[PDF]Mahaanaarayand-a Upanishhada

[PDF]Book Source: Digital Library of India Item 2015.369524dc.contributor.author: Mahaanaarayand-adc.date.accessioned: 2015-09-07T21:12:40Zdc.date.available: 2015-09-07T21:12:40Zdc.date.digitalpublicationdate: 2005-12-03dc.date.citation: 1888dc.identifier.barcode: 2030020016348dc.identifier.origpath: /data7/upload/0181/653dc.identifier.copyno: 1dc.identifier.uri: http://www.new.dli.ernet.in/handle/2015/369524dc.description.scanningcentre: RMSC, IIIT-Hdc.description.main: 1dc.description.tagged: 0dc.description.totalpages: 92dc.format.mimetype: application/pdfdc.language.iso: Sanskritdc.publisher.digitalrepublisher: Digital Library Of Indiadc.publisher: Nira~naya Saagara~ Presa~dc.rights: OUT_OF_COPYRIGHTdc.subject.classification: Philosophy. Psychologydc.title: Mahaanaarayand-a Upanishhada

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महानारायणोपनिषत्‌


महानारायणोपनिषत्‌


ओम। नमो महते नारायणाय ॥ अम्भस्यपारे भुवनस्य
मध्ये नाकस्य पृष्ठे महतो महीयान्‌ । शुक्रेण ज्योतींषि
समनुप्रविष्टः प्रजापतिश्चरति गभं अन्तः ॥ १॥ यसि-
निदं सं च वि चेति सवै यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः ।
तदेव भूतं तदु भव्यमानमिदं तदक्षरे परमे व्योमन्‌ ॥ २ ॥
येनावृतं खं च दिवं मही च येनादित्यस्तपति तेजसा भ्रा-
जसा च । यदन्तः समुद्रे कवयो वदन्ति तदक्षरे परमे प्र
जां; ॥ ३ ॥ यतः प्रसूता जगतः प्रसूती तोयेन जीवा-
न्विससजे भूम्याम्‌ । यंत ओषधीभिः पुरुषान्पशृंश्च वि-
वेश भूतानि चराचराणि ॥ ४ ॥ अतः परं नान्यदणी-
यसं हि परात्परं यन्महतो महान्तम । यदेकमव्यक्तमन-
न्तरूपं विश्वं पुराणं तमसः परस्तात्‌ ॥ ५॥ तदेवक्षै तदु
सत्यमाहुस्तदेव बह्म परमं कवीनाम । इष्टापूत्ते बहुधा
जातिं जायमानं विश्वं बिभति सुवनस्य नाभिः ॥ ६ ॥
तदेवाचिस्तद्वायुस्तष्सूयेस्तदु चन्द्रमाः । तदेव शुकममूतं
तद्रह्य तदापः स ग्रजापतिः ॥ ७ ॥ सव निमेषा जजिरे
विद्युतः पुरुषादधि । कठा सुहत; काष्टाश्राहो रात्राश्च
सर्वेशः ॥ ४ ॥ अद्खेमासा मासा ऋतवः संवत्सरश्च क-
त्पताम्‌ । स जापः म्रदुधे उभे इमे अन्तरिक्षमयो सवः


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२ उपनिषदि २ खण्डः ।


॥ ९ ॥ नेनमध्वं न तियेच्चं न मध्ये परिजग्रभ। न
तस्येशे कश्चन तस्य नाम महद्यशः ॥ १० ॥ न सन्हशे
तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनेनम । हदा
मनीषा मनसाभिकृप्नो य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति
॥ ११ ॥ अद्यः सम्भूतो हिरण्यगभे इत्य्टो ॥१२॥१॥


ष हि देवः म दिशोऽनु सवाः पूर्वो हि जातः
उ गँ अन्तः । स विजायमानः स जनिष्यमाणः प्रत्य-
खस्िष्ठति सवेतो्मखः ॥ १ ॥ विश्वतश्चक्षरुत विश्व-
तोमखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्‌ । सं बाहुभ्यां धम-
ति सं पतत्रेद्योवापृरथिंवी जनयन्देव एकः ॥ २ ॥ वेन-
स्तत्पश्यन्विश्वा भवनानि विद्वान्यत्र विश्वं भवत्येकनी
डम्‌ । यस्मिन्निदं संचविचेकं स ओतं; तश्च विभुः
प्रजासु-॥ ३ ॥ म्र तद्वोचे असतं न विद्वान्‌ गन्धवा नाम
निहितं गुहास । चीणि पदा निहिता गुहास यस्तद्वेद
स पितुः पितासत्‌ ॥ ४ ॥ स नो बन्धुजेनिता स विधा-
ता धामानि वेद भुवनानि विश्वा । यत्र देवा अमूृतत-
मानशानास्तृतीये धामान्यभ्येरयन्त ॥ ५॥ परि द्यावा-
पृथिवी यन्ति सद्यः परि लोकान्परि दिशः परि सुवः
ऋतस्य तन्तुं विततं विवृत्य तद्पश्यतदभवतत्मजासु ॥६॥
परीत्य लोकान्परीत्य भूतानि परीत्य सवाः म्रदिशो दि-

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7, 6. ग्भूमी ^. 8.0 7.7. 7 ओत. 0. 8. अमृतं २।॥
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उपनिषदि ३ खण्डः । ३


शश्च ५ प्रजापतिः परथमजा ऋतस्यातमनात्मानमभिस-
म्बभूव ॥ ७ ॥ सदसस्पतिमञ्खुतं मरियमिन्द्रस्य काम्यम्‌ ।
सनि मेधामयासिषम्‌ ॥ ४ ॥ उदीप्यस्व जातवदोऽपद्च-
न्निच्छति मम । पशृंश्च मद्यमावह जीवनं च दिशो दि.
शं: ॥ ९॥ मानो हिसीज्नातवेदो गामश्वं पुरुषं जग-
त्‌ । अबिभ्रदग्न जागहि जिया मा परिपातय ॥१०॥२॥


तत्पुरुषस्य विद्यहे सहखाक्षस्य महादेवस्य धीमहि ।
तन्नो रुद्रः पमरचोदयात्‌ ॥ १ ॥ तत्पुरुषाय विद्महे महद्‌-
वाय धीमहि । तनो रुद्रः मचोदयात्‌ ॥ २ ॥ तद्युरुषाय
विद्यहे नन्दिकेश्वराय धीमहि । तन्नो वृषभः प्रचोदयात्‌
॥ ३ ॥ तत्पुरुषाय विद्महे वक्नुण्डाय धीमहि । तन्नो
दन्ती मचोदयात्‌ ॥ ४ ॥ षण्मुखाय विद्महे महासेनाय
धीमहि । तन्नः षष्ठः मरचोद्‌्यात्‌ ॥ ५ ॥ पावकाय विद्य-
हे सप्रजिह्लाय धीमहि । तन्नो वैश्वानरः चोदयात्‌ ॥६॥
वैश्वानराय विद्महे खाठेलाय धीमहि । तन्नो अधिः म्र


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नाय विह हिरण्यगभौय धीमहि । तश्नो ब्रह्मा प्रचोदयात्‌ ॥ वञ्जण-
खाय विद्महे तीक्ष्णदंष्राय धीमहि । तन्नो नारसिद. प्रचोदयात्‌ ॥ ॥'
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2180 1116 णि] .- नवकुखाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि । तन्नः
सपेः प्रचोदयात्‌ ॥


¢ उपनिषदि ४. खण्डः ।


चोदयात्‌ ॥ ७ ॥ भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीम-
हि । तन्नः सूयेः मचोदयात्‌ ॥ ४ ॥ दिवाकराय विद्महे
महाद्युतिकराय धीमहि । तन्न आदित्यः प्रचोदयात्‌ ॥९॥
आदित्याय विद्महे सहस्रकिरणाय धीमहि । तन्नो भानुः
प्रचोदयात्‌ ॥ १० ॥ तीक््णशुंगाय विद्महे वक्रपादाय
धीमहि । तन्नो वृषभः प्रचोदयात्‌ ॥ ११ ॥ काल्यायन्ये
विद्महे कन्यकुमार्यै धीमहि । तन्नो दुगा मचोदयात्‌॥१२॥
महाशूलिन्ये विद्यहे महादुगोये धीमहि । तनो भगव-
ती मचोदयात्‌ ॥ १३ ॥ सुभगाय विद्महे काममालिन्ये
धीमहि । तन्नो गोरी प्रचोदयात्‌ ॥ १४ ॥ तत्पुरुषाय
विद्महे सुपणेपक्षाय धीमहि । तन्नो गरुडः प्रचोदयात्‌
॥ १५ ॥ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि । तन्नो
विष्णुः मचोदयात्‌ ॥ १६ ॥ नृसिंहाय विद्यहे व्ननखा-
य धीमहि । तनः सिंहः मचोदयात्‌ ॥ १७ ॥ चतुमुखा-
य विद्महे कमण्डलुधराय धीमहि । तन्नो बरह्मा ्रचो-
दयात्‌ ॥ १४॥ ३ ॥

सहस्रपरमा देवी शतमूला शतांकुरा । सवे हरतु मे
पापं दूवां दुःसखभ्रनाशिनी ॥ १ ॥ दूवां अमूतसम्भूताः
शतमूला शतांकुराः । शतं मे श्चन्ति पापानि शतमा-
युर्विवद्धेतिं ॥ २ ॥ काण्डाक्ताण्डान्मरोहन्ती परुषः प-
रुषः परि । एवा नो दृव रतनु सहस्रेण शतेन च ॥ ३ ॥
जश्वकान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे । शिरसा धा-


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उपनिषदि ५ खण्डः ५


रिता दैवि रक्षसं मां पदे पदे ॥ ४॥ उद्धतासि वराहेण
कष्णन शतबाहुना । भूमिर्धनुधेरिन्री च धरणी लोकधा-
रिणी । तेन या ब्रह्मदत्तासि काश्यपेनाभिमन्तिततां ॥ ५॥
मृल्लिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्‌ । त्रया हतेन
पापेन जीवामि शरदः शतम्‌ ॥ ६ ॥ वाचा कृतं कमे-
कृतं मनसा दुविचिन्तितम । त्वया हतेन पापेन ग-
च्छामि परमां गतिम । मृत्तिके देहि मे पुष्टिं त्यि सवे
प्रतिष्ठितम्‌ ॥ ७ ॥ गन्धद्वारां दुराधरषां नित्यपुष्टां करी-
षिणीम । इश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्यये ियम्‌॥ ४॥
जो भूलैक्ष्मीमुवलेक्ष्मीः सुवःकालकर्णी तन्नो महाल-
हमीः प्रचोदयात्‌ ॥ ९ ॥ पद्यपरभे पद्यसुन्दरि धंमेरतये
स्वाहा ॥ १० ॥ हिरण्यशृगं वरुणं परपद्य तीथ मे देहि
याचितः । यन्मया मुक्मसाधूनां पापेभ्यश्च प्रतिग्रहः
॥ ११ ॥ यन्मे मनसा वाचा कमेणा वा दुष्कृतं कृतम्‌ ।
तन्मे इन्द्रो वरुणो बहस्पतिः सविता च पुनन्तु पुनः पुनः
॥ १२ ॥ सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु दुभित्रि-
यास्तसमे भूयासुयोंऽसान्दवेष्टि यं च वयं हविष्मः॥१३। ४॥


नमोऽग्रयेऽसुंमते नम इन्द्राय नमो वरुणाय नमो
वारुण्ये नमोऽग्यः । यदपां कूरं यदमेध्यं यदशान्तं तद-


1 भां रक्षस्व ^). 2 भूमिस्त्वं धेजुधरणी धरित्री रोकधारि-
णी । (~. 3. (115 11716 701 7) [. (; 7 प्रणा ग 0 4 4
8. ¢. 0. गा 75 176. 5. 7. @1968 ९150 धमेकृतये; ^. (,
156 "ऋषये, 14 7. "ऋतये. 6 1 1४१९ (०प्ुद्लप््ाफ ऽप)
11160 1116 ८70/074/॥4, 1116 88. 1९६५ सुमते 1४ 18 1101 110110८
11) 2, {116 वप्त 198 अप्सुमते,


६ उपनिषदि ५ खण्डः ।


पगच्छतात्‌ ॥ १ ॥ अत्याशनादतीपानाद्यच्च उग्राल्म-
तिग्महात्‌ । तन्मे वरुणो राजा पाणिना द्यवमशेततु ॥ २ ॥
सोऽहमपापो विरजो निमेषो म॒क्तकिरिबषः । नाकस्य
पृष्ठमारुह्य गच्छेद्रहयसलोकतामः ॥ ३ ॥ इमं मे गंगे य-
म॒ने सरस्वति शुतुद्धि स्तोमं सचता परुष्ण्या । असिक्तया
मसुद्रधे वितस्तयार्जीकीये शणुद्या सुषोमया ॥ ४॥ ऋ-
तं च सत्यं चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत । तता रात्यजाय-
त ततः समद्रो अणेवः ॥ ५॥ समद्रादणेवादधि संव-
त्रो अजायत । अहोराचाणि विदधद्विश्वस्य मिषतो
वशी ॥ ६ ॥ सूयाचन्द्रमसो धाता यथापूवेमकल्पयत्‌ ।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिष्िमथो स्वः ॥ ७ ॥ यत्पुथिव्या
रजः स्वमान्तरिक्षे विरोदसी । इमास्तदापो वरुणः पु-
नाव्धमषेणः ॥ ४ ॥ एष सवेस्यं भूतस्य भव्ये मुवनस्य
गोप्रा । एष पुण्यकृतां लोकानेष मृत्यो हिरण्मयः । द्या-
वापएथिव्योहिरण्मयं संशुतं सुवः । स नः सुवः सशिशा-
धि ॥ ९ ॥ जाद ज्वलति ज्योतिरहमस्ि । अ्योतिञ्वे-
लति बह्याहमसि । योऽहमसि ब्ह्याहमसि । अंहमे-
वाहं मां जहोमि स्वाहा ॥ १० ॥ अकायेकायेवकीणीं
स्तनो भ्रणहा गुरुतल्पगः । वरुणोऽपामघमषेणस्तस्ा-
त्यापाद्ममच्यते ॥ ११ ॥ रजो भमिस्व्मोरादयस्व प्रव-
दन्ति धीराः । पनन्त ऋषयः पनन्त वसवः पुनातु व-
रुणः पुनात्रघमषेणः ॥ १२ ॥ ५॥


1. दुष्टात्‌ 1. 2 [०५६ ५. 160८116 परुष्णिया? 3. रात्निः ^. 0.
4, ०४70 4 8. 5. संखतं ^. 3. 0. ). 6. स्वयमेवाहं ^. 8.0. 7.











उपनिषदि ७ खण्डः । ७


अक्रान्समुद्रः प्रथमे विधमेन्‌ जनयन्भजा भुवनस्य
राजा । वृषा पविच्रे अधि सानो अय्ये ब्रहप्सोमो वावध
सुवान इन्दु; ॥ १ ॥ जात्तवेदसे सुनवाम सोममराती
यतो निदहाति वेदः । स नः पषेदति दुगोणि विश्वा
नावेव सिन्धुं दुरिताव्यञ्चिः ॥ २ ॥ तामधिवणा तपसा
ज्वलन्तीं वैरोचनीं कमंफटेष ज॒ष्टाम्‌ । दुगौ देवीं शर-
णमह पप्य संतरसिद्धतरसे नमः ॥ ३ ॥ अमे चं पा-
रथा नव्यो अस्मान्‌ स्वस्तिभिरति दुगाोणि विश्वा । पश्च
पृथ्वी बहुला न उवी भवा तोकाय तनयाय शंयोः ॥ ४॥
विश्वानि नो दुगेहा जातवेदः सिन्धुने नावा दुरिताति-
पि । अग्रे अन्निवनरमसा गृणानोऽस्माकं बोध्यविता
तननाम ॥ ५॥ परतनाजितं सहमानमभिसग्रं हवेम
परमात्सधस्थात्‌ । स नः पषेदतिदुगाणि विश्वा क्षाम-
देवो अतिदुरितात्यञ्चिः ॥ £ ॥ रलो हि कमील्यो अ-
ध्वरेष॒ सनाच होता नव्यश्च सत्सि । स्वा चाने तन्वं
पिप्रयस्वासभ्यं च सोभगमायजस् ॥ ७ ॥ परस्ताद्यशाो
गुहास मम सुपणेपश्ाय धीमहि । शतबाहुना पनर-
जायत सवो राजा सधस्या जचीणिच॥ ६ ॥


ओं भर्रये प्रथिव्ये सखाहा । भवो वायवेऽन्तरिक्षाय
स्वाहा । सवरादित्याय दिवे स्वाहा । भभेवःस॒वश्चन््धमसे
दिग्भ्यः खाहा । नमो देवेभ्यः सख्धा पितृभ्यो भूभेवःस-
1. सुतरसि तरसे 8.0. 2 सिन्धु ^. 3. ^. 5; अजिव


न्मनसा 7. 4, तनुवे ) 7? 5. पिप्रायस्व ^. 3 (. 6. परथ-
मः.खण्डः । ^. 3. ^. 7 सधस्थात्‌ ॥


¢ उपनिषदि ४ खण्डः ।


वर्िरोम्‌ ॥ १ ॥ भूरन्रमग्मये एथिव्ये स्वाहा । भुवो ऽन
वायवेऽन्तरिक्षाय स्वाहा । सुवरन्नमादित्याय दिवि खा-
हा । भूभुवःसुवरनं चन्द्रमसे दिग्भ्यः स्वाहा । नमो दे.
वेभ्यः स्वधा पितृभ्यो भूगुवःसुवरन्रमोम्‌ ॥ २ ॥ भूरम्रये
च पृथिव्ये च महते च सराहा । भुवो वायवे चान्तरिक्षाय
च महते च स्वाहा । सुवरादित्याय च दिवि च महते च
सवाहा । भूभौवःसुवश्नन्द्रमसे च नछतरेभ्यश्च दिग्भ्यश्च म-
हते च सराहा । नमो देवेभ्यः स्रधा पितृभ्यो भूभुवःसुव-
मेहसरोम्‌ ॥ ३ ॥ पाहि नो अभ्र एनसे स्वाहा ! पाहि
नो विश्ववेदसे सखराहा । यज्ञं पाहि विभावसो खाहा ¦
सवै पाहि शतकतो स्वाहा ॥ ४ ॥ यश्छन्दसामृषभो
विश्वरूपश्डन्दोभ्यश्डन्दास्थाविवेश । सतां शक्यः मो-
वाचोपभिषदिद्द्रो जयेष्ठ इन्द्राय ऋषिभ्यो नमो देवेभ्यः
स्वधा पितृभ्यो भूभुवःसुवश्डन्द ओम ॥ ५॥ नमो ब-
हणे धारणं मे अस्वनिराकरणं धारयिता भूयासं कणे-
योः श्चुतं मा च्योढं ममामुष्य जमः ॥ ६ ॥ ७ ॥

ऋतं तपः स्यं तपः श्रुतं तपः शान्तं तपो दानं त-
पो यज्ञस्तपो भूभृवः सुव्ह्ेतदुपास्येतततपः ॥ १ ॥ य-
था वृक्षस्य सम्पुष्पितस्य दूराद्गन्धो वाल्येवं पुण्यस्य कमे-
णो दूरा्न्धो वाति । यथासिधारां क्तंऽवहितामवक्रा-
मेद्य बेह वेहवा विह्वरिष्यामि कत्ते पतिष्यामीत्येवम-
नृतादात्मानं जुगुप्तेत्‌ ॥ २ ॥ अणोरणीयान्महतो मही-


1. शिक्यः ?. 2. अवकामेत्‌ 11 ४"! 7. 5. यद्यतेदवा ^. 8.
(\, }).


उपनिषदि ९ खण्डः । ९


यानाम गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः । तमक्रतुं पश्यति
वीतशोको धातुः मसादान्महिमानमीशम ॥ ३ ॥ सन्न
प्राणाः म्रभवन्ति तस्मात्सप्ताचिषः समिधः सप्र जिल्ला ।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः
सप्र सत्र ॥ 8 ॥ जतः समुद्रा गिरयश्च सवं अस्मात्स्य-
न्दन्ते सिन्धवः सवैरूपाः । अतश्च विश्वा ओषधयो रं-
सश्च येनेष भूतेसि्ठते ह्यन्तरात्मा ॥ ५॥ ४ ॥


ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिरविप्राणां महिषो
मृगाणाम । श्येनो गृभाणां स्वधितिवेनानां सोमः प-
विरमति रेभन्‌ ॥ १ ॥ अजामेकां लोहितशुङ्खकृष्णां
बह्वी प्रजां जनयन्तीं सरूपाम्‌ । अजो ह्येको जुषमाणो
ऽनशेते जहाव्येनां भ॒क्तभोगामजोऽन्यः ॥ २ ॥ हंसः श-
चिषद्नसरन्तरिकसद्वोता वेदिषदतिथिदुंरोणसत्‌ । नृषद्व-
रसहतसब्योमसदञ्ला गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत्‌
॥ ३ ॥ यस्ान्न जातः परो अन्यो अस्ति य जाविवेशं
भुवनानि चिश्चा । प्रजापतिः म्रजया संविदानसख्रीणि
ज्योतींषि सचते स षोडशी ॥ ४॥ विंधत्तोरं हवामहे व-
सोः कविद्वनाति नः । सवितारं नृचक्षसम्‌ ॥ ५ ॥ अ-
द्या नो देव सवितः मजावत्सावीः सोभगम । परा दु
ष्व्चियं सुव ॥ ६ ॥ विश्वानि देव सवितदैरितानि परा-
सव । यद्द्र तनन आसव ॥ ७ ॥ मधु वाता ऋतायते
मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीनेः सन्त्लोषधीः ॥ ४ ॥


1. धातुप्रसादात्‌ 1६ 21) 170 ५. 28 ४ 0110121. 2. रसश्च ^.


1. 3. ५. 2१८5 विभक्तारं ४8 ४ ९211111,
क्‌


१० उपनिषदि १० खण्डः ।


मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्याधिवं रजः । मधु शोरस्त
नः पिता ॥ ९ ॥ मधुमान्नो वनस्पतिमेधुर्मों जस्तु स्‌-
येः । माध्वीगोवो भवन्तु नः ॥ १० ॥ धृतं मिमिक्षे घु-
तमस्य योनिंधृते चितो घृतम्वस्य धाम । अनुष्वधमाव-
ह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम्‌ ॥ ११ ॥ स-
मुद्रादूमिमेधुमों उदारदुपांशुना सममृतत्रमानट्‌ । धु-
तस्य नाम गुद्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभिः
॥ १२ ॥ वयं नाम अर्रवामा धुतस्यास्िन्यज्ञे धारयामा
नमोभिः । उप ब्रह्मा शृणवच्छस्यमानं चतुःशुगोऽवमी-
ज्ञोर एतत्‌ ॥ १३ ॥ ९ ॥

चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा इ्े शीषे सत्त हस्ता-
सो जस्य । जिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो म-
त्था आविवेश ॥ १ ॥ ्रिधा हितं पणिभिगुद्यमानं ग-
वि देवासो घुतमन्वविन्दन्‌ । इन्द्र एकं सूये एकं जजा-
न वेनादेकं स्वधया निष्टतक्षुः ॥ २ ॥ यो देवानां मरथ-
मं पुरस्ता्िश्वाधिको सद्रो महषः । हिरण्यगमे पश्य-
त जायमानं स नो देवः शुभया स्मृत्या संयुनक्ति ॥ ३॥
यस्मात्परं नापरमसि किच्चिद्यस्मान्नाणीयो न ज्यायो
ऽस्ति कश्चित्‌ । वृष उव स्तो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं
पूणे पुरुषेण सवेम्‌ ॥ ४ ॥ न कमेणा न प्रजया धनेन
त्यागेनेके अमृतत्वमानशुः । परेण नाकं निहितं गुहा-
यां विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति ॥ ५॥ वेदान्तविनज्ञानसु-
निशिताः सन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्लाः । ते बह्य-
1. धृतेन 7 7 9. स्वाहाधृतं 7.7. 3. धृतेन 1] ८८ 7


उपनिषदि ११ खण्डः । ११


लोकेषु" परान्तकाङे परामृताः परिमुच्यन्ति सवे ॥ ६ ॥
दहं विपाप्मं वरं वेश्मभूतं यत्पुण्डरीकं पुरमध्यसंस्य-
म । तत्रापि दहं गगनं विंशोकस्तस्मिन्यदन्तस्तदुपासि-
तव्यम्‌ ॥ ७ ॥ यो वेदादो स्वरः पोक्तो वेदान्ते च प्रति-
ष्ठितः । तस्य प्रकृतिलीनस्य यः परः स महेश्वरः ॥ ४॥
जजोऽन्यः सुविभा नाभिः सवैमस्येवं ॥ १० ॥


सहखशीषे देवं विश्वाख्यं विश्वशम्भुवम्‌ । विश्वं ना-
रायणं देवमक्षरं परमं प्रभुम ॥ १ ॥ विश्वतः परमं नि-
यं विश्वं नारायणं हरिम । विश्वमेवेदं पुरुषस्तद्विश्वमुप-
जीवति ॥ २ ॥ पति विश्वस्याल्मेश्वरं शाश्वतं शिवमच्यु-
तम्‌ । नारायणं महाज्ञेयं विश्वात्मानं परायणम ॥ ३ ॥
नारायणः परं बह्मत्ं नारायणः परः । नारायणः प-
रो ज्योतिरात्मा नारायणः परः ॥ ४ ॥ नारायणः परो
ध्याता ध्यानं नारायणः परः । परादपि परश्चासु त-
स्माद्यस्तु परात्परः ॥ ५॥ यच्च किंञ्चिजगत्यसिन्ह श्य-
ते श्रुयतेऽपि वा । अन्तबेहिश्च तत्सव व्याप्य नारायणः
स्थितः ॥ ६ ॥ अनन्तमव्ययं कविं समुद्रेतं विश्वशम्भु-
वम्‌ । पद्यकोशगतीकाशं सुषिरं चाप्यधोमुखम्‌ ॥ ७ ॥
अधोनिंछया वितस्यां तु नाभ्यामुपरि षिष्ठति । हृद्यं
तद्विजानीयाह्विश्वस्यायतनं महत्‌ ॥ ४ ॥ सततं तु शि


1 दहरं ^+ 8 (^) 2 वर ^+ ए (^ 3 खुवभां ^+ 7
(1, 80 ०न्॒ 0, एप 11 128 एव्ला ४1{6€त्‌ {० सुविभाति विश्व. +
148 सुविभां. 4 ^ 3 © 2. ४0१ योनि च. 5 परश्चास्तु ^
807 6 समुद्रेऽन्तं(^ 7. हदयं). 8. दघ्या ^ (^


१२ उपनिषटि १२ खण्डः ।


राभिस् छम्बत्याकोशसनिभम । तस्यान्ते सषि सूष्मं
तस्िन्त्सवै मरतिषहितम्‌ ॥ ९ ॥ तस्य मध्ये महानचिर्धि
श्ाचि्विश्वतोमुखः । सोऽग्रसुग्विभिजंस्िष्ठनाहारमश्षयः
कविः ॥ १० ॥ सन्तापयति सवं देहमापादतलमस्तकम्‌ ।
तस्य मध्ये बहिशिखा अणीयोध्वां ववस्थिता ॥ ११ ॥
नीलतोयदमध्यस्या विद्युद्ेखेव भासुरा । नीवारशुक-
व्तन्वी पीताभा स्याल्नूपमा ॥ १२ ॥ तस्याः शिखा-
या मध्ये परमात्मा व्यवसितः! स ब्रह्य स शिवः से-
न्धः सोऽक्षरः परमः स्वराट्‌ ॥ १३ ॥ अथातो योग जि-
ह्ला मे मधुवादिनी । अहमेव कालो नाहं कास्य ॥१४॥
नारायणः स्थितो व्यवस्यितश्चत्रारि च ॥ ११ ॥

ऋतं सव्यं परं बह्म पुरुषं कृष्णपिंगलम । ऊध्वेरेतं
विरूपाक्षं विश्वरूपाय वे नमः ॥ १॥ जादियो वा एष
एतन्मण्डलं तपति । तत्न ता ऋचस्तहचां मण्डटं स ऋ-
चां लोकोऽथ य एष एतस्मिन्मण्डले अचिषि पुरुषस्ता-
नि यजंषि स यजषां मण्डलं स यजषां लोकोऽथ य ए-
षं एतस्िन्मण्डङठे अवचिर्दीप्यते तानि सामानि स सामां
मण्डलं स साम्नां लोकः सेषा य्येव विद्या तपति य ए-
घोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषः ॥ २ ॥ आदिल्यो वे ते-
ज ओजो बलं यशश्चक्षःख्रोत्रमात्मा मनो मन्युमनुमेव्यः
सत्यो मित्रो वायुराकाशः प्राणो लोकपारखकः। किं त-


1 भास्वरा 3 (~ 3! 2 पीता भास्वत्यनूपमा 3 (^~ 3.^
( 18€॥ तु. 4 ऋचा ^ 3 (^) 5 यज्ञुषा^ 53 (~ 1)
6. साश्रा^+ 5८01 5? टरोकपाटःकः ^ 8.८ 8. किक
^ 3. ^. 7


उपनिषदि १३ खण्डः । १३


सायमनमायुरमृतो जीवो विश्व॑ः । कतमः स्वयम्भूः य-
जापतिः संवत्सर इति । संवत्सरोऽसावादित्यो थ॒एषं
पुरुष एष भूतानामधिपतिः । ब्रह्मणः सायुज्यं सलोक-
तामाभ्नोव्येतासामेव देवतानां सायुज्यं सातां समा-
नलोकतामाभ्रोति य एवं वेदेव्युपनिषत्‌ ॥ ३ ॥ १२ ॥


धुणिः सूये आदित्य ओम्‌ ॥ अचैयन्ति तपः स्यं
मधु क्षरन्ति तद्रह्य तदाप आपो ज्योीरसोऽमृतं बह्म
भभेवःस्वरोम ॥ १॥ सवो वे रुद्रस्तस्मे रुद्राय नमो
अस्त । परुषो वै रुद्रस्तन्महो नमो नमः । विश्वं भतं
भव्यं भुवनं चित्रं बहुधा जातं जायमानं च यत्‌ । सवां
देष सद्रस्तस्मे रुद्राय नमो अस्तु ॥ २ ॥ कटुद्राय मचे
तसे मीग्हष्टमाय तव्यसे । वोचम शन्तमं हृदे ॥ सवां
दयेष रुद्रस्तसमे रुद्राय नमो अस्तु ॥ ३ ॥ नमो हिरण्य
बाहवे हिरण्यवणाोय हिरण्यरूपाय हिरण्यपतये । अ-
म्विकापतये उमापतये नमो नमः ॥ ४ ॥ यस्य वेकंक-
त्यथिहोत्रहवणी भवति अविष्ठिताः परत्येवास्याहुतयसि-
हन्यथो अतिष्ठिवये ॥ ५ ॥ कृणुष्व पाज इति पञ्च
॥ ६ ॥ अदितिर्देवा गन्धव मनुष्याः पितरोऽसरास्तेषां
सवभूतानां माता मेदिनी परथिवी महती मही सावि
त्री गायत्री जगव्यर्वी पृथ्वी बहुला विश्वा भूता । कतमा
का या सा सव्येत्यमृतेति वसिष्ठः ॥ ७ ॥ १३ ॥

1 इत्यथवेवेदे बरृहश्नारायणोपनिषत्समापघ्ता ॥ ३९५ ॥ ^; 57701127]


5.6 २. ज्योति ^. (1) 3 2011714 807 4 प
शवो ^. 75, (~. ¬) 5. वि पा 4. 3, (; आ कदा) ग 1)


१४ उपनिषदि १५ खण्डः, ।


आपो वा इदं सवै विश्वा भूतान्यापः मणो वा आ-
पः पशव जापो अननमापोऽमृतमापः सम्राडापो विरा-
डापः सखराडापश्छन्दास्यापो ज्योतीष्यापो यजंष्यापः स-
त्यमापः सवा देवता आपो भभेवःसूवराप जम्‌ ॥ १ ॥
जपः पुनन्तु एथिवीं परथिवी पूता पुनातु माम्‌ । पुंन-
न्त बह्मणस्पतिब्रे्यपेता पनात माम । यदुच्छिष्टमभो
ज्यं यद्वा दुश्चरितं मम । सवे पुनन्तु मामापो असतां
च ्रतिग्रहं स्वाहा ॥ २॥ अधिश्च मा मन्युश्च मन्युपत-
यश्च मन्यकृतेभ्यः पापेभ्यो रन्ताम्‌ । यद्या पापमका-
पे मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्यामदरेण शिश्ना अहस्त-
दवल्म्पतु यक्किञ्च दुरितं मयि । ददमहं माममृतयोनौ
स्ये ज्योतिषि जहोमि स्वाहा ॥ ३॥ सूयंश्च मा मन्य-
श्च मन्यपलयश्च मन्यकृतेभ्यः पापेभ्यो रश्छन्ताम ! यद्रा
त्या पापमकाषे मनसा वाचा हस्ताभ्यां प्यामदरेण
शिश्ना रािस्तदवलम्पतु यक्किञ्च दुरित मयि । इदमहं
माममृतयोनो सूयं ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥ ४॥
अंहनों अत्यपीपरद्राजिनों अतिपारयद्रािनो अलत्यपी-
परदहनों अतिपारयत्‌ ॥ ५॥ १४ ॥


आयातु वरदा देवी जक्षरं बह्यसम्मितम्‌ । गायत्री
छन्दसां माता इदं बह्म जुषस्व न: ॥ ओजोऽसि सहो
ऽसि बलमसि भाजोऽसि देवानां धाम नामासि विश्व-
1 च्ाणाः 211 एप 1, ४. पुनातु ८1. 9; पूतं ^ + अ-


भोज्यं बा ^+ (~ 5. ^. ८. 1"5€† जुहोमि 0०८ स्वाहा
6. {1118 [8101101६ 71 {.. 0111९


उपनिषदि १५ खण्डः । १५


मसि विश्वायुः सवेमसि सवायुरभिभूरोम ॥ गायत्री
मावाहयामि सावित्रीमावाहयामि सरस्वतीमावाहयामि
॥१॥आंभूः) ओं भुवः। जं खः। ओं महः

ओं जनः । जं तपः । जं स्यं । ओं तत्सवितुवैरेण्यं
भगां देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात्‌ । ज
मापो ज्योतीरसोऽमृतं बह्म भूभैवःस्ररोम्‌ ॥२॥ ओं
भूभेवः सवर्महजेनस्तपः सत्यं मधु क्षरन्ति । तद्वह्य त-
दाप आपो ज्योतीरसोऽमृतं बह्य भभवःस्वरोमं ॥ ३ ॥
ओं तद्रह्म । जं तद्वायुः । ओं तदात्मा । ओं तत्स-
वेम । ओं त॑त्युरों नमः ॥ ४ ॥ उत्तमे शिखरे देधी भ-
म्यां पवेतमृद्धेनि । बाद्यणेभ्यो द्यनन्ञाता गच्छ देवि य-
धासुखम्‌ ॥ ५॥ जोम । अन्तश्चरसि भूतेष गुहायां
विंश्वमतिषु । त्वं यन्ञस्तं विष्ण॒स्वं वषटकारस्वं सद्रस्वं
ब्रह्मा तं म्रजापतिः ॥ ६ ॥ अमृतोपस्तरणमसि ॥ ७ ॥
माणे निविष्टोऽमृतं जहोमि माणाय स्वाहा । अपाने
निविष्टोऽमृतं जहोमि अपानाय स्वाहा । व्याने निवि-
ोऽमृत जुहोमि व्यानाय स्वाहा । उदाने निविष्टोऽमृ
तं जहामि उदानाय सखराहा । समाने निविष्टोऽमृतं ज-
होमि समानाय सराहा ॥ ७ ॥ माणे निविष्टोऽमृतं ज-
होमि । 'शिवोमाविशाग्रदाहाय । म्राणाय स्वाहा ॥ अ-


1 ज्योति ^ 3) 7 ९ 1775 णोप्रय 15 101 1 ^. ^,

तत्पुनरोम्‌ 1, तत्पुरो ^ (!. 4. उत्तरे 1: ९ ष्णा. 1. ठ. दे
वि 1. ८ 1 &1५८३ विश्वतोमुखः ४५ ४ एथाणवाा, 7 [ धार्य
शिवो मा० 28 2 शपाद्ा) श्यात्‌ प्रौ 1 त्रत कल्वता0@ ग 1116
01116" 198.


१६ उपनिषदि १६ खण्डः ।


पाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिबोमाविशाग्रदाहाय ।
अपानाय सखराहा ॥ व्याने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शि-
वोमाविशाग्रदाहाय । व्यानाय स्वाहा ॥ उदाने निवि-
टोऽमृत्तं जहामि । शिवोमाविशामरदाहाय । उदाना-
य साहा ॥ समाने निविष्टोऽमृतं जुहोमि । शिवोमा-
विशाग्रदाहाय । समानाय स्वाहा ॥ ९ ॥ अमृतापिधा-
नमसि । बरह्मणि स आत्मासृतत्राय ॥ १० ॥ १५ ॥


श्रद्धायां म्राणे निविश्यामृतं हतम्‌ । प्राणमनेनाप्या-
यस्व ॥ अपाने निविश्यामृतं हतम । अपानमनेनाप्याय-
स्र ॥ व्याने निविश्यामृतं हुतम । व्यानमननेनाप्यायस्व ॥
उदाने निविश्यामृतं हुतम । उदानमनेनाप्यायस्न ॥
समाने निविश्यामृतं हुतम । समानमननेनाप्यायस् ॥
बरह्मणि स जात्ामृतत्राय ॥ १ ॥ प्राणानां ग्रन्थिरसि
रुद्रोमाविशान्तकस्तेनानेनाप्यायस्व ॥ २ ॥ अगुष्ठमा-
चरः पुरूषो अंगुष्ठं च समाधितः । इशः स्वस्य जगतः
भुः प्रीणाति विश्वभुक्‌ ॥ ३ ॥ मेधा देवी जुषमाणा
न जागादिश्वाची भद्रा सुमनस्यमाना । त्या जुष्टा जु-
घमाणा दुंरक्तान्‌ बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥ ल्या जु-
ट ऋषिभेवतुं देवी त्रया बद्या गतश्रीरुत त्या । त्या
जुष्टश्चित्रं विन्दते वसु सा नो जुषस्व द्रविणेन मेधे ॥४॥
मेधां मे इन्द्रो ददातु मेधां देवी सरस्वती । मेधा मे





7 0.11 ९ 1, 1111; (न 110 0105 ब्रह्मणि ५८ २ स-
द्रो मा० 1. ४७ एफावदाा, 71 80 116 गाला + 8, वुरुक्तात्‌
^. 23. . 2 4. भवति देवि ^. 3... 5. दधातु ^. 1.


उपनिषदि १७ खण्डः । १७


अधिनोवुभावाध्तां पुष्करस्रजौ ॥ ५॥ जषप्सरास॒ च या
मेधा गन्धर्वेषु च यन्मनः । देवी मेधा मनुष्यजा सा
मां मेधा सुरभिजेषताम ॥ ६ ॥ ज मां मेधा सुरभि-
विश्वरूपा हिरण्यवणां जगती जंगम्या । ऊजैस्वती पय-
सा पिन्वमाना सा मां मेधा सुप्रतीका जुषताम्‌ ॥७॥
॥ १६॥

सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वे नमः; । भवे भवे
नातिभवे भजस्व मां भवोद्धवाय नमः ॥ १॥ वामदेवाय
नमो ज्येष्ठाय नमः ओष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय न-
मः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नभो बलममय-
नाय नमः सवेभूतदमनाय नमो मंनोन्मनाय नमः ॥२॥
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो धोर धोरतरेभ्यः । सवतः स्व
सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ ३ ॥ तत्पुरुषाय
विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्रः मचोदयात्‌ ॥४॥
ईशानः सवेविद्यानामीश्वरः सवेभूतानां बह्याधिपति-
ब्ेहणोऽधिपतिन्े्ा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम्‌ ॥ ५॥
ब्रह्म मेतु माम । मधु मेतु माम । ब्रह्म मेऽव मधु मेतु
माम्‌ । यस्ते सोम परजावत्सोऽभि सो अहम्‌ । दुःसख-
हन्दुरुष्वहा । यांस्ते सोम प्राणांस्ताज्नुहोमि ॥ त्िसुप-
णेमयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात्‌ । बद्यह्यां वा एते घ्नन्ति
ये ्राह्मणास्िसुपणे पठन्ति ते सोमं प्राञ्चुवन्त्यासहस्रात्यं-
किं पुनन्ति । जमः ॥ ६ ॥ ब्रह्ममेधया मधुमेधया ब्रह्म


1 ग्दस्सां ^+ ¢. 2 जगत्या ^. 3.८. ). 3 काट ^+ (^
4 ए [7 (तठ) १तत्‌ बलाय नमः 5 मनोन्मननाय ^ 8 ^.



१७ उपनिषदि १४ खण्डः ।


मेऽव मधुमेधया ॥ अद्या नो देव सवितः ग्रजावत्सा-
वीः सोभगं । परा दुंःष्वभियं सुव ॥ विश्वानि देव सवि-
दुरितानि परासुव । यद्द्रं तन्न आसुव ॥ मधु वाता
ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीनेः सनवोषधीः ॥
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्याधिवं रजः । मधु द्योरस्तु
नः पित्ता ॥ मधुमान्नो वनस्पतिमेधुरमौ अस्त सयः ।
माध्वीगोवो भवन्तु नः ॥ य ईमं तरिसुपणेमयाचितं ्ा-
णाय दद्यात्‌ । भ्रूणहत्यां वा एते चन्ति ये बाह्यणाखि-
सुपणे पठन्ति ते सोमं माभ्नुवन्त्यासहस्रात्यंक्ति पुनन्ति ।
जोम ॥ ७ ॥ ओं ब्रह्ममेधवा मधुमेधवा बह्म मेऽव
मधुमेधवा ॥ ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनामृषिविप्राणां
महिषो मृगाणाम । श्येनो गृभाणां स्रधितिवेनानां
सोमः पवित्रमत्येति रेभन्‌ ॥ हंसः शुचिषद्सुरन्तरिक्ष-
सञ्ञोता वेदिषदतिधिदुयोणसत्‌ । नृषद्वरसहतसव्योमस-
दञ्ञा गोजा ऋतजा अद्विजा ऋतं बृहत्‌ ॥ य इमं जि-
सुपणेमयाचितं बराह्मणाय दद्यात्‌ । वीरहत्यां वा एते
घ्नन्ति ये बाह्मणाच्तिसुपणे पठन्ति ते सोमं ्राञ्मुवन्त्या-
सहख्रात्यंक्ति पुनन्ति । जम्‌ ॥ ४५ ॥ १७ ॥


देव॑कृतस्येनसोऽवयजनमसि सराहा । मनुष्यकृतस्येन-
सोऽवयजनमसि स्वाहा । पित्रकृतस्येनसोऽवयजनमसि


1. दुःष्वभ्यं ^. 23 ^ £ इदं ^. 3.८. 3 इद्‌ ^. 3.
1) 4 8९८10708 18 204 19, 91 116 7181 14 {2111८58
3९९1101 20, 916 1101 17) [. (. 1), 0 170 {116€ 1८170712 7९९) -
81011 0 11115 [14111818 88 €0पा771€00 6 ०0 क़ 9%2104,


उपनिषदि १९ खण्डः । १९


स्वाहा ।. जालमकृतस्येनसोऽवयजनमसि स्वाहा । अन्य-
कृतस्येनसोऽवयजनमसि स्वाहा । यदिवा च नकं चेन-
श्चकृमं तस्यावयजनमसि स्वाहा । यश्विद्नासश्चाविद्नास-
श्रेनश्चकृमं तस्यावयजनमसि स्वाहा । यच्चाहमेनो वि-
ब्ासश्चाविद्वांसश्चेनश्चकृमं तस्यावयजनमसि स्वाहा । य-
त्सपन्तश्च जाय्रतश्चेनश्चकृमं तस्यावयजनमसि स्वाहा ।
यत्सुपुप्रश्च जाय्रतश्चेनश्चकृम तस्यावयजनमसि स्वाहा ।
एनस एनसोऽवयजनमसि स्वाहा ॥ १ ॥ कामोऽका-
षीन्राहं करोमि कामः करोति कामः कत्ता कामः का-
रयिता । एतत्ते काम कामाथ सखाहा ॥ २ ॥ मन्युरका-
षींनाहं करोमि मन्युः करोति मन्युः कत्ता मन्युः कार-
यिता । एतवे मन्यो मन्यवे स्वाहा ॥ ३ ॥ १४ ॥


तिलाः कृष्णासिलाः श्वेतासिटाः सोम्या वशानु-
गाः । तिलाः पुनन्तु मे पापं यक्किञ्चिहुरितं मयि खा-
हा । यन्मे मनसा वाचा कमेणा वा दुष्कृतं कृतम्‌ ।
दुःस्वभरं दुजेनस्पशै तिलाः शान्ति कुवेन्तु खाहा । चो-
रस्यान्नं नवश्राद्धं ब्रह्महा गुरुतल्पगः । गोस्तेयं सुरापा-
नं भ्रूणहत्यां तिलाः शमयन्तु साहा । गणान्नं गणिकान्नं
कु्टान्नं पतितान्नं भुक्ता वरषलीभोजनम्‌ श्रद्धा रजा च
मेधा च तिलाः शान्ति कुन्तु साहा । ज्रीश्च पुषटिश्चा-
नृण्यं ब्रह्मण्यं बहु पुत्रिणम । श्रद्वा प्रजा च मेधा च ति-
` 1.7 1९5 एष्ट गष्लण्त ६ छृतमस्या० 2. इतमस्या० ^.


१. तिखाः कृष्णास्तिलाः सोभ्यास्तिकाः सवेवशालुगाः । ^. 4. ०.
2]014161111४, † ; एप शमयन्तु ^. 7, 35. 7. 56178 शान्ति.


२० उपनिषदि २० खण्डः ।


खाः शान्ति कुवेन्तु स्वाहा ॥ १ ॥ अपनये खाहा' । वि-
श्चभ्यो देवेभ्यः स्वाहा । भवाय भर्माय स्वाहा । भव-
शितये सराहा । धृमाय स्वाहा । अच्यतकशितये स्वाहा ।
अग्रये खिष्टकृते सराहा । धमय स्वाहा । अधमोय
स्वाहा । अद्यः साहा । ओषधिवनस्पतिभ्यः स्वाहा ।
रस्लोदेवजनेभ्यः स्वाहा । गृ्याभ्यः स्वाहा । अवसाने-
भ्यः सखाहा । अवसानपतिभ्यः स्वाहा । सवेभूतेभ्यः
स्वाहा । कामाय स्वाहा । अन्तरिक्षाय स्वाहा । यदेजति
जगति यच्च चेष्टति नान्यो भागो यंतान्मे स्वाहा । ष-
यिय स्वाहा । अन्तरिक्षाय खाहा । दिवि स्वाहा । सू-
योय स्वाहा । चच्धमसे खाहा । नक्षत्रेभ्यः स्वाहा । इ-
द्धाय सराहा । बृहस्पतये स्वाहा । ग्रजापतये स्वाहा ।
हणे खाहा । स्रधा पितृभ्यः । नमो रुद्राय पशुपतये
स्वाहा । देवेभ्यः स्वाहा । पितृभ्यः खधा अस्तु । भूतेभ्यो
नमः । मनुष्येभ्यो हन्ता । परमेष्ठिने सराहा ॥ २॥१९॥


ये भूताः मचरन्ति दिवानक्तं बलिमिच्छन्तो वितुद-
स्य मेष्ठाः । तेभ्यो बलि पुष्टिकामो हरामि मयि पुष्टि
पुष्टिपतिदेधातु खराहा ॥ १ ॥ सजोषा इद्र सगणो म-
रुढ्धि; सोमं पिव वरं्रहञ्हूर विद्वान्‌ । जहि शत्रूरपमू-
धो नुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः ॥ २ ॥ जातार-


1. 86€ 11016 4 0) त्ा€ ]एट्ण्जय्ऽ ]९€, ‰, ०६ 71 -‰.
8 ०६ पा 7 4. न्धी ^. 5. गुष्येभ्यः ^. 6. 201 ण ^
7. मान्यो 18 2 ४911971 7 8. यन्नाश्ने 7. 9. हन्तः ^, हन्ताः 1.
10. इन्द्रः+". 11. ब्ष्रहा


उपनिषटि २० खण्डः । २१


मिन्द्रभवितारमिन््रं हवे हवे सुहवं शूरमिन््रम । हया-
मि शकं पुरुहतमिन्द्रं सरसि नो मधवा धाविन्द्रः ॥३॥
यत इन्द्र भयामहे ततो नो अभयं कपि । मघवञ्छग्धि
तव तन्न ऊतिभिर्विद्ठिषो विमृधो जहि ॥ ४॥ खस्ति-
दा विशाम्पतिव्रहा विमृधो वशी । वृषेन्द्रः पुर एतु
नः सोमपा अभयंकरः ॥ ५॥ ऊध्व ऊ षुण ऊतये
तिष्ठा देवो न सनिता । ऊर्वो वाजस्य सनिता यदज्जि-
भिवोधद्धिर्विह्नयामहे ॥ ६ ॥ तरणिर्विश्वदशैतो ज्योति-
ष्कृदसि सूये । विश्वमाभासि रोर्चनम्‌ ॥ ७ ॥ उपयाम
गृहीतोऽसि सूयांय ला भाजस्रत एष ते योनिः सूयय
ला भ्राजस्वते ॥ ४ ॥ विष्णुमुखा वे देवाश्डन्दोभिरि-
मदोकाननपजयमभ्यजयन्‌ ॥ ९ ॥ श्री मे भजत।
अलक्ष्मी मे नश्यत ॥ १० ॥ महँ इन्द्रो वज्रवाहुः
षोडशी शमे यच्छतु । सखसि नो मधवा करोतु हन्तु
पाप्मानं योऽस्मान्द्रेष्टि ॥ ११ ॥ शरीरं यज्ञ; शमलं
कुसीदं तस्िन्त्सीदतु योऽस्नान्ड्वेष्टि ॥ १२ ॥ वरुणस्य
स्कम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसजेनमसि । उन्मुक्तो
वरुणस्य पाशः ॥ १३ ॥ जीणि पद्‌ा विचक्रमे विष्णु-
गोपा अदाभ्यः । इतो धंमोणि धारयन्‌ ॥ १४ ॥ भा-
णापानव्यानोदानसमाना मे शुध्यन्ताम्‌ । ज्योतिरहं
विरजा विपाप्मा भूयासं स्वाहा ॥ १५ ॥ वाड्ानश्चक्षः-
श्रो्रजिह्वाधाणरेतोवुद्धयाकूतिसंकल्पा मे०॥१६॥ शिरः-


1 त्वंनः 1 (98 ४211); 7 2 सविता^ 7 5 राचन
^ 4. धमो धारयति ^. 5. 23. ¢, 1). 1६९9111161166 11616.


२२ उपनिषदि २१ खण्डः ।


पाणिपादपाशवेपष्ठोदरजंधाशिश्रोपस्यपायवो मे० ॥१७॥
तक्चमेमांसरूधिरल्रायुमेदोखिमजा मे° ॥ १४ ॥ श-
व्दस्पशेरसरूपगन्धा मे०॥ १९॥ पृथिव्यत्रेजोवाय्वाका-
शा मे ॥ २० ॥ अननमयप्राणमयमनोमयविन्ञानम-
यानन्दमया मे० ॥ २१ ॥ विचिंटि सराहा ॥ २२ ॥ ख-
खोल्काय सख्वाहा ॥ २३ ॥ उत्तिष्ठ पुरुषाहरितिपिगल लो-
हिताक्ष देहि देहि ददापयिता मे शुध्यन्ताम्‌ । ज्योतिर-
ह° ॥ २४॥ शुकशोणित्तजोजांसि मे शुध्यन्ताम्‌ । ज्यो-
तिरहं विरजा विपाप्मा भूयासं सखाहा ॥ २५॥ २० ॥


जं साहा ॥ १ ॥ स्यं परं परं सत्यं सत्येन न सु-
वगोह्छोकाच्यवन्ते कदाचन सतां हि सत्यं तस्मात्स
रमन्ते ॥ तप इति तपो नानशनात्परं यद्वि परं तपस्त-
धष तहुराधषे तस्मात्तपसि रमन्ते ॥ दम इति नियतं
ब्रह्मचारिणस्तस्माहमे रमन्ते ॥ शम इत्यरण्ये मुनय-
स्स्माच्छमे रमन्ते ॥ दानमिति सवांणि भृतानि प्रशं
सन्ति दानान्नातिदुष्करं तस्मादाने रमन्ते ॥ धमे इति
धर्मेण सवेसिद्‌ परिगृहीतं धमोनातिदुश्चरं तस्माद
रमन्ते ॥ जननमिति भूयांसस्तसाङ्पिष्ठाः परजायन्ते
तस्माद्ूयिष्ठाः प्रजनने रमन्ते ॥ अग्मय इत्याहुस्तस्माद-
प्रय आधातव्याः ॥ अिहो्रमित्याहुस्तस्ादच्चिदोतरे

1. खायु 101 11 ^. 3. (~; पा पाव्हण [) 2 चिविरि ^.
8 ¢, विविरि 1). 60116 {€:1{8 ४५१५ विधिज्ञ स्वाहा 7 5 प्रज


नैन शति ^. 3. 1). ¢ ; प्रजन इति (~ 4. आभ्या० ^ 83. ८; आ-
ध्मरयि० [)


उपनिषदि २२ खण्डः । २३


रमन्ते ॥ यज्ञ इति यज्ञो हि देवानां यज्ञेन हि देवा
दिवं गतास्तसाद्यन्ने रमन्ते ॥ मानसमिति विद्वांसस्त-
स्माश्विद्नांस एव मानसे रमन्ते ॥ न्यास इति बह्मा ज-
ह्या हि परः परो हि बरह्मा तानि वा एतान्यवराणि त-
पांसि न्यास एवात्यरेचयत्‌ । य एवं वेदेत्युपनिषत्‌ ॥ २॥
॥ २१ ॥

प्राजापत्यो हारुणिः सोपणेयः मजापतिं पितरमुपस-
सार किं भगवन्तः परमं वदन्तीति । तस्मे मोवाच स-
त्नं वायुरावाति सल्येनादित्यो रोचते दिवि सव्यं वाचः
प्रतिष्ठा स्ये सवे प्रतिष्ठितं तस्ात्सत्यं परमं वदन्ति ।
तपसा देवा देवतामथ्र आयंस्तपस ऋषयः सुवरन्ववि-
न्द॑स्तपसा सपलान्पणुदामारातीस्तपति सवै मतिष्टितं
तस्मात्तपः परमं वदन्ति । दमेन दान्ता; किंरिबषमवध-
न्वन्ति दमेन ब्रह्मचारिणः सुवरगच्छन्दमो भूतानां दुरा-
धषे दमे सवे प्रतिष्ठितं तस्ादमः परमं वदन्ति । शमेन
शान्ताः शिवमाचरन्ति शमेन नाकं मुनयोऽन्वविन्द-
ञछ्लमो भूतानां दुराधष शमे सवे प्रतिष्ठितं तस्माच्छमः
परमं वदन्ति । दानं यज्ञानां वरूथं दक्षिणा लोके दा-
तारं सवेभूतान्युपजीवन्ति दानेनारातीरपानुदन्त दानेन
द्विषन्तो मित्रा भवन्ति दाने सवै प्रतिष्ठितं तस्मादानं प-
रमं वदन्ति । धमो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोके धर्मिष्ठं
प्रजा उपसपेन्ति धर्मेण पापमपनुदन्ति धम सवै भति-


1 सखुपर्णेय ^+ 58 © 7 > ग्वुन्वन्ति ए ¢ 7)


२४ उपनिषदि २३ खण्डः ।


शितं तस्माञ्जम परमं वदन्ति । पजननं वे अतिष्ठा शोके
साधुप्रजावांस्तनतु तन्वानः पितृणामनृणो भवति तदेव
तस्यानृणं तस्मा्मजननं परमं वदन्ति । अग्नयो वे चयी
विद्या देवयानं; पन्था गाहेपत्यमृक्‌ परथिवी रयन्तरम-
न्वाहायेपचनो यज्रन्तरिषं ` वामदेव्यमाहवनीयः साम
सवगो रोको बहल्स्ादम्मीन्‌ परमं वदन्ति । अच्चिहो-
चरं सायम्यातगरहाणां निष्कृतिः खिष्टं ' सहतं यज्ञकतनां
परायणं सुवगेस्य लोकस्य अ्योतिस्तस्मादिहोत्रं परमं
वदन्ति ॥१॥ २२॥

यज्ञ इति यज्ञो हि देवानां यज्ञेन हि देवा दिवं गता
यज्ञेनास॒रानपानुदन्त यज्ञेन हि द्विषन्तो मित्रा भवन्ति
यज्ञे सवे प्रतिष्ठितं तस्मादन्नं परमं वदन्ति । मानसं वै
माजापत्यं पवित्रं मानसेन मनसा साधु पश्यति मानसा
कषयः भजा असजन्त मानसे सवे पतिष्ठितं तस्मान्मा-
नसं परमं वदन्ति । न्यास इत्याहुमेनी षिणो बह्माणम्‌ ।
ब्रह्मा विश्वः कतमः । स्वयम्भ्‌ः प्रजापतिः संवत्सर इति ।
संवत्सरोऽसावादित्यो य एष आदिव्ये परुषः स एव प-
रमेष्ठी बह्यात्मा । याभिरादिव्यस्तपति ररिमिभिस्ताभिः
पजन्यो वति पजेन्येनोषधिवनस्पतयः प्रजायन्त ओष-
धिवनस्पतिभिरन्रं भवत्यनेन प्राणाः प्राणेबेटं बलेन तप-


1. प्रण10^ ए ~. 2 प्रजायाः ० 'प्। 7 3 देवयानं
^. 8 @ 4 ^. 25 © 7. "3€+ 1ल बायुद्‌क्षिणा्िः. 5 सा-
यम्प्ातः सायम्पातः ^. 3. ^. 1). 6. कृतं 18 १५१५१९५ 11 1141171
०, 21 सऽ (हाड 1 8. 7. प्रयाणं ^ (~, 8, मन-
सा 3 ¢ 20 ०हटा०11ई 1.


उपमिषटि २५ खण्डः । २१


स्तपसां श्रद्धा अद्या मेधा मेधया मनीषा मनीषया म-
नो मनसा शान्तिः शान्त्या चित्तं चित्तेन स्मृतिः स्मृत्या
स्मारं सारेण विज्ञानं विज्ञानेनासमानं वेदयति । तस्ा-
दनं ददन्तसवाण्येतानि ददात्यन्नाद्माणा भवन्ति भतानां
प्राणेमेनो मनसश्च विज्ञानं विज्ञानादानन्दो बह्ययो
निः । स वा एष पुरुषः पञ्चधा पञ्चात्मा येन सवेमिदं
मोतं प्रथिवी चान्तरिक्षं च योश्च दिशश्चावान्तरदिशाश्च
सर्वैः सवेमिदं जगत्‌ ॥ १ ॥ २३ ॥


स भूत स च भव्यं जिन्ञासासक्तिपरित जारयिष्ठाः
श्रद्धासत्या महस्वास्तपसापरिष्टाज्ज्ञाव्ा तमेवं मनसा
हृदा च भूया न मृ्युमुपयाहि विद्वान्‌ । तस्मान्यासमेषां
तपसामतिर्किमाहुः ॥ १ ॥ वसरण्यो विभूरसि प्राणे
तमसि सन्धाता बह्यन्‌ तमसि विश्वसृक्‌ तेजोदास्वम-
स्यभ्नवेचोँदास्वमसि सूयेस्य दुख्रोदास्वमसि चन्द्रमसः
उपयाम गृहीतोऽसि । बह्यणे तरा महस ओभित्यात्मा-
नं युज्ञीत । एत्न महोपनिषदं देवानां गुद्यम्‌ । य एवं
वेद बह्यणो महिमानमाभ्रोति तस्माद्नद्यणो मटिमान-
मिद्युपनिषत्‌ ॥ २ ॥ २४॥


तस्येवंविदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्ती श-
रौरमिध्म उरो वेदिलोंमानि बर्हिवदः शिखा दयं यू-
पः काम जन्यं मन्युः पशुस्तपोऽग्िदेम॑; शमयिता व्‌-
क्षिणा वाग्घोता माण उद्वाता चक्षुरध्वयुमेनो ह्या ्रो-

1. ओतप्रोतं 4. 8.1). %. धमः ^. ¢.


२६ उपनिषदि २५ खण्डः ।


जमस्मीत्‌ । याषद्ियते सा दीक्षा यदश्नाति तद्धधियेत्पि-
बति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो यत्सज्चरव्युप-
विशल्यसिष्ठते च स परवग्यों यन्मखं तदाहवनीयो याद्या-
हतीराहती यदस्य विज्ञानं तजहोति यत्सायम्प्रातरति
तत्समिधो यत्सांयम्पातमेध्यन्दिनं च तानि सवनानि
ये अहोरात्रे ते दशैपणमासो ये अङमासाश्च मासाश्च
ते चातुमोस्यानि य ऋतवस्ते पशुबन्धा ये संवत्सराश्च
परिवत्सराश्च तेऽहगेणाः सवेवेदसं वा एतत्सत्रं यन्मर-
णं तदवभुथः । एतद्वै जरामयेमचिहोतं सत्रं य एवं वि-
ानुदगयने प्रमीयते देवानामेव महिमानं गल्वादित्य-
स्य सायुज्यं गच्छत्यथ यो द्िणि प्रमीयते पितृणामेव
महिमानं गत्वा चन्द्रमसः सायुज्यं गच्छति । एतो वै
सूयोचन्द्रमसोमेहिमानो बादह्यणो विद्वानभिजयति त-
साद्राद्यणो महिमानमास्नोति तस्माद्वाद्यणो महिमान-
माभ्रोतील्युपनिषत्‌ ॥ १॥२५॥


दत्यायवेणीये महानाराथणो पनिषत्‌ ।


1 या व्याहृतिराहुतिः ^ 8. ^ 7), या व्याहृतीराहुती 7? 2141
६ 13€191९8 (0०11606 219. 07 >तेक94 8 //॥८5॥८ ‰ ^ 8 ¢
01111 सायं. 3. महिमानं 1) 4 308४1] {11€ {88 ° 1116 †€ा ¢
फप( 5९€ ५108€ ग [ण९८्त्ता1@ 3८0. 5 इत्यथवेवेदे बृहन्नारा-
यणोपनिषत्‌ ॥ ४० ॥ ¢; 2114 5111111811‡ 8. ( (116 7ल्छवाद् प)
1) ४ऽ 01101181] (181 त {€ 1ल (पा [88 0द्ला) 69110 €
४० इति यजरवेदे तैसिरीयशाखायां महानारायणोपनिषत्‌ ।


महानारायणोपनिषदीपिका


महानारायणोपनिषदीपिका ।


-----=~९# 2 ०.


महानारायणीयेऽ् तैत्तिरीये रिरस्यपि । पश्चविशतिसंख्याकाञ्च-
तुखिश्े तु खण्डकाः ॥ आदिदेवस्य नारायणस्य वेकरुण्टपतेरुपनिषद्‌-
मुक्त्वा क्षीराब्धिशायिनो जगदन्तयामिणोऽन्तयौमित्राह्यणप्रतिपाद्यस्य
सगुणब्रह्मणो वस्तुतो गुणातीतस्य नारायणस्योपनिषद माद अम्म-
स्यपार इति । अपारे गम्भीरेऽम्भस्युदके समनुप्रविष्टस्तथा भुवन-
स्येहिकस्य मध्ये तथा नाकस्य द्युखोकस्य पृष्ठे समयुप्रविष्टः। शुक्रेण
वीर्येण ज्योतींषि नक्षत्राणि समयप्रविष्टः प्रजानां सर्वलोकानां पतिः
सयैस्य गर्भे अन्तगढश्चरति । स एव सवात्मेवत्य्थैः । अत एवात्र देव-
तान्तरमन्ना अपि तद्‌ात्मभूतनारायणपरा पवेव्येकवाक्यता ॥ २॥
संच वि चैति समेति च व्येति चेलयथः। यस्मिन्निति। विश्वे सर्व
देवा यस्िश्नधि यदीश्वरा निषेदुः सिताः । “यस्माद धिकं यस्य चेश्व-
रवचनं तजर सस्षमीः' (पा. २. ३.९.) । आनमिदम्‌। अनितीत्यानं प्राणि-
जातम्‌ । इदं परत्यक्षं तदप्रत्यक्षम्‌ । अक्षरे निदे परमे व्योमन्‌ व्योन्नि
वर्तते ॥ २॥ मही च आचृतेति विपरिणामः । भ्राजसा तेजःकार्येण
दीप्या । तत्तत्र प्रजा वत्तेन्ते ॥ २॥ प्रसूती क्तिजन्तत्वेन ईकारः ।
तोयेन कत्वा भूम्यां जीवान्विससजं विरृष्टवान्‌ क्षिप्तवान्‌ । “अभ्रं भूत्वा
मेघो भवति मेघो भूत्वा परवषेति त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतय-
स्तिमाषा इति जायन्त” इति श्रुत्यन्तरात्‌ (छा. ५. १०. £.) । यत-
स्तोयादोष्धीमि्वीह्यादिभिः पुरुषान्पदोञ ससज खषा च विवेदा ।
तदुक्तम्‌ । “यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिश्चति तद्भूय एव भवतीति"
(खा. ५. १०. ६.) ॥ ४ ॥ अणीयसं अणीय पव । स्वाधिकोऽकारः।
यथा कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुरा” इति (बृह. १. २. १.) ।


२ दीपिकायां २ खण्डः ।


महान्तं महत्‌ ॥ ५॥ तदेवत्तैम्‌ । ऋतं च सूनरता वाणी सत्य यथाथ-
भाषणम्‌ । ब्रह्म वेदः । नाभिर्यथा चक्रस्य तथा जगतः सवौधारत्वात्‌
॥ ६ ॥ कल्पतां समर्थां गतः । स आप दति । “तस्मिन्नेतसिन्नस्नौ
देवाः श्रद्धां जहति तस्या आहुतेः सोमो राजा सम्भवतीति" श्रुतेः
(छा. ५. ४. २.) । स आत्मा आपः कर्मफलं प्रदुधे पूरितवान्‌ । के ।
उभे इमे । विरषमाह अन्तरिक्षमथो खवः । दुहिद्धिक्मकः। आपोऽपः-
कमेफरमन्तरिक्चस्व्मलोकौ प्रहितवानित्यथैः ॥ ९ ॥ उध्वौधोमध्येषु
एनं पुरुषं कथिन्न परिजग्रभत्परिगरहीतवान्‌ सर्वत्र वत्तमानोऽण्ययं
न केनापि ज्ञात इयथः । न तस्येति । तस्य कश्चन नेशे ईशो न वभूव ।
महद्यश् इति तस्य नाम । “महो देवो मत्यौनाविवेशः । भवामि य
दासां यश इत्यादौ व्यवहारात्‌ (ऋग्वेदः ४. ५८. २, छा. ८. १४. १.)
॥ १०॥ हदा चित्तेन । मनीषा मनी इद्धिस्तया । मनसा संकल्पवि-
कटपात्मकेन । अभिङ्कप्तो नानात्वं नीतः । पनं ये परमाथतो विदुस्ते
ऽस्रता मुक्ता मवन्ति ॥ ११ ॥ अल्यः क्मफटेभ्यो दहिरण्यगभेः
सम्भूतः प्रादुभूतः। इत्यष्टाविति । इत्यारभ्याष्टौ मन्त्राः पूव॑काण्डे
पठिता अत्र पटितव्याः। यद्धा । इवयेवमष्ठौ व्याप्तौ विष्णोः स्वरूपं
निरूपितम्‌ । अश्ञू व्याप्तो । अष्टिष्ाब्देन समष्टिव्यष्टी दे अपि
गृहीते ॥ १२॥ १॥


एष देवो हिरण्यगर्भरूपेण स्वा दिशोऽनु लक्ष्यीकृत्य भ्रवर्सते ।
उपसर्गेण धातोराक्षेपः । टक्षणेऽजुः कर्मप्रवचनीयः (पा. १, ४. ८७.)।
तथ्ोगे दिश इति द्वितीया । पूर्वो हि यस्मादाद्यो जातः । “समवर्त-
ताम्र” इति मन्तरवणोत्‌ (ऋ. १०. १२१. १, बाज. २५. १०.) । स उ गभे
मध्ये सवैस्यान्तगतो वच्ेते । स विजायमानो जनकः । यथा “समां
समां विजायते" ( पा, ५. २. १२.) । जनिष्यमाणो अन्यः । पत्यव्छुखः
सन्सुखो न पराड्यखः सवेस्य । “ पराञ्चि खानीति ”' श्रुतेः ( कठ. ४.


दीपिकायां २ खण्डः | डे


१.) । इन्द्रियाणां पराच्छुखत्वात्तेषामयं सन्मुखः स्वतोमुखोऽपि
पराड्बुख इव न परकाराते ॥ १९॥ विभ्वतोबाह्ु; सवे दाता । उ-
तापि विश्वतस्पादिश्वतः सवेतः पादा यस्य । “ सवतः पाणिपादं
तत्सर्वतोऽस्िरिरोमुखं । सवतः श्रुतिमह्टोके सर्वमाघ्रत्य तिष्ठतीति
श्वेताश्वतरमन्बवणोत्‌ (३. १६. ) । दयावापृथिवी बाहुभ्यां सन्मति
पतश्रेर्वांसनाख्यैः सं धमति दयावाभूमी दीपे जननाभिमुखे करोति ।
जनयन्‌ भूतानि ॥ २॥ वेनो विश्वसू्रङकृत्तत्कारणं पदयन्‌ विश्वानि
कायाणि जानन्वत्तंते यत्र विश्वं भुवनमेकनीडमेकाश्नयं भवति ।
यस्मिन्निति । यस्िन्पुरूष ददं सवं सं च धातोराक्षेपात्समष्टिरूपं वि च
व्यष्टिरूपमेकं भवलत्येकात्मकं मवति ॥ २ ॥ प्रतदिति । गन्धर्वो नाम
गायको वेदकत्त संस्तत्प्रोचे प्रकर्षणोक्त वान्‌ । वाङाब्दः समुञ्चये ।
प्रयोजनाभिधानममतं विद्धान्‌ लोकानां सृत्युभयहरं ज्ञात्वेदयथः ।
गुहासु नि्ितम्‌ । परापदयन्तीमध्यमारूपेण पदा निहिता निहि-
तानि । नयु गुहासु निहितं चैत्कथं प्रोक्तवानत उक्तम्‌ । च्रीण्येव
पदानि स्थानानि गुहायां निहितानि तुरीयं तु वेखरीरूपं न निहितं त-
त्पोक्तवानित्यथंः । “ गुहा जीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो म-
जुष्या वदन्तीति" च मन्तरान्तरवणात्‌ (ऋ. १. १६४. ४५.) । यः पुमां-
स्तद्वेद तद्रुहासखु निहितं रूपं जानाति स पुमान्पितुः पिता असद्धवेत्‌ ।
अस भुवि । “ लिङ्थं लेदर ” । तिप्‌ । “ इतश्च रोपः परस्मैपदेषु ” ।
अर्‌ । पिच्वादह्टोपाभावः (पा. ३. ४.७, ३.४. ९७. ) । उपदेण्णामु-
पदेष्टा भवेदिव्यथेः ॥ ४ ॥ मन्तद्रष्टवाक्यं स नो बन्धुरिति। नः
स्वेषां जी घानां स बन्धुर््राता। जनिता जनयिता जनकः पिता । “जनि-
ता मन्त्र ” इति णिरोपनिपातनम्‌ (पा. ६. ४.५३.) । विधाता कन्तो
कायाणां स सर्वाणि धामानि ध्यानानि वेद जनाति । यञ्र देवा अग्रृतत्व-
मानशाना पएतत्पमरसादादभ्तत्वे प्राप्रुबन्तस्ते चृतीये धामानि वृतीयस्या-
मितो दिवि धामानि श्थानान्यभ्यैरयन्त कृतवन्तः ॥५ ॥ तेषां राक्ति-


, दीपिकायां २ खण्डः ।


विरोषमाह परीति। सद्य पव क्षणमात्रेणेव ध्यावापृथिवी यावाप्थि-
व्यौ परि परितो यन्ति गच्छन्ति सुवः स्वः। देवस्य माहात्म्यमाह ऋत-
स्य सत्यस्य विततं विस्तीणं तन्तुमात्मस्वरूपाख्यं विवृत्य वती (?) खन्दी-
पने सन्दीप्य तद्रह्यापरयत्तद्रद्येवाभवत्‌ । ““ तदात्मानमेवावेदिति"
श्रुतेः (बृह. १, ४. १०.) । तत्प्रजास्वभवन्मूत्तौमूत्तं बभूवेत्यथेः ॥ ६ ॥
परीत्य व्याप्य । प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः प्रथमजाः परथमोत्पन्न ऋतस्य
सत्यस्यात्मना ब्रह्मस्वरूपेणात्मानमभिटक्ष्य सम्बभूव सम्भूतो टोक-
विदितो बभूव ब्रह्मरूपमात्मानं सम्भाव्य लोके ख्याति ययौ ॥ ७॥ कीट-
दामात्मानम्‌ । सदसः सभायाः पति स्वाभिनमद्भतं टोकेष्वाश्चयैरूपं
प्रियं खोकस्य न केवलं ोकस्येव किन्त्विन्द्रस्यापि काम्यम्‌। सनि षणु
दाने दातारं मेधामयाशिषं मेधामय्य आशिषौ यस्य तं संकल्प-
माजोदितसिद्धिम्‌ । मेधामयासिषमिति पाटे सनि दातृत्वं मेधां
बुद्धिमयासिषं भ्रासुमाशंसे त्वस्प्रसादादिति शेषः । या प्रापणे । “ आ-
शंसायां भूतवच्चेति" दुडो मिपो.ऽम्‌ सगिटौ (पा. ३. ३. १३२. ) ॥८॥
भगवतः स्वैदेवमयत्वाद्वहूधादिदेवतारूपं तमेव तत्तदाशीःप्रदं स्तोती-
त्यारभ्योपनिषत्समाघ्यन्तमुदीप्यस्वेदयादिना विनियोगस्तु मन्ताणां
गरह्यादितोऽवसेयः । छन्दासि छन्दोविचितेरूद्यानि । मान्वरिगिक्यो
देवता क्ञेयाः । उक्तं च “ यस्य वाक्यं स ऋषियो तेनोच्यते सा देवता
यदक्षरपरिमाणं तच्छन्द्‌ ` इति ( सवानुक्रमणी. २. ४-६.) । हे
जातवेदो जातं वेदो ज्ञानं यस्माजातवेदास्तत्सम्बो धनं हे जातवेद्‌-
स्त्वमुदीप्यस्व दीघो भव मम निति राक्षसं विघ्रकत्तांरमपघ्नन्‌ हिस-
स्मह्यं पड्ुन्‌ गवादीनावह देहि । दशदिशो जीवनं चाश्नाद्यावह ॥ ९॥
भा न इति । सर्वो हिंसको नोऽस्माकं गवादि किं बहुना जगत्सवं
मदीयं मा हिसीत्‌ । अबिभ्रत्पुष्टिमदधानः सौम्यः संस्त्वमागष्यागच्छ
धरिया रक्ष्या मा परिपातय परिपतित अष्टमा कथाः॥ १०॥२॥


दीपिकायां खण्डः । ५


गायघ्या देवताप्रीतिहेतुत्वात्ताभिर्विष्णुरूपा एव नानादे वताः स्वोति
तत्पुरुषस्येल्याविना ॥ १॥ महादेवस्य गायत्रीमुक्त्वा तन्मूत्तेस्त-
पुरुषस्य गायत्रीमाह तत्पुरुषायेति ॥ २॥ ततो नन्दिकेश्वरस्य ॥२॥
ततो वक्र तुण्डस्य ॥ ४ ॥ ततः षण्मुखस्य । षष्ठः षण्णां पूरणो येनैकेनैव
षट्पुत्रा माता सम्पन्ना ॥ ५॥ ततः पावकस्य तत्पितुः ॥ ६॥ ततोऽग्रे
स्तत्स्वरूपविद्दोषस्य । लाटेलाय ठेटायमानाय । जिहाभिहैविग्रहते
॥ ७ ॥ ततो भास्करस्य ॥ ८ ॥ ततो दिवाकरस्य तद्धिदोषरूपस्य ।
महाद्युतिकरायोदयेन अलोक्यग्रकार्ाकराय ॥ ९॥ तत आदित्यस्य
॥ १० ॥ ततो वक्रपादस्य ॥ ११ ॥ ततः काल्यायन्याः ॥ १२ ॥ ततो
मटादुलिन्याः ॥ १३ ॥ ततः सुभगायाः ॥ १४ ॥ ततो गरुडस्य । सखुप-
णपक्षाय सुषु पणोनि येषां तादृशाः पक्षा यस्य ॥ १५ ॥ ततो नाराय-
णस्य ॥ १६ ॥ ततो वृर्सिहस्य ॥ १७ ॥ ततश्चतुमखस्य ॥ १८ ॥ पएव-
म्टादश गायन्यः॥ २॥


दूर्वामन्वानाह सहस्रेति ॥ १॥ काण्डं गोखाः । प्ररोहन्त्यकुरान्मु-
अन्ती । परुषः पर्वणः । परि रश्ष्यीकृत्य । पवा नो दुवे प्रतनु हे दूर्वे
त्वं नः प्रतन्वेव प्रततान्पुत्रपौत्रादिना क्वेव । एवा “निपातस्य चेति”
दीधैः (पा. ६. ३. १३६.) । एमिदृवाी पूजनीया मान्बछिगिकं फलम्‌
॥ ३ ॥ पृथिवीमन्वानाह अभ्वक्रान्त इति। अश्वे रथेश्चाक्रान्ते
ुण्णे । विष्णुक्रान्ते वामनेनाक्रान्तत्वात्‌ । शिरसा धारिता शेषेणेति
मोषः । शिरसि धृत्वा मन्बः पठनीयः ॥ ४ ॥ किं लोकिकेन वराहेण
नेत्याह करष्णेनेति बाखदेवेनेत्यथैः । तेन वराहेण या त्वसुद्धत्य
ब्रह्मणे खष्टधर्थं वत्तासि कादयपेन कदयपात्मजेनोपेन्द्रेणाभिमन्विता
प्रतिष्ठिता मन्वेणाभिमुखीरृता स्वीकृता ॥ ५॥ श्रीमन्तानाह गन्ध-
द्वारा भिति । कस्तूर्यादिगन्धो दारमभिव्यञ्जकं यस्याः सा । दुरा-
धषीमजितेन्द्रियेर्दुष्मरधषौ स्वभावलोरत्वात्‌ । करीषिणी करीषं गोम-


६ दीपिकायां ५ खण्डः ।


यं तद्कती “गोमये वसते लक्ष्मीरिति” स्मरतेः । इभ्वरीम्‌ । अश्रातेराद्यु-
कमणि घरटि देश्चोपधाया इत्ययुभ्लेरीत्वे डीपि रूपमिति दुधरव्रततिः।
स्थेशभासेति वरचि रैशवरेति स्यात्‌ (पा. ३. २. १७५.) । त्वं श्रीस्त्व-
मीभ्वरी त्वं हीरिति चण्डी ॥८॥ आं रुरिति यज्चलक्ष्मीमन्लो
नारसिंह उक्तः (पूयैतापनी.४.२.) ॥ ९ ॥ पद्यप्रम इत्यादिः पञ्माव-
तीमन्लः । क्चिद्ध मेकतय इति पाठः कचिद्रतय इति । ठक्षम्या आरा-
धने टक्ष्मीमुद्धा दर्शनीया सा यथा । “चक्रमुद्रां तथा बध्वा मध्यमे
दे प्रसार्य च । कनिष्ठिके तथानीय तद्ग्रेऽङ्गष्टको शपेत्‌ । श्षमीमुद्रा
परा येषा सवेसम्पत्प्रदायिनीति? ॥ १० ॥ वरुणप्राथनामन्नो [हिर-
ण्य्ंगमिति ॥ ११॥ पुनन्तु शोधयन्तु निहेरन्तु ॥ १२॥ अपां
भाथेना सुमित्रिया ने इति ॥ १३॥ ४॥


गच्छेत्‌ । गच्छेयम्‌॥ २३॥ नदीग्रा्थैनामन््र इभं म इति । चत्वारि
नदीसम्बोधनानि । स्तुतेमोनं स्तोमः । हे गाद्या इमं मे मम स्तोमं
स्तुति सचता । षच सम्बन्धे । सम्बद्धं कुरुत गरहीतेल्यथैः । “ऋचि तु-
नुघमश्चुतङ्कुत्रोरुष्याणामिति" दधेः (पा. ६. २. १३२.) । हे परूष्णि
आ सरणे । छान्दसः सन्धिः । आड वा क्रियासम्बन्धः । असिक्रया
असितया । “असितपकितयोने । क्रमेके" (कौमुदी. ४९६.) । असिक्रया
सष्ट श्णुहि । “श्रुश्टणुपृकबभ्यश्छन्दसि” (पा. ६. ४. १०२.) इति हेर-
लुक्‌ । मत्कृतां स्तुति श्णु । दे अपि नदीविशेषे तथा हे मरूदुधे ना
वितस्तया नद्या सह शछणुहि हे आर्जीकीये नदि आ स्मृतम्‌ । खुषो-
मया सोमोद्धषया नमेदया नया सह॒ शणु मत्स्तुति ग्रहाण ॥ ४॥
ऋलं चेत्यघमषेणमन्लः । ऋतं च सत्यं चेति दयमभीद्धाहीप्रात्तपसो
शानरक्षणाखमोवध्युपयजायतोत्पन्न ततोऽनन्तरं राओी। ““रान्रश्चाजसा-
वितिः डीप्‌ (पा. ४. १. २१.) । अजायत । कालव्यवहारो जातस्ततो
राञ्यनन्तरं तस्याः शीतत्वात्समुद्रो जातः । मुद्वासहितोऽपि भवती-


दीपिकायां ५ खण्डः । ७


स्यत आहु अणेव इति । अणोस्युदकानि खन्स्यस्याणेवः । ““अणेसो शो-
पश्चेति" वः सलोपश्च (कौमुदी. १९१६.) ॥५॥ तदुपरि संवत्सरो
अजायत । संगत्य वसन्त्यस्िन्निति संवत्सरो दिवसः; सहससंव-
त्सरे सभे संवत्सरशब्दस्य दिवसाभिधायित्वनि्णयात्‌। ताभ्यामदहो-
रा्ञाणि विदधत्कृतवान्‌ । विश्वस्य मिषतो निमेषोन्भेषं कुवैतो रोकः
स्यायुःपरिमापकत्वेन सम्बन्धीन्यहोरात्राणि विदधदिव्यन्वयः । वशी
स्वै वशेऽस्य वत्तेते ॥ ६ ॥ यथापूर्वं पूर्वैकल्पवत्‌ । स्वः स्वरौ स्वगो-
तमं दिव उर्ध्व मागम्‌॥७॥ यत्प्रथिव्याभिलति निमजनमन्वः।
पृथिव्यां भूमौ यद्रजः स्वं रजसः स्वरूपं आ आधितं वत्तैते व्याधितं
वत्तेते। उपसर्गेण क्रियाक्षेपः । अन्तरि्चे यद्रजः स्वं विरोदसी विशिषं
द्ावाप्रथिव्यौ यदाधरितमिमास्तद्रज आप उदकरूपो वरुणो देवोऽघ-
मषेणः पापनाशनः पुनातु स्फेटयतु तस्माद्रजसः पविञ्नीकरोतु ॥ ८॥
एष सवेस्येति खत्युपार्थनामन्वः । एष त्व भूतस्योत्पन्नस्य भव्ये
भव्यस्योत्पत्स्यमानस्य । विभक्तिव्यत्ययः । भुवनस्य लोकस्य गोप्ता
रक्षकोऽसि । हे शत्यो एष त्वं पुण्यकृतां लोकान्त्संशिश्ाधि । शासु
अनुशिष्टौ । छान्दसः शुः । समुपदिरा । येन पुण्यङृतां ोकान्याम तं
मागीमुपदिश । हे शत्यो एष त्वं हिरण्मयः सुवणमयोऽसि । हिरण्मयं
खवः दयावापरथिव्योः संश्टतं खुपक्तं परिपाकभूतं वत्तते परथिव्यां दि-
वि च ब्रह्मरोके स्थित्वासाध्यत्वात्‌ । स्वःशदेन ““ यदेतत्परो दिवो
ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सवेतः पृष्ठेषु" ( छा. ३. १३. ७. ) इत्युक्तं
स्थानं ग्यते । म्रत्यो त्वं तत्संशिशाधि तदपि येन प्राण्यते तसुपायमुप-
विशेव्यथः ॥ ९॥ आद्र ज्वलति इत्यवकीणिनो दोममन्लः । आद्र
सिग्धं सवैजनकत्वाज्ज्योतिश्रह्याख्यं ज्वलति भिय प्रकाशते तदहमसि।
अहमेव नान्यदस्ति किञ्चन । अहमेव मामेव जदोभि मया मयि चे-
त्यपि द्रष्टव्यम्‌ । तदुक्तम्‌ । “ बह्मापेणं बह्महित्रह्याभ्नौ अह्मणा इतम्‌ ।


८ दीपिकायां & खण्डः |


ब्रह्मेव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकमसमाधिनेति ” ( गीता. ४, २४. ) ॥ १०॥
अधमर्षणफलमाह अकायेकारी ति । अवकीणीं ब्रह्मचारी सरीगम-
नस्य क्तौ । वरुणोऽपामधघमषेणो यत्पृथिव्यामित्यनेनाघम्षणकन्तां
ठश्ष्यते सो ऽकायंकरणादिपापात्परमुच्यते ॥१९॥ अघम्षणानन्तरं स्तु-
तिमन्त्ो रजो भरूभिरिति। रजो मलं भूमिभूमेरंशः । हे वरुण त्व-
मोरोदयस्व । “ आडेऽनुनासिकदछन्द सि” ( पा. ६. १. १२६.) इत्य-
जुनासिकः । स्छानं कृथा रजो नाशयेत्यथैः । धीरा धीमन्तः प्रवदन्ति
प्रङृषं वरुणं वदन्ति ॥ १२॥ ५॥


अक्रान्त्ससुद्र इति । अत्र निरुक्तम्‌ (१७. १६.)। “अत्यक्रमीत्स-
मुद्ध आदित्यः परमे व्यवने वषेकमेणा जनयन्प्रजा भुवनस्य राजा स्वस्य
राजा । चषा पवित्रे अधि सानो अव्ये महत्सोमो वाच्रधे सुवान इन्दु-
रिव्यधिदैवतम्‌ । अथाध्यात्मम्‌ । अव्यक्रमीत्समुद्र आत्मा परमे व्यवने
ज्ञानकर्मणा जनयन्प्रजा भुवनस्य राजा सवस्य राजा । वृषा पवित्रे
अधि सानो अव्ये महत्सोमो वाघ्रुधे सुवान इन्दुरित्यात्मगतिमाचष्ट
इति ॥ अक्षरान्वयोःऽग्र द्रष्टव्यः ॥ जातवेद स इति । अत्र निरुक्तम्‌ ।
( १४. ३३. ) “जातवेद स इति जातमिदं सव सचराचरं सथित्युत्पत्ति-
प्रखयन्यायेन जातवेदस्या ( ? ) इदं जातवेदसे ऽचौय खुनवाम सोम-
मिति श्रसवायाभिषवाय सोमं राजानमसम्रतमरातीयतो यक्ञार्थम-
निसो ( ?) निदहाति निश्चयेन दहति भस्मीकरोति सोमो दददि-
त्यथैः (१) । स नः पषेदति दुगौणि विश्वा दुगेमानि सथानानि नावेव
सिन्धुं नावा सिन्धुं यथा यः कथित्कणेधारो नावा सिन्धुं स्यन्दमाना-
नां (2) नदी जटदुगौ महाकूखां तारयति दुरिताव्यभ्िरिति तानि
तारयति तस्यैषापरा भवति ” ॥ अक्षरयोजना व॒ । समुद्र आदित्यो
चि अव्ये व्यव्ये व्यवने विरहेषेण अवने रक्षणे निमित्तभूते सति चषा व-
घण धमेन्‌ धर्मेण प्रजा जनयन्‌ सन्‌ अक्रान्‌ अत्यक्रमीत्सर्षमात्मनो ऽध-


दीपिकायां & खण्डः । ९


श्चकारेष्यथैः । कीदशे व्यव्ये । प्रथमे परमेऽन्येरसाध्ये । कीदशः स-
मुद्रः । भुवनस्य सवैस्य राजा स्वामी । पवित्रे सानो सानौ अधि शि
खराधीशः सन्‌ बृहत्सोमो महाप्रसविता इन्दुः सुवानः सूतेऽसो सखु-
वानः सर्वोत्पत्तिकत्त सन्‌ वावृध कलाभिरथिको बभूव । सय॑ पव
स्वकिरणेव्र्टि कत्वा सोमरूपेण चाप्याय्य सवं रक्षतीत्यथैः ॥ आत्म-
पक्षे सूयेस्थानीय आत्मा कमेफटरदानमेव वर्षणं मन पव चन्द्रः सच
बाद्यचन्द्र इव सूयतेजसा स्वतेजसा सिद्धस्तेन वासनाकिरणेजगदा-
सिच्य प्रवतयतीत्यथः ॥ जातवेद स इत्यस्य योजना । जातमिदं सरवै
सित्युत्पत्निप्रटयेवंद जानाति जातवेदा भगवानभिस्तस्मे जातवेद्‌-
सेऽग्नये सोमं सोमवल्टी वयं खुनवाम । पाथनायां रोट्‌ । अश्नौ हो-
माथं सोमाभिषवं प्राथेयामह इव्यर्थः॥ आत्मपक्षे तत्समपेणाय सत्क्म-
प्राथना ॥ विपक्षे बाधकमाह अरातीयत इति । रातिर्दानं रातिमरैति
रातेः सम्बन्धी वा रातीयः। न रातीयो.ऽरातीयोभ्दाता। तस्माद्‌रातीय-
तोभ्दातः सकााद्धेदो ज्ञानं धनं वा। चिद ज्ञाने विदु छाम वाअसुन्‌।
निदहाति । टेर्‌ तिबादर्‌ । निश्चयेन दहति दहेत भस्मीकु्यात्‌ । ““ छि-
ङ्थं लेट्‌ ` (पा. ३. ४.७. ) । सोऽभ्चिरात्मा वा नोऽस्मान्‌ विश्वा चि-
श्वानि सर्वाणि दुगीणि दुगैमानि स्थानान्यतिपर्षदिति क्रियापदम्‌ ।
अतिरुपसगेः । अतिपारयतीयथः । पवं दुरितातीदयज्न पषदिति यो-
स्यम्‌ । अत एवोत्तरत्र मन्वेऽतिपर्षीति प्रयोगः । अक्षरपूत्तिस्त्वत्यिः
अतियश्चिरििति तेन चष्भत्वसिद्धिः । यथा कथिन्नावा सिन्धुमतिपार-
यति न केवलं दुगोणि तारयति किन्तु दुरितान्यतिपारयति दुरिता-
न्यपि तारयतीत्यथेः । पषदिति पृ पालनपूरणयोः । छेद तिवितो खो-
पोऽटर्‌ । ““ सिब्बहुलं टेटीति ” सिप्‌ (पा. ३. १. ३४.) । अस्याः पुर-
अरणविधानं त॒ शारदातिरखकादिभ्यो द्रष्टव्यम्‌ ॥१॥२॥ दुगोया
अभिशक्तेमन्तमाद ताभश्िवणीनिति । वेरोचनी सूर्यसम्बन्धिनी-
म्‌ । खुतरसिद्धतरसे नम इति खुष्रुतरमतिश्यितं सिद्धं तरो वेगो यस्याः
2


१० दीपिकायां ७ खण्डः 1


सा तस्थै ॥३॥ अश्र इति। हे अन्ने त्वं स्वस्तिमिरस्मान्‌ . विश्वानि
दुगोणि स्थानान्यतिपारय प्राप्तपाराणि कुरु । नव्यो नूतनः । नः पूः
पुरी पृथ्वी विपुरखास्तु । उर्वी भूमिनां बहुखास्तु मम शंयोः सुखिनः ।
“कं्चंभ्यामिति' युस्‌ ( पा. ५.२. १३८. ) । तोकाय बाखाय तनयाय
भवास्मभ्य नूतनं पुं देदहीतयथेः॥ ४॥ विभ्वानीति । रे जातवेदो
नोऽस्माकं विश्वानि सवौणि दुरिता दुरितान्यतिपर्षिं अतिपारयसि।
कीटशस्त्वम्‌ । दुर्गहा दुगौण्यगस्यानि हन्ति गम्यानि करोत्यगम्यगति-
दायकः । सिन्धुने सिन्धुरिव नावा पायते । अग्न इति । हे अभ्नेऽजिव-
द्च्रिश्चन्द्रस्य पिता तद्धदयादुत्वान्नमसा नमस्कारमात्रेण गरणानः। गृ
शाब्दे । उपदि शन्नस्ाकं बोधी बोधकोऽसि तथा तनूनां दहानामविता
रक्षितासि ॥ ५ ॥ पृतनाजितं सेनाजयिनं सहमानं क्षमावन्तसुभ्रं दुः-
सहमि हुवेम होमेन प्रीणयामः परमादुत्कृष्टात्सधस्थात्सधे द्यावापृ-
थिव्यौ तयोः स्थात्‌ सानात्‌ । “* खुपि स्थ ›' इति योगविभागात्कः ( पा.
३. २. ४.)। हेतौ पश्चमी । फलमपि देतुव्यैपदिदयते दयावापृथिव्योः पर-
मस्थानप्रास्यथेम्चि दुवेमेव्य्थः । सोऽभरिर्नोऽस्मान्विश्वानि दुगौण्य-
तिपषदतिपारयति । श्चामन्‌ क्षाम्यन्सहमानो देवोऽभ्निरतिदुरिता म-
हादुरितान्यतिपषेत्पारयति ॥ ६ ॥ प्रल्न इति । प्रन; प्रगतो याक्ञिकैहि
कं निश्ितमध्वरेषु यागेष्वीड्यः स्तुत्यः सनान्नित्यश्च होता पुरातनोऽपि
मव्यो नूतनश्च सत्सि सदसि । हे अग्ने स्वामात्मीयां च तन्वं तनू
पिप्रयस्व परीतां क्वस्मभ्यं च सौभगं सुभगतामायजस्व देहि । इयम्ि-
स्तुतिः ॥ ७ ॥ परस्तादिति । मम यशाः परस्तात्परपारे गुहासु गु-
देशेषु निहितं गोपितं तत्प्राप्तये खपणेपक्षाय गरुडाय धीमहि ध्याये-
म । शसबाहुना परमेश्वरेण सुवो राजा स्वगस्य राजा इन्द्रोऽजायत ।
सधस्था दयावापृथिवीख्यानान्यन्तरिक्चमन्तभोौव्य जीण्यजायन्त ॥ ६॥

ओं भ्रूरम्रथ इत्यादयो रोमधिरेषमन्त्राः स्पष्टाः सत्वुद्धये
चेषां जपो क्षेयः ॥ १॥ यदछन्द सामरषभो वाच्यत्वाद्धिश्वरूपः


दीपिकायां ८ खण्डः । ११


सवोत्मा . छन्दोभ्यः सकाशादन्यानि छन्दांस्याविष्टवांदछन्दोभिगीसो-
ऽन्तरात्मा विचरतीत्यथैः । सतां सत्पुरुषाणां शक्यो शेयः भोषाचोप-
निषदुपनिषदमिनद्रः परमेश्वरो ज्येष्ठः सवौदित्वात्‌। अथवा शक्यो
वेदवाच्यः स इन्द्रस्तामुपनिषदं प्रोवाचेलय्थः ॥ ५॥ मधाविन्रखये
मन्तो नमो ब्रह्मण इति । धारणं श्रुतस्याथस्य चिन्तनम्‌ । अनिरा-
करणं विस्मरणरदितम्‌। ममामुष्य च शिष्यस्य च कणैयोः श्रुतं ्रवण-
शक्तिभूयात्‌ । हे धारणादयो यूयं मा च्योदुं च्युता मा भूत मम
शिष्यस्य च ॥ ६ ॥ ७॥


ऋतं तप इति । ऋतं सूजरता वाणी तपः । शान्तं शान्तिरिन्दरिय-
निग्रहः । पतानि स्वणि सच्वशुद्धिद्धारा ज्ञानसाधनानील्यर्थः । ब्रह्म
वेदो भूरादिलोकत्रयं च ब्रह्म परं ब्रह्येतदुपास्य वर्तेतैतत्परं तप इत्यः
॥ १॥ यथा दृक्ष स्येति पुण्यकर्मस्त॒तिः । अपुण्यस्य निन्दा यथासि-
धारामिति । असे; खस्य धारां कर्तेऽवहिताम्‌ । त्यते कर्तो गर्तः ।
छृती छेदने घञ्‌ । छेदनफरखगर्तमध्येऽवहितामारोपितामवक्रामेदवङ-
ष्य गच्छदुद्टंघयेत्‌ । यदि उ वा यदेव इह वा वामभाग इह वा दक्षिण-
भागे विहरिष्यामि प्रमादी भविष्यामि कत्तं तहि पतिष्यामीति साव-
धानो गनच्छेदेवमनरतान्मिथ्याभिधानादात्मानं ज्युप्सेद्र्येत्‌ ॥ २॥ न-
न्वात्मज्ञानायेतावत्किमित्यवधानं क्रियत इत्याशंक्य सूक्ष्मत्वेन दुरधिग-
मत्वादित्याह अणोरिति। तद्यैव्यन्तमणो्लाभि कः पुरुषार्थं इत्यत
आह महत इति । अणुत्वं दुरधिगमत्वादुच्यत इति भावः। गुहायां
दहरे पुण्डरीके । अक्रतुमसकस्पं वीतशोकताफखम्‌ । धातुर्गुरोत्रह्मण
आत्मन एद वा । धाठुप्रसादादिति पाटे दधत्यथैमिति धातव इन्द्रि
याणि तेषां प्रसादाच्छुद्धेरित्यथैः । महिमानं महान्तं प्रत्ययार्थो न
विवक्षितः ॥ २॥ खप्रेति । सप्त प्राणाः शीषण्या अन्नैः सप्ताचिषः स-
भिधो जिहाश्च । सर््ाचषः सत्त हविष्कृता दीप्तयः । समिधो यथा


१२ दीपिकायां ९ खण्डः ।


“"पाकसंस्था हविःसंस्थाः सोमसंस्थास्तथापराः । एक्विशतिरिव्येता
यक्संस्थाः प्रकीतिताःः इति समिधः सप्र सप्त (शांखायनगर्यसूजाणि
९. १.) । “काटी कराली च मनोजवा चेः. लयादया मुण्डाक्ताः (१. २.४.)
सप्त जिह्वाः । सप्त लोका भूरादयः । येषु खोकेषु गहाशया खिगशरी-
रस्था निहिता गुप्ताः सप्त सप्त प्रतिशरीरम्‌ ॥ ४ ॥ सवंमात्मन ण्व
जातमिति पूर्वोक्तं मन्त्रान्तरेण प्रकारायति अत इति । येन रसेन
भूतैश्च कृत्वान्तरात्मा छिगशरीरावच्छिन्न स्तिष्ठते कृतावस्थानो भवति ।
“'अश्नम्यं हि सोम्य मनः इति श्रुतेः (छा. ६. ५. ४.) ॥ ५॥ ८ ॥


तस्य विभूतिमाह ब्रह्येति । देवानामिन्द्रादीनां मध्ये ब्रह्मा पारमे-
श्वरं रूपम्‌ । पदवीः पदवी दैव्याचायीधिकारमिच्छति पदवीयतीति
पदवी; क्िबन्तः गुकऋषिश्वैगुपुजरः कवीनाम्‌ । ° कवीनामुशना
कविरिति? स्मरतेः (गीता. १०. २७.)। निल्यगानित्वात्सूयो वा पदवीः
कवीनां ज्ञानिनाम्‌ । यद्वा पदानि व्ययति संव्रणोति सम्यक्पद्‌प्रयोग-
कन्त कवीनां श्रेष्ठः । महिषः । मह पूजायां । पूज्यतमः सिहो “ खुगाणां
च म्गाधिपः' इति स्मरतेः । स्वधितिः पर श्युवेनानां छेद दे तुत्वाच्छेष्ठः।
सोमो वह्टी पवित्रमव्येत्यतिक्रम्य गच्छति । पवि्रेषु सोमो वेप्णवं
रूपमि्यर्थः । रेभन्‌ । रेभ शब्दे । अहमु्यौरेति निःशंकं भाषमाणः ॥
यास्केन ( १४. १३.) तु रदिमनिषेवितादिव्यपरतयेन्द्रियाधिपात्मपर
तया चायं मन्बो व्याख्यातः । तद्यथा । ^ ब्रह्मा देवानामि्येष हि बह्या
भवति देवानां देवनकमणामादित्यरदमीनाम्‌ । पदवीः कवीनामिव्येष
हि पदं वेत्ति कवीनां च कवीयमानानामादित्यरहमीनाम्‌ । ऋषिविपरा
णामिव्येष हि ऋषिणो भवति विप्राणां व्यापनकमंणामादित्यरदमीनाम्‌।
महिषो सरगाणामिल्येष हि महान्भवति स्रूगाणां मा्गणकमणामादित्यर-
इमीनाम्‌ । द्येनो गृध्राणामिति इयेन आदित्यो भवति इ्यायतेगेतिकः
मणो ग्र आदित्यो भवति गरष्यतेः सथथानकभमेणो यत पएतसिस्तिष्ठति ।


दीपिकायां ९ खण्डः । १३


स्वधितिर्वनानामित्येष हि स्वयं कर्माण्यादित्यो धत्ते वनानां वननक-
सणामादिल्यरदमीनाम्‌ । सोमः पवि्रमव्येति रेभकियेष हि पविज्रं र-
इमीनामययेति स्तूयमान एष पवेतत्सर्वेमक्चरमित्यधिदैवतम्‌ । अथा-
ध्यात्मम्‌ । ब्रह्मा दे वानामित्ययमपि ब्रह्मा मवति देवानां देवनकमेणा-
मिन्द्रियाणाम्‌ । पदवीः कवीनामित्ययमपि पदं वेत्ति कवीनां कवीय-
मानानामिन्द्रियाणाम्‌ । ऋषिविप्राणामित्यय मप्युषिणो भवति विप्राणां
व्यापनकमणामिन्द्रियाणाम्‌ । महिषो खगाणामित्ययमपि महान्भवति
मरगाणां मागणकर्मणामिन्द्रियाणाम्‌। रयेनो गृध्राणामिति दयेन आत्मा
भवति इ्यायतेज्ञानकर्मणो गरृध्राणीन्द्रियाणि गर्यतेक्ञांनकर्मणो यत
पएतरस्मिस्तिष्ठन्ति । स्वधितिवैनानामित्ययमपि स्वयं कमोण्यात्मनि
धत्ते वनानां वननकमेणामिन्द्रियाणाम्‌ । सोमः पवित्रमव्येति रेमन्नित्य-
यमपि पवित्रमिन्द्रियाण्यव्येति स्तूयमानो यमेवेतत्स्वेमजुभवत्यात्म-
गतिमाचष् ” इति निरूक्तानुसारेणाधिदेवतमध्यात्मं च व्याख्यायते ॥
आदित्यपक्षे षष्ठधन्ते रदमयो वाच्याः प्रथमान्तेरादित्यः । सर्वत्र रू-
परकोपमा द्रष्टव्या । यौगिको वार्थो रूढिमपदायायुगन्तव्यः ॥ अध्या-
त्मपक्षे प्रथमान्तैरात्माभिधीयते षषठथन्तैरिन्द्रियाणि । ब्रह्मा श्रहन्यथा
देवादिषु ब्रह्मादयो राजन्त एवमात्मेन्द्रियेषु राजते । सोमः प्रसविता
पवितं छयुद्धो.्व्येयतिदायेन जानाति । गत्यथास्ते ज्ञानाथोः । आदिद
आत्मा च नारायण एवेति नारायणप्रकाशकः ॥ १॥ अविकारस्य
कथं नानात्वमित्याशंक्य भायिकमिति वक्तुं मायास्वरूपमाह अजा
मिति । अजामनादिमेकां विचि्रशक्तित्वेन नानाकायंसम्भवाह्टाघ-
वादेकाम्‌ । गुणभेद माद रोहितेति । चेतन्येक्षणे कार्यमाह बह़्ीमिति ।
अजो येकः संसार्यनुखत्य रोते न जागति ज्ञानाभावात्‌ । अजोऽन्यो
ज्ञानी ॥ २॥ हंस इत्यादि कारके व्याख्यातम्‌ ॥ ३॥ यस्मान्ेति।
यस्मात्परो न जातः । तस्याविकारित्वायत्तु जातत्वेनोपरुभ्यते तत्ततो
न भिद्यते किन्तु तस्यैव विवक्तैः। नयु ताद स्वतन्त्र एव नित्योऽन्यो


१४ दीपिकायां ९ खण्डः ।


भवत्वत आह अन्यो अस्तीति नेव्येवान्योऽपि स्वतन्त्रो नास्त्येकत्वे श्रु-
तितात्पर्यात्‌ । नञ वुद्युपलभ्यमानस्य का गतिरत आह य इति । आ-
वेशः सश्निवेशविशशेषः । स पव भुवनाकारो बभूवेत्यथः । प्रजया सं-
विदानः प्रजेति संक्लामापन्नः। जीणि ज्योतींषि ज्ञानाथिदंशेनाभचिः को-
छठाभिरिति । तानि सचते तेः सम्बद्धो भवति । स च षोडशी षोडश-
कटावांस्ताश्च षष्ठप्रश्च उक्ताः । चतुथेसोमसंस्थारूपो वा ॥ ४॥
विधन्ीरभिति तजिपदा गायत्री । विधत्तौरं सवैधारिणं सूय हवाम-
ह आवाह्टयामो यो नोऽस्मभ्यं वसोद्रंव्यस्य वनाति वनति । वन सम्भ-
क्तौ । विभागं ददाति । अत एव विभक्तारमिति शाखान्तरे पाटः । कु-
विदव्ययं शनकैर । अयाचित एव नो द्रव्यभागं ददातीत्यथैः। सवि-
तारं प्रसवितारं मुचक्षसं नँश्चष्टे चृचक्षास्तं प्राणिनां ज्ञानप्रदम्‌ ॥ ५ ॥
गायच्यन्तरमाह अयति । अद्यशब्दोऽसिन्नहनीत्यथं सद्यआदिसूत्ेण
(पा. ५. ३. २२.) निपातितः । निपातस्य च” (पा. ६. ३. १३६.) इत्य-
द्रशब्दस्य दीधैः । अद्या नोऽस्माकं देव सवितः सवनकर्तः सौभगं सो-
भाग्यं प्रजावत्‌ प्रजामरैतीति प्रजावत्‌ । “तदहेतीतिःः वतिः (पा.५.१.
६३.)। यथा प्रजासु योग्यं मवति तथा सावीः । छान्द सोऽडभावः। अ-
सावीः प्रसूतवानसि । दुःष्व्रमहेति दुःष्वभ्रियमियादिपूरणः । परासुव
निराकुरु ॥ ६॥ गायच्यन्तरं विभ्वानीलति । हे देव सवितधिश्वानि
सवीणि दुरितानि परासुव निराङुर । यच्च भद्रं कल्याणं तन्नोऽस्मभ्य-
मासखुष प्रसखुष ॥ ७ ॥ मध्वित्यादि तिसख्रखिपदा गायच्यः । वाता ऋ-
तायते । ऋतं सत्वं यते पति यन्‌ तस्मे यते सत्यमाघ्रुवते सत्यवादिने ।
छान्दसो दीधः । वाता वायवोऽपि मध्वमतं क्षरन्ति । “लिङ्थं लेट्‌?
(पा. २.४.७.) । छिङर्थोऽज प्रार्थना मधु श्चरन्ति क्षरन्तु । सिन्धवो नयो
मध्वसरतं क्षरन्तु । ओषधीरोषधयो नो माध्वीमोध्व्यः सन्तु मधुसम्ब-
न्धिन्यो माध्व्यः | “ तस्येदं `` (पा. ४. २. १२०.) इत्यण्‌ । “ ऋत्ठ्यवा-
स्त्व्यवास्त्वमाध्वीहिरण्ययानि छन्दसि * (पा. ६. ४. १७५.) शति नि-


दीपिकायां १० खण्डः । १५


पातनाहुणाभाषः ॥ ८ ॥ नक्त रात्रय उताप्युषसः पत्यूषाः । किम्ब-
हना मौमं रजोऽपि मधुमदस्तु । द्यौरपि मध्वस्तु नः पिता । बह्मसद्‌-
नत्वाद्रह्यणश्च सवैजनकत्वात्त्टोकोऽपि पितोपचारात्‌ । मधुशब्दः
केवरोऽपि मधुमत्पर एव पूवापरसाहटचयोत्‌ । मधुब्राह्मणेन मधुम-
नाथैः प्रकाशितो वेदितव्यः ॥ ९ ॥ ध्रतमिति । मिमिक्षे सिषिचे।
भिक्ष सेचने । अस्य सवस्य योनिसैनकम्‌ । ^“ अभ्नौ पास्ताहुतिः सम्य-
गादित्यमुपतिष्ठते । आदिल्याज्ायते वबष्िवष्टेरश्नं ततः प्रजा” इति
स्मृतेः (मनुः ३. ७६.) । धृते धरित आधितः । आभितो लोको घृतस्य
तेजस्त्वात्तेजस्विनं हि श्रयन्ते । घृतं उ अस्य धाम । अस्य लोकस्य
ध्रतं धाम धातू । च्ुषभ हे धमौनुष्वधं स्वधां स्वधामनु आवह धृत-
मादातुं सन्निहितो भव । मादयस्व हष प्राग्ुहि यतः स्वाहाकृतं स्वा-
हाशब्देन हतं धतं हव्यं वक्षि वहसि ॥११॥ समुद्रादिति । समु-
दरात्‌ क्षीरोदान्मधुमार्नूभिस्तरंग उदारदुद्रतवान्‌ । ऋ गतौ ल्युङः खति-
शास्तीलयडः (पा. ६. १. ५६.) । उपाद्युना स्तिमितशब्देनास्रतत्वं समानट्‌
समाप । यदस्ति तद्रूमः। धृतं दे वानां जिहा तेन विना न तृप्यन्तील्यथः।
तथास्तस्य नाभिमुख्यमस्रतम्‌ ॥ १२॥ वर्थ नामेति । वयं धृतस्य
नाम प्र्रवामा अस्मिन्यज्ञे घृतस्य नाम नमोभि्नैमस्कारेधौरयामा दध्मः)
प्र्रवामा धारयामा इति संहितायां दधेः । ब्रह्मा ऋत्विक्‌ शस्यमान-
सभ्भिनिरूप्यमाणं प्रङूतं घृतवणनमुपश्टण्वदुप्णुयात्‌। ठेट्‌ तिषितो
खोपोऽर्‌ । चतुः्ंगो वेदचतुष्टयलक्चणश्ै गयुक्तो गौरो निमलः पर-
मेभ्वसे यज्ञोऽवमीदुद्रीणैवान्‌ ॥ १३॥ ९ ॥


तद्रणनं चत्वारि श्युगेति । अस्य निरुक्तम्‌ (१२.७.)। “चत्वारि
श्छगेति घेदा बा पत उक्ताखयो अस्य पादा इति सवनानि चीणिद्धे
शीर्षे प्रायणीयोदयनीये सप्त हस्तासः सप्त छन्दांसि ज्रिधाबद्धसखेधा-
बद्धो मन्वब्राह्यणकैव्पेवैषभो रोरवीति । रोरवणमस्य सवनक्रमेण-


१६ दीपिकायां १० खण्डः ।


भ्भिर्यज्ञभिः सामभियैदेनम्रुग्िः शंसन्ति यज्ञुभियजन्ति सामभिः
स्तुवन्ति । महो देव इयेष हि महान्देवो यद्यज्ञो मव्यौनाविचवेशोव्येष हि
मयुष्यानाविशति यजमानाय तस्योत्तरा भूयसे निवेचनाये ” ति ।
५ यज्ञो वे विष्णुरिति ”? श्रुतेनारायणपरता ( रतप. १. १.२. १३. ) ॥
आलमपक्षे त॒ चत्वारि श्ंगाणि विश्वतैजसपराक्ञतुरीयाणि । त्रयः पादाः
संखतिरूपगमनैतवो जाग्रत्स्वप्रसखषुप्तानि । दे रीं परापरब्रह्यणी
स्वगौपवर्गौ वा । सप्त हस्तास आदानोपायाः पञ्चेन्द्रियाणि वुद्धिमन-
सखी च तदुक्तं सप्रांग इत्यस्यात्मनः । जिधाबद्धोऽवस्था्रये स्थूलप्रवि-
विक्तानन्दाख्येभोगेबेद्धः संसारं त्यक्तमक्षमो बृषभोऽविद्याया बीजप्र-
दोऽनेन सेचनात्‌ । “ अहं बीजप्रदः पितेति ” स्मरतेः । रोरवीति सं-
सारदुःखेनात्यन्तमाक्रन्द्‌ तीश्वररूपेणोच्चे रुपदि शति च । महो देवों
महान्देवः स्वप्रकारा आत्मा मद्यं मरणधमांणं देहमाविवेरा ““ छिङ््थं
टेर्‌ ” (पा. २.४.७ ) प्रविशति । “^ स एष इह प्रविष्ट आनखाग्रभ्य'
इति श्रुतेः (ब्रह. १.४.७.) ॥ १ ॥ ल्िपघेलि । चरिधादितं जविद्यक-
मणि निहितं पणिभिव्येवहवैभियद्यमानं गोप्यमानं गवि गोविषये
सौरमेयीषु देवासो देवा इन्द्रादयो धरृतमन्वविन्दंह्टग्धवन्तः । एकं
भागमिन्द्रो जजानैकं सूया जजानेकं वेनाद्धेनो वेनतेः कान्तिकमणः
कामुकाद्रद्यणश्चन्द्रमसरो वेकं भागं स्वधया होमरूपेण कमणा हेतु-
भूतेन निष्टतश्चर्वधितवन्तः ॥ २॥ हिरण्यगभस्तुतिमाह य इति । यो
देवानां पुरस्तादाविर्वभूवेति शेषः । विश्वाधिको विश्वोल्छृष्टो रुद्रो सु-
द्ररूपो महपिर्वेदादिप्रवत्तैकस्तं प्रथमं जायमानं हिरण्यगभं परयत
जनाः। ननु ददने कि फलमत आह स इति । स देवो नोऽस्मान्‌ शुभया
स्म्रत्या संयुनक्ति अतस्ततोऽस्य द्रोनं युक्तम्‌ ॥ २॥ यस्मादिति |
यस्मात्परमपरं च किञ्चन नास्ति तदात्मकमेव सवमस्तीत्यथेः । स्तन्ध
आरोपितो वृक्ष इवैको दिवि तिष्ठति तेन पुरुषेण पूरकेणेदं सर्वे पूर्ण
पूरितमतो न परमपरमणु ज्यायो नान्यदस्तीति युक्तम्‌ ॥४॥ न कम


दीपिकायां ११ खण्डः । १७


णेति । कमणा यागादिना प्रजया पुत्रादिना धनेन कमसाधनेन । केन
तद्यैम्रतत्वमानद्युस्त्यागेन । तदहि सर्वे कस्ादस्रता न भवन्तीत्यतउक्त-
मेक इति । न सर्वे किन्तु केचिदेव व्यागस्य दुःसाध्यत्वात्‌ । ^“ व-
क्ता रातसदहसखेषु दाता भवति वा न वेतिः' प्रसिद्धेः । परेण नाकं यदि-
भ्राजते। “एनपा द्वितीयाः” (पा. २.२.३१.) । अत्रेव कस्मान्न विभाजतेऽत
उक्तं निहितं गुहायामिति । ““अज्ञानेनाघ्रतं ज्ञानं तेन मुद्यन्ति जन्तवः"
( गीता. ५. १५. ) । वैकरुण्ठकेटासादिनिषएठास्तु शुद्धसच्वाः परश्यन्ती-
त्यथः । अन्त्याः के परयन्तीत्यपेक्षायामाह । यद्यतयो विरान्तीति ॥ ५॥
किं यतिमानरं विरति नेव्याह वेदान्तेति । पुनः कददाः । सन्या
सयोगाच्छुद्धसत्वाः । ते ब्रह्मटोकेष्वित्यनेन कममुक्तिरुक्ता । अन्त-
कालो मरणं परान्तकाटस्त्वपुनभ॑वकाटः। अस्रता देवाः परा्रतास्त्‌
मुक्ताः परि सामस्त्येन मुक्ता भवन्ति मुच्यन्तीति व्यत्ययेन दयन्‌ ॥ ६ ॥
आत्मनः साक्षात्कारस्थानमाह दहभिति । दहरमिति वक्तव्ये छा-
न्दसो विकारः । विपाप्मं निष्पापं वरं शेषं वेदमभूतमात्मनि वासस्थानं
पुरमध्यसंस्थं देहान्तःस्थं तत्रापि तन्मध्येऽपि दहं सशष्मं गगनमाकारां
विशोकः शोकरदहितम्‌ । तस्मिन्‌ विषये यद्‌न्तवेति तदुपासितव्यमुपा-
सनीयम्‌ । तदुक्तं छान्दोग्ये (८. १. १.) । ^“ अथ यदिदमस्मिन्‌ बह्म
पुरे दहरं पुण्डरीकं वेदम दहरोऽस्िन्नन्तराकारास्तसिन्यदन्तस्तदन्वे-
ष्रव्यं तद्धाव विजिज्ञासितव्यमिति ' ॥ ७॥ य इति । स्वर आकारः।
प्रतिष्ठित उपास्यतया निर्णीतः । प्ररकृतिटीनस्य स्वरूपेण प्रत्यात्मकस्य
यः पर उत्कृष्टो वाच्यत्वेन प्रधानभूतः स॒ मरेभ्वरः परमात्मा ॥ ८ ॥
अस्यैव रोषः । अजोऽनाद्योऽन्यो जडविटक्षणः खुविभाः सुतरां वि-
भाति विश्वचक्रस्य नाभिराधारभूतः सर्वमस्यैव नातोऽन्योऽस्ति
स्वामी ॥ १०॥


एवमादिमन्वकटखापपरकाशयं नारायणं स्म्रत्वा पनः छोकेः स्तौति


१८ दीपिकायां ११ खण्डः |


सहस्ररीषेभिति । सहखशिरसमिति तु युक्तं वक्तुम्‌ ॥९॥ वि-
ग्वमेवेदं पुरूष इति । ददं विश्वं पुरुष एवेत्यन्वयः । तद्धिश्वमिति
तश्नारायणाख्यं वस्तु विश्वं खोक उपजीवति तदाधारं प्राणिति ॥ २॥
पति विश्वस्य सर्वस्यास्मेश्वरमात्मा जीवस्तस्येश्वरं नियन्तारं महा-
ञेयं यसन विक्ञाते स्वमिदं विज्ञातं भवति ॥२३॥ परे उ्योति-
वद्यादीनां प्रकाशकः । पर आत्मा परमात्मा ॥४॥ परो ध्याता
निव्यस्वस्थाशयः । ध्यानं ध्यातव्यम्‌ । परादपि परश्राखु तस्माद्यस्तु
परात्पर इति । असखभ्यः प्राणेभ्य आ इत्या यः परादपि नामादेः परः।
छान्दोग्ये स्कन्द्नारदसंवादे निरूपितोऽथस्तस्मात्पराद्यः परो भूमा
स नारायण इत्यथः ॥ ५॥ समुद्रेतं समुद्रमितं प्राप्तमम्भस्यपारे स-
मयप्रविष्ट इत्युक्तेः । विश्वशम्भुवं विश्वेषां शं सुखं तस्य मुवमुत्पत्ति-
स्थानम्‌ । तस्य ध्यानस्थानमाह पञ्चेति । अधोमुखमूर्वनाटश्च ॥ ७ ॥
तस्य स्थानमाह अधोनिष्ट्या वितस्त्यां त्विति । अधोनिष्ट्या
अधोनिष्ट्या वितस्त्यां वित्िप्रदेशव्याध्यां नाभ्यामुपरि नाभेरू्व-
भागे तिष्ठति वत्तेते । तद्धृदयं विजानीयाद्विश्वस्य वागादि संघातस्य
महदायतनं स्थानम्‌ ॥ ८ ॥ सतत निरन्तरं शिराभिरेम्बति आ। आ-
छभ्बत्याम्बते शिराधारेऽवरम्बत इत्यथः । अथवा सतं शतच्छिद्रं
वंशचर्मादिनिभितं पात्रं यवनेषु प्रसिद्धं तस्य सतस्य तन्तव इवातान-
वितानात्मिकाः शिरस्ताभिरुपरुक्षितमिव्यथंः । कोशसनिभं कदी
पुष्पसन्निमम्‌ ॥ ९ ॥ महान भ्मि; । आत्मेव । विश्वाचिर्यस्य विश्वतो-
ऽर्चीषि वर्तन्ते यद्धेदा अथिदहोत्रे पश्चा्नरय उक्ताः| मूधि मुखे हदये
नाभावाधारे चावस्थिताः। तदुक्तं गीतासु (१५. १४. ) । “ अहं वे-
श्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाधितः । प्राणापानसमायुक्तः पचा-
म्यश्नं चतुविधमिति ”। अत एव विश्वतोमुखः सवेत; सन्मुखः ।
सो.ऽग्रभुगिति । “ तयोरेकः पिप्पटं स्वाद्त्तीति ” श्रुतेः (मुण्ड, २.


दीपिकायां १२ खण्डः । १९


९. १. ) । आहारं विभजन्‌ सवोवयवेषु सश्चारयन । तथा तिष्ठन्नियं
जाग्रवापादतटमस्तकं स्वं देहं सन्तापयतीत्यन्वयः । सवैश्ारीर ओ-
्ण्योपठम्भस्तु कृत एव । अक्षयो नित्यः कविश्च तन इत्यादिः । छिगा-
दथमासेव न मोतिकोऽच्चिः॥ १०॥ तस्य हृदयस्य । वहिरिखा भो-
तिकाप्नेः दिखा । अणीयोध्वध्विभागेऽणीयसी ॥ १९१ ॥ नीटमेघान्तः-
स्थविदयुदिव भासुरा । अत एव सिगाद्धुदयाम्बुजं दयाममिति ग-
म्यते । शुकं कणाग्रसूचिका । पीताभा पीतवणा । तनूपमा सृक्ष्मेणो-
पमीयते कुण्डखिनीति यां नैगमा आहुः ॥ १२ ॥ तस्यां इति । इद-
मेव देवताध्यानसथानम्‌ । सेन्द्रः स इन्द्ररखन्दसः सन्धिः ॥ १३॥
अथातो योग पेक्यं व्याख्यायते । छान्दसः सोदक । जिहा मे म-
वादिनी मधुरवादिन्यस्तु माधुर्यण जिहाया योगोऽस्तु । अहमेव
कालोऽत्ता नाहं कास्य भोाग्यः। अयमात्मकाटयोगः॥ १४५ ॥ नारा-
यणो ऽहमेव स्थितो व्यवस्थितो निर्णीतश्चत्वारि च विश्वतेजसप्राक्ष-
तुरीयाण्यहमेव । अनेन जीवपरमात्मनोयाग उक्तः ॥ ११ ॥


विरूपाक्षं नमामीति रोषः ॥ १॥ आदित्य इति । यदेतत्-
त्यक्षं मण्डलं तपति तप्यमानं ददयत एच आदित्यः । तस्य क्रमेणग्येजुः-
सामरूपतामाह तत्र ता इति } यदतन्मण्डलटं तपति ता चो मण्ड-
टमेव्चैः । स एवचा लोकः । मण्डटाधिषठाता पुरुषो यजुषां रूपं म-
ण्डटखाथिः साल्लां रूपं सोऽचिःपदाथः साश्नां मण्डलम्‌ । सेपेति।
अन्तरादिलये यो हिरण्मयः पुरुषः सा त्रयी विदैव ॥ २॥ तेजः शु-
क्रम्‌ । ओजौ नाम वीर्यपरिणामोऽ्टमो धातुः । तत्परिणामो बलम्‌ ।
आत्मां बुद्धिः । मजुक्ञानम्‌ । ख्त्युय॑मः । कि तत्सत्यमिति पशे विश्वा-
न्तेमोन्तरम्‌ । कतमः स्वयम्भूरिति प्रश्ने प्रजापतिः संवत्सर इव्यतदन्ते-
नोँश्षरम्‌ । संवत्सरस्य किं पारमाथिकं रूपमत ह संवत्सरोऽसा-
वदिष्य इति । य आदिय एष पुरुष एतत्पुरुषात्मा । “ सूयं आत्मा


२० दीपिकायां १३ खण्डः ।


जगतस्तस्थुषश्चेति ” श्रुतेः (चछर. १. १९५. १. ) । य एष आदिल्योऽसौ
भूतानामधिपतिः । आदित्यो वा पष इत्याद्युपासनावत आदित्यो वे
तेज इत्याद्युपासनावतश्च फलमाह ब्रह्मणः सायुज्यमित्यादि । साधितां
संमानितम्‌ । इत्युपनिषद्रहस्यक्ञानम्‌ ॥ ३॥ १२॥


घणि; खु आदित्य इति सावित्री । घृ क्षरणे । क्षरल्युदक-
मिति श्रणिः। खुवति सरति वा सूर्यः । अत्तीदयदितिरदितेरपत्यमादि-
त्यः ॥ मन्वान्तरम्‌। अचेयन्ति देवाः कन्तीरस्तपः सल्यात्मकमादित्य-
स्वरूपं पूजयन्ति । अधचितं सन्मध्वगरुतं क्षरन्ति क्षरतीत्यथेः । तदेव
ब्रह्मरूपं तदाप आप्यं तदेवाप उदर्कं तदेव व्योतिस्तजो रसोऽमरतं
ब्रह्मस्वरूपं तदेव टोकत्रयं तदेवोकारात्मकं च तदेवेयथः ॥ १॥ शि-
वस्वरूपं नारायणं मन्तः स्तीति सव॒ इति । तन्महस्तेजोरूपं तस्मे
नमोनमः । भव्यं भविष्यत्‌ । सुवनं विद्यमानम्‌ ॥२॥ कटुद्राय
कुत्सितानां रोदकाय । प्रचेतसे महाचित्ताय वरुणरूपायेति वा ।
मीग्छहुष्टमाय मीदुष्टमाय । मिह सेचने । “दाश्वान्‌ साहान्‌ मीदूाश्च
(पा, ६. १. १२. ) इति साधुः । छान्द सो वणेविकारः । सेचकतमाय।
तव्यसे पूरकाय। तु वृत्तिहिसापूत्तिषु। वोचेमावादिष्म । शन्तमं खु-
खतमम्‌ । हदे क्षानायेति जिपदा ॥२॥ अम्बिकापतय इत्युक्त
मातृपतय इति प्रतीतेरश्छीटता नादहक्याम्बिकाराब्दस्य पावेत्या रूढ-
त्वात्‌ । अभ्विकोमयोः पर्यायत्वेऽपि प्रकृतिपरत्ययार्थमेदादपोनरुक्त्यम्‌
॥ ४ ॥ यस्येति । विककतस्य ब्क्षविशेषस्य विकारो वेकंकत्यञ्चिहो-
प्रहवणी स्ग्यस्य मवति प्रतिष्ठिता आता अस्याहुतयः भरतितिष्ठ-
न्तयेव । अथो पश्चात्प्रतिष्ठिव्ये यजमानपति्ठायै भवन्ति । तेन वैकैकती
प्रशस्तेति तस्या विधिरुन्नीयते॥५॥ पृथिवी स्तौति करू णुष्वे ति । ङृणुष्व
पाज इति पञ्चद राच सक्ते शांखायनदाखापरित आद्याः पञ्च मन्ता
ग्रन्थे क्ेया इत्यथः । ते यथा । ^“ कृणुष्व पाजः प्रसिति न पृथ्वी याहि


दीपिकायां १९ खण्डः । २१


राजेवामवां इभेन । तृष्वीमचु प्रसिति द्रणानोऽस्तासि विध्य रक्षसस्त-
पिः ॥ १॥ तव भ्रमास आद्युया पतन्त्ययु स्पृष्टा धृषता होद्युचानः

तपूष्यभ्ने जह्वा पतगानसन्दितो विसृज विष्वगुल्काः ॥ २ ॥ प्रति
स्पदो वि खज तूणितमो भवा पायुर्विशो अस्या अदन्धः। यो नोदुरे
अधद्ंसो यो अन्ये माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्‌ ॥२३॥ उदग्ने तिष्ठ
प्रत्यातनुष्व न्यमिर्नो ओषतात्तिग्महेते । यो नो अराति समिधान चक्र
नीचा तं धक्ष्यतसं न चुष्कम्‌ ॥ ४ ॥ ऊध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदा-
विष्कृणुष्व दैव्यान्यभ्चे । अव स्थिरा तयुदि यातुजूनां जामिमजा्मिप्र
सणीहि शून ” ॥ ५॥ (छ ४ ४. १-५)॥६॥ अदितिर्देवमाता
देवास्तत्सुताः । गन्धव दादा हृप्रश्रतयः। मनुष्या मनोरपत्यानि। पि-
तरः कव्यवालादयः । असुराः प्राणहारका दिरण्यकरिपुप्रभ्रतयः।
तेषां स्वेभूतानामन्येपामपि सवेषां भूतानां माता मेदिनी । तस्या ना-
मान्तराणि स्तुतये परथिवीमहतीत्यादीनि। कतमा केति स्वरूपविषयप-
श्रये सल्याम्रतेत्युत्तरद्यम्‌ । इति वसिष्ठो वसिष्ट एवमाह ॥७॥१३॥


अपः स्तोति आप इति । आपो वा इदं स्वैमित्येकं वाक्यम्‌ । वि-
श्वा भूतान्याप इति द्वितीयम्‌ । तत्र हेतुः प्राणो वा आप इति । “^ अ-
न्रमयं हि सोम्य मन आपोमयः प्राणस्तजोमयी वागिति" हि छान्यो-
ग्यम्‌ ( ६. ५. ४.) विरोषवचनं पदाव इत्यादि । पावो जंगमानि अन्नं
सथावराणि । अभरृतं रसः । राबिराट्‌स्वरार्‌ सम्राजः पूवीदिदिदां ना-
मानि । सर्वै मूर्तमपां विकारः । ओमोकारवाच्या आप इत्यथः ॥ १॥
मध्याहाचमनायाद्देवतो मन्व आप इति । ब्रह्मणस्पति ब्रह्यणस्पतयः।
ब्रह्मपूता येद पूता पृथ्वी मां पुनातु । सर्वै पुनन्तु शोधयन्तु भां प्राप्यापो
असतां च प्रतिग्रहं पुनन्तु ॥२॥ अभ्रिश्चेति सायमाचमनमन्वः। यदहाह-
स्तदवद्धृम्पतु । स्ये ज्योतिषीति सायं पाटः॥ ३॥ सूयंओ्ति । यद्वा
ञ्या रािस्तद वलुम्पतु । सये ज्योतिषीति प्रातमेन्तपाटः । सायमभ्नः


२२ दीपिकायां १५ खण्डः ।


प्रधानत्वादस्नी रक्षतु प्रातः सूयप्राधान्यात्सूर्यो रक्षतु । अहा कृतान्यहर-
पोहतु राच्चिङृतानि राजनिरपोहत्विति पाथना ॥ तत्र मन्वान्तरम्‌ ।
अहनं अल्यपीपरद्राभिनों अतिपारयद्रान्निनों अल्यपीपरदहर्नो अ-
तिपारयदिति॥ अन्नेव चाखान्तरं च। “यदह कुरुते पापं तदहा पराति-
मुच्यते । यद्रात्या कुरूते पापं तद्राजा प्रतिमुच्यते” इति ॥ ४॥ १४॥


गायत्यावाहनं आयात्वित्ति । देवी अक्षरं माता इदं ब्रह्मेव
विवक्षिता संहिता ॥ गायच्याद्यावाहनमन्व भओजाऽसाति । धाम
नामासीति मकारनकारावसेयुक्तौ पठटनीयौ । अभिमवतीत्यभिभूः।
मध्याह साविच्यावाहनमपराह्ने सरस्वव्यावाहनम्‌ ॥ ९ ॥ ओं भूरि
व्यादिः प्राणायाममन्वः । तदुक्तम्‌ । “ एता पतां सहैतेन तथैभिदेराभिः
सह । चरिजेपेदायतप्राणः प्राणायामः स उच्यत "` इति । अस्याथंः।
एताः सप्तव्याहतीरेतां सावि्नरीमेतेन शिरसा सह दद्भिः प्रणवेश्
सह रिवारं गरृहीतप्राणो जपेदेष प्राणायाम इति प्राणायामे ॥ २॥ म-
नान्तरं भ्बूभ्चैौवरिति। भूराद्या मधु क्षरन्तीत्यन्वयः। यन्मधु तद्भय
वेदस्तदेवापः कमेफटं या आपस्ता एव ज्योतिराद्यः॥ २ ॥ मन्लान्तरं
ओं तद्रद्येति ॥ ४ ॥ सन््याविसजेनमन् उत्तम इति । उत्तर इति
कचित्पाठः । ब्राह्मणाथमागता त्वमचुज्ञाता सती गच्छ । गयायाः प-
श्चिमभागे स सन्ध्यापवैतः ॥ ५ ॥ भोजनावसरेऽन्तरयचेः प्राथना।

अन्लशथरसीति । विश्वमूत्तिषु सर्वेषु देहेषु । विश्वतोमुख इति के-
षाश्चित्पाठः;॥ ६॥ मोजनादावाचमनमन्लोऽग्रतोपस्तरणमसीति,
अञ्न स्वाहेति पठन्ति । त्वमुदकाम्रतस्योपस्तरणं प्राणस्योपवेरहानभूमि-
इछादकं वख्रमसि । तदुक्तम्‌ । “कि मे वासो भविष्यतीत्याप इति दोचु-
रिति ” ( छा, ५. २. २. ) ॥ ७ ॥ प्राणाहुतिमन्बानाह प्राण इत्यादि।
निविष्टः कृतधारणः । अमतं हविः ॥ ८ ॥ इदानीमन्नाहुतिमन्बान्तरः-
माह प्राण इति । दिवोमाविराप्रदाहाय । हे रिव हे ओकारवाच्य


दीपिकायां १६ खण्डः । २३


त्वमप्रदादायान्नवदेहदादहो मा भूदेतदथं रक्षकत्वेनाविदा देहे रवे
कुितीश्वरपाथना । रिवो मा प्रविदोति पाठे दिवस्त्वं मा मां प्रचि-
रेति योजना ॥ ९॥ ततः पुनराचमनमन्तोऽम्रतापिधानमसीति।
अस्तस्य प्राणस्यापिधानमाच्छादनवासोऽसि । यदुक्तम्‌ । “तस्मा-
देतदश्िष्यन्तः पुरस्ताच्योपरिष्टाञ्चाद्धिः परिदधति लम्भुको ह वा-
सो भवतीति ” (छा, ५. २. २. ) । अस्यैव शेषो ब्रह्मणि स आ-
त्मासरतत्वायेति । स पएवकारक आत्मा ब्रह्मण्यस्तत्वाय मोक्षाय
भवति ॥ १०॥ १५ ॥


श्रखायासिद्यादयः दिवघार्थनामन्वाः। अपाने निविद्येत्यादा-
वपि श्रद्धायामिति योज्यम्‌ । श्रद्धायां सव्यामिव्यथेः॥ २ ॥ सद्र ओ-
माविद्रान्तकस्त्वम्‌ ॥ २॥ अंगुष्ठक्षाखनमन्बोऽङ्खृष्टमाच्न इति । पु-
रुषो अगुणं चेति “^ प्रकृ्यान्तःपादमव्यपर "” इति प्रकृतिभावः (पा.
६. १. ११५.) पादाद्यन्तयोरपि कृतः। अंगुष्ठमात्र इति मन्त्रणा गुषठे
लावसेचनम्‌ ॥ २ ॥ मेधामन्वानाह मेधेति । मेधा धारणाद्क्ति
प्रमाणा सेवमाना नोऽस्मानागादागता विश्वाची विश्वमञ्चति वि
विषया भद्रा कल्याणकारिणी सुमनस्यमाना खुमनाः प्रसन्ना भवः
देवतात्वात्‌ । त्वया जुष्टाः सेविता वयं बरहदुन्नतं वचो वदेम । दुर
क्तान्दुष््वचसो जुषमाणा प्रीणयन्तः प्रतिवादिनः सूक्तेदैषयन्त इ-
त्यर्थः । विदथे वेदने ज्ञाने खुवीराः खतरां शुराः ॥ त्वयेति । त्वया
सेवितो जनो मेधावानृषिभेवतु भवेत्‌ । त्वं देवी द्योतमाना त्वया जुष्टो
ब्रह्मा भवेत्‌ । गतश्रीः प्रा्त्रीरुतापि त्वया जुष्टः । च्वया जुष्ट; सेवित-
धिन्न विचिजं वख द्रव्यं विन्दते छभते सा त्वं नोऽस्मान्‌ जुषस्व
द्रविणेन द्रव्येण प्रीणय हे मेधे ॥४॥ पुष्करस्रजौ कमलमालिनौ
॥ ५ ॥ अप्सरासु । अष्सरयाराब्द आकारान्तोऽप्यस्ति । मनः क-
ल्पना्रक्तिः । देवी देवसम्बन्धिनी । मयुष्यजा मनुष्यसम्बधिनी ।


रं दौषरिकायां १७ खण्डः ।


खुरभिः कामधेनुजैषतां सेवताम्‌ ॥ ६॥ आ मामिति । मेधा मामा-
जगम्या आजगम्यात्‌ । यथा।“ आमा वाजस्य प्रसवो जगम्यादेमे
द्यावापृथिवी विश्वरूपे ` ( वाजस. ९.१९. )। जगती विश्वव्यापिनी ।
ऊजैस्वती दीधितिमती । पयसा क्षीरेण पिन्वमाना पीनतामापद्य-
माना । बुद्धिः क्षीरेण वधते । सुप्रतीका शखोभनांगी । ““ खुप्रतीकः शो-
भनागे भवेदीद्ानदिग्गज ` दति विश्वः (मेदिनी च) । जुषतां
सेवताम्‌ ॥ ७॥ १६॥


पञ्चवक्लमन्वानाह सद्योजातमिति । सद्योजातः प्रथमजातः।
प्रपद्यामि । उपग्रहव्यत्ययः प्रपद्ये । भवे भवे जन्मनि जन्मानि नातिभ-
वेऽतिक्रान्तो न भवामि सर्वेषु जन्मसु त्वज्निष्ठ एव मवामि । भजस्व
मां व्वत्मसादभागिनं करु । भवोद्भवाय संसारोत्पत्तिहेतवे ॥ १॥
द्वितीयो मन्बो वामदेवायेति । वामं कुरिरं विषभक्षणादिटोक-

रुद्धं दीव्यति क्रीडति तस्मै । कलविकरणाय कटं मधुरं विकरणं

कारो यस्य साश्चयैचेश्ितस्तस्मै । बरखुविकरणाय वटवद्धिकरणं यस्य।

प्रमथनाय बख्वतां प्रमथनाय । सवेभूतदमनाय काटरूपत्वात्‌ ।

नोन्मनाय मन उन्मनयत्युन्मनी भावं गमयति मनोन्मनस्तस्मै मनोज-
यहेतवे ॥ २॥ अघोरेभ्यः सोम्येभ्योऽथ घोरेभ्यः कूरेभ्यः। हे घोर।
“मीम हरे घोरः इति विश्वः (मेदिनी च) । घोरतरेभ्योऽतिघोरेभ्यो-
ऽपि भीम सवतो नमस्तेऽस्तु सवेषु पार््वषु । सवै स्वातमक ते तुभ्यं न-
मोऽस्तु । हे रुद्र ते तव सर्वेभ्यो रूपेभ्यो नमोऽस्तु ॥ ३॥ तत्पुरुषाय
स प्रसिद्धश्चासौ पुरुषश्च तस्मे विद्महे जानीमः । महादेवाय महते
देवाय धीमहि ध्यायेम । तत्तस्मान्नोऽ स्मान्‌ रुद्रः प्रचोदयाल्मचोदयति
प्रेरयति वुख्यध्यारूढं । चुद भरेरणे लेर्‌ तिषितोखोप आदर ॥ ४ ॥
ब्रह्माधिपलतिन्रोदह्यणाधिपतिब्रेह्यणोऽधिपतिवेंदानामधिपतिः। विरो-
पणचतुष्टयविदिष्टो ब्रह्मा रिवः कल्याणकारी मे ममास्त । हे सदा-


दीपिकायां १९ खण्डः । २५


दिव ओमोकाररूप त्वत्प्सादाद्रह्यादयो मे कल्याणकारिणः सन्तु
॥ ५॥ ब्रह्मेति 1 ब्रह्मा मां मेतु पामोतु जानातु वा । मी गतिमल्योः
ऋ्यादिर्व्यंल्ययेन रापो दुक्‌ । एवं मध्वसतं मां मेतु । पुनः प्रार्थना हे
ब्रह्म । सम्बोधने नखोपो वात्तिकात्‌ ( कौमुदी. ३६८ ) । मे मह्यमव
रश्च । आद्राथ पुनमधु मेतु माम्‌ । यस्ते तव सोम प्रजावत्प्रजामर्हति
सोऽभि अभिमुखोऽस्तु कि बहुना सोऽहं स्याम्‌ । हे दुःस्वप्रहन दे
सोम दुरुष्वहा त्वम्‌ । दु्मुप्वं दाहं दन्ति दुरुष्वहा त्वम्व। रे
सोम तव मनःस्वरूपस्य यान्प्राणान्‌ वागादीन्परयामि तानपि तव
स्वरूपे जुहोमि । मनश्चन्द्रो मनसि च वागादयो हयन्ते ॥ चरिसुपणे-
मिति । सयोजातादयः पञ्च मन्वा ब्रह्म मेतु दुःस्वप्रहन्निति । चिसु-
पणैमप्राथितमेव बाह्यणाय ददयात्पाययेदिति विधिः । किमर्थं देयमिति
दोकायां महाफखत्वादित्युत्तरमाह ब्रह्महत्यां वा इति । सोमं प्रा्ुवन्ति
सोमपानफलं प्राप्रवन्ति सोमलोकं वा ॥ ६॥ बह्यमेधया ब्ह्यवुख्या
मधुवबुख्या च ब्रह्म मे मह्यमव ॥ अद्या न इति व्याख्यातम्‌ ॥ य इ
ब्राह्यणाय ददयात्स उक्तफटं लमत इति हेषः ॥७॥ ब्रह्ममेधः
छान्दसो यास्थाने वाराब्दः। स एवाथः ॥ ब्रह्मा देवानाभिल्या
व्याख्यातम्‌ ॥ < ॥ २७ ॥


वेश्वदेवमन्त्रानाह द्‌वक्रतस्येति । अवयजनं यागपूवैकं निराक-
रणम्‌। यञ्चाहमेनोऽकाषं यद्विद्धांसो वयं वागादिरूपाश्चेव्यण्ममन्लाथः।
सप्तमे तु विद्वांसः पुत्रादि सहिता इत्यपौनरुक्त्यम्‌ । एकाद दा मन्लाः।
पञ्चमस्त्वन्यकृतस्येति मन्बः ॥ ९ ॥ आत्मनो ऽकतृत्वसिद्धये मन्वमाद
कामोऽका्षीदिति। हे कामितत्ते तव हविः कामाय स्वाहा ॥ २॥

नन्वात्मधातादौ कामाभावे कथं प्रवत्तिरत आह मन्युरिति । दे
मन्यवेतत्ते दविमन्यवे स्वाहा ॥ ३ ॥ १८ ॥


तिकदहोममन्नानाह तिलाः कूष्णा इति। यन्म इति। तिटाः शान्ति
कुर्वन्तु दुष्कृतं शामयन्त्वित्यथैः । चौरस्याक्नमिति । स्चैत्र पापं रक्ष्यते ।
4


२६ दीपिकायां २० खण्डः ।


नवश्राद्धमेकादशाहश्राद्धं । तच्छमयन्तु शास्ति च कुर्वन्त्वित्यथः।
गणाश्नमिति। गणानां लक्षणानि स्मरतावुक्तानि (मयु; ४. २०९. ) ।
एतद्भुकत्वा यत्पापं तच्छमयन्तु । द्धा प्रजा च मेधा च भवतु । शान्ति
कुवेन्तु । शर्यादयस्तिटास्तद्धेतुत्वाडहुपुजिणं कुन्तु हामयन्तु पापम्‌
॥ १॥ अभ्रये स्वाहेव्यादयः षद्वुशकिमन्ताः । द्विरन्तरिक्षग्रहणं
प्रमादश्चेत्पश्चनिराद्‌ । यदेजति कम्पते जगति लोके यश्च चेष्टति चेष्टते
नान्यो भागो यलात्प्यब्नान्मे मद्यं भवतु स्वाहा स एवात्मनो भागो
नान्य इत्यथः । मान्य इति पाठे स पव भागश्चेतनांशो मे मम मान्यो
माननीयो नान्य इत्यथः ॥ २॥ १९. ॥
पुनर्यलिमन्लानाद ये भ्रूता इति । वितुदस्य व्यथकस्य प्रेष्ठाः भिय-
तमाः ॥ १॥ इन्द्रप्रकाराकमन्वानाह सजोषा इति । सप्रीतिः । दे
इन्द्र सगणो गणसहितो मरुद्भिः सप्तसप्तकैः सहितः सोम याशक्षिके-
रत्तं पिव। हे घूचरहन्‌ हे दुर विद्धान वेत्तापम्रधो दुजेनाश्नदस्व । छ्र-
दहे कुरू । ““ उतश्च प्रत्ययादित्य् छन्दसि वेति वक्तव्यं ` (महा-
भ्यं दे. ४. १०६. ) इति हेर्लुक्‌ ॥ २॥ च्रातारमवितारसिति
व्यथेत्वान्न पौनसरुक्तयमदएटार्थत्वाच मन्लाणामत पएवेन्द्र शब्दस्य प-
त्वः प्रयोगः । अथवावितारं तपेकम्‌। हवे हवे यागे यागे । हया-
नीति प्राथेनायां ठेदर्‌ । राक्र रक्तं पुरुहतं महद्धिराहतम्‌ । स्वस्ति
कल्याणमाधात्वादधातु । ख्छव्यल्ययेन दुक्‌ ॥ ३ ॥ भयामहे बिभीमः ।
हे मघवज्छग्धि शक्तान्‌ कुरू तव तत्तत्रोतिभिनाऽस्ान्‌ शग्धि । वि-
द्विषो द्विषो देषरन्‌ चिष्डधो दुष्टान्‌ जाहि नाङ्ाय । त्वं न इति पटे त्वं
कत्तौ ॥ ४ ॥ स्वस्तिदा; कल्याणप्रदः। विद्धां मनुष्याणां पतिः।
चृजहा वज्राणि पापानि हन्ति । विख्बुधो वशी दुष्टवहाकत्तो । वृषा
वृष्िकन्तौ । पुरोऽग्र पत्वागच्छतु नोऽस्माकम्‌ ॥ ५ ॥ ऊध्व इति । ऊ
उञ्‌ । “ इकः सुञजीति ” दीधः (पा. ६. ३. १३४.) । षु “ सखुञ ” इति
षत्वम्‌ ( पा. ८. ३. १०७. ) । णो नः । “नश्च धातुखोरुषुभ्य' इति ण-
त्वम्‌ (षा. ८. ४. २७.) । ऊतये । “ऊतियुतिजूतिसातिहेतिकीत्तयश्च"'


लीपिकायां २० खण्डः । २७


इति वेञः क्तिनि रूपम्‌ (पा.३.३.९७.)। तिष्ठा ““दथचो ऽतस्तिङ” इति
दीधः (पा. ६. ३. १३५.) । ऊतये सम्रद्धय ऊर्ध्व॑स्तिष्ठदेवो नदेव इव
सनिता दाता । वाजस्यान्नस्य सनिता दाता सन्‌ सन्मुख ऊध्व॑स्ति्ठ ।
यदञ्जिभि्यैद्वथक्तिमिर्वाघद्धिः दाद्देविहयामह आवाहयामः ॥ ६॥
सूथमन्लैः तरणिरिलि । तरणिस्तारको विश्वद्श्ैतो जगदश्चौको
ज्योतिष्छ्ृत्‌ प्रकादाकूद सि भवसि सूयं हे । विश्वं स्व॑माभासि प्रका-
शायसि रोचनं दीत्िमत्‌ । गायत्रीछन्दः ॥ ७ ॥ उपयामेति सोम-
मन्वः । उपयामोपगच्छाम ग्रहीतोऽसि सोम । सूयय त्वा त्वां गर
ह्वामि भ्राजस्वत एप ते योनिरिति पाठ एष सूयंस्ते तव योनिरुत्प-
्तिस्थानम्‌ । पुनः सूयोय त्वेत्युपसंहारः॥ < ॥ विष्णुमुखा विष्णुमु-
सख्याः । “विष्णुर्वै देवानां परमोऽच्निरवमः' इति च श्रुतेः (पेत. बा, १.१.)
॥९॥ श्री मे मजतति। टक्ष्मीर्म॑द्यं भजत्वित्यथेः । अलक्ष्मी मे
नरयतेति । अलक्ष्मीर्मे नरयत्वित्यथः । श्रीटक्ष्मीराब्दयोः “ सर्वतो
ऽक्तिन्नथौदिलयेक ' इति ङीष्‌ ( कोमुदी. ५०३. ) । “ हल्दूडन्धयाविति ”
खटखोपः (पा. £. १. ६८. ) । भजतनदश्यतेति बवणेव्यत्ययः ॥ १०॥
महो इन्द्रो महानिन्द्रः “ आतोऽटि नित्यं ” (पा. ८.३. ३ ) इति
नस्य सत्वम्‌ । ““ अत्राचुनासिकः `` (पा. ८. ३. २.) इत्ययचुनासिकः ।
^ भोभगो ` (पा ८.२ १७. ) इति यत्वम्‌ । ^“ ठोपः शाकल्यस्य
(पा. ८. ३. १९. ) इति लोपः । पोडशिग्रहस्तदेवतात्वात्‌ षोडरी ।
हन्त्विति तं पाप्मानं हन्तु यः पाप्मास्मन्देणटि॥ ११॥ दाररारमिति।
दासीरं यज्ञोऽजेनभूमित्वात्‌ । अथवा ^ पुरुषो वाव यज्ञः" (छा. २.
१६. १. ) इत्युपासनाविषयत्वात्‌ । शमटं पापं कुसीदं वाणिज्योपाज-
नीयं द्रव्यम्‌ । तस्मिन्‌ सीदत्ववस्थानं करोतु पापमजयञ्जीवत्विवयथैः
॥ १२॥ स्कस्मन रोधनम्‌ । स्कम्भस्य रोधस्य स्जनमुत्पादकम्‌ ।
उन्मुक्तो निवृत्तः। वरुणस्येत्यादिः पाडान्तो वरूणदोषनिवृत्तिरृन्मन्वः
॥ १३॥ पदा पदानि । विचक्रमे विक्रान्तवान्‌ । गोपा इन्द्रियेशः।
अदाभ्यः क्वान: । दभ दमि ङ्केदे । “अच्छे्योऽयमदाद्योऽयमङ्कि्यो


२८ दीपिकायां २२ खण्डः ।


99


ऽदोप्य एव चेति ›› स्मृतेः ( गीता. २. २४. ) । इतोऽस्मदेदात्‌ । ध-
मणि ध्मवन्ति। अकारो मत्वर्थीयः । धारयन्‌ संगरह्णन्‌ । अयं विर-
जाहोमारम्मे विष्णुस्रणाथो मन्बः ॥ १४ ॥ इदानी विरजाहोमम-
न्वानाह प्राणेति । एते सप्त मन्वाः ॥ १५-२१॥ ततो विचि
स्वाहेत्यस्यानन्तरं विधिज्ञ रवाहेति केषाञ्चित्पाठः । सम्बुख्यन्तं देव-
तानाम ॥ २२॥ खखोल्काय नाम्ना दुखोल्कायेति केषाश्चित्पाठटः
॥ २२॥ हे आदहरितपिगलं तथा खोहिताक्ष । ददापयिता वान-
प्रेरकः । छान्दसं द्वित्वम्‌ । अयं वहेः प्रार्थनामन्वः । एवंविधः सन्चु-
तिष्ठ प्रकटो भव ॥ २४ ॥ २० ॥


आं स्वादेलयोकारेण स्वहान्तेन होमः॥ १॥ सत्यमेव परमु-
तकृ यह्टोके परं तत्सल्यमेव सल्यादन्यदुत्कृ्ं नास्तीत्यथः। तत्र हेतुः
सव्येनेति । स्वगोद्यन्न च्यवन्ते तत्र सत्यं हेतुरित्यर्थः । सतां हि सव्यं
नासताम्‌ । सत्यं तपो दमः रामो दान धमः प्रजननमप्नयोऽभिदोचं
यज्ञो मानसं सश्यास इति दादश नियमाः परमसाधनानीत्यथैः ।
तप इति प्ररासन्तीत्यग्रेतनेनान्वयः । एवं दमादौ । दुधषमसद्यं दुरा-
धं स्प्र्रुमशराक्यम्‌ । प्रजायन्ते प्रजामुत्पादयन्ति। न्यास इति ब्रह्मा
प्ररासति । तदेव परं साधनमित्याह बह्मा हि पर इति । दाद्यीथं परो
हि बरह्येति पुनरक्तिः। तेन तन्मतमेव श्रे्टमिलयथः । तदेवाह तानीति ।
अत्यरेचयदतिह्ायं गतः । य एवं वेद॒ तस्याप्येत्फलं द्रष्टव्यमित्यु्पीन-
घद्रहस्यम्‌ ॥ २॥ २९॥


दममेवाथमास्यायिकयाह प्राजापत्य इति । प्रजापतेगोच्रापल्यम्‌।
अरूणः पिता सुपणा माता ॥ आदित्यो रोचते दिवी्येकं वाक्यं सदयं
वाच प्रतिष्ठेत्यपरम्‌ ॥ देवतां देवभावम्‌ । तपस ऋषय दत्यत्न ““ ऋ-
त्यकः `` ( पा. ६. १. १२८. ) इति प्रकृतिभावो दहुस्वश्च । सुवरन्ववि-
नदन्‌ स्वः स्वगे प्राप्ताः । सपल्नान्प्रणुदाम निराकमः। अराती रातिर-
हितानदातृन्‌ ॥ रिवं विहितम्‌ । हमः परमं शान्ति; परमसाधन-


दीपिकायां २३ खण्डः । २९


मिति वदन्ति धार्मिका इत्यथः ॥ वरूथं मुख्यावयवो दक्षिणा सा
मित्रा मिध्राणि ““शोदछन्दसि बहुलमिति" शो्लक्‌ (पा. ६. १.७०. )॥
विश्वस्य सबेस्य ॥ प्रजननं प्रजोत्पादनं प्रतिष्ठा व॑दास्यास्पवम्‌ । साधु-
प्रजावाज्छ्ुद्धमातृतः सखुश्णीखापत्यवान्‌ । तन्तुं तन्वानः सन्तानं विस्ता-
रयंस्तदेव सन्तानोत्पादनमेवाचृणमानरण्यम्‌ ॥ अग्नीनामुक्त आधात-
व्यत्वे हेतुमाह अग्नयो वा इति । देवयानः पन्थास्तत्परापकत्वात्‌ । त-
दुक्तम्‌ । “ अभिर्ज्योतिरहः शुङ्ख इत्यादिको.ऽभिः ( गीता. ८. २४.) ।
का विदयेव्यपेक्षायामाह गाहपत्यग्रगित्यादिङिगव्यत्ययः । अन्वाहार्य-
पचनो दक्षिणाभिः । बृहव्ुहत्साम । इयमुपासनाधिदोत्रादन्येत्यञ्मीनां
पृथगुपादानम्‌ । परमं ्रेष्ठसाधनम्‌ ॥ अभ्निदो्रमिति । सायम्प्रातश्च
सुतमश्रिदोतरं सविं सम्यगिष्टं कृतं सद्रृहाणां निष्कतिगरेहपयुक्तपा-
पस्य निस्तरणोपायः । किञ्च यज्ञानामसोमकानां क्रतूनां ससोमका-
नां च प्रायणं प्रङृष्टमयनमुपायोऽ भिदो विना तदनधिकारात्‌ । सुव-
गैस्य स्वगस्य लोकस्य ज्योतिमांर्मप्रदश्लकम्‌ ॥ १॥ २२॥

यज्ञ इति । प्रह सन्तीव्यन्वयः । यज्ञो हि देवानां देवस्वामिक इ-
त्यथः । कुत इत्यत आह यज्ञेन हीति ॥ प्राजापत्यं प्रजापतिर्दषतास्य
तत्पवित्रं सत्प्ररा सन्ति । तत्र हेतुमानसेनेति । मन एव मानसं परज्ञा
दित्वात्‌ स्वार्थेऽण्‌ । तेन तस्य व्याख्यानं मनसेति ॥ न्यासः सन्यास
एव श्रेष्ठतम इत्याहुमेनीषिणो ब्रह्माणं प्रति ॥ ब्रह्मा विश्वः सवे; कतम
इति ब्रह्मदाब्दस्यानेकाथत्वात्परश्नः | स्वयम्भूः प्रजापतिः संवत्सर इति
यः संघत्सरः स स्वयम्भूः प्रजापतिः । संवत्सरः क इत्यत आह सं-
धस्सरोऽसावादित्यो मण्डलात्मा । य एष आदिव्ये पुरुषो वत्तेते स
परमे तिष्ठतीति परमेष्ौ ब्रह्मात्मा । इदं कतम इत्यस्योत्तरम्‌ ॥ याभी
रदिमभिरादि व्यस्तपति ताभिः पजेन्यो मेघो वषेति । श्रद्धादीनामुत्त-
रोत्तरावस्था मेधाद्‌ यः । स्मारं स्म्रतिकमं । ब्रह्मयोनिब्रह्योत्थः । प.
अधा पञ्चैन्द्रियमेदेन पञ्चात्मा पश्चभूतात्मा । भतं व्याप्तम्‌ । सर्वैः
पुरुषे; सर्वे जगत्परत्येकं व्याप्तम्‌ ॥ १॥ २२ ॥


३० दीपिकायां २५ खण्डः ।


उपदे शद्वारा न्यासस्यात्कषमाह स श्रूतमिति । भूतभव्याभ्यां
सहितं पुरुषं जिज्ञास ज्ञातुमिच्छ । आसक्तिपूरितं जारयिष्ठा; । आ-
सक्या आसंगेन पूरितं बहुटीङकृतं जारयेषएठा जीण रथाः । संगं त्य-
क्त्वा संसारं तनूकुरु । श्रद्धासवयः श्रद्धा च स्यं च तेऽस्य स्तः श्र
द्वासत्यः । महस्वान्महोऽस्यास्ति तपसा कायङ्करसाध्येन । उपरिष्टा-
ह्टोकोपरिवत्तमानं तमात्मानमेवमुक्तप्रकारेण ज्ञात्वा साक्षात्कृ ।
केन । मनसा हदा च बुद्धिचित्ताभ्या साक्षात्कृत्य भूयो सत्यु नोपयाहि
विद्वाज्छाख्रदर्ीति प्रजापतेरारुणि प्रत्युपसंहारः । तस्मात्कारणा-
न्यासं सन्या समेवेषां द्वादशानां तपसां मध्येऽतिरिक्तमधिकमाहुबद्धा
इति श्रुतेर्वचः ॥ १॥ नारायणस्तावकं मन्बान्तरमाह वस्नरुरण्य इति ।
वखुनिवासभूमिः । अण्योऽण्‌ शाब्दे स्तुत्यः । विभूविभवति विभूरसि।
प्राणे सन्धाता त्वमसि । ब्रह्मन्‌ विश्वसृक्‌ त्वमसि । अ्नेस्तेजो ददाति
तेजोदास्त्वमसि । सूर्यस्य वचसि ददाति वर्चादास्त्वमसि । चन्द्र
मस इन्दोर््युखनांसि ददाति दुख्नोदाः कान्तिप्रदस्त्वमसि । वयं त्वा-
मुपयाम प्राप्त प्राथयामहे । ध्यानेन पुरः परिकट्प्याह गृहीतोऽसि
निधारितोऽसि । ब्रह्मणे त्वा महस ओमित्यात्मानं युञ्जीतेति ब्रह्मणे
महसे तेजसे तत्प्राघ्यथं स्वां नारायणमात्मानमोमिति युखीतोकारेणो-
पास्यतया सम्बध्ीयात्‌ । पतन्महानारायणीयं महदुपनिपदं देवाना-
मपि गुद्यं गोप्यम्‌ । य उपासक एवं देवानां गुह्यमिति वेद स ब्रह्मणो
महिमानमुपासकोऽपि पाप्नोति । आद्रा्थमाह तस्माद्रह्यणो महिमा-
नमित्याप्नोतीत्यचुषंगः । इव्युपनिषदित्युपसंहारः ॥ २॥ २४ ॥


तस्यैवं विदुषो यज्ञस्य पुरुषस्यात्मा यजमानः स्वामित्वात्‌ ।
श्रद्धा पत्नी खीत्वात्‌ । शरीरमिध्मो दौधेत्वात्‌ । उरो वेदिश्चतुरख-
त्वात्‌ । खोमानि बहिरदैभः प्ररूढत्वसाम्यात्‌ । वेदो द्भैमुष्टिभ्रथितः
स शिखा तद्‌र्‌तित्वात्‌ । हृदयं यूपः पदवधिष्ठानत्वात्‌ । काम आज्यं
सिग्धत्वात्‌ । मन्युः पद्युवेध्यत्वात्‌ । तपोऽभ्रिरज्यटनातमकत्वात्‌ । दमो


दीपिकायां २५ खण्डः; । ३१


बाहछेन्द्रियनिग्रहः शामयिता शमिता । दक्षिणा वाक्‌ प्रवीणा वाणी
होतोत्छष्त्वात्‌ । प्राण उद्वातोद्रोषकत्वात्‌ । चक्षुरध्वयमैख्यत्वात्‌ ।
मनो ब्रह्मा सखष्रत्वात्‌ । श्रोजरमभ्नीत्परवाक्यश्रहणपरत्वात्‌ । यावद्धियते
प्रेयमाश्रीयते सा दीक्षा निव्रत्तिसाम्यात्‌ । यदश्चाति तद्धविरादति-
साम्यात्‌ । यत्परबिति तदस्य सोमपानं पानसाम्यात्‌ । यद्रमते क्रीडति
तदुपसद्‌ दृष्िविदोषाश्चे्टासाम्यात्‌ । स प्रवग्यः क्रिया्रयस्य प्रवर्ग्य
सच्वात्‌ । मुखमाह वनीय आहुतिग्राहकत्वात्‌ । याद्ययाहुतीराहुती इति।
या आद्या आहुतीराहतयः । ““ तद्यद्भक्तं परथममागच्छेत्तद्धोमीयं
( छा. ५. १९. १. ) इति श्रुव्यन्तसरोक्ताः प्रथमग्रासास्ता अिदोच्रस्या-
हती ज्ञातव्ये परधानत्वसामान्यात्‌ । यदस्य हविषो विज्ञानं वेदनं र-
सास्वादनं तज्जुदोति दोमान्तःसखत्वसाम्यात्‌ । अत्ति मोजनभिन्नं त-
समिधोऽिदीपकत्वसाम्यात्‌ । तानि सवनानि काटसाम्यात्‌ । ते
द्‌ शैपूणमासौ रौोङ्कयकाष्ण्यसाम्यात्‌ । ते चातुमास्यानि मासत्वसा-
म्यात्‌ । ते पद्यबन्धा; पद्युवन्धानामरतुप्रयुक्तत्वात्‌ । तेऽहगेणाः स-
त्राणि बहुदिनसाध्यत्वसाम्यात्‌ । सववेद सं सवेस्वदक्षिणं विद्याकम्‌-
वासनातिरिक्तस्य सवेस्याप्यन्ते त्यागात्‌ । यन्मरणं तदेवावभ्रथः स-
मािसाम्यात्‌ । जरामय जरामरणपयन्तावस्थायि । उदगयन उत्तरा-
यणे 1 प्रमीयते भियते । दे वानामनचिरादिमागण । दक्षिणे दक्षिणायने।
पितृणां धूमादिमार्गेण । यो विद्धान्‌ स एतौ मागौवभिजयति तस्मा-
दभिजयान्महिदिमानं श्वःश्रेयसं प्राप्रोति सद्वासनावद्यात्सदेव करोति
ततो ज्ञानद्वारा क्रमेण मुक्तिमाप्रोतीत्यथैः । तस्मादिति पुनरुक्तिः स-
मास्यथ । उपनिषद्रहस्यज्ञानमिदम्‌ ॥ १॥ नारायणपरा वेदा देवा
नारायणांगजाः। नारायणपरा खोका नारायणपरा मखाः । नारायणपरा
योगा नारायणपरं तपः । नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ॥ २५॥
नारायणेन रचिता श्रुतिमान्नोपजीविना । अस्पष्टपद वाक्यानां महा-
नारायणपभा ॥ इति महानारायणोपनिषदीपिका ॥ ३४ ॥





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इत्युश्वार्यं दिज्रेष्ठा खदमाङभ्य पाणिना ।

विष्णुं संस्मृत्य मनसा मन्वमेतमुदीरयेत्‌ ॥ १२॥

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।

उ्धतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ॥ १३ ॥

मरत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम्‌ ।

त्वया हतेन पापेन पूतः सञ्जायते नरः ॥ १४७ ॥
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छन्दोविचित्यां सकरस्तत्प्रपञ्चो निद शितः ।

सा चिद्या नौस्तितीषूणां गम्भीरं काव्यसागरम्‌ ॥ १२ ॥
छन्द इति । छन्दासि विचीयन्ते निरूप्यन्तेऽतेति छन्दोविचिति रेषादिकतच्छ-
न्दोप्रन्थर्छन्दोविचितिनामक ।

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स्वाततयावस्थितलय ब्रह्मण राक्तिः सुव"काटकर्णीं इत्यच्यते । महतः
प्रकाशात्मकस्य ब्रह्मण" शक्ति्महालक्ष्मीरिति ॥ -¢1) १५411019] 1016
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अब्ुष्ठावुत्नतौ कत्वा पुष्यो" सलम्नयोद्र॑यो । तविवाभिमुखी कुयीन्मुदरैषा काटक-
णिका । कालकर्णी प्रयोक्तव्या विघ्रप्रशमक्मणि ॥ काठमिव काठक दूरे
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