[PDF]Kalpavrxqs-a

[PDF]Book Source: Digital Library of India Item 2015.362434dc.contributor.author: Vaasudevasharand-a Agarvaaldc.date.accessioned: 2015-09-07T19:28:56Zdc.date.available: 2015-09-07T19:28:56Zdc.date.digitalpublicationdate: 2005/10/07dc.date.citation: 1960dc.identifier.barcode: 5010010017388dc.identifier.origpath: /data7/upload/0202/542dc.identifier.copyno: 1dc.identifier.uri: http://www.new.dli.ernet.in/handle/2015/362434dc.description.scannerno: DLISVDLMS052dc.description.scanningcentre: RMSC, IIIT-Hdc.description.main: 1dc.description.tagged: 0dc.description.totalpages: 166dc.format.mimetype: application/pdfdc.language.iso: Hindidc.publisher.digitalrepublisher: Digital Library Of Indiadc.publisher: Sastaa Saahitya Man’d’al Nayiidilliidc.rights: IN_COPYRIGHTdc.source.library: Vetapaalem Booksdc.subject.classification: Language. Linguistics. Literaturedc.subject.keywords: kalpavrxqs-adc.subject.keywords: vaasudevasharand-a agarvaaldc.title: Kalpavrxqs-adc.type: Print - Paperdc.type: Book

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सत्साहित्य-प्रकाशत


कल्पवक्त


“” प्रानीन भारतीय सस्कृति का दर्यात करानैवयाले तिबध +-


वसुदेवदरण अग्रवाल


॥्॥ विध्याकक]


५ ४ ।
023 4। '440॥7/० ;


१९६०
सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली


प्रकाशक

मानएड इपाध्याय

मनी, सश्ता दाहित्य मण्डल,
नई दिल्‍ती


ऋ.आक्‍क्‍-मशतछक ७ खिनाश-ण लि


७००---ग


: दूसरी बार १६६०





७ ० ०-न्‍न्‍कैनमममी


हो रुपने।


के अनबन लगन कान. फसानान-+ ०. पाक ७ >अनननममम-म-म-न छा >--नननन- यान


सुद्रक
भारत सुंप्रगालग
शाहवर।, विल्‍ली'


ध्रकाशकीय


इस पुस्तक मं हि दी के विद्वाए लेखक एव पुरातत्त्ववेत्ता श्री वासुदेव-
गरण अग्रगाज के कुछ चुने हुए लखा। बा सम्रह है । इन लेसो में उन्होंने
प्राचीन भारतीय ससवृति के अनेक छिपे पष्ठां को खोला है गौर विविध
रूपा मे उस महान्‌ श्रस्क्ृति के दशन पाठकों को फराये हूं । लेखक ने प्रातीत
साहित्य का अध्ययन ही नही किया, उसम घार बार इचकी लगा कर उसधवी
ग्रात्मा के साथ साक्षात्क[र भी किया है। यही कारश है कि वह उसफा
रफ्ास्वादन एवने रोचक धौर स्तजीव हग से करा सके हैं ।

लेखक का यह दस रा संग्रह मण्डल से प्रकाशित हो रहा है | प्रथम सम्रह
'पूृथिवी पुन भे उहोने जनपदीय लोक जीवन के भ्रंध्यमन के लिए विशा-
निर्देश बिया था सौर पाठक से अ्पैक्षा रक्बी थी कि वे जतपदों से कदम-
बध्म पर बिखरी उस मृत्यवान्‌ सामग्री को नष्ट होते से बचाये, जिसके
आधार १९ हमारा जन-जोबत अ्रबतक टिका रहा हे भ्रौर भागें भी राष्ट
के प्वनिर्माण मे हुत जिसकी उपेक्षा, बिना प्रपता अ्रत्ास क्णे, भही कर
सकते |

हमे विश्वास है कि प्रह्तुत सम्रह, जो हिन्दी साहित्य के लिए अपने
ढंग की एक नवीन देत है, पाठकों को प्रध्ययत की पर्याप्त साभग्री प्रदान
करेगा शौर उन्हे अपनी प्राचीन सरकृति के प्रति अधिक ग्रमत्व' रखने की
प्रेरणा देगा ।


“मन्री


भूमिका


इस संग्रह मे भाई बशपालजी ने भेरे कुछ वदिक ग्रोर धामिक लेख
एक किये हूं, शिसक लिए म॑ उनका अनुग्ृहीत है | वेद धरम और संस्कृति
इन तीना के पीछे जो भ्रथ है, वह मेरे लिए इसलिए महत्त्व रखता हे कि
उससे जीवन के तत्वों का घनिष्ठ सम्बन्ध है । ऐसा ज्ञान, जो बुद्धि का बोफ
हो, जिसका जीवन पे सम्ष व में हो, मुभे इृप्ट नहीं ! प्राचीन भारतीय
पर ति गौर साहित्य के अमित विस्तार में मानवीय बुद्धि को स्फूर्ति देने
वाला, भा! को नीति-धर्म के माय मे प्रवृत्त करनेवाला शोर विद्वव्यापी
महान चंतन्‍य तत्त्व के श्रतुभव से मातव को कत्याण सुख के लिए प्रवुद्ध करते-
बाला जो सार्राही सश है, उसीमे हुमे श्रद्धा होती है। जीवन से विरहिंत
होकर भूतकाल की उपासना करना केवल बुद्धि का कुतूहल है। अतीत के
शान-भण्डार का जो प्राणबत पक्ष है, उसमे हमको रुचि होनी चाहिए।
प्रतीतकालीन साहित्य और सस्क्ृति के ऊचे स्तूप में भूत की ठठरी'

के कुछ फूल रखे हुए मिलेगे। क्रेवल् मात्र उतमें रुचि वत्तमान मानव के
लिए भ्रधिक उपयोगी नही, विस्तु उसी स्तृप के मस्तक पर एक देवसदत
प्रतिष्ठित है, जो भ्रमर है, थो काल से जडीभूत तही हुआ । विचारों की
उप्त देव हमिका के मध्य में एक श्रमृत कुम्भ रखा है। उस ग्रमृत-घट
के साथ जब हमारा मद मिल जाता है, तब हम' उत्त घट के मुक्ष को जीवन
के नये पये पहलवो से लद्ृलद्वाता हुआ देख सकते हूं। प्राचीन प्मय का
प्रत्येक शास्त्र, मस्त, भ्रथ, महांवाक्य किसलिए महत्वपूण है शौर किश्त
तत्व वो पाकर बह शवित॒जञाली बना है ” इस भ्रइन का उत्तर यही है कि
उस शास्त्र या ग्रत्थ की भ्रत्त वुक्षि में सत्य का कोई-त-कोई बीज मन्त्र छिपा
है। विदव-वृक्ष सत्य का ही दूसरा रूप है। उसके प्रत्येक पत्ते पर सत्य के
बीजाक्षर लिखे है। जिस प्र्थ, साहित्य या बातय मे उस सत्य की शवित
विचमात है, जो उस्तकी व्यास्या करता है, वही मानव के लिए उपयोगी है ।
सत्य वक्ष के अत ते पर्ण, पुष्प भर फल्र काल धर्म से जीएं नही होते ।


भारतीय वाउ मय के मूल मे इसी प्रकार के नित्य सत्य का पूण कुम्भ स्थापित
है । इग मगलघट को 'श्रमृत कलश' भी कहते हैं। जो श्रमृत है, उसबी
सुजन भबित भी झ्मृत, भ्रमर झोर झन ते होती है ।

जीवन का जो रचनात्मक पक्ष है, वहू सदा तय तग्रे रूप म सामने झाता
रहेगा । 'नवों नवो भवति जायमान ' यह वैदिक सत्य जीवन' के नियम की
शोर ही व्यात दिलाता है। भारत के मत्ीषियों ने झतीत मे जिस सत्य को
पहचाना था, उसका मूल अक्षय्य है। मानवीय शरीर की भाति सस्कृति
का शरीर भी ज5 भ्रौर तन के सयोग से त्िममित होता है | विनिध संस्थाएं
उप्तका जडीभूत भश्न हु | वे जन्म लेती हूं, उठती हूँ और काल के भ्रपरिभित
बिस्तार मे रूप परिवत्तन करती हुई बढती जाती हूं, कि तु उभके पीछे जो
सत्यीत्मक पुल प्रेरणा है, बही हमारे लिए रुचिकर है| मत पुन पुत उस
सत्य की सनिधि प्राप्त करता चाहृता है।

वैदिक विचार अनेक रझूपको ग्रीर ग्रभिप्रायो की सहायता से प्रवट
किगे गए हूं । प्रावरण हुटाकर उन शभिप्रायों को पहचासना होगा झ्थवा
कह भकते हू कि उन रूपको या अभिप्रायो की जो बारहखडी है, उसको
युक्त से भ्र्थाता होगा। 'बेदिक परिभाषा में शरीर की सज्ञाए' इस लेख मे
टन अभिप्रायो का कुछ सकेत मिलेगा। 'कल्पबृक्ष का शभिप्राय भी भारतीय
वाह मय में खूब पल्‍्लवबित हुआ है। भानव का मन ही कत्पवृक्ष है, इस
दृष्टि से उस रूपक का अथ नये प्रकाश से भर जाता है। अनन्त विश्तारी
कान का रझूपक लोमश' ऋषि की पुराणगत कल्पना है। उसीका बैदिक
प्रभिप्राय 'कालझूपी विराट श्श्व लेख में मिलेगा। “व्यस्त शोर श्रशिवित्ती-
कुमार' लेख बंदिक प्राण शर्त श्रौर उप्तके नित्य तूतत' स्वरूप की स्थिस्ता,
रक्षा भौर वृद्धि की झोर लक्ष्म करता है। 'प्राभ्मम विषयक योगक्षेम' लेख
प्रनेक येदिक परिभाषाशों का सम्रह करके उत्त रणभित प्रश्नों की शंली में
लिखा गया है । इस साहित्पिक इली की कह्पता सभापव के 'वारद राजी ति
प्रतत कथन की शैली से ली गई थी। ऊपर से देखने पर इसमे केवल प्रश्त-
ही-प्रद्न मिलेंगे। कई मित्रो ने इस लेख के श्लोत और प्रइनों के उत्तर की
जिज्ञासा की थी | प्राचीन बैदिक साहित्य ही बह ल्लोत है, जिसके मंथन
से मे प्रश्त उत्तन्न हुए। प्रइतो के उत्तर भी सुक्ष्म रूप से उन्हीके साथ शिले हैं ॥





बेदिक वाह मस की दुमरी विशेषता यह है कि उसमे बहुधा चि तभ,
बह॒वा कथत भर बहुबा रूपको का स्वागत क्या जाता है। 'इदमित्थ'
शर्वात 'मूलतत्त्य इतना ही है, ऐसा ही हे, यह आग्रह वहा उही पाया जाता ।
वैदिक शब्द गानों ससय का सकेत देकर आगे बढ़ जाते है गौर फिर तवे-नये'
सकेत लेकर हमारी शोर भग्रस र होते है । 'ऋषिसिबहुधा गीतम्‌ ऋषियों ने
उम तत्त्व को भ्रतेक प्रकार से जाना और अनेक प्रकार से कहां, प्रान्तीत
थदिक श्र पौराणिक वाह सय की मूत भित्ति यही साहित्यिक विशेषता ए
प्रकति की प्राणवारा या स्ोमधारा के उस घरिति को, जो पिर्वरूपो भ
हमारे सम्मुख उदघाठित हो रहा है, ममुष्य सदा से देखते रहे हूं गौर आ्रागे
थी देखते रहेंगे एप देखते हुए ग्रतेद प्रकार से उसवी पृथकू-पृथक मीमासा
करते रहेगे--


पदयत्प्रस्थाश्चरित पुथिष्या पृथद्नरों अहुधा मोमाप्तमाना ।
(करगवेद ६१३)


पूलतत्व वी बहुविध कठपता, मीमासा ओर वदन' भारतीय परक्षति भ्रार
राह्विय का व्यापवा सत्य है |

व्यास और वाल्मीकि, ये दो लेख इस देश के दो राष्ट्रव्यापी
पहायाब्यां की प्राणव ते धारा का परिचय दते हैं, जो मानव और जीवन
को केद्र म॑ रखकर प्रवृत्त हुई। जीवन के बहुविध सत्य को एक शब्द
द्वारा पकड़ने झौर कहने व॥ जो प्रयत्न इस देश मे किया गया, उसी मवण
का फल 'वन्न' शब्द की उत्पत्ति है। रामायण श्रौर महा भा रत दो ता दो प्रकार
से धरम की व्याण्या करते हूं। वात्मीकि के ददान मे प्रत्येक गन सरलता
से धम बा पकड लेता है सोर विष्तों के श्रान्े मर भी उसका पालन करने में
सफल होता है। वहा धम अनामास रूप से चरित बस जाता है। दूसरी ओर
महाभारत म॒बार वार धर्म की धुद्धितत व्यास्या की जाती है। उसके पात्र
जैसे धम की धुरी से भागना चाहते हूं, कोई उ हे बलपुबक उसके निकट लागे
का प्रयत्न करता है, तब॑ भ्रत्यधिक सघप के भीतर से ज्यों त्यों. फरमो
यह धामिक सहिता पूरी होती है। एक मे धम या सत्य के प्रति हृदय वा
उत्णास भौर आनन्द है, दूसर म॑ बुद्धि की कतरब्योत और विषाद । दोनो





के पीछे वाल्मीकि और व्याम के शुदृद आसन ग्रौर प्रथा त मुख सुद्राए
साप्ठ दिखाई पड़ती हूं और यह भी विद्वित होता हे कि प्रपने अपने युग
भ दोनों दी प्रकार से धम-तत्व वी व्याए्या करे मे लगे हैं। देखा जाय तो
व्यास का तथ्य हमारे बतमान युग को सगस्माग्रो के भ्रधिक सिकट है ।
उसका एक उदाहरश उनका 'पाणिवाद! विषयक उपदेश है| कितु हगारे
मानस का आदेश सदा वाल्मीकि का धममय चरित योग ही रहेगा |

इन लेखा की प्रेरक भ्रव गति से पाठकों का मन उस विज्ञाल साहित्य
के प्रति मास्वावानू बन सके प्रौर उन उन अर्थों के परिचय के तिए रुचिवाभ
बन मके, तो इनका प्रयोजन सफल होगा। भारतोम साहित्य बेरूल के
उस विज्ञाल कलास-मादिर के समान हैं; जिसे प्रदम्य शित्यियों ने पैवत मे से
गढणर त॑यार किया था। उस महान कृति के वो चार स्तस्भों का दर्शन
ही हमे यहा पुनभ होगा । उम्त विशाल कत्पवृक्ष के कुछ पत्लव ही यहा
चित्त के क्षेत्र गे भ्रा सके हूं ।


-वासुपेबशरण


की द्धू नयी झा एज आए जछ >>


१६
११
१३
१४
१५
१६
१७
श्प
९१६
२०


विषय-सूची


भूमिका

कल्पवृक्ष

मन की अपृव शरवित
सस्कृति का स्वरूप
भाषव की व्यारया

पिता का पित्ता बालक
ऋषिभिबहुधा भीतग्‌
पण्डिता समदशिन
भरे ति-चरैवेति

महर्पि व्यास

पाशिवाद

वैदिक दशन

वैदिक परिभाषा में शरीर की सन्नाए
लोगश

कालरूपी विश झरव
वाह्मीकि

प्रीक्षित का धप

च्यवतत भर भर्वितीकुमा[र
कृष्णा फा लीला वरषु
भ्राश्रा-विपयक योगद्षेम
भ्रध्यात्म तमोवाक्‌


पृष्ठ


१४
२६
३१
१५४,
३९
है ४
# रे

७२
9६
पछ
९७
१०४
(०६
१२४
3९५
(३४
१४७
१४९


!
कल्पवुक्त


भारतीय उपाण्यानों म कत्पवृक्ष की कथा पत्यत्त रमणीय है । कल्प-
वृक्ष स्वग का वह प्तातन महावक्ष कहा जाता है, जियसकी छत्वछाया मे हुम'
जो कुछ चाहे वही पा सकते हू | वत्पव॒क्ष के तीचे खड़े होकर हम जिस वस्तु
वी भभिजलापा करते हू, वही हम तुरत्त प्राप्त हो जाती है | क्त्पवृक्ष वी वरद
दवित प्रमोध है | स्वग और पृथ्वी के बीच में ऐसा कोई भी दुल्लभ पदाय
नही है, जो कत्पवक्ष के तीचे सकत्प मात्र से हमे तत्काल न' मिल' जाये ।
मनुध्य का मत झ्भिलापाओों की उवरा भमि है। कभी हम धन धन्य चाहते
हैं, कभी स्वण की अपरिमित राशि, कभी पृथिवी का राज्य चाहते हु और
कभी इ द्र का ऐश्य । कभी सुदर स्त्री की कामना हमारे मन में झाती है,
कभी स्वस्थ भौर बलिएट पृत्र-पौ तो की , कभी हम दीघ प्रायुष्य या चिरजीवन
की अभिलापा करते हूं, कभी ज्ञान और विद्या के ग्रमित भड़ार के भअविषति
होने के लिए लालागित होते हूं । पवी पर सास लेनेवाला कोई ही व्यक्त
ऐसा होगा, जो इस प्रकार की बहुमुखी कामनाओं से बचा दही | परन्तु कल्पना
कीजिये कि यदि हम क्तसी प्रकार कुछ स्रमय के लिए भी कत्पवक्ष के तीचे
पहुचने का गौजाप्य प्राप्त चर सके, तो घया इस शब पदार्थों पी प्राप्ति मे
एक क्षण का भी व्यवधान ही ” अवश्य हो कत्पवृक्ष त्मस्त ऋद्धि-सिद्धियो
वा कोई भ्रपृव आश्वय-स्था त होगा, जिसके भ्रक्षय भडार में पाथिव मनुप्यो
की ग्रभिलापा-पुति के साधनों की ध्मष्टि है।

यह कत्पवृक्ष क्या है ? भारतीय उपास्यातों की इस काव्यमयी कठपना
वा क्‍या रहस्य है ”जगतीतल के प्राणी को स्वगके इस प्रनुपम' पक्ष का परिचय
कहा प्राप्त हो सकता है ” यदि भर्त्यज्ञोक का व्यक्ति स्वगलोक की इस
वम्तरपत्ति के साथ परिचय प्राप्त कर भी ले तो उससे मनुष्य का कौमसा


१० फएपयुक्ष


क्त्याए सिद्ध हो सता है एप मनुष्य के निष्यप्रत्ति के जीवन को सुरामय
और शा तमय बनाने के जिए कर्पयक्ष जा अमोध वरदान किस प्रफार
प्राप्त फिया जा सकता है ? इन प्रदना का ठीक-ठीक उत्तर समभ देने
पर हम कत्पबश के रहस्य को भली प्रकार जान सकेगे। इसके लिए
समुद्र मभंथा। की ऊथा का रहस्य जानना आवश्यक है ।
महाभारत के आदिपय मे देपा सोर अप्ुरा के द्वारा समुद्र मंबन की कथा
दी हुई है (भ्रव्याय १७ १५)। शभ्रत्य पुराणों म॑ भी इसीको विस्तार से
पल्‍्वप्रित फ्िया गया है। पर तु महाभारत के वणन को दल्लीं उस कथा के
प्रध्यात्म-भाव के गत्यत सनिक्ट है। देव भौर अ्रमुरो ते यह प्रस्ताय किया
फि कतशल्पी उर्दाव (फलशोदधि ) को गयना चाहिए, फ्योकि उसके मथमे
पर गछुत उत्पन्न होगा। 'सवौपधिया' और 'सवरत्ना' को प्राप्त करके
हुम अभृत का प्राप्त करगे | दवा ते कहा कि अप्ृत्त जल भ से प्राप्त होगा,
इसके लिए जल मथगें। उ होने समुद्र का उपस्थान जिया, प्र्थावू समद्र के
पास गये । समुद्र न कहा, “मुझको वी अमृत व! भ्रश् देसा स्वीकार करो तो
मदर-भ्रमण के भारी मब्न को सह सबता हु ।” बिप्णु की प्रेरणा से भ्नत
ते मंदर को उखाड़ लिया, तव समुद्र (अकूपा र) ये फिसारे कूमराज से कहा
गया, “आप इस मदरगिरि को अपने ऊपर सभाले ।” कूम को पीठ पर
मदर रखकर, यापुकि सप की नेती (मथने की रस्पी, जिसे सस्क्ृत में 'तेत-
सृत्र' बहते है) बनाकर इन्द्र ने मथन ग्रारभ किया । मुख की भोर ससुर
श्रौर पछ की ओर देव, भ्र्थात्‌ एक सिरे पर देवा ने शोर दूसरे सिरे पर
अ्सुरो मे वासुक्ति नाग को पकड़कर मन आरभ किया। सघप से शगिि
तिकलने लगी । उसे इ द्र ते सेधवारि से श्ञा त किया ।
तब घपण करने से महा भा वा दूध भौर श्रौपधियों का रस पमुद्र-
जल में टपक टपककर मिलने लगा। उन श्रमृत वीय-रसो के बुग्ध से देवो
को अप्रतत्व मिलने छगा। उप्ती जल मे सुवण का रस भी मिश्नित हुगा |
दस प्रकार ग्रतेक रसोत्तमों से मिश्रित समुद्र का जल दुग्ध वत गया । उस
दूध से मयित होकर घृत बना । तब सबको श्रप्तित देखकर विष्णु में बल
विया और प्रोत्साहित किया कि मच्दर-पर्वत के परिभ्रमण से 'कलश'
को क्षुत्रित करो |


प्रपवक्ष ११


तंब उस वलश मे हो 'सोम् प्रकट हुमा | तदातर उस्त घ्रट से 'श्री'
उत्प'न हुई फिर सुरादेवी ग्रौर मत के समाल वेगवाए_्‌ (गनोजव ) सप्तमुख
3“वे श्रवा गामक गदव उत्पन्न हुआ | मे चारो सादित्य माग का अ्रनुसरण
7रके जहा देवगरश थे, बही चले गये। मरीचियो से प्रबाशित दिव्यमरि
क्यरतुञ नारायण जिणा के वक्ष स्थल पर बिराजमात हुई । इसके बादे
ग्येत्त वभडलु को वारण किये हुए भगवान धन्व तरि प्रकट हुए। रा वमडलु
मे अमृत था। वही पारिजात, कत्पवक्ष, चार श्वेत दाता बाला ऐरावत हाथी
ग्और कालकूट विप प्रकट हुए । बहा के कहने से शिव गे कालकूट विप कष्ट
मे बारणबार नीलफण्ठ की पदवो प्राप्त को । उसी सगुद्र मथन रो कामधैनु
गो, पाचणजन्य शख, विष्णु धतुप और रग्भादविक देवागलाए उद्पत्त हुई ।
देय ने जय पाकर म दर पवत वा ययोचित सरकार करके उसे भ्रपन सवाव
ग प्रतिष्ठित कर विया श्र भ्रार्ना दत हुए ।

समुद्र-मयन का यह उपास्यान ग्राध्यात्मिक पक्ष में मनुष्य की देवी
गौर भाधपुरी वत्तियों के सघप का विवेचन करता है। मनुष्य वा मन उराकी
सद्रश्रेप्ठ निधि हे, मतना(सक गर्ग हो मनुष्य मे दे वी शश्न है। शरीर का भाग
पाथिव झ्ौर मन का भाग स्वर्गीय है। श्रथत्रा यो वहू कि शरीर मृत्यु और
मन प्रमृत है। शरीर का सम्ब वे नह्वर है, मत का फह्पा तन्स्थायी' ।
किसी भी क्षेत्र में देखे, मन वी शवित शरीर को अपेक्षा बहुत विशिष्ट है ।
ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण मे कहा है कि मनुष्य के भीतर जो मन है, वही
प्रजापति व अपना झलोकियां स्वरूप मनुष्म के भ्रदर सत्रिविप्ट कर विया है


भ्रपुर्बा प्रजापतेस्ततूविद्येष तत्मत्त । (ऐ० ५१२५]


पुरुष के शरीर मे मत ही देवो प्रौर भसु रो का सघप-स्थल है। वैदिक
परिभाषा में मनुष्य का झरीर घृट या कप्षश कहा जाता है। मनुष्य का
एक नाम समुद्र है
पुरुषों वे समुद्र । (जेमिन्नीय उप० ज्रा० ३।३५।४)
इसी समुद्र का मथत जीवन में सबके लिए श्रावश्यक कततव्य है । उसीसे
ग्रन॑ंक दिव्य रत्नों का उदभव होता है। इस मथन से जो अ्रमृत था जीपत
वा प्राण-भाग उत्प न होता है, उसका गद्य दैवो को मिलना चाहिए | श्रसुर


१२ फरपवक्ष


यदि जीवन तत्त्व पर अधिकार था जेते हुं, तो मगुष्य मृत्यु के सुझ मे जाने
लगता है।

पव श्रौर पश्चिप्त दोनो जगह के साहित्य में के द्रीय वाडीजाज़ का
वणत एक वृक्ष के रूप मे किया गया हैं। पष्तिवमी परिभाषा भें इसका ताम
'जीवन वक्ष' (/५१00] ४॥॥8८) है। हमारे यहा यह एक वक्ष है। नाडी-
शाला-प्रशासाए इस वक्ष के अ्ग प्रत्यग हैं। मलुष्य का स्वास्थ्य शोर
जीवन इस ताडी-सस्यात पर ग्रतिप्ठित है। यह वनस्पति ही मनुष्य-जोवन
के के दर मे स्थापित यप है । इसीसे ग्रामुष्य सम्बद्ध है |

हस वृक्ष की साज्ञा कल्पवृक्ष है । बहप भौर बाल्पना एक ही धातु से
बने हूं ।

करप दो प्रकार का होता है. एक सबात्प, दूसरा विकल्प ! कैप
मे 'सम्‌' श्रौर 'वि' उपसग जोडने से ये दो शब्द बतते हैं | ये' ही उपसग
समाधि और व्याधि में हूँ । 'सम्‌' उपस्तर्ग जीवम की ग्रतर्मुखी गति को
बताता है और 'त्रि' वहिमुज़्ी को । रकह्प मनुष्य को समाधि की शोर
से जाता है और विकल्प न्याधि की ओर ।


संमकत्प> समाधि

विकल्प "-व्याधि
मन की झव्ितियों वा रहस्य सकरुप या समाधि है| ताना विकल्पों से मत
व्याधि की ओर जाता है, उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है ।

इस प्रकार का कत्पवृक्ष प्रकृति ने प्रत्येक प्राणी के भीतर लगाया

है । मतने या विचार मनुष्य का स्वभाव ही है। विचार के क्षेत्र में मनुष्य
ऊची उड़ान भर सकता है। विचार साम्राज्य के विस्तार की इयता
आजतक कोई तही बाध सका । कृति ने इसी भाव को लक्ष्य मे रखकर
कहा है

भनोरभानाग्गतिन विद्यते । (कुमारसभ्भव, १)६४)


अर्थात, गन के रथ की गति कही नहीं सकती | भतोरयो के जगत मे
प्रप्राप्प कुछ नही है ।


कल्पवक्ष १६


इसीलिए कहते हूँ कि कल्यवक्ष के तीचे सकह्गम्रात्र से जो चाही सो
प्राप्त क्र लो | १२ उपलब्धि की यह वास्तविकता कर्पक्‍क्ष के नीचे तक ही
सीमित रहती है । कल्पव॒क्ष की छाया से आाहर मन का राज्य समाप्त हो
जाता है और मनुष्प जहा-का तहा हो रहता है। विचार गस्तिष्क गे उत्पन्न
होते हूं | मध्तिप्क की शज्ञा स्पग है, जहा ज्योति लोक है। इसी कारश! कृल्प-
वक्ष को स्पग का वृक्ष कहा यया है । कत्पवुक्ष का ताम पारिजात है, क्यों कि
यह जम ज्ेते ही प्राणी के साय उत्पन्न होता है | वस्तुत जन्म से लेकर मच्यु-
पयत मतुध्य का कया विकास है? इस प्रदत का उत्तर यही है कि मानव जीवत
मन की ग्रत्तनिहित शक्तियों का किक उदघादत है | बालक गौर थुवा मे जो
भ्रन्तर है, वह मन की गवस्था का भेद है। ससार के उत्कृष्ट मस्तिष्क
वाले सकह्पवान्‌ प्राशी में और एक सावारण मनुष्य में भी जो भेद है,
वहूँ मर की शक्तियों के भेद के कारण है। मन ही मनुष्य का दूसरे
मनुष्य से भेदक है | जो मनुष्य अपने भीतर सकल्पवात्‌ मन का भरण
करते हूं, वे ही राष्ट्र की निधि हूं। ताता प्रकार के दुबल बिकत्पां से
प्रताडित अस्थिरचित्त व्यक्तियों का समाज के लिए क्या मूल्य हो सकता
है ? अनेक ग्राचार्यों हारा! विद्यालयों में शिक्षा के आयोजा इसीलिए
हैं कि सच्चे प्रथों म सकल्पयान्‌, मन झक्ति से वती, मनुण्या का निर्माण
किया जाय।

कल्पव॒ुक्ष स्वर्गीय या दिव्य वनस्पति है । यजुर्दद में मन का विशेषण
दब” कहा गया है| प्रश्न यह है कि इस स्वर्गीय वनस्पति का परिचय
प्राप्त करके हम अपना क्‍या कल्याण कर' सकते हैं? कल्पवक्ष, जैसा
कि नाम से प्रकट है, कल्पताप्रधान है । कल्पना या सकर्प दो प्रकार
का होता है एक शिव, दूसरा भ्रशिव । शिवप्तकल्प ही मानव-कत्थाश
के हेतु हो सकते हैं। पीराशिक उपाश्यानों मे भी प्रसिद्ध हु कि यदि
हम कत्पवक्ष के नीषे श्रमृत की कामना करे तो वह प्राप्त हो सकता है
पर यदि भग या दुधल सकत्प या मानसिक विकल्प के कारण मृख्यू वा
बात हमारे मन में भरा गई, तो बह भी तत्काल ही प्राप्त होती है। इसलिए
कठ्पवृक्ष के जगत में मनुष्य का कल्याण केवल शिवशकल्पो से ही सिद्ध हें
सकता है।


१ इह्प्रणक्ष



मन की अपूर्व श॒क्कि


इस दरीर में शपित का मुझ्य स्थान केकीए नाडी-जाल है। इसके दो
भाग हु एक सस्तिप्क ओर दूसरा मेरुबण्ड-सम्बन्धी नाडी-सस्वास,
जिसे भारतीय परिभापा में सृपुम्शा' कहा गमा है। वेदिक परिनापा म
मस्तिप्क वा शिर के अगेक ताम हू

चैंदिक मत शास्त्र के पहितों ने उन अनेक सज्ञात्रों के द्वारा संस थी
गपरिमित शक्तियों को ही प्रकट किया है। गत्तपथ ब्राह्मण के अनुसार
शिर ही समस्त प्राणों का उद्भव-स्थान है

शिरों मे प्राणात्रा योति । (भत७ ७।५११२२)


पच प्राण ही पविज्धिया का संथालन करते है । इतफा तियतण शिर से
टी होता है। 'शतपथ ब्राह्मण म भ्रयत निरवतल्चास्न की पृष्ठि से कहा हे

यच्छिय तप्ुदोहुस्तस्साहिछिर तस्मिल्नेतस्मिन्पाणा प्राश्षयन्त, तस्साद्‌
उ एवं एतत दिर । (शत० ६।११४४ )


शर्थात, देवों ने श्री का दोहन किया । धी-दोहन के कारण ही शिर
को यह नाम मिला | उस शिर में प्राण ने आश्रय लिया। भ्राश्नयस्थान होगे
व कारण ही वहु शिर कहलाया ! यहा ऋषि देखता है कि श्री, झाश्रय भ्रौर
शिर, इन तीनो मं एक ही धातु 'श्रितर श्यणो' के भिल्न-भिन्‍्न रूप हैं ।
तात्पय यहू हैं कि शिर य! मस्तिष्क ही प्राणों का प्रभवन-स्थान है।
शिर की दूसरी प्षज्षा 'वमस' है। उपनिपद और वेद-मत्नो भे एक चमस
का वणन शभ्राता हैं, जिसका मुह नीचे को (अर्वागू बिल ) श्रौर पेंदी ऊपर को
(अर्प्यबुध्न ) है। शतपथादि ब्राह्मणों के प्रमुसार यह शिर का ही बणन' है
अर्वाग्विलइंससस ऊध्वधुध्य | इंव तच्छिर । (शत्त० १४॥१२॥४)
यदि हम ध्यानपृवदा अपने ध्षरीर का निरीक्षण करें, तो हमे जान पड़ेगा
फि मेरंदण्ठ के ऊपरी भाग पर शिररूपी कटोरा श्रोधा ढका हुमा है | मेफ-
दण्ड का ऊपरी छोर सुमेस शोर नीचे का कुमेस कहलाता है। सुमेश और


मेंस की अ्रपुप शपित १५


वपोए के बीच भ्रहनिज एक विद्युत की तरग या प्राएवारा प्रवाहित
होती रहती है | इंपका स्वास्थ्य ही हमारे आायुष्य का हेतु है ।

श्िर की तीसरी सज्ञा कलश था द्रोण है। सोमथाग के द्वारा इसी कराश
मे सोमरस भरा जाता हैं। इस द्रोण कलश मे जो सांग होता हैं, उम्र से
छाटे छोठे पात्रों भ भरकर बहु रस पिया जाता है । हमारे शरीर मे भी
रात दिन यह तिया चलती रहती है । मस्तिप्फ मे भरा हश्स रस ( ले रीक्ी---
स्पानल पलु55) ही सोम दें। यह रशा मस्तिप्क ओर मेर्दण्ड के समस्त ना
सस्थान को सीचता रहता ६। यह मस्तिप्फ को वापिया (वद्धिकल]
ग उत्प्र हांता, ऑर मस्तिप्फ गौर शुपुरुशा की सूध्मतग ताटियाँ का
पोपण झोर परिभाजन करता हुआ उस सबन शातप्रोत रहता है।
शरीर यज मे सम्बंध रखनेवाली परिभाषा म सोमरद्त ही मस्तिप्क
गीर सुपुम्णा म व्याप्त रक्ष हू ।

ऋग्वेद मे सोम को इन्द्र का रस या ई|[ द्वय सम्बन्धी रस गहा गया
हे


सोस इचियो रस । (ऋ० ८३(२० )

यहू क्षोम सबक मरितप्क में भा ति भौर ग्रमुत देनवाला चंद्र है।
यही शिव के मस्तक पर रहता है| समुद्र-्म वत्त की कथा मे भी तोग उत्पन्न
हुआ और भ्रादित्य-मांग से दंवों के पास गया ।

मस्तिफफ की हो एक राज्ञा स्वग है। प्रवबबेद के एक मन्न मे
कहा है

अष्टचका नवद्वारा देवाता पुरयोभ्या

ब्रस्या हिरण्ययों कोश स्वर्गों ज्योतिषावत ॥ (श्रथेवू० १०२३१)


श्रतू--शाठ चक्त और नव (इच्धिय) द्वारोबाला यह शरीर पगो
की पुरी मयोध्या है| इसमे एक हिरण्य का जोश है, जो ज्योत्ति से ढका हुआ
स्वग है | थह मस्तिष्क ही स्वग है, जो ज्योति का नोक है और वैवा का स्थान
है। हिरण का एक पर्याय प्राश वीय था सोम हु। मस्ति'क इस सब तत्त्वा एव
वास्तविक कोश है| वीप था रेत मे मस्तिष्क का शाक्षात्‌ घतिष्ठ सबब है ।
मस्तिष्क सकलपो का स्थाव है। कागदैव को सकरप बोचि कहा जाता है।


१६ कश्पवृुक्ष


काम की सर्वप्रथम चेतता मत मे ही स्फुरित होती है। म्तएन उत्तकी भोज
या 'सनप्तिज' सज्ञाए गन्‍्व व ही हूं। मन' को निधिकार ररे से काम जीता
जाता है। भन को वश मे बरने की गासत-प्रिपि का जाम योग है। शिव
राव धथम योगी है | झतएय' वह ही मदन' का दहन करने में सफन हुए।

हमारे झास्तो के अनुत्तार विचार या मनन ज्योति का वक्षण है। निचार
ज्योति की किरण के समातत है, जो अधकार को चीरती हुई फलती' है ।
इसलिए बुद्धि को सूप श्रौर घिचा से को ज्योति कहा गया है । विचारों का
ज़ोफ मस्तिप्फ है, वह ज्योति से ग्रावत स्वय वहा गया है। प्रकृति ने शरीर
वी ऐसी रचगा वी हे कि उसमे मस्तिष्क ही विचार कर सकता है । मस्तिष्क
या शिर से नीचे शरीर का जो भाग है, उत्तम सकल्प-विकर्प की शवित नही
है । गतएव आप-परिभाषा में क्षिर को ज्योति-त्ोक या देवलोक शौर दोष
शरीर को तमोलोक या असुरणोक कहते हूं। मनुष्य मे ज्योति मौर तम,
देव श्लौर झसु र--दोनो का एक साथ निवास है ।

हम भपने विवेक से ज्योत्ति को तम से भ्रलग पहचान बैते हूं, यही' ज्योति
या देवों की विजग हें !

पुपुम्णा के भाग का ताम प्चिबी लोक श्रौर भरितिष्क का ताम स्वग
है। इन दोनो का जा समग्मिलन है, प्रभात जहा सृपुम्णा सिर मे प्रवेश करती'
है, उस स्थान को अच्तरिक्ष (बीच का लोक)कहा जाता' है | हमारा समस्त
झ द्रय-ब्यापार चेतना के इन्ही तीत स्थागो के पा रस्प रिक सहयोग से सम्भव
होता है ।

समुद्र-मयत से जो रत्न उघन्न हुए, उनका सम्बन्ध सी अध्यात्म पक्ष
में मनुष्य के शरीर के शाव्तरिक तत्वों से ही है। सोम या चन्म मस्तिष्कगत
सोभरस है, जो अमृत का कबण करता रहता है ) भागु, प्राण, चेतना,
ज्योति, देवत्व, गा तति झादि सात्विक तत्त्वो की पज्ञा ही भ्रमृत है। ब्राह्मण-

अस्यो में इन परिभाषाओं को रपप्ट स्वीकार करके प्रमृत्त के प्रक्निप्राय को

बताया गया हैं ।

सनुष्य में प्राश-शजित का उद्देक ही अमृत है। यह प्राण रेत फ्री
गुद्धता पर चिभर है। रेत या वीय जल तत्त्व पर आश्रित है। ऐतरेय उप-
पिपद्‌ में स्पष्ट कहा है कि जब्बो ने रेत बनकर इस झरीर में निवास किया।


भन को क्रपुप्त श््ति १७


श्राप रेतों भृत्वा शिक्त प्राविशन्‌ ।
इसीलिए समुद्र मधन मे पुदपरूपी समुद्र के जल-तत्वों का सघन किया जाता
है। रेत की शुद्धि ही प्राण शरीर आयु बी चरम प्रतिष्ठा है ।
रेत एक प्रकार को शवित है। उसके वो स्वरूप हूं. एक देवी, दूरारा श्रा-
सुरी। जल के भी दो भाग प्राचीन नि(क्तो मे बहुत महत््वपूण है एक अमृत,
दूसरा विय। जत ही प्रमत भर जल ही विप है । जल से उत्पन्न साल्बिक
शक्ति अमृत है। उत्तीका तामसो रूप बिप हो जाता है । देवता भौर ससुर
दोती भ्रभृत चाहते है। पर देवी विधान यही है कि केवल देव ही अमृत पी
सकते हूं, असुर नही | परन्तु हससे पूत्र कि देवा को 'भ्रभूत गिल सके, यह
ग्रावश्यक हे कि काई विष या कालफूट को अपने शरीर में पचा ले) शिव
योगिराद हैं, वह ही विष श्रर्यात रेत तत्त्व की तामसी बृत्तियों का दमत कर
सकते हैं ।
वेद की प्राचीनतम परिभापाओ्रों मे इनके तामान्तर सोम भौर सुरा
हैं । रेत की सात्विक शक्ति सोम है, तामत्ती मादक या च्छुड्डल शक्ति
सुरा है
प्रजापतेर्वा एते प्रन्धती यत्मोम्ततच सुरात |
तत सत्य भ्रीज्योंति शोम ।
श्रतृत पाप्सा तम्र सुरा॥ (छ्व० ४।१२१०)
अ्र्यात--प्रजापति के दो भ्रत्त है. एक सोम, दूसरी शुरा। सत्य, की
और ज्योति का नाम सोम है, अनुृत, पाप और तस का नाम सुरा है।
गपने शरीर म ही हम देखते हूं, तोम भोर सुरा दोषों विद्यमान हैं ।
प्रश्न जब पेट मे पहुचता है, उप्तका भ्रभिषव होकर जो शरीरिक शक्ति बनती
हैं, वह सुरा है। प्राकृतिक सुरा भी अभिषव से दी बनती है। उस्ती अभिषुत
रप्त के अधिक युक्षम होने से जो सूक्ष्म मत शक्ति उत्पन्न होती है, बहू सोम
है। सोम ही वच्द्रमा है, इसलिए चत्रमा को मे से उत्पन्न कहा जाता है
चंद्रमा मतसो जात ।
भ्रथवा यजुर्वद मे यह प्रइतत किया है कि कौन बार बार घटता बढ़ता रहता
है? ग्रौर उत्तर भे कहा है कि यह चर्मा हे जो बार-बार उऊत्पन्त होता है।
ष्‌


श्प् कत्पृवक्ष


(यु २३४५-४६) , वहा भी भ्रध्यात्म पक्ष मे च ब्रमा का श्रेय मत है, जो
पकरप-विकल्पो के द्वारा बराबर वृद्धि-क्षम को प्राप्त होता रहुता है। भ्रमृत-
विपर एवं सोम-मुरा के दन्द्र मन वी शवितियों को लक्ष्य करके कहे गये हैं,
भ्रध्या(म-पक्ष म इतका अ्र्य स्पष्ट हो जाता है, मन के समान वेगवान सात
मुखबयाला भर्व देवा का वाहन है। झतपथ ब्राह्मण में स्पष्द कहा है कि
मन ही देवों या वाहन भ्रदव है । इसीपर आरहूडइ होकर देव विच्रण


करते है


सनो वे देववाहन । भनो हीव मनत्विन भुमिष्ठ वन्नीवाहमते।
(शंतपथ ११४३६ )

दूत वा प्राचीन विशेषण बद्श्षवा है। उत्तका यह ऋद्षव पुराणों मे
उच्च श्रवा वाहा गया है ।

प्रदन यह हैं कि अ्रदपय के सात मुख कौन-से है ” सप्तशीषण्य प्राण ही
मन छपी श्रदव के सात सुख हू दो आय, दो नाक, दो कान भौर जिह्वा--
ये सात ऋषि हूं, जिनसे प्राशिमात काम लेते हूं । सप्तशीपण्य प्राण श्र
राप्ताप यह परिभाषा वेद मे सामान्य छूप से बार-बार झाती हे और बुह-
दारफ्यक उपतनिपद (२१४) में इनको स्पष्ट फिया हूँ ।

प्राणी का श्रनिपति मन है। म्तएवं सप्तमुखी मन ही देवों का ऋदव-
वाहन है । मत घी सप्सभुख्ती ४ ह्रय वृत्तियो पर भ्रधिकार प्राप्त कर लेने पे
प्रधवा इन्द्रियों को भ्रन्तर्मुखी बनाने से ही देव गपने प्रदवबाहून के द्वारा
तियत श्रौर अभिलपित स्थान पर पहुंच सकते हूं।

केठ-उपतिपव्‌ से तथा भ्रत्य भारतीय ग्रयो मे इणियों की उपमा भ्रदव'
से दी गई है। शरीररूपी वेबरथ में इम्क्रियों के प्रदश्यो को जोडकर जो
बुद्धिरृप सारथि की शविति से सफल जीवन-यात्रा कर सकता है, वहीं विजेय-
शील प्रहारथी है, भत्यवा हमम' से हुरएक परास्त वृत्त होकर बाद्दी म कही





' ऋणेद में भी देव-वाहन श्रदण क्वा वर्णत है---
वृषो झग्नि ससिध्यतेफ्बों त वेवबाहुन,
ते हुविष्मन्त ईडते (ऋ० ३॥२७११४)


मन फ्री प्रपुत्र शक्ति १९


अ्रपनी-श्रपत्ती यात्रा मे भठकता रहता है। हमारे जीवन के लिए. मनोजव
उच्च श्रवा का महत्त्व सकतो5विक है।

मनुष्य में दृ सकल्प-श वित ही दिव्य कौस्तुभ-मरि' है, जो हृदय का
ग्रलकार है । जिरा हृदय मे कौस्तुभ तही वह श्रीटविद्ीत है | संकल्प थी
घीयवती शवित ही मनुष्य को बेब बनाती है। मन, बुद्धि, चित्त मर म्रहकार
इन चारो की समन्वित दवित चार दातोबाला दिव्य ऐरावत इद्र का वाहन
है। इन्द्र भ्रात्मा की प्राचीत सज्ञा है। उसीके सम्पक से हमारी दृरद्रया
भ्रपने कार्यों मे प्रवृत्त रहती है। ६ & की धक्ति ही इच्द्रिय रूपी देवों के रूप
में प्रकट हो रही है। झतपव ब्राहाण मे कहा है कि इन्द्र ही सबके भीतर बैठा
हुआ भध्य प्राण है, जो इतर इन्द्रिय प्राणों को समिद्ध करता रहता है (श०
६ १॥२ १) । वह इन्द्र शक्ति सकत्प शवित के रूप में प्रकट होती है ।
सकल्पशवितरूप कौस्तुभमणि विष्णु का सर्वोत्तम झ्लकार है, जिसका
स्वरूप मानुपी सही, दँदी है | पुरुष ही विष्णु और पुरुष ही यज्ञ है। पाच-
जय वाखभ्रोर विप्णु का घनुप भी मत झौर प्राणो के व्यापार से ही सम्धन्च
रखते है। इष्ियों की एक सज्ञा पच॑जन हैं। इते पच॑जनों का सवादी
स्वर पराचज-य शंख की ध्वति है। इकच्तियों को उच्छछ्ु लता उनकी
विसवादिता है। समस्त इन्द्रियों का मन के साथ राज्ञान सूत्र भे बद्ध रहना
ही. पाचज य श्र का दिव्य सधुर घोष है। वश्ञीभूत ई द्रया कामधैनु
गौए है (गाव कामदुष ), जो श्रमृत के समात्त स्वादिष्ट दुग्ध देती
हूँ । यथाकाम दुग्ध प्राप्त करते फे लिए इद्रियों को वच्य में करना
श्रावद्यक है ।

दँवी बुलिवाला मनुष्य दिलीप के समान कामभैसु की गो-शेवा करके
उसका दुग्ध पीता चाहता है। वही यशिय भोग है, श्रसयत व्यक्ति इच्द्रियो
को नि्रोडकर उनका रक्‍त पी लेना चाहता है । कविवर ता+हालाल के शब्दो
मे 'भाव के भूले देव होते हैं, रक्त के प्यासे प्रसुर ! यही वत्य भ्रौर श्रवश्य
इण्त्ियों का प्रन्तर है। रम्भादि देवागनाएं भी पुरुगरूपी समुद्र के श्रभ्पन्तर


* स॒ थ्रोष्य मध्येप्राण । एप एच इस । तानेष प्राणात सध्यत इन्व्रिये-
एन । यर्दद् तस्मादित्भ । इच्चो हु थे तमिल इत्माचक्षते परीक्षत ।


२० कल्पवृक्ष


म ही उपस्थित हैं। यास्क के प्रतुसार रम्भ मेरदड की सजा है

रम्भ पिताकमिति वण्डस्थ । (लि० ३३२१)

पिनाक क्या है श्रौर भेरदड को क्यो शिव का धनुष कहा गया है ”

मेहर एक पवत है। जिसम पव हो, वही पत कहताता है| मेशदड में तत्तीस
पष या पोरिया हैं | इस पवत वी शबित पावती या पर्वतराज-पुत्री कही गई
है। रम्भा भी पिताक या मेशदण्ड को ही सज्ञा है। रम्भ की शवित रम्भां
हुई। रम्म की कत्पना एक अप्सरा के रूप मे है। पावती योगीववर
शिव को तप के द्वारा प्राप्त करती हं। परन्तु रम्भा प्रप्सरा देवो वा स्वच्छ द
बरश करती है (श्रद+य सरस्तीति श्राप्सरत ) | जलो से उत्पन्न होने के
कारण वे शप्सरा कहताती हूं। जत्न का प्री रवर्ती रूप रेत है । उसीकी
शनेक कामनाएं या वृत्तिया अप्सराए है। रम्भा मेरुदण्ड की प्रशुरा अप्सरा
है। बहु मेरु पर रहुनेवाले देव गए का बरण करती है। दिव्य भ्रण्यात्म
भावों को प्रकट करते के लिए ही पुराणका रो मे एम रमणीय कहानाशो या
परिभाषाभी को सृध्टि की है। ये परिभाषाएं ही भारतीय उपाण्यातों की
वणमाला हूं। इनको अतेक-विध बारहखडी के द्वारा ही एतदेशीय लेखक
विल्क्षण उपाख्यानों की सृष्टि करने में सफन्न हो सके। मच्दर, बासुकि,
झौर कूम, ये भी उसी कत्पना के झग हूं। भें दण्ड का ही एक भाग भदरा
चल है, वासुकि कुण्डलिती है। प्राण ही वह कूप्त है, जो भन्‍्थत के समय
पवत का अधिष्ठान बनता है। रेत और शिर को सी कूृम्त कहुते है। शत-
पथ ब्राह्मण में लिखा है --

रेती व कूम (७० ७॥५।१॥१)

हिए' कूंम | (ब० ७५१३४)

प्राणो ये फृ्त प्राणों हीमा सर्वा प्रज्ञा करोति ! [ह० ७॥५॥१७)


जबतक हम सुधिष्ठिर वे समान इस अ्रदु्य यक्ष की शकाओो का समा-
धान न कर से, तबतक सासारिक तृष्णाश्रों को तुप्ति नहीं कर सकते |
६'ही मस्नों मे मन वी सारधथि से उपमा देकर शरी रक्षपी रथ मे जुते हुए
इद्धियहपी भोड़ों के उस साहित्यिक रूपक का सूुत्रपात किया गया,
जिसका मतोहर वणृत कई स्थानों में हमारे प्लाद्ठित्व मे झाया है।


भने की श्रपृष शक्ति ६


महाभारत प्रश्वमेध पव (अ्र० ४१) में ब्रह्म रधछूपी शरीर का बणन
करते हुए लिखा है


भहदह्वसमाभुष्त बुद्धियमन रथम ।
समाहह्ा स भूतात्मा समसतात्परिधाषस्ति ॥
इल्द्रियग्रामसयुक्तों सत्न सारधिरेव 'च।
सुद्षितयसनों लित्य सहान्‌ ब्रह्ममंयों रथ ॥
एवं यो वेत्ति घिद्वाग्व सदा ब्रह्ममय रथम।
सधीर सबभुत्रेष ने मोहमंधिगच्छति ॥


प्राचीनकाल के मनीपि शिक्षा-श्|स्त्रियो ने मत की इस अ्रपूष शवित
के रहस्य को जात लिया था। जब हम 'तस्से भत शिव सकल्पसत्तु' सूकत
को पढ़कर देखते है श्रौर उप्तके भ्रथों पर विचार करते हैँ तब हमे श्राश्तय
होता है कि मन वी जाग्रत और सुधुप्त सभी प्रव[र की शक्तियों को पहचा-
सेते में भारत के प्राचीन भतोवैज्ञानिकों को फितनी श्रिक सफलता भिल्
त्रुकी थी । आइये, मत सृकत के रचयिता शिव-सकर्प ऋषि के विचारों
को ब्यानपुवक सुने

१ देवी शत्तित से सम्पस्त जो पन जागत अवस्था से दूर तक जाता है,
जो सोते समय भी उसी तरह जाता हे, वह ज्योतियों की ज्योति दृरगम
मेरा मत शिव सकत्पा से युक्त हो ।

२ शिसके द्वारा मतीपी जन बज्ञिय विधानों में कम करते हैं, सब
प्रजाओ के भीतर जा मपूव शवित है, वही मेरा मन शिव-पकल्पो से युक्त हो।

हे भ्रज्ञान, चेतना भ्रौर भृति जिसके रुप हूं, प्रजाश्रों के भीतर जो
अमृत ज्योति है, वही भेरा मत श्षिव पकत्पों से युक्त हो ।

४ जिस श्रमृतज्योति के भीतर भूत, भविष्य और वर्तसान सब
परिगृहीत रहता है, जिसके द्वारा 'सप्तहोता' यज्ञ का विधान होंता है,
वही भेरा मत शिव मकह्पों से मुक्त हो ।

५ ऋफ, साम भीर यजु जिसम इस तरह पिरोये हुए हु जैसे रथ के
पद्विये की पुद्टी में झरे लगे रहते हैं, जिस प्रजाश्नो के रागस्त सकत्प श्रोत
प्रोत हैं, वही मेरा भन शिव-सकरपा से युवत्त हो !


२१ कल्पप॒क्ष


६ उत्तम सारथि जैसे लगाम के हारा धोंडों फो नियात्रित्त करता
है ऐसे ही जो मनुष्यों को बा रम्बार ने जाता रहता है, जो हृदय पर्थात
हमारे व्यवित्व' केर्द्रन ढू पर प्रतिष्ठित है, जो श्रजर श्रौर बेगशीज है,
वही भेरा मन शिव सकहपो से युवत हो । (यजु० ३४।१।६)

क्ष्या विश्व के साहित्य भे ऐसे शब्द ग्न्यत्न मिल सकते हू, जो मन की
भप्तिमा का वणन करने मे इनसे प्रविक उदात्त श्रौर इनसे प्रधिफ श्ोजह्नी
हो!

ग्रवतक सन की स्तुति मे मन्यत्र णो कुछ कहा गया है, उस सब फीका
कर देगेवाले हमारे ये उप कालीन वाक्य हूं । प्रवश्य ही इस सत सूक्‍त के
रजयिता ऋषि ने, जिसका नाग भी सयोग से शिव-पकट्प कहा जाता हैं,
पध्पने भअभ्राध्यात्मिक अनुभव की ऊचाई से मन की प्रश्षसा मे उससे कहीं
अग्रधिक कह डाला है, जितता हम भविष्य में कभी कह पायगे | मन्त
के लिए थे विशेषण कितने साथक हैं जसे ज्योतिषा ज्योति, अ्पुव यक्ष,'
देव, दूरगम, अभृतज्योति, प्रज्ञान, चेतना, धृतति, प्रजर, जविष्ठ भ्रादि |

मनरूपी अपूब यक्ष (यज्ञिय पजनीय ज्योति) हम' सबके भीतर बंठा
हुआ है ।

मजुवेदीय शिवसकल्प के मस्तों को एक उपनिषद समको जाता है ।
उप्तमे सबसे महत्त्व को बात मत की शिवात्मक सकलपो से युक्त क रते' का
भाव ही है !

भर्वाचीन मनोविज्ञानशास्त्र के अनुसार मनुष्य का झतमन बाह्यमत
की श्रपेक्षा सह गुना श्रधिक शवितज्ञाली हैं। उसके यथाथ स्वरूप, रहुस्थ'
झौर शक्तियों का भ्रभीतक हमें पर्याप्त शान नहीं है। उसी प्रतमन को
शिव-सकलपो की प्रेरणा से मनुष्य के लिए ग्रत्यधिक बल्याणुका री बनाया जा
सकता है। पहिचिती बिद्दान फ्रॉयड के अभ्रवेषण शअतर्मत से ही सम्बन्ध
रखते हैं। उस प्रत्तमन पर प्रभाव डालकर उसकी. प्रत्तनिहित शक्ति को





[06 []॥7778607 ० ॥। [08 00/08798 ४8॥929
* 2607088 9[)07[


मन की अ्रपूर्ष शक्षित श्३


परिष्कृत थौर स्फुट करता, यह भी ग्राधुसिक मभोविज्ञान का सुपरिचित
सिद्धा त है ।

दीधघ आयु, श्रमुत जीवन, स्वास्थ्य, अर्जित प्राण-शक्ति, सिविकार
इद्िय-धा रणा, निदवल धृति, मत शा त--ये सब उपयोथी भाव मानसिक
सकट्पो ते प्राप्त किये जा सकते हैँ । इस प्रकार के शिव सकत्पो को अग्रेजी
मेग्रॉंगों सेशन कहा जाता है। वस्तुत मनुष्य अपने ही सकत्पों से 'रात-
दिन भरा रहता है। ऐसी दद्या' में उत्तका कत्याण इसीमे है कि वह अपने
सकल्पों को वशिव शौर सत्य बनाये । सत्य क्षकत्प ही दुढ द्ोते हैँ | पृण
तया मनुष्य की जो भारतीय कल्पना है, उसमे उसे गत्यक्राम गौर सत्य-
सकत्प होता चाहिए ) जीवन की सफ़लता या पृर्णता फ्री यही कसौरी हे
कि हम किस सात में अ्षपते झ्रापको संध्यकास बता सके भ्रौर जीवन मे
कितने सत्य प्कल्पों का लाभ हमे प्राप्त हुआ । सकहप की एक वंदिक
सज्ञा नतु हैं। मनुष्य कतुमय प्राशी है। नतु का सम्बन्ध कम से है।
कम के प्वारा क्रतू या प्रकल्प की पूर्ति होती है। एक श्रोर कतु दूसरी और
कर्म | इन्ही दोसो के बीच में सनुष्य-जीवन है ) इसी दृष्ठि से जीवम की
अतिम प्राधना भनुष्य के लिए यहू है --


ग्रोश्म झतो समर, करत समर
फक्रतों रसर; फ्रतत समर)


प्र्थात--सकल्प का स्मरण करो। फिर कम का स्मग्णु करो। कितना
सोचा था, कितता कर पाया | कविबर काउमिंग में सकलप श्रौर॑ कमे के
इसी सम्बंध को व्यक्त करते हुए कहा है कि किस जीवन में सकहप भ्ौर
कर्म का मेल पूृणा उत्तरा ।

्र्धाचीत मल शास्त्री इस प्रकार के शिबसकल्पो को मानसिक चिकित्सा
वा झनितवात झग मालते हैं। हमारे साहित्य म॑ शिव-सकत्पों के सैकडों-
सहसो वावय हैं, जिनके उचित आत्म-निवेदन! था आत्मआसन से हम
शारीरिक प्रीर मानप्िक पश्रभी प्रकार का स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैँ )

मन म कुत्सित सकरप का ताम है अधदास”, जो भन की व्याधि है।
उत्तम सवल्पो को बंदिक पर भाषा में 'सुशात कहते हूं। शिव-सकत्पात्मक


२४ कर्पवक्ष -


बचतनों का सुदर शत ही मानसिक स्वारव्य के जिए भ्रभीप्ट है। सुशस का
फल भअन्तमन का स्वास्थ्य या सौ स्वप्त्य है, अ्रधशस का फल 'दौ स्वप्त्य
है । दौ स्वप्त्य का भेपण शिवसकल्पो के दासन है प्राप्त होता है। इसी-
झ्षिए सध्या या अहोरात्र की ध्यान-विवि मे विविध शिव सकत्पात्मक वचनों
का सब्नितेश किया गया है ।
यत्रपि वैदिक साहित्य भें सहल्लो प्रकार के शिवमकत्प दिये हुए हैं,

तथापि यहा उदाहरण के लिए कुछ ही वाक्यों का सकलन करके इस विपक्ष
का दिवश्न किया जाता हैं --

झ्रो३म्‌ बाड़ मे प्रास्पेड्तु

ससोर्स प्राणीष्तु

श्रक्ष्णोमे चक्षुरस्तु

कणयोर्म॑ भ्रोभमस्तु

बाहुबोम॑ बलमभस्तु

ऊर्थोम्त ऋोजीस्तु

अरिष्दाति. भे5ज्ञाति

तनूस्तन्‍्चा सह में सच्तु ।

ब्राइ म आतान्‌, मस्रो प्राण; चक्षुरक्ष्णो, भोन्त कणयी श्रपलिता
शा, अगश्ोणा दत्ता, बहु बाह्दीबेलम, अरव्िणों, जधयोजव , पादयों
प्रतिष्ठा, भ्रिष्टानि में सर्वात्मा निभुप्ट ॥ (प्रभव० ११ ६०)
ततूपा श्रग्नेउसि तच्च में पाहि ।

शायुर्वा धग्नेष्स्पायुमें देहि ।

वर्चादा भ््मेधत वर्चो में वेहि।

गगने पच्मे तन्‍वा ऊन तम्म झापुण

श्ग्ने ब्रतपते क्षत धरिष्याप्रि

तब्छकेय तन्‍मे राध्यताम ।

हृदमहमनृतात्सत्यमुपेमि ॥।


यह ब्रत-प्रहरा का सक्तत्प है | ब्त के द्वारा हम झनुत भाव को छोडकर
संत्य भाव का झाश्रय लेते है। इसी प्रकार मेधा, श्रद्धा, अभय, ग्रायु। भ्रमृत,


शन फी अपूव शकित २४५.


प्राण, प्रजा, यज्ञ आदि से स्म्ब ध रप्षनेवाले प्रतेक शिवसकल्पात्मक वाक्य
हैं| कही कहा है 'पशो मा प्रतिपक्चताभ्‌', कही अभय कुर का सकत्प है,
कही 'एवा में प्राण मा विभे (हे मेरे प्राण, मत ड रे) का गान है। एक जगह
प्राण श्रौर शपान के द्वारा मृत्यु से रक्षा पाने का सकरप है >-
प्राणापानो मृध्योर्मा पात स्थांहा। (श्रभंब० १॥२६।१)
प्रयत शतायु होकर स्वस्थ जीवत की कामना है +-
पक्येस गरद शतम
जीवेम शरद भअतम्‌
अुगुपाम दरद शत
प्रश्ननाम हरव झतभ्‌
प्रदीना स्थास शरद शतसभ्‌
भूयहल शरद दातात।
इसी प्रकार के पदात्त भावों की कुछ सुक्तिया तिम्तलिखित है
ग्रहमिद्दों म पराक्षिय हृद्दन
ने मृत्मवेष्चतस्थे कदाचन । (%ऋ० १०८८५)
(में इनड्न हू, मेरा धव कौन जीत सकता है, म॑ कभी मु्यु के लिए नहीं
बया ))
बंत जीव शरदो बधसात ।
स्‍्वे क्षेत्रे श्रामोौचा तिराज | (भ्रथअ० २०१९६॥६ )
(अपनी क्षेत्र या शरीर में अमामय होकर विराजों ।)
यशरवी तेजस्वी ब्रह्मवभस्वी प्रच्मादें भूषासम्‌ ।
शिवसकत्पात्मक मज्जी का सबसे शव्रिक संगह श्रश्नववेद भ है।
बहा शिवस्कत्पों के द्वारा मानसिक चिकित्सा को शास्तीय रूप ही दे विया
गया है। गने की अन्तनिहित शब्ितियों के परिचय ते मनुष्य के कहयाण का!
ताक्षात्सम्बन्ध है। अपर के विवेचन को दण्टि से कल्पशक्ष की आराधना
जीवन की सफलता के लिए एक झविवायथ साधना है। चाहे जीवस के किसी
भी प्रदेश में हम हो, शिवसकत्पों के द्वारा ही हम अपने रोगी मन का सरकार
करके पुत्त सकत्प, जीवन भौर आयु का झआवाहून कर सकते ह


२६ ऋल्पवक्ष


था त एतु मन पुत' ऋत्वे देक्षाय जीयसे ।
ज्यीक्‌ सच सुर्थ दुशे ॥
फिर हमारा मन हमे प्राप्त हो, कतु, वक्ष और जीवत के लिए, अधिक
दिन तक सूथ को देखते के लिए ।



संस्कृति का स्वरूप


सस्कृति की प्रपृत्ति महाफल देनेवाली होती है। सास्कृतिक का
के छोटे से बीज से बहुत फल देनेवाला बढा वृक्ष बन जाता हैं। सास्‍्कतिक
फकाय कर्पकक्ष की तरह फलदायी होते है| भ्रपने ही जीवन की उन्नति,
विकास और ग्रानन्द के लिए हमे श्रपती सस्कृति की सुध लैसी चाहिए।
ग्राथिक कार्यक्रम जितने ग्रावदशयक' है, उससे कम महत्त्व सस्काति-सम्बन्धी
कार्यो का मह्ी है। दोनों पुक ही रथ के दो पहिये हैँ, एक-दूसरे के पुरफ हैं,
एक के बिना हसरे की कुशल तही रहती । जो उच्चत देश हूं, वे दोनो कार्यों
को एक साथ सम्हालते हँ। वस़्तुत उन्नति करने का यही एक गार्ग है ।
मन को शुलाकर क्रैवल शरीर की रक्षा पर्याप्त नही है ।

संस्कृति मनुष्य के भूत, वतमान और भावी जीवन का सर्वागपुण
प्रकार है। हमारे जीवन का ढंग हमारी रास्कृति है। संस्कृति हवा में नही
रहती, उसका मूर्तिमान्‌ रूप होता है। जीवन के वाचाविध रूपो का पग्ुदाय
ही संस्कृति है। जब विधाता से सुध्ठि बनाई तो पृथवी भ्रौर आकाश के
बीच का बविध्वाल अच्तराल ताना रूपो से भरते लगा | सूथ, घन्ध, तारे,
मेष, पड़ऋतु, उषा, सध्या भ्रादि अनेक प्रकार के रूप हमारे आ्ञाकाश' मे
भर गये। ये देवद्िल्प थे। वेबल्षित्पों ते प्रकृति की सरकृति भुवनों मे
व्याप्त हुई। इसी प्रकार मानवी जीवतत के उपाकाल की हम कल्पना करे!
उसका भ्राकाश मानवीय छ्षिल्प के झूपो से भरा गया । इस प्रयत्न में सहृश्नो
वर्ष ज़गे। यही संस्कृति का विकास और परिवर्तन है। जितना भी


तस्कति का स्वरूप २७


जीवन का द5 है, उसकी सृप्टि मनुष्य के सत, प्राण भौर शरीर के दीघ-
कालीन प्रथत्नो के फलस्वरूप हुई है। मनुष्य जीवन रकता वही, पीढी-
दर-पीढी श्रागें बढता है। सरकृति के रूपो की उत्तराविकार भी हंगारे
साथ चलता हुं। धर्म, दशन साहित्य, कला उसीके भ्रग हूं ।

सम्नार में वेश-मेद से अनेक प्रकार फे मनुष्य है। उतकी सरक्षतिया भी
शनेक हैं । यहा नानात्व अनिवाय हे, वह मानवीय जीवन का भभट नही,
उसकी सजावद है । किन्तु देदा और काल की सीमा से वधे हुए हमारा घतिष्ठ
परिचय या सम्पत्व किसी एक सस्कति से ही सम्भव है । वही हमारी प्राप्मा
श्रौर मन में रमी हुई होती है भौर उतवा स्स्कार १7रती हैं । यो तो ससार
में ग्नेक स्त्रिया भौर पुरुष हैं, पर एक जन्म मे जो हमारे माता-पिता बनते
है उनके गुण हममे भात्रे हैं शौर उन्हीकों हम झपवाते हैं । ऐसे ही ध्स्कति
वा सम्बन्ध है, वह सच्चे ग्र्थों मे हपारी धात्री होती है। इस दुृष्दि से
वह संस्कृति हमारे मन का मन, प्राणो का प्राण भर शरीर का द री र होती
है | इसका यह अ्रथ नही कि हम अपने विचा रो को किसी प्रका २ सकूचित कर
लेते है। सच तो यह है कि जितना अधिक हम एक संस्कृति के मम को भप-
ताते हैं, उतने ही ऊचे उठकर हमारा व्यक्तित्व रासार के दूसरे भनुष्यो,
धर्मों, विचारधाराओं और सस्व तियो से मिलने शौर उ है जानते के लिए
सभथ श्रोर अभ्रभिलाषी बनता है । अपने के दर की उन्नति बाह्य विकास की
नीव है | पहते हैं, घर खीर तो बाहुर भी खीर, धर मैं एकादशी तो घाहर
भी सब सूना। एक संस्कृति से जब हमारी निष्ठा पक्की होती है तो हमारे
मत की परिधि वित्त हो जाती है, हमारी, उदारता का भड़ार भर जता
हैं। प्स्कति जीवन के लिए परम भ्रावश्यक हैं। राजनीति की साधना
उसका केवल पक अग है । शस्कृति राजनीति और ग्रथवा सत्र दोनो को गपने
मे पचाफ़र इंच दोनों से विरतृत मातव मन को जन्म देती है । राजनीति
मे स्थायी रकत-संचार केवल संस्कृति के प्रचार, ज्ञान प्रौर साधता से
सम्भव है। संस्कृति जीवंत के वक्ष का सवंधन करनेबाल्ा ग्स है |
राजनीति के क्षेत्र मे तो उश्नके इते-गिने पसे ही देखने में श्राते है श्रथवा
या कड़े कि राजनीति केवल प्र की साधना है, ससस्‍्कृति उस पथ को
साज्य है ।


श् कह्पबुक्ष


भारतीय राष्ट्र अब स्वत न हुआ है। इसका अथ्‌ यह है कि हम ग्रपनी'
च्छा के अनुसार भ्रपता जीवन ढालने का भ्रव॒सर प्राप्त हुआ है। जीवन
का जो नवीन छूप हुम प्राप्त होगा, वह झकस्मात अपने श्राप झा गिरगेवाला
नही है । उसके लिए जान-बूमभकर निश्चित वि से हम प्रयरंत करता होगा।
राष्ट्र सबंधन का सबसे प्रबल काय सस्कति की साधता है। उसके लिए
बुद्धिपुवक प्रयत्न करता झावश्यक है। देश के प्रत्येक भाग में इस प्रकार
के प्रयत्म' आवश्यक हैँ । इस देश की सरहृति की धारा प्रति प्राचीन काल
से बहती आई है। हम उसका सम्मान करते हूं, कि तु उप्के प्राणवत तल्‍्व
को अभ्रपन्ना १ र ही हम श्रागे बढ़ सकते हुँ । उसका जो जड भाग है, उस ग्रुरु
तर बोऋ को यदि हम होना घाहे तो हमारी गति में प्रडवन उत्पन्न हो सकती
है । मिरतर गति मानव जीवन का वर्वान है। व्यवित हो या राष्ट्र,
जो एक पडाव पर टिक रहता है, उसका जीवन हलने गगता है। इस
लिए 'चरेवेति चरवेति' की धुन जबतक राष्ट्र के र4-चक्रों में गृजती रहती
है, तभीतक प्रगति झौर उन्नति होती हैं, भ्रन्यया प्रकाज् और प्राणवायु के
कपाट बन्द हां जाते हैं प्रौर जीवन रु ध जाता है। हम जागरूक रहता चाहिए,
ऐसा न हो कि हमारा मन्र प्रकोदा ्लीचकर आात्म-रक्षा की साध करते
लेंगे रा

पृथ और नृतन का जहा मेल होता ईूँ वही उच्च सरकणि की उप«
जाऊ भूमि है। ऋगेद क पहले ही सूकत भे कहा गया है कि तये और पुराने
ऋषि दोनो ही ज्ञानरूपी अ्रग्ति की उपासना करते हूं। यही झ्रमर सत्य है ।
कालिदास ने गुप्त वाल की स्वणयुगीत भाष॑ना को प्रकट करते हुए लिखा हैं
कि जो पुराना है वह केवल इसी वारण ग्रच्छा नही मापा जा सकता, गौर
हो नया है उसका भी इसीलिए त्तिस्स्कार मरना उक्ित्त नही । बुकिणपन
दोना को कसौटी पर बास्कर किसी एक को गपनाते हूं । जो मूह हूं, उाके
पास घर की बुढ्वि का टोटा होने के कारण वे दूसरा के भुलावे में आ जाते
हैं । अप्त-बुग के ही घुररे महान विद्वान श्री सिद्धश्रेत विवाकर ने कुछ इसी
प्रकार के बदगार प्रकट किये थे--'जा पुरातन काल यथा वह मर चुका !
वह दूसरे का था| श्राज का जन यदि उसको पकड़कर बंठेगा तो वहू भी
पुरातन की तरह ही मत हो जायगा। पुराते समय के जो विचार हूं, ने ती


सरकति का स्वरूप “२९


कै


नेक प्रकार के हैँ ! कौन ऐसा है जो शक्षी प्रेकार उनकी परीक्षा किये
भिना शपी मत को उधर जाने देगा ?
जनोष्यमन्यस्य मृत पुरातन
पुराततरेत सम्ी भर्रिष्पति ।
पुरातनेष्म्रित्यचत्र स्थितेषू क
पुराततोक्ताव्यपरीक्ष्य रोच्रमेत |।


अथवा, “जा स्वयं विचार करने में भझालसी है वह किसी निम्चय पर नहां
पहुच् पाता | जिप्तके मन में सही मिह्चय करने की बुद्धि है, उसीके विश्ञार
प्रसन्न श्रौर साफ मुथ रे रहते है) जो यह सोचता है कि पहते झाचाय आर
पमभुरु जो कहु गये, सब सच्चा है, उनकी सब बात सफल है श्र मेरी बुद्धि
था विचार शवित टुटपृजिया है। एसा 'बाबा वाक्य प्रमाण के ढग पर
सोचनेवाला मतुश्य केवल आत्महनेन का गाय झपनाता है


ब्िनिइचय नेति मथा यधालसस्तथा तथा सिश्चितवान प्रसीवत्ति ।
अवन्‍ध्यवाक्या गरवो5हमत्पधीरित्ति व्यवस्पन्‌ स्ववधाय धावति ॥


“प्रनुष्यों के चरित्र मनुष्यों के कारण स्वय मनुष्यों द्वारा दी निश्चित
किये गये ये । यदि कोई बुद्धि का श्रालसी या विचारो का दरिद्वी बतकर
हाय में पतवार लेता है तो वह कभी उन बरित्रो का पार नही पास करता,
जो अ्थाह हैं ओर जिनका भ्रन्त तहीं। जिर प्रकार हम अपने मत्त को पका
समभते हूं, देसे ही दूसरे का मत भी तो हो सकता है। दोचों में से किसकी
बात कही जाय ? इसलिए दराग्रह को छोड़कर परीक्षा की कसौटी पर
प्रत्येक वस्तु को कसकर देखता चाहिए ।” गरुष्तकालीन सप्कति के ये
गूजते हुए स्वर प्रगति, उत्साह, नवीत पथ संशोधन भौर भारमुकत मत
की सूचना देते हूं। राष्ट्र के ब्रवाचीन जीवन में भी इसी प्रकार का दृष्टि-
कोण हमे अहण करना झ्रावश्यक है | कुपाण-म्रुग के ग्रार+्भ की सावर्सिक
स्थिति का परिषय देते हुए महांकवि भ्रवधोष से तो यहातक कहा था
कि राजा और तटघिया के उन आदकझ्ष चरित्रों का जिन्हें पिता अपने जीवन
मे पुरा नही कर क्षके, उन्हें पुत्रों हे कर दिख/या--

राज्ञामु ऋषीणा चरितानि म्ानि कृतात्ति पुत्ररकृतानि पूर्वे ।


)७ फर्पयक्ष


यिंधोर पुराष मे। मय डे उस प्रकार का सन्न का हुआ झौर ताहुसपूर्ण
7 ।॥ग खाता भावध्यत है । उक्षम प्रगति का भाग छुल्ला रहता है,
पत्यया यूवास उद्ध में परे राष्पदे की तरह बारयार टकराकर हमारी
गाया गाता ता रखा हैं। भारतवप णसी देश के जिए यह ओर भी
साध ॥ कि बह भृतकाल की जएपरूजा में कहो फक्र उसीको सस्फृति
है शग ने मातते लग । गतवाल यी रढिया से ऊपर उठकर उसके नित्य
बच प। भ्र्गा परसा चारिए। झात्मा को प्रकाश से भर देनेवाली उसकी
का शोर परगा रवीपार करके थ्रागे बठना चाहिए | जब कमर की सिद्धि
पर गरय वा ध्यान जाता है, तब बहु झोक दोपो से बच जाता है । जब
पग॑ से गयभीत व्यक्त कैचल विचा रा की उल भाव मे फ़्त जाता है; तब वह
जार) यो किशों ॥ई पद्चति था सरक्षृति को जत्म' नहीं दे पाता ।
॥ 4 आय है कि पृकालीन सरकृति' के जो तिर्माणकारी तत्त्व है,
व वर एम केस में लग और गई बस्तु का निर्भाण करें । इस प्रकार
भगेगा। | शाद बेर विश उपयागी बनता है | भविष्य का विरोध करके
॥* पद उसमे जम । से और उसकी गति कूठित करने में भूतकाल का जब
भाग किया जाता है, सब गये भौर पुरागे के बीच एक खाई बन जाती है
भार संत मे दा पकार वी विच्वारधाराए फैलकर संघप की ज॑ मे देती
(४ #म शर्पों बृतकालीन दा हित्य मे श्रात्तत्याग भरी र ग्रानवसेवा का ग्रादश
शा बे रता होगा । भ्रपनी कला में हे भ्रध्यात भावा की, प्रतिष्ठा भौर
मो रय- विधान के अनैक रूपी और प्भिभागी को पुन स्वीकार करता होगा।
झ्रपती दातित विधारा में से उस दृष्टिकोण को भपनाना होगा,जो समन्वय,
पेत-जा व, समवाय श्र सप्रीत्ति के जीवसमत्र वी शिक्षा बेता है। गो बिंएव के
॥। ही सस्बेच्धो 3 एक्मार तिघाभक दृष्दिकोस बह! जा सकती है
ग़पने उच्चाशयवाल धारगिक पिद्धा तो की मकर उनका साई ग्रहण करता
तोवा। धरम का अध सम्प्रदाय या ग़स-विद्यैप का आग्रह नही हैं । कृढिया
अज-तेद से नि होती रही हूं शरीर होती रहेगी। धरम को सभा हुआ
मर है प्रधतलपुवय अ्पने-्ञापर] ऊँचा बसाना । जीवन को उठावैवाजे
जो लियेश #, पे जब श्रात्ती मे बसनें लगते हैं, तभी वर्ग का सच्चा भारस्भ
गाता आरिए। साहित्य, वछा, दर्शन भौर बम से जो मूल्यवान सामग्री


गानव की व्याज्या ११


हमें मिल सकती हूं, उसे मगर जीवन के लिए ग्रहए' करना, यही सास्कृतिक
काय की एचित दिशा और उपयोगिता है ।


हक के
मानव की व्याख्या


ग़र्वाचीन विचारधारा मानव कैन्द्रिक है, श्र्शात, जीवन के प्रत्येक
प्रतुष्ठात का मध्यवर्ती बिन्‍्दू मनुष्य है। वही प्रयोग भ्राज महत्वपण है,
णिश्नका ४०टदेवता मनुष्य है। जिस काय का फल साक्षात ऐडलौकिक
मानव-जीयत के लिए न हो, जो मनुष्य की अपेक्षा स्वर्ग के वेबताश्रों को
श्रेष्ठ प्मभाता हो, बह ग्राधुतिक जीवन पद्नति के प्रतुकूल नही है । विज्ञान,
कला, साहित्य, राजनी ति सबकी उपयोगिता की एकमात्र कसोटी मानव का
प्रत्यक्ष लाभ और प्रत्यक्ष जीवन है। प्रत्मेक क्षेत्र मे विचारों की हलचल
मतुष्य के इसी रूप की पकडना चाहती है। इस दृष्टिकोण से एक श्रोर
भानव की प्रतिष्ठा बढ़ी है, दूसरी भोर स्वग की ओर उडमेवाणे मनुष्य के
विचारों दे पृथिवी की कुझल पूछते का नया पाठ पढा है | यह सत्र है कि
श्रभी अनेक क्षेत्रे मे यह नया पाठ पूरी तरह गले के त्रीचे नही उतरा है
झौर रवार्थों के पुराने गढ़ इसके विरोधी हूँ, पर विश्व के विधारों का
ध्रूव-बि"द्‌ श्राज मासव के भ्रतिरिवत गव्य कुछ नही है। विश्व-क्षितिज का
प्रत्मेवा तया ग्रह मानवरूषी कैद्र के चारो शोर ही मंडराता है । विश्व
मालव प्राची के कोने में अपने बिखरे तेज को समेटता छुआ अ्रधिकाधिक
सामने थ्रा रह है | राजमी ति के सततरगे वादों से कही ऊपर विश्वमानव
के ऐक्य, भ्रातृत्व या मानववाद का जम ढुबप गति से हो रहा है। णो भराज
नही हुआ है, वह कज्त होकर रहेगा ।

जो मावव इतना महमीय है, जो विश्व की परिधि का केल्त्र-बिन्दु
है, वह यथाथ में है क्या? क्‍या बहू मिट्टी, पानी, श्राग, हवा का एक पुतला
भर है? क्या वह एवं नग्ण्य बुशबुल्ञा है, जिक्रकी उपसा के करोडो-
श्ररबी बुलबुल्े प्रत्येक शताब्दी मे जम तेते और बिल्लीन हो जाते हूं”


३२ कर्पवक्ष


यदि ऐसा ही है तो नाखूनी पजोवाले कालचक को अपनी गति से धूमने दो ।
वह इस बापुरे मानव को कहा ठौर दे ओर क्यों ” छीलर के जल में चोच
मारती हुई हसिनी की भाति ऐसे मातव वी वराको बुद्धि के लिए हमारे
मन में वया श्रास्था हो ? वह तो क्षुद्र है, म्रसभ4 हैं, स्वाथ से अभिभूत
हे, विश्व दे झनन्‍्द दुबष प्रवाह भे उसकी कोई भहिंमा था प्रतिष्ठा पही।
अतएवं सानव की सच्ची ब्यारया का आज नया पृत्म है। विश्व के मचो-
बोस भे मानक की प्रतिप्ठा की दाशतिक १०ठभूमि मानव की च्ची व्याख्या
ही हो सकती है ।

मनुष्य केवल मान स्थल शरीर वही है। पा या चार तत्वा के अ्रव-
स्मात >मबद्ध हो जाने से मनुप्य नहीं बन गया। रासायनिक प्रक्रिया से
६१ तत्यों के किसी प्रकार रचपचकर धुक हो जाते से मातव का पुतला
प्तामने भ्रा गया हो, केवल यही भरा तम सत्य नहीं है। भ्रन्ननय पुरुष अवश्य
श्रुवस॒त्य है । उसे ही ्राजकल की परिभाषा में बायोलाजिकल पंत
कहेंगे । भ्रदानाया इसी मानव की विशेषता हे । पृर्नपणा था काम इसी
मानव का क्षेत्र है) प्रकृति के विराद संविधान में यह मानव श्रत्यन्त महुत्व-
पृण है, जो प्रथम तो गन्न द्वारा देहू का पोषण करता है प्रौर फिर प्रजनत
दारा सृप्टि-त्रम को जारी रखता है। प्राह्वर भौर मंयुतत जिसकी विश्येपत्ता
है, वह मानव वास्तविक हे, स्थूल है, उसे हम मातव के भीतर का पशुभाग
कहु सकते हूं ।

इसी के साथ सानव में एक दंवी भ्रश है । वह इसका मतोमय और
विज्ञामभय भाग है, जो स्वूल शरीर की भपेक्षा कम सत्य ओर वास्तविक
नही हैं! भारतीय परिभाषा के अनुसार मावव में मर्त्य भौर अमृत का
संथोग है । जरीर मत्य श्रौर मन श्रमृत भाग है । मत्य भाग उसे पाचिव
जगत के साथ बाघे हुए है | अन्न और वायु इसी मत्य भाग ऊफी प्रतिष्ठा
हैं। ये दोतों मानव की लौंफिक स्थिति के तिए अनिवाय हं। इस गानव
की परिपृण साधना के बिना पृथिवी का ऋण नही उतरता । भ्रतृप्त वासना ए
पुन -पुत मानव के भीतर के पशु भाग को श्रपते वश में कर लेती हू ।
वास्तविकता के अनुसार व्यवहार मे प्रवृत्त होनेवाला कोई व्यवित मानव
के इस स्वरूप का निराकरण करने की बात कभी नही सोच सकता ।


मानव की व्याह्या ह रे


मपृष्य के भीतर ही उसका दवी झश भी है। वस्तुत मत ही एक देव है,
जो सब मातवो में प्रतिष्ठित है। 'एको देव सवभूतेपु गढ़ “--हस गृह देव
को प्रकट फरता और जीवन के हर काय में इसे भ्रविकाधिक प्रकट करना,
यहू मानव का दंवी सदेश या काय है। इसका पूरा होता भी उत्तना ही आव-
इयक है, जितता श्रश्न और काम के प्रति सतुलित अवस्या प्राप्त करना
गवधयक है। मातव के समक्ष वोतो ही यमस्थाएं एक जैसी गावध्यक हैं ।
एक का हल करता जितना श्रावए्यक है, दृप्तरी का हल भी उतता ही भ्रनि-
वाय है। दोतो के स्मन्वथ के बिना सतुवित मानव का आधिर्भाव नहीं हो
सवता | जबतक सत्य और झमृत भागों का एक स्षा विकार न किया जाथगा,
मानव भश्रत॒प्त और श्रपूण ही रहेगा। उसका जीवन प्रौर उसके सब कार्य
अधूरे रहेगे। जो स्थूल मानव है बह प्रकृति का अतुचर है । जो भ्राध्यात्मिक
प्राणी है, वही प्रकृति का स्वामी है। जो अश्यनाया-प्रस्त है वह प्रकृति के
साय दढ् में फसा है। उसके चारो ओर सीमाभाव है । वासना, श्रधि-
कार-लिप्सा, ईर्ष्या शोर हिसा, ये उस मानव के जीवन मे उत्पन्न हो गये
हैं, जो उसके अ्रधिकाश पु खो के कारण हं। भ्राध्यात्मिक मानव के विकास
से ही मानव इन कमजोरियों से ऊपर उठ सकेगा। अध्यात्म की झशिव्यक्ति
के साथ मानव के विकाप्त का मया धरातल शुरू होता है। झद्नाया-प्रधान
मानव के प्राय भ्रतेके नियम यहा दूसरे प्रकार के हो जाते है । जो मत्य
श्र भोग चाहता है, वही श्रध्यात्म या भ्रमृत रास्कृति मे उन भोगो को
छोड़ना चाहता है, उनके ऊपर मानसिक विजय प्राप्त करके प्रपने-प्रापको
उनसे ऊपर के धरातल पर ले जाता है! प्राकृत श्रवस्था में जो मानव का
पशु भाग है, गह अध्यात्म सस्क्ृति में त्याग के हारा दंबी गुणों को प्रहण
करता है। पशु की स्वरूप-परिवतन के द्वारा देव बधाता। यही ग्रध्यात्म प्रगत्ति
हैं । इसीका पुराना वाम यज्ञ है। यज्ञ की भूमिका मनुष्य का भ्रपता
दहरीर श्रौर मन है । यक्षीय भावो को सम्पूर्णतया भ्रपनाये बिता हम उन
मानसिक वासनाओ्ों से बच ही नहीं सकते, जो हमे झधिका र-लिप्सा, स्वार्य-
साधना या हिसा की ओर ले जाती हैं। मानव का स्थूल हिसा-प्रधान जीवन
क्षात्र धम है। इससे ऊपर प्रेम और त्याग का जीवन बाह्य सस्कृति है ।
वहँ देवी अब है | वह अमृत भाग है वही श्षेष्ठ कम है, जिसे यज्ञ भी कहा

रे


३४ कल्पव॒क्ष


है | विश्वात्मा के लिए यशीयभाव या झात्मसमर्पण' के बिता विश्वमानव'
का जन्म ग्सशभव हैं। झाज प्रवतन्र विश्वमातव की आवश्यकता का भनुभव
किया जा रहा है। प्रत्येक जाति श्रौर वेश का लक्ष्य विष्व-बच्धुत्व थी
प्राप्ति है। उसका सीधा सादा प्रथ यही है कि एक मानव में जो अधिकार
शौर स्वाथ की सत्ता है, वह दूर होनी चाहिए, विश्वमावव के साथ उप्तके
मो भावों का स्वच्छरद मेल होना चाहिए। जो हालत एक मानव की है
बही एक समृह, सम्प्रदाय, जाति या देश की हो सकती है । उसभी सकी-
णता का निराकरण उसके स्वास्थ्य के लिए उतना ही भ्रावश्थक है, जितना
एक व्यक्ति का चिद्व के साथ संतुलित होने के त्रिए अपने सीमाभाव को
छोडता है | क्या राष्ट्र या मातवों के पृथक स्रम्ुदाय भी इस प्रकार के
प्रयोगा में सामूहिंत रुचि ले सकेगे ? आज इस प्रसव पर धुभा-श् छाम्रा
हुआ है। १र०तु जिनकी दृष्टि स्वच्छ है उन्हे यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है
कि मानव के श्रमृत श्रश का, उसकी अध्यात्म-म्तस्कृति का विकास होकर दी
२हेग। । उद्दी ओर सधप, दूं द भ्ौर हिल मार्ग से भी मानव को प्रत्ततो/त्वा
जाना ही पडेगा। इसका विरोध करके कोई भी कुशलपुवक नही रहू सकता।
किसी एक की विजय अध्यात्म मानव की हत्या करके ही सभव है। सबकी
विजय के लिए भप्रध्यात्म सस्कति, त्याग भौर यज्ञीय भावो के धरातल पर
सबको प्राता ही पडेगा । सबकी विजय का मा बही होगा, जिक्षम हुरएक
वी विजय दिखाई पड़े, किसी एक की ही नही | विश्वात्मा के मन को
उन्मुक्त करने के लिए सबकी मुक्ति भ्रावश्यक है | स्थूलरूप से जब एक
राष्ट्र या समूह शक्तिशाली बनता है तब वह भौरो की मानसी ह॒त्या करके
ही उनके ऊपर अपने श्रधिकार की स्थापना कर पाता है। किच्तु प्रध्यात्म॑-
सत्कृति का भार्ग भिन्न है। उसमे हरुणएक को ऊपर उठाकर भ्रपत्ती उन्नति
की जाती है । दूसरा के प्रति उमुक्त उदा रता, तेवा, प्रेम और आत्मीयता
के दरा ही हम विव्वात्मा या विश्वभानव के ध्ाय एक हो पाते हैं। झाज
विशज्ञात के प्रागण मे विद्वमातव का क्षीघ्रता से जन्म हो रहा है। राजी ति
के क्षेत्र में भ्रभी उसकी प्रगति पकडी नहीं जा सकती । यही बडी' सड्चन!
दिखाई देती है। किन्तु विज्ञान' के पीछे भानव के उच्च विकास का जो
दर्णून है वह पुण होकर रहेगा। आज शर््तिमत्ता के ज्ञाथ त्याग के मत्र की


पिप्ता का पित्ता बालफ ३५


गावश्यकता है । गुहस्थाश्षम के सचय के साथ वानप्रस्थ भौर सयाप्त के

ग्रपरिग्रह धम की भी झावहयकता है | भात्मरक्षा के साधनों के विकास ।
का साथ दूसरों को अभय को स्थित्ति में लाने की भी उतनी ही आवश्यकता
है | क्षायबम के साथ ब्रह्ममम को भी विकसित करता हागा। शरीर की

भाग-प्रधात आवश्यकताओं को साधने के साथ साय त्याग प्रधान अध्यात्म

संस्कृति का भी विकास करना होगा। इसीमे मानव का सच्चा हित है।

इसीसे उसकी महिस! की पृण अ्रभिव्यक्ति सम्भव है ।


कर के
# +


पिता का पिता ; बालक


सुप्टि की रहस्य-भरी महान्‌ प्रज्षिया में बालक नित्य नूतन का रूप
है । बालक पिप्ता का जनयिता है, वह पिता का पिता हैं। भविष्य भे जो
कुछ झानेवाज्ा है, उसके जन्‍म का द्वार बालक है । वैदिक भनीषियों का
यह साक्षात्‌ बदन अत्यन्त प्रिय लगता है जो बालक के समबन्ध में उनका
दृष्ठिकोशु है---- '

नवी तवोी भ्वति ज्ञाधसान ।

ग्रनादि अनत्त मूलतत्त्व प्रतिक्षण जन्म द्वारा नवीन बन रहा है ।
यही उसका सनातन धादवत भ्रमर भाव है । बालक उस नवीन जम का
सबसे धुददर और कलात्मक रूप है) सृप्टि की बुवप सनातती' दब्ति का
साक्षात््‌ बशन करना चाह तो बालरूप में उसे मू्तिमानृ देखे। स्वग की आय
ज्योति को अपने इस मत्यलोक मे देखना चाहे तो बालक के ब्रद्मचय प्रोक्षित
तिविकार मुख पर उसे देख सकते है। ईदवर की दंवी सम्पत्ति या स्थित-
प्रश्ञ की ब्राह्मी स्थिति का साक्षात्‌ परिचय करना चाहे ती अपने चारो
मोर किलकारी भारते हुए घाल-तारायण का वशव करे ।

प्रकृति भ्रपना जीणभाव पीछे छोड़कर वाबक के रूप में पुवः नवीन!
होती है । काल के ज़राजीण जड बोफे से मुपित पाने का अत्मत्त रहुस्य-


३६ फल्पवक्ष


गये भ्रयोग बालक' का भ्रादुर्भाव है । बाल-तृण, बाल-पादप, बाल-लत्ता,
बाल पुष्प, बाल-मग, बाल सहकार, बाल-कुन्द, बाल कंदली, बाल-
मुणाल, बाल-चल्र, बाल-रत्रि, बालक--यें सब प्रकृति की बाल लीला
के भ्रमर केतु है। इनके प्रतीक पर देवों की सनातन ब्राह्मीजिपि के भ्रक
लिखे हैँ, जिनमें नित नूतन का अभृत भरना भर रहा है सौर सृष्टि
के भ्रसण्ड जीवन-प्रवाह को देश श्रौर काल में सवत सवदा श्रागे बढा
रहा है । इस भागवती बाल-लीला में कितना झानत्द है, यह बाजथर्या
फित॒ती प्रावश्यक हे, यह बाल भाव नारायणीय वम्न का कितता मनोहर
झूप है ? सुध्ठि की निरुपम सत्ता, चैतन्य प्रौर आनन्द का एकन सिवास
मृरतिमत बालक है, जिसके प्रादुर्भाव की मास्ाजिक प्रयोगशाला गुृहस्प
[है । इसीलिए भगवान्‌ वेदव्यास ने कहां है कि सब श्राश्रमों मे भ्रधिक
समकीणा भोौर सव्ावत' सकहप या कम का निणय जिस आशम में है
वह अत्यन्त पावन गुहस्थाश्रम है

सर्वाध्रमपवे5प्याहुग हिस्थ्य दीप्त निशायमर

पावन पुदंष प्यात्न यद्म पर्युषासते ॥। (झान्ति०६६।३४)


रुहस्थ की पावन भूमि और पावत्त भ्राकाह्य माता-पिता हूँ | भाता-
पिता का युग्म सृप्दि की श्रावश्यकता है। धलचर, जलचर, नभचर
सबम्रे पार्वती परमेश्वर रूप पितरी के प्रतीक माता-पिता बालक को जन्म
दे रहे हैं। उनके सत्य, शिव, सुन्दर प्रयत्त' से स्वग' की भार्य॑-ज्योति
भानव के लिए भूतल पर भरा रही है
विवत स्वभनत्रे स्योतिरामम्‌ (ऋ० १०३४३॥४)


वही पावन ज्योति बालक है । मानव को बालक में अपते ही सनातन'
रूप का तूतत दशन मिल रहा है !

बालक का मृत विश्वात्मा के साथ भिला है। बालक की भाषा
विश्व-भाषा है। भाषाओं के भेद, मातवों को पुथक करनेबाली सीमाए
बालक के विशवर्चतृत्य का स्पश नहीं करती | बालक विष्व की एकता
का बलवान पाणा है ।बह सद्य से हमारे मध्य में है” और स़दा रहेगा ।
उसकी सत्ता हमारे भेदग्रस्त मत को स्वास्थ्य देने के लिए ग्रावश्यक है ।


पिता क्वा प्रिता बालक ३७


बालक प्रजापति का विश्वतोमुश्ती' रूप है। जी बृद्ध, त्रध्ण सती,
पुएप, कुमार कुमारी पश्रोर विश्वतोमुवी बात--ये प्रजापति की चार
प्रवस्थाए ह---
त्व रत्री त्व पुसान त्व कुमार उत्त वा कुमारी ।
स्व जीर्णो दण्डेत बब्धसि त्व जाती भवसि चिह्रवतो सुख ॥॥


बाल-झूप मे जम लेता हुआ प्राण का नवीत अ्रकुर सतसुच विश्व-
मुख्ती है। उसके विकास के शहुस्तो द्वार खुले हू । उसके मुख प्रर्थात्‌
प्राण भश्ौर रप्तप्रहरा के ततु एवं विकास के पथ सब ओर पएंले
हुए हैं ।

गये शब्दों म॑ कहें तो बालक के भीतर प्रतन्‍्त सम्भावगाग्रो के बीज
हैं। विश्व मे ऐसा कुछ नहीं जो बीज छप में बालक के भीतर न हो,
समय पाकर वे ही बीज विकसित श्रौर सवरद्धित होते हैं । बालक के मुख
में पढनेवाला चुशगा विश्ब' को हुवि हे । ग्रतएव बिश्व-सम्प्राप्ति के
लिए बालक की उपाराना करनी ग्रावश्यक है। मानव-जाति सपने
बालकों की रहा द्वारा विश्व की प्राप्ति का विधान रचती हुँ। मानव की
अखण्ड परस्परा मे एक एक पीढीं एक कडी है। मानव का समह्त ज्ञाव-
जिज्ञान श्र कम प्रत्मेक पीढी को पुत धारण करना होता है। पुृषजो ते जो
किया भ्रोर जो जाना, उसे बालक के कम प्रौर ज्ञान में तवीन प्रवतार
लेता पडेगा। इस प्रकार प्रवत्त से जो नई पीढी तैयार होती है, वह
उस मर खला में एक कड़ी है, जो मानव-जाति का गौरवमय अश्रतीत श्ौर
आशुानमय भविष्य है ।

ब्रालक वी दावितया भ्रकुण्ठित हैं। उसके ज्ञान श्रौर कम की इयत्ता
तही । जा पूवजों ने नही किया, उसे श्रानेबाले पुन करेंगे , यही मानव
की रात्यात्मक शुद्ध निष्ठा होगी चाहिए--

राशामृंषोणा चरिवाति तामि।
कृताति पुर्न॑रक्‍तानि पथ (अद्बधोष, धुद्धंचरित १4६)

“राजाश्रो तगा ऋपिया के पुता ने वे ये कर्म किये हैं, जिल्‍्तें उनके

प्रवंजों ने सही किया ।”


बे८ फल्पवक्ष


जो पूवजो ने किया, उसका उत्तरदायित्व वर्त्तमान पीडी घारण करती
हैं गोर उससे भी ग्रागें बढ़ जाने का उत्तका जम प्राप्त कर्त्तव्य है। बड़े-
बड़े जो कर गये, वह उतके ही पुत्रों से न होगा--इस प्रकार भाखने-बालों
के लिए क्षोक है। अपने-ग्रापमे ही विदवास स्रो देने से बया लाभ ?
अश्वघोष ने महायान-युग के झ्राशावादी दुष्टिकोश का सुत्र उदात्त शब्दो
गरषा
“क्रताति पुत्रे श्रकपाति पूर्व ।
जो माता-पिता ने श्रधूरा छोडा, उसे पुत्र पूरा करेंगे। भद्दाकाल के
साथ मिलकर जीवित रहने वा दृष्टिकोण भही है । काल का जो जीण
भाग है, जो जराग्रस्त है, जो पुरातन है, बह हो बीता, वह मृत हो गया।
उसे भ्रागे भ्रानेवालें पुत्र ही नया जीवत प्रदात करेंगें। यह प्तोचमा कि
पहली पीढिया अपने साथ बुद्धि का क्षारा चमत्वार अदोरकर ले गई
शौर प्रब बुद्धि का दिवाला ही दोय है, ग्राचाय सिद्धसेन दिवाकर के
शब्दों में झात्मधात है ,
भ्रवन्‍््य बाकया शुश्वोःहमल्पधी-
रिति व्यवस्थत्‌ स्ववधाय धावति।
(पूव-मृतन ध्वात्रिशिका इलोक ६)


... ससार के झ्पार विस्तार में बालक प्राण का व्यवत केच्र है । पुराणों
की भ्रत्यन्त मनोहर व्पना के प्रनुप्तार प्रतय समुद्र में विश्वरूपी बट वृक्ष
के तैरते हुए एक पण पर वारायण बाल-छप म प्रकट होते है। बशानिक की
भाषा से अ्रज तुक (/४70॥0) युग के प्रलयात्मक विस्तार से कोई भ्रव्यवत,
अखिन्त्य तत्व प्रथा। चतर्य बिन्दु के रूप में व्यवत' होता है। वही विदव का
झ्रारम्भिक बालक है, जिसकी चर्या या लीता से पुण जीवन श्रस्तित्व पे
भ्राता है। क्षीर सागर के वटपन्न नारायण की परिभाषा भारतीय दशत'
भर पुराण की नितास्त सुन्दर कल्पना है।

नालक अमृत का सेतु और झजर प्राश का केतु है। बालक के मन
में मृत्यु की क्त्पता नहीं होती । बालक के चंतत्य मे मृत्यु का अनुभव
त्तही हीता | प्राण भौर जीवन की श्रोजायमान ऊर्जस्वी धारा बालक से


अष्षिभिवल्णा गीतम्‌ ३६


बहती है ।बालक का मन अमुत का एंसा उत्स है, जो कभी विषाक्त था
विज्ञत्त नही होता । यही गृष्टि की बड़ी झाजा है । प्रत्येक बेती में मानन-
जाति पु।-पुन बाल युवा श्रौर पुन बद्ध बनती हैं । काल के जराजीण
अश से भुकत होने के लिए वह पुत्र पुन बाल-भाव' में आती रहेगी,
यही जीवन का स्वण विधान है| व्यक्त भ्रौर राष्ट्र को चाहिए कि श्रपते'
ही कल्याण के लिए उम्रग कर बाल-भाव फी उपागना करे ।



ऋषिभिवेहुधा गीतसू


भारत जैसे विशाल देश के लिए विचार जगतु का एक ही अमृत
सूत्र हो सकता था, और उसे यहा के विचारशील विद्वातों में तत्त्व-मथन
के भाग पर चलते हुए भ्रारम्भ ग ही दृढ़ भिकाला। वह सूत्र इस प्रवार हैं

(एक सद्दिप्रा बहुधा वदन्ति' (ऋग्वेद १४१६४४६)

प्रदरति->एफ सतत तत्त्व का वणतर सनवज्ञील विप्र श्रनेक प्रकार से
करते हैं ।

इस सिचोड पर जितना विचार किया जाय उतनी ही श्रद्धा' इसके
मूत्र प्रप्शा के प्रति होती है । सचमुच वह व्यवित अपने मत के अपरिमित्त
श्रौदाय के कारण भारतीय वाक्मतिकों के भूत भ्ौर भावी सघ का एकमाभ
सधपति होते के योग्य या। भारतीय देक्ष मे दाशनिक चिन्तन की जो
वहुधुद्धी धाराए बही हैं, जिन्‍्होते युगयुगान्तर में स्वच्छन्दता से देश के
मानस क्षेत्र को सीचा है, उनका पहल। स्लोत एक सहिग्रा बहुधा बदरित'
के बहुधा पद गे प्रस्फुटित हुआ या । हमारे राष्ट्रीय मावस-भवन का जी
बहिद्ार तारण हैं उसके उतरगे पर हम यह मन्त लिसा हुआ दिखाई पडता
है। मत्तर का 'बहुवा पद उसकी प्राण-शविति का भंडार है, जिसके कारण |
हमारे चिन्तन की हलचल सघप के बीच होकर भी अपनी प्रगति बनागे
रख सकी | अपते ही बोौफ से जब कभी उसका मार्ग श्रवरुद्ध होने लगा है


४०५ बल्पवक्ष


तभी उस ग्रवरोध पर बिजय पाकर “बहुधा' पढ़ के प्राणबन्त देग ते उसे
श्रागे बढ़ाने का राहता दिया है ।

'एक संहिआ बहुभा ब्रदत्ति यह विचार सूत्र न वेवल हमारे विस्तुत
देश की झावश्यकता की पूर्ति करता है, अपितु विचार के जगत्‌ मे हमारे
मतीपी जित॒ता ऊब्ा उठ सके थे उसके गानदड को भी प्रकट करता हे ।

इस विद्याल देश्ष में प्रमेक प्रकार के जन है जो विविध भाषाओं, भ्रनमे ल
विचारों, ना! भाति की रहत-सहन, अनभेल धामिक विश्वासो भौर री ति-
रिवाजों के कारण भापस में रगड़ खाते हुए एक साथ बसते रहे हु , किस्तु
जिस प्रकार हिमालय में गगा "दी भ्रपने उदर भे पड़े हुए शड-पत्यरों की
कोर छाठकर उन्हें गोत गगलोढों मे बदल देती है, उसीसे मिलती-जुलती
समन्वय की प्रक्रिया हमारे देश के इतिहास में पाईंजाती है। न जाने कैसी -
वौसी सठ-जातिथा यहा श्राकर बसी, कैरे-कंसे अ्वल्नड विजार इस दे मे
प्ले , निन्‍्तु इतिहास की दुधष ठवकरों ले सबकी कोर छाटकर उ हे एक
राष्ट्रीय प्रकृति के प्रवाह में डाल दिया! उनकी झापसी रगड से विभिन्न
बिचार भी घुल् मिल कर एक होते गये--ठीक उस्मी प्रकार, जिस प्रशर
गंगा के घराट में पिसी हुई बालू, जिसके करों में भेद की श्रपेक्षा साक््य
अधिक है ।

सौभाग्य से हमारे इतिहास के सुपहले उपाकाल म ही समन्वय पश्रौर
सहिएणुता के भाव सूथ-रश्मियों की तरह हमारे ज्ञामाकाश्व मे भर गये ।
राष्ट्रीय जने की प्राकृतिक विभिज्वता की ओर सकेत करते हुए 'पृविवी
सुक्त' बा ऋषि फहुता हैं---


जन बिश्ञती बहुभा विद्यात्रत
तानाथर्भाण पृथिवी सथोकेसस (अथर्व १९१।४५)


अर्थात" भिन्न-भिन्न भापावाल़े, वानता वर्मोवाते जन की थह पूवियी'
अपनी-अपनी जगह पर धारण कर रही है, श्रौर सबके लिए दुधार गाय फो
भाति धन की सहुझों धाराए बहा' रही है।” हमारे राष्ट्रीम ज़न को प्रकृति
की भोर से ही 'बहुधापत' मिता है । पर सानत्री मरितिष्क से उत भौतिक
भेदों के भीतर पैठफ़र पनग्र पिरोई हुई भावभथी एकता को ढूंढ सिकाला।


ऋषिभिवषह्रधा गीतस्‌ ४९


राष्ट्-प्व॒ पा के माग मे मशुप्य की यह विजय ही सच्ची विजय है । इसी-
का हमारे नित्य जीबत के लिए वास्तविक मूल्य है । मौलिक एकता और
रामत्यय पर बल देनेवाले विचार सतेक रूपो म हमारे साहित्य श्रौर इतिहास
में प्रकंट होते रहे हं। भ्रथववेद (६।१।१३) में कहा ह---
पदयनत्यस्थाध्चरित पुथिष्ष्या
पुथंड नरो बहुधा प्रोसासमास्ता ।
अथरत्--/विचारशील' लोग इस विषय का निर्माण करनेवाली

प्राणधारा को बहुत प्रकार से भलग-अलग भीमासा करते हूं। पर उनमें
विरोध या विप्रतिपत्ति नहीं है, फारश कि थे सब मक्तव्य विचारों के
विकत्य सात्र है , मूजयत दवित था तत्त्व एक ही है

उत्तरकालीन दशन इसी भेद को समन्वय प्रदान करने के लिए अनेक
प्रकार से प्रयश्श करते हूं । ऐसा प्रतीत हांता हैं, ज॑से भेद के विभ्रभ से
तिन्न होकर एकता की वाएणी' बार 7र पत्पेक युग मे ऊचे स्वर से पुकार
उठती हैं। भनेक देवसाञ्री के जाल में जब बुद्धि को कंतव्याकतव्य को
थाह ने लगी तो किसी तत्वद्शी ने दस युग का सम वयन्प्रधान संगीत
इस प्रकार प्रकट क्रिया

“ग्राकाश से गिरा हुआ जन जसे समुद्र को ओर बह जाता हैं, उसी
प्रकार घाहे जिस देवहा को प्रण/म करो, सबका प्रयवसाध केशव को
भंकित में है

प्राकाशात्पतित तीस बथा भण्छति सागरभ ।
सवदेव ममस्कार केशव प्रति गर्छात ॥


प्रवश्य ही केवाव-पव मिजी इष्ट देवों का सम्रस्यय करनेवाले उसी एफ
भहान्‌ देव के लिए है, जिसके लिए प्रारम्भ मं ही कहा गया था--एक
मेबाहितीयभ । बह एक ही है, दूसरा, तीसरा, चौथा अबबा पाचवा नही
है । बही भात्मा वह 'सुभण' या पक्षी है जिसे बिद्वाभ ( विप्र ) कवियों
ने नाना तामो से कहा हे । ध
सुपण विभ्ा कबयी वच्चोभिश्क स+्त बहुधा कल्पर्या त ।
होव भर वैष्णवों के पारस्परिक बय्डरा ने इतिहास को काफी क्षुब्ब


४ए फह्पवक्ष


किया, परन्तु उस्त मन्‍्धन के बीच में शी युग की वाणां ने पकठ होकर
पुकारा
एकात्मने नमस्तृस्य हरी व हराय च
ञववा कालिदास के दब्दो में
एफेव स्तिविधभि तिधा सा साम!न्य भेया प्रथमावरत्वम
( कुसार० ७३४४ )
“अस्तुत ब्रह्मा, विष्णु और शित्र एक ही मूति के तीन रूप होगगे हैं ।
हन सबतगे छोटे बड़े की कल्पना निस्सार है ।*
परन्तु समत्यग की यह प्रवृत्ति हिदूधम के सम्प्रदायों तक हो सीमित
नही रहो । बौद्द भौर जंत वर्मों के प्रागण में भी इस भाव ने भ्रपना पूरा
प्रभाव फैलाथा । सर्वप्रथम महाकवि का्जिदास ते हीं युगवाणी के रूप में
बह घोषणा की---
बहुधाप्यशामेभिन्ना. परथान सिश्चिहेतव ।
व्वग्पेष निपतरयोघा जाह्ववीया हवाणबे॥ (रघु० १०२६)
“जैसे गगाजी के सभी प्रवाह प्रमुद्र मे जा मिलते हैं, उत्ती प्रकार
गिन्न-गिन्न शास्त्रों मे कहे हुए सिद्धि प्राप्त करीमेबाले भाग आपमें ही
जा पहुलते हैं ।”
भिन्न भिन्न ग्रागमों के प्रति सम वथ भौर सहिष्णुता का भाव वही
सस्क्ृत युग शथवा विकम की प्रथम सहल्षाब्दी का सबसे महात्‌ रघना-
एमक भाव है, जिसने राष्ट्रीय सस्कृति के बंचित्र्य को एकता के साथे मे
ढहाला । जँत-दर्शन के परम उद्भट ऋषि श्री सिद्धसरेत दिवाकर ने अपने'
स्यांदबादहनिशिका (बत्तीस्ी) तामक ग्रन्थ गे उपतिषदों के सरस ज्ञान
के प्रति भरपूर प्रास्था प्रकृठ की हैँ। थिक्षम की अप्टम शत्ताब्दी के
दिगाज विद्वान श्री हरिभद्र सूरि से, जिसके पाहित्य का लोहा शाजतब्त
भावा जाता है, स्पष्ठ और निश्चित दाब्दों में गपने निष्पक्षपात और
ऋजुभाव को व्यक्त किया है
पक्षपातो ने में बीरे न द्रष कपिलादिषु।
युक्ति महचन धत्य तस्‍््य कार्य परिभ्रह ॥


क्रधिभिवहुधा गीतम 48४


' महावीर की बाणी के प्रति मेरा यक्षयात नहीं और न कपिल श्रार्दि
दाशनिक ऋषियों के प्रति मेरे मन में वर भाव है । मेरा तो यही कहना है
कि जिसाफा वचन युव्ितयुतत हो उसे हो स्वीकार करो |

परतु इस भाव का सबसे ऊवा शिखर तो श्री हैमचद्वाचाय भ मिलता
है। हैमच ध गध्यकालीन राहित्यिक सस्कृति के चमगते हुए हीर हैं। विक्रम
की बारहवी शताब्दी म ज॑सी तेज भ्राण उनको प्राप्त हुईं, बसी अभय किसी
की नही | यर्तुत वे हि दी-युग के झादि श्राचाय हैं । उतकी देशी तामगाला'
सर्कृत झौर प्राकृत के अतिरिक्त ठेठ देशी भाषा या हिन्दी के शब्दों का
विनक्षण सम्रह प्र थ है । यह बड़े हप भौर सौभाग्य की बात हे कि हेसच पे
इस प्रकार बा एक वेशी दाव्द संग्रह हमारे लिए त॑य।र कर गये । हिन्दी के
प्रव-युग अथवा भाषाओं के सन्चि काल मे रखे जाने के कारण उसका महृत्य
अधिक है। विचार के क्षेत मे भी एक प्रकार से हेमचर्र श्रागे भानेवाले'
युग के ऋषि थे । हेमचरद्न को समन्वय बुद्धि में हि दी के झाठसी वर्षों का
रहुस्य' दृढ्ा जा सकता है। प्रसिद्ध है कि शह्दाराज कुमारपाल के साव णिस
पमय हेमचन्द्र सोमनाथ के सत्विर में मथ। उनके मुखे से पह भ्रम्र उद्गार
निकल पढ़ा

भवश्नीजाकुरमतता रागादा क्षय्सु॒वागता यसय ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हुरो जिनो वा नभस्तस्मे ॥


“ससाररू्षी बीज के अकुर को हरा करनेवाले जिसके राग-द्वेण
विवार मिट चुके हैं, मे रा प्रशास उत्के लिए है, फिर वह ब्रह्मा, विध्णु, शिव
या त्रीवकर इनमे से कोई क्यों न द्वी।” हस प्रकारकी उदात वाणी थे ये
हैं। जिन हृदयों भे इस प्रकार वी उद्ारता प्रकट हो थे धन्य है । इस प्रकार
की भावना ड्री राष्ट्र के लिए श्रभत बरसाती है ।


४४ कहपवृक्ष

पंडिताः ससदशिन:


गांधीजी ने चीडे-रे समय में भारतवर्ष की छुआ छूत-समस्या का जी
हल हूढ तिकाला, उत्तकी बाशनिक पृष्ठभूमि है। इस देश की समाज व्ययस्था
में निस्सच्देह प्रतेक प्रका € के भैंद हू। उत्म॑ जातिगेद, भाषाणभेद, धमभेंद---
ये तीन प्रकार के भेद मुख्य हूं, परत्तु इत सब भेदों से ऊपर उठकर भारत
की दाशमिक विचार धारा ते प्राशिमात्र मे समे हुए एकल्व पर बहुत बल
दिया है। ग्रात्मा को ही सबकुछ मातक्र गरी र का तिराकरण' करतेवाले
दद्मत का यही फल्ल हो सकता है। ईश्वर एक है, वह सत्र, सव-व्यापक हैँ,
घट-घंट मे रम रहा है, सबके हृदयों मे बेठा हुआ है---इस प्रकार की प्र्ीनि
भारतीय सस्कृति की गात्मा हे । प्रत्येक दह्वत ते विचारों की भूनभुलेयो
में से अपना भार्ग हढ़ते हुए श्रीतम देक भ्रात्मा की इसी एकता और सब
व्यापकता पर प्राप्त की | भारत वी राष्ट्रीय दाशनिक भाख वेदास्त दशन हे
शौर उस श्राख का सारा तेज इसी बात पए कवनस्बित है कि आत्या चैत य-
मय हे, वह अन्तमय शरीर से पृथक सब प्रारिया मे एक है, वही प्रन्तिथ
मूल्यवान्‌ तत्तत है । व, वष्णुव, आत्तिक, भागवत, भजत, झेनी योगी
सबका श्रात्म के बिपय भ ऊपर लिखा विचार ही है। गह सारा जगत्‌
ईश्वर का वास-स्थान है। ईश्वर सबता गध्यक्ष है। वही ग्रात्मरूप मे सब-
के भीतर है। इस प्रकार वी प्रतीति मनुष्य को श्म की डोरी में बावती
है । यह घिश्वास सच्चा हो तो इसपर जीवन मे श्रमल होना चाहिए ।
शत्सा की एकता बात्त वी पहने सुनगे के लिए ही रही तो वह
व्यर्थ है | प

यहा१२ श्राक्र भारतीय जीवत की गाड़ी दलदत मे फेस गई ।
ऊचि शान के क्षेत्र मे जिस बात को सत्य समझा गौर मात्र गया। उसे
व्यवहार में नात हुए सौ फ्रप्ट खड़े कियेगए गमली जीवन मे ऊच तीच
छुआछूत की मांदी वीबारे खड़ी होगई शौरमे भेद इतो तीखे ये कि आज
का नागरिक उन्हें सॉचकर मिहर उठता है| फिर भी [विश्ात्मा ब|


पशण्डिता संसलद््धिन ५४५४


जम


भामतेवाली जो प्रतीति थी, बह समय-समय पर प्रकट होती ही रही
मर कभी कभी तो वह महल के रूप में समाज का माग-प्रदक्षत'
करने में समथ हुई । कष्ण इस देश के श्रच्छे विचारकों मे गिने जाते
हूं, जो बिता लगालिपटी के सच्ची सीधी बात कह सकते ये । उन्होने श्रपती'
मिसाल से सभाज के हुरएएक भ्रग के साथ मेल जोल का मांग अपनाया था ।
वाले भ्रौर श्रह्वीरो के साथ वे खूब खुलकर खेले थे। स्वय गायो को दुहने
भ्रौर पालने का काम किया, रथ हाककर सारयी बने और यज्ञ मे श्रतिथियो के
दैर धोने के काम्न को अपने लिए पसन्द करके शा री रिक श्रम की महिमा
बताई । थीता मे उहोने ब्राह्मण और शूद्र के थोगे भेदों का तिरस्‍्कार
करनेवाला यह विचार प्रकट किया जो समभदार है, बह समदर्शी होता
है, यह विद्वान ग्राह्मण है, यह एवफ्चदाद्र है, यह पशु है--इस प्रकार की
मेद-बुद्धि उसमें नहीं होती । गीता का यह सूत्र


पडता समदक्षित
सल्लेप में, आरतीय समभावारी ज्ञात या विवेक को बतावेबाला सूत्र है।
किसी भी पथ था भतवादी की हिम्मत इस बात को काटकर लई बात फहुने
की नही हुई, भ्राचार में चाहे इसके जितना बच निकलते की कोशिश होती
रही हो | व्यासजी ने भारतीय ज्ञान को बहुत ही गाढे समम से सतुलित करने
का प्रयत्न किया | उन्होने धरम की बुद्धिमुलक व्यासया की ।
"धारणाद पर्म इत्याहु धर्मों घाश्यति प्रजा ।”


जो घारण करनेवाला तत्त्व है, वहुधम है। धम पस्रमाज को, प्रजाभ्रो
कोधारण करता है। धारण करते का गअभिष्राय यह है कि समाभ के आचार
और नीतिघम को गिरते नही देता । परलोक या बेवी देवताश्नी के विश्थास
भापूजा को व्यासजी ते ध्ष नही कहा । मान्यताओं के पचडे भी धम नही है।
व्यारा ने धम के अ्रथ को बहुत-कुछ बुद्धियूलक प्रत्यक्षगस्य बनाना चाहा ।
महाभारत के शब्त में प्पत्ती भुजा उठाफर व्यास ते यही साराश बताया कि
भम ही भ्रथ भौर काम की जड़ है, धम ही तित्य है, उसीका झ्राश्रय लैना'
चाहिए। व्यासजी की' वहू उठी हुई भुजा भ्राज तक उसी पकार घम की
भोर सकेत कर 'रही है जिस प्रकार चुम्गक की धुरई उत्तरी भ्ुव की शोर


४६ कल्पवक्ष


सकेत करती है। व्यास ने बुद्धिमुलक वम वी व्यारया करते हुए वासुवण्य
के! भाव पर भी प्रकाश डाला । चार वर्णो मे माने जातेवाले ऊ च-नीच
के भैद श्रौर जत्म-जात बडप्पन को उन्होने भ्रच्छा मही समफा। पहले तो
गीता में ही गुण ग्ोर कर्मा के अनुसार चार बर्णों मे समाज के बटबारे
का प्रतिपादग किया गया है--


छातुर्वेप्य मा सृष्ट गुणकम्र विभागध ।


यहा किसी भी वण को आगे-पीछे कहते या उनगे तारतम्य करने का
भाव नहीं है, बल्कि चारो वर्णों के समाहार या मेल से जन्स लेसेव ली उस
समाज व्यवस्था का वर्णन है, जिसम वर्शाके शुण और कर्म ही बधवारे का
हेतु बनते हैं। दूमरी बात यह है कि आचा रप्रधान जीवन की शोर अन्य कितने
ही स्थानों पर व्यास मे विशेष बल दिया है। नागराज भौर युविष्ठिर
को संवाद इस विषय में तिश्चित प्रकाश डालता है। अजगर ने प्रश्म किया,
“है राजन, ब्राह्मण कौन है ?

युभिष्ठर ने उत्तर दिया, "है तागराज, ध्त्य, दान, क्षमा, शील,
सहृदयता, तप, दया (धुणा का श्रभाव) जिम्ममें दिखाई पड़े, वही ब्राह्मण
है स्‍' 9

नागराण को इससे तब्तोप गही हुआ्ना | उसने युधिष्ठिर की सशयरहित
सम्मति जानने के लिए प्रदन का मुह फिर खोला ।

उसमें कहा, है गुधिष्ठिर, लोक में 'नातुवण्य का प्रगाणु मामा जाता
है। यदि किसी छूड भें आपके कहे हुए सत्य, दाल, फोध, सहृदयता, अरहिसा,
दया श्रादि ग्ररा हो तो कया वह ब्राह्मण हो जायगा ?”

युधिष्ठिर मे उत्तर दिया, 'क्ूद्र मे यदि श्राचार के ये लक्षरा हो तो
वहु शुद्र नही रहा । ब्राह्मण मे यदि ये लक्षण न हो तो वह ब्राह्मण नही।
हैं तागराज, जिसमे चरित्र (वत्त) है, वही ब्राह्मण है। जिसे चरित्र
नहीं है, वही शूद्र है ।/

नागराज ने तक में धर्मराज फो पुत्र चापतै हुए कहा, “यदि तुम्हारे
मत से चरित से ही ब्राह्मण होता है; तब तो बिना चरित्र था कम के
जाति व्यर्थ हो जाती है ।“


परण्डिता समदधिन ४


प्रधान भागूली नही है। यह जाति पाति के वृक्ष १२ सदा सदा उठने-
वाला बढ़ा कुल्हाडा है । इस कटीले प्रदन से भी युधिष्ठिर ठिठके नहीं ।
उन्होंने उसी धीरता और साहस से उत्तर दिया, "हे नागराज, यहा जाति-
याति है ही कहा ” कौन-सी बह जाति है जिसमे बण का धकर नही हुआ ”
बणों की श्रापसी मिलावट के कारण भेरी सम्मति म जाति की ठीक पहचान
की बात उठाना बेकार है। इसलिए जो तत्त्वदर्शी हूं, उसके मंत में शील
ही भुछय हैं । जन्म के बाद बश[ के जात कम आ्रादि सस्कार भी यदि किये
जाय, पर प्रगर किसीम चरित्र नही हुआ, तो मैं ती उससे वणसकर की
हालत भें पडा ही समझूृगा | इसीलिए है तागराज, मैंने पहले ही मह कहा कि
जिस व्यक्ति गे निखरा हश्ना चरित्र (संस्कृत वृत्त) है, वही ब्राह्मण है ।“

(घनपर्त, ्रक्नगर पत्र, श्र० १६० । लोक २०-+ ३७)

भारत की विश्वात्मा को प्रकट करनेवाले ये शब्द व्यास को तृतत
धम-ध्याण्या के अन्तगत ये । भगवान्‌ भुद्ध और महावीर ते अपने जीवन
और उपदेश से इस सत्य का प्रचार किया और विश्वकोड़ि भारतीय जनता


सत्य दान क्षम्ताशील मावुृद्रस्‍्य तपो घृणा।
बृध्यते यजञ्न नागेद्न स ब्राह्मण इति स्पृत्त ॥२१॥
दृव्रष्यधपि स सत्प व बासमक्रोध एस थ॒।
भ्ानद्वस्यमहिसानव धुणा चब युधिध्दिर ॥२३॥
छ्र तु यवृभवेल्लक्ष्म द्विमे तच्च भ बिशते।
# मे शूत्रो भवेच्छूहों श्राह्मणों रु न्न ब्राह्मण ॥२५॥
बन्रतत्लक्ष्यते सप बृत्त स ब्राह्मण स्मृत्त ।
यन्नतन्त भवेत्सप॑ ते शूद्रभिति सि्िशेत्‌ु ॥२६॥
यदि ते वृत्ततों राजन ब्राह्मण प्रसमीक्षित |
वृथा जातिस्तदाध्युष्मनुकृतिभरवित्त बिद्यते ॥१०॥
आतिरत्र सहासप भतुष्यत्वे महासते ।
सकरात्सबवर्णाना दुष्परीक्षेत्ति में सति ॥३१॥
यत्ेदानी महासर्प. सस्कृत वृत्तमिध्यते !
त ब्राह्मममहू. पुवमुक्तवानू. भुजगोत्तम ॥३७॥


॥ कल्पयुक्ष


से उसका समभ्त्त किया और 'उसे जीवन में ग़हण किया। परुतु यह
राष्ट्रीय कीह निर्मल नही हुआ ।

ग्रप्टम शताब्दी म भगवान्‌ शकराचाय ने वेदात्त ज्ञान को राष्ट्र का
वाशनिक दृष्टिफोण ही बना दिया ! ग्रब भूतों में श्रात्मतत्त्व वी एकता
की पहचान ही वेदात का फल है। शकर के शारीरिक भाष्य मे श्रपशूद्रा-
घिकरण 'ागक जो प्रकरण है, वह उनके लिए क्षम्य नहीं कहा जा
सकता | लिकित मलाबार से हुआहछूृत के गहरे संस्कार लिये हुए जब वह
उत्तरापय में थ्राये तब उनके जीवन में एक धवका लगा । उत्तरापध के
ज्ञान की अधिष्ठात्री काशीपुरी है । शकर उसी काशीपुरी म॑ आये और
सामने से जाते हुए मेहलर-ोेहुत रात्ी को देखकर हुटो-बदी' करने लगे।
उनका वेदा तज्ञान भूल गया । यह बात काक्षी के ज्ञानाधिवेबता शिव
बर्दादत नहीं कर सके | उसी चाडाल के गृह से उह्ेने शकर को डपटा

हैं श्रेष्ठ ब्राह्मण, श्रपने मिट्टी के शरीर से भेरे इस मिद्दी के शरीर
को हटाना चाहते हो या अपने झआात्मा को मेरे आत्मा से दर करना
चाहते हो ? किस तीयत से 'हटो बचो' करते हो ?'

“जात होता है, तुम्हारा शरीर तो ग़गाजल है, उसमे जो श्रूय की
परछाई पड रही है, बह मुझ चाडाल की मरडया की जल्न भे पडनेवाली
परछाई से अवश्य भिन्त है।. |ै

“तुम्हारे पास सोने का घट है, मेरे पाप्त केवल मिट्टी की हाडी है ।
मालूम होता हैं, दीनी मे दो भितन तरह के श्ाकाश हैं |

#घट-घट में बसन्तेवालां जो भ्रात्महूप सहणाततन्द ज्ञान का समुद्र
है, उसमें 'भी तुम्हारा ब्रह्म ण-बाशल का भेद-अ्रम अभी तक नहीं
प्िठा ?

"मैं कौन है, जानते हो * जागतेन्सीते इस देह में से जिस निमल
चैतन्य की किरण फूटती रहती हूं, ब्रह्मा से लेकर रेंगनिवाली 'नीटी तक
के शरीर भ॑ रमता हुआ जो इस जगत्‌ की साखी भरता है, वही मैं € |





अन्मसपादत्तमयमथवा चेतत्ममेव चेतत्यातू ।
द्विजवर दूरी कतुसिच्छसि कि ब्॒ हिं गचछ गच्छेति।| अतीषापचक ॥


पष्छिता समवर्शित पै&


“दस प्रकार की स्थिर बुद्धि यविं हें तो भ्ुरु बन, चाडाल अवबबा
व्राह्मरा भेद-बुद्धि छोड ।

शंकर के बाव आतेवाले सिद्धे ने भेद-अम ताशक परम्परा पर बहुत
जोर दिया। मुनि रामसिह के पाहुड दोहे में छुम्माछुत के बाह्य श्राचार
को मात्मा की दष्टि से तिरयक कहा गया है

कांसु सभाहि करहु को भ्रवद !
छोपु भ्रछोपु भणिवि को बच्चच ॥

“किसका ध्याव कक , किसको पुत्र, किसका छूत गौर किप्नकों भ्रद्धत
मातृ

सहजयानी सिद्धा ने (८त्ी शी ११६ी गती ) भी इसी विचारधारा
को पुष्ट किया | सरीरुहपाद कहते हू, “ब्राह्मण ब्रह्मा के भुख से पैदा! हुए
ये, जब हुए ये, तब हुए ये । इस समय तो सबकी उत्पत्ति एक सी' है ।
यदि कहो सरतार देकर, ज्षी सबफ़ो जाद्याण क्‍यों नहीं हो जाने देते ?
(श्री हजारीपत्ताद द्िवेषों, कबीर, १० ११३) । अनेक सिद्ध रात्त स्वय
शुद्न वगे में उत्प न होकर प्रुजा को प्राप्त हुए ।

सिद्धों की परम्परा को भावों ने १९वी-१ ५वी शी तक गागे वढाथा ।
गोरखनाव श्रावि नाथो मैं जाति की अपेक्षा श्राचार और जरित्र पर
बहुत थोर दिया । सप्राज में भगी या चहटा वही हे, यो जनने व्रय॑ भौर
स्व/व-इन्द्रिय के विषय से लम्पट हे

यक्की का लडबड़ा जिभ्या का फूहंडा |
गेरष कहे ते पत्षषि चूहुडा ॥


पन्‍द्रहवी शती मे रामान द झौर कबीर ने हिच्दु-समाज की इस वाणी
को जोर से दोहराया | उन्होने ज्ञान गौर अनुभव को जात-पात की हृब-
बंदी से ऊपर रखकर उस ध्षेत्र वी! नागरिकता का अधिकार सबके लिए
चोल दिया । फिर तो श्रेत"य, रंदास, नावक, नायदेव गादि अभेक सो
ने इसे एक राजमाग ही बना दिया श्रौर उनके: उपदेशी को हिल्दू-समण्ज
में बहुत्त-कुछ स्वीकार किया ।

१६वीं शती मे भारतवंध भ॑ एक नये युग का सूत्रपात हुआ । सच


पर फहपतृक्ष


धर्मों से कृपर राष्ट्रीयता धरम का उदय होने लगा । धम के भीतर से
ग्रभी पक जो समाज-सुधार के श्रान्दोलन थे, श्रव के राष्ट्रीयता को शवित
और युक्तिमत्ता लेकर समाज के सामने श्राते लगे। स्वामी दयातत्द ने
धरम भ्रौर शष्ट्रीयता, दोनों के भीतर से भारत की प्राचीन उदार वाणी
की घोषणा की और हिदू समाज से स्पष्ट शब्दों मे कहा कि अ्रछ्ृतपन
हिन्दूधम ग्रौर समाज का कलक है, यह मेल उसपर बाहर से चढा हैं, उप-
की मिजी सस्कति में इसके लिए कोई स्थान नहीं है। यह छुआउृत की
जुड़ पर प्रबल कुठराधात हुआ श्रौर उसके शास्नीय अनुमोदन की जड़ें
हिल गई | शास्त्र-प्रमाण से शस्पृश्यता का स्मरधत करतेवालों के हाथ
से भ्रक्षाडा जाता रहा और उनकी हिम्मत हूट गई । यह एक बडी क्रान्ति
थी, जो नवीन होते हुए भी प्राचीतता की शक्ति से सचालित थी ।
लेकिन वास्तविक सामाजिक आचार में अध्पृश्यता का गढ़ बता ही
रह गया ; इस ज्षेत्र मे भह्यत्मा गाधी ते उसे उस्ाडा। उन्होंने कहा कि
अस्पृद्यता स्वयत्तिद्ध कलक है भौर यह हिन्दू-समाज का कोढ है। जो कलक
या अन्याय है, उसे बुरा सिद्ध करने के लिए शास्त्र-प्रसाण की जरूरत नहीं ।
जो समाज का कोढ है, उसे हृटाये बिना समाज स्वस्थ नहीं बन सकता।
अस्पृश्यों पर दया करके अस्पृश्यता के रोग करे हुटाने का प्रएमत नही है ।
अछूतपन की बात मानवार हिदू-समाज ने जो पाप किया है, उसका प्राय-
दिचित्त करते के लिए स्वय हिन्दुओं को इस कलक को सिठाता ब्रावश्यक है ।
यह एक बिलकुल नया दृष्टिकोण या। राष्ट्रीयता के ग्रान्दोलन' की सफ-
जता ही इस बात पर निभर थी कि पहुले छुप्माछृत को मिटा दिया जाये |
ग्रांधीजी का यह दृष्टिकोण इतना साफ था और इसके पीछे उनके जीवन
कप झतता बल था कि राष्ट्र को इसे सोते भ्रोर भ्रषनाते ुए बहुत दिपकत
नही हुईं ग्रौर लगभग पच्चीस वष के समय मे राष्ट्रीय धरातल पर पहुचकर
प्रस्पृश्यता को हटा विया गया । इस समय जो छुश्नाछृत बच गई है, वह
परात्त श्रौर लब्जित है। वह मरी हुई लाश है। उसका प्र।ण' तिकल चुका
है और श्रत समाज को इस शव को भी अपने भीतर से निकाल फेंका है ।
जिस प्मग भ्न्‌ १६२० मे गाधीणी का यह श्रान्दोलन भ्रारभ हुआ था,
ऐसा जान पड़ता था कि पत्तर भारत से तो यह कल्नक सम्भवत हुट जायगा,


पण्छिता सम्रदरशिन ५१


पर दक्षिण मे गाधीजी की बात प्रनसुनी रह जायगी | पर गाधीजी ते जिस
प्रा दोलन के रथ चक्र से प्रस्पृश्यता-निवा रण को बाध दिया था, बहू उत्तर
दब्खित, पुरब-पश्चिम म॑ सब्र एक ज॑से वेग भौर शक्ति से फैला श्रौर
गपत्ती विजय के साथ छुआ्ाछूत के गढ़ को धराशायी बनाता गया | हवराज्य-
प्राप्ति के लिए श्रस्पृद्यता को हटाने की बात गाधीजी की मौलिक देन थी ।
इस कलक वो मेठने के लिए धम या परलोक का पहारा न ढूढ़ उन्हांते इसी'
पृथिवी के जीवन की भ्रावश््यकंता के प्ताथ इसे मिला दिया ।

गाधीजी की चाणी भारतीय विध्वात्मा की बाणी है। यह भारत के
प्राचीन सवब्राह्ममय या ईशावास्य दुष्टिबोए की पुरी विजय कही जा सकती
है। भ्राज विचारों के धरातल पर भारत म्रस्पृष्यता के महापाप की दासता
क्रौर कल्नक से मुक्त हो गया हूं । उसकी इस मुवित में एक बडा लाभ भी
दिखलाई पडता है। भारत की स्थिति झ-तर्राप्ट्रीय "याय।लय' मे शुद्ध
ही गई है, उसका रृष्टिकोण सदा के लिए तिश्नर गया हैं। जहा काजे-गोरे,
ऊच नीच के भेद मे दूसरे राष्ट्र ठोकरे खा रहे हैं, वहा भारत उस समस्या
को सदा के लिए सुलकाकर सबके लिए झादश बन गया है । आज सच्चे
मन से 'पडिता समदर्शिन ' के विरत्तन सत्य को दूसरों से कहा जा सकता


|

लेकिस किसी भी ईमानदार झादमी से यह बात छिपी सही रहू सकती
कि गाधीजी का काम अभी झ्राधा ही हुमा हैं भौर झाधा पडा है। छुप्लाइृत
का रावरा तो मर गया, पर उप्तका धव अभी बीच मे संड रहा है। उस
गर्दगी को जीवन में से हटाये बिता हमारा कल्याण नही है । अपने प्रयृत्तों
को शिथित्र करने या आराम की साप्त लेने की ग्रभी कोई बात नहीं है।
छुप्राछूत के दानव का शव भी इतना बड़ा और इतना उल्नका हुआ है फि
उसे पूरी तरह निकालने के लिए बड़ा सतक प्रयत्त करना पडेगा। प्रभी
हमारे जगलो ओर गाव बस्ती मर ्राौविकारों से वचित मानवों के ठटद6 भरे
हुए है | उ है सामाजिक, भ्राथिक भर बौद्धिक स्वशज्य पी प्राप्ति जबतक
नहीं होती तबतृक हुमारे लिए स्वय इन ए रदानों की प्राप्ति स्वप्त ही है ।
श्रम पव्चित है, उपयोगी है श्रौर प्रावश्यक है । ये तीन बड़े नियम अर्वा बीज
जगत ने क्षम के विषय में हु ढ़ निकाले हैं | इसको पहले हम अपने जीवन


५२ फेल्पनक्ष


के लिए अपनाना हैं । यदि हम श्रम की इस त्रिमृति से बचता चाहेगे प्तों
युग क॑ लिए व्यय हो जागगे । ग्रागे आ्रनेवाली जीवत-पद्धति श्रम के इसी
त्िभुज प्र आशित होगो । पह्रमाज का सया प्गठन अ्षग के आधार पर
ही होगा | श्रम का नियम जहा ताप होगा, वहा हृथ्राछूत का भेद नही रह
सकता । श्रम की पविनता, उपयोगिता श्ौर आवध्यकता के दष्टितोरा को
स्वीकार करके ही गाबीरी मे रवच्छता मौर सफाई के कामो को वहीं
प्रतिष्ठा दी जो जीवन फे भ्रश्य सावश्यक कामों को हम देते हैं । जिस यज्ञ
को गांधीजी मे शुरू किया था, वह अभी झधभूरा है, यह जानकर ही हमें
आगे का क्रम स्थिर करता होगा ।


|


पर
कर किक

चरेवेति-चरेवेति

ऐतरेय ब्राह्मण के 'शानु दीप” उपास्यात भे एक सुदर बंदिक गीत
विया हुआ है | इस गीत का अन्त रा है-- चर्रवेति-चर॑वेति/, ध्र्थात चलते
रहो,चलते रहो। इसकी कया यी है एजा हरिश्चनद्र के कोई पुत्र नही था
उसने पवत भौ र नारद नामक ऋषियों से उपाय पूछा | उन्होने कहा कि तुम
वरुण की उपासना करो । वह वरुण के पास गया कि मुझे पुत्र दो । उससे
पुम्हारा यणन करू गा। वरुण ने कहा---तथास्तु | हरिइचन्द्र के पुत्र उत्पन्न
हुआ । उसका नाम रोहित खख्ा गया | बरुशु ने कहा--तुम्हारे पुत्र हो
गया, इसको मेरी भ्रेट करो | हरिदच द्र ते कहा--अभी पशु है, दस दिन
का भी नही हुआ। दस दिव का हो जाये, तब मज्नीय होगा।। वरुण ने
भहा--अच्छा |

बह पुत्र दशा दित का ही गया । वरूण में शाकर कहा--दस दिए
का हो चुरा, हब सजत करो |

हरिए्पाद्ध ते कहां--भ्रभी दात भी नहीं मिकले । जब दात तिकल
झाषेगे, तब मध्य होगा । वात निकल झाने दी, तब यजन' कर बंगा।


चरेवेति घरब्रेति ५४३


बश्ण ने कहा--श्रच्छा ।

उसके दात निकल आये | तब वरुण फिर भ्रा पहुचा' । बोला--श्रव
तो दात मिकल श्राय, गब ज्ञाझ्नो |

हरिश्यच्त ने कहा--अ्रभी तिरा पशु है। जब दूध के दात गिर जायश,
तब थज्ञीय होगा। दात गिर जाने दा तन' यजा' करू या ।

घरुण में कहा--भ्रच्छा ।

उसके दुघ के दात भी गिर गये | वरुगा ने फिर मागा---श्रव तो बुध
के भी दात गिर गये, लाझी |

हरिश्च॒ दर ते कहा--जब नये दात् निकल श्राते हूं, तब भेध्य होता
है । ज़रा तये दात जम आने दो, फिर यजन बरू गा ।

बरुण ते कहां--अ्रच्छा ।

उसके तये दात भी जम भाये। बच्ण ने फिर टोका--तये दात लिकेल
भागे, अत लाभो ।

हरिषचाद्र ने कहा--गहु क्षत्रिय का बालक है। क्षपिय-पुत्र जब
कवच धारण फरमे लगता है, तब किसी काम के योग्य (मैध्य या यज्ञीय)
होता है। बस्च कवच पहनने लगे तो तुम्हारे लिए हसका यजन कर दू।

धरुणु ते कहा--भ्रच्छा ।

बहू कवच भी धारशा करने लगा। तब वरुण ने हरिए्च' दर को छैका-+-
अब तो कवच भी पहसने लगा, भ्रब यजत करो ।

हेरिक्वद्ध मे कहा--अच्छी बत है, कल पब्राना । उसने रातो-रात
पुत्र से सलाह की और उसे जगल मे भगा दिया। दूसरे दित जब वरुण
पहुचा ती कहूं दिया--वह तो कही भाग गया ।

अरब वरुण के उग्र नियमों ने हरिकचन्द्र को पकंडा | उसके जलोदर
हो गया। रीहित ने जगज़ में पिता के कष्द का सम्राचार सुना । वह वहा
से बस्ती की श्रोर लौटा। तव इद्र पुरप का वेश बनाकर उसके सामने
ग्राया ग्रौर निम्नलिखित गीत का एक-एक इलोक एज एक वर्ष बाद उसे
भुनाता रहा | इप्त प्रकार पा वर्षा मे यह संचरण गीत पूरा हुआ और
पाच वर्षों तक रोहित भरण्य मे घूमता रहा |

गीत इस प्रकार है


शरद कल्पदक्ष


(१)
घरवैति-घरैत्रेति
नानाश्रान्ताय भीरस्ति इति रोहित छुशुस।
पापों मृषद्ररों जत इस इच्चरत सखा ॥
चरवेति रवेति
हैं रोहित, सुनते हैं कि श्रम से जो नही भका, ऐसे पुरुष को लक्ष्मी नहीं
मिन्नती । बंठे हुए झादसी को पाप घर दबाता हैं । इ & उसीका मित्र है,
णो बराबर चलता रहता है। इसलिए चलते रही ।
५१)
पष्पिण्यों 'चरतों जथे भृष्णुरात्मा फलपशरहि ।
प्ोरेप्स्य सर्वे पाप्मात श्रम्रेण प्रषणे हुता ॥
भरबेति चरंवेति।
जी पुरुष चलता रहता हैँ, उसकी जाघो से फूल फूलते हु, उसकी ग्रात्मा
भूषित होकर फल प्राप्त करती है! चलनेवाले के पाप भ्रककर सोगे रहूते
हैं। इसलिए चलते रहो, पत्ते रहो |
(३)
झरासते भग पआसीनस्य उध्वस्तिष्ठति तिष्ठत ।
शते निपद्ममानस्य चरापति घरतो भग ॥
धरद्रेति-ररेवेति ।
बंठे हुए का सौभाग्य बंठा रहता है, खडे होनेवाले का सौभाग्य छडा
ही जाता है, पढ़े रहनेवाले' का सौभाग्य सोता रहुता है श्रौर एठकर घत्नने
पाते का सौभाग्य चल पृ३ ता हैं। इसलिए चलते रही, चकते रहो |
(४)
कलि शक्षपानों भवति सजिहानस्तु द्वापर ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कत सम्पत्यते घरत।॥
चरेवेति चरंवेतिं
सोनेवाले का ताम' कलि है, अगडाई शेनेवाला हापर है, उठकर सहाय
दोनेवाला नेत) है भौर चलनेवाला सतयभी है | इसलिए चलते रहो, चनते
रहो ।


घरेवेति्वरवेति ५४५


(*)
परन्व मथ॒ विल्दति चरन्स्वाइुसुदुस्व॒रस ।
सुर्यस्य पश्म श्रेमाण यो मं तख्यते चरण ।
घर॑चेति-घरे वेति ।

चलता हुश्रा मशुष्य ही मधु पाता है, घलता हुआ। ही स्वादिष्ट फल
चख़ता है। यूये का परिश्रम देखों, जो नित्य चलता हुआ कभी झालस्‍्ष्य
तहीं करता | इसलिए चलते रहो, चलते रहो |

इस सुन्दर गीत मे इन्द्र ने रोहित को सदा चलते रहने वी शिक्षा दी
हे !इ प्र को यह शिक्षा किसी ब्रह्मवेता ब्राह्मण से मिली यी। गीत का
वास्तविक श्रभिष्राय भाध्यात्मिक है। भलते रहो, घलते रहो, क्योि चलने
का नाम्न ही जीवन है। 5हरा हुआ पानी सड जाता है, बेठा हुआ मनुष्य
पापी होता हैँ। बहते हुए पानी में जिन्दगी रहती है, वही वायु ग्रौर सय॑
के प्राण-भवार मे से प्राण को अपनाता है । पडाव डालने का वाम जिन्दगी
नहीं है। जीवन के रास्ते भे यककर सो जाना, या प्रालसी बनकर दसेरा
ले लेना मूच्छा है । जागते का नाम जीवन है । जाग्रति ही गति है। निद्रा
मृत्यु है। भध्यात्म के माग में बराबर भागे कदम बढ़ाते रहो, सदा कानों
में “चलते रहो, चलते रहो” की ही ध्वति गृजती रहे । बह देखो, भ्रन-त
आाकाद को पार करता हुआ और भ्रपरमित शोको का भ्रमण करता हुप्ना
सूथ प्रात काल आकर हममे से प्रत्येक के जीवन-द्वार पर यही अलख
जगाता है--“चलते रहो, चलते रहो ।

इन्द्र तो चलनेबालो का ही सल्ा हे -- (३ द्र इज्चरत राखा)। भप्रात्मा
उनका ही स्वयवर करती है, जी माग मे चलन रहें हूं। एक के बाद दूसरा
यद ज्ञीघ्र उठाते हुए भ्रध्यात्म के अनन्त पथ को थी रते चले जाते हैं। उप-
निपदो मे कह्ठा भी हे

नायमात्मा घलहीनेत लक्ष्य ।
अभथवा[-.
नत्त प्रमादात्‌ तपती वाप्यत्निज्धात ।
जिसके सकहप मजबूत नहीं हैं, जो प्रमादी और मिथ्याधारी है, उसे


५६ कत्पवक्ष


ग्रात्मदश7ा नहीं हो सकता | ईश्वर उनवी सहायता करता है, जो स्पय
गपनी सहायता करते हूँ । कमर फ्सकर राष्डे हो जानेवालों का ही इस
भित्र हैं। जी वेग से रास्ते को पा* करते चले जाते हूं, जो पर उठाकर
पश्चात्‌ पद होता नहीं जानते, जो शोतें जागते सदा जागरूक बने हुए हूं,
वे हो। सच्चे पथिक हूं। उन्होने ससार के श्रा तिथ्य धम को ठीक समझ लिया
है। आत्मा इस देह मे एक अतिथि है। 'शतति सतत गच्छति इति झतिथि '
गत सातत्य गशते घातु ये इयन्‌' प्रत्यय तगाकर अ्तियि बता है ।
अतत्ति सन्‍्तत्‌ गच्छति इति प्रात्मा, उसी “अत सातत्य गमने” धातु से
मनित्‌ प्रत्यय लगाकर आत्मा बनता है। यही सूत सवा स्मरणीय है ।

प्रात्मा देह में मेहमान है । श्रात्मा ही क्षेत्रपति शभु है। इस शरीर
भी राज्ना क्षेत्र है। शात्मा क्षेत्रन या क्षेत्रपत्ति हैं । हम पित्य के शास्ति-
पा5 भें कहते हैं

शन्तर क्षेत्रस्य पतिरस्तु दाभू ।

हमारे क्षेत्रपति भ्राप्मा का प्रहरह कल्याण हों, वह 'सत्तत स्वस्ति-

माप ही । हसो श्रात्माम्ति का सात करके कहा जाता है
तमिभामि बुबस्पत घृतबों पयतातिभिश् ।

समिधाओं से हस अरित की उपासना करो भ्रोर धुत की धाराध्ो से
उस्त भ्रतिथि को जगाझों ! ब्रह्मचय-काल या गझ्ायु का वश्तन्त काल धृतत की
धाराए हैं, इस समय रसो का परिपाक होता है । यौवत' या ग्रीण्म हीं
समिधाएं या ईधन है । कहा भी है ।

वतत्तो अस्थासीदाज्य प्रोष्म हथ्प शंरद्धति ।


ग्रति[व ग्रात्ण का हित लक्षते र॒से से है । घर बसाआर डे! डाज़ना
उसके स्वभात्र के प्रतिकूल है। भोग और विषय दुगन्ध से भरे हुए हैं ।
उनके मध्य में तृप्ति मान लेनेवाले को भ्रसली माधुम्र का पत्ता ही नही
लगा । सब बिद्याशी से बडी मधु विद्या हैं। भात्मज्ञाव या अध्यात्म
विद्या का ही तास सधु है, जिसे इन्न से दध्यड' झ्थर्वा को सिखाया था।
यही परम मधु है| इस रस के बराबर श्रौर क्सी रस मे मिठास गही है ।
आत्मा रस-स्वरुपे ही है


महर्षि व्यास ५७


श्सौधे स
एक बार जां इस मधु का स्वाद पा जाते हैं, वे पुन दूसरे माधुर्य को
चाहवा नहीं करते | यह मधु चंतते रहने से ही मिल सकता है
चरनव मधु पिश्वतति ।
झध्यात्य-्माग के दुढ़ पभ्रिक ही इस मधु को चखते हूँ, वे ही ऐसे सुपण
हैं, जो ससाररूपी प्रश्वत्य वृक्ष के स्वादु य/ मधुर फल के खाने योग्य
(मध्वद) होते हूं ।


&
सहर्षि व्यास


व्यारा भारतीय ज्ञानगगा के भगी रथ हूं। जिम प्रकार इस देवनिर्भमित
देश को किसी पुरायुग में भगीरथ न॑ अपने उम्र तप से गगावतरण हारा
पविभ्न क्रिया भा, उसी प्रकार पुराण मुन्ति वेद यार ने भारतीय लोक सा हित्प
के श्रादि-युग मे हिमालय के बदरिका श्रम म गर्बड समाधि लगाकर श्रथ्यात्म,
धमतीति और पुराण की त्रिपथ गया का पहले प्रपती भ्रात्मा गे साक्षात्कार
किया और फिर साहिस्यिक साधना हारा देश के झार्य वाह मम को उससे
पवित्र बताया; ज्ञानख्पी हिमवान्‌ के उच्च शिख्तरों पर बहुनैवाले विव्य
जलो को मानो बेद व्यास भूतल पर ले शझाये । उत्हाने लाक-साहिंत्य' की
वेग की प्रेरणा दी । उनके द्वारा पूषणों के ज्ञान भौर चरित्रो से प्रुम्फित
सरस्वती लोक' के कठ में झा विराजी |

जिस प्रकार भारतवष की प्राकृतिक स्म्पदा का ग्रपरिमित विस्तार
है, उसी प्रकार कालक्रम से बेद व्यास की साहित्यिक सृष्टि भी लोफ के
देशव्यापी जीवन में श्रदत बनकर सभा गई है। एक प्रकार से सारे राष्ट्र
का जीवन ही स्राज व्यासरूपी महान्‌ बटबुक्ष की छाया के श्राशय म भ्रा
गया है व्यास भारतवर्षीय ज्ञात के सर्वोत्तम प्रतितिधि बन गये हूं ।
यदि भारतीय ज्ञान की उपमा एक ऐसे रत्न से दी जाय जिसकी चमक के


प्र्प फल्पवरी


सहु्नो पहलू हो तो व्यात्त की शत-साहज्नी सहिता पूरी तरह से उस माहष
मणि का स्थास ले सकती हु ! जसे भगवान्‌ समुद्र श्लौर हिमवान्‌ गिरि दोनो
रत्नो की रान हैं, वैसे ही' भारत भी रत्तो से सपृण हूँ ।' व्यास की प्रतिभा
की स्तुति से इससे अधिक श्रीर बंधा कहा था सकता था


धमें चार्थ व कामे ले मोके व भरतर्षभ ।
पदिहारिति तदत्यन्न यमनेहारित न तत्ववचित्‌। (क्रादिष्त ५६।३३ )


प्र्थात्‌, धम, भ्रथ, काम भौर मोक्ष तासक जीवन के चार पुरुषार्थों से
सम्व व रखनेवाला जो कुछ ज्ञान महाभारत गे हे, वही दूसरी जगह है,
जो यहा नही है, वहू कही और भी त मिलेगा

पुराविदों के प्रयत्त करते पर भी व्यास हमारे ऐतिहाम्षिक
विधिनम के शिकजे में पूरी तरह तही बाधे जा सके । विक्रम से तीस
शताब्दी पृव से लेकर पद्रह शताब्दी पुष तक के किसी युग म॑ हमारे
व्यास का उदय हुआ | पुराणों के अनुसार ब्रह्मा से तेकर कृष्ण ईपायन
तक अ्रट्ठाईस व्यासों की परम्परा मिलती हूँ। ये मुख्यत पुराणों
की प्रवचनकर्ता रहे होगे । पर णजबतेक सब पुराणों की सुसमीक्षित्त
सस्करण तैयार न हो जाय तबतक इस शक्रनुश्रुति का पूरा सूहय
नही श्राका जा सकता | हां, जय तामक उत्तम इतिहास के रचनेव!ले भअमि-
त्तौजा महामुनि ध्यास, जितका नाम अट्ठाईस व्यासों के प्रत्त में श्राता
है, प्रवश्य ही हमारे विरपरिचित दे पुराण पमुति हैं जो कुछ पाडवन्युग में
इस पशथ्िवी पर बदर्शिकाश्रम भ्रौर हस्तिनापुर के बीच में आते-जाते थे ।
हिमालप के रभ्य शिक्षर पर जहा नर नारायरा नामक दो पवत हूं, वहां
भागी रथी के समीप विश्ञाला बदरी नामक स्थान में व्यास से अपना शाश्रम
बनाया था। झाज भी बदरीवारायण के इस प्रदेश के दशन के लिए प्रति





'पथा सझुद्रो भगवन्यथा चे हिमवन्‌ गिरि ।
रुपतावुओ रत्तनिधी तथा भारतसुच्यते ॥
(प्रादिपये ५६१२७ सुकथत्कर सरकरण )


भहृधि व्यास ५६


वय सहस्रो थात्री जाते हैं । विशाला बदरी के समीप हीं श्राकाशभगा हैं,
जहा व्य|स का चक्रमण (घूमते) का स्थान था। यह स्थान हरिद्वार से
लगभग एक मास की पेंदल यात्रा के बाद आता था | उम्री हिमवत्‌ पृष्ठ
पर व्यास का श्राश्रम था, जिसकी करा-करण में दिव्य तप की भावना ओत-
प्रोत यी | वहा व्यास ने चार प्रमुख शिष्यो को व॑दिक सहिताशो का गध्ययन
कराया। पल ने ऋतेद, वेशम्पायन ने यजुर्वेद, ज॑मिनि ने सासवेद श्रोर
मुम तु ने भ्रथववेद वी सहिताझों का पारायण किया। कहा जाता है कि
व्यास ने स्वय अ्रत्यधिक परिश्षम से समस्त बंदिक मतो का वर्गीक रण करके
चार सहिताझो का विभाग किया, और इस साहित्यिक साधता के कारण
ही उनका थाम वेदव्यास प्रसिद्ध हुआ। इसी श्राश्रम में कुछ पाड़वो के
युद्ध की समाप्ति पर ध्यासजी ने तीन व के सतत उत्यात के बाद महा-
भारत तामक श्रेष्ठ काव्यात्मक इतिहास वी रचना की ।


न्िभिवष् सवोत्यायी कृष्णद्वेपापतों शुत्ति
महाभारतमास्यान कृतवानिदमुत्तमम्‌ ॥ (झरादिपव ५६॥३९)


यह महाभारत पादवा वेद कहलाता हूँ झौर इसे व्यास ने भ्रपत्ते पचत्र
क्षिष्य रोमहषण को पढ़ाया था। इसका एक नाम काष्ण बेद भी है ।
वस्तुत व्यास का जन्म का नाम कृष्ण था | महाभारत की राजनी ति के युग मे
दो कृष्ण प्रसिद्ध हुए, एक वासुदेव कष्ण श्रौर दूसरे द्पायन कप्ण ! यमुता
नदी के एक द्वीप में ज मं होने के कारण ये हपायन कहलाये। चेदि देश के
राजा वसु उपरिचर से हस्तिनापुर के पास, जहां एक टापू था, सत्यवत्ी
काजम प्रा। जमकाल से ही यमुत्रातीर वासी दाशराज ते उसका पालस-
पोपणा किय'। आा। रात्यवती तामक यहू कन्या बम्ुुता को पार नाव चलाती
हुई प्रथम यौवत॒ के समय योगी पराक्षर मुनि के सयोग से व्यास की माता
बनी । इसी सत्यवती के साथ झागे चलकर राजा शा तनु ने विवाह किया ।
व्यास को माता सत्यवती गगापुत्र भीष्म की सौतेली मा थी, अतएव व्यास
शभौर पितामह भीष्म का स्म्ब थे अत्यन्त तिकट का था। सत्यवती के पुत्र
विचित्रवीय निस्सस्तान ही मृत्यु को प्राप्त हुए। उनके वाद जब कुसकुल
अ्रमपत्यत के कारण डूबने लगा, तब श्रपती माता सत्यवती के कहुने को


६० कर्पयक्ष


मानकर व्यास ने विचियवीय की स्नियो से धृतराष्ट्र गौर पाठ नामक दो
पुन को उत्पन्त किया । इसी ग्रवत्तर पर एफ दागी के गभ से विदुर उत्पस्त
हुए । प्राम्बिकेय धतराप्ट्र के पुन दुर्योबनावि कौरक सौर कौशत्यावप्रा
पाहु के पुत्र धुधिष्टिरादि पत्र पाडव हुए । व्यासणी ही इस बढ़ा के बीज
बपन केरनेवाते ये | अतएवं उन्हीने अत्म पयन्त हस्तिनापुर के पारा सरस्वती
तंदी के विनएरे एक झाक्षम बना लिया था। वहां से वह हस्तिनापुर गाते
रहते ये । जिस समय पाइ की मत्यु के बाद पाडव हस्तिनापुर झाय गौर
पाडू वा वाहसस्कार हुआ, उस समय व्यास बहा मौजूद थे। ब्यास ने माता
सत्यवत्ती का सलाह दी कि झब तुम हस्तिनापुर छांडकर बन भें जाकर योग
में चित्त लगाशी । कौरव पाइवों की चष्टा-परीक्षा के समय भी व्याप्त
हस्तिनापुर में थे। उत्होंन वनवास' के समय एकचक्रा नगरी में पराडयों
से भेट करके उ हूँ द्रौपदी के स्वय्वर में सम्मिलित होने की रालाह दी ।
व्यासब्ी का शभोघ मंत्रगाढे वतत में संदा पाचवों के साथ रहा। ब्याह के
पश्चात जब पाइवों को राज मिला तब भी राजसूय-यज्ञ की सके व्यासजी
से ही उतको प्राप्त हुई। इस यश में आपसी डाह के ऐसे बनवा बसे जिनसे
ग्रागे युद्ध भ्रवश्यम्भावी जचने लगा ! व्यासणी युधिष्ठिर को क्षत्रियों के
भावी बिताश की सूचना बेकर स्वय कलास पएवत की यात्रा को चले गये ।'
हर पाडवो मे जुए में हारकर फिर बन की राहे ली । ध्यासजी को जब
यह समाचार माजूम हुआ तब उ'होते श्राकर धृतराष्ट्र का समभाया कि
पाछवो के साथ न्याग्र करे और स्वप्न द्वलवन में जाकर पाड्या से मिले ।
बहा उहोने युधिष्ठिर को भ्रतिस्मति नामक सिद्ध विश्वा दी भ्रौर उहें दूसरी
जगढ़ जाकर रहने की सम्मत्ति दी। पाडव हतवन का छोडकर सरस्वती की
कितारे कामस्यकबन में रहने लगे। उनके बनवास के बारह बप समाप्त हो रहे
थे | ब्यासजी फिर उतके पाप्त पहुचे श्रौर युधिष्ठिर को नी तिमाग और भ्रात्म-
संयम के धम का उपदेश देकर अपने झाश्चम की चले' गये। तेरहवें वप के
बाद जब युधिप्टिर ते प्रपतता राज्य वापस सागा तब व्यात्तने फिर धृतराष्ट्र


! स्वस्ति तैउस्तु ग्रमिष्यामि केलास पवत प्रति ।
क्प्रमत्त स्थितों दात्त पुथ्चिवीं परिपालय ॥ (सभाप ४६१७)


महुषि ध्यास ६१


को प्रमझाया । पर तु काल फ सामने बूढे शोर भ्रधे राजा धृतराप्टू तथा
प्नीषी वेदव्याप्ष का एक भी उपाय सफल त हुग्रा । व्यास गपी ज्ञान-चक्षु
सैकाल की गहिगा जानते थे। काल की द्ुधर्प सता मे विश्वास उत्तके दक्ष
का प्रभिन्न अग था, जिसे उह्ोते कई जगह भद्दाभारत में प्रकट किया


सालभलभिव सत्र जगवबील धनजथ ।
काल एवं सम्मादले पुनरेध् गवच्छयां ।
स एव बलवान भुंत्वा पुर्र्भवति दुधल ॥।
(गौसल पव ८३३,२४])


काल संबकी जड़ हैं, काल ससार के उत्थान का बीज है। फाल ही अपने
वक्ष मं करके उसे ह०प लेता है। फ्भी काल बलो रहता हे, कभी बही निर्मल
हो जाता हे। समन्तपचक के सब क्षभियों का क्षय करीवाले युद्ध को झपगी
झ्ाखों से देखकर बेदन्यास ने काल की भहिंसा क ध्याय से ही अपने चित
को बैय दिया । जिश राभय कुरुक्षेत्र में दोमों भ्लोर से भारतीय सेनाए गा
ड॒टी तथ भी व्यासणी ने वृतराष्दु फो समक्वाकर युद्ध रोकता चाहा । पर
उनकी एक मे चल्ली | युद्ध के दितो में भी वह जब तब झपने मत से स्थिति
को समालते रहे गौर युद्ध के अत ग शोक्मता धृतराष्ट को शोर सुधिष्ठिर को
समभा बुकाकर वंय बधापा। युधिष्ठिर को राज्य के लिए तैयार करके तीति,
धम प्रीर गव्यात्म की शिक्षा के लिए भीम के पास भेजा और ग्रश्वमेध
करने की प्रेरणा की | युद्ध के सोलह वप बाद बहू घृतराष्ट्‌ से फिर हिमालय
में बाबर मिले मौर तप करने की सलाह देकर झपने श्राश्रम को घते गये ।
जब सररवती नदी के तीर पर बसनेवाले श्रा भी रगणो (हरियाने के दस्युश्रो
ने तरप्शि वश की स्नियो को श्र्जुत के देखते देखते लूट लिया, तब शोक और
अपसान से भग्त हृदय भ्रजु ते श्रतिम बार व्यास के बशन को गये | व्यास
ने उहे कातचक के उत्थान और पतन का उपदेश दकर विदा
क्या। घटनाओं के फमावात में भी क्षोसरहित स्थिति के पतीक वेद
व्यास हूं |

व्यास को वेदास्त सूत्रों का कर्ता भी माना णाता है| वेदाल्तसूरो का
नाम भिक्षुसूत्न भी है। पाणिनि की प्रष्ठाध्यामी से विदित होता है कि


५१ फ्ल्पब्रक्षे


भिक्षुयूत के रचगिता पाराशय थे | पराक्षर के पुत्र होने के काररा व्यास!
का ही एक नाम पाराशय था । बररी ग्राध्म मे रहते के कारण व्यास का
दूसरा त्ाम बादा[रायण मुत्ति सी था शौर इसी कारण कभी-कभी बेद[त-
सूत्री को बादारायणसून भी कहते हूं। पाणिनि के शास्त्र मे जो ऐतिहासिक
सामग्री प्राप्त होती है उप्तवो प्रामारिक मानते हुए यह विश्वास करने के
लिए पर्याप्त द्वेतु है कि बेदात सूतो की रचता बेद व्यास ने ही की हो !
बेदा तसून उपनिपवा के भ्रध्यात्मज्ञान का निचोड है! कहा जाता है कि
वेदव्याप्त में अपने पुत्र शुक को मोक्षज्ञास्त का ग्रध्ययन कराया | सम्भव
है, बादरायणीय वेदान्त यूत्रों की रक्ना में वही हेतु रहा हो ।

परःतु जो प्रथराज व्यातत फी कीर्ति का शुश्न जयस्तग्भ्न है वहु भहा
भाग्त है । भहा।भारत पे व्यात त्ते श्रपती भ्रमित बुद्धि से अथज्ञास्त्र, धर्म-
शास्त्र और भोक्षक्षास्‍त्र को सदा के लिए श्राय-जाति के विस्तृत ज्ञान
श्र तलौकिक जीवन का' रूप ख़ड् कर दिया है ।


प्रधशास्त्र प्तिक पुण्य धर्संदास्त्रमिद परम ।
मोक्षशास्त्रम्ित्र प्रीक्ष व्यासेतामित बुद्धिता ॥ (श्राविषद ५६।२१)


महा भा रप्त सच्चे श्रर्थों में प्रात्रीन भारतवप का विश्वकोष है। ससार
के साहित्य मे महाभारत एक दिख्ाज ग्रन्थ है। इसकी तुल्लनना मे यूनात्र के
इलियड भौर भोडसी अथवा आइतलेड झोर स्फेडनेविया के प्राचीन एडडा
झौर सागा, जिनमे उत्तराखड का बचा खुचा गाधाधणास्त्र सुरक्षित है, बहुत
पीछे छूट जाते हुं । महाभारत जहा एक श्रोर प्राचीन नीति और धम का
श्रक्षय भड़ार है, वही दूसरी भोर इसमे भारतीय गाथाशात्त्र की भी भ्रनात
सामग्री है। महाभारत को बेदव्यांस ने अतीत की घटनाग्रों के नीरस
क्रोडफन्त के रूप में नही रचा, भझायथा वह श्रब से कही पहले भ्रन्‍्य देशी के
भारी भ्ररकम ऐव्रिहासिक पोनों की तरह धूलि धूपतरित हो गया होता ।
महाभारत एक जीते जागते चित्रपट के रूप में सदा हमारे सामने रहा है,
जिसके श्र का व्याण्यान अ्रतगि ते सूत अपने-अपने आसानी से करते रहे है
प्राज भी व्यास गही का उत्तराधिकार भारत के भ्रपते साहित्यिक जगत्‌
भ प्रशुष्ण बना हुआ है। झाकाश मे उडनेयाले' शात को पृथिवी के मानव की








कततल्न्यवदुब्ष


॥सुदेचजारण अग्रयालल


सरूता' साहित्य मंडल प्रकाठाल


महू व्यास ६३


पहुच मे किप्त तरह लाया जा सकता है, इस प्रदत का समाधात भारत-
वर्षीय व्यास गही है । पश्चिम को यह शिकायत है कि उसका नया ज्ञात
विद्नषज्ञो के हाथ मे पढ़कर लाक से दूर जा पडा है| जीवन-मरण एंव
सृष्टि प्रौर प्रलय के सम्बन्ध मे॑ जो विज्ञान के सझोधत हैं उनकी जब-
साधारण के जीवत में ढालने के साधन का विज्ञान के पास अभाव है!
परन्तु भारतवपष में सावजनिक शिक्षा के चमत्कारी विधानों से व्यास गद्दी
से कही जातेबाली कथा द्वारा विद्येपज्ञ और लोक के बीच की खाई
पर पुल बताने का सफल प्रयास होता झ्ावा है । इसी कारण रागायरा,
महाभारत और पुराणों के महान्‌ चरित्रों की श्रमर कथाएं देश के कोने-
कोने भें पीली हुई हूं । अपने एव पु्धाग्रों के चरित्रों को सुतते की जो
हमारे मत मे स्वाभाविक उमग है, वही हमारए। सबसे उत्कट इतिहाम्त-
प्रेम है। जनभेजय के दाब्दों मे हम कह सकते हैं---

नहि तृथ्यासि पू्बेषा शृण्यानइधरित मह॒त्तु । (प्रावि० ५६॥३)
पूर्वपुरुषी के गहान्‌ चरित्र को सुनते सुनते में कभी तुप्त नही होता। उस
स्वाभाधिक कौतुक को तृप्त करने का राष्ट्रीय साधन महाभारत ग्र थ था।
पराक्रमी द्वोण, भीष्म, भ्र्तुन, भीम, कण और दुर्योधन के महावीय भुजदड़ो
की दावित के ज़िम्त ग्रोज को वेदव्यास ने अपने एलोको में भरा है, उससे भ्रव
भी हमारा वीर हृदय उछलतने लगता है ।


भारत-महाभारत


महाभारत को दतसाहस्री ध्रहिता कहा गया है। हरिवश को मिला+
कर महाभारत के १८ पर्वों मे एक जाख इलोक होने का झनुमान' किया
जाता है। पर यह तिदचय है कि वेदव्यास के समय में इस ग्रन्थ का यह्‌
बृहत रूप तन भा। पाणिनि की श्रष्टाध्यायी के एक सूत्र (६। २। ३८) में
भारत-महाभा रत माम भाते हूं। उससे पहले भ्राइवलायन गहासूत्र मे भारत
भोर महा भारत दोनों का ही एक बावय में सलग भ्रला उल्लेख है । वास्त-
विक कुछ पाड़यों का वीर गाथा ग्रथ भारत ही था, जिसमे लौबीरा हजार
इलोक थे और इस कारण जिसका नाम श्वतुत्रिष्ठति साहुखी भारत
संहिता प्रसिद्ध था। इसकी भ्रन्त साक्षी स्वय महाभारत से भौजूद है ।


४ मल्पचक्ष


घतविश्ञत्ति सहुसी चर भारतसंहिताम्‌ |
उपाहयानबिता ताबबू भारत प्रोच्यतें बुध ॥ (भ्रादि० १॥६१)
व्यास वा भूल भारत बिया उपाण्याती के जा, पर बएमान ग्रन्थ श
सेकड़ो उपार्यात यथास्थान पिरो दिये गए हूँ। व्यास ने तीन वय के सतत
परिश्रम (उत्थान) से २९००० इलाकों में भरतवह्ञ के इतिहास भौर युद्ध
का भूल काव्य रचा था। उतका रोमहषरा सूत ते यथायत' पढा। पुत्र व्यास
शिष्य वश म्पायन ने जन्मेजन के या मे उमा पारायश फ़ियां। इस समये
तक प्र य वा रूप शुद्ध बना रहा | भद्दा भारत' का तीसरा रास्फरण' भ्रागव-
बी कुलपति श्ौनक के बारह वर्षा के यश म देसने में शाता है। यह्दा
बता सौर थोता दोनो नैमिवारप्य फी सघन छाया मे शाम्ति के साथ
पर्याप्त गवकाञ्न लेकर बंठे थे । इस समय भरत व्‌ उपब हण महाभारत
के रूप म॑ हो चु7! था, चतुविशति पताहली राठिता बढ़कर शंतसादल्ली बन
गई थी । उसमे ययाति' और परशुराम जैसे बढ़े बडे उपाज्यात स्वच्छन्दता
से मिल्ला लिय गए | बहुत सी' कथाएं, जि हे हम बौद्ध जातकी तक में पाते
हैँ, जोक वो वल्ती-फिरती सम्पत्ति थी,वे भी महाभारत मे मिला ती १६ई।
शमृगासत पब की पुप्करहरण की कथा (झ० ६३ ६८) झौर बिसजातक
(स० ४०५८) एक ही हूं। भ्रगागत विधाता श्रादि तीन मछलिया की कहानी
या राजा ब्रह्म॑दत्त और पुजती चिडिया की बालकहानिया भी महाभारत के
भीतर भागई | इसके भ्रतिरिक्त शिव, विंप्णु, सुय, देनी और गणपति को
बढती हुई भक्ति के झावेश में सम्प्रदायविद्दों में महाभारत को भ्पनी कृपा
का लक्ष्य बंसाया । परन्तु इत सबसे बढ़कर अध्यात्म, घम गौर नीति के
अनेक धवाद गहाभारत मे समय समय पर प्िलते गये। दन' सब सम्मिश्नणों
के कारण मूल कल का का्यापलट हो गया | शुछ समय तक तो भारत
भौर गहाभारत का अस्तित्व अलग-अलग पहचानमे में झ्ाता रहा, परन्तु
जेसा स्वाभाविक था, भागे चलकर केवल महाभारत ही शाय प्रकृति क
सबसे महान शान«विशान कौए फे रूप मे रह गया ।


व्याफरण सहिता में एस उपास्यानों का उल्लेंस 'यायात' 'आराधि-
राम तामों से किया गया हैं। (कारिका सुत्ग ६ । २) १०३)


भहषि व्यास ६३५


प्रइन यह है कि क्या फिर मूल भारत ग्रन्थ वो महाभारत मे से श्रलग
जिया जा सकता है ? क्या यह पश्मय है कि महाभारत के भीतर कालक्रम
से अमी हुई विभि'न साहित्यिक तहों को फिर से उलटकर हम कुछ उस पर्दे
को हटा सके, जिसके पीछे तबीय से प्राब्रीन भाग को छिपा रबख्रा हे ?
यह प्रश्न हमारे राष्ट्रीय पाठित्य की कसौटी है । हुप की बात है कि यह
भगीरव काय पूणा के 'भाडारकर प्रान्य विद्या सस्थान की तरफ से
गाज लगभा बीस वर्षो से हो रहा है। महाभारत के इस सस्क रण मे, जहा
तब मानभी बुद्धि भौर परिश्रम के लिए सम्भव है, वहातक महाभारत के
पू"र रुप का उद्धार करने का प्रवत्त 4िया गया है। डा० सुफथनकर इस कांप
के प्राण हैं| उन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा से कुछ कुछ यह भी प्रयत्त किया
है कि हुम शौनक के सस्करण से ती पूर्व म॑ हुए परिवतनों को अलग पहुचान'
पके । इस दिशा में उनका भभु भ्रौर भारत शीयपक बृहुन्‌ू निबध स्थुत्य
है। उप्ततते यह ज्ञात होता है कि भशुवकी ब्राह्मणों धारा किये गए
संपादन के फलम्वहूप शर्ताब्दियों म॑ भारत को महाभारत का
स्वरूप प्राध्त हुआ होगा । कुलपति शौनक स्वयं भागव' थे। भरतवश
से भी पहले उतकी जिज्ञासा भागब बण की कथा के लिए प्रकट
होती है


तन्न बशमहु एव ओतुमिच्छामि भागवस्‌ ।


भागव क्षौतक का यहु पक्षपात साग्र ग्र व पर पड़े हुए भागव-प्रभाव का
द्योतक है | प्रौदपिस्यान (आपि) कातवीरयोपास्यान (वन), श्रम्बीपा-
सु्यात (उद्योग ), विपुलोपारयान (ब्ात्ति),उत्तकोपारथान (अ्रश्वमेध) का
सागवन्ध भागवों से है। झादि पत्र के पहले ४३ झध्याय, जिनमे पौलोगम' श्रौर
पीष्य पव हूं, भागव क्याग्रों से सम्बन्ध रखते हैं। भरतवश को कथा
उसके बाद चली हूं। शात्ति और प्रतुशापन पर्वा में जो धम भ्रौर तरीति-
परक भज्ञ हैं, वे भी भगुगा की प्रेरणा के फल हैं। यह सत्य है कि सूल भारत-
सद्िता के उस शुद्ध छृप का, मिसमे उसका झाविर्भाव हिमवत्‌ पृष्ठ के बदरी


'भाडारकर इस्ठीटमूंद की सुखपत्रिका भाग १५, पृ० १--७६


५६ फापवक्ष


बनते मे हुआ था, इस समय ठीक ठीक उद्घार करने का दावा कोई
नहीं कर सकता, फिर भी राहुसो वपष की जमी हुई काई को
हुटाकर जितना भी परिष्कार किया जा सके, श्रेयस्कर है। इस
दृष्टि से पूना के भारत चित्तकों का काय राष्ट्रीय महत्त्व का है।
महामत्ति पुराणुज्ञ डा० सुकपतकर इस काय में हमारे श्रर्वाचीन
उप्रश्नवा हु ।

महाभारत सस्क्ृत साहिद का धुरंधर प्रत्थ है! उसका
साहित्यिक तैज सर्वातिश्ञायी है। एठडा भ्ौर सागाशो के लिए प्रश्यात्त
लेखक कारलाइल ने लिखा है कि वे इतनी महान क्ृतिया हूँ कि
उ'हे किचित स्वह्प कर देते पर शैक्सपियर, दात़े श्रौर गेठे बत्त
सकते ह। यही बात हम महाभारत के लिए कह सकते हूं। भास,
कालिदास, माघ, भारति, हुप की साहित्यिक कृतिया महाभारत
के ही अप विषयात्मक एप हैँ। यो भी भहाभारत साहित्यिक
गैलियो की खान हे । उपाख्यात ईि, गतप शली, दहन और भ्रध्यात्म
निरूपण की सवादात्मक शल्ली, प्रन्‍्नोत्तर (युधिष्थिर-अ्जगर प्रौर
युधिष्ठिर-यक्ष-प्रशत, वसपत्र श्र० १६४०-८१, श्र० ३१३ ), केवल प्रश्ना-
त्मक शैली (शभापब अ० ४, तारद प्रदन मुख से राजधर्म नुशारा न ) , नीति
प्रन्धात्मक शैली (विदुरतीति, उद्योग० भ्र० ३१३ ४०), स्तोत्र शैली"
सहक्षताम शैली, इस प्रकार वतमान महाभारत मे साहित्यिक पद्धति के
प्रभेक बीज पाये जाते हैं ।

पर हमारे राष्ट्रीय पष्युत्यान के लिए महाभारत का विशेष भहत्त्व'
यह है कि बह प्राचीत भूगोल, समाजशास्त्र, क्ाप्तत सम्बन्धी सस्था, नीति


' जैसे महापुरुषस्तव (शान्ति श्र० १३४), क्षृष्णनाम स्तुति
(शा० शझ्० ४३) भावस्माहात्य (अनु० श्र० १४८) शतरुपत्निय (प्रनु०
०१६ १), भगवस्माम सिशक्ति, (ध्रा० भ्र० ३४१) झोर कृष्णस्तवराज)
शा० झ० ४७)। स्तोन्न क्षौर सहस्नवामों का सम्नहु इन्हीं दो पर्वों में


हैं। यहु सवेहजनक हूं ।


सहूषि व्यास ६७


और ध्त के श्रादर्शों की खान है । वेदव्यास जिस भारत राष्ट्र की उपासना
बरते थे, भविष्य का प्रत्येक हिंदू उस्तका स्वप्त देखेगा । उनका निम्न-
लिखित राष्ट्रगीत हमारे इतिहास का सनातन मगलांचरण होगा

ग्रत्न ते कीत्थिष्यामि बध्ध भारत भारतम्‌ ।

भफरियसति व्रस्प देवस्प सनोवेदस्वतस्थ स्‌ ।

पृथीत्तु राजन्वन्यस्य तमेक्ष्याकोर्महात्मन ।

ययाते रम्वरीषस्थ भान्यातुतहुघ॒त्य च॑ ।

तथैव मुचकुन्दस्ध शिवेरोशीनरस्य से ।

ऋषभस्य तर्वलस्थ नृगश्य नृपत्तेस्तथा।॥।

कुशिकस्प च दुर्धव गाधेशचैव महात्मन |

सोमकस्प व दुधष विलीपस्य तवैव हू |

ऋषेधा ते सहाराज क्षत्रियाणा बल्मोयस्ाम।

सर्बेधामेत्र राजेंद्र प्रिय भारत भारतम्‌ ॥'
शाग्रो, है भारत, प्रव मे तुम्हे भारत देश का कीतिगांत सुवाता हु--वहं
भारत जो इस्ददेव को प्रिय है, जो मनु, वैवत्वत, भादिराज पृथु, बे य
गौर महात्मा इक्ष्वाकु को प्यारा था, जो भारत ययात्िि, अ्म्बरीप,
मान्धाता, महुष, मुचुकुन्द और श्रौशीनर शिवि की प्रिय था। ऋषभ, ऐल
और मृग' जिस भारत को प्यार करते थे और जो भारत कुशिक, गाधि,
सोमब', दिज्लीप और भ्रनेकातेक बीयशाली क्षत्रिय सम्नाटो को प्यारा था। है
मरेद्र, उस विव्य देश की की तिं-फथा म॑ तुम्हे सुनाऊगा ।

व्यास ने राष्ट्रीय राजनीति का जो झावर्श रकखा है बह मनु और
वाल्मीकि से मिलता है। वाल्मीकि के अराजक जनपद गीत से मिन्नता-
जुलता ब्यास॒ का 'यदि राणा न पालयेत्‌' (शान्ति० ६८। १।३०) गीत है ।
लोक में शान्ति की व्यवस्था राजा का सबसे प्रथम कतठ्य है | धर्म की जड़
राजा फी सुव्यवस्था के बल पर टिकी रहती हैं। यदि राजा म हो तो दुष्ट
साधुग्री को सा डाले, धर्म इब जाय, वेद कही के न रहे, सा री प्रजा अध्यवार


'सीष्म पथ भ्र० 8, इलो० ४/--६। सभ्य धृतराष्दू से कह रहे


हद कल्पव॒क्ष


में बिलीन' हो जाय । राए्ट्र के धमबन्व शासन को सुव्यवस्था के श्रधीन
हैं! व्यास के मत म॑ बिना राजा का राष्ट्र मरा हुभ्रा है ।
मृत राष्ट्रगराजवषम | वन० (३१३८४)
अराजक राष्ट्र मात्य याय का विकार हो जाता है | (० १६ १७) |
व्यास ने राजा और क्षत्रिय की परिभाषा दी है। जो लोकरणन कर्ता है
बही राजा है (शा० १६)११) । जो क्षत से बचाता हैं वही क्षनिय है (शा०
२१]१३८) | इन्ही झ्ादर्शा को हमारे इतिहास के स्वर्णयुग मे कालिदास
ने दोहराया था। भीष्म ने युधिष्ठिर स कहा है कि' राजा काल को
बनाता है, या काल राजा को बनाता है, इसमें तुम कभी सदाय मत करना,
राणा ही काल को बनाता है।
कालो वा कारण राज्ञों राजा वा कालकारणम ।
इति ते सशयों मा भूद्राजा काहस्य फारणम्‌ ॥ (झ्ञा० ६९६)
जब राजा भली प्रकार दडनीति का पालन करता है, तभी सतथुग श्रा जाता
है। राजा का शातन राष्ट्र का कुकुद हैँ। राजा की उस्त श्रादश्ष प्रासन्दी
की रक्षा में रहकर प्रजा जिस धम का पाज्न करती है, उसका एक चतुय
अ्रश राजा को प्राप्त होता हैँ | राजा को श्रपनी' नीति में माली की तरह
होता चाहिए, कोयला फूकनेवाले झागा रिक की तरह नही । पहला फूलो की
चाह में वृक्षो को सीचत! है, दूसरा भ्रगारों के लिए पेडो को फूक डालता है |
प्रजाएं राज! का शरीर हैं। झपने-ग्रापफो बचाने के लिए भी राजा को


| राजमूलों महाप्राज्ञ धर्मों लोकस्य लक्ष्यते |
प्रजा राजभयादेव न सार्दात्त परस्परस ।॥
ने योनिपोधों चर्तेत न कषिन बणिक्‌ पथ ।
मज्जेद्मस्त्रपी त स्पाश्दि राजा न पालयेत ॥ (शा० भ्र० ६८)
* क्षतात्‌ किल त्रायत दृत्यदभ
क्षत्रस्पश्व्दी भुयनेषुछह । ( रघवश २१४३ ) तमेव सोडभृदन्‍्षर्था
राजा प्रकृति-रजतातू (रघु० ४१२) भर्थात्‌ रघु प्रकृत्तिस्‍अत के कारण
सच्चे क्षथों में शज्षा कहलाये ।


महूषि व्यास ६६


प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। प्रजा का भी सर्वोत्तम घरीर राणा ही है ।
राजा को पुप्ट करके ने भपने झ्रापको बढ़ाती हैं। जो टदाष्ट्र की कामना
करते हूँ उनको सबसे पहले ज्ोफ यी रक्षा करती चाहिए | व्यास से पोडश
राजीय पव में प्राचीन आय राजाग्रों के श्रादश का स्मरण दिलाया है |
राम के राज्य भ समग्न पर गेध बरसतें ये और सदा सुभिक्ष रहता था ।
दिलीप के राज्य मे स्वाष्म्राय घोष, टक्षर घोष श्र दान के सकल्प का
घोष, ये तीन शत्द बराबर सुनाई पड़ते थे। सक्षेष में, वेदव्यास के मत
के झनुसार लोफ का सारा जीवय राजवम के भ्राश्चित है । राजधम' बिगड़
गया तो वेद, धम, वण, भ्राश्रम, त्याग, तप, विद्या संववुछ नष्ट हुआ
पस्मभना चाहिए । (शास्तिपव, ६३।२८।२६)


सज्जेत्‌ त्रयी बडनीतों हताया सर्वेधर्मा ॥क्षयेयुविवृद्धा ।
सर्वे धर्माब्चाश्रमाणाहता स्य॒ क्षार्त्रे व्यक्ती राजवम्त पुराण ॥
सर्वे त्याग राजधर्मेपु दध्टा सर्वा दीक्षा राजधर्मष युक्ता ।
सर्बा विधा राजधर्मेष चोक्‍ता सर्व लोका राजधम्मे प्रविष्टा ॥


व्यास ते ो धर्म का स्वरूप रखा है, वह उतका सबसे भहान
ऋषित्व या दक्ष है। वह धम्म को स्का-प्राप्ति करानेबाले भोगे कर्मों का
जजाल नही मानते | उन्होने झपते ध्यान से धम की एक नई परिभाषा,
एक तग्मे स्वरूप का अनुभव किया


नमो धर्माय महते धर्मों धारवति प्रजा (उद्योग० १३७६)
व्यक्ति को, राष्ट्र को, जीवन को, सस्थाश्रो को, लोक और परलोक,
सबको धारण करनेवाले जो धासवत सर्वापरि तिभम हुं वे धरम हैं


धारणाउम इत्याहुधर्मो धारयतें प्रजा ।
यत्पाद्धारण सयुक्त स धम्त इत्युदाहृत ॥


धम स्व॒ए से भी महान है। लोकस्विति का सनातन बीज धरम है । इस
दृष्टि से देखने पर धम गगा के झोजस्वी प्रवाह की तरह जीवन के सुविस्तृत
क्षेत्र को सिचित क्षौर पत्रिन् करतेवाला अमृत बन जाता है। राजाशी की
जय भोर पराजय श्राते ज|नेबाली चीज है, जीवन में मुख और दु ख भी सदा


७० बाहपवक्षे


एक से तही रहते, पर सम्पत्ति और विपत्ति से भी जो वच्तु एक सी बती
रहती है, वह बन है । ध्यास ने महाभारत सहिता' लिखसे के बाद उत्त-
के अत में श्रपने वृष्टिकोश और उद्देश्य का मिवोद चर श्लोकों मे भर
दिया है, जिसे भारत-साविंबी कहते हैं उसका अन्तिम इलोक यह है


मे जातु करामात्त भयात्त लोभाव्‌ ।
धर्त प्यजेज्जीज्ितस्पापि हेतो ।
मित्यों धम् सुल्त हु से (बनित्ये ।
जीबो नित्यों हेतुरत्य त्वमित्य ॥


क्र्यातू--/वाम से, भव से, लोभ से, यहातक कि प्राणों के लिए
भी धम की छोडना ठीक नही, वयोकि धम सिप्य है, सुख और दुख
क्षणिक है। इसी तरह जीव भी नित्य है, जन्म भर मृत्यु प्रक्तिय हूं ।
में भुजा उठाकर कह रहा है, पर कोई मेरी बात सुननेवाला नहीं है।
धमसे ही धन भ्रौर काम भिलते हैं, उस धम का झाश्रय क्यो नहीं लेते ?
ये भारत-साविद्री में व्यास के साक्षात्‌ बचन हैं।
धदि धर्म जीवन को धारण करनेवाला है और धम अच्छी बीज है
तो जीवन भी मूह्यवान्‌ होगा चाहिए । व्यास के धम में जीवन रोने धोने
वा माया समभेकर खोने की चीज नहीं । उसकी दृष्टि से यह जोक कम-
भूमि है, परत्ञोक फलभूमि होगा। देवदूत मे मुद्रत से कहा
कमभूमिरिय ब्रह्मत| फलभूमि रतो मता । (बन० २६१३५)
वन में पाडवो के पास जाकर ह्वश्न व्यास ने यह मत रकखा था । वे इस
लोक में करमंवाद को मालते हैं। उसके साथ देववाद को सानते हैं प्रौर
दोनी के ऊपर प्रध्यात्म ब्रह्म था भात्मतत्व मे विष्वास रखते हैं। उ होने
णो दाहंतिक मत रक्‍्खा उत्तमे मनुष्य सबके केच्ध में है। व्यास का यह
इलोक स्वर्ण के अक्षरों में टाकतें योग्य है
गृह ब्रह्म तदिद ब्रवीसि।
नह मातृषातु भ्रेष्टतर हि किलित्‌ । (शार्ति० १४०११२)


श्र्थात-यह्‌ रहस्य-ज्ञान तुमको बताता है, मनुष्य से श्रेष्ठ अन्म कुछ नही


महुषि व्यास ४१


व्यास' का यह मात॒व केन्द्रिक मत हुमारे अर्वाचीन ज्ञाम-विज्ञान शोर
सामाजिक प्रम्ययन भे सबन व्याप्त होता जा रहा है ।
व्यास की परिभाषा के भ्रनुत्तार कम मनुष्य की विवोषता हैं
प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्या कमलक्षणा । (झद्व० ४३॥२० )
कम करने से जो प्रकाश जीवन में श्राता है उसीसे मनुण्य बेब बन जाता है।
श्रात्मा भिमान के साथ मनुध्य शरीर रखने से ही सारे लाभ प्राप्त होते हू ।


पाणिवाद
व्यास ने मानवी पुरपषाय की श्रेष्णता का प्रतिपादन करते हुए इृद्न
के मुख से पारिवाद का व्याक्यात कराया है ।
लोक सम्रह ओर लोकधर्म
व्यास की दृष्टि मे लोक सग्रह ग्रौर लोक धर्म बहुत मूल्यवान्‌ पदाथ
हैं । श्राजगर मुनि को लोकधमविधानविंत श्रर्थात्‌ लोकधम के सिद्धा त
झौर सगठन का वेत्ता (शा० १७४६।६) कहा गया है। जो व्यवित लोकपक्ष
का इतता समथक हो, उसे गृहल्थ धरम का प्रशंसक होना ही चाहिए!
व्यास के अ्रमुसार धम के द्वारा प्रवृत्त गहत्थ आश्रम सब प्राश्रमों में तेजस्वी
माग है, वह पवित्र धम है जिसकी उपासना करती चाहिए।'
व्यासजी ने नगद धम्र पर बल्च दिया है। वह कहते ह--मनुध्य लोक
में ही जो कल्याण है उसे मैं प्रच्छा मानता हू
समुष्यलोके यक्छेय पर मन्ये युधिष्दिर (बनप्व १८४३॥८०८)
व्यासजी की दृष्टि मे वह व्यक्ति अधूरा है जो लोक मे दुए रहता
है | जो मनुष्य स्वय अपनी शभ्ाखी से लोक का ज्ञाम प्राप्त करता है वही
सब कुछ जान सकता है
प्रत्यक्षवर्शी लोकानासवेद्शी भवेन्तर । (छद्यौग० ४३॥३६)


' देलिये लेख स० १० ।
: सर्वाभमपदेष्प्याहुर्गा हस्थ्य दीप्तनिर्णयम्‌ ।
पा बन पुरषण्यात्न थे धर्म पर्युपासले ॥ (झा० ६६।३५)


७२ क्रतपव क्ष


जैसा कम किया जाता है, यैसा ही लाभ मिलता है, यही जास्नो का
निचोड है
यथा क्रम तथा लाभ इति शास्त्रतिदर्शनण्‌ ।
(शा त० २७९२० )


क्तु धनागम धर से होता चाहिए। व्यासजी के गे में व्म का
जो ऊंचा स्थान है उसके अनुसार ने केवल भ्रथ, वरत काम भर मोक्ष
भी पम पर ग्राभ्रित हुं श्र यह राज्य भी वम्रपूलक है ।

लोक, गाहस्थ्य गौर मतुप्य के लिए जिस गहापुरुप के मन में भरद्धा
हुं, जिसफा दष्टिकोश इस विएयों में मजा हुमा हूं, उसका भ्रध्यात्मणास्त्र
भी तदनुकूल ही मानव को साथ लेकर चलता है। मनुष्य पचेन्द्रियों से
युवत प्राशी है । ई प्रया ही गानव वो देव या असुर बता देती हूं । व्यास
के अ्रथ्यात्मशास्य का सार ई द्रथ-निग्रह है |


कालधर्म
वेदब्यास के शाध्यात्मिक दद्यग मे काशाधर्म का बदा स्थात है । छत्तकी

शालखों ने समत पचक मे हुए कुछ पाइवो के दारुण वाश को देखा । बड़े
हुशाग्र बुद्धि श्रौर कल्याणाधितिवेशी व्यक्ति इच्छा रखते हुए भी उस
क्षय को नहीं रोक सके | यह कालचक्र की ही महिमा है। कमर के साथ
मिलकर काल ही सस्तार से बहुत तरह के उलठ-फेर करता है । (शा०
२१३।१३) । काल के पर्याय बम के सामने सब अनित्य ठहुरता है, कभी
एक की बारी, कभी दूसरे की । महाभारत के श्रन्त म जो व्यक्ति स्त्री-
पर्व को देखे, वहु इसके घ्िवाय भ्ौर क्या कह सकता है

त श्व देवकृतों भाग शबया भत्रेश केनेति

घट्ततापि त्विर काल सियच्तुप्तिति मे भति ॥
कोई प्राणी कितनी भी कोशिश करे, देव के रास्ते को नही रोक सकता |
ग्रह दब था उत्कट काल विश्व का निध्य विधान है । इसीका नामान्तर
सनातन ब्रह्म है। वेबव्यात मानव जीनेन की घटताग्रो की ऊद्दापोह्न करते
[ए उनके अन्तिम कारण की क्लोज मे यही विश्राम लेते हैं। यह प्तच है कि


पाणिवाद ७३


मतुप्य विधाता के द्वारा त्तिस्चित समार के विधान फहो बदल पही संवता,
पर बह यह प्रवश्य कर सकता है कि उस सर्वोपरि शक्ति के रहस्यों का
साक्षात्कार करके जीवन में कजु भाव अपनाले | वह मेह भी कर सकता
है कि दृ।द्वियो के निराध भ्रौर आत्म चितन से आत्मा ज्योति को इसी शरीर
मप्राप्त कर ते। यह शरीर मृज घास है, ग्रात्मा उसके भीतर की सीक है ।
जिस प्रकार पूज से दपीका निकाली जाती है, बसे ही योगवेत्ता शरीर में
ग्रात्मा का साक्षात्ार करते हूं। (झ्राश्य० १६१२२॥२३)

व्यास की ग्राज्ञा हे कि जय तामक इतिहास क्वकों सुतना चाहिए |
यह धुरधर ग्रत्व भारतीय चरित और ज्ञान का पुणतम॒ वश पढ़ है| इसके
निर्माता की' प्रज्ञा यूबरह्मियां की तरह विराट है । सारा भारत राष्ट्र
महामुन्ति वेदब्यासा के जिए अ्रपत्री श्रद्धाजनि अ्रपित्न करता है) हम भी
हिमालय के शि्लाप्रस्थ पर विराजमान बवस्किश्रम के पुराण सृत्ति को
प्रणाम करते हूं, जिसके प्‌थु मेता म हमार ज्ञान का सता ध ग्रालोक समा गया
था, जिनका शालस्कन्ध के समान उन्नत भेरदड राष्ट्रीय मेरदड का प्रतीक
था, जिनके च दनो क्षित छषप्णशरीर म हमारे बुभ्न भावश मातो राशिभूत
होकर भ्रतिमान हो उठे थे ।


५ ।
पाणिवाद


दस अग्ुुलियोबाले हाथ मनुष्य की सबसे बडी सम्पत्ति हैं। उनका
उपयोग करने में वह स्व!धीन है! हाथो से काम करने का गथ सब प्रकार
के शारीरिक श्रम या शरीर से हाववाली मेहनत-मजदूरी के लिए ससुष्य
की संहृष भ्रशिलापा श्रौर बारी रिक श्रम के लिए पृज्य बुद्धि | शारीरिक
श्रम के प्रति यहू युलका हुआ भाव नई शिक्षा दीक्षा श्रौर जीवन के नये'
दृष्टिकोण की देन समभा जाता है, कित्तु जीवत मे कप्त की प्रधानता भारत-
बध की पुरानी विच्ार-पद्धति रही है। कम के भ्रतगत स्लब प्रकार का
शारीरिक श्रम आजाता है | भारतीय जीवन पहुति में व्यक्तिगत और


७४ फ़ल्पनक्ष


पारिारिक आवश्यकता के अनेक छोठे मोटे कामो को स्वयं अपने हाथों
करने का अभ्यास डाला गया था। छोटे बड़े, प्रभीर गरीब, ऊच नीच, सब
प्रकार के मनुष्य हाथ मे फाम करना गौरव की बात समझते ये। उसम
विसी प्रकार की भिक्रक या लण्जा का भाव न था |

प्रत्यन्त प्राचीन काल मे वेदब्यास ने श्रम्त की इस महिमा को बड़े काव्य-
मप ढग से कहा था। इसे हम व्यास का पाणिवाद कह सकते हूं।| व्यास के
दब्दी में दस अग्रलियावाले हाथ भगवान के दिसे हुए हूं । देव के दिये हुए
हाथो (देवदत्ती पाणी ) का जिसने पाया उसे क्या नही प्राप्त हुआ? पाणि-
लाभ से बढ़कर संसार में और दूसरा कोई लाभ नही है। हाथो के लिए
देवदत्त' विशेषण मे केवल साहित्यिक प्रतिभा का मूचक है, वल्कि उनसे
हनेयाले कम के लिए व्यास' के मन में जो दृढ़ आस्था थी उसे भी प्रकट
करता है | देव और पुरुपाथ, इन दोनों का भगदढा बहुत पुराता है। देव
अपने स्थान पर है, फिन्तु जिस समय वह मनुष्य को हाथ दे देता हैं, उसका
काम पूरा होजाता है। भागे मतुप्य का काम है कि वह देव के दिये हुए
हायो ते सब श्रयों फो सिद्ध करे। व्यास का मह अनोखा पाशिवाद' हमारी
बीसभी शताब्दी की जन्मषुद़ी मे मिल जाना चाहिए। हमसे से कोई ऐसा!
ने रहे जो दस पाणिवाद के मत्र को जीवन का अग ने धनाले | व्याक्तणी
कहते हुं, “जीवन मे ऐसे बहुत-से व्यक्ति सिलेगे जो धत्र की चाहना किया
करते हूं, भ्र्थात्‌ जिनकी मनोब॒त्ति यह रहती है कि कही से भगवान पैसा
भेज दें तो सब ठीक होजाय। में ऐसे गनुष्यो की प्रशसा नही कर सकता ।
मैं तो ऐसे मनुप्यो को चाहता हू जो हाथचाले हुं झ्लौर शिलमें अपने हाथो
का भ्रशिभान है” कहा जाता है कि वैज्ञानिकों के एक दल को किसी बेवता
नें प्रसन्न होकर स्का भे भेजना चाहा तो उन्होने प्राथना की कि
नहीं, हमे नरक में भैजा जाय, जिपसे हमे करने के लिए कुछ काम
मिले। सच्चे पाणिवराद की यही मतोवत्ति होती है। व्याप्त के
शब्दों भे-श्रहों सिद्यार्भता तेषा येपा सत्तीह पाणय, अश्रर्थाति,
जिनके हाथ सही सलाभत हैं उद्ीकें सारे काम पूरे उतरते हैं।
सिद्धार्थ ता अर्थात्‌ अपते सब पअ्र्थां की सिद्धि--इसका रहस्य व्यासजी के
श्रनुसार मनृष्य की अग्रुलियों से बधी हुईं मुट्ठियों में है। दस अग्रुलिया


पाणिवाद ७४


देखने मे छोटी लगती हैँ, पर इनके घेरे मे सारा कमण्य संसार समाया हुझा
है | हमारा यह लोक व्यास की परिभाण में पाशिमतो के जिए है। इसमे
जो हाथ से मेहनत पारेगा वही भोजन पायेगा । जो श्रम करेगा उसे ही जीवन
में हँपी-खुदी शे मिलनेवाला आन प्राप्त हो सकेगा । जा पहले शपने-
झ्रापकों श्रम से 4का डालता है, उसीको पीछे श्रा्मोद-प्रमोद का सव्चां
स्वाद मिलता हैं। जिनके हाथ हैं, ये ही तरह तरह से मौज करते ग्रौर हसते-
खेलते हैं। इस प्रकार का घरेलू जीबन-सत्य पाणिवाद के मूल मे छिपा हुश्ना
है | इसमे सदेह भही कि प्राचीन काल का भारतपयप कम की रीढ के बल पर
सीधा खड़ा हुआ था| जबसे हमारा वम ढीला पड़ा, हमारी रीढ मु
आई झौर जीवन को स्वच्छ पद्धति में गड़बंडी उत्पन्न होगई ) जो हाथो से'
काम करता है, बहु किसीसे भिक्षा वही मांगता । बहू ऊचे स्वर से कहता
है--जीवन में जो जाभ मे पाऊ वह अ्भिमान के साथ मुझे मिले, भिक्षा या
दीनता से नही

सर्च लाभा तामिसाना हृति सत्यवती श्रुति । (शात्तिपर्व १८०११०

ययाति ने अ्पते जीवन के प्रनुभय का निघोढ बताते हुए यहातक
कह डाला था कि भुभे; नह वस्तु नहीं चाहिए जिसके लिए मेने कम ने
किया हो

श्रहु तु ताभिगुह्वामि यह्कृत मे मया पुरा। (मत्ह्यपुराण, ४२११)

बुद्धियवक कम ही नर जीवन की प्रतिष्ठा भ्र्थात्‌ खडे होने की नीव
है। प्रज्ञा था बृद्धि को परम लाभ कहा गया है

प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूताना प्रजालाभ परो भत । (शातिपब, १८०२)


एक ओर पुद्धि और दूसरी ओर कृप--इन दोसों फा भेल सफलता
के लिए परम प्रावश्यक है। इसीलिए महाभारत की कहानी है कि जब धन
से गवित किसी वंश्य-पुत्र मे एक ऋषिपुत्र का अ्रनादर किया तो बहु ऋषि-
पुत्र निधन होने के कारण मरने के लिए तयार हो गया
मरिष्याग्पधनस्मेहजीवितार्थों न विश्वते !
उसी प्तमय इद्र ते भेष बदलकर उसके सामने भाकर उसे पाणिवाद
का उपदेश दिया


७६ कल्पवक्ष


ने पाणिलाभादधिकों लाभ कंचन घिद्यते ।


"हाथों के होने से बढ़कर भ्ौर कोई लाभ नहीं है।” जब यह पाप्ति
तुशह्वारे पास है तत्र दीन मत बनो | इसी एक लाभ का उचित उपयोग करके
तुम स्वाभिमान की रक्षा कर सकते हो | स्वाभिमान के साथ जब तुम अ्रपते
हाथा का उपयाग करोगे तभी वेद की यह सत्यवत्ती शुति तम्हारे जीवन में
पूरी उत्तरेगों कि जो ताभ है वह व्यक्तित' का मान रखकर मिल्लता
चाहिए---

सर्वे शाभा साभिमाना इ्रत्ति सत्यवती श्रुत्ति ।


भाग के फोटो फी उख्ाइसे के लिए हाथो के उपग्रीच की प्राकश्यकता
है | जो पाशिमत हु वे भाग को निःकंटक बनाते हुए ग्रपवा राष्ता साफ
करते चलते ६) धाणिलाभ की यह प्रशस़ा पम की प्रशता है, और कम की
प्रशसा मतुप्य जीवन के सच्चे गोरव को पहचान लेना है । वुद्धि-पृवक किया
हुआ कम ही सच्चा है। बुद्धि और कप्त जीवनहूपी रब के दो पहिये हूं
दोनो की सहायता से जीवत' का रथ प्रागे बढ़ता है। भश्रतएवं ध्यास ने
इन दीतो को ही परमजलाभ कहा है |

ग्राज हमे श्रपते कम को प्म्भालते की बडी ग्रावश्यकता है। सबके
आगे कत्तब्यो के नये भ्रध्यायथ खुल रहे हूं। उत कत्तत्यो को हम पहचानें
और पुरा करें। यही हरेक के सम्मुख चलते का माग है। श्रपते अ्रपने स्थात
१९ खड़े हुए हरेक को कत्तव्य कर्म के विषय में प्रइन करना चाहिए और
उम्रका स्पष्ट, निश्चित उत्तर प्राप्त करता चाहिए |


११
बैदिक दशन


ब्रेदिक युग में विचारों के गरड ज्ञान के भ्राकाश मेँ बहुत ऊचे उड़े !
यह ज्ञात का सच्च प्रभात था, उसकी उधर कालीत 'रहिप्गों से सफूति पाकर
मन के वनतेय ने प्रचणड छक्ति के साथ अपने पल्ल फडफड़ाये। पृथित्री और


वैदिक दर्न ७8


थ लोक के भरत त अत्तरात में ज्ञान धुतण नें अपने लिए जितता प्रदेश
तापा वह्दी प्तस्कृति के विस्तार का भूगोल निश्चित हुमा | परचिवी सृक्‍त
के ऋषि ने प्राथता की है कि पृथिवी हमारे लिए 'उछ लोक' की कत्पना
करे यह 'उश लोक या महात्‌ विद्वतार ज्ञान के श्राकाश्व में हरएक को
श्रपत्रे लिए बताता पडता है । बामन पुरुष विराट विचारों से ब्रिविक्रम
बनकर तीनो लोको को अपने चरणो से तापने का आयोजन करता है---
पस्थोदष त्रिएु विक्रमणेएु भ्रधिक्षियस्ति भुवनानि विश्वॉा--
“जिसके तीन विस्तृत चरण-थासो में त्रिभुवत्त समाया हुग्ना है --
इस दृष्टिकोण के अनुभव से ऋचाओो के बिद्वा। गायक विश्वास के साथ
ज्ञात के नये प्रदेश जीतने निकले, उनका प्रतिधा-चक्षु खुला, वैदिक मापा
म॑ कहे तो वह चक्षु फूलकर बाहुर की श्रोर प्राया और श्रद्तसेच के प्रहव
वी तरह उस चक्षु ने स्वच्छ द विवरण किया, विशाल गति से छयावा-
पथिवी समस्तलोक और दिश्लाशों झा उसने चक्कर लगाया---
परि थाबा पृथिवी सद्य इत्वा
परि लोकाम्‌ परि दिल्व परि स्व


इसीसे जात का अशइवमेव पूर्ण हुआ | भारतीय दद्ात का उपकाव

पा वैदिक दक्षत ज्ञान के मेध्य अश्व का घर है--
उषा ब सेध्यस्य॑ अ्श्वस्प शिर ।

वंदिक दशन में जो महिमा या वरिष्ठ-भाव है, वह अन्यत दर्लभ है |
ऋणवेद में एक सुदर शब्द का प्रयोग हुआ है-+भहयाय्य, जिसका अथ
है वह कांय जो बडाई के योग्य है। हम कह सकते हूँ कि सस्क्ृति की पौ
फटने के समय उसकी प्रथम ब्युष्टि या प्रभात में ऋषियों में शातारित का
जो समिन्धव किया, वहु एक महयाय्य कम थां, जिसके उचित मूत्य
आकते भौर प्रशासा करने का ग्रनुकूल समय शब आया है।

दूरगम विन्वरण के थोग्य बनने के लिए मन को सवप्रयम अपना ही
सस्कार करने की आवश्यकता होती है। ध्यान की प्रक्रिया से मत का
यस्त्र बलवान बताया जाता है। ध्यात ही समाधि है। धुजते भन उत युख्जजते
धिय ' का संत्य सुध्टि का संत्व है। धी--यूजन द्वारा मनुप्य जडजगत


जद कह्प्व॒क्ष


से अपने-श्रापकों ऊपर उठाता है। 'वीमहि वैदिक दशतन का भनियामकक
सूत्र है। थी युजन प्रौर धी-प्रेरण इन दो चक्रो से वंदिक दर्शन का रथ
गतिभाम हुआ | विश्व की विचार-शवित के तियच्ता ने मनुष्य को धी
प्रदात की है और वह उस धी था बुद्धि को प्रेरित करता है। हमे उचित
हैं कि उस थी को और निया की महिमा का चित्तन करने भौर सम भने
के लिए प्रयुक्त करे, यही घी-युजत के लिए पवित्रतम कत्तव्य है। थी-
प्ररण देवों का काय है शोर घी-युजन' भातुभी कर्म है ।

मत ही करपव॒क्ष है। इंसका कत्प शब्द चिन्तन वा ध्यान का पर्याथ-
बाली हैं। ध्यात-हूपी करपव॒क्ष के तीचे ही भारतीय संस्कृति विकसित हुई
है | कल्प या चिस्तत दो प्रकार का होता है--समाधियुक्त या प्कल्प
श्रोर व्याधियुकत्त या विकहप | सम्यक्त दशन था सकश्ग को धेदिक दर्शन
ग्रौरसस्कृति में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ | प्रत्येक व्यक्ति के मस्तक पर विचार
या घिन्तन की चिन्तामणि और वक्षस्थल पर दृढ़ सकल्प की कौस्तुभमणि
सज्ोभित हो, पही शक्ति की पृणता है। वैदिक दर्शन का विचार करते
समय पहले उस दहन के स्रष्ठा हमारे सामने श्राते हैं, जिन्हें कवि
ओर ऋषि वहा गया है | कवि ऋातिदर्णी होते हूं। ऋषि भी साक्षात्तु
दशन को सामथ्य से युबत होते हैं । बैदिक दर्शत शव से इति तक तत्व
को साक्षात्‌ करने का बलवात्‌ प्रयत्त है। वहू केवल बुद्धि का कुतृहल
नहीं है। उसके क्षेत्र में प्राण सत्य को झधिकृत करते की रादकत जरेष्टा
करता है, उस प्रयत्न मे सफल होकर ही उसे शान्ति प्राप्त होती है। सत्य
का जबतक प्रनुभव नदी होता तबतक प्राण अपने संतुलन को आरप्त नहीं
कर पाता ।

इस दृष्टि से वैदिक दश्त को स्वय भ्पनी स्थिति और पृद्धि के लिए
सपोमयी णीवन प्रणाज्ी का श्राविष्कार करना पड्ठा | जबतक तप के
द्वारा शक्ति उध्वस्थित वही होती, तबतक ग्रमृत-सृष्टि श्रसम्भव है, वैदिक
बाड़ भय में अतेक स्थावो पर तप और तपोमय जीवत का निरूपण मिलता
है। तप वैदिक सस्कति का मेर्वण्ड हैं। वैदिक दशन के अनुसार स्वय
प्रजापत्ति ने विश्व की रचमा के लिए तप किया, उसके समिद्ध तप से ऋत
गौर प्षत्म उत्पन्न हुए जो सृष्टि के नियामक हैं | विदव में जीवन' की तीन


वैदिक दर्षानि ७९


कोटिया हुं--दैवी, मानुपी और श्राधुरी | दंवी सृष्टि तप पर झाप्मित है,
मध्य में स्थित गनुष्य तप द्वारा ऊपर उठता है शौर तप के बिना नीचे
भ्रासुरी लोकों मे गिरता है। इस प्रकार जीवन की झनिवाय आवश्यकता
के रूप में बेदिक द्ृष्ठाओ ने तप के रहस्य का भ्राविष्कार किया |
वैदिक दशन अत्य"त विस्तृत ईक्षण का परिणाम है । ब्राह्मण ग्रन्थी
ने मूलतत्व की भ्रतन्तता से प्रभावित होकर स्वय 'प्रतच्ता वे वेदा कह-
कर प्रपने क्षेत्र का परिचय दिया है | इसको एक छोटे उपाणज्यान द्वारा
स्पप्ट किया गया है--
भरहाज ऋषि ने जन्मपयत तप किया | दूस्तरा शरीर मिलते पर फिर
तप किया । तीसरे क्षरीर मे भी वह तप करने लगे। उनके तीन जन्स के तप
को देखकर इन्द्र ते सामने प्रकट होकर पुछा--/भरद्वाज, क्या कर रहे हो? ”
उत्तर मिला-“दिदाध्ययत्त के लिए तप कर रहा हू ।/ इंद्र मे फिर प्रशंत' किया-
“तुम्हें यदि एक जन्म भौर मिले तो क्या करोगे ?/ भरद्वाण ने कहा-+-
“/हसी प्रकार तप करूगा |” इस समय भरद्वाज के सामने तीन पर्वत
प्रकट हुए | इच्ध मे उनमें से एक-एक मुदठी भरकर फैकते हुए कहा--
#भरदाज, ये पवत देखते हो | वेद इन्हीकी' तरह प्नन्‍्त हैं ।”
ग्रतत्तता के भाव ने वदिक विश्वार-धारा को बहुत प्रभावित किया है,
वैदिक विचारक शरीर के वामन-भाव या सीमा-भाष को सहत नहीं कर
सकता, बहू परिधि का असहिष्णु है। घेरा डालना उसे भ्रच्छा नहीं लगता ।
कभी कभी ऐसा मालूम होता है कि वह सब बन्धनों को तोड़, उडकर
विराद विश्व में मिल्ष जाना चाहता है। उसका उद्गार है--


इृष्णस्तिषाण, प्रमु मे द्ृषाण
स्व लोक से दृषाण---


“मेरे लिए यदि कुछ चाहते हो तो यह पराह्दो कि वह लोक भेरे वक्ष
मे आाजाय ध्रौर सारा शुवत् ही गुमे। मिल जाय

अनन्त को अनेक रूपो और प्रतीको से प्रकट करने का प्रयत्न वैदिक
दर्शन की विशेषता है | विष्णु के निविक्रा रूप की कल्पता अ्रनत्तता की
हो व्याख्या है । वामत या परिभित तत्त्व विरादभाव में फैलता है, यही


79 कंेपपक्ष


चिविन्रम का तातपय है | देश के अतिरिक्त काल भी ग्रन'त हैं, काल का
चक्रवत परिभ्रमण श्न तकाल को कहने का ही एक ढग है। विश्व का
प्रवाह सबेत्मर या काल की गति, अहोराति का परिवतन--श सब चक्-
गति के उदाहरण हूं | सूय का रथ भी एक सततंगामी चक्र पर घृमता है।
काल की ग्रन तता का बणन सहख देवयुगा की गणागा पत्मनति से जाता जा
सकता हे ! ऋग्वेद का सहस्न-शीष! पुरुष शन'त ब्रह्म का ही दूसरा पर्थाय
है। बेदी में भ्रगत भाव के लिए सह्ख दबद श्रौर सात के लिए 'शर्ता
शब्द श्राता है | सुप्टि के बाहर जो बच रहता है वह शेप हे । शेष अन्त है ।
जो सृप्टि--परिच्छिन्न है, वह विष्णु है। विष्णु श्रनत (सहसशीर्षा) के
भाधार से स्थित हें-- इस कल्पना या मूल' ' सहृत्नशीर्षा पुरुष / सूकत है ।
सहल्तशीर्पा पुरुष की दूप्तरी स्ज्ञा निपाद्‌ का ऊध्व हैं। जो सब्टि से ऊपर
था बाहर रहता है बही ऊष्य है। झमुत्त ब्रह्म ऊध्व भौर मत्य जगत्‌ अध

कहलाता है। त्रिपाद ब्रह्म के एक पाद से ही यह जगत निर्मित होता है---

त्रिपादृध्व॑सुदेशपुरष पादो3स्पेहा भवत्पुत ।


विराट जगतू और विराट में पुरुथ की कह्पता यहु वैदिक देश वा
रोचक यूत्र है! प्रजापति ते भ्रपने शरीर से ही यह सृष्टि-यज्ञ रचा है,
हसे बनाकर वह रवय इसमें रम रहा है---


त/सृष्टवा तवेवानुभाविदात्‌ ।


इसी कारण इस सृष्टि मे सर्वत्र चैतत्य की सत्ता है श्लौर इसमे प्रैण-
भाव श्रौर भतत का अ्रधिष्ठान है। महाचतन्य सत्तत अपने-भापको जड के द्वारा
व्यवत कर रहा है | यही उसका रास है। विराद और पुरुष को ही मसौ
प्रौर भ्रय कहा जाता है। जो शसौ है वही भ्रय है। बदिक दशत ब्रह्माण्ड
श्रौर पिण्ड की एकता को स्वीकार फरता है। जो यज्ञ विरादू विश्व में हो
रहा है वही एक पिण्ड मे भी विद्यमान है। प्रत्येक के प्र उस विराट यज्ञ
वी बेदी बनी हुई है। 'सर्त सतेत्न सर्वदा सून चेतय की सब काल प्ौर सब
स्थानों मे भ्रव्याहत सत्ता को प्रकट करता है। यज्ञ वैदिक दर्शन का प्रयोगा-


विधिये, 'लोभदा' पृष्ठ ६७


बेदिक दर्डात दर


स्मक विज्ञान है। वध यज्ष से विरादु यज्ञ की व्याख्या की जाती है ।
अधिदव को श्रध्यात्म में वेखना वैदिक कमकाड की बडी विद्योपता है ।
वैदिक भर्ती में अधिदेव भौर प्रध्यात्म श्रथ साथ साय चलते है । इस दर्शन
से झपने लिए एक ऐसी परिपण भापा का निर्माण किया, जहा की परि-
भाषाए एक ही साथ कई क्षेत्रो मे काम देती हूं । यहु उप्त भापा का तेज
है, पर इससे श्रथ मे भ्रनास्था नही श्राती । जो उस दृष्टिकोश को देख
सकता है उसे अथ-गत्ति के कई समानातर विकप्तित होते हुए प्रकार
स्पष्ट दिलाई पड़ते हुं। बंदिक भाषा की इस सभानाततर झोत्क शकित
ने उस साहित्य को बडी पमृद्धि प्रदान की है।

यबिक दशन की एक विद्येषता यह है कि वहा इदेमित्थ' का अश्रभिनिवेश्
नही पाया जाता | कवियों' के हृदय तरगित होते हूं, वे किसी प्रकार जडी-
भूत चिन्तन का मपण नही करते | पथराये हुए विचारो का उद्गिरणु उतको
प्रिय नही है । वे बराबर साक्षात्‌ रूप में सत्य के साथ टवकर लेसे का प्रयत्न
करते हैं| ऋगेद का कितना सुदर कथन है कि ज्ञान के अधिष्ठात देवता
की जो पुनिया है, वे न तो बित्कुत़ वस्नो से ढकी हैं ग्रौए त बिहकुल नग्न हैं--

दिवो यह्दी रचसता श्रमरता (ऋ० ३॥१।६)


जो गुझ प्षत्य है उसकी रघ्मिया त तो एकदम चाक्षुप दिपय की
तरह प्रकट हूं भौर न वे इस तरह तिरोहित हूं कि कोई उनन्‍त्तक पहुच दी
न सके । मूल्तत्व की इस विषोपता से अर्थाचीत विज्ञान को भी पाला
पडा हूँ शौर उसके चिन्तन की इली 'दो-और दो चार' ज॑से ध्रुव सत्य
पर इस समय शधिचल नही है। प्तशय भौर दविधिधा की छाया वैश्ञामिक
विचारों पर पड चुकी हैं, परतु ऋग्वेद के उस आदि युग में साहसी मत-
स्त्रियो' मे यहातक कह डाला था कि मनुष्य की तो सामथ्य ही क्या, इस
सृष्टि का जो अध्यक्ष है, वहु भी स्वय इसके मर्म झौर इसके तत्व को
निशचरधएुवक जानता है या नही, यहू कहना कठिन है---

थो अ्रस्थाध्यक्ष परमे व्योस्तन्‌ू स श्र वेद यथि वा ने बेद ।

बहु जानता हैँ, पर कया सचमुच्त बहू भी जातता है ? (सश्नग बेद

गविवा न वेद) इस प्रकार धदि वा फी इस ध्वन्ति मजो सच्चाई और साहस
5


झरे पह्पवद्षें


निहित है, वही वदिक दशन का झाकर्षक सौ दय है । मेधावी भैटरलिक
ने नासदीय सूकत के प्रभावक्षाली उदगारों के सम्बन्ध में अपनी पुस्तक
भहान्‌ रहस्य मे लिखा है--

“पा भानवी साहित्य मे ऐसे शब्द ह जो नासदीय सुकत के इन शब्दों
से शक उदात्त, श्रधिक विपादपूण, अधिक तेजस्वी, अ्रधिक अद्भामय
झौर साथ ही इनसे ग्रधिक डरावने हा ” जीवत प्रवाह के आरम्भ मे ही
इस देश में इस प्रकार पूर्ण रीति से मरुप्य ने अपती श्रज्ञता वो स्वीवार
किया | सहस्नो व से बहनेवातं हमारे गश्भीर संशय ओर सत देहो वी
परिधि बया कही इतनी विज्ञाल बन सकी हूँ, जितनी यहा हे ? श्रबतक॑
जो कुछ इस द्विशा में वहा जा सका हैं उत्त सबको फीका कर देनेवाले
हमारे मे उप कालीय वाक्य हूं। और कही ऐसा ते हो कि जटिल सम्नदतों के
पथ पर चलते हुए हम भविष्य मे निराद हो बंटें, इसलिए गासदीय सूयत के
ऋषि में सश्यवाद के मांग से तिभयताएृबक उससे भी कही अधिक बहु
डाला है, जितना हम भविष्य से कभी कह पायगे | वह इस भ्रहत के पुछने
में भी नहीं हिवकियाता कि ब्रह्म को भी इस सृष्टि का या अपने किये
का ज्ञान है भ्रथवा भही ।” स्रष्टि की जो बडी पहली है, जिसे वैदिक भापा
में महान संप्रइन बहा गया हूँ, उस सप्रपन के शाथ सीग पकड़कर टक्कर
लेने वा प्रथत्त करते हुए बंदिक मतीपियों को कहना पडा--

"त्॑ सत्‌ था, ते भ्रसत्‌ था, ने कहीं भ्रस्तरिक्ष था, ते उससे परे
व्योम । कोन कहा गलिभाभ्‌ था, किप्तकी क्सिको शरण थी ” जल और
गभीर सागर उस समय क्‍या थे ?

/त उच्त समय मृत्यु थी, न प्रमृत । रात और दिप' का विधेक कहा
था * केवल बही एक वायु के बिता अपती दाबित से प्राशान-क्रिया कर
रहा था । उसके भअतिरिवत कुछ न॑ था ।

“सब प्रथम उसमे 'काम' उत्नन्न हुआ, जो सन का अंग्रिम रेत हैँ।
शान से भरपूर विप्रो ने अपने ही भ्न्तस्तन म॑ खोजते हुए संत के बन्धुओ
को शभ्रस्नत्‌ में पाया।

"कोन जानता हैं? कौन कह सकता हैं? कह से यहू सृष्टि उत्पन्न हुई?
देवता भी इसके णश्म के बाद हुए,तो फिर कौन जाते यह कहा से विकसित हुई?


वदिक दशन ५३


“यह सष्ट कहा ते पीली ? यह जन्मी भी है या तही ” परम व्योम मे
इसका जो भध्यक्ष है, वही इसे जानता है, पर वह भी जानता है या नही
इस सक्‍त में हृदय को जो जिज्ञासा भौर प्रबल मतीपा है, बहु संमस्ते
भारतीय दशन की जिज्ञाना को मानो एक ही के द्र-बि'दु १२ प्रकृद कर रही
है। सुष्टि के गरिष्ठ प्रहन के समाधान की भ्सफलता को इस प्रकार साहूस
के साथ स्वीकार करके सत्य के जिन्नासुग्रों ने विश्व-दशन के तोरण पर
विवार-स्वतल्तता के श्रक लिखकर उसका महान उपकार किया है ।
वविक सप्रदन का ही बूप्तरा पक्ष है--


एक सद्दिप्रा बहुधा वर्दान्त (० १॥१६४४६)


चित्तवान ज्ञानियों की सुप्टि-विषयक बहुविध मीसासा ही अनेक
ठदो के द्वारा प्रकट नी गई है। 'वहुधा' के चक्षुतों को अपने प्रागण मे
स्‍्थाव देकर दशान शास्त्र ने अ्रपने क्षेत्र को बहुत ही विज्ञाल बना लिया।
वेद का यह दृष्टिकोण समस्त भारतीय दर्शन के लिए श्र॒म्मनत वी तरह
फत्याणुकारी सिद्ध हुआ | समरत जाति की विचार-धारा में इसने सहिष्णुत्ता
की छाप लगा दी। सहिष्णुता विश्व का सवश्नेष्य धम है। संहिष्णु
राष्ट के लिए ही ससार का भविष्य सुरक्षित है। जिनकी पताकाग्रा पर
'एक सद्िप्रा बहुधा बर्दा ति' की उदार घोपरा है, वे ही झरण्य में उगतेबाले
बक्षों की तरह स्वय पन्रप सकते हैँ एवं भ्रौरो को जीवित रहने का अ्रवकाश
प्रदान कर सकते हूं | ;

असत और सत्‌, अमृत और मृत्यु, देव और असुर, इस प्रकार के हन्द
वँदिक दद्वत की मागों खूटिया हैँ, जिनपर विदारों के छीके टगे हुए हैं ।
शप्ठि का द्वद्व और भी पअ्रनेक शब्दी में प्रकट हुआ है।
प्रहो-रात्र, दावा पृथ्वी, शुक्ल फप्ण एसी द्वाद्न के रूपाच्तर हूं । झात और
सत्य, भ्राभु गौर प्रम्व, (संत तत्व भौर जगत्‌) ताम और रूप मे दान वा


' झ्राभवति इति श्राभू, जो सब शोर व्याप्त है, भ्र्थात ब्रह्म तत्त्व । भृत्वा
ते भवितति हृति अञ्व, शर्थात जो होकर भी न रहे वह श्रभ्व है, श्र्थात
जगते। ये दोनों वाग्द मासदीय सुक्त के है ।


स्व कल्पत्नक्ष


पह्ठी द6 है । इस प्रकार द्वत्व के द्वारा विचार के सतुलत के सभालने की
पद्धति वेदकाल से ही भारतीय दशन में प्रारम्स हुई। इस शिन्‍्त-भिन
ख्यातियों गे से किसी एक पर विशेष बल देने के कारण भ्रभेक वाशनिक
म्तवादी का जम हुआ, किंप्तु विवेचभा की भूल पद्धति का शेय वंदिक
दान को ही है ।
इन बहुधा मीमास्ाओ्नो का एक दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है। वि तन

की बहुविधाता ज्ञात को भ्रनेक हुकडों मं ब्राटकर च्‌र-चूर न करदे, इस-
लिए ज्ञान के ब्राह्म गहुत गे ही एक रक्षा-सूत्र का श्राविर्भाव हुआा
कि ब्रह्मतत्व कैवल एक और ग्रद्ठितीय है. (एकमेवाह्वितीयम्‌)। एकत्व
के प्रतिपादन और बहुत्व के निराकरण मे साहित्यिक शैली का श्ाश्ग
लेते हुए ऋषि ने गाया--

देव एक श्रोर केवल एक ही है ।

उसमें वूसरा, तीसरा, घौथा नही ।

पाचवां, छठा, सातवा भी कहा जाता नही ।

प्राठबा, तवा, वसभा भी कहूं सकते नहीं ॥'


ब्रह्म की एकता से प्रभावित, ऋषि की वाणी का तेज यहातक बढ़ा

कि अ्र'त्त में वेवल 'एक, एक, एक यही शब्द उसके मुख्त से तिकलने लगा।
एप एक , एक दूव्‌, एक एबं

वैदिक दक्षव मे चिश्व के रोम-रोम्‌ में श्ोत-प्रोत सचालक चवित और

उसके मियमो पर विदोष बल बिया गया है | ये निथम दूर्धर्भ और भ्रस्ड

माने गग्रे हैं। इनका पारिभाषिक साम 'कत' है। ऋत वृहत्‌ धौर उग्र कहा

गया है। ब्रह्माण्ड मे दूर-से दूर, एवं तिकट से-निकट के सब पदाभ ऋत के


* ये एतदेवमेकन्नत वेद ।
त द्वितीयों न तुतीयबचतुर्था नाप्युत्यते ।
ने पच्रमों त ष०्ठ तप्तमों नाप्युच्यते ।
साष्टसो ने नवभों दहासो नाप्युच्यते ।


(प्रधवं० १३। १। १५-१६)


ब्रेदिक बशत


भ्रधीत हूँ। हमारी पुथिवी से कोटानुकोटि प्रकाक्ष वर्षों, की दूरी पर स्थित
ब्रह्म -हुदय नामक नक्षत्र भौर इस क्षुद्र पुथिवी को एकत! के सूत्र में बाधने-
वाला ऋत है) राम-चरित-मातस' का एक सु दर उपार्यान ऋत की अज एड
व्यापकता को बताता है---

“राम से बचने के लिए गएडजी भ्रतेक ब्रह्म ण्डी का खबक्‍कर काटते हूं,
पर सब जगह राम की भुजा उनका पीछा करती है

यह समस्त लोको में एक भ्रसण्ड नियम की व्याप्ति को ही इग्रित करता
है । बंदिक गत यह है कि ब्रह्म ने भ्रपने मन की शक्ति से ऋत के ततु का
वितान या भाषन किया है--

आऋतत्य तच्तु सनसा सिमान । (शझ्रथव० १३॥४)६ )


ऋत का त्त तु बहुण की माया से सन वित्त है। भी र अपनी प्रज्ञा के
बल से इसतक पहुचत हैं । ऋत के ध्यान से पाप-भाव तप्ट होते हू । ऋत
के गान से बहुरे काल खुल जाते हुं। पुथिवी भ्ौर भ्राकाश के बीच का भारी
प्रस्तराल ऋत से भरा हुआ है। तहत की नींव अत्यन्त दृढ़ है ।
ऋतस्य दुष्ला धरणाति सब्ति, (ऋ० ४२३६)


ऋत को जानना, कत की रक्षा करता भौर कत के अनुसार ऋजु भाव
से जीवन व्यतीत करता, यह ज्ञान का ऊचा ग्रादश है। 'ऋतज्ञ और
'ऋतस्पति' व्यक्ति वैदिक आ्रादश के ग्रतुसार अत्यन्त सम्मातित समके गये
हैं। कत 'क-ततो, धातु से बना है। विश्व के सत्य के अनुसार णो गति
है बही ऋत है। पृथिवी और सू्, ग्रह और नक्षत्र प्रत्यक के लिए एक
ऋत तियत है। ऋत के माग पर चलते हुए बे न डरते हैं और ने
लदखडाते हूँ---
ने व्िभीतों न रिष्यतत
ऋत के साथ गति भाव का विशेष सम्बन्ध है| वैदिक भाषा भ्रोर विक्षार-
पद्धति दीनो में गति-सच रण, विक्रणण का भाव साधा रख रूप से पाया जाता
है। गत्यभक धातुओं की विशेष सरपा उस युग की न्िज्नी विशेपता हैं ।
सम्भवत्त उष कालीन प्राण के युग मे ऐसा होता स्वाभाविक ही है | तत्व के
प्ताथ साक्षात्‌ टक्कर लेने का प्रयत्त प्राणवान्‌ ददन की विशेषता होती है।


६ कत्पवक्षे


कही पेतुस्तर, सेतत्तर, सेत॒स्तर, के सामगान मे जीवंत की प्रभ्नति थे लिए
पराक्रमशील भाव व्यक्त क्यें गए हूं, कही तरत्स भदी धावति' के गांव
मे जीवन का बेग प्रकट हो रहा है, आन द से भरा हुआ हृदय मानों तेरा
हुआ भागे दौड़ रहा है, कही इस पार से उस पार कृदकर तत्त्व तक पहुंच
जाने की स्कष्दमयी प्रवत्ति है, कही काल छपी अश्व पर आरोहरा करके
उच्चतम जीवत की श्रीर बढ जाते का भाव है झौर कही लोक और १रलोक
के राभी ऋण बर्धनों से उक्कशण होकर पितयान भ्रौर देवयान के लम्बे मार्गा
को इसी जीवन में पार कर लेने का सक्तप है। वदिक जीवन शवितिमत्ता
केः शादवा वी उपासना करता है| शाववरी मन यह कहते हूं कि हम जीवत्त'
मे जितता कर सकते हूं चही सबकुछ है । वे बल विचार जीवन के लिए पर्याप्त
नहीं हूं। उन विचारों के भ्रनुसार कम कर सकता सफलता की क्तौटी है।
विचारो से कतराकर निकल जानेवालि उनसे कभी उऋशा नही हो सकते ।
बिचारो के साथ जूमनेवाले ही उनके साथ त्थाय कर सकते हैं, इस प्रकार
का दृष्टिकोण वैदिक दश्न के बहुत निकट है। बंदिक जीवन इसी प्रकार
के क्म्ण्य ग्रौर जुकाऊ भावों से अनुप्राशित हुआ था ।

वैदिक थुग ने समस्त भा रतीय दरशत के लिए विकास का माग निर्धारित
कर दिया । उस दछ्यत्त के तिर्माता सच्चे श्रर्थों में हमारी सस्कति का सांग
बनानेवालें ऋषि थे जिन्हे वेदिक भाषा में १ैथिकृत' कहा गया। ज्ञान के
पृवकालीत परिकृतों को प्रणाम करता पिंदव-यामान्य धरम है---


इद नस ऋषिध्य पृवजेभ्य एुवेंप्य प्रथिक्दृर्य

(ऋ्० १०११४१५) ।
प्रवकाल के पूर्व॑ज ऋषियो को प्रणाम हो, शिन्‍्होने शान के भ्ररण्य

से नई परगंडण्डियों का निर्माण किया ।
बेदिक दशव और शभ्राय दबनों में साहित्यिक ध्रती की दृष्टि से एक
महत्वप्रण भ्रन्तर है। बाद के युग में दाशनिक विचारों को काठ छाटकर
कम भ्रौर व्यवस्था के साथ सजाया गया है। बह एक बाटिका की तरह है।
उसके तैयार करने में वहा परिश्रम करना पडा होगा | बादिका में क्यारिय्रा
मलग-प्रलग विभकत, और उपके पौधों का चुनाव भी प्रतग ग्रलग रहता है,


बेदिक परिभाषा में शरीर की पन्ताए ५७


किस्तु बैंदिक दशन कत्िियों को रचता है, उनकी कविता का झोजागमान
प्रवाह बर्षाफालीन भमावातो के साथ झाये हुये पज यो फी तरह बरसता
है श्रौर उससे हरेक दिशा मे बहिया-स्तो आई जान पड़ती है ।

ग्रम दश्षन बुद्धि के लिए भौर वैदिक दद्न हृदय के लिए है बुद्धि बिना
जल के भीतर पंठे प्रवाह की मीमासा कर सकती है अयवा' मधु का स्वाद
सखे बिना वहू मधु की ऊहापोंह करने की गअभ्यक्त है। परुतु हृदय तरगित
जप में तैरता औौर मधु का स्वाद चखना चाहता है। भ्न्‍्य दद्नो वी पद्धति
मनुष्य के चैतन्य के एक ग्रह्ञ का स्पदा करती है, वंदिक दशा उसके समग्र
हूप के साथ तप्मय होने का निम त ण देता है। भविष्य निएयय छप से वैदिक
दशन के हाथ है, बधोक्ति उतका सन्देश कविता के हारा कहा गया है। बुद्धि
से थके हुए मानव की भावी भाषा कविता ही होगी ।


१२
बेदिक परिभाषा में शरीर की संक्षाएं


वेद भारतीय ज्ञान' के भ्रक्षय कोष हूं । उनमे ऋतिदर्गी ऋषियों के
अध्यात्म शनुभवों का बहुत ही उत्कृष्ट काव्यम्प वणन पाया जाता है |
उस्त काव्य की परिभाषाएं श्रनेक उपासख्यान और सुन्दर रूपकालकारो
द्वारा प्रकट की गई हूं । शध्यात्म-ज्ञानी लोग प्राय सवत्र ही रहस्यपुर्ण
अ्रतुभवों को शब्दों में व्यक्त करते के लिए इसी विलक्षश व्यजनाप्रधान
इली का आश्रय लिया करते है । लौकिक काव्य के निर्माता सन्त कवियो से
भी शरीर को चादर, चर्खा, सरोवर गादि अतेक ताम देकर मनोहर छूपका
द्वारा उसका वणन किया है। कबीर ने अपने शअब्यात्म भश्रतुश्तदों को व्यक्त
करते हुए भिम्नलिखित भजन में इसी हॉली का अवलम्बन किया
था--

क्िमि क्िनि भीनी बीनी चदरियां १

पाठ कमल दस चरण़ा डोल पाच तत्त गुत तीनी चदरिया 0

साईं को लिय्त माह दस लागे छोक ठोक कर बीनी बदरिया ।


द्प कल्पवक्ष


सो चादर सुर मर-मुनि श्रोढ़ी भोढिक मेली की'ही चदरिया।

दास फबीर जतम सो श्ोडी ज्यो-की त्मो धर दीम्की चदरिया ॥

यहा शरीर का रूपक चादर की दृष्टि से बाधा गया है। यह देह
ए# बस्तर है, जिसके तिर्गाण में विधाता के बहुत बडे कौशल का परिचय
मिलता है । गीता प्रादि शासतों में भी इस मानवी देह की तुशना वनों
से की गई है। इस परिभाषा को गैक ने जानकर कबीर के उपर्थक्त' पद
का कोई भी ठीक शझ्रथ नहीं जाते सकता। उप्तके तथा शन्य कवियों की
संकडो परिभापात्यक शब्द इसी प्रकार के हू ।

वेद, ब्राह्मण और उपनिपषदों मे तो हत प्रकार के रुपक भीर भी
अधिवा सख््या मे पागे' जाते है। वहा परिभापाग्रों के प्रज्ञान से पर्था में
अहुत अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है। यही कारण है कि अनेक यूरोपीय
विहातू तथा उतके आय को गागकर खलनेवाले' भारतीय पण्डित भी
वदिक मंत्रों के वाह्तविक भ्रभिष्राय से कोसी दूर रहते हूं। उदाहरण यो लिए
क्षेत्र शब्द को ले सकते हूं। अध्यात्म-विद्या के ग्रथों मे '्षेत्र' शब्द शरीर
का पर्यायवाची माना जाता है। भगवबदभीता में इसी परिभापा को स्पष्ट
कर दिया है---


इृध्ष शरीर कौत्तेप क्षेत्रसित्यभिधोयते।
एव्ग्ो घेति त प्रह क्षेत्रश इति तद्विद ॥।
(अ० १३॥१)
प्रथाति--है शर्जुन, यह शरीर क्षेत्र कहलाता है । जो इसे जानते हैं,
उद्दे तत््ज्ञावी क्षेत्र कहते हूं । कं
ऋषियों मे ग्रतेक प्रकार से छदो मे इसी क्षेत्र-्वानज्ञ का गान किया है
भौर ब्रह्मसु्ो म भी हेतुवाद की दृष्टि से इसी विचार का निशवय किया
गया है ।
पश्चिवी झादि पाच स्थूत्न महाभत्त, भहका र, बुद्धि (महत्त्व) भ्रव्यकत
(प्रकृति), दस (सूक्ष्म) इंद्रिया भ्ौर एक मत्त, इऑ्रियो के पॉच विषय
इच्छा, हेप, सुस, दु ल, सघात, चेतना श्र्थात्‌ प्राएं व्यापार और धृत्ति,
इस समुदाय को सविकार क्षेत्र कहते हैं ।


बेविक परिभाषा में शरीर की संज्ञाएं ध६


इस प्रकार गीता शास्त्र ने युक्ति भ्रौर विश्तार से शरीर की क्षेत्र-
सज्ञा का निरूपण किया है। लोक्माध्य तिलक मे लिखा है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ
का यह विज्वार बस्तुत इससे भी बहुत पू्वकाल का था--अ्रहायसू न के दुसरे
प्रध्याय से, तीसरे पाद के पहले सोलह सूत्रो मे क्षेत्र वा विचार और फिर
उस पाद के भ्रत तक क्षेत्रज्ञ का विचार किया गया हैँ। ब्रह्मसूत्र मे यह
विचार है, इसलिए ४ है शारीरक यूत्र अर्थात्‌ शरीर या क्षेत्र का विचार
करनेवाले सूत्र भी कहते हं (गीता रहस्य पृ० ७५३) ।
वैदिक मना में भी क्षेत्र शब्द इस श्रध्यात्म ग्रथ मे प्रयुक्त हुप्ना है।
अथववेद मे कहा है---
स्‍्वे क्षेत्र ग्रममीवा विशण
ग्रवति--अपने क्षेत्र से श्रनामथ होकर रहो | यह क्षेत्र किसी भी
देहिक था प्रध्यात्म व्याधि से विलष्ट न हो। देहिक, देपिक, भौतिक ताप'
ही श्रमीव या व्याधिया हैं, जिवसे क्षेत्रज्ञ था प्राणी प्तप्त रहते हुं । तुलसी-
दासजी ने कहा है--
देहिक देविक भोतिक ताया।
शाम राध् नह काहुहि व्याप! ॥
इस व्याधि शू थ स्थिति को जब मनुष्य प्राप्त कर लेता है तभी वह
भ्रममीव क्षेत्र स समाधि की शोर अग्रसर होता है ।
एक अय स्थान पर कहा है---
दस्त क्षेत्रर्स पत्तिरसतु शाम्शु । प्रथव० १९॥१०।३१०
भ्रयति--हमारे क्षेत्र का स्वामी या क्षेत्रपति क्षम्तु या कत्यथाणुकर
हो। यह क्षेत्रपति क्षेत्रज्ञ ही है। नित्यप्रतिं सब मनुप्पो का यही शिव-
सकत्प होना चाहिए कि हमारा क्षेत्रपति द्म्भु हो भौर हमार। क्षेत्र
विरामय श्रौर तिविकार रहे।
ऋतबेद के एक भन्न में 'दोन्र' शब्द ग्रपने अ्व्यात्त प्रग मे॑ बहुत ही
स्पष्ठता के साथ प्रयुक्त हुआ है---
ग्रक्षेत्र विश्षेत्रविद ह्मप्राद
स प्रेत्ति क्षेत्र विदातुश्षिष्ट ।


६0 करारपवक्ष


एतहं. भव्नमन॒द्रासनस्थों
ते स्तुति विदत्यनसीमास (॥ म॑० १०१३२।७ ॥
शर्यातु--आक्षेत्र विद्‌ क्षेत्रतिद्‌ से अध्यात्म ज्ञत के प्रिपय में प्रश्त
करता है। वह ज्ञानी क्षेत्रश्न उस आरात्म-विद्या में उत्तका अनुशासन करता
है । उसका उपदेश दोनों के लिए कल्याणकारी होता है, जिससे स्वर
उनकी प्रश्नसा होती है ।
गीता का क्षेत्रज्ञ ही! ऋग्वेद का क्षेत्रविद है----
एतञ्ी वेत्ति त प्राहु क्षेत्र इति तद्विद ॥
बौद्ध ग्रथो मे ग्राया है कि भगवान्‌ बुद्ध ने भी एक बार भारदहाज
भ्राह्मणा से, जो खेती करता था, श्राध्याप्मिक कृपि का निकृपण किया
था | उम्ग्रे थद्धा बीज, तप वृष्टि भ्रौर प्रज्ञा हल है । काय-सयम, वाक्‌-
सयम भौर भ्राह्ूर-सयम क्ूपि क्षेत्र की मर्यावाएं हूं | पुरुषाय बल है, मत
जोत है । इस प्रकार की कपि से अमृतत्त्व का फल मिलता है --
एबग्ेद्ा कसी कंदुठा सा होति भ्रमतप्फला ।
एत कसी कसित्वात सब्ब दुषापसुच्यति ॥
पाणिति के 'क्षेव्ियच््‌ परक्षेत्रे बिकितस्य ' (५१२॥६२) सूत्र मे पर-
क्षेत्र का भ्रथ जन्मान्तर या शरीरान्‍्तर लिया गया है। कालिदास प्रा्दि
कवियों मे भी क्षेत्र क्षब्द को प्रध्याता भ्रथ मे प्रयुवत' किया है--
योगितों य विभित्वात्ति क्षेत्राभ्यत्तर वतिसम्‌।
भ्रनावत्तितण. यर्य परदसाहुमनीषिण ॥
भ्रधवा--
परमक्षर क्षेत्रविदों विदुस्तसात्मातामत्मस्थवलो कपतम्‌ ( कुमारस भव ३१४० )
बंदिक साहित्य मे शरीर को एक सज्ञा रथ भी है। यजुबेद के मत्रो
मे देवरथ का वर्णन किया गया है---
इच्रस्य त्रन्‍्नों मत्तामरीक
मित्रत्य गर्भो वरुणत्य नाभि
सेमां नो हष्यवाति जुधाणों ।
देव रथ प्रतिहब्या गुभाय (१६॥५४)


वदिक परिभाषा में शरीर की सज्ञाएँ है


भर्थात्‌--है दिव्य रथ तुम इल्द्र के वज, मझ्दगश या प्राणी के मुख,
मित्र के गम और वरुण की नाभि हो । तुम प्रीतिपृवक हमारी हवियों को
स्वीकार करो । दूसरे मत्र में रध के झपक का और भी स्पंष्ठता से वणन है-


रथे तिष्ठन्नगति वाणिन पूरों
यत्र थत्र क्रामथते सुधारथि
अभीषता महिमान पत्रायत
मन पहचादनु यच्छरित रइसय ॥ (यजु० १९॥४३)


प्र्वात्‌--पुदर सारवि रथ मे बैठकर जहा जहा चाहता है, धोड़ो
को हाक ले जात है। उन बाग डोरो की महिमा को देखों मितकों झवहप-
वान्‌ भ्त प्रेरित कर रहा है|

मजुर्वेदीय कठोपतिपद्‌ से शरीर और रय के रूपगक की इस प्रकार
व्याह््या पाई जाती है---


झात्मान रथित विद्वि त़रीर रथमेव तु
बुद्धि तु सार्राथ विद्धि मत प्रग्रहमेव चल
इच्द्रियाणि हुयानाहुविधयास्तेषु गोबरावन्‌
झात्मेल्रिय मनीपुक्ष भोकतैत्याहुमसीषिण


ग्र्थार--श री २-हूपी रथ में झात्मा रथयी है, बुद्धि ध्वारथि है, भन
लगाम है, इ म्निया घोड़े और विषय उनके विचरने के मांग हैं । इप्निय भ्रौर
मत की सहायता से झात्मा भोग करनेबाला हे। जो श्रज्ञान्सम्पन्न हीकर
सकत्पवान्‌ मन से स्थिर इद्रियों को सुभाग मे प्रेरित करता है वही भाग
के अत तक पहुचता है, जहा से फिर भाने जाते का प्रपच्त॒ नहीं रहता ।
विज्ञानवात होने के लिए वेद के गब्दों म सदा यही शुभ कामना करनी
उचित है कि है इ द्र, सदा हमारे रबी, विजयशील होवे ।


प्रस्भाकमिल्द्र रधिनों जयन्तु


“रथ में बठनेवाला को कभी पराजय ने हो ।
इद्वियो के देवासुर-सग्राम मे उनवी विजय की दुबूभी बजती रहे ।
ग्रधववेद मे इस शरीर को देवपुरी कहा गया हें--


8२ कत्पवृक्ष


गप्टवका संवदारा देवाना प्रवोध्या
तस्था हिरण्पम् कोए स्वर्गा ज्योतिषाबत ।
अर्थात--यह दारीर धाठ चक्र और नो (इद्विम) द्वारो से युवत देव-
पुरों ्रवोध्या है । इसमे ज्योति से पूण स्वण का कोप (मस्त्रिष्क) है,
जिसे स्वर्ग कहते हैं |

भस्तिष्क को घट या रवग कहा गया है। वैदिक परिभाषा से सस्लिप्क
को पोभपुरित द्रोण कलश या अमृत कुम्भ कहा हैं। कालिदास ने सी मन
को धव द्वारा वाला कहा है--

भत्ती' नवद्वारमिविद्ध वृत्ति हृदि प्यवस्थाप्प समाविवश्यम ।

यमक्षर क्षेत्रविदों विदु्तमात्मानसाश्मास्य कलोकमतभ॥॥

भ्र्थातु--शिवजी नवो इंद्रिय-हारों से बाहर विंचरमेवाली वित्त-
बुत्तियों का निरोध करके समाधिवश्य मन की स्थिति से श्रक्षर ब्रह्म
का भात्मा में ही दशन कर रहें थे ।

इन नौ द्वारो मे एक और विदृति हर जोड़ देने से कही कहीपर
दस &रो की गणना की जाती हैं--

स एतमेत् सीमान विदायतया द्वारा प्रापग्रत
सैधा बिदुतिनाम हा (ऐ० 3० १।१३।१२)
भ्र्थातु-कपालो के उप्तर जो जोड है वही सीमा है। उस सीमा
को बिदीर्ण करके ग्रात्मा ने शरीर मे प्रवेश किया । इसीलिए वह द्वार
बिवृत्ति द्वार कहलाया |

जैमिनीय उपततिषद ब्राह्मण मे लिखा है---

त बागेसपृत्वार्ति प्राविशन्‍्मतोभृत्वा चंश्रमाइचक्षुश्त (बा55वित्य
इश्वोतम्भत्था विश्व प्राणों सुत्वा बाधयुं । एपा देंदी परिषद्‌, बेबो सभा,
*बवी सस्तत्‌। (जें० उ० २॥११।१२-१३)

(१) दवी परिपद्‌, (१) देवी सभा, (३) देवी सलद्‌ ।

क्योकि इसमे मिम्त देवताश्रो का वास है--

प्रश्ति-बाकू मुक्त
चद्रमा-मन. हुदय


वदिक्त परिभाषा में शरीर की सज्ञाए 8३


ग्रादिव--चश्षु ग्रक्षि
विशाए--श्रोन कण
वायु--प्राण भास्िका
ऐतरेय उपततियद के अनुसार इतने देवता और हँ--
ग्रोपधि वनस्पति--लोगप. त्वचा
मृत्यु--भ्पान नाभि
जल--रेत शिहन
इन देवताप्रो गौर उनके स्वाना की सज्ञा लोकपाल और लोक भी
है। समस्त देवो का वास-सवान मतुप्य के मस्तिष्क रूपी सकें में हे ।
भ्रथववेद के अनुसार मस्तिष्क का विलक्षश नाडी जाल श्रश्व॑प्व वक्ष है,
जिसपर देवों का वास है---


प्रदवत्थो वेवसदनस्तृतीयस्या मितो दिधि (भ्रथव० ६॥६५॥६)


मस्तिष्क ही स्वग या ज्योतिषाबृत द्ुुलोक है | पूृथिवी, अतरिक्ष और
दुलीक की गशता में गुलोक तीमरा है । उससे देवस्दतन शाइवस्थ है ।
जितनी ईइण़िया हूं, सबके सज्ञा केल्र मस्तिष्क मे ही हैं । उप्त अ्दवत्य के
प्रत्येक पत्ते पर देवो का वास है। मस्तिप्क मे सबने सज्ञान केरद्र ($0॥8-
0879 870 ॥70007 ०७॥0688) फंले हुए हूं ।
देवपुरी के साथ ही इस देह को ब्रह्मपुरी भी कहा गया है। प्रथ्ववेद
के ब्रह्म प्रकादी सुकत ( १०।२) में द्वरीर की रचना के भौर प्रध्यात्म शास्त्र
मे उसकी विविध परिभाषाश्रों का बहुत ही सुदर विवेचन है। एक मन्त भे
सिर की सज्ञा देवकोप है---
तद्ठा प्राथ्रण शिरो देवकोश समुब्नित |
तत्‌ प्राणों प्रभति रक्षतिशिरों अ््रसथों सन ॥ (१०।२१२७)


अथर्ति--इस देह से अरथर्वा-तिर्मित मस्तष्क-झूपी देवकोश है। भन,
प्राण, बाकू (अन्त) उप्तकी रक्षा करते हूं। मत, प्राण, वाक्‌, अधर्वा ये सब्र
भी वैदिक परिभाषाएं हूं, जिनके श्रथ का विस्तार दतपयादि ब्राह्मणों मे
पाया जाता है। सक्षेप में, मत अव्यय पुरुष, प्राण अक्षर पुरुष और थाक
आमअन्न क्षर पुरुष की सज्ञाए हेँ,जितका समत्वय मलुष्य-त्रेह मे पाया जाता है|


६४ कल्पब॒क्ष


इसी सूवत के भ्रन्य मत्र भी उत्लेख-योरय ह---
पुर थो ब्रह्मणो बेद यसया पुरुष उच्यते ॥२६॥
यो ध ता ब्रह्मणो वेदामृतेना घता पुशीम्‌।
तस्म ब्रह्म च आाह्ाइच चल्ष प्राण प्रजा दढु ॥१३॥
नव त् चक्षुजहाति न प्राणी जरस पुरा।
पुर थो ब्रह्मणो बेंद बस्था पुरुष उच्चते ॥॥ ३०१
प्राच्री-प्रतीची, दक्षिणोदीची, ऊर्ध्वा-शुवादिक जितनी दिशाए हुं,
सत्र पुरुष के भीतर ह,यह बद्यपुरी हैं इसमे वास करने के कारशा वह ब्रह्म
पुरुष (>पुरिषय) कहनजाता है। अमृत से घिरी हुई यह ब्रह्मपुरी है
(इस भत्य-पिण्ड को प्तब झोर से भ्रमृत ने व्याप्त कर रखा है) । जो इसे
जातता है, उसके चक्ष भ्रौर प्राणो की कभी हाति तही होती !


प्रधाजमाना हरिणी मत़सा सपरीवृताम॥
पुर हिरण्मपी ब्रह्माविषेशा पराजिताम ॥३३॥


प्र्धात्‌ू--चारो झोर जिसका यश्य वितत है, श्रतिशय भ्राजमान भर
तेज्ञोमय जो पुरी है, उस अ्पराजिता नगरी मे ब्रह्म ने प्रवेश किया है ।

इत अलकार-प्रधान वणतो के झभ्यतर में भारतीय अध्यात्म ज्ञान मी
रहस्य छिपे हुए हैं। साहित्य मे रहुस्य-बणन की शली का पुराकाल से
ऐतिहासिक अन्वेषण करने के लिए इत वैदिक परिभापाप्रों का ज्ञात प्रमा-
बह्यक है, क्योंकि परवर्ती कवियों ने हम परम्पंशग्री का अपने काव्यों मे
सत्निवेश किया है | भ्रध्यात्म कवियों की काव्य-परिपाटी को सहृदयता के
साथ समभने के लिए यह आवश्यक है कि हम स्थूल वर्णती के भूल मे
निहित परोक्ष श्र्थों को यथाथ रीति से जाने | ध्रुव क्षोक, कलास, मासस रो-
वर, गगा-यमुन्ा, चिकुटी संगम, हस, षटकमल, मेरे, गगन-मण्डल, तीत
लोक, सप्त सागर भावि भ्गेक शब्दों का स्वच्छाद प्रयोग हिंदी के ग्रध्यात्म:
प्रधान का ब्य-गथों मे अ्रनेक बार किया गया है। यदि हम इन शब्दो के स्थूल
भ्रथों को ग्रहण करने का श्राग्रह करे तो कवि वा रहस्य भ्रथ कभी नहीं
मालूम हो सकता और न कविता का ही सुसगत झ्रथ लग सकता है ।
जायसी ने कहा है--


वेदिक परिभाषा में शरीर की सन्नाएं 8५


चोदहू भुवत्त जो तर उपराहीं।
ये सब मानतुप के तत भाही ॥


हित्दी कवियों ने जहा मनुप्य बी बाक की मुरली-ध्वनि से उपमा
दी है वहा वैदिक पस्राहित्य गे इसका रूपक देव-वीणा से बाधा गया है।
यह शरीर सामान्य वीशा नही है। यह देवी वीणा है| इसके स्व॒रो गे
देवो का संगीत है। जो कुशलता से इस वीणा को बजाता है, उसके
कल्याश-प्रद स्वर दूर दूर तक व्याप्त हो जाते हैं, उसके माधुथ से सब
मुग्ध हो जाते हैं। ऋग्वेद के शाखायन श्रारण्यक मे इस रूपक का सिस्तार
के साथ वणन पाया जाता है--

अ्रथ इय बबी बौणा भवति, तवनुक्ृतिरसों मानुधी वीणा भवतति ।

कवि दोतों में निम्नलिखित सादश्य देखता है---


बवी बचीणा भानषी बोणा
शिर पिरे का भाग
पृष्ठ वश' पृष्ठ दण्ड
उदर ग्म्भणा या तीचे का भाग
मुक्न, चासिवा, चक्षु दिद्रारि
ग्रगुलिया तत्री
जिहल्ला वादत
स्वर स्वर


श्रागे कवि से कहा है--

सा एवा दवी वीणा भवति। स य एवमेता बैवी वीणा वेद श्रुतववत्तमो-
भवति, भूमौ चास्य फीतिभवति, शुश्षषत्ते हास्य पषत्सु भाष्यमाणस्य--
इवमस्तु, यदयमीहते । यज्नार्यावा्र वर्दाष्त बिदुरेत तत्र ॥

श्रधात ताणबिज्॒बस्थ बच । तंगझ्रथा--इय्मकुदालित बादयित्रा
वीणा55रव्धा मे तत्कत्स्त ब्रीणार्थ बागर्द साधयति। तदथाथा हैवेण कुशलेन
बादमित्रा बीणारव्धा कुत्स्त दीणार्थ साधयत्मेवमेव कशलेत वक्ता बागारब्धा
कृस्त वागय साथय्ति

(दालायंत आरणप्यक ८६)


९६ कह्पव॒क्ष


प्र्भाए--जो इस वँषी वीणा को बजागा जानता है, उसकी वीणा
के हवर धुनने योग्य होते हैं। जब परिपदों मे बह बांलने के लिए खड्य
होता हैं, सब लोग उसे थुतने के लिए सावधान हो जाते हैं, श्रौर कहते
है कि णो इसका सकत्प है, वही हमे स्वीकार हे । जहा भाय लोग तत्वों
का विचार बरने बठते हैं, वही उसका स्मरण होता है।
ताणबिष्दव आवाये का श्रतुभव है कि ज॑से कुशल बादक वीणा मे
से अनन्त स्वर साधु उत्पन्न करता है, बसे ही वाक रूपी वीणा का कुशल
प्रयोवता बाणी के द्वारा अनत्त श्रथों की प्रिद्धि करता है। उसके स्वर-
सामजस्य से सय सुर हो जाते है, वहु जिय पवीन सगीत की तान छेइता
है, पतको सारा राष्ट्र चकित होकर युनता है। सचमुच लोकमान्य महा!
त्माप्नी की वाकू की महिंद्रा की कोई इयत्ता नही है ।
भवत्षागर की पार करने के लिए मातुषी शरीर एक धुधटित नाव
है। कितने ही इसपर चढ़कर दुस्तर भबसागर के पार चले जाते हैं,
कित्तनें ही बीच में ही रह जाते है । भिम्तलिखित सुर्वर मन मे इसी दैवी
ताव की बर्णत है---
सुत्रामाण पृथित्रीं शामनेहूस
सुशर्माणिमदिति सुप्रणीतिम ।
देवी नाव स्वरित्रा भनागसों,
भ्रत्रव्तोमारहेमा स्वस्तमे ॥ (प्रथेव० ७।६।३)


प्र्थातृ--हम लोग स्वस्ति तक पहुचते के लिए इस दैवी नाव पर
आरूद हैं] मह नाव अ्रस्वन्ती है, कही से रिसती नहीं | स्वर्ित्रा है, इसे-
में शह्वय-हपी बडे सुन्दर डाड लगे हुए हैं। सुप्रणीति भ्र्थात्‌ युधवित है ।
इसके निर्माण कौक्षत का कया ठिकाता हैं ”? यह भ्रवित्ति है, श्रश्तडत्तीया
तया देवों की जनती है। सुशर्मा श्र्थात सुप्रतिष्दित प्राण से सम्पन्न है।
सुत्रामा इन्द्र की यह नाव है । इसमें पृथिवी से थू लोक तक की समस्त
रजना है।

ऐसी नाव पर शब्मेवाले यात्री का भतागस अर्थात्‌ समस्त पार्पी से
रहित होना सबसे बड़ी हर्ते है। शुत शाप नें वरुण से यही प्राभना की है---


लोभगा ६७


उदुत्तमः पररण पादशमस्म
वंबाधम बि मध्यत श्रथाय ।
प्रथा वयमादित्य ब्नते तवा-+
नाशसों अ्रद्ितयें स्याम ॥


“है वष्ण, हमारे समस्त उत्तम, मध्यम, झ्रषम पाक्षी को शिविल
करो । है श्रादित्य, तुम्हारे त्रत में अनागंस (परापरहित) रहकर हम
अविति-स्थिति को प्राप्त हो ।


: १३
लोमश


झनतकाल की सात्त अभिव्यपित के लिए भारत के पुराण-मिर्माता
कला[कोविदो ने लोमश ऋषि की कल्पना की | सप्तार के किसी कलाबिंद
को सभ मे यहू बात्त नहीं आई है वि' अतर्य पराध्ययुगन्युगान्तरो में
व्याप्त होनेवाले काल को किस प्रकार मूतिमात करके कला के ऋण
से उचक्करा हुआ जाथ | भ्षित्त्म भावों को परिभाषा के द्वारा दशनाहै
बनाकर मानवी जीवन को सुन्दर बनाने का जैसा सफल प्रयास पुराखो ने
किया है वह अतन्य सुलभ है । सहश्षशीर्पा पुरप जिसकी महिमा वेदों ने
पुरुषसूक्त के 'सहस्नज्ञीषा पुरुष सहस्राक्षे सहुक्तपात' आदि भस्नों भे
गाई है भ्ौर जिसके लिए कहा जाता है कि उसके अनन्त फश-विस्तार पर
यह ब्रह्माण्ड एक छोटे सकोरे के सदृश है, दोणदारयी विष्णु के रूप से कृह्पित
किया गया है | उसी प्रकार म्नन्‍्त समय, जिसके एक रोम में ही सृष्टि झौर
भ्रलय समाये हुए हैं, लोमप ऋषि के रूप मे कला के क्षेत मे अवतीर्ण हुआ हू
देश भर काल (टाइपम-स्पेस ) के ताने बाने में ही सब विषेव समाये हुए
हैं। भाधुनिक विज्ञान ने सभ्यता के देश-काज्रनविपयक भावों को बहुत
परिम्नाणित शौर उपबृहित किया है। क्षाल के विपय से लोगो की वा
सहुज्न वर्ष परिमित थारणा को उत्मूल करके आधुतिक भूजभ दार*
और रेडियम के विज्ञात ने अरबो वर्षों भे परिणुत कर दिया है। समझ

ह४।


हैदर वाएपप्षक्ष


अर्वाचीन' वैशानिक एवं स्वर से पूृथिवी की श्रायु को दो श्ररव' (२०००
मिलियन ) वष के लगभग घोषित थार रहे हूँ! हु की बात है कि शार्या
के सृष्टि सवत्सर की भ्रवधि (१६९७२९४६०३० ) भी थही है। इतने बढ़े
सम्य-परिच्छेद मे इस भूमि पर स्थित भूतो की महिमा समाई हुई है,
पर/तु सौरभण्डल और सुप्दि तथा प्रलय के चक्रो को सम्तुष्ट करमे के लिए
तो और भी भनत्त काल-परिमाणों की शावश्यकता है। इस प्रकार विज्ञान
ने हमारी काल-विपयक धारणा को पहले की भ्रपेक्षा बहुत परिवर्तित
एवं परिबद्धित भी किया है । पर प्रश्न यह है कि क्‍यों श्र्वाचीत सभ्यता
का यह काल-सम्बन्धी भाव कैबल विज्ञान गौर ददानों के ग्रस्थों तक ही
सीमित रहेगा ? जिन सत्यो का उदघाटन करने से विज्ञान जगत के सर्वोत्तम
मस्तिष्को ने प्राशापणा से चेष्टा की है, जिसके ऊपर सफ््पता को गंब है,
जिसको उन्नति की क॒म्ौदी समक्ा जाता हे, क्‍या सर्वक्षाभारण उस
ज्ञान-मिधि से सदा बचित रहेगे ” विज्ञान के इस अश्रपार परिश्रम से'
उमके जीवनो का वैतिक भर आध्यात्मिक मूल्य किस प्रकार बढाया जा
सकता है ? क्या काल-विपयक भाव के इस परिमाजित सस्करण से प्रजातस्त्र
के ज्ीवम को भी चैतन्यता मिल सकती है ?

यह प्रइत सब देशों के कलाकारों के समक्ष है । वैज्ञानिकों ने सत्या-
न्वैषण का अपमा काम कर दिया । परु्तु उस निरपेक्ष सत्य को मानवी
जीवत से सम्बद्ध करने का काम दाशतिक, कवि और कला के पुजारियों का
है । विज्ञान के देश-काल-सम्बन्धी अनुप्तधारी को पझपने शझास्त से स्वीकृत
क्र लेने वा काम सवप्रथम दौशनिक कर रहे हैं। ग्राधुनिक तत्त्वज्ञान के
सब विमर्षों की श्राधार-शिला बीसवी श्वताब्दी के वेश-काल-सम्बन्धी
वैशानिक अन्वेषण हैं। उनसे व्यपेत रहुकर कोई भी अर्वाचीस दर्शन चल ही
नहीं सकता । यद्यपि दर्शन पे विज्ञान के समकक्ष रहने का प्रयात्त' किया
है, परन्तु काव्य भौर कला की इस विपय में अ्रभी मन्धर गति है | कविता
और कला के निर्माताञ्री का भी कतंव्य है कि बे झ्राधुुनिक देश काल के
समीकरण द्वारा ध्युत्पादित सुण्ठि, ध्विति और प्रलय-संस्बन्धी सिद्धास्तो
का उपयोग अपनी अश्रमर कइंतियों में कौशल के साथ करें। मिस्‍पेक्ष
ग्रत्यों को सापेक्ष परिधान पहुनाने का पुनीत कत्तव्य काब्य और कला


लोमगा 88


के लिए ही सुरक्षित है। श्रदा से यही होता आया है। देश और काल-
सम्बन्धी जित गम्भोर तत्वों को श्राय ऋषिया ने वैज्ञानिक हफुति से
अवगत किया था उनको, सावजतिक छूप' देते का काम पुराण-लैखको ने
किया। वेदों के सहस्न शीर्षा पुएंष को सवस्ाधा रण किस प्रकार समभते यदि
पुराणों में शेपशायी वि०णु का जन्म ते होता ? इस कलात्मक सामग्री को
पाकर कवि शौर चित्रका र फूले न समामे। क्षी रसागर ग॒ प्रन तसज्ञक शे प की
शब्या पर सोनेवाले विष्णु को ययाथ रीमि थे जातने के लिए शार्यों के देश-
सम्ब भी सब सिद्धा तो का दंज्ञानिको को ज्ञान होना श्रावदयक हे । उन
श्रप्रोय भौर भ्रत्रि त्य भावों को कबिया ने अपने काव्यों मे विष्णु का वणन
करके आर कला-विज्ञों ने शेषजश्ञायी विध्णु की प्रतिमाझी भौर पित्रो का
निर्माण करके सबके लिए घुलभ कर दिया है। गाधुनिक ण्योतिष के प्रथा
में ब्रह्माण्ड की भ्रतन्तता का सबिस्तर वेणन है, पर कला में उसे प्रकट
करने का एक भी साधव वहा के लोगों के हाथ नही भागा है। शेपशञायी
धिप्णु के रूप में प्रकट 8६ त्वष्ठा की भ्रनन्‍्त कृति भारतवर्ष के लोगी के
धामिक जीवन मे झोत-प्रोत ही गईं हूँ ।

देश के तुल्प ही काल विषयक विचार भी सभ्यता के विविष जीवन के
मूल स्तम्श माने जाते हूं। हमारे अनुभव मे आतेवाले काल का प्रतिनिधि
ध्रूय है । वही हमारे लव तिभेष वष युगा का विभाता है। इस भ्रादित्य का
ज्ञान सब देशो के वासियों का होता है, १२ इस शा का कलात्मक भ्रवता र
करने में जो सफलता भारतवष के बिद्गांनों को प्राप्त हुई, वह और
किसी को नही मिली । यहा के लोग सूथ को एक श्वेत गोले के रूप में ही
चित्षित करके क्षा'त नहीं रहे | वस्तुत सृय का वह रूप नितान्त कला-
शूप हैँ । कला की परिभाषा से धूथ भगवान्‌ श्र्णा को सारयी बनाकर
एक चक्रवाले रथ पर, जिसमे सप्तरकश्मियों मे सप्ताशव जुडे हुए हैं, तेज से
दिग्दिगत को श्राज़ोकित करते हुए व्योम की परिक्रमा करते हूं। विज्ञास-
सम्पत सूय की रह्ियी मे छिपे हुए सप्स रगो का ज्ञात झ्राय वजशानिकों
फो था, परन्तु वाला के लिए उसी भाव की भ्रभ्िव्यात सप्ताश्व रथ के
रूप में हुई। एक पहिमेधाले रथ मे कितता सूक्षा रहुस्प हैं ? जिस रथ में
सिफ एक ही चक है, वह कभ्ती खड़ा नहीं हो सकता । सुय की गति भी


१0० फश्पवक्ष


सतत है, उसमे क्षणभर के लिए भी स्थाणुता नही श्राती। काल के सतत
प्रभाव को चरिताथ करने के लिए रथ में एक ही पहिया लगाया गया हैं!
गति-शास्त्र के नियमी के अनुसार एक चक्रवाला रथ जितने तीक्न वेग से
चलेगा उतना ही उसका लगर स्थिर हो सकेगा। सूय के इस रूप की उपा-
सना मे श्रमेक स्तोत्रों की रचना की गई है | क्तित्ती ही प्रतिभाभ्रों मे के भाव
प्रकट किये गए हूं | सूय से निर्या च्रत होनेवाले काल के ग्रतिरिक्त समय का
एक दूसरा रूप भी हे, जिप्मे प्रमन्‍्तता की मुहर है। यह काल सष्ठि का
विधाता कहा गया हैँ । इवेताश्वर उपनिपषद्‌ म॑ सुष्टि के श्रवेक का रणी की
गिनती करते समय काल का स्षवप्रथम वणत किया गया है ।

यद्यपि इस उपनिषद्‌ के ऋषि का यह सिद्धा त नही हूँ, क्योकि उसने
दवात्मदवित को मुल्य कारण कहा है, तो भी यह एक दाशनिक मत था,
इसमें सन्देह नहीं । गीता (८। १७) और भनुस्गृत्ति में भ्रहेरावविद्‌ जनो का
बणन हैँ । यें लोग काल सम्बन्धी दाह्मनिक और वैज्ञानिक मतों के एण्डित
थे। नासदीय सूवत में भी विविध भततों का परिगएणंन करते समय अही रा ववाद
का सकेत किया गया है | अथववेद के उन्नीसयें काण्ड म काल को सृष्टि
श्र वेदों का कारण बतानेवाले दो सूबत हूँ । उनमें काल का वन इस
प्रकार है---


काले तप काले ज्येष्ठ काले ब्रह् समाहितम ।

कालो ही पबस्येद्रों थ पितासीत्‌ प्रजापते ॥१६।५३।८
तेनेषित तेन जात तदुतरिमन्‌ प्रतिष्ठितम्‌ ॥६॥॥

काले प्रजा शसृजत कालो भ्रग्ने प्रभापतिम्‌ ।

स्वयम्भू फर्यप कालातु तप॑ कालादजायत ॥१०॥


भ्र्यातू--काल सबका ईइवर और प्रजापति हे भी आगे रहवेवाता
उसका पिता है। स्वयम्भू ब्रह्मा भौर कश्मप प्रजापति भी काल से उत्पन्न
हुए । यदि तप को सृष्टि का भ्रादि का रण कहे (ऋत थे सत्य चा भीद्धात्त-
पसीथ्ध्यजायत) तो काल तप से भी असझ्य गुना सहा व्‌ हैं। काल ने समस्त
ब्रह्माण्ड को इपणा शर्त प्रवान की है, उसीकी बुरी के बल पर सबकुछ
टिका हा है ।


लोभदा १०१


उपरोक्त वेद के तीन सक्‍तो मे देशव शास्त के काल-सम्बन्धी सनेक
सिद्धा तो का समावेदा किया गया है, जिनकी परिगणता भ्रहोरातवाद दशत
में की जाती थी। पर प्रश्न यह है कि इस प्रकार के निरपेक्ष काज का बुद्धि-
गम्य परिचय किस प्रकार कराया जा सकता था? वैज्ञानिक-प्रवर
साइसटीन का मत है कि समस्त भूतों की सुष्टि म यद्यपि काल एका प्रधान
कारण है तो भी विदव मे म्राजतक कोई ऐसा नहीं जमा जिसने काज को
देखा हो | हम तोगा का काल के साथ कुछ परिचय नही है। किसी वस्तु
के भ्राकाश म घुमते से हम काल को ताप भर सकते हैं। बस ये ही हमारे
लव निमेय, भ्रह्दोरान, पक्ष, मास, ऋह्तु, सवत्सर, युग भ्ौर कल्प हैं। इन्ही-
को निरपेक्ष काल का प्रतितिधि कहा जाता है | परतु ये परिमित अ्रवधि-
वाले काल परिमार अमन्त काल का परिचय कराने मे मितात अदवत हूँ।
उसके लिए लोमश ऋषि की कत्पता की गई है। यदि किसीकों यह रहस्य
बताना हो कि कालन्न की अ्रतन्‍्तता का स्वरूप क्या है, कितने संग श्ौर प्रलय॑
उस कान्न की कुक्षि में समाये हुए हूं, प्रलण के विघटन में जब परमाणु
भर महत्तत्व सब हीवि दीण हो जाते हूं, तब काल क्सि तरह स्थिर रहता
है तथा ब्रह्मा ग्रादि ग्रनादि भावों का भी विधाता काल किस प्रकार को
है; तो उसे लोगद ऋषि की कथा का रहस्प समझाना पर्याप्त हीगा।
कहा जाता हैं कि लोगश ऋषि के दरीर मे लोग ही प्रधान हैं। इनके
एक 'रोम में एक एक कल्प छिपा हुआ है। थे काल के प्रतितिधि लोगक्ष
ऋषि अखण्ड समाधि में बैठे हुए जब एक ब्रह्मा का अन्त सुनते हूं तब
अपमे एक रोम को उखाडकर फेंक देते हूं, प्रर्थात्‌ ब्रह्मा की सौ बप को
आयु क्षीण होने पर लोमश्ञ का क्रेवबल एक रोम काल-परिच्छिन्न होता है।
लोमश न जाते कितने ब्रह्माप्नो का श्रत देख चुके है। वे सन्तातन हैं,
ब्रह्मा पुरावन हो जाते हैं। शह्मा की आयु ही हमारे गणित की सामाध्य
परिसस्याओो से प्रतीत है, क्योंकि ब्रह्मा के एक दिन में एक कल्प श्रौर
एक रात में एक प्रलय होती है। इस प्रकार सो बप वी आयु में कितने
प्रलम भ्ौर स्ग उत्तर जाते हैं; इसका श्राभास भी हमारे मन को
वेज्ञानिक रीति से नहीं हो सकता । पर ये सब वैज्ञानिक सत्य हैं जिल्‍हे बुद्धि
स्वीकार करती है। हा, कुछ श्रर्वावीत वैज्ञानिक ऐसे भी' हैं. जो काल


१७८ कहगव््ष


वी इस विजशातता से घबराकर श्रपत्ता गाडीय रख देते हुं। सनकी
समझ भ यह नहीं माता कि इस प्रलय के बाद फिर सुध्टि को सत्ता से
तानेवाला कौन स्ञा कारण होगा । चिन्नंवर जीतस वा मत है कि भ्रगली
सष्टि के लिए प्रकृति से बाहर का कोई कारण मानना ही पडता है । भतु
मे इस विध्तत्तिगत्ति का अन्त 'कॉल कालेन पीडयत' कहकर किया था।
निष्कष यह कि जब ब्रह्मा का भाव ही इतना भ्रगम्य है तो लोगशात्मक
काल का ज्ञान किंस प्रकार हो सकता है। उस काल का ज्ञान कराते हें
पुराण ने,काब्या ने श्रौर॒ कला ते हमारी सहायता की है। पुराणों की लोभश-
कथा कला को परिभाषाओ्रो की सृष्टि है, जिससे भ्रचि त्य भावों का मूर्तिमत
दशशत कराया जा छक्के ।

ल्ोमश् मे ब्रह्मा ऐ पुत्र का उपचार है, क्योकि वे ब्रह्मा के देहावसान
के बाद भी जीवित रहते हूं। अपने पूव पुरुष की श्रद्धाथुक्त स्मृति में लोमहा'
का एक रोम जीण होत। था विपरिणाम को प्राप्ष होता है | तात्पय यह कि
अगणित कर्पी का विपरिणाम ब्रह्मा की एक आयु का जठरपन है, और वह
भी तोमश के केवल एक रोम या 'रोए की ही स्पश कर पाता है। काल
का स्वश्वाव इतना विपरिणाम घूत्य है। ऐसा काल वस्तुत ब्रह्म का तादा-
पगवायी है। बहु निरपेक्ष है। अन ते कलपो को उसके केबल एक रोस शे
सस्पृष्ट करके निरपेक्षता मे सावैक्षता का भाव किस कौशल के श्राध
सन्निविष्ट हुआ है ? शेष के अनत्त फन-विस्तार पर समस्त ब्रह्माण्ड एक
बिन्दु के सदुश झौर लोमश के भ्रनन्त रोमो मे अगरित कल्प-सम्मित काल
केवल एक रोए के तुल्य--कितने कौझल से देश काल के भतकी य भावों को
प्रजात की कोटि में जाया गया है ” जो लोग एक सृष्टि के बाद दूसरी सुष्टि
की कत्पना करने में ही चकरा जाते हूं, उके क्षुत्लक विचारों की तुणता
मे ऋषियों के मस्तिष्क कितने उजित शौर बल' सम्पन्न थे! उतकी' विचार-
प्रश्नण्डता कितती बढ़ी थी |

स्वयशू ब्रह्म में पृह्ठण तत्त्व प्रधात है, क्योकि वे विष्णु की नाभि से
उत्पन्न हुं। ब्रह्मा और विष्णु दोनों का ही सम्ब घ देख से है, ब्रह्मा-सन्नक
महत्तत्व के कारण ही ब्रह्मणण्ड का विस्तार है। वज्ञानिक बताते है कि मटर
में साझिता नही है। परमाणु की कुक्षि मे स्थित धूम्य-प्रदेश सौरमण्डल के


लोभग १०३


शूय भाग से भी अपेक्षाकत बडा है। परमाणुओं की उस गर्भित दशा में यदि
आय-प्रदेश न हो तो श्राध इच बडी सोते कां डली का वजन कोई तीस लाख
टन होगा। यह ब्रह्माण्ड भी पहले इसी गर्भितः अवस्था में था' जिसके
कारण ब्रह्मा की सज्ञा हिए््यगभ वी। परततु बह्मा के जन्म के बाद हिरप्य-
गभ को विराट भ्रवस्था में श्राता पडता है। जिस समय महू'प्रलय में सृष्टि
फिर प्रपते कारण मे विलीत हो जायगी और बह्य-ब॒हरात्तत्त्व' का लोप
हो जायगा उस समय भी लोमश की स्ता अविच्छिन्न रहेगी । इसीलिए
लोगझ मे ब्रह्मा के पुतत्व की वल्पता है। देश और काल के पारस्परिक
सम्बन्ध को बताने के लिए पिता-्पुत्र का भाव एक विलक्षणता मात्र
है ।

अपने प्वपुरुपाओं की इप कलात्मक तासग्री वी रक्षा करना हमारा
परम कत्तव्य है। बतमान युग के चित्रकार और तक्षकों को उचित है कि
लोग के तत्व को समफरर उसका कलात्मक रूप जनता थे सामने रबसें ।
जो चित्रविद सवृगयप्त सफलतापुवक लॉसश के व्यूहुतात्क लोकों की
घित्रण वारके अ्रतन्त काल के चित्र को सामने रखने का पुण्यलाभ
करेगा, उत्की कोर्ति भ्रमर हो जायगी । इस युग में सास्कृति के क्षेत्र मे कला
को विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ है। सस्कृति के पुनरुज्जीवन के साथ कला
को भी प्रभ्युत्यात मिल रहा हैं। उससे हम नवीत' कत्थभान्नी के साथ
ही पुराणों के प्राचीन परत्तु श्रमर कब्रात्मक भावों को फ़िर से
देखना चाहते ह। शेषशायी विष्णु, लोमश, गएंड, भ्ररण, शिव, ब्रह्मा, सूर्य,
सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा श्रादि गनेक दिव्य भावों मं कल्ला के लिए सामग्री
है। परत्तु यह श्रावश्यक है कि कला के निर्माता श्र जनता, दोनों ही
गयाथ तरव या स्वरूप को पहले भल्री प्रकार समझ ले। तभी इनके रूप
को बाह्य परिभापाओं में भीरशता के स्थान में प्रदुभुत श्रानर्द का
जन्म होगा। सदियों से जड बने हुए भाव फिर चैतना-सम्पन्न हो जायगे।
भौतिक भौर प्राकृतिक घटनाओं का कोई उदाहरण ऐसा नही है जिसके
लिए कलात्मक परिभापाप्रों की रचता भारतवष में न हुई हो ।


१०४ ऋल्पवृक्ष
१४


कालरुपी विराट अश्व


काल एक ऐसा श्रण्त है जो म्रित्तर गतिमान्‌ है, बहु कमी रुकता
नहीं । उसके ल्लिए नं शाज है, मत कल | सचमुच वहू अ्रक्षक बिया इबोभाव
का है । बहु कही झुक सकता तो उसके पडाव को लेकर भत-भविष्य के
अ्रक लगाये जा सकते । पहु सतत एकरस है ।
उस श॒दव की सात रश्सिया हैं। इस बागडोरो से वह तियत्रित है।
पात्त रक्ष्मियों हारा वह श्रद्व सबकी चला रहा है। कोई भी प्रदाथ
ऐसा नही है जिसमें इत सात रदिमियी की विभिज्ञत्ता ते गति भ्रौर छद की
सिनता ने उत्पन्न की हो सूय को सात किरणे इन सात रश्सियों के रूप
मे ्वको घेरे और जकडे हुए हूं। ब्रह्माण्ड इन सात किरणों से बन-विगड
रहा है | दरीर के स्लात प्राण झौर सात्त वातुए विराट सात किरणों का
स्व लिकर इस शरीर से विकसित हुई ह। मन-बुद्धि की यूक्ष्मतम वृत्तिया
इही सात किरणों से प्रवृत्त हुई हैं। इन किरणों का एक छोर नीछ प्रकाश
का झ्रावाहन करता है, दूसरा छोर लोहित उष्णता को । इसीको रुद्र का
नील-लोहित धनुष कहते हूं ) नील से वह रक्षा करता है, जोदित से नाश
था विकरण करता है । इस नील-छोहिल धतुप से रुद्र प्राणियों को समय
आने पर विद्ध करता है ! थोवन में तील रश्मियों से जीवस प्रदान करता
हैं, जरावस्था म॑ लाल-लाज़ ब[णो से बीच डालता है। रुद्र का धतुध सबके
लिए तना हुआ है ।
इस महान भ्रवव फो सज्ञा सहलाक्ष हु । उसकी दावित का प्रकाशन सहस
प्रकार से हो रहा है। भ्रतत्त का पारिभाषिक सकेत सहस्त है। जो वस्तु सहस्न
है वह विराट है, जो शत हूँ वहू पिडगत झौर परिमित है। कान्नरुपी विराट
प्रश्व की हजार किरण उसके सह नेन है। इसकी सात रश्मिया स्थूल
रूप में हमारे तेत्नों को दिखाई पहती हूं। किन्तु स्ञात॒ रश्मियों से
ग्रागे-पीछे फैला हुआ जो इसका रश्मिजाल हूँ वह चक्षुरिच्क्रिय से अतीत
है; ऐशा जाननेवाले कहते हूं । वसस्‍्तुत वें सहूक्त रश्मिया ही सृष्टि की


कालरूपी विरादू श्रक्रव १०५.


मूतभूत ब्रह्माण्ड किरण हैँ ओर सृष्टि-रचता के बाद भी भो बच रहता
है उसका भी भ्राषार वे ही रक्ष्मिया हैं।

यह महान्‌ भ्रदव कौन है ? जो जातते हुं वे उसे काल कहते हैं ।
सभीपर यह काल सवारी कर रहा है, सत्र इसके वश्लीभूत हैं । कुछ ही
ऐसे हैँ जो इस झदव की रश्मियों को सम्हालकर इसके छत्द को अपते
बद्य में कर लेते हैं, वे ही बिद्वात यूके बूक रखनेताले मतीपी इस झरदव पर
ग्रारोहण करते हैं, भ्रत्यथा राब-रक, धनी-तिवत, कोई ऐसा नही है जिप्त-
पर काल का शअ्रकुश न हो | कित्तु इस काल की श्रत्तर-कुक्षि म अमृत
का घट छिपा हैं। उसे पहचानना भर उस अ्भृत-रसे का पान करना
पही विपकश्चितु बिद्वान की कस्ौठी है।

पह भ्रद्व ग़जर है । इसे छीजते हुए भाज तक किसने देखा है ?
क्तिने देव गतुष्प इसने जीण कर डाले, पर स्वयं यह जीण' नहीं हुआ ।
इसका बल कशी घढठता तहीं। शैशव श्र यौवन के भरते हुए प्राण-भडार
पर काल श्रपता भ्रमुत छिद्वक देता है। उस इमृत-प्रोक्षण से यौवन के
उत्लाप्त का उद्गम होता है, कि-तु समय पाकर जीजन 4! लहलहाता पौधा
पुर काल के वशीभूत होने लगता है। उसकी हरियाली कम होती जाती
है भौर उसके प्राणशमय पहलव पीले पडने जगते हूं | यही क्रम कबसे चल रहा
है-सस्यपिव मत्य पच्यते सस्यमिवाजायतते पुन । जीवन मृत्यु का यह छद
फ्रयेक तृण को भीर प्रत्येक प्राणी को पकड़े हुए है। काल जीण ते होगा, एवय'
प्रजर बना हुआ बढ़ सबको जीर्ण कर डाल्ेगा । यही जीवन मरण की कशण
कहाती पद के पिताझो ने सुनी झ्ोर भविष्य के पुनो को भी सुतती पडेगी ॥
इस कालरूपी अ्रश्व की शक्ति सब दा कितिया से ऊपर हैं। इसका बीय भ्रप्नतिहत
हें। जानकार व्यक्ति इस भूरिरेत भ्रदव॒ को शक्ति को वश मे करते के
लिए प्रज्ञा के उपाया से काम लेते है। पश्षु शक्षित से इसपर कोई सवारी'
नहीं कर सकता, दस अ्रह्व के जरा-मरणुरूपी उठते हुए पग पशु-शक्ति
या स्थूल युक्ति से नही रोके जा सकते । भ्रत्यन्त निद्वर होते हुए भी यह भ्रव
उनका मित्र है जिन्हें यह अपनी पीठ पर बंठा लेता है। केवल प्रज्ञा से ही ऐसा
सम्भव है । प्रज्ञावान्‌ पुष्प ही कवि हुं जो जीवन के छत्द को पहचान लेते
हैँ, जिसके मत भें तमाव की जगह ताल शौर लग निवास करते हूँ !


३०६ कल्पवक्ष


इस काल-रथ के चक्र मे सब लोक पे हूं। ब्रह्माण्ड के ह्रन“त नक्षत्रों
में कोई ऐसा नही जो काल चक्र के साथ न धूमता हो । किसी श्रदृश्य
गक्ति में सबके लिए यही एक मार्ग नियत कर दिया है, यही तिथि है।
काल के रथचक के साथ तियतित होकर सब घिर यात्रा से प्रवृत्त हू ।
कवि ने ठीक ही कहां है--
पतन अध्युदय बन्धुर पस्था
थुग-पुग धावित यात्री ।
है घिर सारशथि ! तव रथ सक्रे
मुद्रित पथ दित-राप्री ॥ (--रवीकछ)


इस सारभी के चलाये हुए रथ के पहिये से मह प्रनन्‍्त भाग रात दिन,
चाहे बे सानवी जीवन के हो या अह्या की भ्रायु के कल्प हो, रत भम
कर रहा है। अ्रहर्तिश पथ सनादत करनेवाले इस रभ-चक्र की ध्व्ति
निरतर सुनाई पड रही है ।

काल-रथ की धुरी प्रमृत से भ्रौगी हुईं है। कल्प-कठ्प तक चलते
पहुने १९ भी वह कभी गरम नही होती--

नाक्षस्तप्यते भूरिभार ।

प्रमत ब्रह्मण्डो का भारी बोभ इस काल-रथ पर लदा है, फिर भी
इसका धुरा कभी धृधुआता नहीं, त इसे रुकले की श्रावश्यकता पडती है।
इसके श्रक्ष मे श्रवश्य अमृत छिपा हैं--

श्रमृत न ग्रक्ष

सत्र धुरे घिसते, छीजते श्रौर टूठते हैं, पर कालकूपी रथ की धुरी
अटूट बच्च ते बनी है, वह भ्रमुत के जल में भुभाई गई है। भ्रमृत से गा
हुआ यह पहिया धुरे को राकुशल रसकर सदा धूमता प्राया है। प्रागे
भी हमे बिग्राड होने को ब्राशका नही ।

,. काल ही जीवंत की गति है | देश के साथ काल ते मिला हो तो जीवन
स्थिर होकर सडने लगता है। काल ही उसमें ग्रमुत-रस चुभाकर उसे प्रागे
बढाता है श्लौर उसमे परिवर्तत के चमत्कार उत्पन्न करता है। बात्यावस्था
मे जब काल का गतिमान्‌ भ्रमृत मिलता है तब उसमे यौवन के ववीन चमत्कार


कालछपी विराट अदइच १०७


उत्पत्त होते है | जरा को काल झागे बढ़ाता है तो उसके बाद पुन ववीन
जीवन वालरूप में प्रकट होता है | सप्टि के सुन्दर वाटक में पिता पुत्र बन-
कर प्रकट हो रहे हैं और फिर पत्र पिताम्रो के पिता बनने का उपचार कर
रहे हुं | देश का सबसे बड़ा उपकारी मित्र काल है। देश स्थिर है, फोम
उसपमभ गति भरता है और तभी ब्रह्म चक्र भ्रमण करता हूँ। स्थिर पहिया
क्रणा का रूप है, देखतेवालों के मन मे वह शोक उतान्त करता है।

जो जानते हूं वे कहते है कि इस काल के सात पहिये हैं, सात ही इसकी
नाभिया हैं । सप्त प्राणों में, सप्त श्राकाशों म, सप्त पातालो में, सप्त महा-
द्वीपो मे, सप्त महासागरां मे क्षप्त वायुस्तरों में, सक्ष भुवनपिष्डों मं,
जहातक सप्दि में सप्त-सप्त का कम है, इस काल चक्र का सम्बंध है।
सात पहिये ग्रोर उसकी स्तात नाह---इनमे भ्रप्स्त जीवेत बंधा है। स्वथ'
प्रकृति से सप्त रश्मियों से इसके सात चक्रो का निर्माण किया है। एफ एक
सूथ-रहिय एक एक नाभि है जिसके चारा श्रोर एक एक चक्र का निर्माण
हुआ है। वे ही सप्त चक स्थल ब्रह्माड की समस्त प्रक्रियाओं के झ्राधार हूं |

इस काल को हम इस प्रकार एक से अनेक होता हुआ क्यो देखते हूं ?
इसमे से इतने बहुलपी पदाभ कसे बन जाते हैं ” प्रतिवप कितने असख्य
रूप इस काल के उदर में से नये उत्पन्त होते हूं। इनकी उत्पत्ति का भडार
कहा है ? ग्रनेक रूपी का यह नित् या चमत्कारी प्रदर्शन इतिहास का सबसे
बडा भारचय है । इत रूपी का श्राज तक कोई ग्रत नही हुआ, सगे भी सही
होगा सत्य भौर अनृत, मृत्यु गौर प्रमुत, भद्धा भौर और प्रश्नद्धा, वीवत भौर
जरा, सकत्प भौर विकत्प इसके द्वारा काल के भस्तराज मे तित्य नये छूप
भर रहे हूं | किसकी बहुरगी तुलिका अनेक रूप लिख रही हैं ” कहते ह,
काल की कुक्षि मे एक पूण घठ है। उप्र पृर्ण मुम्भ में जीवन का जल भरा
है| जहजहाते हुए पुष्प और परलव उस मगव-कलग के मुझ्तः पर उगते
हुए प्रकट हो रह हूं। यह पृण कुम्भ सृष्टि का मूण बीज है, वह शरणु से भरा
है और कोई प्राणी ऐसा वही है णिप्तम उसका ग्रद् 7 हो ) वहू बीज नाना
रूपो भें प्रकट हो रहा है--

पुण कुमतोईधिफाल प्राहितस्स
थे परयामों बहुधानु सन्त ।


श्ण्द्च कैल्पव॒क्ष


भ्र्भात्‌-काल के भीतर जो पूर्ण कुम्भ है उसीसे हम नाना प्राक्ृतियों
को जम लेता हुआ देखते हैं ।

काल से झुल्ोक श्रौर पृथ्वी का जन्म होता है। ग्रकुरित होतेवाले
प्रत्येक बीज में सवप्रथम अपने गुलोक और अपनी पृश्वी का निर्माण होता
है । ये भ्रवादि माता पिता प्रत्येक सृष्टि-केतद्र के लिए आवश्यक हूं।
प्रत्येक बीज की पोखली इन दोनो तत्त्वी से बनती है। अतएव जह भी काल
जम या नवर्ननर्माख को प्रेरित करता है, वह चुलोक भौर पृथ्वी के शाश्वत
दुद्व की पहले रचता है। उन्हीके ग्रतराल मे बीज का बहुविध जीवन फैलता
श्रौर भरता है। काल की निर्माण-क्रिया के लिए जिस देश की आवश्यकता है
उसीकी द्विविध प्षज्ञा बावापृथ्वी है | किन्तु केवल देश से निर्माण प्रसम्भव है
उसके लिए भूत भ्ौर भ्विष्य-रूपी भेदों में बट जानेवाजे काल की भी ग्राव
इयकता है। जो बाज एकरस है, वह सुप्टि के लिए श्रनुपयोगी है। भूत
भविष्य-बतमान इन भेदो से युवत काल ही सष्टि में सहायक है। बुनोक,
ग्रत्तरिक्ष भ्ौर पृथ्वी एवं भूत, भविष्य श्रौर वतमाग इस प्रकार विभवत्त'
देश-काल के पारस्परिक सहुपोग से सृष्टि सम्भव बनी है । इन दो शक्तियों
को तामरूपी भी कहा जाता है। ये दो बडे यक्ष हैं जितके विमद से सृष्ि
का इन्द्र जन्म लेता है।

काल से श्रधिक दुधष यहा कुछ तही---


तरभाहे तान्यत्यर्भत्ति तेज ।


काल की श्वाच सबका पचा रही है। काल परिपक्व हुए सब वथास्थान
विश्लीण हो जाते हैँ। वस्‍्तुत काल को जगत का श्राविका रण माननेवाले
वदाशनिक्रों की दुष्टि मे काल सबका स्वामी है, वह प्रजापति ब्रह्मा को भी
जनयिता पिता है--
काज़ों है श्रवस्येदवरों थ पित्तातीत्पजापतीे ।


काल ने ही प्रजाशो को बताया है और उसीने श्राराभ मे प्रणाभ्री के
रचयिता प्रजापति को जन्म दिया---


काल प्रजा भ्रसुजत कालो हे प्रजापतिम्‌ ।


चाल्मीकि १०९


इस प्रकार का जो एक भहामहिम तत्त्व है मदि वही काल है तो उसमे
ओर ब्रह्म मे क्या श्रन्तर है
कालो हु ब्रह्म भूत्वा विर्भात परमेध्विनम्‌ !


परमेष्ठी प्रजापति को धारण करनेबाला उम्रका ग्राधा रभूत तत्व काल
ूँ। मन श्रौर प्राण को शक्ति देतेवाला काल' है भ्रारभ के सुष्टिव्यापी
मन-प्राण और पिडगत मत्र-प्राणु इन दोनो को प्रेरणा शक्ति काल से मिलती
है ! शैशव श्रौर यौवव कालकृत अ्रवस्थाए हूं । उतके सत्र शौर भाण भी
निश्चय ही काल-धम से विकसित होते हैं। ऋग्वेद और यंजुर्वेद, यज्ञ और
देवता, गन्धव भ्रौर भ्रप्सरादि योविया, वायु श्रौर सुय---कुछ भी ऐसा नहीं
जिसका विकास काल से न हुआ हो | ऐसा सवशवित सम्पन्न काल सृष्टि
का 'परमदेव' है जो सर्वोपरि है---


हस तर लोक परम थ॒ लोक पुण्पाइन्
जोकात्विधुतीवच पुण्या ।
सर्वाल्लोकानभिजित्य ब्रह्मणा
फाल ईयते परमो नु देव । (कझ्रथव० सुक्त--१९१५३॥५४)


यह लोक, सबसे ऊपर का द्‌ लोक, स्वर्गादि पुण्यलोक, धर्म की पविन्न
विधृति था भरावार भूमिया, प्रथवा सक्षेप में, जितने भी देश काल-कृत
प्रप+-मेद हैं, उप सबको बअंहा-शकिति से अपने वश मे करके परमतस्व या
देवाधिदेव काल गतिसान है ।


१४.


वाल्मीकि


वाल्मीकि हमारे राष्ट्रीय प्रादर्शों के शादि विधाता ह। धम श्ीर सत्य'
ऋूपी महावक्षों के जो भ्रमर बीज वात्मीकि ) बोपे हु ते श्राज भी फल-फूल
रहें हैं । इस देवपुज्य पुण्यभूमि में रहने योग्य देवकल्प मानव के निर्माण
का श्रेय वाल्मोकि को ही है ।


4 कल्पवक्ष


भारतवष को पुण्यभूमि के तिए महपि वाल्मीकि का काव्य गगा के
पवित्र जल की तरह अनेक लोकोपकारी मगलो का करनैवाला है। भारत
के भौतिक रूप को देवयूग में प्रजापति मे रचकर तैयार किया। इसमे जहा
एक श्रोर पृथ्वी के धारण करनेवाले गिरिराज हिमालय हुं, वहा दूसरी
ओर भगाध गाम्भी यवाले समुद्र हू। इसके वक्षस्थल पर गा झौर युना की
वारि-धाराश्रों के उज्ज्वल कठहार हैं। मध्य से गहन दडकबन का प्रगम्य'
विस्तार है। पर्वांग-सुन्दर इस भूभ्रदेश मे भ्रमेक रत्मों की समृद्धि, दिव्य
प्रीषधि-बत्तस्पतियों का भडार श्लौर उपयोगी पश्ु-पक्षियों की प्रभ्पत्ति
को विधाता ने खवारो झोर से भरपूर करके प्रस्तुत किया है। उपमे रहते योग्य
मानव की जब हम कल्पना करने लगते हैं तो हमें वात्सी कि का ध्यात झाता
है | उपरोवत प्रकार से देवी से पूजी गई पृण्यभूमि मे रहने योग्य देवक॒त्प
भानव का निर्माण किसने किया ? इस देश मे मानव के मस्तक की ऊचा
रखतेवाले हिमालय के समान उन्नत आदर्णों की स्यापता किसने की ?
गम्भीर सागर के समान निकाल में भी मर्यादागो का उत्तधन ने करनेवाले
पृणपुष्ठप का निर्माण किसते किया ? पुष्यक्लिला भागी रथी के समान सब
लोगों से वत्दतीय चरित्र की कल्पना यहा किसके द्वारा हुईं ” किसी सबसे
पहले जीव के अभम्य, अजात दडकवत में चारित्रव की सुलभ पर्गदडियो
का मिर्भाण किया ? इन प्रईतों के उत्तर के लिए हमे महृपि वात्मीकि की
हरशण में जाता पडता है | वाल्मीकि हमारे राष्ट्रीय भादणों के आदि
विभाता हैं। रामागण के प्रारभ में ही महाकवि मे दृढ़ता के धाथ प्रदत
किथा हैं--


धारिभरुयेण घर को धुकते ?


जीवन में चरिन से युवत कौत है / वाल्मीकि का दृष्टिकोर चरिन्त योग
की जिज्ञासा हैं। जरित्वान्‌ व्यवित को हूढने के लिए ही भ्राविकाब्य
रामायण का जन्म हुझ्ा है। जितने भी अन्य अण हूं सब चरित्र की
व्याब्या के अन्तगत आ जाते हैं। वात्मीकि के लिए चरित्र और धन
पर्यायवाची हैं । प्रतएुब उनकी दृष्टि मे राम धर्म की प्रकृष्ट मूर्ति हैं---


रासो विग्रहतात्‌ धर्म (अ्ररण्य० ३८१३)


बाह्मीकि 34


राम शरीरधारी धम हैं। वाल्मीकि राम की प्रशसा में धर्मज्, भर्िष्ठ,
धमभूता-वर भ्रादि विद्येषण देते हुए नही थकते । मच, बम प्र वाणी से
राम ज़ो भी चरित्र करते हैं उससे हमसे धर वी नई-तई व्याष्य। प्रपप्त होती है ।
राम सनातत धवक्ष के बीज हूँ! श्र/य तव मनुष्य उत्त वृक्ष के पन्र, पुष्प
ग्रौर फल हूं ।' वात्मीकि की दृष्टि मे सल्तार भ दो ह्वी प्रकार के मनुष्य
बसते हँ--एक अत्पत्तत्त्त या हीन पराक्रमवले साधारण मनुप्य, जिहे
रामायण में प्राकृत्त नर कहा है, दूसरे धीर या चरितवान्‌ व्यक्ति जो धर
भौर सत्य के भ्रादर्शों को कम के भाग से अपने जीवन्न मे प्रत्यक्ष कर दिय्ाते
हूँ। दूसरा माग ही जीवन के लिए बहुमूल्य है । हमारे चारो शोर साधा रण
जीवन व्यतीत करमेवाले मनुष्य ढेरो दिखाई पडते है, परन्तु जीवत को'
मर्यादाओं म पूरा उत्तरतेवाले सत्यस ध भ्रोर दृढत्रेत मनुष्य विरक्षे ही होते
हैँ | वाल्मीकि ते जिस चरितयोग का वणन किया हैं, धीर पुरुष उसके कंद्र
हैँ। कवि और उसका काव्य दोनो एक दूसरे तै पृथक यही किये जा सकते ।
इसीजिए वाल्मीकि श्रौर उतके झ्रादश राप्र भी एक दूसरे से भ्रभिन्न है।

भातव वया है ? हूस प्रश्न का उत्तर दादतिक लोग कई प्रकार से'
देते हैं! किसीके मत में मनुष्य मनन करतेवाला प्राणी है। किसी की
बृष्टि मे बहू केवल बाह्य ध्ाधनों भौर औजारो से काम लेनेवाला जस्तु है ।
कोई इसे हँसने भ्ौर बोलनेवाला पशु प्रमफक र इसकी साधा रण सी परिभाषा
करते हैँ। वाल्मीकि की परिभाषा इन सबप्ते विल्नक्षण हे । उनकी दृष्टि मं
मनुष्य एक चरित्रवान्‌ भ्राणी है। चरिन से युक्त मनुष्य ही जीवन को
मूल्यवान्‌ और भ्राकषण की वस्तु बनाता है। चरिन ही भम है। चरित्र मे
जो मोहन मत्र है, वह भ्रन्यश्र कही नहीं |

चरित्र के भ्रादक्ष में रीर भौर मन दोनो का समाबेश है। वाटमीकि
के मत से तरित्रवान पुरुष घह है जिसमे शारीरिक विकास भौर नैतिक विकास
रथ के दो पहियो की तरह साथ-श्वाथ चलते हूं। राम के चणत में वाल्मीकि
ने जित विश्येषणों का प्रयोग किया है, उतके भ्रध्पपत से राम का धारीरिक

' मूल हाथ भनुष्याणा पैमेसारों महाद्युति ।

पुष्प फल न पन्न व शाक्षदतास्पेतरे जता ॥ (प्गो० ३३१४)





85% ४ फल्पवृक्ष


सौदय भौर गठन हमारे सामने ग्त्तिमाव हो उठता है। रा के शरीर में
कथे चौड़े और उठे हुए, भुजाए लग्बी, ग़ीवा शख की तरह और' होडी दोहरी
थी। छाती चौड़ी, ज़म्बा वनुष सभालनेवाले' घुटनों तक लबें हाथ, गले
की हड्डी माप्त से दयी हुई, उत्तम शिर, सुन्दर लल्लाट, बडी-बडी श्रास्ें,
चमकीला रा, सब श्रग बराबर बटे हुए, सब प्रकार शुभ लक्षणों से युक्त
देह, इस प्रकार राम का क्षत्रिय रवछ्प था। सप्तसिन्वु शौर भगा की
प्त्तवेंदी में दृढ़ता के साथ जिन श्रार्यों ने सक्यता का विकास किया, मालूम
होता हैं राम उनके सूर्तिमात प्रतीक हैं। हमें स्मरगा है कि महाक्ि
कालिदाप्त ते भी रघुवशी राजाग्री के भौतिक स्वृछूप की ऐसी ही उदात्त
कल्पना रबखी है---
व्यूहोरस्कों वषस्फत्ध शालप्राशुमहाभुज ।
अत्मकमक्षेत्र वेह क्षात्रो धम इवाशित ॥

भ्र्थात्‌ू--राजा दिलीप बी छाती घौडी, के बैग के समाव, लम्बाई
शालवुक्ष का स्मरण दिलानेबाली श्रौर भुजाए बडी बडी थी। वह क्षत्रिय
थे । क्षत्रियों का कर्म रक्षा करता है। उस कम के श्रतुसार ही भानो स्वय॑
क्षात्रधम ने शरीर धारण किया था। राम पूर्ण रूप से दिल्लीप भ्रादि राजपियों
की परम्परा के प्रतिनिधि हूं । भ्रार्य सम्यता का जो युगात तक फैला हुआ
इतिहात है, इक््वाकुवशी राजा उसके भेरदण्ड कहें जा सकते हूं। राम
को उस 'शूह्ुला का सुमेर ही समझना चाहिए।

आरम्भ में ही तपस्वी वात्मीकि तारदजी से प्रश्न करते है कि दस
समय लोक में गुशवात्‌, वीयवानू, धमज्ञ, इतज्ञ, सत्य बोलमेवाला, दुढ्भ्ती,
चरित्र से युवत, सब भूतों का हिते करनेवाला, विद्वान, तुदर, जिले द्रय॑
मर क्रोध को जीतनेवाला कौन है ? उत्तर गे तारदजी राम के प्रमेक गुणों
की तालिका प्रस्तुत बरते हैं। बारद का उत्तर भारतीय चरित्रकी विशेषता शो
को बतानेवाला शाज भी एक मानव है। अपने राष्ट्रीय चरित्र की गुणगरिमा
का अ्तु्तधान करने के लिए जब हम परिपद्‌ का सगठने करेंगे तब हमे जा रब
करे उत्तर का मूल्य ठीक-ठीक श्राकते का दुष्ठिक्ोण प्राप्त होगा। मनु ने राष्ट
के मस्तक को गब से ऊत्ता रखने के लिए लिखा है कि इरा देश में जन्म लेनेवाले
प्रग्मणी पुरुषों का चरित्र पृथ्वी के दूसरे देशो के लिए शिक्षा की वस्तु है। मनु


चात्मीकि ११३


की प्रतिज्ञा का पुरा भहत्व हमारी आो से मो कप होगया है। हमारी अन्त-
रात्मा का सुतण दे य के लोहे से हूकर निस्‍्तेज बत गया है। १२च्तु नारद के
उत्तर से चरिन की उस ऊचाई का कुठ प्राभास हम॑ भव भी प्राप्त होता है ।

राग नियतात्मा हु । उ होने हर द्रयों का जय किया है। वे महावीर्य
हूँ। सगाम में पर पीछे नंद्दी रखते | बूति भौर बुद्धि दोतों का उनमे विकास
है | वे तीतिमात्‌ और वार्मी, सुदर भाषण करनेवाते हैं। वे देपकल्प,
ऋणु भौर दा त हैं। धम के तर्व को जानते हूं | सत्यस्तव झ्ति मन,
का और बचा से सत्य का पालन करनेवाले हूं। राम क्षेत्रिय के पद से सदा
प्रजाओ का हित करते हैं। यशस्वी, श्ञानसपन्न, शुत्ति, वश्य और समा धिमान्त्‌
या चित्त की एकायता से युक्त हुं। जीवा के रक्षक, धरम के रक्षक,
स्वधम और स्वजनों का पालत करनेवाजे' हैं | वेदबेदाग मे फरगत श्लोर
धनुर्द मे तिप्ठित हैं। राम आय हु। सदा हँसकर बोली हूं, उनका
दशन ही सुदर है। वह सब शास्त्रों के मछ शो जाननेवाते स्मृतिवाल हैं,
उनकी बुद्धि मं तवीन कत्पनाशों या विचारो का स्फुरण होता रहता है ।
प्राकम में विष्णु, का ते से चन्द्रमा, फो 4 मे कालाम्नि, क्षमा गुण मे पूचियी,
त्याग मे कुबेर श्र सत्यग्रण मे स्ाक्षात्‌ पम के समान है ।'

प्रचीन ऋषियों ते जिस बुद्धियोंग का विकास किया था, रास उसके
उदाहरण हैं। पृख-दू ख, हानि लाभ, जीवन मरण भर एक समान अ्विच्नल
रहनेवाली बुद्धि ही प्रज्ञा है। गीता म ए+ समान ग्विचल रहनेवाली बुद्धि
ही प्रज्ञा है। गीता में इस प्रश्ञायोग का वणन है । राम के लिए प्रसिद्ध है कि
राज्याभिपक के समाचार के बाद बरदानिक वनयास के समाचार से उनके
मुख पर कोई परिवत्नन नही देखा गया। राज्य के नाश से' उतके मुख की
क्षी गे कोई अ्रतर नही पडा। बन को जाते हुए सौर पुभिवी को छोडते हुए
उनके चित्त मे जरा-सा विकार नहीं भ्ाया।' राम ने स्वय के रैयी से कहा है


* सल रामायण, स्षर्ग १।
* ते चाह्य महती जक्ष्मी राज्यनात्ोपफपति |
में बत गन्‍्तुकामस्य त्यजतश्च वहुस्धरास्‌ |
सबलीकातिंगरयेव लक्ष्यते वितविक्रिया ॥ (प्रयो० १६९१३१--३३)


११४ फल्पत्रक्ष


नाहुमथपरों. देवि सलोकमाथस्तुमुत्सहे ।
विद्धि मामूषिभिस्तुह्य विमत धमसारिथितस्‌ ॥ (अ्रयों० १९४२०)


प्र्थात्‌--हैं देवि, म॑ गथपरायण बनकर जगतू मे जीना नही चाहता ।
मुझे तुम ऋषियों के समान' तिमल धरम का भनुगामी समझो ।

वाल्मीकि की दृष्टि मे भरत भी धामिक हैं, राम भी वामिक है ।
चित्रकूट मे मन्दाकिती के तीर पर भरत ने राम की पूर्बोवत प्रज्ञा का
वणन करते हुए कहा बा+-

है राम, लोक गम ऐसा कौन है जसे तुम' हो ? दु घ से तुमको व्यथा
नही पहुची, कल्माण से तुम हृथित वही हुए | तुम्हारे लिए मब्यु और
जीवन, होता न होना, दोनों समान हूं। ऐसी बुद्धि जिसकी हो उसको
परिताप कहा हो सकता है ”


पथा मृतस्तथा जीवन यथासतििं तथाप्तति।
पस्सेब बुद्धिलाभ स्यात्परितप्येत केत से (अथी० १०६।४)


बाल्मीफि की दुष्टि में खरित्र जीवन का सक्रिय भाग है। प्रपने के द्र
मे श्राप समाकर मिस्तेज स्वार्यी जीवन बिताते हुए जो तदाचार रखा जाता है,
बह हेथ है ! उससे जीवन का गठन दड़क्वन पार मही' किया जा सकता।
वाल्मीकि हमे बार बार याद दिलाते हु कि राम प्रजाओ्ो के हित में रत रहने
वाले है, स्वजन और धम के रक्षक हु। स्वन दडकवन में मुनि राम के
पास भ्राकर बहते हँं--- है राम, तुम धमज्, धमवत्सल हो | कुछ पाचक भाव
से नही, धम के भाव से हम तृभसे कहते हूँ । राजा को पुत्र के समान पजा का
पालन करता चाहिए | बत म॑ फलगूल खानेबाले गुनि जो तप करते हैं उसका
एक-चीणाई भाग धम से अजारक्ष ण करनेवाले राजा को आप्त होत। है।
पम्पा, मन्दा किनी भोर वित्रकूट श्रादि स्थानों मे रहनेवाते मुनियों को राक्षस
लोग अगेष प्रकार से सताते है । यह सुनकर राम अपने धतुष की ओर देखते
हुए प्रतिज्ञा करते हुँ--मेरा वत्र म॑ आना बा फलदायक हुआ। मैं
आपके क्षत्रु राक्षती का अ्रवर्य वध कह्ूगा।'

पति का कल्याण चाहीवाली सीता को इस प्रकार की प्रतित्ञा से भय॑
हुआ। वह बोली--"हे राव, मिथ्या वावय तुम्हारा कभी ते हुआ है, त


वाल्मीकि ११५


होगा। पर बिना वर के दरुद्धभाव बारण करना भी तो उचित नहीं है ।
स्‍्तेहू से थ्रोर ग्रादर से में तुम्हे र्मरणमाय' दिलाती हु, शिक्षा तही देती ।
हम वन में थ्राये हुए है। कहां वन का वास भर कहा शस्त्र उठाना, कहा
तप की वृत्ति भौर कहा क्षात्रपम दोनों में मे नहीं है, यहां हूमेकी
देशधम का ही पालत करना उचित है। शक्त के सेवन से बुद्धि मतिन
हो जाती हैं। अ्रयोध्या' लौटने पर फिर क्षत्रिययम ग्रहण कीजिएगा ।'
यदि 'राण्य त्यायक र और सन्यात्ञ लेकर श्राप वन में मियमों का पालत
करते हुए रहे तो गौर भी भ्रपिक्र +म और प्रसच्तता की बात होगी'। धर्म
से सबकुछ बनता है, धम' ही जगत का सार है । है सौम्य, तपोवनत मे रहकर
धम का श्राचरण करो ।*

शीता एक उपाब्यात द्वारा तलवार की उत्पत्ति बताती हैँ इन्द्र
मे एवा भुनि को तपभ्रष्ट करने के लिए उसके पास आश्रम भे झाकर उसे
तलवार रखने के लिए दे दी। बस हर समय तलवार पास से रखने से उप्तवी
बुहि प्रचढ बने गई और वह मुनि शत्त रक्ने से मरक को चला गया ।
दडऊुथन के राक्षयों ने आपका क्‍या विगाडा है, बिता अपराध शाप छू हूँ
क्यो मारने चले हूं ?

परन्तु राम का निर्माण दूसरे प्रकार की मिट्टी से हुआ था । उसके रोम-
रोम मे क्षातरधम फडक्ता था । सीता के घमवाद की युवित का उनपर
कुछ शसर न हुमा । उन्होने कहा-- है देवी, में त्रया कहू, तुम स्पय समभती
हो । क्षतिय लोग इसलिए घनुष बाधते हू कि राष्ट्र मे 'य्रातां दब्द सुनाई
ते पडे---

क्षत्रिपर्धाते च्ापों नातक्षब्वों भेदिति।
(अरण्य० १०३)
"हु खी होकर दडकवन में मुनि लोग मेरे पास श्राये। मैंने उत्तके ढु ख की


' कत््‌ व बारन घद तू बस कब च्‌ क्षात्र तप पत्र वे।
व्याविद्ञमिदमस्मामिदाधपत्तु पृल्यतास्‌ ॥२७॥
फवर्ष फ़लुषा बुद्धिर्जायतें शास्त्रतेबनात्‌ ।
पुनर्गेत्वा त्वमयोध्या क्षात्रधर्म श्ररिष्यसि ॥२८)॥


११६ करल्पवक्ष


कथा सुनकर उनसे कहा कि मेरे लिए तो थह्दी बडी लज्जा की बात है जो
भाप जैसे विध्रो को मेरे पास ग्राने तक का कष्ट उठाता पडा। क्यों नहीं मैंग
स्वय ही सापका व प्ट दूर कर दिया ? यह कहुकर मते उप शुनियों के सामगे
राक्षसा को मारते को प्रतिज्ञा की । उस प्रतिता का पूरी तरह पालन करना
मेयर पम है। जबतक भेरा जीवन हें उस ब्रत ते में नही फिर सकता ।
हें सीते, चाहे मेरे प्राण चते जाय, चाहे उस्त प्रतिज्ञा की पूर्ति मे लक्ष्मण के का
तुभका भी भुझे छोडता पड़े, पर उत अत्त का पालन भ॑ भ्रवश्यम करूगा |
बिना कहे भी मुझे बहू काय करना चाहिए था, प्रतिज्ञा करके तो बात ही
दूसरी है ।
इस प्रकार का कममय व, सत्य और चरित वाल्मीकि को इृष्ठ था,
जिम्नवी व्याख्या के लिए उहाने रामकथा का झाश्रय लिया । बाल्मीकि
भ्पने युग के असाधारण व्यक्षित थे । वहु जगक के प्रिय सखा झौर दशरथ
के बातपन में साथ खेले हुए मित्र ये। भपने युग के भ्रादशशों को, ब्राह्म धम और
क्षानधम के सम बय को उ हांने सुन्दरता के साथ भ्रतिपादित किया है ।
बात्मीकि का वर्म का आावक्ष भनु और ब्यास के धम की तरह प्रणाओ
के पालत भौर राष्ट्र के धारण के लिए है। उन्होने भ्रतेक स्थलों पर श्पने
दृष्टिकोण का व्याद्यान किया है। धम के द्वारा सब वर्णों का पालन करना
राजा वा श्रेष्ठ कभ है ।
भरतजी' राम से कहते है--है घमज्ञ, चारो श्राश्रमों में गृहस्थाश्रम
श्रेष्ठ है, उसको त्यागना उचित नही है ।


चतुर्णामाभेमाणा हि गाहरुथ्य श्रेष्ठमुत्तम् ।
ग्राहु,धर्मत् धसज्ञास्‍्त कथ त्यवतुभिच्छतति ॥


क्षत्रियों का यही प्रथम धम हैं कि राज्याभिषिक्त होकर प्रजाओं की रक्षा
करे । प्रत्यक्ष की त्याग कर अ्रतिश्चित माग की उपासना क्षायब घुझो का
काम है। तोन ऋणु का परिक्षीष यही जीवन का ध्येय है ।

भरत के इस आद्ष से राम का मतभेद नही है, परमतु वह पिता की
सत्य प्रतिशा के पालन को श्रेष्ठ मानते हुं। पत्य धरम का मूल है। सत्य के
छोड़ देने पर जीवन झौर तोक दोनों मे सकट हो जाता है। रा स्व॑य अपतगे


वाह्सीकफि ११७


चरित से लोकदूषण था लोकूसकर नहीं कर सकते | दह्रथ के मत्री
जाबालि नोकायत्त पक्ष के मातोवाले 4 | परलोक कुछ नहीं, पर्म-बन्धन
कुछ नही, प्रत्यक्ष ही सब कुछ है , इसलिए है राग, राज्य पर प्रकार कर लो,
फिर अब तो भरत भी कह रहे है ! जाबालि को हस युव्ति का राम मे ओज-
पृण खडन किया है । प्राय होकर में मनाया-जैसा काम नहीं करूगा, बुलीन
होकर झकुलीतो का श्लाचार तही कछंगा, काम क॑ वशीभृत होकर सब
लोको को डुबानेवाला आचारण मुभसे न होगा । राजा ज॑से श्राचरण
करते हैं, प्रजाए भी बंधे ही बरतती हैं ।


यहृवत्ता सतत राजानस्तवृवता सन्ति हि प्रजा ।
(भ्रयो ० १ ०९।६)


भीष्म पितामह के दाब्दों मे राजा समय का बसासेवाला है । सत्य ही सतातन
राजवृत्त है, इसीलिए राज्य की नीव सत्य पर है । “सत्य से ही लोक प्रतिष्ठित
है। ऋषि भौर देव सत्य को ही श्रेप्ठ मानते हूं। अगुतवादी भनुप्य से लोग
ऐसे रे है जैसे साथ रो । स्त्यपरायणश धम ही सबका मूल है। सत्य ही
लोक का ईश्वर है। घम सत्म के ही आभित है। सत्य से परे गौर कुछ गही
हू । दाव, अज्ञ, अ्ग्निहोत आर तप सब सत्य के बल पर टिके हुए हूं। बेद
भी सत्य १९ प्रतिष्ठित हूं, हसलिए सत्यपरक होना चाहिए। अकेला सत्य
ही लोक का पाल+ करता है, वद्ी कुलो की रक्षा करता है। म॑ अवश्य पिता
के सत्य बी रक्षा करूगा। मेरे लिए यह भ्रसम्धव है कि लोभ से मोह से, या
भ्रज्ञान से, किसी भी प्रकार में सत्य की मर्यादा का उत्लघत करू ।

तब लोभान्न मोहादवा न घाज्ञानासमोन्वित ।

सेतु सत्यस्थ भेत्पामि एुरो सत्य श्र्तिश्रत्ष ॥

(झ्रयों० १०९१७)
यह त्् प्रत्येक व्यक्ति के भीतर रहनेवाल। ( प्रत्यगत्मा ) धम मुझे जान पडता'
हैं! यदि में श्रप॒त्म का आचरण कडगा तो क्षात्रघम से पतित हो जाऊग्रा |
यह भूमि, फीति, यश शौर लक्ष्मी सब सत्यवादी के लिए हैं। में काय-अकाय
को जानता हुआ खड़ा के साथ लोकयात्रा का तिर्वाहू कछगा।। यहू लोक
कसुभूमि है । यहा अ्रकर छ्षुभ कम करता चाहिए। श्रग्नि, वायु, सोसादि


११५ कल्एव॒क्ष


देव भी कम का ही फल भोग पाते हैँ। सत्य, धर्म, परानम, भूतानुकम्पा,
और प्रिय बचने यही एकोदय धर है, लोकागम की इच्छा रखतेबाले
पुरुष जिसका प्राचरणख करते ग्राये हैं ।

धम का ऊपर बहा हुमा प्रादश जीवत के भीतर से पतपता हैं । इस
माग का अनुयायी जीवन से भागता नही, वह उसको कम्त के जल से सीचता
हें भ्रौर उसवी छाया मे शाति श्र विश्वास प्राप्त करता है ।

बात्मीकि ने ऋजुजीवत की जो करपता की है उसमे हरेक पात्र धम
के ब धन से बधा हुमा है | हम मपने जीवन म॑ जिस जगह भी हूं, अनेक
प्रकार के सध्य बन्धनो से हम उस स्थान प्र स्थिर हूं। विद्यार्थी के लिए श्रप ए
धर्म है, गुर के लिए शपना धम है। माता गौर पिता, भाई ग्रौर ब धु, राजा
प्रजा, सभी व के बन्धन से बे है । जिस प्रकार शाधाद्ष मे प्रत्येक नक्षत्र
ग्रीर प्रह अपने माग मे स्थिर है, न वहा भय है, न सकल , इसी प्रकार जीवन
में अपने वम पर ध्रुव रहते हुए हम दूसरो से बिता टकराये प्रगति वर सकते
ह। क्षएभर के लिए कत्पना कीजिये कि जीवत मे नीति और प्रनीति के
ब धन टूट जाय, उस समय समाज भौर मातव की कैसी शोचनीय दक्षा
होगी ” यही लोकसकर है, जिसके स्मग्णमात्र से भारतीय समाजश्ास्ती
काप उठते थे ।

वाल्मीकि ने सु दरता से कई स्थातों पर इसबा परिचय दिया है
कि यदि धम की मर्यादाए टूट जाती, सत्य के बाध ढीले पड जाते, तो' राय
और भरत ज॑से धीर पात्र भी किस प्रकार आचरण कर बंठते। प्राखिर
मनुष्य के भीतर क्षमा भी है, क्रोप भी, धम भी है, भ्रधम भी , सत्य भी है,
ग्रसत्य भी । एक ही जगह ये द्व्न रहते हूं। पीर भनुष्य वही है जो इसके
दिव्य भाव को प्रहण करता है। श्रुत्ति का ज्ञान रखनेवाले पुरुप भी जब
'रजोग्रुणा मे सत जाते हैं. तभी महान्‌ मतथ उपस्थित होता है। राम धर्ग-
बन्धन से ध्युत होकर बया करत ? है लक्ष्मण, में झकेजा ही कद होकर इस
भ्रयोध्या को और सारी पथिवी को भअपने बाशो से नष्ट करके अपना प्रभ्िषेक
कर सकता हु, पर श्रधर्म से डरता हु (अयो० ५३। २५, २६) | कल्पना
पीजिये उस अयोध्या की, जिसमे राज्य लेने के लिए राम' बाग़ो का प्रयोग
करते । क्या फिर हमे वहा स्वर्ग का वह सौरभ मित्र सकता थणो आज


बाहमीकि ११६


तक ला हुआ है ” भरत को यदि वम का बन्धग बाधकर न स्खता ती
पयया करते, इसका उत्तर उ'ही के मह ऐ छुनने योग्य है ।
धर्मबन्धेन बद़्ोस्मि तेतेमा नेहु मातरम्‌।
हम्मि तीव्र ण पश्चेन दडाहा पापकारिणीम ॥ (भ्रयों० १०६१६ )
शर्थात्‌ू-- मे धमबष्धत से बधा हृथा है, इसीलिए पापका रिएी दड के
योग्य माता को तीज दड से मारे बिता छोश्ता हु ।” भरत कोश में भरकर
ककेथी को मार डालते और फिर उस पाप के दु ख से पम्भवत अपनी भी
हत्या कर लेते ) धम बर्मना के टूटने का कैसा घातक परिणाम होता,
इसवी बत्पतामान्न से रोगटे खडे हो जाते हैं । ये वे भरत हूँ, जिनके लिए
गोस्वामी ने यथार्थ हो लिखा हे--
जा मे जनम जग होत भरत को!
सकल धरम धुरि धरणि धरत को ॥


डीक ही है, राम ने, सीता ने, लक्ष्मण ते, एक एक वग्म का पातन किया ।
यदि थे ऐसा ने करते तो उत्तकी गणना प्राउत जीवा में हाती | पर यह भरत
ही हं जिहाने सब पायो के धम नी धुरी को अ्रपने कत्घों पर रखकर पूरा
उतारा । भरत भड जाते तो राम का धम, दशरथ का धम्त, तक्ष्मश और
सीता का' धम, सभी सकट में पठ जाते ।
धम से स्खलित होकर दक्ष रथ वंग्ा करते ? हु राम, ककेयी मे सुझे
मोहित करके वरदान ले लिया है, तुम मुझे कंद करके अ्रगोभ्या के राजा
तनो ।“परत्तु जित राम से दशरथ ने यह प्रस्ताव क्या, उनके लिए वाह्मीकि
सबसे पहले धम-मृता घर' विशेषण रखते है [ प्रयोध्या० १४।२७ ) | राम ने
उत्तर में थह गीत गाया
दंथ सराष्दा स्जता धनवातन्यप्तमाकुला।
सया वितृष्ठा बसुधा भारताय प्रदीयत्ताम्‌ ॥
पर्वातू-- धन, वान्‍्य, राप्ट्रऔर जतो से भरी हुई यह पृथिवी भरत
को दो, इससे सोच विचार का रघात नहीं है, भुझ्े राज्य नहीं चाहिए ।"
राम की माता, दशरथ की झअग्रमहिंपी कौशल्या धम को भूलकर क्या
प्‌ रती? "हे राम, में बडी मत्दभाग्या हू। ने जाने मुझ्लें सपत्तियों के कौन फौन


१२० कर पव॒क्षा


से वाग्बाण गुतने प्यों ? मेरे ब्नत, दान, श्रीर सब सब ऊप्तर में बोये हुए
बीज बी तरह व्यथ चते गये। है पुर, गाता तुम्हारे लिए बसे ही है जैसे पिता
हूं, बेस ही माता वा कहना माय है । में तुम्हे, बस जाने की धाज्ञा वही
देती ।/

कोई भी साधारण माता भ्रौर क्‍या कहतो ? परन्तु धमज्ञ राम
माता को स्मरशु दिलाते हू

पिवुनियोये स्थातण्यमेष धमम समातन ।

“हे देवि, राजा दक्ष रथ, हमारे तुम्हारे दोनो के गुर हैं, उतकी ग्राज्ञा ही
गति गौर धम है।” लक्ष्मणु तो धमब'ध के भ्रभाव मे साक्षात्‌ ज्वालामुखी
ही थे | कौज्नल्या के वित्ञाप को घुतते ही उनका भ्रवरुद्ध हृदय फूट पता है,
वह कौशल्पा से राम के सामने ही कहते है---'है देवि, राम का वन जाना
मुफ्ते तो कुछ नही जचता । बूढ़े राजा विषयास्ध भे। नहीं तो कौन राम-जंसे
देवकल्प पुत्र को बतवास दे देगा ” जबतक यद्दु खबर फैलने त पावे तभीतक
राज्य श्रपते हाथ मे कर लेना बाहिए | किसकी शक्षित है जो भेरे ग्ामने
श्रावे ? गाज श्रयोव्या को मैं सुनसान बना दूगा ? यदि भरत का कोई साथी
मेरे सामने युद्ध वे लिए भायेगा, यदि पिता कैकैयी के साथ हो तो उत्तका भी
बधथा वध कर देता चाहिए। एत्पथ म गये हुए का शासन करवा ही पडता
है (श्रयों ०सर्ग २१११९ १३)।” कौशल्या ने राम से कहा--"है तात, तुमने
लक्ष्मण की बात सुती | जां धर्मानुकून जात पड़े, करो।" परन्तु धमश राप्त
को लक्ष्मण का भटपट राज्यहुरण का यह प्रस्ताव बित्कुल पसन्द न भाया
उ होने समभाया-- है लक्ष्मण, तुस्हारे स्तेह को में जानता हु। इस' सवाय-
बुद्रि को दूर करो ।”

कंकेयी जब ग्रोचित्य भुज्ञाकर सीता को वल्कल् पहनाते लगती है,
तो वसिप्ठ ज॑ ते शा त और सदा एकरस रहनेवाले व्यक्त भी, रो पड़ते है
वे कहते हैँ--- है बुलपासिती, दुर्वुद्धि, राजा को ठगकर तुम मर्यादा भूल गई
हो । सीता बन को नहीं जायगी, केवल राम के लिए ही तो बतवात्त हुमा
है । गृहस्य भ्राश्म स्वीकार करनेवालो के लिए स्त्री उत्तकी प्रतिनिधि और


अयोध्याका३, सर्ग २०२१॥


बाएमीकि १२९


साक्षात्‌ अपना झापा है। इसलिए सीता राम की जगह गद्दी १९ बंठेगी
(प्रधोध्या० १७२२-२४) ।

व्िष्ठ ने बात तो धमश्ास्त्र के भ्रमुकूल कही । मतु ने भी कहा है, यो
भर्ता सा स्मृतागता, जो पत्ति है वही पत्मी है! १९ जीवन का जो सत्य है,
वह कानून की बारीकियों का मुह नही देखता | वमबन्च की दृष्टि का प्रस्ताव
राम को झौर स्वय' सीता को भी मान्य नही हो सका ।

प्रात्मीकि मनुष्य को भनुष्य करके जानते हं। मलुप्य कैसा ही पुर्ण
क्यों न हो,उसमे निबलता के लक्षण झा ही जाते हैं। सीता के अपहरण के ब[ 4
राम के धैय का बाध टूट जाता है । वे कोव के वशीभृत होकर अपनी सुनबु व
भूल जाते हैं, “है लक्ष्मण, यदि सीता कुवालपृथक गुगे न मिली, तो निश्लोकी
को मत्यु के मुख मे पहुंचा दृग) ] मेरे बाणों से श्राज सारा जगत मर्थावा के
बिना अस्तथ्यस्त हो जायगा। है लक्ष्मण, मिस प्रकार जरा झौर मत्यु, काल
ग्रौर विघाता, टाले नही टलते, उसी प्रकार मेरा क्रोध अनिवाय है ।” राम
के ग्रदुष्ट्पर्ष फाध वी देखपर लक्ष्मण छह शान्‍्त करते है, 'राजाश्रां को
युक्‍्तदड अर्थात अ्रपराध के अनुसार देड पेमेसाजा होगा चाहिए। पहले
भुदु भोर दान्त हो+ रु शब नो व के का रण अपगी प्रकृति को छोड देता शापको
दशभा नहीं देता | यदि आप जसे पुर प भी इस दु ख को न सह सबोगे तो त्वा
तामा -य और सत्प-स त्ववाले व्यीत सह सकेगे ? ससार भे किसको सापत्तिया
नही श्राती ? यह लोक का स्वभात ही है | पर श्रापके जसी बुद्धि रखनेवाले
पज्ञावान्‌ प्रुएुष देव के त्ञामत थोक नहीं करते। जगत की माता सवलोक-
नमस्कृंता जो भूमि है बह भी कप स॑ विच्लित हों सकता है, पर घीर पुरुष
धरम से विचलित नही होते ।''

बस्तुत सत्य ही जिभवा घुसरा नाप है, ऐसा घम पुथ्यी और प्राकाश
का आवार है ।

सा्येनोत्तन्िता भूमि सत्पेतोत्तभिता दो । [ग्रथव०)

धम की कत्पना को यहां के विचारतों ने उस्ती शाइवत़ पूल पर प्रति-

ध्ठापित करने का पयत्त किया है। जिस प्रकार पवत, नदिया, झाकाश


ग्ररण्यकाड, सग॑ ९४; ६६


५१४ कफहपथ्क्ष


गौर नक्षत्र प्रकृति मे ध्र्‌ व हैं, उसी प्रकार सत्य भी ध्रुव है। इस विएय में
पात्मीकि का दष्टिकोश शुद्ध भारतीय है ।

वाल्मीकि के प्रनुसार, राजा की गद्ठी राष्ट्र के कल्याण का हेतु है ।
प्रजाथा का 'याय और धम से परिपालन, यही राजा का प्रभान कर्तव्य है ।
राजा ही साधु और असाधुओ। को प्रलग प्रत्नग रखता है । राष्ट्र और लोक-
पक्ष के सगथत ग बात्मीकि का मत अपर लिणा जा चुका है। वाल्मीकि
गअराजफ राष्द को एक क्षण के जिए भी तही सह सकते । अराजक राष्डू
धोर जगलीपन' हे जिसमे संब प्रकार वी मर्यादाश्रों का लोप हो जाता है ।
अराजक राष्द के वणन में वात्मी कि ने एक गीत दिया हे, वह सस्व्त-साहित्य
मे श्रदभुत है । उसी के उपके राष्ट्रीय आदक्ष का सम्यक परिचय मिलता

अराजक राष्ट्र विनाश को प्राप्त ही जाता है।

शराजक जनपद में सेल दिव्य जल से पृथ्थी को नही सीचते ।

ग्राजफ जनपद में बीज को मठ खेतों भें मही बखेरी जाती ।

ग्रराजक देदा में पुत्र पिता के और स्त्री पत्ति के वशीभूत नहीं रहती ।

शराजक राष्द मे न धत रहता है, ने दजी | सत्य भराजक स्थान से का
रह सकता हैं ?

श्रराजक बेश में मनुष्य सभा नहीं कर पाते, प्रप्नन्ञ होकर उद्यान और
धर नहीं बनवा सफ़ते ।

भराजक देश भ यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण ब्रत ग्रहण करके सन्नी भे नहीं
बैठ पाते ।

अराजक देश मे यज्ञज्ञीत धती राह्यंण भी महाबज्ञा में रत्नों से पृण
पूरी वक्षिणा नहीं देते ।

श्रराजक देश में राष्ट्र की वृद्धि करनेवाले नट श्र वतको से भुक्त
समाज झौर उत्तव नही हो पाते ।

प्रराजक देश मे॑ व्यवहार करनेवाना के मतोरव पूरे वही होते । कथा-
प्रिय लोग कथा कहुनैवालों के साथ प्रेम नहीं रखते ।

शराजक' देवा में साथवाान के समय कुमारिया सवण के प्रत कार पहुन-
कर उद्यातों भे क्रीडा के लिए नहीं जा पाती ।


वाल्मीकि १२३


प्राजक वेश मे धनी लोग, जो कृषि श्नौर गोरक्षा से जी विका करते हैं,
सुरक्षित रहफर घर के किवाड खोलकर नहीं सो सकते ।

प्रराजक देश मे शीघ्रगामी वाहुत और थानों पर. स्त्री-पुरुष वन में
घुमने तही जा सकते ।

प्रराजक देश में साठ वर्ष के जवात हाथी पढे बाबकर राजमार्गों पर
भअूमते हुए तहीं निकलते ।

प्रराजक देश भ बाण चलाते का ग्रभ्यास करनेवाले योद्धाग्ो का ढकार-
घोष नहीं सुनाई पडता ।

भ्रराजक देश में दूर की याता करनेबाले बणिक बहुत सी पण्य-प्तामग्री
लेकर क्ृशलपुवक मार्गों मे ।ही चल सफ्ते ।

प्रराजक देश मे झा मा से ग्रात्मा का ध्यान करनेयारो, श्रफेने विचरते-
वाले, जहा साभ ही वही बसेरा करमेयाले मुत्रि कुशल से तही रह पाते ।

श्राजक देश म योग प्ौर क्षेम का ताश हो जाता है | प्रराजक राष्ट्र
की सेना शत्रुग़ों से युद्र वही करती ।

अराजक देश मे भ्रलक्ृत भनुष्य प्रसन्न प्रधवों मोर रथों पर चढ़कर
नहीं पत्र सकते !

अ्रराजक देश मे दा स्त्रविश्वा रद मनुरय वनों श्रौर उपवनो भे शास्त्र की
चिता करते हुए एक दूपरे से नही मिलते !

श्रराजक देश में जिते। द्रय पुरुष माता, मिष्ठान्ष शौर वक्षिणा से
देवताओं की धृज। वही कर सकते |

प्रराजक देक्ष मे राजकुमार लोग घन्दन श्ौर प्रगाण से बेह सजाकर
बरात में घान की तरह सुशोभित नही होते ।

जसे बिता जल के नदी, बिना घास के धन ओर ब्रिता गोपाल के गौए
होती हूं, बसे ही बिना राजा का राष्ट्र होता है ।

ग्रराजक देश मे मनुष्य का कुछ भी भ्रपना नही होता ! जल मे मछलियों
फे समान मनुष्य एक दूसरे को हडपने लगते € ।

वर्णाक्षम की मर्यादाए जिन्होंने तोौइ दी हैं, जितहे पहले राजदड दिया
जाता था, वे वास्तिक लोग निडर होकर अराजक राष्ट्र से प्रभावशाली
मम जाते हैं ।


१९४ पात्यच क्षं


जिस प्रकार शरगीर के हित भ्रहित की प्रवत्तक ग्राप्त है, उसी प्रकार
राष्ट्र में जो सत्य झौर घम है, उनका (रवत्तक राजा है।

राजा सत्य और घम है, कुलीनो का कुल है। राजा माता पिता और
राणा ही' हितकारी है ।

प्रन्त मे महाकवि' राष्ट्र और राजा की महिमा झौर कत व्य को सर्वोच्च
पद पर पहुचा देते हूं

यदि साधु अस्लाधुओ का पृथक विशांग करनेबाला राजा इस लोक स
ने होता, तो ज॑से दिच अन्वकार मे विज्ञीन हो जाता है, वैसे हो सबकुछ तम'
में डूब जाता ।'


१६
परीक्षित का सप॑


पुराणों की कथा है कि राणा परीक्षित ने प्रश्मानवश तक्षक नाम का
एक सप शर्मीक ऋषि के गले में डाल दिया था | ऋषि के शाप से उसी
तक्षक ने सात दिन' के भीनर ही परीक्षित को उस कर उसके जीवन का अन्त
कर डाला | परीक्षित ने जिस संगय ऋषि के शाप का समाचार सुना, बहु
घबरा गया ! अपनी' आयु को सात ही दिए में समाष्य जान कर उसके मन
भ विषयों से बैराग्य हो गया । परीक्षित की श्रनुभति मृत्यु के विपय में
इतली तीम्र हो उठी कि फिर उसका चित्त सासारिक भोगो से एकदम विरक्त
हो गया। बह सात ही दिन मे कुछ परलीक सुधार लेने की आकाक्षा से योगस्थ
हो गगा के किनारे आसन मार कर बैठ गया। । देश के राजा को इस प्रकार
साम्परायिक विचार मे लीन जानकर ज्ञान-मागर में निष्णात ऋषि और
विरिकत लोग गंगा तट पर एकत्र होती जञगे। उसी समय परम योगीश्बर


अ्रही तम इबेद स्पास्त प्रज्ञायेत किचन ।
राजा चेस्त भवेत्लीके विभजन्साध्यसाधुनी ॥
(श्रयोध्या० ६७३६)


परीक्षित का सप॑ १२४


विरबन महात्मा शुक भा उस ऋषि-सभी भें जा पहुचे । उतको देखकर वह
परिषद्‌ सम्मानपृथक उठ खड़ी हुईं। फिर थी दुकदेवजी के बंठते पर सब
लोगो ने यभावत्‌ भ्रारत यहणा किया । ऋषियों ने कहा---' है परी क्षित्त, तेरा
बड़ा सौभाग्य है जो परम तपस्वी श्रौर विरागी श्री शुकदेवजी का इस
समय यहा भ्रागमत हुआ, इतके उपदेश थे तेरा परम कत्याण होगा ।
यह जावकर परीक्षित ने हाथ जोड कर विनय की--“मह्म राज,
मुभे श्रव कैवल सात ही दिन में मृत्यु के सुश्च स चले जाता है। किस प्रकार
मेरा निस्तार होगा, सो क्वेपा कर कहियग्रे। ” उत्तर मे श्री शुक्द्ेवजी ने
पहा---" हे परीक्षित, ज्ञान तो एक क्षण में ही होता सम्भव है। पहले
कभी इतिहास मे राजा खटवाग की दो ही घड़ी में मुक्ति हो गई थी,
तुम्हारे तिए तो सात दिन बहुत हूं!” इतना बहकर शुकदेवजी परभपुरुष
पारायणु के, जी पिण्ड गौर ब्रह्माण्ड को बारण करते बाले हुँ शलौर जो
बामन-रूप से सबसे रमे हुए हुं, चरितों का निर्वाचन करते लगे और उस
अध्यात्म-चर्चा से परीक्षित का चित्त इस प्रकार समाविभान्‌ ही गया कि
सात दित के ग्रत मे उससे कहा कि यदि तक्षक मुझे ग्रभी उस ले और इसी
क्षणु भुझे देह से बिलग होना पडे तो भी मुक्के सेद नही होगा। मेरा भ्रव बहु
पूव देहाभिमात विगलित हो गया है। मेरा प्रतुभव देही के देह (यागने मे इस
प्रकार है, जैसे सप झपनी' जीण त्वचा को प्याग कर पृथक हो रहता है---


“अहिहि जीणमतिसपति स्वच्चप्‌/ (त० ब्रा०)


इस मताहर क्या का तात्यय क्या हूं ? जिस बिह्वात्‌ लेखक ने इस
रमणीय कथा के सम्पुद में भ्रपने भव्य प्रत्य का ठाठ बाबा है, उसीने
श्रपो भ्रातिम अ्रन्याय मे इसका विवरण इस पकार दिया है. काल ही
वह तक्षक सप है, जो हमसे से प्रत्येक के गले में पड़ा हुमा है। जिसका
देहाभिमान मिट गया है उपका तक्षक कुछ नहीं बिगाड़ सकता । जिसका
देहा भिमात गभी बना है, उसी को तक्षक का भय है । काल सब भूता फो
प्राय वाला है, यही यह सच्ची वार्ता है। शिवने समाचार दिन-रात के
भध्य में पक० होते हैं, उनमे यही समाचार प्रारिएमां के लिए सबसे भ्रधिक
महत्व रखता ह---


१२६ फल्पवक्ष


प्रकृति-नटी का नव न॒त्य क्षण क्षण में
यत्रारुढ प्राणियों को माया से तचा रहा।
मोह के फटाह में राध्रित्दिग हन्धन से
उग्त फाल भृत्तो को सत्य-सम पन्ना रहा ॥

सबके जीवन तो ज्रम नम से रूदने वाला परमतक्षा यहू तक्षक काल
है। इसके तक्षण से कोई मुवत्त नदी । परतु जिनका पेहाभास मिंठ चुका
है, ये इस तक्षण से विधलित नही होते | जो देहू की ही सवस्व मानकर
भूतें हुए है उनको तक्षक का स्मरण मान भी एपा देता हैं। इस महातक्षा
का रम्दा एक सप्ताह है। इत सात दितों फी भ्रावृत्ति पुए्र पुन होती हैं।
सप्ताह हपी र दे या बसूति से तक्षक काल सबकी जीवनावधि को निरतर
धड़ रहा है । तक्षक को साप कहा गया हूं । तक्षक का धम ही सपशणील है।
तक्षऊ-झूप काल व'भी खड़ा नही होता । तय के रथ की नेमि के समान तक्षक
सप सतत सपण करता रहता है। जिस प्रकार सूय की र4-नेमि वभी के
सिसित्ती (बयाकि वह श्ररिष्ट नमि है) बसे ही सबको जीण करके भत्यू-मुख
मे भेजते वाला तक्षक स्वय कभी जराग्ररत तही होता। तक्षक काल निमेष
रूप से स्वल॒प है, कल्प रूप से महान है। वह महाशप रूप से सबको ग्रस तेता
है। प्रसरण देवता इस तक्षक महादेप की कुक्षि मे ने जाने कहा पच जाते हूँ!
यदि हम भ्रनस्त काल तक भथवा लोमश' की शायु तक कर्प के ऊपर कह्प
की गणना करते चले जाग्र तो भी तक्षक काल का पारावार नही पा सकते ।

परीक्षित स्वय देह-मोह में गस्त था | वह भ्रम से तक्षक को रा ऋषि
के गले से पड़ा हुआ समभता था जो ध्यान भर तप से तक्षक के भय से
ग्रतीत हो चुका भा। ऋषि काल-एपी तक्षक का पात्र नही था | उच्तने तो
वासापि जीणाति' मज का साक्षात्‌ कर लिया था। तक्षक का पात्र तो
परीक्षित स्वय था । वहू जडा भिम्रात प्ररत था। भतएवं सप उलट कर उच्ती
को उसने का प्रायोजन करता है। ऋषि के गले भें णो तक्षक मृत है राजा के
गंगे भें वही जीवित हू कर पडा है। इस क्राशीविषी हप से बचना परी क्षित्त
के जिए ग्रशक्य है। सारा राज्य, वैभव, प्रतयकारी सेनाए उसकी रक्षा नही
कर सकती । गुढा तिगृढ राज भवत्र, जिनमें भय का समह्त कारण समाप्त हो
गया हो, तक्षक के देश मे पशैक्षित का तही बचा सकते । परी क्षित की जत्म-


प्रीक्षित का सप 9१०७


पन्नी मे ही मृत्यु के ब्रक पडे हो, तो प्रास्तीकँ का भैपज्योपचार क्या काम
दे सकता है ? मग्र, भास्तीक भौर परीक्षित--करोई भी ब्रह्मा के विधान
को नही भेट सकता । जो कच्चा दूब पीकर उतरा है, उसे एक दित अ्रवश्य
ही चिता-भस्म का श्रगराग लगाता होगा !
फिर बेचारे परी क्षित के लिए क्‍या उपाय है ” उसके ताएं की बस

एक ही गति है श्रर्थात्‌ तक्षक के ग्रवस्मग्भावी देश से पहले ही परीक्षित
के हृदय में ज्ञान का प्रकाश हो जाना ) विपया से वराग्य, ईश्वर में भवित,
ग्रात्मा का ज्ञान, सबका फल एक ही है--

ज्ञानाह भर्विर्ताह माह कछू भेदा।

उभय हूर्राह भव-प्तम्भव सेंदा ॥


बिना देहामिमाव से मुक्त हुए कात-सर्प का भय बना ही रहेगा--


देहासिमाने गलिते बिज्ञाति परमात्मति।
यन्न यन्न मनोमाति तन्न तन्न समसाधय ॥


ज्ञात कितनी देर म होता है, कितनी बार राम कहने पर मुवित मिलती
है, मे प्रथन अज्ञानजतित हू | परमाय वरतु काल सरया से भ्रतीत है । उसकी
उपलब्धि मे काल और सछ्या बावक नहीं है । परीक्षित ते समकझा--मेरे लिए
सात दिन थोडे हू | शुकदंव ने कहा, सात दिन तो बहुत होते हुं, शान तो क्षण
भर में सम्भव है । ज्ञात एक ज्योति हैं। उसके प्रकाश के लिए समय वी
गरपेक्षा नही । जिस क्षण भन्र विपया से विश्यत हो जाता है भर इृरद्रिया
भ्रन्तमुद्दी हो जाती हूं, प्रकाश भशकमे लगता है। आवरण का नाश ही
प्रकाश वा दशन है| इसके लिए साधते काम देते है, पर एक हुदे तक ही।
उससे आगे ज्ञान साधनों से स्वतन है| तभी तो उपसिषदों मे कहा है--+
तायमात्मा. प्रवधनेत लभ्यों
ते सेधया ने बहुना शुतेत।
यग्रेयेष व॒ुणुते तैन उभ्य---
स्तस्वैव प्रात्मा विवृण॒ते तन स्वाम ॥
ग्रात्मा जिसका बरण करती हे, उसको ही श्रपना रूप दिखा देती
हैं। यहु एक स्वयवर है। भाप्मा ही इसमे बर हैं---


श्श्ध्च फल्पवक्ष


श्रात्मा हिचर (तैत्ति० ३॥१२।४।७)
ज्ञान की गति शुकन्ति है। शुफ की उडान बी भाति ज्ञान किधर
से श्राया, फिनर को गया, इसका कोई निद्षात रास्ते मे वही दीख पडता ।
तिरतर अभ्यास एवं परमात्मा! की श्रपार कृपा से विरक्‍त मत जब समाधि-
युक्त हो जाय, तभी भानों सब व्याधियों मे प्रबल काल-तसप को व्यावि से
मोक्ष प्राप्त ही सकता है|


; १७
च्यवन ओर अशि्विनीकुमार


ब्राह्मयण-ग्रम्य और पुराणों म एक सुन्दर कथा आती है, जिसका पार
यह है कि बुड़ढे, जीण-शीण च्यवन ऋषि को प्रश्विन्ी कुमारों ने फिर से
युवा थना दिया ! पर्यिनी कुमार देवो के वैद्य थे । उन्हे वैद्य होने के कारण
प्तोमयाग मे भाग नही मिल्षता था । उन्होंने च्यवत से कहा--पदि हम तुम्हे
फिर से सुव। बना दे तो हमे कया मिलेगा ? व्यवन ने कहा--हम धछुम्हे
देवताशों के सोमयज्ञ में सोम का भाग दिलाबेगे। शष्िवनी कुमार प्रसस्त
हुए । उन्हीने च्यवत को यौवन दिया और स्वयं गोमपान के झधिकारी हुए ।
इस कथा का क्या अ्रभिप्नाय है ” अश्वित्ती कुमार कौन हैं, ज्यवन
कौन हैं ? कौसे वे वृद्धावस्था को त्याग कर युवाबस्था को प्राप्त कर सके ?
सोम क्या है और उसका पान करने से श्रष्वित्ती कुमारों का कल्याण क्यों
हुआ ? दहन प्रश्तो का उचित समावान यदि हस समक सके तो प्राचीन
भारतवष की वाजोय विद्या या यौवन-प्राप्ति के उपायों के सम्बन्ध मे
हम बहुत-कुछ जान छेगें ।
वेदा में अक्विती कुमार को देवताओं का वैद्य या देवी भिपक्‌ कहा
गया है। "है देवताम्ों के भिपक, भविवनी कुमारो, भपनी शक्ति के द्वारा
मृत्यु की हमसे वर करा ।
प्रत्यौहतामध्बिता सत्युसस्त॒द्‌ बेबासासने सिषजा दाचीसि ।
(अ्र्थर्थ० ७॥४३।१)


शंयवन ओर प्रश्विमीकुमार १२६९


ते दिव्य वध कोन से हूं, जो समस्त श्रह्माण्ड वी जिवित्सा बरतें ६,
जिनवी विशमानत। मे मृत्यु वा झानमरा नही हा पाता ? इस भरत का उत्तर
भी भ्रगले भन्न मे स्पष्ट कर दिया हे--


तरामत मा जहीत शरी प्राणापामो ते सपुजाबविह स्ताम्‌

शत जीव शरदोी बधमानो$रितिष्टे गोपा श्रधिपा व॒क्षिष्ठ ॥
(स्रथअ० ७।५३॥२)
अ्र्थाति--है पा गौर अपान, तुम इस शरीर में बरापर सचरण करते
रहो, शरीर को छोड कर मत जाशो, तुम दोनो जोडीदार (सयुजी ) होकर,
सुयुतत सखा को तरह रहो । है मनुष्य, तुम निरतर वधमान या वर्धिष्णु
होते हुए सी वर्षा तक जी वित रहो | वसिष्ठ शग्नि तुग्हारा रक्षक है। इस
मत्र में स्पष्ट ही गस्विती कुमारा की व्यारया करके वताया गया है कि
प्राण गौर भ्रपान ही सदा साथ रहने वाले अध्यिती हू। गश्विनी की एक सजा
नासत्य है, नासिका मे सचरण करने वाले ध्वास-प्रध्यास-छूप प्राण्ापात ही

तासए्य हूँ । असा कहा है--
नसों प्राणों भ्रस्तु


प्राणापान नामक ग्रश्विती कुमार देवताशो के बच क्या हैं ” भारतीय
विचारको के प्रनुसार चिकित्सा-पद्धति तीत प्रकार की हीती है+--

१ ग्रायुरी--चीर-फ्राट के द्वारा, शत्थादि

२ मानुपी--काष्छादि श्रीषधियों के हारा

० दवी--प्राणायाम योगादि के द्वारा

भ्न्धियों की शल्य-ज्िया के द्वारा यौवन की प्राप्ति आसुरी विधि है|
काष्ठादि गौपधियों की सहायता से शरीरस्य रसो की जीता दूर कर के
उनमे तवीन बल उत्तन्न करना अश्रविक उत्तम और स्थायी होता है, ।योकि
दुरगे रोगी के मस का भी किसी हद तक सस्क्ार होता है। मन की
शक्ति से शरीर का स्वास्थ्य और रसो की पविन्नता उत्पन्न होती है ।
क्तोध-चि४स्तादि मानसिक व्यावियो के का रण ही क्षरीर में लगभग चालीस
प्रकार के विष उत्पन्न होते है । उत विपो को दूर करके शरीर को नस-
ताडियों को निविप बनाता मन के शा ते क्षिवात्मक सकलल्‍पो का काम है।


१३७० फल्पवरक्ष


प्राणायाम के द्वारा यह काय सबशेष्ठ रोति ते ध्रिद्ध होता है। नाड़ी शुद्धि
भ्ीर तिविषता वी प्राप्ति के लिए भ्रासत और प्राणायाम के समन भ्रुण का री
दुमरा उपाय पी है| इश्नलिए प्राण विदा वी चिकित्सा-प्रमाली को देवी
मान! गया है । वस्तुत प्राण ही म्मृतत्त है। जहा प्राण ह वही अमृत है ।
मत्य शरीर को श्रमर बना[नेबाले' प्राण ही हूं ।
भ्राणा एवामृता क्रासु बारीर अत्यमू । (श० १०११।४)१)

प्राणी के दवा रा यज़मान सचवा प्रा शिमान ह में सब शपने श्रापको भ्रज र-
अमर बना रहे है । सनातन योगविधि, जिसका यम ने तचिकेता को उपदेश
दिया, प्राए-विद्या ही है। इस से ग्रायु सच वा साववत तथा अजर, ग्रमर,
अरिष्द स्थिति प्राप्त होती है। वदिक उपण्यानों में सोम का और प्रमृ
का घनिप्ठ सम्बन्ध है। सोम हो अमगत है। प्तोम भी प्राण और अमृत भी
प्राण है । परल्तु यहा सोम-विद्या के सम्बन्ध में प्रधिक त लिख कर प्रस्तुत
उपाश्यान को ही स्पष्ट क एता सभीष्ट है ।

शरीर की प्राण शर्बित का स्पास्थ्य, झांदात और बिएग की किया की
स्वस्थता पर निभर है । इसी को प्िंबालिक रेद []/870[0
78/6) भी कहते ह। वस्तुत्त प्राणीतपादिनी जीवन-शक्ति ही सबकुछ है।
कभी यह वर्धिष्णु या ववमान र६॥ती है, जैसे किश्नो रावस्वा में । उस भ्रवस्था
को ऐनेबीलिक कडीशन (/3738/00]0 20॥0770॥) कहते है। कभी,
जैसे बुढ़ापे, मे यह शकित क्षथिप्णु हां जाती है, छीजने लगती है । तभी मुत्यु
बा आक्रमण होने लग जाता है। क्षरीरस्थ स्तायु, मज्जा, रस सभी पर
बृद्धावस्था या जीणता का प्रभाव पडता है । शवित का आ्राबार श्राधिभौ तिक
है; इंश का रण शरीर की धातुए जीण या जरा ग्रस्त होने लगती हैँ! यदि हम
इस क्षथिष्णु प्रवृत्ति को रोकना चाहें, तो णरीरस्थ रस और धातुश्नो को
स्वस्थ भौर निमल बताना ग्रावशयक है। इस क्षयशील दक्षा का नाभ ही
च्यवत-स्थिति है । इस स्थिति में शरीर का ह्ात होने ज़गता है। व्य। व,
जरा, जीणएा, भुप्यु--सब ज्यवन फे ही झूप हुँ

सनुष्य की श्व्त की एक सजा 'वाज' है। बाज को वीये या रेत भी कहा
जाता है। बाज का पान क रने बाले जो कर्मक ए्डी थे उतको ही बाजपेय कहा
जाता था। शररस्व रेत रवित को शरीर में ही प्रा लेना सफल वाजपेथ


च्यवत भ्रोर शव्बिनीकुमार १२१


है। उस जीरन रस को क्षीण कर डालता वांज की हानि है। जिस देह मे
से वाज रिस रहा हो, बह कभी पृष्ट नही हो राकती । बाज से शुयत्यक्तिको
पुत वाज सम्पन्न बनाना हो वाजीकरण विधि हू, जिराना वर्णन झायुर्पेद के
बाजीकरण तत्रों म थ्राता है। जिम्त शरीर मे वाज भर रहा हो, जहा बह्म-
व की धारणा पिप्जलक हो, उसका प्राण भरदाज कहलाता हैं । च्यवत-
प्राण का उलटा भरद्वाज-प्राण है । भरद्वाज-प्राण वाज का पान करने वाला
अथवा वाजपेयी होता है । पुत्र यौवन की प्राष्ति के लिए, धातु भ्रौर रसा की
शुद्धि क॑ लिए प्राकृतिक चिकित्सक! ने जा अ्रनेक उपाय बताये हुं भौर जी
अबाचीन बाल के भ्रायुविज्ञान के पुण्पित कमल के समान प्रत्यत ग्रादर
भाव से देखे जाते है, उन सबका समावेश प्राण विद्या या वाजपेय-विद्या में
समभाा चाहिए। भारतोय ऋषिया मे झायुष्य सवधत भ्रौर स्वास्थ्य-
रापादन के प्रकृति सिद्ध विधानों की शोर कुछ कम ध्यान नही दिया था।
वस्तुत उहीने इस विपय के जितने गश्भीर रहस्म जान लिये ये, उनका
यथाथ परिज्ञान एमारे समय के लिए बहुत ही' श्रेयल्कर हो सत्ता हैं। शरीर
के भीतर जो प्राण की गर्मी है, बही प्राणारिति हमको तीरोग बनाती हे।
श्ौपधिया तो उपचा रमात्र हूं।शरीर की गत्मन्त अद्भुत गौर चमत्कारिणी
शंबित ही प्राकृतिक चिक्छ्सिका का विश्यस्तीय शस्त्र है। इसी के द्वारा
शरीर वी रक्षा, भायुष्य की वृद्धि भौर रोगो की निवृत्ति होती है। इसी
तनूपा भण्ति को साम्मोधन करके हम इस सकल्प था पाठ करते ह---


तमृपा श्ररतेशसि सन्ब में पाहि, झायुर्वा भ्रस्तेश्सि भ्रायुर्म बेहि,
बर्चोदा प्रस्ने४सि बर्चो मे बेहि, भरते यब्से तत्बा ऊच तत्स प्रापण ।


भ्रथति-हे प्रस्ति, तुम तनूधा हो, मेरे शरीर की रक्षा करो,
हैं अग्नि, तुम श्राशु की देने वाली ही, मुझे श्रावु दो,
है भ्रग्ति, तुम बचस्न को देने बाली हो, मुझे वचस्‌ दो ,
है भ्रग्ति, मेरे शरीर भ जो कमी हो उसे पूरा करो ।
यहा प्रग्ति का प्राण अज कुछ हमारे मंग की कल्पना नहीं है।
छपिषंदों और आह्यणो मे श्रनेक बार अग्ति का प्राण अब पिया गया
है । मबा--


११२ कलपवबृक्ष


प्राणो क्रसत तद्‌ हि शर्ते छझपस्‌ | (इतपंथ १०२।६।१८)

प्राणो बाउश्रग्ति । (श० २१२।२।१५ )

तदग्बिर्त शरण (छोमिनीय उपनिषद ब्राह्मण---३११२।१ ११)

धाण पअश्ति । (ह० ६११२१)

ते वा एते शरण एप यू श्राहवभीय याहुफ्यान्वाह्यय' पचनास्या

प्रगनय (शत्त २४२।२१८)

बुतका तात्यय यहीं है कि प्राण ही अभिए है। यज्ञ' में जो गादृपत्ण,
दक्षिणागि और आहबतीय नामक तीन भ्रश्तियों की स्थापना वो जाती
है, उनका क्या ग्रथ है इस सम्बन्ध मे प्रइत' उपतिषद्‌ मे लिखा है---


प्राणागनय एवेतस्मिन्‌ पुरे जाग्रति। गाहपत्यो हु वा एघो5पान ,
ब्यानो5बाहाय पत्रत, यदूगाहुपत्याषणीयले प्रणयनादाहुअनभीय प्राण ,
गढुच्छवासनि इवासावैताबाहुती सस भयतीति स॑ सप्तान, भनो हु धाव


पजमात हद फलमेवोदान , से एवं जयमागसहरहक्राद्य गंभधति ।
(प्र ०5० ४१०४ ]


प्र्भात्‌--६स शरीर-रूपी प्रह्मतगरी म प्राणारितिया सुलगती रहती
हैँ (उस समय भी जब भ्रय इत्यादि देव सो जाते हैं) | गाहुपत्य
भरत अपान, श वाहाय पच्नन या दक्षिणार्िनि व्यास, श्रौर श्राहवतीय
प्राण है। प्वास-प्रधवास रूप श्राहुतियों को साम्यावस्था में रखने वाल!
समान है। संत यजसान है, इष्टफल प्रदान है। वहू इस मन को नित्य
ब्रह्म के समीप ले जाता रहता है ।

इस प्रकार निष्पक्षपात होकर मनत करने से हमे प्रावीन यज्ञ सबधी
परिभाषाओं के शाश्वत अर्थों का परिचय प्राप्त होता है। उतको जानकर
सम प्राचीन भारतवर्ष के ज्ञान के अधिक सकश्चिकद पहुचकर उसके नित्य
भूल्य को पहचान तिते है । व्यवन भौर अश्विती कुमा र जसी कभा ये के प्र्थों
को झ्लोलने के लिए इन्हीं सशोधित परिभाषा का ग्वलम्बत प्रावश्यक है ।

प्रदइत हैँ कि ज्यवत्त ने जब अव्विनीकुमारों से यौवन मागा तब बदले मे
क्यों गद्वितीकुसारों ने यह क्षत खज्बी कि यदि तुम हमे यज्ञ मे सोम-पान
वाराशो तो हम तुम्हे यौबत दे सकते हूं । इसको जानने के लिए साम को


ज्यवन भ्रोर शश्विनोक भार १३३


समझना झ्ावश्यक है ! वीय, रेत या शरीरस्थ रप का ताम ही सोम रस टै ।
केन्द्रीय ताडी जात सौषधि बतस्पत्तिया हु जिनमे सोमरश भरा रहता है जा
नीचे सुपम्णा नांडी वी छाखा-पशासागा को सीचता है । इस रस पर ही
मस्तिष्क की समस्त चेतवा भर है। एश रस के सम्य ध से श्र्वाच्ीन श री र-
शास्नी भी गनेक गाहचयजाकऊ गहत्न वी बात बताते हुं। मस्तिष्क को
सीचकर शुद्ध मौर बलवात्‌ तनाना इसी रस का काय है। यहू सोम-रस रेत
था तीय-रूप से शरीर म॑ सचित हाता है । ग्रसयम ऐे का रण इसका शरीर से
बाहर क्षय हो जाता है। जबतक प्रारयायाम-शप झश्वितीकुमार इस सोम
कापी सकते ६ तबतक शरीर मे जरा का साकमण तहीं होता | ज्यवत्त
की क्षीय शबित को फिर से अजित ग्रौर बर्धिष्ठ बता ने के लिए यहू गावश्यक
हैं कि शरीर के सोमरस से उत्प न दावित शरीर भें ही रहूं, अर्वात प्राणा-
पान उस सामरसत का पात करे । थह बरीर भी एक बज्ञ है--
पुरुषों व पत्ष


इसके भीतर जो प्रकृतिक क्रियाए होती हू, उनका ही भ्रनुकरणु यज्ञ
के वभनाण्ड म॑ किया जाता है। शवित सवधन के लिए साम रस या रेत
का झ्रीर में पाचन अ्रतिवाय है, इसी कारण अ्रश्वितीकुमारों ने व्यवन
से यह प्रतिज्ञा कराई कि हम तुम्हे यज्ञ मेसोम पान का भाग ग्रवश्य
दिनानेगे ! ज्यवन के तप से यह सम्भव हुआ । उसी को महिमा से च्यवनर
की जीणता दूर हुईं। जो उचित प्रकार से सोम का पान कर के मन श्रौर
शरीर की स्वस्थता का सम्पादन करता रहता है, वही सदा भ्ररिष्ट,
शजर, झ्मर रह सकता है। उसी के लिए कहा गया है---
प्रचिशत शणापानावनडवाहाबिव ब्रजंय ।
श्रय जरिग्ण शोबधिररिष्ट इस वधतास्‌ ॥ (प्रथनु० ७।५३॥५]
पर्यात्‌ू--प्राणापात इसके शरीर में प्रविष्ट होते रहे, ज॑से गोष्ठ भे
दो श्रनडुबान्‌ हो स्तोता की यहू निधि प्ररिष्ठ (प्रक्षय) रूप मे बढती
रहू | वह भी च्यव के सदृग कहू सवाता है--
पुन भाण पुनरात्मा न ऐतु
पुनश्चत पुनरसुन ऐतु ।


१३४ क्पल॒क्ष


बश्वानरों नो भ्रदब्धरतनूपा
झन्तत्तिष्ठाति दरिताति घिहता॥

से बचता पंयसा स तनूशि

श्गन्धाह मासा से छिपेत १

व्यष्ठा तो श्त्र चरीय कंणो-

त्वनचु मो भाहई तत्वों पहिरिध्ठश ५

(अ्रथव० ६॥४२।२३)
अर्थातू-मेरे शरीर में प्राण, शात्मा, चक्षु और जीवग की पु

प्रतिष्ठा हो । शरीर-रक्षक तनूपा मण्वि शवष्य रहकर, सब दुरितों को
हुटाता रहे | यचस रस प्रौर तनु के साथ हमारा मेल रहे | हमारे शरीर
मे जो जीणता का भ्रद्य (विरिष्ट) हो, उसे त्वष्टा या शरीर के लिर्मातरा
प्राण भो डाले ।


3 ऑंध
कृष्ण का लीला-बपु

सूरवास शौर उनके एकसौ एक ब धु कवि ब्रजभाषा मे जिस काव्य की
रचना कर गये है वह उनका तत्त्व दशन के लिए हृदय से क्या हुआ शुद्ध
प्रयत्ा था । व्रजभाषा की भवित-रस की कविता ने कई सौ वर्षों तक ज्ञात-
तत्व बी रक्षा के ज़िए शमाज में वसा ही महत्त्वपुण स्थान प्राप्त कर लिया
था जँसा तिसी समय उपनतिपदों में पाप्त किया था। झनेक्त सन्त, भह/त््मा,
साधक, श्राचा र-शुद्ध भक्तों फे ध्यात वी साकार प्रतिमूर्ति श्रजभापा की
कविता है । इस काग्य शौर तुलसी के राभचघरितमानस कांब्य मे एक
सबिताशी सचित्य ब्रह्म तत्त्व की ही उपासना की गईं है । जो व्यक्त
कृष्ण और राम को उत्च' रूप मे बेवते था सानने मे भ्रसमथ है, जिसमे
सूर औ्रौर तुलसी ने उद्दे देखा या, धह इस काव्य के बाह्य रूप से तो
परिचित हो सकता है, इरामे ग तर्निष्ठित प्रामन्‍्द तत्त्व या रस सिध्चु से
उसका सा तच्निध्य नहीं हो सकता, प्रर्थातूं मंत्र नहीं जुड सकता ।


कृष्ण का लीजा-वु १३५


सर के दृष्ण साक्षात परवह्य हूँ । वबिक साहित्य से लेकर भारतीय
प्रध्तिए्फ ने जिस चत ये तत्त्व वी घराबर सोज की है, युग युग में सथे-तगे
नामों गौर छपों मे समाज गै जिसया अनुभत किया है, जनता के माउस
को जिसने पाणव"त, उत्माहित और शायल्दित बयाया है, उसी ग्रान दं-
घत चताय तत्त को सूर ने 'इृष्ण' राजा प्रदात पी | सूरतागर से वे इस
सन्य को रहते हुए नही थकते | फुप्ण 7 गान द-छूपी ब्रह्म-पक्ष का तिरो गाव
होजाय तो उपकी तीला का रशा ही जाता रहे, बह तो जड शरीर से होने-
वाली चेष्टापओो वी एक तिरयफ लड़ी बाकर रहू जा सकती हे ।
कृष्ण फे इस नित्य स्प॒रूप के साथ इतिहास को उलभेत है | इतिहास
मतुष्प को देशााल से जडकर पड़ता चाहता हे। बह सत्य घटनागों बे
एूंढता हैं । लीला मातवी जीय वी नित्य ध्याख्या प्रस्तुत करती है। तीला-
वपु रसमय और. ग्रा।दी हांता है । इतिहास का व्यत काल के गाल में
पडा हुआ बापुरा प्राणी है । जिन अ्रविप्राया (गॉटिफश) के अनुसार
जीपन रूपी कमल शपने गान द फैछ म्राकासस्यित सूय मी प्रेरणा पाकर
सिज पंखुडियों का विकास करता है वे सदा सबंप्र सबके लिए एक हूं, एक
सत्य उतका नियामक है । कमत के विवास के विए अम्व॒का र का तिरीभाव
घाहिए, उसे श्रा तरिक जीवा, प्रेरणा, प्रानद, उल्लास, सौत्दय और रूप
मिलना चाहिए, तभी उसका विकास राम्भव है| यह श्रादश स्थिति कमल
फी जीवत लीला है, जो सब पद्मो के लिए ग्राधारभूत सत्य है। एक कमल
के जीवन में कौन स्षा सरोपर था, कितने जल से वह खड़ा था, उसे पुष्ट
करने वाले कम में जितने रासायनिक तत्त्व थे, उनके कारण किस पणुबी
ने सूय-र्ान के लिए पहले अपने नेत्र रोले, और किस भौरे ने उसका चुम्भन
किया, इस ग्रकार का तेखा इतिहास की उत्सुकता को श्रवद्य' था त कर सकता
है, किन्तु क्मल वी पित्त नित घटनेवाल्ी जीवन लीला इससे झ्रधिक व्यापक
श्रीर भ्रमुतमय है । गाज हमारा शिक्षित मस्तिष्क ऐतिहासिक कृष्ण को
पकडना चाहता हू। 3मारे मत के किसी परदे मे ऐसी आशका! बनी रहती
हे कि जिप् वृष्ण का जजाल सुर मे खडा दिया हे वह हमारी बुद्धि को ठगने
के लिए है | वैज्ञानिक बुद्धि बार वार सूर के कृष्ण से टकराकर बापस
लौट आती है । पहु हमारे लिए बडा श्रस्मजस बन जाता है । त तो हम


१३६ कर्पव॒क्ष


झपनी सत्यानुसवान की नई पद्धति को ही छोडफर जी गक्ते हैं गौर न उसके
हारा चंतन्य को ही पकठ पा सफते हूं। गह उलभन सच्ची है प्रोर में समभत्ता
हैं, इससे झूकार करना बुद्धि की ईमानदारी न होगी, परवु ब्रह्मतत्त,
चतत्य था मित्य भ्राप्मतत्व, इसी पद वी एक पहेली रही है जो पहले भी
थी गौर भाज भी है। हमारे लिए बुद्धिमानी यही होगी कि शूर ) द्वप्ण का
जां ग्रादश लिया था उसे ही भ्पने मन की दाक्ति से जीवित या प्राजमय
बताने का प्रयत्न करें | कम से-क हर के मन म॑ तो कृष्ण उस' बहमरूप
में ही सत्य प्रतिष्ठित थे और उसी स्रोत से मूरसागर का जगत्‌ गिमित
हुआ है। अथवा यो भानतलें कि सूर का सत्य भी तो किसी गानस में शपनी
सत्ता रखता था जो उनका ग्रुभव था। उसवी खोज झौर पहचाय भी
पं वैज्ञानिक पद्धति का श्रग है। वस्तुत कवि के सत्य को उसी के नेम
से देख शकना ही सच्ची वैज्ञानिक बुद्धि कही जा सकती है !
सुर के मानस का मालचिन क्रुछ इस प्रकार खीचा जा सकता है

संसार में एव अपुत्त ब्रह्मात्मफ सत्य हे जो झआताद से परिपृण, रस से तुप्त
शीर ज्योति से भरा हुम्रा है। उस अमृत सत्य की प्राप्ति मनुष्य का झाव-
इथक कत॒वथ्य है भौर उसके पाने का एक माग है। उस सत्म के साथ एक
प्रतृत पक्ष भी है। जो सत्य से विपरीत है वही प्रमृत है| जो ज्योत्ति का
प्रतिपक्षी है बही तम है। तम को हटाकर ही थ्योति प्रतिष्ठापिए होती
है। यह “निर्मुणा वाचता हुई। इसी तीन पैड सत्य की संगुण वाचना भी
है | सुर के बब्दों मे बह इस प्रकार है दृष्ण ही परब्रह्म के पण प्रतीक था
#प हूं । ने लीला से मातव, पर वस्तुत परश्रह्म हूं। उनभ अक्षय भ्रान'द या
रस परिष्ण' हैँ! कृष्ण प्रानस्द के छठते हुए फब्वारे हैं | श्रज के ईतरे'
बावक के रूप भें वे सवरणक्षील ज्योति के सफलिंग हूं जो अधेरे वो हटाकर
सपत्र प्रवाश भरते हूं | जहा ऋष्ण प्रकट हांते हैं वही वे शान्ति, तृत्ति
प्रौर सौहाद के बरदान से मनुष्य के मन को सीच देते हैं । क्षष्ण को पा लेमे
पर और कुछ पाने की इच्छा दोष नहीं रहती | कृष्ण जीवन के रहात्मक
झ्रातन्दी निर्भर है । वे ई द्रयो के सरार के भीतर से उठती हुईं भ्रानरद-
ज्योति हैं। ने चताय की सरसत्ता हूं जिससे समस्त जड़ जगत पुलक्षित
भौर प्रफुत्लित होता है| सूर-दगन वा यह प्रयम' पद है।


कृष्ण का जीला वपु १३७


कृष्ण हुयी इस श्रप्ृत सत्य को प्राप्त करन का माग सु रूदशन का दूसरा
सत्य है । यह मांग हृदय को थद्धा है, वही भक्ति हे, इसी एक रस्सी से
चत य तत्त्व वावा जा सकता है, ग्रगवा या कह सफते हूं कि चेतस्य को बत्बस
मे लागे के लिए प्रक्नाति मे थद्धा के गतिरिदत मौर फोई रस्सी बगइ ही नदी!
बाधने मे लिए मुष्स के हाथ केवल एक यहो रस्प्ती आई है । मत को चाहे
देवता क साथ बाधो, बाहे मातुभूमि या राष्ट्र के साथ, अद्धा या प्रेम की
दाम'री के सिवा श्रीर कोई उपाय नही हू । ताभ या बल के बवन सब विक्ृप्ट
ह। कृष्ण वो यशज्ञोदा बहुत-सी रस्सिया मे वावने लगी, पर सथ व्यथ हुई ।
वे तो श्रत भे एक ही रस्मी से बाछे जा सके । उस रस्सी का वैदिक नाम
श्रद्धा शोर लोफिक नाग भक्ति है। निछात् के भनुसार 'अत्‌' सत्य का पर्याय
हे (सत्य नामसु पठितम्‌) । भ्त्‌ या सत्य जिसम रखा हो वह श्रद्धा है। बिसा
जीवन सत्य के श्रद्वा की आग नहीं जन ती | यही जीवन का झुव झविचायी
नियम है । जो ज॑सी धद्ना रखता है वह वही है--यो यच्छुद्ध स एबस ।
श्रद्धा ही जीवन को निष्ठा प्रदा] करती है और श्रद्धा ही उसमे प्रेरणा भरती
है। चेतन्य तत्त्व को पकड़ने, भ्रमुभव करने या झात्मसात्‌ करे का एक-
मान उपाय सु दर सात्तविवी श्रद्धा हे। यही सूर के मातवर्नचत फी दूसरी
रेखा है ।

पूर के भादर की तीसरी पेडी ज्योति के विरोवी तम की स्वीद्वति
हैं । यही कृष्ण के विरोधी गसुरो के विनाश वी कथा भ्रयवा आसुरी तत्त्व
के पराभव की लीला हे । देवासुर-प्याम में देवो के साथ अ्रश्ु रो की भिडन्स
के वणन ऋग्वेद से श्रारम्भ होते हूं


नेतबस्ति यहू बासु रस यदि दसन्वास्याते त्वत उद्यते इतिहासे त्वत्‌।
ततो होबेताब प्रजापति पापाना सविध्यत्‌ ते तत एवं पराभवन्‌ इति ।
तस्मादेतद ऋषिणा+्यनृक्तम ।


इन्द्र भौर ब॒च्च के युद्ध को ज्योति श्रौर तम, गानस्द भौर
विधाद, भ्मत और मृत्यु के पस्थप का झूपक बताकर बहुत रोचना
के साथ वेदों में बहा गया हें। ब्राह्मण॒कारों में उस ढक्‍कन के
परे देखते हुए स्पष्ट कहां है कि यहू देवासुरी युद्ध कोई इतिहास


१३८५ वाहपवुक्ष


पी घटना नहीं है ।' अह तो प्रकाश और उसका आबरण करो वातें
पाप की लड़ाई है। 'पराष्मा वे बूत्र ', थाप ही बूतासुर हे--यहू बेदिक
परिभाषा है । इसो का तोता रूपों से विश्तार (उपबहरण) पुराणों
में पाया जाता है। सुर की कृष्ण लीसा भी उसी का एक नवीनतम
राफरण प्रस्तुत करती हें। यही सूर वे दाशनिक जिवोश की तीसरी
भुजा! है। यह भी नहीं भुलाया या सकता कि सासुरी झ्क्तियों से भुद्ध
भौर उनका पराश्मव सृष्टि प्रकिया का सत्यन्त श्रावश्यवा बम है । इक
श्रथवा कृष्ण दोगो के जीवन में इसे प्रकट होना ही चाहिए। श्रा कुमार-
रागी के अतुसार अयुर गआरि के प्रतीक तत्त्वतान की भाषा के लिए वेसे
ही गत्यावश्यक बारहफडी हूं जेसे देशनशास्त' के लिए छब्द |

कृष्णा के भीचत की लीलाए तत्त्वज्ञान की बारहसडी या
गछरोंटदी के झृप में ही श्ावक हो प़कती हैं, क्यथा वे बच्चों के
मन बहुलाव वे! उदाहरण है । घन मे लगी हुईं भीपणश श्रग्ति का पाने
कृष्ण के जीवय वी उभरी हुई एक लीन है। दावाउलन्धायमन का सूर-
शागर में झ्त्य ते चमत्कारी वणन हैं । 'दाबानत श्रच्त्रों श्जराज, ब्रज
जन जरत बचायो', ग्रह घटा भौतिक क्षत् तक सीमित मही है । यह
दावानल्न तो जीवन की फराल गलत है, जो उस्ते भस्म फरो के लिए कही
भी प्रकट हो सफती हे । शी श्रभी हमारे राष्ट्रीय जगत मे एक कठोर


! सत्य युथृत्ते कत्तमच्चनाह गतइमियों संघवस्‌ फहच सारित ।
मायेततता याति यद्धान्याहु । साथ झन्रु मे पुरा युयुत्स ॥

प्रधातू--है इह, तुछ्र किसी विद लंबे मही, तुग्पारे युद्धों फी बात
साया (रूपक लीला) है। (क्तपथ ब्राह्मण ११॥१(६१७)

जकित वैखि धह याहि मर भारी ।

घर शाकोल घरावरि ज्वाला, भपटत तपद करारो॥

पहि अरस्यी साँहि छिरक्यों काहू, कहे सो गयो बिलाई ।

श्रति श्राधात करत बन भीतर, फंसे गधों शुक्काह ॥

तृण की प्राग बरत ही बुक गई, हँस हँसि कहुत गुपाल ।

सतह सूर बह करति कहते यह ऐसे प्रभु की सु्थाल ॥॥


कष्ण का लीला पु १३


दावापल् फैल गया था। उसने भनुष्य मात्र के हृदयों वो भुजसा डाला
था, उसके ग्रात्तक से सभी प्राणी व्याकुत थ । इस दाबादल का श्ावसन
राष्ट्रपिता तपस्तरी महात्मा ने किया यौर राष्ट्र + म्ता होते हए शरीर और
सन वो उधार लिया | उस घदना मो मात्ी बह या पअ्तिमालवी ?
हम सब उस चमत्वार के साक्षी रहे ६ ।

इस पकार के दावानत को स्वतेज या दवित से श्ञा त करने का ग्रभि-
श्राय या अलवार अभुन के जीव मे भी श्राता है । दावानल्न या बिप की
गरित स्थूत एप से भले ही भि.त दीस पड़े, पर प्रव्यात्म भाषा की दृष्टि से
दो) एफ ही चूम तत्त्व के प्रतीक हं। समुद्र मजन से उत्प न विप वी दाहक
ज्वाताश्रो से जिस समय सब देवता जन रहे थे, उस समय शिवराज क देवी
सत्य ने उग विप का पास कर लिया था--

जरत सकल सुर यूतद, पिधम गरल जेंह्टि पांव किये ।


शिव्षजी बिंय पान न १२ जाते तो भमुद्र-मयंत से उत्पन्‍्त श्रमृत देबो
वी बाद में कभी न आ्राता। आता भी तो उसका शा त उपयोग वे कभी ने
क्र सकते | जो शातति के रस से सिफ्त नहीं वह ग्रगत नहीं रह जाता ।
हमारे बिगत राष्ट्रीय भवन से उत्पल्त जो श्रपत था उसके था स्वादय के लिए
दावावल के पावमन या विएपात की जनिवाय झावश्यक्ता थी । सगाज
या राष्ट्र के जीवन का जी सत्य है वही व्यत्ति के जीवन का सत्य भी है ।
एकोदय प्रोर सर्वोदिय दाना धम एक ही देवी विशेषता से प्रेरणा पाते हू ।

यमलाजुत को उप्काउ फेकपे बी छोटी-सी लीला भी भ्राध्यात्तिक
भाषा के साथे गे ढली है । हम सभी यमलार्जुत से बे हूं। वास रूप
के येदोंठाई वक्ष हमारे जीवन को रोके ख- हैं। कृष्ण जीला की परिभाषा
में यमजाजन यक्ष राज कुंबैर के दो पुत्र थे जो भिज स्वषप खोकर शाप स
युक्ष बने ये । वदिक परिभाषा में ताम छूप दो मान यक्ष हँ---


ते (नामरुपे) हू महुती यक्षे गहती अधस्वे ।
अ्र्थात--नाम और रूप ये दी बडे वक्ष हूं, पर ऐसे यक्ष जिनकी सत्ता
भही, जो प्रप्व हैं, दिखाई पट पर भी जो हू नही । जीवन को बाधने वाले
इन खूदो को जड-मूल से उखाड़ फेकता ही पुराता अ्रध्याप्म का माग है।


१४० फश्पवृक्ष


श्रीकुमारश्वामी न वेदिक परिभाषाशों की व्याख्या करते (ए मृत्यु का
बरुण-पाश या मृत्यु का रूप कहा है शौर बताय। है कि इस मृच्यु या मृत्यु
पर बिजय पाता अ्ध्यादाद्यार्तत की ग्रावशयक्त सीढी है। उनके भ्रनुसार
मुचतिद नाग के ऊपर बुद्ध की प्रिजय प्रौर मुचुकु द के ऊपर कृष्णा की
विजय एक ही तत्त्व को कहने की दो परिभाषाएं हू ।

वरुण या मावरणात्मक पाश डालने वाली शक्त ही ग्रहि वृत है।
उस वबच्णा से छुटकारा पाया वैदिक ग्रध्यात्मशास्त्र का सत्य त प्राबीन राकेत
था | वरुण के पाश' मे जकड़ा हुआ रोहित उनसे छूटठने का प्रयत्न करता
है। यूरोप के उत्तराखडी देशो के ताडिक गाथा-शास्न में भी समन्‍्दरी दुड्ढे
(शोल्ड मैत भ्ाँव दी सी) से 'छुट्फारा पाते की करपना पाई जाती है।
समुद्रबासी यहू जरठ बुड़ढ़ा जब पीठ पर श्ववार हो जाता है, कठिनाई से
उससे छुटकारा मिलता है! बरुण ही समुद्रतासी बुडढे हैं! वे नंद को
पकडते हैं भर कृष्ण उनसे पद का उद्धार करते है। का लियदमन #ंप्ण-
जीवन की भ्रत्य प्रसिद्ध शीला है। वैदिक परिभाषा में श्राकाश-चारी
प्रकाश-क्षक्षितयों की सज्ञा गझड भौर भूतल पर रेंगनेवाली अरस्धकार-
प्रभात वृत्तियों की राज्ञा सप है। जीवन-जल के सब सोततो पर तागो का भ्रधि-
कार है। जीवन के जितने जल कमल या शवित-चक हैं, सव कालिय ताग
के झधिकार में ह। शक्ति का प्रतीक यह कालिय ताग सबके भीतर बीठ-
बर जीवनी शबित को अ्पते ही बह में रखना चाहता है थ्रौर अपने ही
$ंगे से चलाना चाहता है, किन्तु उसके कालीदह में जीवन नही, वहा तो
मृत्यु का निवास है। तागपर्थया कृष्ण उ। कमलो का उद्धार करते हैं जो
जीवत के छूप हैं। ताग-नाथत था कालियदमन भारतीय ग्रध्यात्मशाहत्र
की परम्परा वी प्रसन्‍न परिभाषा है, जिक्षके पीछे रबक्षा हुसा श्र सरलता
से समझा जा सकता है ।

इन लीताझो का पअध्यात्म-अथ प्तम भते हुए हुए' कृष्ण को खीते मही,
वरन्‌ उछ्ठे एक नये जोक मे प्राप्त करते है जिस लोक मे हमारे भ्रध्यात्म-
शाहत्र को प्राचीव धारा का सारस्वत जल भरा हुआ है ।

कृष्ण-लीला इस रुप में अवेली नहीं है, रामलीला और बुद्ध-लीला
भी उसी अध्यात्म शैली! पर निमित है। बुद्ध का भाववी रूप उनके


फृष्ण का लाला बपु 4


लीला-बिग्नह मे कही छिपा पडा है | औमती राइस बेन्िड्स ते 'गौतम, दी
मंत' पुस्तक म बुद्ध क गासयती रूप या सायह करके उस उद्घाटित कश्त
का प्रयत्न क्या। विस्यु पुद्ध ता शाला-विग्नह मानी रुप का परेन्‍पद
निराकरण करके ग्रताबिदिया मे बे पयल और कौबा से अव्यात्म श्रर्षों
बा ताना-बाया बुपपर वलाया गया था। पुद्ध के की। झप हं--भाशवी
(हा मर), भ्रतिमानबी [सुपर-हु यम) और अवौक्िक (घुपर मठेव ) ।
मानेवी रूप का शाज तऊ पुरातरव मे कोई भी समसामयिक अमात पहीं
मिला । पिपरावा गाव (बस्ती--गारखपुर वी सीमा) के स्तृप से मिली
हुई धातुगभ मणूपा के लेख से ज्ञाव हाता है कि दुसीति झ्रादि शाक्यों ने
युद्ध के घरीर स सर्म्वा वत कुछ विक्त (सलिल निधने युधत भगवतों
उसमें रक्‍्े ये। बस, बुद्ध के तने ही मानवी प्रमाण से पुरातत्त्व धती हें ।
देप परम्परागत श्रनुक्षुति भ्ौर साहित्यिक प्रमाए हु जिसम बुद्ध की शति-
मातवी लीला है । माता की दाहियी कोए से जम तेना, जमते ही सात पर
चलता--वाते कब मानवी हुई है ” इदसे भी भागे एक युग ऐसा झाया
जब महायान सम्प्रदाय के प्राचागा ने बुद्ध के वमकाय की ज्यास्या करते
हुए यहा तक कहा--वे मूख हैं जो समझते हैं कि बुद्ध का भी हांड भास
का शरीर कभी रहा होगा, वस्तुत वेपथ्वी पर कभी हुए ही गही, ये तो
धम-शरीर से गत्य है जो अनादि भत'त है। मानवी हाचे पर बुद्ध का लील-
व्रिप्रह तैयार करते की एक युधित भारतीय शप्यात्म १रिभाधाम्रो के भ्रतु-
शार जात-बुफफर बताई गई | उस थुविति को तिख्रोलता श्रौर उसके
शभीष्ट झब को समझता उन्ही परिभाषाग्रा के गनुसार सम्भव है ।
यही प्रक्रिया शौर तथ्य कृष्णलीला के विपय में भी घटते हं। फप्ण
बेः तीन विग्नह हैं जिन्हे मू्तिग्यास्त की भाषा मे द्विभुजी, चतुर्भगी और सहस्ल-
भुजी कह सकते हूं । मानवी कृष्ण द्विभुनी हू या छ हें होता आहिए ।!
उतका इतिहास-पुरातल्वगत बहुत दूर का धमाण बस एक वृष्शिगशा का
बचा हुआ पिकक्रा है जो काल के गाल से छटककर हमतक आ पहुचा है ।
वृष्णिगण-राज्य के प्रधभोवता राजन्य की कुछ कलक महाभारत के शा त्ति-
पव से है जब अपने-अपने दलो का गणु-ध्भा भ सेतृत्व करते हुए छृष्ण भ्रोर
प्रकूर की नोक-फोक भी हो जाती थी । कृष्ण के मानवी झूप के उद्धार का


१४२ फरपवक्ष


प्रयष्य भी बकिमब दर भे गपते 'करष्णु-चरिता! में फिया, पर वैशानिक
इपफिहाग पी आधरकशिना ता उसे पाप्त परी ते हो सकी ।

दूगरा शवतारी ए॒प्ण का जीवा-विगद्ठ है जो घतुभु जी है। भागवत
वी आधार-भित्ति उठी है। बह भक्ति से जन्मा है । इससे भो ऊपर क्ृषा|
का ऐश रुप है जा सत्ता तुजी है और जो गीता ?। ६, १०, १४व अध्याय
वा! विपप्न है। गीता के शब्दा से बह रुप अनत्त, भ्रव्यप, शतसहत्च नाता पिध,
भ्रदृभुत, उग्र, सदरात, वाबरप, सुदुष्ण, विराट गौर विशं/हूप है | उसे
नरणांत्रा गे मतुप्प की आँसां ने पहले कभी नहीं देखा, ठीक उस बुद्-
विग्रहत वी तरह जिसके लिए गहायान सम्प्रदाय के लोफोत्त रवादी गाचायोँ
ने इपट्यर बह्ठा था कि घुद्ध मापव चर्म-नेव से कैसे देते जा सफ्ते थे ।
कृष्ण का ऐश्व्यरूप भी चम चक्षुश्री का विषय यही ! उप्ते देखने के लिए सर्जन
वो विव्य चक्षु बिये गए । मनुष्य ती कया, वे4ता भी उसे बेजया चाहते हैं,
पर देख पढ़ी पाते । वह दिव्य शाश्वत १रप सहूस्नभुजी झूग मे केवल भवित
रे देसा जा सकता है। गीता की साक्षी के भ्तुपार ही जाए पडता है कि
तारद, भ्रतित, बेवल, व्यार की परम्परा ने पचरात वज्ञन में कृष्ण के इस
भननन्‍त विराट विग्रह के निर्माण ग भाग जिया | गीता में इस विराद छप॑
रो धबराकर शर्जुन उसी सीम्य रूप को देखा चांटता हैं। वह तदैय'
(वही) रूप कौम सा था, वो हाथो वाला भागवी नही, बल्कि गदा भौर
घक्र लिये चतुभु जी रूप---


किरीटिन गवित 'चक्रहुस्तमिच्छासि त्वा प्रष्दमहु तमेव ।
तेमेय रूपेण चतुर्मुणेत सहल्नवाहों भव विश्वसूततें ॥
(गीता ११४६)


भागवत मे मिद्ठी खाते हुए कृष्णा ते और रामलीता मे राम ने सराताग्ं
यो क्षण भर के लिए विराद रूप की झाती दी थी। दुर्भोधत को भी कृष्ण
ने एक बार विरादू रूप को कर दिखवाईं थी, किधु यह पिरादू या भरहुल-
भुजी एप हमारे तिए ऐस ही काम (या बे काम) का है जैसे सृष्टि का निर्गुण
गिरा॥ार तत्व | मधुर रशा झपने परगार]ु छूप से सब्टि में ही है, पर यह फिस
काम का ? मनुष्य को तो झरा-परमारु से भ्रागे बढ़कर मिल्नी की हली


कृष्ण का जीला यु १९३


चाहिए । इस भीठी इली' के निर्माण का शाम ही लीला बएु है । प्क्षति
का सूक्ष्म अन्तरगी ठाठ ता शायद कोरकोर गणित के निथभो मे समाप्त
ही जाता है, पर वह गलभ्य हैं। उससे निभित स्वुल झप मानव के काम का
है। गणित का मधु तत्व गन्ने और ग्रड रूप थे थाना ही चाहिए। यही बात
सभुण के विषय मे हैं। राम-क्ृप्णा जा भी उपत्त। झप बनाता चाहा बनाश्रो,
सभुण के लिए लीला बपु श्रावध्यक है शोर उसका प्रयोजन भी पढे पदे
निर्गुण तत्त्व वी महिमा की रयाति ही है। मिर्गुण की महिसा के वरदान
से ही सभुण पर शततिसानवो भ्रावरण चढ्ता जाता है। उदाहरण के लिए
गय्टलीला को ले। बच्चे' के जीवन मे सामा"य रूप से छोटी गादी का सभी
को १रिचय है । उसे ही शवटासुर मानकर बाजन-हूप द्वारा उसका बे
ज्ञीला वपु का निर्माण करता हैं। जीजावपु की वहुपत्ना में भ्रव्यात्म-
परिभापात्रों की सहायता लेनी पड़ती है।

बदिक साहित्य मे मानवी शरीर की कई सन्नाए € ज॑से पूर्ण घट, दी
नाव, देवरय या शकठ। प्राण रूपी बैल इस शरीर के छकटे को चला रहा
है! इसीलिए प्राण को अनडवान्‌ (अगनठ या छकड़ेवाला ) कहा गया है --
श्रतड़वान्‌ प्राण उच्यते (श्रथव॒०) ॥

इंस दरीर रूपी शकट था शकेटासुर को बाल-#प्ण ने बिज्ञद दिया।
इसके गान, कीतने, कल्पना से एक मथुर लोला बी । छोटी गाडी के
उलहने पुलटने मे कोई बचित्य या भावुष नही है, पर शकठासुर वे बा्ल-
कृष्ण हारा ध्वस्त होते मे लीबा का भाधुय है। जीजा भ्रास देन है ।
मनुष्य के मन को झानन्द-बन वत्तु को आवश्यकता है। इसी तत्त्व पर
लीता घपु का निर्माण होता ह। आन द-घन लीला चाहे वह कृप्ण की हो
चाहे बुद्ध की, साधुधमय या भिश्ली की डइली का रूप है । हमारा पश्पना
जीवन, जो उसी लीला के ठाठ पर बना है, उस मिस्ती की चंसनेवाली
जिल्ना है। मानव को यह विश्वास था श्रद्धा रखनी ही पडती है कि शील[-
वषु माधुर्थ और ध्रानत्द घन है । जितना मिठास उप्तसे हम्न अपने जीवन की
पुप-जलत्रसयी लीला से ले सफ़े, वही हमारे काम का है | इस प्रकार जीवन
की गावश्यकता के भीतर से हक्ता ने प्राचीन अध्यात्म परिभापाश्रों का
सहारा लेकर लीला का विकास किया |


रढढ फश्पवक्ष


लीला का स्थल रूप ही कवि के तिए अत्यायनश्यक हैँ । इंसीलिए उद्धव
की भाति ऊष्ण को ध्यात अयवा योगगर्य बनाया सुर ग्यवा वजबाधियां
वो रुचिकर तही । सूर का बडा साका इस वात में वही है कि उन्होने
पुरावी परिभापाम्रों ऐोे बारीक सत्य किया करके उसके भीतर ठिपे हुए
अध्यात्म को सिद्ठ करने का प्रयत्न किया | सूर की सफतता इस बात
मे है कि उत्होने देश-सम्मत परिभाषा के रयून रूप की भातुका या साथे
को जैसा पाया वसा ही स्वीकार करके चतुर शिल्पी या चितेरे को भाति
प्रनेक सुम्दर रूप या थ्रालेखन प्रस्तुत किये। सर ै चित्र अत्यन्त संजीव हूं,
उनबी वणवा-शक्षति की थाह प्रयत्त करवे पर थी नही मिलती । एक ही
कृष्ण के चित्र कां रगो और तूलिका की शवित से कितने ग्रप रिभित भावी
में वे सजा सके हैं, इससे उनके कवि-झूप को महिमा प्रकट होती है | सूर
सागर का प्रमर भीत तो कविता की पराक्राष्ठा है | बह धुद्ध आनन्द का
अक्षय सोता है । सहूदय के लिए उसमे रस-प्राप्ति की प्रतुल सामग्री है ।
हमारी दृष्टि में भ्मर गीत की तुला मे रखने के लिए विश्व-साहित्य भे
हमारे पास बहुत कम क्तिया हैं। सत्र और बुद्धि के शाइवत हन्दू या
तारतम्य का इससे श्रधिक काब्यपूण, पल्‍्लबित, सरल भर श्रद्धा से क्रिया
हुआ वणन अन्यत मिलता कठित है । कितु भ्रमरगीत तक की कंची से
तत्त्व की वतर-ब्योत नही है। मानवीय भ्रात्मा मे चैतन्य की साक्षात्‌ प्राप्ति
के लिए जो जन्म-जम् की झाकुलता है वह भ्रमणीत का सार, उसका गाए
श्रौर रस है। स्त्री के भन में पुरुय के लिए जो सब॒त्मि-समपश का भाव
प्रकृति ने स्वय भरा है, उसमे जो झचिन्य और अपस्मिगय प्रेम तत्त्व है---
इसमें सदेह है कि विश्व में पूरी तरह उसकी थाह कभी लग सकेगी---
और शरीर के स्थृन्न रबत-माए से लेकर मानस के सुक्ग तस्तुओं तक में
प्रेम का स्वय भ्रतूभव करने की जो उत्सुकता या छटपटाद्वट है, चैतस्य के लिए
आत्मा की जाग्रत झाकुलता की उपसा यदि किसी से दी' जा सकती है तो
सनी पुरुष के उप्त प्रेम से ही | इसी सुन्दर रवस्थ प्राणमय तत्व से भ्रमरगीत
का लिर्माण हुआ है। धर में भ्रमर-गोत के भीतर इस मणि को कही रख दिया
है जिसका प्रकाद धुवजा नही पडता । भ्रमरणीत में ऐसा सोता उनके हाथ
लग गय! है जिशमे से कगी ते छीजसे वाली भ्रानद की रप्तकडी सदा तिकलती


क्रष्ण का लीला[न्‍वप १४५


जान पड़ती है। अमरगीत के बणत साहित्यिक ठाठ से सवारे हुए हु,
फिर भी उसे दाये-बाये नये नये हैर फेर की ग्रदशुत शपित सवन्न मिलती
है। उसकी भाषा की दकसादी गठस ब्रजभाषा के प्रत्रि बूबन श्रद्धा उत्पन्न
करती है| उसके ग्रथों की पैती शक्ति दूर तक बेधती हे ।


बिलग मसति मानो ऊधो ध्यारे

वह मधुरा काजर की उबरी, जे प्रायें से कारे ।
तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे सधुप भवारे।
तिनहू माक प्रधिक छबि उपजत, फल भैन समियारे |
मानों नीता माठ में बोरे, ले जमता शु पदक्षारे।
ता गुम स्यास भई क्ालिदी, सूर स्थास गुन स्पारे॥


श्रथवा


ऊधो तुम बेगि ही त्रज जाहु।

सुरति सदेस सुत्राई मेदो, वल्लभनि को दाहु ।
काम पावक तुलित संत सें, बिरह स्वास ससीर।
भस्म नाहित होन पावत, सोचनति के नीर॥


इस पद को लिखते समय मातो सूर-तुलसी ने एक दूसरे के साथ
टीपते मिलाये हो । तुलसी की प्रसिद्ध उक्ति है----
बिरह अभिनि तन तुल सभीरा।
स्थार जरे छत भांह सरीरा।
नयत ज़र्वाहु जल निज हिंत लागी।
जरे मे पाव देहू बिरहागी।॥।


सूर के विनोदी सधुबनिया रंयास ने उद्धय के अद्वतदर्शी रंग के साथ
विनोद का एक अ्ततिशिष्ट रूप भ्रमरगीत भे रचा है। उसमे गोपियों की
गपरिमित कसक और कझणा का व्यग भरा है । उसके भीतर से धृरदास
के भक्त हृदय फी अमर वाणी आज भी सुनाई पढती' है--
कही प्रदेश सूर के प्रपु के, यह भिर्गुत श्धियारी ।
अपनो बोधो पाप जोतिधों, तथ शापहि निम्यारो।॥
१०


१४६ कएपनक्ष


शर्थावृ--हैं ऊघो, सुर के सगण प्रभु की बात कहों तो भला | निर्गुण
तो भ्रधियाता है, गिर्गण की अपनी खेती बोई है, तो झाप ही काठो,
निर्गुण की गाठ लगाई है, तो पझ्राप ही सुलभाशरो ।

सूर की महू मांग ध्यक्ति के हृदय की साग तो है ही, हो सकता है
क्रि निर्गण की गाठ हे सुलफने पर कभी युग बी भाग भी बत जाय । सभुण
प्ौर मिर्गुण की उल कन का लोक-पक्ष भी है। राष्ट्र (रठे5) निर्गुश, व्यक्ति
पा जत् शशुण भर प्रतक्ष-सिद्ध है। उसी के कल्याण में रस है। कोर
सिद्धान्त या वाद निर्गुण या अमृत है, कि हु जन का जीवन मृत और प्रेस
का पात्र है। हमारे प्मस्त सिद्धान्तों या मतवादों को सगुण जत-जीवन की
कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। जीवन से पराड गुख्त मंतवाद उद्धव
के रुप हैं। जीवन स्वयं गोपियों की भात्ति रसं-सुप्ति का इच्छुक है।

राब्ची भ्रज संस्कृति मध्यमु॥ के बहके हुए व्यवितिमी का करमे से बच
तिकलते का मार्ग नही है | यह तो भाशतवर्प के कई सहस्त वर्षों के धार्मिक
इतिहास के प्रवण्ड मयन से उत्पन्न हुआ मबंखन' था, अथवा समुद्र में
तँरता हुप्रा सुदर कमंच था जिसने देश को समत्वय, स॒प्रीत्ति और समवाय
का सुर प्देश दिया । यह वह भहायान या चौंडा माग था, जिस पर
सकीर्णता को दूर करके सबको चलते का निमनणा दिया गया !

उप्त महाथान की पताका पर यहु भेत्र लिखा था---


हरि को भ्जे सो हरि का होई


इत्ही' दीप्तिपटों से तो समाज फे मत में नया प्रकादा भरा जाता रहा,
जिसके सरते वाले अनेक ध्यानी, ज्ञानी, भ्रभ्यासी, आचारपुत तपस्थी,
सन्त-महात्मा और भक्त थे | बे ही न्रज सस्कृति के संस्थापक थे। इसी'
संस्कृति के मार्ग से लोक के छठपटाते हुए गत को नग्मा प्राणवायु पहुच्तता
(हां । मतवाद की चारदीवारी के शीह-प्राचीरों ने जब जीवत को रूध
दिया, तब ब्रण को प्रेम-भवित-प्रधान सर्झति ने सब प्राणियों के लिए जीवन
को रहने के योग्य बताया और मानव को मालब के प्रति श्रद्धा का पाठ
पंढायों | प्रमाज में जो सहलों वर्षों से पग्नु बने थे वे इस सस्क्ृति की कृपा
से पर्वत लाबने लगे, णो भ्रस्थे बने थे वे राबकुछ देखते लगे, जो बहरे


प्राभम विषयक धोगक्षेम १४७


थे उनके कान कर्तव्य, सम्मान, भर्यादा के संदेश रुनाने के लिए खुल गये',
और जो गूये ये उतके कठो भे स्वर श्रा गया । ऐसे बन्धन-पुक्‍्त' कठो के
गान श्राज भी भारत की सास्कृतिक निधि मे रत्तों की भाति सुपुजित हँ---
इस सस्कृति के द्वारा की गई ईश्वर के चरणों को वहदता ऐसो सुखदाई
श्रौर सिद्धि फो देते वाली हुई--


न्नवौं श्री हरि पद सुखदाई ।
जाकी कृपा पगु गिरि लघ॑, श्रधरे को सबकुछ दरसाई ।
घहिरो सुने ग्ग पुलि बोले, रक चलै छिर छात्न भराई ॥


मनुष्य ने जह्ाय आपस में विभेद डाला था, घही ईर्वर के चरणो की
करुणा उहे मिलाने वाली सुधा पिद् हुई ।


१६
आश्रम-विषयक योगचेम


ऋषि-सघ के साथ विचरते हुए महूषि अगिरा एक बार महर्षि भूग्ु
के भ्राश्नम मे पधारे । ययोचित कुशल प्रश्न शौर मधुपर्कादि सत्कार-कर्मों
के अमृत्तर सुखपूवक प्राड मुखासीन भगवान्‌ अगिरा ले अन्तेवासी ऋषि-
कुमारों के मध्य मे विराजमान परावरज्ञ भुग महर्षि को सम्बोधत करते हुए
उनकी सर्वतोमुखी कुदल जानमे के लिए इस प्रकार कहना अारम्भ्॒ किया---

“है बेदी मे प्रग्नएी विप्रवर | प्रचेता श्रादि सुनियों के रा!थ पुराकाल मे
आपने से रु-शिखर पर कठोर तप किया था। झाज श्रापके पुण्य-दशन से
हमारे झन्त करण को परम भ्रानन्द हुआ है। भापके प्रवदात संप की महिमा
जिलोकी मे किसे अविदित है ? वाक्‌ काथ-मन से सवदा सम्भृत प्लापके
त्रिविध तप में कोई ग्रत्तराय तो नही होता ” कान्-चक्र के सपक से उसकी
अक्षाय्यता भे बाघा तो नहीं पढ़ती ? श्रापकी समाधि में सनातन ब्रह्म का
प्रत्यक्ष तो भिरतर होता रहता है ” तम से भ्रतीत, परोरजा, आदित्य पुरुष
की उपासना तो भ्रापके यहा नियमपूर्वक होती है ” भ्रूति महूती सरस्वती के


१४८ कल्पवृकष


। गयक्ष करो में तो श्रापका मन एकांग्र होता है ” जिस ऋतम्भरा प्रज्ञा से
आप जिनांकी का साक्षात्कोर करते हू, उसकी दिव्य ज्योति पर कभी
तमिल्ना फा झ्राकमण तो नही होता ? अपरिमित थम से शाराधित ग्रापके
त्रयी-ज्ञान से झ्ाथम के अस्तेयासी तो तित्य लाभान्षित होते रहते हूँ ”
श्रुतियों के भगन्त पारावार में दिव्य नौका के सभान परते हुए शापके दुढ
मल वा झाश्रम पाकर ब्रह्मचारी ती नियम से कल्याण को साधन करते हूं
आश्रम मे श्रतियों का घोष तो तिरत्तर सुना जाता है ”
सरस्वती के तीर पर विघधरने थाली ग्रापकी कामदुघा गौए तो सब
प्रकार कुशल से ह ? ब्ह्मचारी श्रद्धा के साथ गौशभ्ो की शुभ्रूपा करते हैं या
नही ? सवा गाव शुत्षमों विध्वधायस ' भ्रादि भच्चों पर वे पिचार करते
हैं या नही? महाप जमदग्नि के प्रस्यात त्रिष्दुपो' वे झर्थो का ब्रह्म चारियों को
स्फ्रण होता है या नही ” प्प्तसाम श्र सप्त उत्दोम॑ वाक का सपुदी रण करते
वाली गौ को ते जातते हुं पा नही ” झुद्रो की माता, वसुभो की दुहिता और
आवित्यों की स्वसा गौ की वे प्रसन्न मन से आराधना करते हूं या नही * क्या
ब्रमृत की मार्भि भ्रदिति तामक गौ के स्वछप से वे परिचित हैं? इस विराद
गीदोहन के मम से बया वे भ्रभिज्ञ है बाक प्राण भन और घेनु ऋषभ-वत्स
के रहस्यों पर कया कभी वे सिलकर विचार करते हूं” महधियों से व्योध्यात
सहिताझी के मम को वे जानेने का प्रमत्त करते हैं या नहीं ? श्लापके यहा
स्वृस्तिमयी अ्रमृतदोहा पैनुए वत्सों को प्रेमपूर्वक चाटती हैँ या मही ? क्‍या
आपके अन्तेवासी भारत माता प्राण पुत्र ' की भ्रध्यात्म-परिभाषाश्रो कौ
यथावत्‌ जानते हैं ?


'माता झागणा बुहिता वचुनां स्वततावित्यानाभमृतस्थ नाभि । प्रंत
ब्ोच चिकितु्ें ज्ताय भा गामनागामिति वधिष्ठ ॥ ्रोविद था
मुवीरयन्तीं विश्वाभिर्ष भिरपंतिव्ठमानाम्‌ । देवी वेबेभ्य पर्थेगुद्दी शामा
मा वक्‍त सत्यी दक्षचेता ॥)

एक सुपर्ण ससमुद्रभाविधेश प्र दव विद्रव भुवत विचष्टे। ते पाकेस
म्नता।पढ़य सन्ति तस्त भातारेहिलुत उ रेहिल भातरस ॥।

एतरेप प्रारंण्यक ३३१।६, तथा फ््पेद १०११४४


ग्राश्नस-धिषपक योगक्षेस १४९


सरस्वती के जत में खड़े होकर आपके ब्रह्मतारी पवित्र
झधघमर्धण' सूवतों का जप करते हैं या नहीं ” अचे स्वर से मिल
कर बे दुद्धवती' कचाग्रों को गाते हूं या नहीं ” क्या भ्रस्मवाभीय
और नासदी्य सूकतो का गान करने बाल़े ब्रह्मचारियों का सघ प्रापफे
यहा है ? तरत्समन्दीय' भ्रौर ह॒विष्पान्तीया ऋतागो के पारायण मे
१ भी उनकी स्पर्शा होती है या रही ? झ्िव तकहप सृक्‍तों' के विभश से वे
मन के तेजको प्राप्त करते हू या मही ? 'कुवित्सों मत्या पामित्ति” के समान
उनके चित्त म तित्य उत्साह का स्फुरण होता हु था नही ” श्रात्तोकित मन
ते ये निः्य सूयोपस्थान करते हैं या नही ? आपके यहा सेतूस्तर' साम को
गाम करने वाले ब्रह्म चा री कितने हैँ ” बया वे दान मे भ्रदात, अ्रक्रोव से क्रोध,
सत्य से झनुत झौर भ्रद्धा से भ्रश्नद्धां' को जीतने की इच्छा रखते हैं ।
बया वे चार दुस्तर सेतुओ को पार कर के अमृत और ज्योति तक पहुत्रने की
झभिलापा करते है ”/ उसमें से कितनों के गन मे आदित्य वण-पुरुष का


शत ब्न सत्य श्रादि---ऋ० १०॥१६।१--३॥ जुदवती
ऋचाए--ऋ० ६६९५७, 5, ६। एतोन्विस स्तवाम शुद्ध शुद्धेन सास्ता ।
शुद्ध रुकथेर्वा ब॒धास शुद्ध प्राशीर्वाप्ममततु ॥७॥ इस बुझ्ो ने श्रा गह शुद्ध
शुद्धाभिरूतिप्ि । शुद्षो राय निधारप शुद्धो मसद्धि सौम्य ॥5॥ इच्शुद्धों हि
नो रयि जुद्घो रत्तानि दाशुषे । शुद्धो बूधाणि जिध्नसे शुट्ो बाज स्िषाससि।8।

अस्यवामीयष सुवत---ऋ० १॥१६४/९---४५९। . नासबौय
सकत--ऋ० १०११९) १--७ | तरत्समन्दी धाबत्ति आ्रावि --ऋ०
8 ४८१--४॥. हविध्यास्तीय सुक्त--क० १०प८)१--१६।

“शिवसकतल्प सूक्‍त जिसके ऋषि का नाम भी शिवसंकल्प है--यछु ९
है४।१--६॥ इतिता इति मे मत श्रावि झ्ात्मस्तुति परक सुकत--कऋ०७
१०११९/१--६१३॥ . सामवेद यूर्वाचिक अपाठक्ष ६, देशति १०,
सत्र ६-- अ्रहमस्मि प्रथम जा ऋतस्प पु्व वेवें*यों प्रमतत्य लाभ ।
यो भा ददाति स इदेव धाववहु मच्त संस्त मदत्स सद्ि । | दातेतादानम्‌ ।
प्रकोषेन कोध । संत्येनानतस्‌ । अद्धपाभ्रद्धाम्‌ ।

“एष्राग्रति । एतवमुतम॥ स्वगच्छ। ज्योतिर्गष्छ। सेत्स्तीर््वा चतर ।


5५० कह्पब॒क्ष


साक्षाप्कार करने की इच्छा जागरूक हुई है ? बया वे जानते हैं---किस
प्रकार मह॒पि लोग उप्र प्रत्न-रेत की देदीप्यमाव ज्योति को, जो द्यूलोक से
परे है, देख लेते हुँ ? पावमानी' क््वाओं मे ऋषियों ते जिस रस का सचय
किया है, उसका भ्रध्ययत करत वाले ब्रह्मचारी आपके यहा किस फल
शी आशा करते हैं ?

क्या भ्रापके अन्तेवासी ऋषि सघो मे अ्ध्यात्म-अवादो का श्रवण करते
हें ? ब्रह्मोध बर्चाशो में तो उसका मन लगता है ? 'स श्रुतेन गे महि, भा
शतेत विराधिधि' के सिद्धा त को पर+-प्रदीप बना कर वे सम्यक ्राचार का
ग्रहण करते हू या नहीं ” श्रुति की दुधपता के सामने उतका मूर्धावपततन तो
नही होमे लगता ” भरद्वाज के सदुश तीन जन्म पयत वेदाध्ययन करते
रहुने की निष्ठा से कितने बहचारी ब्रतवाम बच्ते है ? क्‍या 'झ्रन्न/त्ता व बेंदा
का भर्म जानने के लिए वे कभी श्ोत्रियों के चरणों में समित्पाणि होकर
प्रभम करते हूं ” क्या कभी 'को झडद्धा बेद क्ष इहे प्रवोषत्‌' की व्यण्जता पर
भी उहोंने विचार किया हैं ? 'फस्स देवाय हुविषा विधेम' के अभिरवत
भावों को श्रात्मसातु करने की चेष्टा वे करते हूं या नहीं ” एक सह्ठिभ्रा
बहुधा वदत्ति' तथा 'एक एवागितिबज्ुभा समिद्ध ' के 'बहुधा' पद पर वे यथाथ
विचार करते है या नही ? प्रजापति के उभयविध रूपो की मीमासा पापके
शाश्रम में किस प्रकार होती है ? भ्रतिरवत और प्रपरिसित का निशक्‍त
और परिमित से यथावत्‌ विवेक वे कर सकते हैं या नही ? देव भरसुरो की
ग्राख्यान सयुक्त ऋचागों को वेखकर उन्हें कभी भ्रम तो नहीं हो जाता ”?
आरार्प क्षेत्री को सपरिज्ञात करने में वे खेद का भनुभव तो नही करते ?
'रीक्ष प्रिया बे देवा प्रत्यक्षद्विन ' इस मामिक सत्य को जान कर ने तत्त्व
का भ्रवेषण करते हूँ गा भही ?

पके प्राश्रम मे वित्तने ब्रह्मचारी ऐसे हैं जिन्होने प्राण को महिमा


'झाविश्नत्तस्प रेतसतो प्रयोतिष्पक्ष्यत्ति बासरभ । परो बरदिध्यतें
दिया ॥ऋ० ८१६। ३॥

गाव सानाएों अ्रध्येत्यूषिति सम्मत रसम) तस्मे सरस्वती इहै क्षौर
पसपिम धदकम्‌ । क्र ० ६॥६७।३९॥


भ्राभ्नस-विष्यक्त योगक्षेम १५१


जानने के लिए एक सप्ताह का व्रत किया है ? प्राण-विद्या के सू्म रहस्यों को
जानने के लिए कितनों ने दो सप्ताह के शत का अनुष्ठान किया है / प्राण
और भ्रन्त के सूक्ष्म सम्पन्ध पर ये ध्यात देते है या नहीं ? पुरुष शरीर मे जो
रेत-हूप आज्य है, उसकी निर्मेलता का सम्पादत करने के धिए शापके शिष्य
प्राणयाम और योग-विधि की उपापता तो नियम से करते है ? रेत ही प्राण
की प्रतिष्दा है, इसकों वे जानते हू या नही ” इस शरीर में श्रष्ट्वक्त और
नव-इच्धिण हार हूं, इसकी शुद्धि भौर सयभ पर तो विशेष थ्यान देते हैं ”
देबी बोणा, एवी ताव,दैवी सभा, देदी संसद, देव+रथ,क्षेत भा दि इसी मनुष्य-
शरीर की जो सन्ञाएं ऋषियों ने बताई है, उनपर उसी प्रकार श्ापके
ब्रह्मचारी विचार करते हैं या तही ? इनके सागोपाग झुपको को समझने में
उ है मोह तो नही होता ? ारीर की ग्रध्यात्म परिभाषाग्रों का विधिपुर्वक
वे मनत करते हैं या नही ? 'पुरंषविधों वे पञ्ष ' यह ऋषि तम्मत सिद्धात है,
इसका ज्ञान ब्रह्मचारियों को है या नही * वया वे जानते हूं कि मस्तक हीं
वह पुरोढाद है, जिसके परिपक्व भ्रौर परक्षत करने के लिए मनुष्य-प्ीवत
का जरामय सप्र वितत है ? मेरुदण्ड श्ौर यशीय यूप की समानता का ए हे
ज्ञान है था नही ” शिर और द्रोणकलश के रूपक को पे सब समभते हैं. ”
मस्तिष्क की देवकोश सज्ञा से वे परिचित हैं या बही ” कौन से देवो के निवास
के कारण इसको ऋषियों ने देवकोश' कहा है, इसको सी क्या भ्रापके शिष्म
जानते हैं ” इस शरीर-रूपी देवपुरी मे शिर ही ज्योति से झावत स्वगलोक
है, जहा श्रमुतत्व रहता है---इस भहृत्त्वपृर्ण ्रथ पर भापके झाश्रग भे कभी
विचार हुआ है या तहीं ? स्वग मे भ्रमृत को घट है श्रौर इस मस्तिष्क मे
प्रभुत-ज्योति या देवो का निवास' है, इत कह्पतामो के मर्स को ऐसा तो
नही कि आपके ब्रह्म चारी न जानते हो ! ऊध्वयुध्त भ्र्थात्‌ ऊपर को जिसकी
पेदी है, भौर भ्रवा गिल, भर्धात्‌, जी श्रोधा ढका हुआ है, ऐसे क्षिर-हूपी चमस
को प्रजापति त्वप्टा मे किस प्रकार बनाया भ्रौर क्यों ऋभु देवताग्रो ने उस
एक चमस को चतुर्भा विभवत किया--यहू रहरय भ्रापके शिष्यो को अविदित
सो तही है ” भस्तिष्क रूपी चमस की चार वापियों मे जो रेत़-कृंप प्ोम भरा
हुआ है, उसके स्रोत, प््चय ध्रौर पवितीकरश की कियाओ्रों को पवभान
सोम के भृकतो के अ्रध्ययत के साथ ही भ्रापके शिष्य जान लेते हैं या नही ?


१४२ कत्पवृक्ष


कही ऐसा तो नही कि बेद के मण्यों का स्वाध्याय करते हुए उनके प्रध्याप्म
तत्वो पर विचार न करते हो ” स॒प्त शीपराय प्राण ही बरीर में प्रतिहित
सर्प्तपिहँ, प्राणापान हो इ ह के दा अ्व्व या भविवनी है! जिनसे यह देवरथ
गतिशील होता है, पाण ही अमृत और शरीर मत्य है--इसकों जानकर वे
मच्तों के रशस्प को अधिगत करते हु या मही” मण्जा, भ्रस्यि, स्तायु, मास,
मद, असुक्‌ इत छ मत्य चितिया का उनको ज्ञान है गा नही ? क्‍या वे जानते
हूं किह्रीर मे थे' छ पुरीषचिति भ्रर्थात्‌ कच्ची वितिया हू ? इनके साथ
मिलगे वाली छ अमृतत्त चितिया इष्टकार्नचितियों को वे जागते हैं या नही *
प्राण, भ्पान, व्यान, उदास, क्षमात, वाक--इस छ प्रकार के झमृतो का
उनको बोध है या नही, जो मत्य चितियों के साथ मित्र फर इस शरीर को
प्राण युक्त एवं झ्मृतमय बनाते हूं? यजमान इनसे झजर-प्रमर बन सकता
है--इसको बिना जाने ग्रापके शिष्य यज्ञ क्रियाओं में तो सम्मिलित नही हो
जाते? प्राण भौर अपाम ही प्रयाज शौीर प्रतुभा ज ताम के यज्ञाग हुं, प्राणकी
उपनिपद्िद्या का प्रध्ययन करते हुए इसको वे जान लेते है था नही ” गाई-
पत्य, दक्षिणारित और आाहुबनी य-रूप झख्निवेता के जिन आध्यात्मिक प्र्थों
का ऋषियों ते व्यास्यात किया है, उनका श्रापके बहा भी ध्याज्यान होता
है या नही ! शिर ही म्ाहवनीय है, इंसी को चितेमिधेत या प्रमृत-अरिनि भी
बाहते है तथा शरीर का ग्र्वाचीस भाग मंत्य एवं चित्यरिनि कहा गया है---
इस प्रकार के ज्ञान से श्रापके यहां प्राणारियों की उपासना होती हैं था
नही । इस शरीर मे भरा हुआ जो रक्त है, उस' रस-हूप सोम के श्रधि-
श्रवण था पाक से उत्तरोत्तर णुद्ध गौर कह्याएण व रेत-रूप सोम का
ग्रभिषव होता रहता है, वह सोम गोर्पवि वननस्पति-झूप १शियां की शाखा-
प्रशाखाओशों को किस प्रकार स्वस्थ भौर विदग्भ बनाता है, फिर किक्ष प्रकार
मस्तिष्क रूप स्वग मे सच्ित होकर बहा के ज्ञान-कोपो को बहु पुष्ठ भर
ऊणित बनाता है, इस मम को समझते में आपके अन्तेवासी पर्याप्त कुशलता
का परिचय देते हुए किसी से पीछे तो नही रहुते ” सोम का पात' ही ब्रह्म॒चय
की क्षाथता है, यही क्ोम-नयाग भमतत्व का दहेतु है, इस प्रकार के ज्ञान से
ब्रह्मचारी अ्रध्याप्त सोम घांग करते हुए 'सोममहुत्ति व वी परिभाषा के
ग्रनुसार सोम्य सज्ञा को चरितार्थ तो करते हूं ” उचित उपवास के हारा


ग्राथम-विषधक पोगलक्षेम १५१


बलतान्‌ बनी हुई जो प्राशारित शरीरश्व सोम को तिमल बनाती है एव
सुवर्श के समान उसके मलो को दरध कर देती है, उच्च भ्राणारिति की उपासना!
के निगित्त श्राप ब्रह्मचारियों के लिए व्तो का विधान करते रहते हैं या नही ?
प्राणछूपी ततपा भ्रग्ति ही शरीर की ऊनता एवं दुरितों का क्षय कर के
उसे ब्ररिष्ट बनाती है, वही भ्रायु और बचरा का सवधत करती है, इस
प्रकार श्रद्धा के धाथ आपके ग्राश्रम मे बाह्य मुहते के त्मव सब ब्रह्म॑चारी
मिलकर तनूपा भस्नों का गान करते हूं या तही ”

फोम कौर बाज शब्दों के भ्रगों का तो आपके महा पुत्र -पुत विवार
होता रहता है ? प्राण भौर भ्रमृत की पर्यामाथता तो सबकों विदित है *
सोम-पात भौर वाजपेय की कल्पने! तो ब्रह्मचा रियो के मन मे दृढ है” वाज
का पात करके भरदहाज बनने वाले शिष्यों को तो ग्राप उचित रीति से
राम्भामित करते रहते हूं ? बाज का क्षय कर के ध्यवन प्रवृत्ति से ग्रसित तो'
श्रापके यहा कोई नही है ” यदि प्रमाद-वद्ात्‌ कही पर क्षप्रिष्णु ज्यवत्त धर्म
का उदय हो भी जाता है, तो ऐसा तो नही है कि उप्तका प्रतीकार न।किया
जाता हो ? जीण च्यवन' को पुन वाज सम्पन्न करने घाली' देवी भिषके
प्रशापान हूं, इन भ्रश्विती कुमा रो को चिकित्सा ही योग विधि है, इस प्रकार
सतातती योग-विद्या के मम को तो सब अन्तेवासी जातते हूँ ” हे ऋषिब 'र,
प्राए-विश्या प्रत्यःत गृढ है, प्रणों से ही सृष्टि का विकास होता है, ऋषि-
समक श्ाण ही असत्‌ रूप में यृष्ठि यो पृ में वत्तपान रहते हैं। उनमे मुटय'
प्राण दा साम ही इन्द्र है। क्योकि इस्दियों के मध्य में यही प्रज्वलित होता है,
प्राण ही एक है, प्राण ही महावीर, एकवीर, दक्ष वी र॒ आदि अरास्य नामो
से विर्यात है, प्राण ही शरीर तामक मृत्पिड को श्रचपीय बनाता है ।
प्राणु-एपी अंक की रश्मियो से सवत्र प्रकाश का अनुभव होता है,ऐसे वरिष्ठ,
श्रेष्ठ, भोजिष्ठ, महिष्ठ देव की उत्पत्ति, भार्यात, स्थात, पचधा विभुक्त
शौर भ्रध्यात्म को जानता महा कठित है । उसके बिना जाने अ्मृतत्व की
प्राप्ति उसी प्रकार भ्रसम्भ्रव है, जिस प्रकार चभड़े के समान झ्ाकाद को
नपेटकर उसका वेष्दन बना लेगा । है महवें | इस प्रकार थी सब विद्या
प्रतिष्ठा प्राश-विद्या फो जानते के लिए इस चरणा के ब्रह्म चारी भ्रहुनिश
प्रयत्व करते हैँ गा नही ? प्राण ही सब श्रगी का रस होनेसे श्रगिरक्त कहा


३४४ फश्पवृक्ष


जाता है, उसके प्रभाव मे जीवन शुष्क पृण के समान नी रस हो जाता है।
इस परोक्ष निरुक्‍्त पर ध्यान वेक्र जीवन के सभी भ्गो मे प्राण से विरहित
तो कोई किया प्राय नहीं करते ? 'प्राणाप नसो सस्य सब मिद बच्चे झादि
प्राण सृक्‍त का पारायण तो प्रापक्ती परिषदयों में होता है ? इसी प्रकार
क्रह्मचय-सूकत, स्कम्भ-सूकता भर केनपार््णी सृक्‍तों को भी जब आपके
शिष्य गाते हूं, तब सब उ'हे ध्यानपुवक सुनते हैं! या नहीं ” है सोम्य,
तुम सीपणोपाश्यान का वणन करो, तथा हैँ वाजश्रवा, तुम शौन झष
उपाह्याव में ऋषि-पुत्र शुत शेप का यश-गात करो, इस प्रकार का श्रादेश
भी श्राप अपने ब्रह्मचारियों को बहुधा देते रहते हैँ या नही ” “इष्णन्‌
हषाण, भ्रमु मं हृषाण, सर्व जोक में इृधाण इस प्रकार की विराट प्रायना
को प्रात काज जब ब्रह्मचारी सध में कहते हैं, तब उसका वसा प्रभाव
शहुता है ” एवा मे प्राण सा बिे के ताद से शाश्रम का वायुमण्डल
सित्य गृजायमान होता है या नहीं

श्रापके ब्रह्मचारी प्रासादों के मोह मे पडकर कुटियों को तो नहीं भूल
जाते ? अरण्य-जीवन से तो उन्हे प्रेम है ” ग्रिरियों के उप्र भौर भदियी
के सगमो पर पिध्य बुद्धि की उपासना तो वे करते हूं ? गिरि कर्दराए भ्ौर
नंदी-संगम दोनों ग्रावि-प्रल्त के सुचक है, इनपर जो ध्यान करते हैं वे दी
विप्र पदवी को पाते ह-श्स प्रकार के भ्रध्यात्म-प्रथों १९ कितने ब्रह्म चारी'
अपनी सुक्ष्म दृष्टि ले जाते हूं ? है वरेण्य मुतिवर, कुटी' से प्रेम करता भ्रमर
ज़ीवत का लक्षण है, इसका दृढ सरकार आपके भ्रस्तेवास्तियों के मत पर होता
चाहिए । प्राकाश, तेज भौर वायु का स्वच्छन्द प्रचार जहा होता है, वहा
धरुण-पाश नही फैलने पाते । भापके शिष्यों के तिवास-ध्थामों में तो भहा-
भूतों का तिर्बाधि प्रवेश होता है * वे खुली वायु में भरपुर सास लेते हूँ या
नहीं ” स्वच्छन्द सूर्य-प्रकाश में नीले आकाश के नीचे स्वाभाविषा जीवन का
तो वे श्वागत करते है ? दक्षता का सक्राण तो उनके चित्त में नही होता ?
हृदय की क्षुद्रता मे भ्रमृतत्व' कहा रहू सकता है” कही सकीर्ण तमसावत
प्रदेश तो हृदय-गुहा में वे नहीं बना लेते ? प्रसश्ननित्तता से उदासीनता को
तो वे परास्त करते है ? हृदय-गद्धरों वी प्रन्धकार को हँसकर वे दूर कर
झकते है था नही ? भ्रत्त दकिति को प्रकट करते वाली प्रसन्नता उनके भुख


झप्म्रम-विषरर्क योगक्षेत १


पर चमकती है या नही ? आपके प्राश्मम मे श्रश्वत्य भ्रौर न्यप्रोधादि महापुक्ष
तो विशाल स्कन्ध गौर शाखा-प्रदालामो के साथ फैलते हैं? उत्तकी तियक-
प्रसारिणी शाखाएं, निम्नावलम्बिनी जदाएं पृथिवी यर भ्राकर फिर पादप
जैसी प्रतीत होती हैं या वही? उनके पुराण कोठरों में दिगिएन्त से भ्रा*
फर यक्षी सुख-पूजक तिबास भौर कन्नरव करते हैं या तहीं / छात्रादार व
बुभो की छाया में सरस्वती के पुष्य-तीर पर बह्म चारी ध्पने लिए तथा
ग्रभ्यागत मुतियों के लिए स्थण्हिल समेत पर्ण-कुटी की रचना में उत्साह
प्रदर्शित करते हू या नही ? अदवत्य और न्यप्रोधों को देखकर श्रापके ब्ह्म-
चआारियों को ससा र-बिठप का ध्यान प्राता है या नहीं ? जिस प्रतादि वृक्ष का
शब्यय कालचक्ष के साथ श्रपरिमित विस्तार होता है, यो श्रव्यवत' मूल
बाला है, जिसमे भ्रतेक् पण भ्रौर बहुत से पुष्प हैं, जिसके स्वादु प्प्पली फल्न
को चलते वाले मध्वद सुपर्णों का श्रुतियों में बणन हैं तथा भूत, भ्रविष्य भरोर
बतुमान जिसमे रण का सिंचम करके जिसे तित्य पललवित करते हैं, ऐसे
पत्तार-विठ्प का ध्यान अ्रृश्वत्यथ और न्यग्रोधो की उपमा से आपके ब्रह्म-
नारियों के मत में भ्राता है गा नहीं ? इस प्रकार के सकेत जितके मंत्र मे
प्रचेश नही करते, मृत्यु के पा बहा अपना घेरा डालने लगते हैं, इसलिए
आपके यहा बिराद एवं भ्रधिदेव अर्था पर पर्याप्त ध्यात' विया जाता हैं
या नहीं ? घुलोक और पृथ्वी, सूब सौर चन्द्र, रात्रि श्ौर दिन, परवत
झौर गिरि-निर्कर इसके दर्शत से भ्रापके ज्िष्यो के ज्ित्त भ्रफुह्लित होते
मै या नही *

आपके भ्रह्मारी दर्भ श्ौर स्रिधाशो का सभ्य करने के लिए बल में
दूर दूर तक जाते है या नही ? दर्भपविन्नपाणि ही कर जज्ो के समीप वे नित्म
प्रात -ताय सन्ध्यौपासन करते हूं या नद्ठी ? कुशाशो का प्राणी से जो सम्बन्ध
है, उसका उन्हे ज्ञान सौपशकश्पान के सुनने से हुआ है या! भही ? क्या आपके
गहा प्राणापान के प्रतिनिधि स्वरूप यज्ञ से दो पवित्री का भ्रहण किया जाता
है” वया प्राणमय कोष को उपलक्षित कर के बहिरास्तरण किया जाता है
प्राणो की रक्षा के लिए ब्रह्मचारी दक्षमय भ्रासम उपयोग में लाते हैं या
नही ? श्रद्धा की पुत्री तप से उलन्न हुई ऋषियों की स्वसा के श्रथ को
से जानते हैं ” तप, मेघा, दीर्पायु प्रौर इन्द्रिय-्बल जित प्राणी के स्वाए८7


१५६ कर पवृक्ष


पर निर्भर है, उनकी निमतता का सम्पादत करने वाली गेखला को के
कटिय्प्रदेश मे धारण करते हुंया नही ” शीतोष्ण को पहने का उ हे
ग्रभ्यास है या नहीं ” शीत ऋतु म जेल सेवन के द्वारा तप का प्रवबतत
करने की ग्रथा भ्रापके यहा हैं या नहीं ”

समय परम पर शआाने वाले पृजाहु भ्रतिथियों की सधुपक के द्वारा शापके
यहा पृजा होती हैं था तही ” ऋषियो ने कहा है कि दधि इस लोक का, पघुत्
गत्तरिक्ष का और मधु धुलोक का रूप है, इस भ्रथ को जान वर प्रापके
यहा मश्नपक तैयार किया जाता है या बही ? शापके अस्तेवासी स्वायस्भ
प्रजापति के साथ प्रारम्भ होते बाले बश को शअस्माभिरधीतम' की अवधि
तक स्मरण रखते हूं या तही ” विद्या सम्ब भर से वितत होने वाले वश वस्तु
को वे भ्रपने द्वारा उच्छिन्ष तो नही होने देते ” मह॒षियों की परम्परा का सूच
हमारी प्रसावधारी से तो उत्पन्न नही हो जाता, इस प्रकार का पयवेक्षश वें
करते हु या नही ? ब्रह्म चारी की प्रायु के कोत से भाग को मृत्यु भ्राकान्त कर
लेती है, प्रजापति ने क्यो ब्रह्मचारी मे मृत्यु को पहले भाग नही दिया, श्रौर
फिर कित्त प्रभाव का निर्देश कर के मृत्यु को उससे भी भागदेय दे दिय[--
इसको बयां आपने भ्रस्तेवासी भली प्रकार जानते हैँ ? ऐसा तो नहीं कि
बे प्रभाद के वशी भूत हो जाते हो, क्योकि सनत्कुमारादि महपियो ने प्रमाद को
ही गृत्यू का रूप माता है ? सन(&कुमारादि से छ्षुण्णु पद्धति पर चलने के लिए
आपके अन्तेबासी कृतोत्साह होते हूं या नही ? पुरा काल में कितने सहृद्े
कुमार ब्रह्मनारी विप्र नत्ठिक व्रत की दीक्षा लेकर चुलोक से भी परे चले
गये, इसकों जानकर वे अनत्यभाव से स्वाध्याय मे कालध्यापन करते हु
या नहीं । ऊध्वरेता ऋषियों का माय ही देवयान है, यही उत्तरायण-पथ
है, ऐसा जानकार दो सुतियों मे किस से सत का भ्रवलम्थत करने के लिए
गापके भ्रह्मचारी उत्सुक रहते हैं * प्रापके अन्तैव/सियों के दरीरो में दक्षिण
से उत्तर को बहतेवाज़ा मतरिद्व। वायु पाया जाता हैं था चही ? क्योकि
गृद् मातरिदवा प्राण के बिता कोई भी ऊध्वरेता नहीं बस सकता ।

प्रापके शिष्यो के शरीर मे जो शुक्र रूप झ्ाप हु, उसमें काम' अबवबा
क्रोध के झूप में कभी उष्णता ता उत्पल्त नही होती ? ऋषियों ते कहा है कि
गम जल को सदा यज्ञ से बहिंगेत रखता ही उचित है, हस प्रकार 'हृतदभहु


शाशम-«-विषयक्त पोगक्षेत्त १५७


तप्त बाबहिर्दा मज्ञात्ति सुजासि' के श्रथ को आपके शिष्य जानते हैं या
"ही ” भाप भी सब प्रकार इस उप्णता से उनको रक्षा करते हूं या नही,
जिससे उनके भायुयज्ञ के प्रातः सवत, भाध्यन्दित सवन भौर साथ शवन'
में उसु-रत्र भ्रावित्यों की प्रतिष्ठा भरनुत्कान्त बनी रहे ? है ऋषिप्रवर | यह
रहस्य प्रत्यत यूढ है, इस पुरुष यज्ञ की रक्षा वसु-काल मे महान्‌ यत्त से
बारनी बाहिए | इस तत्त्व की मीमासा वह वृच जाग मह॒दुक्थ के हारा झौर
अध्यर्य इष्टका-चयन से निष्पादित अग्नि को समिद्ध करते समय किया
करते हैं, इभी ब्रह्मचग तत्व पर उन्दोगशासाध्यायी महात्रत' के समय सुक्षण
मीमासा करते ह ? प्रजजरेत की रक्षा के लिए ब्रह्मचारी वृद्ठ सकल्पवान्‌
भन का झरीरो में भरणु करते हूं या मही ? इग रेत को ऋषियो ते ब्रह्मौदत'
कहा है, बया आपके ब्रह्म वा री इस शोदतल को पकाते हूं ? क्या वे जानते है
कि इस झोदन को तप के द्वारा प्रजापति ने क्िद्ध किया था ? क्या ने इस
सत्र के भ्रर्था पर ध्यानपूव॒क विधार करते हूँ---


वस्सात्‌ पक्वादमुत सम्बभूच
थो गायत््या प्रधिपतिवभूव ।

पस्मित्‌ देहा निहिता बिश्वरूपा-
स्तेरीदनेनातितराणि भृत्युम ॥


वया वे जातते हूं कि अ्रमृत का उपभोग करने फे लिए सब प्रकार के
बुरितों से बचना भ्रत्यावश्यक है ? दुर्वाव, दुष्ृति, पुर्हाद, दुभग, दुष्चित्त,
दुश्चरित श्रादि भ्रनेक दुरित हैं, पर इस सेबमे दु शस और दो स्वप्नय
अत्यधिक भयकर हैँ, इसरो बचसे के लिए श्रापके श्रह्मधारी शिवसकत्पों
के द्वारा सुशस सौ रवपन्‍्य का झाश्रय लेते है ? क्या वे 'पुतर्माभसियज्रियम!
का पाठ करते हैं ” ऋक यजु साम का अविष्ठान मन है, मत ही अमृत्त है,
मत से सी साप्तहीता यज्ञ का विधान होता है, ऐसे मन पर अधिकार पाने के
लिए दिव-हकल की भ्रपार महिमा को क्या आपके गलोवासी जानते हूं ?
स्वाशिस, सियिष्ट, यूतित, सुक्षति, सुकेतु, धुकतु, सुगीषा, सुचक्षेत्‌, सुचेतसू,
सुज्योति, सुतप, धुदक्ष, सुदेवता, सुदुशीकत्ता, सुद्विणुता, सुत्ती ति/“चुपथ,
सुपूर्त, धुभ्तीक, सुप्रवाचन, सुप्रीति, सुभद्रता, सौसतस, सुभित्र, सुयज्ञ,


श्श्८ करपवक्ष


सुरेत, गुवचस, सुवाफ, सुविज्ञान, सुवीर्य, सुब्रत, सुजम, सुशिष्द, सुशुम्णा,
सुहव, सुष्टरति प्रौर सोश्नवस श्रादि अनेक कल्याण के रूप हैं--इस सबकी
प्राप्ति शिव सकत्पों की सहायता से श्राश्रम' में होती है या तही ? देव-लोक
में जो मन-रूपी कल्पवक्ष है, उसकी दिव्य शक्तियों को पहचानना ही शिव-
सकत्पो की धिजय है, वया इस प्रकार की विजय म॑ श्रापके बहा चा शियो की
प्रचल श्रद्धा है ? स्वय भ्रत करण को प्रेरणा से तथा श्रद्धायुक्त मन से तप मे'
प्रवृत्त होना सब विधानो का एकसातन्र सार है, इसी को श्रुतियों ते सज्ञान कहा
है । इस प्रकार के सज्ञान का आपके ब्रह्मा रियों के मानस छपी रारोबर
में तित्य सफुरण होता है या नही ? बाक्‌-हुपी बेन के भमृत-क्षीर का पात
करने के लिए मन ही परम' वत्स कहा गया है, उस मंत्र को सम्मिलन
सात्विकी श्रद्मा से आपके यहा होता है या नहीं ”

है ऋषिवर, श्रद्धा जिसका मूज है, तप जिसका स्कन्ध है, स्वाध्याय,
दीक्षा, श्रम, दम, श्रादि कम जिसके अतेक पण हूं, और प्रमृतत्व जिसका
मधुर फल है--ऐसा यह ग्राश्षस-एपी महावक्ष श्राप जैसे ब्ध्यक्ष को पाफ़र
तित्य नये प्रकार से सवधतशील तो है ” श्रुतिया जिम्नकी मूल हैं, आचाय
जिसका स्कत् है, भ्र तेवासी-अहा चारी जिसकी शाखा-प्रशाजाए हैं, श्राचार
जिसके बहुपण हूं तथा भ्रभ्युदय और नि श्रेयम जिसके अ्रनध्य सुन्दर फल
हैं--ऐसा यह झाश्रम-रूपी विपुल प्रएवत्थ सबदा स्वस्ति का भाजन होता
रहता है या नही ?

प्रशिरा ऋषि के उक्त प्रकार के कल्पाणकारी प्रश्नों को सुनकर सन्न
ऋषि-समाण को प्रतिशय गझानन्द हुआ और अन्‍्तेवासियों के साथ अपने
मापको परम पत्य मानते हुए भूगु ऋषि ने श्रति न म्रभाव से कहा--' है
सकल श्रत्तियों मे पारगत महर्ष | श्रापकी भमृत-वरपिणी बाक कल्याण
चाहने वाले मनुष्यों के लिए साक्षात्‌ कामघेतु के समान है। यद्यपि श्राप
जैसे महासुनियों का पुण्य-दशन' ही सब प्रकार की कुशल का विधात' करने
धाला है, तथापि आपने भ्रत्यस्त कृपा क रके ज्ञान-विज्ञान स॑ मी प्रनेक प्रहनों के
द्वारा जिन दुल्लभ प्रथों का प्रकाश किया है, उनके अनुसार हो भविष्य भे हुए
श्रष्टि5क्ती सरस्वती के तीर पर अपने योग-क्षेम का सवर्द्धन फरते रहेंगे ।
इस प्रकार समनस्कता के भझाथ वह ऋषि संसद सुखपुवक विसजित हुई +


प्रध्यात्म-मत्तोधाफ्‌ १५६


२० .
अध्यात्म-नमोबाक्‌


देव' के लिए प्रशामानलि ग्रध्यात्म का सर्वोत्तम लक्षण है। सृष्टिकर्ता
के भ्रगम्य रहस्थ के प्रति कृतज्ञता से भरा हुआ मन सवतोभाव से उसी को
अपनी तमोवाक्‌ समरपित करना चाहता है। अध्यात्म-भतृसव की कची
भूमिका में पहुचनने पर जिस नमौवा+ के लिए भनर छुलता है बहू इस सह में
प्रकट हुई है--
नम दाध्मवाय थे संयोभवाध शल॑
सभ दाकराय श्र समस्वकराय थे
नंसे शिवाय हे प्षिक्तराप व


इसमे छ ममस्कृति हूं। उनमें तीन युग्म हैं । इसमे क्या हैतु हैं, ग्रथ
वी गति किस और है, इसपर विचार करने से ऐस! ज्ञात होता है। शम्भ-
वाय-शकराय-शिवाय, ये नमोवाक्ू शराह्मा जगतू के लिए हैँ। भ्रधिभूत
शौर प्रशिदेव बाहरी जग्रतू हूं! बाह्य सृष्ठि में सब प्रकार का कल्याण,
कुशल, छ्षम! निवाश्त करे, यह पहला हृष्ट है। मंयोभवाय-मयरस्कराय
शिवत्तराय, ये दुसरे तीन नमोवाक्‌ भ्रध्यात्म के लिए हूं, भर्थात्‌ हमारे
प्पने क्षरीर मे सर्बदा शम्भव हो, यह उच्चतर भावना दूसरी समस्क्ृति
मेंहै।

दाम्भवाय और मयोसवाय, छकराय झौर मग्रस्कराध, शिवाय श्रौर
शिवतराय इनके जो त्तीत जोड़े हूं उनका भी घविद्ञेष लक्ष्य है। बाक्‌-प्राए-
मन इस बिक से हमारा श्रात्सस्वदृप प्म्पत्न हुआ है। वाक से तापपय स्पूल
पंचभुताहमा शरीर का है।

बाक्‌ या एब्द भ्राकान् का गुण है। भ्राकादशं पचभतो में सबसे प्रम्तिम
पौर सूक्ष्म है । उसी आकाश के गुण से शौर तबका प्रहण समझा जाता है।
यहा वैदिक परिभाषा है। व क ब्रर्थातृ स्थूल पचरभूता त्मक जे गत भौर शरीर
के! कथाएं शम्भवाय और मयोश्वाय की नमोवा रू से ६९८ है | धर मर
ग्र्थात जन्मसिद्ध स्थिति पर तिभर है ।


१६० धकरपवुक्ष


शरीर के भीतर प्राशामय कोष है । यह क्ियाश्ञात्रिंत का श्रविष्ठान
है । उसे शग्भव से थुक्त बनाने के लिए प्रवत्त होता है। शकराय' मे बाष्टरी
सामाजिक कर्मों के कत्याण की प्रार्यना है । मसस्कराय मे शरीर-सम्बन्धी
प्राण के कुझल भाव को प्रावना है। गही सयस या अध्यात्म श्रानत्द
का स्रोत है ।

शिवाय व शिवतराय का सम्बन्ध मन से है । बाहरी विध्य का मन
विश्वात्मक हीना चाहिए | उससे भी भ्धिक महृत्त्वपूण हमारा निजी मानस
श्रानन्द या ह्िवात्मक भाव है। विराट जगत मे फैना हुआ जा शिवात्मक
मत' है उसे प्रणाम है। हमारे भ्रभ्यन्तर का जो मनोदेबता हे वह्ठ और भी
के कल्पाणों से युवत्त होता चाहिए । बह शिवतर स्वरूप मे प्रणामा
जलि के शोड्य बनता है । ग़त का शिवतर स्वरूप उतना अधिक
बनता है जितगा अधिक वह स्थूल जड वस्तुओं भ भोगांत्मक देह और उसके
सुक्षी मे श्रावाद था कत्याण ते दूढकर शुद्ध चैतःय में रस प्राप्ति की भ्पथी
क्षमता बढाता है।

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