँसू' और
“तुलसीदास' जैसे विस्तृत काव्य ग्रंथ भी लिखे गये । 'कामायनी' नामक महाकाव्य तो
'छायावादी समस्त काव्य प्रवृत्तियों के आवृत्त युग प्रवर्तक काव्य-ग्रंथ है। छायावाद
के प्रमुख चार स्तंभ प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी छायावाद-युगीन काव्य
साहित्य के प्रमुख पोषक रहे हैं। प्रसादजी छायावाद और रहस्यवाद के प्रथम प्रव-
तँकों में अग्रगण्य हें । प्रारंभ में आप ब्रजभाषा में कविता करते थे । 'प्रेमपथिक'
इसका उदाहरण हैँ । झरना' (1918) से पूर्वं तक की रचनाएं ('कानंनकुसुम'--
1913, 'प्रेमपथिक'--1913, 'करुणालय!--191 3,--'महाराणा का महत्व?
1914) दिविवेदी-युग के अंतर्गत लिखी गई, वाद की रचनाओं में कवि पर छाया-
वादी प्रवृत्तियों का प्रभाव स्पष्ट है । प्रसादजी में आधुनिकता के साय-साथ प्राचीन
संस्कृति की गरिमा का भी प्रभाव अविच्छिन्न रूप से पड़ा है। कवि ने अंतर्मुंखी
कल्पना द्वारा सूक्ष्म भावनाओं का चित्रण बहुत सुंदर ढंग से किया है । वैयक्तिक
और ईश्वरोन्मुख प्रेम, प्रकृति-प्रेम, प्राचीन गौरव का चित्रण आदि आपकी कविता की
विशिष्टताएं हैं । आपकी कविता में प्रेम की पीड़ा का चित्रण अधिक हुआ है। यही
व्यक्तिगत निराशा विश्व-प्रेम का रूप ग्रहण कर सारे विश्व की पीड़ा को स्वीकार
कर उसे सुखमय बनाना चाहता है--आँसू' काव्य में इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है।
महाकवि निराला--महाकवि निराला की “जुही की कली' (1916) ने तो
मानो दिविवेदी-युग में ही छायावादी कबिता का द्वार खोलकर नवीन अनुभूति एवं
मुक्त छंद का आहवान कर दिया था । आपकी कविता में प्रारंभ से ही विविधता
के दर्शन होते हैं। यह विविधता भावगत एवं भाषागत् दोनों में ही है । आपकी
कविताओं का संग्रह 'परिमल' और 'अनामिका' हैं। 'परिमल' में गीत भी हैं और
मुक्त छंद भी, प्रणयपरक गीत भी हैं और ओजपूण रचनाएँ भी । निरालाजी के स्फुट
गीतों का संग्रह “गीतिका” में हुआ है जिसमें साहित्य और संगीत का अपूर्वं मणिकांचन
योग है । आपकी रचनाओं पर दर्शन का प्रत्यक्ष प्रभाव लक्षित होता है । 'परिमल',
'गीतिका” के प्राथंनापरक एवं वंदना गीत इसी रहस्यवाद के सूचक हैं। महाकवि
26
निराला आधुनिक युग के कवि होते हुए भी प्राचीन भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन
एवं सांस्कृतिक मूल्यों को युग के विविध आयामों के साथ लेकर चलने वाले कवि हैं ।
आपकी इसी युग चेतना ने उन्हें छायावाद की सौंदर्यानुभूति के मध्य लोकोन्मुख बना- '
कर प्रगतिशील कवियों की प्रथम श्रेणी में खड़ा किया है जिसकी विवेचना आगामी
पंक्तियों मे की जायेगी । ५ ९
महाकवि पंत--निरालाजी के शब्दों में हिंदी के 'सुकुमार कवि' पंत प्रकृति
चित्रण के सुंदर चितेरे हैं । प्राकृतिक दृश्यों . के चित्रण में कवि ने अपूर्व सौंदर्य की
सृष्टि की है । कहीं-कहीं प्रकृति संबंधी रहस्यवाद की भी झलक मिल जाती है । पंत
जी के काव्य में कवित्व और सौंदर्यं के साथ-साथ विर्श्वाचतन और दार्शनिक विचारों
का भी प्रभाव लक्षित होता है । विश्वचितन का यही भाव आगे चलकर छायावादो-
त्तर काल में 'युगांत' और 'युगबाणी' में पूर्णरूपेण विकसित हुआ है । आपकी कविता
में सौंदर्य और कल्पना का प्रसार प्रकृति और जीवन के सुकुमार रूपों की ओर ही
अधिक रहा है ! कवि पंत की इसी सुकुमारता एवं मांसलता ने खड़ी बोली के उस.
लांछन को धो डाला जिसमें यह कहा गया था कि “खड़ी बोली में माधुर्यं और
कोमलता का अभाव है ।”
महादेवी बर्मा--उपर्युकत छायावादी कवियों के अतिरिक्त महादेवी वर्मा
छायावाद की महत् कवयित्री Ea आपकी कविताओं में विरहजन्य पीड़ा को तीब्र
अनुभूति, प्रियतम के प्रति प्रणय निवेदन, जिज्ञासा एवं आध्यात्मिकता के भाव विशेष
रूप से दिखाई देते हैं। छायावादी-काल की सुकुमारता एवं अनुभूति की मांसलता
आपकी कविताओं में पूर्ण रूप से परिलक्षित होती है । वास्तव में दुःख ही उनके संपूर्ण
साहित्य साधना का मूलाधार है, एवं अज्ञात प्रियतम (असीम, अगोचर) के प्रति प्रणय
निवेदन ही इनके गीतों का प्रमुख स्रोत रहा है ।
छायावाद के परवर्ती दिनों में छायावाद से भिन्न एक अन्य प्रकार की
स्वच्छंदतावादो काव्यधारा का विकास हुआ, जिसे डॉ. नगेन्द्र दूबारा संपादित Text
साहित्य का इतिहास" में “प्रेम और मस्ती का काव्य” कहा गया है, और डॉ. तामवर
सिह ने “जवानी की मौज-मस्ती तथा लापरवाही की प्रवृत्ति का काव्य’, कहा है। इस
धारा के कवियों ने शरीर और मन के धरातल तक ही अपनी प्रणयानुभूति को:
सीमित रक्खा है । छायावादी कवियों--प्रसाद, निराला और पंत की रचनाओं में
रीति को मांसलता एवं प्रणयानुभूति का चित्रण बड़ी तल्लीनता से हुआ है, कितु धीरे-
घींरे इन कवियों ने स्थूल प्रणय से ऊपर उठने का प्रयास कंरते हुए रेति को जीवन
चेतना के एक व्यापक अंग के रूप में ग्रहण किया है ।
27
प्रेम और मस्ती के इन कवियों की रचनाओं में मात्र प्रणय में तल्लीन होना
ही इनका साध्य रहा है । हरिवंशराय बच्चन की 'मधृशाला' युगीन काव्य एवं कवि
की मादकता का उदाहरण है--
वह मादकता ही क्या जिसमें बाकी रह जाए जग का भय'
इस धारा के अन्य कवियों में रामेश्वर शुक्ल अंचल, नरेन्द्र शर्मा और
हरिकृष्ण प्रेमी के नाम उल्लेखनीय हैं । प्रणय के अभिलाषी ये कवि शारीरिक प्रेम
के महत्व को स्वीकार करते हुए कहीं-कहीं मर्यादा का अतिक्रमण कर गए हैं । नवीन
जी की 'साकी' की ये पंक्तिया--
'ऐसी पिला कि विश्व हो उठे
एक बार तो मतवाला,
साकी अब कैसा विलम्ब,
भर भर ला तन्मयता हाला'
. इस दृष्टि से देखने पर यह कहा जा सकता है कि प्रणय का यह रूप छाया-
वाद और नई कविता के बीच की कडी है । जिस प्रकार द्विवेदी युगीन नैतिकता के
बोझ से आक्रान्त छायावादियो ने प्रणय को मुक्त करने का प्रयास किया लेकिन वे
आध्यात्मिकता से संपृक्त हो गये । साकी और मादकता के ये कवि प्रणय की तीव्रता
में इतने आगे बढ़ गये कि 'जग का भय' को अस्वीकार कर कविता में मादकता, साकी
भौर शराब का स्वच्छंद वर्णन करने लगे । वास्तव में यह कविता भी उसी युग की
उपज है जिसने छायावाद को जन्म दिया।
छायावादोत्तर यूग--छायावाद के उपरान्त हिंदी कविता ने अपने
ऐतिहासिक विकासक्रम में अनेक करवटें बदली हैं । प्रश्न उठता है कि इसके क्या कारण
हैं ? यह प्रश्न अपने आप में एक व्यापक विषय हैं। इस संदर्भ में इतना अवश्य कह
सकते हैं कि संपूर्ण काव्य साहित्य के बदलते हुए प्रतिमानों के मध्य राष्ट्रीय मोर
अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ ही सहायक हुई हैं। इन परिस्थितियों के फलस्वरूप सन्
1930 के आसपास ही जिस नवीन सामाजिक चेतना से युक्त साहित्य-धारा का जन्म
हुआ उसे ही सन् 1936 में “प्रगतिशील साहित्य' का नाम दिया गया | सन् 1935
में एम. फास्टर के सभापतित्व में पेरिस Ho 'प्रोग्रेसिव राइट्स एसोसिधेशेम' नामक
अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का प्रथम अधिवेशन 'हुआ । सन् 1936 में सज्जाद जहीर और
मुल्क राज आनन्द के प्रयत्नों से भारतवष में भी इस संस्था की शाखा खुली और
प्रेमचन्द की अध्यक्षता में लखनऊ में 1936 में “प्रगतिशील लेखक संघ' की स्थापना
हुई | तब से साहित्य में प्रगतिवाद के रूप प्रगतिवादी काव्यधारा का विकास हुआ d
28
प्रगतिवाद और प्रगतिशील यह दोनों शब्द पुर्णतः अलग हैं । शिवदानसिह चौहान का
कथन है, “प्रगतिवाद और प्रगतिशील में भेद है? । प्रगतिवादी कविता किसी वाद
विशेष की कविता नहीं है, वरन् विचारों की निर्भय अभिव्यक्ति और प्रगति की दिशा
में समानता की माँग है । प्रगतिशील पुराने समाज को बदलने की और अग्रसर होता
है और प्रगतिवाद का लक्ष्य साम्यवादी समाज की स्थापना एवं माक्संवाद के दन्द्वा-
त्मक भौतिकवाद की प्रतिष्ठा है । इस प्रकार संपुण प्रगतिवादी साहित्य प्रगतिशील
साहित्य है, लेकिन सारा प्रगतिशील साहित्य प्रगतिवादी साहित्य नहीं कहा जा सकता 0
उदाहरणार्थं प्रेमचन्द का संपुर्ण साहित्य प्रगतिशील साहित्य है, न कि प्रगतिवादी ।
यही प्रगतिवाद और प्रगतिशील का सूक्ष्म भेद है ।
प्रगतिवादी साहित्यकारों ने छायावादी कविता को सामाजिक हित के प्रतिकूल
बताकर उसका विरोध किया । समाज के दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति और आथिक
शोषण के प्रति विरोध इस नयी प्रवृत्ति का मुख्य लक्षण है । माक्संवाद से प्रेरणा ग्रहण
कर प्रगतिवादी लेखकों ने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार किया । राजनीतिक दासता
देश में एक ओर पूंजीवादी और सामंतवाद की शोषक शक्तियों को बढ़ावा दे रही
'थी तो दूसरी ओर जनसामान्य में अशिक्षा, बेकारी, गरीबी थी । द्वितीय महायुद्ध
(1939), बंगाल का अकाल जैसी भीषण घटनाएँ घटित हो रही थीं। ऐसी स्थिति
में बढ़ती हुई उग्र जनचेतना, रूस में माक्संवाद पर आधारित साम्यवाद का प्रभाव
कवियों पर पड़ना स्वाभाविक था । प्रगतिवादी कविता समग्ररूपेण समाज की कविता
है जिसमें समाज के सुख-दुःख, दलित पीडित मानवता की पुकार को एवं समाज के
अन्दर छोटे-समझे जाने वाले लोगों के जीवन पर, उनकी समस्याओं पर दृष्टिपात
कर उन्हें कविता का विषय बनाया गया | प्रगतिवादियों का नारा था कि समाज में
व्यक्ति और व्यक्ति के बीच आथिक समानता हो तथा समाज की संपुर्ण आथिक
संरचना पर कुछ इने-गिने लोगों का एकाधिकार न हो ।
प्रगतिवाद 'यथार्थवाद' का पोषक है । 'यथार्थवाद” जयशंकर प्रसाद के शब्दों,
में--“लंघुता के प्रति साहित्यिक दृष्टिपात” है । कवि की इसी यथार्थवादी दृष्टि
'ने साहित्य में नवजीवन का संचार करके साहित्य का क्षेत्र व्यापक बनाया । काव्य में
व्यापकता की इसी दृष्टि ने छायावादी कवि पंत और निराला को भी प्रगतिशील काव्य-
'धारा के व्यापक मंच पर खींच लिया। सुमित्रानंदन पंत जैते छायावादी-युंग के
निर्माता कवि मार्क्सवाद की ओर मुड़ गये । पंत ने 1936 में 'युगांत' की घोषणा
कर 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' (1940) की रचना कर नए युग प्रगतिवाद' का प्रारंभ
'किया । प्रगतिशील चेतना के प्रसार के लिए ही "कूपाम' (1 928) नामक मासिक
पतिका भी निकाली । निराला के 'कुकुरमुत्ता' (1943), “गर्म पकौड़ी', स्फटिकशिला'
29
01७४ bib ६ lel Bh 112५
12122) 172 1६ | (४
liz
5
x:
9 1
EE
H9 H9
1219102 >lpble b
[४९1२७ Phjbbib3p २] ]>७
11312]-1212] >>
1७४ 19 1७1२६ 12-1)2% २1% [२४६
12५२10] ४2112 Ib 112५21421121£.]
|
21122] (४०७1६
Ho
iF (प्रि
ळर
६
vi
hehe 2112 12५2)
12] ४०॥६] (७ 1151212) >118 11:27
॥1>४९] 1५ 2122]2
hbk] 1५ 18£11721812 1५४ 1९152)
21108 1७ blppblh
bok hb] ५४ Ibblbi 19२ फोरे BRE
[beaks bls ५ [10202 ५२४.)
21४)511812 Well
|
Dubhk]
६४761 है 9561 21222]1£5
01७29] २ 12२2 BJs ५ DJs
७४७०४६] १६ pb 11202५2 1000212
PIbbhlbh-be] B bhb
122) 2६ jp bsde-Lbjs 12210) 1112) 2
21२७ $
»lebb|he 2172 Exi bblh
|
Phbhb]
|
चतच
9६61 ७0८6] whreleims
30
और 'नये wur (1946) की अधिकांश कविताएँ इसी कोटि की हैं जिसमें शोषक-
शोषित वर्ग के संघर्ष को उभारा है ।
विषय-वस्तु के साथ ही कवि ने भाषा का भी जनवादीकरण किया । साहित्य
जनता का है, जनता के लिए चित्रण करना एवं जनता तक पहुँचाने के लिए जनता के
जीवन की वात कहना उसका लक्ष्य रहा है । अतः उसकी भाषा, शब्द, प्रतीक एवं
मुहावरे सभी कुछ जनजीवन के बीच से लिए गये हैं । इस युग के प्रमुख कवि निराला
और पंत्र के अतिरिक्त नागार्जुन (युगधारा), केदारनाथ अग्रवाल (युग की गंगा),
शमशेर वहादुर सिह, त्रिलोचन (धरती), शिवमंगल सिह सुमन (जीवन के गान,
प्रलय सृजन), गजानन माधव मुक्तिबोध आदि हैं । इन सभी कवियों ते भावु-
कता और कल्पना की अतिशयता के मध्य से कविता को निकालकर जन जीवन के
मध्य प्रवाहित कर आधुनिक काव्यधारा के इतिहास में एक नया अध्याय अवश्य ही
जोड़ा है ।
आधुनिक हिंदी कविता के संदर्भ में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता
अथवा अन्य जिघाएँ समसामयिकता के अनुरूप बदलते हुए प्रतिमान हैं । प्रत्येक काव्य
प्रवृत्ति के ह्लास के बाद नवीन प्रयोग" होते रहते हैं । सामान्य अर्थ में तो सभी नवीन
प्रवृत्तियाँ प्रयोगवादी ही कही जा सकती हैं । कितु आजकल 'प्रयोगवादी' एक विशेष
अर्थ में प्रचलित हो गया है । 'प्रगतिवाद' जिस प्रकार मार्क्स के दर्शन से प्रभावित
होकर सामाजिक जन-चेतना को साथ लेकर चला उसी प्रकार 'प्रयोगवाद' फ्रायड के
काम सिद्धांत एवं व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को साथ लेकर नए-नए भाव-बोधों, अनुभूतियों
एवं नवीन-शिल्पगत् तथ्यों को लेकर सन् 1943 में 'तार-सप्तक'1 के माध्यम से साहित्य
जगत में प्रविष्ट हुआ जिसका पर्यावसान “नयी कविता? में हो गया । 'नयी कविता”
प्रयोगवाद का ही विकसित रूप है। कुछ लोग तो प्रयोगवाद को 'नई कविता! के
नाम से पुकारते हैं । यद्यपि दोनों में कोई निश्चित रूपरेखा उभर नहीं पाई थी ।
प्रयोगवाद वास्तव में ह्वासोन्मुख मध्यवर्गीय समाज के “व्यक्ति जीवन' का चित्र n
आज के विघटनपूर्ण समाज में व्यक्ति किस प्रकार संघर्षो से प्रतिक्षण जूझता हुआ
कुंठा, संत्रास और निराशा के मध्य अवसाद मात्र बनकर रह गया है। उसका अपना
अस्तित्व (यथार्थ) किस प्रकार दमित कामवासना का युटोपिया बनता जा रहा है ।
उसके इस व्यक्तित्व को इन प्रयोगवादी कवियों ने ही पहचाना है, साथ ही सहानु-
भूतिमय दृष्टि से सोचने के लिए एक नए मागं का निर्माण भी किया है, उसके
1. तार सप्तक के कवि--मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, गिरिजा-
कुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा, अज्ञेय |
31
काव्य का उद्देश्य किसी आदर्श की स्थापना करना नहीं है वरन् जीवन में भोगे हुए
सत्य को, अनुभूति की सच्चाई एवं यथार्थ जीवन को ईमानदारी के साथ व्यक्त करना
रहा है ।
प्रयोगवाद वस्तुत: व्यक्तिवाद और छ्पवाद की कविता है । व्यक्तिवाद की
अतिशय प्रधानता ने जहाँ इन कवियों को समाज निरपेक्ष बना दिया वहाँ कलावाद
अथवा रूपवाद की प्रक्रिया में विलक्षण प्रयोगों, प्रतीकों, fazi एवं छंद विधान की
अतिशय बौद्धिकता ते कविता के स्वाभाविक रूप को दुरूह वना दिया है । इन कवियों
का लक्ष्य आत्मसत्य के द्त्रारा काव्य-सत्य पाने का प्रयास रहा है । अज्ञेय इसी काव्य
सत्य के आकांक्षी रहे हैं। अज्ञेत्र के ही शब्दों में “व्यक्ति का जो अनुभूत है, उसे
समष्टि तक कैसे उसकी संपूर्णता में पहुँचाया जाए, यही पहली समस्या है” । इसके
अतिरिक्त शमशेर बहादुर, भवानीप्रसाद मिश्र, गिरिजाकुमार माथुर एवं रघुवीर
सहाय आदि कवि इसी धारा के पक्षपाती रहे हुँ । इसी परंपरा में आगे चलकर “नई
कविता' का विकास हुआ ।
जैसा कि प्रथोगवाद के प्रारंभ में ही कहा जा चुका है--नंयी कविता उसका
विशिष्ट विकसित रूप है । प्रयोगवादी किता के प्रवर्तक अज्ञेय ने दूसंरा
सप्तके! (1951) के प्रकाशन के साथ ही नयी कविता का प्रारंभ किया जिसे आगे
चलकर 1953 में 'नये पत्ते! और सन् 1954 में डॉ. जगदीश गुप्ता और रामस्वरूप
चतुर्वेदी के संपादन में 'नयी कविता' पत्रिका के साथ प्रतिष्ठा मिली ।
“नयी कविता” प्रयोगवाद का विकसित रूप होते हुए भी इसका क्षेत्र
अधिक व्यापक रहा है । इसका एकमात्र लक्ष्य समाज की सर्वांग अनुभूतियों की
तदनु रूप अभिव्यक्ति है । व्यक्ति मन की सृक्ष्मतम गहराइयों की do, जीवन को
“जीवन' के रूप में देखने की अभिलाषा, व्यक्तिमात्न का अपना अस्तित्व, जीवन के
प्रति पूर्ण आस्था, क्षण की अनुभूति एवं उसके भोगने की लालसा, समय की माँग के
प्रति न्याय उसकी काव्य प्रवृत्ति का प्रमुख लक्ष्य रहा है। उसने अपने चतुर्दिक विकास
(व्यक्तिमात्) के लिए न तो भक्तिकालीन कवियों की भाँति ईश्वर से आराधना की
हैन रीतिकालीन राजाओं का आश्रय माँगा और त ही छायावादियों की भाँति
पलायन किया, (प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को प्रवृत्ति भी उसे संकुचित लगी) वरत्
समाज के बीच ही समस्त संघर्षो से मोर्चा लेते हुए उसी के मध्य उसने समाधान
1. दूसरा सप्तक के कवि--भवानीप्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर हरिनारायण
व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश कुमार मेहता, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती ।
32
ढूँढ़ा है । वह समाज की सारी शक्ति को व्यक्ति में केंद्रीभूत कर एक नए समाज का
सुजन करने की ओर गतिशील है। भवानीप्रसाद मिश्र की यह dfggbeeeeses
(००९०७००००० कि टूटना, बिखरना, कुछ नहीं है, जीवन संघर्ष है, लड़ो ४ nr
इन कवियों ने व्यक्ति की स्थापना के लिए ही राजनीति और शासनतंत्र की अव्य-
वस्था का भी पर्दाफाश किया है । जहाँ तक 'नयी कविता! में अपने समय के प्रति
जागरूकता एवं व्यक्तिमात्र के प्रति सहानुभूति है, वहाँ दुसरी ओर ये कवि कुछ
उच्छु खल भी हो गये हैं सब कुछ कहने की छटपटाहट में कहीं-कहीं कविता में
उन्मुक्त एवं नग्न सॅक्स तथा अनर्गल प्रयोग भी हुए हैं । लेकिन यह स्थिति सर्वत्र
नहीं । वास्तव में इन कवियों ने जीवन की यथार्थता को जितने निकट से देखा है,
उसका पूं युगों में अभाव अवश्य ही खटकता है ।
अनुभूति की सच्चाई एवं अभिव्यक्ति की सहजता के अनुरूप ही भाषा एवं
छंद का प्रयोग किया है अर्थात् अनुभूति की अभिव्यक्ति के रूप भाषा एवं छंद प्रयोग
की मान्यता इन्हें स्वीकृत है । अन्यथा केवल बाहरी छप-सज्जा के लिए कविता की
आत्मा को विघटित नहीं किया जा सकता । शिल्प की सफलता समसामयिकता से
बंधकर चली है । यही अथ की लय? कहलाती है । नयी कविता का काव्य-शिल्प
इसी बात पर निर्भर है।
अन्ततः नयी कविता जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति & । अभिव्यक्ति की
सार्थकता ही 'नयी कविता” का लक्ष्य है । इस लक्ष्य के लक्षित कवि गजानन माधव
मुक्तिबोध, भवानीप्रसाद, शमशेर, रघुवीर सहाय, गिरिजाकुमार माथुर, केदारनाथ
अग्रवाल आदि हैं । इसके अतिरिक्त 1959 में प्रकाशित तीसरा सप्तक के प्रकाशन
से भी अनेक नए कवि प्रकाश में आये हैं ।
सन् 1960 के बाद की कविता के क्षेत्र में समय-समय पर नये आंदोलन
आते रहे हैं, 'साठ के बाद की कविता”, “साठ के बाद की कहानी', 'साठ के बाद का
उपन्यास' जैसे शीर्षक निकलते रहे हैं केवल कविता का ही इतिहास देखा जाय तो
इनके अनेक नाम दिये गये हैं--अक विता, नकविता, अस्वीकृत कविता, युयुत्सवादी-
कविता, प्रतिबद्ध कविता, भूखी पीढ़ी की कविता । 1943 में प्रारंभ” नामक कविता
संग्रह के चौदह युवा कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुई जिन्हें 'ताजा कविता! या
“अति-कविता' कहा गया । 1965 में अकविता नामक संकलन पत्तिका के रूप में
1. तोसरा सप्तक के कवि--प्रयागनारायण त्रिपाठी, कीति चौधरी, मदन वात्स्या-
यन, केदारनाथ fag, कुवरनारायण, विजय देव नारायण साही, सर्वेश्वर दयालः
सक्सेना ।
33:
प्रकाशित हुआ । वस्तुतः कविता के संदर्भ में ये विभिन्न नाम अन्ततः थोडे से परि-
वर्तन से सामान्य प्रवृत्ति वाले ही हैं जिनमें 'अकविता' नाम अधिक सार्थक होकर
प्रचलित हुआ है ।
'अक्कविता' में असंतोष, अस्वीकृति और विद्रोह का स्वर प्रमुख रहा है ।
यद्यपि 'नई कविता' में यह असंतोष विद्यमान था, लेकिन सन् 1960 के बाद
यह असंतोष भयानक आक्रोश और विद्रोह में परिवर्तित हो गया। समाज की
समस्याओं के अनुरूप ये कवि भी संघर्षशील होते जा रहे हैं । राजनीति के शिकंजे
के मध्य व्याप्त जमाखोरी एवं भाई-भतीजावाद के प्रति भी इन -कवियों ने विद्रोह
किया है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि आज की रोजमर्रा जिन्दगी की
अनुभूतियों एवं उनके मध्य व्याप्त अन्तविरोधी प्रवृत्तियों को पहचानने की जैसी
पैनी दृष्टि इन कवियों में रही है--यह एक नयी काव्य-संवेदना का विस्तार है ।
इसके अतिरिक्त उन्होंने कविता को एक जीवंत भाषा दी जिसका मूल स्रोत आम
जनता की बोली में है । इस दौर के कवियों में धुमिल, राजकमल चौधरी, चन्द्रकांत
देवताले आदि हैं । इन कवियों के अतिरिक्त नयी कविता के विशिष्ट कवि रघुवीर
सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कवियों ने भी नई सामाजिक चेतना से
सम्पन्न कविताएं fadi । '
साठोत्तरी कविता में समकालीन चेतना और यथार्थ की अभिव्यक्ति का प्रयास
तो है ही लेकिन साथ ही सपाटवयानी के आग्रह एवं विद्रोह तथा आक्रोश की भंगिमा
ये कवि परंपरा की जीवंत चेतना एवं मानवतावादी मानवीय मूल्यों को भी नकार
गए हैं । हर्ष का विषय है कि इधर कुछ वर्षों से कवियों की दृष्टि में कुछ परिवर्तन
अवश्य हुए जिसके फलस्वरूप 'कविता' काव्यधारा की सहज भावभूमि पर अवतरित
होने का प्रयत्न कर रही है ।
आधुनिक काव्यधारा के संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि संपूर्ण आधुनिक कविता
(छायावाद के पश्चात्) के विकासक्रम को परिप्रेक्ष्य में रखकर उसका मूल्यांकन करना
उचित होगा । उसे खंड-खंड करके देखना उचित नहीं । 'नयी कविता' के संदर्भ मे
यही हुभा । उसे प्रगतिवाद, प्रयोगवाद के दायरे में बाँटकर अथवा साठोत्तरी, युयुत्सा-
वादी, नकेनवादी आदि पूर्वाग्रह ग्रस्त विशेषणों के संदर्भ में देखा गया । यह अतिवादी
दृष्टिकोण है | भक्तिकाल, रीतिकाल अथवा छाकवादी साहित्य के दायरे ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में निश्चित रूप से रहे हैं। अतः उसी विकासक्रम में 'नयी कविता का
श्रुंखलाबद्ध रूप में मूल्यांकन करना उचित होगा, तभी उसके प्रति न्याय,हो
सकता है ।
उपर्युक्त विवेचना में आधुनिक हिंदी-साहित्य (क्रविता) का अध्ययन करने के
पश्चात् दहं जिज्ञासा उठती है कि साहित्य के इतिहासं की यह प्रवृत्तियौ (यहाँ सिफ
कविती के वर्णन से तात्पर्ये हैं) क्या केवल एक भाष. तक ही सीमित हैं । वास्तव में
इस प्रकार का अध्ययन अपूर्णं ही रहेगा । हमें हिदी कविता के इतिहास क्रम का
अध्ययन करने के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी दृष्टि में रखना
होगा तनी यह अध्ययन पूर्ण माना जाएगा । आधुनिक साहित्य के विकास की रेखाएं
प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में समान रहती हैं । लगभग सभी भाषाओं में आधुनिक
युग का सूत्रपात सन् 1857 के स्वातंत्र्य संघर्ष के आसपास ही होता है । स्वतंत्रता-
qd आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ प्रमुखतः सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राष्ट्रीय भावना
का उत्कर्ष, रोमानी सोंद्य दृष्टि एवं साम्यवादी सामाजिक चेतन¡ का उदय छादि
प्रवृत्तियाँ थोड़े से अंतर से प्रायः सभी भाषाओं में पाई जाती हैं। तमिल में पुनर्जा-
गरण के नेता थे औौमलिंग स्वामीगळ इन्होंने अपने काव्य में भारतीय संस्कृति के पुनरु-
त्यान का प्रयत्न किया । सुब्रह मण्यम भारती, चिदंबर पिल्लई आदि कवियों ने अपने
काव्य के द्वारा सांस्कृतिक क्रांति तथा राष्ट्रीय चेतना को वाणी प्रदान की । इसी
प्रकार कन्नड, तेलुगु आदि भाषाओं में भी नवीन जागरण का स्वर तेजी से उठा
जिसमें क्रमशः वीरेशलिगम, गुर्जाङ अप्पाराव, mere से श्रीकण्ठैया, गोविद d, शंकर
भट्ट आदि कवियों ने सामाजिक चेतना से अनुप्राणित साम्य भावना तथा देशभक्ति
के वीरगीतः लिखकर प्रदेश को नवीन स्फूति से भर दिया। इस प्रकार राष्ट्रीय,
सांस्कृतिक ओर रोमानी काव्यधाराओं के पश्चात् कविता में माक्सवादी विचारों का
प्रवेश हो गया । अ. न. कृष्णराव, करंत तथा निरंजन आदि लेखकों ने शोषित जनता
के जीवन गीत गाए हैं । प्रगतिशील कवियों में एन. वी. कुरुप्प, पी. भारक रन, अनुजन
आदि उल्लेखनीय हैं । मराठी साहित्य में भी आधुनिक युग का सूत्रपात उन्नीसवीं
शती के पुर्वार्ध में हो चुका था । इस वर्ग के कवियों में महाजनि, कीतिकर, क्ते
आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने मराठी काव्य को नई दिशा प्रदान की।
काव्य में राष्ट्रीय चेतना एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण का विकास हुआ । इसके पश्चात्
रोमानी काव्य सौंदर्य को भी कविता में स्थान मिला है । हिदी की प्रयोगवादी कविता
का अभिधान भी मराठी साहित्य में दृष्टिगत होता है । मढेकर जैसे कवियों का नाम
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है । गुजराती कविता भी हिंदी भाषा की इस प्रवृत्ति से
दुर नहीं है । रोमानी eed दृष्टि का उन्मेष हमें पुजालाल आदि की प्राचीन रचनाओं
में मिलता है । भारतीय भाषाओं में सबसे समृद्ध आधुनिक साहित्य है बंगला भाषा
त 1 eii शती में राजा राममोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ठाकुर आदि
बेताओ ने बंगाल के समाज और साहित्य में नवीन युग का प्रवर्तन किया । रवींद्रनाथ
के उदय से ही बंगला साहित्य में नवीन रहस्य-चेतना एवं सौंदय-भावना का विकास
हुआ । इसी प्रकार असमिया और उड्या में भी आधुनिक साहित्य की गतिबिधि
35
समान रही है । राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत आनंदराम फकन, हेमचंद्र बरुआ, कमला
कांत भट्टाचार्य आदि ने वीरगीतो के द्वारा देशभक्ति एवं व्यंग्य कथाओं द्वारा
सामाजिक कुरीतियो पर प्रहार किया है । इसी प्रकार रोमानी काव्य-चेतना ud
1946 में प्रकाशित “आधुनिक असमिया कविता! में पूँजीवादी शोषण तथा वर्गवाद
के विरुद्ध हुँकार सुनाई देती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि आधुनिक हिंदी कविता
की प्रवृत्तियों के अनुरूप ही अन्य भारतीय भाषाओं (जिसका उल्लेख ऊपर किया जा
चुका है) में वे सभी प्रवृत्तियाँ समान रूप से पाई जाती हैं । ः
उपर्युक्त विवेचना में हिंदी कविता के विक्कास क्रम की चर्चा विस्तार से की
गई है। हिंदी कविता की प्रवृत्तियों को विस्तार देते हुए यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि
क्या ये प्रवत्तियाँ हिंदी भाषा के साहित्य तक ही सीमित हैं अथवा अन्य भारतीय भाषाओं
में भी इनके सूत्र तदनुरूप पाए जाते हैं। किसी भी प्रवृत्ति का अध्ययन मातन एक
भाषा के साहित्य तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए । वास्तव में इस प्रकार का अध्य-
यन aqu रहेगा । यह विषय यद्यपि विस्तृत है लेकिन संक्षेप में इन पर दृष्टि डालें
तो पता चलेगा कि हिंदी कविता की प्रवृत्तियाँ यहाँ नाथ-साहित्य से प्रारंभ होकर
आधुनिक हिंदी कविता तक प्राय: सभी भारतीय भाषाओं में देखने को मिलती हैं ।
उदाहरणार्थं सुर का वात्सल्य वर्णन हिंदी काव्य की अपनी कोई आकस्मिक घटना
नहीं थी, असमिया कवि माघव देव ने अपने 'बड़गीतों' में कृष्ण की बाल लीलाओं
का वर्णन किया, गुजराती कवि भालण ने अपने आख्यानों में, मलयालम कवि त्ते
कृष्ण गाथा में इसका विस्तार से वर्णन किया है । इसी प्रकार कविता की अन्य प्रवत्तियाँ
जिनका उल्लेख किया जा चुका है-हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं गुजराती,
असमिया, तमिल, तेलुगु, मलयालम और mers आदि में देखते को मिलती हैं।
इतना ही नहीं हिदी की तरह प्रायः सभी भारतीय भाषाओं का प्रारंभ,
(जसे तेलुगु साहित्य के प्राचीनतम ज्ञात कवि नन्नय जिनका समय है ईसा की
ग्यारहवीं शती, मलयालम की सर्वप्रथम कृति “:मचरितम् जो अनुमानतः तेरहवीं
शती की रचना है, बंगला के चर्यागीतों की रचना 10वीं और 12वीं शताब्दी आदि)
भारतीय साहित्यो के विकास के चरण आदि प्रवृत्तियाँ थोड़े से परिवर्तन से प्रायः
भिन्त हैं । इस समानता में कहीं-कहीं अपवाद अवश्य है जैसे भाषाओं के प्रारंभ के
संदर्भ में देखे तो तमिल और उदू इन दो भाषाओं का प्रारंभ अन्य भाषाओं के प्रारंभ
की अपेक्षा कुछ अपवादमय है ।
उपर्युक्त विवेचित कविता की प्रवृत्तियों के झतिरिवत कुछ अन्य प्रवृस्तियाँ
समान हैँ--जैसे रामायण और महाभारत परः आधारित काव्य की परंपरा प्रायः सभी
प्रदेशों के साहित्य में मिलती है । उदाहरणार्थ तमिल में कम्ब रांमायण', मलयालम में
रजुतच्चन की 'अध्यात्मरामाथण, मराठी में मोरोपन्त की रामकथा, तेलुगु में “रंगनाथ
36
रामायण', और हिंदी में 'रामचरितमानस एक व्यापक परंपरा के अंग हैं। इसी
प्रकार महाभारत पर आधारित काब्यों पर एक लंबी परंपरा जो अनेकता में एकता
की दूयोतक है । इसके अतिरिक्त संस्कृत काव्यशास्त्र का भी एक सार्वभौमिक प्रभाव
अन्य भारतीय भाषाओं पर है । उदाहरण के लिए देखिए रीतिकालीन काव्य जिसमें
स्पष्ट किया जा चुका है कि रीतिकालीन अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों ने किस
प्रकार संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपरा को बनाए रखा है ।
हिंदी कविता की सुदीघं परंपरा अर्थात् उसके विकास क्रम का अध्ययन
करने के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में उन सूत्रों को ढूंढने का जो प्रयास
किया गया है उसका एकमात्र उद्देश्य है भारत की राष्ट्रीय एकता को दर्शाता d
राष्ट्रीय एकता का स्तंभ ही साहित्य है । जिस प्रकार अनेक धर्मो, जातियों, विचारे:
घाराओं के होते हुए भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है उसी प्रकार अनेक
भाषाओं के होते हुए भी उसमें व्याप्त अन्तभूत एकता असंदिग्ध है । हिंदी साहित्य
के काल विभाजन की तरह अन्य भाषाओं के साहित्य में यद्यपि ऐसा कोई
विभाजन नहीं है लेकिन उसमें व्याप्त प्रवृत्तियाँ प्रायः समान हैं ।
जिस प्रकार उपर्युक्त विवेचना में हिंदी साहित्य (विशेषतः कदिता) के संदर्भे
अन्य भारतीय भाषाओं (मलयालम, कन्नड, उड्या, असमिया, तमिल, तेलुगु आदि)
का अध्ययन किया गया है उसी प्रकार अब हम यहाँ अखिल भारतीय संदर्भ मे हिदी
कविता की स्थिति पर विचार करेंगे ।
अखिल भारतीय संदर्भ में हिंदी कविता
हिंदी काव्य--साहित्य के विकास के साथ ही साथ हिदीतर प्रदेशों में भी
हिंदी साहित्य का अच्छा विकास हुआ है । इसका प्रमुख कारण अन्य भाषाओं की
नोट--हिदीतर साहित्य के संदर्भ में जिन महानुभावों से साक्षात्कार कर मैंने विचार-
विमर्श किया है उनमें डॉ. वि. कृष्णस्वामो अय्यंगार (कन्नड भाषी),
डॉ. न. वी. राजगोपालन (तमिल भाषी), एवं डॉ. नारायण पिल्ले, टी. के,
(मलयालम भाषी) के नाम उल्लेखनीय हैं । इसके अतिरिक्त डॉ. न नागप्पा
का व्याख्यान जो पुस्तक रूप में प्रकाशित “हिंदी साहित्य का अध्यापन”,
डॉ. नगेन्द्र दूवारा संपादित 'हिंदी साहित्य का वृहत् इतिहास'--(आंतर
भारती हिंदी साहित्य) एवं डॉ. मलिक मोहम्मद द्वारा संपादित 'हिंदीतर
प्रदेशों का हिदी साहित्य में योगदान' आदि पुस्तकों की चर्चा प्रस्तुत विषय
से संबद्ध है । ` E
37
अपेक्षा 'हिदी' की व्यापकता एवं सावंभौमिकता है । हिंदी-साहित्य अखिल भारतीय
साहित्य है, क्योंकि हिदी-भाषा, मात्र उत्तर-भारत की ही भाषा नहीं है वरन् लोक-
शक्ति से उद्भूत जन-सामान्य की भाषा है। वह जन-सामान्य किसी एक प्रदेश का
निवासी नहीं है वरन् संपूर्ण राष्ट्र का नागरिक है, जिसकी संस्कृति, (साहित्य एवं
ud के मध्य परस्पर वित्तार-विनिमय होता रहता है । भारतीय संस्कृति की यही
विशिष्टता उसे अन्य संस्कृतियों से अधिक गौरव प्रदान करती है। इस तथ्य को
हमारे संतों और महात्माओं ने बहुत पहले ही समझ किया था । इन संतों साधुओं ने
सारे देश में घुम-घुमकर लोगों के साथ सत्संग कर -:1न 'अचारों को, हिंदी में व्यक्त
कर उसे राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया । इस प्रकार परस्पर संपक्त के माध्यम से ही
हिंदी (दूसरी अन्यान्य वोलियों) के साहित्य में सावंदेशिक ind प्रतिफलित
हुई है ।
समग्र भारत में आदुत कबीर, सूर और मीरा, तुकाराम और नामदेव,
शंकरदेव तथा माधवदेव आदि की भक्तिपुर्णे उक्तियाँ विभिन्न प्रदेशों के लोगों के मध्य
प्रचलित रही हैं । इनसे यह प्रमाणित होता है कि मध्ययुग से ही समस्त भारतीय
साहित्य का हृदयस्वर एक था । इन सब कारणों से यदि यह कहा जाय तो असंगत न
होगा कि हिंदीतर भाषा प्रदेशों के लोगों को भी हिंदी साहित्य अजनबी नहीं था ।
सिदुधों और नाथों में अग्रगण गोरखनाथ की वाणी हिंदी साहित्य का अंग
है। इस नाथ संप्रदाय के faga का प्रचार पंजाव से लेकर दक्षिण तक गुजरात,
महाराष्ट्र से लेकर बंगाल, असम तक व्याप्त था । महाराष्ट्र के ज्ञानदेव, नामदेव,
एकनाथ और तुकाराम आदि, गुजरात के नरसी मेहता, GIG, संत प्राणनाथ और
अखा आदि ज्ञानमार्गी संतों ने हिंदी में भक्ति संबंधी रचनायें की थीं ।
गुजरात में हिंदी की जो धारा प्रवाहित हुई उनमें संतों की वाणी, वैष्णव
कवियों के भक्ति पद जैन कवियों की रचनाएँ, सूफियों के प्रेमाख्यान आदि का
विशेष महत्व है । महाप्रभु वल्लभाचार्य द्वारा प्रवतित पुष्टिमार्गी कृष्णभक्ति का
गुजरात में काफी प्रचार हुआ है जिसकी परंपरा में 'अष्टछाप' के कवियों एवं
'ब्रजभाषा' का अपना विशेष महत्व रहा है । भवित फे अतिरिक्त काव्य-रीति राज-
प्रशंसा आदि विषयों को लेकर भी गुजरात में हिंदी रचनाएँ हुई । राज्याश्रित कवियों
में राजकुमार महरामसिह कृत “प्रवीणसागर' ब्रजभाषा और खड़ीबोली में लिखा गया है।
इसके अतिरिक्त लखपती कवि का 'लखपती श्रृंगार' काव्यशास्त्र का ग्रंथ है । पंजाब
के गुरुतानक, गुरु गोविन्दसिह, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, उड़ीसा
के राय रामानन्द आदि अनेक कवियों ने ब्रजभाषा में रचना करके इसके अखिल-
भारतीय स्वरूप के निर्माण में अविस्मरणीय योगदान दिया है । भाषा के इस आक-
38
ण के प्रति जनता का इतना मोह गया था कि ब्रज प्रदेश की भाषा ब्रज, बंगाल
च उड़ीसा में 'ब्रजबुलि' तथा असम में 'ब्रजावली' के नाम से कृष्ण काव्य की माध्यम
भाषा के रूप में लोकप्रिय हुई ।
इसके अतिरिक्त कर्नाटक के मध्वाचार्य, तमिलनाडु के रामानन्द आदि का
हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसको विवेचना qd की जा चुकी
है । इस प्रकार हिंदीतर भाषा-भाषी प्रदेशों में हिदी का जो प्रचार-प्रसार हुआ उसकी
मुख्य आधारशिला धमं एवं संस्कृति थी जिसके अंतगत न केवल भक्ति-साहित्य का
प्रचार हुआ अपितु मौलिक रचनाएं भी निमित होती रहीं। मौलिक रचनाओं का
यह दौर वास्तव में स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ ही प्रारम्भ हुआ । भारत में राष्ट्रीय
सांस्कृतिक नवजागरण को चेतना के फलस्वरूप भारत की विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीय
भावता से परिपूर्ण साहित्य की रचना होने लगी । हिंदी राष्ट्रभाषा मानी जाने'लगी ।
हिंदीतर प्रदेशों में हिदी का विकास जिन विभिन्न स्तरों पर हुआ है
वे निम्बलिखित हैं--
1. प्रचार काये के रूप में
2, मौलिक साहित्य लेखन के रूप में
3. अनुवाद के रूप में
4. शोध कां कें रूप में ।
यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर हमें इतना ही देखना है कि हिदी कविता के
भेत में हिदीतर प्रदेशों में हिंदी कविता के समानान्तर कवियों का क्या योगदात
रहा है । यह स्पष्ट है कि कविता की अपेक्षा गद्य साहित्य (कहानी, उपन्यास, निबंध
जीवनी आदि) के क्षेत्र में हिंदीतर प्रदेशों में अधिक काम हुआ है। यहाँ हमारा
उद्देश्य मात्र 'कविता' के संदर्भ में ही कुछ कहना है । अतः हम यहाँ अति-संक्षिप्त
रूप में हिंदीतर प्रदेशों के कवियों का हिंदी कविता की धारा में क्या योगदान रहा
है--इस पर विचार करना समीचीन होगा i
“हिंदी कविता के क्षेत्र में तमिल भाषा-भाषी कवियों का योगदान
उल्सेखनीय रहा है । बीसवीं शती के चोथे दशक में तमिल भाषियों ने हिंदी में
“मौलिक लेखन का कार्य प्रारम्भ किया । उन्होंने कविता, उपन्यास, कहानी, नाटक
| wi की रचना के माध्यम से हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है । कविता-रचना
Aw रांग्रेय M सुमतींद्रन आदि कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं । डा. राघव
“ओर संमुतींद्रन संशक्त प्रगतिशील कवियों/में गिने जाते हैं । युग की अधिकांश
Lips wH3lbelt 1५ Bh}
-hhb) Bb 1४०७७ IUe EE] "Bg
(83 th Ips
r£üa IPepe) 2211222
१६७५-७७] १12
12७११२६ bb
) 01४४ 1५2 [215152
, 2102 12218 १५:२१ 4११] ५ 122112142102
zn 1७1७ Pbig>jb
2102९] ०1५४४
|
(21890) 81% 1% 81:19) #21816 1
bP. pi >Ue ७२1७२ २७
३१६४४ ५१४४ bj S RUE
* 1120151 1242
|n Pb] 1% Inalbke 129 “19315 10० bes
pbjhekJle 1७२ mh 23 gus
1bhlbà pi 1४2४ bp bh ७19 10० 1७2४ belle
1७318 Joh Bs e Bel —
. josbjis १७४४ ९ Bb
10015 Le 12५४७७ 21018 102 plan
bk} 1७ ७1७0 bjlbnsh ७9521918.
Phhhb)
|
(a 6५61 ०९०७ 1201४ २12 1561 ७299 13 88 ६
061 ७०७०॥०)--२% inb 9५७७
—— n — À— D
-40
कविताओं में राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति: और सामाजिक विषमताओं का
चित्रण है 1 |
तेलुगु भाषी हिदी s fait में सवंश्री आलूरी वैरागी, डॉ. चावलि qd-
नोरायण ufq आदि के नाम rod खनीय हैं । तेलुगु भाषियों में खड़ी बोली में प्रबन्ध
काव्य लिखने का श्रेय स्व.-पिर्गुलिलाजपति को है । “काव्य की उपेक्षिता उमिला' का
चरित्र चित्रण करते हुए डॉ. चावलि ने 'सती उमिला' की रचना की थी । कवि
वैरागी.की कविताओं का संकलन 'पलायन' काव्यगुण एवं रचना सौष्ठव की दृष्टि से
विशिष्ट है इनकी कविताओं पर माक्संवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव है।
इधर स्व. चल्ला लक्ष्मीनारायण शास्त्री ने 'विरि वाना' (फूलों की वर्षा) नाम से
“बिहारी सतसई' का तेलुगु अनुवाद प्रस्तुत किया ।
उपर्युक्त fagi के अतिरिवत श्री के. नरसा रेड्डी, चेब्रोलु शेषगिरिराव, डॉ.
जी. बालसुब्रहू nóng आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।
भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के विकास में कर्नाटक की देन का कम
महत्व नहीं है । अपभ्रश के आदिकवि स्वयंभू कर्नाटक के थे । इनके काव्य में सँकड़ों
कन्नड़ के शब्द प्राप्त होते हैं । कवि पुष्पदन्त के काव्य में भी कन्नड के शब्द मिलते
हैं। इससे स्पष्ट है कि कर्नाटक का हिंदी भाषा एवं साहित्य से बहुत प्राचीन
संबंध रहा है । स्वतन्त्रता के पश्चात् हिंदी लेखन के प्रति कन्नड भाषियो की रुचि
अधिक दिखाई पड़ती है । सरगु कृष्णमूर्ति, पंकज शर्मा, इन्दर राज 'अधीर', कक्कनवर
अप्पासाहब सनदी, सिद्घ॒लिग पट्टणशेद्टी, राधाकृष्ण मुदलियार आदि कवि हुए हैं।
इन कवियों की कविताओं में मनुष्यमात्र के प्रति सहानुभूति है, तो दूसरी ओर
अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार के प्रति तीखा विद्रोह है ।
| में f E uid
काव्य रचना, में हिंदी का प्रयोग करने वाला सर्वप्रथम केरलीय कवि
हास्य सम्राट p नंबियार माना जाता है। उसके वाद संगीत सम्राट केरल के
प्रथम हिंदी गीतक्रार स्वाति तिरुताल थे | आपके हिंदी गीतों की-भाषा मूलतः ब्रज
है 1 भक्ति और विरहिणी प्रेमिका कौ व्यथा का चित्रण इन गीतों की उल्लेखनीय
विशेषता है । सवंन्नी eg) केरलीय, पी. नारायण, एम श्रीधर मेनोन, एन. चन्द्र
लेखरन नायर, वी. के. एस. नंपृतिरि के नाम उल्लेखनीय हैं । सामाजिक विषयों पर
विचारपूणं काव्य लिखने का श्रेय भी इन कवियों को है । साथ ही हिंदी काव्य की
छंदहीन धारा, सामाजिक व्यंग्यात्मक कविताएं एवं प्रयोगवादी रचनाएँ भी इन्हें विशेष
आकर्षक लगी हैं। इसके अतिरिक्त प्रथम ज्ञामपीठ पुरस्कार विजेता जी शंकर कुरूप
का काव्य संग्रह बांसुरी' (अनुवादित) आदि काव्यकृतियो के अनुवाद भी हिंदी की
,काव्य शाखा को समृद्ध करने में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं ।
41
जैसा कि qd विवेचना में विस्तार से कहा जा चुका है, महाराष्ट्र के
लगभग सभी संत कवि हिंदी जानते थे और उन्होंने हिंदी में भी रचनाएँ की हैं ।
आरम्भ में वही सिद्ध और निर्गुण सन्त, फिर वैष्णव भक्तिधारा--राम और कृष्ण
चरित पर आश्रित काव्य लिखा गया । इस काल खण्ड में भक्ति साहित्य के अतिरिक्त
मुक्त रूप से शगार का भी वर्णन कवियों ने किया है। इसके अतिरिक्त श्री केशवराव
फणसे, आत्मराव देवकर, तथा सिद्धनाथ माधव अगरकर आदि कवियों के सुधारवादी
दृष्टिकोण, सामाजिक उत्थान की भावना एवं अतीत गौरव का चित्रण इन कवियों की
कविताओं में सहज देखा जा सकता है । छायावादी कवि प्रसाद, निराला, पंत और
महादेवी का प्रभाव भी इन कवियों की कविताओं में देखा जा सकता है । साहित्य की
आधुनिक संवेदना एवं सर्जनात्मक क्षमता से सम्पन्न कवियों में मराठी भाषी हिंदी
कवि डॉ. प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध तथा दिनकर सोनवलकर के
नाम विशेष उल्लेखनीय हैं | डॉ. माचवे सन् 1943 में प्रकाशित 'तारसप्तक' के
प्रमुख कवियों में से एक हैं । डॉ. माचवे कवि होने के साथ ही साथ समर्थ ललित
निबंधकार भी हैं । मुक्तिबोध मूलतः मराठी थे, ये तारसप्तक के प्रखर कवि थे तथा
इनमें साहित्य और समाज की गहन चेतना और सौन्दर्यं बोध के साथ-साथ जीवन को
गहरी अन्तदृ'ष्टि थी जिसने नवलेखन को एक नया आयाम दिया ।
हिंदी के संदर्भ में हिदीतर प्रदेशों के योगदान की चर्चा उठते ही गुजरात
का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है । इस प्रदेश के लोगों ने विशेषतः वैष्णव कवियों एवं
निर्गुण सन्तो ने अपने मत के प्रचारार्थं अपनी मातृभाषा के साथ-साथ हिंदी को भी
संप्रेषण का माध्यम बनाया जिनकी चर्चा पूर्व पृष्ठों में की जा चुकी है । आधुनिक
कवियों में दलपतराम, नर्मद, बालाशंकर और गोविन्द-गिल्ला भाई मुख्य हैं।
दलपतराम कृत 'श्रवणाख्यान' और गोविन्द गिल्ला भाई की हिंदी रचनाएँ विशेष
उल्लेखनीय हैं ।
हिंदी प्रदेश से बंगाल का संबंध न केवल प्राचीन है वरन् घनिष्ठ रहा
है । हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने के लिए विचार-परम्परा का सूत्रपात
बंगाल में ही हुआ था । मैथिल के कवि विदुयापति के पदों के आश्रय से बंगला में
“विद्यापति' नामधेय कवियों ते ब्रजबुलि' में कृष्णभक्ति एवं श्वृंगार विषयक पदों को
रचना की है । वास्तव में हिंदी-साहित्य को बंगाल की देन यहीं से शुरू होती है ।
सोलहवीं शताब्दी में श्री गौरांग चैतन्य महाप्रभु के द्वारा माधुयं-भक्ति से अभिषिक्त
एवं रप्तसिक्त हिंदी कृष्णकाव्य के निर्माण में चैतन्यदेव की देन को उजागर करती
है । इस प्रकार हिंदी साहित्य के साथ बंगाली कवियों का भी संबंध मूलत: भक्ति के
माध्यम से गहरा होता गया ।-आधुनिक चेतना संपन्न समकालीन कविता के क्षेत्र में
कवि प्रवण कुमार बंधोपाध्याय एवं श्यामसुन्दर घोष का नाम लिया जा सकता है।
42
इन अहिदी भाषी बंगाली विद्वानों ने हिदी भाषा और साहित्य की विशेष सेवा
की है। ०
उड्या एवं हिंदी साहित्य का विकास प्राय: समान रहा है, इसका
कारण परिस्थितियों का एक समान होना है । रामानुजाचाये द्वारा वैष्णव भक्ति के
प्रचार एवं चैतन्यदेव द्वारा प्रवतित प्रेमाभक्ति से प्रभावित वहाँ के कवियों में ब्रजभूमि
के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा जिसके फलस्व्ररूप लोग बड़ी संख्या में वहाँ को भाषा
(ब्रज जिसे उड़ीसा में 'ब्रजबुलि' के नाम से जाना जाता है कृष्णकाव्य की माध्यम
भाषा के रूप में लोकप्रिय हुई) को अपनाने लगे । इस प्रकार 'ब्रजबुलि' में रचना
करने की होइ-सी लग गई जिसके प्रवर्तक राय रामानन्द थे । भक्ति-साहित्य की रस
धारा ब्रजबुलि के प्रसिद्ध गायको का प्रमूख केन्द्र उड़ीसा ही रहा है । वास्तव में हिंदी
कवि विद्यापति के मैथिल गीतों का प्रभाव ही बंगाल और उड़ीसा में 'ब्रजवुलि'* एवं
असम में व्रजावली रूप में पनपा है। रीतिकालीन कवियों में दीन कृष्णदास की
रचना “रसकलोल' लोकप्रिय रही है । इसके अतिरिक्त उड़ीसा के नीलमणि मिश्च,
श्रीमती कुन्तला कुमारी आदि के नाम हिंदी के रचियताओं में उल्लेखनीय हैं ।
पंजाब का ब्रजभाषा से दीघं अवधि से सम्बन्ध रहा है । परिनिष्ठित
एवं एकमात्र पद्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा यहाँ शताब्दियों तक प्रचलित रही है ।
गुरुनोनकं के पदों में ब्रजभाषा और खड़ी बोली क्रा रूप स्पष्टतया दिखायी देता है ।
नानक देव के पश्चात् भी पंजाब के संत कवियों ने दीघं अवधि तक ब्रजभाषा को ही
अपनाया है p संभवतः पंजाब में आधुनिक हिंदी कविता बहुत संपन्न न हो सकी ।
आधुनिक कवियों में कुमार विकल और बलदेवबंसी के नाम चर्चित हैं ।
गद्य साहित्य के क्षेत्र में स्याति प्राप्त लेखकों -सुदर्श न, यशपाल, उपेन्द्रनाथ
“अश्क', भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती से हिंदी जगत परिचित है ।
अन्य हिंदीतर प्रदेशों की तरह ही असम में भी हिंदी भाषा एवं साहित्य का
अच्छा विकास हुआ है। मध्यकालीन भक्त एवं संत कवियों ने ब्रजावली में अपरिमित
रचनायें की हैं। शंकरदेव वैष्णव-भक्ति आंदोलन के प्रवतेक थे । आपकी दो रचनायें--
1. 'ब्रजबुलि' बंगला का कृत्रिम मिश्रित रूप है। इस भाषा का जन्म विद्यापति
की भाषा के अनुकरण पर बंगाल में ही हुआ । मैथिली इस ब्रजबुलि' की आधार
भूत भाषा है; साथ ही बंगला तथा ब्रजभाषा का मिश्रित स्वरूप है । इसका लेखन
काल पंद्रहवीं शती से आधुनिक काल तक है। ब्रजबुलि' के सर्वश्रेष्ठ कवि के
रूप में गोविन्द दास कविराज का नाम लिया जा सकता है । रवीन्द्रनाथ ठाकुर
ने भी भानुसिह के नाम से 'ब्रजबुलि' में कविताएँ fadt हैं i
43
बरणीत एवं फुटकर पद्य प्रभुख हैं । कुछ प्रथुख कवियों में श्री बापचन्द्र महंत (देश
की पुकार), श्री अंबिका प्रसाद पंकज (लाजवंती), श्री प्रफुल्ल कुमार शर्मा (तामस
दीप), उषा देवी जैन आदि कवियों के काव्य संकलन उल्लेखनीय हैं। इतना ही
नहीं असमीया बिहुगीत की हिंदी अभिव्यक्ति का सफल प्रयास भी इन कवियों ने
किया है ।
मणिपुरी भाषा में भी हिंदी सहित्य का सृजन विभिन्न रूपों में हुआ है ।
हिंदी के प्रचार-प्रसार के साथ वहाँ मौलिक काव्य लेखन का कार्य भी विकास पर
है । मणिपुरी भाषी हिंदी कवियों में आचार्य राधा गोविद थोंडाम, सिद्धनाथ प्रसाद
“पारंग', श्री लनचेनबा मोर्त, zo इबोहल सिह काडजम निरंतर हिंदी कविताएँ
लिख रहे हैं । 'मणिपुर हिंदी परिषद पत्निका' कविता प्रकाशन का सबसे बड़ा मंच
है। 26 जनवरी को हिंदीतर हिंदीं कवि सम्मेलन ऐसा मंच है जहाँ कवियों को
कविता प्रस्तुत करने का मौका मिलता है ।
अहिदी भाषी जम्मू-कश्मीर प्रदेश जो भारत का मणिमुकुट है-वर्षो से
हिंदी-कविता की सेवा करता आ रहा है। कश्मीरी भाषी हिंदी कवियों में मधुर
शर्मा (वे मुखर क्षण नामक कविता), मनसाराम चंचल का कविता संग्रह 'अश्रुमाल',
सुषमा रतनलाल शांत (खोटी किरणें-कविता संग्रह), रमेश मेहता (खुले कमरे बन्द
द्वार) आदि उल्लेखनीय है ।
समग्ररूपेण हिदीतर प्रदेशों के साहित्यकारों का हिंदी-भाषा एवं साहित्य
(विशेषतः कविता के संदर्भ) के विकास को देखकर यह स्वीकार करना पड़ता है कि
इन कवियों का हिदी की प्रगति, प्रचार-प्रसार एवं मौलिक कार्य-लेखन में प्रारंभ से
ही सहयोग रहा है, जिसकी विवेचना उपर्युक्त पंक्तियों में की जा चुकी है। यद्यपि
सृजनात्मक साहित्य-लेखन उनकी अपनी मातृभाषा (प्रादेशिक भाषा) में ही अधिक
हुआ है लेकिन फिर भी हिंदी के प्रति उनकी सेवा को नकारा नहीं जा सकता ।
इसके अतिरिक्त . अनुवाद एवं शोध कार्य के रूप में हिंदीतर प्रदेशों के
साहित्यकार का जिक्र करना भी अनिवार्य हो जाता है। वास्तव में अनुवाद ऐसी
विघा है जिस पर लेखनी चलाने के लिए (हिदी--अन्य भाषा) दोनों भाषाओं पर
समान अधिकार अपेक्षित है । सौभाग्य ही कहना चाहिए कि इन विभिन्न प्रदेशों में
ऐसे बहुत से विद्वान हैं जो दोनों भाषाओं का गहरा ज्ञान रखते हैं और वे अनुवाद
के दूवारा काव्य को समृद्ध करते आ रहे हैं। अनुवाद का यह कार्य एक तरफा
नहीं है ।
अखिल भारतीय स्तर पर भाषावार अमुवाद-कार्ये का अध्ययन करें तो
दक्षिण भारत की चारों भाषाएं--तमिल, तेलुगु, मलयालम एवं कन्नड & लेखकों
44
का योगदान महत्वपुर्ण रहा है । सुप्रसिद्ध तमिल अनुवादको की सूची में श्री आर.
वीलिनाथन, बी. एम. कृष्णस्वामी, श्री. र. शौरिराजनु, श्री एम. सुब्रह मण्यम, श्री
वॅकटकृष्ण square, एस. लक्ष्मी सुब्रह मण्यम आदि विद्वानों एवं विदुवियों ने
तमिल से हिंदी में और हिंदी से तमिल में कविताओं का अनुवाद किया है।
तमिलनाडु के सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि श्री सुब्रह मण्यम भारती को राष्ट्रीय कविताओं
को श्री सुन्दरम एवं श्री बिशववासी ने मिलकर हिंदी में अनुदित किया । स्वर्गीय
जमदग्नि ने तमिल में 'कामायनी' का अनुवाद किया है । तेलुगु मे 'संत त्यागराजु'
(विश्व तेलुगु सम्मेलन 1975 के अवसर पर प्रकाशित) में sie ऐ० पाँड्रंगराव ने
भक्त प्रवर त्यागराजु का समग्र परिचय प्रस्तुत करने के साथ त्यागराजु के कुछ
चुने हुए पदों का हिंदी काव्यमय अनुवाद भी प्रस्तुत किया है ।
हिदी के अनुवाद साहित्य को सम्द्ध बनाने में कर्नाटक के लेखकों का
योगदान महत्वपुर्ण रहा है। 'भारतीय कविता माला' में साहित्य अकादेमी के
fuu कन्तड़ के प्रसिद्ध कवियों की कविताओं का अनुवाद सर्वश्री प्रो नागप्पा,
डॉ. हिरण्मय, बी. आर. नारायण आदि ने किया है । डॉ. सरोजिनी महिषी ने
कुर्वेपुणी के महाकाव्य रामायणदर्शनम् के एक खंड का हिदी अनुवाद किया है।
इसके अतिरिवत 'भाषा', समकालीन भारतीय साहित्य आदि पत्रिकाओं के माध्यम
से कन्नड कविताओं का अनुवाद बराबर प्रकाशित होता रहा है । हिदी में अनुदित
मलयालम कविताओं के अनुवाद अब तक धमंयुग, आजकल, राप्ट्रवाणी आदि उत्तर
और दक्षिण की हिदी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए d । मलयालम के प्रसिद्ध आधुनिक
कवियों में से सवंश्री एन. बी. कृष्णवारियर, एन. एन. कक्काड आट्ट्र रविवर्मा
की कविताओं का अनुवाद संकलन मे प्राप्त है । इतना ही नहीं जहाँ एक ओर
मलयालम साहित्य को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने में विद्वान सफल हुए हैं वहीं
दुसरी ओर 'कामायनी', 'चिदम्बरा', 'कबीर के गीत' आदि मलयालम के सहृदय
काव्यास्वादकों को अपनी भाषा में मिले हैं। इस प्रकार अनुवाद का यह कार्य एक
तरफा नहीं है ।
राष्ट्र के पूर्वांचल असम, बंगाल और उड़ीसा में भी अनुवाद कार्य पर्याप्त
मात्रा में हुआ है । असमीया नामघोषा (माधव देव कृत) का हिंदी पद्यानुवाद श्री
सुरेन्द्रनाथ साहु ने किया । गणेश चन्द्र गर्ग के 'पापरि' नामक काव्य का अनुवाद
काफी लोकप्रिय हुआ । इसके बाद राष्ट्र भाषा परिषद गुवाहाटी से 'असमीया
कविता नाम से 35 असमीया कविताओं का हिंदी काव्यानुवाद प्रकाशित हुआ ।
कुछ प्रमुख अनुवादको में सवंश्री भूपेन्द्र राय चौधरी, कृष्ण नारायण प्रसाद 'मागध',
राजेन्द्र वरदलै आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार के अनगिनत उदाहरण हमें
विभिन्न भारतीय भाषाओं में मिलते हैं जिससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि मौलिक
45
लेखन के समानान्तर अनुवाद का कार्ये भी शीर्ष पर था । इसी प्रकार उड्या में
डॉ. बनमाली दास ने धर्मवीर भारती के 'अन्धायुग' एवं गोलोक बिहारी धल जो
मुलत: भाषाशास्त्री थे, ने प्रेमचन्द के उपन्यासों का उड्या में अनुवाद किया है ।
बंगाल भी इससे अछूता न रहा । हिदी में संभवतः बंगाल से ही सर्वाधिक ग्रंथों का
अनुवाद हुआ ।
हिंदीतर प्रदेश भी दो प्रकार के हैं-कुछ ऐसे प्रदेश हैं जहाँ हिंदी से निकटता
का संबंध रखने वाली भाषाएं--आर्य परिवार की ही भाषाएं व्यवहूत होती हैं--भतः
मराठी, गुजराती एवं पंजाबी भाषी कवियों का हिंदी साहित्य के प्रति योगदान की
चर्चा करना अनिवार्य नहीं । हिंदी साहित्य के इतिहास का 'भवितकाल' इन संतों
की हिंदी सेवा का जीता जागता उदाहरण है । अत: मौलिक साहित्य लेखन के साथ-
साथ अनुवाद क| कार्य भी इन प्रदेशों की प्रमुख देन है ।
उपर्युक्त मौलिक एवं अनूदित हिंदी साहित्य के अलावा तुलनात्मक अध्ययन
का कार्यं भी हिदीतर प्रदेशों में भरपुर हुआ है । इसके अतिरिबत शोध प्रबंध एवं
लघु-शोध प्रबंध भी हिदी में प्रकाशित हुए हैं । इन शोध प्रवंधों का विवरण यदि
देखें तो उससे पता चलता है कि हिदीतर प्रदेशों के विद्वानों द्वारा स्वतंत्र विषयों
की अपेक्षा तुलनात्मक विषयों पर शोध-कार्य अधिक हुआ है। हिंदी भाषा और
साहित्य के राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक संदर्भ में इस प्रकार के तुलनात्मक अध्यरन की
उपादेयता स्वयं सिद्ध है ।
अब तक के विवरण से स्पष्ट है कि हिंदीतर प्रदेशों के हिदी सेवियों ने हिदी
भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में जहाँ एक ओर हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं सृजनात्मक
लेखन कार्य क्रिया है वहीं दुसरी ओर अनुवाद के क्षेत्र में भी अपनी सेवा से हिंदी
भाषा एबं साहित्य को वंचित नहीं रखा वरन् उच्चस्तरीय शोध प्रबंध एवं लघुशोध
प्रबंध के कार्यं को भी queer किया है । जिस प्रकार हिंदी प्रदेशों के कवियों का
हिंदी काव्य रचना में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, उसी प्रकार विदेशी साहित्यकारों
एवं 'मनीयिय्ों' की सेवा से भी हिंदी कविता वंचित नहीं रही । आज विद्वान
बिभिन्न विदेशी भाषाओं से हिंदी में और हिंदी से विदेशी भाषाओं में अनुवाद करके
हिंदी काव्य संपदा में वृद्धि कर रहे हैं।
उपर्युक्त विवेचना में हिदी कविता के विकास की समग्र विवेचना के उपरांत
इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अपने ऐतिहासिक विकासक्रम की परिधि में प्रत्येक युग
की काव्यधारा अपने पूर्ववर्ती युग को काव्यधारा का अखंड स्रोत रही है.। भारतीय
1. रजत जयंती वर्ष पर प्रकाशित लघुशोध प्रबध सारा --के. हि. सं. आगरा
46
साहित्य में बुग-तेतसा का प्रादुर्भाव करने वाली 'कविता' ही रही है । इस प्रकार
'हिंदी-साहित्य एक प्रकार से समस्त भारतीय संस्कृति के मुलभूत सत्यों को अभिव्यक्ति
देता रहा है । इस रूप में उसकी अनुस्यूत परम्परा रही है, साथ ही परिवर्तित होने
-वाले विभिन्न युगों का यदि समग्र जीवन प्रतिबिम्बित न हुआ हो तो भी युग-चेतना
का स्वर उसमें सुनाई देता है ।
प्रस्तुत संकलन के बारे में--
प्रस्तुत संकलन हिंदीतर भाषा प्रदेशों के छात्रों के लिए तेयार किया गया
है । इसमें प्राचीन युग के उन्हीं प्रतिनिधि कवियों एवं उनकी रचनाओं को लिया गया
& जो सम्पूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन मध्ययुगीन सन्तों और भक्त कवियों
की वाणी को इसीलिए स्थान मिल सका है कि भारत की सामासिक संस्कृति की
झलक और भावात्मक समन्वय का कोई अन्य विकल्प वर्तमान हिंदी साहित्य में नहीं
है । हिंदी प्रारम्भ से ही आंतर भाषा के रूप में विकसित हुई है। महाराष्ट्र के
नामदेव, तुकाराम, एकनाथ आदि सन्तो की वाणी, गुजरात की deu भक्ति परम्परा
के महाप्रभु वल्लभाचायं, पंजाब के सिख गुरुओं की हिंदी पदावली दूसरी ओर कबीर
सुर, तुलसी, मीरा और रसखान की रचनायें हिंदी की इस सावंदेशिक व्याप्ति का
प्रमाण हैं । अहिदी प्रान्तों में आज भी इन भक्तिकालीन कवियों के प्रति अनुराग है ।
आज भी कबीर, सूर और तुलसी की रचनायें पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं तथा लोग
प्रेम से मीरा, सूर और रसखान के पद गाते हैं । इस दृष्टि से कालक्रम से, प्रमुख
कवियों की महत्वपूर्ण रचनायें संकलित करते हुए रीतिकाल के कुछ प्रतिनिधि कवियों
देव, बिहारी, घनानन्द की रचनाओं का समावेश भी किया गया है। महाकवि देव
आचार्य और कवि दोनों ही रूपों में सामने आते हैं । ब्रजभाषा साहित्य में देव अपनी
सर्वोत्कृष्ट भाषा के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं । महाकवि बिहारी काव्यशास्त्रीय परम्परा
के पृष्टपोषक होते हुए भी अपनी कविता में पर्याप्त मौलिक हैं । रीतिमुक्त कवि की
(हैसियत से घनानन्द को लिया गया है । खड़ी-बोली से qd हिदी की इन बोलियों
(ब्रजभाषा, अवधी) का मानक रूप एवं व्यापाक साहित्य उपलब्ध होता है । इस दृष्टि
से भी इन प्राचीन कवियों का संकलन में महत्वपूर्ण स्थान है ।
इस समय हिंदी का संस्कार अखिल भारतीय स्तर पर हो रहा है। हिंदी
की राष्ट्रीयता एवं उपयोगिता को देखते हुए आज उसका. मुल्यांकन अखिल भारतीय
स्तर पर होना आवश्यक हे । इस सन्दर्भ में डॉ. मोतीलाल जोतवाणी का यह कथन
fm “अभी तक हिंदी साहित्य का जो इतिहास लिखा गया है, वह हिंदी प्रान्तों के
साहित्य का इतिहास है । हमें अहिदी मातृभाषी प्रान्तों में रचित हिंदी साहित्य को
———————————————
“ळक...
47
भी इस इतिहास में स्थान देना चहिए (Ul इसीलिए भूमिका में अहिदी मातृभाषी
लोगों यथा--तमिल, तेलुगु, मलयालम कन्नड, गुजराती, मराठी, पंजाबी एवं उड्या
भाषा-भाषियों का हिंदी साहित्य (विशेषतः कविता के सन्दर्भ में) लेखन में क्या योग-
दान रहा है, इस पर संक्षिप्त चर्चा की गई है। वहाँ दुसरी ओर हिंदी साहित्य के
सन्दर्भ में भारतीय साहित्य के अध्ययन पर भी प्रकाश डाला गया है अर्थात् हिंदी
साहित्य (विशेषतः कतिना के सन्दर्भ) में पाई जाने वाली प्रवृत्तियों का अन्य भार-
«fra भाषाओं (तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड, उड़िया, असमिया, बंगला आदि)
में कहाँ तक पाई जाती है उनका उल्लेख किया गया है । साथ ही अनु वाद एवं शोध
कार्य के रूप में हिंदी प्रदेशों के साहित्यकारों का क्या योगदान रहा है, उस पर भी
संक्षेप में विचार किया गया है । किसी भी प्रवृत्ति का अध्ययन केवल एक भाषा के
साहित्य तक ही सीमित नहीं रहदा चाहिए। वास्तव में इस प्रकार का अध्ययन अपूर्ण
dt माता जाएगा । उदाहरण के लिए आदिकाल में चारण काव्य लेखन की प्रवृत्ति,
-नाथ साहित्य की परम्परा, हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियाँ, अन्य प्रेमाख्यान काव्य
परम्परा आदि भारतीय भाषाओं--गुजराती, उड्या, असमिया, तमिल, तेलुगु, कन्नड
और मलयालम में सहज ही मिल जाती हैं । यद्यपि यह काये अपने में एक स्वतन्त्र
-तथा विस्तृत कार्य है । क्योंकि प्रत्येक प्रादेशिक भाषाओं का ज्ञान किसी एक व्यक्ति
को हो, यह कठिन है। यहाँ तो मात्र छात्रों को अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य
से परिचित कराने के लिए उसका उल्लेख मात्र किया गया है । हिंदीतर प्रान्तों में
हिंदी के विकास के लिए जो कुछ किया, वह उसी हिंदी का अंग है जिस हिंदी की
बात हम करते हैं। इस रूप में हिंदी के अन्तर््रान्तीय रूप की चर्चा यहाँ दोहरा
-मूल्य रखती है, साथ ही हिंदी साहित्य के प्रति छात्रों की रुचि को बनाए रखने के
“लिए भी इसका उल्लेख महत्वपूर्ण है ।
आधुनिक कवियों के चयन में हरिऔध एवं गुप्तजी को विशेष रूप से इसीलिए
-लिया गया है क्योंकि भारतेन्दु युग के पश्चात् साहित्य के बदलते हुए प्रतिमानों
(ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली की प्रतिष्ठा एवं विषयगत वैविध्यता) के सन्दर्भ
Hd ये दो कवि ही प्रतिनिधि रूप में सामने आते हँ । यद्यपि कुछ अन्य कृवियों को भी
-युगीन सन्दर्भ में लिया जा सकता था (जैसे--रामचरित उपाध्याय, लोचनप्रसाद
«पाण्डेय, रूपनारायण पाण्डेय) लेकिन विषय को सीमा को देखते हुए सबका समावेश
करना कठिन है ।
संकलन में इस बात का पुरा प्रयास किया गया है कि युगानुसार कविता का
“विकासक्रम बता रहे जिससे छात्र आसानी से काव्यगत प्रवृत्तियों को समझ सके ।
d. विश्व के मानचित्र पर हिंदी (तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर प्रकाशित)
--डॉ. मोतीलाल जोतवाणी पृष्ठ 127
48
इसके लिए युगानुसार कविता के बदलते हुए रूपों के अनुरूप ही कवियों का चयन
किया है । छायावादी कवि प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी की रचनाओं का संकलन
इसी wafer का उदाहरण है, क्योंकि द्ववेदी-युग के पश्चात् भाव एवं भाषा के क्षेत्र
में आद्योपान्त जो प्रौढ़ता एवं नव्यता आई है, उसका दिग्दर्शन इन्हीं कवियों द्वारा
हो सका है । अतः इन चारों कवियों के अभाव में संकलन अधूरा ही रहता ।
छायावाद के पश्चात् छायावाद से भिन्न जिस स्वच्छन्द काव्य प्रवृत्ति को
लेकर नवीनजी अपनी 'साकी' दूवारा आए अथवा बच्चन की 'मधुशाला' की प्रणय-
मूलक वैयक्तिक कविताओं को भी संकलन में स्थान दिया गया है । लेकिन इस तरह
के संदर्भों में हर संभव संतुलन बनाए रखने का प्रयास किपा गया है । काव्यात्मक
आदर्श की रक्षा के लिए न तो यथार्थ का गला घोंटा गया है ओर न ही आदश की
शुष्क नीरपता को बनाए रखने के लिए कविता की मांसलता को नकारा गया हट ।
आधुनिक कविता के बदलते हुए संदर्भो को देखकर, उसमें विषयों की इतनी
विविधता और जटिलता है कि सब बातों को संक्षेप में प्रस्तुत संकलन में समेटना
असम्भव है | इन विविध आयामों में कविता ने अनेक मोड़ लिए हैं । इसी के अनु-
रूप संकलन में कवियों एवं उनकी रचनाओं को लिया गया है । 'प्रगतिशील' कवि की
हैझियत से नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध और केदारनाथ अग्रवाल को लिया है जिन्होंने
जन-जीवन के यथार्थ को ग्रहण करने का प्रारंभ से ही प्रयत्न किया है वैसे शमशे
और मुक्तिवोध ने प्रयोगवादी रचनाएँ भी की हैं किन्तु मुख्य रूप से प्रगतिवादी रचना
दृष्टि ही उनकी विशेषता रही है । लेकिन कविता के प्रति कवियों की यह वफादारी
अधिक समय तक न चल सकी जिसके विरोध (से 'प्रथोगवाद' का नारा बुलन्द हुआ
तथा जिसका पर्यावसन “नई कविता” में हुआ । इस धारा के कवियों में सवंश्री अज्ञेय
भवानीप्रसाद मिश्र, धर्मवीर भारती, रधुवीरसहाय, और गिरिजाकुमार माथुर की
कविताओं का संकलन किया गया है । आज के संदर्भ में कविता यदि जीवन की व्याख्या
है तो उसकी अभिव्यक्ति से छात्रों को परिचित कराने के लिए उपर्युक्त कवि उल्लेख-
नीय हैं । आज के विघटनपूर्ण समाज में व्यक्ति किस प्रकार संघर्षो से प्रतिक्षण जूझता
हुआ कुंठा, संत्रास और निराशा के मध्य अवसाद बनकर रह गया है-इसकी पहचान
इन्हीं कवियों ने की है । इसी उद्देश्य से इन कवियों को संकलन में समाहित किया
गया है ।
इस प्रकार बीसवीं शती के हिंदी काव्य में प्रत्येक मोड़ पर कवियों ने प्रारम्भ
से ही अपने वैयक्तिक अस्तित्व को रूपायित करने का प्रयास किया है जिसके फलस्वरूप
“छायावाद' (सन् 1920 से 1936 तक), 'प्रगतिंवाद' सन् 936 से 1943 तक),
“प्रयोगवाद' (1943 से 1847 तक) और 'नई कविता' (1951 से 1959 तक) का
49 :
जन्म हुआ । साठोत्तरी (सन् 1960 के वाद) पीढ़ी के कवि भी अपना अस्तित्व बनाए
रखने में पीछे नहीं हटे । इन कवियों में हमने धूमिल और रघुवी रसहाय की रचनाओं
को लिया है । इन दोनों ही कवियों में समाज की विसंगतियों का गहरा अहसास है ।
धूमिल की “मोचीराम' कविता इसका जीता-जागता उदाहरण है । इस संदभ में कुछ
महत्वपूर्ण कवि (कैलाश वाजपेयी, राजकमल चौधरी, अशोक वाजपेयी, श्रीकान्त वर्मा,
जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही) अवश्य ही छूट गए हैं जिनका समावेश
प्रस्तुत संकलन के विस्तार भय के कारण छोड़ा गया &!
कविता के विकास क्रम'में न जाने कितनी अन्य धारायें प्रवाहित होती रही
हैं, आगे भी नए-नए प्रयोग होते रहेंगे । काव्यगत प्रवृत्तियों की दृष्टि से उन सबसे
पाठकों को परिचित कराना आवश्यक है । इसी हेतु भूमिका में इस पर संक्षिप्त चर्चा
की गई है । हास्यरस जैसी व्यंग्यात्मक रचनाएँ, क्षणिक्राएँ, हँसिकाएँ और गजलें
आदि नवीन काव्यधाराएँ आज भी जनमानस को उद्वेलित कर रही हैँ । हमारा
प्रयास अध्येताओं (छात्रों) को इस रस गंगा का पावन स्पशे कराना मात्र
रहा है, इसमें अवगाहन करने का समय अध्ययनशील छात्रों को मिले, यही
शुभकामना है ।
प्राचीन साहित्य के संदर्भ में एक समस्या प्रामाणिक पाठ की है । कबीर, तुलसी
आदि की रचनाओं के अनेक पाठान्तर प्राप्त होते हैं । काव्य संकलन में यह ध्यान रखा
गया है कि अधिकतर विद्वानों द्वारा प्रामाणिक माना गया 'पाठ' ही रखा जाए ।
परिशिष्ट के अन्त में कविता के शब्दार्थं और टिप्पणी देते समय हर संभव
यही प्रयास किया है कि अहिंदी भाषी छात्र सरलता से उन कविताओं के अर्थ को
आत्मसात् कर सके, इसके लिए कविता के मध्य आने वाले विभिन्न पहलुओं से सम्ब-
स्थित अन्तर्कथाये, अभिधा से इतर लक्षणा एवं व्यंजना में निहित कविता के भावों
की विशेष टिप्पणी देते हुए उसकी सरल व्याख्या की गई है।
प्रथम संस्करण की भूमिका के बारे में यह अनुभव किया जा रहा था कि वहू
हिंदी काव्य का एकांगी दृष्टिकोण मात्र ही दे पा रही थी । अतः नये संस्करण की
भमिका में अन्य भारतीय भाषाओं को काव्य प्रवृत्तियों का समावेश करते हुए एक
ऐसी तुलनात्मक दृष्टि देने का प्रयास किया गया जो छात्रों को अपनी भाषाओं के
परिप्रेक्ष्य में हिदी काव्य की प्रवृत्तियों को समझने में सहायक हो । संस्थान कै
तत्कालीन निदेशक, प्रो. बाल गोविन्द मिश्र जी ने सतत मार्ग-दर्शन किया जिसके
लिए हृदय से उनकी आभारी हूँ ।
दिवतीय संस्करण की भूमिका लिखते समय यह अनुभव किया जा रहा था
कि जिस प्रकार हिंदीतर प्रदेशों में हिंदी के प्रचारप्रसार के साथ सुजनात्मक लेखन
50
कार्यं हुआ है, उसी के समानान्तर अनुवाद एवं शोधकाये निरन्तर विकसित हो रहा
है । अनुवाद काये द्वारा दो भिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान का काय एवं राष्ट्रीय
एकता का जो समन्वित रूप हिंदी साहित्य (विशेषतः कविता के संदर्भ) में आया
-उसे भी भूमिका में जोड़ा-जाए। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत संस्करण
` की भूमिका में काव्य के संदर्भ में अनुवाद-कार्य की विशेष रूप से:चर्चा की गई है।
इस तृतीय संशोधित संस्करण के प्रकाशन के लिए संस्थान के निदेशक प्रो.
महावीर शरन जैन के प्रति मैं अपना आभार व्यक्त करती हूँ जिनके प्रयासों से
प्रस्तुत संस्करण का संशोधित रूप आप तक्र पहुँच रहा है ।
इस पुन: संशोधित संस्करण के संपादन के लिए प्रो. रामवीर सिंह को
धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने कार्य के संपादन में सहयोग दिया । काव्य संग्रह के परिशिष्ट
भागं का संशोधन डॉ. श्रीमती हेमा उप्रेती द्वारा किया गया है । मैं उन्हें धन्यवाद
देती हूँ । |
इसके अतिरिक्त इस कार्य में जिन लोगों ने मुझे सहयोग दिया उनमें संस्थान
के पत्नाचार विभाग के भूतपूर्व प्रभारी डॉ. न. वी. राजगोपालन, प्रशिक्षण एकक
विभाग की प्रभारी डॉ. सरोजिनी, शर्मा एवं भाषा प्रौद्योगिकी विभाग -की डॉ.
वशिनी शर्मा के प्रति मैं आभारी हा संस्थान के प्रकाशन विभाग के प्रबन्धक डॉ.
देवेन्द्र शर्मा को धन्यवाद देती हे जिनका सहयोग निरन्तर मिलता रहा ।
--मीरा सरीन
"पाप शिण
व्हबीर
(पद)
(1)
साधो, शब्द-साधना कीजे ।
जे ही शब्दते प्रगट भये सब, सोई शब्द गहि लीज ॥
शब्द गुरु शब्द सुन सिख भये, शब्द सो विरला qd
सोई शिष्य सोई गुरु महातम, जेहि अन्तर, गति qd
शब्दे वेद पुरान कहत हैं, शब्दे सब ठहराव ॥
"शब्दै सुर-मुनि-सन्त कहत हैं, शब्द भेद नहि पावै ॥
शब्दे सुन सुन भेष धरत हैं, शब्दे कहै अनुरागी ।
षट-दर्शत सब शब्द कहत हैं, शब्द कहै "बैरागी ॥
"e$ काया जग उतपानी, शब्दे केरि पसारा ।
कहैं कबीर जहे शब्द होत है, भवन भेद है न्यारा ॥
(2)
“रहना नहि देस बिराता है ।
wg संसार कागद की पुड्या, बूंद पड़े घुल जाना है ।
यह संसार काँटकी बाड़ी, उलक्ष-पुलझ मरि जाना है ॥
यह संसार ate और झाँखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है ॥
(3)
माया महा ठगिनि du जाँनी i
तिरगुन फाँसि लिए कर डोले, बोले मधुरी बानी ।
केसव क॑ कंवला होइ बैठी, सिव के भवन भवांनीं।
52 | हिंदी काव्य संग्रह
der के मुरति होइ बैठी, तीरथ हू मैं? पांनी ॥'
जोगी कै जोगिन होइ बैठी, राजा कै घरि” राँनीं ।
काहू क॑ जोगिनि होइ बैठी, काहू क॑ कौडी काँतीं ॥
भगतां कै भगतिनि होइ बैठी, तुरकां8 कै तुरकांनीं ।
दास५ कबीर साहब का बंदा, जाकै हाथ बिकांतीं ॥
(4)
साधो, देखा जग बोराना d 5
सांची कहो तौ मारन धावे झूंठे जग पतियाना ।
हिन्दु कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना । न
आपस में दोउ लडे मरतु हैं मरम कोइ नहि जाना ।
बहुत मिले मोहि नेमी धर्मी प्रात करे असनाना ।
आतम-छोड़ि पषाने पुजे तिनका थोथा ज्ञाना ।
आसन मारि few धरि बैठे मन में बहुत गुमाना ।
पीपर-पाथर पुजन लागे तीरथ-बने भुलाना ।
माला पहिरे टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।
साखी शब्दे गावत भूले आतम खबर न जाना ।
घर घर मंत्र जो देन फिरत हैं माया के अभिमाना |
गुरुवा सहित सिष्य सब बुड़े अन्तकाल पछिताना ।
बहुतक देखे पीर-औलिया पढ़े किताव-कुराना ।
करे मुरीद कबर बतलाबें उनहें खुदा न जाता ।
हिन्दुकी दया मेहर तुरकन की दोनों घर से भागी ।
वह करै जिबह वाँ झटका मारे आग दोऊ घर लागी ।
या विधि gua चलत हैं हमको आप कहाबै स्याना |
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ॥
(5)
तोको पीव मिलै गे घूंघट के पट खोल रे ।
घट घट में वही साईं रमता, कटुक बचन मत बोल रे।
धन जोबन को गरब न कीजे, झूठा पेचरंग चोल रे।
3/1. वि—महेँ 12. वि.-घर | 3. वि.--ब्रह्मा के ब्रह्मानी । 4. वि.-कहे हि
कबीर सुनहु ही सन्तो, ई सभ अकथ कहानी :
कबीर | 53
-सुन्त महलमें दियना बार ले, आसासों मत डोल रे।
जोग जुगत सो रंग महलमें, पिय पाई? अनमोल रे ।
mpg कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहुद ढोल रे।
(6)
मन ger ger फिरै जगत में कैसा नाता रे!
माता कहै यह पुत्र हमारा बहिन कहै विर मेरा d
भाई कहै यह भुजा हमारी नारि कहै नर सेरा ॥
पेट पक्ररि के माता रोव बाह पकरि के भाई ।
लपटि झपटि के तिरिया रोवं हँस अकेला जाई ॥
जब लगि माता जीव रोवै बहिन रोवे दस मासा ।
तेरह दिन तक तिरिया रोव फेर करे घर वासा ॥
चार गजी चरगजी मेंगाया चढ़ा काठ की घोड़ी ।
चारों कौने आग लगाया फूंक दियो जस होरी ॥
हाड जरे जस लाह कड़ी को केस जर जस घासा ।
सोना ऐसी काया जरि गई कोई न आया पासा ॥
घर की तिरिया. ढूंढत लागी dfe fed चहुँ देसा ।
कहै कबीर सुनो भई साधो छोड़ो जग को आसा OU
(29)
मुखडा क्या देखे दरपन में, तेरे दया धरम नहिं मन में ।
आम की डार कोइलिया बोले सुवना बोले बन में ॥
चरबारी तो घर में राजी फक्कड़ राजी बन में।
ऐंठी धोती पाग लपेटी तेल चुआ जुलफन में ॥
गली गली की सखी रिझाई दाग लगाया तन में ।
पाथर की इक नाव बनाई उतरा चाहे छन सैं ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो वे क्या चढिहैँ रन में ॥
lS
5/1; पायौ ।
54 | हिंदी काव्य संग्रह
(8)
पंडित बाद बदं! सो झूठा ।
राम कहें? दुनिया गति पावे खांड कहें मुख मीठा ॥'
पावक कहें* पांव जे दाझै जल कहें“ तिखा बुझाई ।
भोजन कहें भूख जे भाजे तो सब" कोई तिरि जाई ॥
नर कै संगि? सुवा हरि बोले हरि परताप न जांनै ।
जौ कबहु उडि जाइ जंगल मैं बहुरि सुरति नहि आने ॥
बिनु? देखें बिनु अरस परस बिनु नाम लिए का होई ।
धन के कहें धनिक जो होई तौ निरधन रहै न कोई ॥
साँची प्रीति बिखे माया सों हरि भगतन सों हाँसी!० |
कहै कबीर प्रेम". नहि उपजे तो बाँधे जमपुर जासी ।+
(साखी)
ईश्वर का अस्तित्व
ज्योंतिल माँही तेल है, ज्यों चकमक में आगि।
तेरा साईं gem में, जागि सके तो जागि॥1।#
कस्तूरी कुंडलि बसँ, मृग dé बन माहि ।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि ॥ 21:
जाके मुह माथा नहीं, नाहीं रूप-कुरूप ।
पुहुप बास तें पातरा, ऐसा तत्व अनुप ॥3॥
साधु स्वभाव
बृच्छ कबहुँ नहि फल भखेँ, नदी न संच नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ॥4॥
8/1. ना. प्र.--बदंते । 2. ना. प्र.--कहू यां | 3. वि.--जो जगत । 4. ना. S. —
कह याँ । 5. ना. प्र--कहि। 6. वि.-<ढुनिया । 7. ना. प्र.--साथि । 8.
वि.--तो हरि 19. ना. प्र--की प्रति में ये दो पंक्तियां नहीं हैं। 10. वि.-
की फाँसी । 11. वि.--एक राम भजे बिनु ।
कबीर | 55
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सुप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय॥5॥।
सोना सज्जन साधु जन, दूटि जुर सौ बार।
gia कुंभ- कुम्हार के, एकै धका दरार 1161
जीवनोपदेश
war सूखा खाइ कै, ठण्डा पानी पीव।
देख पराई चूपडी, मत ललचावं जीव u7u
जो du काँटा वु, ताहि बोइ तू फूल ।
तोहि फूल के फूल हैं, वाको है तिरसूल ul
करता था सो क्या किया, अब करि क्यों पछताय ।
did पेड़ बबूल को, आम कहाँ ते खाय॥9॥।
पाखण्ड विखण्डन
ds geni हरि मिलें, सब कोई लेय मु ड़ाय ।
बार-बार के मूँड़ते, भेड़ न बैकुठ जाय ॥10॥
पाहून पूजे हरि मिलें, तो मैं qd पहार ।
qui यह चाकी भली, पीस खाय संसार ullu
काँकर पाथर जोरि कै, मसजिद लई WA!
ता चढ़ि मुल्ला बाँगदे, क्या बहिरा हुआ खुदाय ul2n
माला फेरत जुग गया, गया न मनका फेर ।
कर का मतका डारि दे, मन का मनका फेर ॥13॥
सुक्तिर्या र
दुख में सुमिरन सब करें, सुखे-सें करे न कोय ।
जो gs में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय ॥14॥।
जहाँ दया तहे धर्म है, जहाँ लोभ qd पाप ।
जहाँ क्रोध dé काल है, जहाँ छिमा ad आप ul5u
गोधन, गजधन, बाजि धन, और रतन धन खानि ।
जब आवै संतोष धन सब धन gf समान् ॥161॥॥
56 | हिदी काव्य संग्रह m Co अ
> बोलत ही पहिचानिये, साहु /चोर को घाट ।
अन्तर की करनी (सर्ब, निकस मुख की बाट ॥17॥
कथनी मीठी खाँड सी, करनी विष की लोय।
कथनी तजि, करनी करे, तौ विष से अमृत होय 1118॥
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मेल करं qun 11191
दोष पराये देख करि, चले हसंत हसंत।
अपने याद*न आवई, जिनका आदि न अन्त 1201
*माखी गुड़ में गडि रही, पंख रहयो लिपटाय।
हाथ मलै और सिर धुने, लालच बुरी बलाय ॥21॥
['कबीर ग्रन्थावली से']
सलिक मुहम्मद जायसी
नागमती वियोग-वर्णन
नागमती चितउर du हेरा । पिड जो गए फिरि कीन्ह न फेरा ।
नागरि नारि काहु बस परा । तेई बिमोहि मो सौं fug हरा।
सुवा काल होइ लै गा पीऊ। पिउ नहि लेत लेत बरु जीऊ।
भएउ नरायन बादन करा । राज करत वलि राजा छरा।
करन बान लोन्हेउ के छंदू । भारय भएउ झिलमिल आनंदू।
मानत भोग गोपीचंद भोगी । लै उपसवा जलंधर जोगी।
'लेइ :1न्हहि भा अकरुर अलोपी । कठिन बिछोउ जिर्आहि किमि गोपी।
सारस जोरी किमि हरी मारि गएउ किन खरि ।
झुरि झुरि पाँजरि घनि भई विरह के लागी अग्गि ॥111
'पिउ वियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोले पिउ पीऊ।
अधिक काम दगध सो रामा । हरि जिउ लैसो गएउ पिय नामा ।
बिरह बान तस लाग न डोली । रकत पसीजि भीजि तन चोली ।
सखि हिय हेरि हार मंन मारी । हहारि परान तज॑ अब नारी।
“खिन एक आव पेट महे स्वासा faafg जाइ सब होइ निरासा।
पौनु डोलावहि सींचहि चोला | पहरक समुझि नारि मुख बोला।
प्रान पयान होत SE राखा। को fera चांत्रिक के भाबा।
आह जो मारी बिरह की आगि उठी तेहि हाँक ।
हंस जो रहा सरीर wd पाँख जरे तन थाक ॥2॥
चढ़ा असाढ़ गंगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा!
घुम श्याम धौरे घन घाए। सेत धुजा वगु पाति देखाए।
खरग बीच चमक चहुँ ओरा । बुँद बान बरिसँ घन घोरा।
अद्रा लाग बीज भुइँ लेई। मोहि पिय बिनु को आदेर देई।
ओने घटा आई चहुँ फेरी।कंत उबारु मदन हौं घेरी।
दादुर मोर कोकिला पीऊ। करहि am घट रहै न जीऊ।
qq नत्र सिर ऊपर आवा। हौं बिनु afz मंदिर को छावा।
58 | हिंदी काब्य संग्रह
जिन्ह घर कंता ते सुखी तिन्ह गारो feed
कंत पियारा बाहिरें हम सुख भूला सर्ब ॥3॥
सावन बरिस मेह अतिवानी । भरनि भरइ हौं विरह झु रानी |
लागु पुनर्वसु dis न देखा | भै बाउरि कहं कंत सरेखा।
रकत क आँसु परे भुइँ टूटी । रंगि चली जनु बीर बहुटी ।
सखिन्ह रचा fug सँग हिंडोला । हरियर भुइँ कुसूंभि तन चोला ।
हिय हिंडोल जस डोले मोरा । ब्रिरह झुलाव देइ झँकोरा ।
बाट असूझ अथाह गभीरा । जिउ बाउर भा भवे भँभीरा ।
जग जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव खेत्रक बिनु थाकी ।
परबत समुंद अगम बिच बन बेहड़ घन ढंख।
किमि करि भेटो कंत तोहि ना मोहि पाँव न पंख il
भर भादौं दूभर अति भारी। कंसे भरो रैनि अँधियारी or
मंदिल सून पिय अनत बसा। सेज नाग भै घै घे डसा।
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ।
चमकि बीच घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा।
बरिसै मघा झेकोरि झेंकोरी । मोर दुइ नन चुवहि जसि ओरी ।
पुरबा लाग पुहुमि जल पूरी । आक जवास भई हों झूरी ।
घनि सूखी भर भादों माहाँ। ag आइन सींचति नाहाँ।
जल थल भरे अपूरि सब गगन धरति मिलि एक ।
घनि जोबन आगाह महं दे बुडत पिय टेक ॥5॥
लाग कुआर नीर जग घटा qoem आउ fas परभूमि लटा ।
तोहि देखे पिउ पलुहै काया । उतरा चित्त फेरि करु माया ।
su अगस्ति हस्ति घन गाजा। qi पलानि चढ़े रन राजा ।
चित्रा मित मीन घर आया | कोकिल पीउ पुकारत पावा d
स्वाति बुंद चातिक मुख परे।सीप समुद्र मोति लै झरे।
सरवर सवरि हंस चलि आए। सान्त कुरूरहि खँजन देखाए ।
गए अवगास कास बन फूले | अंत न फिरे विदेसहि भूलें ।
बिरह हस्ति तन सालै खाइ करे तन पूर।
बेगि आह पिय बाजहु गाजहु होइ सदृर ॥6॥
मलिक मुहम्मद जायसी | 59
कातिक सरद चंद उजियारी । जग सीतल हौं बिरहैं जारी।
चौदह करा कीन्ह परगासू। जानहुँ GE सब धरति अकासू ।
तन मन सेज करं अगिडाहू । सब कहें चाँद मोहि होइ राहू ।
"B खंड लाग अंधियारा | जीं घर नाहित कंत पियारा।
ea निदुर आव ऐहि बारा। परब देवारी होइ संसारा।
सखि झूमक गावहि अंग मोरी । हौं झूरों बिछुरी जेहि जोरी।
जेहि घर fag सो मुनिवरा पुजा । मो कहँ बिरह सवति दुख दूजा ।
सखि मानहि तेवहार सब गाइ देवारी खेलि।
हौं का खेलों कंत बिनु तेहि रही छार सिर मेलि ॥7॥
अगहन देवस घटा निसि बाढी । दूभर दुख सो जाइ किमि काढी ।
अब धनि देवस विरह भा राती se बिरह ज्यों दीपक वाती ।
काँपा हिया जनावा सीऊ।तोपे जाइ होइ सँग पीऊ।
घर घर चीर रचा सब काहूं। मोर रूप रंगल गा नाहूँ।
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई। sag फिरै फिर रंग सोई।
सियरि अगिनि बिरहिनि हिय जारा । सुलगि सुलगि दग्ध भै छारा ।
यह दुख दगध न जाने कंतु । जोबन जरम कर भसमंतू।
पिय सौं sgg संदेसरा ऐ भोवरा ऐ काग ।
सो धनि बिरहेँ जरि गई तेहिक gat हम लाग 11811
पुस जाइ थरथर तन काँपा। सुरुज जड़ाइ लंक दिसि तापा।
बिरह बाढि भा «red सीऊ। कंपि कंपि मरों लेहि हरि जीऊ।
कंत कहाँ हौं लागौं हियरें। पंथ अपार qur नहि नियरें ।
सौर सुपेती आवै जूड़ी।जानहुँ सेज हिवंचल qui
चकई निमि fagi दिन मिला हों निसि बासर faxg कोकिला ।
दैन अकेलि साथ नहि सखी । कैसे जिओं विछोही पंखी।
बिरह सँचान wd तन चौड़ा | जीयत खाइ मुएं नहि छाँडा +
रकत ढरा माँसू गरा हाइ भए सब पंख
धनि सारस होइ ररि मुई आइ समेटहु पंख ॥9॥
लागेउ माँह परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड्काला ।
पहल पहल तन रुई जो झाँपै । हहलि हहलि अविको हिय काप |
आइ सूर होइ तपु रे नाहाँ । तेहि बिनु जाइन न छूट माहा ।
एहि मास उपजे रस मूलु। तूं सो भंवर मोर जोबन फूलू ।
0 | हिदी काव्य dug
नैन चुर्वाह जस मांहुट die | तेहि.जल अंग लाग सर चीरू।
टूर्टह बुंद परहि जस ओला । बिरह पवन होइ मार झोला ।
केहिक सिंगार को पहिर पटोरा । गिये नहि हार रही होइ डोरा।
तुम्ह बिनु «ar धनि हरुई तन तिनुवर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उड़ावा झोल ॥10॥
फागुन पवन झेंकोरे वहा । चौगुन सीउ जाइ किमि सहा।
तन जस पियर पात भा मोरा । बिरह न रहै पवन होइ झोरा।
तरिवर झरे झर बन ढाँखा । भइ अनपत्त फूल फर साखा।
करिन्ह बनाफति कीन्ह हुलासु । मो कहें भा जग दून उदासू |
फाग करहि सब चांचरि जोरी । मोहि जिय लाइ दीन्हि जसि होरी ।
जीं पै पिथहि जरत अस भावा । जरत मरत मोहि रोस न मावा |
रातिहु देवस इहै मन मोरें। लागौं कंत थार Gi तोरे ।
यह तन जारौं छार m कहौं कि पवन उड़ाउ।
मकु तेहि मारग होइ परो कंत धरे जहे पाउ ॥11॥
चैत बसंता होइ घमारी। मोहि लेखें संसार उजारी।
पंचम बिरह पंच सर मारे | रकत रोइ सगरी बन ढारे।
बुडि उठे सब तरिवर पाता | भीज मंजीठ टेसु बन राता।
मोरे आंब फर अब लागे । अबहुँ संवरि घर आउ सभागे।
सहस भाव फूली बनफती । मधुकर फिरे सवरि मालती ।
मो कहें फूल भए जस काँटे । दिस्टि परत तन लागहि चाँटे।
भर जोबन एहु नारंग साखा | सोवा ब्रिरह अब जाइन राखा।
घिरिनि परेवा भाव जस आइ परहु पिय टूटि ।
नारि पराएँ हाथ है तुम्ह बिनु पाव न छूटि॥12॥
भा बैसाख तपनि अति लागी । चोला चीर चंदन भौ आगी।
-सूषज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सोहं रथ हाँका।
जरत वजागिनी होउ पिय छाँहाँ। आइ बुझाउ अंगारन्ह माहाँ।
तोहि दरसन होइ सीतल नारी p आइ आगि सों करू फुलवारी ।
लागिउं जरे जरे जस भारू। बहुरि जो भूँजसि तर्जो न बारू।
“सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइ होइ बिहराई।
'बिहरत हिया करहु पिय टेका । दिस्टि दवंगरा मेरवहु एका ।
कंवल जो fur मानसर छारहि मिल॑ सुखाइ।
अबहुँ बेलि fefe पलुहै जॉ. पिथ सींचहु आइ ॥।13।।
i-
o>
मलिक मुहम्मद जायसी | 61
जेठ जरै जग oat लुवारा | उठा बवंडर धिके पहारा।
बिरह गाजि हनिवंत होइ जागा। लंका डाह करै तन लागा ।
चारिहुँ पवन झंकोरे आगी । लंका डाहि पलंका लागी |
दहि भइ स्याम नदी कालिदी । विरह की आगि कठिन आसे मंदी ।
उठ आगि औ आवै आँधी । नैन न सझ मरी दुख बाँधी ।
अधजर भई माँसु तन सूखा | लागेउ बिरह काग होइ भूखा ।
माँसु खाइ अब हाडन्ह लागा । अबहूँ आउ आवत सुनि भागा ।
परबत समु'द मेघ ससि दिनअर सहि न सकहि यह आगि i
मुहमद सती सराहिओ जरं जो अस पिय लागि ॥14॥
ad लाग अब जेठ असाढ़ी। भै मोकह यह छाजनि गाढ़ी ।
तन तिनुवर भा झूरों जरी । मैं बिरहा आगरि सिर परी ।
साँठि नाहि लगि बात को पूँछा। बिनु जिय भएउ मूँज तन छूंछा ।
बंध नाहि औ कंधन कोई। बाक न आव कहों केहि रोई।
ररि दूबरि भई टेक बिहुनी । थंभ नाहि उठि सके न थूनी।
बरसाह नन afe घर माहाँ। तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाँहाँ ।
कोरे कहाँ ठाट नव साजा । तुम्ह बिनु कंत न छाजन छाजा ।
अबहूँ दिस्टि मया करु छान्हिन तजु घर आउ ।
मंदिल उजार होत है नव कै आनि वसाउ॥15।
['पद्माबत से']
स्रदास
(क) विनय
अब के राखि लेहु भगवान् |
हौं अनाथ बेठ्यौ द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान ।
ताके डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।
दुहुँ भांति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान ?
सुमिरत ही अहि sem पारधी, कर छूट्यो संधान ।
सूरदास सर लग्यौ सचानहि, जय-जय कृपानिधान ॥11
प्रभु हौं सब पतितनि कौ टीकौ ।
और पतित सब दिवस चारि के, हौं तों जनमत ही कौं।
बधिक, अजामिल गनिका तारी और पूतना ही कां ।
मोहि छाँडि तुम भौर उधारे मिर्ट सूल क्यों जी कौं।
कोउ न समरथ अब करिबे कौं, खचि कहत हौं लीकौं ।
मरियत लाज सूर पतितनि मैं, मोहे तैं कों नीकों ॥2॥
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल ।
काम, क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल।
महामोह के नुपुर बाजत, निदा-सब्द-रसाल।
भ्रम-भौयौ मन भयौ पखावज, चलत असंगत चाल ।
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना बिधि द॑ ताल ।
माया को कटि फेटा बाध्यो, लोभ-तिलक दियौ भाल ।
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधिनहि काल ।
सूरदास की सबै अविद्या दुरि करौ नंदलाल ॥3॥
S0 मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे 1
जसे उड़ि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवं ।
कमल-नंन को छाँडि महातम, और देव कीं ध्यावं ।
^ ?
int hE
सूरदास | 63
'परम गंग कां छाँडि पियासौ दुरमति कूप खनावें।
जिहि मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, qui करील-फल भावै ।
सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन gem ॥4॥
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरी ।
समदरसीं हैं नाम तुम्हारी, सोई पार करी।
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ ।
सो दुविधा पारस नहि जानत, कंचन करत खरौ ।
इक नदिया इक नार कहावत, मलौ नीर भरो । *
जब मिलि गए तब एक बरन gd, गंगानाम परौ ।
तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सुमिलि बिगरौ।
कै इनकौ निरधार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ॥5॥
(ख) wr गीत
ऊधौ मन माने की बात ।
दाख छौहरा ifs अमृतफल विषकीरा विष खात ।
जो चकोर को दइ कपुर कोइ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत धर फोरि काठ में, dug कमल के पात ।
ज्यों पतंग हित जानि आपनो, दीपक सों लपटात।
“सूरदास! जाको मन जासों, सोई ताहि सुहात ॥6॥
wt मोहि ब्रज बिसरत नाहीं ।
हंसा सुता की सुन्दर कगरी, अरु कुंजनि की छाँही ।
वै सुरभी वै बच्छ दोहिनी, खरिक दुहावन जाहीं।
रवाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि-गहि बाहीं ।
यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं ।
जर्बाह सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ।
अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं ।
सूरदास प्रभु रहे मौन हवे, यह कहि-कहि पछिताहीं uTu
ऊधो, मन नाहीं दस त्रीस ।
एक हुतो सो गयो स्याम संग, को आराधे ईस ?
इन्ट्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस ।
64 | हिंदी काव्य संग्रह
स्वासा अटकि रही आसा लगि, जीवहि कोटि बरीस ।
तुम तो सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस ।
“सुरदास' रसिक की बतियाँ, और नहीं जगदीस ॥8॥
बिनु गोपाल बेरिन भई कुंज ।
तब वे लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल GT पुंज ।
वृथा बहति जमुना खग बोलत वृथा कमल-फूलनि अलि गुंज ।
पवन, पान, घनसार, सजीवन, दधि-सुत किरनि भानु भई भुंजे ।
यह ऊधौ कहियौ माधौ सौं, मदन मारि कीण्हीं हम लुज ।
सुरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौं, मग जोवत Gut भई छुंज ॥9॥
निर्गुन' कौन देश कौ वासी?
मधुकर हंसि समुझाय wig दे, वूझति सांच न हाँसी ।
को है जनक, जनति को कहियत कौन नारी को दासी ?
कैसौ वरन भेष है कैसौ केहि रस को“ अभिलाषी ? .
पार्वंगो पुनि कियो आपनो, जो रे कहैगो” गाँश्षी ।
सुनत मौन ह वे रहयो ठगों सो? 'सूर' सबै मति नासी ।।10॥
हमार हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम वचन नंद-तंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी ।
जगत-सोवत स्वप्न दिवस-त्तिसि कान्ह-कान्ह जकरी । `
सुनत जोग लागत है ऐसी, ज्यों करुई ककरी।
सु तौ emfa guai लै आए, देखी सूती न करी।
यह तौ सुर तिनहि ले सौंपा, जिसके मन चकरी ॥11॥
ऊधौ जोग जोग हम नाहीं।
अबला सार-ज्ञान कह जाने, कॅसे ध्यान धराहीं।
तेई मूँदन नन कहत हो, हरि मुरति जिन माहीं।
ऐसी कथा कपट की मधुकर, gud सुनी न जाहीं ।
स्रवत चीरि सिर जटा बधावहु, ये दुख कौन समाहीं ।
चंदन तजि अंग भस्म बतावत, विरह अनल अति दाहीं ।
जोगी भ्रमत जाहि लगि भूले, सो तौ है अप माहीं ।
सूर स्याम qd न्यारी न पल-छिन ज्यों घट d परछाहीं ॥12॥
10/1. निरगुन । 2. कहि । 3. कौन है जननी । 4. मैं । 5. करेगी । 6, बाबरी i
सुरदास | 65
लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि, कँसे छूटत ?
कहा कहां ब्रजनाथ चरित, अन्तरगति लुटत ॥
वह चितवनि वह चाल मनोहर, वह मुप्तकानि मंदःधुनि गावनि ।
नटवर भेष नन्द-नन्दन कौ वह विनोद, वह वन तै आवनि ॥
चरन कमल की सौंह करति हौं यह संदेश मोहि विष सम लागत ।
सूरदास पल मोहि बिसरति, मोहन सुरति सोवत जागत ॥13॥
['सुरसागर' से]
/
गोस्वामी तुलसीवास
(क) भरत-महिमा
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु ।
जात मनावन xgaxfg भरत सरित को आजु ul
wm भगति भरत आचरनु ) कहत सुनत दुख दूषन gp!
जो किछु कहब थोर सखि सोई । राम बंधु अस काहे न होई।।
हम सब सानुज भरतहि देखें । भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें ॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं । कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं ॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सवु कीन्ह हमहि जो दाहिन ।।
कहे हम लोक वेद बिधि हीनी । लघु तिय कुल करतूति मलीनी ॥
बसहि कुदेस कुगांव कुवामा | कहें यह दरझु पुन्य परिनामा ॥
अस अनंद अचिरियु ऽति ग्रामा । जनु मरुभूमि कलपतरु जामा ॥
भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिघल बासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु 2
निज गुन सहित राम गुन गाथा । सुनत जाहि सुमिरत रघुनाथा |
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा । निरखि निमज्जहि करहि प्रनामा ॥
मनहीं मन मागहि बरु एटू । सीय राम पर पद पदुम सनेहू ॥
मिर्लाह किरात कोल बनवासी । बैखानस बटु जती उदासी॥
करि प्रनामु पूर्छाह जेहि तेही केहि वन लखनु रामु बैदेही ॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहु देखि जनम फलु लहहीं di
जे जन कहहि कुसल हम देखे।ते प्रिय राम लन सम लेखे ॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी | सुनत राम बनबास कहानी ।
तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि , रघुनाथ ।
राम दरस को लालसा भरत सरिस सब साथ ॥3॥
मंगल सगुन होहि सब काहू । फरकाह सुखद ब्रिलोचन बाहू ॥
भरतहि सहित समाज उछाहू । मिलिहहि रामु मिटिहि दुख दाइ ॥
गोस्त्रामी तुलसीदास | 61
करत मनोरथ जस जिये जाके | जाहि सनेह uif सब छाके॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहि | बहबल बचन प्रेम बस बोलहि ॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा । संल सिरोमनि सहज सुहावा ॥
जांसु समीप सरित पय तीरा । सीय समेत बर्साह दोउ बीरा॥
देखि करहि सब दंड प्रनामा । कहि जय जानकि जीवन रामा ॥
प्रेम मगन अस राजसमाजू । जनु फिरि अवध चले रघुराजू ॥
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न, सेषु ।
wfafg अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेपु udi
w*dlg होई न राजमदु विधि हरि हर पद पाइ ।
कबहुँ कि कांजी सीकरनि छोरसिधु व्रिनसाइ ॥5॥
'तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई । गगनु मगन मकु मेहि मिलई ॥
गोपद जल qsfg घटजोनी। सहज छमा वरु छाई छोनी॥
मसक फूंक मकु मेरु उड़ाई | होई न नृपमदु. भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना ।.सुचि सुबंधु नाह भरत समाना ॥
"सगुन खीरु अवगुन जलु ताता । मिलई रचइ परपंचु विधाता ॥
भरतु हंस रबिबंस ' तड़ागा | जनमि कीन्ह गुन दोष विभागा du
गहि गुन पय तजि अवगुन वारी । निज जस जपत कीन्हि उजियारी ॥
कहते भरत गुन: सीलु सुभाऊ पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥
सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु ।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु ॥6॥
जीं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम घुर धरनि धरत को ॥
. कबि कुल अगम भरत गुन गाथा । को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ॥
लखन राम fb सुनि सुर बानी । अति सुखं लहेउ न जाय बखानी ।।
इहां भरतु सब सहित सुहाए । मंदाकिनी पुनीत नहाए ॥
“सरित समीप - राखि सब लोगा । मागि मातु गुर सचिव नियोगा ॥
' चले भरतु जह सिय रघुराई । साथ निषादनाथू लघु भाई॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं । करत कुतरक' कोटि मन माहीं ॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊ । उठि जनि अनत जाहि तजि ठाऊ॥ .
मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहि सो थोर ।
- अघ अवगुन छमि आदर्राह समुझि आपनी ओर ॥7॥
68 | हिंदी काव्य संग्रह
जौ परिहरहि मलिन मनु जानी । जौ सनमानहि सेवकु मानी ॥'
मोरे सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही ॥
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निल faga नवीना ॥
धस मन गुतत चले मग जाता । सकुच सनेह सिथिल सब गाता ॥
केरति मनही. मातु कृत खोरी । चलत भगति बल धीरज धोरी ॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब TT परत उताइल पाऊ॥'
भरत दसा तेहि अवसर कैसी । जल प्रवाहे we भलि गति जैसी ॥
देखि भरत कर सोचु सनेहु। मा निषाद तेहि समय बिदेहू ॥`
लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि ex पुनि परिनाम बिषादु ॥8॥।
सेवक बचन सत्य सब्र जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने ॥
अरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुताजु ॥'
इति भीति जनु प्रजा दुखारी | त्रिविध ताप पीडित ग्रह मारी ॥
जाइ qua सुदेस सुखारी। होहि भरत गहि तेहि अनुहारी ॥
राम बास वन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाई सुराजा ॥
सचिव विरागु विवेक नरेसू | बिपिन सुहावन पावन देसू ॥:
अट जम नियम da रजधानी ! सांति सुमति सुचि सुंदर रानी ॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राच चरन आश्रित चित चाऊ ॥
जीति मोह महिपालु दल, सहित बिबेक भुआलु ।
करत अकंटक राजु पुर सुख संपदा सुकालु uu
तब केवट ऊचे चढि धाई। कहेड भरत सन भुजा उठाई॥'
नाथ देखिहि बिटप विसाला । पाकरि wg रसाल तमाला ॥
जिन्ह तरुवरन्ह मध्य बटु सोहा । मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला । अबिरल छाह सुखद सब काला !
मानह तिमिर अरुतमय रासी। बिरची बिधि संकेलि सुषमा सी ॥
ए तरु सरित समीप गोसाई । रघुबर परनकुटी जहे छाई ॥
तुलसी quic बिबिध सुहाए । कहुँ कहुँ सिय कहुँ लखन WU
बट छाया बेदिका बनाई । fud तित पानि सरोज ge
जहाँ, बेठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान ।
सुर्नाह कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान ॥10॥
गोस्वामी तुलसीदास | 69
न्सखा बचन सुनि बिशप निहारी । उमगे भरत बिलोचन बारी ॥
करत प्रनाम चले dm भाई । कहत प्रीति सारद सकुचाई।
wig निरखि राम पद अंका । मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रजसिर धरि हियें नयनन्हि लावहिं। रघुवर मिलन सरिस सुख पावहि ॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा । प्रेम मगन मुग खग जड़ जीवा ॥
-सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहि फूला ॥
“निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥
“होत न भूतल भाउ भरत को । अचर सचर चर अचर करत को ॥।
पेम अमि मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंधीर ।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपार्सिधु रघुवीर ॥11॥
-सखा समेत मनोहर जोटा। TN न लखन सघन बन ओटा ॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन । सकल सुमंगल सदनु सुहावन ॥
करत प्रवेश मिटे दुख दावा । जनु जोगी परमारथु पावा :।
देखें भरत लखन, प्रभु आगे । dep बचन कहत अनुरागे॥
सीस जटा कटि मुनि पट alf । तुन कसे कर सरु धनु काँघे d
बेदी पर मुनि साधु समाजु।सीय सहित राजत रघुराजु ॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा । जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा ॥
-कर कमलनि धनु सायकु फेरत । जिय की जरनि हरत हसि हेरत ॥
लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु ।
ग्यान सभा जनु तनु घरे भगति सच्चिदानंदु ॥121
-सानुज सखा समेत मगन मन ॥ बिसरे हरष सोक सुख दुख गन ॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाइं.। भूतल परे लकुट की नाईं ॥
बचन सप्रेम लखन पहचाने । करत प्रनामु भरत जियें जाने ॥
zu सनेह सरस एहि. ओरा । उत साहिब सेवा बस जोरा ॥
मिलि न जाइ नहि गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति wa
रहे राखि सेत्रा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खच खेलारू।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा ॥
उठे राम सुति पेम अधीरा। कहुँ पट 'कहुँ निषंग धन तीरा ॥
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपा निधान।
भरत राम की मिलनि;/लखि बिसरे सर्बाह अपान ॥13॥
70 | हिंदी काव्य संग्रह
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी । कविकुल अगम करम मन बाती ar
परम पेम पूरन दोउ भाई । मन बुधि चित अहमिति बिसराई ar
कहहु सुपेम प्रगट “को करई। केहि छाया कवि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु सांचा । अनुहरि ताल गतिहि we नाचा ॥
अगम सनेहु भरत रघुवर को । जहे न जाइ मनु विधि हरिहर को ॥
सो मैं कुमति कहां केहि भांती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती ॥
मिलेनि ब्रिलोकि भरत रधुवर की सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुष जड़ जागे। बरषि प्रेसून प्रसंसन लागे॥
मिलि सपेम रिपुसूदर्नाह केवटु भेटेउ राम।
भूरि भाय भेटे भरत लछिमन करत cum ॥14॥
('रामचरितमानस' से),
(ख) कवितावली
(बालकाण्ड) :
(rl)
अवधेस के द्वारे सकारे गई, सुत गोद के भूपति ले निकसे ।
अवलोकिहौं सोच बिमोचन को ठगि सी रही, जे न ठगे धिक्र से ॥
तुलसी, मनरंजन रंजित अंजन नैन सुखंजन-जातक से ।
सजनी ससि में समसील उभ नवनील सरोरुह से विकसे ॥
(2)
पग नूपुर औ पहुँची कर कंजनि, मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
नवनील कलेवर पीत sur झलक, qe नुप मोद fedi
afag सो आननु, ख्पमरंदु अनन्दित लोचन-भुंग füd d
मन मो न बस्यौ अस बालक जौं तुलसी जग में फलु कौन जिएँ ॥
(p
mag ससि-माँगत आरि कर, कबहु प्रतिबिब निहारि डरै ॥
'कबहूं करताल बजाइ क॑ नाचत, मातु wd मन मोद wig
गोस्वामी तुलसीदास | 71
कबहुँ रिसिआइ कहे हृठि कै, पुनि लेत सोई जेहि लागि atu
अवधेस के वालक चारि सदा तुलसी-मन-मन्दिर में बिहर ॥
(अयोध्या काण्ड)
RE) -
एहि घाट तें थोक दूरि अहै कटि रू जल शाह देखाइहौं जू ॥
qub पगधूरि हरै तरनी, घरमी घर क्यों Wut Aqu
तुलसी अवलंब न और कछु लरिका केहि भाँति जियाइह
T
$ Y
बरु भारिए मोहि बिना पग धोएं हौँ नाथ न नाव चहाइहौं जू ॥
(क)
रावरे दोष न पायन को, पगधूरि को भूरि प्रभाउ महा है।
पाहन तें बह-बाहन काठ को कोमल है, जल खाइ रहा है ॥
पावन पाये पखारि के नाव चढ़ाइहौं आयस होत कहा है?
तुलसी सुनि केवट के बर बैन हॅसे प्रभु जानकी ओर हहा है ॥
(ग) विनय-पत्रिका
Gre)
अब लौं नसाती अब न नसैहौं ।
राम कृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न झडसेहों॥
qui नाम चारु चिन्तामनि, उरकर तें न खपेहों।
स्याम-छप सुचि रुचिर कसौटी, चित-कंचनहि कसँहौं ॥
परबस जानि हस्यो इन इन्द्रि], निज बस हू.बै न ddl
मन-मधुकर पनकै तुलसी, रघुपति पद-कमल बसँहौं ॥
(2)
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ?
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे॥
कौन देव «ug बिरद हित, हढि-हठि अधम उधारे।
खग मृग व्याध पषान fazq, जड़ जवन कवन सुर तारे ॥
देव दनुज मुनि नाग मनुज सब, माया-बिवस विचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी, प्रभु कहा अपनपौ हारे ॥
72 | हिंदी काव्य संग्रह
(3)
ऐसी मुढ्ता या मन की ।
परिहरि रामभगति-सुरसरिता आस करत ओसकन की ॥
घूमसमुह निरखि चातक ज्यों तृषित जानि मति घनकी।
नहि dd सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचन की ॥
ज्यों गज कच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस छति बिसारि झानन की ॥
कहे लों कहौं कुचाल कृपा निधि ! जानत हौ गति जन की ।
तुलसीदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाखनिज पन की ॥
गोतावली .
m9
जब जब भवन बिलोकति सुनो ।
तब तब विकल होति कोसल्या दिन-दिन प्रति दुख दूनो ।
सुमिरत बाल-तिनोंद राम के सुन्दर मुनि-मन-हारि,
होत हृदय अति सुल suf पद-पंकज अजिर बिहारि।
को अब प्रात कलेऊ मागत wfs चलंगो भाई ।
स्याम-तामरस-नैन स्रवत जल काहि लेउे उर लाई।
जीवों तो विपति सहों निसि-वासर मरौ तौ मन पछितायो,
चलत विपिन भरि नयन राम को बदन न देखन पायो ।
“तुलसीदास: यह दुसह दसा अति दारुन बिरह घेरो,
दुरि करे को भूरि कृपा बिनु सोक जनित रुज मेरो]
(पद सं० 235)
00
XS
हर
—— ——
सीरा
पद
-बसो मेरे नेनन में नंदलाल ।
-मोहनी सुरति साँवरी सुरति नैना बने विसाल।
अधर सुधारस मुरली राजति उर o dedi माल।
"gx घंटिका कटि तट सोभित नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदायी भगत बछल गोपाल ॥1॥
आली म्हाँने लागे वृन्दावन नीको ।
“घर घर तुलसी ठाकुर पूजा दरसण गोविद जी को।
-निरमल नीर agg जमना में भोजन दुध दही को।
रतन सिंघासण आप बिराजे मुगट धरयो तुलसी को ।
-कुंजन कुंजन फिरत राधिका सबद सुणत मुरली को d
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर भजन बिना नर फीको 2!
-माई री मैं तो लीयो गोविन्दो मोल ।
कोई कहैं छाने, कोई कहँ चौडे, लियो री बजंता ढोल ।
कोई कहै मु हघों, कोई कहै सुहँघो, लियो री तराजू तोल ।
“कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो लियोरी अमोलिक मोल ।
“या ही कूं सत्र लोग जाणत है लियो री आँखी खोल।
-मीराँ क॑ प्रभु दरसण दीज्यौ पूरब जनम को कोल ॥3॥
CS
-मैं गिरधर रंगराती, dat do ।
.पचरंग चोला पहर सखी मैं झिरमिट खेलन जाती ।
ओहि झिरमिट माँ मिल्यो साँवरो खोल मिली तन गाती ।
जिनका पिया परदेस बसत है लिखलिख भेजें पाती।
-मेरा पिया मेरे हीय बसत है न कहुँ आती जाती ।
“चंदा जायगा सूरिज जायगा जायगी धरणि अकासी ।
यवन पाणी दोनु ही जायेंगे अटल रहै अबिनासी ।
74 | हिंदी काव्य संग्रह
सुरत निरत का दिवला सँजोले मनसा की करले बाती ।
प्रेम हटी का तेल मँगाले जग रहया दिन ते राती ।
सतगुर मिलिया साँसा भाग्या सैन बताई सांची ।
ना घर तेरा ना घर मेरा गावे मीराँ दासी ॥418
पपड्या रे पिव की वाणि न बोल d 2
सुण पावेली बिरहणी रे थारी रालैली -पाँख मरोड़।
चाँच कटाऊं पपड्या रे ऊपर कालर लूण।
पिव मेरा मैं पीव की रे तू पिब कहै स कूण!
थारा सबद सुहावणा रे जो पिव मेला आज ।
चाँच wee थारी सोवनी रे तू मेरे सिरताज।
प्रीतम कूं पतिया लिखूं कउवा तु ले जाइ।
जाइ प्रीतमजी सूँ यूं कहै रे थांरी faxgfer धान न खाइ।
मीराँ दासी व्याकुली रे पिव करत बिहाइ।
बेगि मिलो प्रभु अंतरजामी तुम बिन रह यौहि न जाइ SU
दरस बिन दूखण लागे नैण ।
जब के तुम fagi sw मोरे कबहु न पायो चैन।
सवद सुणत मेरी छतिया काँचै मीठे-मीठे बैन ।
विरह कथा कासू कहूँ सजनी वह गई करवत S ।
कल न परत पल हरि मग जोवत भई छमासी ug
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे दुख eg सुख देण ॥61/
हेरी मैं तो दरद दिवाणी, मेरा दरद न जाणे कोइ।
घायल की गति घायल जाणे क्रि जिण लाई होइ।
जौहरि की गति जौहर जाणं के जिन जौहर होइ।
सूली ऊपरि सेज हमारी किस विधि सोणा होइ।
गगन मंडप d सेज पिया की किस विधि मिलणा होइ ।
दरद को मारी बन-वन डोलू da मिलया नहि कोइ।
मीराँ की प्रभु पीर मिटेगी जब्र बैद साँवलिया होइ :17॥
कोई कहियौरे प्रभु आवन की ।
आवन की मन भावन की, कोई० |
आप न आवै लिख नहि भेज बांग पड़ी ललचावन की ।
ए दोइ नैणा कह यो नहि माने नदियाँ बहै जैसे सावन की ।
rT
मीरा | 75
कहा करूँ कछु नहि बस मेरो पाँख नहीं उड़ जावन की ।
मीरा कहै प्रभु कबर मिलोगे चेरी भइ हूँ तेरे दांवन की 1181
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
छाँडि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई
सन्तत ढिंग dífs बैठि लोक लाज खोई।
अँसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई ।
अब तो बेलि फैल गई आणंद फल होई।
भगति देखि राजी हुई जगति देख रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अव मोही ॥9॥
मैं तो साँवरे के रंग राची ।
साजि सिंगार. affa पग घुघरू लोक-लाज तजि नाची ।
गई कुमति लई साधु की संगति भगत रूप भई साँची ।
गाय गाय हरि के गुन तिसदिन काल व्याल सूँ बाँची ।
उण बिनि सब जग खारो लागत और बात सब काँची ।
मीराँ श्री गिरधरन लाजस भगति रसीली जाँची ॥10॥
मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी ।
जब जव सुरत लगे वा घर को, पल पल daa पानी । |
ज्यों हिये पीर पीर सम सालत, कसक कसक कसकानी ।
रात दिवस मोहि नींद न आवत, भावै न अन्त न पानी ।
एंसी-पीर विरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी ।
dur बैद मिले कोई भेदी, देस विदेस पिछानी ।
तासों पीर कहुँ तन केरी, फिर नहि भरमो खानी ।
खोजत फिरों मदवा घर को, कोई न करत बखानी i
रदास संत मिले मोहि सतुगुरू, दीन्हा सुरत सहदानी ।
मैं मिली जाय पाय पिय अपना, तब मोरी पीर बुझानी ।
मीराँ खाक खलक सिरडारी, मैं अपना घर जानी ॥11॥
['मौराँ मन्दाकिनी' से
रसखात
प्रान वही जु रहें रिझि वा पर, रूप वही जिहि वाहि रिझायो d
सीस वही जिनि वे परसे पद, अंग वही जिन वा परसायो।
दुध वही जु दुहायो री वाही, दही सु वही सु वही ढरकायो।
और कहाँ लौं कहौं “रसखानि', री भाव वही जु वही मन भायो uli
द्रौपदी औ गनिका गज गीध, अजामिलि जो कियो सो न निहारो ।
गौतम-गेहनी कैसे तरी, प्रहलाद को कंसे हरयो दुख भारो ।
काहे को सोच करे 'रसखानि', कहा करिहैँ रविनंद बिघारो ।
कौन को संक परी है, जु माखन-चाखनहार, सो राखनहारो ॥2॥
मानुष हौं तो वही “रसखानि', बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वांरन ।
जो पशु हौं तो कहा बस मेरो, चरं नित नंद की धेनु मंझारन ।
पाहन हौं तौ वही गिरि को, जो धरयो कर wg पुरंदर धारन ।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, नित कालिदी कूल कदंब की डारन ॥3॥
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज füg पुर को तजि डारौं।
sag सिद्ध नवो निधि को सुख, नंद की गाय चराय बिसारौं ।
'रसखानि' कौं इन आँखिन तै, ब्रज के बन बाग तड़ाग निह्ारौं ।
. कोटिनहुँ कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥4॥
धूर भरे अति सोभित स्याम णू ती बनी सिर सुंदर चोटी ।
खेलत खात फिरे अंगना, पग पँजनियाँ कटि पीरी कछोटी ।
वा छवि को 'रसखानि', विलोकत, बारत काम कलानिज कोटी ।'
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सौं लै गयो माद रोटी ॥5॥।
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गार्व।
जाहि अनादि अनंत अखंड, अछेद अभेद सुबेद बतावै।
नारद लै सुक व्यास रटे, पचि हारे तऊ पर पार न पार्व।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचार्व ॥6॥
| ४७ jh (12910 202४8
1७8४४ 1211022९0७ “३112 101221 ४२०७३४)
12010 >1७॥७>] 018 >>> (क) 2121129
"2७७18 ‘ple Ini Pes "३९० hiis)
ती
४10]01/ '£120)2 1011221242
१०08 2४]७॥ ४४४७] 0512 0812 |
(9४ 002४ — —
NS क्क
1bbjh 4p» R »Iblink] |
311 न्यात का
DUE
——— — uf 1121019] ys
‘pp 19120] 219४ Y -
yn (०४४४४ 9 mu
[७५ MER
४0२४०) 0 16 19९४] Ble aug fonde —
1४%] 8, ४119102 291177310212 ४]
[j RS
e — —— yb 222215] bl 1021
क |
181 B Pek “यण
S 122811 BS
018४] 2]क४७ - ७28110 whys Illi bri b — —
2५1४ ४४ |
2121319
d Bieb
४1912] ४
BP
४121५ x: psy PERILS
याळ 2]५ [फी 18118 Jiu Bids
| De] ik] |
bible 18118 11111412112
BIbbsb ‘bleh :bhlkbj-pie D3hB ५९1020) 11118 >] ५1098 1215122) ७
21211112 “2121290 [12211 18118 Bbjshlr | 1220 1059
[७1122] ०२३19 2201
Bible
shh “21७12 ४» ४५ a [2२1९ ‘Ryn IBD]
$IBibboh ‘hhk] DJhj3—— — 1228119 1011212
q
HhX-BI*b) 1५० p33]1B. 152]
m
(1%1201:110 "Ibl pyie) १०२३12 ub
12b ९२४७ 19 201122) Eh) 121 DRI bh
| | |
|
Jh hle
२२३४४९२
eB] 192४9 1५ 152]
७७७ 1:12) 1५६
122] ५ ७४]
,
Noa
viene sk
ne 1831 Yrs ingen
रसखान | 77
वह नंद को साँवरों छैल अली, अब तो अति ही इतरावन लग्यो ।
नित घाटन वाटन wise में, मोहि देखत ही नियरान लग्यो ।
रसखानि, बखान, कहा करियै, तकि सैननि सों, मुसकान लग्यो ।
तिरछी बरछी सम मारत है, दृग बान कमान सु कान लग्यो ॥7॥।
काहू सो माई कहा कहिये, सहिये सु जोई “रसखानि' सहावै ।
नेम कहा जब प्रेम कियो, अब नाचिये सोई जो नाच नचात्रे ।
चाहति हैं, हम और कहा सखि, क्यों हूँ कहूँ पिय देखन qmd ।
चेरिय सों जु गुपाल रच्यो तौ, चलौ री सबै मिलि चेरी कहावें ।।8॥
दानी नये भये माँगत दान, सुने जु पै कंस तौ वाधें कै जहो ।
रोकत हौ बन में 'रसखानि', पक्षारत हाथ, कहा इब dgt ।
टूटे छरा वछरादिक गोधन, जो धन है सु सबै पुति रेही ।
जंहै भूषन काहू तिया को तो, मोल छला के लला न ब्रिकेहौ 1191
मोरपखा परि ऊपर राखि हौं, गुज की माल गरे पहिरौंगी |
ओढ़ पितंबर लै लकूटी, बन गावत गोधन संग फिरौंगी ।
भावतो वोहि मेरो “रसख्वानि' सौं, तेरे कहे तब स्वाँग करोंगी ।
पै मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरोंगी 11018
बंसी बजावत आनि कढ्यो री, गली में अलो कछु टोना सो डार ।
नेक चितै तिरछी करि दीठि, चलो गयो मोहन मूठि सी मार ।
ताही धरी सों परी वह सेज पँ, प्यारी न बोलति प्रानहुँ वारे ।
राधिका जीहैं तो जीहैं सबै, न तो पीहँ हलाहल नंद के द्वार tlli
कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी हमको चहिहै।
निधि द्यौस रहै यह साथ लगी, यह सौतिन साँसत कौ सहिहै।
जिनि मोहि लियो मनमोहन को 'रसखानि' सु क्यों न हमें «fe!
मिलि आवो सबै कहुँ भाग चलै, अब तौ ब्रज में बेधुरी रहिहै ।। 1 21
सोहत है चंदवा सिर मोर को, तैसीय सुन्दर पाग कसी है ।
हैसिये गोरज भाल बिराजत तैसी fg बनमाल लसी है।
“रसखानि' बिलोकत बौरी भई qu मूंदि क॑ ग्वालि पुकार हंसी है ।
खोलि री घूंघट, खोलौं कहा, वह मूरति नैनत माँझ . बसी हैं ॥13॥
(रसखान प्रंयावली)
रहीम
वन्दना
तं 'रहीम' मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर।
निसि-बासर लागौ रहै कृष्णचन्द्र की ओर ॥1॥
'रहिमिन' कोऊ का करे, ज्वारी, चोर लबार।
जो पत-राखनहार है, माबन-चाखनहार ।।2।।
अनन्यता
अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि।
“रहिमन' ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिए काहि ॥3॥
धत्ति “रहीम' गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय |
जियत कंज तजि अनत बसि, कहाँ भौर को भाय ॥4॥
प्रीतम छबि नँनन वसी, . पर-छवि कहाँ suma
भरी सराय “रहीम” लखि, पथिक आप फिर जाय 05
प्रेम |
“रहिमन' der प्रेम को, निपट सिलसिली गँल।
बिलछत पाँव पिपीलिको, लोग लदावत बैल ॥6॥
'रहिमन' धागा प्रेम को, मत तोड़ो-छिटकाय ।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ पड़ जाय ॥7॥
“रहिमन' प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दन । '
ज्यों जरदी हरदी तजे, तर्ज सफेदी चुन 1181)
ट्टे सुजन मनाइए, जो ट्टे सौ बार।
“रहिमन' फिरि-फिरि पो टूटे मुक्ताहार ॥9॥
राम-नाम
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव।
“रहिमन' जगत-उधार को, और न कछ उपाय ulon
रहीम | 79
राम-नाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।
कहि 'रहीम क्यों मानिहँँ, जम के किकर कानि ulli
राम-नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि!
कहि 'रहीम' तिहि आपुनों, जनम gam वाधि ॥12॥
सित्र
मथत मथत माखन रहे, दही मही गिलगाय।
“रहिमन' सोई मीत है, भीर पेरे ठहराय ॥13॥
जे गरीब सों हित करें, धनि 'रहीम' ते लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण-मिताई-जोग 11141,
चेतावनी
fena! कठिन चितान तै, चिता को चित चैत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिन्ता जीव-समेत॥15॥
लोक-नीति
“रहिमन' वहाँ न आइये, जहाँ कपट को हेते ।
हम तो ढारत ढेंकुली, सींवत अपनो खेत ॥16॥
सब कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम।
हित अनहित तब जानिये, जा दिन अटके काम ॥17॥
कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम।
केहि की प्रभुता नहि घटी, पर-घर गये 'रहीम' ॥18॥
“रहीमन' अँसुआ नैन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ॥191।
“रहिमन' fear बावरी, कहिंगी सरग पताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥20॥
धन थोरो, इज्जत बड़ी, कहि “रहीम” का बात।
जैसे कुल की कुलवधू, चिथड़न माहि समात 2l
कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन।
जैसी संगति बैंठिए, — delà फल दीन ॥22॥
जो 'रहीम' गति दीप की, कूल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगे, बढ़े .अंधेरो होय॥23॥
80 | हिंदी काव्य संग्रह
बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु “रहीम” पहिचानि u24tr
“रहीमन' आटा के लगे, बाजत है दित-राति ।
घिउ शक्कर जे खात हैं, तिनको कहा बिसाति॥25
“रहीमन' कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत «d टूक ।
चतुरन के कसकत रहै, समय चूक की हुक ॥261.
“रहीमन' तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचान ।
पर बस परे, . परोस-बस, परे मामिला जानि ॥27॥
"fea! पानी राखिये बिनु पानी सब सून ।
पानी गए न cat, सोती, मानुष, alus
“रहिमन' निज मन की बिथा, मनही राखो गोय ।
सुनि अठिलँहैँ लोग सब, बाँटि न लहैं कोय॥29॥
“रहिमन' रिस को छाँडि के, करो गरीबी भेस।
मीठो बोलो, ने चलो, सबै तुम्हारो देस ॥301॥
` समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात i
सदा रहै नहि एक सी, का “रहीम” पितात ॥31॥0
qq
संगलाचरण
पाँयनि नूपुर मंजु बजै,
कटि-किकिनि में धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग wd पट-पीत,
हिये हुलस बन-माल सुहाई ॥
माथे किरीट, बड़े दृग चंचल,
मंद हंसी मुख-चंद-जुन्हाई ।
जै जै-मंदिर-दीपक सुंदर,
श्री ब्रज-दूलह देव-सहाई 1111
श्वुँगार (राधा-कृष्ण)
माथे मनोहर मौर ud,
पहिरे हिय में गहिरे गुंज-हारनि ।
जूंडल-मडित गोल कपोल,
सुधा-सम बोल, विलोल निहारनि ॥
सोहति त्यों कटि पीत-पटी,
मन मोहति मंद महा पग-धारनि।
सुन्दर नन्द-कुमार के ऊपर,
बारिये कोटिक मार-कुमारनि ॥2॥
पूर्व-राग
बंसुरी सुनि देखन दौरि चली
जमुना-जल के मिस बेगि तबे।
कवि देव सखी के संकोचन सों
करि ऊठ सु औसर को बितवे ou
82 | हिंदी काव्य संग्रह
बुखभान-क्रुमारि मुरारि की ओर
बिलोचन-कोरन सों fug
चलिबे को घरै न करे मन नेक
wi फिरि-फेरि भरै fud 1131
राधिका कान्ह को ध्यान धरं, तब
कान्ह हव राधिका के गुन गाव ।
त्यों sqat बरसे बरसाने को
पाती लिखें लिखि राधिक घ्याव ।
राधे gd जावत है fer में, वह
प्रेम की पाती ले छाती लगाव ।
आपु में आपुन ही उरझ।
qui faut समुझे समुझाव ॥4॥
बिरह-वणन
(होरी)
को afag यहि dfc बसंत में,
आवत ui बन आग लगावत ।
बौरत ही कर डारिहै वोरी,
भरे बिख बेरी रसाल कहावत ।।
gi है करेजन की किरखें।
कवि देव जू कोकिल कूक सुनावत ।
बीर की सौं, बल-बीर बिना ।
उडि जायेंगे प्रात अबीर उड़ावत ॥5॥
स्प्रप्न
झहरि-झहरि शीनी बुँद है परति मानो,
घहरि-घइरि घटा घिरी है गगन मे!
आनि कह यो श्याम मो सों, चलो झूलिबे कों आजु,
फूली ना समानी, भयी ऐसी हाँ मगत du
खाहति उठ्यौई, उठि गयी सो निगोड़ी नींद
सोय गये भाग मेरे जानि वा जगत में।
afa खोलि देखो तौ न घन हैं न घनश्याम,
बेई di छाई मेरे आसू gd दृगन में ॥6॥
देव | 83
ऋतु-बर्णन : शरद्
डार द्रुम पालन, बिछौना नव-पहलब के,
सुमन झँगूला सोहै, तन छवि भारीदे।
पवन झुलावे केकी-कीर वतरावै दिव',
कोकिल हलावं हुलसावं कर तारी दे।
पूरित पराग सों उतारी करे राई-नोन,
कंज-कली नायिका, लतान सिरसारी दे।
मदन-महीप जु कौ बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दे ॥7॥
[34 ग्रन्यायली' से]
बिहारी
भक्ति
भेरी . भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ ।
जा तन की झाई. परै, श्याम हरित-दुति होई 1111
सीस मुकुट कट काँछनी, कर मुरली उर माल।
यहि arre मो मन बसौ, सदा बिहारी लाल ।:2॥
यां अनुरागी चित्त की, गति समुझै नाहि कोइ ।
ज्यों-ज्यों qd स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ un
चिर जीवौ जोरी gi क्यों न sug गंभौर।
को घटि, ए वृषभानुजा वे हलधर के वीर ॥4॥
ऋतु वर्णन
कहलाते एकत बसत अहि मयुर मृग Wm
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ usu
प्रलय करन बरषन लगे, जुरि जलधर इक साथ,
सुरपति गरबु हर्यौ हरषि गिरिधर गिरि धरि हाथ ॥6॥
आवत-जात न जानिए, तेजहि तजि सियरान।
घरहि जेवाई लौ घट्यो, खरो पूस दिन मान ॥7॥
छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गन्ध।
ठौर-ठौर qua झेपत भौंर-भौंर मधु-अन्ध 1181
रनित-भृ'ग-घंटावली झरत दान मधु नीर।
मंद मंद आवत चल्यो, कुंजर-कुंज-समीर 1191
नीति |
तन्त्री नाद कवित्त रस, सरस राग, रति vg
अनबुड़े qz, तिरे, जे बूड़े सब अंग॥10॥
कोटि जतन कोऊ करो, पर न प्रकृतिहि बीच |
नल-बल जल ऊँचे wj, तऊ नीच कौ नोच ॥11॥
बिहारी | 85
संगति, सुमति न पावहीं, परे कुमति के uud
राखौ मेलि कपूर में, हींग न होति सुगंध ॥12॥
घर घर डोलत दीन ह वे, जन जन जाँचतु जाइ।
दिये लोभ चसमा चखनु, लघु पुनि बड़ौ लखाइ ॥13॥
कनक कनक तै सोगुनी मादकता अधिकाइ ।
उहि खाए बौराइ जगु, इहि पाए . बोराइ ॥:4॥
स्वारथु, सुकृतु न, स्म बृथा, देखि बिहंग निघारि ।
बाज, पराए पानि परि, तू पंछीनु न मारि ॥15॥
नर की अरु नल नीर की, गति एकै कर जोइ।
जेतौ नीचौ gd चले, तेतौ ऊंचौ होइ॥16॥
गुनी गुनी सब कोउ कहैं, निगुनी गुनी न होतु ।
qut कहूँ तरु अकं d, अर्क समान उदोतु ॥17॥
बसँ. बुराई जासु तन, ताही को सनमानु।
wet, भलौ, कहि छोड़िए, खोटे ग्रह जपु दानु 1181
अति अगाध अति औथरौ, नदी, कूप, सरु बाइ।
सौ ताकौ सागरु, जहाँ, जाको, प्यास बुझाइ uli
qc बुराई जौ तजे, तो चितु खरी सकातु।
ज्यों निकलंकु मयंकु लखि, गर्ने लोग उतपातु 201
इहीं आस अटक्यौ xd, अलि गुलाब के मूल ।
ह वे है फेरि बसन्त ऋतु, इन डारिन वे फूल ॥21॥
मरत् प्यास पिजरा पर्यौ, सुआ सरमे के फेर।
आदरु दै दै बोलियतु, बाइसु वलि की बेर ॥22॥
दिन दसु आइरु पाइक, करि ले आपु बखाणु।
जौं लगि काग सराघ पखु, तौ लगि तो सनमानु ॥23॥
अरे हंस या नगर में, जयो आप बिचारि।
गनि सौं जिन प्रीति करि, कोकिल दई बिडारि ॥24॥
दग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति ।
परति गाँठि, दुरजन fed, दई नई, यह रीति ॥25॥
नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि।
तज्यौ मनौं तारन-विरदु, बारक बारनु तारि ॥26॥
86 | हिंदी काव्य dug
सौन्दर्य और प्रेस
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात ।
“भरे भौन में करत हँ, deg ही सौं बात ॥271)
भूषन भारु संभारि है, क्यौ *इहि तन सुकुमार ।
सूधे पाइ न धरि परै, सोभा ही क॑ भार 11281
कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात ।
कहिहैँ सबु तेरो हियौ, मेरे हिय की बात ॥291॥
इन दुखिया अखियानु कूं, सुख सिरज्यौ ही नाँहि।
देखे बर्नी न देखते, अनदेखं अकुलाहि 1301
सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मंद समीर ।
मनु हवे जातु अजौ वहै, उहि जमुना के तीर ॥31॥
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय ।
सौंह करं, भएनि हंसे दैन कहै नटि जाय ।।32॥।
K^
घत्तानंद
प्रेस-साधना
(1)
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं ।
तहाँ सांचे चले तजि आपुनपौ झझकै कपटी जे निसाँक नहीं ॥
घनआनन्द प्यारे सुजान सुनो इत एक d दूसरो आँक नहीं ।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला मन लेहु d देहु छटाँक नहीं ॥
(2)
हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने ।
नीर सनेही कों लाय कलंक निरास ह.वै कायर त्यागत प्राने ॥
प्रीति की रीति सु क्यों समझे जड़, मीत के पानि परै को प्रमाने ।
या मन की जु दसा घनआनंद जीव की जीवनि जान ही जाने ॥
प्रेम की अनन्यता
(255
घनआनन्द प्यारे सुजान सुनी ! जिहि भाँतिति हौं दुख-सुल सहाँ ।
नहीं आवनि-औधि, न रावरी आस, इते पै एक बाट चहाँ॥
यह देखि अकारन मेरी दसा कोऊ बुझ तौ Hx कौन कहाँ ।
त य
जिय dep विचारि के देहु बताय हहा पिय ! दुरि तै पाय गहाँ॥ |
88 | हिदी काव्य संगह
विरह
विविध.
(5)
पूरन प्रेम को मंत्र महा पन, जा मधि सोधि सुधार है लेख्यौ ।
ताही के चारू चरित्र विचित्रनि यौं पचि कै रचि राखि विसेख्यौ ॥
ऐसो हियों-हित-पत्न पवित्र, जु आन कथा न कहूँ अवरेख्यौ ।
सो घनआनन्द जान-अजान लों टूट कियौ परि बाचि न देख्यौ ॥
(6)
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिर नेह को तोरियं जू ।
निराधार अधार दै धार-मंझार दई ! गहि बाँह न बोरियं जू ॥
घनआनन्द आपने चालक कों गुन बांधिले मोह न छोरिये जू ।
रस प्यास के ज्याय, बढ़ाय कै आस बिसास में यों विष घोरियं जू ॥
(7)
पीरी परी देहे छीनी राजत सनेह--भीनी
कीनी है अनंग अंग अंग रंग बोरी सी।
नन पिचकारी ज्यों चल्यौई. करे रेन दिन
बगराए बारनि फिरति झकझोरी सी ॥
कहाँ लौ auri घनआनंद दुहेली दसा
फागमयी भई जान प्यारी वह भोरी सी ॥
तिहारे निहारे बिन प्राननि करत होरा
विरह-अंगारीन मगारि हिय होरी dtu
(8)
झलक चति सुन्दर आनन गौर, छके दुग राजत काननि wd
हँसि बोलनि में छबि--फूलन की बरपा, उर-ऊपर जाति है ह.वं ॥
लट लोल कपोल कलोल करे, कल कंठ बनी जल जाबलि qd ।
अंग--अंग तरंग उठेदुति की, परिहै मनौ रूप अबैधरिच्वै॥
(9)
रावरे रूप की रीति अनुप, नयो नयो लागत ज्याँ-ज्यों निहारियै ।
त्यों इन आाँखिन बानि अनोखी, अघानि कहे नहि आनितिहारिए ॥
धनानंद | 89
एक ही जीव हुतौ सुतौ वारयौ, सुजान, सकोच और सोच सहारियै।
रोकी रहै न, «E, घनआनन्द, बावरी रीझि के हाथनि हारियै ॥
(10)
डगमगी डगरि धरनि छबि ही के भार
डरनि छबीले उर आछी बनमाल की ।
सुन्दर बदन तर कोटिक मदन amd,
चित चुभी चितवनि लोचन बिसाल की ।
काल्हि हि गली अली निकसे औचक आज,
कहा कहौं “अटक मटक” तिहि काल की।
भिजई हौं रोम-रोम आनन्द क्रे घत छाय,
बसी मेरो आँखनि में आवनि गुपाल की ui
(11)
पर काजहि देह को धारे फिरौ,
पर जन्य जथारध gd दरसौ ।
निधि नीर सुधा के समान करो,
सबही बिधि सज्जनता परसौ।
'घनआनन्द' जीवनदायक हौं,
कुछ मेरियौ पीर हिये परसौ।
कबहुँ वा बिसासी सुजान के आँगन,
मो अंसुवान. को लै बरसौ॥
अयोध्यासिह उपाध्याय 'हृरिओध'
(पवन-दुतिका)
बैठी खिन्ना यक दिवस वे गेह में थीं अकेली ।
आके आँसू दुग-युगल में थे धरा को भिगोते ।
आई धीरे इस सदन में पुष्प-सद्गंध को ले।
प्रातः वाली सुपवन इसी काल वातायनों से ।।1॥।
संतापों को विपुल बढ़ता देख के दुःखिता हो ।
धीरे बोलीं सदुख उससे श्रीमती राधिका यों।
प्यारी प्रातः पवन इतना क्यों मुझे है सताती ।
क्या तू भी है कलुषित हुई काल की क्रूरता से 1121
मेरे प्यारे नव जलद से कज से नेत्रवाले।
जाके आथे न मधुवन से औ न भेजा संदेसा ।
मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ।
जा के मेरी सब दुख-कथा श्याम को तु सुना दे uiu
ज्यों ही मेरा भवन तज तू अल्प आगे बढ़ेगी ।
शोभावली सुखद कितनी मंजु कुजे मिलेंगी ।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह् लँगी तुझे वे ।
तो भी मेरा दुख लख वहाँ जा न विश्राम लेना ॥4॥
थोड़ा आगे सरस रव का धाम सत्पुष्पदाला ।
अच्छे-अच्छे बहु द्रुम लतात्रान सौन्दयंशाली ।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा ।
आना जाता इस विपिन से मुहू यमाना न होना ॥5॥
जाते-जाते अगर पथ में क्लान्त कोई दिखावे ।
तो जा के सन्तिकट उसकी क्लान्तियों को faerat i
धीरे-धीरे परस करके गात उत्ताप खोना।
सद्गंधों से श्रमित जन को हबितों सा बनाना ॥6॥
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | 91
लज्जाक्षीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये ।
होने देना विकृत-वसना तो न तू सुन्दरी को।
जो थोड़ी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना ।
होठों की औ कमल-मुख की म्लानतायें मिटाना ॥7॥
कोई क्लान्ता कृषक-ललना खेत में जो दिखावे।
धीरे-धीरे परस उसकी क्लान्तियों को मिटाना ।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को ॥8॥
जाते जाते पहुँच मथुरा-धाम में उत्सुका हो।
न्यारा शोभा वर नगर की देखना मुग्ध होना ।
तू होवेगी चकित लख के मेर से मन्दिरों को ।
आभावाले कलश जिनके दुसरे छ अकंसे हैं।।9॥
देखें पूजा समय मथ्रा मन्दिरों मध्य जाना ।
नाना वाद्यों मधुर स्वर की मुग्धता को बढ़ाना ।
किवा लेके रुचिर qu के शब्दकारी फलों को ।
धीरे-धीरे मधुर रव से मुग्ध हो हो बजाना 1101
तू देखेगी जलद-तन को जा वहीं तद्गता हो!
होंगे लोने नयन उनके ज्योति-उत्कीर्णकारी ।
मुद्रा होगी वर वदन की मूत्ति-सी सौम्यता की ।
सीधे साधे वचन उनके सिक्त होंगे सुधा से ॥11॥
नीले फूले कमल दल-सी गात की श्यामता है।
पीला प्यारा वसन कटि में पेन्हते हैं फबीला ।
छूटी काली अलक मुख की कान्ति को है बढ़ाती ।
सद्वस्त्रों में नवल तन की फूटती-सी प्रभा है ul2u
सांचे हाला सकल वपु है दिव्य सौदर्यशाली ।
सत्पुष्पो-सी सुरभि उसकी प्राण-संपोपिका है।
दोनों कंधे वृषभ वर-से है बडे ही सजीले।
लम्बी afi कलभ -कर-सी शक्ति की पेटिका है ॥13॥
राजाओं-सा शिर पर लसा दिव्य आपीड होगा ।
शोभा होगी उभय श्रुति में स्वर्ण के कुण्डलों की ।
92 | हिंदी काव्य संग्रह
नाना रत्नाकलित भुज में मंजू केयुर होंगे ।
मोतीमाला लसित उनका कम्बु-सा कठ होगा ॥141)
तेरे में हे न यह गुण जो तू व्यथाये सुनाये ।
व्यापारों को प्रखर मति औ युक्तियों से चलाना ।
बेठे जो हों निज सदन में मेघ-सी कान्तिवाले ।
तो चित्रों को इस भवन के ध्यान से देख जाना ॥15॥
जो चित्रों में विरह-विधुरा का मिले fug क्रोई।
तो जा जाके निकट उसको भाव से यों हिलान! ।
प्यारे होके चकित जिससे है चित्र की ओर देखें ।
आशा है यों सुरति उनको हो सकेगी हमारी ॥16॥
जो कोई भी इस सदन में चित्र उद्यान का हो ।
औ हों प्राणी विपुल उसमें घूमते बावले से।
तो जाके सन्निकट उसके औ हिला के उसे भी ।
देवात्मा को सुरति ब्रज के व्याकुलों की कराना ॥17॥
कोई प्यारा कुसुम कुम्हला गेह में जो पड़ा हो ।
तो प्यारे के चरण पर ला डाल देना उसी को ।
यों देना ऐ पवन बतला फूल-सी एक बाला d
म्लाना हो हो कमल-पग को चुमना चाहती है ॥18॥
जो प्यारे मंजु उपवन या वाटिका में खड़े हों ।
छिद्रों में जा क्वणित करना वेणु सा कीचकों को ।
यों होवेगी सुरति उनको सर्व गोपांगना की ।
जो हैं वंशी श्रवण-रुचि से दीघं उत्कण्ठ होती ।119॥
लाकं फूले कमल दल को श्याम के सामने ही।
थोड़ा थोड़ा विपुल जल में व्यग्र हो-हो डुबाना ।
यों देना ऐ .भगिनि जतला एक अंभोजनेत्रा |
आँखों को हो विरह-विधुरा वारि में बोरती है ॥20॥
धीरे लाना वहन कर के नीप का पुष्प कोई।
ओ प्यारे के चपल दृग के सामने डाल देना।
ऐसे देना प्रकट दिखला नित्य आशंकिता हो।
केसी होती विरहवश में सित्य रोमांचिता gut
अयोध्यासिह उपाध्याय 'हरिऔध | 93
बँठें नीचे जिस विटप के श्याम होवें उसीका ।
कोई पत्ता निकट उनके नेत्र के ले हिलाना।
यों प्यारे को विदित करना चातुरी से दिखाना ।
मेरे चिन्ता-विजित चित का क्लान्त हो काँप जाना 220
सुखी जाती मलिन लतिका जो धरा में पडो हो |
तो पाँवों के निकट उसको श्याम के ला गिराना ।
यों सीधे से प्रकट करना प्रीति से वंचिता ही ।
मेरा होना अति मलिन मौ सूखते नित्य जाना 11231
कोई पत्ता नवल तरु का पीत जो हो रहा dba
तो प्यारे के दृग युगल के सामने ला उसेहो।
धीरे धीरे संभल रखना औं उन्हें यों gamma
पीला होना प्रवल दुख के प्रोषिता-सा हमारा ॥24॥
यों प्यारे को विदित करके सवे मेरी व्यथायें।
धीरे धीरे वहन करके पाँव की धूलि लाना ।
थोड़ी-सी भी चरण-रज जो ला न देगी हमें तू !
हा ! कैसे तो व्यथित चित को बोध मैं दे सकूंगी ॥251
पुरी होवें न यदि तुझसे अन्य बातें हमारी ।
तो तु मेरी विनय इतनी माल लें औं चली जा ।
छू के प्यारे कमल-पग को प्यार के साथ आ जा।
जो जाऊंगी हृदयतल में मैं तुझी को लगाके ॥26॥
['प्रिय प्रयास' से]
संथिलीशरण गुप्त
(1) यशोधरा के विरह गीत
(क) सखि, बसन्त-से कहाँ गये वे ?
सखि, बसन्त-से कहाँ गये वे,
मैं ऊप्मा-सी यहाँ रहो ।
मैंने ही क्या सहा, सभी ने
मेरी वाधा-व्यथा सही।
तप मेरे मोहन का उद्धव धूल उड़ाता आया,
हाय | विभूति रमाने का भी मैंने योग न पाया ।
सूखा कण्ठ, पमीना छूटा, मुगतृष्णा की माया,
झुलसी दृष्टि, अंधेरा दोखा, दूर गई वह छाया ।
मेरा ताप और तप उनका,
जलती हैं हा ! जठर मही,
मैंने ही बया सहा, सभी ने
मेरी बाधा-व्यया सही ।
जागी किसकी वाष्पराशि, जो सूने में सोती थी?
किसको स्मृति के बीज उगे ये सृष्टि जिन्हें बोती थी ?
अरी वृष्टि ऐसी ही उनकी दया-दृष्टि रोती थी,
विश्व वेदता की ऐसी ही चमक उन्हें होती ti
किसके भरे हृदय की धारा,
शतधा होकर आज बही ?
मैंने ही क्या सहा, सभीने
मेरी बाधा-व्यथा सही ।
उनको शान्ति-कांति की ज्योत्स्ना जगती है पल-पल में,
शरदातप उनके विकास का सूचक है थल-थल में,
नाच उठी आशा प्रतिदल पर किरणों की झल-झल में,
खुला सलिल का हृदय-कमल खिल हंसों के कल-कल में ।
मैथिलीशरण गुप्त | 95
पर मेरे मध्याहू न | बता क्यो,
तेरी मूच्छा बनी वही ?
मैने ही क्या सहा, सभी ने
मेरी बाधा-व्यधा सही।
हेम da हेमन्तकाल के इस आतप पर दारू
प्रियस्पर्ण की पुलकादलि मैं कैसे आज विसारू ?
कितु शिशिर, ये ठण्डी सांसें हाय ! कहाँ तक धारू ?
तन WIS मन मारू, पर कया मैं जीवन भी gre ?
मेरी afg गही स्वामी ने,
मैंने उनकी छाँह गही,
मैंने ही क्या सहा, सभी ने
मेरी बाधा-ब्यथा सही ।
पेड़ों ने पत्ते तक, उनका त्याग देखकर, त्यागे,
मेरा धुँघलापन कुहरा बन छाया सबके आगे ।
उनक्के तप के अग्नि-कुण्ड-से घर-घर में हैं जाग ।
मेरे कम्प, हाय ! फिर भी तुम नहीं कहीं से भागे ।
पानी जमा, परन्तु न मेरे
खट्टे दिन का दूध-दही,
S ही क्या सहा, सभी ने
मेरी बाधा-व्यधा सही ।
oS)
[शा से आकाश थमा है, श्वास-तंतु कब टुटे
दर्शन-मुख दमके, पल्लव चमके, भव ने नव रस लूट
स्वामी के सद्भाव फेलकर फूल-फूल म
उन्हें खोजने को ही मानों qua निरक्षर छूट
उनके श्रम के फल सब भोगे,
यशोधरा की विनय यही
मैंने ही क्या सहा, सभी ने
मेरी बाधा-व्यथा सही ।
[यशोधरा से]
96 | हिंदी काव्य संग्रह
(ख) रे मन, आज परीक्षा तेरी
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।
विनती करती हूँ मैं तुझसे, बात न बिगड़े मेरी ।
अब तक जो तेरा निग्रह था,
बस अभाव के कारण वह UT d
लोभ न था, जब लाभ न यह था;
सुन अब स्वागत-भेरी !
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।
दो पग आगे हो वह धन है,
अवलम्बित जिस पर जीवन है ।
पर क्या पथ पाता यह जन है ?
मैं हैं और sud.
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।
यदि वे चल आये हैं इतना,
तो दो पद उनको है कितना ?
क्या भारी वह मुझको जितना ?
पीठ उन्होंने फेरी।
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।
सब अपना सौभाग्य मनावें,
दरस-परस, निःश्रेयस पावे ।
उद्धारक चाहें तो आवें,
यहीं रहे यह चेरी।
रे मन, आज परीक्षा तेरी ।
['यशोधरा' से]
मैधिलीशरण qut | 97
(2) सीता का उटज गीत
निज सौध सदन में उटज पिता ने छाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन ` भाया ।
सम्राट स्वथं ध्राणेश, सचिद देवर हैं,
देते आकर आशीष हमें मुनिवर हैं।
घन तुच्छ यहाँ,--यद्यपि असंख्य आकर हैं,
पानी पीते शृग-मिह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया,
भेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया ।
क्या सुन्दर लता-वितान तना है मेरा,
पूंजाकृति गुंजित कुंज घना है मेरा।
जल निर्मल, पवन पराग-सना है मेरा,
गढ़ चित्रकूट दृढ़-दिव्य बना है मेरा।
प्रहरी निर्झर, परिखा प्रवाह -की काया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया ।
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूं,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूं ।
श्रम वारिबिन्दु फल स्वास्थ्यशुक्ति wel हे,
अपने अंचल से व्यजन आप झलती हू ।
तनु-लता-सफलता-स्वाडु आज ही आया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
जिनसे थे प्रणयी प्राण त्राण पाते हैं,
जी भरकर उनको देख जुड़ा जाते हैं।
जब देव कि देवर विचर-विचर आते हैं,
तब नित्य नये दो-एक द्रव्य लाते हैं।
उनका वर्णन ही बना विनोद सेवाया,
मेरी .कटिया में .राज-भवन मन भाया।
किसलय-कर स्वागत-हेतु हिला. करते हैं,
gg मनोभाव-सम सुमत खिला करते. हँ.
डाली में नव फल नित्य मिला करते हैं
तृण-तृण पर मृक्ता-भार मिला करते हैं।
98 | शिंदी eme deg
निधि खोले हिखला रही प्रकृति निज भाया,
भेरी हुल्या में राज-भवन मन भाया ।
कहता है कोक'कि थाण्य ठगा है मेरा?
WE सुना हुआ भय दुर भगा है मेरा।
कुछ करने में अब हाथ शगा है मेरा,
बन में ही तो गाहंस्थ जगा है मेरा।
WE बघू जानकी बनी आज यह जाया।
सेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
फल-कूलों से हैं लदी शलियां मेरी,
बे हरी पत्तलें, भरी थालियाँ मेरी।
मुनि बालाएँ हैं यहाँ आलिया मेरी,
तटिनी की लहरें और तालियां मेरी ।
फ्रोडा-सामग्री बनी स्वयं निज छाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया,
मैं पली पक्षिणी विपिन-कुंज-पिजर की,
आती है कोटर-सदृश मुझे सुध घर की ।
मुदु-तीक्ष्ण वेदना एक एक अंतर की,
बन जाती है कल-गीति समय के स्वर की ।
कब उसे sgg कण्ठ यहाँ न भघाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया ।
गुरुजन-परिजन सब अन्य ध्येय हैं मेरे,
औषधियों के गुण-विगुण ज्ञेय हैं मेरे,
बन-देय-देवियाँ आतिथेय हुँ मेरे,
.प्रिय-संग यहाँ सब प्रेय श्रेय हैं मेरे।
मेरे पीछे ध्रुव-धमं स्वयं ही धाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया |
नाचो मयुर, नाचो कपोत के जोड़े,
"TW! कुरंग, तुम लो उड़ान के तोड ।
गाओ दिवि, चातक, चटक, भृ'ग भय छोड़े,
वैदेही के वनवास-वर्ष हुँ थोड़े।
तितली, तूने यह कहाँ चित्रपट पाया?
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया ।
मैणिलीशरण बुष्त | 99
भाओ कलापि, निज चन्द्रकला दिखलाओ,
कुछ मुझसे didi और मुझे सिखलाओ |
गाओ पिक, मैं अनुकरण करू, तुम गाओ,
स्वर खींच तनिक यों उसे घुमाते जाओ।
शुक, पढ़ो, मधुर फल प्रथम तुम्हीं ने खाया,
भेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
अथि राजहंसि, तू तरस-तरस क्यों रोती,
तू शुक्ति-वंचित कहीं मैथिली होती।
तो श्यामल तनु के श्रमज-बिन्दुमय मोती,
निज व्यंजन-पक्ष से तू अंकोर सुध खोती,
जिन पर मानस ने पद्म-रूप मुँह बाया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
ओ निझेर, झर-झर नाद सुनाकर झड़ तू,
पथ के रोड़ों से उलझ-सुलझ, बढ़ अड तू ।
ओ उत्तरीय, उड़, मोद-पयोद, घुमइ तू,
हम पर गिरि-गद्गदू भाव, सदैव उमड़ तू ।
जीवन को तूने गीत बनाया, याया,
~
मेरी कूटिया में राज-भवन मन भाया ।
ओ. भोली कोल-किरात-भिल्ल-बालाओ,
मैं आप तुम्हारे यहाँ आ गई, आओ ।
मुझको कुछ करने योग्य काम बतलाओ,
दो अहो ! नव्यता और भव्यता पाओ d
लो, मेरा नागर भाव भेंट जो लाया,
मेरी कूटिया में राज-भवन मन भाया ।
सब ओर लाभ ही लाभ बोध-विनिमय में,
उत्साह मुझे है विविध वृत्त-संचय Wd
तुम अद्ध नग्न क्यों रहो अशेष समय में,
आओ, हम काते-बुने गान की लय में!
निकले फूलों का रंग, ढंग से ताया,
मेरी कुटिया में राज-भवन मन भाया।
[साकेत]
“100 | हिंदी काव्य संग्रह
(3) नहुष का पतन
मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में,
ब्याकुल-से देव चले साथ में, विमात में।
fasi तो वाहक विशेषता से भार की,
जारोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की।
“दीखता है कठिन मुझे तो मार्गे कटना,
wg बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना?
बस क्या यही है बस, बैठ विधियाँ गढ़ो?
अश्व से अड़ो न अरे, कुछ तो बढ़ो।”
बार-बार कन्धे फेरने को, ऋषि अटके,
भातुर हो राजा ने सरोष पैर पटके।
क्षिप्त पद हाय ! एक ऋषि को जो जा लगा, _
ज्लातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा!
“भार बहें, बातें सुनें, लातें भी सहें क्या हम ?
तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम?
dx था या साँप ug, Sq गया संग ही,
पामर, पतित हो तू होकर भुजंग ही !”
राजा हततेज हुआ शाप सुनते ही काप,
पीकर जगा गया हो जैसे उसे पीना-साँप !
श्वास टूटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला,
“'हा!यह हुआ क्या ?” यही व्यग्र वाक्य निकला।
“जड़ सा सचिन्त वह नीचा सिर करके,
पालकी का नाल, डूबते का तृण धर के।
/ शून्य-पट-चित्र हुआ घुलता-सा वृष्टि से।
> / देखा फिर उसने समक्ष शुन्य दृष्टि से।
दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप-सा,
चौंका एक साथ वह् बुझता प्रदीप-सा-
- “संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या?
दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या?”
मंस छरज qur | 101
संभला अदम्य मानी खींचकर dür अंग---
“कुछ नहीं, स्वप्न था सो हो गया भला ही भंग । '
कठिन कठोर wer! तो भी शिरोधाये है,
शान्त हों महृषि, मुझे शाप अंगीकार्य है।”
दुःख में भी राजा मुसकाया पुर्व-दर्ष से--
“मानते हो तुम अपने को डॅसा सर्प से।
होते ही परन्तु पटस्पशं भूल-चूक से,
मैं भी क्या डेसा नहीं गया हूँ दन्दशूक से
मानता हैं भूल हुई खेद, मुझे इसका,
सापे वही कार्य उसे धार्यं हो जो जिसका ।
स्वगे से पतन, किन्तु गोल्रिगी की गोद में,
और जिस जोन में जो, सो उसी में मोद में ।
काल गतिशील, मुझे लेके नहीं बंठेगा,
किन्तु उस जीवन में विष घुस पठेगा।
तो भी खोजने का कुछ कष्ट जो उठावेंगे,
विष में भी अमृत छिपा वे कृती पावेंगे।
मानता हे, आड़ ही ली मैंने स्वाधिकार की,
मूल में तो प्रेरणा थी काम के विकार की ।
माँगता हूँ आज मैं शची से भी खुली क्षमा,
विधि से बहिगंता भी साध्वी वह ज्या रमा।
मानता हूँ, भूल गया नारद का कहना--
“दत्यो से बचाए यह भोगधाम रहना।”
आ घुसा असुर हाग्र ! भेरे ही हृदय में,
मानता हैँ आप लज्जा पाप-अविनय Ga
मानता हुँ और सब, हार नहीं मानता,
अपनी अगति नहीं आज भी मैं जानता ।
आज मेरा भुक्तोज्झित हो गया है oem भी,
लेके दिखा दूंगा कल मैं ही अपवग भी ।
तन जिसका हो मन और आत्मा मेरा है,
चिन्ता नहीं बाहर उजेला या अंधेरा & I
चलना मुझे है, बस अन्त तक चला,
गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है सँभलना ।
102 | हिदी काव्य संग्रह
गिरना क्या उक्स उठा ही नहीं जो कभी ?
मैं ही तों उठा था आप शिरता हूँ जो अभी ।
फिर भी उठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं,
नर हूं, पुरुष हूँ मैं, wet रहूँगा मैं,
चाहे जहाँ मेरे उठने के लिए ठोर है,
किन्तु लिया आज मैंने भार कुछ और है।
उठना मुझे ही नहीं एकमात्र रीते हाथ,
भेरी देवता भी और ऊंची उठे मेरे साथ ।”
(4) आशा
बीती नहीं यद्यपि अभी तक है निराशा की निशा--
है किन्तु आशा भी कि होगी दीप्त फिर प्राची दिशा ।
महिमा तुम्हारी ही जगत में धन्य आशे ! धन्य है,
देखा नहीं कोई कहीं अवलम्ब तुम-सा अन्य है ।
आशे, तुम्हारे ही भरोसे जी रहे हैं हम सभी,
सब कुछ गया पर हाय रे ! तुम को न छोड़ेगे कभी ।
आशे, तुम्हारे ही सहारे टिक रही है यह मही,
धोखा न दीजो अन्त में, बिनती हमारी है यही ।
यद्यपि सफलता की अभी तक सरसता चक्खी नहीं,
हम किन्तु जान रहे कि वह श्रम के बिना रक्खी नहीं ।
यद्यपि भयंकर भाव से छायी हुई है दीनता--
कुछ-कुछ समझने हम लगे हैं किन्तु अपनी हीनता ।
यद्यपि अभी तक स्वार्थ का साम्राज्य हम पर है qqr—
पर दीखते हैं साहसी भी और कछ उन्ततमना ।
बन कर स्वयं सेवक सभी के जो उचित हित कर, रहे,
होकर निछावर देश पर जो जाति पर हैं मर रहे।
[नहुष]
मैजिलीक्षरण 3er | 103
प्राचीन और नवीन अपनी सब दशा आलोक्य है,
अब भी हमारी अस्ति है यद्यपि अवस्था शोच्य है।
कतव्य करना चाहिए, होगी न क्या प्रभु की दया,
सुख-दुःख कुछ हों, एक-सा ही सब समय किसका गया ।
['पुष्करिणी' से
संपादक : अज्ञथ]
(5) अन्ध कुणाल
है अवति और अम्बर, प्रणाम;
करता हे सब से राम-राम।
हे रवि-शशि-ग्रह-तारक-समाज,
हे वणं-वर्ण के साज बाज,
लेता हुँ सब से बिदा आज,
रहा हरा-भरा तू धरा-धाम,
करता हूँ सब से राम-राम।
है हृद-नद-निझर, धरे वेत्र,
हे वन-उपवन, हे हरे क्षेत्र,
xg जायें रिक्त ये मरे नेत्र,
तुम भरे रहो चिर सरस-शयाम,
करता हूँ सब से राम-राम।
हे सान्ध्य वृष्टि-घन, मधुर मन्द्र,
शुभ शरक्षिशा के कुमुद चन्द्र,
मधु के प्रभात-अम्बुज अतन्द्र,
लूं मैं किस-किस का आज नाम ?
करता हे सब से राम-राम।
बाहर से कुछ दीखे न आज,
सब रहे किन्तु भीतर विराज।
रम रहा ब्यक्ति में ज्यों समाज,
तुम जागो मुझ में अष्ट याम,
करता हुँ सब से राम-राम ।
104 | हिंदी काव्य संग्रह
अवलोक लोक-सोन्दर्य-सृष्टि,
हो गयी कृताथे कूणाल-दृष्टि,
सब संसृति पर हो अमृत-वृष्टि,
गूँजे घर-घर में तीन ग्राम;
करता हुँ सब से राम-राम ।
छोड़े मैंने मणि-रत्त आज,
बुक गये रवयं वे यत्न आज,
पर मेरा कौन सपत्स आज?
— मैं दक्षिण हुँ विधि रहे वाम।
करता . हैँ सबसे राम-राम!
Qü न भले ही रूप-रंग,
आने दो द्विज ! निज ध्वनि-तरंग,
श्रुति में ही दर्शन के प्रसंग,
निष्काम आप ही पूर्ण काम !
करता हूँ सब से राम-राम!
निर्मुक्त हुई यह आज सीप
तुम जलो न मेरे अर्थ दीप !
झुलसे न शलभ आ कर समीप;
मेरी निशि में सब लें विराम।
करता हुँ सब से राम-राम!
न
रासनरेश ल्विपाठो
विधवा का दपण
एक आले में दर्पण एक किसी प्रणयी के सुख का सखा,
किसी के प्रियतम का स्मृति-चिह न, किन्ही सुन्दर हाथों का रखा,
धूल की चादर से मुँह che पड़ा था भार लिये मन का,
मुक भाषा में हाहाकार मचा था उनके क्रन्दन का।
दीमकों ने उसके सब ओर कोर कर अपनी मनोव्यथा,
बना दी थी उस आदरहीन दीन की भतिशय करुण कथा,
भकडिर्यां उस पर जाले तान ग्लान कर मुख की सुन्दरता ।
दिखाती थीं करके विस्तार खूप-मद का क्षण-भंगुरता।
मुकुर यों कहने लगा सशोक रोक कर मेरी मुक्ति-गति को;
मनुज का मिथ्या है अभिमान जानकर मेरी दुर्गेति को ।
कभी दिन मेरे भी थे, हाय ! मुझे लेकर प्रिय ने कर में,
प्रियतमा को था अर्पण किया रोझ कर उस सूने घर में।
देखने को उसके अनमोल माल पर लोलुपता लट की,
रसीली चितवन का उन्माद, मनोहरता मुसकाहट की,
प्रियतमा ने पाकर एकान्त चूम कर gd मनाया था--
जान कर प्रियतम की प्रिय वस्तु हृदय से मुझे लगाया था।
एक मुग्धा के कोमल हाथ wies थे मेरे मुख को,
हार पहनाते थे कर प्यार-कहूँ मैं कंसे उस सुब को।
कामिनी कर के जब शुंगार पास प्रियतम के जाती थी,
प्रथम मेरी अनुमति के लिए निकट मेरे नित आती थी ।
सभी अंगों में उसके नित्य छलकता था मद यौवन 5.
अजब था रंग प्रेम से तृप्त अधखुले पंकज-लोचन" का !
अधर पर उसके मुदु मुसकान निरन्तर क्रीड़ा करती थी,
दुगो मैं प्रियतम की छवि नित्य, रिना विश्राम विचरती थी ।
106 | हिंदी काव्य संग्रह
दुध की सरिता-सी अति शुभ्र पंक्ति थी दांतों की ऐसी,
जुड़ी हो तारापति के पास सभा ताराओं की जैसी ।
मनोहर उसका अनुपम रूप हृदय प्रियतम का हरता था।
जभी मिलती थी मैं जी खोल प्रशंसा उसकी करता था।
कभी प्राणेश्वर के गल-बाँह डालकर वह मुसकाती थी,
गाल से प्रिय का कन्धा दाब खड़ी कुली न समाती थी।
कराती थीं मुझसे वह न्याय-मुकुर | निष्पक्ष सदा तुम हो,
अधिक किसके मन में है प्रेम, हमारी आँखें देख कहो ।'
गर्व उसका सुन अधर, कपोल चिबुक को अगणित चुम्बन से,
तृप्त कर प्रणयी निज सर्वस्व वारता था विमुग्ध मन से।
देखता था मैं नित यह दृश्य मुझे निद्रा कब आती थी?
हृदय मेरा खिल उठता था सामने वह जब आती थी।
हृदय था उसका ऐसा सरल प्रकृति में भी सुन्दरता ।
वसन तन-वदन देख कर मलिन कभी मैं निन्दा भी करता,
मानती थी न बुरा तिल-मात्र, न आलस या हठ करती थी;
स्वच्छ सुन्दर बनकर तत्काल. देखकर मुझे निरखती थी।
काम में रहती थी निज व्यस्त, न वह क्षणभर अलसाती थी,
ध्यान में प्रियतम के निज मस्त इधर जब आती-जाती थी।
ठहर कर आँचल से मुँह पोंछ प्यार से देख विहसती थी,
देखती भी आँखों में मुति प्राणन की जो बसंती थी!
रहे थोड़े ही दिन इस भांति परम qa से दोनों घर में, ।
अचानक यह सुन पड़ी पुकार राष्ट्रपति की स्वदेश-भर में,
“कष्ट अब पर-पद-दलित स्वदेश-भूमि में अन्तिम सहने को;
चलो, वीरो, बनकर स्वाधीन जगत में जीवित: रहने को ।'
प्रियतमा का वह प्राणाधार मनस्वी युवकों का नेता--
राष्ट्रपति की पुकार को व्यर्थ भला ag क्यों जाने देता?
बड़ा भावुक था उसका हृदय निरन्तर मग्न वीर-रस d,
देश पर मरने का उत्साह भरा था उसकी qq- में ।
सुखों का बन्धन क्षण में तोड़ देश के प्रति अति आदर से,
राष्ट्रपति की पुकार पर वीर प्रथम वह निकला था गर से।
तभी से वह अबला दिन-रात घोर चिन्ता में बहती थी;
विजय की खबरों को दे कान प्रतीक्षा में नित रहती बी ।
रामनरेश त्रिपाठी | 107
एक दिन बड़े हर्ष के साथ राष्ट्रपति ने स्वदेश-भर में
घोषणा को कि 'वीर ने घोर युद्ध कर भोषण सभर में,
विजय हम सबको देकर पूर्ण, चूर्ण कर रिपुओं के मद को,
छोड़ कर यह नश्वर संसार प्राप्त कर लिया परम पद को ।'
उसी दिन उसी घडी से, हाय! न मैंने फिर उसको देखा ।
छिप गई कहाँ अचानक, हाय ! रूप को वह अनुपम रेखा !
न तब से फिर आयी इस ओर भूल करके भी वह वाला,
पवन ने मेरे मूँह पर धूल झोंक अन्धा भी कर डाला ।
दुलारों में नित पली हुई प्रेम की प्रतिमा वह प्यारी,
खिलौना इस घर की वह, हाथ, ! कहाँ है सरला सुकुमारी !
अरे ! मेरी यह दीन पुकार कहीं यदि सुनता हो कोई,
मुझे दिखला दे मेरा प्राण-जगा दे फिर किस्मत सोयी !
नहीं तो कर दे कोई मुकत विरह-ज्वर से सत्वर मुझको ।
मिटा दे भेरा यह अस्तित्व पटक कर पत्थर पर मुझको ।
न जाने कब से fur, विरह-विधुरा, भूखी-प्यासी,
कहाँ होगी वह विह,वल, व्यथित, हाय 1 करुणा की कविता-सी !
जयशंकर प्रकाश
1. चिन्ता
(1)
हिम गिरि के उत्तुंग शिक्षर पर
d5 शिला wt शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से.
देख रहा था, प्रलय प्रबाह
(2)
नीचे जल था, ऊपर हिम था
एक qi था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे WE या चेतन।
(3)
दुर-दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान;
नीरवता सी शिला चरण से
टकराता फिरता पवमान ।
(4)
तरुण तपस्वी-सा वह बैठा,
साधन करता सुर-शमशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का,
होता था सकरुण अवसान।
(5)
उसी तपस्वी से लम्बे, थे
देवदार दो चार खड़े;
हुए हिम-घवल, जसे पत्थर
बन कर ठिठुरे रहे अड़े ।
जयशंकर प्रसाद | 109
(6)
अवयव की दृढ़ माँस-पेशियाँ,
उर्जस्वित था वीयूर्य अपार;
स्फीत 'शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार ।
(7)
चिता-कातर बदन हो रहा
पौरुष जिसमें ओत-प्रोत;
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत ।
(8)
बंधी महा-बट से नौका थी;
qd में अब पडी रही;
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही ।
(9)
निकल रही थी म्मे वेदना,
करुणा विकल कहानी सी;
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हसती सी पहचानी सी ।
(10)
ty चिता की पहली रेखा,
“अरी विश्व वन की व्याली;
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण,
प्रथम कंप सी मतवाली ।
(11)
हे अभाव की चपल घालिके,
री ललाट की खल लेखा ।
हरी-भरी सी des भो
जल--माया की चल रेखा og
110 | हिंदी काव्य संग्रह
(12 )
इस ग्रह कक्षा की हलचल ! री
तरल गर्ल की लघु लहरी;
जरा अमर जीवन की, और न
कुछ सुनने वाली बहरी og
(13)
अरी व्याधि की सूत्र-घारिणी
आरी आधि, 'मधुमय अभिशाप ।
हृदय-गगन में धूमकेतु सी,
पुण्य सृष्टि में सुन्दर पाप ।
(14)
मनन करावेगी तू कितना ?
उस निश्चित जाति का जीव,
अमर mum क्या ? तु कितनी
गहरी डाल रही है नीव d
( 15)
बुद्धि, मनीषा, मति आशा, चिता
तेरे हैं कितने नाभ।
भरी पाप है तू, जा, चल, जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।
(16)
विस्मृति भा, अवसाद धेर ले,
नीरवते ! ब्त चुप कर दे;
चेतनता चल जा, जड़तासे
आज शून्य मेरा भर da^
( 17)
“चिन्ता करता हे मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की;
उतनी ही अनन्त मैं बनती
जाती रेबाएँ दुख की।
जयशंकर प्रसाद | 111
( 18 )
आह सग के अग्रदूत ! तुम
असफल हुए विलीन हुए।
भक्षक या रक्षक, जो समझो,
केवल अपने मीन gui
( 19 )
मणि-दीपों के अन्धकारमय
अरे निराशापुर्ण. भविष्य
देव-दब्भ के महा मेघ में
सब कुछ ही वन गया हविष्य ।
( 20)
भमरत! के चमकीले
पुतलो ! तेरे वे जय नाद;
काँप रहे हूँ आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।
( 21)
वे सब डूबे डूबा उनका
विभव, बन गया पारावार;
उमड़ रहा है देव सुखों पर
दुःख जलधि का नाद अपार D"
( 22)
“वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या ?
स्वप्न रहा या छलना थी।
देव सृष्टि की सुख विभावरी
ताराओ की कलना थी।
(23)
चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास ।
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विशवास।
अरे
112 | हिंदी काव्य संग्रह
( 24 )
सब कुछ थे स्वायत्त, विश्व के
यल, वैभव, आनन्द अपार,
उद्देलित लहरों से होता, उस
समृद्धि का सुख-संचार।
(059)
स्वयं देव d हम सब, तो फिर
क्यों न faxjew होती सृष्टि ।
अरे अचानक हुई इसी से
कडी आपदाओमों की वृष्टि
( 26 )
गया, सभी कुछ गया, मधुरतम
सुर बालाओं का श्रृंगार;
उषा ज्योत्स्ना सा, यौबन-स्मित,
मधुप सदृश निश्चित विहार ।
(27)
भरी वासना-सरिता का वह
कसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।”
( 28 )
“चिर किशो र-वय, नित्य विलासी,
सुरभित जिससे रहा दिगंत;
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत ?
( 29 )
कुसुमित कुंजों में बे पुलकित
प्रमालिगन हुए विलीन,
मौन हुई है मुच्छित तानें
और न सुन पड़ती अब बीन।
OO —— ——
जयशंकर प्रसाद | 113
( 30 )
अब न कपोलों पर छाया सी
पड़ती मुख की सुरभित भाप;
भुज मूलों में, शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।
(31)
कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार;
मुखरित था कलरव, गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।
(32)
सौरभ में दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधी र
wa में एक अचेतन गति थी,
जिससे पिछड़ा रहे समौर।
( 33)
सुरा सुरभिमय वदन अरुण वे
नयन भरे आलस अनुराग;
कल कपोल था जहाँ विछलता
कल्पवृक्ष का पीत पराग।
( 34)
विकल वासना फे प्रतिनिधि बे
सब मुरशाये चले गये;
आह ! जले अपनी ज्वाला से,
फिर वे जल में गल गये!”
( 35)
“अरी उपेक्षा-भरी शअमरते।
री अतुप्ति ! निर्वाध विलास
द्विघा-रहित अपलक मयनों की
भूख भरी दशन की प्यास।
114 | हिंदी काव्यः संग्रह
( 36 )
बिछुडे तेरे सब आलिंगन,
पुलक स्पशे का पता नहीं;
मधुयम चुंबन कातरतायें
आज न मुख को सता रहीं।
(37)
रत्न सौध के वातायन, जिनमें
आता मधु-मदिर समीर;
टकराती होगी अब उनमें
तिमिगलों की भीड़ अधीर।
( 38)
देव-कामिनी के नयनों से
जहाँ नील नलिनों की सृष्टि।
होती थी, अब वहाँ हो रही
प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।
( 39 )
देव-यजन के पशु यज्ञों की
वह॒ quigfr की ज्वाला,
बलनिधि में बन जलती कैसी
आज लहरियों की माला।
( 40 )
उनको देख कौन रोया यों
अंतरिक्ष में बैठ अधीर।
व्यस्त बरसे लगा अश्रुमय
"E ध्रालेय हलाहल नीर।
(41)
हा--हा--कार हुआ क्रन्दन. मय
कठिन कुलिश होते थे चूर;
हुए. दिगंत बधिर, भीषण . रव
बार-डार होता था क्रूर
n
जयशंकर प्रसाद | 118
(42)
पंचभूत का भरव मिश्रण,
शंपाओं के शकल--निपात,
उल्का लेकर अमर शक्तियाँ
खोज रही ज्यों खोया पात।
( 43)
बार-बार उस भीषण रव से
कपती धरती देख विशेष,
मानो नील व्योम उतरा हो
आलिंगन के हेतु अशेष!
( 44°)
उधर गरजती सिंधु लहरियां
कुटिल काल के जालों सी;
चली ` आ रही फेन उगलती
फन deam o 'ब्यालों सी।
( 45)
बढ़ने लगा विलास वेग सा
वह अति भरव जल संघात;
तरल तिमिर से प्रलय पचन का
होता आलिंगन, प्रतिघात । *
(46)
करका क्रन्द करती गिरती
और कुचलना था सब का;
पंचभूत का यह तांडवमय
qup हो रहा था कब्र का Ü
(47)
Egg नाव थी, और न उसमें
डॉड लगते, या पतवार ;
तरल तरंगों में उठ गिर कर
बहती पगली बारम्बार ।
116 | [हदी काम्य संग्रह
( 48 )
लगते प्रबल थपेड़े, घुँघले
तट का था कुछ पता नहीं;
कातरता से भरी निराशा
देख नियति पथ बनी वही।
( 49)
लहरे व्योम चूमती उठती;
चपलाऐ असंख्य नचती।
गरल जलद की खड़ी छड़ी में
di निज संसृति रचती।
(50)
चपलाएँ उस जलघि विश्व में
स्वयं चमत्कृत होती थीं।
जो विराट बाड़व ज्वाला
खंड-बंड हो रोती थीं।
(51)
घनीभूत हो उठे पवन, फिर
vam की गति होती रुद्ध;
और चेतना धी बिलखाती,
दृष्टि विकल होती थी क्रृद्ध।
(52)
उस विराट आलोडन में, ग्रह
तारा बुद-बुद से लगते।
प्रखर प्रलय पावस में जगमग,
wafer से जगते ।
(53)
प्रहर दिवस कितने बीते, अब
इसको कौन बता सकता।
इनके सूचक उपकरणों का
चिहून न कोई पा सकता।
--ऑॉलशाशिन्शिश 1
जयशंकर प्रसाद | 117
(54)
काला शासन चक्र मृत्यु का
कब तक चला न स्मरण रहा,
महा मत्स्य का एक चपेटा
दीन पोत का मरण रहा।
( 55)
किन्तु उसी ने ला टकराया
इस उत्तर-गिरि के शिर से,
देव सृष्टि का ध्वंस अचानक
sam लगा लेने फिर से।
( 56 )
आज अमरता का जीवित हे
मैं यह भीषण जर्जर दम्भ,
आह सग के प्रथम अंक का
प्रथम qu भय सा -विष्कंभ 1”
(57)
“ओ जीवन की मरु मरीचिका,
कायरता के अलस विषाद ।
अरे पुरातन अमृत ! अगतिमय
मोहमुग्ध जर्जर अवसाद ।
( 58)
मृत्यु, अरी चिरःनिद्रे ! तेरा
अंक हिमानी-सा शीतल,
तू अनंत में लहर बनाती
कार्ल-जलधि की-सी हलचल ।
( 59)
“महानृत्य का विषम सम, अरी
अखिल स्पंदनों की तू माप,
तेरी ही विभूति बनती है
सृष्टि सदा होकर अभिशाप ।
318 | हिंदी काव्य संग्रह
(60)
अंधकार के अट्टहास सी,
मुखरित सतत चिरंतन सत्य,
छिपी सृष्टि के कण-कण मैं तु,
यह सुन्दर रहस्य है नित्य।
(01)
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है
व्यक्त नील घन-माला मैं,
सौदामिनी--संधि सा सुन्दर
क्षण भर रहा उजाला में।”
( 62)
पवन पी रहा था शब्दो को
निजंनता की उखड़ी साँस,
टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि
बनी हिमशिलाओं के पास ।
(63)
घू-धू करता नाच रहा था
अनस्तित्व का तांडव नृत्य ;
आकर्षण विहीन विद्युत्कण
बने भारवाही थे भूत्य ।
['कामायनी से']
2. आँसु
बस गई एक बस्ती है स्मृतियों की इसी हृदय में
नक्षत्र-लोक फला. है जैसे इस नील निलय में | 1
ये सब स्फुलिग . हैं . मेरी इस ज्वालामयी जलन के
इछ शेष चिन्ह हैं केवल मेरे उस महा मिलन के। 2
शीतल ज्वाला जलती है-ईधन होता. दृग-जल का
यह व्यथं सांस चल-चलकर करती है काम अनिल का । 3
rs
जयशंकर प्रसाद | 119
वाडवज्वाला सोती थी इस प्रणय-सिन्धु के तल में
प्यासी मछली-सी आँखें थीं विकल रूप के जल में 14 |
बुलबुले सिन्धु के फूटे नक्षत्र-मालिका टूटी
नभ-मुक्त-कुन्तला धरिणी दिखलाई देती लुटी। 5
इस विकल वेदना को ले किसने सुख को ,ललकारा
वह एक अबोध अर्किचन बेतुध चैतन्य हमारा। 6
अभिलाषाओं की करवट फिर सुप्त व्यथा का जगना
सुख का सपना हो जाना भीगी पलकों का लगना। 7
इस हूदय-कमल का घिरना अलि-अलकों की उलझन में
आँसू wea का गिरना मिलना निश्वास पवन में। 8
मादक थी मोहमयी थो मन बहलाने की क्रीड़ा
अब हृदय हिला देती है वह मधुर प्रेम की पीड़ा। 9
जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई
दुदिन में आँसू बनकर वह आज बरसने आई। 10
रो-रोकर सिसक-सिसक कर कहता मैं करुण कहानी
तुम सुमन नोचते सुनते करते जानी अनजानी । 11
मैं बल खाता जाता था मोहित बेसुध बलिहारी
अन्तर के तार खिचे थे तीखी थी तान हमारी। 12
झंझा झकोर गर्जन .था बिजली थी, नीरद माला
पाकर इस शून्य हृदय को सब ने आ डेरा .डाला। 13
तुम सत्य रहे चिर सुन्दर मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन-संगी कल्याण कलित इस मग के। 14
गौरव था, नीचे आये प्रियतम मिलने को मेरे
मैं इठला उठा अकिचन, देखा ज्यों स्वप्न सबेरे। 15
मधु राका मुस्क्याती थी पहले देखा जज तुमको
परिचित-से जाने कब के तुम लगे उसी क्षण हमको । 16
परिचय राका जलनिधि का जैसे होता हिमकर से
ऊपर से किरणें आतीं मिलंती हैं गले लहर से। 17
120 | fett «rm संग्रह
मैं अपलक इत नयनों से निरखा करता उस छवि को
प्रतिभा डाली भर लाता कर देता दान सुकवि को। 18
पतझड़ था, झाड़ खड़े थे, सूखी सी फुलवारी में
किसलय नव कुसुम बिछाकर आये तुम इस क्यारी में। 19
शशि-मुख पर घुँघट डाले अंचल में दीप fev
जीवन की गोधूली में कोतूहल से तुम आये। 20
घन में सुन्दर बिजली-सी बिजली में चपल चमक-सी
आँखों में काली पुतली पुतली में श्याम झलक dia 21
प्रतिमा में सजीवता सी बस गई सुछवि आँखों में
थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में। 22
माना कि रूप सीमा है सुन्दर तब चिर यौवन में
पर समा गये थे, मेरे मन के निस्सीम गगन में। 23
लावण्य-शेल राई सा जिस पर वारी बलिहारी
उस कमनीयता कला की सुषमा थी प्यारी-प्यारी। 24
बांधा था विधु को किसने इन काली ज॑ंनीरों से
मणि वाले फणियों का मुख क्यों भरा हुआ हीरोंसे। 25
काली आँखों में कितनी यौवन के मद की लाली
मानिक-मदिरा से भर दी किसने नीलम की प्याली? 26
विद्म सीपी सम्पुट में मोती के दाने कैसे
है हंस न, शुक यह फिर क्यों चुगने को मुक्ता ऐसी? 27
विकसित सरसिज-बन वैभव मधु-उपा के अंचल में
उपहास करावे अपना जो हसी देख ले पल में? 28
मुख-कमल समीप सजे थे दो किसलय से पुरइन के
जल बिन्दु सदृश ठहरे कब उन कानों में दुख किनके 29
चंचला स्नान कर आवे चन्द्रिका qd में जैसी
उस पावन ,तन की शोधा आलोक मधुर थी ऐसी । 30
छलना थी, तब भी मेरी उसमें विश्वास धना था
उस माया की छाया में कुछ सच्चा स्वयं बना था । 31
वह रूप गवं था केवल या हृदय रहा भी उसमें
जडता की सब माया थी dau -समझकर - मुझमें । 32
जयशंकर प्रसाद | 121
मेरे जीवन की उलझन बिखरी थी उनकी अलके
पी ली मधु मदिरा किसने थीं बन्द हमारी पलक ? 33
विष प्याली जो पी ली थी वह मदिरा बनी तयन में
सौन्दयं पलक प्याले का अब प्रेम बना जीवन में | 34
मादकता से आये तुम संज्ञा से चले गये थे
हम व्याकुल पड़े बिलखते, थे उतरे हुए नशे से। 35
नाविक ! इस सूने तट पर किन लहरों में खे लाया
इस digg बेला में क्या अब तक था कोई आया । 36
उस पार कहाँ फिर जाऊं तम के मलीन अंचल में
जीवन का लोभ नहीं, वह॒ वेदना छद्म-मय छल में | 37
प्रत्यावर्तन के पथ में पद-चिन्ह न शेष रहा है
डूबा है हृदय मरुस्थल आँसू नद उमड़ रहा है। 38
चमकँगा धूल कणों में सौरभ हो उड़ जाऊंगा
पाऊंगा कहीं तुम्हें तो ग्रह-पथ में टकराऊगा । 39
सब सुमन मनोरथ अंजलि बिखरा दी इन चरणों में
कुचलो न कीट सा इनके कुछ है मकरन्द कणों में | 40
दुख-सुख में उठता गिरता संसार तिरोहित होगा
मुड़ कर न कभी देखेगा किसका हित अनहित होगा । 4
होलानी
मानव जीवन वेदी पर परिणय हो विरह-मिलन का
दुःख-सुख दोनों amu है खेल आँख का मन का । 42
['आँसु' से]
3. ले चल वहाँ
ले चल वहाँ भुलावा देकर,
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ?
जिस fada में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी...
निण्छल प्रेम-कथा कहती हो,
तज कोलाहल की अवनी रे !
122 | हिंदी काव्य संग्रह
जहाँ साँझ-सी जीवन छाया,
ढो ले अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो,
ताराओं की पाँति घनी रे
जिस गम्भीर मधुर छाया HU
विश्वः चित्र-पट चल माया में
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई,
दुख-सुख वाली सत्य बनी रे !
श्रम-विश्राम क्षितिज-बेला से"
web सुजन करते मेला"
अमर जागरण उषा नयन सेः“
बिखराती हो ज्योति घनी रे" ।
4. मधुमय देश
अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को, मिलता एक सहारा ।
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर ।
छिटका जीवन हरियाली पर--मंगल कुंकुम सारा।
लघु सुरधनु से पंख पकारे -शीतल मलय समीर सहारे ।
उड़ते खग जिस ओर मुंह किये-समझ नीड़ निज प्यारा ।
बरसाती आंखों के बादल--बनते जहां भरे करुणा-जल ।
लहरें टकरातीं अनन्त की--पाकर जहां किनारा ।
हेम कुम्भ से उषा सवेरे-भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊंघते रहते जब--जग कर रजनीभर तारा ।
अरुण यह मधुमय देश हमारा !
८ -5- शद्धा का गीत,
`` तुमुल कोलाहलं कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!
विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल, :
चेतता थक-सी रही we,
मै मलय की बात रे मन!
RRC ERS SNS dre t
. जयशंकर प्रसाद | 123
चिर-विषाव, विलीन मन की,
इस ब्यथा के तिमिर-वन की,
मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,
कुसुम-विकसित प्राप्त रे मन ! Sid
जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन घाटियो की,
मैं सरस बरसात रे मन !
पवन की प्राचीर में रुक,
जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते विश्व दिन की,
मैं कुसुम-ऋतु-रात रे मन !
चिर-निराशा नीरधर से
प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,
मधुप मुखर मरन्द मुक्लित,
मैं सजल जलजात रे मन !
6. सुवासिनी का गौत
तुम कनक-किरण के अन्तराल में
लुक-छिपकर चलते हो क्यों ?
नत-मस्तक "d वहन करते
यौवन के घत, रस कन ढरते,
हे लाज-भरे, सौन्दर्य!
बता दो मौन बने रहते हो क्यों ?
अधरों के मधुर कगारों में
कल-कल ध्वनि की गुंजारों में
मधुसरिता-सी. ` यह हंसी,
तरल अपनी पीते रहते हो क्यों?
बेला विभ्रम की बीत चली,
रजनीगन्धा की कली खिली,
अब सान्ध्य-मलय आकुलित
दुकूल-कलित हो, यों छिपते हो क्यों?
124 | हिंदी काव्य संग्रह
7. पेशोला की प्रतिध्वनि
करुण करुण विम्ब |
यह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन-पिण्ड !
विकल विवतंनों से
विरल c प्रवतंनों में
fag नमित सा--
पश्चिम के व्योम में है आज निरलम्ब-सा ।
आहुतियाँ विश्व की अजन्न से लुटाता रहा--
सतत ES कर-माल से--
तेल ओज बल जो वदान्यता कदम्ब-सा ।
पेशोला की उभियाँ हैं शान्त, घनी छाया में--
तट-तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में ।
झोपडे खड़े हैं बने शिल्प से विषाद के
दग्ध अवसाद से ।
धूसर जलद-खंड भटक पड़े हैं,
जेसे विजन अनन्त में।
कालिमा विखरती संध्या के कलंक-सी
दुन्दुभि-मृदंग-तूयं शान्त, स्तब्ध मौन हैं ।
फिर भी पुकार-सी है गूंज रही ब्योम में-
“कौन लेगा भार यह?
कोन विचलेगा नहीं?
दुर्बलता इस अस्थिमाँस की--
ठोंक कर लोहे से, परख कर qu से,
प्रलयोल्का--खण्ड के निकष पर कस कर
चूर्ण अस्थि-पुंज-सा हँसेगा अट्टहास कौन ?
साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर हो के
धूलि-सी उड़ेगी किस दृप्त फुत्कार से।
कौन लेगा भार यह ?
जीवित है कौन?
ufa चलती है किसकी
कहता है कोन ऊंची छाती कर, मैं हैं --
--मैं हँ--मेवाड़ में
आरावली श्वंग-सा समुन्नत सिर किसका ?
बोलो, कोई बोलो अरे क्या तुम सब मृत हो?
आह, इस खेवा की ।--
कौन थामता है पतवार ऐसे अन्धड में ।
अन्धकार--पारावार गहन नियति सा--
उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो ।
खीच ले चला है-
काल-धीवर अनन्त में
साँस सफरी-सी अटकी है किसी आशा में ।
आज भी पेशोला के--
तरल जल-मण्डलों में
वही शब्द घुमता सा
गूंजता विकल है ।
किन्तु वह ध्वनि कहाँ ?
गौरव की काया पड़ी माया है प्रताप की
वही मेवाड़ !
किन्तु आज प्रतिध्वनि कहाँ ?
जयशंकर प्रसाद | 125
नयंकान्त त्रिपाठी निराला
1. जुही की कली
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहागभरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल-कोमल-तनु-तरुणी-- जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल--पत्ांक में,
वासन्ती निशा थी,
विरह-विधुर-प्रिया संग छोड़,
किसी दूर देश में था पवन,
जिसे कहते हैं मलयानिल ।
आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आयी याद चांदनी की धुली हुई आधी रात,
भायी याद कान्ता की कपित कमनीय गात,
फिर qur ? पवन
उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन
कुंज-लता-पुंजो को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की केलि
कली-खिली-साथ 1
सोती थौ,
जाने कहो कंसे प्रिय-आगमन वह ?
नायक ने चूमे कपोल
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिडोल ।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालय वंकिम विशाल नेत्र qi रही--
“किवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,
कोन कहे?
सूयंकान्त त्रिपाठी निराला | 127
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की,
कि झोंकों की झाड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिए गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती,
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नञ्जमुखी हंसी-खिली,
खेल रंग,प्यारे-संग ।
[निराला रचनावलो से]
2. भिक्षुक
बह बाता--
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता d
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी-भर दानें को--भूख मिटाने को
मुंहफटी-पुरानी झोली को फैलाता--
>>>